करीब तीस मिनट बाद जब गोडास्कर ने ड्राइंगरूम में कदम रखा तब उसकी भूरी आंखों में गजब की चमक थी, होंठों पर सफलता से लबलबाई मुस्कान, शुक्ला ने पूछा—"कुछ मिला गोडास्कर?"

"इन्हें ऊपर ले चलिए सर, मकान की छत पर।"
"क...क्या है वहां?" हेमन्त पागलों की तरह चीख पड़ा।
गोडास्कर ने बड़े शांत स्वर में कहा—"चलकर अपनी आंखों से देख लें तो बेहतर होगा।"
इस तरह।
घर का हर सदस्य अजीब सस्पैंस में फंस गया।
उन्हें ठीक इस तरह छत पर ले जाया गया जैसे वे सब पुलिस की हिरासत में हों—सूरज शायद उदय होना चाहता था—पूर्वी गगन लालिमा से ओत-प्रोत हो चुका था और वातावरण में फैल चुका था सुरमई प्रकाश।
"पानी की उस टंकी को चैक करिए, सर।" गोडास्कर ने शुक्ला को टॉर्च देते हुए कहा—"सारी गुत्थियां खुद-ब-खुद सुलझ जाएंगी।"
सस्पैंस की ज्यादती बिशम्बर गुप्ता और हेमन्त आदि को पागल किए दे रही थी—दिल जोर-जोर से पसलियों पर चोट कर रहे थे—यह बात उनकी समझ में न आकर दे रही थी कि पुलिस आखिर चाहती क्या है—एकाएक ही उनकी स्थिति हिरासतियों-सी किस वजह से हो गई है और पानी की उस टंकी में आखिर है क्या?
आवाज किसी के मुंह से न निकली।
शुक्ला लोहे की छोटी सीढ़ी पर चढ़ गया—पानी की टंकी का ढक्कन गोडास्कर ने शायद उसी के लिए खुला छोड़ दिया था—शुक्ला ने टॉर्च की रोशनी में टंकी का निरीक्षण किया, कुछ देर तक ध्यान से जाने क्या देखता रहा—हेमन्त सस्पैंस के कारण मरा जा रहा था, जबकि एकाएक शुक्ला के मुंह से निकला—"मार्वलस गोडास्कर—इन चीजों की यहां मौजूदगी ने सब कुछ साबित कर दिया है।"
"क्या है वहां?" आतंक और दहशत में फंसा हेमन्त इस बार चीख ही जो पड़ा—"क्या साबित हो गया, आप लोग हमें भी तो कुछ बताइए।"
"अब अनजान बनने की कोशिश से कोई फायदा नहीं, मिस्टर हेमन्त।" शुक्ला सीढ़ी से सीधा छत पर कूदता हुआ बोला—"सारी चालबाजियां, सारी योजना धरी रह गई हैं।"
"क्या बक रहे हैं आप?" हेमन्त दहाड़ उठा—"कैसी स्कीम, क्या है टंकी में?"
"अभी मालूम हो जाता है।" कहने के बाद शुक्ला ने सिपाहियों को पानी की टंकी में मौजूद सामान निकाल लेने का हुक्म दिया—और जब सिपाहियों ने हुक्म का पालन किया तो हेमन्त को नहीं, बल्कि बिशम्बर गुप्ता आदि सभी को लकवा मार गया।
किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गए वे।
टंकी से सुचि की अटैची ही नहीं, बल्कि बिशम्बर गुप्ता का लाइसेंसी रिवॉल्वर भी निकला था, हेमन्त हलक फाड़कर चिल्ला उठा—"य...ये सब यहां, पानी की टंकी में—"
"जी हां, आपकी पानी की टंकी में।"
"य...ये सब कैसे हो गया—ये सारा समान टंकी में कहां से आ गया, हम कुछ नहीं जानते, इंस्पेक्टर भगवान कसम इस बारे में हम...।"
"श...शटअप।" शुक्ला इतनी जोर से दहाड़ा कि हेमन्त सकपकाकर रह गया—बिशम्बर गुप्ता, ललिता, अमित और रेखा कांप गए—जगदीश हक्का-बक्का!
"तुम लोगों का खेल खत्म हो चुका है।" शुक्ला कहता चला गया—"अब बेहतरी इसी में है कि हर किस्म का नाटक करना बंद कर दो।"
"न...नाटक?" बिशम्बर गुप्ता कह उठे—"हम कोई नाटक नहीं कर रहे हैं, शुक्लाजी, भगवान कसम खाकर कहते हैं, हम नहीं जानते कि ये चीजें टंकी में कहां से आ गई।"
"भगवान कसम खाकर तो आप यह भी कह सकते हैं कि आपने सुचि की हत्या नहीं की—अमित और हेमन्त लाश को पेड़ पर टांग कर नहीं आए।"
बिशम्बर गुप्ता स्टेच्यू में बदल गए।
सभी के साथ-साथ बहुत जोर से गड़गड़ाकर बिजली हेमन्त के दिलोदिमाग पर भी गिरी, परन्तु उसके मुंह से निकल ही गया-—"क...क्या मतलब?"
शुक्ला ने कहा—"इसे मतलब समझाओ, गोडास्कर। यह बेवकूफ अब भी यह समझ रहा है कि हम उसी गलतफहमी के शिकार हैं, जो इसने फैलाई थी।"
हेमन्त ने बड़े ही बेवकूफाना अंदाज में गोडास्कर की तरफ देखा, जबकि अपने अफसर का आदेश मिलते ही गोडास्कर ने कहना शुरू किया—"सचमुच तुम लोगों ने केवल एक खूबसूरत स्कीम बनाई मिस्टर हेमन्त, बल्कि उस पर ऐसी सफाई से अमल भी किया कि मैं धोखा खा गया—यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं कि लाश मिलने पर मैं तुम्हें निर्दोष समझने लगा—जिस धारा में पुलिस को तुम बहाना चाहते थे, उसी में बहता हुआ यह समझ बैठा कि सुचि ने शंकर नाम के ब्लैकमेलर से त्रस्त होकर आत्महत्या कर ली है, मैं तुम्हारी कल्पनाओं के घढ़े गए काल्पनिक शंकर की तलाश में जुट गया था, परन्तु तभी पोस्टमार्टम की रिपोर्ट ने सारी कलई खोल दी!"
"प...पोस्टमार्टम की रिपोर्ट?"
"जी हां।" गोडास्कर का स्वर व्यंग्य में डूब गया—"रिपोर्ट में साफ लिखा था कि सुचि की हत्या दस्तानेयुक्त हाथों ने गला घोंटकर की गई हैं, रस्सी का फंदा जीती-जागती सुचि के गले में नहीं, बल्कि लाश के गले में डाला गया।"
"य...यह आप क्या कह रहे हैं?"
"रिपोर्ट पढ़कर मैं चौंक पड़ा, क्योंकि अगर यह हत्या थी तो सुचि द्वारा लिखा गया इतना लम्बा सुसाइड नोट कहां से आ गया—मैं फौरन पोस्टमार्टम वाले डॉक्टर से मिला—उसने दृढ़तापूर्वक अपनी रिपोर्ट का समर्थन करते हुए कहा कि यह केस किसी भी हालत में आत्महत्या का नहीं है, क्योंकि यदि पेड़ पर फंदे में झूलने के बाद सुचि ने अपने पैरों से चट्टे की ऊपरी ईंटों हटाई होतीं तो उसके पैर में कही चोट का निशान जरूर होता, जबकि लाश के पैर के अंगूठे पर कहीं हल्की खरोंच तक नहीं है—डॉक्टर ने दावा किया कि गला घोंटकर सुचि की हत्या करने के बाद हत्यारे ने लाश के गले में फंदा डालकर पेड़ पर इस मंशा से, इस ढंग से लटका दिया है कि पुलिस इसे आत्महत्या का मामला समझे—वास्तव में सुचि रस्सी के फंदे से नहीं, बल्कि किन्हीं मजबूत हाथों से गर्दन दबाए जने के कारण मरी है।"
हेमन्त मूर्ति के समान खड़ा रह गया।
गोडास्कर कहता चला जा रहा था—"डॉक्टर के दावे ने मेरा दिमाग घुमाकर रख दिया, क्य़ोंकि उसकी रिपोर्ट पर संदेह नहीं किया जा सकता और अगर यह आत्महत्या नहीं थी तो सुचि के अंतिम पत्र का क्या मतलब था—डॉक्टर के यहां से उठकर मैं सीधा राइटिंग एक्सपर्ट के पास गया—अपनी रिपोर्ट में सिर्फ उसने यह लिखा था कि मेरे द्वारा दिए गए दोनों पत्र भिन्न व्यक्तियों ने लिखे हैं—मैंने उससे पूछा कि इनमें से कौन-सा पत्र वास्तविक राइटिंग में है और कौन-सा नकल की गई राइटिंग में—एक्सपर्ट ने तुम्हारा पत्र निकालकर यह कहा मिस्टर हेमन्त कि यह फर्जी है, बस—फिर क्या था—मैं ये समझ गया कि तुममें से कोई राइटिंग की नकल मारने में माहिर है—चैक करने के बाद एक्सपर्ट ने यह भी बता दिया पत्र उन्हीं हाथों ने लिखा है जिन्होंने तुम्हारा दिया पत्र—सुचि वास्तविक राइटिंग को नकली और नकली को वास्तविक साबित करने की तुम्हारी कोशिश की कलई खुल गई। अब मैं समझ गया कि लाश तुम्हीं ने वहां पहुंचाई है और सुसाइड नोट वाला पत्र भी तुम्हीं ने लिखवाकर वहां रखा है और उसका मजमून पुलिस को वास्तविक लाइन से भटकाने वाला, कल्पनाओं का सहारा लेकर बनाया गया।"
खेल खत्म!
