वानखेड़े ने सतर्कता भरी निगाह डाली। उसके करीब निहालचंद खड़ा था। पूरी गली को पुलिस ने घेर रखा था।

"अब देर किस बात की सर?” एकाएक निहालचंद ने धीमें से कहा।

"कोई देर नहीं।"

"तो फिर तलाशी का काम शुरू किया जाये---।" निहालचंद ने अपनी जेब में पड़े रिवॉल्वर को टटोला।

"हां--- मैं अभी आदेश देता हूं। तलाशी के समय एकदम तैयार, तुम भी इन पुलिस वालों साथ रहोगे और मैं भी। सावधान रहना। बैंक लूटने वाले सब के सब बेहद खतरनाक हैं। उन्हें जरा भी मौका नहीं देना है। मौका अगर उन्हें मिल गया तो वह हम में से कईयों को भून कर रख देंगे।"

वानखेड़े पुलिस वालों की तरफ बढ़ गया। उन्हें घर-घर की तलाशी का आदेश देने के लिए।

कुछ ही देर बाद पुलिस वालों ने घर-घर की तलाशी का काम आरम्भ कर दिया। सब बेहद सख्त और सतर्क ढंग से काम कर रहे थे।

■■■

डालचन्द बेहद व्याकुल हुआ जा रहा था।

नीना पाटेकर का अभी तक न लौटना डालचन्द को चिन्ता में डाल रहा था।

मंगल पाण्डे, डालचन्द की बेचैनी का मजा मन ही मन ले रहा था।

“भाई लोगों---।" दूसरे कमरे में बन्द मेवाराम की आवाज आई--- "मुझे तुम लोग ले तो आये, लेकिन भूखा क्यों मार रहे हो? कुछ तो खाने को दे ही दो। सुबह का नाश्ता कर रखा है।"

डालचन्द ने प्रश्नपूर्ण निगाहों से मंगल पांडे की तरफ देखा। पांडे लापरवाही से कुर्सी पर बैठा था।

"उसे खाने को कुछ नहीं दिया?” डालचन्द ने मंगल पांडे से पूछा।

"नहीं।"

“क्यों?” डाचलन्द के माथे पर बल पड़ गए।

“याद नहीं रहा। तुम दे दो---।"

डालचन्द ने उखड़े अंदाज में नीना पाटेकर के लाये सामान में से खाना उठाया और दूसरे कमरे का दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया।

मेवाराम का चेहरा लटका सा पड़ा था। कुछ कैद की वजह से--- और कुछ भूख की वजह से।

डालचन्द ने खाना टेबिल पर रख दिया।

“लो-- खा लो।"

“तुम लोगों ने मुझे कैद क्यों कर रखा है? छोड़ दो मुझे।"

“छोड़ देंगे। अभी कुछ देर तुम्हें इसी प्रकार रहना पड़ेगा।"

“कितनी देर?”

“दो या तीन दिन।”

“मैं बूढ़ा आदमी हूं। कुछ तो तरस खाओ--- मैं इतनी लम्बी कैद में मर जाऊंगा।"

“खाना खाओ और चुपचाप बैठे रहो।" सख्त स्वर में डालचन्द ने कहा और कमरे से बाहर निकलकर दरवाजा बंद किया। तत्पश्चात् पुनः बेचैनी से टहलने लगा।

"तुम कुछ परेशान से लग रहे हो।" मंगल पांडे ने लापरवाही से पूछा।

“हां....।” डालचन्द ने ठिठककर उसे देखा--- पाटेकर अभी तक नहीं लौटी।"

“आ जायेगी। वह बच्ची तो है नहीं जो रास्ता भूल जायेगी।"

“सवाल बच्ची न होने का या रास्ता भूलने का नहीं है-- सवाल इस बात का है कि उसे गये पांच घण्टे बीत गये, वह अभी तक लौटी क्यों नहीं।"

"बात तो तुम्हारी ठीक है-- लेकिन तुम्हारी मजबूरी है कि तुम उसका हाल जानने भी नहीं जा सकते।" पांडे ने मजे से गर्दन हिलाई।

“क्यों--क्यों नहीं जा सकता?"

"मत भूलो कि यहां पर तुम्हारे और मेरे सिवा और कोई नहीं है--- और तुम गये तो मैं चार करोड़ से भरे ट्रकों को लेकर खिसक जाऊंगा।"

“इसका मतलब तुम मुझे बाहर जाने के लिये प्रेरित कर रहे हो---लेकिन इतनी बड़ी दौलत के पास अकेला तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगा।"

"सोच लो, अंधेरा हो चुका है। तुम्हारी खास हमदर्द अभी तक नहीं लौटी। कहीं राजाराम ने उसे बैड पर तो नहीं गिरा दिया---।"

“पाण्डे!” डालचंद दांत भींचकर गुर्रा उठा--- "जुबान संभाल कर बात कर।"

जबाब में वह हंसकर रह गया।

डालचंद कर्सी पर जा बैठा।

दोनों के बीच खामोशी सी छाई रही। कोई कुछ नहीं बोला।

काफी देर बाद डालचन्द ही बोला---

“मुझे बाहर से कुछ आवाजें आती सुनाई दे रही हैं। काफी देर हो गई सुनते-सुनते ।"

मंगल पांडे ने कोई जवाब नहीं दिया-- तो डालचन्द ने कुर्सी छोड़ी और उठकर आगे बढ़ते हुए खिड़की के पल्ले से जरा सा बाहर झांका। करीब तीन मिनट बाद जब वह पलटा तो उसके चेहरे का रंग बदला हुआ था।

"मंगल---।"

“हां....।" उसने निगाहें उठाकर गहरी निगाहों से देखा।

"जरा देख तो सही!" डालचन्द के स्वर में कम्पन भर आया था।

असमंजसता में घिरा मंगल पांडे उठा और खिड़की की तरफ बढ़ा। डालचंद के चेहरे के भाव को देखकर, उसका मन बुरे अंदेशों से घिरने लगा था। डालचंद की तरह उसने भी खिड़की को थोड़ा सा खोला और उस पर आंखें लगा दीं।

आधे मिनट में ही पांडे ने खिड़की बन्द कर दी। उसके चेहरे पर छा चुकी कठोरता में घबराहट का पुट था। वह पलटा और डालचंद को देखने लगा।

"हमें....पुलिस घेर रही है।"

"हां हमें ही घेरेगी। वरना यहां पुलिस का क्या काम ?" डालचंद बोला।

“लेकिन पुलिस को कैसे मालूम हुआ कि हम लोग यहां पर हैं-- किसने गड़बड़ की ?"

"मैं... मैं इस बारे में क्या कह सकता हूं?”

