सुखवंत राय ने जब अपनी सिक्योरिटी के साथ सुन्दर नगर में प्रवेश किया तो अंधेरा हो चुका था। सुन्दर नगर की सीमा पर, मौजूद दीपक तब वहां से सुन्दर नगर में प्रवेश करके, मोबाईल पर विनोद कुमार से बात करने पर विचार कर ही रहा था कि अचानक उसकी निगाह सामने से गुजरती तीन कारों पर पड़ी। तेजी से जा रही कारों में ठसाठस आदमी भरे दिखे। गनों की झलक भी मिली।

तभी दीपक की निगाह सुखवंत राय पर भी पड़ी।

वो सुखवंत राय को पहचानता था।

दीपक ने उसी वक्त कार स्टार्ट की और उन कारों के पीछे लगा दी। उसे हैरानी थी सुखवंत राय के सुन्दर नगर आने पर। वो भी ढेर सारे आदमियों के साथ। उसकी समझ के मुताबिक सुखवंत राय का सुन्दर नगर आना, यही जाहिर करता था कि दीपाली सुन्दर नगर में है और सुखवंत राय को मालूम है वो कहां है। इसके अलावा सुखवंत राय के सुन्दर नगर आने की कोई दूसरी वजह नहीं हो सकती।

पैंतीस-चालीस मिनट बाद आगे जाने वाली तीनों कारों का काफिला सुन्दर नगर के घंटा घर पर जाकर रुका। तब साढ़े आठ बज रहे थे। वहां भीड़ थी। लोग आ-जा रहे थे।

कारों में से कोई बाहर नहीं निकला, सिवाय सुखवंत के ।

सुखवंत राय का चेहरा वहां की रोशनी में परेशानी से भरा लग रहा था। उसकी बेचैन निगाहें इधर-उधर फिर रही थीं कि दीपक उनके पास पहुंचा।

“नमस्कार सेठजी!” दीपक ने कहा--- “मैं विनोद कुमार का असिस्टैंट हूं।"

“तुम--- मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।” सुखवंत राय ने उसे देखा।

"लेकिन मैंने आपको देखा हुआ---।”

“यहां क्या कर हो?" सुखवंत राय ने जल्दी से पूछा ।

“मैं तो सुन्दर नगर के बॉर्डर पर था। आपको देखा तो, आपके पीछे---।"

"दीपाली कहां है?"

"उसकी तलाश हो रही है। वो सुन्दर नगर में---।”

“शटअप।" सुखवंत राय ने गुस्से से भरे स्वर में कहा--- “इतने दिनों से मेरी बेटी को नहीं ढूंढ सके। विनोद कुमार कहां है?"

"सुन्दर नगर में ही है। मैं अभी 'सर' को फोन करता हूँ।" कहने के साथ दीपक वहां से हट गया।

आधे घंटे में विनोद कुमार वहां, सुखवंत राय के पास था।

"तुम बढ़िया काम नहीं कर सके।" सुखवंत राय ने कहा--- "तुमसे अच्छा काम तो न मालूम, वो विजय कौन है वो कर रहा है। जो बदमाशों से मेरी बेटी को अभी तक बचाये हुए है।"

"हम बराबर आपकी बेटी तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन राय साहब, सच बात तो ये है कि विजय के कारण ही आपकी बेटी हमारे हाथ नहीं आ रही।" विनोद कुमार ने शांत स्वर में कहा--- “दीपाली हमारे हाथ लग गई थी। लेकिन विजय ने उसकी गर्दन पर चाकू रखकर, मुझे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। ऐसे में आप ही बताईये कि हम क्या करते ?"

सुखवंत राय होंठ भींचकर रह गया।

“लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि देर-सवेर में दीपाली---।"

"वो यहीं आ रही है।" सुखवंत राय के स्वर में बेचैनी आ गई।

"यहीं ?” विनोद कुमार के होंठों से निकला।

“हां। दीपाली ने मुझे फोन किया था। वो रात को नौ बजे विजय के साथ यहां पर मिलेगी।”

"ओह!” विनोद कुमार ने समझने वाले ढंग में सिर हिलाया--- “ये तो अच्छा हुआ कि दीपाली मिल जायेगी।"

"तुम यहीं रहो। वो आते ही होंगे।"

विजय और दीपाली का इन्तजार होता रहा।

उन्होंने न तो आना था और न ही वो पहुंच सके।

रात के एक से ऊपर का वक्त हो चुका था।

“मुझे लगता है उनके साथ कोई बुरा हादसा पेश आ गया है।" विनोद कुमार होंठ भींचे कह उठा--- "कहने के बाद भी उनका यहां न पहुंचना, इसी तरफ इशारा करता है।”

सोफिया, शेरा और अन्य तीनों बदमाशों के साथ दीपाली-बेदी की तलाश कर रही थी कि उन्हीं पुलिस वालों की वैन उन्हें मिली। पुलिस वालों ने उन्हें रोका।

“इतनी रात को कहां घूम रहे हो।" हवलदार ने कार के भीतर झांकते हुए कहा--- "ये मैडम तो ठीक है। बाकी के बदमाश लग रहे।"

सोफिया ने फौरन जेब से सौ-सौ के नोट निकाले।

“ये रखो। पहले ये बताओ कि कोई ऐसी कार देखी है। जिसमें एक लड़की और दो आदमी हो।" सोफिया जल्दी से बोली।

हवलदार ने तुरन्त सौ-सौ के नोटों को देखा।

पीछे से कांस्टेबिल पास आ पहुंचा।

"कितने हैं?" हवलदार ने पूछा।

"बाद में गिनते रहना। अगर ऐसी कोई कार देखी है तो फौरन बताओ।"

हवलदार ने गर्दन घुमाकर, कांस्टेबिल को देखा।

“ये मैडम, उन लोगों की कार के बारे में पूछ रही हैं।"

"वो तो मैं समझ गया। लेकिन हम पुलिस वाले रिश्वत नहीं लेते। ये नोट तो वैसे भी कम लग रहे हैं।"

"सुना।” कांस्टेबिल ने सोफिया को देखा--- “इसने कार देखी है। लेकिन बोलता है, नोट कम हैं।"

सोफिया ने कुछ नोट और उसे दिए।

"वैसे तो हमें ये पूछना चाहिए कि उस कार को क्यों ढूंढ रहे हो। तुम लोग कौन हो।" कांस्टेबिल नोटों को जेब में डालता हुआ बोला— “लेकिन ये बातें मैं फिर पूछ लूंगा। मैं जानता हूं तुम लोग जल्दी में हो। एक लड़की और साथ में दो आदमी। हूं, कार को लड़की चला रही थी।"

"हां।" सोफिया के दांत भिंच गये।

"वो उधर, मोड़ से, उस तरफ गई है।" हवलदार ने इशारा करके बताया।

सोफिया ने उधर देखा ।

"वो सड़क कहां जाती है?"

“शहर से बाहर। दूसरे शहर---।"

"चलो।" सोफिया की आवाज में कठोरता आ गई।

कार फौरन आगे बढ़ गई।

"इसका मतलब वो लोग वापस शहर चले गये हैं।" शेरा बोला--- "वहां पहुंचकर दीपाली अपने बंगले में जाने का मौका ढूंढ़ेगी। वो हमारे हाथ से निकल सकती है मैडम सोफिया।"

“कुछ नहीं होगा। सब ठीक रहेगा। सुखवंत राय के बंगले के बाहर अमर के आदमी मौजूद होंगे और उन्हें नहीं मालूम कि अमर अब नहीं रहा। वो अमर के कहे मुताबिक दीपाली वास्ते, उसके बंगले की निगरानी करते रहेंगे। दीपाली अपने घर नहीं पहुंच सकेगी।" सोफिया एक-एक शब्द चबाकर कह उठी।

"ये तो मैंने सोचा नहीं था।"

“कार तेज चलाओ।" सोफिया ने कार चलाने वाले से कहा--- "हम उन्हें रास्ते में भी पकड़ सकते हैं।"

कुछ ही देर बाद उनकी कार शहर से बाहर निकल गई।

एक घंटा तेज रफ्तार दौड़ती रही कार हाईवे पर । लेकिन बेदी-दीपाली-हरबंस वाली कार देखने को नहीं मिली। आखिरकार सोफिया कह उठी।

"मेरे ख्याल में वो लोग काफी आगे निकल गये हैं।" सोफिया की आवाज में गुस्सा और खतरनाक भाव थे।

“बचकर कहां जायेंगे। शहर पहुंचते ही हम उन्हें आसानी से ढूंढ लेंगे। हरबंस उनके साथ है।"

"हरबंस उन्हें किसी जगह पर छिपा सकता है।"

“चिन्ता मत करो मैडम सोफिया। मैं उन्हें कुछ ही घंटों में ढूंढ निकालूंगा।” शेरा खतरनाक मुस्कान के साथ कह उठा--- “चाय पीने का मन हो रहा है।"

“अब तेज चलने का कोई फायदा नहीं। कहीं भी रोक लेना।" सोफिया ने उखड़े स्वर में कहा ।

“जहां चाय मिलती नजर आये। रोक देना।” शेरा ने कार चलाने वाले से कहा फिर सोफिया से बोला--- “वैसे क्या हिसाब लगाया। सुखवंत राय अपनी बेटी को पाने के बदले कितनी दौलत दे देगा।"

"तुम अपने पांच लाख की तरफ ध्यान दो जो दीपाली के हाथ आने पर तुम्हें मिलेंगे। सुखवंत से क्या बात होनी है? ये जानना, तुम्हारे लिए कोई जरूरी नहीं।" सोफिया ने तीखे स्वर में कहा।

■■■

चाय का गिलास थामे शेरा, अपने एक साथी के साथ चंद कदम अलग हट गया। सोफिया और बाकी के दोनों बदमाश कुर्सियों पर बैठे चाय पी रहे थे।

“सोहन !” शेरा धीमे स्वर में बोला।

“क्या है?"

“यार मैं कुछ सोच रहा हूं।" शेरा ने चाय का घूंट भरते हुए धीमे स्वर में कहा--- “क्या हमारी किस्मत में यही लिखा है कि कभी अमर को सलाम मारें तो कभी सोफिया को। हमें कुछ अपना भी सोचना चाहिये।"

“क्या मतलब?"

“सोफिया ने दीपाली को पकड़कर, उसका क्या करना है।" शेरा बोला।

"करना क्या है, उसके बाद सुखवंत राय से सौदा करेगी। बेटी वापस करने के बदले बहुत नोट लेगी।"

"ठीक कह रहे हो और हमें देगी सिर्फ पांच लाख। एक-एक को पांच लाख ।"

उसने आंखें सिकोड़कर, शेरा को देखा।

"मैं नहीं समझा कि---।"

"तेरा दिमाग कभी काम करता है तो कभी नहीं। वो करोड़ों रुपये सुखवंत राय से झाड़ेगी। और हम लोगों को पांच-पांच लाख का चुग्गा दे देगी। गलत कहा क्या, मैंने?"

"ठीक कहा। इसमें गलत क्या है?"

