भारकर डीसीपी पुजारा के ऑफिस में पेश हुआ।

सैल्यूट कबूल करने की औपचारिकता के बाद डीसीपी ने अपने ख़ास मातहत को सीट पेश की और आमद का सबब पूछा।
“सर” – भारकर अदब से बोला – “आप जानते हैं कि एसआई गोरे की ख़ुदकुशी का केस आफिशियली अभी भी क्लोज़ नहीं हुआ है, हालांकि वो ख़ुदकुशी का ओपन एण्ड शट केस है।”
“ऐसे केस को भी पूरी पड़ताल की ज़रूरत होती है।”
“आई अंडरस्टैंड, सर। इसी वास्ते मैं ख़ुद उसको मॉनीटर कर रहा हूँ। और इसी वास्ते मुझे रेमंड परेरा से बात करना ज़रूरी लग रहा है।”
“वो कौन है?”
“कोलाबा की मशहूर, एक्सक्लूसिव, हाई-फाई टोपाज़ क्लब का संचालक
“अच्छा वो? मैं क्लब के नाम से बाखूबी वाकिफ था लेकिन उसे चलाता कौन है, नहीं मालूम था।”
“रेमंड परेरा चलाता है।”
“ओके। करो बात। क्या प्रॉब्लम है?”
“मैं कोलाबा नहीं जाना चाहता। टोपाज़ क्लब मेरे थाने की ज्यूरिसडिक्शन में नहीं है। उससे बात करने के लिए मेरे वहां जाने से मेरी हैसियत खराब होती
“नॉनसेंस! कोलाबा थाने के एसएचओ कौशिक को साथ लेकर जाओ।”
“कुछ ख़ास मालूमात के लिए मैं उसे अपने थाने में तलब करना चाहता हूँ।”
“करो।”
“फौरन तलब करना चाहता हूँ। वो आने से इंकार तो नहीं कर सकता, लेकिन अपनी, अपनी क्लब से ताल्लुकात रखती मसरूफियात के बहाने फौरन आने में हील हुज्जत कर सकता है।”
“तो?”
“मैं उसे आपके नाम से बुलाना चाहता हूँ। सर, कोलाबा थाना भी तो आप ही की ज्यूरिसडिक्शन में है।”
“मैं उससे क्या बात करूँगा?”
“सर, बात मैं करूँगा। खाली बुलावा आपका होगा। और उससे आपको कोई डिस्टर्बेस नहीं होगी। आपके हवाले से मैं सब सम्भाल लूँगा।”
“श्योर?”
“यस, सर। फिर भी आपके दखल की ज़रूरत पड़ेगी तो मैं ख़ुद उसे आप के पास लेकर आऊंगा।”
“ओके। गो अहेड।”
“थैक्यू, सर।”
आधे घन्टे मैं रेमंड परेरा थाने में मौजूद था जबकि उसने कोलाबा से ही नहीं, विले पार्ले से आना था।
ऐसा ही जहूरा था डीसीपी के समन का।
थाना परिसर में भारकर ने सबको पहले ही समझाया हुआ था कि रेमंड परेरा करके भीड़ डीसीपी पुजारा को पूछता आएगा लेकिन उसे पहले एसएचओ के पास – उत्तमराव भारकर के पास – पेश किया जाना था।
अब अपनी अप्रसन्नता छुपाता रेमंड परेरा भारकर के ऑफिस में उसके सामने मौजूद था।
“मैं इधर क्या करता है?” – परेरा भुनभुनाया – “मेरा डीसीपी पुजारा के साथ अप्वॉयटमेंट।”
“डीसीपी साहब अभी बिज़ी हैं।” – भारकर सहज भाव से बोला।
“बोले तो जिसने ख़ुद बुलाया, ये टेम बुलाया, वो बिज़ी!”
“हां। ऐनी प्रॉब्लम?”
“है न! मैं क्या कम बिजी है! सौ काम छोड़ के, ख़ास टेम निकाल के ऑन दि डबल इधर आया, किस वास्ते? वेट करने का वास्ते? मैं साला एयरपोर्ट पर! मेरा फ्लाइट लेट जो वेट करता है?”
“मत करो।”
“क्या बोला?”
“मत करो बोला। डीसीपी की हुक्मउदली का दम हो तो मत करो।”
परेरा तिलमिलाया, उसने बेचैनी से पहलू बदला लेकिन ख़ामोश रहा।
“मेरे से बात करो...”
उसने तमक कर सिर उठाया।
“. . . हो सकता है डीसीपी साहब से बात करना ज़रूरी ही न रहे।”
“ऐसा?”
“बहुत बिज़ी ओहदा है डीसीपी का। अपनी पावर्स सबार्डीनेट्स को डेलीगेट न करे तो काम नहीं चलता। समझो आपको” – भारकर ने नकली अदब दिखाने के लिए ‘आप’ पर अतिरिक्त जोर दिया – “डील करने की डीसीपी साहब ने मेरे को छूट दी। ओके?”
परेरा ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“तो मैं शुरू करूँ?”
“क्या?” – परेरा सकपकाया।
“चन्द सवाल पूछना।”
“कैसे सवाल?”
“पता लगेगा न! जब पूछूगा तो सुनोगे न?”
“ओके। शूट।”
“किस हैसियत से आपका ताल्लुक टोपाज़ क्लब से है?”
“बोले तो?”
“मालिक हैं?”
“कोई शक?”
“जवाब दीजिए।”
“हां।”
“सोल ओनर या कोई पार्टनरशिप?”
“सोल ओनर।”
“जिस इमारत में क्लब है, उसके भी?”
“हां।”
“पेपर्स दिखा सकते हैं?”
“कैसे पेपर्स?”
“ओनरशिप के पेपर। मसलन प्रापर्टी की म्यूनिस्पैलिटी के रिकॉर्ड के मुताबिक रजिस्ट्री। हॉस्पिटैलिटी बिज़नेस के रूल्ज़ के मुताबिक क्लब का रजिस्ट्रेशन। बार परमिट। फायर सेफ्टी क्लियरेंस वगैरह?” ।
परेरा ख़ामोश हो गया, उसने फिर पहलू बदला।
“टोपाज़ क्लब जैसी एस्टैब्लिशमेंट चलाने के लिए तीस से ज़्यादा महकमों से क्लियरेंस की ज़रूरत होती है। सब चौकस हैं?”
“मकसद क्या है ये सब पूछने का?”
“इतनी लार्ज इनवेस्टमेंट का सोर्स क्या है? सोर्स चौकस है तो क्या वो इंकम टैक्स पेड है? इंकम टैक्स डिपार्टमेंट, डायक्टरेट आफ रेवेन्यू, ईवन मुम्बई पुलिस इस बारे में इंक्वायरी रेज़ करे तो फेस कर लेंगे! न फेस कर पाए तो जानते हैं न, प्रापर्टी की अटैचमेंट का ऑर्डर हो सकता है और आप और किसी चार्ज में नहीं तो इंकम टैक्स इवेज़न में गिरफ्तार हो सकते हैं!”
“बहुत लम्बी-लम्बी छोड़ रहे हो, इन्स्पेक्टर साहब ...”
“एसएचओ साहब।” – भारकर का स्वर शुष्क हुआ।
“वॉटऐवर। मैं बोला कि मकसद . . .”
“मैं सुना। वैसे तो बिना मकसद भी सब कुछ पूछा जा सकता है लेकिन मकसद भी है बराबर।”
“क्या?”
“टोपाज़ क्लब बेनामी प्रापर्टी है। तमाम कारोबार बाई प्रॉक्सी चल रहा है।”
“प्रॉक्सी बोले तो?”
“हवाला से चल रहा है।”
“नॉनसेंस!”
“प्रापर्टी का असली मालिक इन्तख़ाब हक्सर है जो दुबई में बैठेला है।”
परेरा जैसे आसमान से गिरा।
“हक्सर बोला मैं! कुछ पकड़ में आया?”
परेरा ने थूक निगली।
“ये बिजनेस हवाला के पैसे से खड़ा हुआ है, बेनामी की प्रापर्टी है जिसका तू – एकाएक भारकर सब अदब भूल गया, उसका स्वर कर्कश हुआ – “कस्टोडियन है, रखवाला है। तू इन्तख़ाब हक्सर का ख़ाली फ्रंट है और तेरी हैसियत उसका मुलाज़िम होने के अलावा कुछ नहीं है। तू एक मामूली टपोरी है जिसको इन्तख़ाब हक्सर मुंह लगा के रखा, बस। इसके अलावा बजातेख़ुद तेरी कोई औकात नहीं। बोल, कि मैं बोम मारता है! मुंह पकड़ मेरा!”
परेरा रूमाल निकाल कर यूं मुंह-माथा पोंछने लगा जैसे पसीना आ रहा हो।
भारकर को उसकी उंगलियां कांपती साफ दिखाई दीं।
गुड!
“साला बोम मारता है, खाली पीली फैलाता है कि पीठ पर कराची वाले ‘भाई’ का हाथ, जबकि वो या उसका आर्गेनाइज़ेशनल सैट अप, तेरे वजूद से भी वाकिफ नहीं। साला ‘भाई’ के नाम के दम पर ख़ुद को भाई प्रोजेक्ट करता है और अपनी रोटियां सेंकता है” – उसने मोरावाला के अलफाज़ दोहराए – “साइलेंटली, स्नीकिंगली अपनी हैसियत बनाता है। यूं साला दुबई बैठेले मालिक को भी चक्कर देता है, बोले तो उस हाथ को भी काटता है जो उसे निवाला देता है। खुद को भाई’ मशहूर कर के भाईगिरी में वसूली, छीनाझपटी करता है। अभी ऑलिव बार पर दांत गड़ाता था। सीधे से पेश नहीं चली तो साला एक पार्टनर टपका दिया। साला दो टके का फंटर मेरे को . . . मेरे को हल देता है।”
“क-कौन?”
“जैसे तेरे को मालूम नहीं!”
अब वो साफ-साफ बदहवास दिखाई दे रहा था।
“इधर आ जाना आसान पण निकल लेना मुश्किल, बाज टेम तो नामुमकिन। अभी मालूम करता है लॉक अप में कितना स्पेस बाकी। इम्पॉर्टेंट करके भीड़ आया न, इम्पॉर्टेट कर के ट्रीट करने का न! करता है इन्तज़ाम।”
“तुम ऐसा नहीं कर सकता।” – एकाएक परेरा भड़का – “आई एम ए रिस्पैक्टेबल बिज़नेसमैन। बोले तो इम्पॉर्टेट करके भीड़...”
“मैं और क्या बोला?”
“मैं . . . मैं” – वो यूं उछल कर खड़ा हुआ कि पीछे कुर्सी उलटते बची - “डीसीपी पुजारा के पास जाता है .....”
“सिट डाउन!” – भारकर कर्कश स्वर में बोला।
“...जो कि मेरे को कॉल किया। जाता है मैं।” वो घूमा और मज़बूत कदमों में चलता दरवाज़े की ओर बढ़ा।
“खबरदार!”
उस घड़ी भारकर का लहजा ऐसा कहर बरसा रहा था कि परेरा यूं थमक कर खड़ा हुआ जैसे सामने कोई अदृश्य दीवार आ गई हो। स्लो मोशन के अन्दाज़ से वो वापिस घूमा। ये देखकर उसके नेत्र फैले कि भारकर उस पर गन ताने था।
परेरा ने जोर से थूक निगली।
“फरार होना मांगता था।” – भारकर भावहीन स्वर में बोला – “रोकने के वास्ते शूट करना पड़ा। ऐनी प्रॉब्लम?”
“थ-थाने से . . . थाने से फरार! कौन मानेगा?”
“कौन पूछेगा? तू तो मरा पड़ा होएंगा?”
परेरा ने बेचैनी से पहलू बदला।
“कम बैक हेयर।”
वो वापिस लौटा।
“सिट।”
उसने आदेश का पालन किया।
“भाई की शह पाया कोई मवाली ही पुलिस को इतना कम करके आंक सकता है” – भारकर अपलक उसे घूरता बोला – “बोलता है रिस्पैक्टेबल करके बिजनेसमैन! अभी देता है न फुल रिस्पैक्ट! निकालता है न पेंदे में बांह देकर फुल रिस्पैक्ट!”
उसने काल बैल की तरफ हाथ बढ़ाया।
“वेट!” – परेरा व्यग्र भाव से बोला – “वेट! प्लीज!”
भारकर की घन्टी बजाने की कोई मर्जी नहीं थी, उसने बड़े ड्रामाई अन्दाज से घन्टी की ओर बढ़ता हाथ वापिस खींच लिया।
“क्या मांगता है, बाप?” – परेरा अकड़-फूं से मुक्त दबे स्वर में बोला।
“मैं!” – भारकर ने नकली हड़बड़ाहट जाहिर की – “मैं तो कुछ नहीं मांगता! मैं तो खाली बेनामी का एक केस पकड़ा, फौजदारी का एक केस पकड़ा, अभी मुजरिम को एडमिट करता है न!”
“मैं कोई फौजदारी नहीं किया।”
“किया न बरोबर! तभी तो मेरे हाथ में गन। क्या!”
“नीचे करो। प्लीज।”
“प्लीज बोलता है तो ....”
भारकर ने उस पर अहसान-सा करते हुए गन मेज के दराज में रख ली।
“थैक्यू!” – परेरा बोला – “अभी बोले तो मैं कोई फौजदारी नहीं किया।”
“करवाया।” – भारकर बोला – “तूने करवाया तो तेरा खासवाला किया। वो कुत्ता कियाजोमेरेपर...मेरेपर भौंकताथा। तेराखास विनायक घटके किया।साला चिन्दीचोर और किसी को भी नहीं, एक थाने के एसएचओ को हूल देता था। आज ही . . . आज ही गोटी से न लटकाया तो बोलना।”
“मैं रेमंड परेरा, कोई फौजदारी नहीं किया।”
“किया बरोबर। पढ़ा लिखा है?”
