रात का वक्त !
दस बजे थे ।
ड्रैसिंग रूम में मौजूद दिव्या ने आईने में खुद को निहारा ।
उसे लगा----उसमें वह सबकुछ है जो राजदान का ध्यान हर परेशानी से खींचकर खुद में समा लेगा । गोल चेहरा ! उस पर कसी हुई त्वचा! त्वचा का रंग गुलाब की पंखुड़ी जैसा था | नुकीली नाक ! बड़ी-बड़ी आंखें । सीप के ढक्कन जैसी पलकें ! पतले होंठ और चौड़ा मस्तक ! मस्तक पर सुर्ख बिंदी! अपने लम्बे, घने और तांबई कलर के बालों को उसने माथे के चारों तरफ से समेटकर सिर के पीछे सख्ती से बांध रखा था । करीब सौ बालों की एक लट फेस पर लटकी हुई थी । उसका सिरा दिव्या के कपोल पर बनने वाले छोटे से गड्ढे पर अठखेलियां कर रहा था । यह गड्ढा तब बनता था जब वह हौले से मुस्कुराती थी । यही हेयर स्टाइल पसंद थी राजदान को । खासतौर पर कपोल का गड्ढा और उससे अठखेलियां करती लट! दिव्या की पुतलियों का रंग कत्थई था । यह भी राजदान को बहुत पसंद था । खासतौर पर कत्थई पुतलियों की चमक। ।
कोई खास मेकअप नहीं किया था उसने !
राजदान हमेशा कहा करता था- 'तुम मुझे सबसे अच्छी बगैर मेकअप के लगती हो ।... तुम्हारे होंठ ऐसे हैं कि
दुनिया की किसी फैक्ट्री में इस कलर की लिपस्टिक नहीं बन सकती। एक रस सा छलकता रहता है इनसे । लिपस्टिक लगाते ही रस उसके पीछे छुप जाता है।'
राजदान के शब्द याद करके वह बरबस ही मुस्करा उठी ।
कपोल पर भंवर बना ।
सिर को हौले से हिलाया उसने ! लट ने अठखेली शुरू कर दी।
आईने के जरिए अब उसकी अपनी नजरें चेहरे से हटकर जिस्म पर फिसलीं । सुराहीदार गर्दन । इतनी उजली, इतनी सफेद कि त्वचा के भीतर से गुजरने वाली नीली-नीली नसें तक साफ नजर आती थीं। राजदान कहा करता था - - - - 'क्या तुम जानती हो दिव्या तुम मेरी गुड़िया हो । कांच की गुड़िया | जब तुम पानी पीती हो तो कंठ से गुजरता वह मुझे साफ नजर आता है।'
राजदान के शब्दों को याद करके वह खिलखिला उठी और उसी खिलखिलाहट के साथ नजर अपने यौवन शिखरों आ ठहरी। उन पर ---- जो इस वक्त काले रंग की ब्रेजरी में कसे हुए थे | यूं ---- जैसे दूधिया रंग के दो कबूतर अपनी के चोंच कंठ में छुपाये सो रहे हों । ब्रेजरी से उनका ऊपरी भाग मानो उफन- उफनकर निकल पड़ना चाहता था। नजर ब्रेजरी की दोनों नोकों पर अटक गई। उन पर जिन्हें देखकर राजदान अक्सर कह उठता था-- 'दिव्या, ये वो पर्वत शिखर हैं जिन पर मैं रोज चढ़ता हूं, लेकिन उतरते ही पुनः चढ़ने के लिए लालायित हो उठता हूं।' एक बार फिर मुस्करा उठी दिव्या । नजर और नीचे फिसली । पेट, नाभि और पेन्टी पर जा ठहरी । वह भी काली थी । बहुत छोटी-सी | लेडीज रुमाल की तरह । ब्रेजरी के साथ की ही थी वह । ऐसी कि----उसकी लम्बी और केले के तने जैसी सुडौल और चिकनी टांगें जोड़ों तक अनावृत नजर आ रही थीं। बस----ये दो ही वस्त्र थे उसके जिस्म पर ।
तीसरे वस्त्र के रूप में उसने राजदान का पसंदीदा गाऊन पहन लिया ।