"अब ये बता, हमारे बिना। बिना हमारी सहायता के वो दीपाली को पकड़ सकती है ? विजय या हरबंस को मार कर सकती है?" शेरा ने धीमे स्वर में अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।

"हमारे दम पर ही तो सोफिया इस वक्त भागी दौड़ी फिर रही है।"

"मुझे अपनी बातों के जाल में फंसवाकर, अमर साहब को भी मार दिया।"

"वो तेरी गलती थी। तेरे को सोफिया की बातों में नहीं फंसना चाहिये था।" सोहन कह उठा।

“बीता वक्त छोड़। मैं आगे की बात कर रहा ।" शेरा ने कहा--- "अब सवाल ये उठता है कि दीपाली को पकड़कर जो काम सोफिया करना चाहती है वो काम क्या हम नहीं कर सकते।"

“सुखवंत राय से सौदेबाजी करके फिरौती लेने का काम ?"

"हां। क्या ये काम हम नहीं कर सकते।"

"क्यों नहीं कर सकते शेरा। ये तो बहुत ही मामूली काम है।"

"ऐसा है तो फिर सोफिया के हुक्म सुनने की हमें क्या जरूरत है। सारी उम्र क्या हम दूसरे के सामने कुत्तों की तरह दुम हिलाते रहेंगे। हमें अपनी पहचान बनानी चाहिये।" शेरा ने दांत भींचकर कहा।

“बात तो तेरी ठीक है। लेकिन---।"

"लेकिन वाली क्या बात आ गई?" शेरा ने फौरन टोका।

“क्या करना चाहता है तू?"

“सोफिया को खत्म करके एक तरफ फेंको।" शेरा ने चाय का घूंट भरा--- "दीपाली को हम ढूंढ लेंगे। सुखवंत राय से करोड़ों की फिरौती लेकर हम सब बराबर-बराबर बांट लेंगे और कोई काम-धंधा खोलकर बैठ जायेंगे।"

"बात तो तेरी ठीक है।"

"मतलब कि सोफिया को ठिकाने लगाना तय हो गया।"

"हां। दूसरों से बात कर लेते तो---।" सोहन ने कहना चाहा।

"हम दोनों तैयार हैं तो वो दोनों भी तैयार हैं। उन्हें क्या एतराज है।" शेरा ने कहा।

"यहां लोग हैं। सोफिया को कैसे ठिकाने---।"

"यहां से हम चल रहे हैं। रात है। अंधेरा है। हाईवे है। मौका ही मौका है।" शेरा की धीमी आवाज क्रूर हो गई।

"समझ गया।" वो दोनों वापस पहुंचे और चाय के खाली गिलासों को टेबल पर रख दिया।

"कोई खास बात है क्या ?" सोफिया ने उन दोनों के चेहरों को देखा।

"कोई खास नहीं ।" शेरा ने लापरवाही से कहा--- "ये कह रहा था कि पांच लाख मिलते ही अपने गांव चला जायेगा और परिवार के साथ रहेगा। मैं कह रहा था कि एक काम मेरे पास है। उसे करके गांव जायेगा तो दो-ढाई लाख और मिल जायेंगे।"

"यहां से चलो।” सोफिया उठते हुए बोली--- “उन लोगों को ढूंढना है।

चाय की पेमेंट करके वो कार में बैठे। कार आगे बढ़ गई।

"तुम्हारा क्या ख्याल है शेरा!" सोफिया बोली--- "शहर में वो हमें कहाँ मिलेंगे?"

"हरबंस उनके साथ है। इसलिए हमारे लिए थोड़ी सी परेशानी खड़ी हो सकती है। वो उन दोनों को कहीं छिपा सकता है। अगर उन्हें अपने घर रखता है, तो शहर पहुंचते ही दीपाली हमारे कब्जे, में होगी।"

आधे घंटे बाद ही शेरा के कहने पर कार को अंधेरे से भरी सुनसान सड़क के किनारे रोक दिया गया। सड़क पर से रह-रहकर तूफानी रफ्तार से वाहन निकल रहे थे।

"कार क्यों रुकवाई?" सोफिया ने फौरन शेरा को देखा।

“तुमसे खास बात करनी है।" शेरा ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा--- "अलग में। उधर आ जाओ।"

“यहीं कर लो। ऐसी कौन-सी बात है जो कार में नहीं हो सकती।” सोफिया कह उठी।

“ऐसी बात है तभी तो कार रुकवाई है मैडम सोफिया। आओ, दो मिनट लगेंगे।"

न चाहते हुए भी सोफिया कार से बाहर निकली और शेरा के साथ, सड़क के किनारे कच्चे की तरफ बढ़ी और कुछ कदमों के बाद रुकते हुए बोली।

"कहो---।"

"छोटी-सी बात थी मैडम सोफिया, अगर तुम्हारी समझ में आ जाये।"

सोफिया उसे देखने लगी।

"मैं ये कहना चाहता हूं कि तुम्हें, हमारी जरूरत हो सकती है लेकिन हमें तुम्हारी जरूरत नहीं रही।"

"क्या मतलब?" सोफिया चौंकी।

"मतलब ये है मैडम कि तुम्हारे बिना भी हम दीपाली को तलाश कर सकते हैं। सुखवंत राय से सौदेबाजी कर सकते हैं। वो करोड़ों में जो माल देगा, उस माल को हम खुशी-खुशी संभाल भी सकते हैं।"

सोफिया की आंखें सिकुड़ चुकी थीं।

"तुम होश में तो हो शेरा!"

"बिल्कुल होश में हूँ।" शेरा के होंठों पर क्रूरता भरी मुस्कान उभरी--- "तभी तो तुम्हारे साथ मिलकर अमर साहब को रास्ते से हटाने की योजना बना ली। मैंने एक बार भी इन्कार नहीं किया। इस बात का तुम्हें हमेशा ध्यान रखना चाहिये कि मैं तुम्हारा नहीं, अमर साहब का आदमी हूँ। अगर उनसे गद्दारी कर सकता हूँ, उनकी जान लेने में तुम्हारे साथ मिल सकता हूं तो फिर तुम्हारी कीमत मेरे लिए कुछ भी नहीं होगी।"

"बेवकूफ हो तुम।"

"तुम्हारी बात सही है कि मैं बेवकूफ हूँ लेकिन अब समझदार बनने की कोशिश में हूं।" शेरा ने पहले वाले स्वर में कहा--- "हमारे दम पर तुम दीपाली को हासिल करो। सुखवंत राय से करोड़ों की दौलत लो और हमें दो सिर्फ पांच-पांच लाख रुपये। हम क्या गुलाम है तेरे।"

"ये बात तो तुम सीधे-सीधे भी कह सकते हो।" सोफिया ने जल्दी से कहा।

"सीधे-सीधे कहने का यही ढंग है मेरा।" शेरा की आवाज में दरिन्दगी के भाव उभर आये।

"गुस्सा मत करो शेरा। मैं तुम लोगों को पांच-पांच नहीं, पचास-पचास लाख दूंगी और---।"

"तुम कौन होती हो हमें देने वाली। देगा सुखवंत राय और लेंगे हम। तुम्हारी जरूरत ही कहां रह गई।" शेरा के स्वर में वहशी भाव झलके और हाथ में चाकू नजर आने लगा-- "तुम तो गई मैडम सोफिया।"

"ऐसा मत करो शेरा!" सोफिया की आवाज में घबराहट आ गई--- "क्यों मार रहे हो मुझे। तुम कहो तो मैं इस मामले से हट जाती हूँ। मुझे अपनी जान ज्यादा प्यारी है जो---।"

"तेरे को मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तू कितनी कमीनी है। तेरे को छोड़कर, आने वाले चौबीस घंटों में मैंने अपना गला कटवाना है क्या।" कहने के साथ ही शेरा का चाकू वाला हाथ वेग के साथ घूमा ।

चाकू वाले हाथ को हल्का-सा झटका लगा, फिर हाथ पूरा घूम गया।

सोफिया का गला कटता चला गया था। एक पल भी वो खड़ी न रह सकी थी। गले पर वार होते ही, वो नीचे जा गिरी थी। चाकू वाले हाथ में खून की चिपचिपाहट महसूस हुई शेरा को।

“सोहन, इधर आ ।” शेरा ने ऊंचे स्वर में कहा।

कार का दरवाजा खुला। सोहन फौरन पास पहुंचा।

"तसल्ली कर । है अभी या गई।"

उसने माचिस की तीली जलाकर सोफिया को देखा। चैक किया।

“गई।" वो सीधा होते हुए कह उठा ।

“कार से पानी की बोतल ला। हाथ धुला। साली बिना जरूरत के खामखाह सिर पर चढ़ी बैठी थी।"

■■■

अभी रात का अंधेरा ही था, जब बेदी ने कार को हरबंस के घर के बाहर रोका।

“पहुंच गये भाई।" हरबंस गहरी सांस लेकर कार से बाहर निकलता हुआ बोला--- “लगता है, जैसे कोई भारी युद्ध जीतकर आ रहे हैं।"

बेदी के होंठों पर भी मुस्कान उभरी।

“मुझे भी ऐसा ही लग रहा है।"

तीनों कार से बाहर निकले।

दीपाली के चेहरे पर भी राहत नजर आ रही थी।

"तेरे घर पर रहना ठीक होगा?" बेदी ने हरबंस को देखा।

“ठीक क्यों नहीं होगा ?"

“उन लोगों को तेरा घर मालूम---।"

"बेकार की बातें छोड़ यार।" हरबंस हौले से हँसा--- “वो सब तो सुन्दर नगर में हमारी तलाश में भटक रहे होंगे। मजे से नींद ले प्यारे। यहां की तो हवा भी उन्हें नहीं मिलेगी।"

“लेकिन कब तक हम यहां रह सकते हैं। खतरा तो है ही।" बेदी ने कहा।

"ठीक बोलता है तू।" हरबंस ने गेट खोलकर भीतर प्रवेश करते हुए कहा--- "नींद तो तसल्ली से लेते हैं। इस बारे में सुबह सोचेंगे।"

"मेरे ख्याल में उस कमरे में जाना ही ठीक रहेगा। जहां मैं और दीपाली छिपे थे। वो जगह---।"

"पहले नींद मार लेते हैं। इस बारे में फ्रेश होकर बात कर लेंगे। सुबह के चार बज रहे हैं।" कहने के साथ ही हरबंस ने ताला खोला और भीतर प्रवेश करके, लाईट ऑन कर दी।

बेदी और दीपाली भी भीतर आ गये।

दरवाजा भीतर से बंद कर दिया था।

कमरे में नजरें दौड़ाते हरबंस गहरी सांस लेकर कह उठा।

"कल्पना ने अमर के साथ मिलकर बहुत बुरी ठुकाई की थी मेरी।” इसके साथ ही वो आगे बढ़ा और टेबल पर उस रात की पड़ी बोतल उठाकर उसमें जितनी व्हिस्की मौजूद थी। सारी गले में उड़ेल ली।

हरबंस को देखने के बाद दीपाली ने बेदी को देखा।

"तुम दोनों को बहुत तकलीफ मिल रही है मेरी वजह से ।" दीपाली का स्वर भर्रा उठा ।

"कोई तकलीफ नहीं। सब चलता है। मैं तो चला सोने।” कहने के साथ ही हरबंस दूसरे कमरे में चला गया।

दीपाली, बेदी के पास पहुंची।

"विजय!" दीपाली की आवाज में हल्की-सी कम्पन थी--- "मैं सच में तुम्हें प्यार करने लगी हूँ।"

बेदी ने उसे देखा। कहा कुछ नहीं।

बिल्कुल करीब पहुंच गई दीपाली। सट गई उससे। चेहरा उसके सीने से सटा दिया।

"दीपाली !” बेदी ने उसका कंधा थपथपाया--- “जाओ सो जाओ।"

"मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं विजय।"

“सो जाओ।"

“अकेले नहीं। तुम्हारे साथ सोऊंगी।" कहने के साथ ही दीपाली ने उसके गालों पर 'किस' की।

"सो जाओ। सुबह के चार बज चुके हैं और---!”

