9 दिसम्बर: सोमवार

नौ बजे से पहले विमल इर्विन अस्पताल की मोर्ग में पहुंच गया जहां कि मुबारक अली, अपने भांजों अशरफ और हाशमी के साथ पहले से मौजूद था।
पोस्टमार्टम की प्रक्रिया शुरू होने का टाइम नौ बजे का था।
दस बजे मोर्ग के एक कर्मचारी ने उन्हें आकर बताया कि पोस्टमार्टम वाला सर्जन अपनी दस्तख़तशुदा रिपोर्ट वहां तैनात उस सब-इंस्पेक्टर को सौंप चुका था जिसने सुपुर्दगी की कार्यवाही करनी थी।
‘‘वो कितना टाइम लगाता है?’’ – विमल ने पूछा।
‘‘मुनहसर है।’’ – कर्मचारी के लहजे में रहस्य की पुट आया।
‘‘किस बात पर?’’
‘‘वो बोलेगा न!’’
‘‘कहां है?’’
‘‘आता ही होगा।’’
‘‘नाम क्या है!’’
‘‘सब-इन्स्पेक्टर मीना। . . . लो, आ ही गया।’’
कर्मचारी परे सरक गया।
एक मोटी तोंद वाला, बावर्दी सब-इन्स्पेक्टर उन के करीब पहुंचा।
‘‘नीलम कौल।’’ – वो रूखाई से बोला – ‘‘आप लोगों का केस है?’’
‘‘हां! – विमल बोला – ‘‘मैं हसबैंड हूं। अरविन्द कौल।’’
‘‘हूं।’’
‘‘हम डैड बॉडी ले जा सकते हैं?’’
‘‘ऐसे कैसे ले जा सकते हैं?’’ कागजी कार्यवाही होगी। रिलीज के पेपर तैयार किये जाने होंगे। सुपुर्दगी के साइन करने होंगे।’’
‘‘कितना टाइम लगेगा?’’
‘‘अब एक दिन में एक ही पोस्टमार्टम तो यहां होता नहीं! टाइम तो लगेगा!’’
‘‘कितना?’’
‘‘जितना आप चाहोगे।’’
‘‘हम चाहेंगे?’’
‘‘हां। नहीं चाहोगे तो शाम भी हो सकती है। अगला दिन भी हो सकता है। उससे अगला दिन भी हो सकता है।’’
‘‘मैं वही समझ रहा हूं न, जो तुम कह रहे हो?’’
‘‘मेरे को नहीं पता आप क्या समझ रहे हैं। वो . . . मोर्ग का मुलाजिम . . . जिससे आप अभी बात कर रहे थे, दयालसिंह नाम है उसका . . .’’
‘‘तो?’’
‘‘वो आता है और समझाता है कुछ।’’
सब-इन्स्पेक्टर घूमा और लम्बे डग भरता वहां से रुख़सत हो गया।
‘‘नामाकूल! इबलीस की औलाद!’’ – मुबारक अली गुस्से से गुर्राया – मुंडी थामने लगा था मैं उसकी।’’
‘‘मामू’’ – हाशमी बोला – ‘‘वो ऑन ड्यूटी पुलिस वाला था। बावर्दी था!’’
‘‘मालूम! इसी वजह से तो जब्त किया!’’
तभी दयाल सिंह लौटा।
‘‘आपका काम हो जायेगा।’’ – वो इतमीनान से बोला।
‘‘हो तो जायेगा।’’ – विमल बोला – ‘‘कब हो जायेगा?’’
‘‘उसकी कोई खातिर करोगे तो अभी हो जायेगा।’’
‘‘क्या खातिर?’’
‘‘समझो।’’
‘‘कितना?’’
दोनों हाथ फैला कर उसने विमल को दस उंगलियां दिखाईं।
‘‘ठहर जा, साले!’’ – मुबारक अली भड़का।
‘‘मेरे पर क्यों ख़फा होते हो? मैंने तो बस एसआई मीना की बात पहुंचाई है आप तक।’’
विमल ने मुबारक अली को बांह पकड़ कर पीछे खींचा और बोला – ‘‘मंजूर है।’’
‘‘तो लाओ।’’ – दयाल सिंह बोला।
‘‘तू लेगा?’’
‘‘हां।’’
विमल ने उसे दस हजार रुपये सौंपे।
‘‘आता हूं।’’
‘‘साले, कफ़नफरोश!’’ – पीछे मुबारक अली नफ़रतभरे लहजे से
बोला – ‘‘लाशों के सौदागर!’’
‘‘हमारी गरज है।’’ – विमल धीरे से बोला – ‘‘उसके हाथ में ताकत है जिसका बेजा इस्तेमाल करने से हम उसे नहीं रोक सकते। रोकेंगे तो अपना ही नुकसान करेंगे।’’
‘‘भाईजान ठीक कह रहे हैं, मामू।’’ – हाशमी बोला।
‘‘पर तुफ है कमीन की जात पर!’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘मैयत की भी उगाही करता है।’’
‘‘अल्लाह सब देख रहा है।’’ – अशरफ बोला – ‘‘जब उसका कहर नाजिल होगा तो सोचता ही रह जायेगा कि क्या हुआ।’’
‘‘आमीन!’’
दयाल सिंह वापिस लौटा।
‘‘दस मिनट में आपका काम हो जायेगा।’’ – वो बोला।
‘‘तेरा यही काम है?’’ – विमल ने पूछा।
‘‘नहीं। ये काम तो मैं वर्दी की धौंस में करता हूं। मेरा काम तो’’ – उसके स्वर में गर्व का पुट आया – ‘‘चीर फाड़ करना है।’’
‘‘क्या!’’
‘‘सब कुछ मैं ही तो करता हूं! मुर्दा खोलता हूं, बन्द करता हूं। डाक्टर तो लाश को हाथ भी नहीं लगाता।’’
‘‘वो क्या करता है?’’
‘‘जी मैं बोलता हूं, वो नोट करता है। फिर सर्टिफिकेट साइन करता है।’’
‘‘जैसे पोस्टमार्टम ख़ुद किया हो!’’
‘‘हां।’’
‘‘तेरे को सब आता है?’’
‘‘हां। डाक्टर से ज्यादा नहीं तो डाक्टर जितना तो आता ही है। बीस साल से मुर्दे खोल रहा हूं। अन्दर की एक-एक बात जानता समझता हूं।’’
‘‘डाक्टर बस, करीब ठहरता है?’’
‘‘कई बार तो करीब भी नहीं ठहरता। अपने आफिस में बैठता है। मैं वहीं जा के सब बताता हूं, वो छपे हुए सर्टिफिकेट पर लिखता है और साइन कर देता है।’’
‘‘वो एसआई . . . जिसके लिये तू बिचौलिया बनता है . . . तेरे को क्या देता है?’’
‘‘झुनझुना! उस बाबत इशारा भी करूं तो पिछवाड़े में लात जमाता है।’’
‘‘हूं।’’
विमल ने उसे एक पांच सौ का नोट दिया।
उसका चेहरा हजार वाट के बल्ब की तरह चमका।
‘‘मैं सुपुर्दगी के कागज लाता हूं, आप यहीं साइन कर देना।’’
‘‘शुक्रिया।’’
दोपहरबाद स्थानीय श्मशान घाट पर नीलम के अन्तिम संस्कार के समय गैलेक्सी के तकरीबन सारे मुलाजिम बमय प्रोपराइटर शोभा शुक्ला वहां मौजूद थे।
और मौजूद थेः
मुबारक अली और उसके चौदह भांजे।
और सीबीआई के एन्टीटैररिस्ट स्क्वाड का डिप्टी डायरेक्टर योगेश पाण्डेय, जो उसी सुबह बैंगलौर से लौटा था तो उसे नीलम के अंजाम की ख़बर लगी थी।
डी ब्लॉक के सात-आठ लोग जिसमें त्रिपाठी पिता पुत्र भी थे।
और सादे लिबास में इन्स्पेक्टर अजीत लूथरा।
चिता प्रवज्जवलित हुई।
विमल दोनों हाथ अपने सामने बांधे सिर झुकाये उसके करीब खड़ा था। उसके दायें बायें पहलू में योगेश पाण्डेय और अजीत लूथरा खड़े थे।
उनसे थोड़ा परे चेहरे पर नकली हमदर्दी और संजीदगी के भाव चिपकाये चिन्तामणि त्रिपाठी और अरमान त्रिपाठी खड़े थे।
तब खामोशी से चिता की लपटें तेज होती देख रहे थे।
विमल को नीलम उसके कान में कहती लग रही थी:
‘‘तुम हमेशा कहते थे मवाली की बीवी विधवा मरती है। मैंने तुम्हें झूठा साबित कर दिखाया। देख लो, मैं सुहागन मरी हूं। देख लो, मैं सुहागन मरी हूं। देख लो . . .’’
‘‘अरे, अरे! ये क्या कर रहे हैं?’’
लूथरा ने बांह पकड़ कर जबरन उसे पीछे खींचा और फिर भी बांह न छोड़ी।
‘‘क्या कर रहा हूं?’’ – विमल यूं बोला जैसे ख़्वाब में बड़बड़ाया हो।
‘‘आपको नहीं मालूम?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘आप . . . चिता में कूदने लगे थे।’’
‘‘मैं?’’
‘‘हां, आप! एकाएक मेरी निगाह न पड़ गयी होती तो कूद ही गये होते।’’
‘‘मुझे इस बाबत कुछ नहीं पता।’’
पीछे खड़े त्रिपाठी पिता पुत्र सब नजारा कर रहे थे।
‘‘ये तो गया काम से!’’ – अपनी मुस्कराहट छुपाने की भरसक कोशिश करता चिन्तामणि दबे स्वर में बोला।
‘‘कहता था बीवी मायके गयी है।’’ – अरमान भी उसी मिजाज से बोला।
‘‘अब गयी है। जहन्नुम है उसका मायका।’’
‘‘और इसका ससुराल।’’
‘‘लड़के, मरे हुए को क्या मारना!’’