बगैर बाजू वाला, सफेद रंग का गाऊन । इतना झीना कि ब्रेजरी और पेन्टी ही नहीं, जिस्म का हर कटाव ---- हर मोड़ अब भी साफ नजर आ रहा था । गाऊन के चंद बटन उसने लापरवाही से बंद किये । गिरेबान वाला खुला ही रहने दिया ।
अब उसने ड्रेसिंग टेबल पर रखी परफ्यूम की अनेक शीशियों में से एक शीशी उठाई । उसे अपने दायें हाथ में लिया। बायीं कलाई अंगड़ाई लेने के से अंदाज में ऊपर उठाई और 'केश' विहीन बगल में 'स्प्रे' किया ।
फिर ऐसा ही स्प्रे दायीं बगल । वक्षस्थल और पेन्टी के भीतर भी किया ।
पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद वह बैडरूम में पहुंची परन्तु बैड पर राजदान को न पाकर 'धक्का' सा लगा। उसकी तलाश में दिव्या ने इधर-उधर नजर घुमाई । कांच के स्लाइडिंग डोर के उस पार बाल्कनी में पाया उसे ।
झीने पर्दे और कांच के पार एक साये सा नजर आ रहा था वह ।
दिव्या उस तरफ बढ़ी ।
स्लाइडिंग डोर पर पहुंचकर उसने देखा ---- नाइट गाऊन पहने वह आराम चेयर पर बैठा झूल रहा था । रह-रहकर सिगार में कश लगा लेता । उसके तन पर वह नाइट गाउन था जिस पर स्केल की चौड़ाई के बराबर काली - सफेद लम्बी पट्टियां थीं। उसकी पीठ स्लाइडिंग डोर की तरफ थी। चेहरा ऊपर, जहां बाल्कनी के नीचे राजदान विला का दो हजार गज में फैला किचन लॉन था । लॉन के बीचो-बीच एक फाऊन्टेन था। फाऊन्टेन के चारों तरफ थे कृत्रिम पहाड़ । उन पहाड़ों के बीच-बीच से पानी की तेज धाराएं निकलकर बह रही थीं। रोशनियां उगलते रंग-बिरंगे बल्ब पत्थरों के बीच इस तरह छुपाकर लगाये गये थे कि बल्ब नहीं, यहां-वहां उनकी रोशनी नजर आये ।
मुख्य फाऊन्टेन से निकलने वाली पानी की मोटी धार जमीन से बीस फुट ऊपर उठकर वापस गिरती जाने कितने रंगों के बल्बों की रोशनी में साफ नजर आ रही थी। एक ही गति से बहते पानी से ऐसा संगीत निकल रहा था मानो सितार के तारों को रह-रहकर साधे हुए हाथ छेड़ रहे हों ।
यह सब राजदान ने इमारत के पीछे अपने बैडरूम के सामने बनवाया ही इसलिए था क्योंकि ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और उनके बीच बहती जलधाराओं का संगीत उसे हमेशा अपनी तरफ खींचा करता था | दिव्या ने सोचा ---- अपनी 'प्रॉब्लम' को शायद वह अपने उस पसंदीदा नजारे में खो देना चाहता है । परन्तु जल्द ही उसका भ्रम टूट गया ।
तब, जब वह दबे पांव निरंतर झूल रही आराम कुर्सी के नजदीक पहुंची। वह कुर्सी के पीछे थी । देखा -राजदान का सिर कुर्सी की पुश्त पर लुढ़का सा पड़ा था ।
आंखें बंद थीं ।
अर्थात्... किसी नजारे को नहीं देख रहा था वह
दिव्या को लगा- ‘उलझन' शायद कुछ ज्यादा ही गहरी है।
वर्ना... ऐसा कहां था राजदान ? बाहर से आकर, दो-चार दिन बाद भी वह उसे तैयार होते वक्त ड्रेसिंग रूम में ही पकड़ लेता था । वह कहती ही रह जाती थी----‘अरे! अरे! क्या कर रहे हो, तैयार तो हो लेने दो मुझे।' वह उसे गोद में उठाता | बैडरूम में आता । बैड पर पटकता और उस पर छा जाता ।
कभी-कभी तो बाथरूम में ही घुस आता ।
तब, जब वह नहा रही होती ।
शॉवर के नीचे ।
निर्वस्त्र!