“प्लीज विजय!" दीपाली ने जिद्द भरे स्वर में कहते हुए उसकी कमर के गिर्द बांहें कस लीं--- “साथ में सोयेंगे।"

"उस कमरे में हरबंस सोने जा चुका है।" बेदी ने टालना चाहा--- "यहां पर---।"

"सोफे पर बहुत है जगह।" कहने के साथ ही दीपाली पूरी तरह बेदी से सट गई।

बेदी समझ गया कि बातों से बात नहीं निपटने वाली।

■■■

सुबह बेदी की आंख खुली तो दिन के साढ़े नौ बज रहे थे। हरबंस को देखा वो नहा-धोकर तैयार हो चुका था। कपड़े बदल चुका था। बेदी को देखते ही मुस्कराकर बोला।

“मुझे हैरानी है कि तुम दोनों सोफे पर कैसे सो गये। लेटने में दिक्कत नहीं आई क्या?”

बेदी गहरी सांस लेकर रह गया।

"जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब मैं भी इसी तरह कम जगह में काम चला लिया करता था।"

"कहीं जा रहे हो?"

"अभी आया। एक-आध घंटे का काम है।" कहने के साथ ही हरबंस ने टेबल की ड्राअर से नोट निकाले--- “सोफिया का माल है। पन्द्रह हजार उससे झाड़े थे। चौदह अभी बाकी हैं।"

बेदी ने सिग्रेट सुलगा ली। हरबंस दरवाजा खोलकर बाहर निकला।

"वैसे खतरा तो कोई नहीं है। फिर भी दरवाजा बंद कर लो।"

बेदी उठा और दरवाजा भीतर से बंद करके दीपाली को जगाया।

"वक्त बहुत हो गया है ।"

दीपाली ने फौरन आंखें खोलीं। उठ बैठी। कुछ घंटे की नींद के बाद वो और भी खूबसूरत लग रही थी।

“गुड मॉर्निंग।” वो प्यार भरे स्वर में मुस्कराई।

“मॉर्निंग।” बेदी भी हौले से मुस्करा पड़ा--- “नहा-धो लो । खाने के लिए कुछ तैयार कर देना। तब तक मैं भी नहा लूंगा। कोशिश करूंगा कि आज तुम्हें घर पहुंचा दूं।"

“हरबंस कहता है कि बंगले पर मेरे लिए निगरानी हो रही है।" दीपाली बोली ।

“वो ठीक कहता है। अब कोई रास्ता तो निकालना ही होगा।" बेदी की आवाज में गम्भीरता आ गई--- “अगर कोई आसान रास्ता न निकला तो, पुलिस को खबर करनी होगी। वो तुम्हें सुरक्षित तुम्हारे घर तक पहुंचा देगी।”

"लेकिन मैं तुम्हें अपने साथ घर ले जाना चाहती हूं।" दीपाली ने कहा--- "तुम पुलिस के सामने पड़ना नहीं चाहते। पुलिस आई तो तुम यहां से खिसक जाओगे। मुझे बताओ, तुम पुलिस से क्यों डरते हो?"

“मैं नहीं डरता।” बेदी ने लापरवाही से कहा--- "मैंने कोई जुर्म नहीं किया। मुझे उनकी वर्दी का रंग अच्छा नहीं लगता। अगर इस रास्ते को इस्तेमाल किया गया तो, मैं बाद में तुम्हारे पास आ जाऊंगा।"

“पक्का कहते हो?"

"तो मैं क्या तुम्हें झूठा लगता हूं?"

"नहीं।” दीपाली मुस्कराकर कहते हुए उठ खड़ी हुई--- “नहा-धोकर मैं अभी नाश्ता बनाती---।"

"हरबंस नहीं है। वो बाहर गया है। अपने और मेरे लिए ही नाश्ता बनाना।" बेदी बोला।

"सोये उठते ही वो कहां चला गया?"

"मैंने ज्यादा नहीं पूछा।”

■■■

मकान के बाहर शेरा अपने तीनों साथियों के साथ मौजूद था। लगातार भागदौड़ और रात भर जागने की वजह से उनकी आंखें सुर्ख-सी हो रही थीं। बुरे हाल हुए नजर आ रहे थे। दिन की रोशनी के निकलते ही, चारों कार में हरबंस के घर के बाहर पहुंचे थे।

वहां खड़ी कार को देखते ही उनकी आंखों में चमक आ गई थी। यानि कि तीनों घर में ही हैं और ये सोचकर है कि उन पर किसी की निगाह नहीं है।

“शेरा! वो तीनों भीतर ही हैं।" सोहन बोला ।

"तीनों को छोड़ हमें दीपाली से मतलब है। वो हाथ में आयेगी तो हम करोड़ों पा सकेंगे।"

“दरवाजा तोड़कर घुस जायें भीतर।"

“पहले दरवाजा खटखटाते हैं। शायद वो खोल दे और---।"

"ऐसी कोई बेवकूफी नहीं करनी है।" शेरा होंठ भींचे कह उठा--- "विजय के पास अमर की रिवाल्वर है। इस तरह के मौके पर वो गोलियां चलानी शुरू कर देगा। उसकी रिवाल्वर का हमें ध्यान रखना है।"

"तो क्या करें?"

"मकान पर नजर रखो और सोचते हैं कि विजय और हरबंस को मार कर कैसे दीपाली पर हाथ डाला जाये।”

"हरबंस बाहर निकला है।” एक ने कहा।

सबकी निगाह हरबंस पर जा टिकी।

“ये कहीं जा रहा है।” शेरा की आंखें सिकुड़ीं।

“मौका अच्छा है। भीतर विजय अकेला रहेगा दीपाली के पास और---।"

“फालतू मत बोलो।” शेरा ने टोका। उसके चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे।

उनके देखते ही देखते हरबंस कार में जा बैठा।

"वो कार में कहीं जा रहा है। मैं उसके पीछे जा रहा हूं।" शेरा ने कहा--- "इस वक्त वो अवश्य ही खास काम के लिए बाहर निकला होगा। तुम तीनों मकान पर नजर रखो। अगर वो दोनों बाहर निकलें तो विजय के पास मौजूद रिवाल्वर से बचते हुए, दीपाली पर कब्जा करने की कोशिश करनी है।"

हरबंस की कार आगे बढ़ी तो शेरा ने कार से उसका पीछा करना शुरू कर दिया।

कुछ देर बाद उसने हरबंस को ऐसी दुकान के सामने कार रोकते देखा जहां मोबाईल फोन मिलते हैं। हरबंस उस दुकान के भीतर गया तो, बाहर आने पर उसके हाथ में मोबाईल फोन था। शेरा समझ गया कि हरबंस नया फोन खरीदकर लाया है।

एकाएक कुछ सोचकर शेरा, हरबंस के पास जा पहुंचा।

“तुम?" उसे एकाएक सामने पाकर हरबंस चौंका।

"हां मैं। तुमने क्या सोचा था कि हमारी नजरों से बच गये?" शेरा खतरनाक स्वर में कह उठा।

“बचे न बचे की बात छोड़। क्या कर लेगा तू?" हरबंस का स्वर कठोर गया--- “साले ढंग से बात कर। मैंने तेरा उधार नहीं देना जो तू मेरे को दादागिरी दिखा रहा है।”

“अब पहले वाले हालात नहीं रहे हरबंस ।" शेरा ने अपनी आवाज को संभाला।

"पहले वाले हों या अब के, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अमर के कहने पर तूने मेरी तगड़ी ठुकाई की थी।”

“ताजे हालातों के बारे में नहीं सुनेगा ?”

“सुना दे। सुनने में मेरा क्या जाता है।"

"अमर को तो तेरे सामने ही सोफिया ने मार दिया था।"

"अमर जैसे लोग ज्यादा देर जिन्दा नहीं रहते। आगे बोल---।"

"तुम दोनों जब दीपाली को ले गये तो सोफिया ने उसी वक्त गुस्से में कल्पना को खत्म कर दिया।"

“क्या?" हरबंस हक्का-बक्का रह गया--- "कल्पना मर गई ?"

"हां। सोफिया ने उसे मार डाला।" शेरा की निगाह हरबंस के चेहरे पर थी।

हरबंस के चेहरे पर अफसोस उभरा नजर आने लगा।

"जिस रास्ते पर वो बेवकूफ चल पड़ी थी, देर-सवेर में ऐसा कुछ होना ही था।"

“सोफिया भी नहीं रही। उसे रात ही मैंने खत्म कर दिया।"

"ये तो कमाल कर दिया तूने। सोफिया भी गई।" हरबंस के होंठों से निकला--- "मामला ही साफ हो गया। लेकिन तूने सोफिया को क्यों मारा और अब मेरे से क्या चाहता है?"

"सोफिया, दीपाली को अपनी कैद में लेकर जो करना चाहती थी, वो काम अब मैं करना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि वो दोनों तुम्हारे घर पर हैं और वहां मेरे साथी नजर रख रहे हैं।"

"समझा। तो अब तूने अपना नम्बर लगा लिया।"

"ये हम दोनों के लिए मौका है हरबंस ।"

"कैसा मौका?"

"मैं और तुम मिल जाते हैं। विजय से पल्ला झाड़। दीपाली के बदले, सुखवंत राय एक करोड़ तो दे ही देगा।"

"एक। पागल है। कम से कम दस करोड़ की बात कर।" हरबंस ने गहरी सांस ली--- "लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता। मेरी मान तो अपने साथियों के साथ, अपने रास्ते पर लग जा।"

"क्या मतलब?" शेरा की आंखें सिकुड़ीं।

"प्यारे! मैंने अभी-अभी इसी दुकान से सुखवंत राय और प्राइवेट जासूस विनोद कुमार को फोन करके बता दिया है कि दीपाली मेरे यहां है। सुखवंत राय को पता भी बता दिया है। वो वहां पहुंचते ही होंगे। कोई फायदा नहीं है। वक्त खराब करने का। हो सकता तू खामखाह ही किसी फेर में फंस जाये। मेरी सलाह मान तो बिना पीछे देखे पतली गली से फूट ले। वरना तेरा हाल पूछने कोई जेल में भी नहीं आयेगा।"

"क्या कह रहा है तू?"

