रात आठ बजे विमल सोकर उठा।

आंखें खुलने पर कमरे में और बाहर अंधेरा छाया पाकर वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ।

वह बारह तेरह घंटे लगातार सोया रहा था।

उस दिन रविवार था और रविवार को साधारणतया उसकी सेवाओं की जरूरत नहीं पड़ती थी इसलिए किसी ने उसे जगाया नहीं था।

वह कोठी में पहुंचा। मालूम हुआ कि लालाजी पत्नी के साथ क्लब चले गए थे।

वह किचन में पहुंचा, उसने थोड़ा बहुत खाना खाया और वहां से निकल आया।

उसके खाने के दौरान दोनों नौकर किचन में मौजूद थे। उनमें हल्की फुल्की दुनियादारी की बातें होती रहीं लेकिन डकैती का जिक्र किसी ने न किया। या तो डकैती की बात अभी तक खुली ही नहीं थी और या फिर वह उनके कानों तक नहीं पहुंची थी। बातचीत के दौरान विमल को ऐसा भी स्पष्ट संकेत मिला कि किसी को मालूम नहीं हुआ था कि पिछली रात वह कोठी पर नहीं था।

वह किचन से निकला और बाहर सड़क पर आ गया। वह कुछ क्षण वहां ठिठका खड़ा रहा और अपना अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश करता रहा। फिर उसने सिर को एक झटका दिया और लम्बे डग भरता आगे बढ़ा।

आगे के काम के लिए भारी सब्र और चतुराई की जरूरत थी।

उसने रिक्शा टांगे वालों से, पान की दुकान के पास खड़े कुछ खास तरह के लोगों से, शराब के ठेकों के सामने मौजूद लोगों से, छोटे मोटे रेस्टोरेंटों में आने वाले लोगों से पूछताछ करनी आरम्भ की कि क्या कोई मायाराम बावा उर्फ उस्तादजी को या हरनामसिंह गरेवाल को जानता था?

कहीं से कोई संतोषजनक जवाब न मिला।

या तो कोई जानता नहीं था और अगर जानता था तो किसी ने हामी न भरी।

लेकिन विमल निराश न हुआ। वह कोई चंद घंटों में हो जाने वाला काम नहीं था, अमृतसर कोई छोटी मोटी जगह नहीं थी इसलिए लम्बी पूछताछ करनी पड़ सकती थी। कई लोगों ने उसके प्रश्नों के उत्तर में साफ साफ अनभिज्ञता नहीं प्रकट की थी। उन्होंने जानना चाहा था कि वह वे प्रश्न क्यों पूछ रहा था जिसका उत्तर विमल ने हर बार टाल दिया।

एक आदमी ने कहा कि वह हरनामसिंह गरेवाल को जानता था लेकिन उसे उसका पता नहीं मालूम था। उसे यह तक नहीं मालूम था कि वह अमृतसर में रहता था या कहीं और। विमल को वह झूठ बोलता मालूम हुआ। शायद उस आदमी की निगाह में हरनामसिंह गरेवाल का जानकार होना भारी इज्जत की बात थी।

विमल वापिस अजीतनगर लौट आया।

अगले दिन उसका किसी और इलाके में पूछताछ करने का इरादा था।




अगले दिन के — सोमवार के — अखबार में डकैती की खबर अखबार के मुखपृष्ठ पर छपी। रविवार को दिन में किसी समय बैंक के सिक्योरिटी स्टाफ की निगाह बैंक और ट्रांसपोर्ट कम्पनी के गोदाम के बीच बने सीढ़ी के पुल पर पड़ी थी। फिर उन्हें बैंक की खुली खिड़की दिखायी दी थी जिसमें सीढ़ी का एक सिरा घुसा दिखायी दे रहा था।

उनके छक्के छूट गए थे।

फौरन वाल्ट चैक किया गया था।

वाल्ट लुट चुका था।

अखबार के अनुसार डकैती इतनी दक्षता के साथ डाली गयी थी कि सिक्योरिटी स्टाफ में से किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी। अगर दोनों इमारतों में पुल की तरह लगी सीढ़ी हट चुकी होती तो सोमवार सुबह बैंक खुलने तक उन्हें डकैती की खबर न लगती।

