D•C•M•B• प्राइवेट सेक्टर का नामी बैंक।
हिन्दुस्तान में आठ साल पहले ये बैंक आया था और इतने कम सालों में बेहद मजबूती से पाँव जमा लिए थे। यहाँ तक कि दूसरे बैंकों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। इस बैंक की सफलता का राज यही था कि मजबूत प्लानिंग के साथ जनता को अपनी तरफ आकर्षित करता था। भीतरी खबर थी कि ये बैंक जल्दी ही अपनी ऐसी योजना लागू करने वाला है कि जिससे प्राइवेट सेक्टर के बैंकों को जबर्दस्त झटका लग सकता है।
D•C•M•B• बैंक को, उस योजना को तैयार करने में कई महीनों का वक्त लगा। उस योजना को तैयार करने में योरोप से एक्सपर्ट्स बुलाये गए थे।
चार मंजिला बिल्डिंग का नाम D•C•M•B• प्राइवेट ही था।
नीचे से लेकर ऊपर तक चारों मंजिलों में D•C•M•B• बैंक का ही काम होता था। बैंक की ही इमारत थी वो। ग्राउंड फ्लोर पर ब्रांच थी। पब्लिक डीलिंग होती थी। तीसरी मंजिल ही एक ऐसी जगह थी, जहाँ हर किसी का जाना मना था। बैंक की अहम मीटिंगें, गुप्त रूप से वहाँ होती थीं। बैंक की महत्वपूर्ण योजनाएं वहाँ बनाई जाती थीं। तीन महीने से ज्यादा का वक्त हो गया कि तीसरी मंजिल व्यस्त रही। वहाँ हलचल रही। D•C•M•B• बैंक के ऊँचे ओहदेदार और योरोप से बुलाये गए अर्थशास्त्री, वित्तीय मामलों के सलाहकारों के बीच, बैंक के हित में एक प्लानिंग तैयार की जा रही थी कि जिसे नए साल के मौके पर बाजार में लाया जा सके।
लम्बी मेहनत के पश्चात् ऐसी योजना तैयार कर ली गई थी। दो दिन पहले ही इस बारे में सारा काम खत्म हुआ था। तभी योरोप के एक्सपर्ट गिलक्रिस्ट ने बैंक के अधिकारियों को बताया कि किसी ने उसे करोड़ों की ऑफर दी है कि वो योजना की एक कॉपी उसे दे दे।
ये बात सुनते ही बैंक सतर्क हो गया।
वे समझ गए कि किसी प्रतिद्वन्दी बैंक की नजर उनकी योजना पर थी। जबकि ये योजना ऐसी अहम थी कि बैंक को इससे भारी फायदा मिलना था। अगर इस योजना को उनका प्रतिद्वन्दी बैंक जान जाये तो, इस योजना के मद्देनजर वो ऐसी योजना सामने ला देता कि बैंक को भारी नुकसान हो जाता।
बैंक ने सतर्कता से काम लेना शुरू कर दिया।
वहाँ से उस गुप्त योजना को बैंक के हेड ऑफिस नरीमन पॉइंट भेजा जाना था। परन्तु बैंक के अधिकारी ये भी जानते थे कि दूसरे बैंक की नजर उनकी योजना पर है। क्या पता भीतर की खबरें बाहर जा रही हों। उन्होंने किसी कर्मचारी को खरीद रखा हो, जो कि योजना की मौजूदगी के बारे में, उन्हें खबर दे रहा हो। ऐसे में योजना को बैंक से बाहर भेजना ठीक नहीं था। दो दिन से योजना बैंक के स्ट्रांग रूम में पड़ी थी। महज पच्चीस कागजों की फाइल थी और योजना को हेड ऑफिस भेजने का प्रोग्राम बनाया जा रहा था।
