जॉर्ज एवरेस्ट

मैं(देव) और विकास, एक बार फिर मसूरी में खड़े थे। चुड़ैलों के पहाड़ का किस्सा आज भी ज़हन में ताज़ा था, पर एक यात्रा हमारी अधूरी थी। जॉर्ज एवरेस्ट की यात्रा का फैसला, यही सोचकर लिया था कि उस बुरी याद को कोई अच्छी जगह और अच्छी यादें ही भर सकती थी। पुराने किस्से को भुलाने की कोशिश में और एक अच्छी याद संजोने, हम दोनों फिर निकाल पड़े एक नई यात्रा पर।
हमलोगों को अब यहाँ से ‘जॉर्ज एवरेस्ट’ जाना था। ये सोचकर वहीं पास के टेक्सी स्टैंड से एक टेक्सी बुक की, जो हमें जॉर्ज एवरेस्ट ले गयी।
जॉर्ज एवरेस्ट मसूरी से लगभग 7 कि.मी. की दूरी पर था, जिसका रास्ता मसूरी के लाइब्रेरी चौक से पश्चिम दिशा वाली सड़क से होकर जाती थी। दूसरा रास्ता दक्षिण दिशा की तरफ नीचे देहरादून के लिए जाती थी, तो तीसरी सड़क उत्तर दिशा की तरफ, जो कैम्पटी फॉल और कंपनी गार्डन की तरफ जाती थी, तो वहीं चौथा रास्ता पूर्व दिशा की तरफ जिस ओर से मॉल रोड शुरू होता था और कुछ दूरी पर चलते ही, उस तरफ वुड स्टॉक स्कूल भी पड़ता था।
अगले 20 मिनट में ही मैं और विकास जॉर्ज एवरेस्ट के तलहटी में थे। जॉर्ज एवरेस्ट पीक(चोटी) वहाँ से लगभग 2 कि.मी. की दूरी पर ही थी। हम दोनों तलहटी पर कुछ देर रुक गए और सूर्यास्त का आनन्द लिया। चारों तरफ आकाश में फैली लाल रंग की रोशनी इतनी प्यारी लग रही थी कि जैसे आसमान ने गुलाबी रंग से होली खेली हो और खुद केसरिया हो गया हो। आँखों को बड़ा सुकून देने वाला यह क्षण था। हम दोनों ने इस पल को अपने मोबाइल से कैद किया। यह नजारा जॉर्ज एवरेस्ट की चोटी से देखने का अलग ही मजा होता है, लेकिन इस जगह से भी बहुत ही मनोरम दृश्य दिखा था।
विकास ने ऑनलाइन होटल बुक किया हुआ था। उसने मोबाइल चेक कर के बताया कि ‘रिवर स्टोन कॉटेज’ के नाम से यहीं कहीं होनी चाहिए।
कुछ स्थानीय लोगों से पूछने के बाद पता लगा कि यहीं से कुछ कदम की दूरी पर ही है। हम दोनों उस दिशा की तरफ बढ़ चले।
थोड़ी देर में ही हमलोगों को एक जर्जर स्थिति में एक बोर्ड टंगा हुआ दिखा जिस पर लिखा था ‘रिवर स्टोन कॉटेज’। बाहर ही हमें उसका रखवाला मिल गया, जो हमें अंदर एक कमरे में ले गया। दो कमरों का यह गेस्ट हाउस बहुत ही पुराना लग रहा था।
घड़ी रात के 8 बजे का इशारा कर रही थी। विकास ने उस कॉटेज के रखवाले को बुलाया, जिससे पूछने पर उसने अपना नाम ‘कनक चौहान’ बताया। विकास ने उसे दो चटपटी मैग्गी और दो अंडों का ऑमलेट बनाने के साथ उसके जेब में दो पाँच-पाँच सौ के हरे पत्ते डालते हुए कहा कि इम्पीरियल ब्लू व्हिस्की भी लेते आए।
आधे घण्टे बाद ही कनक बड़ी प्लेट में खीरे के बारीक कटी हुई स्लाइसेस, जो हरी चटनी से ढकी हुई थी, गरमा-गर्म मैग्गी, और तीखी ऑमलेट के साथ हमारी आज रात की औषधि लेकर आया था। वह बचे हुए पैसे वापस करने लगा तो मैंने कहा कि रख लो, आगे एडजस्ट कर लेंगे। मेरी बात को सुनकर वह बहुत ही खुश हुआ और दोनों की ओर मैग्गी बढ़ाते हुए हमारी चाकरी करने लगा।
मैंने उसको अपने लिए भी एक गिलास लाने को कहा तो वह पहले ना-नुकुर का दिखावा करने लगा, लेकिन मैंने उसके मंशा को भांपते हुए कहा, “ले आओ! कोई बात नहीं, तू भी क्या याद करेगा! जा, आज की रात तू भी मजे कर ले।”
मेरे ऐसा कहते ही वह दौड़कर गया और अगले ही पल गिलास लेकर हमलोगों के सामने बैठा मुस्कुरा रहा था। लगभग 3-4 पैग पीने के बाद कनक उठकर जाने लगा।
उसने कहा, “साहब, यहाँ एक ही कॉटेज हैं और 4 से 5 ही दुकानें हैं। सभी दुकानें यहाँ के पड़ोस के गाँव की लोगों की हैं इसलिए यहाँ रात को बहुत कम लोग ही रुकते हैं। सभी अपने गाँव ही चले जाते हैं।”
वह जाते-जाते खाने का इंतजाम करके गया था। उस कॉटेज में दो कमरे थे और एक सार्वजनिक रसोईघर था। वह हमलोगों के लिए लगभग 8 रोटियां और वहाँ की स्थानीय लिंगुड़ा सब्जी बना कर गया था।
हमारे पीने का सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक पूरी बाटली खाली नहीं हो गयी। विकास ने ज्यादा पीने की वजह से कुछ भी खाने से मना कर दिया था और वहीं अधेड़ सा लेट गया था।
मुझे अब बहुत तेज भूख लग गई थी। घड़ी पर नजर पड़ी तो देखा कि ठीक दो बजने का इशारा कर रही थी। मैं जैसे ही रसोईघर की तरफ बढ़ा तो एक मधुर ध्वनि ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। यह ध्वनि किसी लड़की की थी, जो मीठे से स्वर में धीरे-धीरे कुछ गाना गुनगुना रही थी। मैंने अपने कदम उस तरफ मोड़े जिस तरफ से आवाज आ रही थी।