‘‘जरूरी है, पापा। मेरे सिर पर इसकी धमकी की तलवार लटक रही है। वो ख़तरा इसकी चल-चल के बिना नहीं टलने वाला।’’
‘‘देखेंगे। अभी चुप कर। कोई सुन लेगा।’’
‘‘एक बात और कह के करता हूं।’’
‘‘कह।’’
‘‘इलाके के थाने का एएसएचओ यहां है। बेवर्दी। जनाजे में शामिल। क्यों भला?’’
चिन्तामणि ने जवाब न दिया।
‘‘क्यों भला?’’ – अरमान ने जिद की।
‘‘मालूम करेंगे।’’ – चिन्तामणि निर्णायक भाव से बोला।
10 दिसम्बर: मंगलवार
विमल का मंगलवार का सारा दिन एक वकील की सोहबत में गुजरा जिस के साथ उसे रजिस्ट्रार के कोर्ट का भी चक्कर लगाना पड़ा।
शनि के बाद सिर्फ उस रात उसने ढंग से खाना खाया।
रात को मेड जब घर के तमाम काम काज से फारिग हो गयी तो उसने उसे बुलाया।
‘‘बैठ!’’ – वो संजीदगी से बोला।
‘‘बैठे?’’ – वो सकपकाई।
‘‘हां। कहना मान। तेरे से एक जरूरी बात करनी है।’’
वो झिझकती हुई उसके सामने एक कुर्सी पर बैठी।
‘‘फ्रान, मुझे कहते हुए दुख हो रहा है लेकिन . . . तुझे जाना होगा।’’
‘‘नो!’’ – उसने तत्काल विरोध किया – ‘‘मेरे को आपको छोड़ के नहीं जाने का। मेरा इधर रहना जरूरी। जैसा आप का कंडीशन . . .’’
‘‘जाना जरूरी है।’’
‘‘क्यों? क्यों जरूरी है?’’
‘‘क्यों कि मैं ही यहां से जा रहा हूं।’’
‘‘ऐसा?’’
‘‘हां।’’
‘‘काहे?’’
‘‘वजह तू नहीं समझेगी।’’
‘‘हूं। जब लौट के आयेगा, तब . . .’’
‘‘मैं लौट के नहीं आऊंगा।’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘मैं हमेशा के लिये ये घर छोड़ के जा रहा हूं। कल सुबह नीलम के फूल चुनने की रसम अदा करनी है। फौरन मैं बाई रोड हरिद्वार चला जाऊंगा जहां से रात को लौटूंगा। वो रात इस घर में गुजरी मेरी आखिरी रात होगी। गुरुवार सुबह मैं यहां से चला जाऊंगा।’’
‘‘पीछू घर में कौन रहेगा?’’
‘‘रहेगा कोई। लेकिन उसके साथ तू नहीं रह सकेगी। तुझे ऐतराज हो न हो, तेरा यहां रहना उसी को मंजूर नहीं होगा।’’
‘‘काहे?’’
‘‘एक तो उसे ही तेरी जरूरत नहीं होगी। दूसरे, तू नौजवान लड़की है, ऐसे घर में तेरा रहना ठीक नहीं जहां कोई औरत न हो।’’
‘‘सा’ब, जब मेरे को आप का साथ रहने से कोई परेशानी नहीं . . .’’
‘‘मेरी बात और है। दूसरे, मैंने ये भी तो कहा कि उसे तेरी – मेड
की – जरूरत नहीं होगी।’’
‘‘ओह!’’
‘‘अब ये पकड़।’’
‘‘ये क्या?’’
‘‘चालीस हजार रुपये। दो महीने की सैलरी।’’
‘‘दो महीना की! सा’ब मैं तो ये महीना भी खाली . . . थर्टीन डेज काम किया!’’
‘‘कोई बात नहीं। नैक्स्ट जॉब मिलने में टाइम लग सकता है। समझ, उसकी कम्पोंसेशन है।’’
‘‘सा’ब इतना टाइम नहीं लगेगा।’’
‘‘तो समझ रिवार्ड है। बोनस है।’’
वो फिर भी हिचकिचाई।
‘‘नीलम को तू बहुत ज्यादा पसन्द थी। उसकी आत्मा प्रसन्न होगी कि तूने मेरा कहना माना।’’
वो रोने लगी।
विमल ने आगे झुक कर ख़ुद उसके आंसू पोंछे और नोट उसे थमाये।
‘‘सा’ब’’ – वो भरे कण्ठ से बोली – ‘‘यू आर टू काइन्ड। मैं आपको मिस करेगा। आई आलरेडी मिस मैडम।’’
‘‘मेरा मोबाइल नम्बर तेरे पास है। कभी किसी, किसी भी, मदद की जरूरत हो, मुझे फोन करना।’’
‘‘सा’ब, जब आप इधर होयेगा ही नहीं . . .’’
‘‘किधर तो होऊंगा न! तेरे को नाउम्मीद नहीं होना पड़ेगा।’’
‘‘थैं . . . थैंक्यू बोलता है, सा’ब।’’
‘‘जा अब। सो जा के।’’
आंखों पर एक हाथ की पुश्त फेरती वो चली गयी।
रात के दस बजे थे जब कि जस्सा मॉडल टाउन पहुंचा।
‘‘ये टाइम है आने का?’’ – चिन्तामणि भुनभुनाया।
‘‘मैं और लेट हो सकता था।’’ – जस्सा शुष्क स्वर में बोला – ‘‘फिर कल आता। ठीक होता?’’
‘‘नहीं, नहीं। ठीक किया तूने। नाराज मत हो, यार।’’
‘‘एक बात ध्यान में रखना, ठेकेदार साहब। हमेशा। मैं गोयल साहब के मुलाहजे में यहां आता हूं वर्ना मेरा तुम्हारे से कोई मतलब नहीं।’’
‘‘बहुत कड़क बोल रहा है, जस्से।’’ – अरमान भड़कने को हुआ।
‘‘तेरे से भी।’’ – जस्सा पूर्ववत् शुष्क स्वर में बोला।
अरमान मुंह बाये उसे देखने लगा।
‘‘मैं जो फांसी लगा हुआ हूं, इसलिये लगा हुआ हूं कि गोयल साहब की और तेरे पिता की एक प्राब्लम है। कि अमित की और तेरी एक प्राब्लम है – इस फर्क के साथ कि अमित की दुरगत हो चुकी, तू उस अंजाम से अभी दूर है। मैं सिर्फ गोयल साहब का हुक्मबरदार हूं, कोई और – कोई भी और – मेरे से यूं पेश आये जैसे कि मैं उसका मुलाजिम हूं, ये मुझे हरगिज मंजूर नहीं। मैं सिर्फ गोयल साहब का मुलाजिम हूं और फिर, फिर और फिर कहता हूं, सिर्फ गोयल साहब का हुक्मबरदार हूं।’’
‘‘तू तो नाराज हो रहा है, जस्से।’’ – चिन्तामणि अपने स्वर में मिश्री घोलता बोला।
‘‘हां।’’
‘‘क्या हां।’’
‘‘नाराज हो रहा हूं।’’
‘‘अरे, थूक भी दे गुस्सा।’’
‘‘थूक दिया।’’
‘‘अब बोल, विस्की पियेगा?’’
‘‘पिऊंगा।’’
चिन्तामणि ने चैन की सांस ली, जस्से की हामी इस बात का सबूत थी कि अब वो नार्मल था।
‘‘अरे, पी न!’’ – वो चहकता सा बोला – ‘‘जितनी मर्जी पी। इधर कोई घाटा है विस्कियों का! साली कैबिनेटें भरी पड़ी हैं।’’
उसने पुत्र को संकेत किया।
अरमान ने ड्रिंक्स का इन्तजाम किया। उसने बाप का लिहाज किया; दो ही गिलास लाया।
चिन्तामणि ने नकली उत्साह के साथ जस्से से जाम टकरा कर चियर्स बोला।
‘‘अब बोल’’ – फिर बोला – ‘‘कहता था पता कर लेगा कि एएसएचओ लूथरा क्यों था श्मशान घाट पर?’’
‘‘उस वजह से नहीं था’’ – जस्सा बोला – ‘‘जो आपके जेहन में आयी थी।’’
‘‘यानी हमारे पड़ोसी से उसका कोई मुलाहजा नहीं था?’’
‘‘नहीं था। आपका ख़याल था कि आपकी ‘वरना’ उसके दरवाजे पर से गायब होने पर जब आप थाने गये थे तो आपकी कम्पलेंट पर उसे भी थाने तलब किया गया था तो एएसएचओ ने उसका लिहाज किया था, उसकी तरफ़दारी की थी।’’
‘‘मुझे साफ ऐसा लगा था।’’
‘‘लगा होगा लेकिन उस बात में कोई दम नहीं निकला। आप समझते हैं कि वो इन्सपेक्टर पड़ोसी का यार है तो ग़लत समझते हैं।’’
‘‘तो वो क्यों शामिल था उस औरत के अन्तिम संस्कार में?’’
‘‘ड्यूटी कर रहा था।’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘पड़ोसी की बीवी का मर्डर हुआ था। हसबैंड पर भी मर्डर अटैम्प्ट हो सकती थी इसलिये वो इन्स्पेक्टर बेवर्दी वहां था।’’
‘‘अकेला रोक लेता मर्डर अटैम्प्ट?’’
‘‘सादे कपड़ों में चार सिपाही भी वहां थे।’’
‘‘ओह! लेकिन हसबैंड के कत्ल की कोशिश का क्या मतलब! जो सीनेरियो पीछे छोड़ा गया था, वो तो सामने आया ही नहीं! उसकी तो कोई और ही लीपापोती सामने आयी। जो शीशे पर लिखा छोड़ा गया था वो तो सामने ही न आया?’’
‘‘वो एक ब्रूटल मर्डर का केस था।’’ – अरमान बोला – ‘‘जिसमें औलाद के लिये वार्निंग थी, ख़ुद उसके लिये वार्निंग थी। वो सब पुलिस और मीडिया की जानकारी में आया होता तो कहा जा सकता था कि श्मशान घाट पर हसबैंड पर कातिलाना हमला हो सकता था। तो प्रोटेक्शन के लिये पुलिस की वहां मौजूदगी को जस्टीफाई किया जा सकता था। लेकिन पुलिस तो उसे चोरी की वारदात बताती है जिसमें फच्चर पड़ गया और फच्चर की वजह से वो औरत जान से गयी। अगर पुलिस वारदात को ऐसा समझती थी तो श्मशान घाट पर हसबैंड को क्या खतरा था जिसके लिये उसे पुलिस प्रोटेक्शन की जरूरत थी?’’