बैंक के हेड ऑफिस नरीमन पॉइंट में 60 करोड़ रुपया भेजा जाना था। 12-12 करोड़ से भरे स्टील के पाँच बक्से थे। इस ब्राँच के मैनेजर विनय गुप्ता को हेड ऑफिस से कहा गया था कि जिन पाँच स्टील बॉक्स को नोटों में भेजा जाना है, उनमें से किसी एक में योजना की फाइल भी रख दे और ये खबर लीक न हो।
ये ऑर्डर विनय गुप्ता को दो दिन पहले ही मिल गए थे।
और बातों-बातों में ये बात विनय गुप्ता ने कैशियर लाल को बता दी थी। जिसने कि 60 करोड़ को स्टील के बक्सों में रख कर उन्हें बंद करना था। विनय गुप्ता ये नहीं जानता था कि कैशियर लाल, मलिक को खबरें दे रहा है और लाल तो खुद उन कागजों के बारे में खबर पाने को मरा जा रहा था। क्योंकि इस बारे में वो मलिक को खबर देकर उससे दो लाख ले लेना चाहता था और उसने दो दिन पहले ये खबर मलिक को देकर, दो लाख ले भी लिया था।
इस वक्त मैनेजर विनय गुप्ता, अपनी निगरानी में कैशियर मिस्टर लाल और तीन अन्य बैंक के कर्मचारियों से 60 करोड़ रुपया बक्सों में रखवा कर हटा था। सब काम स्ट्रांग रूम में हो रहा था।
उसके बाद विनय गुप्ता ने बैंक के तीन कर्मचारियों को बाहर भेजा और मिस्टर लाल से कहा---
"साठ करोड़ बक्सों में डाला जा चुका है। अब मैं उस फाइल को भी नोटों के साथ रख देता हूँ।" कहने के साथ ही विनय गुप्ता आगे बढ़ा और बैंक के प्राइवेट लॉकर के की-होल में चाबी लगाकर घुमाई और लाल को देखा--- "तुम भी अपनी चाबी लगाओ।"
लाल फौरन आगे बढ़ा और लॉकर के दूसरे की-होल में चाबी लगाकर घुमाई।
अगले ही पल लॉकर खुल गया।
भीतर कागजों के ढेर पर नीले रंग की फाइल दिखी, जिसे कि विनय गुप्ता ने बाहर निकाला और नोटों से भरे स्टील के एक बक्से में रखता, लाल से कह उठा---
"अब इन बक्सों को बंद करो।"
कैशियर मिस्टर लाल ने एक बक्से को बंद किया और उसके इंटरनल लॉक की चाबी घुमा दी, फिर बाहर लगे कुंडे को हुक में फंसा कर, उस पर ताला जड़ दिया। बक्से की स्टील की चादर की मोटाई इंच का तीसरा हिस्सा थी और जो मजबूत थी। इसी तरह मिस्टर लाल ने बाकी के चारों बक्सों को भी बंद कर दिया।
काम पूरा हो गया था।
विनय गुप्ता संतुष्ट था कि उसकी निगरानी में काम ठीक से पूरा हुआ। उसने दीवार पर लगी घड़ी पर निगाह मारी।
सुबह के 10•50 हो रहे थे। उसने बक्सों के सारे तालों को चेक किया।
"सब ठीक है मिस्टर लाल?" विनय गुप्ता ने पूछा।
"यस सर।"
"गुरनाम से कहो कि बाहर बैंक-वैन लगा दे। बक्सों को उसमें रखकर यहाँ से भेजा जाये।"
लाल सिंह बाहर निकल गया।
विनय गुप्ता ने फोन निकालकर हेड-ऑफिस नम्बर मिलाया। बात हो गई।
"सर!" विनय गुप्ता फोन पर बोला--- "आधे घण्टे में मैं सामान को वैन में भेज रहा हूँ...।"
"सुरक्षा के इंतजाम पूरे होने चाहिए।" उधर से कहा गया।
"इंतजाम वही होंगे जो हर बार होते हैं।" विनय गुप्ता ने कहा।
उधर से चंद पलों की चुप्पी के बाद कहा गया---
"वैन के भीतर एक गनमैन होगा?"
"यस सर, हमेशा की तरह...।"
"फाइल किसी एक बक्से में रख दी गई है?"
