प्रेम ही स्याही, प्रेम संदेशा
बहुत लम्बे उपवास के बाद व्रती को खाने पर ताबड़तोड़ नहीं टूट पड़ना चाहिये, बल्कि पहले हल्का फलाहार लेना चाहिये और उसके बाद पूड़ी, छोले इत्यादि खाना चाहिये। ढाई साल के लम्बे इंतज़ार के बाद मुझे पलाश मिल रहा था। वो जो कुछ भी इशारों में, अपनी हरकतों और बातों से कह रहा था, मेरे लिये फलाहार समान ही था। व्रत तोड़ने को तो ठीक, लेकिन बिना पूड़ी छोले मेरी भूख कैसे मिटे? मैं उसके इन इशारों से ही कैसे जता दूँ कि सब समझ गयी मैं? यह तो कोई मुकम्मल इज़हार नहीं।
मैं अक्टूबर के अंत में वापस लौट गयी पाँचवें सेमेस्टर की परीक्षा देने और मैं यहीं से मुंबई जाने वाली थी। ऐसा लगभग तय था कि अब हमारी अगली मुलाक़ात अगले साल जून में होनी थी। जब हम दोनों अपनी ट्रेनिंग और जॉब के बीच के ब्रेक में लखनऊ जाते। इस बीच मेल, चैट और फ़ोन पर बातें होती रहीं। अब पलाश मेल में “मेरी बेस्ट फ्रेंड” की जगह “मेरी हर्षा” लिखने लगा था।
एक दिन मैंने उसे छेड़ दिया- ‘तुम ऐसे क्यूँ लिखते हो? तुमको पता है ना “मेरी हाँ” टेम्परेरी है?’
इस पर उसने कहा- ‘हाँ। पता है, लेकिन मेरी तरफ़ से तो परमानेंट है। इसलिये लिखता हूँ। तुम इग्नोर कर दिया करो।’
धत्त! तेरे की, यह पैंतरा भी बेकार गया मेरा और मीठे इशारों के ऐसे ही हल्के-फुल्के फलों पर मैंने पाँचवाँ सेमेस्टर गुज़ारा और फिर मैं जनवरी में मुंबई चली गयी। पलाश दिल्ली में था और अब हम ऑफिस के आईडी से एक दूसरे को मेल करते थे।
एक दिन पलाश की खूब लम्बी मेल आयी। जिसमें छोले पूड़ी पैक करके भेजे थे उसने। लिखा था- ‘तुमको याद है लखनऊ की ठण्ड? जब मैं तुम्हारे यहाँ आता था शाम को, तब एक दिन तुमने मेरा हाथ छूकर कहा था- 'कितने बर्फीले हो रहे हैं तुम्हारे हाथ!' और फिर तुमने अपनी छोटी, गरम हथेलियों से मेरे हाथ रगड़ने शुरू कर दिये थे। कितनी प्युरिटी थी तुम्हारी दोस्ती में, लेकिन मैं तो तुम पर अपना अधिकार चाहने लगा था। लखनऊ में, प्रतीक के साथ तुम रोज़ बाइक पर कम्प्यूटर कोचिंग जाती हो, सुनकर बहुत ग़ुस्सा आया था मुझे। कोचिंग का क़िस्सा सुनकर लगा कितनी वल्नरेबल हो तुम।
तुम इंदौर चली गयी और मेरी चिंता बढ़ती गयी। तुम्हारे कॉलेज के लड़के अति थे और तुम्हारा कॉलेज भी बरबाद। समझ नहीं आता था कि वहाँ हो क्या रहा है? पहला सेमेस्टर भी पूरा नहीं हुआ था कि तुमने फ़ोन करके बताया, किसी की बाइक से गिर कर कितनी चोट लग गयी है तुम्हें। गुस्से से नहीं, दर्द और बेबसी से चिल्लाया था मैं। तुम इतने दर्द में थी और मैं कुछ भी नहीं कर सकता था। तुम्हें रोज़ हॉस्पिटल जाना होता था और मैं तुम्हें यह मदद भी नहीं दे सकता था। किस काम था मेरा होना, जो मैं तुम्हारे किसी भी काम ना आ सकूँ। हमारी दूरियों का सच और अफ़सोस था मेरे गुस्से में।
और मेरा दिमाग़ इस बात पर भी ख़राब हो गया था कि कौन है यह लड़का? इतनी दोस्ती कि तुमसे मिलने शाम को हॉस्टल भी आता है? तुम उसकी बाइक पर घूमती भी हो। वो तुम्हारे साथ ‘ब्रेक और गियर’ की लिबर्टी तक लेने का अधिकार रखता है। मुझे लगने लगा जिस डोर से तुम मुझसे बँधी थी वो टूट गयी है और तुम छूट गई हो मेरे हाथों से। मेरी जान, उसके बाद मैं तुम्हारे मेलबॉक्स में बंद एक मेल बनकर नहीं रहना चाहता था।