“हं-हां।”
“दैन यू मस्ट अन्डरस्टैण्ड दैट टु एड एण्ड अबैट एक क्राइम इज़ आलसो ए क्राइम। कत्ल करवाने वाला भी उसी सजा का हकदार होता है जिसका कि कत्ल करने वाला। सजा बोले तो! झूला! डेलीब्रेट कोल्डब्लडिड मर्डर की सजा फांसी। क्या!”
परेरा खुद को घूरते भारकर से निगाह न मिला पाया।
“तेरी गिरफ्तारी के लिए तो इतना ही काफी होगा कि मुल्क से फरार एक मुजरिम से तेरे ताल्लुकात हैं।”
“क्या मांगता है, बाप!” — वो दयनीय भाव से बोला – “अभी बोलने का न! प्लीज़ करके बोलता है।”
“हां, ये टोन पसन्द मेरे को। बोलता है इस वास्ते। सुनता है लाउड एण्ड क्लियर?”
परेरा ने व्यग्र भाव से गर्दन हिलाई।
“मेरे को” – भारकर का स्वर धीमा पड़ा – “वो वीडियो रिकॉर्डिंग मांगता है जो तेरा ख़ास साला हरामी घटके पिछले सोमवार को मेरे से श्यानपत्ती करके वरली के अपने फ्लैट में बनाया। गारन्टी के साथ मांगता है कि वो, तू या कोई दूसरा किधर कोई कॉपी नहीं रखा। क्या!”
परेरा के कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“अभी का अभी मांगता है।”
“वो डेस्ट्राय कर देगा न! मैं बोलेगा तो वो . . .”
“आई रिपीट, मेरे को मांगता है, गारन्टी के साथ मांगता है कि किधर कोई कॉपी नहीं।”
“बाप, वो रिकॉर्डिंग उसके खिलाफ भी तो सबूत है कि तुलसीवाडी वाला डबल मर्डर वो किया!”
“और तू करवाया।”
परेरा ख़ामोश रहा।
“मैं वो रिकॉर्डिंग तेरे सामने डेस्ट्रॉय करूँगा। फिर कैसा सबूत? किसके खिलाफ सबूत!”
“तुम उसको ख़ास गवाही देने पर भी तो मजबूर करना मांगता है! वो गवाही देना तो उसके लिए ख़ुद अपना डैथ वारन्ट साइन करना होगा!”
“कुछ नहीं होगा। मैं बोला न, उसकी गवाही इस शर्त पर होगी कि उसको वादामाफ गवाह बनाया जाएगा।”
“पण वादामाफ गवाह बनाने का अख्तियार तुम्हेरे को किधर है! वो तो सरकारी वकील को होता है!”
“केस के इनवैस्टिगेटिंग ऑफिसर को भी होता है जो कि मैं हूँ।”
“उसका काम, बोले तो, सलाह देना होता है, इस बाबत फैसला सरकारी वकील ने ही करना होता है।”
“सरकारी वकील मेरी जेब में है।”
“कौन सा? सरकारी वकीलों का तो पैनल होता है। ये जरूरी किधर है कि इस केस के लिए तुम्हेरी जेब वाला सरकारी वकील ही अप्वॉयन्ट हो? या तमाम के तमाम सरकारी वकील तुम्हेरी जेब में हैं?”
भारकर ने खा जाने वाली निगाह से उसे देखा। “भाव नहीं खाने का, बाप। सवाल ही तो पूछता है!”
“कैसे सवाल पूछता है? जिनसे तेरी श्यानपत्ती की हाजिरी लगती है। क्या?” परेरा ने जवाब न दिया। कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“देख” – आखिर भारकर नम्र स्वर में बोला – “मेरा एक प्रॉब्लम है जो मेरे को सॉल्व करना मांगता है। क्या प्रॉब्लम है, मगज में डालता है मैं तेरे। वो क्या है कि वो टेम एसीपी के सामने मैं ज़रूरत से ज़्यादा बोल गया था। मेरे मुंह से निकल गया था कि घटके हल्फिया बयान देगा कि तुलसीवाडी वाली वारदात के सिलसिले में उसकी गोरे से सांठ-गांठ थी और गोरे की आगे टोपाज़ क्लब के बिग बॉस रेमंड परेरा के पास, तेरे पास हाजिरी थी। तेरा अपने ख़ास भीड़ घटके को हुक्म था कि वो ऑलिव बार के पार्टनर को टपकाने के मामले में गोरे के साथ मिल के काम करे। ये बात गोरे के खिलाफ कई सबूतों में से एक थी लेकिन जो बड़े-बड़े और मोस्ट इम्पॉर्टेट करके सबूत गोरे के खिलाफ थे – जैसे मकतूला नीरजा नायक ने बतौर शूटर गोरे की तसदीकशुदा शिनाख़्त की थी, जैसे मर्डर वैपन गोरे के घर से बरामद हुआ था, जैसे ख़ुदकुशी की वारदात लॉक्ड फ्लैट में हुई थी, पुलिस को फ्लैट का बन्द दरवाजा तोड़कर भीतर दाखिल होना पड़ा था- उनके सामने घटके का बयान कोई बड़ी अहमियत अख्तियार नहीं करने वाला। सुनता है?”
परेरा ने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“मैं रिपीट करता है, बोले तो घटके और गोरे दोनों तेरी हुक्मबरदारी में थे और घटके को तेरी हिदायत थी कि वो गोरे के साथ मिल कर काम करे जबकि तेरे को मालूम कि ऐसी कोई हिदायत न थी, न हो सकती थी। घटके को तो वारदात के बाद ही सूझ सकता था कि तुलसीवाडी की उसकी करतूत को हाकिम ने किस पर थोपा था! एसीपी ने इस बाबत तभी सवाल किया होता कि घटके क्या बयान देगा इसकी मेरे को कैसे ख़बर थी, तो मेरे से जवाब देते न बनता। अभी खैरियत ये है कि और बड़ी बातों की रू में एसीपी की इस बात की तरफ तवज्जो न गई और हो सकता है कभी जाए भी नहीं। ऐसा हो गया तो बात ही क्या है, न हुआ तो एक बार सरकारी वकील के रूबरू घटके की पेशी करवा देंगे ताकि एसीपी को ख़बर हो जाती कि उस बाबत कुछ किया जा रहा था।”
“फिर?”
“फिर आगे बतौर अप्रूवर कोर्ट में उसकी पेशी होनी होगी लेकिन जब ऐसी नौबत आएगी तो जज के सामने गवाही देने के लिए वो ढूंढ़े नहीं मिलेगा।”
“बोले तो?”
“फरार हो जाएगा।”
परेरा की भवें उठीं।
“ऐसे क्या देखता है! गवाह, वान्टिड क्रिमिनल या ज़मानत पाए भीड़ फरार होते ही रहते हैं। बेल जम्पिंग आम वाकया है, जिसमें कई बार तो पुलिस वाले ही मुजरिम की मदद कर रहे होते हैं। जिन्होंने पकड़ना है, वो ही मददगार बन जाएंगे तो कैसे कुछ बिगड़ेगा मुजरिम का!”
“घटके का।”
“उसी की बात हो रही है।”
“हूँ।”
“कुछ दिनों में केस क्लोज़ हो जाना है। थाने में माहाना सैंकड़ों केस रजिस्टर होते हैं, कैसे पुलिस एक ही केस पर काम करती रह सकती है! केस ठण्डे बस्ते में चला जाएगा तो किसकी तवज्जो घटके की तरफ जाएगी! किसको याद रहेगा कि घटके कौन था! थोड़े टेम का जलावतन काट के साला जब चाहेगा वापिस लौट आएगा। क्या प्रॉब्लम है?”
“तुम बोलता है तो कोई नहीं।”
“है तो बोल!”
“कोई नहीं।”
“तो सब सैट है?”
“वो तो . . . हो जाएगा, पण मेरे को भी तो कुछ बोलने का!”
“तेरे को कुछ बोलने का?”
“हां। तुम्हेरा बड़ा करके सर्विस करेगा तो मेरे को भी तो कुछ मांगता होयेंगा!”
“तेरे को क्या मांगता है?”
“बिजनेस डील का माफिक डील मांगता है।”
“क्या?”
“मैं तुम्हेरे को तुम्हेरा वीडियो क्लिप लौटाएगा, घटके को तुम्हारे मनमाफिक गवाही देने को तैयार करेगा तो बदले में तुम भी कुछ करेगा या नहीं!”
“तू कोई शर्त लगाने की पोजीशन में तो नहीं पण बोल, क्या मांगता है?”
“टोपाज़ क्लब की तरफ आंख नहीं उठाने का। उसकी बाबत मेरे से, रेमंड परेरा से, एमबैरेसिंग सवाल नहीं करने का। मैं टोपाज़ क्लब का मालिक नहीं, ये बहुत अन्दर की बात है जो किसी को, किसी को भी, मालूम नहीं। मेरे को हैरानी हैरानी क्या, यकीन ही नहीं होता – कि तुम्हेरे को मालूम। मालूम तो पक्की कोई बड़ा अन्डरवर्ल्ड बॉस हैल्प किया वर्ना किसी लोकल एस्टैब्लिशमेंट का इन्वैस्टर फॉरेन में होना कोई बड़ी बात नहीं। पण तुम्हेरे को तो ये भी मालूम कि वो फॉरेन इन्वैस्टर कौन! अभी मेरे को हूल देता है, वान्दा नहीं पण दुबई के भाई को हूल देगा तो तुम्हेरा कुछ नहीं बचेगा। आई गिव यू माई वर्ड दैट यू विल डाई ए मिज़रेबल डैथ!”
“साला, धमकी देता है?” – भारकर भड़का।
“ये टेम देता है” – परेरा निडर भाव से बोला।
भारकर तिलमिलाया लेकिन ख़ामोश हो गया।
“तुम मेरे को बहुत डराया। मैं डरा भी बरोबर। पण डील की बात है तो डील पर खरा उतर कर दिखाने का। मेरे को अभीच लॉक अप में बन्द करने का तो करने का, पण तुम्हेरी कोई भी ज़्यादती, ज़ोर-ज़बरदस्ती उस वीडियो रिकॉर्डिंग को पब्लिक डोमेन में आने से नहीं रोक पाएगी। एसीपी, डीसीपी क्या, कमिश्नर तक चुटकियों में उसकी कॉपी पहुंचेगी। घटके की तुम्हेरे मनमाफिक गवाही तुम्हेरे लिए सपना बन जाएगी। बोले तो परेरा डूबेगा तो तुम्हरे को साथ ले के डूबेगा। इसलिए मेरे नहीं, अपने वैलफेयर का वास्ते डील पर खरे उतर कर दिखाना। क्या!”
भारकर अन्दर से तड़प गया कि परेरा अब उस जैसी उदंड भाषा बोल रहा था।
“मैं” – वो बोला – “गणपति की कसम खाके बोलता है कि डील पर सौ टांक खरा उतरेगा। तेरे और टोपाज़ क्लब के बारे में जो कुछ मैं जानता है, उसको अभी का अभी भूल जाएगा।”
“मैं भी सेंट फ्रांसिस की कसम खा के बोलता है कि तुम्हेरी वीडियो क्लिप तुम्हेरे हवाले करेगा, उसकी कोई कॉपी नहीं रखेगा और ज़रूरत पड़ी तो घटके को तुम्हेरे मनमाफिक गवाही देने के लिए तैयार करेगा। ऐज गॉड इज माई जज, आई विल नॉट बिट्रे यू। इफ आई डू, मे माई सोल रॉट इन हैल। आमीन!”
“मैं भी गणपति बप्पा का खौफ खाने वाला मराठा है; जिससे डील किया, उससे दगा करने का सपने में भी ख़याल नहीं करेगा। करेगा तो जहन्नुम की आग में झुलसेगा।”
“आई ट्रस्ट यू। शेक हैण्ड्स ऐज़ फैलो पैसेंजर ऑफ दि सेम बोट।”
भारकर ने उठकर, विशाल मेज पर दोहरा होकर परेरा से हाथ मिलाया।
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“जाता है।” – फिर एकाएक उठता हुआ परेरा बोला।
“ज़रूर।” – भारकर बोला – “पण दो घन्टे में लौट के आने का।”
परेरा की भवें उठीं।
“वीडियो रिकॉर्डिंग के साथ।”
“दो घन्टे में?”
“बरोबर।”
“ये टेम घटके पता नहीं किधर होगा! दो घन्टे – या ज्यास्ती – तो मेरे को उसको लोकेट करने में लग जाएंगे।”
“दो घन्टे!” – इस बार भारकर ने स्वभावसुलभ सख़्ती दिखाई।
परेरा ने अवाक् उसे देखा।
भारकर विचलित न हुआ।
“ओके।” – परेरा असहायता जताती गहरी सांस लेता बोला – “ओके।”
परेरा सत्तर मिनट में वापिस लौटा।
वीडियो क्लिप के साथ और इस ‘सॉलम अश्योरेंस’ के साथ कि वीडियो की किसी कॉपी का कहीं कोई वजूद नहीं था।
भारकर सन्तुष्ट था कि - कर्टसी मोरावाला, बल्कि कर्टसी बहरामजी कान्ट्रैक्टर - उसके सिर पर से एक बड़ा, जानलेवा खतरा टल गया था।
अभी सब नार्मल हो जाए, फिर टोपाज़ क्लब से रेगुलर गुलदस्ता वसूल न किया तो मेरा नाम भी भारकर नहीं।
ऐसा ही नाशुक्रा मिज़ाज़ पाया था उत्तमराव भारकर ने जो ख़ुद अपनी जुबानी ख़ुद को काला नाग बोलता था।
परसों, गुरुवार को एसीपी कुलकर्णी के सौजन्य से विनायक घटके की तस्वीर झालानी के हाथ आई थी लेकिन अपनी जुदा मसरूफ़ियात के तहत फौरन वो रतन टाटा मार्ग का रुख नहीं कर सका था और शाम को जब वो हस्पताल पहुंचा था तो मालूम पड़ा था कि डॉक्टर अधिकारी छुट्टी कर गए थे।
अगले दिन, यानी कल मालूम पड़ा कि डॉक्टर साहब का उस रोज ऑफ था। डॉक्टर के घर का पता दरयाफ़्त करने की कोशिश की तो नाकामी हाथ लगी।
फिर आज सुबह वो हस्पताल पहुंचा तो मालूम पड़ा कि उस रोज डॉक्टर अधिकारी की नाइट ड्यूटी थी जो कि आठ बजे से शुरू होती थी।
तीसरे दिन रात नौ बजे पौने घन्टे के इन्तज़ार के बाद आखिर वो हस्पताल में डॉक्टर अधिकारी के रूबरू हो पाया।
डॉक्टर अप्रसन्न भाव से उससे मिला।
उसकी अप्रसन्नता को नजरअन्दाज़ करते झालानी ने उसे एसीपी से हासिल विनायक घटके की तस्वीर दिखाई।
डॉक्टर ने गैरमामूली देर लगाते तस्वीर का मुआयना किया।
आखिर उसने तस्वीर झालानी को लौटाई।
झालानी ने आशापूर्ण नेत्रों से डॉक्टर को देखा।
“वही है।” – डॉक्टर बोला।
“कौन?”