"मैं बताता हूं तुम्हें।" मंगल पांडे एक-एक शब्द चबाकर क्रुद्ध स्वर में बोला--- “पुलिस के यहां आने का कारण तुम्हारी माशूका है।"

“तुम्हारा मतलब है कि पाटेकर पुलिस के हत्थे जा चढ़ी है?" डालचन्द के होठों से निकला।

“हां-हो भी सकता है और नहीं भी।" मंगल पांडे की हालत विक्षिप्तों की तरह हो रही थी--- पुलिस का इतना खौफ उसे नहीं था-- जितना इस बात का हो रहा था कि चार करोड़ जैसी भारी रक़म उसके हाथों से निकली जा रही है--- “लगता है वह पुलिस है के हाथ लग गई है और पुलिस टार्चर के आगे नहीं ठहर पाई वरना और किसी रास्ते से पुलिस यहां नहीं आ सकती थी।"

डालचन्द खामोश रहा।

मंगल पांडे ने आगे बढ़कर पुनः खिड़की पर आंखें लगाई।

कई पलों तक वह बाहर देखता रहा--- फिर दांत पीसता हुआ पलटा।

“हरामजादे बहुत सारे हैं--- पूरा घेरा डाल रहे हैं।"

"क्या मालूम।" डालचंद बोला--- “वह अपने किसी काम से आये हों ?"

“यहां क्या उनकी मां बैठी है--- जिसकी बारात लेकर आये हैं।" पांडे गुर्राया--- “यह कुत्ते हमारे लिए आये हैं। हमें पकड़ने या गोली मारने।"

मंगल पांडे की बात सुनकर डालचंद की टांगों में जोरदार कम्पन हो उठा।

“फिर क्या करना है?” डालचंद के होठों से निकला--- “शरीफों की तरह दरवाजा खोलकर बात करनी है या ठां.. ठां.. शुरू करनी है?”

मंगल पांडे खतरनाक लहजे में बोला--- “दो बातों में से कोई भी एक हो सकती है। वह शक के आधार पर भी तलाशी लेते हो सकते हैं-- और विश्वास के दम पर भी हमारा दरवाजा खटखटाते हो सकते हैं। तू बोल-अब क्या करना है?”

डालचंद ने गले में फंसे थूक को निगला। चेहरे पर पीलापन छाया रहा।

""मुझे इन बातों के बारे में कुछ नहीं मालूम। तुम ही बताओ क्या करना है---।"

"तू क्या समझता है...मैं अकेला इन पुलिस वालों का मुकाबला कर लूंगा? तुझे भी मेरे साथ लगना पड़ेगा। यह अकेला मेरे बस का काम नहीं।"

"मैं तो तुम्हारे साथ ही हूं---।"

मंगल पांडे ने चिन्ता भरे अन्दाज में गर्दन हिलाकर सिगरेट सुलगाई।

"वैसे फिक्र की कोई बात नहीं है। मंगल पांडे विचारपूर्ण स्वर में बोल---- "ज्यादा-से-ज्यादा हमें चार करोड़ की इस दौलत से हाथ धोना पड़ेगा--- लेकिन हमारी जान को कोई खतरा नहीं है।"

"क... कैसे?"

"हमारा मुर्गा कमरे में बंद है। मेवाराम। उसकी आड़ में हम यहां से निकल सकते हैं, अगर हमारा वक्त खराब आया तो---।"

"ओह, मेवाराम को तो मैं भूल ही गया था।" डालचंद ने होंठों पर जुबान फिराई।

मंगल पांडे ने डालचंद को देखा लेकिन बोला कुछ भी नहीं ।

"वह कब तक आयेंगे?" डालचंद के होंठों से निकला।

“चिन्ता मत करो, जल्दी आयेंगे।" मंगल पांडे ने कड़वे स्वर में जवाब दिया।

■■■

वानखेड़े ने तलाशी के लिए दो टोलियां बना दी थीं। सावधानी से हर मकान की तलाशी जारी थी।

वानखेड़े और आठ पुलिस वाले घरों की तलाशी लेते-लेते देवराज चौहान वाले मकान के सामने ठिठके । वानखेड़े ने आगे बढ़कर कालबेल का बटन दबा दिया।

दरवाजा नहीं खुला तो वानखेड़े ने दूसरी बार कालबेल बजाई।

दरवाजा खुला।

सामने खड़े शख्स को देखते ही इंस्पेक्टर वानखेड़े चौंकता हुआ बोल उठा---

“मंगल पाण्डे!"

अपना नाम सुनते ही मंगल पांडे चौंका। उसका चौंकना वानखेड़े से छुपा नहीं रहा। अगले ही पल रिवॉल्वर पांडे के सीने से जा सटी।

"एलर्ट!" वानखेड़े ने चीखकर अन्य पुलिस वालों को सावधान किया। मन ही मंगल पांडे बेहद सतर्क हुआ। दिखावे के तौर पर हैरानी से बोला---

“यह सब क्या हो रहा है--- मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा।"

"डोंट मूव मंगल पांडे! हिले तो अपनी मौत के जिम्मेदार तुम खुद होगे।” वानखेड़े का चेहरा हद से अधिक कठोर हो चुका था।

मंगल पांडे की आंखें सिकुड़ गईं। होंठ भिंच गये और आंखों में मौत भर आई।

“तुम मुझे मंगल पांडे कहकर पुकार रहे हो?"

“हां।"

“किसने कहा कि मैं मंगल पांडे हूं?"

"देवराज चौहान ने। जगमोहन ने। नीना पाटेकर ने। डालचंद ने। नटियाल ने।”

सबके नाम सुनकर मंगल पांडे के जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई।

“भीतर चलो।" वानखेड़े ने उसे रिवॉल्वर की नाल के दम पर पीछे धकेलना चाहा।

“न चलूं तो ?”

“तो यह रिवॉल्वर देख रहे हो न-- जो तुम्हारे सीने से सटी है?" वानखेड़े गुर्राया।

“एक रिवॉल्वर और भी है--- जो तनी हुई तुम्हें नजर नहीं आ रही।

“तुम कौन हो--- वानखेड़े तो नहीं?" पांडे पूर्ववत लहजे से बोला।

“हां-- मैं इंस्पेक्टर वानखेड़े ही हूं।"

“अगर तुमने कोई गलत कदम उठाने की चेष्टा की तो याद रखना--- मेवाराम हमारे पास है।"

वानखेड़े को मंगल पांडे के ठीक पीछे मेवाराम नजर आया जिसे डालचंद ने कवर कर रखा था। वानखेड़े ने डालचंद को फौरन पहचान लिया था।

“मेवाराम को छोड़ दो। तुम किसी भी सूरत में बच कर नहीं निकल सकते।"

मंगल पांडे बिना कुछ कहे एक कदम पीछे हुआ और भड़ाक् से दरवाजा बंद कर लिया।

"पोजीशन ले लो!" वानखेड़े चीखा--- "वह लोग इसी मकान में हैं।"

और फिर देखते ही देखते वहां मौजूद सारे पुलिस वालों ने उस मकान को घेर लिया।

निहाल चंद वानखेड़े के पास पहुंचा।

"सर, आपने दरवाजा बंद क्यों होने दिया?"