तुम मेल करती रही, मैं पढ़ता रहा। एक-एक मेल कई बार पढ़ी। तुम्हारे फ़ोन का इंतज़ार भी करता था। कभी तो लगता था कि मैं एक बेबस, लाचार बच्चा हूँ जिसे तुम घर में अकेले छोड़कर, दरवाज़े पर ताला लगाकर कहीं चली गयी हो। मैं आँखों में आँसू भरे खिड़की पर बैठा, तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ। कब आओगी? प्लीज़ आ जाओ। एक दिन मेरे दोस्त ने कहा, वो तुम्हें अब भी मेल करती है तो उम्मीद खतम नहीं हुई। तब मैंने तुम्हें मेल की और मेरी प्यारी हर्षा उसके बदले तुमने मुझे खूब लम्बी मेल की। उस दिन तुम वापस मिल गयी थी मुझे।
एक दिन मेरा मन बहुत ज़िद कर रहा था, तुम्हें ‘आय लव यू’ कहने को और मैंने बहुत रिस्क लेकर तुमसे कहा भी। लेकिन तुमने वो नहीं सुना, सवाल सुना और कितना लम्बा ख़त लिखा जवाब में। जानती हो, डर के कारण मैंने वो ख़त दो दिन तक पढ़ा ही नहीं। बार-बार उसे छूता, सहलाता, सूंघता और टुकुर-टुकुर देखता, लेकिन खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वो ख़त मैंने इलाहाबाद वापसी में ट्रेन में पहली बार बहुत हिम्मत करके खोला और एक ही बैठक में तीन-चार बार पढ़ गया। उसके बाद हॉस्टल में भी बहुत बार पढ़ा।
उस ख़त में एक अलग ही बात थी। वो कागज तुम्हारी कॉपी का था। तुमने उसे छुआ था। अपना एक हाथ उस पर टिका कर, तुम उस पर तब तक झुकी रही होगी जब तक पूरा नहीं लिख लिया होगा। उसमें तुम्हारी हैन्डराइटिंग थी। किसी भी मेल में वो बात कभी हो सकती थी भला? चिट्ठी पढ़कर मैं सोच में पड़ गया- सिर्फ़ दोस्ती? लेकिन मैं तो… अब क्या करूँ? मुझे तो तुम चाहिये थी, वो भी हमेशा के लिये।
रोज़ रात हॉस्टल में, मैं पंखे को ताकता और लगता कि पंखा नहीं किसी कुम्हार का घूमता हुआ चाक है, जिस पर मैं अपने सपनों की गीली मिट्टी से आने वाले कल का एक सुन्दर साँचा बना रहा हूँ। जब अपने प्रपोज़ल पर तुम्हारी हाँ सोचता, तो साँचा एक सुडौल आकार ले लेता था। और जब तुम्हारी ना का ख़याल आता था तो साँचा भरभराकर बिखर जाता था। बिस्तर पर लेटे हुए, अपने कॉलेज में चलते-टहलते हुए मैं तुमको प्रपोज़ करने के तरीके सोचता रहता था। एक बात तो पक्का समझ गया था कि दोस्त बनकर दोस्ती में कुछ कहूँगा तो तुम ना नहीं करोगी। देखो, टेम्परेरी ही सही मेरी दोस्त ने मेरे प्रपोज़ल को “हाँ” कर दी। इस “हाँ” को कसकर पकड़े बैठा हूँ, यह जहाँ तक साथ दे। क्या पता, किसी दिन तुम भी मुझे ‘आय लव यू’ कह दो!’
आय लव यू
उस मेल को पढ़कर, दिन भर मेरा मन बहुत विचलित सा रहा। लग रहा था किसी तरह अतीत में जाकर सब ठीक कर दूँ। झटपट दरवाज़ा खोल उस बच्चे को ग़ुब्बारे, जलेबियाँ और कितने ही तोहफ़ों से ख़ुश कर दूँ। उसे गोद में बैठा कर दुलार दूँ। उसके आँसू पोंछ दूँ। मैंने अनजाने में उसे इतना दुखी किया इसका अपराधबोध हो रहा था। मन कर रहा था कि तुरंत उसके पास पहुँच जाऊँ और माफ़ी माँगू। अब तो यह लिखने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं भी उससे प्यार करती हूँ। मेरी प्युरिटी के इतने गुणगान किए उसने। अब कैसे कहूँ कि सब धोखा था?
क्या उसे कभी शक नहीं हुआ होगा? क्या सचमुच ही वो इतना अनाड़ी है? शायद नहीं। कोई तो छिपा हुआ संशय होगा उसके दिल में, जिसके भरोसे शादी के लिये पूछ लिया उसने? अगली रात लगभग 10 बजे मेरे पास कॉल आयी। मैं फ्लैट से उतर कर नीचे आयी और टहलते हुए पलाश से बातें करने लगी।
बातों के दौरान उसने पूछा- ‘तुमने मेल में कुछ लिखा नहीं अपने बारे में?’
मैंने झूठ बोल दिया- ‘मेरे पास ऐसे कोई राज़ थे ही नहीं खोलने को। मैं क्या लिखती?’