अखबार के अनुसार पंजाब के इतिहास में इतनी सनसनीखेज घटना कभी घटित नहीं हुई थी। अखबार में वाल्ट के भेदे हुए दरवाजे की, गलियारे में बिखरे गैस के सिलेंडरों की, उस खिड़की की जिसमें से डकैत भीतर आए थे, मेहता हाउस और बगल की ट्रांसपोर्ट कम्पनी की इमारत की तसवीरें छपी थीं। अखबार में यह भी छपा था कि घटनास्थल से बरामद डकैतों द्वारा छोड़ी किसी भी चीज पर उंगलियों के निशान नहीं मिले थे, सिवाय विस्की की एक खाली आधी बोतल के जिसके बारे में अभी यह निर्धारित नहीं हो सका था कि वह डकैतों द्वारा छोड़ी गयी थी या पहले से वहां पड़ी थी।

अखबार में अन्यत्र खासा के आगे हुए मोटर एक्सीडेंट की और वहीं किसी भारी गाड़ी द्वारा कुचली गयी दो लाशों की भी खबर थी। खड्डे में गिरी कार के करीब से बरामद लाश की या सड़क पर कुचली पड़ी दोनों लाशों में से किसी की अभी तक शिनाख्त नहीं हो पाई थी।

अखबार में उन तीनों घटनाओं में कोई आपसी सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया था।




सोमवार फिर विमल ने मायाराम और हरनामसिंह गरेवाल के बारे में पूछताछ का अभियान शुरू किया।

नतीजा कुछ न निकला।


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मंगलवार को मायाराम पटियाला पहुंचा।

रकम के साथ अमृतसर से वहां तक पहुंचना कोई हंसी खेल नहीं था लेकिन इन्तजाम क्योंकि उसने पहले से किया हुआ था इसलिये वह निर्विघ्न वहां पहुंच गया था।

इन्तजाम एक छोटे आकार का माल ढोने वाला बन्द टैम्पो था जिसके बाहर दोनों पहलुओं में ‘इण्डेन गैस’ दर्ज था और भीतर गैस के लाल सिलेंडर लदे हुए थे। सिलेंडर गैस से खाली थे, उन के टॉप को खास तौर से यूं टैम्पर किया गया था कि हर टॉप चूड़ीदार ढक्कन बन गया था जो गोल घुमाने से खुलता था। प्रत्यक्ष में चूड़ी वाला दायरा बिल्कुल दिखाई नहीं देता था और वो वन पीस जान पड़ता था — जैसा कि सिलेंडर के टॉप को जान पड़ना चाहिये था — भीतर सब सिलेंडरों में डकैती का हासिल नोट छुपे हुए थे।

अखबार में वह पढ़ चुका था कि रकम पैंसठ लाख रुपये थी।

पटियाला में उसका निशाना हाइवे पर स्थित एक होटल-कम-फैंसी ढाबा था जिसका नाम न्यू मद्रास होटल था। उसका संचालक कृष्णामूर्ति उसका पुराना वाकिफ था इसलिये वह जानता था कि वह जगह उसके नापाक धन्धों की ओट थी जिनमें प्रमुख धन्धा फैंस का था और मनीचेंजर का था।

उसने टैम्पो को रेलवे स्टेशन की पार्किंग में खड़ा किया और एक रिक्शा पर सवार हो कर अपनी पूर्वनिर्धारित मंजिल पर पहुंचा।

वह एक तीनमंजिला इमारत थी जिसकी ऊपर की मंजिलों पर होटल के कमरे थे और नीचे ढाबानुमा रेस्टोरेंट चलता था। पिछवाड़े में एक बहुत बड़ा खाली कम्पाउन्ड था जिसमें दायें बायें खस्ताहाल, लम्बी, एक दूसरे का सामना करती बैरकें सी थीं जो कि पहले किसी काम आती थीं लेकिन अब खाली पड़ी थीं। उसने सुना था कि पहले वो किसी ट्रांसपोर्टर का आफिस और गोदाम था जो धन्धा छोड़ गया था तो गोदाम — बैरकें — वीरान हो गयी थीं क्योंकि टेकओवर करने पर कृष्णामूर्ति ने केवल फ्रंट की तीनमंजिला इमारत को और पिछवाड़े के एक आफिस को ही अपना लक्ष्य बनाया था। आफिस इमारत का ही हिस्सा था लेकिन कृष्णामूर्ति की किसी स्ट्रेटेजी के तहत उस तक पिछवाड़े से ही पहुंचा जा सकता था, अलबत्ता खुद वह फ्रंट से भी पहुंच सकता था।