"यस सर। मैंने अपने सामने रखवा कर, बक्से बंद करवा दिए हैं।"
"वैन के भीतर गनमैन अकेला नहीं रहेगा। किसी तरह बक्सा खोलकर वो फाइल के साथ गड़बड़ भी कर सकता है। हमारे प्रतिद्वन्दी बैंक ताकतवर हैं। वो कोई भी गड़बड़ करा सकते हैं। किसी को भी खरीद सकते हैं। तुम गनमैन के साथ एक और आदमी वैन के भीतर बिठा दो।" यानि भीतर दो गनमैन होंगे।
"ठीक है सर। मैं ऐसा ही करता हूँ।"
"वैन कब तक वहाँ से रवाना करोगे?" उधर से पूछा गया।
"आधे घण्टे तक।"
"इसका मतलब अगले पिचासी मिनट में वैन हमारे पास पहुँच जायेगी।"
"यस सर...।"
"ओ•के• सब काम सावधानी से करना।"
"जी सर...।"
उधर से फोन बंद हो गया।
विनय गुप्ता ने भी फोन बंद किया और जेब में रखा।
फिर बक्सों को अच्छी तरह देखा। सब ठीक था।
◆◆◆
उधर लालसिंह स्ट्रांग रूम से बाहर निकलते ही बाथरूम में पहुँचा और फोन निकालकर मलिक का नम्बर मिलाया। दो-तीन नम्बर मिलाने पर नम्बर लगा।
"हैलो...।" उधर से मलिक की आवाज आई।
"मैं लाल सिंह।" मिस्टर लाल का स्वर धीमा था।
"कहो...।"
"वो सामान बॉक्स में रख दिया गया है। सोचा तुम्हें खबर दे दूँ...।"
"अच्छा किया। वैन कब वहाँ से चलेगी?"
"आधे घण्टे में...।"
"गुड...।"
"तुम क्या करने वाले हो?"
"तुम्हें दो लाख मिला। मैंने दिया जो...?"
"मिला।"
"मैंने तुमसे पूछा कि तुम दो लाख को कहाँ पर खर्च करोगे?" उधर से मलिक की आवाज आई।
मिस्टर लाल ने गहरी साँस ली।
मलिक ने उधर से फोन बंद कर दिया।
◆◆◆
बैंक के प्रवेश द्वार पर खड़ी वैन में वो पाँचों स्टील की पेटियां रखी गई।
मीडियम साइज की वो वैन बुलेटप्रूफ थी। वो पीछे से खुलती थी और उसकी छोटी-छोटी खिड़कियों पर लोहे की जाली थी। वैन के आगे वाले शीशे पर भी लोहे की जाली थी। उससे ड्राइवर को वैन चलाने में कोई परेशानी नहीं होती थी। सबकुछ स्पष्ट दिखता था। वैन के आगे का लॉक सिस्टम ऐसा था कि, वैन को भीतर से ही खोला जा सकता था। बाहर से नहीं। ड्राइवर चलने से पहले वैन के स्विच बोर्ड पर लगा, लाल स्विच दबा देता था, जिससे कि वैन पूरी तरह लॉक और सुरक्षित हो जाती थी। वैन के पीछे के दरवाजे का वास्ता भी उसी स्विच से था और वो भी लॉक हो जाता था। ऐसे में वैन के भीतर जाने के लिए लाल स्विच लॉक सिस्टम हटाये बिना वैन का कोई दरवाजा नहीं खोला जा सकता था।
मैनेजर विनय गुप्ता अपनी निगरानी में सब काम करा रहा था।
मिस्टर लाल और बैंक के अन्य कर्मचारी इस काम में उनका साथ दे रहे थे।
तभी मिस्टर लाल का फोन बज उठा।
वो पाँच सात कदम एक तरफ हुआ और फोन निकालकर बात की।
"हैलो...।"
"मैं हूँ...पहचाना?" देवराज चौहान की आवाज उसके कानों में पड़ी।
"ठीक से नहीं पहचाना।" मिस्टर लाल वैन की तरफ देखता, दबे स्वर में कह उठा।
"मैंने तुम्हें पाँच लाख रूपये दिए थे।" उधर से देवराज चौहान बोला।
"हाँ, समझ गया।"
"पाँच लाख रूपये मैंने तुम्हें इसलिए दिए थे कि जब वैन बैंक से चलेगी तो तुम उसके भीतर मौजूद रहोगे और रास्ते में जहाँ भी वैन को रोका जायेगा, तुम वैन के सारे लॉक खोल दोगे।"
