थाने में जनकराज की अपने एसएचओ से लम्बी मन्त्रणा हुई। आखिरकार एसएचओ ने पाण्डेय को अलग बुलाया और खेदपूर्ण स्वर में बोला — “एक बड़ी विकट समस्या आ खड़ी हुई है, सर। समझ में नहीं आता कि क्या करूं और क्या न करूं!”

“ऐसा क्या हो गया है?” — पाण्डेय विनोदपूर्ण स्वर में बोला।

“थाने के लॉकअप में एक आदमी बंद है। उस पर कत्ल का इलजाम है लेकिन वो अपने आपको बेगुनाह बताता है। कहता है उसे सोहल ने फंसाया है।”

“सोहल! वो कई नामों वाला मशहूर इश्तिहारी मुजरिम!”

“जी हां। साथ में वो ये भी कहता है कि आपके साथ आये मिस्टर कौल ही असल में वो इश्तिहारी मुजरिम सोहल है।”

“कौल!” — पाण्डेय ठठा कर हंसा — “सोहल है!”

“वो दावे के साथ ऐसा कहता है।”

“भई, आपके थाने में सोहल की तसवीर लगी है। आपको कौल की शक्ल उससे मिलती लगती है?”

“वो कहता है कि सोहल प्लास्टिक सर्जरी से शक्ल तब्दील करा चुका है। वो सोहल की नयी शक्ल की तसवीर दिखाता है जो कि ...जोकि मिस्टर कौल से मिलती है।”

“एकदम मिलती है?”

“एकदम तो नहीं मिलती लेकिन फिर भी मिलती है।”

“इन्स्पेक्टर साहब, आपने सुना नहीं की इस सृष्टि में भगवान ने हर किसी का कहीं न कहीं कोई डबल पैदा किया है! हर किसी का कोई न कोई हमशक्ल होता है। हर किसी की थोड़ी बहुत शक्ल किसी न किसी से मिलती होती है। आपने फिल्मों में नहीं देखा कि कैसे स्टार्स के हूबहू डुप्लीकेट निकल आते हैं! खुद मुझे बहुत लोग कहते हैं कि मेरी शक्ल सईद जाफरी से मिलती है। आप बताइये क्या नहीं मिलती?”

“कद का फर्क है, आप लम्बे हैं। उम्र का फर्क है, आप छोटे हैं।”

“लेकिन मिलती है?”

“मिलती तो है लेकिन...”

“तो फिर कौल की शक्ल थोड़ी बहुत सोहल से मिलती होना क्या बड़ी बात है?”

“सर, मैं ये बात समझ सकता हूं लेकिन वो शख्स समझने को तैयार नहीं जो कि गारण्टी से कहता है कि आपका दोस्त सोहल है। मैं उसकी बात पर कान नहीं दूंगा तो वो चिल्ला चिल्ला कर आसमान सिर पर उठा लेगा जो कि मेरे लिये जहमत की बात होगी।”

“कमाल है! आप एक मामूली अपराधी का मुंह बंद नहीं करा सकते?”

“वो रिमांड पर है। उसे फिर कोर्ट में पेश किया जाना है। मैं उसकी नहीं सुनूंगा तो वो अपनी बात मैजिस्ट्रेट को सुनायेगा। फिर बात अखबारों तक पहुंचेगी तो मेरी बहुत थुक्का फजीहत होगी। इसलिये जरूरी है कि मैं अभी कुछ करूं।”

“आप क्या करना चाहते हैं?”

“हैडक्वार्टर में सोहल की उंगलियों के निशानों का रिकार्ड है। हैडक्वार्टर करीब ही है। बड़ी हद पन्द्रह मिनट में वो रिकार्ड यहां पहुंच सकता है।”

पाण्डेय ने मन ही मन चैन की सांस ली। उस रिकार्ड से कौल की शिनाख्त नहीं होने वाली थी क्योंकि खुद वो पुलिस के रिकार्ड से सोहल की उंगलियों के निशान गायब करवा कर उनकी जगह कोई और निशान रखवा चुका था।

“ओह!” — प्रत्यक्षत: वो बोला — “तो साफ कहिये न कि आप सोहल की उंगलियों के निशानों को कौल की उंगलियों के निशानों से मिलाकर देखना चाहते हैं!”

“मैं बहुत संकोच से कह रहा हूं कि मैं यही चाहता हूं।”

“आप चाहते हैं या आपका वो मुजरिम चाहता है?”

“वो भी चाहता है। वो तो ये भी चाहता है कि निशानदेयी उसके सामने हो। मिलान उसके सामने हो।”

“कमाल है! लिहाजा इस शहर में गुण्डे बदमाशों की सुनवाई ज्यादा है, नेक शहरियों की कम! आपके उस मुजरिम का ये कहना काफी है कि कौल सोहल है, कौल का ये कहना काफी नहीं कि वो सोहल नहीं है!”

“अब मैं क्या कहूं? सर, ऐसी दुश्वारी में मैं पहले कभी नहीं फंसा। अगर आप न होते तो...”

“आप समझिये मैं नहीं हूं।”

“जी!”

“आप मेरी बिल्कुल परवाह न कीजिये। आप शौक से जो करना चाहते हैं, कीजिये।”

“ओह!” — एसएचओ ने चैन की लम्बी सांस ली — “थैंक्यू, सर। थैंक्यू वैरी मच।”

“नाट एट आल।”

“तो मैं हैडक्वार्टर फोन करूं?”

“हां। जरूर।”

हैडक्वार्टर से सोहल के उंगलियों के निशानों का चार्ट पहाड़गंज थाने पहुंचा।

मायाराम की मौजूदगी में विमल की उंगलियों के निशान लिये गये जिनका सोहल की उंगलियों के निशानों से मिलान का काम खुद एसएचओ ने किया।

उस दौरान मायाराम यूं विजेता की तरह विमल को देखता रहा जैसे विमल का फांसी चढ़ जाना अब महज वक्त की बात थी।

कितनी दी देर एसएचओ के कमरे में मरघट का सा सन्नाटा छाया रहा। आखिरकार एसएचओ ने कागजात परे सरका दिये और हाथ में थमा मैग्नीफाईंग ग्लास मेज पर रख दिया।

“नहीं मिलते।” — वो निर्णायक स्वर में बोला।

मायाराम जैसे आसमान से गिरा।

“ये नहीं हो सकता।” — वो चिल्लाया।

“क्या नहीं हो सकता?” — एसएचओ उसे घूरता हुआ बोला।

“कि ये सोहल न हो।”

“मैंने तेरे सामने निशानों का मिलान करके नहीं देखा?”

“आपसे जरूर कोताही हुई है या...”

“या क्या?”

“या आपने इन साहब का रौब खा कर जानबूझ कर कोताही की है।”

“क्या बकता है, साले!”

“आप तरफदारी कर रहे हैं। ये हो ही नहीं सकता कि...”

“ठहर जा, कमीने!”

बड़ी मुश्किल से पाण्डेय ने एसएएचओ को मायाराम पर झपट पड़ने से रोका।

‘देखो, भाई।” — पाण्डेय मायाराम को समझाता बोला — “इन्होंने तरफदारी करनी होती तो ये इतना बड़ा कदम उठाते कि हैडक्वार्टर से सोहल की उंगलियों के निशानों का रिकार्ड यहां तलब करते? ये तुम्हारी बात भी सुनने को राजी होते? तुम जबरन सुनाते तो ये वैसे ही तुम्हारी बोलती न बंद कर देते ?”

“तो फिर निशान क्यों नहीं मिलते?” — मायाराम कलप कर बोला।

“तुम बताओ कोई वजह?”

“इसमें ...इसमें भी इसकी कोई साजिश है।”

“मिस्टर कौल की?”

“सोहल की। जो अपने आपको कौल कहता है। ये बहुत मायावी आदमी है। ये कैसा भी मायाजाल फैला सकता है। ऐसा ये एक बार पहले भी कर चुका है।”

“पहले भी कर चुका है?”