"निहाल चंद! उनके कब्जे में शहर का नामी बिजनेसमैन मेवाराम है। अगर मैं कोई कदम उठाता तो उसकी जान जा भी सकती थी।"

“लेकिन सर, यह लोग मेवाराम की आड़ में निकल भी तो में सकते हैं।"

“निकल तो सकते हैं--- लेकिन निकलेंगे नहीं-- क्योंकि यहीं पर चार करोड़ की दौलत भी है। उसका लालच ही इन्हें रोके रखेगा।"

■■■

दरवाजा बंद होते ही डालचंद के धड़कते दिल को राहत मिली।

मंगल पांडे के चेहरे पर मौत के भाव थे। मेवाराम बीच में फंसा कांप रहा था।

डालचंद ने प्रश्न भरी निगाहों से मंगल पांडे की ओर देखा।

“वह कम से कम पन्द्रह-बीस हैं।" मंगल पांडे खूंखार स्वर में बोला---  “वह हमें गोलियों से भून सकते हैं।

“तो.... तो हम क्या करें?" डालचंद ने सूखे होठों पर जीभ फेरी।

“खुद को उनके हवाले नहीं करना है हमें।" मंगल पांडे एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- "हरामजादा देवराज चौहान हमें यहां फंसाकर खुद फार्म पर बैठा ऐश कर रहा है---।"

कई पलों तक सोचने के बाद मंगल पांडे सिगरेट सुलगाकर बोला--- “अब एक ही रास्ता है-- कि किसी प्रकार इन्हें चकमा दिया जाए।"

"क्या मतलब?".

“मैं इन लोगों के साथ फायरिंग करूंगा।" मंगल पांडे ने कहा--- "इस बीच तुम यहां मौजूद चार करोड़ को यहां से बाहर ले जाने का प्रबंध करोगे।"

"पागल हो गये हो!" डालचंद हड़बड़ाकर कह उठा--- "इतने सारे पुलिस वालों के होते हुए मैं अकेला तो यहां से बाहर निकल ही नहीं सकता-- फिर इतने सारे ट्रंकों को कैसे बाहर ले जाऊंगा?"

"ट्रंकों को बाहर ले जाने की जरूरत नहीं है।" मंगल पांडे गुर्राया--- "ताला तोड़ ले और नोटों को चादर पर डालकर गठरी बना ले।"

"पाण्डे, तू पागल हो गया है! ऐसा नहीं हो सकता इन हालात में।"

“ऐसा होगा और हर हाल में होगा। तू काम शुरू तो कर।"

"निकलेंगे कैसे? पुलिस ने चारों तरफ से घेरा डाल रखा है।"

“मेरी फायरिंग के दम पर आखिर तक उन्हें यही लगता रहेगा कि हम इसी मकान में हैं लेकिन हम यहां से निकल चुके होंगे।"

“कै....से....?”

"छत के सहारे। इन मकानों की सारी छतें एक-दूसरे से सटी पड़ी हैं।"

“और अगर इन्हें भी छत का ध्यान आ गया तो?"

“तू ज्यादा अपनी अक्ल मत चला।" पांडे गुर्राया--- "जो कहता हूं वही किये जा। मरना तो वैसे भी है। फिर माल के साथ बच निकलने की कोशिश करने में हर्ज क्या है?"

डालचंद पांडे को देखता रह गया।

“देखता क्या है मुझे! जल्दी कर। देर होना ठीक नहीं हमारे लिए।"

डालचंद ने बेचैनी पूर्ण ढंग से होंठ भींच लिए।

मंगल पांडे ने दो फायर किये। दो ट्रंकों के ताले टूटकर नीचे जा गिरे।

“डालचंद, चादर ढूंढ और माल समेट।" कहता हुआ मंगल, पांडे खिड़की की तरफ बढ़ गया।

डालचंद ने मन ही मन खुद को पक्का किया--- और मेवाराम की बाजू पकड़ उसे कुर्सी पर बिठाकर, जेब से रिवॉल्वर निकालकर उसे दिखाई।

“अगर तूने कुर्सी छोड़कर उठने की जरा भी कोशिश की तो इस रिवॉल्वर की सारी की सारी गोलियां तेरे शरीर में उतार दूंगा।"

मौत के भय से थर-थर कांपता हुआ मेवाराम काफी देर तक सहमति भरे ढंग से गर्दन हिलाता रहा।

डालचंद ने देर नहीं लगाई और ट्रंक से गड्डियों को उठा-उठा कर चादर पर डालने लगा। उसके हाथ बड़ी तेजी से चल रहे थे।

■■■

मंगल पांडे ने खुली खिड़की से बाहर झांका। पोजीशन लिए कई पुलिस वाले नजर आए।

पांडे ने होंठ भींचकर हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर सीधी की। एक की खोपड़ी का निशाना बांधा और ट्रेगर दबा दिया।

एक भयंकर धमाका हुआ और खोपड़ी के परखच्चे उड़ गए।

इसके साथ ही जैसे तूफान आ गया हो। पुलिस वालों ने अपनी गनों का मुंह खोल दिया। जाने कितनी ही गोलियां खिड़की पर लगीं। खिड़की टूटकर एक तरफ झूलने लगी।

मंगल पांडे पहले ही साइड में दुबक गया था।

"ध्यान से।" डालचंद के होठों से निकला।

मंगल पांडे ने जरा-सा सिर आगे किया बाहर देखने के लिए। परन्तु अगले ही पल पीछे हट गया। उसने नाल का रुख बाहर की तरफ किया--- और ट्रेगर दबाता चला गया।

गोली किसी को लगी या नहीं, इस बात की परवाह उसने नहीं की। इसके बाद पांडे ने गर्दन घुमाकर डालचंद को देखा--- जो डबल बैड की चादर पर एक ट्रंक की गड्डियां डालकर अब चादर को बांधने की चेष्टा कर रहा था।

“दो चार और डाल ले।" पांडे बोला।

"अगर और डाल लीं तो गठरी बंधनी भी कठिन हो जायेगी ।" पांडे बड़बड़ाकर रह गया।

“बाहर का क्या हाल है?" डालचंद की आवाज में हल्का सा कंपन था।

“तू गठरी बांध। अपने काम की तरफ ध्यान दे....।" पांडे ने सख्त स्वर में कहा।

“वह तो कर ही रहा हूं।" डालचंद ने डबल बैड की चादर की गठरी बनाकर एक तरफ रखी और दूसरी सिंगल बैड की चादर को बिछाकर दूसरे ट्रंक से गड्डियां निकाल कर उस पर रखने लगा। पांच मिनट बीत गये--- बाहर से तो गोलियां आकर खिड़की पर टकराई परन्तु मंगल पांडे द्वारा फायर न करने के कारण डालचंद ने निगाहें उठाकर उसे देखा।

"तू फायर क्यों नहीं करता?"