मिस्टर लाल ने होंठो पर जीभ फेरी। पाँच लाख लेना उसे लेना आसान लगा था, परन्तु अब काम करना उसे कठिन लग रहा था। वो फौरन कुछ न कह सका।
"जवाब दो।"
"दिक्कत आ रही है। मैं वैन के साथ नहीं जा रहा।" मिस्टर लाल ने कहा।
"बकवास मत करो। तुमने ये वादा करके पाँच लाख लिए थे कि तुम वैन के भीतर बैठे होओगे और रास्ते में वैन का लॉक खोल दोगे। अब तुम्हारे इन्कार से काम नहीं चलने वाला।" देवराज चौहान का कठोर स्वर कानों में पड़ा।
"मैं वैन के साथ नहीं जा रहा तो इसमें मैं क्या कर सकता...।"
"ये बात तुम तब सोचते जब तुमने पाँच लाख लिए थे...।"
"मेरी बात सुनो...।"
"मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। हमसे जो तय है, वो काम होना चाहिए।" देवराज चौहान का स्वर बेहद कठोर था।
"मैं तुम्हें पाँच लाख वापस देने को...।"
"बकवास मत करो। हमसे जो तय हुआ है, उस काम को पूरा करो। पैसा वापस देने का वक्त निकल चुका है। अगर तुमने काम पूरा नहीं किया तो सोच सकते हो कि मैं तुम्हारा क्या करूँगा।" देवराज चौहान के स्वर में गुर्राहट आ गई थी।
मिस्टर लाल ने पुनः सूखे होंठों पर जीभ फेरी। चेहरे पर घबराहट थी।
"तुमने... तुमने मुझे कम पैसा दिया है।"
"तुमने पाँच ही माँगा था।"
"तब मुझे समझ नहीं आई थी कि तुम 60 करोड़ के बदले मुझे सिर्फ पाँच लाख दे रहे हो।"
"पाँच और मिल जायेगा। लेकिन काम वैसे ही करना, जैसे मैंने कहा है।"
"तुम समझते क्यों नहीं, मैं वैन के साथ नहीं जा रहा... मैं...।"
"बेवकूफ! इन बातों का वक्त निकल चुका है। अब मुझे काम चाहिए। जो वादा किया है, उसे पूरा करो।"
मिस्टर लाल से कुछ कहते न बना।
"एक बात बताओ...।" उधर से देवराज चौहान ने पूछा।
"क्या?"
"उन बक्सों में 60 करोड़ के साथ कुछ और भी जा रहा है?"
"तुम्हें कैसे पता?" मिस्टर लाल की आँखें सिकुड़ी।
"सुना है।"
"तुम उसके चक्कर में हो?"
"नहीं। मैं साठ करोड़ पाने के फेर में हूँ। वैसे वो चीज है क्या?"
"जरुरी फाइल है। अब तुम मुझे खतरनाक लगने लगे हो। तुम जरूर उस फाइल को पाना चाहते हो।"
"नहीं। ये बात नहीं है। वैसे वो फाइल है किस चीज की?"
"बैंक की सीक्रेट फ्यूचर प्लानिंग है उसमें।"
"खैर, मुझे उससे कोई मतलब नहीं। तुम्हें जो कहा है, वो काम करो।"
"कोशिश करता हूँ।" मिस्टर लाल धीमे स्वर में बोला--- "मुझे एक करोड़ मिलना चाहिए।
"मौके पर सौदेबाजी नहीं की जाती। फिर भी मुझे तुम्हारी बात मंजूर है। काम पूरा करो।"
विनय गुप्ता को अपनी तरफ आता पाकर, मिस्टर लाल ने तुरन्त फोन कान से हटा लिया।
"तुम्हें इस वक्त काम की तरफ ध्यान देना चाहिए।" विनय गुप्ता पास आकर नाराजगी भरे स्वर में बोला।
"सॉरी सर, घर से फोन है। मेरी पत्नी की तबियत ठीक नहीं, मुझे जाना होगा...।"
"वैन जाने वाली है। उसके बाद तुम चले...।"
"सर, मैं वैन के साथ ही चले जाता हूँ। मेरा घर उधर ही है।"
विनय गुप्ता दो पल की सोच के बाद बोला---