“हां। मुम्बई में वहां के पुलिस कमिश्नर के आफिस में ऐन कमिश्नर साहब की नाक के नीचे। तब भी कई बड़े अफसरान के सामने एक बड़ा अफसर ही सोहल को पकड़ कर वहां लाया था। वो बड़ा अफसर अपने कैदी के उंगलियों के निशान पहले ही सोहल की उंगलियों के निशानों से मिला कर देख चुका था और तसल्ली कर चुका था कि उसका कैदी सोहल था। लेकिन जब वही मिलान कमिश्नर के सामने किया गया था तो निशान मिलते नहीं पाये गये थे। कैदी को उसकी बात पर यकीन कर के छोड़ दिया गया था कि वो कोई पीएन घड़ीवाला था जिसकी शक्ल इत्तफाक से सोहल से मिलती थी।”

“ऐसा इत्तफाक दोबारा नहीं हो सकता?”

“लेकिन...”

“अरे, खरदिमाग, वो बड़ा अफसर मैं था जिसने मुम्बई में सोहल के मुगालते में उस शख्स को गिरफ्तार किया था और इस बात पर जिसकी वहां कमिश्नर के सामने इतनी किरकिरी हुई थी कि आज तक नहीं भूलती।”

“आ ....आप थे?”

“हां, मैं था। योगेश पाण्डेय। सीबीआई का उच्चाधिकारी। और वो कैदी सच में कोई पीएन घड़ीवाला था जिसके पास अपनी आईडेंटिटी साबित करने के लिये पक्का ड्राईविंग लाइसेंस तक मौजूद था। उसकी बीवी फिरोजा, उसका लड़का आदिल, उसकी लड़की यासमीन यानी कि उसकी पूरी फैमिली मुम्बई में उसके साथ थी और पत्नी ने अपने पति की और बच्चों ने अपने बाप की शिनाख्त की थी। पीएन घड़ीवाला के तौर पर न कि सोहल के तौर पर। क्या समझा?”

“ल ...लेकिन ...आ .....आपने खुद कहा कि निशान पहले मिलते थे, आ ...आप खुद इस बात की तसल्ली कर चुके थे।”

“मेरे पास उपलब्ध निशान प्रमाणिक नहीं पाये गये थे। निशान हासिल करने का मेरा तरीका ही गलत पाया गया था, उसमें चूक हो जाना मामूली बात थी।”

“ओह!”

“इतनी किरकिरी हुई थी वहां मेरी। जैसी ...जैसी कि इस वक्त तुम्हारी हो रही है।”

मायाराम ने जोर से थूक निगली।

“तुम” — एसएचओ सख्ती से बोला — “कुछ और कहना चाहते हो?”

“मैं क्या कहूं?” — मायाराम रुंआसे स्वर में बोला — “आप लोगों ने मेरे सामने स्याह को सफेद कर दिखाया ...”

“हम लोगों ने नहीं।” — एसएचओ डपट कर बोला — “जो हकीकत है, वो ही सामने आयी है। ये साहब न सोहल हैं, न सोहल हो सकते हैं। ये मिस्टर कौल हैं जो कि एक लोकल फर्म में एकाउन्ट्स आफिसर की जिम्मेदारी की नौकरी करते हैं।”

“कब करते हैं?”

“कब करते हैं क्या मतलब?”

“सोहल मुम्बई में था। एक लम्बा अरसा मुम्बई में था और वहां के अण्डरवर्ल्ड के सुपर बॉस व्यास शंकर गजरे और उसके ओहदेदारों से खूनी जंग लड़ रहा था। जहां उसने हाल ही में सबको मार गिराया था और, ‘कम्पनी’ का समूल नाश कर दिया था।”

“ऐसा कुछ वहां हुआ था और ये सब सोहल ने किया था तो क्या ये बात अपने आप में सबूत नहीं है कि कौल साहब सोहल नहीं हो सकते?”

“आप पता तो कीजिये कि ये जो अपने आपको कौल कहता है, पिछले महीने कहां था?”

एसएचओ ने विमल की तरफ देखा।

“मैं हाल ही में” — विमल बड़ी मासूमियत से बोला — “चंद दिनों के लिये मुम्बई जरूर गया था लेकिन गैलेक्सी की नौकरी करने, न कि कोई जंग लड़ने।”

“आपके आफिस से इस बात की तसदीक होगी?” — एसएचओ बोला।

“जरूर होगी। आप अभी मेरे एम्प्लायर मिस्टर शुक्ला से बात कीजिये।”

“नम्बर बोलिये।”

विमल ने बोला।

अगले कुछ क्षणों में एसएचओ ने फोन पर शुक्ला से लम्बा वार्तालाप किया।

जब उसने फोन रखा तो उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे।

“मिस्टर शुक्ला यहां आ रहे हैं।” — वो बोला।

“यहां आ रहे हैं?” — विमल सकपकाया।

“आपकी हाजिरी का रिकार्ड साथ लेकर।”

“अरे! इतनी जहमत उठा रहे हैं वो मेरी खातिर!”

“आपको उन्हें यहां नहीं बुलाना चाहिये था।” — पाण्डेय बोला।

“मैंने नहीं बुलाया।” — एसएचओ तत्काल बोला — “उन्होंने खुद आफर किया। वो अपनी मर्जी से यहां आ रहे हैं।”

“ओह!”

“तुमने” — एसएचओ अप्रसन्न भाव से मायाराम से सम्बोधित हुआ — “अभी कुछ और कहना है?”

मायाराम के मुंह से बोल न फूटा।

“फिर खड़े हो जाओ।”

“जनाब।” — तब मायाराम एकाएक यूं बोला जैसे अपनी बात जल्दी न कह चुका तो उसका मुंह दबोच लिया जायेगा — “हुजूर। माईबाप। एक मिनट। एक मिनट।”

“अब क्या है?”

“नूरपूर समुद्रतट पर जब कि अगवा किये गये अमरीकी डिप्लोमैट की धरपकड़ के लिये कई पार्टियां आपस में जूझ रही थीं तो पीटर नाम के एक मवाली ने सोहल की छाती में सुआ घोंप दिया था जिसकी वजह से सोहल मरते मरते बचा था। अगर ये सोहल है तो इसकी छाती में सुये से बने जख्म का खास निशान जरूर होगा। अगर ये वो है जो ये अब कहता है कि वो है तो वो खास निशान नहीं होगा। आप मुआयना, कीजिये।”

एसएचओ ने विमल की तरफ देखा।

“नानसेंस!” — पाण्डेय बोला — “ये कोई शिनाख्त हुई ? ऐसे कहीं किसी की आइडेन्टिटी कनफर्म होती है? ऐसी कोई बात किसी तरीके से पहले वो निशान देख कर बाद में गढ़ी जा सकती है। सोहल की बाबत कोई प्रमाणिक गाइड, कोई रेडी रैकनर नहीं छपा हुआ जो उसके जिस्म के किन्हीं शिनाख्ती निशानों की तसदीक कर सकता हो।”

“वो खास निशान है।” — मायाराम बोला।

“क्या खासियत है उसमें? सुआ अभी भी उसमें पैबस्त है?”

“ऐसा कैसे हो सकता है?”

“तो फिर क्या खासयित है उसमें?”

“और” — एसएचओ बोला — “तुम इतनी बातें कैसे जानते हो? तुम उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे?”

“नहीं।”

“तो?”

मायाराम ने बेचैनी से पहलू बदला। मदद की गुहार करती निगाह से उसने जनकराज की तरफ देखा।

“ये कहता है” — जनकराज दबे स्वर में बोला — “कि पूरे दस महीने ये सोहल की क्राइम लाइफ को सीन टू सीन रीकन्स्ट्रक्ट करता रहा है। इसी वजह से ये सोहल की हर हरकत से, उसके हर कारनामे से वाकिफ है।”

एसएचओ ने हैरानी से मायाराम की तरफ देखा।

“साहब” — मायाराम बोला — “मैं सोहल को जानता हूं। मेरे से अलग होने के बाद सोहल पर क्या क्या बीती, मैं ये भी जानता हूं। मैं जानता हूं कि सोहल की छाती में सुआ घुपा था जिसके जख्म का निशान गायब नहीं हो सकता। अगर ये साहब सोहल नहीं हैं तो मैं इन्हें नहीं जानता। तो मैं नहीं जानता कि इनको कब कहां कैसे चोट लगी! कभी कोई चोट लगी भी या नहीं लगी। इसलिये इनकी बाबत किसी जाती वाकफियत की बिना पर मैं ये बात नहीं गढ़ सकता। अगर ये साहब सोहल नहीं हैं तो मैं इन्हें नहीं जानता। तो ये मुझे नहीं जानते। अब बड़े साहब ये बतायें कि जिस शख्स को मैं जानता नहीं, उसकी नंगी छाती पर कोई खास निशान मैंने कैसे देख लिया? कब को देख लिया ?”

