वानखेड़े को, रात को ग्यारह बजे वह ड्राइवर मिला, जो लियू को एयरपोर्ट से ले गया था। तब नशे में धुत अपने घर पहुंचा था। वानखेड़े को खबर की गई।
वह पहुंचा।
टैक्सी ड्राइवर वास्तव में नशे में इतना धुत था कि जैसे सप्ताह भर की आज ही पी ली हो। उसके घर वालों को पुलिस कहकर परिचय दिया था, जिससे कि वे घबराये हुए थे।
“इस पर पानी डालकर, इसे होश में लाओ।” वानखेड़े ने दांत भींचकर कहा।
रामचरण, वानखेड़े, के बेहद करीब पहुंच कर बोला।
“बहुत ज्यादा पी रखी है इसने। इसका पूरा शरीर भीतर से तप रहा होगा। ऐसे में अगर ठण्डा पानी भर-भर के इस पर डाला गया तो, इसकी जान को खतरा पैदा हो सकता है।”
“तो फिर इसके ऊपर गर्म पानी करके डालो।” वानखेड़े ने उसे घूरा –“तुम जानते नहीं कि इससे बात करना बहुत जरूरी है।”
आधा घंटा लगा टैक्सी ड्राइवर को इस काबिल बनाने में कि जो पूछा जाये उसके कानों में पड़ सके और इतने होंठ हिल सके कि वह जवाब दे सके। इस पर भी वह अभी तक नशे में इस कदर धुत था कि दीवार से टेक लगाये बैठे-बैठे बार-बार नीचे लुढ़क जाता। दोबारा बिठाना पड़ता। वह आंखों को खोलकर सामने वालों को देखने की कोशिश करता, लेकिन आंखें खुलते ही बंद हो जातीं।
वानखेड़े ने जोरदार चांटा उसके चेहरे पर मारा।
“मेरी आवाज सुन रहा है?”
“हां।”
“तुम पुलिस वाले से बात कर रहे हो।”
“मैंने आज किसी सवारी को नहीं लूटा।” वह नशे में बड़बड़ाया।
“तुम सुबह एयरपोर्ट से एक सवारी लेकर निकले थे। वह चीनी लड़की थी।”
“खूबसूरत भी थी।” नशे में वह पुनः बड़बड़ाया।
“हाँ।” वानखेड़े शब्दों को चबाकर कह उठा –“उसे कहां छोड़ा था?”
“कहां छोड़ा था?”
“मैंने पूछा है उस खूबसूरत सवारी को तुमने कहां छोड़ा था।” वानखेड़े ने उसे झिंझोड़ कर कहा।
“वो–उसे–होटल में।”
“कौन से होटल में?”
“कौन से –कौन से कनॉट प्लेस...।”
“कनॉट प्लेस के किसी होटल में छोड़ा था?” वानखेड़े ने पुनः उसे झिंझोड़ा।
“हां। ग्रीन होटल में।” नशे में वह बड़बड़ाया।
वानखेड़े अपने आदमियों के साथ जब ग्रीन होटल पहुंचा तो रात का एक बज रहा था। अपना परिचय देकर उसने लियू के बारे में पूछा। लियू होटल में अपने असली नाम से ही ठहरी थी। इसलिए उसके बारे में फौरन जानकारी मिल गई। साथ ही मालूम हुआ कि वह शाम को होटल छोड़ गई है।
वानखेड़े गुस्से से भर उठा।
“लियू के साथ-साथ या आगे-पीछे कोई और भी होटल में आया था?”
रिसेशनिस्ट ने रजिस्टर देखकर बताया।
“जी हां। दो व्यक्ति थे। जो पांच मिनट बाद ही आये और उन्होंने फर्स्ट फ्लोर पर कमरा लिया था।”
“उनके हुलिये बताओ।”
“सॉरी सर। मैंने उनको नहीं देखा।”
“तो फौरन किसी ऐसे इंसान का इन्तजाम कर। जिसने उन्हें देखा हो।”
पांच मिनट में ही उस वेटर को सामने लाकर खड़ा कर दिया। जो फर्स्ट फ्लोर की ड्यूटी पर था। वेटर नींद से उठकर आ रहा था। आंखें लाल सुर्ख हो रही थीं।
“शाम को फर्स्ट फ्लोर पर चीनी युवती आई थी। उसका रूम बुक था।”
“यस सर।”
“पांच मिनट बाद दो व्यक्ति आये, उन्होंने भी फर्स्ट फ्लोर पर कमरा लिया।”
“यस सर।”
“उन दोनों व्यक्तियों को तुमने देखा था?”
“हां सर। दो-तीन बार उन्हें चाय-कॉफी सर्व की थी।” वेटर बोला।
“उनके हुलिए बताओ। देखने में वह कैसे लगते थे?” वेटर ने देवराज चौहान और जगमोहन के हुलिए बता दिए।
सुनते ही वानखेड़े के होंठों से गहरी सांस निकल गई। वेटर को वहां से चलता करके वानखेड़े ने सोच भरे अन्दाज में सिगरेट सुलगाई और अपने साथियों को देखा।
“अब यह तो साफ हो ही गया था कि एयरपोर्ट से लियू इस होटल में आकर ठहरी थी। हमारी निगाहों से तो वह बच निकली। किसी तरह पीछा छुड़ा लिया। लेकिन देवराज चौहान और जगमोहन बराबर उसके पीछे रहे।”
“तो फिर वह गये कहां सर?”
“लियू के पीछे ही होंगे। देवराज चौहान हार मानने वालों में से नहीं है। वह उससे फिल्म ले लेगा।”
“कहीं वह फिल्म लेकर किसी और को न बेच दे।” श्याम सुन्दर बोला।
“मैं तुमसे पहले भी कह चुका हूं कि किसी वहम में मत पड़ो। फिल्म उसके हाथ आ गई तो उसे वह हमारे हवाले करेगा।”
वानखेड़े ने एक-एक शब्द चबाकर दृढ़ता भरे स्वर में कहा।
“अब हम क्या करें?” नम्बरदार ने पूछा।
“हेडक्वार्टर पहुंचकर, वहां आराम भी करेंगे। और देवराज चौहान का इन्तजार भी। वह जानता है कि हेडक्वार्टर में मैं कहां होता हूं और तब मेरा नम्बर क्या होता है।” वानखेड़े ने गम्भीर स्वर में कहा –“माइक्रोफिल्म उसके हाथ लग गई तो, मुझे तलाश करने में उसे कोई दिक्कत नहीं आयेगी।”
“यह नहीं मान रहे कि उसे माइक्रोफिल्म नहीं भी मिल सकती। लियू उससे तेज निकले।”
वानखेड़े ने कर्मवीर यादव को देखा फिर सोच भरे अन्दाज में सिर हिलाया।
“ऐसा होने से मैंने इंकार नहीं किया।” वानखेड़े धीमे स्वर में बोला –“ऐसा भी हो सकता है।”
☐☐☐
श्रीनगर (कश्मीर) एयरपोर्ट पर जब प्लेन लैंड हुआ तो एक बजकर, पच्चीस मिनट हो रहे थे। धुंध की अधिकता की वजह से विमान बेहद कठिनाई से लैंड हो पाया था। हवाई पट्टी की रोशनियां धुंध की वजह से ठीक नजर न आने के कारण, दो बार पायलट को लैंडिंग स्थगित करनी पड़ी थी।
प्लेन लैंड होने के पश्चात क्लियरेंस से निपटने में लियू को पन्द्रह मिनट से ज्यादा का वक्त नहीं लगा। फिर वह एयरपोर्ट की लॉबी में मौजूद फोन बूथों की कतार में से, एक बूथ में पहुंची और नम्बर मिलाकर बात की।
“हैलो।” मर्दाना आवाज लियू के कानों में पड़ी।
“चिं–हू।” लियू के होंठों पर मुस्कान उभरी।
“मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था लियू।” चिं–हू की आवाज कानों में पड़ी।
“खबर मिल गई थी मेरे आने की?”