मायाराम ने रिक्शा मेन रोड पर ही छोड़ दिया और बाजू की एक सड़क से गुजरता पिछवाड़े में पहुंचा। वहां बाउन्ड्री वाल में एक लोहे का फाटक था जिसको धकेल कर उसने बस इतना खोला कि वह उसमें से गुजर पाता। भीतर जा कर उसने अपने पीछे फाटक को पूर्ववत् बन्द किया और विशाल यार्ड को पार कर के पिछवाड़े में स्थित आफिस में पहुंचा।

कृष्णामूर्ति वहां मौजूद था।

वह एक काला भुजंग टिपीकल मद्रासी था जो पता नहीं कैसे पंजाब में आ बसा था।

“नमस्ते।” — मायाराम मुस्कराता बोला।

“उस्ताद जी!” — कृष्णामूर्ति हर्षित भाव से बोला — ‘अरे, आओ, स्वामी! आओ, बैठो।”

मायाराम उस की आफिस टेबल के सामने मौजूद विजिटर्स चेयर्स में से एक पर बैठ गया।

“कामयाबी मुबारक!” — कृष्णामूर्ति बोला।

“मालूम पड़ गया!”

“लो। पेपर में छपा। डिटेल से छपा। नहीं मालूम पड़ना था?”

“हूं।”

“पैंसठ लाख! बड़ा हाथ मारा! इतने की तो तुम्हें उम्मीद नहीं थी!”

“आधे की भी नहीं थी।”

“गुड। यू आर ए लक्की मैन। नो?”

“यस।”

“पार्टनर्स के दे कर क्या बचा?”

“सारा।”

“क्या!”

“अखबार ठीक से नहीं पढ़ा जान पड़ता।”

“पढ़ा तो ठीक से ही था! तुम कहना चाहते हो कि सब को इलीमिनेट कर दिया?”

“एक को वाहे गुरु ने किया। दो को मैंने किया।”

“बस, टोटल इतने ही थे?”

“नहीं, एक और था, वो माईंयवा किसी तरह से बच गया।”

“ओह! वो गलाटा नहीं करेगा?”

“मेरे को ढूंढ़ पायेगा तो करेगा न! वो सात जन्म मेरे करीब भी नहीं फटक पायेगा।”

“गुड! गुड! अभी इधर क्या मांगता है?”

“माल बड़े बल्क में है, ले के फिरते रहना मुमकिन नहीं। उसका साइज छोटा करने के लिये मैं उसे — रुपयों को — डालर में तब्दील करना चाहता हूं।”

“हूं।”

“हूं क्या! कर के दो।”

“पैंसठ लाख रुपयों को डालर में तब्दील करूं?”

“हां।”

“कितने?”

“तुम बताओ। आज कल डालर का मेरे खयाल से पैंतालिस का रेट है।”

“वाइट, लीगल, एकाउन्टड फार मनी का। लूट के माल का नहीं।”

“ऐसा?”

“हां।”

“तो क्या मिलेगा?”

“सिक्स्टी पर्सेंट मिल जाये तो गनीमत समझो।”

“पूरा कितना बनता है?”

“तुम यार हो इसलिये बता रहा हूं कि रेट पैंतालीस से ऊपर का है इसलिये यूं समझो कि डेढ़ लाख डालर।”

“यानी नब्बे हज़ार?”

“तकरीबन।”

“सवा दो।”

“सवा दो क्या?”

“अरे, सवा दो नहीं, मद्रासी भाई, सवा... सवा लाख दो।”

“पागल हुए हो!”

“तुम मेरे दोस्त हो।”

“इसलिये नब्बे बोला। वर्ना बोलता डालर का रेट पैंतालीस के कम था, पिच्चासी बोलता; बहुत कम था, अस्सी बोलता।”

“हूं।”

“फिर मना तो नहीं कर रहा तुम्हारा काम करने से! बैठा तो हूं न एक बैंक डकैत के सामने! कोल्डब्लडिड मर्डरर के सामने! अभी कोई यहां तुम्हारी मौजूदगी के बारे में जान जाये तो... बताने की जरूरत है कि क्या होगा!”

“क्या होगा?”