ये दो शब्द हेमन्त के साथ-साथ बिशम्बर, ललिता, अमित और रेखा के जेहन से टकराए, जबकि गोडास्कर अब भी कहता चला  जा रहा था—"मैं समझ गया कि मुजरिम आप लोग हैं, ब्लैकमेलिंग की कहानी सिरे से काल्पनिक है, मगर अभी सुबूत जुटाने बाकी थे—मैं बस अड्डे गया—पूछताछ करने पर पता लगा कि बुलंदशहर से खुर्जे तक के जो टिकट तुमने मुझे दिए वह उस बस के थे, जो सुबह साढ़े चार बजे बुलंदशहर से होती हुई खुर्जा जाती है, उसके कंडक्टर का का बयान है कि बुलन्दशहर से निकलकर उसने सवारियां गिनीं तो उसने पाया कि बस में दो सवारियां कम थीं—खुर्जे से बुलंदशहर के टिकट तुमने खुर्जे से यहां आईं दो सवारियों से खरीदे थे—इसी तरह, एक ऐसे कार मालिक ने जिसके पास गैराज नहीं है, पुलिस को रपट लिखवाई कि रात जब उसने फुटपाथ पर गाड़ी खड़ी की थी तो मीटर रीडिंग कुछ और थी—सुबह कुछ और अतः उसे शक है कि रात के किसी समय किसी चोर ने फुटपाथ से गाड़ी चुराई, सारी रात इस्तेमाल की और सुबह होने से पहले ही यथास्थान खड़ी कर दी—यह गाड़ी मैंने डॉक्टर अस्थाना को दिखाई, उनका बयान है कि रात पेशेंट को उसी गाड़ी में लाया गया था—इन सब जानकारियों के बाद मेरे दिमाग में बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि लाश को वहां पहुंचाने के लिए आपने इसी गाड़ी का इस्तेमाल किया, परन्तु तुम्हारी पूरी कार्यप्रणाली अब भी ठीक से नहीं समझ सका था—सुचि की उस अटैची की तलाश थी मुझे, जिसे तुम लोग गायब बता रहे थे—अब से करीब डेढ़ घंटा पहले एस.पी. साहब की कोठी पर जाकर इनसे मिला—सारी सिच्युएशन बताई—इन्होंने कहा कि अटैची गुप्ता के मकान ही में कहीं होनी चाहिए—सो, आपके सामने है।"
सबकी टांगें कांप रही थीं, बोल किसी के मुंह से न फूटा।
"और अब" गोडास्कर ने गहरी सांस लेने के बाद कहा—"मैं इनके द्वारा लाश यहां से उस पेड़ तक पहुंचाई जाने की सारी वारदात ज्यों-की-त्यों सुना सकता हूं सर।"
"सुनाओ।" शुक्ला ने कहा—"कम-से-कम इन्हें भी तो पता लगे कि सुबूत किस हद तक सच बोलते हैं, भरपूर चालाकी के बावजूद गलतियां कहां रह जाती हैं?"
"मकान की तलाशी में हमें एक स्ट्रेचर जो शायद इनके सामने रहने वाले बंसल का है—तिरपाल, जिसमें से इतना बड़ा टुकड़ा कटा हुआ है कि उसे स्ट्रेचर की बाहियों में डालकर आराम से स्ट्रेचर को दोमंजिला बनाया जा सकता है—मिले है—ये दोनों चीजें साफ कह रही हैं कि ललितादेवी की बेहोशी के ड्रामे के साथ यहां से सुचि की लाश निकाली गई—पिछली रात सुचि की हत्या करने के बाद इन्होंने...।"
“यह गलत है, झूठ है।” एकाएक अमित चिल्ला उठा—“हमने भाभी को नहीं मारा—भगवान कसम हमने भाभी को नहीं मारा।”
"क्या यह भी झूठ है कि रेखा किसी की भी राइटिंग मारने में एक्सपर्ट है—झूठ मत बोलना मिस्टर अमित—मैं दीनदयाल से मिलकर इस बारे में सवाल कर चुका हूं—वह मुझे बता चुके हैं, बातों-बातों में एक दिन सुचि ने उन्हें बताया था कि उसकी ननद आश्चर्यजनक रूप से किसी की भी राइटिंग की नकल उतार देती है।"
"यह सच है।" अमित चिल्लाया—"यह भी सच है एस.पी. साहब कि कल रात हमीं ने भाभी की लाश यहां से पेड़ तक पहुंचाई—रेखा द्वारा लिखा हुआ पत्र छोड़ा—पुलिस को भ्रमित करने की कोशिश की—यह सच है, मगर यह गलत है कि हमने भाभी की हत्या की।"
"अपनी इस बकवास का मतलब जो शायद तुम्हारी भी समझ में नहीं आ रहा होगा यगमैन।" शुक्ला ने कहा—"जब कत्ल तुमने नहीं किया तो लाश वहां क्यों पहुंचाई? पुलिस को धोखा देने की कोशिश क्यों की? यह अटैची और रिवॉल्वर टंकी से कैसे बरामद हुए?"
"हम नहीं जानते, यकीन करो, हम कुछ नहीं जानते—भाभी की लाश हमें उनके कमरे में लटकी मिली थी—जाने किसने उन्हें मारकर वहां टांग दिया—जाने किसने उनका सामान इस टंकी में पहुंचा दिया, हम कुछ नहीं...।"
"शटअप—बकवास बद करो।" शुक्ला चिल्लाया—"इन्हें गिरफ्तार कर लो गोडास्कर, अब समय गंवाने की कोई वजह बाकी नहीं रह गई—हथकड़ियां पहनाओ।"
"म...मुझे क्यों?" जगदीश मिमिया उठा।
"हत्या करते या लाश को ठिकाने लगाते समय तुम इनके साथ भले ही न रहे हो, मगर इनके झूठ में जरूर शामिल थे—तुमने झूठ बोला कि कल रात ये दोनों तुम्हारे पास खुर्जा गए थे।"
"नो सर—मैंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया।" बुरी तरह हड़बड़ाए हुए जगदीश ने कहा—"अ...आप इंस्पेक्टर गोडास्कर से पूछ सकते हैं—इन्होंने मुझसे सवाल किया जरूर था, मगर मैंने जवाब नहीं दिया, मैं चुप रहा था।"
"क्यों इंस्पेक्टर?"
"यह ठीक कह रहे हैं सर, इन्होंने अपनी जुबान से झूठ नहीं बोला।"
"ठीक है, इन्हें छोड़कर सबको हथकड़ियां पहना दो।"
जगदीश के चेहरे पर राहत फैल गई, जबकि हेमन्त, ललिता और बिशम्बर गुप्ता के चेहरे पीले जर्द पड़ते चले गए—रेखा की टांगें कांप रही थीं और अमित का चेहरा भभक रहा था, बिशम्बर गुप्ता हारे स्वर में बोले—"मैं कहता था न हेमन्त कि कानून से टकराने की कोशिश मत करो—जीत उसी की होती है, अब शायद हमारे लिए यह साबित करना असंभव हो जाएगा कि हमने बहू की हत्या नहीं की।"
हेमन्त के होश उड़े थे, जीभ तालू में जा छुपी।
 
बिशम्बर गुप्ता, ललितादेवी, रेखा और हेमन्त के बाद गोडास्कर अमित के हाथ में हथकिड़यां डालने के लिए उसकी तरफ बढ़ा—अमित की स्थिति उन सभी से भिन्न थी—वे भय से कांप रहे थे, जबकि अमित गुस्से की ज्यादती के कारण—उनके चेहरे पीले थे, जबकि अमित का चेहरा ज्वालामुखी के समान भभक रह था—गोडास्कर के नजदीक आते ही उसने ऐसी हरकत की कि जिसकी वहां मौजूद लोगों में से किसी को ख्वाब में भी उम्मीद नहीं थी—होश तब आया जब गोडास्कर का रिवॉल्वर उसी की कनपटी से सटाए अमित गुर्रा रहा था—"अगर कोई भी हिला तो मैं इंस्पेक्टर के भेजे के परखच्चे उड़ा दूंगा—खबरदार, कोई आगे न बढ़े।"
सभी अवाक्!
हतप्रभ!
शुक्ला तक दंग रह गया।
अमित ने यह हरकत बिजली की-सी गति से की थी—इतनी तेजी से कि कई पल तक तो सब हक्के-बक्के रह गए, कोई कुछ समझ न सका और जब अमित की हरकत समझ में आई तो बिशम्बर गुप्ता चीख पड़े—"यह क्या बेवकूफी है अमित? गोडास्कर को छोड़ दो।"
"न...नहीं।" अमित चिल्लाया—"यह बेवकूफी नहीं बाबूजी—अब यही होगा, मैं अपनी बहन पर फेंके गए तेजाब और अपने परिवार के किए गए अपमान का बदला लेकर रहूंगा—पता लगाकर रहूंगा कि ये राज क्या है।"
"होश में आओ अमित। चुपचाप हथकड़ी पहन लो।"
"क्यों पहन लूं, हथकड़ी?" भावावेश में वह दांत भींचकर चीख पड़ा—"क्या किया है मैंने—क्या हमने भाभी को मारा है—अगर नहीं तो क्यों पहन लूं हथकड़ी? जब हमने भाभी को नहीं मारा है तो क्यों—बाबूजी?"