वहीं, उसी अवस्था में दबोच लेता राजदान!
उसका हर विरोध, जो असल में सिर्फ दिखावे का विरोध होता था, धरा रह जाता ---- बाथरूम का फर्श डबलबैड में तब्दील हो जाता । शॉवर सावन की फुहारों में ।
और दिव्या भीगती चली जाती । भीतर तक ।
ऐसा राजदान, बीस दिन बाद लौटने पर यूं बैठा पाया जाये तो जाहिर था ---- प्रॉब्लम बड़ी है। उस प्रॉब्लम को जानने के लिए दिव्या कुछ और बेचैन हो उठी । कुर्सी के पीछे से ही उसने अपने दोनों हाथ बढ़ाये और राजदान की छाती पर रख दिए ।
“क-कौन?” वह हड़बड़ाकर उछल पड़ा । मुंह से निकलने वाली आवाज ऐसी थी जैसे 'डर' गया हो । दिव्या को तुरंत ही सीधी हो जाना पड़ा । आराम कुर्सी के एक तरफ राजदान था, दूसरी तरफ दिव्या। उसे देखते ही राजदान ने कहा----“अरे, तुम हो? मैं तो डर ही गया था ।”
“डर गये थे ?... क्यों?”
"मैंने समझा - पता नहीं कौन मेरा गला दबाना चाहता है ? "
“मैं गला दबा रही थी तुम्हारा या.. खैर छोड़ो, आदमी जब भी डरता है ---- बाहर से नहीं, अपने अंदर से डरता है । शायद तुम कल्पनाएं ही कुछ उल्टी- सीधी कर रहे थे । ”
“हां। शायद मैं उसके बारे में सोच रहा था जो मुझे कत्ल करना चाहता है। "
“चलो । उसके बारे में सोचना शुरू तो किया तुमने ।” कहने के साथ दिव्या झूलती कुर्सी की बगल से गुजरकर उसके नजदीक पहुंची----“दिन में तो तुम्हारे व्यवहार से ऐसा लग रहा था जैसे इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। मगर... ।” बात उसने जानबूझकर अधूरी छोड़ दी।
राजदान ने सिगार में कश लगाने के साथ कहा- “मगर?”
“उसके बारे में सोचने का समय तुमने गलत चुना है।"
“क्यों?”
“ध्यान से देखो मेरी तरफ ।”
“देख रहा हूं।” एक बार फिर उसने सिगार में कश लगाया।
“खाक देख रहे हो!” दिव्या थोड़ा झुंझला गई --- “यूं लग रहा है जैसे शून्य को निहार रहे हो। मैं शून्य नहीं हूं हुजूर, तुम्हारी पत्नी हूं।”
“ मैंने कब कहा तुम शून्य हो ?”