"सीधी-सी बात तेरे भेजे में नहीं उतरी।"

“इसका मतलब सोफिया की जान लेने का मेरे को कोई फायदा नहीं हुआ।"

“फायदे की बात छोड़। नुकसान की सोच। देर-सवेर में उनकी लाशें मिलेंगी। पुलिस मामले की तफ्तीश करेगी। कल्पना की लाश पहचानते ही, पुलिस अवश्य मेरे पास आयेगी। क्योंकि वो मेरी मुंह बोली बेटी थी। ऐसे में मैं उन्हें बता सकता हूं कि सोफिया को तूने मारा है। वैसे भी पुलिस बहुत तेज है गवाह ढूंढने में और वो इस बात को जान जायेगी कि तू सोफिया के साथ उस वक्त था। बेटे समझ ले। तेरा तो काम हो गया। अगर सोफिया की हत्या से तू बचना चाहता है तो, अपने साथियों को लेकर इस मामले से अलग हो जा। वायदा रहा कि पलिस मेरे पास आयेगी तो, तेरा नाम नहीं लूंगा। मत भूल कि अमर और कल्पना की हत्या के वक्त भी तू पास था। इस बात की गवाह तो विजय और दीपाली भी हैं। दीपाली भी तो पुलिस को बतायेगी कि कौन-कौन लोग उसके पीछे थे। मतलब कि तू तो बचने वाला नहीं शेरा। पुलिस के पास ये मामला जाने की देर है। लेकिन चिन्ता नहीं कर। मैं दीपाली और विजय से बात कर लूंगा। वो कहीं पर भी तेरा नाम नहीं लेंगे। ऐसा तभी हो सकता है, जब तू इस मामले से दूर बहुत दूर हट जाये।"

शेरा स्पष्ट तौर पर परेशान नजर आने लगा।

"इतनी समझ तो तेरे को भी होगी कि मैंने जो कहा है, ठीक कहा है। तू पुलिस को भी जानता है और हत्याओं के मामले को भी जानता है। तूने एक की हत्या ही नहीं की, बल्कि दो हत्याओं के वक्त पास में मौजूद था। मेरे ख्याल में मैं तेरे को ज्यादा ही समझा गया। जो मन में आये कर।" कहने के साथ ही हरबंस ने कार का दरवाजा खोला और ड्राईविंग सीट पर बैठते हुए बोला--- “ये कार तुम लोगों की ही है। अभी रास्ते में कहीं छोड़ देता---।"

"हरबंस !" शेरा के होंठों से निकला--- “अगर मैं इस मामले से पीछे हट जाऊं तो तू मेरा नाम कहीं नहीं लेगा ।"

"नहीं लूंगा। वायदा कर चुका हूं। सुना नहीं था तूने।”

“और वो, विजय और दीपाली ।"

"वो भी तेरा नाम इस मामले में नहीं आने देंगे। कितनी बार कहूं।"

“ठीक है। मैं इस मामले से पीछे हट रहा हूं और---।"

"अपने आदमी भी लेते जाना जो मेरे घर के बाहर खड़े हैं।" हरबंस ने लापरवाही से कहा।

“हां। उन्हें अभी साथ ले जाता हूं। मेरा नाम इस मामले में मत आने देना।"

"फिक्र में मरा क्यों जा रहा है। एक बार का कहा तेरे को सुनता नहीं क्या?"

■■■

रास्ते में हरबंस ने नाश्ता किया फिर घर पहुंचा। कार को उसने पास ही एक पार्किंग में खड़ी करके छोड़ दी थी। बेदी ने दरवाजा खोला। वो भीतर आया तो दरवाजा बंद कर दिया गया।

"मोबाईल ?" बेदी की निगाह उसके हाथ में पकड़े नये फोन पर पड़ी--- "ये कहां से लाया है?"

"खरीद कर। नया है। देख, चमक भी रहा है।” हरबंस मुस्कराया।

"लेकिन जरूरत क्या थी? अचानक मोबाईल फोन खरीदने की क्या सूझी?" बेदी ने उसे देखा।

"यूं ही मन कर आया। लोगों को हाथ में पकड़े देखता था तो सोचा मैं भी खरीद लूं।" हरबंस ने हौले से हँसकर कहा--- "मुझे भला किसने फोन करना है। कभी कोई रांग कॉल आ गई तो मजे से बात कर लूंगा।" इसके साथ ही हरबंस खिड़की पर पहुंचा। खिड़की खोलकर बाहर देखने लगा।

बेदी पास जा पहुंचा।

"क्या हुआ?" बेदी ने भी बाहर देखा।

ठीक तभी बाहर, उनके देखते ही देखते कार रुकी। ड्राईविंग सीट पर शेरा था। फौरन ही उसके पास तीन बदमाश पहुंचे। शेरा ने उनसे कुछ कहा। तीनों फौरन कार में बैठे और कार निगाहों से ओझल होती चली गई। शेरा ने एक बार भी इधर देखने की चेष्टा नहीं की थी।

"ये तो शेरा था।" बेदी के होंठों से निकला।

"हां। मिला था बाजार में। बोल रहा था दोनों मिलकर सुखवंत राय से माल ऐंठते हैं तो मैंने उसे ऐसी बातें कहीं कि इसने इस मामले से भागने में ही भलाई समझी।" हरबंस ने कहा--- “अमर तो हमारे सामने मारा गया था। हमारे वहां से निकलते ही सोफिया ने कल्पना को मार दिया।"

"ओह!"

"शेरा ने और समझदारी दिखाई कि इस मामले में सोफिया की क्या जरूरत है। दीपाली हाथ में आ गई तो सुखवंत राय से उसकी फिरौती खुद भी ले सकता है। ये सोचकर उसने सोफिया को खत्म कर दिया।"

बेदी गहरी सांस लेकर रह गया था।

“और अब पीछे यहां तक आ पहुंचा था। लेकिन मैंने उसे जब बताया कि अमर, कल्पना और सोफिया की हत्या के फेर में बुरा फंसेगा। बचना है तो अभी इस मामले से दूर हो जा। बात शेरा की समझ में आ गई और देखा तुमने--तुम्हारे सामने ही, भागा है।"

बेदी ने सोच भरे ढंग में सिग्रेट सुलगाई।

"इसका मतलब, अब दीपाली को किसी से खतरा नहीं रहा।"

"नहीं सारा मैदान साफ हुआ पड़ा है।"

"तो दीपाली को उसके घर पहुंचाया जा सकता है।" बेदी ने हरबंस को देखा।

"जल्दबाजी करना ठीक नहीं। अभी अमर के आदमी, सुखवंत राय के घर पर नजर रख रहे हैं।"

"वो अमर के लिए काम कर रहे हैं। अमर जिन्दा नहीं रहा। ऐसे में---।"

"उन्हें बताये कौन कि अमर की हत्या हो चुकी है। जो उनके पास जायेगा। वही मुसीबत में पड़ेगा।"

बेदी ने सोच भरे ढंग में कश लिया।

“अच्छा यही होगा कि किसी तरह दीपाली को उसके घर पहुंचा दें और---।"

"वो तो ठीक है। मैं भी यही सोच रहा हूं। अब ये काम खत्म हो जाना चाहिये और---।"

तभी दूसरे कमरे से दीपाली ने भीतर प्रवेश किया।

"नाश्ता किया आपने या बना दूं?" दीपाली ने हरबंस को देखते ही देखते ही पूछा।

"कर लिया है। बारह बज रहे हैं। दोपहर के खाने की फिक्र मत करना। पास ही में होटल है। ज्यादा दूर नहीं है। खाना ले आऊंगा। बैठो-बैठो। आराम करो।" मोबाईल फोन थामे हरबंस कुर्सी पर बैठता हुआ कह उठा--- "मैं जरा सोचता हूं कि अब क्या किया जाये।"

हरबंस, लंच बाहर से ही पैक करा लाया था।

तीनों ने एक साथ लंच किया। बेदी और दीपाली ने दही भी साथ लिया, परन्तु हरबंस ने दही नहीं लिया। लंच के पन्द्रह मिनट बाद बेदी और दीपाली का सिर भारी होने लगा। नींद आने लगी और फिर दोनों वहीं कुर्सियों पर ही बेहोश होकर लुढ़क गये।

ये देखकर हरबंस के चेहरे पर गहरी मुस्कान फैल गई।

उसने बेदी की बांह पकड़कर कुर्सी से उसे उठाकर फर्श पर लिटाया। दीपाली को भी नीचे लिटा दिया। फिर दूसरे कमरे से मजबूत पतली-सी रस्सी लाया और दोनों के हाथ-पांव मजबूती से इस तरह बांध दिए कि चाहकर भी अपने बंधन न खोल सकें। फिर दूसरे कमरे से बोतल और किचन से गिलास लाकर, पैग तैयार किया और धीरे-धीरे वक्त बिताने के अंदाज में छूट भरने लगा। चेहरे पर शान्ति के भाव थे।

■■■

एक घंटे बाद ही बेदी को होश आया। सिर अभी भी चकरा रहा था। अभी वो पूरी तरह आंखें नहीं खोल पाया था कि दीपाली को भी होश आना शुरू हो गया।

मिनट भर में ही दोनों सोचने-समझने के काबिल हो गये।

हरबंस शांत भाव से उन दोनों को बंधे देख रहा था। उसने एक पैग ही लिया था। उसके बाद दूसरा लेने की कोशिश नहीं की थी और बोतल बंद कर दी थी।

खुद को बंधे पाकर बेदी और दीपाली के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे। उन्होंने सामने ही कुर्सी पर बैठे हरबंस को देखा। बेदी की आंखें सिकुड़ गईं।

"हरबंस ! ये तूने क्या किया।” बेदी के होंठों से निकला।

"तुम दोनों ने दही खाया था।" हरबंस ने शांत स्वर में कहा--- "मैंने नहीं खाया।"

“मतलब कि तूने दही में बेहोशी की दवा---।"

"हां।" हरबंस ने सिर हिलाया--- "तुम दोनों बेहोश हो गये और मैंने हाथ-पांव बांध दिए।"

बेदी और दीपाली की नजरें मिलीं।

"विजय---।" दीपाली के स्वर में घबराहट आ गई थी।

"तूने ऐसा क्यों किया हरबंस?" बेदी के चेहरे पर गम्भीरता नजर आने लगी।

"ऐसा न करूं तो क्या करूं।" हरबंस ने कुर्सी पर बैठे-बैठे कंधों को झटका दिया--- "मैंने बहुत सोचा कि मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं। आखिरकार फैसला कर लिया कि मुझे क्या करना है।"

"क्या फैसला किया?" बेदी की गम्भीर निगाह, हरबंस पर थी।

"यही कि ज्यादा शरीफ बनना भी ठीक नहीं। एक-आध बड़ा काम कर लेना चाहिये कि बाकी जिन्दगी आराम से बीत जाये। नहीं तो मेरा है ही कौन जो मुझे रोटी देगा।" हरबंस कह रहा था--- "और फिर मौके भी बार-बार तो मिलते नहीं। ये मौका मिला है तो हो सकता है ऊपरवाले ने, ये सब मेरे लिए ही किया हो।”

"साफ क्यों नहीं कह रहे हरबंस ?"