“सोलह तारीख वाले शुक्रवार जिसकी तस्वीर मैंने मेरे पेशेंट नीरजा नायक का बयान लेने आये इन्स्पेक्टर के हाथ में देखी थी जबकि वो आईसीयू से लौट रहा था और मैं उसको एस्कॉर्ट कर रहा था। नाम शायद भारकर था।”
“श्योर?”
“पहले हण्डर्ड पर्सेट श्योर नहीं था लेकिन अब हूँ। ऐसी ही क्या, यूं समझो कि मैंने यही तस्वीर इन्स्पेक्टर के हाथ में देखी थी।”
“ये तो खैर, नहीं हो सकता।”
“मैंने ऐज़ ए फिगर ऑफ स्पीच बोला। मेटाफोरिकली बोला।”
“सर, गुस्ताख़ी की माफ़ी के साथ अर्ज़ है कि आपका मौजूदा बयान दो मुख्तलिफ बातें खड़ी कर रहा है। जिस तस्वीर को आपने इन्स्पेक्टर के हाथ में देखा, जिसकी आपने अब शिनाख्त की, अगर उसी को नीरजा नायक ने एनडोर्स किया था और आपने काउन्टर एनडोर्स किया था तो फिर सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे कातिल क्योंकर हुआ?”
“उसकी तस्वीर के पीछे डबल एनडोर्समेंट थी।” ।
“तो उस काम से फारिग होकर लौटते इन्स्पेक्टर भारकर के हाथ में अनिल गोरे की तस्वीर की जगह किसी दूसरे शख्स की तस्वीर क्यों थी! जिस शख्स की तस्वीर की आपने अभी शिनाख्त की, वो तो अनिल गोरे नहीं था!”
“तुम मुझे कनफ्यूज़ कर रहे हो।” – डॉक्टर झुंझलाया – “अनिल गोरे की ख़ुदकुशी के साथ ये केस हल हो चुका है।”
“अगर उस ख़ुदकुशी में कोई भेद है . . .”
“कोई भेद नहीं है। पुलिस सन्तुष्ट है।”
“. . . तो समझिए असल कातिल अभी भी छुट्टा घूम रहा है। कातिल अपने किए की सज़ा न पाए, ये आपको - एक लॉ अबाइडिंग, रिस्पांसिबल सिटीज़न को - मंजूर होगा?”
“मैं जानता हूँ तुम कहां मार कर रहे हो! आई विल नॉट हैव इट। आई विल नॉट लैट यू गैट बैक टू स्क्वायर वन विद मी। ये तमाम बातें हमारी पिछली मीटिंग में हमारे बीच हो चुकी हैं। मैं नहीं जानना चाहता, मैं नहीं समझना चाहता, मैं नहीं इस बात पर सिर धुनना चाहता कि जो होता दिखाई दिया, वो क्यों नहीं हो सकता था, क्यों डबल एनडोर्समेंट उस तस्वीर पर थी जो मैंने देखी – जिसको देखा होने की मैंने अब तसदीक की- न कि जो अखबारों में छपी थी और जो मैंने कभी देखी ही नहीं थी। ये तुम्हारा कारोबार है, ख़ुद देखो, मुझे न सिखाओ, मेरे से कोई मैडीकल कंसल्टेशन चाहिए कोई प्रेस्क्रिप्शन चाहिए तो बोलो।”
“वो तो खैर, नहीं चाहिए।”
“दैन लैट्स कॉल इट ए डे।”
“इन ए मिनट, सर, इन ए मिनट। मैं अपने वादे से नहीं फिरूंगा, मैं अपने सोर्स ऑफ इन्फर्मेशन को प्रोटेक्ट करूँगा लेकिन ....”
“अभी भी लेकिन?”
“... अगर ये केस हल होता दिखाई देगा तो आप अपना रवैया बदलेंगे?”
“हल होता दिखाई देगा क्या मतलब! हल तो हो चुका! डबल मर्डर के अपराधी ने गिरफ्तारी से बचने के लिए खुद को फांसी लगा ली, यही तो मीडिया कहता है!”
“कई मर्तबा जो पुलिस कहती है, मीडिया महज़ उसको दोहराता है।”
“यानी जो शख्स अपने घर पर फांसी लगा पाया गया, तुम्हें उसके कातिल होने पर शक है? साफ़ जवाब दो। पहले दिया तो फिर दो।”
“हां।”
“क्या हां?”
“मुझे सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे के कातिल होने पर शक है।”
“उसको बेगुनाह साबित कर सकते हो?”
“नहीं।”
“इतने अकाट्य सबूत उसके खिलाफ हैं, उन्हें झुठला सकते हो?”
“नहीं।”
“फिर क्या बात बनी?”
“मैं बात का दूसरा सिरा पकड़ सकता हूँ।”
“मतलब?”
“मैं गोरे को बेगुनाह साबित नहीं कर सकता लेकिन किसी को गुनहगार साबित करने की कोशिश कर सकता हूँ।”
“किसी बेगुनाह को गुनहगार साबित करने की कोशिश करोगे?”
“किसी गुनहगार को गुनहगार साबित करने की कोशिश करूँगा। ऐसा करने के लिए मुझे गोरे की बेगुनाही पर ऐतबार लाना पड़ेगा, भले ही हर बात उसके खिलाफ है। मैं ऐसा करूँगा तो मेरे को किसी को तो गुनहगार मानना पड़ेगा!
नहीं?”
“हां।”
“सर, मरने वाला तो मर गया, अगर उसके साथ कोई नाइंसाफी हुई है तो वो तो अब उसकी दुहाई दे नहीं सकता लेकिन कोई तो दे सकता है!”
“कोई कौन?”
“पंकज झालानी। सीनियर कारस्पॉन्डेंट ‘एक्सप्रेस’।”
“हूँ।”
“तो क्या करते है?”
“गो अहेड। आई विश यू ऑल दि बैस्ट।”
“आई विल, सर, एण्ड थैक्यू सर, लेकिन आगे बढ़ने से पहले मैं आपसे थोड़ी सी छूट पाने का तलबगार हूँ।”
“कैसी छूट?”
“ऐसी कि मेरा आप से वादा न टूटे और आपको कोई नुकसान न हो।”
“ओके। अब बोलो, कैसी छूट?”
“अगर पुलिस का टॉप ब्रास – बोले तो ख़ुद कमिश्नर - अनुरोध करे तो क्या आप अपना अभी का बयान – मेरी लाई तस्वीर की शिनाख्त से ताल्लुक रखता बयान – कमिश्नर के सामने दोहराना कुबूल करेंगे?”
डाक्टर ने उस बात पर विचार किया।
“वो है कौन?” — फिर उत्सुक भाव से बोला।
“लो लाइफ है। मवाली है। एक बड़े मवाली का भड़वा है।”
“वो कातिल है?”
“वो बहुत कुछ है। इतना कुछ है कि उसका किरदार आपका दिमाग घुमा देगा। आप अभी उसे छोड़िए, अभी आप सिर्फ मेरे सवाल का जवाब दीजिए। कमिश्नर के सामने अपना बयान दोहराना कुबूल करेंगे?”
“कमिश्नर तक तुम्हारी पहुंच है?”
“नहीं। उस तक पहुंच बनाने के लिए मुझे अपने एक फ्रेंडली एसीपी को कन्फीडेंस में लेना पड़ेगा।”
“ओह!”
“सर, आपको कोई प्रॉब्लम नहीं होगी। आइन्दा बहुत थोड़े टाइम में इतना कुछ होने वाला है कि हो सकता है कि आपके सामने आने की ज़रूरत ही न पड़े।”
“ऐसा?”
“हां।”
“एसीपी का नाम बोलो।” झालानी ने बोला और आशापूर्ण भाव से डॉक्टर की तरफ देखा।
“ओके।” – डॉक्टर निर्णायक भाव से बोला – “ज़रूरत पड़ने पर मैं तुम्हारी राय पर अमल करूँगा।”
झालानी ने चैन की सांस ली।
हस्पताल से दूर निकल कर उसने एसीपी कुलकर्णी का मोबाइल बजाया।
तुरन्त जवाब मिला।
झालानी ने उसे डॉक्टर की शिनाख्त की बाबत और बयान देने के लिए उसकी शर्त की बाबत बताया।
“सब अरेंज हो जाएगा।” – एसीपी के लहजे से उत्साह छुपाए नहीं छुप रहा था – “मेरे को फॉरेन्सिक साइन्स लैबारेट्री की रिपोर्ट अभी मिली है जो बहुत विस्फोटक साबित होने वाली है। कल सुबह फायरवर्क्स के लिए तैयार रहना। दस बजे सीधे मेरे ऑफिस में पहुंचना और कोशिश करना कि मेरे सिवाय किसी से, ख़ासतौर से भारकर से, तुम्हारा आमना सामना न हो। ओके?”
“यस, सर।”
“झालानी, तूने मेरे अनुरोध पर, बल्कि अर्नेस्ट रिक्वेस्ट पर, गोरे के केस पर काम करना शुरू किया, इसके बदले में कल कुछ बड़ा हो पाया तो ‘एक्सप्रैस’ पहला पेपर होगा जो ब्रेकिंग न्यूज़ के तहत एक्सक्लूसिव स्टोरी छापेगा।”
“आई एम वैरी एक्साइटिड, सर। कल हाज़िर होता हूँ।”
“यू वोट बी डिसअप्वायंटिड।”
लाइन कट गई।
ठीक दस बजे पंकज झालानी एसीपी कुलकर्णी के ऑफिस में उसके सामने बैठा था।
झालानी ने पिछली शाम को डॉक्टर से अपनी मुलाकात को फिर दोहराया।
“क्या मतलब हुआ इसका?” – एसीपी बोला।
“आप बताइए।”
“भारकर ने आईसीयू में नीरजा नायक को तस्वीर कोई और दिखाई और बतौर एनडोर्समेंट उसके साइन किसी और तस्वीर पर करवाए! तस्वीर विनायक घटके की दिखाई और साइन एसआई अनिल गोरे की तस्वीर की पीठ पर करवाए!”
“ऐसा ही हुआ जान पड़ता है।”
“कैसे किया? जगलरी का ये कारनामा कैसे किया? ख़ास तौर से एक गवाह के सामने! आईसीयू के ऑन ड्यूटी डॉक्टर अधिकारी की मौजूदगी में!”
“मेरे को तो कुछ नहीं सूझ रहा!”
“सूझेगा। सूझेगा। मेरे को सूझ रहा है तो तेरे को भी सूझेगा। दिमाग पर ज़ोर देगा तो यकीनन सूझेगा।”
“ऐसा?”
“हां। तू खोजी पत्रकार है और केस की तेरे को मेरे से ज़्यादा वाकफ़ियत है। क्यों नहीं सूझेगा? सोच!”
त्योरी चढ़ाए वो सोचने लगा। उसकी शक्ल ही बता रही थी कि वो दिमाग पर बहुत ज़ोर दे रहा था।
एसीपी धीरज से प्रतीक्षा करता रहा।
“कुछ सूझ तो रहा है!” – आखिर झालानी बोला।
“क्या?” – एसीपी उसे उत्साहित करता बोला – “जुबान दे उसको जो सूझ रहा है।”
“सर, भेद इस बात में जान पड़ता है कि आईसीयू में एक वक्त में दो तस्वीरों का वजूद था – एक विनायक घटके की जो कि गवाह को दिखाई गई, और दूसरी गोरे की जिसकी पीठ पर दस्तख़त हुए। यानी जो तस्वीर दिखाई गई उसकी पीठ पर दस्तख़त नहीं थे और जिस तस्वीर पर दस्तख़त पाए गए थे, वो दिखाई नहीं गई थी।”
“अच्छे जा रहे हो। आगे?”
“ऐसा तभी मुमकिन हो सकता है जबकि वो दो तस्वीरें आपस में ऐसी होशियारी से, ऐसी नफ़ासत से जोड़ी गई हों कि मालूम ही न पड़े कि तस्वीरें दो थीं- एक की बैक के साथ दूसरी का फ्रंट जुड़ा हुआ था।”
“ब्रावो!”
“इसी वजह से जब गवाह ने घटके की तस्वीर की शिनाख्त करके उसकी पीठ पर साइन किए, और साइन डॉक्टर ने एनडोर्स किए, तब असल में साइन घटके की तस्वीर के पीछे फ्रंट से जुड़ी गोरे की तस्वीर पर हो रहे थे। और बाद में दोनों तस्वीरों को एक दूसरे से अलग कर लिया गया था।”
“कैसे? यूं जोड़ने के बाद जोड़ खोलने की कोशिश में सामने की तस्वीर की बैक और पिछली तस्वीर का फ्रंट डैमेज हो सकता था!”