“काफी होशियार आदमी मालूम होते हो!” — पाण्डेय बोला।

“अगर ये कोई कौल साहब हैं तो मेरा इनसे क्या लेना देना है? मेरी इनसे क्या अदावत है? मैं क्यों इनके बारे में कोई गलतबयानी करूंगा? करूंगा तो मुझे क्या हासिल होगा?”

“तुम बताओ?”

“कुछ हासिल नहीं होगा।”

“तो फिर क्यों कौल के पीछे पड़े हो?”

“क्योंकि ये सोहल है।”

“तुम कोई गवाह पेश कर सकते हो जो ये कहे कि सोहल की छाती में कभी कोई सुआ घुपा था?”

“नहीं पेश कर सकता। कैसे पेश कर सकता हूं?”

“जैसे सोहल को तलाश कर लिया, वैसे पीटर को भी तलाश कर लेते जिसने कि, बकौल तुम्हारे, सुआ घोंपा था!”

“नहीं कर सकता था।”

“क्यों?”

“पीटर मर चुका है। वो राजनगर से मुम्बई चला गया था और वहां टैक्सी चलाने लगा था लेकिन वहां उसका कत्ल हो गया था।”

“किसने किया?”

“पता नहीं, लेकिन कोई बड़ी बात नहीं कि इसी ने किया हो।”

“क्यों?”

“क्योंकि उसने इसकी छाती में सुआ घोंप कर इसकी जान लेने की कोशिश की थी। ऐसे आदमी को ये कैसे जिन्दा छोड़ सकता था!”

“कोई और गवाह?”

“और गवाह पीटर का जोड़ीदार चार्ली था। वो भी पीटर की तरह राजनगर छोड़ गया था और जैसे पीटर मुम्बई जाकर टैक्सी चलाने लगा था, वैसे चार्ली यहां दिल्ली आकर पहाड़गंज में पीजा पार्लर चलाने लगा था। हाल ही में चार्ली को उसके पीजा पार्लर में ही किसी ने शूट कर दिया था।”

“मैं उस चार्ली को जानता था।” — जनकराज बोला — “वो लोकल गैंगस्टर गुरुबख्श लाल का आदमी था और अपने पीजा पार्लर की ओट में ड्रग्स का धन्धा करता था। मैंने उसके पीजा पार्लर पर रेड भी की थी, लेकिन कुछ बरामद नहीं हुआ था। मुझे पक्के तौर से मालूम है कि उसका कत्ल गुरुबख्श लाल ने करवाया था क्योंकि उसने उसका ड्रग्स का धंधा चलाये रखने से इनकार कर दिया था।”

“यानी कि” — पाण्डेय बोला — “उस शख्स की मौत का सोहल से कुछ लेना देना नहीं!”

“मेरे खयाल से तो नहीं।”

“कोई और गवाह?” — एसएचओ बोला।

“और गवाह तो” — मायाराम बोला — “सुनी सुनाई बातें कहने वाले हैं। उनकी बातों पर आप कहां विश्वास करेंगे!”

“लेकिन तुमने कर लिया!”

“वो सच है।”

“जिसे तुम अब साबित नहीं कर सकते।”

“सबूत सामने बैठा है। इसे कहिये अपनी छाती दिखाये।”

तभी वहां शुक्ला के कदम पड़े।

पाण्डेय ने उठ कर उससे हाथ मिलाया तो एसएचओ और जनकराज स्वयंमेव ही उठ खड़े हुए।

विमल भी अदब से उठा।

केवल मायाराम ढीठ बना बैठा रहा।

“मैं शुक्ला।” — शुक्ला एसएचओ से हाथ मिलाता बोला — “गैलेक्सी से आया। अभी फोन पर बात हुई थी।”

“यस, सर।” — एसएचओ बोला — “मैंने की थी। तशरीफ रखिये।”

सब जने बैठ गये।

“तुम यहां क्या कर रहे हो?” — शुक्ला विमल से बोला।

“गुड डीड आफ दि डे करने आया था।” — विमल खेदपूर्ण स्वर में बोला — “झमेला गले पड़ गया।”

“क्या हुआ?”

विमल ने बताया।

“कमाल है!” — शुक्ला एसएचओ से सम्बोधित हुआ — “आप इस आदमी की बातों पर जायेंगे जो कि एक ब्लैकमेलर है, एक खून के इलजाम में गिरफ्तार है और जो शक्ल से ही टॉप का मवाली लगता है!”

मायाराम तिलमिलाया।

“आप इस ... इस निम्न कोटि के व्यक्ति की वजह से मेरे एकाउन्ट्स आफिसर पर शक कर रहे हैं?”

“सर” — एसएचओ बोला — “वो क्या है कि...”

“क्या है? आप बताइये क्या है? आप ये कहना चाहते हैं कि मैं एक इश्तिहारी मुजरिम को अपनी कम्पनी में एकाउन्ट्स आफिसर की जिम्मेदारी की पोस्ट पर बिठाऊंगा! मेरे दिल्ली आफिस में सत्तर आदमी काम करते हैं। फिर तो बाकी भी ऐसे ही होंगे!”

“नहीं, नहीं। वो बात नहीं।”

“कौल इतना काबिल एकाउन्टेंट है, मैं इसके काम से इतना खुश हूं। जिस आदमी को, जिस सोहल को, आप इतना बड़ा अण्डरवर्ल्ड डॉन बताते हैं, वो मेरे यहां एकाउन्टेंट की नौकरी करेगा?”

“सोहल भी पहले एकाउन्टेंट था।” — मायाराम बोला — “इलाहाबाद में एरिक जानसन में उसकी नौकरी एकाउन्टेंट की ही थी।”

“और तब भी वो करोड़ों रुपये लूट चुका इश्तिहारी मुजरिम था?”

“न ...नहीं?”

“सो देयर यू आर। क्यों करेगा इतना बड़ा गैंगस्टर इतनी मामूली नौकरी! और वो भी इतनी मेहनत और लगन से कि एम्पलायर फूला न समाये!”

“ओट के लिये। कवर के लिये।”

“ओट! कवर! माइ फुट!”

“तो” — एसएचओ बोला — “आप तसदीक करते हैं कि मिस्टर अरविंद कौल आपके यहां मुलाजिम हैं?”

“जी हां।” — शुक्ला बोला — “तसदीक करता हूं। मैं ये भी तसदीक करता हूं कि ये कश्मीर से विस्थापित व्यक्ति है जिसका सब कुछ पीछे सोपोर में रह गया था। उग्रवादियों ने इसके टिम्बर यार्ड पर हमला करके इसका टिम्बर यार्ड जला दिया था, घर बार जला दिया था और परिवार के सारे सदस्यों को मार डाला था। ये खुद भी बुरी तरह से जख्मी हुआ था लेकिन किसी तरह से जान बचा कर बच निकलने में कामयाब हो गया था। कौल, कैसे जख्मी हुए थे तुम? मेरे खयाल से तुम्हारी छाती में किसी ने” — केवल एक क्षण के लिये शुक्ला की बाई आंख हौले से झपकी — “स्टिलेटो (STILETTO) उतार दिया था।”

“स्टिलेटो!” — एसएचओ उलझनपूर्ण स्वर में बोला।

“ऐसे खंजर को कहते हैं” — विमल बोला — “जिसका फल बहुत ही पतला होता है।”

“ओह!”