"कहां से करूं? छः में से दो गोलियां ट्रंकों के ताले खोलने में खत्म हो गईं। दो मैं इस्तेमाल कर चुका। बाकी दो बची हैं। कहां-कहां चलाऊंगा इन्हें ।"

डालचन्द अपना काम छोड़कर उठा और उसके पास पहुंचा।

"यह ले, इसमें छः गोलियां हैं। पुलिस वालों को ज्यादा से ज्यादा देर तक उलझा कर रख। और अपना रिवॉल्वर मुझे दे दो।"

दोनों ने रिवॉल्वर बदल ली।

"ठीक है। यह भरी हुई रिवॉल्वर है।" पांडे चैम्बर चैक करके उसे बंद करता हुआ बोला--- "लेकिन इन छः गोलियों से भी इन्हें कब तक लटकाया जा सकता है। तू अपना काम जल्दी से खत्म कर निकल चलते हैं यहां से कितनी देर लगेगी तुझे ?"

“सिर्फ पांच-सात मिनट ।"

“गुड ।” मंगल पांडे ने कहा और रिवॉल्वर की नाल खिड़की की तरफ करके ट्रेगर दबा दिया।

जवाब में कई गोलियां खिड़की से आकर टकराईं।

"हरामजादे सरकारी बारूद को खामखाह खराब किये जा रहे हैं।" मंगल पांडे दांत भींचकर गुर्राया।

उधर डालचंद ने अपना काम करने की स्पीड और तेज कर दी। कुछ ही मिनटो में अपना काम समाप्त करके डालचंद उठ खड़ा हुआ।

उसी समय मंगल पांडे ने पुनः खिड़की के बाहर फायर कर दिया।

"मैंने काम समाप्त कर लिया है।" डालचंद ने कहा।

मंगल पांडे होंठ भींचकर शान्त स्वर में कह उठा---

“चादरों में तो कुछ भी नहीं आया।"

“जितना आ सकता था, मैंने डाल दिया। इससे ज्यादा तो हम ले जा भी नहीं सकते।" डालचंद पांडे से भी ज्यादा सख्त स्वर में बोला--  “मैं छोटी वाली गठरी लेकर छत पर जा रहा हूं। तू आ जाना।"

“बड़ी वाली क्यों नहीं ले जा रहा है?" मंगल पांडे गुर्राया ।

“मुझे भारी सामान उठाकर इस तरह भागने और-- पुलिस से बचने का अभ्यास नहीं है।" डालचंद सूखे स्वर में कह उठा--- "यह जो भी हो रहा है, मेरे लिए पहला ही मौका है। मैं सिर्फ ड्राईविंग में ही भाग सकता हूं।"

"फूट यहां से। छत पर जा। मैं दूसरी गठरी को लेकर आ रहा हूं....।”

"यह---।" डालचंद ने कुर्सी पर मरी हालत में बैठे, मेवाराम की तरफ इशारा किया--- “हमारे जाते ही दरवाजा खोलकर पुलिस वालों को बता देगा कि हम छत के रास्ते से फरार हुए हैं।"

“तुम फिक्र मत करो। इसका इन्तजाम मैं करके आऊंगा।" मंगल पांडे ने वहशी स्वर में कहा।

“जान से मत मारना इसे।" डालचंद गठरी उठाता हुआ बोला--- "बेचारे ने हमारा क्या बिगाड़ा है।"

“दफा हो जा तू यहां से! मुझे तेरी सलाह की जरूरत नहीं।" पांडे गुर्राया।

डालचंद ने कुछ नहीं कहा। छोटी गठरी उठाकर वह तेजी से ऊपर को जाने वाली सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। पीछे उसे मंगल पांडे के फायर करने की आवाज आई। छत पर पहुंचा तो चारों तरफ उसे अंधेरा ही अंधेरा नजर आया। नीचे हलचल होने का आभास उसे स्पष्ट मिल रहा था। डालचंद का दिल धक-धक धड़क रहा था। ऐसा सब कुछ उसके साथ पहले नहीं गुजरा था। और यह सब कुछ उसे बहुत खतरनाक लग रहा था। उसने तो कभी जिन्दगी में सोचा भी नहीं था कि इस प्रकार, डकैत के रूप में पुलिस का घेरा तोड़कर भागना पड़ेगा।

वह तो प्राइवेट फर्म की नौकरी करने वाला सीधा-साधा युवक था। परन्तु कार रेसर होने की वजह से, वह इन लोगों की बातों में फंसकर कानून का बड़ा मुजरिम बन बैठा था। बहरहाल छत पर पहुंचकर डालचंद रुका नहीं। छतों की दीवारें सावधानी से फलांगता हुआ, आखिरी छत की तरफ तेजी से बढ़ने लगा। मंगल पांडे तो उसके दिमाग से कब का निकल चुका था दिमाग में सिर्फ एक बात थी कि उसे हर हाल में पुलिस से बचना है।

■■■

गली के मकानों की आखिरी छत पर वह ठिठका। इतने में ही वह हांफने लगा था। नोटों की गठरी नीचे रखकर, डालचंद ने लम्बी-लम्बी सांसें लीं। फिर जल्दी से गठरी उठा ली। ज्यादा वजन नहीं था। चारों तरफ खतरा ही ख़तरा था। उसे जल्दी से यहां से दूर जाना था। सिर घुमाकर पीछे देखा, मंगल पांडे उसे आता हुआ दिखाई दिया। डालचंद आगे बढ़ा और नीचे झांका।

सामने ही सड़क थी, अन्धेरे में डूबी। और जिस मकान की छत पर वह खड़ा था, वह करीब पच्चीस-तीस फिट ऊंची थी। और उसके ठीक नीचे एक पुलिस वाला गन लिए खड़ा था। डालचंद ने सोचा। ज्यादा समय उसने सोचने में नहीं गंवाया। रिवॉल्वर जेब में थी। परन्तु उसका इस्तेमाल करना घातक था। फायर की आवाज ने सबको सतर्क कर देना था। इसी कारण उसने जो कदम उठाने का निर्णय लिया, उसके सिवाय उसके पास कोई चारा था भी नहीं।

नोटों की गठरी काफी भारी थी। इस हिसाब से तो भारी ही थी कि अगर वह तीस फीट ऊपर से किसी के सिर पर गिरती तो पांच मिनट तो उसे होश नहीं आना था। डालचंद ने गठरी को दोनों हाथों में थामा और छत के उस हिस्से पर जा खड़ा हुआ जहां ठीक नीचे पुलिस वाला खड़ा था। उसने निशाना बांधा और पूरी शक्ति के साथ ही, गठरी को पुलिस वाले के सिर पर दे मारा। इसके साथ ही, बिना एक पल की भी देरी के साथ उसने खुद भी नीचे छलांग लगा दी। उसके दोनों पांव नीचे टकराये, खुद को संभाल ना पाने के कारण, वह नीचे लुढ़कता चला गया। पांव में जोरों का दर्द उठा। परन्तु उसने उस दर्द की परवाह नहीं की। पलक झपकते ही वह उठ खड़ा हुआ था।

पुलिस वाले के सिर पर गठरी लगते ही, गन उसके हाथ से छूट गई। वह नीचे बैठता चला गया। उसकी यह हालत मिनट भर रहनी थी, फिर उसने आस-पास देखने के काबिल हो जाना था। परन्तु डालचंद ने आधा मिनट भी ना बीतने दिया। पुलिसमैन की गन उठाकर उसका पिछला हिस्सा उसके सिर पर दे मारा। पुलिस मैन के होंठों से कराह निकली और वह नीचे लुढ़ककर बेहोश हो गया।