“शून्य न समझ रहे होते तो कम से कम कपड़ों पर तो गौर करते ही। आपके पसंद वाले कपड़े पहने हैं मैंने ।”
“हां | पहने तो हैं । "
“फिर वही ।... जैसे पत्थर की शिला बोल रही हो। मैं नहाते वक्त बाथरूम में तुम्हारा इंतजार कर रही थी । फिर ड्रेसिंग रूम में किया। वहां भी न पहुंचे तो बैडरूम में आई। देखा ---- जनाब वहां भी नहीं हैं। यहां आई तो... पता नहीं कहां खोये हो। कहते क्यों नहीं राज, वह सबकुछ कहते क्यों नहीं जो मुझे इस लिबास में देखकर तुम हमेशा कहते हो । कहो न राज---- -कहो न, वह सब सुनने के लिए मेरे कान तरस रहे हैं।”
राजदान ने इस तरह कहा जैसे बुत बोला हो - -“इस लिबास में तुम्हें देखकर मेरा जी चाहता है ---- तुम्हें कच्चा चबा जाऊं ।”
“फिर वही राज! फिर वही! यूं बोल रहे हो जैसे पत्थर का स्टेच्यू बोल रहा हो । कितने खोखले लग रहे हैं ये शब्द? सामने वाले को हमारे शब्द नहीं, उनमें डाली गई भावनाएं प्रभावित करती हैं। मैं जानती हूं, मुझसे बेहतर कौन जान सकता है तुम्हारे ये शब्द मुझे कितना आत्मविभोर कर दिया करते हैं, मगर, आज.... आज तुम्हारे मुंह से केवल शब्द निकल रहे हैं। वे भावनाएं, वे जज्बात गायब हैं जो मुझे भीतर तक रोमांचित कर देते थे ।”
राजदान ने निर्विकार से भाव से कहा ---- “क्या कर सकता हूं मैं |”
“जाओ !.... मैं तुमसे बात नहीं करती।" रूठने वाले अंदाज में कहने के साथ वह तेजी से मुड़ी और स्लाइडिंग डोर पार करती बैडरूम में पहुंच गयी। इस सारे रास्ते वह अपेक्षा करती रही कि पीछे से राजदान की आवाज आयेगी । वह उसे रुकने के लिए कहेगा । बल्कि उससे ज्यादा फुर्ती के साथ लपककर कलाई पकड़ लेगा उसकी। एक झटका देगा और वह उसके अंग में जा समायेगी ।
मगर, ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ ।
वह 'धप्प' से औंधे मुंह बैड पर जा गिरी ।
डनलप के गद्दे ने उसे गद्दे ने उसे कुछ देर झुलाया और शांत पड़ गया । वह पड़ी रही । सिसकती रही । हर पल वह उम्मीद करती रही अब एक हाथ आयेगा जो उसके कंधे और पीठ को सहलाना शुरू कर देगा ।
अब आयेगा कि... अब आयेगा ।
लेकिन वह नहीं आया।
निराशा में डूबी दिव्या कुछ देर सिसकती रही । समय गुजरता रहा । फिर उसे राजदान के इस व्यवहार पर गुस्सा आने लगा। जी चाहा---- अगर वह उसे इतनी उपेक्षित कर रहा है तो वह भी जीवन भर उससे बात नहीं करेगी। कुछ देर अपने इसी इरादे पर दृढ़ रही मगर, कितनी देर ? कितनी देर दृढ़ रह सकती थी वह ? जल्द ही विवेक ने काम करना शुरू किया ----वर्तमान हालात में उसका यह फैसला उचित नहीं है। ऐसा कहां है राजदान जो सामान्य अवस्था में उसे उपेक्षित करे | जरूर किसी गहरी समस्या के भंवर में फंसा है वह । और इन हालात में उसे यूं 'ठुनककर' नहीं पड़ जाना चाहिए बल्कि ‘सहारा’ बनना चाहिए उसका । वह उठी । पुनः बाल्कनी में पहुंची। राजदान तब भी पूर्व की भांति आराम चेयर पर पड़ा झूल रहा था । बस इस वक्त सिगार नहीं था अंगुलियों के बीच। उसने धीमे से आवाज दी ---- “राज!”
“हूं।” उसने आंखें खोलीं ।
दिव्या ने और आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ा। बोली----“आओ!”
“कहां?”
“अंदर ! बहुत रात हो गयी है । अब हमें सो जाना चाहिए।”
“तुम सो जाओ। मुझे नींद नहीं आ रही ।”
“कैसे आयेगी नींद ? इंजेक्शन खाली जो नहीं हुआ है।” .. ' इंजेक्शन खाली होना' उनके बीच का एक कोड था जिसे सुनते ही राजदान के होठों पर शरारत से लबरेज मुस्कान दौड़ जानी चाहिए थी मगर दिव्या ने देखा----राजदान के चेहरे पर मौजूद भावों में बाल बराबर चेंज नहीं आया था। अंदर ही अंदर झुंझला उठी वह । एकबार तो जी चाहा---- राजदान का हाथ झटककर पुनः वहां से चली जाये । मगर फिर उसने खुद को संभाला, कलाई को खींचती सी बोली- -“आओ न !”