“बेचारे की जिन्दगी में इतनी ट्रेजेडी हो चुकी हैं।” — शुक्ला बोला — “उग्रवादियों के हाथों मां मर गयी, बाप मर गया, भाई मर गया, बहनें मर गयीं, घरबार, व्यापार सब कुछ फुंक गया, अपने ही देश में शरणार्थी बन गया, और अब जब कमाल की हिम्मत दिखा कर अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है तो आप इसे हलकान कर रहे हैं, एक नोन बैड कैरेक्टर की शह पर आप इसे इश्तिहारी मुजरिम, खूनी, डकैत और और पता नहीं क्या क्या साबित कर दिखाने पर आमादा हैं।”

“नो, सर।” — एसएचओ हड़बड़ाया-सा जल्दी से बोला — “नो सच थिंग।”

मायाराम चमत्कृत-सा कभी किसी का तो कभी किसी का मुंह देख रहा था। उसे बड़ी शिद्दत से अहसास हो रहा था कि माहौल बड़ी तेजी से विमल के हक में तब्दील होता जा रहा था।

“अब मैं अपने कपड़े उतारूं?” — विमल ने मासूमियत से बोला।

“वो किसलिये?” — शुक्ला हैरानी से बोला।

“ये मेरी छाती पर कोई खास जख्म का निशान तलाशना चाहते हैं।”

“अरे, जिसके सीने में उग्रवादियों ने स्टिलेटो उतारा होगा, वो जख्मी तो होगा ही! जख्मी होगा तो पीछे जख्म का निशान भी रहेगा! उसे एसएचओ साहब को क्यों दिखाना चाहते हो?”

“मैं नहीं दिखाना चाहता, ये देखना चाहते हैं।”

“क्यों भला?”

“वो.. वो क्या है कि” — एसएचओ अनिश्चित भाव से बोला — “जाने दीजिये। अब जरूरत नहीं।”

“अब जरूरत नहीं!” — मायाराम भौंचक्का-सा बोला — “लेकिन वो इसके खिलाफ एक पुख्ता सबूत है जो साबित करेगा कि ये सोहल है!”

“शटअप!”

“साहब, आप इन लोगों की बातों में आ रहे हैं। आपको बहकाया जा रहा है। जब ये खुद कबूल करता है कि इसकी छाती पर जख्म का वैसा निशान है तो...”

“हवलदार!”

हवलदार दौड़ता हुआ उस कमरे में दाखिल हुआ।

“इसे ले जाकर लॉक अप में बंद कर दो।”

अपाहिज होते हुए भी चीखते चिल्लाते मायाराम को काबू में करने के लिये एक और हवलदार बुलाना पड़ा।

“ये मैं” — पीछे शुक्ला एक रजिस्टर एसएचओ को पेश करता हुआ बोला — “कौल का अटेंडेंस रिकार्ड साथ लाया था।”

“अब उसकी जरूरत नहीं।”

“फिर भी देख लीजिये।”

“जरा मैं एक निगाह डालना चाहता हूं।” — जनकराज व्यग्र भाव से बोला।

एसएचओ ने अचरज से जनकराज की तरफ देखा, फि‍र सहमति में सिर हिलाया।

जनकराज ने रजिस्टर का मुआयना किया और फिर बोला — “इसके मुताबिक पिछले हफ्ते चंद दिनों के लिये आप टूर पर थे लेकिन सोमवार से आप आफिस में हाजिरी भर रहे हैं?”

“हां।” — विमल सशंक भाव से बोला।

“यानी कि दिल्ली में हैं?”

“भई, दिल्ली में होऊंगा तो ही तो दफ्तर जा के हाजिरी भर सकूंगा न!”

“आपकी बीवी को इस बात की खबर क्यों नहीं? आपकी बीवी का तो आज भी यही कहना है कि आप मुम्बई में है!”

“क्योंकि ... क्योंकि मैं लौटने के बाद घर नहीं गया।”

“वजह?”

“क्योंकि आज ही मैंने फिर टूर पर जाना है ...”

“हैदराबाद।” — शुक्ला जल्दी से बोला।

“मेरी बीवी” — विमल बोला — “मेरे इतने इतने दिन टूर पर रहने के खिलाफ है। लेकिन नौकरी नौकरी की ही तरह होती है इसलिये जाना पड़ता है। मैं घर चला जाता तो इतनी जल्दी फिर वो मुझे टूर पर न चला जाने देती। क्लेश से बचने के लिये मैंने यही जाहिर करना मुनासिब समझा कि मैं मुतवातर टूर पर था, मैं मुम्बई से लौटा ही नहीं था।”

“इस दौरान कहां रहे आप?”

“मेरे घर।” — पाण्डेय बोला — “इतवार शाम से ये मेरे यहां है।”

“ओह!”

“तो अब हमें इजाजत है?”

“जी हां।” — एसएचओ बोला — तकलीफ की माफी के साथ।”

“कौल को भी?” — शुक्ला बोला।

“ये भी कोई कहने की बात है!”

“थैंक्यू।”

अभिवादनों के आदान प्रदान के बाद विमल, पाण्डेय और शुक्ला वहां से रुखसत हुए।

“बड़े फसादी आदमी हो, यार।” — थाने से दूर पार्किंग में पहुंच जाने के बाद पाण्डेय बोला — “बाल बाल बचे।”

“मैं चलता हूं।” — शुक्ला जल्दी से बोला।

“सर” — विमल बोला — “स्टिलेटो वाली बात कह कर तो अपने मेरी डूबती नैया बचा ली। कैसे सूझा कहना?”

“जब मैं वहां पहुंचा था” — शुक्ला धीरे से बोला — “तो भीतर बहुत जोर शोर से ये चर्चा चल रही थी कि तुम्हारी छाती में कोई सुए के जख्म का निशान होना चाहिये था जो कि तुम्हें कोई और शख्स साबित कर सकता था। मुझे अहसास हुआ कि उसकी जवाबदेही तुम्हें भारी पड़ रही थी। लिहाजा मैंने स्टिलेटो वाली बात कही।”

“कमाल कर दिया, शुक्ला।” — पाण्डेय बोला — “सीधे सीधे खंजर कहते तो इतना अच्छा असर न होता। सुआ कहते तो बेड़ा ही गर्क था।”

“मैं चलता हूं। मेरे लिये ऐसी बातों की ज्यादा जानकारी ठीक नहीं। कभी कभी अज्ञान भी वरदान होता है। कौल, तुम्हें याद है सोमवार को मैंने क्या कहा था?”

“यस, सर।”

“जो मैंने कहा था, वो अब भी स्टैण्ड करता है। आई ले माई फेथ इन दि एग्जियम दैट इग्नोरेंस इज ब्लिस। इसलिये मैं चला।”

शुक्ला लम्बे डग भरता अपनी कार की तरफ बढ़ गया।

“यहां ठहरना हमारे लिये भी ठीक नहीं।” — पाण्डेय विमल की बांह थामता बोला।

दोनों जाके पाण्डेय की कार में सवार हुए। पाण्डेय ने कार आगे बढ़ाई। कार थाने से काफी परे निकल गयी तो पाण्डेय ने उसे एक साइड लेन में ले जाकर रोका।

“सच पूछो तो” — पाण्डेय संजीदगी से बोला — “तुम्हारा अब दिल्ली में ही बने रहना ठीक नहीं। वक्ती तौर पर मेरी पोस्ट और शुक्ला के सोशल स्टेटस का रौब उन पुलिस वालों पर गालिब हो गया है लेकिन बात खत्म नहीं हो गयी है। वो आदमी — मायाराम — चुप नहीं रहने वाला। वो फंसा हुआ है। उसके पास खोने के लिये कुछ नहीं। ही हैज नथिंग टू लूज। अन्डरस्टैण्ड?”

विमल ने सहमति में सिर हिलाया।

“वो जाती तौर पर तुम्हारे खिलाफ है, तुमसे बदला उतारना चाहता है इसलिये उसकी ये तोतारटंत बंद नहीं होने वाली कि गैलेक्सी का कथित एकाउन्टेंट अरविंद कौल असल में सोहल है। उसकी बात को कोई माने या न माने लेकिन उसका प्रचार भी तुम्हारे लिये घातक है। तुम्हारे बारे में कोई बारीक जांच हुई...”