मैं आवाज का पीछा करते हुए गेस्ट हाउस के पीछे वाले मकान में आ गया था, जो कि काफी पुराना प्रतीत हो रहा था। यह काफी बड़ा मकान रहा होगा, जब इसकी स्थिति ठीक रही होगी। ऊपर छत भी नहीं थी। टूटी हुई पुरानी खिड़कियां हवा के चलने से कूईं...कूईं... की डरावनी आवाज कर रही थी। रात को सन्नाटा होने की वजह से आवाज़ काफी दूर तक जा रही थी।
उसी घर के आखिरी कमरे में खिड़की पर अपने सिर को टिकाए, खोई हुई सी एक लड़की कोई धुन गुनगुना रही थी। उसकी पीठ मेरी तरफ थी और उसके बाल घुंघराले होने के साथ सुनहरे रंग के थे।
मुझे अच्छा लगा कि यहाँ कोई और भी है और सोचा, “चलो अच्छा है, साथ में कोई है। अपने हमउम्र की है, अब ट्रेकिंग में भी मजा आएगा।”
मैं नशे में था। मैंने जैसे ही अपने हाथ को बढ़ा कर उस लड़की से उसका परिचय जानना चाहा, तभी विकास की आवाज आई, “देव... अरे देव! किधर है?” शायद वह अब मेरी तरह कुछ होश में था।
तभी उस लड़की ने अपना चेहरा घुमाया और मेरी तरफ देखा। वह बहुत ही ज्यादा गोरी थी। उसकी आँखें भी उसी की तरह बेहद खूबसूरत थी।
मैं ना चाहते हुए भी लड़कियों की सुन्दरता की तरफ जाने क्यों खींचा चला आता हूँ। शायद यह आदत मेरी सबसे बड़ी कमजोरी भी रही हो। उस लड़की ने मेरी तरफ देखा और मुझे देखकर मुस्कुरा दी। मैंने भी मुस्कुराकर उसका प्रत्युत्तर दिया और न चाहते हुए भी मुझे बेमन से लौटना पड़ा।
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सुबह तैयार होकर लगभग 8:30 बजे हम दोनों रिवर स्टोन कॉटेज से बाहर निकले। मैं और विकास भूख से परेशान थे। तभी कुछ कदम चलकर एक छोटी सी टिन शेड वाली दुकान दिखी, जिस पर बोर्ड टंगा था ‘बिष्ट फ़ास्ट फ़ूड सेन्टर’।
हमलोगों ने चाय के साथ दो-दो पराठे खाए। इस दुकान का मालिक थोड़ा बूढ़ा सा था। जब हमलोग पराठे और चाय के पैसे देने लगे तो वह कहने लगा कि चिप्स और कोल्ड ड्रिंक्स लेते जाइये, 2 कि.मी. की ट्रैकिंग है और उधर रास्ते में कुछ नहीं मिलेगा। विकास ने दो लेज़ के पैकेट और एक आधे लीटर की थम्स अप की बोतल ले ली।
जैसे ही हमलोग जाने लगे तो उस बूढ़े आदमी ने एक और सवाल किया, “साहब, आपलोग कहाँ ठहरे हुए हैं?”
जब हमने बताया कि रिवर स्टोन कॉटेज में ठहरे हुए हैं, तो उस ढाबे में बैठे दो-तीन लोगों कि आँखें फैल गई। किसी ने कुछ कहा नहीं लेकिन आपस में काना-फुसी होने लगी थी। मुझे थोड़ा अजीब सा लगा, लेकिन हम उस वक़्त वहाँ से निकलकर, आगे जॉर्ज एवरेस्ट के शिखर की तरफ बढ़ने लगे।
अभी मुश्किल से सौ मीटर का फासला ही तय किया था कि रास्ते में हमारी मुलाकात एक खास शख्स से हुई। नाटा कद, एकदम सादा कुर्ता-पायजामा, चेहरे पर बेतरतीब उगी दाढ़ी, सिर पर ऊनी टोपी, ऊन की पतली सी स्वेटर और चेहरे पर एकदम निर्मोही से भाव। उम्र लगभग 50 साल के करीब। उन्होंने बताया कि एक दिन मन किया और यों ही निकल आए जॉर्ज एवरेस्ट देखने। वे भी बिल्कुल अकेले ही। पहाड़ तो लगभग पूरा घूम ही लिया है।
यह जानकारी देने के बाद वे कुछ पल रुकते हैं और फिर जैसे किसी अनंत में डूबती आँखों में एक चमक लिए कहते हैं, “आगे जॉर्ज एवरेस्ट जाओगे ना? गजब की जगह है। एक बार वहाँ जाकर फिर से लौटने का मन नहीं करता है। मन करता है वहीं बैठे रहो। गजब का सम्मोहन है उस जगह में। बिना वहाँ जाए उसे महसूस नहीं कर सकते। बहुत खूबसूरत जगह है।”
यह बात उन्होंने जिस ठहराव से कही थी, वह ठहराव अब भी कहीं जेहन में ठहरा हुआ है। उनकी इस बात से जॉर्ज एवरेस्ट के शिखर तक जाने की ललक और बढ़ गई। हमने उन से विदाई ली और आगे की तरफ बढ़ गए।
रास्ते बहुत ही संकरे थे, कहीं-कहीं तो पत्थरों और जमीन पर हाथ टिका कर सहारा लेकर बढ़ना पड़ रहा था। हमारे ठीक पीछे का पर्वत, सूरज की रोशनी में नहाया हुआ जगमगा रहा था। हल्की धूप रास्ते में चलने के लिए मददगार साबित हो रही थी। चिड़ियों की चीं...चीं... की मधुर ध्वनि कानों में मिश्री घोल रही थी।
अभी चलते हुए लगभग 20 मिनट ही हुए थे कि मैंने देखा कि घुंघराले और सुनहरे रंग की बालों वाली वह लड़की, जिससे कल रात को सामना हुआ था, वह भी हमलोगों से कुछ 50 मीटर के फासले पर चल रही थी। उसने पीले रंग की टी-शर्ट और गहरी नीली रंग की स्कर्ट पहनी हुई थी, जिसमें वह बेहद आकर्षक और खूबसूरत लग रही थी।