“दिल्ली से फोन आ गया था।”
“मैं एयरपोर्ट पर हूं।”
“आधे घंटे में आता हूं।”
लियू रिसीवर वापस रखकर बूथ से बाहर आ गई। कंधे पर बैग लटका हुआ था। कड़कती सर्दी की वजह से, एयरपोर्ट की लॉबी में सिर्फ तीस-चालीस लोग ही मौजूद थे। रात के इस वक्त यकीनन उन्हें किसी इन्टरनेशनल फ्लाइट का इन्तजार होगा। अभी एयरपोर्ट पर दो फ्लाइटें आनी बाकी थी।
इन्हीं लोगों में देवराज चौहान और जगमोहन भी मौजूद थे। जो लियू वाले प्लेन से ही श्रीनगर पहुंचे थे और लियू के पीछे-पीछे ही क्लियरेंस से निकले थे। उसे फोन बूथ की तरफ बढ़ते पाकर, वह लॉबी में कुर्सियों पर बैठ गये थे। देवराज चौहान ने सिर पर टोपी डाल रखी थी। आंखों पर नजर का चश्मा था। होंठों पर मूंछे और फ्रेंच कट दाढ़ी लगा रखी थी। गाल पर मोटा सा तिल था।
पूरी तरह दोनों का हुलिया बदला हुआ था।
लियू को फोन बूथ की तरफ बढ़ते देखकर देवराज चौहान बोला।
“यह अपने किसी साथी को बुलाने के लिए फोन कर रही है।”
“मेरा भी यही खयाल है।” जगमोहन ने कहा।
“अब माइक्रोफिल्म इसके पास है।”
“जुगल किशोर ने यही कहा था कि दिल्ली एयरपोर्ट पर ही माइक्रोफिल्म इसे डिलीवर हो जायेगी।”
दोनों की छिपी निगाह, बूथ में से निकलती लियू पर थी। जो इसी ओर कुर्सियों की तरफ बढ़ती आ रही थी। और कुर्सियों की दो कतार आगे वह बैठ गई थी।
“माइक्रोफिल्म इसके बैग में तो होने से रही।”
“नहीं।” देवराज चौहान ने, शांत स्वर में कहा –“फिल्म किसी भी सूरत में इसके बैग में नहीं हो सकती। इसके कपड़ों में होगी।”
“इसका साथी आ रहा है। यह चली जायेगी।” जगमोहन बेचैनी से बोला –“कुछ करने का अभी वक्त है।”
“यहां नहीं। एयरपोर्ट है।” देवराज चौहान ने दबे स्वर में कहा –“तुम बाहर जाकर टैक्सी का इन्तजाम करो। और उसे तैयार रखो।”
जगमोहन ने प्रश्नभरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
“इनके पीछे जाना है?” आखिरकार जगमोहन ने पूछा।
“हां। मुनासिब वक्त और सही जगह पर ही इसे घेरा जायेगा।”
जगमोहन उठकर, बाहर जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ गया।
करीब पच्चीस मिनट बाद वहां छोटे से कद के चीनी ने प्रवेश किया। जिसे देखते ही लियू उठ खड़ी हुई। दोनों ने हाथ मिलाया। चीनी ने लियू का बैग पकड़ा और दोनों बाहर की तरफ बढ़ गये।
देवराज चौहान भी उठा और उनके पीछे-पीछे बाहर की तरफ बढ़ता चला गया।
और लियू निश्चिंत थी कि सबसे पीछा छुड़ा आई है।
☐☐☐
एयरपोर्ट से शहर तक की सड़कें धुंध से भरी थी।
टैक्सी ड्राइवर को सामने वाली कार का पीछा करने में कुछ परेशानी हो रही थी। जिसमें लियू, चिं–हू के साथ थी। एक तो टैक्सी की लाइट बुझी हुई थी और आगे वाली की टैल लाइट रह-रहकर धुंधली पड़ती या फिर किसी पहाड़ी मोड़ पर पूरी तरह निगाहों से ओझल हो जाती। परन्तु मिलने वाले हजार रुपये ने ड्राइवर की सतर्कता बरकरार रखी हुई थी और वह आगे वाली कार को निगाहों से ओझल नहीं होने दे रहा था।
करीब आधे घंटे बाद कार बंगले जैसे मकान के सामने रुकी। कार चलाने वाले ने हार्न बजाया। कार की हेडलाइट में बंद गेट के पार, पोर्च स्पष्ट नजर आ रहा था।
कोई आया। उसने गेट खोला।
कार के भीतर प्रवेश कर जाने पर, गेट बंद हो गया। पोर्च में पहुंचकर कार का इंजन और हेडलाइट भी बंद हो गई। पहले जैसी खामोशी-फिर छा गई।
टैक्सी वाले को हजार रुपया देकर उसे चलता किया।
देवराज चौहान और जगमोहन की निगाह बंगले जैसे मकान पर टिकी थी। भीतर एक-दो जगह रोशनी हुई नजर आ रही थी। उस मकान के आस-पास भी बंगले थे।
खुली जगह में बेहद जबरदस्त ठण्डक थी।
“मैं अभी आया।” कहने के साथ ही देवराज चौहान अंधेरे में आगे बढ़ा और मकान के गेट की दीवार आहिस्ता से फलांग कर भीतरी हिस्से में आ गया। यह छोटा सा लॉन था। पांच-सात पेड़ भी खड़े थे। परन्तु इस वक्त वीरानी का एहसास हो रहा था। बाहर कहीं भी लाइट नहीं थी।
देवराज चौहान दबे पांव आगे बढ़ता चला गया।
लियू ने चिं-हू के साथ जिस कमरे में प्रवेश किया, वह बेहद गर्म कमरा था। बाहर की सर्दी का उस कमरे में दूर-दूर तक एहसास नहीं था।
वहां दो चीनी और भी थे। जो लियू को देखते ही प्रसन्नता से खड़े हो गये। लियू से हाथ मिलाया। एक ने लियू के कंधे पर हाथ मारते हुए कहा।
“सफलता मुबारक हो लियू। हमें पहले ही विश्वास था कि तुम कामयाब रहोगी।”
“थैंक्स।” लियू बैठते हुए बोली।
“खास दिक्कत तो नहीं आई इस मिशन में।” दूसरे ने पूछा।
“जिक्र करने के लायक नहीं।” लियू हौले से हंसी –“वैसे, हम लोगों का काम ही खतरों से खेलना है।”
चिं–हू कमरे के कोने में मौजूद छोटे से बार में से व्हिस्की के गिलास ले आया। लियू को दिया। दोनों चीनियों को दिया और चौथा गिलास खुद थामते हुए बैठ गया।
लियू ने एक ही सांस में आधा गिलास खाली किया और टेबल पर रख दिया।
“माइक्रोफिल्म कहां है?” चिं–हू ने पूछा।
“मेरी।” लियू ने मुस्कराकर पैंट की जेब को थपथपाया –“जेब में।”
“दिखाना।” दूसरे चीनी ने कहा।
“नो मिस्टर हों–ली। यह फिल्म शंघाई में चीफ के ऑफिस में, चीफ के सामने ही निकलेगी। पहले नहीं।”
“खूब।” चीनी हंसा –“हम एक ही डिपार्टमेंट के हैं। कभी हम पर भी विश्वास कर लिया करो।”
“यह फिल्म देखने को नहीं मिल सकती। बहुत कीमती है। और जो कुछ भी है मेरे पास। वह बोलो। अभी दिखा देती हूं।”
“मैं जानता हूं। तुम्हारे पास जो कुछ भी है, तुम उसे दिखाने में कभी परहेज नहीं करती।” चीनी हंसा।
“लियू –। चिं–हू बोला –“माइक्रोफिल्म का फार्मूला है क्या?”
“मैं इस फार्मूले को ‘तबाही’ का नाम देती हूं।” लियू ने अपना गिलास पुनः उठा लिया।
“तबाही?”
“हां। तबाही।” लियू ने टांगें फैलाकर घूंट भरा –“दुनिया भर के देश परमाणु बम बना रहे हैं। एक परमाणु बम पर अरबों-खरबों खर्च होता है। इस खर्चे से बचने के लिए हिन्दुस्तान के वैज्ञानिकों ने परमाणु बम का नया डिजाइन तैयार किया है। सामान्य परमाणु बम से जितनी ‘तबाही’ फैलेगी, इस डिजाइन को आधार बनाकर, आधे खर्चे कम पर, परमाणु बम से आधा छोटा बम भी, बड़े बम जितनी तबाही फैलायेगा।”
“मतलब कि परमाणु बम के डिजाइन में कमाल है।”
“हां। यह नया डिजाइन ही ‘तबाही’ है। सबसे बढ़िया बात तो यह रही कि इस डिजाइन को बनाने की विधि, इसकी थ्योरी, प्रैक्टिकल, सब कुछ खत्म हो चुका है। अब जो है, मेरे पास मौजूद माइक्रोफिल्म में है। यानी कि चीन ही इसका मालिक है। और इस डिजाइन पर चीन अपना झंडा गाड़ सकता है कि यह डिजाइन उसकी ईजाद है। इस डिजाइन पर परमाणु बम बनाने में चीन को भारी बचत होगी और बचत का पैसा, चीन के विकास कार्यों पर खर्च करके, देश को और भी तरक्की के रास्ते पर ले जाया जा सकता है।”
“खूब। चीफ तो तुमसे बहुत खुश होंगे।” चिं–हू ने कहा।
“उस वैज्ञानिक से यह फार्मूला लेने के लिए कितनी कीमत दी?” चीनी ने पूछा।
लियू हंसी। गिलास खाली किया।
“कुछ बार। सिर्फ कुछ बार उस हिन्दुस्तानी वैज्ञानिक का बोझ सहना पड़ा।”
यह सुनते ही तीनों हंस पड़े।
“मतलब कि सौदा मुफ्त का रहा।”
“हां।” लियू जहरीले स्वर में कह उठी –“यही समझो कि ‘तबाही’ मुफ्त में हासिल हो गई। चिं–हू।”
“हाँ।”
“मेरे चीन जाने का बन्दोबस्त करो।”
“हुआ पड़ा है।”
“कैसे?”
“कल सुबह हम ‘कोमडोक’ के लिए कार पर रवाना हो जायेंगे। वहां –।”
“कोमडोक क्यों? लेह का रास्ता ठीक रहेगा।”
“नहीं। सीधे-सीधे लेह जाना ठीक नहीं। हिन्दुस्तानी फौज विदेशियों को वहां शक भरी निगाहों से देख रही है। और ‘तबाही’ पास में होने पर हमें किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहिए।”
“ठीक है। आगे का रास्ता बताओ।”
“कोमडोक से चाओशिल पार करेंगे। वहां तट पर ही हमारी छोटी लेकिन तेज रफ्तार वाली पनडुब्बी मौजूद है। मैं फोन कर दूंगा, हमारे पहुंचने पर वह चलने के लिए पूरी तरह तैयार कर दी जायेगी। और उस जगह से कुछ आगे जाने पर, हर तरफ हमारे देश का समन्दर है। यानी कि वहां से रवानगी के ढाई घंटे बाद पनडुब्बी हमें चाइना सी में प्रवेश करा देगी।”
“गुड।” लियू ने सिर हिलाया –“रास्ता तुम्हारा देखा हुआ है?”
“हाँ। हिन्दुस्तान आने के लिए मैं यही रास्ता इस्तेमाल करता हूं।” चिं–हू ने मुस्करा कर कहा।
“ठीक है। अब मैं कुछ घंटे की नींद लेना चाहूंगी।” लियू कह उठी।
“इसी कमरे में ले लो। हम सब भी यहीं रहेंगे। यहां कोई और कमरा गर्म नहीं है। दूसरे कमरे को गर्म करने का सिस्टम खराब हुआ पड़ा है।”
लियू ने दोनों चीनियों को देखा।
“तुम दोनों यहां कैसे?”
“हमारी ड्यूटी चीन–कश्मीर बार्डर पर ही रहती है। कोई साथी फंस जाये तो उसे निकालना हमारा काम है। यहां का कोई काम हो तो वह भी हम पूरा करते हैं।” चीनी ने जवाब दिया।
“मतलब कि चाओशिल तक तुम दोनों मेरे साथ रहोगे?”
“हां। पनडुब्बी पर चढ़ाकर, वापस लौट आयेंगे। चिं–हू तुम्हारे साथ जायेगा।”
सिर हिलाकर लियू खड़ी हुई और सामने नजर आ रहे बेड की तरफ बढ़ गई।
रोशनदान से आंखें टिकाये देवराज चौहान उनकी सब बातें सुन रहा था। पानी की पाइप से वह रोशनदान तक पहुंचा था। लियू को बेड की तरफ बढ़ते पाकर, देवराज चौहान पाइप से नीचे उतरने लगा।
☐☐☐
“क्या रहा?” देवराज चौहान मकान से निकलकर अंधेरे में खड़े जगमोहन के पास पहुंचा तो जगमोहन ने पूछा।
देवराज चौहान ने भीतर के हालात बता दिए।
“फिर तो मौका अच्छा है, उन पर हाथ डालने का।” जगमोहन के होंठों से निकला।
“बेवकूफी वाली बात मत करो।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
“क्या मतलब?”