“सर, इस बात से तस्वीरें जोड़ने वाला नावाकिफ नहीं होगा। जरूर ऐसा कोई बाइन्डिंग मैटीरियल उपलब्ध होगा जिससे आपस में जोड़ी गई तस्वीरें खुलने पर डैमेज न होती हों।”
“यही बात थी।” – एसीपी निर्णायक भाव से बोला – “भारकर ने मुझे गवाहों की एनडोर्ल्ड गोरे की तस्वीर दिखाई थी, मैं ख़ुद गवाह हूँ कि वो मामूली सी भी कहीं से डैमेज्ड नहीं थी। अब बाकी रही बाइन्डिंग मैटीरियल की बात तो उसका भी पता लगा लेंगे.....”
तभी झालानी के मोबाइल की बैल बजी।
“एक्सक्यूज़ मी, सर।” — झालानी बोला।
उसने कॉल रिसीव की।
“मैं कोंपल मेहता बोल रही हूँ।” – आवाज़ आई।
झालानी तत्काल सम्भल कर बैठा, उसने एक अर्थपूर्ण निगाह एसीपी पर डाली और मोबाइल को लाउडस्पीकर पर लगा दिया।
“गुड मार्निंग, मैम।” – झालानी बोला।
“गुरुवार को बोरीवली में जब तुम मेरे से मिले थे जो तुमने कहा था कि अगर मेरा खयाल बदल जाए, हालात बदल जाएं तो मैं तुम्हें फोन करूँ।”
“यस, मैम। एण्ड बैंक्यू फॉर कालिंग।”
“तुमने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था जिस पर और नम्बरों के अलावा तुम्हारा मोबाइल नम्बर भी था इसलिए कॉल लगाई।”
“बैंक्स अगेन। तो क्या ख़याल बदला? हालात बदले?”
“हां। इसीलिए तुम्हारी दरख्वास्त पर अमल किया।”
“सो काइन्ड ऑफ यू। अभी क्या तब्दीली आई?”
“मैंने मुम्बई छोड़ दी है – मैंने महाराष्ट्र से ही किनारा कर लिया है – अब मैंने इस नामुराद शहर से, इस पाप की नगरी से इतनी दर मुकाम पाया है कि हाकिम लाख ज़ोर लगा ले, मेरे को नहीं तलाश कर पाएगा। मुझे अब उसकी कोई दहशत नहीं इसलिए अब मैं अपना मुंह खोल सकती हूँ और हकीकत बयान कर सकती हूँ।”
“दैट्स गुड न्यूज़।”
“तुम्हारे विज़िटिंग कार्ड पर तुम्हारी ई-मेल आइडेन्टिटी भी दर्ज थी, उस पर मैंने एक वीडियो क्लिप फॉरवर्ड की है जिसमें उन तमाम बातों का जवाब है तो तुम जानना चाहते थे लेकिन भरपूर कोशिशों के बाद नहीं जान पाए थे क्योंकि उस बाबत मेरी ज़ुबान नहीं खुलवा पाए थे। अब बाजरिया उस मेल तुम्हारे मन माफिक मेरी जुबान खुल चुकी है और वो वीडियो क्लिप मेरे अन्डर ओथ दिए बयान का दर्जा रखती है। देखना, सुनना, काम आएगी।”
लाइन कट गई।
झालानी ने एसीपी की तरफ देखा।
“कोंपल!” – एसीपी याद करता बोला – “वही, बाजरिया फोन जिसकी लोकेशन ट्रैक करवाई थी?”
“जी हां।”
“तेरे फोन पर ई-मेल रिसीव होती है?”
“होती है।”
“तो कर न रिसीव! खोल न! देख – मेरे को भी दिखा – क्या दर्ज है वीडियो क्लिप में।”
“राइट अवे, सर।”
तभी एक हवलदार भीतर दाखिल हुआ।
“सर, भारकर साहब आया।” – वो दरवाज़े पर से अदब से बोला।
“बोलो, वेट करें।” – एसीपी शुष्क स्वर में बोला – “जब बुलाऊं तो आएं।”
“यस, सर।”
हवलदार चला गया, उसके पीछे दरवाज़ा बदस्तूर बन्द हो गया।
तब तक झालानी ई-मेल खोल चुका था और स्क्रीन पर उसे क्लोज़-अप में कोंपल मेहता का खूबसूरत लेकिन पशेमान चेहरा दिखाई दे रहा था।
“दिस इज़ कनफैशनल स्टेटमेंट ऑफ कोंपल मेहता . . .”
“ठहर, ठहर!” – एसीपी बोला – “रुक अभी। यहां मोबाइल को लैपटॉप से हुक करने की सुविधा है। अभी वो लार्ज स्क्रीन पर दिखाई देगी।”
“ऑल दि बैस्ट।” – झालानी बोला।
एसीपी ने दक्षता से सब सैटिंग की।
स्क्रीन पर फ्रीज़ शॉट में कोंपल मेहता दिखाई देने लगी।
“शुरू से शुरू कर।”
झालानी ने आदेश का पालन किया।
“मैं कोंपल मेहता वल्द जिग्नेश मेहता साकिन राजकोट, गुजरात अपनी पूरी ज़िम्मेदारी से इस रिकॉर्डिंग में गुरुवार, आठ नवम्बर के वाकयात बयान करती हूँ और दरख्वास्त करती हूँ कि इस बयान को मेरे हल्फिया, इकबालिया बयान का दर्जा दिया जाए।
“उस रोज़ दोपहर के करीब तारदेव थाने का कदम नाम का एक सब-इन्स्पेक्टर बन्दरगाह के इलाके में पहुंचा जहां डिमेलो रोड बतौर इवेंट आर्गेनाइजर मेरी वर्क प्लेस थी, और बिना कोई वजह बताये मुझे पकड़ कर तारदेव थाने ले गया और मुझे एसएचओ उत्तमराव भारकर के हवाले किया। वहां उसने मेरे कारोबार के बारे कुछ सवाल पूछे फिर मेरे पर इलज़ाम लगाया कि मैं अपने काम की ओट में ड्रग्स पैडल करती थी और ड्यटी फ्री स्कॉच डिलीवर करती थी और इस सिलसिले में पुलिस की मेरे पर पहले से निगाह थी जो कि बिलकुल झूठा, बेबुनियाद इलज़ाम था। लेकिन एसएचओ ने मेरी एक न सुनी और जामातलाशी के लिए मुझे एक लेडी पुलिस सब-इन्स्पेक्टर के हवाले कर दिया जिसका नाम मुझे रेखा सोलापुरे बताया गया।
‘‘जामातलाशी की एसएचओ को रिपोर्ट मिली जो कहती थी कि मेरे पास से एस्टेसी की पांच गोलियाँ बरामद हुई थीं।
“मुझे फिर एसएचओ के पास पेश किया गया।
“एसएचओ ने एस्टेसी की पांच गोलियों की बरामदी की बात की लेकिन साथ ही कहा कि जब पंचनामा होगा तो उसमें गोलियों की तादाद पचास दर्ज होगी। मैंने बेतहाशा दुइाई दी कि मैं समगलर या पैडलर नहीं थी, वो गोलियाँ बतौर यूज़र मेरे पास थीं। एसएचओ ने पचास गोलियों की बरामदी पर ही ज़ोर रखा और ये कहकर मुझे बाकायदा दहशत में डाला कि मैं सात से दस साल तक नप सकती थी। मैंने रहम की इल्तिजा की तो उसे इस शर्त पर रहम करना – मेरा केस ही डिसमिस कर देना – कुबूल हुआ कि मैं अनिल गोरे नाम के उसके एक मातहत सब-इन्स्पेक्टर के खिलाफ बलात्कार का चार्ज खड़ा करना मंजूर करूँ। उसने साफ कहा कि वो एसआई उसके लिए प्रॉब्लम्स खड़ी कर रहा था जिसकी वजह से वो उसे सैट करना चाहता था। उसका हुक्म था कि थाने में ही एसआई के निजी ऑफिस में हुए बलात्कार पर मैंने ख़ामोश भी नहीं रहना था, पुरजोर दुहाई देनी थी कि एसआई अनिल गोरे ने पहले मेरे को एक फर्जी केस में फंसाया फिर केस रफादफा करने के लिए मेरा शारीरिक शोषण किया। फरियाद के तौर पर मैंने कई ऐतराज पेश किए जिनकी रू में ऐसा झूठा, बेबुनियाद इलज़ाम नहीं चलने वाला था। लेकिन उसका आश्वासन था कि वो सब सैट कर देगा - जैसे मैडीकल एग्जामिनेशन में बलात्कार की पुष्टि होगी, डीएनए की रिपोर्ट के आने में महीना लगेगा और वो इनकनक्लूसिव पाई जाएगी, वगैरह।
“गौरतलब है कि मेरे रूबरू होने से पहले ही एसएचओ निश्चित किए बैठा था कि मैं उसका मनमाफिक बयान दूंगी नतीजतन गोरे की नौकरी ही नहीं जाएगी, वो जेल भी जाएगा।
मैंने उस साज़िश में शरीक होने से पुरज़ोर इंकार किया तो वो आग बबूला हो उठा और मेरे सामने लम्बी सज़ा की दहशत खड़ी करने लगा। तब मैंने भी हिम्मत की और दावा किया कि मेरे पास से कोई ड्रग्स बरामद नहीं हुए थे, एस्टेसी की गोलियाँ एसएचओ के हुक्म के तहत मेरे पर प्लांट की गई थीं। ऐसी जामातलाशी और बरामदी गवाहों के सामने होती थी लेकिन वहां न कोई गवाह था, न कोई बरामदी रिकॉर्ड में लाई गई थी। जामातलाशी, बॉडी सर्च गम्भीर मसला था लेकिन लेडी एसआई ने जुबानी या तहरीरी कोई रिपोर्ट नहीं पेश की थी। उसने तो बस बरामदी को एसआई कदम को सौंपा था और अपना काम मुकम्मल मान लिया था। यानी झूठी गवाहियों के आसरे के बिना वो मेरे पास से एस्टेसी की बरामदी साबित नहीं कर सकता था।
“यहां मैं ये अर्ज़ करना चाहती हूँ कि मैं चाहती तो अपने बयान की लीपा-पोती कर सकती थी, मैं इसी बात पर टिकी रह सकती थी कि मेरे पास कोई ड्रग्स बरामद नहीं हुए थे क्योंकि, आई रिपीट, न कोई गवाह था, न बरामदी का कोई रिकॉर्ड था। लेकिन मैंने ऐसा नहीं कहा क्योंकि जब जो कहना था, मीडिया के लिए कहना था तो सच ही कहना था। मैं अपनी जुबानी कुबूल करती हूँ कि मैं यूज़र हूँ और बतौर यूज़र ही मेरे पोज़ेशन में ऐस्टेसी की पांच गोलियां पाई गई थीं।
“बहरहाल आगे अर्ज़ है कि मेरे इंकार से भड़क कर एसएचओ ने मुझे थाने में ही मार देने की कसर नहीं छोड़ी थी। तब उसने अपने गुस्से को काबू में किया। इस बात से शह या कर मैंने भी सख़्ती से कहा कि या तो वो मुझे मार ही डाले या फिर मैं थाने में ही खड़ी होकर चिल्लाऊंगी कि ख़ुद थाने का थानेदार ही अपनी कोई खुन्नस निकालने के लिए अपने एक मातहत सब-इन्स्पेक्टर को बलात्कार के एक झूठे केस में फंसाने के लिए मुझे मजबूर कर रहा था। कोई तो मेरी फरियाद सुनेगा! और नहीं तो वो सब-इन्स्पेक्टर तो सुनेगा जिसका नाम अनिल गोरे था और जिसे एसएचओ अपनी जाती खुन्नस के हवाले सैट करना चाहता था। कैसे एसआई गोरे इतने बड़े इलज़ाम को नजरअन्दाज करेगा अगरचे कि मेरा मुंह बन्द करने के लिए मुझे मार नहीं डाला जाएगा।
“फिर वो ठण्डा पड़ा और पूछने लगा कि वो ये बलात्कार वाला किस्सा ख़त्म कर दे तो क्या मैं बाहर जाके ढोल पीटने से बाज आऊंगी कि तारदेव थाने का एसएचओ उत्तमराव भाकर मेरे को क्या कहता था और कैसे मैंने उसके कहे की पालिश उतार दी थी! मैंने मजबूती से, संजीदगी से हामी भरी क्योंकि अपनी शामत ख़ुद बुलाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। तब उसने दूसरे तरीके से मेरे को ख़ौफज़ादा करने की कोशिश की। बोला, जो डिफेंस मैं पकड़ रही थी वो चुटकियों में उसकी धज्जियाँ उड़ा सकता था - आखिर थाने का सदर था – बोला, मैं ड्रग्स के साथ पकड़ी गई थी, बरामदी गवाह के सामने नहीं हुई थी, ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। वो जब चाहता बरामदी का गवाह – बल्कि बरामदी के गवाह – खड़ा कर सकता था। बरामदी अब दर्ज हो सकती थी।
“उसकी बातों ने मुझे और दहला दिया लेकिन अभी उसकी नर्मी बरकरार थी। उसने मुझे समझाने के अन्दाज़ से कहा कि उसने उस साजिश में – जो बदकिस्मती से किसी सिरे न पहुंची - मुझे अपना राज़दां बनाया था और मेरा चुप रहना ज़रूरी था। बोला, मुझे समगलर साबित करने के अलावा भी मुझे जेल में सड़ाने के उसके पास दस तरीके थे। बोला, मैं कभी साबित नहीं कर सकूँगी कि उसने मेरे को एसआई अनिल गोरे पर बलात्कार का इलज़ाम लगाने के लिए उकसाया था। इसके विपरीत वो मुझे इसी इलज़ाम पर गिरफ्तार कर सकता था कि उसने एक सीनियर पुलिस ऑफिसर पर एक गलत, नाजायज़ इलज़ाम लगाया। मैं जानती थी वो ऐसा कर सकता था, भले ही मैं एसआई अनिल गोरे को भी ये बात बता देती। बिना सबूत गोरे भी कुछ नहीं कर सकता था। हाकिम मुझे गिरफ्तार कर लेता तो वो गोरे को मेरे करीब भी न फटकने देता। उसके हाथ में ताकत थी, वो स्याह सफेद कुछ भी कर सकता था। वो सच में ही मेरे को गोरे के हक में बोलने के नाकाबिल बना सकता था लेकिन उसने ऐसा न किया – क्यों न किया, नहीं मालूम - उसने सिर्फ ये कहा कि उसके मेरे बीच जो बीती, मैं हमेशा के लिए उसे भूल जाऊँ और कहा कि मैं साउथएण्ड से दूर कहीं निकल जाऊँ।
“इस बाबत मेरे वादे पर ऐतबार करके उसने मुझे चला जाने दिया तो मेरे को तो यकीन ही न आया कि मैं आजाद थी। फौरन मैंने बन्दरगाह का इलाका छोड़ दिया, अपने इवेंट आर्गेनाइजिंग के धन्धे से भी किनारा कर लिया और बिना किसी को बताये बोरीवली वैस्ट में एक फ्रैंड के साथ रहने लगी। लेकिन ‘एक्सप्रैस’ का रिपोर्टर पंकज झालानी वहां भी पहुंच गया। तब मैंने मुम्बई से दूर, बहुत दूर निकल जाने का फैसला किया जहां कि किसी को - न भारकर को, न झालानी को- मेरी हवा भी न मिलती।
“गौरतलब है, कि मैं थाने से रिहा होने के बाद किसी मुनासिब वक्त एसआई अनिल गोरे के पास भी जा सकती थी – उससे सम्पर्क कोई मुश्किल काम नहीं था – ताकि उसको ख़बरदार कर पाती कि उसका सीनियर ही कैसे उसकी वाट लगाने पर आमादा था लेकिन मेरी अक्ल ने मुझे यही राय दी कि उस बाबत मुझे ख़ामोश ही रहना चाहिए था। मेरा अनिल गोरे से सम्पर्क मेरी हालत ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी कर सकता था जो कि मुझे मंजूर नहीं था। लिहाज़ा मैंने उस शख्स से सम्पर्क करने का इरादा तर्क कर दिया, अपनी आती खुन्नस में जिसके खिलाफ भारकर इतनी बड़ी साजिश रचने पर आमादा था।
“अब मैं अपने आपको सुरक्षित पाती हूँ, अब मैं एसएचओ भारकर के ख़ौफ के जेरेसाया जिन्दा नहीं हूँ इसलिए अपना मुंह खोलना अफोर्ड कर सकती हूँऔर इसलिए तुम्हें दी अपनी जुबान के तहत मैंने तुम्हें फोन लगाया है और कसमिया सब कुछ हरुफ-ब-हरुफ बयान किया है। जो बयान किया है उसकी समरी ये है कि तारदेव थाने का ज़ालिम, बेगैरत, बदअखलाक, थानेदार उत्तमराव भारकर अपने ही मातहत सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे से इतनी दुश्मनी पाले था कि उसे किसी भी तरीके से बर्बाद कर देने पर तुला था और जो तरीका वो मेरे ज़रिए अपनाने का इरादा रखता था वो ये था कि मैं, कोंपल मेहता, उस पर रेप का झूठा इलज़ाम लगाती। उसकी तमाम धमकियों के बावजूद, तमाम पैंतरों के बावजूद जिसके लिए मैं तैयार हुई। तथ्य तुम्हारे सामने हैं, अब इनका कैसा भी इस्तेमाल तुम्हारी मर्जी पर है।
“निवेदन है, इस वीडियो रिकॉर्डिंग को मेरा स्वेच्छा से दिया, हल्फिया बयान तसलीम किया जाए।”
रिकॉर्डिंग ख़त्म हो गई।
“क्या कहते हैं?” – झालानी बोला।
“एक ही बार कहूँगा।” – एसीपी संजीदगी से बोला – “अभी भारकर वेट करता है न!”