मेरी नजर जैसे ही उस पर पड़ी, वैसे ही उसने अपने सिर को घुमाते हुई कल वाली जादुई मुस्कान छोड़ दी। मैं आगे बढ़कर उसके करीब जाकर बात करना चाह रहा था। लेकिन रास्ते में कही से संकरी तो कहीं खड़ी चढ़ाई होने के कारण मैं हर बार पीछे रह जा रहा था।
उसके चलने के तरीके से लग रहा था कि वह इस जगह पर चलने की अभ्यस्त है। मैंने थोड़ी देर के लिए अपना ध्यान उसपर से हटा कर रास्ते पर लगाया, जो की एक जगह बेहद ही खतरनाक था। रास्ते के दोनों तरफ खाई थी, इसलिए बड़ा संभल- संभल कर चलना पड़ रहा था। इस तरह की ही बहुत सारी खतरनाक रास्ते को पार करते-करते हम अंततः जॉर्ज एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचे।
“ओह माय जीसस! व्हाट ए लवली प्लेस, जस्ट लाइक ए हेवन!”, विकास के मुंह से ये शब्द निकल पड़े। वह चारों तरफ बड़े ध्यान से कुदरत के नज़ारों को देख रहा था और अपने मोबाइल से उनकी तस्वीरें लेकर मोबाइल में कैद कर रहा था। तस्वीरें खींचते हुए ऐसा लग रहा था कि यहाँ से भला कौन वापस जाना चाहता है। ऊँचाई ज्यादा होने की वजह से यहाँ से नीचे घाटी की तरफ पूरा देहरादून शहर साफ-साफ दिख रहा था। इस जगह को देखकर मन ही मन प्रफुल्लित हो रहा था, तभी मुझे उस घुंघराले सुनहरी बालों वाली लड़की का ख्याल आया।
वह मुझे कहीं दिख नहीं रही थी। मेरे जेहन में ख्याल आया कि कहीं वह वापस तो नहीं चली गयी लेकिन जॉर्ज एवरेस्ट आने और जाने का वही एक मात्र रास्ता है, जिस से हम अभी आए थे। लेकिन मैंने उसे ऊपर चोटी तक जाते हुए देखा ज़रूर था परन्तु वापस आते हुए तो नहीं देखा था। फिर मैंने अपने आपको दिल ही दिल में दिलासा दिलाया कि हो सकता है कि शायद वह चली गई हो, मैं उसे देख नहीं पाया होऊंगा।
हमने वहाँ लगभग आधे घण्टे का वक़्त गुजारा और जैसे ही वापस चलने को हुए, एक सुन्दर बुग्यालनुमा ढलान, मखमली हरी घास ओढ़े हमें ललचाने लगी। धूप इतनी खिली हुई और प्यारी थी कि हम जाकर उस ढलान पर पसर गए। इस तरफ रुख करने से पहले जो चिप्स के पैकेट और कोल्ड ड्रिंक्स लिए थे, उसको खोल कर इस नैसर्गिक सौंदर्य का लुत्फ लेने लगे। ऐसा करने से मौसम और भी खुशगवार लगने लगा।
यही वह सुकून था जिसके लिए काफी कुछ झेला और अविश्वसनीय चीजों से पाला भी पड़ा था। जिसके लिए न जाने कितने जतन करके इतने किलोमीटर पैदल चलकर इस ऊँचाई पर पहुँचे थे।
एकदम हरी मखमली घास का बिस्तर और सिर पर धुले हुए नीले आसमान की चादर, ऊपर से ये बोनस के रूप में आस पास की ठण्डी हवा, जैसे किसी ए.सी. की हवा चल रही हो।
हवा की सरसराहट की आवाज किसी लोरी सी हमारी कानों में मिश्री घोल रही थी। ये लोरी सुनाने वाली अदृश्य आवाजें काश हमारे साथ हमारे निवास स्थान तक आ पातीं। लेकिन इस ‘काश’ के पीछे के अरमान हमें अब पीछे छोड़ने थे। आँख बंद करके करीब घण्टे भर हम यहीं लेटे रहे। कुछ देर बाद धीरे-धीरे मन मारकर उठे और वापस अपने कॉटेज आ गए।
घड़ी में ठीक दोपहर के 12:00 बज रहा था। हम दोनों ने कुछ खा पी कर, तीन घण्टे सुस्ताने का सोचा था। 3:30 पर टेक्सी बुक की थी, जो हमें यहाँ से कंपनी गार्डन लेकर जाती, जो यहाँ जॉर्ज एवरेस्ट से 11 कि.मी. और मसूरी से मात्र 4 कि.मी. की दूरी पर ही था। फिर 7 बजे तक वहाँ से वापसी करके यहाँ रात कॉटेज में आराम करना था। फिर अगली सुबह बस से देहरादून के लिए निकल जाना था।
देहरादून से विकास की बस सुबह 11 बजे थी, जो उसे गुरुग्राम 5 बजे शाम तक पहुँचा देती और थकान मिटाने के लिए वक़्त भी मिल जाता ताकि वह अगले दिन अपने ऑफिस स्फूर्ति के साथ जा सके। मुझे भी देहरादून से लखनऊ जाने के लिए के लिए जनता एक्सप्रेस पकड़नी थी, जो देहरादून रेलवे स्टेशन से शाम 4:15 बजे खुलती थी।
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मेन गेट पर ही हमें कॉटेज का केयरटेकर ‘कनक’ मिल गया। उसने हमें कल बताया था कि यहाँ केवल ब्रेकफास्ट, चाय और कॉफी ही मिल ही सकती है। उसने कहा था कि पीछे की तरफ किचन था, जहाँ आप खुद जो मन वह बना सकते हैं।
विकास उसके साथ किचन में खाने पीने का जायजा लेने चला गया।
मैं उस कमरे की तरफ चल दिया, जहाँ हम कल रात सोए थे। कमरे की तरफ बढ़ते ही मुझे ठण्डी हवा का एहसास हुआ।