डालचंद ने गन फेंककर गठरी उठाई और सड़क की तरफ बे-आवाज भागता चला गया। पांव में मोच आ जाने के कारण, उसके भागने में लंगड़ाहट थी। दो मिनट में ही सड़क पार करके, वह सामने बने पार्किंग में जा पहुंचा। वहां इस वक्त कोई अटेंडेंट नहीं था। डालचंद कारों को चैक करने लगा। किसी कार का दरवाजा खुला मिल जाये! उसका दिल जोरों से धड़क रहा था। हाथ-पांव कांप रहे थे। वह पसीना-पसीना हो रहा था। आठवीं कार उसे खुली मिल गई। वह जल्दी से कार में बैठा। गठरी अपने करीब ही रख ली। कार स्टार्ट की और तूफानी गति से स्टेयरिंग मोड़ता हुआ, पार्किंग से बाहर सड़क पर निकलता चला गया। पैट्रोल के इन्डीकेटर पर निगाह मारी। पेट्रोल ज्यादा नहीं था कार में, परन्तु डालचंद को इतने में ही तसल्ली थी कि जहां तक पेट्रोल चलेगा, वहीं तक ही सही। कम से कम यहां से तो दूर हो जाएगा। वैसे अभी भी विश्वास नहीं आ रहा था कि पुलिस के जाल से वह बच निकला है। मंगल पांडे के बारे में तो सोचने की उसे फुर्सत ही कहां थी! वह तो अभी अपनी बिगड़ी हालत पर काबू नहीं पा सका था। वह जल्द से जल्द फार्म पर, देवराज चौहान के पास पहुंच जाना चाहता था।

■■■

मंगल पांडे डालचंद के रिवॉल्वर से पांच गोलियां चला चुका था। सिर्फ एक ही गोली बची थी रिवॉल्वर में। डालचंद को गये चार मिनट हो चुके थे। वह इस बात को अच्छी तरह समझ चुका था कि अब यहां पर ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं। डालचन्द छत पर उसका इन्तजार कर रहा होगा। वह जल्दी से खिड़की से हटा और कुर्सी पर बैठे, सूखे पत्ते की भांति कांपते मेवाराम को देखा, जो उसे अपनी तरफ देखते पाकर, भय से और भी कांपने लगा था।

दांत भींचकर पांडे आगे बढ़ा और रिवॉल्वर को नाल से पकड़कर उसका दस्ता जोर से, मेवाराम की कनपटी पर मारा। एक ही बार में मेवाराम बेहोश हो गया। पांडे ने बायें हाथ में रिवॉल्वर पकड़ी और दायें हाथ से गठरी को उठा ना सका। डबल बैड की चादर में नोटों की गड्डियां इस कदर दूंस-ठूंस कर भरी हुई थीं कि गठरी काफी भारी हो गई थी। पांडे ने दांत भींचकर रिवॉल्वर को जेब में डाला और गठरी को दोनों हाथों में उठाकर कंधे पर लादा और जल्दी से छत पर जाने वाली सीढ़ियों की तरफ बढ़ा। गठरी का बोझ वास्तव में ज्यादा था। हांफते हुए उसने सीढ़ियां तय की और छत पर जा पहुंचा। क्षण भर ठिठककर आस-पास देखा, फिर अन्य छतों की दीवारें फलांगता हुआ, उसी आखिरी छत की तरफ बढ़ने लगा, जिस तरफ डालचंद गया था। उसे पूरा विश्वास था कि वह बच निकलेगा, क्योंकि डालचंद वहां नहीं था, इसका मतलब वह यहां से निकल गया। अगर डालचंद जैसा अनाड़ी खिलाड़ी पुलिस का घेरा तोड़ कर निकल सकता है तो, वह क्यों नहीं निकल सकता---।

आखिरी छत की तरफ उसका बढ़ना जारी था।

■■■

“सर। उस तरफ एक पुलिस मैन बेहोश पड़ा है।" एक पुलिस वाला भागता हुआ वानखेड़े के पास पहुंचा।

उसकी बात सुनकर वानखेड़े जोरों से चौंका।

"कहां?"

“उधर सर-- आखिरी मकान के नीचे।"

वानखेड़े फौरन उस तरफ दौड़ा। चंद ही पलों में वह बेहोश पुलिस वाले के पास था। दो-तीन पुलिस वाले उसे होश में लाने का प्रयत्न कर रहे थे। परन्तु ताजा-ताजा बेहोश होने की वजह से वह अभी होश में नहीं आ सकता था।

रिवॉल्वर हाथ में थामें वानखेड़े ने दांत भींचकर, बेहोश पुलिस वाले को देखा।

“इसे किसने बेहोश किया?"

“मालूम नहीं सर। हम सामने की तरफ से हटकर पीछे की तरफ जा रहे थे कि यहां से निकलते समय हमें यह इसी हालत में नीचे पड़ा मिला।" पुलिस वालों ने जवाब दिया।

वानखेड़े ने बेहोश पुलिस वाले को टटोला।

“इसे बेहोश हुए ज्यादा देर नहीं हुई---।" वानखेड़े ने होंठ भींचकर कहा--- "यह उन्हीं लोगों का काम है। लेकिन वह लोग मकान के सामने और पीछे की तरफ से नहीं आ सकते। दोनों तरफ पुलिस का सख्त पहरा है। यह लोग छत से नीचे कूदे होंगे।" कहते हुए वानखेड़े ने छत की तरफ निगाहें उठाई।

यह वही क्षण था, जब ऊपर से मंगल पांडे ने नीचे झांका।

यहां अन्धेरा अवश्य था लेकिन वानखेड़े ने एक क्षण में ही पहचान लिया कि छत से मंगल पांडे नीचे झांक रहा है। उधर नीचे का नजारा देखकर, मंगल पांडे ने तुरन्त पीछे हटना चाहा। परन्तु तब तक वानखेड़े के हाथ में पकड़े रिवॉल्वर से गोली निकल चुकी थी।

गोली नीचे झाँकते मंगल पांडे के माथे पर जा लगी। उसके जिस्म को तीव्र झटका सा लगा। उसे इतना भी मौका नहीं मिला कि, वह अपनी जगह से हिल पाता। उसी मुद्रा में, उसी समय उसके प्राण निकल गये। दीवार पर उसकी छाती रखी रह गई। नीचे का हिस्सा नीचे लटक रहा था और गोली लगा कटा-फटा माथा और सिर नीचे झूल रहा था। खून की बूंदें गिरीं तो वह हबड़बड़ा कर पीछे हट गये।

वानखेड़े को अफसोस हो रहा था कि उसने इस तरफ का पहरा क्यों नहीं रखा। क्योंकि पुलिसमैन के बेहोश पाये जाने का स्पष्ट मतलब था कि डालचंद भाग निकला है।