"ये लोग हमें मुजरिम...।"
"इनके समझने से क्या होता है और अगर ये समझते हैं तो समझते रहें—अमित नहीं डरता—अब यही होगा, बाबूजी—अमित सचमुच मुजरिम बनेगा—हिलो मत गोडास्कर वरना भूनकर रख दूंगा—लाश बिछा दूंगा।"
"उफ!" बिशम्बर गुप्ता तड़प उठे—"यह क्या हो गया है भगवान! अमित को तुम ही समझाओ, हेमन्त—पागल हो गया है यह।"
"रुक जाओ अमित।" हेमन्त ने कहा—"रिवॉल्वर फेंक दो।"
"क्यों रुक जाऊं—क्यों फेंक दूं, रिवॉल्वर?" अमित चीखता चला गया—"जब हमने भाभी को नहीं मारा तो हम लोगों को गिरफ्तार क्यों कर रहे हैं ये—तुम्हीं कहो भइया, क्या तुमने मारा है भाभी को—अगर नहीं तो ये हथकड़ियां क्यों पहनी हैं—मैं तुम्हारी तरह बुजदिल नहीं भइया—मैं कायर नहीं जो हथकड़ी पहन लूं।"
"म...मगर अब यह हरकत करने से फायदा क्या है, पगले?"
"मैं मनोज से बदला लूंगा—उसे यह बताकर रहूंगा भइया कि रेखा के भइया ने चूड़ियां नहीं पहन रखीं—अरे, कोई मजाक है जो मेरी बहन पर तेजाब फेंक गया?"
"भ...भइया।" रेखा चीख पड़ी।
"तू फिक्र मत कर रेखा—डरती क्यों है पगली—ये भाई उस कुत्ते की लाश तेरे कदमों में डालकर रहेगा।"
"न...नहीं भइया—मुझे कुछ नहीं चाहिए।"
रेखा चीखती रही मगर जिसके सिर पर जुनूर सवार हो, वह भला सुनता कहां है—अपना सारा ध्यान गोडास्कर पर केंद्रित किए वह गुर्राया—"आगे बढ़ो, इंस्पेक्टर और तुम सुनो, एस.पी. साहब—अगर तुमने या किसी भी पुलिस वाले ने हरकत की तो मुझे अपनी मौत का गम नहीं, मुझसे पहले इंस्पेक्टर मरेगा।"
शुक्ला ने अपने होलस्टर से रिवॉल्वर निकालकर उस पर तान दिया, बोला—"गोडास्कर को छोड़ दो, अमित—इस तरह तुम यहां से निकल नहीं सकोगे।"
"अगर मेरे हाथ गोडास्कर की मौत मंजूर हो तो बेहिचक गोली चला देना, एस.पी. साहब।" उसे कवर किए अमित जीने की तरफ बढ़ा—"मगर मैं जानता हूं कि आप ऐसी बेवकूफा नहीं करेंगे।"
"यह तुम्हारा वहम है, अमित—मैं तीन तक गिनूंगा, अगर तुमने तब भी खुद को पुलिस के हवाले न किया तो अपनी मौत के जिम्मेदार खुद होंगे।" यह वाक्य गोडास्कर के लिए एस.पी. का संकेत था—यह कि तीन पर उसे बचाव करना है।
एस.पी. ने गिनती शुरू की।
बिशम्बर, हेमन्त, ललिता और रेखा ही नहीं बल्कि जगदीश भी चीख-चीखकर अमित को रुक जाने के लिए कह रहा था मगर अमित नहीं रुका—उसे पूरा विश्वास था कि जब तक उसका रिवॉल्वर गोडास्कर की कनपटी पर है, तब तक एस.पी. लाख धमकियां देता रहे किन्तु गोली नहीं चला सकता—तीन तो क्या सौ गिनतियां पूरी होने पर भी वह फायर नहीं करेगा—यह विश्वास अमित को इसलिए था, क्योंकि बहुत-सी फिल्मों में उसने मुजरिम को इसी तरकीब के जरिए पुलिस के घेरे से निकलते देखा था।
अमित क्या जानता था कि वे केवल फिल्मी बातें होती हैं 
उस बेचारे को तो स्वप्न में भी गुमान न था कि एस.पी. कोड में गोडास्कर को बता चुका था कि हमला कब होगा—गोडास्कर ने खुद को सतर्क कर लिया था।
शुक्ला के रिवॉल्वर की नाल अमित की टांगों पर थी।
एक और दो के बाद मुंह से तीन निकालते ही शुक्ला ने अपने रिवॉल्वर का ट्रेगर दबा दिया। उधर ठीक इसी क्षण गोडास्कर नीचे बैठ गया।
गोली अमित की बाईं पिंडली में लगी।
झुंझलाकर उसने भी फायर झोंका परन्तु गोली हवा में गुम होकर रह गई—इधर अमित के लड़खड़ाते ही गोडास्कर ने उसकी गुद्दी पर कराटे का वार किया।
मुंह से चीख निकालता हुआ अमित जीने में लुढ़कता चला गया।
ये सारे काम मात्र एक पल में हो गए थे—गोडास्कर जीने में उसके पीछे लपका, मगर नीचे पहुंचने तक अमित लाश में बदल चुका था।
बिशम्बर गुप्ता आदि की चीख से सारा मौहल्ला दहल उठा।
 
"दहेज के लोभी—हाय-हाय।"
"बहू के हत्यारे—हाय-हाय।"
"हत्यारे ससुर को—बाहर निकालो।"
"कातिल पति—हाय-हाय।"
"अरे हत्यारी सास को—फांसी दो।"
थाने के आस-पास का इलाका इस किस्म के जाने कितने नारों से थर्रा रहा था—लोग बहुत उत्तेजित थे—जबरदस्त भीड़।
ऐसा महसूस देता था कि जैसे सारा शहर सिर्फ और सिर्फ थाने के बाहर इकट्ठा हो गया था—उनकी गिरफ्तारी का समाचार पेट्रोल पर दौड़ने वाली आग के समान सारे शहर में फैल चुका था—साथ ही, यह भी कि जब पुलिस गिरफ्तार करने पहुंची तो हत्यारा देवर भागने के प्रयास में मारा गया।
सुनकर किसी को हमदर्दी न हुई।
थाने के अन्दर ललितादेवी और रेखा दहाड़े मार-मारकर रो रही थीं—हथकड़ियों में जकड़े हाथों से कई बार रेखा ने पागल होकर अपने चेहरे की पट्टियां खोल डालने की असफल कोशिश की।
बिशम्बर गुप्ता आश्चर्यजनक रूप से शांत थे।
हेमन्त के मुंह से कोई आवाज न निकल रही थी, परन्तु आंखों से उबलते हुए गर्म-गर्म आंसू लगातार बह रहे थे—कोई नहीं जानता था कि ये आंसू अमित के लिए थे या उन नारों की प्रतिक्रिया, जो इनके कानों तक पहुंच रहे थे?
दस बजे तक थाने के बाहर इतनी भीड़ जमा हो गई कि अतिरिक्त फोर्स भी अब उस पर काबू पाने में असमर्थ थी—हर तरफ उत्तेजना।
दहकते हुए नारे।
गोडास्कर ने फोन पर किसी पुलिस अफसर को रिपोर्ट दी—"भीड़ बेकाबू और हिंसक होती जा रही है सर, अगर इनकी मांगें न मानी गईं तो ये लोग थाने पर पथराव कर सकते हैं—तोड़-फोड़ कर सकते हैं, कुछ भी हो सकता है, सर।"
"क्या मांगें हैं इन लोगों की?"
"कुछ लोग जाने कहां से तीन-चार गधे पकड़ लाए हैं, सर, भीड़ उन गधों पर बैठाकर सारे शहर में इनका जुलूस निकालना चाहती है।"
थोड़ी देर के लिए दूसरी तरफ खामोशी छा गई, फिर कहा गया—"कोर्ट का टाइम हो गया है, गोडास्कर—तुम ऐसा करो कि जिस तरह पब्लिक चाहती है, यानि इन लोगों को एक जुलूस की शक्ल में लेकर कोर्ट पहुंचो।"
"स...सर रेखा?"
"उसे जुलूस से अलग रखो और सुनो, इन लोगों के चारों तरफ सारे रास्ते तुम्हें पुलिस का ऐसा सशक्त घेरा रखना है कि कोई उनमें से किसी को ऐसा नुकसान न पहुंचा सके कि कल पुलिस के लिए कोर्ट के सवालों के जवाब देना मुश्किल हो जाए।"
"वह तो ठीक है सर, लेकिन—"
"लेकिन?"
"जुलूस निकालने के लिए मुझे पी.ए. सी की जरूरत पड़ेगी।"
"हम भेज रहे हैं।" कहने के साथ दूसरी तरफ से रिसीवर रख दिया गया—गोडास्कर थाने से बाहर निकला—भीड़ दुगने जोश के साथ नारे लगाने लगी, बड़ी मुश्किल से भीड़ को शांत करके उसने चीखकर घोषणा की कि उनकी मांग मान ली गई है—शोर-शराबा और उत्तेजना बढ़ गई—नारे पुलिस की प्रशंसा में लगने लगे—आवारा लड़के यूं नाचने लगे जैसे उन्हें खजाना मिल गया हो।
और।
ग्यारह बजे बिशम्बर गुप्ता, ललितादेवी और हेमन्त को थाने से उठाकर बाहर खड़े गधों पर बैठा दिया गया—जाने किसने उन तीनों के गले में एक-एक पट्टी डाल दी—बिशम्बर गुप्ता के गले में पड़ी पट्टी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—"मैं सूअर हूं—दहेज का लोभी कुत्ता हूं।"
ललिता के गले में—"मैं सास नहीं, चुड़ैल हूं।"
"मैं पति नहीं, हत्यारा हूं।" यह पट्टी हेमन्त के गले में पड़ी थी।
जुलूस चल दिया।
गधों को पी.ए.सी. के जवानों ने अपने घेरे में ले रखा था—गोडास्कर इस घेरे का नेतृत्व करता-सा आगे-आगे चल रहा था—भीड़ को चीरकर कर्नल सामने आया। उसके दोनों हाथ काले थे। चीखकर गोडास्कर से बोला—"मुझे कभी रिश्वत न लेने वाले इस मजिस्ट्रेट का मुंह काला करना है, इंस्पेक्टर।"
"सॉरी, इसकी इजाजत नहीं है।"
मगर कर्नल न माना।
गोडास्कर से जिद करता ही रहा वह—उसके समर्थन में ढेर सारे लोग जुट गए और विवश गोडास्कर को उसे इजाजत देनी पड़ी—गुस्से की ज्यादती के कारण पागल-सा हुआ जा रहा जयपाल अपने काले हाथ लिए, गधे पर बैठे बिशम्बर गुप्ता के सामने जाकर चीखा—"तेरी हकीकत यह है, बिशम्बर—यह है तेरा असली चेहरा।"
कहते हुए उसने बिशम्बर गुप्ता का चेहरा काला कर दिया।
रास्ते में जाने कितने लोग, कहां से अपने हाथों में स्याही लगा लाए, और कुछ ही देर बाद ललितादेवी तथा हेमन्त के चेहरे भी काले नजर आ रहे थे।
उफ!