“वह चार लोग हैं। हो सकता है मकान में कहीं एक-दो और भी हों।” देवराज चौहान ने कश लिया –“सब के सब चीनी एजेंट हैं और उनके कब्जे में बहुत कीमती फार्मूला है। जिसे पाने के लिए लियू ने हर तरह का खतरा मोल लिया। ऐसे में वह फार्मूले को आसानी से हाथ से नहीं जाने देंगे। अंत तक लड़ाई करेंगे। गोलियां चलेंगी। शोर-शराबा होगा। इस दौरान मौका पाकर लियू खिसक सकती है।”
“समझा।” जगमोहन ने सिर हिलाया –“लड़ाई के बीच तो लियू के खिसकने का बढ़िया मौका होगा।”
“यही मैं कह रहा हूं।” देवराज चौहान ने अपने शब्दों पर जोर दिया –“यह लोग लापरवाह हैं तो इन्हें लापरवाह ही रहने दिया जाये। छेड़कर इन्हें सतर्क न किया जाये।”
“तो फिर माइक्रोफिल्म पाने के लिए हम क्या कदम उठायें?”
देवराज चौहान के होंठ भिंच गये।
दोनों की निगाह मकान पर थी
“वह तीनों सुबह लियू के साथ ही यहां से चलेंगे। इनके पास अपनी कार है।” देवराज चौहान सोच भरे स्वर में कह उठा –“और उनकी योजना के मुताबिक लियू कहीं भी अकेली नहीं रहेगी। जब वह पनडुब्बी पर सवार होगी तो एक उसके साथ रहेगा, दो लौट आयेंगे। मतलब कि लियू के साथ-साथ इन सब से भी टकराना पड़ेगा।”
“अभी।”
“नहीं। रात का फायदा उठाकर लियू खिसक सकती है। वह अंधेरे का फायदा उठा सकते हैं।”
“मतलब कि सुबह तक इंतजार करें?”
तभी छोटी-छोटी फूल जैसी बर्फ गिरनी शुरू गई।
दोनों पास ही के पेड़ के नीचे हो गये। सर्द हवा गिरती बर्फ के साथ उन्हें कंपा देने के लिए काफी थी।
“सर्दी बढ़ रही है।” जगमोहन सर्दी में थरथराता कह उठा।
देवराज चौहान का भी ठण्ड से बुरा हाल हो रहा था।
“श्रीनगर की आधी रात। दिसम्बर का महीना।” देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कराहट उभरी –“इस वक्त तो कमरों के भीतर भी बुरा हाल होगा और हम तो गिरती बर्फ-चलती हवा के बीच खुले में खड़े हैं। सर्दी से बचने के लिए कपड़े भी नहीं पहने हुए हैं। अगर ऐसे ही रहे तो दो घंटे बाद, खड़े होने के काबिल भी नहीं रहेंगे।”
“रात के बाकी के घंटे किसी ठीक जगह पर –।”
“नहीं।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया –“यहां से हटना ठीक नहीं। कहीं से कार उठा लाओ। उसके भीतर हम सर्दी से सुरक्षित रहेंगे। वही कार दिन निकलने पर भी हमारे काम आयेगी।”
“ओह। इस तरफ तो मैंने सोचा ही नहीं था। अभी आया –।” कहने के साथ ही जगमोहन अंधेरे में गुम हो गया।
देवराज चौहान की निगाह मकान पर थी। अब मकान में एक ही लाइट जल रही थी। जोकि गिरती बर्फ के कारण धुंधली सी नजर आ रही थी। सर्दी जैसे हर पल बढ़ती जा रही थी।
बीस मिनट बाद ही मध्यम सी आवाज गूंजी इंजन की। देवराज चौहान की निगाह उस तरफ उठी। कार की हेडलाइट बंद थी। उसकी छत और बोनट पर बर्फ गिरी हुई थी। वाइपर चल रहे थे। जिसकी वजह से शीशे पर गिरने वाली बर्फ साफ हो रही थी।
कार पास आकर रुकी। जगमोहन ने अपनी तरफ का शीशा थोड़ा सा नीचे किया।
देवराज चौहान पास पहुंचा।
“कार को उस तरफ ले जाओ। वहां पेड़ों के पीछे कार नजर नहीं आयेगी।”
जगमोहन कार को उस तरफ ले गया।
देवराज चौहान जेबों में हाथ डाले वहां पहुंचा और दूसरी तरफ का दरवाजा खोलकर भीतर बैठ गया। कार का दरवाजा बंद करते ही राहत मिली। जगमोहन ने कार इस तरह खड़ी की थी कि सामने के शीशे से उस मकान का पूरा नजारा दिखता रहे। तनों के बीच में से वह मकान स्पष्ट नजर आ रहा था। ऊपर पेड़ होने की वजह से कार पर बर्फ कम गिर रही थी। सामने वाला शीशा रह-रह कर धुंधला हो रहा था। इसलिए वाइपरों को चालू रखना पड़ रहा था। जिससे कि सामने वाले मकान पर निगाह रखी जा सके।
कार के भीतर भी अब सर्दी लगनी शुरू हो गई थी। क्योंकि कार की छत पर धीरे-धीरे गिरती बर्फ इकट्ठी हो रही थी और कार की बॉडी भी ठण्डी हुई पड़ी थी।
परन्तु यह ठंडक बर्दाश्त की जा सकती थी।
कार से बाहर रहकर तो मरने का प्रोग्राम बनाने के बराबर था।
“बहुत बुरा मौसम होता जा रहा है।” जगमोहन ने कहा।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
“इतनी सर्दी में तो हमें रहने की आदत नहीं।”
“यह सोचो अगर कहीं से कार न मिलती तो क्या होता।” देवराज चौहान मुस्कराया।
“फिर तो अब तक खड़क चुके होते।” जगमोहन ने गहरी सांस ली –“मैं जरा लियू से मिल आऊं?”
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
“रजाई लेने के लिए। बोल दूंगा बाहर बहुत सर्दी है।” कहने के साथ ही जगमोहन हंसा।
देवराज चौहान ने कश लेकर डोर विंडो के शीशे को देखा। जिसके पार कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। बर्फ के दो-चार छोटे गोले वहां चिपके हुए थे। और ओस की वजह से शीशे के पार देखना सम्भव नहीं हो रहा था। भीतर से भी, कार की बॉडी को हाथ लगाने पर, वह बर्फ की तरह ठण्डी लग रही थी।
“इसी तरह बैठे रहे तो सुबह तक तो बुरा हाल हो जायेगा।” जगमोहन ने गहरी सांस ली –“जब कि वह लोग पूरी नींद लेकर पूरी तरह फ्रेश होंगे।”
“तुम पीछे वाली सीट पर नींद ले लो।”
“नींद।” जगमोहन ने आंखें फैलाई।
देवराज चौहान ने उसे देखा।
“इतनी सर्दी में तो सीट ही बर्फ की सिल्ली की तरह लगेगी।” जगमोहन ने गहरी सांस लेकर, मुंह बनाया।
देवराज चौहान ने मकान की तरफ देखा।
“लियू तो रजाई में मजे ले रही होगी।” जगमोहन बड़बड़ाया।
“उसका कमरा गर्म है।” देवराज चौहान मुस्कराया।
“सब देखकर आये हो।” जगमोहन हौले से हंसा।
“साथ में तीन चीनी व्यक्ति भी उसके कमरे में हैं।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
जगमोहन ने गहरी सांस लेकर पीछे वालो सीट की तरफ देखा।
“लेटकर देखता हूं। आंख न भी लगे। लेकिन पीठ तो सीधी हो जायेगी।” इसके साथ जगमोहन पीछे वाली सीट पर खिसक गया जो कि इस वक्त वास्तव में बर्फ सिल्ली की तरह ठण्डी हो रही थी –“अपने नीचे मैं बर्फ का पहाड़ महसूस कर रहा हूं जैसे उस पर लेटा हूँ।”
“नीचे का तो पता नहीं। लेकिन तुम्हारे ऊपर, कार की छत पर अवश्य बर्फ का पहाड़ बना होगा।” देवराज चौहान ने कहा और सिगरेट को बुझाकर, कार के भीतर ही फेंक दिया।
जगमोहन को नींद क्या आनी थी। उखड़े भाव से यूं ही बड़बड़ाता रहा, वक्त बिताने और सर्दी का एहसास कम महसूस कर पाने की कोशिश में।
☐☐☐
वह कार न होकर जैसे, ठण्डी कब्र बन गई हो। लगातार बर्फ गिरने से कार के भीतर ऐसा हाल हो रहा था। जिस्म को जला देने वाला, ठण्डा डिब्बा बन गई थी कार। दोनों के हाथ-पांव बेहद सर्द मौसम ने सुन्न कर दिए थे। कार में ही दोनों अपने हाथ आपस में रगड़ रहे थे। टांगों को हिला रहे थे। चेहरे पर हाथ लगाने से ऐसा लगता था जैसे दो बेजान सी चीजें आपस में टकरा रही हों।
जगमोहन की बड़बड़ाहट कब की बंद हो चुकी थी।
जाने कितना वक्त बीत गया था।
ऐसे ठण्डे मौसम में नींद आनी तो दूर, बैठना और सांस लेना भी जैसे भारी पड़ रहा था। वाइपर चलने के बावजूद भी शीशे पर बर्फ आ टिकी थी सिर्फ वही थोड़ी सी जगह खाली थी, जहाँ वाइपर चल रहे थे और शीशे पर बर्फ का ढेर जम जाने से वाइपर भी, कम स्पीड से चल रहे थे।
उस थोड़ी सी जगह में से वह मकान धुंधला सा नजर आ रहा था। उसमें जलती एक लाइट धुंध और बर्फ की वजह से किसी दीये की तरह नजर आ रही थी।
ठीक तभी मकान की दूसरी लाइट रोशन होती नजर आई।
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी। उसने उसी पल सिगरेट सुलगाई और रोशनी में कलाई पर बंधी घड़ी में वक्त देखा। सुबह के पांच बज रहे थे।
“उठ जाओ।” देवराज चौहान बोला –“शायद वह लोग चलने की तैयारी कर रहे हैं।”
बुरे हाल में डूबा जगमोहन पीछे वाली सीट से उठ बैठा। शीशे से मकान की तरफ देखा।
देवराज चौहान ने कार के दरवाजे का हैंडल दबाकर धक्का दिया तो कार का दरवाजा कुछ अटका। जोर से धक्का दिया तो खुलता चला गया।