वानखेड़े उसी टूटी खिड़की से मकान के भीतर घुसा। बेहोश मेवाराम कुर्सी पर ही पड़ा था। नोटों के दो ट्रंक खुले हुए थे, जिनमें एक पूरा और दूसरा आधा खाली था। वानखेड़े छत पर पहुंचा। अन्य छतों को पार करके मंगल पांडे के दीवार पर पड़े मृत शरीर के करीब पहुंच कर ठिठका। उसे चैक करके अपनी तसल्ली की, यह मर चुका था। फिर नीचे करीब ही पड़ी गठरी को टटोला, जिसमें नोटों की गड्डियां ठूस-ठूंस कर भरी पड़ी थीं।

वानखेड़े के सख्त चेहरे पर गंम्भीरता थी। उसने मोबाइल पर सुधीर से बात की।

"सर।" सुधीर की आवाज आई--- "भूख से मेरी जान निकली जा रही है। मैंने तो सुबह से कुछ नहीं खाया...।"

“वहां की क्या पोजीशन है?" उसकी बातों पर ध्यान न देकर वानखेड़े ने पूछा।

“पोजीशन में कोई बदलाव नहीं आया है। देवराज चौहान फार्म पर ही है। उसके बाद न तो कोई बाहर निकला और न ही कोई उस तरफ गया।"

"हूं।" वानखेड़े ने गम्भीर स्वर में कहा--- "यहां पर काबू पा लिया गया है। आज हुई बैंक डकैती की लगभग चार करोड़ की पूरी दौलत हमने वापस पा ली है। यहां मौजूद मंगल पांडे मारा गया और डालचंद भाग निकला है। सतर्क रहो, शायद डालचंद फार्म पर ही पहुंचे।"

"राइट सर।"

"मैं कुछ ही देर में तुम्हारे पास आ रहा हूँ। और यह मालूम करके कि वह लोग किस फार्म पर हैं। हम आज रात ही, फार्म पर रेड कर देंगे।"

"ठीक है सर.....!"

"आते समय मैं तुम्हारे लिए खाना लेता आऊंगा।"

"बड़ी मेहरबानी होगी सर।"

वानखेड़े ने मोबाइल पर कमिश्नर साहब से बात की और उन्हें सारी पोजीशन समझाई कि क्या हुआ है।

"वैरी गुड वानखेड़े! तुमने तो कमाल कर दिया।" कमिश्नर साहब के लहजे में प्रसन्नता थी।

"सर।" वानखेड़े उनकी बात पर ध्यान ना देकर बोला--- "आप यहां पर जल्दी-से-जल्दी तीन चार आफिसरों को भेजिये जो यहां पड़ी दौलत की मुनासिब निगरानी के साथ-साथ इस पैसे को, यहां से ले जाने का भी प्रबंध कर सकें।"

"ओ०के०। मैं अभी इन्तजाम करता हूं।"

"जल्दी कीजिएगा सर। मैं फौरन सुधीर के पास पहुंचना चाहता हूं। देवराज चौहान फार्म पर ही है। मैं सोचता हूं कि फार्म के बारे में मालूम करके, रात ही रात में वहां रेड कर दी जाये।"

"ओ० के०। आधे घंटे में मैं तुम्हें फ्री कर दूंगा...।"

वानखेड़े ने मोबाइल ऑफ कर दिया।

■■■

सीताराम वैसे भी वैन में बंद रहने की वजह से बहुत थका हुआ था। वह तो हालातों को संभालने के लिए, भाग-दौड़ में लगा था। नहीं तो आराम ही करता। लाजवंती जब से उसे देवराज चौहान के पास से ले गई, और कमरे में जाकर, सीताराम की थकावट उतारने का प्रबन्ध करने लगी। परन्तु सीताराम था कि क्रोध से उस पर बरसे जा रहा था।

“मैं तेरे जैसी औरत के साथ नहीं रह सकता, जिसके दिमाग में भूसा भरा हो।" सीताराम चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था--- "जो औरत अपने आदमी के मामले में दखल दे, वह मुझे बिल्कुल भी पसन्द नहीं। कल ही गांव में तेरी मां को पत्र लिखूंगा कि यहां से तुझे ले जाये।"

"हां-हां! आप लिख देना पत्र मेरी मां को।" लाजवंती अपने पति की आदत को बहुत अच्छी तरह जानती थी कि उस पर किस प्रकार काबू पाया जा सकता है--- “आप कुछ थके हुए से लग रहे हैं। दो दिन तो वैन में बंद रहे हैं, लाइये मैं आपकी टांगें दबा दूं।"

"कोई जरूरत नहीं--- तुम---।"

"जरूरत कैसे नहीं।" लाजवंती ने जबर्दस्ती ही सीताराम को बैड पर धकेला और खुद भी ऊपर चढ़ कर बैठ गई और टांगें दबाने लगी।

सीतारान का मूड थोड़ा बहुत सुधरा ।

“अगर तू चाहती है, मैं तेरी मां को पत्र न लिखूं तो मुझे जाने दे। उन बदमाशों से निपटना है मुझे। बहुत खतरनाक हैं वे। और जब मैं वहां होऊंगा तो तुझे वहां भी नहीं आना है।"

“हां-हां, चले जाना। मैं नहीं आऊंगी। अब तो खुश हो।" लाजवंती के टांगें दबाते हुए हाथ जरा दायें-बायें भी घूमते जा रहे थे।

आखिरकार सीताराम ने सब कुछ भूल-भाल कर लाजवंती को अपने आगोश में खींच लिया। लाजवंती उस पर बिछती चली गई। पति-पत्नि का प्यार उछाले मारने लगा। घंटा भर उछाले मारता रहा। यही तो लाजवंती चाहती थी। वह जानती थी कि सीताराम की पुरानी आदत है-- प्यार करने के बाद कुछ देर नींद लेना।

और हुआ भी ऐसा ही। अपने कपड़े उठाकर पहने। इस बीच चूड़ियों की मध्यम सी खनखनाहट गूंजती रही। तत्पश्चात उसने नीचे सोये तीन बरस के बच्चे पर निगाह मारी। बच्चे को नीचे से उठाकर, आहिस्ता से सीताराम के साथ ही लिटा दिया। उसके बाद कमरे से बाहर निकली, तेजी से आगे बढ़ गई। उसके कदमों का रुख भाई साहब यानी कि देवराज चौहान के कमरे की तरफ था, जहां पर जगमोहन और देवराज चौहान बंधे हुए थे।

■■■

"सीताराम आने वाला होगा...।" कुर्सी पर बंधा जगमोहन दांत भींचे कह रहा था--- "बहुत ही सख्त किस्म का आदमी है। हमें शूट किए बिना मानेगा नहीं। नटियाल को उसने किस बेदर्दी के साथ शूट किया और माथे पर एक शिकन भी नहीं आई थी उसके...।"

“उसने हमें बहुत ही सख्ती के साथ बांध रखा है। हमने बंधनों से आजाद होने का प्रयत्न तो किया परन्तु सफल नहीं हो सके।" देवराज चौहान ने खतरनाक लहजे में कहा--- “अब तुम ही बताओ कि हम आजाद होने के लिए क्या करें? हमारे बस में कुछ भी नहीं है। मात्र एक ही रोशनी की किरण है कि डालचंद यहां पहुंच जाये। उसके यहां न आने का मतलब है, वह हमारे ठिकाने पर पांडे के साथ मौजूद है। रात हो चुकी है। क्या मालूम वह आता है कि नहीं...।"

"तुमने उसे यहां आने को नहीं कहा था?"