“मेरा बैंड तुम्हारे से पहले बज जायेगा।”

“एक बीस।”

“सपने देख रहे हो, उस्ताद जी। दोस्त को मुर्गी बनाने की कोशिश कर रहे हो।”

“ऐसी कोई बात नहीं।”

“अभी नोट पता नहीं कैसे हैं! नये हुए तो... प्राब्लम होगी।’

“नये नहीं है, यूज्ड हैं। सौ सौ के नोटों में हैं।”

“शुक्र है।”

“तुम क्या कहते हो अब?”

“दोस्त हो इसलिये खास तुम्हारे लिये पिच्चानवे। इस से ज्यादा नहीं।”

“स्वामी, चोरी का माल, लाठी का गज वाली कहावत मेरे पर लागू करोगे?”

“उस्ताद जी, समझते नहीं हो।”

“समझता हूं। समझ कर बोलता हूं। एक दस।”

“फिर वही बात!”

“मूर्ति, मैं फंसा हुआ हूं, प्रेशर में हूं, भारी टेंशन में हूं इसलिये बोलता हूं, एक दस पर क्लोज कर वर्ना मैं कहूंगा यार नहीं है, यारमार है।”

“’अच्छी बात है। लगता हूं फांसी।’

“फांसी लग कर नहीं, खुशी से बोल।”

“खुशी होगी तो खुशी से बोलूंगा न!”

“खुशी कैसे होगी?”

“पिच्चानवे कबूल करो।”

“नहीं। नहीं।”

“तो खुशी ग़मी को छोड़ो। बात को प्रैक्टीकल रखो। तुम्हारा काम हो गया न!”

“डालर के नोट दस बीस और पचास के।”

“सौ के नहीं?”

“नहीं।”

“वजह?”

“नहीं समझोगे।”

“ठीक है।”

“ब्रीफकेस में।”

“वो भी हो जायेगा।”

“शुक्रिया।”

“अब एक बात मेरी सुनो।”

“बोलो।”

“रकम तुमने गिनी?”

“नहीं।”

“तो कैसे मालूम पैंसठ लाख है?”

“अखबार में छपा है।”

“वे लोग राउन्ड फिगर छापते हैं। रकम कम भी हो सकती है।”

“ज्यादा भी हो सकती है।”

“ज्यादा हुई तो तुम्हारी। कम हुई तो पूरी करनी पड़ेगी।”

“मंजूर। लेकिन ये बात तुम्हारे पर भी लागू होगी।”

“मतलब?”

“मैं भी डालर गिनने नहीं बैठने वाला।”

“गड्ड‍ियां गिन लेना। फिर हिसाब जोड़ लेना।”

“ठीक।”

“डालर तो तुम ब्रीफकेस में ले कर जाओगे, रुपया यहां तक कैसे लाओगे?”

“देखना।”

“फिर भी! इतनी बड़ी रकम...”

“अमृतसर से यहां तक भी तो लाया कि नहीं लाया?”

“वो तो ठीक है लेकिन... फिर भी...”

“देखना। देखना।”

“आल राइट। ऐज यू से।”

“मैं अब कब आऊं?”

“रात को आना। दस बजे के बाद किसी भी वक्त।”

“दस बजे ही आऊंगा।”

“वैलकम।”


मंगलवार को चित्रा सिनेमा की बगल के एक रेस्टोरेंट में बैठ कर शराब पीते एक ट्रक ड्राइवर ने विमल को बताया कि वह हरनामसिंह गरेवाल के बारे में तो कुछ नहीं जानता था लेकिन वह एक ऐसे शख्स को जानता था जिससे उसके बारे में निश्चय ही जानकारी हासिल हो सकती थी।

विमल की आशा जागी।

उसने विमल को बताया कि क्वींस रोड पर राजमहल नामक एक रेस्टोरेंट था जिसे कौल नाम का एक कश्मीरी चलाता था। कौल हरनामसिंह गरेवाल का सम्पर्क सूत्र था। हरनामसिंह गरेवाल से कौल के माध्यम से ही सम्पर्क स्थापित किया जा सकता था, सीधे नहीं। कौल पहले सम्पर्क स्थापित करने को उत्सुक व्यक्ति को तोलता परखता था, फिर हरनामसिंह गरेवाल से बात करता था और फिर अगर गरेवाल को आदमी जंचता था तो दोनों की मुलाकात निश्चित हो जाती थी। कहने का मतलब यह था कि अगर किसी जरायमपेशा आदमी के पास कोई योजना थी जिसमें वह हरनामसिंह गरेवाल का सहयोग चाहता था तो वह योजना पहले उसे कौल को सुनानी पड़ती थी। कौल और गरेवाल की मंत्रणा के बाद ही यह फैसला होता था कि वह योजना गरेवाल के हाथ डालने के काबिल थी या नहीं। इस इंतजाम से लाभ यह होता था कि कभी कोई गलत आदमी, कोई पुलिस का भेदिया या पुलिस का आदमी हरनामसिंह गरेवाल तक नहीं पहुंच सकता था।