ईमानदार इश्क़ की बेईमानी थी यह, या पलाश से सच छुपा लेने की आदत की वजह से ऐसा हुआ, या फिर जिस ख़ूबसूरती और मुलायमियत से पलाश ने अपने दिल का सच बयां किया था, उसके बाद ख़ुद से शिक़ायत हो गयी थी मुझे? क्यूँकि मैं तैयार नहीं थी प्यार की मीठी सी ख़लिश को उसी शिद्दत और कशिश से पेश करने के लिये। पलाश इतना दिलकश है, उसकी बातें इतनी सरस और उसका अंदाज़ सबसे निराला! उसकी बातों का जवाब देने के लिये मेरे सच को भी तो उस जैसा सजीला और अंदाज़ को उस जैसा ही मधुर होना चाहिये था, ना? और पलाश जैसा होना मुमकिन कब है? वो तो अपने जैसा बस एक ही है। उसकी फ़ोटो और उसका दर्पण तक उसकी पूरी तरह नकल नहीं कर पाते, फिर मुझमें ऐसी जुर्रत की इच्छा क्यूँ हो आई! खैर...
फिर कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और उसने बाय किया। तुरंत ही बोला- ‘अरे, एक बात तो कहनी रह ही गयी।’
मैंने कहा- ‘कहो।’
उसने बड़े प्यार से बहकती हुई आवाज़ में कहा- ‘आय लव यू।’
उसने जब यह कहा तब मुझे ऐसा लगा था कि मैं ऊन की स्वेटर हूँ, जो लाइन दर लाइन उधड़कर उसके तन से लिपटती जा रही हूँ। उस एक पल में, मैं मुम्बई से दिल्ली पहुँच गयी थी, उसके बहुत ही क़रीब। अभी उसके तन को महसूस कर ही रही थी कि वो बेख़बर फ़रमाइश कर बैठा- ‘अब तुम कहो।’
मैं खट से वापस लड़की रूप में अपनी जगह लौट आयी। पहली मुलाक़ात इतनी अचानक से ख़त्म हो जाये, सुकून पर यूँ झपट्टा मार दे कोई, यह कुदरत की बेरहम सज़ा नहीं तो और क्या है? शायद अपने प्यार को अपने ही प्रेमी से छिपाने की सज़ा। मेरे गुनाह की सज़ा के लिये वक़्त ने मौका बहुत सोच समझकर चुना था। कितनी तेज़ घुमाई थी वक़्त ने वह भीगी, पतली बेंत "सट्ट से"। उफ़्फ़! वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर! इतना?
मैंने कसक को दिल में गहरे उतर जाने दिया और फिर कहा– ‘मैं झूठ नहीं बोलती।’
उसने मचलते हुए ज़िद की- ‘सच झूठ सोचे बिना, मेरे लिये कह दो।’
अपना वास्ता दे दिया। उसके लिये तो क्या ना कर जाऊँ और फिर यह आज़माइश तो बड़ी हल्की थी। तो मैंने एक्सप्रेस रेलगाड़ी की रफ़्तार से कह दिया- ‘अलवयु।’
शब्द एक दूसरे में ऐसे घुल गए जैसे पानी में रंग।
उसने हंसकर इल्तिजा की- ‘फिर से कहो।’
हर बार जब वो कहता ‘फिर से’ और मैं दोबारा कहती, तो मुझे ऐसा लगता मैं किसी बर्फीले पानी के टैंक में हूँ और उसमें पानी का लेवल बढ़ता ही जा रहा है। ठण्ड का बहुत तीखा और कटीला एहसास हो रहा था, लेकिन चेहरा भट्टी सा तप रहा था। भट्टी की गरमी और बर्फ़ की ठण्ड की तासीर एक जैसी होती है यह मैंने उस रात जाना। नख से शिख तक जलती हुई आग हो गयी थी मैं। इकरारनामा पढ़ते-पढ़ते अब पानी मेरी ठुड्डी तक आ पहुँचा था। एक बार भी और बोलना मतलब डूब जाना।
पलाश इससे बेख़बर कहे जा रहा था- ‘फिर से।’ इस बार मुझे लग रहा था कि अब बस एक आख़िरी साँस ही बची है। मरते समय भी सच बोलने से चूक गयी तो कैसी तोहमत लगेगी मेरे इश्क़ पर? नहीं। यह नहीं होने दूँगी मैं। मैंने अपनी सारी बेचैनी, सारी तड़प और सारी प्यास को मिलाजुला कर एक ख़ूबसूरत सा गिफ़्टरैप बनाया और अपने प्यार के इज़हार को तोहफ़े की तरह उसमें लपेट कर पलाश को सौंप दिया।