इतनी जिल्लत—इतना अपमान!
वह भी उस शख्सियत का जिसके सामने कभी किसी ने आंखें उठाकर बात नहीं की—बिशम्बर गुप्ता सह न सके—कोर्ट पहुंचने से पहले ही दिल में दर्द की तीव्र लहर उठी—हथकड़ियों युक्त हाथों से उन्होंने सीने को भींचा।
ललितादेवी के अलावा किसी का ध्यान उनकी तरफ न था।
कुछ देर तक वे गधे पर बैठे दर्द के कारण तड़पते रहे और फिर फिसलकर गधे से नीचे गिर गए—पी.ए.सी. के जवान उन्हें उठाने के लिए लपके मगर स़ड़क पर पड़े वे जल-बिन मछली के समान तड़प रहे थे।
"कोई डॉक्टर को बुआओ—इन्हें दिल का दौरा पड़ा है, शायद।  पी.ए.सी. के जवान का वाक्य पूरा होते-होते बिशम्बर गुप्ता का जिस्म ठंडा पड़ा गया।
 
बिशम्बर गुप्ता की मृत्यु की खबर भीड़ में तेजी से फैल गई और इस खबर से सिर्फ इतना फर्क पड़ा कि नारे लगने बंद हो गए—दहेज के लोभी, बहू के हत्यारों से सहानुभूति अब भी किसी को न थी।
करीब तीन बजे उन्हें अदालत में पेश किया गया।
मजिस्ट्रेट ने सूचना दी—"यह जानकर शायद आप लोगों को दुख होगा कि श्री बिशम्बर गुप्ता का देहांत हो गया है—डॉक्टरी रिपोर्ट के मुताबिक दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हुई।"
कटहरे में खड़ी रेखा फूट-फूटकर रो पड़ी।
हेमन्त गर्दन झुकाए चुपचाप आंसू बहा रहा था और कटहरे में खड़ी ललितादेवी पर इस समाचार की भी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई—वह आंखें फाड़े, लगातार—पागल की तरह मजिस्ट्रेट की तरफ देखती रहीं—कुछ ऐसे अंदाज में कि एक बार को तो न्यायाधीश महोदय भी सकपका गए।
कुछ देर बाद न्यायाधीश ने उनसे सवाल किया—"क्या आपने गला घोंटकर अपनी बहू की हत्या की है, ललितादेवी?"
ललिता देवी हंस पड़ीं।
एक बार हंसना शुरू किया तो फिर हंसती चली गईं—बड़े ही डरावने अंदाज में हंस रही थीं वह—और समूचा अदालत कक्ष उनकी हंसी से कांप उठा।
हेमन्त ने चौंककर उनकी तरफ देखा।
उन्हें ध्यान से देखते हुए न्यायाधीश महोदय ने अपना सवाल दोहराया—"जवाब दीजिए, ललितादेवी—सुचि का गला आपमें से किसने घोंटा?"
"हा...हा...हा...मैंने...मैंने घोंटा था उसका गला...मैंने मारा है उसे हा...हा...हा...हा...मुझे दहेज चाहिए...वह हरामजादी दहेज नहीं लाई थी...हा...हा...जो दहेज नहीं लाएगा मैं उसे मार डालूंगी...मैं तुझे भी मार डालूंगी...हा...हा...तूने मुझे दहेज नहीं दिया तो तुझे भी खत्म कर दूंगी मैं...मैं सास नहीं चुड़ैल हूं...हा...हा मैं चुड़ैल हूं—मुझसे बचकर रहो—मैं सबको खा जाऊंगी...हा...हा।"
"मम्मी—मम्मी।" हेमन्त हलक फाड़कर चिल्लाया।
ललितादेवी उस पर गुर्रा उठीं—"चिल्लाता क्या है—तेरे चिल्लाने से क्या चुड़ैल डर जाएगी—अगर जिंदा रहना चाहता है तो दहेज लेकर आ—जा—वरना तुझे भी खा जाऊंगी मैं—हा—हा—हा गला घोंटकर खत्म कर दूंगी।"
हेमन्त के जबड़े भिंच गए, कसमसाकर कटहरे की रेंलिंग पर उसने इतनी जोर से घूंसा मारा कि अदालत कक्ष गूंजकर रह गया, न्यायाधीश ने फैसला सुनाया—"आज इस मामले की सुनवाई बिल्कुल मुमकिन नहीं है—यह सुनवाई बीस तारीख को होगी तब तक के लिए ललितादेवी को मेंटल हॉस्पिटल, रेखा को सरकारी अस्पताल और मिस्टर हेमन्त को जेल में रखा जाए—अगर मिस्टर हेमन्त चाहे तो पुलिस की निगरानी में अपने पिता और भाई का अंतिम संस्कार अपने हाथों से कर सकते हैं।"
ललितादेवी के कहकहे अदालत कक्ष में अब भी गूंजते रहे।
 
अगले दिन सुबह।
हाथ में लाठियां लिए पुलिस कर्मियों ने दोनों चिताओं को चारों तरफ से घेर रखा था—कूल्हे पर होलस्टर लटकाए जेलर साहब सादर मुद्रा में एक तरफ खड़े थे और पुलिस के इसी घेरे के बीच खड़ा हेमन्त देख रहा था आग की लपलपाती उन लम्बी-लम्बी जीभों को जो उसके छोटे भाई और पिता की चिताओं से आकाश की तरफ उठ रही थीं।
दहकती आग की लपलपाती वे जीभें हेमन्त को मुंह चिढ़ाती-सी महसूस हो रही थीं—जब लड़कियां चटकतीं तो उसे महसूस होता कि एक-एक करके उसके दिमाग की नसें चटक रही थीं—निर्दोष पिता और भाई की चिता में अपने हाथों से अग्नि दी थी उसने, मगर अपनी सुचि की लाश के साथ तो ऐसा भी न कर सका।
वह लाश दीनदयाल को सौंपी गई थी।
चंद पुलिस कर्मियों और जगदीश के अलावा इस वक्त यहां उसका अपना कोई भी तो न था—जिसके अंतिम संस्कार में सारे शहर को शामिल होना चाहिए था, उसकी चिता के नजदीक रह गई थी पुलिस—पुलिस का पहरा।
उसके दिमाग में सवाल उठ रहे थे कि क्या मैं अपने पिता की उस प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित कर सकूंगा जिसे सुचि हत्याकाण्ड ने खाक में मिला दिया है—क्या मैं इस शहर के निवासियों को कभी यकीन दिला सकूंगा कि हमने कभी दहेज नहीं मांगा, सुचि की हत्या नहीं की?
शायद नहीं।
ऐसा करने का कानून मुझे मौका ही कहां देगा?
अभी हेमन्त यह सब सोच ही रहा था कि जगदीश ने कहा—"कपाल क्रिया करो, बेटे।"
वह चौंका।
एक लाठी लिए आगे बढ़ा।
महापंडित द्वारा मंत्रोच्चारण के साथ 'कपाल क्रिया' की उसने और अपने छोटे भाई के काक पर लाठी मारते समय दहाड़े मार—मारकर रो पड़ा वह—अग्नि शिखाएं कुछ और भड़ककर उछलने लगीं।
रस्म के मुताबिक चिता के समीप से हटकर वह महापंडित के साथ मंदिर के अन्दर गया—जेलर और सिपाही जगदीश सहित बाहर खड़े रहे।
एक सिपाही के हाथ में वह हथकड़ी थी जो अंतिम संस्कार की रस्में समाप्त होते ही पुनः हेमन्त को पहना दी जाने वाली थी, मगर जब पांच मिनट हो गए, और मंदिर के अन्दर से हेमन्त या महापंडित में से कोई भी बाहर नहीं आया तो जेलर का माथा ठनका।
उसने सवालिया नजर से इधर-उधर देखा।
सभी सिपाहियों के चेहरों पर आश्चर्य के चिन्ह थे, जब जेलर से रहा न गया तो उसने जगदीश से पूछा—"इतनी देर क्यों लग रही है?"
"मैं भी यही सोचकर हैरान हूं!"
जेलर ने ऊंची आवाज में पुकारा—"हेमन्त!"
कोई जवाब नहीं।
एक सिपाही से महापंडित को पुकारा।
सन्नाटा।
"तुम देखो रामकुमार।" जेलर ने होलस्टर से रिवॉल्वर खींचते हुए हुक्म दिया—"मंदिर के अन्दर जाकर देखो कि ये कहां गए?"