"ठीक है। मैं हरीश को वैन के साथ भेज रहा हूँ। उसे रुकने को कह देता हूँ। तुम वैन में उसकी जगह पर चले जाना और वैन के हेड ऑफिस पहुँचने पर ही तुम छुट्टी कर लेना।"
"ये ठीक रहेगा सर। थैंक्यू सर।" लाल सिंह आभार भरे स्वर में कह उठा।
"आओ।" कहने के साथ ही विनय गुप्ता वैन की तरफ बढ़ गया।
लालसिंह ने तुरन्त फोन कान से लगाकर कहा---
"काम बन गया। तुम मेरा एक करोड़ तैयार रखना।"
"याद रखना। रास्ते में जहाँ भी वैन रोकी जाये, तुमने उसी वक्त वैन लॉक सिस्टम हटा देना है।" उधर से आता देवराज चौहान का स्वर कानों में पड़ा।
"कोशिश करूँगा कि ऐसा कर सकूँ।" लालसिंह ने पुनः सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"ऐसा नहीं किया तो तुम बच नहीं सकोगे।" कहकर उधर से देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया था।
◆◆◆
वैन का ड्राइवर पचास बरस का बलराम गोरे था। आठ साल पहले जब ये बैंक इण्डिया में खुला था तो तभी उसे कैश पर, ड्राइवर की नौकरी मिल गई थी। तनख्वाह मोटी थी और वो अपने काम को भी बढ़िया ढंग से अंजाम देता था। सिर्फ एक बार ऐसा हुआ कि कुछ लोगों ने उसके द्वारा ले जाई जा रही नोटों से भरी वैन पर कब्जा करना चाहा था। परन्तु उसने उन लोगों को सफल नहीं होने दिया था।
बलराम गोरे सख्त किस्म का इन्सान था। मिलिट्री से रिटायर्ड हुआ था और ड्राइवरी के साथ गन चलाना भी उसे आता था। जब भी बड़ी रकम ले जाने की बात होती तो उसे ही ड्यूटी पर लगाया जाता।
आज भी वैन को ले जाने की ड्यूटी बलराम गोरे की ही थी। विनय गुप्ता के ऑर्डर पर बलराम गोरे की बगल वाली सीट पर मिस्टर लाल को बैठ कर जाना था।
वैन के पीछे वाले हिस्से में पेटियों के साथ दो गनमैन बिठा दिए गए थे। जवाहर और रोमी नाम थे उनके।
इन सबका रोजमर्रा का काम था पैसा लाने ले जाने का। वो सब सामान्य थे।
परन्तु मिस्टर लाल के मन में हड़बड़ी मची हुई थी।
क्योंकि उसने गड़बड़ करनी थी।
और ठीक 11•30 पर D•C•M•B बैंक की 60 करोड़ से भरी बैंक वैन, वहाँ से हेड ऑफिस के लिए चल पड़ी।
◆◆◆
वैन के D•C•M•B परिसर से बाहर निकलते ही लालसिंह, बलराम गोरे से बोला---
"महीने भर आया तू इधर बलराम...।"
"जहाँ पहुँचने का ऑर्डर मिलता है वहीं चला जाता हूँ।" बलराम गोरे ने कहा--- "मेरी मर्जी कहाँ चलती है...।"
"तू सुखी है।"
"क्यों?"
"मेरे से बढ़िया तनख्वाह मिलती है तुझे और टेंशन कोई नहीं।"
"ये टेंशन क्या कम है कि मोटी-मोटी रकम मुझे ठिकाने पहुँचानी पड़ती है। एक बार भी गड़बड़ हुई तो नौकरी गई...।"
"इस वैन पर कोई हाथ डालकर, क्यों मरना चाहेगा।" लालसिंह मुस्कुराकर बोला।
बलराम गोरे वैन को मध्यम गति से, सावधानी से सड़क पर ड्राइव कर रहा था। वाहनों की भीड़ थी सड़कों पर। शोर और हॉर्न सुनाई दे रहे थे। वैन के शीशे बंद होने की वजह से कम शोर ही भीतर तक आ पा रहा था।