रोम-रोम से फूटी एक अलसायी सी नशीली आवाज़ ‘आय लव यू।’ और यह कहते ही मैं यूँ मर गयी थी जैसे उससे बस यही कहने के लिये अब तक जी रही थी। पानी मेरे सिर के ऊपर पहुँच गया था। शान्ति छा गयी थी। सब कुछ ऐसे निपट गया जैसे प्राणी को मोक्ष मिल गया हो। जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति मिल गयी हो।
तभी पलाश ने धड़कता हुआ ‘आय लव यू टू’ का बीज मन की जमीन पर बो दिया। यह सुनकर मेरी धड़कन फिर से जग गयी। मेरी साँसे फिर से चलने लगीं। नहीं, मुझे मोक्ष नहीं, उसकी मोहब्बत की कसक चाहिये। मुझे मुक्ति नहीं, उसकी बाँहों का बंधन चाहिये। मुझे शांति नहीं, बेचैन धड़कनों का शोर चाहिये। मुझे ठण्डक नहीं, उसकी देह की तपन चाहिये। मुझे अमृत नहीं, उसके होंठों का ज़हर चाहिये। इन बेचैन हसरतों का पूरा बरगद बन गया था मेरे मन में। पुनर्जन्म हो गया मेरा और मैं दुनिया में वापस लौट आयी सिर्फ़ पलाश को महसूस करने के लिये और सिर्फ़ उस पर ही बार-बार फ़ना होने के लिये। पानी, टैंक सब ग़ायब हो गया और उसकी हँसी की खनक मेरे चारों तरफ़ फैल गयी। मेरे तन-मन में उथलपुथल मचाकर मासूम पलाश ने कहा- ‘अब फ़ोन रखता हूँ। हैपी वैलेंटायंस डे, मेरी वैलेंटायन।’
चौदह फ़रवरी 2004 की रात थी वो। ज़िन्दगी भर जो ना भूली जा सके, ऐसी ख़ुशगवार मुबारक रात थी वो।
मुंबई, हमको जम गयी
चौदह फ़रवरी की उस रात को दोस्ती की चुनर खींचकर पलाश ने मेरे तन पर प्यार की ओढ़नी डाल दी थी। एक मीठी सी झुरझुरी हो रही थी तन-मन में। एक छिलन और एक गलन का मिलाजुला एहसास हो रहा था पूरे शरीर में। मैं लड़की रह ही नहीं गयी थी। उस इक़रार की मिठास ने मुझे तरबतर कर दिया था और मैं एक मीठी लीची हो गयी थी।
लेकिन देखो तो, मुझे यूँ छीलकर बेदर्द और अनाड़ी पलाश ने अपने हाथों से फिसल जाने दिया उस रूखे और खुरदरे फ़र्श पर। रात भर चादर छिलन का एहसास दिलाती रही और मैं तड़प तड़पकर हर आह पर पलाश का नाम लिखती रही। उसके अगले दिन से हर मेल में हम दोनों एक दूसरे को “आय लव यू” लिखने लगे।
एक दिन तो मैं उसकी मेल पढ़कर ख़ुशी से उछल ही पड़ी। उसने लिखा था कि वो मई में मुम्बई आयेगा। उसकी ऑन जॉब ट्रेनिंग उसे कोलकाता, चण्डीगढ़ के बाद मुम्बई लाने वाली थी। उस मेल के बाद से मैंने साबुन छोड़ उबटन से नहाना शुरू कर दिया था। उसके इंतज़ार में ख़ुद को सँवारना शुरू कर दिया था। हर रोज सोचती कि उससे क्या-क्या कहूँगी और कैसे कहूँगी। उसे बताऊँगी कि उसके बिन एक-एक दिन कैसे बीता। उसके इंतज़ार की अधीरता में दिन पहाड़ से हो गए थे और रातें सर्द चादर हो गयीं थीं। और जब उसके इंतज़ार से भी मोहब्बत हो गयी तो वो शाम आयी जब वो मुम्बई आया।
मैं उससे मिलने बोरिवली ईस्ट स्टेशन के प्लैट्फ़ॉर्म पर पहुँची। स्टेशन पर बहुत से लोग दिखे लेकिन मेरा पलाश नहीं दिख रहा था। मुझसे लगभग तीस मीटर की दूरी पर एक लड़का मुझे ही घूर रहा था, लेकिन मैं उसे नज़रंदाज़ कर अपनी खोज में व्यस्त थी। फिर कुछ सोचकर मैंने उस लड़के की तरफ़ देखा- ‘अरे तुम! पलाश!’
मुझसे नज़रें मिलते ही वो मेरी तरफ़ बढ़ा। उसके पास आते ही हवा में मीठी महक भर गयी और मेरी बहकी-बहकी आँखें उसके तन को टटोलने लगीं। उसे देखने का नशीला स्वाद मुँह में भर गया और उसकी बदली सेहत देखकर चिंता का एक काँटा भी दिल के गुलशन में उग आया था।
अपनी सारी बेचैनियाँ गटकने के बाद मैंने हैरत से पूछा– ‘कैसे हो? क्या हुआ तुम्हें? तुम इतने दुबले कैसे हो गये?’