वह उठा । जैसे शव उठा हो ।
दिव्या ने अपना जिस्म उसके जिस्म से भिड़ाया । कोशिश अपनी तपिश से उसे पिघलाना थी । उसे उसी पोजीशन में लिए स्लाइडिंग डोर की तरफ बढ़ी |
राजदान यूं चल रहा था जैसे नींद में चल रहा हो ।
वे बैडरूम में पहुंचे । बैड के नजदीक । दिव्या ने ध्यान से उसकी आंखों में देखा । कोई भी, किसी भी किस्म का भाव नहीं था उनमें। एक बार को तो डर गयी दिव्या | झुरझुरी सी दौड़ गयी सारे जिस्म में । जब हम सुनसान पड़ी आंखों में झांकते हैं तो ऐसा ही होता है। वे आंखें दिव्या को मुर्दे की सी आंखें लगी थीं। जल्द ही एक बार फिर उसने खुद को संभाला। राजदान को झंझोड़ा ---- “राज!”
“आं ।” वह चौंका । जैसे अभी-अभी वर्तमान में लौटा हो।
“कहां खोये हो तुम ?”
“क-कहीं नहीं।” कहने के साथ उसने खुद को सामान्य दर्शाने की कोशिश में नाइट गाऊन की जेब में हाथ डाला। सिगार की डिब्बी और लाइटर निकाला । डिब्बी से सिगार निकालकर होठों से लगाने ही वाला था कि दिव्या ने सिगार -“नहीं ! और नहीं पियोगे तुम ।” । छीनते हुए कहा।
“क्यों?” उसने एक मासूम बच्चे की तरह पूछा जिसे चॉकलेट के लिए मना कर दिया गया हो ।
“क्योंकि ये वक्त सिगार पीने का नहीं, मेरी तरफ ध्यान देने का है।” प्यार से कहने के साथ दिव्या ने सिगार की डिब्बी और लाइटर उसके हाथ से ले लिया । उन्हें सेन्टर टेबल की तरफ उछालती बोली --- “मन तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी करता है।"
“काहे का ?”
“उसी का, जो तुम बाहर से आते ही बाथरूम में करते थे ?” कहने के साथ वह राजदान के अत्यन्त निकट आ गई । इतनी ज्यादा कि---- उसके उरोजों की चोटियां राजदान के सीने में चुभने लगें। जब तब भी राजदान ने उसे बांहों में नहीं भरा तो खुद उसी ने बाहों में भर लिया उसे । उसे 'उरोजों' की गुदगुदाहट का एहसास कराने की कोशिश करती बोली- ---- " बात क्या है जालिम ? बीस दिन बाद लौटे हो और करेंट ही नहीं। कनाडा में किसी और ने इंजेक्शन खाली कर दिया क्या?”
“दिव्या प्लीज !” वह उसे अपने से दूर हटाने की कोशिश करता बोला ।
दिव्या ने एक ही झटके से उसके गाऊन की डोरी खोल दी। उसकी छाती पर मौजूद बालों में अपनी पतली-पतली अंगुलियां घुमाती बोली----“लगता है आज वो करना पड़ेगा जो शायद किसी पत्नी ने पति के साथ नहीं किया।”
“म-मतलब?”