लालसिंह की चोर निगाह बार-बार स्टेयरिंग के नीचे लगे लाल स्विच पर जा रही थी जिससे वैन को ऑटोमेटिक लॉक किया जाता था या खोला जाता था। वैन चलने से पहले वह, बलराम गोरे को वो स्विच ऊपर करते देख चुका था। मन ही मन लालसिंह की जान सूखी पड़ी थी कि वक्त आने पर उसने स्विच को नीचे की तरफ करना है। ये काम खतरनाक था। बलराम गोरे उसकी हरकत को भांप गया तो, उसकी कम्प्लेंट हो सकती थी। नौकरी जा सकती थी। उसे डकैतों की सहायता करने के जुर्म में जेल हो सकती थी।
अब मौके पर लालसिंह को ये काम खतरनाक लग रहा था। उस वक्त पाँच लाख लेते हुए उसे अच्छा लगा था कि नोट आ गए। वो जानता था कि दो पार्टियां इस वक्त वैन के चक्कर में थीं।। एक तो मलिक था, जो उससे एक बार मिला था और दो लाख देकर, बैंक की फ्यूचर प्लानिंग के कागजातों के बारे में पूछा था तो उसी ने ही मलिक को बताया था कि फ्यूचर प्लानिंग की फाइलें उन्हीं नोटों के साथ रवाना की जायेगी।
मलिक ने उसे कहा था कि वैन रवानगी से पहले उसे फोन करके बता दे कि वैन चल पड़ी है।
और उसने खबर कर दी थी।
दूसरी पार्टी वो थी, जिसका फोन चलने से पहले आया था। जिससे पाँच लाख लिए थे और मौके पर बात करके, अपने लिए एक करोड़ की रकम तय करवा ली थी। दूसरी पार्टी ने अपना नाम नहीं बताया था। वो पार्टी चाहती थी कि रास्ते में जब भी, कहीं वैन को रोकने की चेष्टा की जाये तो उस वक्त वो वैन को लॉक रखने वाला मेन स्विच ऑफ कर दे, जो कि बलराम गोरे की टांगो के उस तरफ, स्टेयरिंग के नीचे लगा था। ये खतरनाक काम था, उसे ऐसा करते हुए बलराम गोरे देख सकता था।
वैन चलाते हुए बलराम गोरे ने एक हाथ से सिर के पास, पीछे लगी चार इंच की खिड़की खोलकर ऊँचे स्वर में कहा---
"तुम दोनों ठीक हो?"
"हमें क्या होना है...।" पीछे से रोमी की आवाज आई।
"हमारा तो ये रोज का ही काम है।" जवाहर की भी आवाज आई।
"कभी नोट ले जाते वक्त गोली चलाने का मौका मिला है?" लालसिंह ने हँसकर पूछा।
"कभी नहीं...।"
"किस्मत वाले हो।"
बलराम गोरे ने खिड़की बंद कर दी और बोला---
"ऐसी मनहूस बातें मत करो लालसिंह।"
"मैं तो मजाक कर रहा था।"
"मजाक भी ऐसा नहीं होना चाहिए। वो वक्त बहुत बुरा होता है जब हम बड़ी रकम को ले जा रहे होते हैं और रास्ते में उसे कोई लूटने की कोशिश करता है। वो हमारे इम्तिहान का वक्त होता है।" बलराम गोरे ने कहा।
"तुम तो गम्भीर हो गए बलराम...।"
"ऐसी बात नहीं।" बलराम गोरे के चेहरे पर छोटी सी मुस्कान उभरी।
"वैसे ज्यादा चिन्ता की बात नहीं होनी चाहिए तुम्हें। बैंक का काम पैसा इंशोर्ड होता है। खो जाये तो भरपाई हो जाती है।"
"ऐसा न ही हो तो अच्छा...।"
बैंक वैन मध्यम गति से सड़क पर चली जा रही थी। बलराम गोरे सावधानी से वैन को चला रहा था।
"क्या मुसीबत है...।" लालसिंह बड़बड़ा उठा।
"क्या हुआ?"
"सू सू लगा है।"
"वो तो आपको रोक के रखना होगा।" बलराम गोरे ने मुस्कुरा कर कहा--- "ऊपर से इस बात के सख्त ऑर्डर हैं कि वैन को रास्ते में न रोका जाये। बाहर न निकला जाये।"
"तुम्हें सू सू आ जाये तो क्या करते हो?"
"रोक के रखता हूँ...।"
"ना रुके तो?"
"तो वैन में कर देता हूँ...।"
"कभी किया है?"