उसकी मुस्कुराती आँखों ने और खनकती आवाज़ ने मज़ाकिया ढ़ंग से कहा- ‘तुम्हारी याद में।’ और मेरी कमर पकड़कर मुझे धीरे से अपने पास खींच लिया।
इतनी नज़दीकी तो मैंने अकेले में भी कभी सोची नहीं थी। मैं सिहर गयी और शर्म से मेरी आँखें झुक गयीं। अपनी ख़ुशकिस्मती पर इठलाते हुए, उसकी साँसों की गर्माहट और ख़ुशबू में डूबते हुए मैंने उसे उलाहना दिया- ‘तुमने कुछ इशारा क्यूँ नहीं किया कि तुम यहाँ हो? मैं तुम्हें ढूँढ रही थी ना?’
उसने मुस्कुराते हुए कहा- ‘तुम्हें तुम्हारी ही लगन में मगन देखने का अपना ही मज़ा है। जब तुम्हें पता ही ना हो कि मैं तुम्हें देख रहा हूँ। और मुझे अपने ऊपर थोड़ा नाज़ भी हो रहा था कि मेरी यह परी पूरी दुनिया में मुझे ढूँढ रही है। कितना ख़ास हूँ मैं! इस पूरी भीड़ से अलग।’
यह सुनकर मेरी शर्म इतनी बढ़ी कि मुझमें उसके सामने खड़े रहने की ताक़त ही नहीं बची। मैं उसकी भेदती नज़रों से अपने तन को कहीं छुपा लेना चाहती थी और उसके सीने के सिवाय दुनिया में कोई दूसरी कोई पनाह थी ही नहीं उससे ख़ुद को छिपाने के लिये। मैं सकुचाई सी झटपट उसकी बाँहों में सिमट गयी। कुछ संभलकर मैंने उससे पूछा- ‘खाना खाने चलें?’
उसने कहा- ‘दुबला हो गया हूँ तो इसका यह मतलब थोड़ी कि खाने पर ही फ़ोकस किया जाये। कहीं घुमाओ। तुम्हारी मुम्बई पहली बार आया हूँ।’
मैंने पूछा- ‘बैंडस्टैंड चलोगे? अच्छा बीच है।’
उसने कहा- ‘चलो, मैं आज तक इलाहाबाद में गंगा तट पर अकेले ही बैठा हूँ। आज दोनों साथ में सागर किनारे बैठते हैं।’
बैंडस्टैंड में हम दोनों एक ऊँची सी जगह पर बैठ गये। पलाश के साथ यूँ, अकेले, लखनऊ के बाहर, ऐसे माहौल, ऐसी रोमैंटिक जगह पर रात में होने का एहसास मदहोश कर रहा था। एक दूसरे के पहलू में बैठे थे हम। इस मुकम्मल तन्हाई का इंतज़ार जैसे सदियों से किया था हमने। एक दूसरे का हाथ कसकर पकड़ रखा था हमने और गहरी साँसें लेते हुए अपनी बेचैन तमन्नाओं का शोर ऊँची उठती लहरों में सुन रहे थे। एक दीवाना उन्मत्त सागर आँखों के सामने था और दूसरा दिल में। हम एक किनारे पर बैठे दोनों को हरहराते हुए देख रहे थे। कुछ देर बाद मैंने कहा- ‘जिस तरफ़ से लहरें आ रहीं हैं उस तरफ़ पैर लटका कर बैठ जाएँ?’
उसने कहा- ‘नहीं। डर लग रहा है।’
मैंने दिलासा दिया- ‘कुछ नहीं होगा।’ और हम दोनों उस तरफ़ पैर लटका कर बैठ गये। तुरन्त ही अगली लहर खूब ऊँची आयी और हुल्लड़ मचाती हुई पलाश के जूते भिगाकर लौट गयी। पलाश रोमांच से भर उठा और उसने ‘अरे रे रे’ कहते हुए वहाँ से उतरने को कहा।
मैंने उसको बताया- ‘मेरे साथ ऐसा कभी भी नहीं हुआ। देखो, वो लहरें भी तुम्हें छूना चाहती थीं। तुम्हारा स्वागत करने और चरण पखारने को कैसी मतवाली हो रहीं थीं। देखी, उनकी ठिठोली!’