रामकुमार नाम का सिपाही तुरन्त जूते उतारकर मंदिर में घुस गया—भीतरी भवन में पहुंचते ही उसके हलक से चीख निकल गई—महापंडित का बेहोश जिस्म शिवलिंग के समीप पड़ा था और मंदिर का पिछला दरवाजा चौपट।
"वह...भाग गया है, सर।" चीखता हुआ रामकुमार वापस दौड़ा—"पंडित को बेहोश करके वह पिछले दरवाजे से भाग निकला है।"
"पीछा करो उसका—अभी दूर नहीं गया होगा।"
हड़कम्प मच गया।
भगदड़।
मगर हेमन्त श्मशान में कहीं भी तो न था।
 
"अंकल...अंकल।" चीखता हुआ वह कर्नल जयपाल की कोठी के कम्पाउंड में दाखिल हुआ—बुरी तरह हांफ रहा था वह—बेतहाशा भागता हुआ कोठी के अन्दर दाखिल होना ही चाहता था कि।
"मैं यहां हूं।"
हेमन्त की नजर आवाज की दिशा में उठ गई—स्टडी के दरवाजे पर खड़ा कर्नल उसे ही घूर रहा था, हेमन्त अधीर होकर उनकी तरफ भागा, परन्तु अभी वह नजदीक पहुंचा भी न था कि कर्नल ने कड़ककर कहा—"खबरदार हेमन्त, वहीं रुक जाओ।"
हेमन्त जाम होकर रह गया।
"कर्नल जयपाल अग्रवाल के घर में मुजरिमों के लिए कोई जगह नहीं है।" उसने हेमन्त को घूरते हुए सख्त स्वर में कहा—"तुम्हें तो इस वक्त जेल में होना चाहिए।"
"उन्होंने मुझे अमित और बाबूजी का अंतिम संस्कार करने की छूट दी थी—किसी तरह वहीं से भागकर आपके पास आया हूं।"
"किसलिए?"
"म...मुझे आपसे कुछ बात करनी है, अंकल।"
"मुजरिमों से बात करना तो दूर, मैं उनकी परछाई तक देखना नहीं चाहता—यहां आकर तुमने बहुत बड़ी भूल की है, हेमन्त।"
"मैं आपकी कसम खाकर कहता हूं अंकल कि हम लोग निर्दोष हैं—हमने सुचि की हत्या नहीं की—मुसीबत की इस घड़ी में एकमात्र आप ही मुझे नजर आते हैं—आप ही मेरी मदद कर सकते हैं, क्योंकि मेरी नजर में आप ही सच्चाई के साथी हैं।"
"हम सच्चाई के साथी हैं, मुजरिमों के नहीं।"
"हम मुजरिम नहीं हैं, एक बार—सिर्फ एक बार मेरी बातें ठंडे दिमाग से सुन लीजिए, अंकल।" हेमन्त बुरी तरह गिड़गिड़ा उठा—"मुझे यकीन है कि मैं आपको यह यकीन दिलाने में कामयाब हो जाऊंगा कि हम मुजरिम नहीं हैं—हमने सुचि की हत्या नहीं की—कोई दहेज नहीं मांगा उनसे—हम किसी षड्यंत्र के शिकार हुए हैं—मैं आपके पैर पकड़ता हूं अंकल—एक—सिर्फ एक मौका दीजिए, अगर तब भी मैं आपको मुजरिम लगूं तो बेशक कानून के हवाले कर दीजिएगा।"
हेमन्त की गिड़गिड़ाहट में कुछ ऐसा जरूर था, जिससे प्रभावित होकर कर्नल इस बार तुरन्त ही दहाड़ा नहीं, बल्कि चेहरे पर कठोरता लिए सिर्फ उसे घूरता रहा—हेमन्त ने पुनः रिक्वेस्ट की तो उसने इतना ही कहा—"आ जाओ।"
"थ...थैंक्यू अंकल।" कहता हुआ वह उनकी तरफ लपका—वे दरवाजे के बीचोबीच से हट गए—यह हेमन्त को स्टडी में दाखिल हो जाने की इजाजत थी।
स्टडी के बीचोबीच खड़ा हेमन्त अपनी फूली हुई सांस को नियन्त्रित करने की चेष्टा के साथ ही यह भी सोच रहा था कि कर्नल साहब को यकीन दिलाने के लिए उसे बात कहां से शुरू करनी चाहिए—अभी वह निश्चय न कर पाया था कि चिटकनी चढ़ाने के बाद जयपाल घूमे, उसे घूरते हुए बोले—"बैठ जाओ।"
हुक्म का गुलाम-सा वह धम्म से सोफे पर गिर गया।
उसके नजदीक आते हुए कर्नल ने पूछा—"बोलो, क्या कहना है तुम्हें?"
हेमन्त अंजू के नाम से मिलने वाले टेलीग्राम से शुरू हो गया और फिर ज्यों-का-त्यों सब कुछ सुनाता चला गया।
सब कुछ।
यह भी कि सुचि की लाश घर से निकालकर उन्होंने क्यों और कैसे गुलावठी पहुंचाई—भागकर अपने यहां आने तक की पूरी कहानी सुनाने के बाद वह बोला—"सच्चाई यही है, अंकल। आपके दिमाग में ऐसे बहुत से सवाल उभर सकते हैं जिनका मेरे पसा कोई जवाब नहीं है और इसी वजह से आपको लग सकता है कि मैं झूठ बोल रहा हूं—लेकिन यकीन मानिए, अंकल—मैं उस बच्चे की कसम खाकर कहता हूं, जो मेरी सुचि की कोख में पल रहा था कि सच्चाई यही है—लेकिन आप यकीन कीजिए—मैंने रत्ती बराबर भी झूठ नहीं बोला है।"
"अगर मान लिया जाए कि तुम सच बोल रहे हो तो मैं इसमें क्या कर सकता हूं?"
"अदालत मुझे फांसी या उम्रकैद से कम सजा नहीं देगी—जानता हूं कि वहां से मुझे न्याय नहीं मिलेगा, क्योंकि जो कुछ आपको बताया, उसे मैं साबित नहीं कर सकता और अदालत मेरे अंकल की नहीं, कि बिना सुबूत के मुझ पर यकीन कर ले—उल्टे ऐसे सुबूत हैं कि जिनसे मैं हत्यारा साबित हो जाऊंगा, यदि सच्चाई पूछें अंकल तो वह यह है कि इन तीन-चार दिनों में मैं सब कुछ खो चुका हूं—इतना कुछ कि अब अदालत से किसी तरह का न्याय पाने की हसरत भी दिल में नहीं है।"
"फिर क्या चाहते हो तुम?"
"यह जानना चाहता हूं कि सुचि ने वह झूठा पत्र क्यों लिखा—वह कौन है जिसने सुचि की हत्या करने के बाद लाश हमारे बेडरूम में लटका दी—उसने ऐसा क्यों किया और सुचि की अटैची, बाबूजी का रिवॉल्वर तथा बीस हजार रुपये पानी की टंकी में कैसे पहुंच गए—अदालत से दी जाने वाली सजा भोगने से पहले मैं ऐसे ढेर सारे सवालों का जवाब चाहता हूं—और इनके जवाब तलाश करने में आप मेरी मदद कर सकते हैं।"
"बेशक...मैं तुम्हारी मदद जरूर करूंगा।"
"थैंक्यू अंकल—थैंक्यू वैरी मच—मुझे पूरा विश्वास था कि आप मेरी मदद जरूर करेंगे—जो हो गया उसे वापिस नहीं लाया जा सकता—मगर मैं इस शहर को यह बताना चाहता हूं कि जो हुआ वह गलत ही नहीं, अनर्थ हुआ—मरने से पहले मैं इस शहर को बता देना चाहता हूं कि बिशम्बर गुप्ता उसी सम्मान—उसी इज्जत के हकदार थे जो सारा शहर सुचि स्कैंडल से पहले उन्हें देता था—मैं इस शहर के बच्चे-बच्चे को यह बात समझा देना चाहता हूं अंकल कि जिन बिशम्बर गुप्ता को अपमानित करके मार डाला गया, वे देवता थे, श्रद्धा के पात्र थे—मरने से पहले अपने बाबूजी की खोई हुई प्रतिष्ठा को स्थापित करना ही मेरा लक्ष्य है।"
"ऐसा तुम नहीं कर सकोगे।" कर्नल साहब का सपाट स्वर।
"क्यों?" हेमन्त चौंक पड़ा—"जब आप मेरी मदद करेंगे तो मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकूंगा अंकल?"
"मैं इसमें तुम्हारी कोई मदद नहीं करूंगा।"
"क्यों अंकल?"
"मैं सिर्फ उन सवालों के जवाब दे सकता हूं जिनकी तुम्हें तलाश है, लेकिन बिशम्बर की खोई प्रतिष्ठा को स्थापित करने में तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।"
"मैं समझा नहीं अंकल, ऐसा क्यों?"