विमल एक रिक्शा में सवार हुआ और क्वीन्स रोड की ओर बढ़ चला।

डकैती के सम्बन्ध में उस रोज के अखबार में कुछ नयी बातें छपी थीं। जैसे:

यह बात काफी हद तक स्थापित की जा चुकी थी कि जो काली फियेट कार खासा के पास दुर्घटनाग्रस्त पायी गयी थी, वही डकैती में भी इस्तेमाल की गयी थी। उस कार के टायरों के निशान ट्रांसपोर्ट कम्पनी के गोदाम वाली गली में मिले थे। इससे निर्विवाद रूप से तो यह सिद्ध नहीं होता था कि वह कार डकैती में इस्तेमाल की गयी थी लेकिन दिल्ली और कलकत्ता से विशेषरूप से वहां पहुंचे सरकारी जासूसों का मत था कि वही बात युक्तिसंगत थी।

गोदाम में छोड़ी गयी सीढ़ी पर से उंगलियों के कुछ निशान उठाए गए थे। उन निशानों को रिकार्ड से मिलान के लिए भेज दिया गया था लेकिन अभी तक रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई थी। शराब के खाली अद्धे पर मिले उंगलियों के निशानों को सीढ़ी पर मिले निशानों से मिलाया गया था और पाया गया था कि वे निशान सीढ़ी पर भी मौजूद थे। इससे निर्विवाद रूप से सिद्ध होता था कि वे निशान डकैतों में से ही किसी एक के थे। सीढ़ी पर मिले निशानों से यह भी प्रकट हो गया कि डकैत कम से कम पांच थे।

उनका सीढ़ी और गोदाम में छोड़े गए सारे सामान से उंगलियों के निशान मिटाने का इरादा था लेकिन गुरांदित्ता के साथ हुई अनपेक्षित दुर्घटना की वजह से वे लोग बद्हवासी में वहां से भाग निकले थे और वह अहम काम रह गया था।

लाभसिंह और कर्मचंद की कुचली लाशों के बारे में अखबार में कुछ नहीं छपा था।

दिल्ली की बैंक वैन राबरी के दौरान जब विमल पकड़ा गया था तो उसकी दसों उंगलियों के निशान पुलिस ने रिकॉर्ड किए थे। सीढ़ी से मिले निशानों की प्रतिलिपि हर स्टेट की पुलिस को भेजी जाने वाली थी और इस प्रकार देर सबेर यह बात खुले बिना नहीं रहनी थी कि उस डकैती में कुख्यात अपराधी सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल भी शामिल था।

यह बात विमल के लिए चिंताजनक थी। इसका मतलब था कि अब वह अमृतसर में टिका नहीं रह सकता था। उसे जल्दी ही घटनास्थल से कहीं दूर भाग जाना चाहिये था।

क्वीन्स रोड पर वह ‘राजमहलʼ के सामने उतरा।

वह एक दोमंजिला इमारत थी जिसकी निचली मंजिल में रेस्टोरेंट था और उस पर इमारत की चौड़ाई जितना ही चौड़ा एक नियोन साइन चमक रहा था, जिस पर लिखा था :

राजमहल

बार एंड रेस्टोरेंट

विमल कुछ क्षण बाहर खड़ा हिचकिचाता रहा, फिर वह भीतर दाखिल हुआ। प्रवेशद्वार की बगल में ही बिल क्लर्क का काउंटर था।

वह वहां पहुंचा। वहां एक नौजवान बैठा था। उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से विमल की ओर देखा।

“कौल से मिलना है।” — विमल भावहीन स्वर में बोला।

बिल क्लर्क ने सिर से पांव तक विमल को देखा। उसकी सूरत से लग रहा था कि विमल का इतने बेतकल्लुफ अंदाज से कौल का जिक्र करना उसे पसंद नहीं आया था।

“किस सिलसिले में?” — उसने पूछा।

विमल ने घूर कर उसे देखा और कठोर स्वर में पूछा — “सिलसिला तुम्हें बताना जरूरी है?”