पलाश ने हँसते हुए मुझे कसकर अपने पास समेट लिया। जाने यह लहरों को इतने पास से महसूस करने का सुरूर था या लहरों की देखा-देखी प्यार की उमंगें दिल में भी और ज्यादा ज़ोर मारने लगी थी। पलाश के हाथ फिसलकर मेरी कमर पर टिक गए और उसने बहकते प्यार की पहली लरज़ती फ़रमाइश रखी- ‘तुम अपनी कमर यूँ ही पतली और दराती सी धारदार रखना।’
मैं उससे कसकर लिपट गयी और बिन कुछ बोले जीवन भर का वादा कर दिया। किसको होश था कि ज़माना इस दीवानगी को और इन नज़दीकियों को क्या कहेगा! शाम को साथ घूमना “Parle-G और फ़्लेवर्ड मिल्क” का नाश्ता करना और डिनर साथ करना। आहा! सचमुच ही वो स्वप्नलोक था और इन दो दिनों में मेरे लिये सच और सपने का फ़ासला ख़त्म हो गया था। मुम्बई को यूँ ही सपनों की माया नगरी तो नहीं कहते।
वो मई का आख़िरी हफ़्ता था और T.C.S. में मेरी ट्रेनिंग ख़त्म हो चुकी थी। दो दिन बाद मैं लखनऊ लौट गयी और पलाश अगले एक हफ़्ते वहीं रहा। जुलाई में मुझे तिरुवनंतपुरम जाना था T.C.S. की इंडक्शन ट्रेनिंग के लिये। पलाश अपनी ट्रेनिंग पूरी करके जून में लखनऊ आया और उसने पहली बार अपने घर पर मेरे बारे में बात की।
बादल पे पाँव है
मैं रैगिंग के समय कॉलेज में प्रेम पंछियों को हमेशा कहा करती थी- ‘मुश्किलें बहुत आयेंगी लेकिन फिर सब ठीक हो जायेगा।’ और यह कहने के पीछे मेरा तर्क होता था कि प्यार वो जिसकी पूरी दुनिया दुश्मन बन जाये। प्यार तो वही जो दुनिया से जूझ जाये। और प्यार वो जिसमें अंततः जीत प्रेमी-प्रेमिका की हो। हा! हा! हा! तब मुझे नहीं मालूम था कि मेरी जीभ पर सरस्वती विराजमान हैं और मैं अपने ही लिये भविष्यवाणी कर रही हूँ।
मेरे प्यार को सच्चा प्यार साबित करने और इश्क़ को उसकी इन्तेहां तक ले जाने के लिये क्या दुनिया मेरी दुश्मन नहीं बनेगी? क्या मुझे बिना दुनिया से जूझे ही मेरा प्यार मिल जायेगा? जो प्यार कसौटी पर ना कसा गया, भला उसमें क्या क़शिश? अजी छोड़िये, बिना तड़के के दाल भी कोई दाल है? और मेरी फ़ेवरेट तो "ढाबा स्टाइल डबल फ्राई तड़का दाल" है। मेरी प्रेम कहानी में भी मानसिक यातनाओं का दौर शुरू हो गया, क्यूंकि पलाश की मम्मी ने बिना मुझसे मिले ही मुझे रिजेक्ट कर दिया।
अब तक पलाश के घर में पलाश की सारी बातें मानी जाती थी। वो बहुत समझदार और काबिल बेटा माना जाता था। आत्मविश्वास और मम्मी के प्यार पर अडिग भरोसे के बल पर उसने सबसे पहले अपनी मम्मी से बात की। सोचा था मम्मी ख़ुश होंगी और पापा को भी मना लेंगी। उसने ख़ुश होकर बताया कि कैसा हीरा हाथ लग गया है उसके। दुनिया की सबसे अच्छी, प्यारी, धैर्यवान, सहनशील और संवेदनशील लड़की को शादी के लिये राज़ी कर लिया है उसने। उसे लगा था कि उसकी मम्मी इस अलबेली लड़की से मिलने को उत्साहित होंगी और अपने प्यार-आशीष के आँचल में पूरी आत्मीयता के साथ उसकी हर्षा को भी सहर्ष जगह देंगी। कच्चे अंडे की तरह फूट गया पलाश का भरोसा।
उसकी मम्मी अचानक एक नये अवतार में उसके सामने खड़ी थी। पलाश यकायक सयाने से अबोध और नासमझ लड़का हो गया, जिसे किसी लड़की ने बहका लिया था। पलाश में कहाँ थी काबलियत लोगों को पहचानने की? पलाश तो अभी तेईस बरस का बच्चा था, उसमें कहाँ थी समझ कि अपना भला-बुरा सोच सके? पलाश की पसन्द में दो बहुत बड़ी कमियाँ थीं। पहली यह कि वो पलाश की पसन्द थी और दूसरी यह कि वो ठाकुर परिवार की थी। यह दोनों ऐसी कमियाँ थीं जिन्हें दुनिया में कोई दूर नहीं कर सकता था और इसलिये हर्षा पलाश के लिये बिलकुल ग़लत लड़की थी।
पलाश की जैसे बुनियाद ही हिल गयी। अपने प्रति जिस प्यार, सम्मान और स्वीकार्यता को उसने बचपन से देखा समझा था, वो धूल में लोट रही थी। उसकी मम्मी हर्षा के लिये और उसके फ़ैसले के लिये ऐसे शब्द कहेंगी, यह अपने ही कानों से सुनकर भी वो यक़ीन नहीं कर पा रहा था। वो चुपचाप दिल्ली लौट गया। तीन महीने तक उसने अपनी मम्मी को "कम-से-कम एक बार मिल तो लो" की रट लगाकर मुझसे मिलने के लिये मना ही लिया।
मैं जब उनसे मिलने के लिये तैयार हो रही थी तो मैंने पलाश से कहा- 'सलवार सूट पहन लेती हूँ।'