"साफ ही कह रहा हूँ।" हरबंस ने सिग्रेट सुलगाई। कश लिया--- "अब मेरे पल्ले मेरी बात तो पड़ी नहीं। तू तो "सच का सिपाही" बना पड़ा है कि बिना मतलब के इस काम में हाथ डाला तो इस कारण इस काम से कोई पैसा नहीं लेना है। लेकिन भाई मेरे, मैं ठहरा गरीब बंदा। सारी उम्र यूँ ही गुजार दी। अब जरा-सा मौका मिला है, दो पैसे कमाने का तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि ये मौका मुझे छोड़ना नहीं चाहिये।"

"गलत बात है हरबंस।" बेदी के स्वर में ठहराव था--- "ऐसा करके तुम दोस्त से धोखेबाजी कर रहे हो।"

"तुम मेरे दोस्त नहीं हो विजय। तुमसे मेरी पहचान है सिर्फ।" हरबंस का स्वर शांत था।

"तुमने मुझे दोस्त कहा था।"

"याद है मैंने कहा था। इस बात से इन्कार नहीं करता।" हरबंस के होंठों पर हल्की-सी मुस्कान उभरी--- “नशे में कह दिया होगा। होश में भी कहा हो तो क्या फर्क पड़ता है।"

"मतलब कि मुझे धोखा देने की सोच चुके हो।" बेदी की निगाह हरबंस पर थी।

“सब चलता है, जिन्दगी में।" हरबंस ने कश लिया फिर सिर हिलाकर कह उठा--- “अब कल्पना को ही लो। बेटी की तरह पाला मैंने उसे। और उसने मुझे क्या सिला दिया। कितना दुःख पहुंचा मुझे। यही रिश्ते रह गये हैं, इस दुनियां में। फिर तुम्हारी-मेरी पहचान तो चंद दिनों की है। अब मैं सुखवंत राय से दीपाली की वापसी का सौदा करूंगा। बड़ा खेल खेलूंगा मैं। सौदा लाखों में नहीं करोड़ों में होगा। तुम बेशक "सच के सिपाही" बने रहो। इस मामले में तुम्हें कुछ नहीं लेना तो मत लो। लेकिन मैं ये खेल खेलूंगा। अभी भी तुम्हारे लिए चांस है विजय । दिमाग के बीच फंसी गोली निकलवाने के लिए तुम्हें छः लाख की जरूरत है। सख्त जरूरत है। वो गोली कभी भी तुम्हारी जान ले सकती है। चाहो तो मेरे साथ हो जाओ। छः लाख तो क्या, दौलत ही दौलत होगी तुम्हारे पास। कोई खतरा नहीं। चंद घंटों का खेल बाकी बचा है। बोलो क्या कहते हो?"

बेदी, एकटक हरबंस को देखता रहा।

दीपाली ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बेदी को देखा।

“क्या सोच रहे हो।” हरबंस मुस्कराया--- “दोबारा मौका नहीं मिलेगा। हां, बोल दे।"

"नहीं हरबंस ।” बेदी का स्वर सपाट था--- "मैं इस काम में तेरा साथ नहीं दे सकता।"

"तेरी मर्जी। बाजी मेरे हाथ में है। फिर भी मैंने तेरे को मौका दिया। सोचा एक से दो भले। तेरी हां-ना ही सुनना चाहता था आखिरी बार। सुन ली।” कहने के साथ ही हरबंस ने टेबल पर रखा मोबाईल फोन हाथ बढ़ाकर उठाया और मुस्कराकर कह उठा--- “अच्छा है। नया है। अब देखता हूं इसका इस्तेमाल कैसे होता है। कानों में पड़ने वाली आवाज कैसी लगती है।"

बेदी, एकटक हरबंस को देख रहा था।

दीपाली का चेहरा घबराहट से भर चुका था।

“अब क्या होगा विजय?" दीपाली के होंठों से निकला।

बेदी ने गम्भीर निगाहों से दीपाली को देखा।

"तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं। तुम्हारा कुछ भी बुरा नहीं होगा।" बेदी ने शांत स्वर में कहा--- “अमर-कल्पना, तुम्हारे साथ जो बुरा करना चाहते थे, वो हरबंस नहीं करेगा। इसे सिर्फ दौलत चाहिये। सब ठीक हो जायेगा।"

हरबंस ने विनोद कुमार का मोबाईल नम्बर मिलाया था। वही नम्बर जो विनोद कुमार ने उसे सुन्दर नगर में दिया था। एक ही बार में नम्बर मिला।

“हैलो---!” विनोद कुमार की आवाज कानों में पड़ी।

"जासूस साहब नमस्कार। हरबंस हूं मैं। पहचाना क्या ?” हरबंस हौले से हँसकर बोला।

“कहां से बोल रहे---।"

"मैंने कुछ देर पहले ही नया मोबाईल फोन लिया है। सोचा बात करके देखूं। ऐसे में पहला फोन तुम्हें ही मारा।"

“दीपाली का कुछ पता चला? वो---।”

"दीपाली मेरे पास ही है।" हरबंस का स्वर शांत ही था।

"तुम्हारे पास ।" हरबंस के कानों में पड़ने वाले विनोद कुमार के स्वर में हैरानी भर आई थी--- "तुम्हारे पास है दीपाली ।"

“हां। मेरे सामने मौजूद है।" हरबंस ने हाथ-पांव बंधे दीपाली पर नजर मारी।

"तुम कहां हो? हम अभी आते--।"

“आ भी जाना जासूस साहब।" हरबंस ने अपनी आवाज में लापरवाही भर ली--- “मैं कहां हूं, सब ठीक रहा तो ये भी मालूम हो जायेगा। लेकिन पहले मेरी फरियाद तो सुन लो।"

"क्या?"

हरबंस को देखती, बेदी की निगाहों में अब सख्ती आ गई थी।

दीपाली कभी बेदी को देखती तो कभी हरबंस को ।

“जासूस साहब! आपको तो मेरी हालत का पता ही है। दो हजार तुमसे उधार लेकर काम चलाया। दो दिन तो बढ़िया बीत गये। लेकिन आगे सारी जिन्दगी पड़ी है। सब कुछ देखना-सोचना पड़ता है। मैंने गलत तो नहीं कहा?"

"ठीक कहा।" विनोद कुमार की आने वाली आवाज में सतर्कता के भाव आ गये थे--- “क्या कहना चाहते हो?"

"अभी भी मान जा हरबंस।" बेदी कठोर स्वर में कह उठा--- "सीधे रास्ते पर आ-जा ।"

हरबंस ने उसकी बात सुनी। लेकिन अपनी बात चालू रखी।

“दीपाली को बचाने के चक्कर में मेरा खर्चा हुआ। मेरी ठुकाई भी हुई। मेरा बुरा हाल तो तुमने देखा ही था। वो सारे बदमाश मेरी जान भी ले सकते थे। जो बुरी बात मेरे साथ नहीं हुई, वो भी हो सकती थी। मानते हो।"

“मानता हूं।” विनोद कुमार की आवाज कानों में पड़ी।

“बहुत जल्दी मान रहे हो। मैंने तो सोचा था, समझाना पड़ेगा।" हरबंस सिर हिलाकर बोला--- “वैसे एक खबर तुम्हें दे दूं कि अमर, कल्पना और सोफिया, तीनों ही मारे जा चुके हैं।”

“क्या?” विनोद कुमार का हैरानी भरा स्वर कानों में पड़ा--- "किसने मारा उन तीनों को?"

"अमर को सोफिया ने मारा। सोफिया के इशारे पर, कल्पना की हत्या कर दी गई और फिर एक बदमाश ने सोफिया को मार दिया। ये सब कल रात को हुआ और दीपाली को पाने की कोशिश में हुआ।"

"ओह!"

"मतलब कि दीपाली अब खतरे में नहीं है। सुखवंत राय के बंगले के बाहर, अमर के आदमी अवश्य, अमर के कहने पर दीपाली के लौटने का इन्तजार कर रहे हैं। लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि अमर मर चुका है। मालूम होता तो वो अपने-अपने रास्ते पर लग जाते। दीपाली मेरे सामने है और विजय भी सामने ही है। दोनों के हाथ-पांव मैंने बांध रखे हैं। लेकिन उससे पहले बढ़िया खाना खिलाया है। किसी बात की फिक्र मत करना।”

“विजय को क्यों बांधा ?” विनोद कुमार का गम्भीर स्वर कानों में पड़ा।

“मन तो नहीं था, लेकिन बांधना पड़ा। मैंने उसे बहुत समझाया कि सुखवंत राय से खर्चा-पानी ले लेते हैं। दीपाली भी खुश। हम भी खुश। सुखवंत राय भी खुश। लेकिन दिमाग खराब हो गया इसका। नहीं माना। बहुत कोशिश की, माना ही नहीं। क्या करता। हाथ-पांव बांधने पड़े। नहीं तो मेरा रास्ता रोकता। गलत किया क्या ?"

"बिल्कुल ठीक किया।” विनोद कुमार की आवाज फौरन कानों में पड़ी।

“यार तू तो हर बात सीधे डण्डे की तरह माने जा रहा है।" हरबंस ने मुंह बिचकाकर कहा।

“मैं जानता हूं तू बुरा आदमी नहीं है।” विनोद कुमार की संभली आवाज कानों में पड़ी— “पैसे की भारी किल्लत कभी-कभी इन्सान को गलत रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर देती है। अब ये बता, दीपाली को लौटाने के बदले तेरे को क्या चाहिये? रकम बोल दे।"

“मुझे तो समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं। तू ही बता, क्या रकम बोलूं?” हरबंस बोला ।

पल भर की खामोशी के बाद विनोद कुमार की आवाज कानों में पड़ी।

"दस लाख ठीक है।"

“पन्द्रह तो अमर जैसा घटिया इन्सान मुझे दे रहा था। कुछ कहने से पहले सुखवंत राय की इज्जत का तो ध्यान रखो। क्यों इतने बड़े आदमी का नाम मिट्टी में मिला रहे हो, दस लाख की बात कहकर ।"

"तुम बोलो।"

“अमर-सोफिया होते तो दस-बीस करोड़ से कम का सौदा नहीं करते। ठीक कहा क्या?"

"हां। बोलते रहो।"

“लेकिन मैं शरीफ बंदा हूं। ये बात तुमने भी अभी कही। गरीब भी हूँ। बुढ़ापे की मुझे बहुत चिन्ता हो रही है कि मेरा खाना-पीना कहां से आयेगा। लेकिन मैं कम में काम चला लूंगा। दस-बीस करोड़ नहीं चाहिये।"

“तुम्हारा वो 'कम' कितना होता है हरबंस ?"

“एक करोड़।"

फोन पर चुप्पी छा गई। विनोद कुमार की तरफ से आवाज नहीं आई।

"नींद आ गई क्या?" हरबंस उखड़े स्वर में कह उठा--- "हां बोल । ना बोल।”

“ठीक है। तुम्हें एक करोड़ मिल जायेगा। तुम---।"

“तू देगा?"

"क्या ?"

“एक करोड़ तू देगा जो बादशाहों की तरह हां कह रहा है। सुखवंत राय ने देना है। मैं उससे बात---।”

"राय साहब मेरे पास ही हैं।"

"सुखवंत राय तेरे पास है। तो तू अब तक मेरे से बातें करके मजे क्यों ले रहा है।" हरबंस तीखे स्वर में कह उठा--- "सुखवंत राय से बात करा। अभी मामला इधर-उधर हो जायेगा।"

दूसरे ही पल सुखवंत राय की आवाज उसके कानों में पड़ी।

"दीपाली तुम्हारे पास है ?"

"नमस्कार राय साहब! नमस्कार ।" हरबंस कह उठा--- "दीपाली की आप फिक्र मत कीजिये। वो बिल्कुल ठीक-ठाक हाल में मेरे पास है। बदमाशों से बचा लिया है मैंने उसे।"

"तुम हरबंस हो। दीपाली ने कहा था कि विजय ने उसे बदमाश से बचाया!"