"नहीं। मैंने कहा था कि जहां मन करे, वहीं आ जाये।"

"फिर हरामी यहां क्या करने आयेगा---।" जगमोहन भुनभुनाकर बोला--- "वह तो वहीं जायेगा जहां उसकी माशूका होगी। प्यार मोहब्बत की बातें जो करनी हैं।"

"कोई ऐसा रास्ता सोचो--- जिससे कि सीताराम को कुछ देर के लिए टाला जा सके।"

"वह अड़ियल है। टलने वाला नहीं। पक्का हरामी है हरामी---।" तभी दरवाजे पर आहट हुई। दोनों की निगाहें दरवाजे पर जा टिकीं। दरवाजा खुलने और सीताराम का चेहरा नजर आने का इन्तजार करने लगे। दरवाजा खुलने पर उन्हें लाजवंती नजर आई, तो दोनों ने चौंककर एक-दूसरे को देखा।

“भाई साहब!" लाजवंती भीतर प्रवेश करते हुए बोली--- "उनकी तरफ से मैं आपसे माफी मांगती हूं। वह जरा गुस्से में हैं, इसलिये उन्होंने ऐसा कर डाला। नहीं तो वह ऐसे नहीं थे। मुझे तो विश्वास ही नहीं आता कि उन्होंने किसी की जान ले ली। कहते हुए उसने बंधी नटियाल की लाश को देखा, जो वीभत्स सी नजर आनी आरंभ हो गई थी।

"सीताराम कहां है?” देवराज चौहान ने जल्दी से पूछा।

"वह सो रहे हैं। घंटे भर बाद उठेंगे।"

"हमें खोल दो---।"

"हां-हां, खोलने ही तो आई हूं।" कहकर लाजवंती ने कदम आगे बढ़ाये और देवराज चौहान के बंधनों को टटोलने लगी। फिर कुछ पलों बाद कह उठी--- "जाने यह कैसे बांधे हैं! मुझसे तो खुलते ही नहीं। यह तो काटने पड़ेंगे।"

“किचन से चाकू ले आओ।" देवराज चौहान ने फौरन कहा।

"हां। अभी लेकर आती हूं। एक मिनट में आई भाई साहब।" कहने के साथ ही लाजवंती तेजी से बाहर निकलती चली गई। जगमोहन ने प्रसन्नता भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

"तुम्हारी बहन तो हमारे बहुत काम आ रही है....।"

जवाब में देवराज चौहान मुस्कुराया ।

“अगर हमारे बंधन खुल गये तो फिर हमारी जान को कोई खतरा नहीं।"

"हां....।" देवराज चौहान सिर हिलाकर मुस्कुराया ।

मिनट भर में लाजवंती चाकू सहित लौटी और उनके दोनों बंधन काट दिए।

दोनों जल्दी से कुर्सियों से उठे हाथ-पांव हिलाकर अपने जिस्म को थोड़ा-बहुत सीधा किया। फिर देवराज चौहान ने लाजवंती से पूछा।

“सीताराम किस कमरे में है?"

"जहां मैं बंद थी।" लाजवंती कह उठी--- "भाई साहब, उन्हें कुछ मत कहियेगा। वह मेरे पति हैं। वैसे भी उनकी तरफ से मैं आपसे माफी मांग चुकी हूं। वह।"

“तुम चिन्ता मत करो बहन।" देवराज चौहान मुस्कुरा कर बोला--- “हम सीताराम को कुछ नहीं कहेंगे। बस जो कुछ भी करेंगे, उसे डराने के लिए करेंगे। तुम मत डरना।"

लाजवंती ने सहमति से सिर हिला दिया।

फिर वह उन्हें लेकर, सीताराम के पास पहुंची। सीताराम गहरी नींद में था। देवराज चौहान और जगमोहन ने उसके कपड़ों में से अपनी रिवॉल्वर बरामद की-- साथ ही सीताराम की रिवॉल्वर भी जब्त करके जेब में डाल ली।

“तुम उधर होकर बैठ जाओ।” देवराज चौहान ने लाजवंती से कहा।

कई पलों तक तो वह कुछ समझ नहीं पायी।

तब तक सीताराम की आंख खुल गई थी।

“कैसे हो सीताराम ?” देवराज चौहान ने मीठे स्वर में मुस्कुरा कर पूछा ।

सीताराम की निगाहें लाजवंती पर गईं। लाजवंती के चेहरे को देखते ही वह समझ गया कि माजरा क्या है। एकाएक वह दांत पीसकर कह उठा---

“तो तूने खोले हैं इनके बंधन?"

लाजवंती सहम सी गई।

"बेहया!” सीताराम गुर्राया--- "अपनी हरकत से तूने मेरी जान खतरे में डाल दी---मैं---।"

“कुछ नहीं होगा आपको।” लाजवंती कह उठी--- "यह आपको कुछ नहीं कहेंगे।"

"बहुत ज्यादा भरोसा है अपने भाई साहब पर---।" सीताराम कड़वे स्वर में कह उठा।

“सो तो है।" लाजवंती मुस्कुराई--- “मेरे भाई साहब हैं, झूठ तो बोलेंगे नहीं।"

“कमीनी, जाहिल गंवार औरत! तू नहीं जानती कि तूने क्या कर डाला है। तुम---।"

सीताराम के धधकते स्वर को देवराज चौहान ने रोका---

"यह सब बातें करने के लिए तुम दोनों को बहुत वक्त मिलेगा।" देवराज चौहान ने कहा--- "अब जल्दी से उठ जाओ।" 

सीताराम ने क्रूर निगाहों से देवराज चौहान को देखा, फिर उसके हाथ में थमी रिवॉल्वर को। तत्पश्चात करीब ही रखे अपने कपड़े उठाये और ऊपर ले रखी चादर के नीचे से उन्हें पहनने लगा। जब तक उसने कपड़े पहने तब तक वहां गहरी खामोशी छाई रही। जगमोहन तो खा जाने वाली निगाहों से, सीताराम को देखे जा रहा था।

कपड़े पहन लेने के बाद, सीताराम कपड़ों की जेबें टटोलने लगा।

“अपना रिवॉल्वर ढूंढ रहे हो!" देवराज चौहान हंसा--- "वह अब तुम्हें नहीं मिलेगा। मेरी जेब में है वह। अब फौरन खड़े हो जाओ। तुमने कुर्सी पर बांध मुझे मारा। मुझ पर हाथ भी उठाया। कोई और वक्त होता तो तुम्हें इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती लेकिन उन सब बातों के बदले मैं तुम्हें हाथ भी नहीं लगाऊंगा, क्योंकि तुम्हारी बीवी ने हमें बंधन से आजाद करवाया है। हम उसे वचन दे चुके हैं कि तुम्हें कुछ भी नहीं कहेंगे।"

"देखा!” लाजवंती गर्व भरे लहजे से कह उठी--- “कितने अच्छे हैं भाई साहब!"