पलाश ने साफ़ तौर पर कहा- 'तुम जैसे कपड़े रोज़ पहनती हो, वही पहनकर आना। मैं मम्मी को किसी तरह का धोखा नहीं देना चाहता। वो तुम्हारे कपड़े देखने नहीं आयीं हैं, “तुमसे मिलने” आयीं हैं।'
पलाश को यह भरोसा था कि मुझसे मिलने के बाद उसकी मम्मी "ना" कर ही नहीं सकतीं। मैं जब उनसे मिली तो पलाश हम दोनों को अकेले छोड़कर बाहर चला गया, जिससे हम आपस में बातें कर सकें।
मुझसे मिलकर पलाश की मम्मी बड़ी मायूस हुई कि मुझे सिलाई, कढ़ाई और बुनाई नहीं आती। उनके बेटे के लिये स्वर्ग की अप्सरा सोची थी उन्होंने, और सामने कितनी मामूली सी लड़की थी, जिसने पलाश को फंसा लिया था। उन्हें यह भी आभास हुआ कि यह लड़की उनके परिवार को इज्ज़त और प्यार नहीं दे पायेगी। वो वाली बात नहीं है इसमें। बैठने, उठने, बात करने, सब्जी काटने और कपड़े पहनने तक का सलीका नहीं है इस लड़की को। उनकी पारखी नज़रों ने मेरी परवरिश में हुई तमाम ग़लतियाँ और मेरे संस्कारों के सारे छेद, सब देख लिये।
ज़ाहिर है, उस मुलाक़ात के बाद सब कुछ और भी धुमिल हो गया। अब उनकी "ना" के कारण और भी वीभत्स होते जा रहे थे। पलाश और मैं उसके परिवार वालों को वक़्त दे रहे थे और उन्हें मनाने की भरपूर कोशिश कर रहे थे। लेकिन समय के साथ माहौल बिगड़ता ही चला गया। मुद्दे ही बदल गये। अब मुद्दे यह हो गये थे कि पलाश के लिये ज्यादा ज़रूरी कौन है: परिवार या हर्षा? पलाश किसे ज्यादा प्यार करता है: अपने घरवालों को या हर्षा को? पलाश किसके लिये किसे छोड़ेगा? क्या पलाश एक बेटे के फ़र्ज़ को अपने प्यार पर कुर्बान कर देगा? पलाश किसके काबू में है: अपने परिवार के या हर्षा के? स्थिति विस्फोटक होती जा रही थी।
इस खींचातानी में मैंने अपमान के इतने घूँट पिये कि मेरे अन्दर ज़हर-ही-ज़हर हो गया था। कोई मुझे इतना नापसन्द कर सकता है और मुझसे इतनी नफ़रत कर सकता है। यह मान पाना और सह जाना आसान बिल्कुल नहीं था। और उन्हीं लोगों के साथ जीवन भर रहना था मुझे, जो मुझे एक इंसान की तरह देख तक नहीं पाते थे।
हम सब अपमानित महसूस कर रहे थे। मैं अपमानित थी मुझपर लगाये गए आरोपों के कारण। पलाश अपमानित था उसके फैसले और उसकी समझ पर उठाये गए प्रश्न चिन्ह के कारण। उसके मम्मी-पापा अपमानित थे कि बेटा उनकी सुन नहीं रहा। मेरे मम्मी-पापा अपमानित थे कि पलाश के परिवार वाले उन्हें कितनी हेय दृष्टि से देखते हैं। सब व्यथित थे। हम सभी मानसिक यातनाओं के दौर से गुज़र रहे थे।
इस मुश्क़िल दौर ने एक बात पलाश और मुझे समझा दी कि समय हर ज़ख्म की दवा नहीं होता। कुछ ज़ख़्म समय के साथ नासूर होते चले जाते हैं। दो साल हो चुके थे परिवारवालों को मनाने की नाकाम कोशिशें करते हुए और बात थी कि बिगड़ती ही चली जा रही थी। उसके घरवाले मानते नहीं दिख रहे थे तो हम भी कोर्ट मैरिज के बारे में सोचने लगे थे। हम एक दूसरे को नहीं छोड़ सकते थे चाहे पूरी दुनिया छोड़नी पड़े। हमें शान्ति से क्रान्ति के दल में जाते देखकर यह भ्रान्ति दूर हो गयी कि यह शादी टाली जा सकती है। घर के इकलौते लड़के ने घर से दूर जाने का फ़ैसला कर लिया। यह फ़ैसला घरवालों का दिल दहला गया। अब हर्षा को "नेसेसरी ईवल" की तरह ही सही परिवार में जगह देनी ही होगी, यह सोचकर उन्होंने हमारे कोर्ट मैरिज के फ़ैसले को परम्परागत शादी में बदलने को कहा।
इस तरह दो साल के संघर्ष के बाद हमारी शादी का दिन तय कर दिया गया। पलाश और मैंने राहत की सांस ली कि एक लड़ाई तो ख़तम हुई। शादी के बाद सब ठीक हो जायेगा, यह सोचकर हम दोनों बहुत ख़ुश थे।
शादी की रात एक रस्म के तहत पापा ने मेरे हाथ पलाश के हाथों में दिये और यकायक मुझे वही सपना याद आ गया। भयानक काली रात जैसे ढाई साल में आँसुओं की बारिश सहते, अपमान और रिजेक्शन का बंजर खेत पार करके मैं उस जगह आ पहुँची थी जहाँ मुझे पहुँचना था। हवन कुण्ड की पावन अग्नि थी, मेरे हाथ पलाश के हाथों में थे और पलाश का वचन था कि वो मेरा हमेशा ख़याल रखेगा। ओहो! तो सपने में मेरा हाथ पलाश को सौंपने वाले देवदूत मेरे पापा ही थे। इसमें हैरानी भी क्या? भला एक पिता के सिवा और किसको यह अधिकार है!