“किसके द्वारा ? पुलिस के द्वारा?”

“या प्रैस के द्वारा। कोई खुराफाती रिपोर्टर भी किसी सैंसेशनल स्टोरी की सम्भावना में तुम्हारी बीती जिन्दगी के बखिये उधेड़ने की कोशिश कर सकता है।”

“मेरी? सोहल की?”

“कौल की पहले।”

“ओह!”

“ऐसा हुआ तो न तुम्हारी सोपोर के विस्थापित शरणार्थी वाली स्टोरी स्टैण्ड करेगी और न तुम्हारी गैलेक्सी की बाई प्राक्सी मुलाजमत वाली स्टोरी स्टैण्ड करगी। कोई और गहरा उतरा तो ये गड़ा मुर्दा भी खोद निकालेगा कि असली खबरदार शहरी पिपलोनिया नहीं, तुम थे। एक बार तुम शक के दायरे में आ गये तो पुलिस सुने या न सुने, प्रैस जरूर मायाराम की हाल दुहाई को कान देने लगेगी। फिर पुलिस को मजबूरन तुम्हारे बारे में फिर से गौर करना पड़ेगा।”

“हूं।”

“वो आदमी सजायाफ्ता मुजरिम है। उसका जो पिछला मेजर गुनाह है, जिसकी कि उसे सजा मिलना अभी बाकी है, वो अमृतसर वाली डकैती है जिसका इकबाल मौजूदा हालात में वो कर सकता है।”

“कर चुका है। अपने साथ मेरा — सोहल का — नाम भी जोड़ चुका है।”

“फिर तो तुम्हारे पर पुलिस की फिर से नजरेइनायत होना महज वक्त की बात है। मायाराम को फिट करने के लिये ये लोग पंजाब पुलिस से उस डकैती की केस हिस्ट्री जरूर मंगायेंगे। उस फाइल में मायाराम के साथ साथ तुम्हारी उंगलियों के निशान भी उपलब्ध हैं जिनको पंजाब पुलिस पहले ही बाकायदा आइडैन्टिफाई कर चुकी है। तुम्हारी उंगलियों के निशान सात राज्यों की पुलिस के पास हैं। सात के पास ही हैं न?”

“हां। यूपी, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, दिल्ली, पंजाब, गोवा और राजस्थान।”

“इसमें से मुम्बई के रिकार्ड से अपनी उंगलियों के निशान उस केशवराव भौंसले नाम के एफपी डिपार्टमेन्ट के हवलदार के जरिये तुमने खुद गायब करा लिये थे और यहां दिल्ली में तुम्हारी ये खिदमत मैंने कर दी थी। अभी भी पांच और राज्यों की पुलिस के पास तुम्हारी उंगलियों के निशान मौजूद हैं और उनमें से पंजाब पुलिस के रिकार्ड से वो निशान तो समझो कि बस दिल्ली पहुंचे ही पहुंचे। भाई मेरे, वो तुम्हारे खिलाफ ऐसा सबूत होगा जिसकी कोई काट न तुम निकाल पाओगे, न तुम्हारा कोई हिमायती निकाल पायेगा।”

“आप ठीक कह रहे हैं।”

“वो सूए के जख्म के निशान वाली बात भी तुम्हारे खिलाफ कोई कम खतरनाक नहीं थी।”

“हैरानी है कि वो बात आज तक किसी और को न सूझी — न किसी बड़े गैंगस्टर को, न किसी पुलिस वाले को — सूझी तो मायाराम जैसे मामूली अक्ल वाले, आदमी को सूझी।”

“मानते हो न कि वो भी तुम्हारी पक्की शिनाख्त का एक जरिया है?”

“हां।”

“पीछे थाने में उसकी पालिश महज इसलिये उतर गयी क्योंकि उंगलियों के निशान न मिले, क्योंकि शुक्ला ने बड़ी खूबसूरती से तरह दे दी कि सोपोर में तुम स्टिलेटो से घायल हुए थे। पीछे जो कुछ हुआ, उससे तुम हमेशा के लिये बरी नहीं हो गये और सिर पर मंडराते खतरे से बाहर नहीं हो गये। यूं समझो कि इस घड़ी तुम ऐसी पतंग हो जिसे लम्बी डोर के सहारे छोड़ दिया गया हुआ है लेकिन जिसकी डोर का सिरा अभी भी पुलिस के हाथ में है। लिहाजा वो जब चाहेंगे, पतंग को वापिस खींच लेंगे।”

“ठीक।”

“मायाराम को तुम चुप करा नहीं सकते ...”

“वो कहां चुप होगा अब! वो तो निश्चय किये बैठा है कि हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी ले डूबेंगे।”

“सो देअर।”

“आपकी राय में मुझे अब क्या करना चाहिये?”

“ये भी कोई पूछने की बात है!”

“क्या करना चाहिये?”

“गायब हो जाना चाहिए। वक्त रहते गायब हो जाना चाहिये।”

“मैंने इतनी मुश्किल से दिल्ली में अपने पांव जमाये थे। बीवी की खातिर। बच्चे की खातिर। मेरी किस्मत में तो एक कुत्ते जैसी दुर-दुर करती आवारागर्द जिन्दगी लिखी हुई है, दिली अभिलाषा थी कि इस जिन्दगी की परछाई मेरी बीवी पर न पड़े, मेरे बच्चे पर न पड़े। लेकिन कहां होता है वो जो कि कोई सोच के रखता है! सोचै सोचि न होवई जे सोची लखवार।”

पाण्डेय खामोश रहा।

“गुनाह के अन्धड़ में खूंटे से उखड़े सोहल को आप ही ने कौल बना कर पुनर्स्थापित करके दिखाया था, अब आप ही बताइये मैं कहां जाऊं?”

“अभी ये अहम बात नहीं है कि कहां जाओ, अभी ये अहम बात है कि कहां न पाये जाओ। कहीं भी जाओ लेकिन दिल्ली से निकलो। और ये कदम जितनी जल्दी उठाओगे, उतने ही फायदे में रहोगे।”

“मेरे ऊपर सुमन की जिम्मेदारी है। उसका क्या करूं?”

“वो जिम्मेदारी तुमने खुद ओढ़ी है। वो जवान जहान, बालिग लड़की है, अपने पैरों पर खड़ी है। वो अपनी जिम्मेदारी खुद उठा लेगी। उसे कहो कि वो वापिस अपने कोविल हाउसिंग सोसायटी वाले फ्लैट में जा के रहे और पूछे जाने पर यही कहे कि उसने अपनी मर्जी से वापिस शिफ्ट किया था।”

“वजह?”

“गैलेक्सी के आफिस सारे हिन्दोस्तान में हैं। वो कह देगी तुम्हारी किसी और शहर में, मसलन हैदराबाद में ही, ट्रांसफार हो गई थी, अपनी नौकरी की वजह से वो तुम्हारे साथ जा नहीं सकती थी और पीछे मॉडल टाउन वाली कोठी में अकेले रहने के मुकाबले में अपने पुराने फ्लैट में रहना उसे ज्यादा सेफ लगा था।”

“ये ठीक है।”

“शुक्ला तुम्हारे हैदराबाद जाने की बात कर रहा था। वो कह देगा कि ट्रांसफर के बाद तुम वहां रहने के लिये कोई मकान वगैरह ठीक करने गये थे और फिर पता नहीं क्या हुआ था कि लौट कर ही नहीं आये थे।”

“हूं।”

“या ये कह देना कि दिल्ली का रहन सहन तुम्हें रास नहीं आया था — यहां नित नयी परेशानियां थीं — तुम्हारी बीवी तुम्हारे अक्सर टूर पर जाने से तंग थी इसलिये तुमने वापिस अपने होम टाउन सोपोर जाने का फैसला कर लिया था। आजकल विस्थापित कश्मीरी ब्राह्मण उधर वापिस लौट भी रहे हैं।”

“ये बेहतर रहेगा।”

“लेकिन जो भी कहानी चुनो, उसकी शुक्ला को खबर जरूर कर देना ताकि वो भी वो ही बात कहे।”

“माडल टाउन वाली कोठी का क्या करूं ?”