"राय साहब! विजय को मैं ही तो समझा रहा था कि दीपाली को बदमाशों से कैसे बचाना है। वरना विजय तो इस शहर में अजनबी है। अपना नाम मैंने इस मामले में इसलिए नहीं आने दिया कि वो बदमाश लोग मुझे जानते थे। वो मेरे पीछे पड़ जाते तो मैं विजय को कैसे समझाता कि, दीपाली को कैसे बचाना है।"

"दीपाली से मेरी बात कराओ।" सुखवंत राय की कानों में पड़ने वाली आवाज शांत थी।

“अभी लीजिये। कीजिये बात।" कहते हुए हरबंस कुर्सी से उठा और नीचे बंधी पड़ी दीपाली के पास पहुंचकर बोला--- “लो बेटी ! अपने पापा से बात करो।"

बेदी कठोर निगाहों से हरबंस को देख रहा था।

हरबंस ने फोन दीपाली के कान से लगा दिया।

“पापा!” दीपाली सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बोली।

“दीपाली !" सुखवंत राय का तड़प भरा स्वर कानों में पड़ा--- "कैसी हो बेटी ? तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं? तुम---।"

"मैं बिल्कुल ठीक हूं पापा।” दीपाली का स्वर भर्रा उठा--- “आप मेरी फिक्र मत कीजिये। अब मुझे पहले जैसा कोई खतरा नहीं। इस हरबंस को पैसे की जरूरत अवश्य है। लेकिन ये इतना बुरा नहीं है, जैसे वो लोग थे जो---।”

हरबंस ने दीपाली के पास से रिसीवर हटाया और खुद बात की।

“अपनी बेटी से बात कर ली राय साहब। मैंने फूलों की तरह उसे रखा हुआ है।"

तभी बेदी कह उठा ।

“हरबंस! तू बहुत गलत कर रहा है। ये सब मत कर।"

सुखवंत राय की आवाज फोन द्वारा, हरबंस के कानों में पड़ी।

“क्या चाहते हो?"

“शरीफ बंदा हूं राय साहब। गरीब भी हूं। कभी-कभी तो दाने-दाने का मोहताज हो जाता हूं। बाकी की जिन्दगी आराम से बीत जाये, इसलिए आपसे एक करोड़ रुपये की भीख मांगता हूँ। आपके लिए भला एक करोड़ है ही क्या। लेकिन उससे मेरा जीवन हँसी-खुशी बीत जायेगा।" हरबंस बहुत प्यार से कह रहा था--- "अगर आप देने से इन्कार भी करते हैं तो यकीन कीजिये। दीपाली को कुछ नहीं होगा मैं उसे छोड़ दूंगा। वो तो मेरी बेटी जैसी है। मैं---।"

“मिल जायेगा तुम्हें एक करोड़। दीपाली कहां है?" सुखवंत राय का गम्भीर स्वर हरबंस के कानों में पड़ा।

“शुक्रिया राय साहब। बहुत मेहरबानी। मैं जानता था कि आप बहुत दयालु हैं। धन्यवाद देने के लिए मुझे शब्द नहीं मिल रहे । वैसे आप लोग इस वक्त कहां हैं?" हरबंस का चेहरा खुशी से चमक उठा था।

“सुन्दर नगर में।"

"तो वापस अपने शहर आ जाईये। ढाई-तीन घंटों में तो आ ही जायेंगे। मेरे फोन का नम्बर विनोद कुमार के फोन पर आ गया है। यहां आकर फोन पर मेरे से बात कर लीजियेगा। एक करोड़ पड़े हैं या अभी इन्तजाम करना है? अपनी जानकारी के लिए पूछ रहा---।"

"मेरे वापस आने के दो घंटों में पैसा तुम्हें मिल जायेगा।"

"मैं जानता था, आप जैसे बड़े इन्सान के पास करोड़ों रुपया पड़ा होगा। लेकिन मैंने सिर्फ एक करोड़ ही भीख में मांगा। जरा भी लालच नहीं किया। ठीक है। आप वापस आकर फोन पर मुझसे बात कीजिये। उसके बाद मिलने की जगह तय कर लेंगे। एक करोड़ साथ लेते आईयेगा।”

"दीपाली को कोई तकलीफ न हो।"

“क्या बात करते हैं राय साहब! वो तो मेरी बेटी जैसी है। हां--आप विनोद कुमार को समझा दीजियेगा कि कहीं समझदारी दिखाते हुए, पुलिस को खबर न कर दे। मैं पुलिस के मामले में---।"

"फिक्र मत करो। मुझ पर भरोसा रखो। पुलिस इस मामले में किसी भी हालत में नहीं आयेगी और सब कुछ आराम से निपट जायेगा। वापस पहुंचकर, तीन घंटे तक मैं तुम्हें फोन करता हूं।"

“ठीक है राय साहब! मैं आपके फोन का इन्तजार कर रहा हूं।" कहने के साथ ही हरबंस ने फोन बंद किया और टेबल पर रखते हुए मुस्कराकर बेदी से कहा--- “क्यों, ठीक ढंग से बात की मैंने?"

बेदी का चेहरा कठोर हुआ पड़ा था।

"बहुत गलत कर रहा है हरबंस । दीपाली को बदमाशों से बचाने की जिम्मेवारी हमने, बिना किसी के कहने पर, अपनी खुशी से ली थी। ऐसे में दीपाली को लेकर, वक्त और मौके का फायदा उठाकर, बीच में से अपना मतलब निकालकर सिरे से ही गलत बात है। ये शराफत का हिस्सा नहीं है। बुरे कामों में भी शराफत इस्तेमाल की जाती है। लेकिन तुम तो इस वक्त दीपाली का, सुखवंत राय से सौदा करके, शराफत की हर हद को पार कर रहे हो।"

हरबंस हौले से हँसा ।

"जो कर रहा हूं मैं ही कर रहा हूँ। तेरे को क्या? ये अच्छा था कि दीपाली अमर-कल्पना के हाथ लग जाती। सोफिया उसे पकड़कर ले जाती। तब वो क्या हाल करते दीपाली का।" हरबंस ने मुस्कराकर शांत स्वर में कहा--- “मैं तो दीपाली को सुरक्षित ढंग से इसके बाप तक पहुंचा रहा हूं।"

"तुझे इस काम की कीमत नहीं लेनी--- ।”

"हो सकता है तेरा कहना ठीक हो। लेकिन मेरा कहना भी गलत नहीं है कि इस भले काम में मुझे दो पैसे मिल रहे हैं तो हर्ज क्या है। बहुत दौलत है, सुखवंत राय के पास। तेरे को कुछ नहीं लेना, मत ले । लेकिन बार-बार मुझे नसीहत मत दे। तेरी बातें सुनकर बोरियत होने लगी है मुझे।"

“सुखवंत राय ने पुलिस को खबर कर दी तो सोच तेरी बाकी की जिन्दगी---।”

“विजय!" हरबंस के स्वर में विश्वास के भाव थे--- "सुखवंत राय इस मामले में कभी भी पुलिस को नहीं लायेगा । उसे अपनी बेटी ठीक-ठाक वापस चाहिये। एक करोड़ की परवाह नहीं है उसे। उससे बात करके इस बात को मैंने बहुत ही अच्छी तरह महसूस कर लिया है।"

बेदी तीखी निगाहों से उसे देखता रहा ।

"सुखवंत राय का फोन आने में अभी तीन घंटे बाकी हैं।" हरबंस बोला--- "शाम तक एक करोड़ रुपया मेरे पास होगा। उसके बाद इस शहर में रहना मेरे लिए ठीक नहीं होगा। कल्पना-अमर-सोफिया की हत्याओं को लेकर पुलिस मुझे खामखाह अपने फेर में ले सकती है। ऐसे में एक करोड़ के साथ फौरन मुझे ये शहर छोड़ देना होगा। इसके लिए कार की सख्त जरूरत होगी। बेहतर है कि पहले ही मैं कार का इन्तजाम कर लूं।”

बेदी ने कुछ नहीं कहा।

हरबंस आगे बढ़ा। उनके बंधनों को चैक किया।

"मैं एक-डेढ़ घंटे में लौट आऊंगा। कहीं से कार का इन्तजाम करके। बाहर से दरवाजे को ताला लगाकर जा रहा हूँ। चीखने-चिल्लाने की कोशिश मत करना विजय।" हरबंस की आवाज में तीखापन आ गया--- "ऐसा कुछ तुम दोनों ने किया तो सच में मैं दीपाली को खत्म कर दूंगा।"

"दफा हो जा।" बेदी गुस्से से, कड़वे स्वर में कह उठा।

हरबंस ने बेदी को घूरा फिर मोबाईल फोन थामे बाहर निकला और दरवाजा बंद करके बाहर से ताला लगा दिया।

■■■

दीपाली ने बेदी के गुस्से से भरे चेहरे को देखा।

"विजय!" दीपाली ने कहा--- "अब चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। शाम तक हम हर खतरे से दूर, पापा के पास होंगे। अब तो सब ठीक हो गया।"

बेदी ने दीपाली को देखा फिर मुस्करा पड़ा।

"ठीक कहती हो।"

"हरबंस को पैसे की जरूरत है। पापा के पास बहुत पैसा है। ले लेने दो इसे करोड़ रुपया । क्या फर्क पड़ता है।" दीपाली बोली--- "तुम यूं ही क्यों गुस्सा करते हो।"

"दीपाली!" बेदी ने गहरी सांस ली--- "बात गुस्सा करने या न करने की नहीं है। ये सारा मामला हरबंस का नहीं मेरा है। मैंने ही तुम्हें बचाने की शुरूआत की थी। तो इस मामले का अंत भी मेरी ही इच्छा से, मेरी ही मर्जी से होना चाहिये। जबकि हरबंस खामखाह बीच में आकर, मौके का फायदा उठा रहा है।"

"करने दो, वो जो कर रहा है। तुम्हारा क्या जाता है।" दीपाली ने समझाने वाले ढंग में कहा।

बेदी गहरी सांस लेकर रह गया। उसकी नजरें इधर-उधर घूमने लगीं। आखिरकार उसकी निगाह टेबल पर मौजूद खाने के बर्तनों पर घूमने लगी।

"दीपाली!"