रात भर गिरने वाली बर्फ ने कार को पूरी तरह घेर लिया था। घुटनों तक बर्फ के गिरे होने का एहसास हो रहा था। कार के टायर नहीं के बराबर नज़र आ रहे थे। अभी भी रफ्तार के साथ बर्फ गिर रही थी। देवराज चौहान ने पांव बाहर रखा तो घुटने तक वह बर्फ में धंसता चला गया। अंधेरे में हर तरफ बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। पेड़ों के तने दो-दो फीट डूबे हुए स्पष्ट नजर आ रहे थे। कार के पहिये से भी ऊंची बर्फ गिरी हुई थी।
कार की छत पर तो काफी बड़ा पहाड़ नजर आ रहा था।
“बहुत बुरी तरह बर्फ गिर रही है।” जगमोहन सर्द–कांपते स्वर में कह उठा।
देवराज चौहान की निगाह मकान की तरफ गई।
“हो सकता है बर्फबारी देखकर वह चलने का प्रोग्राम कैंसिल कर दें। मौसम खुलने का इन्तजार करें।” जगमोहन बोला।
“हमें यह नहीं देखना कि वह क्या सोचते हैं और क्या करते हैं।” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा –“हमें अपनी तैयारी पूरी रखनी चाहिये, यह सोचकर कि वह कभी भी रवाना हो सकते हैं।”
जगमोहन कुछ नहीं बोला।
“यह कार बर्फ में फंस चुकी है। इसे निकाला नहीं जा सकता।” देवराज चौहान आसपास निगाहें दौड़ाता हुआ बोला –“जब तक रास्तों से बर्फ साफ नहीं होगी, कोई भी वाहन सड़क पर नहीं चल सकता। ऐसे में लियू या उसके साथी कैसे सफर करते हैं या नहीं करते हैं। अब हमें यह देखना है।”
जगमोहन ने पीछे वाले शीशे से बाहर देखना चाहा। धुंध की वजह से कुछ नजर नहीं आया। तो उसने कार का दरवाजा जोर लगाकर खोला और बाहर देखा। सर्द हवा की लहर उसके जिस्म से आ टकराई। गिरती बर्फ भी हवा के साथ कार में आई। हर तरफ नजर मारने के बाद, उसने कार का दरवाजा बंद कर लिया।
देवराज चौहान ने भी कार का दरवाजा बंद किया।
“अगर हम अभी मकान पर हमला बोल दें तो, उन पर काबू पा सकते हैं। इस वक्त वह लापरवाह –।”
“तुम –।” देवराज चौहान ने सिगरेट का कश लिया –“इस वक्त खुद को किसी तरह की हरकत के काबिल समझते हो।”
जगमोहन ने महसूस किया कि देवराज चौहान ठीक कह रहा है। रात की कड़कती सर्दी में इस तरह रहने से, उसका पूरा शरीर अकड़ गया है। ऐसे में शरीर से फुर्ती वाला कोई काम नहीं लिया जा सकता। ऐसा ही हाल देवराज चौहान का होगा। जगमोहन सीट पर इकट्ठा होकर बैठ गया।
“तुम्हारा क्या खयाल है। वे लोग अपने प्रोग्राम के मुताबिक रवाना होंगे?”
“कह नहीं सकता।” देवराज चौहान की निगाह, शीशे में से होती, मकान पर टिकी थी –“हो भी सकता है और नहीं भी। कार पर तो उनकी रवानगी सम्भव नहीं। क्योंकि सड़कों पर काफी ऊंची बर्फ गिरी हुई है। रास्ते स्पष्ट नजर नहीं आयेंगे। और ऐसे मौसम में पैदल निकल कर, कहां तक जाया जा सकता है। कोई फायदा नहीं। अभी भी तेजी से बर्फ गिर रही है। लगता नहीं कि जल्दी रुकेगी।”
“मेरे खयाल में वह लोग नहीं चलेंगे।”
“मुझे भी ऐसा लगता है। लेकिन हमें हर स्थिति के लिए तैयार रहना होगा।”
तभी उन्होंने उस मकान की बाहरी लाइट जलती देखी फिर दरवाजा खुलता। साथ ही किसी को छाता खोल कर, बाहर आते देखा। देवराज चौहान सतर्क हो उठा। बाहर आने वाला आधा मिनट बाहर रहा फिर भीतर चला गया। बाहर की लाइट और दरवाजा बंद हो गया।
“एक बाहर आया था। शायद मौसम देखने के लिए।” देवराज चौहान ने कहा।
☐☐☐
चिं–हू ने छाता एक तरफ रखा और गर्म वाले कमरे का दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश किया और दरवाजा बंद कर लिया। आधे मिनट में ही, जिस सर्दी का एहसास कर आया था, वह सर्दी अभी भी उसे अपने बदन में दौड़ती महसूस हो रही थी, जबकि वह गर्म कमरे में था।
लियू और वह दोनों चीनी उसे देख रहे थे।
चिं–हू मुस्कराया।
“यहां से चलने का हमें अपना प्रोग्राम कुछ आगे बढ़ाना होगा।” चिं–हू ने गहरी सांस लेकर कहा।
“क्यों?” लियू के माथे पर बल पड़े।
“बाहर बर्फ गिर रही है और इस वक्त जमीन पर डेढ़-दो फीट बर्फ है। गाड़ी किसी भी हालत में नहीं चल सकती।”
लियू के चेहरे पर उखड़ेपन के भाव आये।
“लेकिन मैं हिन्दुस्तान से जल्दी निकलना चाहती हूं। मेरा चीन पहुंचना जरूरी है।”
“इसमें अब मैं क्या कर सकता हूं।” चिं–हू मुस्कराया –“ऐसी हालत में गाड़ी नहीं चलाई जा सकती। रास्ता ही मालूम नहीं होगा। किसी पहाड़ से गिरने से बेहतर है यहीं रहना। वैसे भी बर्फ जोरों से गिर रही है। बर्फ का गिरना बंद होगा तो, उसके बाद भी रास्ते साफ होने में घंटों लग जायेंगे।”
“मैं यहां से –।”
“लियू।” दोनों में से एक चीनी बोला –“दिसम्बर-जनवरी में कश्मीर का मौसम अकसर ऐसा हो जाता है। अगर यहां पहुंचने में एक-दो दिन की देरी हो जाती तो यहां पहुंचना कठिन हो जाता। सड़क के और हवाई रास्ते बंद हो जाते यह कोई नई बात नहीं है। बर्फ रुकने के दो दिन बाद ही हालात सामान्य हो पाते हैं। अगर कोई रास्ता होता तो हम तुम्हें निकाल देते। तुम्हें इस तरह बैचेन नहीं होना चाहिये।”
“बेकार बैठना मेरी आदत नहीं।”
“मजबूरी है।” दूसरा चीनी बोला –“तुम भी समझ सकती हो कि दो-दो फीट ऊंची बर्फ गिरी हो तो कहीं भी आना-जाना सम्भव नहीं। जबकि हमें तो पहाड़ी खतरनाक सड़कों को तय करना है। खाने-पीने का पूरा सामान है। आराम से रहो। यहां किसी तरह का कोई खतरा नहीं।”
“कुछ और नींद ले ली जाये तो ठीक रहेगा।” चिं–हू ने गहरी सांस लेकर कहा –“बाहर तो बुरा हाल है।”
☐☐☐
सुबह के नौ बज गये। घना कोहरा छाया हुआ था। बर्फ गिरनी बंद हो चुकी थी। परन्तु घने कोहरे के कारण और बर्फ गिरी होने की वजह रास्ते नजर न आ पाने के कारण शहरी हलचल जैसे ठप पड़ चुकी थी। जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका था।
ऐसे मौसम में सफर करना तो दूर, घर से बाहर निकल पाना सम्भव नहीं था।
देवराज चौहान और जगमोहन कार में बैठे थे। शीशे पर बर्फ और धुंध थी। बाहर कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। सर्दी की अधिकता के कारण शरीर बुरी तरह अकड़ चुका था। रात से बंद कार में तो उनका वैसे ही बुरा हाल हो रहा था। चेहरे जैसे लाल सुर्ख हो रहे थे।
“उन लोगों का बाहर जाने का इरादा होता तो अब तक निकल चुके होते।” देवराज चौहान बोला।
“ऐसा बुरा मौसम है। लगता है कि वह दो दिन तक बाहर निकलने से रहे।”
देवराज चौहान ने सिर हिलाया। शीशे से बाहर देखने की कोशिश की। परन्तु शीशे पर इकट्ठी हो चुकी बर्फ और कोहरे की वजह से कुछ भी नजर नहीं आया।
“हम दो दिन तक इस तरह बैठे नहीं रह सकते।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने कार का दरवाजा खोला और सामने देखा। हर तरफ गहरी धुंध थी। बारह-पन्द्रह फीट के पार देखना सम्भव नहीं हो पा रहा था –“इस मौसम में वह, पैदल भी निकल सकते हैं।”
जगमोहन की आंखें सिकुड़ी।
“तो?”
“बर्फ गिरनी दुबारा भी शुरू हो सकती है। या फिर मौसम और भी खराब हो सकता है।” सपाट स्वर में कहते हुए देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई –“और हम इस तरह ज्यादा देर नहीं बैठ सकते। एक रात की बात तो ठीक थी।”
“तो –।” ठण्ड में सिकुड़ा जगमोहन एकाएक सतर्क सा नजर आने लगा।
“हम इन लोगों को इसी मकान में घेरेंगे।” देवराज चौहान का स्वर, मौसम से भी सर्द था –“इसके अलावा अब हमारे पास कोई रास्ता नहीं। ऐसे बुरे मौसम में, वह हमारी आंखों में धूल झोंक कर निकल सकते हैं।”
जगमोहन, देवराज चौहान के बर्फीले–सपाट चेहरे को देखता रहा।
“तुम तैयार हो?”
“हाँ।” जगमोहन के होंठों में कसाव आ गया।
“वह लोग, रात भर आराम करने के बाद ज्यादा फ्रेश होंगे। हमसे अच्छी तरह वह मुकाबले पर उतर सकते हैं।”
जगमोहन का चेहरा सुलगता सा नजर आया।
“जब रिवॉल्वर हाथ में आती तो मुकाबला इंसान नहीं, गोली करती है और गोलियां अपना काम करने के लिए हर समय तैयार रहती हैं। तुम यह बताओ, हमें हरकत में कब आना है?”