‘‘ऐग्जैक्टली।’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘फिर वो प्रोटेक्शन खुफिया क्यों? वर्दी देख कर आतताईयों के हौसले वैसे ही पस्त हो जाते हैं।’’
‘‘खुफिया प्रोटेक्शन उन को उकसाने के लिये।’’ – जस्सा बोला – ‘‘ताकि वो अपने आपको सेफ समझें, वारदात करने की कोशिश करें और पकड़े जाये।’’
‘‘नॉनसेंस! जब हम जानते हैं कि सीन आफ क्राइम की लीपापोती की गयी है, तो कौन सी वारदात का वहां अन्देशा था!’’
‘‘लीपापोती किसने की?’’
‘‘पुलिस ने तो न की! एक ही शख़्स वो काम कर सकता था, पुलिस को वारदात की ख़बर करने से पहले कर सकता था।’’
‘‘खाविंद!’’
‘‘हां। अब तुम कहोगे कि उसने क्यों किया ऐसा!’’
‘‘मैं कहने ही लगा था।’’
‘‘मैं पहले भी कहता था, फिर कहता हूं कि इस शख़्स में कोई भेद है। उसकी कोई और शिनाख़्त भी है जिसे वो उजागर नहीं होते देना चाहता। इसीलिये उसने क्राइम और रिवेंज को एक मामूली ‘थैफ्ट गॉन सोर’ की वारदात बना दिया ताकि उस पर कोई स्पैशल फोकस न बने, वो एक साधारण गृहस्थ ही लगे जिसपर एकाएक वो विपत्ति टूटी थी। जस्से, तू मेरी बात पर ऐतवार लाये तो श्मशान घाट पर पुलिस की मौजूदगी का कोई मतलब नहीं था। बल्कि मेरे को तो यकीन ही नहीं है कि इलाके के थाने के एएसएचओ के अलावा वहां और पुलसिये भी मौजूद थे।’’
‘‘पापा, ठीक कहते हैं।’’ – अरमान बोला – ‘‘अगर और पुलिसिये वहां नहीं थे तो जरूर वो इन्स्पेक्टर अपनी निजी हैसियत में वहां था और इसीलिये वर्दी में नहीं था।’’
‘‘क्या निजी हैसियत?’’ – जस्सा बोला – ‘‘खाविन्द का दोस्त था? जिगरी था?’’
‘‘हो सकता है।’’
‘‘मैं कहता हूं, है। तुम्हारे पापा की तरफ की बात कहता हूं, है। तो क्या कहर टूट पड़ा? क्या पुलिसवाला, सामाजिक प्राणी नहीं होता? उसकी कोई सिविल लाइफ नहीं होती? ऐसा क्या उसके ड्यूटी रोस्टर में दर्ज है कि पुलिस वाले के सिवाय वो किसी को दोस्त नहीं बना सकता?’’
बाप बेटा एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
‘‘मेरा भी तो पुलिस वाला दोस्त है जिसके जरिये मैं सैन्ट्रल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो से जल्दी जानकारी निकलवाने की जुगत कर रहा हूं!’’
‘‘अच्छा याद दिलाया।’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘कुछ हुआ उस सिलसिले में?’’
‘‘अभी नहीं। जो होगा, पड़ोसी के फिंगरप्रिंट्स का सैम्पल हासिल जो जाने के बाद ही होगा। इस काम को कामयाबी से अंजाम देने के सिलसिले में मेरा निशाना पड़ोसी की मेड है।’’
‘‘अरे, तो बता न निशाना! कर न कुछ!’’
‘‘अभी कुछ नहीं हो सकता। आपको मालूम होना चाहिये अभी कुछ नहीं हो सकता। आप पड़ोस में रहते हैं, आपको बेहतर दिखाई देना चाहिये कि परसों सुबह से वहां कितनी आवाजाही है! वहां जब सब कुछ शान्त होगा, सब कुछ सैटल होगा तो तभी कुछ होगा।’’
‘‘लेकिन होगा?’’
‘‘हां। और मेड ही इसके लिये बेहतरीन जरिया है। करना क्या होगा उसने? अपने एम्पलॉयर की हैंडल की कोई आइटम – कोई गिलास, कोई कप, कोई शेविंग ब्रश, कोई ऐसी ही और चीज – चुपचाप वो मेरे हवाले करेगी और करारा ईनाम पायेगी। उसे तो ये भी नहीं सूझेगा कि वो आइटम मुझे क्यों चाहिये थी?’’
‘‘बात हो गयी?’’
‘‘नहीं, अभी नहीं। बोला न, अभी वैसा माहौल वहां नहीं है। लेकिन होगी और कामयाबी से होगी।’’
‘‘वो फूल विसर्जित करने हरिद्वार भी तो जायेगा!’’ – अरमान बोला – ‘‘तब मेड को साथ तो नहीं ले जायेगा!’’
‘‘ये बात मेरे जेहन में है। मेरे को भी उसी घड़ी का इन्तजार है।’’
‘‘ओके।’’
‘‘अब तू मेरी सुन, जस्से।’’ – चिन्तामणि फिर वार्तालाप का सूत्र अपने हाथ में लेता बोला – ‘‘नहीं, पहले गिलास ख़ाली कर।’’
जस्से ने आदेश का पालन किया।
चिन्तामणि ने नये ड्रिंक्स तैयार किये।
‘‘जस्से!’’ – फिर बोला – ‘‘हमने पड़ोसी के होश उड़ाने के लिये ‘पिल्ला अभी बाकी है’ जैसी बड़ी धमकी तो जारी कर दी, दावा भी ठोक दिया कि ढूंढ़ लेंगे। लेकिन कैसे ढूंढ़ लेंगे?’’
‘‘आप बोलिये।’’
‘‘मैंने सोचा इस बारे में।’’
‘‘क्या?’’
‘‘देखो, वो लोग तीन-एक महीने से पड़ोस में हैं और ख़ुद को कश्मीरी बताते हैं। दूसरी बात ये कि बारह या तेरह तारीख के बाद से वो औरत – जो जहन्नुमरसीद हुई – घर से नहीं निकली थी। तभी से उसका पिल्ला नहीं दिखाई दिया।’’
‘‘आपको क्या मालूम?’’
‘‘भई, कुछ पड़ोस की वजह से मालूम है, कुछ मामूली पूछताछ से लग गया। पिल्ला उनकी कोठी के बरामदे में दिखाई देता था, कभी-कभार मेड उसे नजदीकी पार्क में ले के जाया करती थी। ग्यारह नवम्बर वाली वारदात के बाद से वो बच्चा कोई नहीं कहता कि किसी ने देखा। क्या मतलब हुआ इसका? कहां गया?’’
‘‘किसी लोकल रिश्तेदार के पास गया।’’
‘‘महीना होने के आ रहा है। इतना छोटा बच्चा महीने से लोकल रिश्तेदार के पास है?’’
‘‘मां को तो ये कुबूल नहीं हो सकता। महीना आता-जाता रहे, हो सकता है, लेकिन महीना आये ही नहीं, नहीं हो सकता।’’
‘‘एक्जैक्टली। इसका मतलब है कि वो कहीं दूर भेजा गया है जहां से आनन-फानन उसका लौट आना मुमकिन नहीं।’’
‘‘दूर में तो सारा हिन्दोस्तान आता है!’’
‘‘लेकिन एक कश्मीरी के सारे हिन्दोस्तान में करीबी हों – इतने करीबी हाें कि कितने ही अरसे तक इतना छोटा बच्चा सम्भाले रहने के लिये तैयार हों, ये मुमकिन नहीं।’’
‘‘तो?’’
‘‘जगह कोई ऐसी ही मुमकिन है जहां पड़ोसी का आना जाना पूर्वस्थापित हो।’’
‘‘कहां?’’
‘‘मैंने मालूम किया है कि जिस कम्पनी में – गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन
में – वो नौकरी करता है, हैदराबाद के अलावा – जहां कि वो पिछले दिनों गया बताया जाता था – उसके आफिस मुम्बई और बैंगलौर में भी हैं। मेरे ख़याल से वो बच्चा उन तीन जगहों में से किसी एक जगह पर ही भेजा गया होगा।’’
‘‘कश्मीर क्यों नहीं? जहां का वो अपने आप को बताता है?’’
‘‘वहां से तो वो विस्थापित हो के यहां आया बताया जाता है। अपने पास्ट से अभी उसका लिंक बना होता तो सभी न वहां चले जाते!’’
‘‘ओके। सॉरी।’’
‘‘फर्ज करो बच्चा मुम्बई, हैदराबाद या बैंगलोर कहीं गया।’’
‘‘कोई जरूरी नहीं।’’
‘‘यार, मैंने फर्ज करो भी तो बोला!’’
‘‘ओके, किया।’’
‘‘प्लेन में दो साल से ज्यादा के बच्चे का टिकट लगता है। वो ढ़ाई के आसपास का है इसलिये उसका टिकट बना होगा और टिकट में उसका नाम पता दर्ज हुआ होगा। जस्से, आजकल के कम्प्यूटर युग में क्या ऐसी बुकिंग ट्रेस नहीं की जा सकती?’’
‘‘त्रिपाठी जी, मुझे कहते दुख होता है लेकिन आपकी सोच में नुक्स ही नुक्स हैं। गिनिये। एक, इस बात की कोई गारन्टी नहीं कि बच्चा इन तीन शहरों में से किसी में गया। दो, इस बात की कोई गारन्टी नहीं कि प्लेन से गया। तीन, एक महीने के वक्के में सारी डोमेस्टिक एयरलाइन्स की हजारों फ्लाइट्स होंगी जिन्होंने इन तीन शहरों में लैंड किया होगा। चौथे, उनमें ढ़ाई साल का कोई एक ही बच्चा नहीं होगा, ऐसे बच्चे सैंकड़ों में हो सकते हैं, कैसे सिंगल आउट करेंगे?’’