"हां।"

"तुम्हारे पास ही टेबल पर, कटोरी में एक चिम्मच पड़ा है।" बेदी ने होंठ सिकोड़े चिम्मच को देखते हुए कहा--- "कुछ तकलीफ तो होगी। कुछ ऊपर होकर मुंह से उस चिम्मच को पकड़कर नीचे गिरा दो । जरा-सा आगे सरको। तभी ये काम हो सकेगा।"

"क्या करना चाहते हो?" दीपाली ने उसे देखा।

"तुम्हें जो कहा है, वो करो। हरबंस कभी भी लौट सकता है।"

दोनों पेट के बल नीचे पड़े थे। टांगें पांवों के पास से बंधी हुई थीं। दोनों बांहों को पीछे करके बांधा हुआ था। ऐसे में ज्यादा कुछ करने की गुंजाईश नहीं थी।

दीपाली ने सिर ऊपर उठाकर, टेबल पर पड़े बर्तनों को देखा।

"इधर वाला चिम्मच नीचे गिरा दूं?” दीपाली बोली।

"नहीं। वो वाला चिम्मच, जो कटोरी में पड़ा है। वो तीखा है।"

दीपाली ने बेदी को देखा फिर किसी तरह शरीर को झटका देते हुए आगे सरकने की कोशिश की। बीच में मौजूद कुर्सी उसके आगे बढ़ने में अड़चन पैदा कर रही थी।

"ये कुर्सी---।" दीपाली ने कहना चाहा।

"इसे मैं हटा देता हूं।" कहने के साथ ही बेदी ने लेटे-लेटे दो करवटें लीं। अब उसके पांव कुर्सी तक पहुंच रहे थे। उसने जरा-सा पांवों को पीछे किया फिर कुर्सी पर मारा।

कुर्सी लुढ़ककर दूसरी तरफ जा गिरी।

दीपाली पुनः टेबल की तरफ सरकने लगी।

पांच मिनट की मेहनत के पश्चात् दीपाली सकरते हुए किसी प्रकार टेबल के उस हिस्से में पहुंच गई, जहां कटोरी में वो वाला चिम्मच पड़ा था, जिसके बारे में बेदी ने कहा था।

“गुड।” बेदी ने कहा--- “अब तुम्हें ऊपर उठना है। उल्टा लेटे-लेटे अपना चेहरा टेबल तक ले जाना है। ऐसा करने में परेशानी तो आयेगी। लेकिन करो। ज्यादा कठिन नहीं है काम।"

दीपाली के लिए ये काम बहुत कठिन था। पेट के बल लेटे-लेटे चेहरे को सेंटर टेबल तक उठाना। लेकिन उसने कोशिश की। अपनी हिम्मत से ज्यादा कोशिश की। बेदी शब्दों से उसका हौसला बढ़ाता रहा।

वक्त तो लगा, लेकिन दीपाली ने किसी तरह कटोरी को टेबल से नीचे गिरा दिया। इतनी मेहनत से ही दीपाली हांफने लगी थी। चेहरा लाल हो उठा था।

“वैरी गुड।” बेदी ने पुनः उसका हौसला बढ़ाया--- “अच्छा किया तुमने। अब चिम्मच को मुंह में दबाकर थोड़ा सा सरककर, मुंह घुमाते हुए इस तरफ फेंको। बीच में टेबल है। मैं चिम्मच तक नहीं पहुंच सकता।"

"लेकिन तुम चिम्मच का करोगे क्या?" दीपाली ने अपनी सांसों पर काबू पाते हुए पूछा।

“तुम्हें जो कहा है वो करो दीपाली।"

दीपाली ने नीचे पड़ा चिम्मच होंठों में फंसाया फिर पीछे सरकने लगी। हाथ-पांव बंधे होने के कारण ये सब करना उसे बहुत भारी लग रहा था। कुछ पीछे सरकने के बाद उसने एक करवट ली फिर होंठों में दबा रखा चिम्मच, सिर को झटका देते हुए बेदी की तरफ फेंका।

"ये ठीक है।" बेदी के होंठ भिंच गये थे। फिर वो चिम्मच की तरफ सरकने लगा। शरीर खिसकाने में दिक्कत हो रही थी, परन्तु कुछ ही मिनटों में वो इस तरह चिम्मच के पास पहुंचा कि डोरी से बंधे उसके हाथ की उंगलियां चिम्मच को छूने लगीं। दूसरे ही पल चिम्मच उसकी उंगलियों में दबा था।

बेदी ने दीपाली को देखा फिर एक साथ दो करवटें लीं। वो बहुत हद तक दीपाली के करीब जा पहुंचा था। चिम्मच को उसने खास ढंग से उंगलियों में पकड़ रखा था।

"दीपाली!"

"हां।"

“मेरी तरफ सरको। जरा-सा फासला है। पास पहुंचकर टेढ़े होते हुए, इस तरह जरा-सी करवट लेना कि तुम्हारे बंधे हाथ मेरे बंधे हाथों को छुएं। मैं इस तीखे चिम्मच से, तुम्हारी कलाईयों के बंधन काटूंगा।"

"चिम्मच से ऐसा हो जायेगा ?"

“वक्त लगेगा। लेकिन हो जायेगा, अगर हरबंस जल्दी न आ गया तो मैंने जैसा कहा है, वैसा करो।"

दीपाली सरककर बेदी के पास पहुंची और जरा-सी करवट लेकर पीठ से पीठ जोड़ ली। दोनों के बंधे हाथ एक-दूसरे को छूने लगे। बेदी ने तीखे वाले चिम्मच को अपनी उंगलियों में सैट किया फिर अंदाजे से ही चिम्मच की धार, दीपाली की कलाईयों पर बंधी डोरी पर धीरे-धीरे रगड़ने लगा।

डोरी वास्तव में बहुत मजबूत थी और उसे काटने के लिए औजार के तौर पर मात्र चिम्मच की धार थी। ऊपर से बंधे हाथ भी अंदाजे से चल रहे थे। ऐसे में एक घंटा लगा उस डोरी को कटने में।

लेकिन कट गई।

दीपाली ने फौरन बांहों को झटका दिया। लिपटी डोरी खुल गई। उसका चेहरा खुशी से भर उठा।

“विजय!” दीपाली अपनी बांहों को देखती प्रसन्नता से कह उठी--- "बंधन हट गये। मैं---।"

“अपनी टांगों के बंधन खोलो। जल्दी। हरबंस कभी भी आ सकता है।" बेदी ने जल्दी से कहा।

दीपाली ने अपनी टांगों के बंधन खोले ।

"किचन से चाकू लाओ और मेरे बंधन काटो ।”

दीपाली दौड़कर किचन में गई और चाकू लाकर बेदी के बंधन काट दिए। बेदी ने अपने हाथ-पांवों को हिलाया और उठ खड़ा हुआ। दीपाली मुस्करा कर उसके पास आई।

"हम आजाद हो गये विजय! अब हम यहां से जा सकते हैं।" कहते हुए दीपाली ने प्यार से उसका हाथ थाम लिया।

बेदी के होंठों पर मुस्कान उभरी।

"इधर से तो दरवाजा बाहर से बंद है। हम पीछे से---।"

"अभी नहीं। हरबंस के आने तक हम यहीं रहेंगे।" बेदी की आवाज में हल्की-सी सख्ती आ गई।

"क्या मतलब?"

“मतलब कि हम पीछे वाले नहीं, आगे वाले दरवाजे से जायेंगे और ये तभी हो सकता है, जब हरबंस आये।”

"लेकिन विजय।”

तभी दरवाजे पर आवाज उभरी।

ताला खोला जा रहा था।

"वो आ गया।” दीपाली के होंठों से घबराया-सा स्वर निकला।

■■■

हरबंस ने भीतर प्रवेश किया। चेहरे पर आज अनोखी ही चमक उभरी हुई थी। चंद ही घंटों में एक करोड़ रुपये का उसने मालिक बन जाना था। सारी उम्र सौ-पचास मांगने में गंवा दी। लेकिन अब ठीक है। कोई कमी नहीं रहेगी। मजे से कटेगी बाकी की जिन्दगी । जब मरेगा, तब भी करोड़ में से कुछ बचा रह जायेगा। अब संभलकर रुपया खर्च करेगा।

दरवाजा खोलते ही सबसे पहले उसने भीतर नजर मारी।

बेदी और दीपाली को उसने वैसे ही पड़े पाया। जैसे छोड़कर गया था। भीतर प्रवेश करके दरवाजा बंद करते हुए पलटा और मुस्कराकर बोला।

“कुछ ही देर की तकलीफ है तुम दोनों को। उसके बाद सब दुःख-दर्द दूर हो जायेंगे।” इसके साथ उसने आगे बढ़कर हाथ में पकड़े मोबाईल फोन को टेबल पर रखा और पास ही कुर्सी पर बैठता हुआ बोला--- “कार का भी इन्तजाम कर लिया है मैंने। बाहर ही खड़ी है। करोड़ हाथ में आते ही, मैं तो फुर्र हो गया समझो।"

"फुर्र होने के लिए पंखों की जरूरत पड़ती है हरबंस ।" बेदी कड़वे स्वर में कह उठा ।

"सुखवंत राय से मिलने वाला करोड़ रुपया पंखों का ही तो काम करेगा।" हरबंस हँसा।

उसी पल फुर्ती से बेदी सीधा हुआ और जेब से अमर वाली रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली।

ये देखकर हरबंस हक्का-बक्का रह गया।

दीपाली भी उठ खड़ी हुई।

"पंख तो तेरे हाथ से गये हरबंस। अब कैसे फुर्र होगा।" बेदी कड़वे स्वर में कह उठा।

हरबंस के मुंह से बोल न फूटा। आंखों में अभी भी अविश्वास था।

"कुछ कहोगे नहीं हरबंस ।" बेदी एक-एक शब्द चबाकर कह उठा।

हरबंस थोड़ा-सा हिला। सूखे होंठों पर जीभ फेरी । बोलता क्या।

"तुम जो खेल खेल रहे थे, वो तो खत्म हो गया।" कहते हुए बेदी खड़ा हो गया--- "पहली गलती तो तुमने ये की कि मेरी तलाशी नहीं ली। खुशी में भूल गये कि मेरे पास रिवाल्वर है। दूसरी गलती ये रही कि हमें बांधने के बाद ऐसे नाजुक मौके पर, हमें अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहिये था। नतीजा तुम्हारे सामने है। हम अपने बंधन खोल चुके हैं। तुम्हारे सामने खड़े हैं। तुम्हारी सारी तैयार बेकार हो गई।"

"सच में।" हरबंस व्याकुल स्वर में बोला--- “आज मेरी जिन्दगी का सबसे बुरा दिन है। ऐसा वक्त न तो मेरी जिन्दगी में आया है और न ही कभी आयेगा।"

"मैंने तुम्हें बहुत समझाया कि ये काम मत करो। लेकिन तुम नहीं माने क्योंकि तब तुमने मेरे हाथ-पांव बांध रखे थे। कोई तुम्हें रोकने-टोकने वाला नहीं था।" सख्त स्वर में कहते हुए बेदी आगे बढ़ा और हरबंस की छाती पर रिवाल्वर की नाल रख दी--- “अब क्या कहते हो?"

"मेरे पास कहने को कुछ नहीं है।" हरबंस ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"तुमने मेरे साथ धोखेबाजी की। ऐसे में मुझे पूरा हक है कि तुम्हें शूट कर दूं।"

"नहीं विजय!" दीपाली हड़बड़ाकर कह उठी--- "गोली मत चलाना। तुम्हें मेरी कसम।"

बेदी खा जाने वाली निगाहों से हरबंस को देखता रहा।

“तूने जो किया। उसे देखते हुए तुम्हें गोली जरूर मार देता।" बेदी ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "लेकिन क्या करूं, मैंने किसी की जान कभी नहीं ली। किसी को मारने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ती।"

हरबंस के चेहरे पर कुछ हद तक राहत के भाव उभरे।

"दीपाली!" बेदी ने सख्त स्वर में कहा--- “वो सारी डोरियां लाओ। इसके हाथ-पांव बांधने हैं।"

"तुम-तुम मेरे साथ क्या करने जा रहे हो विजय?" हरबंस घबराकर कह उठा--- “छोड़ दो मुझे। जाने दो मुझे। मैं---।"

"चुप कर।"

हरबंस खामोश हो गया।

अगले तीन मिनटों में हरबंस नीचे पड़ा था। उसके हाथ-पांव सख्ती से बांध दिये गये थे।

बेदी रिवाल्वर जेब में वापस डाल चुका था।

“बहुत अच्छा हुआ विजय!" दीपाली खुशी से कह उठी--- "अब हमें किसी का डर नहीं।"

बेदी उसे देखकर मुस्कराया।

“जब तक पापा नहीं आते, तब तक हम आराम से यहां रह सकते हैं। पापा का फोन इसी मोबाईल पर आयेगा।" दीपाली वास्तव में ही बहुत खुश नजर आ रही थी।

बेदी ने सिर हिलाते हुए सिग्रेट सुलगाई। चेहरे पर सोच के भाव थे।

"विजय!”