मैं अभी चाबी की-होल में लगा ही रहा था कि मुझे साथ के कमरे से धीमी संगीत की आवाज आई। ध्वनि बहुत ही मधुर लेकिन उदास सी लग रही थी। मुझे अचानक कल रात वाली सुनहरी बालों वाली गोरी लड़की की याद आ गई।
जैसे ही मैंने मुड़कर उस आवाज की तरफ बढ़ने का सोचा, तब तक विकास आ गया और बोला, “अन्दर चलो! यहाँ क्यों खड़े हो? जब तक कुछ खाने को बनकर आता है, क्यों न दो-दो पैग हो जाए।”
उसकी आँखों में चमक थी, एक हाथ में इम्पीरियल ब्लू की बोतल और दूसरे हाथ में खीरे की पतली स्लाइसेस। कुछ देर पीने के बाद लगभग 1 बजे कनक खाना लेकर आ गया था। हमने खाना खाया और कनक से कहा कि हमें 3 बजे के बाद उठा दे क्योंकि 3:30 पर ‘कम्पनी गार्डन’ के लिए निकलना था।
बाहर किस वक़्त बारिश शुरू हो गई, पता ही नहीं लगा। मौसम काफी ठंडा हो गया था। शरीर आराम मांग रहा था, तो जमकर नींद आई। मैं जिस तरफ लेटा था, उस तरफ खिड़की थी और उसके खुले होने की वजह से बारिश की बूंदें मेरे चेहरे पर पड़ रही थी, जिसकी वजह से मेरी नींद टूट गई थी। मैंने उठकर घड़ी में वक्त देखा तो 2:15 हो रहा था।
मैंने विकास को देखा तो किसी बच्चे की तरह घुटने को पेट तक मोड़ के सोया हुआ था। मैंने बारिश की बूंदों का लुत्फ लेने के लिए खिड़की खोल दी और जैसे ही अपने दोनों हाथों को खिड़की से बाहर किया, तभी बगल वाले कमरे से एक लड़की के रोने की आवाज आई। आवाज़ स्पष्ट नहीं थी, दबी-दबी सी थी।
मैंने जैसे ही खिड़की को जोर से खोला, तभी उस आवाज से विकास भी उठ गया और बोला, “अरे! खिड़की क्यों खोल रहे हो? बाहर बारिश हो रही है। पानी अंदर आ जाएगा तो रात को सोने में दिक्कत होगी।”
मैंने उससे कल रात सुनहरे रंगों वाली घुँघराले बालों वाली लड़की का जिक्र किया और उसे कहा कि लगता है, वह कोई विदेशी है और बगल वाले कमरे से उसी के रोने की आवाज आ रही है।
विकास ने मेरी बातों को मजाक में उड़ा दिया और ऊँघते हुए कहा, “जाओ, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही है।
कोई अच्छी सी लोरी सुनाकर चुप करा दो उसको।”, यह कहते ही वह दुबारा नींद के आगोश में समा गया।
मैं उस आवाज का पीछा करते हुए बगल वाले घर के करीब पहुँच गया था। जैसे ही मैं उस घर के कोने वाले कमरे के अंदर घुसा, वह आवाज बिल्कुल ही बन्द हो गई। इस कमरे में कोई भी नहीं दिख रहा था। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। क्या ये कोई छलावा था या मुझे सुनने में धोखा हुआ है?
मैं वहाँ से वापस अपने कमरे की तरफ आ गया। मैंने देखा कि घड़ी में दिन के 3 बजे का वक़्त होने वाला था। मैंने देखा कि कमरे के अन्दर कनक और विकास मेरा इंतजार कर रहे थे।
मुझे देखते ही विकास बोल पड़ा, “भाई, किधर आत्माओं की तरह भटकते रहते हो? कम से कम जहाँ जाते हो, बता कर जाओ।”
इससे पहले कि मैं उन सभी घटनाओं के बारे में विकास को बताता, कनक बोल पड़ा, “साहब, हमें भी अपने साथ अपने यहाँ ले चलो। अपने पास ही रख लेना, आपकी सेवा कर देंगे।”
विकास ने उसको समझाया कि तुम यहाँ जन्नत में रहते हो। यहाँ एक तो काम भी कम है और सुकून भरी जिंदगी है वह अलग।
उसकी बातें सुनकर कनक ने कहा, “साहब, पिछले कुछ महीनों से आप अकेले ही गेस्ट हो, जो अगली सुबह चले ही जाओगे।”
मैं और विकास एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। विकास इसलिए आश्चर्यचकित था कि यहाँ इस कॉटेज में कुछ महीनों से कोई नहीं रुका था।
मेरी वजह दूसरी थी। मैंने अपने शक को दूर करने के लिए उससे पूछा, “अच्छा, एक लड़की साथ वाले घर में भी तो रहती है, जिसके बाल सुनहरे रंग के और घुंघराले हैं, जो बेहद गोरी रंग की है। वह तो यहाँ की लगती भी नहीं, शायद विदेशी है। वह मधुर स्वर में बहुत ही अच्छा गाना गुनगुनाती है। वह मुझे आज जॉर्ज एवरेस्ट पर भी जाती हुई दिखी थी, लेकिन आते वक्त मैं शायद उसे देख नहीं पाया।”
मेरी बातें सुनते ही कनक का चेहरा सफेद पड़ गया। उसकी आँखों की पुतलियां फैल गयी थी लेकिन वह कुछ नहीं बोला।
उसकी यह हरकत देखकर विकास ने पूछा, “क्या हुआ कनक? तुम ठीक तो हो ना?”
कनक गला साफ करते हुए बोला, “मैं अपनी माँ की कसम खाकर कहता हूँ, यहाँ आपलोग अकेले गेस्ट हो। वह तो आपलोग आ गए नहीं तो मैं खुद अपने गाँव पौड़ी जाने वाला था।”
मैं बोला, “फिर वह सुनहरी बालों वाली लड़की कौन थी? और वह कहाँ से आई थी?”