"क्योंकि वह आदमी मैं ही हूं जिसने तुम्हें, तुम्हारे सारे परिवार को इस बदतर हालत तक पहुंचाया है।" सपाट स्वर में कर्नल साहब कहते चले गए—"बिशम्बर की प्रतिष्ठा धूल में खुद मैंने मिलाई है।"
"अ...आप झूठ बोल रहे हैं अंकल, मजाक कर रहे हैं मुझसे।"
"और यह तमन्ना उसी दिन से मेरे दिल में थी जिस दिन बिशम्बर ने सुरेश को फांसी का हुक्म सुनाया—कुछ भी हो, इंसान चाहे जितना सिद्धांतवादी हो, मगर जवान बेटे की मौत सारे सिद्धांतो को जलाकर राख कर देती है बेटे—बिशम्बर गुप्ता के विरुद्ध उसी दिन से मेरे सीने में इंतकाम की आग धधक रही थी—न—न—न...उठने की कोशिश मत करो हेमन्त—अगर तुम हिले भी तो मेरे रिवॉल्वर की गोली वक्त से पहले ही तुम्हें हमेशा के लिए शांत कर देगी।" कठोर स्वर में कहने के साथ ही कर्नल जयपाल ने अपने जेब से रिवॉल्वर निकालकर उस पर तान दिया।
गुस्से की ज्यादती से भन्नाता हुआ हेमन्त ज्यों-का-त्यों रह गया।
"मैं तुम्हें बेहिचक गोली मार दूंगा, क्योंकि उसके बाद भी कानून मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।" कर्नल जयपाल गुर्राहटदार स्वर में कहता चला गया—"अपनी और मेरी स्थिति के फर्क को समझो बेटे, तुम इस वक्त एक फरार मुजरिम हो—मैं सच्चा और सम्मानित नागरिक—मेरा केवल इतना ही बयान काफी होगा कि तुम यहां से मेरे से अपने बाप का मुंह काला किए जाने का बदला लेने आए थे—मैंने पुलिस को फोन करना चाहा, मगर तुम बदला लेने पर तुले थे और आत्मरक्षा हेतु मुझे गोली चलानी पड़ी।"
हैरत और आतंक से घिरा हेमन्त अवाक् अंदाज में कर्नल के उस चेहरे को देखता रह गया, जो इस वक्त उसे किसी खूनी भेड़िए के चेहरे जैसा नजर आ रहा था।
उसे कवर किए कर्नल ने कहा—"किसी पर भी अपना राज खोलने का मेरा कोई इरादा नहीं था, लेकिन जिस अंदाज में तुम मेरे सामने गिड़गिड़ाए—रोए—मदद के लिए चिल्लाए उसने मुझे प्रभावित किया—जी चाहा कि तुम्हें उन सवालों का जवाब दूं, जिनकी तुम्हें तलाश है—काफी सोचने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि अगर मैं तुम पर अपना राज खोल दूं, तब भी मेरा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है और इसीलिए निश्चय किया कि कम-से-कम तुम्हारे सवालों का जवाब तो मुझे दे ही देना चाहिए।"
"क...कुत्ते—हरामजादे!" आपे से बाहर होकर हेमन्त चीख पड़ा—"मैं ख्वाब में भी नहीं सोच सकता था सूअर की औलाद कि वह तू है—मैंने तो ये...।"
"खामोश!" कर्नल दांत भींचकर गुर्राया—"अब अगर एक भी लफ्ज जुबान से निकाला तो हलक गोलियों से भर दूंगा—अगर वक्त से पहले मरना नहीं चाहते, अगर अपने सवालों का जवाब चाहते हो तो मुंह पर ताला लटकाकर सुनो—तुम्हारे बाप पर मैंने यह कभी जाहिर नहीं किया कि मेरे सीने में इंतकाम की आग धधख रही है—एक न्यायप्रिय और सिद्धांतवादी आदमी होने का मुखौटा चढाए मैंने उससे पुराने सम्बन्ध बनाए रखे—यह तुम्हारे बाप बेवकूफी थी जो वह यह समझता रहा कि एक बाप कभी अपने जवान बेटे के हत्यारे को माफ कर सकता है—तुम्हारे बाप ने इज्जत और सम्मान के अलावा सारी जिंदगी में कुछ भी नहीं कमाया था और उसकी यह कमाई सुरेश जैसे ही चंद मुकदमों की वजह से थी—मैंने निश्चय किया कि मौका मिलते ही बिशम्बर के उस सम्मान और प्रतिष्ठा को धूल में मिला दूंगा, जिसके पांव मेरे बेटे की लाश पर टिके हैं—मैं मौके की ताक में था मगर वह कमीना ऐसा कोई काम करता ही न था जिसका लाभ उठाकर इस शहर के लोगों की नजरों में गिरा सकूं—और एक दिन, जब मैं हापुड़ गया तो दीनदयाल की बेटी को एक युवक के साथ पार्क में घूमते देखा—उसके सम्बन्ध समझने में मुझे देर न लगी— वह पहला क्षण था जब मेरे दिमाग में एक स्कीम नाच उठी—एक लम्बी किन्तु सशक्त योजना—ऐसी जिससे मैं अपना बदला ले सकता था।" कर्नल सांस लेने के लिए रुका।
हेमन्त सांस रोके सुन रहा था, उसे एक क्षण की इंतजार थी जब कर्नल एक पल के लिए असावधान हो जबकि वह कहता चला गया- "बच्चा भी जानता था कि आज के जमाने में अगर किसी परिवार पर यह आरोप लग जाए कि उसने अपनी बहू से दहेज मांगा, उसकी हत्या की तो जो बेईज्जती होती है, वह किसी अन्य तरीके से नहीं हो सकती और बिशम्बर गुप्ता अपनी बहू से दहेज मांगने वाला नहीं था—अतः उस दिन के बाद मैं सुचि और उस लड़के के पीछे साया बनकर पड़ गया, जिसका नाम संदीप था—मैं उनके ऐसे संवेदनशील क्षणों के फोटो खींचने में कामयाब हो गया, जिनके बूते पर सुचि को जिस तरह चाहूं नचा सकता था—मेरी योजना थी कि कि किसी भी स्थिति में सुचि की शादी संदीप से नहीं होने दूंगा—दीनदयाल को बुरी तरह भड़का दूंगा और इसी सुचि को तुम्हारी दुल्हन, बिशम्बर गुप्ता की बहू बनाकर तुम्हारे घर में पहुंचा दूंगा—जानता था कि सुचि और संदीप एक-दूसरे से इतना ज्यादा प्यार करते थे कि दीनदयाल को भड़काने के बावजूद अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में मुझे काफी दिक्कत पेश आएगी, किन्तु मैं अपने इरादों पर दृढ़ था और तभी, कुदरत ने मेरा साथ दिया—संदीप एक कार एक्सीडेण्ट में मारा गया—सुचि बेचारी छुप-छुपकर रोने के अलावा कुछ न कर सकी—अब उसे किसी को यह बताने से भी कोई लाभ न होने वाला था कि कार एक्सीडेंट में मरने वाला युवक वास्तव में उसका गुप्त पति था—अब मेरा काम आसान हो गया—सुचि को तुम्हारी दुल्हन बना दिया—शादी के कुछ दिन बाद तक खामोश रहा, धैर्य से काम लिया और फिर मकड़ा बन गया—कुछ ऐसा भेष बनाकर सुचि से मिला कि वह मुझे पहचान न सके—य़ह मेरी एक ऐसी चाल थी कि ससुराल वाले दहेज न मांगें, तो न सही—दुल्हन खुद ही अपने पिता से दहेज मांगे—संदीप के साथ उसकी फोटुओं ने सुचि से वह पत्र लिखवाया—बीस हजार रुपये मंगवाए और अंत में मैंने उसे एक रात के लिए होटल में बुलाया—वह आई, क्योंकि उसे आना ही था—होटल के उसी कमरे में मैंने गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी—उसी रात बॉल्कनी वाले दरवाजे से लाश तुम्हारे बेडरूम में पहुंचाई और वहां उसे इस ढंग से टांगा कि जैसे उसने आत्महत्या की हो—उसका सामान और बिशम्बर का रिवॉल्वर पानी की टंकी में डाल आया—मेरा ख्याल था कि लाश को देखते ही तुम लोग पुलिस को सूचित करोगे कि सुचि ने आत्महत्या कर ली है—आत्महत्या का कोई कारण न तुम पुलिस को बता सकोगे न पुलिस को कारण न मिलेगा—अतः पुलिस की नजरों में संदिग्ध तो तुम इसी क्षण से हो जाओगे—उधर, पोस्टमार्टम के बाद पुलिस पर राज खुलेगा कि सुचि की हत्या की गई है, तब तक दीनदयाल भी सुचि का पत्र लेकर पुलिस तक पहुंच चुका होगा, अतः साबित हो जाएगा कि दहेज के लिए सुचि की हत्या तुम लोगों ने की है—टंकी से रिवॉल्वर और सुचि के सामान की बरामदगी यह साबित करेगी कि तुम पुलिस को धोखा देना चाहते थे।"
हेमन्त का दिमाग फिरकनी की तरह घूम गया।"
"मगर तुम लोगों ने वह नहीं किया जो मैंने सोचा था, बचने की कोशिश की और यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि बचने की तुम्हारी कोशिश काफी खूबसूरत थी, किन्तु अफसोस—तुम कामयाब न हो सके—पोस्टमार्टम की रिपोर्ट ने सब चौपट कर दिया और अंततः अंजाम वही हुआ जैसा मैंने सोचा था, जैसा मैं चाहता था—सारे शहर की नजरों में मैंने बिशम्बर गुप्ता के जीवन की एकमात्र कमाई यानी प्रतिष्ठा धूल में मिला दी—लोगों ने गधे पर बैठाकर मेरे बेटे के हत्यारे का जुलूस निकाला—इतना अपमान किया कि गधे पर बैठा-बैठा ही मर गया कमीना—मुझे खुशी है कि सबके सामने अपने हाथों से उसका मुंह काला कर सका—मुझे इस बात की भी खुशी है कि मेरे बेटे के हत्यारे ने अपनी आंखों से अपने बेटे की लाश देखी—तेजाब से जला अपनी बेटी का चेहरा देखा। अफसोस यह कि वह अपनी पत्नी को कहकहे लगाते न देख सका—तुम्हें मेरे सामने गिड़गिड़ाते न देख सका। मगर मैं बदला लेने में कामयाब रहा—उसका और उसके परिवार का नाम ले-लेकर इस शहर का बच्चा-बच्चा वर्षों नफरत से थूकता रहेगा—कभी किसी को पता नहीं लगेगा कि दहेज बिशम्बर गुप्ता ने नहीं, बल्कि खुद तुम्हारी दुल्हन ने मांगा था—हत्या बिशम्बर गुप्ता और उसके परिवार ने नहीं, कर्नल जयपाल अग्रवाल ने की थी।"
"म...मैं यह साबित करके रहूंगा।" हेमन्त चिल्लाया—"मैं अपने बाबूजी की प्रतिष्ठा स्थापित करने के बाद ही मरूंगा।"
कर्नल ने बड़ा ही जबरदस्त ठहाका लगाया।
बोला—"कभी नहीं बेटे, जो कुछ मैंने बताया वह भी एक ऐसी ही कहानी है, जिसे तुमने जान तो लिया, लेकिन साबित नहीं कर सकोगे, क्योंकि...।"
"क्योंकि?"