‘‘पते से। बोला तो।’’
‘‘बच्चा जिसके साथ गया, रिकार्ड में उसका पता दर्ज होगा। उसका दर्जा बच्चे के अभिभावक का होगा इसलिये जो पता अभिभावक का, वो बच्चे का। हमें क्या पता अभिभावक कौन है? हमें क्या पता बच्चे का नाम क्या है? अभी कोई नाम है भी या नहीं?’’
चिन्तामणि को जवाब न सूझा।
‘‘और सौ बातों की एक बात। चलिये, आपकी सारी बातें ठीक हैं। माना कि रिकार्ड कहता है कि बच्चा मुम्बई गया। आगे इतनी बड़ी मुम्बई में – जिसमें न्यू मुम्बई, ग्रेटर मुम्बई, ठाणे, कल्याण वग़ैरह भी शामिल हैं – वो कहां गया, ये जानने का हमारे पास कौन सा जरिया है?’’
‘‘तो क्या करें?’’ – चिन्तामणि झुंझलाया।
‘‘मैं बताऊं?’’
‘‘भई, तेरे से ही सवाल है।’’
‘‘तो जवाब है कि ‘पिल्ला अभी बाकी है’ जैसी जो ड्रामेबाजी हो चुकी सो हो चुकी। बीवी के अंजाम से वो तड़पेगा, अंगारों पर लोटेगा, ख़ुद ही मर जायेगा, वो ड्रामाई, फिल्मी बातें ख़त्म करो और ह क़ी क़ी जमीन पर पांव जमा कर एक्ट करो।’’
‘‘क्या? क्या एक्ट करें?’’
‘‘अरे, जैसे औरत को ठोका, वैसे मर्द को भी ठोक दो। न रहे बांस, न रहे बांसुरी। न रहे वो सफेदपोश बाबू, न रहे हमारे लड़के के सिर पर’’ – उसने अरमान की तरफ इशारा किया – ‘‘लटकी उसकी धमकी की तलवार। फिर पिल्ला रहे या न रहे, हमें क्या फर्क पड़ता है!’’
बाप बेटे ने एक दूसरे की तरफ देखा।
‘‘यानी’’ – चिन्तामणि सशंक भाव से बोला – ‘‘फिर घर में घुस कर . . .’’
‘‘क्यों नहीं? जो काम एक बार हो सकता है, वो दोबारा भी हो सकता है।’’
‘‘फिर पुलिस को’’ – अरमान बोला – ‘‘अपनी ये ओपीनियन रिवाइज करनी पड़ेगी कि पहली वारदात चोरी की थी जिसमें कि फच्चर पड़ गया था। फिर ये साफ-साफ रिवेंज किलिंग होगी। पहली भी।’’
‘‘हो। इस बात की दुहाई देने वाला कौन होगा? पुलिस पड़ी ढूंढ़ती रहे रिवेंज किलिंग की वजह! नहीं हाथ आयेगी। तुम्हारी ग्यारह नवम्बर की करतूत की . . .’’
‘‘जस्से!’’
‘‘हरकत की पुलिस के महकमें में कहीं कोई हाजिरी नहीं है।’’
‘‘हाजिरी हो भी’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘तो बदला लेने की ख़्वाहिश तो विक्टिम की होगी न! उस मर्द की होगी न, जिसकी बीवी के साथ बद्फेली हुई! यहां तो मारने की ख़्वाहिश रखने वाला ही मारा गया है।’’
‘‘ये भी एक प्वायंट है।’’
‘‘लेकिन, जस्से’’, – अरमान बोला – ‘‘रिवेंज का मतलब मर्डर ही तो नहीं होता! वो भी तो खतरनाक रिवेंज है जो अमित के साथ बीती, अशोक के साथ बीती।’’
‘‘काके, जो अमित के साथ बीती उसकी ख़बर सात जन्म पुलिस को नहीं लगने वाली। वो ख़बर पुलिस को तभी लग सकती है जब मैं बकूं . . .’’
‘‘नामुमकिन।’’
‘‘या तुम बाप बेटे में से कोई बके।’’
‘‘बिल्कुल ही नामुमकिन।’’ – चिन्तामणि पुरजोर लहजे से बोला।
अरमान सोचने लगा कि बताये या न बताये कि उसकी नादानी की वजह से अमित के साथ जो बीता, उसकी अकील और अशोक दोनों को ही ख़बर थी।
उसने चुप रहना ही मुनासिब समझा।
‘‘लेकिन’’ – वो बोला – ‘‘जो अशोक के साथ बीती, उसकी पुलिस को ख़बर है!’’
‘‘क्योंकि वाकया एक पब्लिक प्लेस में हुआ इसलिये छुपाया न जा सका। लेकिन उसके किसी उद्देश्य की तलाश में पुलिस अभी भटक ही रही है और भटकती ही रहेगी। किसी मुकाम पर पहुंच भी गयी तो किसी चेन रियेक्शन का नतीजा वो कभी साबित नहीं कर पायेगी।’’
‘‘अगर अशोक ने ही अपने पर बीती की वजह बयान कर दी?’’
‘‘क्या वजह बयान कर दी? ये कि अपने तीन दोस्तों के साथ वो एक औरत के अगवा में और फिर उसके साथ सामूहिक बलात्कार में शामिल था जिसकी वजह से किसी ने यूं उससे बदला उतारा?’’
अरमान को जवाब न सूझा।
‘‘वो पढ़ा लिखा समझदार लड़का है, जानता है हकीकत बयान करना अफोर्ड नहीं कर सकता। ऐसी बेवकूफी करेगा तो उसके साथ जो इंसाफ होता है, वो तो बालायताक रख दिया जायेगा और पहले वो अपनी करतूत के लिए दस साल के लिये नपेगा और’’ – जस्सा जानबूझ कर ठिठका – ‘‘यारों को भी नपवायेगा।’’
अरमान के शरीर में स्पष्ट झुरझुरी दौड़ी।
‘‘अकेले अशोक के साथ हुई वारदात को पुलिस रिवेंज का चेन रियेक्शन नहीं करार दे पायेगी। ख़ास तौर से तब जबकि अपनी ही भलाई के लिये अशोक की यही रट होगी कि ये ठीक है कि उसने बारात में मिली एक खूबसूरत लड़की पर लार टपकाई और उसके उकसाने पर वो होटल के एक कमरे में उसके साथ गया। लेकिन आगे क्या हुआ, क्यों हुआ, उसकी उसे कोई ख़बर नहीं।’’
‘‘लेकिन अगर अकील शिकार बना गया . . .’’
‘‘अरे, तभी तो कहता हूं कि ये सयापा जितनी जल्दी हो सके ख़त्म करो। और इसको जल्दी ख़त्म करने का यही तरीका है कि वो बाबू भी ख़त्म हो। वो कैसे ख़त्म होगा, ये मेरे पर छोड़ दो लेकिन फैसला ख़ुद करो कि ऐसा करना मंजूर है या नहीं!’’
पिता पुत्र ने फिर एक दूसरे की तरफ देखा।
‘‘ड्रामेबाजी में कुछ नहीं रखा, ठेकेदार साहब! जीते जी कोई नहीं मरता। जो फैसला करना है, ये सोच कर करो कि जो पहले मारे वो मीर।’’
‘‘जो पहले मारे वो मीर’’ – चिन्तामणि होंठों में बुदबुदाया।
‘‘हां। इस घड़ी वो मातम में है। बीवी की मौत के ग़म में पगलाया हुआ है। अभी तो उसने बीवी के फूल भी नहीं चुने हैं। वो हिन्दू है, ब्राह्मण है, अभी तो बीवी की गति कराने में उसे बहुत टाइम लगेगा। उसके बाद कहीं वो जाकर सम्भलेगा और मुख़ालफत में कदम उठायेगा। मेरी मानें तो यही मौका है उस पर वार करने का, फिर न सैन्ट्रल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के धक्के खाने की जरूरत होगी और न इस लम्बी और निहायत मुश्किल ड्रिल की जरूरत होगी कि पिल्ला कहां गया। नहीं?’’
‘‘हं-हां।’’
‘‘शीशे पर लिख के छोड़ी वार्निंग आखिर में क्या कहती है? कहती है ‘फिर तेरी बारी’। काहे को ‘फिर’ उसकी बारी? पहले उसकी बारी। ताकि टंटा की ख़त्म हो। हम उस वार्निंग पर हरूफ़-ब-हरूफ़ खरा नहीं उतरेंगे तो क्या हमारा कोई चालान कर देगा? बात पर खरा उतर कर दिखाने की जो ट्रॉफी हमें मिलनी होगी, वो छिन जायेगी? ‘प्राण जायें पर वचन न जाई’ जैसे संकल्प वाले हम कब से हो गये?’’
‘‘तेरी बात ठीक है।’’
‘‘तो फिर क्या जवाब है आप का?’’
‘‘हम तेरी राय पर अमल करेंगे। जो कर सकता है, कर।’’
‘‘बढ़िया।’’
‘‘और इसी बात पर एक जाम और ले।’’
‘‘आप के इस माकूल फैसले पर मैं कई जाम और लूंगा। लेकिन और मैं यहां रुक नहीं सकता। सुबह से धक्के खा रहा हूं। थक कर चूर हूं।’’
‘‘तो?’’
‘‘ये बोतल साथ ले जाने की इजाजत दीजिये। घर तक का लम्बा सफर है रास्तें में पियूंगा।’’
‘‘अरे, तेरे पर ऐसी दस बोतलें कुर्बान!’’
‘‘शुक्रिया।’’
‘‘लेकिन ध्यान से पीना। एक्सीडेंट न कर बैठना।’’
‘‘त्रिपाठी जी, मेरा रिकार्ड है मैंने आजतक नशे में एक्सीडेंट नहीं किया। जब किया, होश में किया।’’
‘‘फिर क्या बात है!’’
‘‘एक बात और।’’
‘‘वो भी बोल।’’
‘‘मेरी वैगन-आर कुछ तंग कर रही है। मयूर विहार तक का लम्बा सफर है मेरा। रास्ते में धोखा दे गयी तो रात की इस घड़ी में भारी दिक्कत होगी।’’
‘‘क्या चाहता है?’’