कनक ने बताया कि इस कॉटेज के बारे में बहुत सी कहानियां फैली हुई हैं। यह कॉटेज अंग्रेजों के जमाने के किसी मिस्टर जॉर्ज एवरेस्ट का है। यहाँ कुछ सैलानियों की मौत हुई, तब से आस पास के लोग यहाँ आवाज सुनने लगे। कभी कोई उदास सी धुन, कभी लड़की के गाने की, कभी रोने की। कहते हैं कि ये आवाज़ें ज्यादातर यहाँ घूमने आए पर्यटकों को ही सुनाई देती है। मेरा तो यह सुनकर खून जम गया था।
कनक ने सांत्वना देते हुए कहा, “साहब, मैंने तो आजतक ऐसा कुछ न देखा, न सुना। मैं तो रोज रात 9 बजे तक यही रहता हूँ।”
अभी यह सब जिक्र चल ही रह था तभी पौं-पौं की ध्वनि ने हमारा ध्यान हटा दिया। कनक ने बाहर जाकर देखा तो हमें कंपनी गार्डन ले जाने वाली टेक्सी बाहर खड़ी थी और हमारा इंतजार कर रही थी।
हमने कनक को कहा कि हम आज आते वक्त मसूरी से ही खाना खाकर आ जाएंगे। अगर वह पड़ोस गाँव में जहाँ वह रात में रहता है, वहाँ जल्दी जाना चाहता है तो जा सकता है।
मैं और विकास उस टेक्सी में सवार हो गए और टेक्सी कंपनी गार्डन की तरफ बढ़ चली। अभी थोड़ी दूर चले ही थे कि ड्राइवर ने गाड़ी अचानक से रोक दी।
मैंने कारण पूछा तो उसने सामने की तरफ इशारा करते हुए बताया कि सामने घर में किसी स्थानीय व्यक्ति का विवाह संपन्न होने के बाद, दुल्हन के ससुराल आने पर कुछ रस्में हो रहीं हैं। यहाँ पर सड़क कुछ दूरी तक संकरी है, इसलिए कुछ देर रुक कर, इन स्थानीय रस्मों का लुत्फ लेकर चलते हैं।
मैंने देखा कि सड़क के किनारे एक घर था और घर के मुख्य दरवाजे के दोनों तरफ केले का पेड़ प्रहरी की भांति खड़ा था, जिस पर रंग-बिरंगी धागे और अक्षत से पूजन हुई थी। घर के मुख्य दरवाजे के ऊपर ‘सुस्वागतम’ का बोर्ड लगा हुआ था। वहीं घर के पास में ही पारंपरिक लोक नृत्य मन को मोह रहा था।
जिसमें पारंपरिक रूप से वहाँ की स्थानीय महिलाएं घाघरा तथा आँगड़ी और पुरुष चूड़ीदार पायजामा और कुर्ता पहने हुए, सामूहिक नृत्य कर रहे थे। महिलाओं ने जहाँ कानों में कर्णफूल, नाक में नथुली और बुलाक शोभा बढ़ा रही थी तो सिर में शीषफूल, हाथ में चांदी के पौंजी तथा पैरों में बिछुड़े और पाजेब उनकी वेश भूषा में चार चांद लगा रही थी।
‘मुर्खालास’ यह चांदी की बालियां हुआ करती हैं, जिसे महिलाएं कानों के ऊपरी भागों में पहना करती हैं।
विवाहिता औरतों की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। बैगपाइपर और ढोल की मिश्रित ध्वनि के साथ वहाँ की लोकगीत कानों में मिश्री घोलने का काम कर रही थी। बहुत ही मनमोहक और मंत्रमुग्ध करने वाला लोक नृत्य चल रहा था। लगभग 20 मिनट के तक यह कार्यक्रम चलता रहा। फिर कहीं जाकर हमें आगे जाने के लिए रास्ता मिला।
तकरीबन आधे घंटे में हम कम्पनी गार्डन के मुख्य दरवाजे के बाहर खड़े थे और टेक्सी वाले ने यहाँ से 6:30 बजे वापसी का समय बताया था।
इस वक़्त घड़ी में ठीक 4 बज रहे थे। हमलोगों ने बाहर प्रवेश द्वार के पास से अंदर जाने के लिए टिकट लिए और अंदर की तरफ कदम बढ़ा दिए।
इसी बीच हम लगातार देखते रहे कि लड़के-लड़कियां फैशन के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं। उनका एक खास पारंपरिक फैशन स्टेटमेंट है।
खास पहनावा है और उस खास पहनावे के खास रंग है, जो चटख है। शायद रंगों से दोस्ती यहाँ के लोगों को विरासत में मिली है।
अन्दर का नजारा बिल्कुल मन को मोह लेने वाला था। चारों तरफ छोटे-छोटे लॉन बने हुए थे और उन लॉन के चारों तरफ क्यारी थी, जिसमें तरह-तरह के रंगबिरंगे पुष्प थे, जो उस लॉन की गरिमा को बढ़ा रहे थे। उन्हीं लॉन के बीच से होती हुई एक चौड़ा रास्ता था, जिसपर सफेद संगमरमर बिछी हुई थी। उस संगमरमर पर उन्नत किस्म की कलाकृतियां उभरी हुई थी। वही दाई तरफ कुछ दीवारों पर पारंपरिक आकृतियां बनाई हुई थी, जो कि उस जगह को खूबसूरत बनाने में चार चांद लगा रहे थे।
वहाँ से थोड़ी दूर पर ही एक बड़ी ही खूबसूरत वाटर फाउन्टेन (पानी का फव्वारा) था, जिससे पानी निकल कर कुछ ऊंचाई तक जा रहा था और उसके चारों तरफ से रंगबिरंगे प्रकाश लगे थे, जो उस फव्वारे पर पड़ रहे थे। बारी-बारी से उस रंगबिरंगे प्रकाश के फ़व्वारे पर पड़ने से फव्वारा बहुत ही प्यारा नजर आ रहा था। उसी फ़व्वारे से चारों तरफ पतली पगडंडियां जा रही थी। हम सामने वाली पगडंडी से बढ़ कर आगे की तरफ बढ़ चले।
इस रास्ते में आगे चलकर कुछ सीढ़ी उतरते ही एक खुला मैदान था। उसमें दूर-दूर तक रंगबिरंगे हर तरह के फूल खिले हुए थे। एक ही फूल के कम से कम 20 से अधिक प्रजातियां थी, जो कि दिखती बिल्कुल एक जैसी थी लेकिन हर किसी का रंग एक दूसरे से जुदा थी।
यह देखकर दिल खुश हो गया था। चारों तरफ फूलों की खुशबू फैली हुई थी। इस अलौकिक नजारे को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो हम फूलों की घाटी में आ गए हों।
यह बिल्कुल ही उसी का छोटा रूप लग रहा था लेकिन खूबसूरती में यह किसी से कम नहीं थी।
वहीं पास में ही ऊपर से झरना (वॉटरफॉल) गिर रहा था। लोग वहीं नीचे अपनी फोटो मोबाइल से खिंचवाने में लगे हुए थे।
कुछ फोटोग्राफर पर्यटकों को उलझाकर उनकी फोटो निकलवाने को मनाने में लगे हुए थे। आज शनिवार का दिन था इसलिए वहाँ काफी चहल पहल भी थी।
मैंने भी विकास को वहाँ पास में झरने के पास खड़े होने को कहा और उसकी फोटो लेने के लिए अपना मोबाइल निकाल कर थोड़ा पीछे आकर विकास पर फोकस कर ही रहा था कि अचानक मुझे कैमरे में एक लड़की दिखी, जो वहीं विकास के पीछे ही थोड़ी दूरी पर ही खड़ी थी।
जब मैंने ध्यान से देखा तो ऊंचे स्वर में बोल पड़ा, “ये तो वही लड़की है!”