“ठीक!”
“मैं तेरे को यहां बिठाए नहीं रख सकता, भारकर को तेरी मौजूदगी पर ऐतराज़ होगा, किसी सीनियर पुलिस ऑफिसर के अलावा किसी की भी मौजूदगी पर ऐतराज़ होगा। लेकिन मैं चाहता हूँ कि जो कुछ भी मेरी मौजूदगी में भारकर यहां बोले, वो तू सुने। यहां ऐसी मानीटरिंग का प्रबन्ध है।” – एसीपी ने मेज़ के एक दराज में से एक हैडफोन निकाल कर झालानी को सौंपा – “ये यहां की मानीटरिंग डिवाइस के साथ टयून्ड है। इसे ले के बगल के कमरे में चला जा।”
झालानी उठ खड़ा हुआ।
“ये वीडियो क्लिप आपको ट्रांसफर करनी होगी!”– वो बोला।
“हो चुकी। जैसे-जैसे वीडियो प्ले हो रहा था, लैपटॉप में रिकॉर्ड भी हो रहा था।”
“गुड।”
“भारकर बुलाए जाने के इन्तज़ार में गलियारे में चहलकदमी करने वाली किस्म का आदमी नहीं। मेरे स्टाफ के साथ उनके ऑफिस में बैठा होगा। बगल के कमरे में जाता वो तुझे नहीं देख पायेगा।”
“गलियारे में ही हुआ तो?”
“तो उसके सामने सीढ़ियां उतर जाना, फिर लौट आना।”
“मेरे उस कमरे में जाने, लम्बा टिके रहने पर कोई सवाल तो नहीं होगा!”
“नहीं होगा। बाहर मौजूद हवलदार को तुम्हारे बारे में बोल के रखूगा। नाओ गैट अलांग।”
भारकर ने भीतर कदम रखा और फरमायशी सैल्यूट मारा।
“सॉरी, भारकर।” – एसीपी बोला – “तुम्हें इन्तज़ार करना पड़ा। कम, टेक ए सीट।
“थैक्यू, सर।” – भारकर एक विज़िटर्स चेयर पर बैठा और अपनी अप्रसन्नता छुपाने की नाकाम कोशिश करता बोला – “आजकल थाने में बहुत काम है।”
“मैं कोशिश में हूँ कि न हो।” – एसीपी मुस्कुराता हुआ बोला।
“जी!”
“काम। बहुत। बल्कि हो ही नहीं।”
“ट्रांसफर का हिन्ट तो नहीं दे रहे, सर!”
“वही कर रहा हूँ।”
“कोई ... . सॉफ्ट पोस्टिंग?”
“हां।”
“कहां?”
“अभी ख़ुद ही जान जाओगे। अभी बोलो, रेड की क्या स्टोरी है?”
‘रेड!”
“लेमिंगटन रोड वाली। जो परसों तुमने कन्डक्ट की? हू आथोराइज़्ड?”
भारकर ने तुरन्त जवाब न दिया।
“क्या जानते नहीं कि रेड की मंजूरी ऊपर से आती है?”
“सर, अगर इमरजेंसी हो तो इस मामले में एसएचओ को भी कुछ अख्तियार होते हैं। काम इतना अर्जेंट था कि मंजूरी की फॉरमेलिटीज़ पूरी करने का वक्त नहीं था। तब न आप अवेलेबल थे, न डीसीपी साहब अवेलेबल थे। ऐसे में एसएचओ को ख़ुद इनीशियेटिव लेना पड़ता है। कातिल कत्ल करके कहीं जा छुपा हो तो उसके छुपने की जगह पर रेड मारने के लिए रेड की ऊपर से मंजूरी का इन्तज़ार नहीं किया जा सकता। किसी बड़े गैंगस्टर के फरार हो जाने का अन्देशा हो तो मंजूरी के इन्तज़ार में वक्त नहीं खोया जाता, फौरन कार्यवाही की जाती है।”
“वैरी वैल एक्सप्लेंड। लेमिंगटन रोड पर क्या इमरजेंसी थी?”
“भेदियों से ख़बर लगी थी कि वहां की एक बहुमंजिला इमारत के टॉप फ्लोर पर एक टेरेरिस्ट छुपा हुआ था जो मुम्बई में 26/11 जैसी बड़ी वारदात करने की फिराक में था। उसको पकड़ने के लिए फौरन, खड़े पैर, दबिश करना ज़रूरी था।”
“पकड़ा गया?”
“जी, नहीं।”
“वजह?”
“ख़बर झूठी निकली। टिप बेबुनियाद निकली।”
“हम्म! था क्या टॉप फ्लोर पर?”
“एक सोशल क्लब थी। इलीट का मिलने-जुलने का, बिलियर्ड्स खेलने का, ब्रिज खेलने का, रिलैक्स करने का, तफरीह करने का ठिकाना था।”
“शाम को तफरीह के आजकल कुछ और ही मायने हो गए हैं। लिकर लाइसेंस था?”
“जी, नहीं। लेकिन कोई चोरी छुपे अपनी ला के चूंट लगा ले तो कोई ऐतराज़ नहीं करता था। बार सर्विस वहां नहीं थी।”
“ऐसी जगह पर एक ख़तरनाक टैरेरिस्ट छुपा हुआ था?”
“टिप यही मिली थी। पुलिस को बोगस टिप्स मिलती ही रहती हैं लेकिन एक्ट तो सब पर करना पड़ता है न!”
“उसी बिल्डिंग में ग्राउन्ड फ्लोर पर ‘ब्लैक ट्यूलिप’ बार है जो कि बिज़नेस के लिए दोपहर को खुलता है। सुबह साढ़े नौ बजे वहां कैसे पहुंच गए?”
“कौन कहता है?”
“वही कहता है जो जब आ रहा था तो तुम जा रहे थे।”
“टिप की कनफर्मेशन की बाबत पूछताछ के लिए गया था।”
“अकेले? ख़ुद?”
“हां।”
एसीपी ने घूर कर उसे देखा।
“जी हाँ। यस, सर।”
“हुई कनफर्मेशन?”
“जी नहीं, वहां पूछताछ से कुछ हाथ न लगा।”
“फिर रेड की नौबत क्योंकर आई?”
“शाम को फिर टिप मिली कि टेरेरिस्ट वहां छुपा था और निकल लेने को पर तोल रहा था, अगर वक्त रहते एक्शन न लिया गया तो हाथ से निकल जाएगा।”
“जबकि ऐसा कुछ था ही नहीं?”
“जी हां।”
“बोगस टिप थी?”
“अब तो यही कहा जा सकता है। प्रैक्स के तौर पर सिरफिरे लोग, गैरज़िम्मेदार लोग ऐसी हरकतें करते ही रहते हैं। अभी परसों की बात है किसी ने पुलिस को फोन कर दिया था कि इंडीगो की दिल्ली की फ्लाइट में बम था। फोन करने वाला बाद में पकड़ा गया तो उसने बताया कि वो हरकत उसने इसलिए की थी क्योंकि उसकी फ्लाइट छूटी जा रही थी और वो बम की अफवाह के बहाने प्लेन को लेट कराना चाहता था।”
“आई सी। लेकिन ऐसे फोन तो कन्ट्रोल रूम में आते हैं, किसी ने ‘100’ बजाने की जगह यहां तारदेव थाने में क्यों फोन किया?”
“ये तो फोन करने वाला ही बता सकता है।”
“तुमने सवाल न किया?”
“सच पूछे तो ख़याल तक न आया।”
“हूँ। क्या ये महज़ इत्तफाक था कि कोलाबा वाले केस में जो लड़की कलाईयां काट के ख़ुदकुशी करके मरी, वो लेमिंगटन रोड पर उस इमारत में मुलाज़िम थी जहां तुम्हारा सुबह शाम दो बार फेरा लगा?”
भारकर ने तत्काल उत्तर न दिया।
एसीपी धीरज से उसके फिर बोलने की प्रतीक्षा करता रहा।
“बोले तो” – भारकर बोला – “इत्तफाक था भी और नहीं भी था।”
“एक्सप्लेन।”
“वो क्या है कि वो लड़की – नाम जसमिन गिल - बतौर स्टीवार्डेस ‘ब्लैक ट्यूलिप’ में काम करती थी जहां कि हमारे स्वर्गीय एसआई अनिल गोरे का रेगुलर आना जाना था। गोरे की खुदकुशी के वाकये के दौरान हमें हिन्ट मिला था कि गोरे का जसमिन गिल से अफेयर था और जब गोरे की बीवी मायके गई होती थी तो वो अक्सर उसके घर आती थी।”
“गोरे का अफेयर था जो कि शादीशुदा था, बाऔलाद था?”
“सर, मेरे को भी ये बात खटकी थी लेकिन अब .... जो था सो था।”
“खैर, आगे?”
“ऐसा लगता था कि ब्यायफ्रेंड की – गोरे की – ख़ुदकुशी से वो लड़की - माशूक - डिप्रेशन में आ गई थी, नतीजतन आखिर उसने भी वही राह पकड़ी जो उसके चाहने वाले ने पकड़ी।”
“ख़ुदकुशी कर ली?”
“जी हां। गोरे वाले केस की तरह ही ओपन एण्ड शट केस है।”
“इतना तो ओपन एण्ड शट नहीं है!”
“सर, जो हुआ, लाक्ड फ्लैट में हुआ, क्या कसर रह गई?”
“कोलाबा पुलिस की जानकारी में एक गवाह आया है जो कि कल सवेरे साढ़े चार बजे रात पाली से अपने घर लौट रहा था। बकौल उसके, उसने जसमिन गिल के फ्लैट के दरवाज़े पर एक भारी भरकम, रोबीले चेहरे वाले, उम्रदराज़ आदमी को खड़े देखा था जो उसे लगा था कि फ्लैट का ताला खोलने की कोशिश कर रहा था। कोलाबा के थानाप्रभारी कौशिक का ख़याल है कि वो फ्लैट का ताला खोल नहीं रहा था, बन्द कर रहा था। और” – एसीपी एक क्षण ठिठका फिर बोला – “मुझे कौशिक के ख़याल से इत्तफाक है। भारकर, अगर वो शख़्स अन्दर से बाहर आ रहा था और दरवाजा लॉक करके जा रहा था तो ये गोरे की खुदकुशी की तरह ‘लॉक्ड फ्लैट केस’ तो न हुआ! ओपन एण्ड शट केस तो न हुआ!”