"हां।"

"मैं तुम्हें एक बात बताती हूं। तुम वैसा ही करना। सब ठीक हो जायेगा।"

"क्या मतलब?"

“पापा सीधे-सीधे तो हमारी शादी को तैयार नहीं होंगे।" दीपाली ने विजय की बांह पकड़कर कहा--- "लेकिन मैं पापा से कह दूंगी कि मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली---।"

“ये झूठ है।" बेदी के होंठों से निकला।

"मैंने कब कहा सच है। सच भी हो जायेगा।" दीपाली समझाने वाले ढंग में कह उठी--- "सिर्फ एक छोटा-सा झूठ ही तो बोलना है। मेरे कहने से और हम हमेशा के लिए एक हो जायेंगे। पापा हमारी शादी करा देंगे फिर---।"

"तुमने मेरे से पूछे बिना ही, शादी का फैसला कर लिया।" बेदी ने उसे देखा।

"मैं और तुम अलग-अलग हैं क्या?"

बेदी खामोशी से उसे देखता रहा।

"हम दोनों एक-दूसरे को शादी तक के लिए पसन्द करते हैं विजय। मुझे तो कभी कोई पसन्द आया ही नहीं। पहली बार तुम दिल में उतरे हो। दिमाग में फंसी गोली की फिक्र मत करो। पापा सब इन्तजाम कर देंगे। गोली निकल जायेगी। अच्छे ढंग से आप्रेशन हो जायेगा। तुमने बिना किसी लालच के खुद को खतरे में डालकर मुझे बचाया है। पापा तुम्हारा ध्यान नहीं रखेंगे तो---।"

“ये बातें बाद में भी हो--।"

"इतना तो बता दो कि मेरे कहने पर तुम पापा से कह दोगे। कि मैं, तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं?"

“हाँ।" बेदी के स्वर में किसी तरह का भाव नहीं था।

हरबंस, नीचे बंधा पड़ा दोनों को देख रहा था। दोनों की बातें सुन रहा था। हरबंस, दीपाली से कह देना चाहता था कि विजय झूठ बोल रहा है। ऐसा कुछ नहीं कहेगा। लेकिन वो बोला नहीं। ये सोचकर चुप रहा कि उसे इन बातों से क्या लेना-देना ।

बेदी के शब्दों पर दीपाली ने खुशी से गर्दन हिला दी।

"अब मैं जो कह रहा हूं, वो ध्यान से सुनो।" बेदी ने कहा--- "मेरा यहां रहना ठीक नहीं। अभी हालात पूरी तरह ठीक नहीं हुए। बाहर से कैसा भी खतरा आ सकता है। जब तक तुम्हारे पापा यहां नहीं आते, मैं बाहर जाकर यहां नजर रखूंगा। तुम दरवाजा भीतर से बंद कर लेना । हरबंस बंधा पड़ा है। इससे तुम्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं। सुन-समझ रही हो?"

"हां।" दीपाली ने हरबंस को देखा ।

"टेबल पर हरबंस का मोबाईल फोन पड़ा है। जल्दी ही इस फोन पर तुम्हारे पापा की या प्राईवेट जासूस विनोद कुमार की कॉल आयेगी। उन्हें यहां का पता बता देना कि तुम यहां हो। जब वो यहां पहुंच जायेंगे तो मैं बाहर से भीतर आ जाऊंगा। इस बीच अगर शेरा या किसी और ने बाहर से गड़बड़ करने की चेष्टा की तो, वो मैं संभाल लूंगा। लेकिन ऐसा होगा नहीं। सब ठीक रहेगा।"

"मैं समझ गई।"

"और ये हरबंस ।" बेदी ने शांत भाव से हरबंस को देखा--- "तुम्हें बचाने में, इसने मेरी बहुत सहायता की है। अपने पापा से कहना, इसे छोड़ दें। कुछ न कहें। बंदा बुरा नहीं।"

“ठीक है। पापा मेरी बात फौरन मान जायेंगे।" दीपाली बोली--- “तुम्हें याद है ना कि मेरी इस बात में तुमने हां कहनी है। कि, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने---।"

"याद है। इस वक्त एक बात, बार-बार मत कहो । पहले सब ठीक हो लेने दो। पानी पिलाओ मुझे।"

दीपाली फौरन किचन की तरफ चली गई।

बेदी तुरन्त हरबंस के पास पहुंचा।

"जो कार लाया है, उसकी चाबी कहां है?" बेदी ने धीमे स्वर में पूछा।

"इस वाली जेब में।"

बेदी ने तुरन्त चाबी निकाल ली।

"कार का रंग क्या है?"

"हल्का नीला। बाहर ही खड़ी है।" हरबंस की निगाह बेदी पर थी।"

"मैं जानता हूं तुम दीपाली से झूठ बोल रहे हो। उससे शादी करना तो दूर, अब दोबारा उसे नजर भी नहीं आओगे। खिसक रहे हो।"

“उसके-मेरे रास्ते अलग-अलग हैं हरबंस। वो अभी नादान है। मैंने उससे कभी नहीं कहा कि उससे शादी करूंगा। उसे बड़े-बड़े लोगों के रिश्ते मिल जायेंगे। मैं उसके लायक नहीं।" बेदी ने सपाट स्वर में कहा--- "तुम्हें कुछ नहीं होगा। कह दिया है मैंने दीपाली से।"

"इस मामले में मेरे दो-चार पैसे बन जाते तो तेरा क्या जाता, जो---।" हरबंस ने शिकायत भरे स्वर में कहना चाहा।

“गलत बात तो गलत ही है हरबंस । तुम---।”

तभी दीपाली पानी का गिलास लिए आ पहुंची।

"विजय, पानी---।”

बेदी ने पानी का गिलास लिया। पिया।

दीपाली ने खाली गिलास उससे लेकर टेबल पर रख दिया।

"मैं बाहर हूं।" बेदी, दीपाली से बोला-- “तुम्हें यहां कोई खतरा नहीं। दरवाजा बंद कर लो।" कहने के साथ ही बेदी ने हरबंस को देखा फिर दरवाजे की तरफ बढ़ गया। दरवाजा खोला बाहर निकला।

दीपाली ने दरवाजा बंद कर लिया भीतर से।

हरबंस ने गहरी सांस लेकर आंखें बंद कर लीं।

■■■

उस वक्त शाम के साढ़े छः बजे थे, जब एक साथ तीन कारें, हरबंस के घर के सामने आकर रुकीं। उनमें से सुखवंत राय, विनोद कुमार और उसके असिस्टैंट और सुखवंत राय के गनमैन बाहर निकले।

बेदी वहां से दूर हरबंस वाली कार में बैठा ये सब देख रहा था। उसके देखते ही देखते सुखवंत राय और विनोद कुमार दरवाजा खुलवाकर भीतर प्रवेश कर गये। बाकी सब बाहर ही मकान को घेरकर खड़े हो गये।

बेदी ने स्पष्ट देखा था, दरवाजा खोलने वाली दीपाली ही थी और दरवाजा खोलते ही वो सुखवंत राय की छाती से जा लगी थी। यानि कि दीपाली अब सुरक्षित थी। अपने पापा के हाथों में पहुँच गई थी।

बेदी ने गहरी सांस ली और कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी। अब इस काम में उसकी जरूरत बाकी नहीं रही थी। दीपाली को बचाना चाहता था और वो बच गई थी।

सब ठीक था अब ।

तभी सामने उसे एस०टी०डी० बूथ नजर आया। बेदी ने फौरन कार रोक दी। उदयवीर की याद आ गई । उसकी आवाज सुने कई दिन बीत गये थे।

फोन पर उसने उदयवीर से बात की। वो अभी गैराज पर ही था।

"उदय!"

"विजय! मेरे यार ।” फोन पर ही उदयवीर का खुशी से भरा स्वर कानों में पड़ा --- "तू कहां है? अपनी कोई खबर नहीं दी तूने । सब ठीक तो है?"

“सब ठीक है। शुक्रा से मिलने जेल गया था?" बेदी के स्वर में गम्भीरता आ गई।

"नहीं यार। हिम्मत नहीं हो रही।" उदयवीर के आने वाले स्वर में दुःख भर आया था।

"तेरे को जाना चाहिये। वो क्या सोचेगा कि तू या मैं उससे मिलने भी नहीं गये। शुक्रा से मिलकर आ।"

"अच्छी बात है।" उदयवीर ने भारी स्वर में कहा--- “कल जाऊंगा उससे मिलने ।”

“उससे कहना, हौसले से काम ले। भगवान पर भरोसा रखे। जैसे मैं ऊपर वाले पर भरोसा रख रहा हूं। साल भर की सजा है। हिम्मत से काट ले। सब ठीक हो जायेगा।” बेदी की आवाज में तड़प-सी भर आई थी।

"ह-हां। कह दूंगा। तू क्या कर रहा है?"

“छः लाख का इन्तजाम कर रहा हूं। अपने कर्म कर रहा हूं। कभी तो इन्तजाम होगा ही। जिन्दगी ने इतना तो अब तक मुझे सिखा दिया है कि जो होना है, वही होता है। दीवार से सिर टकराने का कोई फायदा नहीं ।"

"तेरा छः लाख पास पड़ा है। हिफाजत से है।"

"संभाल कर रखना। बाकी के छः लाख का इन्तजाम भी कहीं न कहीं से हो जायेगा। कोशिश कर रहा हूं कि जल्दी इन्तजाम हो जाये।" बेदी ने गहरी सांस ली।

"अपना ध्यान रखना विजय---।"

"हां। तू शुक्रा से जरूर जेल में मिलना। फिर फोन करूंगा।" कहने के साथ ही बेदी ने भारी मन से रिसीवर रखा और बिल चुकता करके वापस कार में आ बैठा और स्टार्ट करके कार आगे बढ़ा दी। कोई मंजिल नहीं थी। कोई कारवां नहीं था। अकेला था। इस शहर में ठहरना अब ठीक नहीं था।

किसी दूसरे शहर चलना था अब।

छः लाख का इन्तजाम करने के लिए। इन्तजाम हो गया तो बारह लाख इकट्ठे हो जायेंगे और डाक्टर वधावन से ऑप्रेशन कराकर, दिमाग में फंसी मौत रूपी गोली से छुटकारा पा सकेगा।

एक बार फिर नया सफर शुरू हो गया था बेदी साहब का। जरूरत थी बाकी के छः लाख की। देखते हैं कब-कहां से इन्तजाम होता है अब छः लाख का । या कोई नई मुसीबत, नया झंझट सामने आ खड़ा होता है। आने वाले वक्त से अंजान था बेदी, कि अब क्या होगा !

तभी दीपाली का चेहरा बेदी की आखों के सामने उभरा तो वो गहरी सांस लेकर रह गया।

बेदी साहब को तलाश थी छः लाख की।

समाप्त