मैंने जोर से विकास के कंधे को जकड़कर हिलाते हुए कहा था। विकास ने जैसे ही उसे देखा तो वह लड़की झरने के बगल से जा रही सीढ़ी से बढ़ती हुई ऊपर जाने लगी।
विकास ने मेरा हाथ पकड़ लिया लेकिन मैंने उससे अपने हाथ छुड़ाते हुए कहा कि आज मुझे इस सुनहरे बालों वाली लड़की का रहस्य सुलझा कर ही रहना है। यह कहकर मैं उस लड़की के पीछे हो चला। वह बहुत तेजी से आगे बढ़ रही थी।
मैं लगभग भागते हुए उस लड़की के सामने पहुँचा और अपने हाथ बढ़ाते हुए बोला, “हेलो ब्यूटीफुल लेडी! आर यू अलोन?”
उसने ना मैं सर हिलाया। उसका चेहरा गोरा और बिल्कुल गोल था, उसके गाल गुलाब के फूल जैसे लाल थे, पर उसकी आँखें नीली थी, जैसे उसमें बहुत सारे राज दफन हों। उसके सुनहरे घुंघराले बाल उसके गुलाबी गालों को बार-बार चुम रहें थे।
मैंने फिर उससे पूछा, “व्हेर आर यू फ्रॉम?”
इस बार वह धीमी आवाज में बोली, “मैं भारतीय हूँ।”
मैंने कहा, “ओह! मुझे लगा कि आप विदेशी हो।”
वह मेरी बात सुनकर धीमी सी हँस दी।
मैंने उसे नीचे आकर चाय पीने का ऑफर किया पर उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि वह ऊपर देखने जा रही है कि इस झरने का पानी कहाँ से बहती हुई आ रही है?
यह कहकर वह पलटी और आगे बढ़ चली। मैंने भी उसके साथ चलने की बात कही तो उसने मुस्कुराकर अपनी स्वीकृति दे दी। थोड़ी देर हम दोनों बिल्कुल टॉप पर थे, जहाँ से झरना नीचे की तरफ गिर रहा था। यहाँ ऊपर ज्यादा ऊंचाई और पर्यटक स्थल से हटके होने की वजह से इर्दगिर्द कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं था। मैंने इस मौके को भुनाने का सोचा और सोचा कि इससे पूछूं कि पिछली कुछ घटनाओं का उससे क्या समानताएं हैं।
यह सोचते ही मैंने जैसे ही उसकी तरफ नजर की, अचानक उसने अपने दाहिने हाथ को ऊपर उठाते हुए मुस्कुराकर बाय कहा और झरने के ऊपर से नीचे की तरफ छलांग लगा दी।
मैं इससे पहले की कुछ कह पाता, मेरी बोलने और देखने की क्षमता नहीं रही थी। मैं झटके खाने के साथ पीछे ज़मीन पर गिर पड़ा था। मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। मैं अब बहुत ही ज्यादा डर गया था। मैं फटाफट दौड़ता हुआ विकास के पास आया। वह मुझे इस हाल में देखते ही परेशान हो गया।
इससे पहले वह कुछ कहता, मैंने उसके हाथों को पकड़ा और कहा, “मुझे यहाँ से जल्दी ले चल।”
विकास मुझे लेकर कंपनी गार्डन के बाहर ले आया। ड्राइवर हमारा ही इंतजार कर रहा था। हम दोनों गाड़ी में बैठ गए। मेरी आँखें फटी की फटी सामने की तरफ देख रही थी और विकास मुझे बोतल से पानी पिला कर सामान्य करने की कोशिश में लगा हुआ था।
अगले 15 से 20 मिनट में ही हम मसूरी पहुँच चुके थे। ड्राइवर खाना खाने के लिए टेक्सी साइड में लगाने लगा।
तभी विकास ने बोला कि वह टेक्सी जॉर्ज एवरेस्ट की तरफ ले चले और हमें वहाँ हमारे कॉटेज तक छोड़ दे। ड्राइवर ने वैसा ही किया हम अगले और 25 मिनट में रिवर स्टोन कॉटेज के पास खड़े थे।
विकास और मैं अपने कमरे में थे। रात के 8 बज रहे थे। विकास बाहर देखकर आया तो कनक नहीं मिला, शायद वह चला गया था। विकास ने मुझसे वहाँ की घटना के बारे में पूछा, फिर मैंने उसको सारी बात बता दी। मेरे बताते ही वह भी सोच में पड़ गया।
चिन्ता की लकीरें उसके माथे पर साफ-साफ दिख रही थी। उसने अपने आपको संभालते हुए कहा, “आज की रात ही तो गुजारनी है। फिर कल सुबह ही हमें देहरादून के लिए निकलना है।”
वह अपनी जगह से खड़ा होता है और किचन से खीरे के स्लाइसेस और दिन की इम्पीरियल ब्लू की बोतल लाता है, जो कि अभी भी आधी बची हुई थी।
मेरे सामने रखते हुए कहता है, “भाई! देख, आज की रात हमें इसी से काम चलाना होगा। किसी भी तरह की थकान चाहे वो मानसिक हो या शारीरिक, वह अब इससे ही मिटेगी।”
यह कहते हुए उसने जल्दी-जल्दी दो बड़े पैग बनाए और हमने उन्हें फटाफट गले से नीचे गटका लिए।
विकास इधर उधर की तो कभी कॉलेज के दिनों की घटनाओं को याद दिलाकर, मेरा ध्यान भटकाने की कोशिश में लगा हुआ था। हालांकि अंदर से वह भी सहमा हुआ ही था।
हल्की बारिश भी शुरु हो गई थी। इस बारिश ने अब इस माहौल को और बोझिल बना दिया था। बातें करते-करते हम कब सो गए, पता ही नहीं लगा।
रात को किसी वक़्त लगा कि मेरे ऊपर कोई झुका हुआ है। मैंने जब आँखें खोली तो देखा यह तो वही सुनहरे और घुंघराले बालों वाली लड़की थी। वह मेरे कंधे को पकड़कर, मुझे उठा रही थी और मेरा नाम देव...देव... कहकर बार-बार पुकार रही थी।
उसकी आवाज सुनकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी कुएं से आती हुई लग रही थी। मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा तो वह लड़की मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचती हुई अपने साथ ले जाने लगी। डर के मारे मेरे गले से कोई भी आवाज नहीं निकल रही थी। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो विकास अपने बिस्तर पर ही सो रहा था।
वह मुझे कॉटेज के पीछे बने घर के एक कमरे में ले गई। आज उस कमरे की शक्ल ही बदली हुई थी। हॉल के कोने में बड़ी सी चेयर पर एक रोबीला सा अंग्रेज आदमी बैठा हुआ वॉयलिन बजा रहा था। उदास धुन, उसकी आँखें बन्द थी। वह लड़की उसके कदमों में बैठ गई और रोने लगी।
उस लड़की ने उस अंग्रेज आदमी का हाथ अपने हाथों में लिया और बोली, “प्लीज जॉर्ज, फॉरगिव मी।”
उस आदमी पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। लड़की का चेहरा रोते-रोते लाल हो गया था। अचानक वह आदमी खड़ा हुआ और मेरी ओर बढ़ने लगा। मैं जड़ वहीं खड़ा था, जैसे मेरे आँखों के सामने कोई पिक्चर चल रही थी।
अचानक उस आदमी ने वॉयलिन एक तरफ रखा। न जाने उसके हाथ में कहाँ से बन्दूक आ गई। वह लड़की बोली, “स्टॉप जॉर्ज!”