“हां।”

वह तनिक हड़बड़ाया।

“सिलसिला गरेवाल है।” — वह बोला।

“बात मेरी समझ में नहीं आयी।”

“तुम्हारे साहब की समझ में आ जायेगी।”

“आप का नाम क्या है?”

“विमल।”

“आप जरा उधर बैठ जाइए।” — बिल क्लर्क काउंटर से परे एक टेबल की ओर संकेत करता बोला।

विमल उस टेबल पर पहुंचा और एक कुर्सी खींच कर बैठ गया।

बिल क्लर्क ने फोन उठाया और धीरे धीरे उसमें बोलने लगा।

विमल ने देखा, उसने कोई नम्बर डायल नहीं किया था। वह मेन, एक्सटेंशन टेलीफोन था जिसका मेन टेलीफोन बिल क्लर्क इस्तेमाल कर रहा था और एक्सटेंशन भी निश्चय ही इमारत में ही कहीं थी। मेन, एक्सटेंशन में संपर्क बजर द्वारा होता था, उसके लिए नम्बर नहीं डायल करना पड़ता था।

थोड़ी देर बाद क्लर्क ने टेलीफोन रख दिया। उसने घंटी बजा कर एक वेटर को बुलाया। उसने विमल की ओर संकेत करके वेटर से कुछ कहा। वेटर ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और विमल की ओर बढ़ा।

“आइए, साहब।” — वह समीप पहुंच कर बोला।

“कहां आऊं?” — विमल बोला।

“कौल साहब के पास।”

“ओह!”

विमल उठा और उसके साथ हो लिया।

रेस्टोरेंट का हाल पार करके वे एक गलियारे में आए। उस गलियारे के सिरे पर एक ड्योढी थी जिसमें से ऊपर की मंजिल को जाती सीढ़‍ियां थीं।

दोनों सीढ़‍ियां चढ़ कर ऊपर पहुंचे।

उसने एक दरवाजा खोला। वह एक ड्राइंगरूम था। उसमें एक आदमी दरवाजे की ओर मुंह किए बैठा था।

वेटर विमल को ड्राइंगरूम में छोड़ कर चला गया।

विमल ने देखा उसके सामने बैठा आदमी बहुत ही दुबला पतला था और इतना गोरा था कि अंग्रेज मालूम होता था। वह विमल को देख कर हौले से मुस्कराया और बोला — “आओ।”

विमल ड्राइंगरूम में दाखिल हुआ।

“बैठो।”

विमल उसके सामने बैठ गया।

“क्या नाम बताया था तुमने अपना?”

“विमल।”

“ओह, हां। विमल। विमल।”

“और तुम कौल हो?”

“हां। कुछ पियोगे? ठंडा? गर्म? या और गर्म?”

“नहीं। मेरे पास वक्त नहीं।”

“ओके। फिर मतलब की बात करो। तुम किस गरेवाल की बात कर रहे थे?”

“तुम खूब जानते हो मैं किस गरेवाल की बात कर रहा था। तुम हरनामसिंह गरेवाल के चमचे हो।”

कौल ने बुरा-सा मुंह बनाया। फिर वह जबरन मुस्कराया।

“सबसे पहले मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूं कि मेरा भी वही धंधा है जो गरेवाल का है। हम दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। हम दोनों कभी मिले नहीं लेकिन उसने मेरा नाम जरूर सुना होगा, वैसे ही जैसे मैंने उसका नाम सुना हुआ है।”

“तुम्हारा नाम! मैंने तो कभी नहीं सुना!”

“इसलिए नहीं सुना क्योंकि मैंने तुम्हें अपना असली नाम बताया नहीं।”

“तुम्हारा असली नाम क्या है?”

“यह मैं तुम्हें नहीं बताऊंगा। तुम्हारे लिए यही मेरा असली नाम है।”

“चाहते क्या हो?”