"एक बार। पैसा शिर्डी ले जाते वक्त मेरे साथ ऐसा ही हुआ। रकम ज्यादा थी। मुझे जोरों का सू सू लग गया। हाईवे था।
मैंने रोके रखा। परन्तु एक वक्त ऐसा भी आया कि वैन चलाना कठिन होने लगा। तब मैंने सोचा वैन रोक कर, कर लेता हूँ। वो जगह हाईवे थी। परन्तु मैंने नियम तोड़ना ठीक नहीं समझा। मैं लॉक खोलकर वैन से बाहर नहीं निकला। मजबूरी में वैन के भीतर कर लिया।"
"कहाँ पर?" लालसिंह ने होंठ सिकोड़े--- "पैंट में?"
"नहीं, नीचे फुटबोर्ड पर।"
लालसिंह मुस्कुरा पड़ा।
"तो तुम मुझे भी यही सलाह दे रहे हो कि मैं फुटबोर्ड पर सू सू कर लूँ।"
"अगर रोक न सको तो...।"
"ये तो नई मुसीबत खड़ी हो गई।" लालसिंह बोला--- "रास्ते में सूनसान जगह भी आती है दस-बारह मिनट के लिए। एक मिनट के लिए वहाँ रोक देना, मैं जल्दी से...।"
"नहीं। बैंक ने जो नियम बनाये हैं, वो नहीं तोड़ सकता।"
"फिर तो मजबूरी में मुझे वैन के भीतर ही सू सू करना पड़ेगा।"
"तो ये सब होना मुझे सहना पड़ेगा।"
"बहुत पक्के हो नियम के।"
"काम ही ऐसा है। ड्यूटी ही ऐसी है। पक्के रहना पड़ता है।"
बातों के दौरान लालसिंह की निगाह बाहर हर तरफ देख रही थी।
उसे पाँच लाख देने वाले जो लोग भी थे, वो कहीं भी वैन को रुकवा सकते थे। तब उसे वैन लॉक का स्विच बंद करना होगा। जो कि बलराम गोरे की मौजूदगी में कठिन लग रहा था। बलराम गोरे देख सकता था कि वो लॉक स्विच को ऑफ कर रहा है।
"परिवार कैसा है तुम्हारा?" लालसिंह ने पूछा।
"बढ़िया है। बच्चे पढ़ने में तेज हैं। कॉलेज में हैं।"
"मेरे बच्चे तो अभी स्कूल में ही पढ़ते हैं।"
तभी लालसिंह का मोबाइल बजने लगा।
फोन कहीं पाँच लाख देने वाले का न हो। लालसिंह ने सोचा और बलराम पर नजर मारकर फोन निकाला।
"हैलो...।" उसने बात की।
"सब ठीक है?" ब्रांच मैनेजर विनय गुप्ता की आवाज कानों में पड़ी।
"हाँ, सर। सब ठीक है। हम रास्ते में हैं।" लालसिंह ने कहा।
"गुड। जब तक वैन हेड ऑफिस नहीं पहुँच जाती, मुझे चिन्ता रहेगी।"
"आप फिक्र न करें सर। सब ठीक है।"
'
"ऊपर से दो बार मुझे फोन आ चुका है। वो जानते हैं कि वैन कब यहाँ से चली। एक-एक मिनट का हिसाब रख रहे हैं वो। पैसे से ज्यादा उन्हें पैसे के साथ रखी उस फाइल की चिन्ता है।"
"यहाँ सब ठीक है।"
"वैन का पीछा तो नहीं हो रहा?" उधर से विनय गुप्ता ने पूछा।
"नहीं सर।"
"ठीक है। हेड ऑफिस पहुँच कर मुझे फोन करना।"
लालसिंह ने फोन बंद करके जेब में रखा और बोला---
"वैन का पीछा तो नहीं हो रहा?"
बलराम गोरे साइड मिरर पर नजर मारकर कह उठा।
"क्या पूछा?"
"मैनेजर साहब पूछ रहे थे कि...।"
"कोई पीछा करे, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता।" बलराम गोरे ने कहा--- "हमारी मर्जी के बिना कोई वैन के भीतर नहीं आ सकता। न आगे न पीछे। वैन के हर दरवाजे में स्पेशल लॉक लगा है, जिसके कंट्रोल का स्विच इधर लगा है।"
"लॉक सिस्टम खराब भी हो सकता है...।"
"हर अड़तालीस घण्टों में एक बार मैकेनिक लॉक सिस्टम को चैक करता है।"
"ये अच्छी बात है।"
"होशियार रहना पड़ता है।" बलराम गोरे ने कहा--- "एक से एक तेज लोग बैठे हैं।"
वैन चले पंद्रह मिनट बीत चुके थे।
लालसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी।
वो लोग वैन को कभी भी रोक सकते थे। दो लाख देने वाला या पाँच लाख देने वाला कोई भी, कभी भी अपने दल-बल के साथ नोटों को लूटने के लिए सामने आ सकता था।"
"वैन के शीशे तो बुलेटप्रूफ हैं।" लालसिंह ने पूछा।
"हाँ। क्यों पूछा।?"