परन्तु वह आदमी आगे बढ़ता ही जा रहा था। तभी अचानक एक धमाका और ढेर सारा धुआं।
तब मेरे गले से पहली बार इतनी जोर से चीख निकली। विकास उस चीख को सुनकर दौड़ा-दौड़ा उस कमरे में आया। मैं वहीं उस कमरे में अभी भी जड़ खड़ा ही था और लगातार चीखे ही जा रहा था। वहाँ इस कमरे में मेरे और विकास के अलावा कोई भी नहीं था।
मैं जोर-जोर से चीख रहा था, “नहीं! मुझे छोड़ दो! प्लीज, भगवान के नाम पर छोड़ दो। मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”
विकास मुझे संभालते हुए लेकर जाने लगा, तभी मैंने उससे हाथ छुड़ाया और बाहर की तरफ भाग खड़ा हुआ। विकास भी मेरे पीछे-पीछे भागा।
वह भी समझ चुका था कि यहाँ कोई अनहोनी हुई है। वह मेरे बर्ताव को देखकर परिस्थिति को भांप गया था।
मैं भागते-भागते उस कॉटेज से थोड़ी दूर आ गया था। तभी मुझे वह ढाबा दिखा, जहाँ कल सुबह आलू के पराठें खाए थे। उस दुकान के अंदर से प्रकाश बाहर की तरफ आ रही थी, जिसका यह मतलब हुआ कि हो न हो वहाँ जरूर कोई तो होगा ही। तब तक विकास भी भागते-भागते मेरे पास आ गया था।
वहाँ चारों ओर सन्नाटे को मेरी आवाज चीरती हुई गूँज रही थी। तभी मैंने देखा कि उस ढाबे से वही सुबह वाले बुजुर्ग आदमी ने अपने दुकान का द्वार खोल कर, हमें ध्यान से देख कर परिस्थिति का जायजा ले रहा था। थोड़ी देर में ही हमें अपने हाथों से इशारे करके अंदर की तरफ बुला रहे थे। हम दोनों लपक के अंदर घुस गए। हमारे अन्दर घुसते ही उन्होंने दरवाजे में छिटकनी लगा दिया। अंदर एक चारपाई पड़ी थी। हम लोग वहाँ बैठ गए।
तभी विकास ने पूछा, “तुम इतनी रात को वहाँ क्या करने गए थे?”
मैंने सारी बात उन दोनों को बता दी। विकास उन बातों को सुन कर परेशान सा हो गया था। थोड़ी देर में वह अधेड़ उम्र के बुजुर्ग तीन चाय लेकर आए।
उन्होंने बताया कि उनका नाम आनन्द सिंह बिष्ट है। 9 साल पहले उनकी पत्नी और बच्चे उनके पैतृक गाँव, जो पौड़ी जिले के सतपुली नाम के गाँव में पड़ता है, वहाँ जाते वक्त किसी बस दुर्घटना के शिकार हो गए। अब वे अपनी बची हुई ज़िंदगी के गुजर बसर करने के लिए दुकान चलाते हैं और यहीं अकेले ही रहते हैं। उन्होंने बताया कि यह क्षेत्र अंग्रेजों के आधीन आता था।
“एक बार घूमते-घूमते जॉर्ज एवरेस्ट यहाँ पहुँचे थे। उनकी पत्नी, उनकी बेटी एमी के जन्म के बाद ही दुनिया छोड़कर चली गयी थी। एमी को अपनी पत्नी की आखिरी निशानी समझकर जॉर्ज उससे बहुत प्यार करते थे। एमी के बाल बिल्कुल उसकी मम्मी की तरह ही सुनहरे और घुंघराले थे।”
“जॉर्ज को यह जगह इतनी पसन्द आई कि उन्होंने अपनी बेटी एमी एवरेस्ट के साथ यहाँ रहने का निश्चय कर लिया।”
“यहाँ वह अपनी बेटी एमी के साथ ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगा। वह अपनी बेटी की हर इच्छा को समझते हुए, उसके कहने से पहले ही उसकी हर ख्वाहिशों को पूरी कर देते थे।”
“उन्होंने इस पथरीली जगह पर बहुत मेहनत की और इस जगह को दर्शनीय स्थल बनाया। बहुत ही खुशी से उनकी ज़िंदगी की गाड़ी चल रही थी। एक दिन एमी को यहाँ के स्थानीय व्यवसायी राहुल भारद्वाज से प्यार हो गया। जब एमी ने अपने दिल की बात अपने पिता जॉर्ज से की तो वे उसकी शादी के लिए तैयार नहीं हुए।”
“एमी, राहुल से बेइंतिहा मुहब्बत करती थी। उसके लिए राहुल के बिना ज़िन्दगी गुजारना सम्भव नहीं हो रहा था। एक दिन एमी ने राहुल से यह सोचकर कोर्ट मैरिज कर ली कि उसके पिता जॉर्ज उससे बहुत प्यार करते हैं, उसकी खुशी के लिए वे कुछ दिन बाद राजी हो ही जाएंगे।”
“जब यह बात उसके पिता को पता चली, तो वे कुछ दिनों तक नाराज रहे लेकिन एक दिन उन्होंने फैसला किया कि वे अपनी बेटी के ससुराल जाकर उसको मनाएंगे और अपनी गलती के लिए उससे क्षमा मांगेंगे।”
“एमी का ससुराल यहाँ पास के गाँव धनौल्टी में ही था। एक शाम जब वे अपनी बेटी से मिलने राहुल भारद्वाज के यहाँ पहुँचे तो देख कर दंग रह जाते हैं कि उस घर से लड़ने झगड़ने की आवाज आ रही थी। जब उन्होंने पास जाकर दरवाजे से सुनने का प्रयास किया तो पता लगा कि उनकी बेटी की रोने की आवाज आ रही थी। वे यह आवाज सुनकर दंग रह गए और उसी वक़्त अन्दर जाकर अपनी बेटी को अपने साथ ले आए।”