“अभी।” देवराज चौहान के होंठों में कसाव आ गया –“देर करने का कोई फायदा नहीं।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने खुले दरवाजे से टांगें बाहर निकाली और बाहर आ गया। पिंडलियों तक टांगे जमीन पर पड़ी बर्फ में धंसती चली गईं।
जगमोहन भी पीछे का दरवाजा खोलकर बाहर आ गया।
“अपने शरीर को हरकत के काबिल बना लो। सर्दी का एहसास दूर भगा दो।” कहने के साथ ही देवराज चौहान अपने हाथ-पांव हिलाने लगा।
शरीर में जमी सर्दी को दूर भगाने के लिए, जगमोहन ने भी हरकतें शुरू कर दी।
पन्द्रह मिनट में उन्होंने शरीरों को पहले से ज्यादा खुलते पाया।
“एक बात को अपने दिमाग में बिठा लो कि उन पर किसी तरह का रहम नहीं करना है। न ही वह हम पर रहम करेंगे। वह चारों चीनी खुफिया विभाग के खतरनाक एजेंट हैं। खतरनाक हैं। उनका मकसद सिर्फ अपना काम पूरा करना है। उनकी नजरों में किसी की जान की कोई अहमियत नहीं है।” देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा –“उनसे बात करने की भी जरूरत नहीं। देखा और उड़ा दो।”
“वह चार हैं।”
“पाँच भी हो सकते हैं। लेकिन मैंने चार को ही देखा।”
“माइक्रोफिल्म लियू के पास है?”
“हां। उसकी पैंट की जेब में। फिल्म को वह अपने साथियों को भी दिखाने को तैयार नहीं। हो सकता है इस दौरान उसने फिल्म निकाल कर कहीं और छिपा दी हो। कह नहीं सकता। हो सके तो लियू पर काबू पाना है। माइक्रोफिल्म लेने के बाद ही, उसे खत्म किया जाये तो बेहतर रहेगा। अगर ऐसा सम्भव न हो सके तो उसे पहले गोली मारने में कोई परहेज मत करना।”
जगमोहन ने रिवॉल्वर निकालकर चेक की।
“इस मौसम में गोली की आवाज भी ज्यादा नहीं गूंजेगी। वैसे भी मौसम इतना गंदा है कि आवाज सुनकर भी कोई बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करेगा।” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा –“आओ।”
जगमोहन ने रिवॉल्वर जेब में डाली और देवराज चौहान के साथ आगे बढ़ गया। बर्फ इकट्ठी होने की वजह से उन्हें पांव उठा-उठाकर आगे बढ़ना पड़ रहा था।
कुछ आगे जाने पर धुंध में घिरा मकान नजर आया। उस खुले रास्ते को पार करके दोनों मकान की दीवार के पास जा पहुंचे। मकान के भीतर लगे पेड़ों के पत्तों और तनों को गिरने वाली बर्फ ने ढांप लिया था। हर तरफ सुस्त और भारी सा मौसम महसूस हो रहा था। कोई भी इंसान आता-जाता नजर नहीं आ रहा था। ठण्डक से भरी सुनसानी हर तरफ विद्यमान थी।
दोनों की निगाह दीवार के पार मकान पर थी।
जब कोई हलचल नहीं मिली तो दोनों ने आंखों ही आंखों में इशारे किये और अगले ही पल वे दीवार फलांग कर भीतर की तरफ थे। मकान के छोटे से पार्क में भी बर्फ का ढेर इकट्ठा हुआ पड़ा था। दोनों बिना रुके, दबे पांव भागते हुए मकान की दीवार से जा सटे।
अब किसी तरह की कोई ठण्डक उन्हें महसूस नहीं हो रही थी। बल्कि शरीरों में तो अब मौत की गर्मी भर चुकी थी। मस्तिष्क में अब मुकाबले के अंगारे थे।
“तुम यहीं रुको।” देवराज चौहान दबे स्वर में बोला –“मैं अभी आया।” कहने के साथ ही वह दीवार के साथ आगे बढ़ गया।
रात वाली रेन वाटर पाइप के सहारे ऊपर चढ़कर, उस छोटे से रोशनदान तक पहुंचा। रोशनदान के शीशे पर भी मौसम का धुंधलका बिछ चुका था। कठिनता से वह भीतर देख पाया।
वह चारों कमरे के भीतर थे।
एक सोया हुआ था।
लियू बेड पर अधलेटी थी। तीसरा सोफे पर पसरा हुआ था। चौथा कुर्सी पर।
तीनों बातों में व्यस्त थे।
देवराज चौहान पाइप से नीचे उतरा और जगमोहन के पास पहुंचा।
“वह चारों कमरे में ही हैं और लापरवाह हैं। भीतर घुसने का रास्ता तलाश करो।”
उसके बाद देवराज चौहान और जगमोहन मकान के भीतर प्रवेश करने के लिए रास्ता तलाश करने में लग गये। मुख्य द्वार बंद था। मकान की बंद खिड़कियों को चेक करने लगे। मौत के कगार पर खड़े अब उन्हें सर्दी का दूर-दूर तक कोई एहसास नहीं था। मकान के पीछे की तरफ की खिड़की के पल्ले भिड़े मिले।
जगमोहन ने जेब से चाकू निकाल कर, उसके फल को भिड़े पल्लों के बीच फंसाया और फल को थोड़ा सा टेढ़ा करके बाहर खींचा तो पल्ले थोड़े से खुले। चाकू बंद करके जेब में डाला और हाथ से दोनों पल्ले खोल लिए। खिड़की पर ग्रिल नहीं थी।
दोनों खिड़की के रास्ते बेहद आसानी से भीतर प्रवेश करते चले गये। उनके हाथ में रिवॉल्वरें नजर आने लगी थीं और चेहरों पर जानलेवा खतरनाक भाव।
यह कमरा था। बंद दरवाजा सामने नजर आ रहा था। कमरा बिलकुल खाली था। रिवॉल्वर हाथ में दबाये आगे बढ़ा और दरवाजे के हैंडल पर हाथ टिकाकर, दरवाजे से कान लगाकर दूसरी तरफ की आहट सुनने का प्रयास किया। लेकिन कानों में किसी तरह की कोई आहट न पड़ी।
हैंडल दबाकर देवराज चौहान ने दरवाजा खोला। रिवॉल्वर वाला हाथ आगे था। सामने गैलरी थी। बिलकुल सुनसान। मकान में किसी तरह की कोई आहट नहीं थी। ऐसा लग रहा था, जैसे वहां कोई मौजूद ही न हो। देवराज चौहान गैलरी में आ गया। जगमोहन उसके पीछे था। छोटी सी गैलरी के दोनों तरफ कमरे थे। एक तरफ दो दरवाजे नजर आ रहे थे दूसरी तरफ तीन।
देवराज चौहान ठिठका। फिर उसकी सोच भरी निगाह गैलरी के आगे वाले दरवाजे पर जा टिकी। अगर वह गलत नहीं था तो यही वह कमरा था, जिसमें वह चारों थे।
जगमोहन, देवराज चौहान के करीब पहुंच गया।
“इस बंद दरवाजे वाले कमरे में वह चारों हैं।” देवराज चौहान ने फुसफुसाने वाले स्वर में कहा –“कुछ करने से पहले यह देख लो कि यहां कोई और तो नहीं है। कोई आहट नहीं होनी चाहिये। जरा सी आवाज सारा खेल बिगाड़ देगी। हर काम सावधानी से।”
देवराज चौहान और जगमोहन आगे बढ़े।
बंद दरवाजे को खोलकर, सतर्कता से भीतर झांकने लगे। इस काम में वह जरा सी भी आहट नहीं उभरने दे रहे थे कि कहीं उस कमरे वाले किसी भी तरफ से सतर्क न हो जायें।
एक दरवाजा खोलने पर देवराज चौहान और जगमोहन की आँखें सिकुड़ी। सामने एक बेड पड़ा था। उस पर बिछा बिस्तरा और पड़े कम्बल, इस तरफ इशारा कर रहे थे कि यहां कोई और भी है। लेकिन पूरा कमरा खाली था। देवराज चौहान और जगमोहन की निगाहें मिली। दरवाजे को आहिस्ता से बंद करके आगे बढ़े तो बाईं तरफ खुला दरवाजा नजर आया। वह किचन था और भीतर से हल्की–मध्यम सी आवाजें उभर रही थीं।
देवराज चौहान जल्दी से दरवाजे पर पहुंचा तो किचन में चूल्हे पर किसी को काम में व्यस्त पाया। उसने गर्म पायजामा और गर्म कमीज पहन रखी थी। ऊपर पूरी बांह का स्वेटर था और सिर पर टोपी पहन रखी थी। पांवों में जुराबें और जूते पहन रखे थे।
जगमोहन भी देवराज चौहान के करीब आ गया।
दोनों की निगाहें मिलीं।
तभी वह व्यक्ति पलटा। बगल की शेल्फ से कुछ उठाने के लिए कि उसकी निगाह दरवाजे पर पड़ी। वह ठगा सा दोनों को देखता रह गया। अगले ही पल जैसे उसे होश आया। अपना हाथ फुर्ती के साथ जेब की तरफ बढ़ाया।
देवराज चौहान और जगमोहन के हाथ में दबी रिवॉल्वरें उसकी तरफ उठ गई।
उसका हाथ वहीं रुक गया। चेहरे पर आश्चर्य और आंखों में अविश्वास था, उन दोनों की मौजूदगी वहां देखकर। वह व्यक्ति कश्मीरी था। शायद यहां खाना बनाने का काम करता था।
“यह लो लोकल व्यक्ति है।” जगमोहन फुसफुसाया।
“तुम –।” देवराज चौहान दांत भींचकर धीमे स्वर में कह उठा –“हिन्दुस्तानी होकर चीनी जासूसों का साथ दे रहे हो।”
उसके होंठ हिले। वह कुछ नहीं बोला।
“इसकी जेब में रिवॉल्वर है। देखो।” देवराज चौहान बोला।
जगमोहन आगे बढ़ा। पास पहुंचकर, रिवॉल्वर की नाल उसके पेट से सटाई। चेतावनी भरी निगाहों से उसे देखा और उसकी जेबें टटोलकर, रिवॉल्वर निकाल लिया।