"जिस तरह खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए तुम्हारे पास कोई सुबूत नहीं है, उसी तरह इस कहानी को भी सच साबित करने के लिए तुम्हें कोई सबूत नहीं मिलेगा और सबूतों के अभाव में यह कहानी भी सिर्फ कहानी ही बनकर रह जाएगी—तुम अदालत को चीख-चीखकर वह सब कुछ बताओगे जो मैंने बताया है, मगर मैं अदालत में यह कहूंगा कि यह कहानी तुमने सिर्फ इसलिए गढ़ी है, क्योंकि मैंने तुम्हारे बाप का मुंह काला किया था—जो शख्स पहले ही एक काल्पनिक ब्लैकमेलर की कहानी गढ़ कर पुलिस को धोखा देने की नाकाम कोशिश कर चुका हो—सबूतों के बिना अदालत उस शख्स की इस कहानी को भी नितान्त मनघड़ंत करार देगी।"
हेमन्त दांत भींचकर कह उठा—"सबूत मैं इकट्ठे करूंगा कुत्ते।"
"सुबूत तो तुम तब इकट्ठे करोगे मेरे बच्चे, जब कहीं होंगे।" कर्नल ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा—"सच्चाई यह है कि अब अगर मैं खुद भी चाहूं तो इस कहानी को सच्ची साबित नहीं कर सकता।"
"क्या मतलब?"
"जो मैंने किया उसका कहीं कोई सबूत नहीं छोड़ा—आज से चार रात पहले होटल के जिस कमरे में मैंने हत्या की, आज मैं खुद साबित नहीं कर सकता कि वह कमरा मैंने कभी किराए पर लिया भी था—रजिस्टर तक में मेरे स्थान पर किसी अऩ्य के हस्ताक्षर हैं—होटल के स्टाफ का कोई भी शख्स मुझे पहचान नहीं सकता, क्योंकि किसी अन्य नाम से वे मुझे मकड़ा वाले चेहरे में पहचानते हैं और उस चेहरे को मैं खुद राख में बदलकर फ्लश में बहा चुका हूं—कमरे में हत्या का निशान जब आज तक न मिल सका तो अब क्या मिलेगा, जबकि वहां रोज नए ग्राहक आते-जाते रहते हैं—हत्या क्योंकि मैंने गला घोंटकर की थी, अतः किसी किस्म के चिन्ह आदि का सवाल ही नहीं उठता—सुचि क्योंकि स्वयं को छुपाकर वहां पहुंची थी अतः उस रात उसके वहां पहुंचने का कोई गवाह नहीं—हत्या से लाश को तुम्हारे बेडरूम तक पहुंचाते समय जो दस्ताने मैंने पहन रखे थे, उन्हें आज मैं खुद भी दोबारा हासिल नहीं कर सकता—लाश ले जाते हुए मुझे किसी ने नहीं देखा—उन नेगेटिव तक को जलाकर राख कर चुका हूं, जो मेरे द्वारा सुचि को ब्लैकमेल किए जाने के प्रमाण थे—मतलब यह कि अपनी कारगुजारी मैं किसी को बता तो सकता हूं, मगर साबित नहीं कर सकता—और जो साबित न हो वह हकीकत नहीं, सिर्फ कहानी होती है।"
हेमन्त किंकर्तव्यविमूढ़-सा बैठा रह गया।
कर्नल के स्पष्ट करने पर शायद पहली बार उसे यह अहसास हुआ कि वास्तव में उसकी स्थिति वही थी जो कर्नल ने बयान की—हर सवाल का जवाब मिल जाने, सारी सच्चाई जान जाने के बावजूद वह कुछ नहीं कर सकता था।
कुछ भी तो नहीं।
अदालत को यह सब बता देने, सिर्फ बता देने से कोई लाभ होने वाला न था और प्रूव करने के लिए कोई सुबूत नहीं, जबकि होंठों पर अपनी सफलता की मुस्कान लिए कर्नल राइटिंग टेबल पर रखे फोन की तरफ बढ़ा।
हेमन्त को कवर किए उसने एक नम्बर रिंग किया, सम्बन्ध स्थापित होने पर बोला—"हैलो, मैं कर्नल जयपाल बोल रहा हूं—एस.पी. साहब से बात करना चाहता हूं।"
दूसरी तरफ से कुछ कहा गया।
"थैंक्यू।" कहकर कर्नल शांत हो गया, रिवॉल्वर से उसे कवर किए—दूसरे हाथ से रिसीवर कान से लगाए कर्नल उसे देखता हुआ मंद-मंद मुस्कराता रहा और कुछ देर बाद एकदम चौंकता हुआ बोला—"जी हां, कर्नल बोल रहा हूं।"
हेमन्त ने अंदाजा लगाया कि दूसरी तरफ से कहा गया होगा—"कहिए।"
"शायद आपको पता लग गया होगा कि श्मशान से हेमन्त पुलिस का घेरा तोड़कर भाग निकला है—जी हां, वह मेरे पास कोठी पर पहुंचा—कम्बख्त के सिर पर अभी तक खून सवार है, कहता था कि मेरा कत्ल करने यहां आया है, क्योंकि इन्हें सबसे ज्यादा अपमानित मैंने किया है—अगर वक्त रहते मैं इस पर काबू न पा लेता तो शायद अपनी वाइफ की तरह मेरी भी हत्या कर देता, मगर फिलहाल मेरे रिवॉल्वर की नोक पर है—जी हां, आप फोर्स के साथ स्वयं आकर इसे ले जाइए।"
हेमन्त का खून खौल उठा।
सम्बन्धविच्छेद करने के लिए कर्नल से रिसीवर क्रेडिल पर रखना चाहा, किन्तु दृष्टि हेमन्त पर स्थिर होने की वजह से सही स्थान पर न रख सका—सही स्थान देखने के लिए जैसे ही उसकी नजर हेमन्त से हटी वैसी ही हेमन्त ने सेंटर टेबल पर रखा पेपर वेट उठाकर उस पर खींच मारा।
पेपर वेट कर्नल के सिर पर टकराया।
कर्नल दर्द के कारण चीखा और अभी अपनी बौखलाहट पर काबू न पा पाया था कि जख्मी चीते की तरह चीखता हुआ हेमन्त उसके ऊपर जा गिरा।
मेज को साथ लिए दोनों फर्श पर जा गिरे।
रिवॉल्वर कर्नल के हाथ से निकल गया।
दोनों बुरी तरह गुंथ गए।
आयु का फर्क होने की वजह से कुछ तो हेमन्त उस पर वैसे ही भारी था, दूसरे, सारे रास्ते बंद होने की वजह से हेमन्त पर वैसे भी खून सवार था—उसने शीघ्र ही स्वयं को कर्नल की पकड़ से मुक्त करके फर्श पर पड़े रिवॉल्वर पर जम्प लगाई।
इधर उसके हाथ में रिवॉल्वर आया उधर कर्नल उछलकर खड़ा हो गया, किन्तु अपनी तरफ तने रिवॉल्वर को देखते ही उसके छक्के छूट गए—वही हालत हो गई जो होटल के कमरे में सुचि के सामने हुई थी और हेमन्त का समूचा चेहरा भभक रहा था, गुस्से की ज्यादती के कारण सारा शरीर बुरी तरह कांप रहा था उसका, मुंह से गुर्राहट निकली—"अब तू बच नहीं सकता, हरामजादे।"
"ह...हेमन्त फायर मत करना, बेटे।" भयभीत कर्नल गिड़गिड़ा उठा—"र...रुको—मेरी बात सुनो।"
"बहुत सुन चुका, कुत्ते।" हेमन्त दांत भींचकर गर्जा—"जब से आया है तेरी ही तो सुने जा रहा हूं और अब समझ चुका हूं कि अपने बाबूजी की खोई प्रतिष्ठा स्थापित नहीं कर सकता—अदालत और इस शहर को सच्चाई बता तो सकता हूं, मगर उसे प्रूव नहीं कर सकता, लेकिन अपनी बरबादी, अपने परिवार की बदनामी, सुचि, अमित और बाबूजी की मौत, रेखा की बदसूरती और अपनी मां के पागलपन का बदला तो ले ही सकता हूं मैं।"
"ऐसी बेवकूफी मत करना अमित—अगर मैं मर गया तो तुम कभी साबित नहीं कर सकोगे कि मैं मकड़ा बना था, मैंने ही सुचि की हत्या की थी।"
"साबित तो तुम्हारे जीवित रहने से भी नहीं होगा।"
"म...मैं खुद अदालत को सच्चाई बताऊंगा, जो तुमने कही है।"
"तुम्हारे कहने से भी अदालत यकीन नहीं करेगी, तुम खुद प्रूव नहीं कर सकते कि वह सब सच है और बिना सुबूतों के...।"
“स....सबूत मैं दूंगा—मैं अदालत में खुद इस कहानी की सच्चाई साबित करूंगा।”
"अभी तो तुम कह रहे थे कि सारे सबूत नष्ट कर चुके हो?"