“रेप |” दिव्या ने कहा- -“बलात्कार ।”
“दिव्या... छोड़ो न ।”
“क्यों ----जब मैं यही कहती हूं तो क्या तुम छोड़ देते हो ?” कहने के साथ उसने न सिर्फ राजदान को बैड पर धकेल दिया बल्कि स्वयं भी उसके ऊपर जा गिरी। इस वक्त उसने अपने जिस्म का पोर-पोर राजदान के जिस्म पर डाल दिया था । राजदान हाथों से उसे हटाने की कोशिश कर रहा था । कुछ कहना चाहता था कि दिव्या ने अपने सुलगते होंठ उसके सर्द होठों पर रख दिए । कसमसाता सा रह गया राजदान | दिव्या के हाथ कामुक अंदाज में राजदान के समूचे जिस्म पर रेंग रहे थे । वह सचमुच इस तरह कसमसा रहा था जैसे दिव्या रेप करने की कोशिश कर रही हो । किसी तरह अपने होठों को आजाद करके उसने कहा ---- “हटो न दिव्या, प्लीज ---- मूड नहीं है।”
“वही तो बना रही हूं।” कहने के साथ उसने हाथ राजदान के नाजुक अंग के नजदीक पहुंचा दिया ।
और... राजदान ने तेज झटका दिया उसे ।
एक ही झटके में वह डबलबैड के दूसरे कोने में जा गिरी। राजदान उठा । इस बार दिव्या भी बलखाई नागिन की तरह उठी। उसके धैर्य के सभी बांध टूट चुके थे । चीख पड़ी----“हो क्या गया है राज ? हो क्या गया है तुम्हें ? "
“जानना चाहती हो क्या हो गया है मुझे ? जानना चाहती हो?” उससे भी कहीं ज्यादा जोर से चीखा वह । चेहरा लाल सुर्ख हो गया था। आंखें अंगारे बन गयीं । जुनूनी अवस्था में उसने गाऊन की जेब में हाथ डाला । एक कागज निकालकर उसकी तरफ उछालता चीखा ---- “लो ! पढ़ो इसे ।... सब पता लग जायेगा मुझे क्या हुआ है !"
'तह' हुआ कागज दिव्या के चेहरे से टकराने के बाद बैड पर गिर गया था ।
दिव्या भभकते हुए राजदान को देखती रह गई । जो फटने को तैयार ज्वालामुखी सा नजर आ रहा था । दिव्या ने एक नजर कागज पर डाली । पुनः राजदान की तरफ देखा। पूछा---“क्या है ये?”
“पढ़ो इसे!” वह चीखा---- “पढ़ो ! सबकुछ पता लग जायेगा । या मेरे ही मुंह से कहलवाओगी?”
दिव्या को लगा, वह प्रॉब्लम शायद इसी कागज में कैद है जिसने उसे इतना ज्यादा डिस्टर्ब कर रखा है। उसने कागज की तरफ हाथ बढ़ाया | महसूस किया ---- हाथ बुरी तरह कांप रहा है। कंपन को रोकने की भरपूर चेष्टा की उसने मगर कामयाब न हो सकी । उस वक्त पर कांपते हाथों से कागज की तहें खोल रही थी जब राजदान खुद को नियंत्रित करने के प्रयास में सेन्टर टेबल के नजदीक पहुंचा। कालीन पर पड़ा सिगार और सेन्टर टेबल पर पड़ा लाइटर उठाया ।
उस वक्त दिव्या कागज को खोलने के बाद ध्यान से पढ़ रही थी । जब कांपते हाथ को स्थिर करने के प्रयास में राजदान ने लाइटर 'ऑन' किया । लौ के साथ हल्के से संगीत की आवाज पूरे कमरे में गूंज उठी। उसने दांतों में फंसे सिगार का दूसरा कोना लौ पररखा और उधर, मारे हैरत के दिव्या की आंखें फट पड़ी थीं ।
जैसे पलकों की कटोरियों से बाहर कूद पड़ना चाहती हों।
“नहीं... नहीं!” दिव्या हलक फाड़कर चीख पड़ी ---- "ये नहीं हो सकता !”
जरा भी फर्क नहीं पड़ा राजदान पर । सिगार सुलगाने के बाद लाइटर ऑफ किया। एक कश लेता हुआ उसकी तरफ़ घूमा और शान्त स्वर में बोला ---- “ये हो चुका है।”
“नहीं! नहीं! नहीं!” चीखने के साथ दिव्या उसी कागज से अपना चेहरा ढांपकर दहाड़ें मार-मारकर रोने लगी । राजदान उसकी तरफ बढ़ा | अब उसके कदमों में कोई लड़खड़ाहट नहीं थी ।
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