‘‘सोच रहा था वैगन-आर यहां छोड़ जाऊं और आपकी गाड़ी ले जाऊं। सुबह आ कर . . .’’
‘‘अरे, ले जा न! यहां गाड़ियों का घाटा है! कोठी भरी पड़ी है।’’
‘‘शुक्रिया।’’
‘‘लड़के, स्विफ्ट की चाबी दे इसे।’’
‘‘आओ।’’ – अरमान उठता हुआ बोला।
जस्से ने बोतल सम्भाली और अरमान के साथ हो लिया।
11 दिसम्बर: बुधवार
नौ बजे विमल श्मशान घाट से फारिग हुआ और अरशद के साथ इसकी टैक्सी पर वहीं से हरिद्वार के लिये रवाना हो गया।
जस्से ने छुपकर तमाम नजारा किया।
वो सफेदपोश बाबू को, मातम के हवाले खाविंद को, वहीं ठोक देने के इन्तजाम के साथ वहां आया था लेकिन पहुंच कर ही मालूम हुआ कि ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं था। वहां उसके साथ लोगों का तकरीबन उतना ही बड़ा हुजूम था जितना दो दिन पहले अन्तिम संस्कार के वक्त था और उस हुजूम में इलाके के थाने का बेवर्दी एएसएचओ फिर मौजूद था।
एक घन्टा उसने इन्तजार किया, फिर डी ब्लॉक लौटा।
उसका जो जमूरा वहां वक्ती निगरानी पर तैनात था, उसने तसदीक की कि मेड घर में अकेली थी।
उसने जमूरे को डिसमिस कर दिया और कॉल बैल बजाई।
मेड बरामदे में प्रकट हुई।
‘‘सा’ब घर में नहीं है।’’ – वो बोली – ‘‘कोई घर में नहीं है।’’
‘‘कोई बात नहीं।’’ – जस्सा मीठे स्वर में बोला – ‘‘इधर आ के तू मेरी बात सुन।’’
वो गेट की दूसरी तरफ पहुंची।
‘‘तू मेड है न?’’
‘‘हां।’’
‘‘नाम क्या है?’’
‘‘फ्रान।’’
‘‘हां, फ्रान। फ्रान, मैंने तेरे साहब से नहीं, तेरे से बात करनी है।’’
फ्रान के चेहरे पर हैरानी के भाव आये।
‘‘तेरे फायदे की बात।’’
फ्रान की भवें उठीं।
‘‘हां, तेरे फायदे की बात। सिर्फ दो मिनट।’’
‘‘कीजिये।’’
‘‘गली में खड़े हो के नहीं। बहुत आवाजाही है। हर कोई नोट करेगा।’’
‘‘सा’ब की एबसेंस में मैं आप से भीतर नहीं ले जा सकती।’’
‘‘तो कम-से-कम बरामदे में तो चल। कुछ तो ओट होगी!’’
फ्रान ने गेट खोला।
दोनों बरामदे में पहुंचे।
‘‘अब बोलिये।’’
‘‘यहां मेरे को एक काम है जो कि तू कर सकती है।’’ – जस्सा धीरे से बोला – ‘‘मैं इसकी बाकायदा फीस भरूंगा।’’
‘‘क्या काम! क्या फीस?’’
‘‘पहले फीस।’’
जस्से ने उसे दो हजार का एक नोट थमाया।
‘‘ये . . . ये क्या?’’
‘‘काम की फीस। काम मामूली। दो मिनट में हो जाने वाला। फीस ढ़ेर। दो मिनट की जहमत की उजरत दो हजार रुपये। तेरे को गोली की तरह मंजूर होनी चाहिये।’’
‘‘काम पर डिपेंड करता है।’’
‘‘बोला न, काम मामूली है . . .’’
‘‘मैं सुना। काम . . . काम बोलने का।’’
‘‘मेरे को इस घर की कोई ऐसी आइटम चाहिये जिसे सिर्फ तेरे साहब ने हैंडल किया हो।’’
‘‘काहे?’’
‘‘वजह तू छोड़। ऐसी कोई आइटम ला के दे ताकि दो हजार रुपये फीस का हक अदा हो।’’
‘‘आप को सा’ब का फिंगरप्रिंट्स मांगता है?’’
जस्से के चेहरे पर सख़्त हैरानी के भाव आये।
‘‘तू तो . . . तू तो . . . बहुत चा . . . सयानी है।’’
फ्रान ख़ामोश रही।
‘‘हां, यही बात है।’’
‘‘ये मामूली काम?’’
‘‘और क्या? घर की कोई छोटी-मोटी आइटम ही तो मेरे हवाले करनी है! सोने की तो न होगी!’’
‘‘सा’ब मेरे भरोसे घर छोड़ के गया। मेरे को उसका भरोसा ब्रेक करना होगा। ये मामूली काम?’’
‘‘अच्छा, बाबा। नहीं मामूली काम। ख़ास काम। उसी वास्ते ये ले एक और।’’
जस्से ने दो हजार का एक और नोट उसे थमाया।
‘‘दस।’’ – फ्रान भावहीन स्वर में बोली।
‘‘क्या दस? – जस्सा अचकचाया।
‘‘थाउ। ऐसा फाइव।’’
‘‘पागल हुई है!’’
‘‘फोर मोर, प्लीज।’’
‘‘साली, जानती नहीं किसे हूल दे रही है?’’
‘‘नहीं जानती। इसी वास्ते . . . प्लीज गो।’’
‘‘साली, मैं जबरदस्ती . . .’’
‘‘वाट जबरदस्ती? आपको मालूम इधर कौन सा आइटम ख़ाली सा’ब हैंडल किया?’’
‘‘तू बोलेगी न! मैं तेरा टेंटवा दबा के . . .’’
‘‘आई विल यैल।’’
‘‘क्या?’’
‘‘शोर मचाता है अभी।’’
उसकी गर्दन की नसें तनी, उसने मुंह खोला।
‘‘अरे, नहीं। सुन। सुन।’’
वो ठिठकी।
‘‘इधर मेरे को मैनहैंडल करेगा’’ – वो बोली – तो बाहर से आता जाता कोई न कोई जरूर देखेगा।’’
‘‘मैं घसीट के अन्दर ले जाऊंगा तो कौन देखेगा?’’
‘‘ले के जाना। जीसस सेवज। जीसस विल सेव मी।’’ – उसने अपनी छाती के आगे क्रास बनाया।
‘‘क्रिस्तान है?’’
‘‘हां।’’
‘‘हूं।’’ – जस्से ने कुछ क्षण उसे घूरा, उसे विचलित न होती पाया तो असहाय भाव से बोला। – ओके।’’
‘‘वॉट ओके?’’ – फ्रान बोली।
‘‘जो तूने बोला। दस।’’
‘‘यस, दैट ऑफ कोर्स इज ओके।’’
जस्से ने उसे एक की जगह दो हजार के चार नोट सौंपे।
‘‘वेट हेयर।’’ – फ्रान बोली – पीछू आया तो . . .’’
‘‘नहीं, नहीं। मैं यहीं हूं। तू जा।’’
फ्रान भीतर गयी।
दो मिनट बाद अख़बार में लिपटी आइटम के साथ वो वापिस लौटी। उसने वे आइटम जस्से को सौंपी।
‘‘क्या है?’’ – जस्सा उत्सुक भाव से बोला।
‘‘शीशे का गिलास।’’ – फ्रान बोला – ‘‘सा’ब मार्निंग में इसमें चाय पिया।’’
‘‘ओह! तूने तो नहीं छुआ इसे?’’
‘‘सर, आई एम नॉट ए फूल।’’
‘‘तो कैसे गिलास को अख़बार में लपेटा।’’
‘‘अख़बार को गिलास पर लपेटा।’’
‘‘ओह! सयानी है। साली, ज्यादा ही सयानी है।’’
‘‘आप जितना चाहे मेरे को कर्स कर सकता है। – टैन थाउ पे करने वाले को इतना तो प्रिविलेज होना।’’
‘‘लेकिन ये गारन्टी है इस पर तेरे साहब के, सिर्फ साहब के फिंगरप्रिंट्स हैं?’’
‘‘यस। फुल। राइट हैण्ड की फाइव फिंगर्स के।’’
‘‘न निकले तो?’’
‘‘अपना पैसा वापिस ले के जाना। मैं इधर ही है।’’
‘‘साली, चुटकियों में दस हजार रुपये कमा लिये। क्या करेगी इनका?’’
‘‘ड्रैसिज बाई करूंगी।’’
‘‘अपने लिये?’’
‘‘बच्चों के लिये।’’
जस्से ने हैरानी से उसकी पतली कमर, सपाट पेट, उन्नत वक्ष को देखा।
‘‘बच्चे!’’ – फिर बोला।
‘‘पांच हैं।’’
‘‘पांच! किधर हैं?’’
‘‘रांची में। इन-लॉज के पास।’’
‘‘इधर अकेली?’’
‘‘हां।’’
‘‘साहब के साथ सोती है?’’
‘‘शट अप।’’
जस्सा बेशर्मी से दान्त निकाल कर हंसा।
‘‘मेरे साथ सोयेगी?’’
‘‘ऐसे रैड नोट्स और हैं?’’
‘‘हैं।’’
‘‘कब?’’
‘‘अभी। घर में तो कोई है नहीं! बोल, कितने?’’
‘‘दस!’’
‘‘पागल हुई है! साली, पांच बच्चों की मां! कहती है एक राइड के बीस हजार रुपये! जैसे अनछिदी, कुमारी कन्या हो! साली ख़्वाब देखती है, देखती रह।’’
वो एकाएक घूमा और वहां से विदा हो गया।
‘‘दि लाउजी सन ऑफ ए बिच!’’ – पीछे फ्रान नफ़रत से होंठों से बुदबुदाई।
जस्सा आईटीओ पहुंचा जहां कि पुलिस हैडक्वार्टर था।
उसका वाकिफ सब-इन्स्पेक्टर हेमन्त तंवर वहां ड्यूटी करता था।
हैडक्वार्टर में दाखिला पाने के सिलसिले में बहुत पाबन्दियां थीं, बहुत फॉरमलिटीज थीं, इसलिये उसने उसे फोन कर के बाहर बुलाया।
वो आया तो उसने उसे अख़बार में लिपटा गिलास सौंपा। वो क्या चाहता था, इस बाबत वो उससे पहले ही बात कर चुका था।
‘‘ठीक है।’’ – तंवर बोला – ‘‘कल आना।’’
‘‘कल आना!’’ – जस्सा हैरानी से बोला – अरे, आजकल तो सब कुछ कम्प्यूट्राईज्ड है!’’