“सर, ख़याल आखिर ख़याल ही होता है ....”
“भले ही दो जने उससे इत्तफाक ज़ाहिर करें?”
“भले ही दस जने उससे इत्तफाक ज़ाहिर करें।”
“फिर वो गवाह ये भी तो करता है कि वो भारी भरकम शख़्स हाथों में स्किन कलर के दस्ताने पहने था!”
“बेपर की उड़ाता है।”
“अच्छा !”
“या उसे ऐसा लगा होगा।”
“ये हो सकता है। मैं भी किसी को मराठी बोलता सुनता हूँ तो वो मुझे बंगाली बोलता लगता है।”
साला खुश्की उड़ा रहा था मेरी।
“उस आदमी ने” – एसीपी आगे बढ़ा – “गवाह को ये भी कहा था कि वो ‘ब्लैक ट्यूलिप’ का मुलाज़िम था और प्रोप्राइटर ने किसी काम से उसे कोलाबा, जसमिन के घर भेजा था।”
“सुबह साढ़े चार बजे!”
“मैं ख़ुद हैरान हूँ। ऐसा कौन-सा काम था और क्या उसकी अर्जेंसी थी, ये जानने के लिए प्रोप्राइटर फतह सिंह से कॉन्टैक्ट किया गया तो उसने न सिर्फ इस बात से इंकार किया बल्कि ये भी कहा कि वैसे कद-काठ का कोई शख्स उसकी मुलाज़मत में था ही नहीं। उसे उस शख्स की कम्पोज़िट पिक्चर दिखाई गई ...”
“जी!”
“. . . तो उससे भी फतह सिंह ने उस शख्स की शिनाख़त से पुरज़ोर इंकार किया। ये है कम्प्यूटर ग्राफिस्ट की बनाई कम्पोजिट पिक्चर!”
एसीपी ने ए-4 साइज का एक प्रिंटआउट भारकर के सामने रखा।
भारकर ने सप्रयास प्रिंटआउट पर निगाह डाली तो उसे कुबूल करना पड़ा कि उस पर उकेरे गये कैरीकेचर का कद-काठ, जिस्मानी बनावट मोटे तौर पर उससे मिलती थी। उसे याद था कि तब सीढ़ियों पर एक ही मरियल-सा बल्ब जल रहा था और तब भोर का उजाला होने में अभी बहुत वक्त था। इसी वजह से गवाह गौर से उसकी सूरत नहीं देख सका था इसलिए प्रिंटआउट पर उकेरा गया चेहरा हेयर स्टाइल और मूंछ के अलावा उससे नहीं मिलता था।
लेकिन जो कुछ मिलता था, वो भी उसे हिला देने के लिए कम नहीं था।
“क्या कहते हो?”
“ये मैं नहीं हूँ।” – भारकर पुरज़ोर लहजे से बोला।
“अरे, भई, मैंने कब कहा तुम हो!”
भारकर ने होंठ काटे।
“मैंने स्कैच की बाबत खाली तुम्हारी राय पूछी थी।”
“मैं क्या राय दं?” – इस बार वो सम्भल कर सावधान स्वर से बोला – “क्या पता कौन था?”
“लेकिन था। ऐसी जगह पर था जहां उसे नहीं होना चाहिए था। ऐसे वक्त पर था जबकि उसके वहां होने का कोई मतलब नहीं था। ये जुदा मसला है कि वो शख्स कौन था लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसकी उस घड़ी वहां मौजूदगी शकउपजाऊ बात थी। वॉट डू यू से?”
“यस, सर।” – भारकर एकाएक हुए सवाल से तनिक हड़बड़ाया – “इट इज़।”
“एण्ड वन सस्पिशस थिंग कैन लीड टू एनदर। नो?”
“सर, मैं समझा नहीं।”
“अभी समझोगे। उस लड़की ने, जसमिन गिल ने, कलाईयां काट कर आत्महत्या की। ओके। कैसे की?”
“कैसे की, क्या मतलब?”
“कलाईयां कैसे काटीं? शी बिट हरसैल्फ?”
“सर, मैं अभी भी नहीं समझा।”
“क्योंकि माइन्ड अप्लाई नहीं कर रहे हो। क्योंकि तुम्हारी तवज्जो कहीं ओर है।”
“ओ, नो, सर।”
“तो क्यों नहीं समझे कि कलाईयां काटने के लिए ऐसा करने वाली के करीब ही से कोई तेज़ औजार बरामद होना चाहिए था जो कि वहां नहीं था।”
देवा!
अक्ल मारी गई थी मेरी। ब्लेड तो मैंने इस्तेमाल के बाद वापिस जेब में रख लिया था।
“सर” – एसीपी को घूरता पाकर वो जल्दी से बोला – “वो क्या बड़ी बात है! किचन में कई चाकू, छुरियां होती हैं।”
“ओके। उनमें से एक उसने इस्तेमाल की?”
“हां . . . जी हां।”
“वो किचन में गई, वहां से एक छुरी काबू में की, बाथरूम में जाकर टब में लेटी और छुरी से कलाईयां काट लीं। ओके?”
भारकर ने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“छुरी कहां गई? कलाईयां काटने के बाद उसे धो-पोंछकर मरने वाली किचन में रख आई?
“ये तो . . . नहीं मुमकिन जान पड़ता!”
“तो?”
“पहले किचन में गई।”
“वहां जा के कलाईयां काटी, छुरी को वापिस यथास्थान रखा और फिर बाथरूम में जाकर टब में लेटी! मरने के लिए!”
“यही हुआ लगता है।”
“बैडरूम में क्यों न गई! बाथ टब में क्यों जा लेटी जो कि इस काम के लिए कोई कम्फर्टेबल जगह नहीं थी, कोई मुनासिब जगह नहीं थी?”
“मैं इस बारे में क्या कह सकता हूँ? सिवाय इसके कि मरने वाली के जो जी में आया, उसने किया।”
“फारेंसिक रिपोर्ट कहती है कि वो चाकू-छुरी का काम नहीं था। साइंटिफिक रिपोर्ट कहती है कि वो कट सर्जीकल प्रिसिज़न से अप्लाई किए गए थे जो या किसी सर्जीकल नाइफ़ से मुमकिन थे या . . . ब्लेड से।”
“कमाल है!”
“सर्जिकल नाइफ़ या ब्लेड किचन की आइटम तो नहीं! फिर ऐसा कोई आला बरामद भी तो नहीं हआ! क्या मतलब हआ इसका?”
“क्या मतलब हुआ?”
भारकर भीतर से हिला हुआ था लेकिन प्रत्यक्ष में नार्मल दिखने की भरसक कोशिश कर रहा था।
“मेरे से पूछ रहे हो तो सुनो। इसका मतलब है कि मरने वाली के साथ फ्लैट में कोई था जिसने वो कांड किया और वहां से जाती बार इस काम में इस्तेमाल हुआ आला – सर्जीकल नाइफ़ या शेविंग ब्लेड, टेक युअर पिक - अपने साथ ले गया। बेध्यानी में उसे न सूझा कि ऐसा कोई आला लाश के करीब से बरामद हुआ होना चाहिए था। इसका आगे मतलब है कि मरने वाली ने ख़ुदकुशी न की, ये क्लियर कट मर्डर का केस है और मर्डरर, कातिल, वो भारी भरकम उम्रदराज़ शख्स था जो फ्लैट को बाहर से लॉक करता – रिपीट, लॉक करता, खोलता नहीं - देखा गया था। वॉट डु यू से नाओ?”
“सर, ये कैसे हो सकता है?” – भारकर तनिक आवेश से बोला “कैसे हो सकता है कि कोई जसमिन की कलाईयां काट कर उसे पीछे मरने के लिए छोड़ कर चलता बना? उस शख्स के जाने के बाद उसकी पहली, स्वाभाविक कोशिश खून बन्द करना होती। अगर आप कहें कि कथित हत्यारे ने उसे ऐसा करने के काबिल नहीं छोड़ा था, उसकी मुश्कें कस दी थीं तो सवाल उठता है कि उसकी मुश्कें आखिर किसने खोलीं! किसी ने तो खोली! ख़ुद तो वो खोल नहीं सकती थी और ये तो पेपर्स में भी छपा है कि बरामदी के वक्त लाश बन्धी हुई नहीं थी। तो किसने उसको बन्धनमुक्त किया? जवाब है कि किसी ने नहीं। उसके बन्धी होने का कोई मतलब ही नहीं था। कटी कलाईयां से खून रिस रहा था, वो रिसते खून को रोकने के लिए आज़ाद थी लेकिन उन हालात में उसे उस आज़ादी की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि वो अपनी मर्जी से खुदकुशी कर रही थी। और फ्लैट का लॉक्ड मेन डोर इस बात की तसदीक करता है।”
“वैरी वैल सैड। नाओ लैट मी रीकंस्ट्रक्ट दि क्राइम फॉर यू। फर्ज़ करो वही भारी भरकम उम्रदराज़ शख़्स कातिल था जो फ्लैट से बाहर मेन डोर पर खड़ा देखा गया था। अब हमें ये भी मालूम है कि, जैसा कि उसने दावा किया था, वो ‘ब्लैक ट्यूलिप के मालिक फतहसिंह का हरकारा नहीं था। ये भी स्थापित है कि रात डेढ़ बजे के करीब मरने वाली ‘ब्लैक ट्यूलिप’ की स्टीवार्डेस की अपनी ड्यूटी से वापिस अपने फ्लैट पर लौटी थी जहां वो अकेली रहती थी इसलिए ज़ाहिर है कि फ्लैट में दाखिला पाने के लिए मेन डोर का ताला उसने ख़ुद खोला। दरवाज़ा खुला तो उसे मिला नहीं था! न किसी ने भीतर से खोला था। ओके सो फार?”
चेहरे पर असमंजस के भाव लिए भारकर ने सहमति में सिर हिलाया।
“पोस्टमार्टम की रिपोर्ट कहती है कि मरने वाली का इन्तकाल शुक्रवार रात - कलेंडर डेट सैटरडे, ट्वेंटी फोर्थ – दो और पांच के बीच हुआ था। यानी उस दौरान कोई फ्लैट पर आया जिसको जसमिन ने ही दरवाज़ा खोला। क्यों खोला? मेन डोर में आगन्तुक की शिनाख्त के लिए पीपिंग होल - आल्सो नोन ऐज़ मैजिक आई- फिट था। इतनी रात गए किसी अजनबी को तो वो दरवाज़ा खोले वाली नहीं थी, वाकिफ को भी इतनी रात गए आने का सबब जाने बिना वो दरवाज़ा न खोलती। तो फिर वो आगन्तुक - अजनबी या वाकिफ- कैसे फ्लैट के भीतर दाखिला पा सका! भारकर, बतौर इनवैस्टिगेटिंग ऑफिसर ऑफ लांग स्टैंडिंग तुम्हें इनवैस्टिगेशन का ज़्यादा तजुर्बा है इसलिए सूझ बूझ में मैं तुम्हारा मुकाबला तो नहीं कर सकता . . .”
तपा रहा था साला हरामी!
“... लेकिन मेरी राय यही कहती है कि मरने वाली के रात डेढ़ बजे घर लौटने से पहले ही कोई फ्लैट के भीतर मौजूद था।”
“बट दैट इज़ इमपॉसिबल!”
“क्यों भला? किसी ने क्या फोर्ट नॉक्स का ताला खोलना था! फिर ये न भूलो कि सुबह साढ़े चार बजे जो शख़्स फ्लैट के मेन डोर पर खड़ा देखा गया था, गवाह को लगा था कि वो दरवाज़ा खोल रहा था जबकि कामनसेंस ये कहती है, हालात का तकाज़ा ये कहता है, कोलाबा थाना प्रभारी कौशिक ये कहता है, कि दरवाज़ा बन्द कर रहा था। अब क्यों नहीं हो सकता कि जो शख्स दरवाज़ा बन्द कर रहा था वो पहले दरवाज़ा खोल भी सकता था?”
“जसमिन की गैरमौजूदगी में?”
“यकीनन जसमिन की गैरमौजूदगी में। वो फ्लैट में मौजूद होती तो दरवाज़ा जबरन खोले जाने की ज़रूरत ही न होती। हालात से साफ ज़ाहिर होता है कि जसमिन की वापिसी से पहले – हो सकता है बहुत पहले – किसी ने फ्लैट में जबरन दाखिला पाया और जसमिन के इन्तज़ार में भीतर बैठ गया।”
“कत्ल के इरादे से?”
“यकीनन कत्ल के इरादे से। लेकिन फौरन कत्ल के इरादे से नहीं। पहले ज़रूर उसने जसमिन से कुछ दरयाफ़्त करना था इसलिए एक अरसे के बाद।”
“गुस्ताखी माफ, सर, तुक्का है।”
“ब्लेड से क्लाईयां कटी होना ही इस बात का सबूत है कि मौत एक अरसे बाद हुई क्योंकि कत्ल को ख़ुदकुशी का जामा पहनाया जाना था। कातिल कत्ल की ख़ातिर फ्लैट में घुसा बैठा होता तो जसमिन बैठक में ही मरी पड़ी होती। जमा, इस बात की तरफ भी तवज्जो दो कि मैंने कहा कि जसमिन की आमद से बहुत पहले कोई उसके फ्लैट के भीतर था। क्यों बहुत पहले भीतर था! क्योंकि वहां उसे किसी चीज की तलाश थी जो कि नाकाम रही थी। अब जसमिन ही बता सकती थी कि वो चीज़ उसने – फ्लैट में या फ्लैट से बाहर कहीं – कहां छुपाई थी। इस जानकारी का तालिब फ्लैट में छुपा बैठा वो जसमिन के लौटने का इन्तज़ार कर रहा था ...”
“सर, इट्स आल गैस वर्क।”
“बट इन्टैलीजेंट गैस वर्क। वर्ना बोलो, प्वायन्ट आउट करो कि वो कौन-सी बात है जो तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती?”