“यह लोकल है, लेकिन पूरे तौर पर उनका साथी है।” देवराज चौहान क्रूर स्वर में कह उठा –“एक से साठ तक गिनती करो फिर इसके सिर पर रिवॉल्वर रखकर, गोली चला देना।” कहने के साथ ही देवराज चौहान दरवाजे से हटता चला गया।
देवराज चौहान के शब्द सुनकर, उस व्यक्ति का चेहरा दहशत से भर उठा।
“कौन हो तुम लोग?” उसके होंठों से सूखा सा स्वर निकला।
“बहुत देर बाद पूछना, याद आया।” जगमोहन रिवॉल्वर का दबाव बढ़ाकर कड़वे स्वर में कह उठा –“उल्लू के पट्ठे रात भर गिरती बर्फ में बाहर पड़े रहे। तेरे से इतना भी नहीं हो सका कि चाय ही पिला दे।”
“म–मुझे नहीं मालूम था।” वह हड़बड़ाकर बोला –“मालूम होता तो थर्मस भरकर ला देता।”
“अब तो तू गीजर भरकर भी चाय दे देगा।”
“तुम मुझे मार रहे हो।” वह होंठों पर जीभ फेर कर कह उठा।
“हाँ। सुप्रीम कोर्ट का आर्डर तूने सुना नहीं।”
“मुझे मत मारो। मैं।”
“चुप।” जगमोहन ने दांत भींचकर कहा –“चीनी जासूसों की संगत में रहता है और तेरे को सजा के रखूं।” इसके साथ ही जगमोहन ने फुर्ती से रिवॉल्वर की नाल उसके पेट से हटाकर, गर्दन से लगाई और ट्रिगर दबा दिया।
तेज धमाके के साथ उसकी गर्दन के चीथड़े उड़ गये। गोली सिर से होती निकल गई। उसके शरीर को तीव्र झटका लगा और वह छाती के बल नीचे जा गिरा।
☐☐☐
गोली का धमाका कानों में पड़ते ही, लियू, चिं–हू और दोनों चीनी चौंके।
“यह गोली चलने की आवाज है।” एक चीनी के होंठों से निकला।
चिं–हू ने फौरन रिवॉल्वर निकाल ली।
दोनों चीनी भी उठ खड़े हुए।
लियू के माथे पर बल नजर आने लगे थे। होंठ भिंच गये थे।
“बाहर तो बनारसी दास ही है।” दूसरे चीनी के होंठों से निकला।
“वह नाश्ता बना रहा था। पांच मिनट पहले ही उसके पास से होकर आया हूं।” चिं–हू ने दांत भींचकर कहा –“तुम जाकर देखो। उस बेवकूफ ने एक बार पहले भी इसी तरह, बेकार में गोली चला दी थी।”
चीनी फौरन आगे बढ़ा और दरवाजा खोलकर बाहर निकलता चला गया।
चिं–हू रिवॉल्वर थामे खुले दरवाजे को देखता रहा।
“तुम भी जाकर देखो।” लियू ने चिं–हू को देखा।
चिं–हू आगे बढ़ा और तेज-तेज कदम उठाता हुआ खुले दरवाजे से बाहर निकलता चला गया। उसके बाहर निकलते ही लियू ने फौरन रिवॉल्वर निकाल कर हाथ में ले ली।
देवराज चौहान उस कमरे के, दरवाजे के पार, दीवार से चिपका हुआ था। रिवॉल्वर हाथ में एकदम तैयार थी। उसके देखते ही देखते दरवाजा खुला और रिवॉल्वर चामे एक चीनी को, दूसरी और किचन की तरफ बढ़ते पाया। होंठ भींचे देवराज चौहान वैसे ही खड़ा उसे जाता देखता रहा।
देखते ही देखते बाईं तरफ मुड़कर वह किचन में प्रवेश कर गया।
रिवॉल्वर थामे देवराज चौहान दरवाजे की तरफ बढ़ने ही जा रहा था कि तभी रिवॉल्वर को हाथों में दबाये चिं–हू बाहर निकला और किचन की तरफ बढ़ा। दो ही कदम उठाये होंगे उसने कि एकाएक ठिठक कर, तेजी से पलटा। देवराज चौहान से उसकी निगाहें मिलीं।
तभी देवराज चौहान की उंगली हिली। कानों को फाड़ देने वाला धमाका, छोटी सी गैलरी में हुआ और गोली चिं–हू की छाती में जा धंसी। फौरन ही चिं–हू के हाथ से रिवॉल्वर छूटकर, तेज आवाज के साथ फर्श पर जा गिरी और उसने दोनों हाथों से छाती थाम ली।
उसी वक्त किचन से फायर की आवाज आई।
अब तो एक पल भी गंवाना बेकार था। देवराज चौहान तेजी से खुले दरवाजे की तरफ झपटा। दरवाजे के पास पहुंचा। लियू से उसकी आंखें मिलीं। जोकि फुर्ती के साथ दरवाजा बंद करने जा रही थी। देवराज चौहान ने रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा किया। कोई और रास्ता न पाकर लियू की टांग चली और उसकी ठोकर देवराज चौहान की छाती पर पड़ी तो, वह लड़खड़ाकर एक-दो कदम पीछे हुआ।
तब तक लियू ने फुर्ती के साथ दरवाजा बंद कर लिया।
देवराज चौहान संभला। आंखों में मौत की स्याइयां उभरी हुई थीं। तब तक जगमोहन भी पास आ पहुंचा था। दोनों की सुलगती निगाहें मिलीं फिर वही निगाहें बंद दरवाजे पर ठहर गईं।
“लियू और एक चीनी भीतर है।” देवराज चौहान के होंठों से खतरनाक स्वर उभरा।
जगमोहन की निगाह नीचे पड़े चिं–हू की तरफ गई।
“कमरे से बाहर निकलने का कोई और रास्ता है?” जगमोहन ने दांत भींचकर पूछा।
“दो खिड़कियां हैं। लेकिन उन पर मजबूती के साथ ग्रिल लगी हैं।” देवराज चौहान बोला।
“मतलब कि कोई रास्ता नहीं।” जगमोहन रिवॉल्वर जेब में डालता हुआ दरिन्दगी से कह उठा –“मैं दरवाजा तोड़ने के लिए कोई चीज ढूंढता हूं।” कहने के साथ ही जगमोहन वहां से हटता चला गया।
देवराज चौहान रिवॉल्वर थामे दरवाजे के पास ही खड़ा रहा। घात लगाये घायल शेर की तरह उसकी निगाहें एकटक दरवाजे पर थी।
☐☐☐
“क्या हुआ?” कमरे में मौजूद हक्के-बक्के से चीनी ने लियू से पूछा।
लियू की आंखों में वहशीपन के भाव थे। रिवॉल्वर हाथ में भिंचे दांत । क्रोध से धधकता चेहरा। कुल मिलाकर एकाएक वह पागल सी नजर आने लगी थी।
“क्या हुआ?” चीनी अभी भी ठीक तरह कुछ नहीं समझ पाया था –“कौन है बाहर। कौन गोलियां –?”
“देवराज चौहान।” लियू के होंठों से खरखराता स्वर निकला।
“देवराज चौहान –यह कौन है?”
“अब मुझे लगता है कि देवराज चौहान वास्तव में बेहद खतरनाक इंसान है।” लियू दांत भींचे एक-एक शब्द चबाकर कह उठी –“मैं अभी तक उसे यूं ही समझ रही थी। लेकिन वह वास्तव में बहुत खतरनाक है। धुन का पक्का है। ऐसा न होता तो अब तक वह मेरे पीछे न होता। मैंने उसे कम आंक कर गलती की है।”
“लेकिन–लेकिन यह देवराज चौहान है कौन?” तुम्हारे पीछे क्यों है?”
“देवराज चौहान हिन्दुस्तान का माना हुआ डकैती मास्टर है। माइक्रोफिल्म को पाने के लिए हिन्दुस्तान की पुलिस ने देवराज चौहान की सहायता ली। तब से ही यह मेरे रास्ते में आ रहा है। मैंने तो सोचा था कि देवराज चौहान बहुत पीछे छूट चुका है। लेकिन मैं नहीं जानती थी कि वह अपनी चालाकी से बे-आवाज मेरी बगल में ही मौजूद है।” लियू के चेहरे पर क्रोध के साथ-साथ अब चिन्ता भी नजर आने लगी थी। पहली बार, देवराज चौहान का डर उसके मस्तिष्क में सुई बन कर चुभा था।
लियू की आंखों के सामने जुगल किशोर का चेहरा चमका। देवराज चौहान के अब भी पीछे होने का मतलब है, कि जुगल किशोर ने उसके साथ डबल गेम खेली। उसने देवराज चौहान को होटल ताज पैलेस नहीं भेजा। यानी कि हर वक्त, हर समय देवराज चौहान, उसके पीछे, उस पर नजर रखे था। जुगल किशोर ने उसे सब कुछ बता दिया होगा कि वह कौन सा कदम उठा रही है। वह श्रीनगर जा रही है। जिसे उसने बेवकूफ समझकर इस्तेमाल किया, वही उसकी जड़ काट गया था।
“मेरे खयाल में देवराज चौहान से हमें घबराने की जरूरत नहीं है। वह।”
“उसने हमारे दो आदमियों को खत्म कर दिया है।” लियू गुर्रा उठी।
“कोई बात नहीं।” चीनी समझाने वाले ढंग में कह उठा –“तकलीफ तो होती है, लेकिन बात दबानी ही पड़ती है। वह डकैतियां करता है। यानी कि दौलत से उसे प्यार है। दौलत देकर उसे रास्ते से हटा देते हैं।”
“वह नहीं मानता।” लियू ने दांत भींचकर कहा –“मैं बात कर चुकी हूं।”
“कैसे नहीं मानता। वह तो।”
“दरवाजे के बाहर खड़ा है। बात कर लो।” लियू ने खतरनाक स्वर में कहा।
चीनी फौरन दरवाजे की तरफ बढ़ा। रिवॉल्वर उसके हाथ में थी।
“दरवाजा मत खोल देना।” लियू ने जल्दी से कहा।
“पागल नहीं हूं।” चीनी आगे बढ़ता हुआ, सिर हिलाकर, कह उठा।
दांत भींचे लियू की निगाह, दरवाजे पर ही थी।
चीनी दरवाजे के पास पहुंचकर ठिठका। पलटकर लियू से पूछा।
“क्या नाम बताया था उसका?”