‘‘ये गिलास ही कम्प्यूटर में घुसड़ जायेगा?’’
जस्सा सकपकाया।
‘‘पहले इस पर से फिंगरप्रिंट्स उठवाने होंगे और ये काम फिंगरप्रिंट्स एक्सपर्ट ही कर सकता है जो कि मैं नहीं हूं। पहले फिंगरप्रिंट्स एक्सपर्ट को राजी करना होगा कि वो ये काम करके दे। आगे क्राइम रिकार्ड ब्यूरो वालों की चिकौरी करनी होगी। ये पुलिस हैडक्वार्टर है, यहां बहुत काम होता है, यहां मेरे लिये ख़ाली कोई नहीं बैठा। जो करेगा अपना काम छोड़ के मेरा काम करेगा और नहीं मालूम कि ऐसा करना उसे कब कुबूल होगा। समझा कुछ?’’
‘‘हां, समझा।’’
‘‘तू मेरा दोस्त है। मैं तेरा मुलाहजा मानता हूं इसलिये कल आने को बोला वर्ना अगले हफ्ते आने को बोलता।’’
‘‘ख़फा मत हो, यार’’ – जस्सा ख़ुशामदी लहजे से बोला – ‘‘मैं कल आता हूं।’’
‘‘आना। काम जल्दी हो गया, आज ही हो गया तो फोन करूंगा।’’
‘‘ठीक है। शुक्रिया।’’
संयोगवश जस्से का फिंगरप्रिंट्स सम्बन्धी काम उसी रोज हुआ।
सब-इन्स्पेक्टर तंवर का शाम पांच बजे उसे फोन आया कि वो पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचे। जस्सा पहुंचा तो तोमर आउटर गेट पर आकर ख़ुद उसे भीतर लेकर गया और भीतर जाकर दोनों एक छोटे से केबिन में आमने सामने बैठे।
‘‘क्या नतीजा निकला?’’ – जस्सा आशापूर्ण स्वर में बोला।
‘‘नहीं मिलते।’’ – तंवर बोला।
‘‘क्या?’’
‘‘तेरे लाये फिंगरप्रिंट्स रिकार्ड में उपलब्ध किसी भी नोन क्रिमिनल के फिंगरप्रिंट्स से नहीं मिलते।’’
‘‘नहीं मिलते?’’ – जस्से के स्वर में निराशा का पुट आया।
‘‘बिल्कुल नहीं मिलते।’’
‘‘पक्की बात?’’
‘‘हां। पक्की और गारन्टीशुदा बात। रिकार्ड झूठ नहीं बोलता। दूसरे, ये पुलिस हैडक्वार्टर है, यहां काम में कोताही नहीं होती, लापरवाही नहीं होती।’’
‘‘यार, अगर इतनी ही बात थी तो फोन पर ही कह देनी थी! क्यों मुझे इतना दूर दौड़ाया?’’
‘‘और भी बात है।’’
‘‘अच्छा, और भी बात है!’’
‘‘हां।’’
‘‘क्या?’’
‘‘तेरे को एक कहानी सुनानी है जो तेरी दिलचस्पी का बायस बन सकती है।’’
‘‘कहानी! मेरी दिलचस्पी का बायस बन सकती है?’’
‘‘हां।’’
‘‘लेकिन कहानी!’’
‘‘हां।’’
‘‘सुना।’’
‘‘सुन। काफी अरसा पहले की बात है झण्डेवालान के इलाके में एक मर्डर हुआ था जिसमें मर्डर सस्पैक्ट टांगों से लाचार एक उम्रदराज शख़्स था जो कि बैसाखियों के सहारे चलता था। उसका नाम मायाराम बावा था और मकतूल उसका वाकिफ और जोड़ीदार हरिदत्त पंत नाम का एक उससे कदरन कमउम्र आदमी था। पहाड़गंज थाने के जनक राज नाम के एक सब-इन्स्पेक्टर ने उस केस की तफ्तीश की थी मायाराम बावा के खिलाफ काफी सबूत मुहैया किये थे और उसे गिरफ्तार कर लिया था . . .’’
‘‘अरे, भाई मेरे, ये दिल्ली शहर है, यहां आये दिन कत्ल होते हैं। इस कत्ल में, ऐसे एक कत्ल में, मेरी क्या दिलचस्पी है?’’
‘‘सुन नहीं सकता चैन से?’’
‘‘यार, में खपा हुआ हूं। सारा दिन धक्के खाता फिरता हूं। कोई मतलब की बात है तो बोल।’’
‘‘किसके मतलब की बात?’’
‘‘मेरे मतलब की बात, और किसके मतलब की बात?’’
‘‘तो? सुने बिना पता चल जायेगा तेरे को कि बात तेरे मतलब की है या नहीं?’’
जस्सा सकपकाया।
‘‘फिर बोल, मैं तेरा मुलाजिम हूं कि सरकार का मुलाजिम हूँ?’’
‘‘स-सॉरी, यार।’’
‘‘यारी के मुलाहजे में साला सारा दिन ख़राब कर दिया एक नाशुक्रे काम के लिये और यार कहता है सॉरी यार।’’
‘‘सॉरी, यार! दिल से बोला। कान पकड़वा ले। उठक बैठक लगवा ले। ग़लती हुई न मेरे से जो मैं नाहक उतावला हुआ। माफ कर अब।’’
‘‘चाय पियेगा?’’
जस्से ने चैन की सांस ली। उसका चाय पूछना ही सबूत था कि उसने गुस्सा थूक दिया था।
‘‘नहीं। शुक्रिया के साथ नहीं। तेरी बात सुनूंगा। बिना तुझे टोके सिर्फ तेरी बात सुनूंगा। तो ये बावा – मायाराम – कत्ल के इलजाम में पहाड़गंज थाने वालों के किये गिरफ्तार हुआ था!’’
‘‘हां! क्यों कि मौकायवारदात उन के थाने की ज्यूरिस्डिक्शन में आता था। उसकी गिरफ्तारी के वक्फे में उसका एक मुलाकाती थाने पहुंचा था जो कि आम बात थी लेकिन जो बात आम नहीं थी, बहुत ख़ास थी, वो ये थी कि मुलाकात ख़त्म कर के वो आदमी, वापसी के लिये मायाराम बावा के पास से उठा ही था कि मायाराम चिल्ला-चिल्ला के दुहाई देने लगा था कि उस आदमी को रोका जाये, जाने न दिया जाये क्योंकि वो मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल था।’’
‘‘सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल!’’ – जस्सा भौंचक्का सा बोला – ‘‘जो मशहूर इश्तिहारी मुजरिम है, जिसकी गिरफ्तारी पर तीन लाख का ईनाम है और मुल्क के सात राज्यों को जिस की तलाश है?’’
‘‘दिल्ली समेत। यहां भी वारदात कर चुका है। वारदात से भी बड़ा काम कर चुका है?’’
‘‘क्या?’’
‘‘तिहाड़ जेल से फरार हो गया था।’’
‘‘हे भगवान!’’
‘‘तू आगे सुन। थाने वालों ने यहीं समझा कि हवालात में बन्द रहते कैदी का दिमाग हिल गया था और अनाप शनाप बक रहा था लेकिन उसने दुहाई बन्द न की कि जो मुलाकाती तभी उसके पास से उठ के गया था, वो सोहल था, उसे रोका जाना चाहिये था, फौरन गिरफ्तार किया जाना चाहिये था।’’
‘‘किया गया?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि वो शख़्स थाने एक बड़े सरकारी ओहदेदार योगेश पाण्डेय के साथ आया था जो कि सीबीआई के ऐंटीटैररिस्ट स्क्वाड में डिप्टी डायरेक्टर के पद पर थे। थाने में एसएचओ समेत किसी को इस वजह से भी मायाराम की दुहाई पर ऐतबार नहीं आया। फिर भी मायाराम की मुतवातर दुहाई पर एसएचओ ने ये कार्यवाही की कि यहां पुलिस हैडक्वार्टर में उपलब्ध सोहल के फिंगरप्रिंट्स का नमूना अपने थाने मंगवाया और उनका मिलान उस मुलाकाती के-जो कि योगेश पाण्डेय, डिप्टी डायरेक्टर ऐंटीटैररिस्ट स्क्वाड, के साथ आया था – फिंगरप्रिंट्स के साथ ख़ुद किया तो . . .’’
जस्से ने सस्पेंस में उसकी तरफ देखा।
‘‘... वो प्रिंट्स मिलते न पाये गये।’’
‘‘ओह!’’
‘‘उस मुलाकाती की सूरत भी सोहल के रिकार्ड में मौजूद सूरत से मिलती न पायी गयी। लेकिन उसका भी मायाराम के पास जवाब था कि वो तसवीर रिकार्ड में आने के बाद से सोहल ने चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करा ली थी जिसकी वजह से उसकी सूरत बदल गयी थी और इसी वजह से उसके मुलाकाती की सूरत सोहल से नहीं मिलती थी। किसी को उसकी बात पर यकीन न आया। जस्से, कहानी लम्बी है और तू बेसब्रा है . . .’’
‘‘नहीं, यार।’’
‘‘इसलिये में कहानी के सिरे पर पहुंचता है। सिरा ये है कि मायाराम की मुलाकाती के ख़िलाफ तमाम हालदुहाई के बावजूद उसकी कोई सुनवाई न हुई और मुलाकाती को सादर वहां से रुख़सत किया गया। बाद में मायाराम को पंजाब पुलिस ले गयी थी क्योंकि वहां उसके ख़िलाफ बैंक डकैती और डबल मर्डर का मुकद्दमा था – उसने डकैती के अपने ही दो साथियों को मार डाला था – लेकिन ट्रांजिट रिमांड पर जब उसे बाई रोड अमृतसर ले जाया जा रहा था तो पुलिस वैन पर हमला हो गया था और मायाराम को छुड़ा लिया गया था। बाद में एक सूखे कुंये में से उसकी कत्ल हुई लाश बरामद हुर्ह थी लेकिन कत्ल की वजह कभी उजागर नहीं हुई थी।’’
‘‘यानी उसकी हायतौबा का कोई भी प्रैक्टीकल असर सामने नहीं आया था?’’