भारकर से जवाब देते न बना।
“हालात साफ ज़ाहिर करते हैं कि आगन्तुक को किसी चीज़ की तलाश थी जो वो फ्लैट से बरामद नहीं कर सका था। जसमिन के लौटने के बाद उसने उससे उस बाबत जबरन कुछ कबुलवाने की कोशिश की थी तो कामयाब नहीं हो सका था। तब लड़की पर दबाव बनाने के लिए उसने टार्चर का वो तरीका आज़माया था जो स्लोमोशन में काम करता था। उसने लड़की को बांध कर बाथ टब में डाला, उसकी कलाईयां काटीं और किसी खुफिया चीज़ की बाबत, जिसकी कि उसको फ्लैट में तलाश थी - दोहरा, दोहरा कर सवाल करने लगा और तब तक करता रहा जब तक जसमिन जान बचाने की खातिर आततायी को माकूल जवाब देने पर मजबूर न हो गई।”
“वो चीज़ बरामद हो गई?”
“हालात यही कहते हैं कि हो गई।”
“क्या चीज़?”
“वो चीज़ जिसमें ऐसा कुछ था जिसकी रू में वो जुल्मी जसमिन को ज़िन्दा छोड़ना अफोर्ड नहीं कर सकता था।”
“बावजूद उस चीज की कामयाब बरामदी के?”
“हां। और इसीलिए उसके प्राण निकलने तक उसके पास उसकी मौजूदगी जरूरी थी। इसी वजह से उसको, कातिल को, ख़ुदकुशी की स्टेज सैट करने के बाद फ्लैट से कूच कर जाने में साढ़े चार बज गए थे।”
“कहानी अच्छी है, सर।” – भारकर ने यं शक्ल बनाई जैसे बोर हो रहा हो – “लेकिन मुझे क्यों सुना रहे हैं? सुनानी ही थी तो कोलाबा के थानाप्रभारी कौशिक को सुनाते!”
“सवाल अच्छा है।” – एसीपी शुष्क स्वर में बोला – “जवाब अभी ख़ुद ही जान जाओगे।”
“कैसे?”
“मैं अभी तुम्हें दो वीडियो क्लिप्स दिखाऊंगा ...”
“दो!”
“... जो तुम्हें पसन्द आएंगी। गिव मी ए मिनट।”
एक मिनट बाद एसीपी के लैपटॉप पर कोंपल मेहता का झालानी को फॉरवर्ड किया वीडियो चलने लगा।
“देखो।” – एसीपी बोला।
जिस दौरान भारकर ने वीडियो देखा, उस दौरान एसीपी ने भारकर के चेहरे पर बदलते भावों के अलावा कुछ न देखा!
वीडियो का समापन हुआ।
“क्या कहते हो?” – एसीपी बोला।
“मैंने क्या कहना है?” – भारकर उदासीन भाव से बोला – “जो कहना है, आपने कहना है।”
“फिर भी कुछ तो कहना होगा! तुमने बाजरिया कोंपल मेहता अपने मातहत, मरहूम सब-इन्स्पेक्टर के खिलाफ रेप का इलज़ाम खड़ा करने की कोशिश की, कुछ तो कहना होगा!”
“दो ही बातें मुमकिन हैं। या तो ये टेप मौफ़र्ड है या ये औरत किसी की सिखाईपढ़ाई झठ बोल रही है।”
“किसकी सिखाई-पढ़ाई?”
“क्या पता लगता है! क्या पता लगता है महकमे में कब कौन किसके खिलाफ हो गया, ज़हर उगलने लगा, ऐसी बेहूदा हरकतों पर उतर आया!”
“हम्म!”
“आप इस औरत को मेरे सामने लाकर खड़ा कीजिए, मै दो मिनट में आपके सामने इससे कबुलवाता हूँ किसके सिखाए पढ़ाए उसने ये सब बका है।”
“ये तो मुमकिन नहीं है! वीडियो देखकर तुमने जाना ही है कि क्यों मुमकिन नहीं!”
“फिर तो आप को भी मालूम होना चाहिए कि कानूनन इस वीडियो को वैलिड तसलीम नहीं किया जा सकता। जब तक वीडियो का वक्ता अपने कहे को सबसटैंशियेट करने के लिए, उसकी तसदीक करने के लिए उपलब्ध न हो, इसकी बतौर ऐवीडेंस कोई एहमियत नहीं।”
“तुम मुझे कानून पढ़ा रहे हो?”
“पढ़े-लिखे को कौन पढ़ा सकता है, सर!”
“इस औरत को गिरफ्तार क्यों किया गया था?”
“गिरफ्तार नहीं किया गया था, पूछताछ के लिए थाने तलब किया गया था।”
“इसका फील्ड ऑफ आपरेशन पोर्ट एरिया था, वो तो तुम्हारे थाने की ज्यूरिसडिक्शन में नहीं आता!”
“बतौर इवेंट आर्गेनाइज़र इसका फील्ड ऑफ आपरेशन सारा साउथएण्ड था। तारदेव भी उसके फील्ड ऑफ आपरेशन में आता था जहां कि इसके कई इवेंट्स आर्गेनाइज़ करने की खबर लगी थी।”
“जामातलाशी के दौरान कोई गवाह क्यों मौजूद नहीं था? जामातलाशी का नतीजा बतौर रिपोर्ट कहीं दर्ज क्यों नहीं किया गया था?”
“गवाह क्यों मौजूद नहीं था, इसकी मुझे ख़बर नहीं थी...”
“होनी तो चाहिए थी!”
“जी हां, नियम के अनुसार होनी तो चाहिए थी!”
“तो क्यों नहीं थी?”
“एसआई रेखा सोलापुरे इस बात का बेहतर जवाब दे सकती है।”
“रिपोर्ट क्यों न दर्ज हुई?”
“क्योंकि कोई केस न बना। उस औरत के पास से जो गोलियाँ बरामद हुई थीं, वो एस्टेसी की नहीं, एस्पिरीन की थीं।”
“तुम इस बात से वाकिफ थे कि एस्टेसी की गोली कैसी होती थी?”
“जी नहीं, लेकिन इस बात से वाकिफ था कि एस्पिरीन की गोली कैसी होती थी।”
“आई सी। क्या शिनाख्त नोट की एस्पिरीन की गोली की?”
“उसके मिडल में एक गहरी लकीर होती है, जिस पर से गोली को दो टूक किया जा सकता है ताकि किसी ने आधी गोली खानी हो तो खा सकता हो। एस्टेसी की गोली पर ऐसी कोई लकीर नहीं होती।”
“ये बात रेखा को नहीं मालूम थी? या उसने इस बात की तरफ तवज्जो नहीं दी थी?”
“बोले तो, दोनों में से कोई भी बात हो सकती है। मैं रेखा से इस बाबत बात करूँगा।”
“फिर भी उसने बरामदी को एस्टेसी ही क्योंकर समझ लिया?”
“मुझे नहीं मालूम। एस्टेसी की बरामदी का उसे कोई पुराना तर्जुबा होगा जो इस बार काम न आया।”
“भारकर, जो प्रापर, एस्टैब्लिशड, प्रोसीजर है, उससे तुम नावाकिफ नहीं हो। प्रोसीजर ये है कि ऐसी बरामदी को फोरेन्सिक साइन्स लैबारेट्री को भेजा जाता है और उसकी बाबत रिपोर्ट का इन्तज़ार किया जाता है। तुमने तो आनन-फानन ही फैसला कर लिया कि सस्पैक्ट से बरामद हुई गोलियाँ ऐस्टेसी की नहीं, एस्पिरीन की थीं और सस्पैक्ट को वैसे ही आनन-फानन आज़ाद भी कर दिया! दिस इज़ हाईली इररेगुलर, आई मस्ट से।”
“आई एम सॉरी, सर। मैंने एस्पिरीन साफ पहचानी थी इसलिए...”
“ऑल दि सेम, जब केस को बॉडी सर्च जितना गम्भीर समझा गया था तो सैम्पल एसैन्शियली एफएसएल को भेजा जाना चाहिए था।”
“आई एम ऑलरेडी सॉरी, सर।”
“सो यू आर। सो यू आर। अब वो गोलियाँ कहां हैं?”
“वो तो...वो तो जब एस्पिरीन की पाई गई थीं तो उसी को लौटा दी गई थीं।”
“कोंपल मेहता तो ऐसा नहीं कहती! वीडियो में उसने ख़ुद कुबूल किया है कि उसके पोज़ेशन में अपने निजी इस्तेमाल के लिए ऐस्टेसी की पांच गोलियाँ थीं।”
“वो वीडियो मौपर्ड है, मिसचीवियस है जो न ऑथेंटिक है, न हो सकता है। आप उस औरत को सामने आने दीजिए और फिर आप उसे कोई नया ही राग अलापती पायेंगे।”
“वो कहती है वो ढूंढ़े नहीं मिलेगी!”
“उसके कहने से क्या होता है! वो अभी जानेगी कि कानून के हाथ कितने लम्बे होते हैं।”
“तुम्हारे पास हर बात का जवाब है।”
भारकर ख़ामोश रहा।
“वीडियो में उसने तुम पर साफ इलज़ाम लगाया कि तुम उसे एसआई अनिल गोरे पर रेप का झूठा इलज़ाम लगाने के लिए तैयार करना चाहते थे जिसके लिए कि वो तैयार नहीं थी ....”
“बेबुनियाद इलज़ाम लगाया; बेहदा, नाजायज इलज़ाम लगाया, ज़रूर किसी के बहकावे में आकर ऐसा किया।”
“तुम्हारी गोरे से कोई अदावत नहीं थी?”
“बिल्कुल नहीं थी।”
“डिपार्टमेंटल राइवलरी में कभी उसकी वाट लगाने का तुम्हारा कोई मंसूबा नहीं था?”
“नहीं था। अलबत्ता गोरे की शिकायतें मुझे ज़रूर मिलती थीं कि आजकल गुलदस्ता थामने पर उसका कुछ ज़्यादा ही ज़ोर था।”
“गोरे ऐसा, रिश्वत के मौके ख़ुद गढ़ने वाला पुलिस ऑफिसर था?”
“सर, जो आदमी अब इस दुनिया में नहीं है, उसके बारे में मैं कोई बुरा बोल नहीं बोलना चाहता।”
“वो तो तुम बोल चुके! अभी तो बोला कि गुलदस्ता थामने पर उसका ज़्यादा ज़ोर था!”
“मैंने कोई वर्डिक्ट नहीं दिया था, बोला था खाली कि मुझे ऐसी शिकायतें मिलती थीं।”
“वही सही। क्या ऐक्शन लिया?”
“एक्शन लेने की नौबत ही न आई।”
“पहले ही खुदकुशी कर ली?”
“जी हां।”
“तुम्हारी गोरे से कोई रंजिश नहीं थी ....”
“ये बात आप पहले पूछ चुके हैं।”
“. . . उसके खिलाफ कोई एक्सट्रीम स्टेप लेने का, उसको रेप के केस में फंसाने या ऐसे ही किसी और खतरनाक तरीके से उसे सैट करने का तुम्हारा कोई इरादा नहीं था?”
“नहीं था, नहीं था, नहीं था।”
“भारकर! डोंट गैट एक्साइटिड।”
“सॉरी, सर। लेकिन मैं पुरज़ोर कहना चाहता हूँ कि मैं एनवियस मिज़ाज़ का आदमी नहीं हूँ।”
“एनवियस मिज़ाज़!”
“मेरे में हसद की, ईर्ष्या की भावना नहीं हैं क्योंकि सूफी लोग कहते हैं कि ईर्ष्या ख़ुद ज़हर खाकर दूसरे की मौत की कामना करने के समान होती है।”
“बड़े ज्ञान की बात कही! खैर, पहले वीडियो से तो तुम साफ बच निकले, अब दूसरे को देखो। लैट्स सी वैदर यू कैन स्कवर्म आउट ऑफ इट।”
अब तक एसीपी भारकर से बहुत मीठा-मीठा बोल रहा था लेकिन आखिरी वाक्य कहते-कहते उसके स्वर में साफ असहिष्णुता का पुट आ गया जो कि भारकर से छुपा भी न रहा।
साला अब कौन सा बम फोड़ने वाला था!
क्या था उसकी आस्तीन में!
लैपटॉप की स्क्रीन फिर रौशन हुई।
स्क्रीन पर निगाह पड़ते ही भारकर के भीतर हाहाकार का बवंडर उठा।
देवा रे!
जिस मुर्दे को उसने इतना गहरा दफनाया था, वो उठकर कैसे खड़ा हो गया! उसने तो जसमिन से बरामद वीडियो क्लिप का नामोनिशान नहीं छोड़ा था! क्यों कर हुआ ये करिश्मा जो उसे अब स्क्रीन पर दिखाई दे रहा था?
वीडियो ख़त्म हुआ।
“फिर देखना चाहते हो?”
भारकर ने इंकार में सिर हिलाया। उस जंजाल से बच निकलने का कोई रास्ता तलाशने के लिए उसके दिमाग की चर्बी तेज़ी से घूम रही थी।
“अब क्या कहते हो?” – एसीपी के स्वर में चैलेंज का पुट आया।
“मौपर्ड है।” – भारकर खोखले स्वर में बोला – “किसी ने मुझे फंसाने के लिए, मेरे से दुश्मनी निकालने के लिए तैयार कराया है।”
“किसने?”
“नहीं मालूम। लेकिन मैं मालूम कर लूँगा। मालूम करके रहूँगा।”
“कुछ नहीं कर पाओगे। इस वीडियो क्लिप को एक्सपर्ट्स ने एग्जामिन किया है और निर्विवाद फैसला दिया है कि ये वीडियो मौपर्ड नहीं है, इसके साथ कोई छेड़खानी नहीं की गई है।”
“ये आया कहां से? किसके पास था?”
“मकतूला जसमिन गिल के पास था।”
“नामुमकिन!”
“क्यों नामुमकिन? कैसे तुम इतने यकीन से इस बात को नामुमकिन बता रहे हो? क्योंकि तुमने अपने हाथों से इस वीडियो की हर कॉपी नष्ट कर दी थी?”