“देवराज चौहान।”
चीनी ने दरवाजा थपथपाया और ऊंचे स्वर में बोला।
“देवराज चौहान।”
“क्या है?” देवराज चौहान का कठोर स्वर, उसके कानों में पड़ा।
“तुम क्यों लियू के पीछे पड़े हो। हमारे दो खास आदमियों की भी तुमने जान ले ली। यह ठीक बात नहीं है। हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा जो पीछे पड़े हुए हो।” चीनी दोस्ताना भाव से कह उठा।
“इस बात का जवाब लियू के पास है।”
“तुम ही बता दो।”
“मुझे वह माइक्रोफिल्म चाहिये जो लियू के पास है।”
“बेवकूफों वाली बात मत करो। माइक्रोफिल्म तुम्हारे काम की नहीं है। तुम दौलत की बात करो। जिसकी तुम्हें जरूरत है। महान चीन ने तुम जैसों के लिए दौलत के दरवाजे खोल रखे हैं। हमारे रास्ते से हट जाओ। तुम्हें इसी वक्त एक करोड़ की दौलत मिल जायेगी।” चीनी ने विश्वास भरे स्वर में कहा।
“माइक्रोफिल्म की बात करो।” देवराज चौहान का सुलगता स्वर कानों में पड़ा।
चीनी ने गर्दन घुमाकर अजीब सी निगाहों से लियू को देखा।
“यह देवराज चौहान पागल तो नहीं है?”
जवाब में लियू ने होंठ भींच लिए।
“देवराज चौहान।” चीनी पुनः दरवाजा थपथपाकर बोला –“एक करोड़ कम हैं तो, हम ज्यादा भी दे सकते हैं।”
“मेरे से बात करो तो सिर्फ माइक्रोफिल्म लौटाने की करो। और कोई सौदेबाजी नहीं होगी।”
“तुम पागल हो।” चीनी चिल्ला उठा।
देवराज चौहान की तरफ से आवाज नहीं आई।
“मैं तुम्हें नोट देने की बात कर रहा हूं और तुम माइक्रोफिल्म की बात किये जा रहे हो। तुम डकैती मास्टर हो। तुम्हारे लिए दौलत ही सब कुछ है। और हम तुम्हें दौलत दे रहे हैं।”
“जब माइक्रोफिल्म देने की बात करोगे तो तभी, मेरी तरफ से जवाब सुनोगे। बेकार की बातें सुनना और फालतू बातों का जवाब देने की आदत नहीं है मुझे।” देवराज चौहान का दरिन्दगी भरा स्वर उसके कानों में पड़ा।
चीनी ने पलट कर लियू से कहा।
“मुझे तो यह पागल लगता है।”
“पहले मुझे भी यह पागल ही लगा था।” लियू ने शब्दों को चबाकर कड़वे स्वर में कहा –“लेकिन अब मैं कह सकती हूं कि यह पागल नहीं, बेहद खतरनाक इंसान है। इससे बचना होगा।”
“कैसे?”
लियू ने कमरे में निगाह दौड़ाई।
“यहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं है?”
“नहीं।” चीनी के दांत भिंच गये।
लियू की निगाह खिड़की पर अटकी।
“खिड़की की ग्रिल हटाई जा सकती है।” लियू ने फौरन कहा।
“नहीं।” चीनी ने खिड़की की तरफ देखकर भिंचे दांतों से कहा –“खिड़की के पल्ले खोलने पर, तुम्हें ग्रिल नजर आयेगी। वह मैंने फिक्स करवा दी थी यह सोचकर कि, कोई ग्रिल हटाकर, बाहर से भीतर न आ जाये। लेकिन कभी यह नहीं सोचा था कि, भीतर से भी बाहर निकलने की जरूरत पड़ सकती है।”
बरबस ही लियू का हाथ अपनी पैंट की जेब पर गया। जहां माइक्रोफिल्म मौजूद थी। चेहरे पर गुस्सा और बेचैनी दौड़ रही थी। फिल्म के साथ यहां से निकलना, बहुत जरूरी था।
“मुझे यहां से बाहर निकालो। वरना सब कुछ।”
“चिन्ता मत करो। वह कितने लोग हैं?”
“दो।”
चीनी मुस्कराया और फोन की तरफ बढ़ा।
“चिन्ता मत करो। कुछ ही देर में यह दोनों चूहे की तरह हमारे कब्जे में फंसे होंगे।” वह फोन के पास पहुंचा और रिसीवर उठाकर, नम्बर मिलाने लगा।
लियू की आंखों में चमक उभरी। चेहरे पर राहत के भाव नजर आने लगे।
☐☐☐
तीन-चार मिनट बाद जगमोहन लौटा। हाथ में छोटा सा थैला था।
देवराज चौहान ने सवालिया निगाहों से उसे देखा।
“एक कमरे में यह थैला पड़ा था। इसमें टाइम बम है।” जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा –“उड़ा दें।”
देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी के भाव उभरे। उसने थैले में हाथ डालकर टाइम बम निकाला।
“पावर फुल टाइम बम है।” जगमोहन कह उठा।
टाइम बम को देखने के बाद देवराज चौहान ने होंठ भींचकर बंद दरवाजे को देखा।
“इस दरवाजे को तोड़ा गया तो, टूटते ही वह लोग भीतर से गोलियां बरसाना शुरू कर देंगे।” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा।
“अपने बचाव में तो वह उनका पहला कदम होगा।” जगमोहन ने सिर हिलाया।
“और हमें ऐसी कोई गर्ज नहीं कि उन्हें जिंदा ही पकड़ना है।” देवराज चौहान खतरनाक स्वर में कह उठा।
जगमोहन ने होंठ सिकोड़कर देवराज चौहान के सुलगते चेहरे को देखा।
“ऐसे दो बम लगा दो। एक दरवाजे पर, दूसरा कुछ दीवार के साथ।”
“लेकिन –“जगमोहन हड़बड़ा उठा –“यह दो बम तो मकान का, तिनका–तिनका बिखेर देंगे।”
“इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता और वह लोग चीनी जासूस हैं। उनका बस चले तो, वो हमें मार दें। बम लगाओ।”
इसके बाद तो जगमोहन ने भी देर नहीं की बम लगाने में।
बम लगाकर चौथे मिनट दोनों मकान के बाहर, उसी बर्फ से ढकी कार के पास पहुंच गये। सिर्फ डेढ़ मिनट का वक्त था बम फटने में। और जब दोनों बम एक साथ फटे तो वास्तव में मकान का तिनका–तिनका बिखरने वाला ही, नजारा सामने था।
डेढ़ मिनट में ही वह मकान खण्डहर बन गया था। मकान की आधी से ज्यादा दीवारें मलबे में बदल चुकी थीं। मकान की छत एक तरफ से झुक गई थी। सब कुछ उजड़ गया था। वातावरण में फैली धुंध में धूल भी शामिल हो गई थी। जो थोड़ा बहुत नजर आ रहा था, वह भी दिखना बंद हो चुका था।
“आओ।” रिवॉल्वर थामे देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा –“वक्त कम है। वह लोग अगर सलामत हुए तो भाग भी सकते हैं। सावधानी से, वह हमारी घात में भी हो सकते हैं। पुलिस का तो इस मौसम में अभी आने का कोई चांस नहीं, लेकिन आसपास के लोग झांकने आ सकते हैं। हमें फौरन अपना काम निपटाना है।”
दोनों तेजी से मलबा बन चुके, मकान की तरफ बढ़ गये।
उस चीनी का सिर किसी ईंट वगैरह लगने से फटा हुआ था। खून ने बहकर, पूरे चेहरे को सुर्ख कर रखा था। एक दीवार जैसे पूरी की पूरी उड़कर उस पर आ गिरी थी। जिससे उसकी दोनों टांगें कुछ इस तरह दब गई थीं कि उसका हिलना सम्भव नहीं हो पा रहा था। उसकी आंखों में गुस्सा और खौफ चमक रहा था। बाहर की सर्द हवाएं अब उसके शरीर को छू रही थीं। वह अभी तक नहीं समझ पाया था कि क्या हो गया है। खुद को ईंटों की दीवार के नीचे से निकालने की भरपूर कोशिश की, परन्तु सफल नहीं हो सका। तभी उसकी निगाह पास पड़ी रिवॉल्वर पर पड़ी तो, उसे हाथ में पकड़ लिया।
अजीब से हाल में था वह चीनी।
तभी उसके कानों में कदमों की आहटें पड़ीं। वह सतर्क हो उठा। दोनों टांगों के दबे होने की वजह से वह बेबस था। धूल और धुंध में उसने दो सायों को देखा तो समझ गया कि यही देवराज चौहान और जगमोहन हैं। जिन्होंने सब कुछ बरबाद कर दिया है।
रिवॉल्वर वाला हाथ उठाकर, चीनी ने निशाना लेने की कोशिश की।
ठीक तभी फायर की आवाज गूंजी और उसकी छाती में गोली जा धंसी। तेज चीख के साथ रिवॉल्वर उसके हाथ से निकल गई। छाती को थामे वह तड़प उठा। दूसरा फायर हुआ। गोली उसके माथे में जा घुसी। तीव्र झटके के पश्चात उसका शरीर ठण्डा होता चला गया।
देवराज चौहान और जगमोहन आपस में फासला बनाये लियू को ढूंढने लगे। जो मलबे में दबी नजर आई। छत और ईंटों के टुकड़े उस पर पड़े थे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने ईंटें उठाकर उस पर फेंकी हो। मलबे में उसका आधा शरीर ही नजर आ रहा था।
देवराज चौहान और जगमोहन उसके शरीर पर फैला मलबा हटाने लगे। वह हाथ-पांव फैलाये पड़ी थी। उसके माथे से भी खून बह रहा था। उसके ऊपर धूल ही धूल थी।
“गई यह भी काम से।” जगमोहन ने होंठ सिकोड़ कर कहा।
देवराज चौहान नीचे झुका और लियू के कपड़ों की तलाशी लेने लगा। आधे मिनट में ही पैंट की जेब से माइक्रोफिल्म मिल गई। हथेली पर माइक्रोफिल्म रखे देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ।
“यही है?” जगमोहन ने गहरी सांस ली।
“हां।” देवराज चौहान फिल्म को जेब में डालता हुआ बोला –“चलो यहां से।”
उसके बाद दोनों पलटे और बाहर निकलते चले गये। मकान के बाहर दस-पन्द्रह लोग खड़े थे। दोनों रिवॉल्वरों को जेब में डाल चुके थे।
“क्या हुआ जनाब। मकान को क्या हुआ?” एक ने उन्हें देखते ही पूछा।
“मालूम नहीं। हम भी यही जानने भीतर गये थे। आप भी भीतर जाइये। देख आइये। हम भी देखकर ही आ रहे हैं।” जगमोहन ने शांत स्वर में कहा।
“क्या देखा आपने भीतर?”