‘‘हां। लेकिन बाद में वो तमाम वाकया डिस्ट्रिक्ट के डीसीपी की जानकारी में आया था तो उसने राय जाहिर की थी कि कैदी की हालदुहाई बिल्कुल ही बेबुनियाद नहीं हो सकती थी . . .’’
‘‘लेकिन जब फिंगरप्रिंट्स ही नहीं मिलते थे . . .’’
‘‘जस्से, तू पुलिस प्रोसीजरल को नहीं समझता। बड़े अफसर की बड़ी सोच होती है। वो वही नहीं सोचता जो नाक के सामने दिखाई देता है – जैसा कि उस केस में पहाड़गंज थाने के एसएचओ ने किया – वो दायें बायें की सम्भावनाओं पर भी विचार करता है। डीसीपी की सोच ये थी कि अगर कैदी की दुहाई में कोई दम था तो रिकार्ड में उपलब्ध सोहल के फिंगरप्रिंट्स में कोई भेद होना चाहिये था। लिहाजा पंजाब और राजस्थान से – जो कि उन सात राज्यों में से दो राज्य थे जिनका सोहल इश्तिहारी था – सोहल के उन के पास उपलब्ध फिंगरप्रिंट्स का रिकार्ड तलब किया गया तो वो प्रिंट्स दिल्ली पुलिस के रिकार्ड के प्रिंट्स से तो न मिलते पाये गये लेकिन – ग़ौर से सुन, जस्से – आपस में मिलते पाये गये।’’
‘‘कमाल है!’’
‘‘इस बात से क्यू लेकर बाकी चार स्टेट्स के रिकार्ड में उपलब्ध सोहल के फिंगरप्रिंट्स दिल्ली तलब किये गये। किसी टैक्नीकलिटी वजह से मुम्बई से प्रिंट्स का नमूना दिल्ली न पहुंच पाया लेकिन तामिलनाड, गोवा और यू-पी से आये प्रिंट्स आपस में भी मिलते पाये गये और पंजाब और राजस्थान से आये प्रिंट्स से भी मिलते पाये गये लेकिन पांचों नमूनों में से कोई भी नमूना दिल्ली में पुलिस के पास उपलब्ध सोहन के फिंगरप्रिंट्स से न मिलता पाया गया।’’
‘‘मतलब क्या हुआ इसका?’’
‘‘मतलब साफ है। पुलिस के हाई ब्रास ने फैसला किया कि उस मामले में दिल्ली पुलिस के रिकार्ड को टैम्पर किया गया था।’’
‘‘यानी मायाराम बावा की दुहाई सही थी कि उसका मुलाकाती सोहल था?’’
‘‘हां।’’
‘‘तो फिर मुलाकाती के फिंगरप्रिंट्स दिल्ली के अलावा बाकी राज्यों के प्रिंट्स से मिलते पाये जाने चाहिये थे! पहाड़गंज थाने के एसएचओ ने ऐसा मिलान करने के लिये, जाहिर है कि मुलाकाती के फिंगरप्रिंट्स लिये होंगे। क्यों न मुलाकाती के फिंगरप्रिंट्स . . .’’
जस्सा खामोश हो गया, उसे अहसास हुआ कि तोमर बड़े अप्रसन्न भाव से उसे घूर रहा था।
‘‘पुलिस को कब, कैसे, क्या करना है, ये उसे पब्लिक से सीखना होगा, ठीक?’’
‘‘सॉरी!’’ – जस्सा होंठों में बुदबुदाया।
‘‘पहाडगंज थाने के एसएचओ को क्योंकि अपने कैदी की दुहाई पर रत्ती भर विश्वास नहीं आया था इसलिये मुलाकाती के थाने से रुख़सत पाते ही उसके फिंगरप्रिंट्स का नमूना फाड़ के फेंक दिया था। वो नमूना मिलान के लिये उपलब्ध नहीं था।’’
‘‘लेकिन-गुस्ताख़ी की माफी के साथ अर्ज है, यार – जब जरूरत आन पड़ी थी तो मुलाकाती के फिंगरप्रिंट्स फिर हासिल किये जा सकते थे।’’
‘‘वो जरूरत आन पड़ने के वक्त मुलाकाती दिल्ली में उपलब्ध नहीं था। दरयाफ्त किये जाने पर मालूम पड़ा था कि वो सपरिवार दिल्ली छोड़ गया था और छोड़ जाने के अन्दाज से जाहिर होता था कि हमेशा के लिये छोड़ गया था।’’
‘‘क्या किया?’’
‘‘नौकरी छोड़ दी। घर-बार बेच दिया।’’
‘‘ओह!’’
‘‘फिंगरप्रिंट्स की टैम्परिंग को महकमें ने सीरियसली लिया गया। जांच के लिये इंक्वायरी बिठाई गयी जिसकी सघन, मुस्तैद जांच के दायरे में यहां का कोई भी कर्मचारी न आ पाया जिस पर कि टैम्परिंग का शक किया जाता। तब यही फैसला हुआ कि जब सारे मैनुअल रिकार्ड को ऑटोमैटिक किया गया था, कम्प्यूटर पर डाला गया था तो किसी क्लैरिकल ओवरसाइट की वजह से तब वो गड़बड़ हो गयी थी, सोहल के रिकार्ड में उसके फिंगरप्रिंट्स की जगह किसी और के फिंगरप्रिंट्स पोस्ट हो गये थे।’’
‘‘हो तो सकता ऐसा!’’
‘‘भई, बड़ा इंक्वायरी कमीशन था। उसने एनडोर्स किया था ऐसा हुआ हो सकता था। तभी तो इंक्वायरी क्लोज की गयी थी।’’
‘‘ठीक। बहरहाल अब पुलिस के रिकार्ड में सोहल ने जेनुइन फिंगरप्रिंट्स मौजूद हैं?’’
‘‘हां।’’
‘‘लेकिन वो मेरे लाये गिलास पर से उठाये गये फिंगरप्रिंट्स से नहीं मिलते?’’
‘‘नहीं मिलते।’’
‘‘तो फिर इस लम्बी कहानी में मेरे काम का क्या हुआ?’’
‘‘तूने एक बात नोट की, कि जिस मुलाकाती के खिलाफ मायाराम बावा की हालदुहाई थी, मैंने उसका नाम नहीं लिया!’’
‘‘अच्छा! – जस्से ने उस बात पर कुछ क्षण विचार किया, फिर बोला – ‘‘हां, यार नहीं लिया।’’
‘‘अब लेता हूं। उस मुलाकाती का नाम – अरविन्द कौल था . . .’’
जस्सा चौंका।
‘‘अरविन्द कामन नाम है’’ – फिर सम्भल कर बोला – ‘‘कौल कश्मीरियों की कामन कास्ट है।’’
‘‘...और वो गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन में, जो कि के-जी- मार्ग पर है, एकाउन्ट्स आफिसर की नौकरी करता था . . .’’
जस्से ने मुंह बाये उसकी तरफ देखा।
‘‘... और जो घर बेच कर उसने दिल्ली छोड़ी थी वो मॉडल टाउन में था और उसका नम्बर डी-9 था।’’
‘‘गॉड! इतने इत्तफाक एक साथ! कैसे मुमकिन हैं? अरविन्द कौल दो जनों का नाम हो सकता है लेकिन ये कैसे हो सकता है कि दोनों अरविंद कौल एक ही प्राइवेट कम्पनी में मुलाजिम हों और दोनों की ही वहां मुलाजमत एकाउन्ट्स आफिसर की ही हो! कैसे मुमकिन है कि एक अरविन्द कौल ने इमारत बेची और जिस ने खरीदी, उसका भी नाम अरविन्द कौल था?’’
‘‘तू सोच! तेरा लफड़ा है, तू सोच। पुलिस के पास तो कोई केस है नहीं!’’
‘‘क्यों नहीं है? अगर वो शख़्स ईनामी इश्तिहारी मुजरिम सोहल है . . .’’
‘‘अभी साबित तो हुआ नहीं है! मैंने बोला तो, कि तेरे लाये फिंगरप्रिंट्स सोहल के फिंगरप्रिंट्स से नहीं मिलते!’’
‘‘फिर कोई रिकार्ड टैम्परिंग!’’
‘‘पागल हुआ है! कम्प्यूट्राइज्ड रिकार्ड में अब ऐसी टैम्परिंग मुमकिन नहीं।’’
‘‘इतनी हैकिंग होती है . . .’’
‘‘यहां ऐंटीहैकिंग के पुख़्ता इन्तजाम हैं। फिर तू ये नहीं सोचता कि ये खड़े पैर होने वाला काम नहीं। सुबह तूने किसी के फिंगरप्रिंट्स हासिल किये और शाम होने से भी पहले उनके साथ छेड़छाड़ हो गयी, वो भी ऐसे शख़्स ने की जो बीवी की अस्थियां विसर्जित करने के लिये हरिद्वार गया हुआ है!’’
‘‘हे भगवान! ये क्या गोरखधन्धा है!’’
तंवर हंसा, फिर संजीदा हुआ।
‘‘पहाड़गंज थाने का तब का एसएचओ उसकी शिनाख़्त कर सकता है!’’
‘‘वो एसएचओ – नाम नसीब सिंह – अब अवेलेबल नहीं है।’’
‘‘क्यों? कहां गया?’’
तंवर ने छत की ओर एक उंगली उठाई।
‘‘मतलब?’’ – जस्सा उलझनपूर्ण भाव से बोला – ‘‘मर गया?’’
‘‘मार डाला गया।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘कैसे मार डाला जाता है?’’
‘‘कत्ल?’’
‘‘हां।’’
‘‘एक पुलिस इंस्पेक्टर का? एसएचओ का?’’
‘‘हां।’’
‘‘कैसे हुआ? किसने किया?’’