जवाब देने की जगह भारकर ने बेचैनी से पहलू बदला।
“बुड्ढे हो गए हो, भारकर।”
भारकर ने तमक कर सिर उठाया।
“तुम पुराने ज़माने के आदमी हो। मॉडर्न टैक्नालोजी से, उसकी निरन्तर प्राँग्रेस उतने वाकिफ नहीं हो जितने आजकल के लोग – ख़ासतौर से नौजवान – वाकिफ हैं। जो बातें आजकल स्कूल में बच्चों को पढ़ाई-लिखाई जाती हैं, उनसे तुम इस उम्र में नावाकिफ हो। मुझे नहीं लगता कि आई-फोन में और एन्ड्रायड फोन में फर्क तुम समझते हो; समझते होते तो वो गलती - बल्कि ब्लंडर - तुम न करते जो कि तुमने की। तुम्हें नहीं मालूम था कि आई-फोन से जो डाटा इरेज़ किया जाता है, वो ‘क्लाउड’ में भी होता है। आजकल इलैक्ट्रॉनिक मार्केट में ऐसा सॉफ्टवेयर आम अवेलेबल है जो आई-फोन से इरेज़ किए डाटा को रेस्टोर कर सकता है। जसमिन गिल की मिल्कियत इस फोन को, जो कि बाथ टब पर उसके सिर के करीब रखा पाया गया था, इसलिए वहां छोड़ा गया था क्योंकि उसमें जसमिन का सुईसाइड नोट था-प्लांटिड सुईसाइड नोट था – वर्ना वीडियो क्लिप की जगह तुमने फोन ही नष्ट कर दिया होता। बरामदी के बाद वो फोन सान्ताक्रूज़ में स्थित फॉरेंसिक साइन्स लैबारेट्री को भेजा गया था। नतीजा तुम्हारे सामने है।”
“मौपई है।”
“रस्सी जल गई। बल नहीं गया।”
“मेरे खिलाफ साज़िश का नतीजा है जिसमें सब मिले हुए हैं।”
“मैं भी?”
“क्या पता लगता है!”
“तुम्हारी बाकमाल ढिठाई की मैं दाद देता हूँ। अब खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे के अन्दाज़ से किसी पर भी बेबुनियाद इलज़ाम लगाने लग जाने से पहले एकाध बची-खुची बात भी सुन लो, अपना डिफेंस तैयार करने में काम आएगी।”
भीतर से बुरी तरह हिला हुआ भारकर ख़ामोश रहा।
“मकतूला के मोबाइल में मौजूद जिस सुईसाइड नोट को तुम पुरज़ोर लहज़े से नकार रहे हो, उसकी बाबत एक बात सुन लो, फिर अपने ज्ञान-चक्षु - अब तक नहीं खुले तो – खुलते पाओगे।”
“कहिए वो भी!” – भारकर रुखाई से बोला।
“सुनो। मकतूला की मेड के सुबह अपने काम पर जसमिन के फ्लैट में आने के कुछ देर बाद ही वारदात की ख़बर आम हो गई थी और आठ बजे तक कोलाबा थाने से पुलिस मौका-ए-वारदात पर पहुंच भी गई थी। रूटीन तफ्तीश के दौरान मकतूला का मोबाइल फोन बाथ टब में पड़ी उसकी लाश के सिरहाने पड़ा पाया गया जिसे कि पुलिस पार्टी के साथ आए सब-इन्स्पेक्टर तलपदे ने अपने कब्जे में लिया था और इनवैस्टिगेशन की रुटीन के तौर पर उस पर रिकॉर्डिड ‘इनकमिंग’, आउटगोइंग कॉल्स, ‘एसएमएस’ और ‘ई-मेल’ को चैक किया था लेकिन चैकिंग में फौरन ऐसी कोई बात नहीं पाई गई थी जो कि जसमिन गिल की खुदकुशी की तसदीक में काम आ पाती। बाद में रुटीन के तौर पर वो फोन कोलाबा थाना प्रभारी कौशिक को सौंप दिया गया था। दोपहर के करीब कौशिक को ‘नोट्स’ को भी देखने का ख़याल आया था। उसने नोट्स को खोला था तो उसकी टॉप की पहली ऐन्ट्री उसकी डाइंग डिक्लेयरेशन सुईसाइड नोट थी। यूं दोपहर के करीब जसमिन का एक गैरमामूली तरीके से पीछे छोड़ा सुईसाइड नोट पुलिस की जानकारी में आया। लेकिन – एसपी के लहजे में एकाएक नाटकीयता का पुट आया – “तुम्हें सुबह साढ़े नौ बजे ही सुईसाइड नोट की ख़बर थी। कैसे ख़बर थी, भारकर? जो बात कोलाबा पुलिस को, किसी को भी, दोपहर तक नहीं मालूम थी, वो तुम्हें सुबह ही कैसे मालूम थी?”
“कौन कहता है मालूम थी?”
“पंकज झालानी कहता है, जो ‘एक्सप्रैस’ का रिपोर्टर है और जिससे तुम बाखूबी वाकिफ हो।”
“झूठ बोलता है।”
“परसों सुबह जब तुम ‘ब्लैक ट्यूलिप’ से निकल रहे थे तो झालानी आ रहा था और बाहर निकलते तुम से जा टकराया था, ये बात झूठ है?”
“नहीं, ये बात झूठ नहीं है। जब वो मेरे से टकराया था तो कोलाबा वाली वारदात पर मेरी उससे बातचीत भी हुई थी, लेकिन उसमें जसमिन गिल के सुईसाइड नोट का कोई ज़िक्र नहीं आया था।”
“झालानी झूठ बोलता है?”
“क्या पता लगता है!”
“वो यहां मौजूद है, तुम्हारा यहीं उससे आमना सामना कराया जा सकता है। तब कह सकोगे कि वो झूठ बोला इस बाबत?”
“आपका सिखाया-पढ़ाया वो कुछ भी कह सकता है।”
“मेरा सिखाया-पढ़ाया?”
“हां।”
“और बाकी सबूत ....”
“सब फर्जी है, गढ़े हुए हैं।” – वो एकाएक उठ खड़ा हुआ – “मैं अब जाना चाहता हूँ।”
“तुम नहीं जा सकते।”
“लेकिन ....”
“ऐण्ड दैट्स एन ऑर्डर। सिट डाउन।”
भारकर वापिस बैठा।
“और सुनो अपने ताबूत की एक और कील की बाबत।”
भारकर के गले की घंटी ज़ोर से उछली।
“पुलिस कॉलोनी के एक अफीमची गवाह का बयान है कि सोमवार, उन्नीस तारीख को उसने वहां हुई वारदात से पहले भी तुम्हें कॉलोनी गेट से भीतर दाखिल होते देखा था। उसके बयान की तसदीक हुई है। पूछो कैसे?”
“क-कैसे?”
“अंटा लगा चुकने के बाद वो बीड़ी ख़रीदने की गरज से बाहर निकला था लेकिन कहता था कि अफीम की पिनक की वजह से उसे टाइम का कोई अन्दाज़ा नहीं था। टाइम की तसदीक अब दूसरे तरीके से हुई है।”
“दू- दूसरा तरीका?”
“सड़कपार कालोनी गेट के सामने एक खोखा है जिसका मालिक बीड़ी, सिगरेट, माचिस, खैनी, सुरती, पान पराग जैसे निक-नैक बेचता है। उसे अच्छी तरह से याद है कि कॉलोनी का अफीमची गवाह बीड़ी खरीदने के लिए रात नौ बजे के करीब उसके खोखे पर आया था। यानी रात के नौ बजे के करीब तुम कॉलोनी गेट के भीतर दाखिल होते देखे गए थे। तुम कहते हो कि तुम ग्यारह बजे के बाद, गोरे के साथ हुई वारदात की ख़बर लगने के बाद मौका-ए-वारदात पर पहुंचे थे जो कि मुमकिन नहीं।”
“क्यों... . क्यों मुमकिन नहीं?”
“क्योंकि नौ बजे के करीब गोरे से साथ तुम उसके फ्लैट में थे और उसके बाद किसी घड़ी गोरे का कत्ल कर के कत्ल को ख़ुदकुशी का केस बना रहे थे। तब गोरे की उस शाम की कम्पैनियन जसमिन गिल उसके साथ थी, तुम्हें आया पाकर जिसे गोरे ने फ्लैट के भीतर किसी ऐसी जगह छुपा दिया था जहां से वो फ्लैट की बैठक का खुफिया नज़ारा कर सकती थी, जहां उसने मेहमान को मेज़बान का कत्ल करने पर आमादा देखा था तो अपने मोबाइल के कैमरे से मेहमान की करतूत बतौर वीडियो दर्ज कर ली थी।”
“सब गैस वर्क है।”
“तब हालात का साफ इशारा था कि मेहमान अपनी उस नापाक हरकत के बाद फौरन वहां से रुख़सत नहीं हुआ था क्योंकि वहां उसे किसी चीज़ की तलाश थी और अपनी तलाश कामयाब होने की उसे पूरी उम्मीद थी, तभी तो उसने कत्ल जैसी नापाक हरकत की थी। अपनी तलाश को अंजाम देने के लिए नौ बजे का आया वो वहां से गया ही नहीं था। दूसरे, उसने फ्लैट के भीतर से लॉक्ड पाया जाने का इन्तज़ाम करना था।”
“कम्पैनियन को भूल गए!” – भारकर के स्वर में व्यंग्य का पुट आया।
“नहीं भूल गया। वो फ्लैट में भीतर कहीं थी। उसे कातिल मेहमान से ख़तरा था क्योंकि वो कत्ल की आई विटनेस थी और इसी वजह से मेहमान को उससे खतरा था। लेकिन अपने तलाशी के अभियान के तहत मेहमान सारे फ्लैट में एक ही बार, एक ही वक्त मौजूद नहीं हो सकता था इसलिए कम्पैनियन लड़की को फ्लैट से खिसक जाने का मौका मिल गया था।”
“गैस वर्क है।”
“फ्लैट को लॉक्ड पाए जाने का इन्तज़ाम उसके लिए आसान था क्योंकि जब फ्लैट का बन्द दरवाज़ा जबरन तोड़ कर खोला गया था, तब कातिल मेहमान फ्लैट के भीतर था और जब वहां पहुंचे, सब जनों की तवज्जो कहीं और थी - जैसे कि पंखे से लटकी लाश की तरफ – तो वो चुपचाप वहां से खिसक गया था और ये ज़ाहिर करता सबके सामने फिर लौटा था कि वो वो मातहत से वारदात की ख़बर पाकर तब, ग्यारह बजे के बाद, वहां पहंचा था। यहां ये बात ग़ौरतलब है कि कम्पैनियन लड़की मेहमान को जानती पहचानती थी लेकिन मेहमान को नहीं मालूम था वो कौन थी ...”
“मेहमान कौन?”
“क्या कहने! ये भी बताना पड़ेगा?” भारकर ख़ामोश हो गया।
“मेहमान एसआई अनिल गोरे का कातिल थानाध्यक्ष उत्तमराव भारकर जिसको कम्पैनियन लड़की ने – जसमिन गिल ने – ब्लैकमेल करने की जुर्रत की और इस कोशिश में भारकर के हाथों जान से गई।”
“सब गैस वर्क है।”
“लेकिन इन्टेलीजेंट गैस वर्क है। कई तथ्यों पर आधारित गैस वर्क है। रात पाली से लौटा गवाह, जिसने तुम्हें जसमिन के फ्लैट के दरवाज़े पर खड़ा देखा था और समझा था कि तुम फ्लैट का ताला खोलने की कोशिश कर रहे थे लेकिन तुम्हारा दावा था कि तुम कॉलबैल बजा रहे थे, तुम्हें भूल नहीं गया था- आखिर अभी कल सुबह सवेरे की तो बात है - उस गवाह का तुम्हारे से आमना-सामना करवाया जाएगा तो वो निर्विवाद तुम्हारी शिनाख्त करेगा। इन्स्पेक्टर भारकर, आई चार्ज यू दैट यू मर्डर्ड सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे एण्ड हिज़ कम्पैनियन ऑफ मंडे, दि नाइनटीथ नाइट जसमिन गिल। आई चार्ज यू फॉर डेलीब्रेट, कोल्डब्लडिड डबल मर्डर। अब तुम अपने अंजाम से नहीं बच सकते।”
भारकर उछल कर खड़ा हुआ।
“मैं डीसीपी पुजारा का आदमी हूँ।” – वो तीखे स्वर में बोला।
“मैं कमिश्नर जुआरी का आदमी हूँ।” – एसीपी शान्ति से बोला – “और कमिश्नर होम मिनिस्टर का आदमी है।”
“मैं ..... मैं जाता हूँ।”
“नहीं जा सकते। यू आर अन्डर रैस्ट।”
“मैं जा रहा हूँ। रोक सकते हों तो रोक लें।”
वो दरवाज़े की तरफ बढ़ा।
एसीपी ने घन्टी बजाई।
तत्काल भड़ाक से दरवाज़ा खुला और चार सशस्त्र कमांडो भीतर घुस आए। सबने अपने हथियार भारकर पर तान दिए!
“तुम्हारे लिए ख़ास इन्तज़ाम।”– पीछे से एसीपी की आवाज आई- “स्पैशल अरेंजमेंट फॉर ए स्पैशल सन ऑफ ए बिच। . . . अरैस्ट हिम।”
नृशंस भाव से कमांडो भारकर की तरफ बढ़े।
भारकर की सारी दीदादिलेरी हवा हो गई। उसके चेहेर पर हवाईयां उड़ने लगीं, टांगें थरथराने लगीं।
“यू आर ए डिसग्रेस टू मुम्बई पुलिस।” – एसीपी की नफ़रत और तिरस्कार भरी आवाज उसे बहुत दूर से आती लगी – “आई विल पर्सनली सी दैट यू हैंग हाई। टेक दिस लो लाइफ आउट ऑफ माई साइट।”
भारकर के रहे सहे कसबल भी निकल गए।