फैली हुई हैं सपनों की बाँहें
"एक दिन आप यूँ हमको मिल जायेंगे, फूल ही फूल राहों में खिल जायेंगे, मैंने सोचा ना था!..."
शादी के मण्डप में एक बार को यह सवाल मेरे मन में ज़रूर कौंधा था कि सपना मेरे लिये था या मैं सपने के लिये?
सपने भी कितने रोमांचकारी होते हैं! दुनिया भर में सपनों को समझने की बहुत सी कोशिशें चल रहीं हैं, शोध चल रहे हैं। मुझे तो लगता है कि सपने परम सत्ता की मंशा हैं। जब हम नींद में होते हैं, तब हमारे चित्त(अनकांशस माइंड) में हमारे अवचेतन(सबकांशस माइंड) से कुछ चित्र लेकर सार्वभौमिक चेतना(यूनिवर्सल कांशसनेस) के सहयोग से स्वप्न प्रकट होता है। स्वप्न के माध्यम से यूनिवर्सल कांशसनेस और सबकांशस के बीच सूचना का आदान-प्रदान होता है। उपनिषदों के अनुसार निद्रा की इस अवस्था में मानव की चेतना(कांशस माइंड) का इस यूनिवर्सल कांशसनेस से एकात्म हो जाता है, इसे ही योग कहते हैं और निद्रा की इस अवस्था को समाधि कहते हैं। हमारा सबकांशस तो हमारे कांशस से हमेशा ही संपर्क में रहता है, तो इस प्रकार पहले यूनिवर्सल कांशसनेस हमारे सबकांशस को एक प्रतीकात्मक संदेश(मेटाफोरिक मेसेज) देती है और हमारा सबकांशस हमारे कांशस को वह संदेश सौंप देता है। कांशस माइंड ही हमारे क्रियाकलाप और हमारी सोच समझ का निर्देशक होता है।
तो क्या इसका मतलब यह है कि पहले अभिलाषा मनुष्य को ढूंढती है, उसके अवचेतन में प्रकट होती है और उसके बाद मनुष्य उस अभिलाषा को संसार भर में ढूँढता फिरता है?
कभी सोचती हूँ कि सारे सपने बुने जा चुके हैं बहुत पहले और सपने अजर, अविनाशी हैं। नश्वर तो हम हैं। वही सपने हमेशा से अलग-अलग समय में अलग-अलग लोगों की नींद में दस्तक देते आ रहे हैं। यह कुछ वैसा है कि शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने देवदास उपन्यास लिखा एक बार। लेकिन अपने-अपने समय पर कुन्दन लाल सहगल, दिलीप कुमार और शाहरुख़ खान ने उसे अपने-अपने अंदाज़ में निभाया। समय के हिसाब से फ़िल्म के सेट बदल गए और संवाद बदल गये। कहानी एक ही थी लेकिन कलाकारों की अदाकारी ने हर बार उसे एक नये अंदाज़ में पेश किया और हमें रोमांचित किया।
बीस साल पहले एक सपने ने मुझे ढूँढा था और मैंने अपने अंदाज़ में उस सपने को जिया। वही सपना अब किसी और की नींदो में गश्त लगा रहा होगा। सपने देखने वाले पर निर्भर है कि वो उस सपने और अपने वादे को कैसे निबाहेगा। मेरी यही कहानी आज किसी नये रंगमंच पर नये किरदारों के साथ जीवंत हो रही होगी। रोमांच हो उठता है यह सोचकर मुझे। मेरी शुभकामनाएं हैं सभी किरदारों के लिये।
शो मस्ट गो ऑन एंड वी मस्ट रॉक द शो। अपना क़िरदार यूँ जियें कि रचयिता का डमरू बज उठे और 'वाह! वाह!'
करते हुए वो नाचने लगे। जी ख़ुश हो जाये उसका। प्रेम इंसान को क़ुदरत की बख़्शी हुई सबसे ख़ूबसूरत सौगात है। प्रेम ही ईश्वर है। प्रेम ही हरि है। 'हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता' की तरह ही ‘प्रेम अनन्त, प्रेम कथा अन्तता’ भी कहा जाना चाहिए।
मेरी कहानी पढ़ने वाले सभी पाठकों के जीवन में प्यार बरसता रहे। इसी प्रार्थना के साथ मैं अपनी कहानी को विराम देती हूँ।
समाप्त
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