‘‘मालूम नहीं।’’
‘‘हूं ऐसा कोई और भी तो होगा जिससे उस मुलाकाती का वास्ता पड़ा होगा।’’
‘‘ऐसा एक शख़्स सब-इन्स्पेक्टर जनक राज था जो किन्हीं गैंगस्टर्स से हुए पुलिस एनकाउन्टर में मारा गया था।’’
‘‘कोई और?’’
‘‘एक हवलदार था लेकिन किसी को नहीं याद आने वाला कि वो कौन था! एक थाने में डेढ़ सौ पुलिसियों का स्टाफ होता है, उसमें कितने ही हवलदार होते हैं, जो हवलदार तब कैदी के ताल्लुक में था, इतने अरसे बाद ख़ुद उसे ही कुछ याद नहीं आने वाला।’’
‘‘हूं। बाई दि वे, जो कहानी तूने मुझे सुनायी, उसकी इतनी डिटेल्स में तुझे कैसे वाकफियत है?’’
‘‘सोच?’’
‘‘मेरा सिर खपा हुआ है . . .’’
‘‘लगता है आजकल हमेशा ही खपा होता है।’’
‘‘... तू बता।’’
‘‘जो वाकया मैंने बयान किया, उसके दौरान मेरी तैनाती पहाड़गंज थाने में थी।’’
‘‘अरे, मेरे भाई, तब तो मुलाकाती को तूने भी देखा होगा!’’
‘‘नहीं देखा था। देखा था तो सूरत की तरफ तवज्जो नहीं दी थी। मेरा उससे कोई मतलब ही नहीं था . . .’’
‘‘तो कथा कैसे पता लगी?’’
‘‘सारे थाने में चर्चा थी कि कैसे एक कैदी ने अपने किसी मुलाकाती के ईनामी इश्तिहारी मुजरिम होने की दुहाई दी थी।’’
‘‘कुल जमा मतलब ये हुआ कि तू मेरी कोई मदद नहीं कर सकता?’’
वो सोचने लगा, विचारने लगा।
‘‘एक काम करता हूं।’’ – फिर बोला – ‘‘मॉडल टाउन थाने का एएसएचओ अजीत लूथरा मेरा दोस्त है, तब से दोस्त है जब वो सब-इन्स्पेक्टर होता था और मंदिर मार्ग थाने में पोस्टिड था। मैं उसको बोलूंगा कि वो डी-9 मॉडल टाउन के आकूपेंट की कोई खुफिया तफ्तीश करे और अगर उसमें किसी भी किस्म का कोई भी भेद दिखाई दे तो मेरे को ख़बर करे।’’
‘‘करेगा?’’
‘‘क्यों नहीं करेगा? दोस्त है। मैं तेरा दोस्त हूं; जो तूने कहा, मैंने किया न!’’
‘‘ठीक है फिर।’’ – जस्सा उठ खड़ा हुआ – ‘‘तकलीफ की माफी।’’
‘‘अरे, वो चाय . . .’’
‘‘अब मूड नहीं रहा। चलता हूं।’’
तंवर ने सहमति में सिर हिलाया।
रात ग्यारह बजे के करीब विमल अशरफ के साथ घर लौटा।
‘‘डिनर?’’ – फ्रान ने पूछा।
‘‘नहीं।’’ – विमल बोला – ‘‘रास्ते में खा लिया।’’
‘‘तो चाय?’’
‘‘मेरे लिये नहीं।’’ अशरफ बोला – ‘‘मेरे को नींद आ रही है।’’
‘‘मेरे लिये बना दे।’’
फ्रान चली गयी।
अशरफ भी दूसरे बैडरूम में चला गया।
विमल ने मास्टर बैडरूम में जाकर कपड़े बदले और ड्राईंगरूम में आकर वहां के टीवी के सामने बैठ गया।
फ्रान चाय लेकर आयी।
‘‘थैंक्यू, फ्रान।’’
‘‘सा’ब, एक बात बोलने का।’’
विमल की भवें उठी।
‘‘आप चाय फिनिश करो, फिर बोलता है।’’
‘‘अभी बोल। मैं चाय पीता है और सुनता है।’’
‘‘सा’ब मार्निंग में, बिफोर नून, एक आदमी इधर आया जो मेरे को ये बोल के सरपराइज दिया कि सा’ब से नहीं, मेरे से मिलना मांगता था।’’
‘‘अच्छा! कौन था?’’
‘‘नाम न बोला। वो बोला नहीं, मैं पूछा नहीं।’’
‘‘क्या मांगता था?’’
‘‘आपका फिंगरप्रिंट्स।’’
‘‘क्या!’’ – विमल तत्काल सम्भल कर बैठा, चाय की तरफ से उसकी तवज्जो हट गयी।
‘‘इधर का कोई ऐसा आइटम मांगता था जिसको आपने रीसेंटली हैंडल किया हो, जिस पर विद गारन्टी आपके फिंगरप्रिंट्स हों।’’
‘‘क्यों मांगता था? कोई वजह बतायी?’’
‘‘नो। बट ही हैंडिड मी ए टू-थाउजेंड-रूपी नोट।’’
‘‘दो हजार रुपये में तुझे पटा कर अपना काम निकलवाना चाहता था!’’
‘‘यस।’’
‘‘तूने क्या किया?’’
‘‘मैं टैन थाउ मांगा।’’
‘‘दे दिया उसने?’’
‘‘नहीं देता था। धमकाता था। मैनहैंडल करना मांगता था। बट . . . दिया ऐट लास्ट। हेयर।’’
फ्रान ने उसे दो हजार के पांच नोट दिखाये।
‘‘कमाल है! तो तूने क्या क्या? इस बड़ी रकम के लालच . . . के बदले में कर दिया उस का काम? मेरे फिंगरप्रिंट दिये उसको?’’
‘‘फिंगरप्रिंट्स दिये!’’
‘‘फ्रान, एक्सप्लेन!’’
‘‘आप मार्निंग में क्रीमेशन ग्राउन्ड्स जाने से पहले गैस्ट के साथ चाय पिया, फिर गया। रिमेम्बर?’’
‘‘रिमेम्बर।’’
‘‘आप का फिंगरप्रिंट्स वाला बोलकर मैं उसको जो गिलास दिया, वो गैस्ट का फिंगरप्रिंट वाला था।’’
‘‘जिस गिलास में अशरफ ने चाय पी थी, तूने वो उसको सौंपा?’’
‘‘यस। एनश्योर कर के कि वो वो आइटम था जो वो मांगता था। विद सपोजिडली युअर क्लियर, रीसेंट फिंगरप्रिंट्स।’’
‘‘तूने ऐसा क्यों किया, फ्रान?’’
‘‘क्योंकि ऐसा किये बिना वो टलने वाला नहीं था। सा’ब, ही कुड हार्म मी। मेरे को ठोक कर के इंजर कर के फोर्स कर सकता था कि जो वो मांगता था, मैं उसको दे। इसी वास्ते मैंने ज्यास्ती पैसा मांगा, टैन थाउ मांगा, जो कि वो दिया, ताकि उसको लगता कि मैं जो किया रोकड़ा का लालच में किया, जैसा कि उसकी निगाह में मेरा करना नेचुरल था।’’
‘‘तूने ठीक किया। फ्रान, यू एक्टिड वैरी वाइजली।’’
‘‘फिर एक रीजन और भी था।’’
‘‘वो क्या?’’
‘‘सा’ब, मैं उस को देखा तो मेरे को फीलिंग आया कि वो उन चार भीड़ू लोगों में से एक था जो लास्ट सैटरडे नाइट में इधर धोखे से घुस आया और मेरे पर अटैक किया, मैडम को . . . खल्लास किया।’’
‘‘ठीक से पहचाना?’’
‘‘पहचाना ही नहीं, सा’ब। बट उसका फिजीक की वजह से फीलिंग आया जो मेरे को प्रॉम्पट किया कि मेरे को उससे कोआपरेट करना नहीं मांगता था।’’
‘‘इस वास्ते भी तेरे को टैन थाउ की डिमांड सूझी होगी?’’
‘‘यस।’’
‘‘ऐनी वे, जो किया ठीक किया।’’
‘‘अभी मैं ये रोकड़ा का क्या करे?’’
‘‘अपने पास रखे। ये तेरी वफादारी का ईनाम है।’’
‘‘बट, सर . . .’’
‘‘नो बट। नो, सर। यू अर्न्ड इट। बल्कि जैसे तूने सब हैंडल किया, उसका तुझ को मेरे को भी रिवार्ड देना चाहिये।’’
‘‘नो, सर। आप कल पहले ही मेरे को बड़ा रिवार्ड दिया।’’
‘‘ओके। अब उस आदमी का हुलिया बयान कर।’’
उसने किया।
‘‘थैंक्यू, फ्रान।’’
‘‘सा’ब, अब मेरा एक सवाल!’’
‘‘बोल।’’
‘‘जब उस आदमी को आखिर पता लगेगा कि मैं उस को चीट किया तो . . .’’
‘‘तो कुछ नहीं होगा। कल सुबह तू यहां से चली जायेगी। दोपहर तक मैं चला जाऊंगा। कहां से ढूढ़ेगा तेरे को?’’
‘‘ओह! – उसने स्पष्ट चैन की सांस ली।
‘‘मैं पहले पूछा नहीं, वैसे कहां जायेगी?’’
‘‘अभी तो उस प्लेसमेंट एजेंसी में ही जाने का जिसने मेरे को इधर भेजा। बाद में एजेंसी वाला लोग जिधर भेजेगा, जायेगा।’’
‘‘गुड। कोशिश करना कि नैक्स्ट प्लेसमेंट मॉडल टाउन से ज्यादा से ज्यादा दूर हो।’’
‘‘करेगा।’’
‘‘गुडनाइट।’’
‘‘गुडनाइट, सर। सा’ब, आप बहुत याद आयेगा मेरा को, मैडम’’ – वो फफक पड़ी – ‘‘बहुत याद आयेगा मेरे को।’’
विमल ने उठ कर उसको ढांढ़स बंधाया।
फिर उसके रूम के दरवाजे तक उसको छोड़ के आया।
दाता! जो तिसु भावे सोई करसी, हुक्म न करना जाई।