“यहाँ आते ही एमी ने बताया कि उसका शादी का फैसला गलत था। राहुल ने सब पहले से ही योजना बना के रखी हुई थी कि कैसे उसको प्यार में फंसाना है और कैसे उसका इस्तेमाल उसकी दौलत हथियाने के लिए करना है। एमी ने यह भी बताया कि राहुल पहले से ही शादी शुदा था।”
“वह उसको प्रतिदिन मारता पीटता और तरह-तरह के जुल्म करता, ताकि एमी मजबूर होकर जॉर्ज के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाए और सारा धन और वहाँ की सारी प्रोपर्टी, उस राहुल के नाम कर दे।”
“जॉर्ज ने एमी को सांत्वना दिया कि अगले कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा, बस तुम कुछ दिन धैर्य रखो। दिन पर दिन चिंता से जॉर्ज की सेहत बिगड़ती जा रही थी। एमी अपने पिता जॉर्ज को इस तरह तनावग्रस्त नहीं देख नहीं पाई और अपने किये गए गलत फैसले पर बहुत पछतावा हुआ।”
“एमी ने एक दिन जॉर्ज एवरेस्ट की चोटी से नीचे खाई की तरफ छलांग लगा दिया। जब एमी के पिता को यह बात पता लगी तो उन्होंने अपनी लाइसेंसी बंदूक से खुद को उड़ा लिया।”
“कहते हैं कि कुछ दिनों बाद ही राहुल अपने ही घर में रहस्यमयी तरीके से मरा हुआ पाया गया। जब राहुल की लाश को देखा तो उसकी आँखें बाहर की तरफ निकली हुई थी और उसकी जीभ लटकी हुई थी। उसके शरीर से बहुत ही गन्दी बदबू आ रही थी।”
“कहते हैं कि एमी और जॉर्ज की आत्मा, आज भी यहाँ भटकती रहती है और इस जगह किसी न किसी को वे अक्सर नजर आ ही जाती है।”
“जॉर्ज के अच्छे कामों और उसके एक ज़िम्मेदार पिता होने की वजह से, आज इस चोटी का नाम ‘जॉर्ज एवरेस्ट’ है। सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि इन्हीं का नाम उस पर्वत की चोटी को दिया गया, जो पूरे विश्व में सबसे बड़ी है, जो आज पूरे विश्व में माउन्ट एवरेस्ट’ के नाम से प्रसिद्ध है।”
आनंद जी की बाते सुनकर हम दोनों के रोंगटे खड़े हो गए थे। आनंद जी की बातों से मुझे पता लगा कि उस सुनहरी रंग की घुँघराले बालों वाली लड़की का नाम एमी एवरेस्ट’ था।
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रात्रि का तीसरा पहर चल रहा था। घड़ी में देखा तो 3 बज रहे थे। आनंद जी ने बताया कि देहरादून जाने के लिए सबसे पहली बस 8 बजे सुबह जाती है। हमने बताया कि हमारा पिट्ठू बैग, रिवर स्टोन कॉटेज में ही पड़ा है। आनंद जी ने भरोसा दिलाया कि वे खुद सुबह वहाँ से बैग ले जाएंगे, उसकी चिन्ता न करो।
वादे के अनुसार आनन्दजी हमारा पिट्ठू बैग लेकर, हमें बस स्टैंड के पास मिले थे। हम दोनों ने हाथ जोड़कर उनको इस मदद के लिए शुक्रिया कहा और देहरादून जाने वाली बस में बैठ गए।
जैसे-जैसे हम कॉटेज से दूर जा रहे थे, मेरे शरीर में जान आ रही थी। मैं देहरादून आते वक्त यही सोच रहा था कि एमी ने मुझे ही क्यों चुना? क्या वह कुछ बताना चाहती थी? मुझे इशारा करके कुछ समझाना चाहती थी? आखिर उसकी अतृप्त आत्मा को मुक्ति कैसे मिलेगी?
यही सब सोचते-सोचते कब देहरादून आ गया, पता ही नहीं लगा। जब बस से हम उतरे तो सुबह के 10 बज रहे थे। सुबह हमेशा एक जैसी ही होती है। एक रस, एक वर्ण, एक रूप लिए। जीवन में बहुत कम ही सुबह ऐसी होती है, जो उम्र भर याद रहे।
मैंने विकास से कहा, “मैं वक़्त के इस कतरे को भूल जाना चाहता हूँ। यह मन पर बोझ जैसा है। बोझिल, कातर और अक्षम्य भी। शब्दों, विचारों और दलीलों से आप लाख भ्रम अपने इर्दगिर्द बना लें, मगर सच्चाई का बोझ आप महसूस करते ही हैं।”
मेरी बातों को सुनकर विकास बेचैन भी था और परेशान भी। मैंने विकास से गले लग कर विदाई ली और ऑटो में बैठ कर अपने घर की तरफ रवाना हो गया।
विकास भी देहरादून आईएसबीटी की तरफ निकल चुका था। वह भी इस बार अपने साथ बहुत सी यादें साथ लेकर जा रहा था।
इन यादों को इतनी जल्दी दिमाग से निकाल पाना हम दोनों के लिए फ़िलहाल कोई आसान काम बिलकुल नहीं होगा।
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