“उसके तुम कानूनी मालिक हो। बेच दो। यूं कोठी बेच कर पैसा खड़ा किया होना तुम्हारी सोपोर लौट जाने वाली कहानी से मैच भी करेगा।”

“प्रापर्टी बेचने में टाइम लगता है।”

“औने पौने में बेचना कबूल कर लोगे तो क्या टाइम लगेगा! तुमने कौन सा उसे रकम के लिये बेचना है! या प्राफिट के लिये बेचना है! औने पौने में तो कोई ग्राहक नहीं लगेगा तो देख लेना उसे कोई प्रापर्टी डीलर ही खरीद लेगा।”

“मेरे बारे में आपसे पूछ हुई तो आप क्या कहेंगे?”

“वही जो शुक्ला कहेगा। मैं उसके टच में रहूंगा। तुम इत्मीनान रखो, हम दोनों कोई जुदा बात नहीं कहेंगे।”

“बहरहाल यहां से तो जाना ही होगा!”

“हां।”

“पत्ते की तरह डाल से टूटा, हालात की आंधी में उड़ता अब कहां जा कर गिरूंगा?”

“इतना जज्बाती होने की जरूरत नहीं। ऐसी कोई तुम्हारे साथ पहली बार नहीं बीत रही।”

“पहले जो बीतती थी, मेरे साथ बीतती थी। इस बार नीलम के साथ भी, सूरज के साथ भी...”

“मियां, बीवी, दुधमुंहे बच्चे का नसीब सांझा होता है। मांस से नाखून अलग नहीं किया जा सकता।”

विमल खामोश रहा।

“और फिर वो एक बहादुर इंसान की बहादुर बीवी है, सूरज शेर बच्चा है, उनकी वजह से तुम्हारी दुशवारियों में कोई इजाफा नहीं होने वाला।” — पाण्डेय ने हाथ बढ़ा कर उसका कन्धा थपथपाया — “सो देयर।”

विमल का सिर स्वयंमेव सहमति में हिला।

पाण्डेय कुछ क्षण उसका चेहरा देखता रहा और फिर झिड़कता-सा बोला — “अरे, ऐसी सूरमा और जांबाज कौम से ताल्लुक रखता है जो सरदार कहलाती है और फिर भी जज्बात की रौ में बह रहा है! ऐसा था तो नहीं लेना था पंगा! जब दस से पांच की नौकरी करने वाले, मेहनत से रिजक कमाने वाले वाइट कालर एम्पलाई बन ही गये थे तो क्यों खबरदार शहरी बन बैठे? क्यों खड़े पैर उठ के खूनियों बलात्कारियों से जूझ पड़े?”

“क्योंकि मैं जुल्म होते नहीं देख सकता, क्योंकि मैं मजलूम की तरफ से ये सोच के आंखें नहीं बंद कर सकता कि जो बीती थी मेरे साथ नहीं बीती थी। जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है। मेरा धर्म मुझे जालिम का मददगार बनने की सीख नहीं देता। तब मैंने अपने गुरुओं की सीख पर अमल किया था जो कहती है कि सूरा सो पहचानिये जो लरे दीन के हेत। मैं दीन के हित में लड़ा।”

“मेरे भाई, पहले घर में चिराग जलाते हैं, फिर मस्जिद की सुध लेते हैं। तुम्हारी प्राब्लम ये है कि जब तुम पर जुनून सवार होता है तो तुम घर की क्या, अपनी सुध भी भूल जाते हो। इस वक्त तुम ऐसे किसी जुनून के हवाले नहीं हो इसलिये तुम्हें नीलम की फिक्र है, सूरज की फिक्र है। देख लेना नयी जगह पर अभी तुमने चार दिन चैन से नहीं गुजारे होंगे कि फिर कोई नया पंगा ले बैठोगे और फिर भूल जाओगे कि तुम्हारे पर अपनी बीवी की, अपनी औलाद की भी जिम्मेदारी है।”

“शायद आप ठीक कह रहे हैं।”

“खबरदार शहरी बने सो बने, बीवी बच्चे को सोता छोड़ कर वापिस मुम्बई क्यों खिसक गये? पिपलोनिया की मौत के बाद जब उसे खबरदार शहरी मान लिया गया था तो तुम्हारे वाली कहानी खत्म हो गयी थी। फिर क्यों छलांग मार कर मुम्बई पहुंच गये?”

“वो मेरे फर्ज की पुकार थी जिसे मैं नजरअंदाज नहीं कर सकता था। जिसने पुकारा था, वो कोई आप के ही जैसा मेहरबान और करीबी था। कभी आप भी पुकार कर देखना, सिर हथेली पर रख कर हाजिर होऊंगा।”

“सिर दे दिया” — पाण्डेय उपहासपूर्ण स्वर में बोला — “तो बाकी क्या बचा?”

“बाकी सिर बचा। सिर दीने सिर रहत है, सिर राखे स‍िर जाये।”

पाण्डेय तत्काल संजीदा हुआ।

“अब जो कुछ करना है, जल्दी करना है” — विमल कार का अपनी तरफ का दरवाजा खोलता बोला — “तो वक्त बर्बाद करना बेकार है। मैं यहीं उतर रहा हूं।”

“कहां जाओगे?”

“माडल टाउन जाऊंगा और कहां जाऊंगा!”

“मैं छोड़ के आता हूं।”

“जरूरत नहीं। मैं ऑटो कर लूंगा।”

“फिर भी...”

“बोला न, जरूरत नहीं। और फिर मैं वहां आपको साथ नहीं ले जाना चाहता।”

“क्यों भला?”

“क्योंकि अभी मैंने वहां भी एक कनफ्रंटेशन से गुजरना है।”

“किसके साथ?”

“नीलम के साथ।”

विमल मॉडल टाउन पहुंचा।

नीलम दौड़कर गले लग कर उससे मिली।

उसकी पीठ थपथपाता विमल उसे दरवाजे से भीतर लाया।

“सूरज कहां है?” — वो बोला।

“सो रहा है।”

“हमेशा सोता ही रहता है।”

“नन्हा बच्चा सोता ही है! वो या तो भूख लगने पर उठता है या नेचर काल पर।”

“नेचर काल! तू साली मिडल फेल इतना फैंसी लफ्ज कहां से सीखी?”

“सुमन से। और मैंने सौ बार बताया है मैं मिडल फेल नहीं, मिडल पास हूं।”

“सुमन कहां है?”

“मार्केट गयी है। सब्जी लेने।”

“ओह!”

“मैं चाय बनाऊं तुम्हारे लिये?”

“नहीं, अभी नहीं। अभी बैठ मेरे सामने।”

“जो हुक्म, सरदार जी।”

“शाबाश!”

“एक बात बताओ।”

“दो पूछ।”

“तुम अभी सीधे मुम्बई से आ रहे हो?”

“क्यों पूछती है?”

“एक कोई खसमांखाना कहता था कि तुम कई दिनों से दिल्ली में थे। ऐसा कहीं हो सकता है!”

“एक बात मुझे भी बता।”

“पहले मेरी बात का तो जवाब दो।”

“देता हूं। पहले तू बता।”

“क्या?”

“जानती है पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहते हैं?”

“हां।”

“यानी की पति का आधा अंग।”

“हां। जो कि मैं हूं।”

“और पति को परमेश्वर का दर्जा दिया जाता है?”

“हां।”

“कोई औरत दो जनों का आधा अंग हो सकती है? उसके दो परमेश्वर हो सकते हैं?”

“कैसी बातें करते हो, जी?”

“ऐसा नहीं हो सकता?”

“नहीं हो सकता।”

“हो सकता हो तो?”

“तो डूब मरने का मुकाम है।”

“डूब मरने का न सही, छुपाने लायक बात तो है ही!”

“हां।”

“इसीलिये छुपाई?”

“किसने?”

“तुझे नहीं मालूम?”