“मैं एक आदमी के बारे में जानकारी चाहता हूं। उसने मुझे बताया था कि वह हरनामसिंह गरेवाल के साथ काम कर चुका था। मैं उस आदमी को तलाश करना चाहता हूं लेकिन मुझे उसका अता-पता कुछ नहीं मालूम। मैं इस उम्मीद में यहां आया हूं कि शायद गरेवाल को मालूम हो! गरेवाल के बारे में पूछताछ करते करते ही मुझे खबर लगी थी कि तुम गरेवाल के पोस्ट ऑफिस हो। इसलिए मैं यहां आया हूं।”

“जिस आदमी की तुम्हें तलाश है, उसका नाम क्या है?”

“मायाराम बावा। वह कहता था कि वह अपनी किस्म के लोगों में उस्तादजी के नाम से बेहतर जाना जाता था। तुम जानते हो उसे?”

“नहीं। तुम उसे क्यों तलाश करना चाहते हो?”

“है कोई बात।”

“जो कि तुम बताना नहीं चाहते। खैर, तो तुम चाहते हो कि मैं गरेवाल से पूछूं कि क्या वह मायाराम बावा उर्फ उस्तादजी का कोई अता पता जानता है?”

“या तुम मुझे गरेवाल के पास भेज दो, मैं खुद पूछ लूंगा।”

“यह नहीं हो सकता” — कौल खेदपूर्ण ढंग से मुस्कराया — “लेकिन मैं गरेवाल को फोन करता हूं।”

“ठीक है।”

“कुछ और भी पूछना चाहते हो?”

“नहीं।”

वह उठा।

“फोन करने में वक्त लगेगा। चाहो तो कुछ पी लो।”

“पहले फोन कर लो।”

कौल पिछले कमरे में चला गया।

विमल सावधान की मुद्रा में बैठा रहा।

थोड़ी देर बाद पिछले कमरे से टेलीफोन का डायल चलने की आवाज आने लगी। फिर उसे कौल के धीरे धीरे बोलने का आभास मिला। विमल कान खड़े किए बैठा रहा।

थोड़ी देर बाद कौल लौटा।

“मैंने फोन कर दिया है।” — वह मुस्कराता हुआ बोला — “थोड़ी देर बाद यहां गरेवाल का फोन आ जायेगा।”

“थैंक्यू।”

“अब बोलो, क्या पिओगे?”

“कॉफी पी लूंगा।” — विमल हिचकिचाता हुआ बोला।

कौल ड्राइंगरूम से बाहर निकल गया। फिर विमल को कौल का उच्च स्वर सुनाई दिया — “ओये कालू, दो कॉफी ले कर आ।”

वह वापिस ड्राइंगरूम में आ गया।

थोड़ी देर में वेटर कॉफी दे गया।

विमल ने कॉफी की एक चुस्की ली और बोला — “टेलीफोन का कब तक इंतजार करना होगा?”

“ज्यादा से ज्यादा आधा घंटा।” — कौल बोला — “वैसे पांच मिनट में भी आ सकता है।”

“फोन कहां से आना है?”

“तुम्हारा असली नाम क्या है?”

विमल चुप हो गया। वह कॉफी की चुस्कियां लेने लगा। न जाने क्यों वह एकाएक असुविधा का अनुभव करने लगा था।

“मैं अभी हाजिर हुआ।” — कौल बोला और उठ कर पिछले कमरे में चला गया।

विमल ने कॉफी का आखिरी घूंट हलक से उतारा और कप रख दिया। उसने अपने पांव अपने सामने फैला लिए और अपनी पीठ सोफे के साथ लगा ली। उसकी आंखें भारी होने लगी थीं। फिर एकाएक उसे अनुभव हुआ कि वह मामूली ऊंघ नहीं थी? उस पर तो बेहोशी तारी होने लगी थी!

वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। उसने अपने सिर को एक जोर का झटका दिया, लेकिन सिर तो फिरकनी की तरह घूम रहा था और वह स्वयं को हवा में तैरता महसूस कर रहा था। उसने कौल को आवाज देने की कोशिश की, लेकिन मुंह से बोल न फूटा।

धोखा! भागो!

वह मन मन का पांव उठाता दरवाजे की ओर बढ़ा लेकिन आधे ही रास्ते में भरभरा कर फर्श पर ढेर हो गया।

यह अहसास होने से पहले कि उसे कॉफी में बेहोशी की दवा मिला कर पिलाई गयी थी, वह बेहोश हो चुका था।