"सोचता हूँ कि अगर कोई बाहर से गोलियाँ चलाये तो क्या होगा?"
"कुछ नहीं होगा। हम सुरक्षित रहेंगे।"
"वैन की टायर पर भी तो बाहरी लोग गोलियाँ मार सकते हैं।"
"हाँ। इससे वैन रुक जायेगी। परन्तु बाहरी लोग वैन के भीतर नहीं आ सकते। हम फोन पर पुलिस से बात कर सकते हैं। अपने अधिकारियों से बात कर सकते हैं। कुछ ही देर में हमारे पास पुलिस होगी।"
लालसिंह सिर हिलाकर बोला---
"मैं सिग्रेट पी सकता हूँ?"
"नहीं। शीशे बंद हैं।"
"इंच भर शीशे नीचे गिरा लेता हूँ।"
"ये नियम के खिलाफ है। मैं इसकी इजाजत नहीं दूँगा। ये बैंक नहीं, वैन है। यहाँ मेरी चलती है।" कहकर बलराम गोरे मुस्कुराया--- "मुझे अच्छा लगता है, जब वैन पर मेरी चलती है।"
"अपने को नोटों को मालिक मत समझने लगना।"
"इस वक्त तो नोट मेरे ही होते हैं।"
"दो हिस्सेदार पीछे बैठे हैं। उन्हें मत भूलना। लालसिंह हँस पड़ा।
"तुम्हारा भी तो हिस्सा होगा...।"
"छोड़ो इस मजाक को। वैसे कभी तुम्हारे मन में ये तो आता होगा कि तुम नोट लेकर भाग जाओ...।"
"हर बार आता है।"
"तो फिर अब तक भागे क्यों नहीं?"
"सोचता हूँ इतनी बड़ी दौलत का क्या करूँगा। रातों की नींद उड़ जायेगी। हर वक्त यही चिंता लगी रहेगी कि इतनी बड़ी दौलत को कहाँ छिपाऊँ! छिपा दूँगा तो फिर चिन्ता होगी कि कोई चोरी न कर ले।"
"ये बात तो है।" लालसिंह ने सिर हिलाया।
"यही वजह है कि हर बार नोटों को ठीक जगह पर पहुँचा देता हूँ। बेईमानी नहीं करता। वैसे जो तनख्वाह मुझे मिलती है उसमें से भी पैसे बच जाते हैं। मैं उसी में खुश हूँ...।"
"शांत जीव हो।"
"बहुत। तुम कैशियर हो। तुम्हारे हाथों से भी तो करोड़ों की रकमें निकलती हैं।"
"पूछो मत...।"
"तुम कितनी बार नोट लेकर भागे?"बलराम गोरे मुस्कुराया।
"एक बार भी नहीं।"
"क्यों?"
"क्योंकि छिपाने की जगह नहीं है। आखिरी मंजिल जेल ही नजर आती है!" लालसिंह हँस पड़ा।
"ये सच भी है। हम ऐसे लोग हैं कि हमारे पास नोट आ जाये तो उसे संभाल भी नहीं सकते।"
तभी बलराम गोरे ने वैन धीमी की और पास आ चुकी लालबत्ती से बाएँ को मोड़ लिया।
अब ऐसी सड़क पर वैन दौड़ने लगी, जो कि आगे जाकर सूनसान सड़क में बदल जाती थी। उस तरफ ट्रैफिक बहुत कम रहता था। दस-बारह मीटर लम्बी सड़क थी वो।
"इस रूट में यही एक सड़क है, जहाँ खतरा हुआ, तो हो सकता है।"।बलराम गोरे ने कहा।
लालसिंह व्याकुल सा खामोश रहा।
बैंक-वैन दौड़ती रही।
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