कई क्षणों तक नीलम के मुंह से कुछ न फूटा।

“तो वो” — फिर वो दबे स्वर में बोली — “पुलिस वाला तुम्हारी बाबत ठीक कहता था।”

विमल चुप रहा।

“कब से हो दिल्ली में?” — नीलम बोली।

“इतवार शाम से।”

“घर न आने की वजह?”

“मेरी अर्धांगिनी के सिर पर संकट था जिसे दूर करना मेरा फर्ज था। मेरे होते उसे किसी संकट का मुंह देखना पड़े, ये मेरी मर्दानगी पर तोहमत है। संकट दूर हुआ, मैं आ गया।”

“ओह! यानी कि वो मुसलमान भाई अपना वादा न निभा सका।”

“कितने अफसोस की बात है कि जो बात मुझे अपनी अर्धांगिनी से मालूम होनी चाहिए थी, एक तीसरे शख्स से मालूम हुई। एक गैर ने अपना फर्ज समझा, अपने ने अपना फर्ज न समझा।”

वो रोने लगी।

विमल ने उसे चुप कराने की कोशिश न की।

“वो बात जुबान पर लाने के काबिल नहीं थी।” — वो रोती हुई बोली — “मेरा कलेजा हिलाता था इस खयाल से भी कि उसकी तुम्हें खबर लग सकती थी।”

“यानी कि बात सच थी?”

“नहीं।”

“तू मेरी बीवी नहीं? मेरा बच्चा हरामी है?”

“नहीं नहीं नहीं।” — वो बिलख कर बोली — “भगवान के लिये इतना बुरा बोल न बोलो। मुझे जो कहना है कहो, सूरज को कुछ न कहो।”

“जब तुझे कहूंगा तो सूरज को कहना जरूरी रह जायेगा?”

“मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं छुपाया। छुपाया कि मायाराम मुझे भगा कर लाया था? छुपाया कि चण्डीगढ़ में मैं कालगर्ल का धंधा करती थी?”

“जब मुझे तू हर सूरत में कुबूल थी तो ये बात क्यों छुपायी? इसलिये क्योंकि ये कुछ ज्यादा ही कडुवा सच था?”

“नहीं। नहीं।”

“यानी कि” — विमल ने मायाराम से हासिल हुई सभी तसवीरें उसके सामने फेंकी — “ये तसवीरें झूठी हैं?”

“क -कहां से मिलीं?”

“खुद मायाराम ने दीं।”

“ओह!”

“झूठी हैं ये तसवीरें?”

“नहीं। तसवीरें झूठी नहीं हैं लेकिन ये जो कहती जान पड़ती है, वो झूठ है। इनसे जो नतीजा निकलता है, वो झूठा है, गुमराह करने वाला है। इसीलिये इनका अस्तित्व तुम्हारे से छुपाना जरूरी था।”

“छुपाये रख पातीं?”

“हां। वो पैसे का तलबगार था। मैं एक हद तक उसे पैसा देने को तैयार थी।”

“उसके बाद?”

“उसके बाद या वो नहीं या मैं नहीं।”

“तू खून कर देती उसका?”

“हां।”

“फिर तू जेल में होती, सूरज यतीमखाने में होता और मैं पागलखाने में होता।”

“नहीं। नहीं। ऐसा कुछ न होता। मैं ऐसा न होने देती।”

“न रोक पाती तो?”

वो खामोश हो गयी।

“मैं रोक पाती।” — फिर वो बोली — “एक निर्मल मन वाली सच्ची औरत की लाज रखते वाहेगुरु।”

“सच्ची औरत इन तसवीरों को झुठला रही है।”

“सरदार जी, जो दिखाई देता है, हमेशा वो ही सच नहीं होता। मैंने कहा न कि ये तसवीरें झूठी नहीं हैं, इनसे निकलने वाला नतीजा झूठा और गुमराह करने वाला है।”

“ऐसे पहेलियां बुझाने से बात मेरी समझ में नहीं आने वाली।”

“ये तसवीरें शादी की नहीं हैं।”

“नहीं हैं?”

“नहीं है। मायाराम की बातों में आकर मैं शादी का पाखंड करने के लिये, बल्कि यूं कहो कि तसवीरें खिंचवाने के लिये, तैयार हो गयी थी?”

“क्यों?”

“वो मुझे भगा कर ले जा रहा था, मेरी मर्जी से मुझे भगा कर ले जा रहा था। मैं नाबालिग थी, वो मेरे से दुगनी से ज्यादा उम्र का था। बाप लगता था मेरा देखने में। कहता था इसी वजह से हिमाचल से मुम्बई तक के रास्ते में जगह जगह पुलिस हमें तंग कर सकती थी और ऐसी नौबत आ सकती थी कि मुम्बई तो हम क्या पहुंचते, रास्ते में ही पुलिस वाले उसे तो पीट के भगा देते या किसी फर्जी जुर्म के इलजाम में हवालात में डाल देते और मुझे ... मुझे ...”

वो फिर रोने लगी।

“आगे बढ़।” — विमल बेसब्रेपन से बोला।

“ऐसी नौबत आने से रोकने के लिये उसने वो तरकीब की। वो मुझे ये गलत पट्टी पढ़ाने में कामयाब हो गया कि अगर हम झूठ-मूठ की शादी की दो चार तसवीरें खिंचवा लेते तो वो ही सबूत होतीं इस बात का कि हम पति पत्नी थे। मैं करमांमारी उसकी बातों में आ गयी और वो तसवीरें खिंचवा बैठी।”

“बस, इतनी सी बात है उन तसवीरों के पीछे?”

“हां। उन तसवीरों की तो मुझे क्या याद रहती, मैं तो मायाराम को भी चण्डीगढ़ वाली उस वारदात के बाद से कब का भूल चुकी थी जब कि पिछले महीने वो गोलीवजना प्रेत की तरह मेरे सामने आ खड़ा हुआ। ये तसवीरें देख के मेरे छक्के छूट गये। मेरे दिल ने तब ये ही गवाही दी कि मेरे सरदार जी को इन तसवीरों की खबर नहीं लगनी चाहिये थी। खबर लगती तो तुम कूद कर उसी नतीजे पर पहुंचते जिस का कि मुझे अन्देशा था, जिस पर कि मैं देख रही हूं कि तुम पहुंचे हुए हो। ऊपर से मायाराम नाम का वो महाहरामी, महाचालाक आदमी ऐसे दीन हीन अपाहिज की तरह गिड़गिड़ाता, फरियाद करता पेश आया था कि मैं समझी थी कि वो माली इमदाद का ही अभिलाषी था। जब कि ऐसा नहीं था। वो तो बाद में मुझे पता चला कि सब उसकी चालाकी थी, ड्रामा था। एक बार उससे दब कर तब तक मैं ही ब्लैकमेल का वो सिलसिला ऐसा स्थापित कर चुकी थी कि वो शेर हो गया था। मैं समझी थी कि कुत्ते को हड्डी डालूंगी तो वो चुप हो जायेगा और फिर दुम दबा के चला जायेगा लेकिन वो हड्डी से चुप हो जाने वाला कुत्ता न निकला। वो तो ज्यादा भौंकने लगा। काटने की धमकी देने लगा। मैंने फिर भी उसे बर्दाश्त किया। इसी वजह से दो बार मुबारक अली से पैसा लेना पड़ा। लेकिन सिलसिला काबू में आने की जगह ऐसा बिगड़ा कि बिगड़ता ही चला गया। ये ही समझ में आना बंद हो गया कि आखिर हो क्या रहा था! आखिरकार नौबत खून खराबे तक पहुंची लेकिन फिर पता लगा था कि खून मेरे हाथों नहीं हुआ था।”

“हो ही नहीं सकता था। घर में असली गोलियों की जगह नकली गोलियां मैंने रखी थी।”

“यहां खुद आ कर?”

“हां।”

“मैं घर होती तो? सुमन घर होती तो?” — उसने गौर से विमल की सूरत देखी और फिर बोली — “ओह! तो ये बात है?”

“क्या बात है?”

“वो छोकरी भी तुम्हारी तरफ थी? तुमसे मिली हुई थी?”