“कुछ भी नहीं। जी हां । वहां कुछ भी नहीं, आप भी देख आइये।” कहने के साथ ही जगमोहन आगे बढ़ गया।
वह आदमी चेहरे पर उलझन के भाव लिए खड़ा रह गया।
“भीतर मत जाना।” पास खड़े व्यक्ति ने कहा –“यहां बम फटे हैं। और भी फट सकते हैं। चलते हैं यहां से।”
☐☐☐
देवराज चौहान और जगमोहन के कदमों की आहटें जब कानों में पड़नी बंद हो गईं। इस बात का विश्वास हो जाने पर कि वह दोनों यहां से दूर हो गये हैं और वापस नहीं आने वाले, लियू ने आंखें खोली। यही आंखें वह पहले खोल देती तो देवराज चौहान ने उसे जिन्दा नहीं छोड़ना था।
लियू की हालत ठीक नहीं थी।
जिस्म का हर हिस्सा टूटा लग रहा था। माथे पर चोट थी। सिर के पीछे वाले हिस्से में जाने क्या टकराया था कि अभी तक पीड़ा से सिर चकरा रहा था। घुटने पर उड़ती हुई, ऐसी ईंट आकर लगी थी कि टांग ही जिस्म से अलग महसूस हो रही थी। पूरे बदन की हालत ऐसी हो रही थी, जैसे किसी ने उसे मटके में डालकर जामुन की तरह जोरों से हिला दिया हो।
दस मिनट की कोशिश के बाद उठकर, बैठने के काबिल हुई। सिर में ऐसी पीड़ा थी कि पूरा कैमरा घूमता हुआ लग रहा था। और टांग घुटने से नहीं मुड़ पा रही थी। हर तरफ पीड़ा उछालें मार रही थी। एक कदम भी उठा पाने की स्थिति में नहीं थी वह। उसे स्ट्रेचर की जरूरत थी। परन्तु उसे उठना था। वह जानती थी कि पुलिस कभी भी आ सकती है। फिर तो उसका बच पाना सम्भव ही नहीं था।
वह उठी। जैसे-तैसे उठी।
घुटना नहीं मुड़ रहा। टांग घसीटते हुए वह उठी। जोरों से चक्कर आया। परन्तु किसी तरह खुद को संभाला। वह जानती थी कि इस समय यहां से दूर हो जाना ही बेहतर है। लड़खड़ाते, टांग घसीटते किसी तरह, धीरे-धीरे वह आगे बढ़ी। सामने वाली तरफ से निकलना ठीक नहीं था। वह लोग हो सकते हैं। पुलिस टकरा सकती है। वह अपने जिस्म को खींचती हुई, मकान के पीछे वाले हिस्से की तरफ बढ़ी। उस तरफ भी निकलने के लिए दरवाजा था। दरवाजे के पार गली थी।
किसी तरह यहां से दूर हो सकती थी।
लियू के धूल और खून से भरे चेहरे पर पीड़ा ही पीड़ा थी। कोई और वक्त होता तो अपने जिस्म को हिलाने की भी न सोचती। परन्तु हिन्दुस्तानी पुलिस के हाथों में पड़ गई तो सारी जिन्दगी जेल में बितानी होगी। इसी सोच ने उसके शरीर में थोड़ी-बहुत हिम्मत भर रखी थी जिससे वह अपने शरीर को घसीटे जा रही थी।
परन्तु देवराज चौहान का नाम उसके दुश्मनों की नम्बर वन हिट लिस्ट में लिखा जा चुका था। यही सोच रही थी कि अगर जिन्दगी में दोबारा मौका मिला तो मिशन देवराज चौहान कायम करेगी। और उस मिशन का एक ही मकसद होगा। देवराज चौहान को खत्म करना।
अपनी बिगड़ी हालत से ज्यादा उसे इस बात का अफसोस था कि माइक्रोफिल्म देवराज चौहान ले गया। जिसे पाने की कोशिश में उसने क्या-क्या नहीं किया। जब देवराज चौहान ने उसकी जेब से माइक्रोफिल्म निकाली थी, तब वह इस स्थिति में नहीं थी कि उसे रोक पाती। वह तो उसे मरा हुआ समझ कर छोड़ गये थे। अगर उन्हें जरा भी शक होता कि वह जिन्दा है तो उन्होंने एक गोली और चला देनी थी।
किसी तरह लियू ने मकान का पीछे वाला दरवाजा खोला और दर्द भरे शरीर, अकड़ चुकी टांग को घसीटते-घसीटते बाहर निकलती चली गई। बाहर इकट्ठी हुई बर्फ की वजह से, आगे बढ़ने से उसे और भी तकलीफ होने लगी। परन्तु वह लियू थी। चीन की खतरनाक जासूस। जिसने हिम्मत हारना नहीं सीखा था।
☐☐☐
देवराज चौहान और जगमोहन रास्ते में इकट्ठी हो चुकी बर्फ में जूतों वाले पांव उठा-उठाकर रखते हुए आगे बढ़ रहे थे। बर्फ में पिंडलियां डूबे रहने की वजह से, सुन्न हो चुकी थी। जूते गीले थे। पैंट घुटनों तक गीली थी। किसी होटल में कमरा लेकर, आराम करना इस वक्त उनके लिए बेहद जरूरी था।
देवराज चौहान ने बाएं हाथ में माइक्रोफिल्म ले रखी थी। जिसे वह आगे बढ़ते हुए रह-रहकर उछाल रहा था। चेहरे पर अजीब से भाव उभरे हुए थे।
“कमाल की है यह माइक्रोफिल्म।” जगमोहन मुस्कराया –“जितनी छोटी है उतनी ही, खतरनाक है।”
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा। शांत भाव से मुस्कराया।
“अब तो वानखेड़े से नोट मिले ही मिले।” जगमोहन खुश था।
देवराज चौहान ने आसपास देखा। यह खुला इलाका था। एक तरफ पहाड़ी थी। दूसरी तरफ खाई। सड़क पर बर्फ की वजह से वाहनों का आना-जाना बंद था। न ही कोई इंसान गुजर रहा था।
“मैं इसे ऊपर उछाल रहा हूं।” देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा –“नीचे आये तो पकड़ना।”
“किसे माइक्रोफिल्म को?”
“हां।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने छोटी सी माइक्रोफिल्म को ऊपर उछाल दिया।
जगमोहन जल्दी से आगे बढ़ा। फिल्म को हवा में ही पकड़ लेने के लिए।
इससे पहले वह नीचे आती।
फायर की तेज आवाज के साथ ही माइक्रोफिल्म की धज्जियां हवा में बिखरती चली गई।
जगमोहन ठगा सा रह गया। दूसरे ही पल उसकी निगाह, माइक्रोफिल्म के छोटे-छोटे टुकड़ों पर पड़ी। जो बर्फ पर बिखरे हुए थे। हक्का-बक्का सा जगमोहन, फौरन देवराज चौहान की तरफ घूमा।
देवराज चौहान के हाथ में रिवॉल्वर दबी हुई थी। नाल से मध्यम सा धुआं निकल रहा था। चेहरे पर मुस्कान समेटे, वह जगमोहन को ही देख रहा था।
“यह तुमने क्या किया?”
“इससे पहले कि ‘तबाही’ तबाही मचाती। मैंने उसे पहले ही खत्म कर दिया।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने रिवॉल्वर की नाल में फूंक मारी और उसे जेब में डाल लिया।
“क्या मतलब?”
“इस माइक्रोफिल्म में परमाणु बम का फार्मूला था कि कैसे छोटे आकार और कम लागत वाला परमाणु बम बनाया जा सकता है, जो बड़े परमाणु बम जितना ही खतरनाक हो। वैसी ही ताकत रखता हो।”
“तो।”
“यह फार्मूला दुनिया को मौत की तरफ धकेलने के प्रयास का हिस्सा था।”
“लेकिन इसे हिन्दुस्तान के वैज्ञानिकों ने बनाया था। उनकी बरसों की मेहनत –।”
“तो क्या हो गया।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा कर कहा –“मौत तो मौत ही होती है। बेशक उसे अपनों ने तैयार किया हो या दूसरों ने। यह माइक्रोफिल्म ‘तबाही’ के अलावा और कुछ नहीं थी। इसका किसी भी देश के पास पहुंचना खतरनाक था। इस माइक्रोफिल्म में, मौत को सस्ता कर देने का फार्मूला था। मौत तो मौत ही होती है। सस्ती हो या महंगी।”
“लेकिन यह काम तो दुनिया के अधिकतर देश कर रहे हैं।”
“जहां तक हमारा हाथ पहुंच सकता है। वहां तक की तो गारंटी हम ले सकते हैं और दुनिया को मौत के रास्ते पर ले जाने वाली चीज को खत्म किया भी। भविष्य में ऐसा कुछ सामने आया तो उसे भी इसी तरह खत्म किया जायेगा।”
जगमोहन गहरी सांस लेकर रह गया।
“मेरे नोट तो डूब गये, जो वानखेड़े ने देने थे।”
“अगर एक परमाणु बम भी गिर गया तो हम क्या करेंगे।” देवराज
चौहान मुस्कराया –“कुछ भी नहीं। इसलिए हमारी यही कोशिश होनी चाहिये कि दुनिया में ‘तबाही’ की शुरुआत ही न हो और हमारा काम इसी तरह चलता रहे।”
बरबस ही जगमोहन के होंठों पर मुस्कान उभरी।
“हमसे बढ़िया तो चिपकू रहा।”
“चिपकू?”
“वही, जुगल किशोर।” जगमोहन ने मुंह बनाया –“इस मामले में वह बीस लाख तो बना गया।”
अब जुगल किशोर पास होता तो, जगमोहन की बात का जवाब, ठोक-बजाकर देता।
देवराज चौहान के होंठों पर बराबर मुस्कान छाई रही।
दोनों सड़क पर इकट्ठी हुई पड़ी बर्फ पर कदम रखते, आगे बढ़ते रहे।
समाप्त
0 Comments