"व...वह झूठ था—सच यह है कि मेरे पास सारे सबूत हैं, मैं साबित कर सकता हूं कि मैंने ही सुचि को ब्लैकमेल किया, मैं ही मकड़ा बना और मैंने ही उसकी हत्या की।"
"साबित करो, इसी वक्त पेश करो—क्या सुबूत हैं तुम्हारे पास।"
"म...म...मैं।" वह केवल गिड़गिड़ाकर रह गया।
हेमन्त गुर्राया—"तुम्हारे पास कोई सबूत नहीं है—अगर हैं भी तो अदालत तक पहुचंते-पहुंचते तुम मुकर जाओगे—अब मैं तुम्हारे इस फरेब के जाल में फंसने वाला नहीं हूं—अपने हाथ से तुम्हारी लाश बिछाने के अलावा अब दिल में कोई इच्छा बाकी नहीं बची है कर्नल, मरने के लिए तैयार हो जाओ।"
"म...मेरी बात तो सुनो, बेटे...मैं तुम्हें।"
"धांय—धांय—धांय।"
कर्नल जयपाल कटे वृक्ष के समान फर्श पर गिर पड़ा।
 
हेमन्त चुप हो गया—मैं (वेद प्रकाश शर्मा) पूरी तरह स्तब्ध था—शुरू से अंत तक मैंने इसी स्तब्ध अंदाज में हेमन्त की कहानी सुनी थी और अब उसके बोलने का इंतजार कर रहा था—जेल के मुलाकाती कक्ष में छाई खामोशी जब जरूरत से ज्यादा लम्बी हो गई और वह कुछ न बोला तो मैंने सवाल किया—"उसके बाद?"
"उसके बाद क्या?" हेमन्त ने उल्टा सवाल किया।
"कर्नल जयपाल को मारने के बाद तुमने क्या किया?"
वह मेरे सामने से उठकर खड़ा हो गया—धीरे-धीरे चलता हुआ कक्ष की सामने वाली दीवार तक गया और फिर अचानक तेजी से पलटकर बोला—"तुम्हारे ख्याल से क्या करना चाहिए था मुझे?"
मैं चुप रह गया।
दरअसल उसके सवाल का कोई उचित जवाब मुझे सूझा ही न था, अतः सिर्फ उसकी तरफ देखता भर रहा, जबकि मुझे ऐसी मुद्रा में देखकर उसके होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई, बोला—"दरअसल ठीक तुम्हारे जैसा स्थिति मेरी भी हो गई थी—कुछ सूझा ही नहीं, क्योंकि न मेरे लिए कोई लक्ष्य रह गया था, न दिल में जीने की आरजू—बाबूजी की यह बात समझ में आ चुकी थी कि हम कानून को तत्काल तो धोखा दे सकते हैं, परन्तु हमेशा नहीं, अतः पुलिस के आने पर खुद को एस.पी. साहब के हवाले कर दिया।"
"क्या पुलिस को कर्नल की सच्चाई बताई?"
"हां।" वह वापस मेरी तरफ आता हुआ बोला—"मगर कर्नल के सारे घर की तलाशी लेने के बावजूद पुलिस को ऐसी कोई चीज नहीं मिली जो उसे मकड़ा या सुचि का हत्यारा साबित करती—मरने से पहले उसने न मुझे उस होटल का नाम बताया था, न कमरा नम्बर, जिसमें सुचि की हत्या की—सो, पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि मैंने उसी वजह से कर्नल की हत्या की है जो फोन पर एस.पी. साहब को बताई थी।"
"फिर?"
"अदालत की कार्यवाही का सिलसिला शुरू हुआ—मैं हर पेशी पर तोते की तरह वह सुना देता हूं, जो कर्नल ने बताया था—अदालत सबूत मांगती है—मैं चुप रह जाता हूं और इस स्थिति में मेरे बयान को बचाव की खोखली दलील से ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता—सुचि के साथ-साथ मेरे सिर पर कर्नल की हत्या का इल्जाम भी है और अब तो स्थिति यह आ गई है कि जब मैं चीख-चीखकर यह कहता हूं कि कर्नल ही सुचि का हत्यारा है—उसी ने मकड़ा बनकर हमसे अपने बेटे की मौत का बदला लिया है तो सरकारी वकील से यह कहा जाता है कि मैं अदालत का कीमती वक्त जाया कर रहा हूं।"
"मतलब अब तक इस केस का फैसला नहीं हुआ है?"
उसने मुझे घूरकर देखा, कुछ ऐसे अंदाज में जैसे मुझे बेवकूफ करार देने वाला हो, सवाल किया उसने—"क्या तुम्हें नहीं लगता कि फैसला हो चुका है?"
"क्या मतलब?"
"तुम शायद उस दिन इस केस का फैसला हुआ मानोगे जिस दिन अदालत विधिवत् फैसला सुनाएगी, मगर मेरी समझ के मुताबिक फैसला कर्नल के मर्डर के साथ ही हो गया है।"
"मैं समझा नहीं?"
उसने मेरी आंखों में झांकते हुए सवाल किया—"तुम्हारे ख्याल से क्या फैसला हो सकता है?"
"कुछ भी, जब तक हो न जाए, क्या कहा जा सकता है?"
"तुम भले ही न कह सको—मगर मैं कहता हूं।" हेमन्त कहता चला गया—"अदालत मेरी एक न सुनेगी—मुझे वही सजा सुनाई जाएगी जो अपनी बीवी के हत्यारे, कानून को धोखा देने की कोशिश करने वाले मुजरिम और कर्नल जैसे किसी सम्मानित व्यक्ति का मर्डर करने वाले को सुनाई जाती है—इसके अलावा किसकी अन्य फैसले के लिए केस में गुंजाइश ही नहीं है, अगर हो तो सोचकर तुम बता दो।"
मैं चुप रह गया।
दरअसल हेमन्त के शब्दों की कोई काट नहीं थी मेरे पास—अतः विषय बदलने की गर्ज से पूछा—"ये सारी कहानी मेरठ से यहां बुलाकर तुमने मुझे क्यों सुनाई?"
"अदालत को कहानी नहीं हकीकत चाहिए और मेरे पास है सिर्फ कहानी—मेरे और मेरे परिवार के साथ घटी घटनाएं हकीकत होते हुए भी सुबूतों के अभाव में सिर्फ एक कहानी है, अतः वह अदालत के लिए नहीं, केवल तुम जैसे किसी लेखक के लिए रह गई।"
"मगर विशेष रूप से मुझे ही क्यों, लेखक तो और बहुत हैं  "
एकाएक गुर्रा उठा हेमत—“बहू मांगे इंसाफ तुम्हीं ने लिखी थी न?”
"हां।"
"इसीलिए खासतौर से तूम्हें बुलाया है।" वह सख्त स्वर में कह उठा—"तुम लेखक लोग समस्या के पहलू को बड़े जोरदार ढंग से उठाते हो, मगर सिर्फ एक पहलू को—ठीक उसी तरह जिस तरह 'बहू मांगे इंसाफ' में तुमने उठाया—दूसरे पहलू को देखकर भी अनदेखा कर देते हो तुम लोग।"
"ऐसी बात नहीं है।"
"अगर नहीं है तो दहेज के लिए मरने वाली बहुओं से सम्बन्धित इस पहलू को भी उठाओ—जिन्हें तुमने 'बहू मांगे इंसाफ' में नहीं उठाया है, उन्हें यह भी बताओ कि ससुराल में मरने वाली दहेज के लिए नहीं मरती—कुछ और वजह भी हो सकती है—फिर बिना सोच-समझे किसी बिशम्बर गुप्ता परिवार को इतना जलील क्यों किया जाता है—क्यों किसी रेखा के ऊपर तेजाब डाला जाता है—किसी अमित, किसी बिशम्बर या किसी हेमन्त को किस गुनाह की सजा मिलती है, और...और...।" हेमन्त फफक-फफककर रो पड़ा—"क्यों फिर किसी ललितादेवी को पागलखाने में कहकहे लगाने पर मजबूर किया जाता है?"
मेरे रोंगटे खड़े हो गए।
बुरी तरह रोता हुआ वह दीवानगी के आलम में पागलों की तरह चीखता चला गया—"तुम्हें अदालत की तरह किसी सुबूत की जरूरत नहीं है न—फिर लिखो, समाज को यह बताओ कि किसी का जुलूस निकालने से पहले अच्छी तरह पुष्टि कर लेनी चाहिए कि कहीं वह बिशम्बर गुप्ता, ललितादेवी, अमित, रेखा या हेमन्त तो नहीं हैं—दहेज के लोभी, बहू के हत्यारों को सजा जरूर मिलनी चाहिए—गधों पर बैठाकर उनका जुलूस जरूर निकाला जाना चाहिए, मगर वे क्यों पिसें, क्यों मरें, जिन्होंने कुछ नहीं किया—कुछ भी तो नहीं किया?"
"मैं लिखूंगा हेमन्त, जरूर लिखूंगा—ये तो नहीं कहता कि मेरा उपन्यास तुम्हारे पिता की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित कर देगा, क्योंकि प्रतिष्ठा तो अदालत स्थापित करती है, हकीकत स्थापित करती है, जबकि सुबूतों के अभाव में मेरा उपन्यास भी हकीकत नहीं एक कहानी मात्र होगा—सिर्फ एक कहानी।"
—समाप्त—