“हां।”

“मुझे उस पर शक होना चाहिये था। जैसे वो ट्रंक हाथ से निकल गया बताती थी, उससे नहीं तो जैसे वो उसे थाने से वापिस क्लेम कर लायी थी, उससे तो होना ही चाहिये था।” — उसने असहाय भाव से गर्दन हिलायी — “गोलियां क्यों बदलीं?”

“क्योंकि मुझे यकीन था कि तू रिवाल्वर लेकर खून करने चल देगी।”

“लेकिन खून तो हुआ?”

“वो तो है।”

“किसने किया?”

तब विमल पहली बार मुस्कराया।

“हे भगवान!” — नीलम विस्फारित नेत्रों से उसे देखती बोली — “तुमने?”

“क्या नयी बात है? क्या पहली बार किया?”

“लेकिन...”

“वो आदमी मेरी आंखों के सामने तेरी इज्जत लूटने पर आमादा था, मैं उसे कैसे छोड़ देता?”

“तुम वहां थे?”

“हां।”

“वो सारा कुचक्र ही तुम्हारा रचा हुआ था?”

“हां।”

“मेरी खातिर?”

“हां।”

“फिर भी तुम्हें यकीन था कि शादी की बाबत मायाराम जो कहता था, सच था?”

“यकीन अपनी जगह था और अपनी भार्या के लिये मेरा फर्ज अपनी जगह था। मैंने माता वैष्णोदेवी के सामने तुझे अपनी अर्धांगिनी स्वीकार किया था, मैंने तुझे अपना आधा अंग माना था, अपने अंग की रक्षा करना मेरा फर्ज था। कोई अपनी मर्जी से अंग भंग होने नहीं दे सकता।”

“तुमने मेरी खातिर खून किया?”

“एक ब्लैकमेलर का। एक बलात्कारी का। मैं तेरी खातिर सौ खून कर सकता हूं। मैं तेरी खातिर दुनिया मिटा सकता हूं।”

वो फिर रोने लगी।

विमल ने उसे रोने दिया, वो कहता रहा — “वो कमीना मुझे पूरी तरह से विश्वास दिलाने में कामयाब हो गया था कि तेरी नादानी में ही सही, उसने तेरे से शादी की थी। उन हालात में उसका वही इलाज था जो मैंने किया। मैं उसे कत्ल के झूठे इलजाम में न फंसाता तो वो कभी मुझे शादी के वो सबूत न सौंपता जो कि उसके पास थे।”

“सबूत!”

“इन तसवीरों के नैगेटिव। किसी पंडित उपाध्याय का जारी किया हुआ शादी का सर्टिफिकेट।”

“वो उसने तुम्हें सौंप दिये?”

“हां। और मैंने नष्ट भी कर दिये। वो पंडित से झूठा सर्टिफिकेट कैसे हासिल कर पाया?”

“तब तो ये बातें मेरी समझ से बाहर थीं, क्योंकि मैं बहुत छोटी थी, लेकिन अब मैं समझ सकती हूं कि उसने क्या किया होगा। या तो रुड़जाने ने पंडित के मुंह पर चांदी का जूता मारा होगा या फिर...”

“या फिर क्या?”

“क्या पता उस पंडित का उस सर्टिफिकेट से कुछ लेना देना ही न हो, वो उसने खुद ही लिख लिया हो!”

“ये की मिडल पास वाली बात!”

तब पहली बार नीलम के होंठों पर हंसी आयी।

“लेकिन ऐसा नहीं था।” — विमल बोला।

“कैसा नहीं था?”

“वो सर्टिफिकेट मायाराम ने खुद नहीं लिख लिया था। मैंने तसदीक कराई है इस बात की कि वो सर्टिफिकेट उस पंडित के ही हैंडराइटिंग में था।”

“फिर तो पैसे की खातिर ही ईमान बेचा खसमांखाने ने!”

“हां।” — विमल ने नीलम की गोद में से तसवीरें उठाईं और जेब से लाइटर निकाल कर उन्हें सुलगा दिया — “ये तसवीरें अब नहीं दिखाई देनी चाहियें।”

नीलम ने सहमति में सिर हिलाया और फिर कातर भाव से बोली — “सरदार जी, अब अपनी जुबानी मुझे ये कह के तसल्ली तो दे दो कि तुम्हें मुझ पर यकीन आ गया है।”

“मुझे सदा ही तेरे पर यकीन है लेकिन तूने जो हरकत की, बहुत गलत की, बहुत नाजायज की। तेरी उस हरकत की वजह से ही मुझे ये सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि शायद मायाराम की शादी वाली बात सच थी। और फिर सीधे कान पकड़ने की जगह मुझे गर्दन की तरफ से हाथ घुमा कर कान पकड़ने की विकट तरकीब सोचनी पड़ी।”

“मैं क्या करती? खसमांखाने ने मेरे पर ऐसा एकाएक हल्ला बोला था कि मेरी मत मारी गयी थी।”

“ऊपर से मुबारक अली के आगे नाक नीची हुई।”

“उसे वादा निभाना चाहिये था, मेरा राज राज रखना चाहिये था, तुम्हें खबर नहीं करनी चाहिये थी।”

“जरूर करनी चाहिये थी। न करता तो मैं समझता कि जैसी अहमक तू थी, वैसा ही अहमक वो था। वो तेरे से भी ज्यादा अनपढ़ है लेकिन सयाना निकला। एकदम सही कदम उठाया उसने। मैं उसका शुक्रगुजार हूं और हमेशा रहूंगा।”

“अब मेरी तरफ से मन साफ है तुम्हारा?”

“हां। लेकिन मेरा वाहेगुरु जानता है कि जब पहली बार उन तसवीरों पर मेरी निगाह पड़ी थी तो कैसे मेरा खून खौला था! कैसे मैं अंगारों पर लोटा था! कैसे मेरा दिल चाहा था कि मैं मायाराम को भी मार डालूं, तुझे भी मार डालूं और खुद भी मर जाऊं!”

“हाय रब्बा! सूरज का न सोचा?”

“तब न सोचा।”

“तुम मेरे से इतनी मुहब्बत करते हो?”

“तेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा।”

नीलम के फिर आंसू बह निकले, उसने खींच कर विमल को अपने कलेजे से लगा दिया।

“एक बात याद रखना। आइन्दा जिन्दगी में काम आयेगी।”

“क्या?” — नीलम बोली।

“पति पत्नी का सुख दुख सांझा होता है। उनमें कोई दुई का भेद नहीं होता। उनमें कोई पर्दादारी नहीं होती। एक जना दूसरे का पूरक होता है इसलिये...”

“मैं समझ गयी। सरदार जी, जो गलती इस बार हुई, आइन्दा कभी नहीं होगी। मैं माता भगवती भवानी की कसम खा कर कहती हूं। अब तुम भी मेरे दिल की तसल्ली के लिये एक बार दो लफ्ज कह दो।”

“कौन से?”

“खता माफ।”

“ठीक है। माफ।”

नीलम ने और कस कर विमल को अपने साथ लिपटा लिया।

तभी पीछे हल्की सी आहट हुई।

दोनों ने घूम कर देखा।

दरवाजे पर सब्जी के दो झोले उठाये सुमन खड़ी थी।

“मैंने कुछ नहीं देखा।” — वो हंसती हुई बोली — “मेरी आंखें बंद हैं।”

“बंद ही रख।” — नीलम मुदित मन से बोली — “खोली तो खून कर दूँगी।”

“जो हुक्म।”

विमल ने जबरन उसे अपने से अलग किया और धीरे से बोला — “अभी दुश्वारियों की मुकम्मल दास्तान खत्म नहीं हो गयी। हम गुनहगार बन्दों के वाहेगुरु के दरबार में अभी बहुत इम्तहान बाकी हैं।”

“अभी और भी?” — नीलम के मुंह से निकला।

“हां।”

“अब क्या हुआ?”

“अब इस शहर से हमारा दाना पानी उठ गया। समझ लो ये नीड़ नष्ट हो गया और एक नये नीड़ के निर्माण की जिम्मेदारी हमारे ऊपर आ पड़ी।”

“हाय राम! अब क्या हुआ?”

विमल बताने लगा।

समाप्त