जवाब में सीताराम दांत किटकिटाकर रह गया।

“अब तक तुमने जो भी किया, वह माफ।" देवराज चौहान की आवाज में सख्ती भरने लगी--- “और अब के बाद तुमने कुछ किया तो, उसकी जिम्मेवारी हम पर नहीं होगी। हो सकता है कि अब की कोई तुम्हारी जान भी ले ले।"

सीताराम दांत भींचे बैठा रहा।

"बैड से उतरेगा या बैठा ही रहेगा?" जगमोहन एकाएक गुर्राकर बोला।

सीताराम बैड से नीचे उतर कर खड़ा हो गया।

“अब हम तुझे जो कुछ भी कहेंगे, वह करना होगा। हमने तेरी बीवी को अब तक की बातों की माफी का वचन दिया है। अब के बाद की बातों के लिए वचन नहीं दिया।" देवराज चौहान के लहजे में मौत के भाव उभर आये थे।

"जिस तरह तुमने नटियाल को शूट किया, उसे सामने रखते हुए तुम रहम के काबिल नहीं हो। इस बात को अपने दिमाग में बैठा लो कि तुमसे नाराज होकर हम कभी भी तुम्हें गोली मार सकते हैं।"

सीताराम सूखे होंठों पर जीभ फेर कर रह गया।

देवराज चौहान ने हाथ आगे बढ़ाया तो रिवॉल्वर सीताराम के पेट से जा लगा।

"हमारे साथ बाहर चल---।"

"कहां?" सीताराम ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"बाहर कॉटेज से बाहर।" देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा, फिर लाजवंती से कहा--- "तुम अपने बच्चे के साथ कमरे में रहोगी। बाहर नहीं आओगी। समझी---।"

लाजवंती ने तुरन्त सहमति से सिर हिला दिया।

देवराज चौहान और जगमोहन, सीताराम को लेकर कमरे से बाहर आये और कॉटेज के बाहर की तरफ बढ़ने लगे। सीताराम का बुलंद हौसला अब टूट गया था। वह समझ चुका था कि अब बचने के चांस न के बराबर हैं। अगर उसकी बीवी इन्हें बंधनों से आजाद न करवाती तो बाजी उसके हाथ में थी, परन्तु अब बाजी फिर से पलट चुकी थी।

“सीताराम....।" चलते हुए देवराज चौहान मौत के से स्वर में बोला--- "हम जैसे लोगों की निगाहों में बहन-भाई कुछ भी नहीं होता। समझा--- हमने तेरी बीवी को किसी भी तरह का वचन नहीं दिया, अगर दिया है तो उसे हम कब का भूल चुके हैं। अब तेरे को सिर्फ एक ही काम करना है-- और हम एक ही बार तुझे करने के लिए कहेंगे। अगर तूने नहीं किया तो जितनी देर तूने नटियाल को गोली मारने में लगाई थी उससे कहीं कम समय हम तुझे मारने में लगायेंगे। हमसे किसी भी तरह के रहम की आशा मत रखना।"

“क....कर....ना क्या करना है?" सीताराम के गले से फंसा सा स्वर निकला।

“किशनलाल को वैन से बाहर निकलने को कहना है।" देवराज चौहान ने भेड़िये की सी गुर्राहट के साथ कहा--- “चलते समय उसका रिवॉल्वर सीताराम की पीठ को छू रहा था--- "अगर नहीं मंजूर तो अभी बता दे, ताकि हम तुझे यहीं शूट कर दें। और ना चलना पड़े।"

सीताराम समझ रहा था कि वह इन्कार करने की स्थिति में नहीं है। इन्कार का मतलब है मौत। बाद में उसकी बीवी-बच्चे को भी यह लोग नहीं छोड़ेंगे। उसका पूरा परिवार बरबाद करके रख देंगे। मन ही मन वह लाजवंती को ढेरों गालियां देने लगा कि उसने इन लोगों के बंधन खोल कर इन्हें आजाद कर दिया है।

“तूने जवाब नहीं दिया, हमारी बात का।" देवराज चौहान पूर्ववतः लहजे से बोला--- "मुंह से कुछ भी नहीं फूटा। बोल, हमारी बात मानता है कि नहीं?"

सीताराम ने अपने सूख रहे गले को थूक से तर किया, फिर बोला---

"बाद में भी मरना है और अब भी--- फिर क्यों खुलवाऊं वैन का दरवाजा?"

"वैन का दरवाजा खुलवाने पर तुम नहीं मरोगे। तब तुम्हारे जीवन की गारंटी मैं देता हूं।"

"तुम्हारी जुबान का क्या भरोसा?"

"हम अब नहीं कहेंगे कि चलो--- सीधे गोली ही मारेंगे।" जगमोहन ने अपने हाथ में थाम रखी रिवॉल्वर की नाल से उसका गाल थपथपाकर दरिन्दगी भरे लहजे से कहा था।

सीताराम बिना कुछ कहे धीरे-धीरे वैन की तरफ बढ़ने लगा। उसके चेहरे से स्पष्ट हो रहा था कि यह काम वह नहीं करना चाहता, परन्तु मजबूरी में करना पड़ रहा है। देवराज चौहान और जगमोहन रिवॉल्वर थामें सावधानी से उसके साथ चल रहे थे। अब वह किसी भी कीमत पर सीताराम को गड़बड़ करने का मौका नहीं देना चाहते थे।

वह लोग फूंस के कमरे में मौजूद बैंक वैन के करीब पहुंचकर ठिठके।

देवराज चौहान ने भिंचे होठों से सीताराम को इशारा किया।

“किशनलाल.....।” सीताराम ने गहरी सांस लेकर पुकारा।

“हां।” वैन के भीतर से किशनलाल की आवाज आई।

“बाहर आ जा।” सीताराम की आवाज में बेचैनी के भाव थे।

“सब कुछ ठीक है?"

“हां--- सब कुछ ठीक है।"

“तेरी आवाज में ढीलापन क्यों है?" किशनलाल की आवाज में शक के भाव आ गये थे।

देवराज चौहान ने रिवॉल्वर की नाल सीताराम की खोपड़ी से लगा दी।

"बहुत थका हुआ हूं।"

क्षण भर की खामोशी के बाद किशनलाल की आवाज आई।

"क्या किया तूने?"

“जो भी किया है-- तू बाहर आकर देख ले।"

"शूट तो नहीं कर दिया उन्हें?"

"हां-- कर दिया। करना पड़ा।" सीताराम सूखे होठों पर जीभ फेर कर बोला।

एकाएक भीतर से किशनलाल के हंसने की आवाज आई।

"हंस क्यों रहा है?" सीताराम की आंखों में उलझन के भाव उभरते चले आये।

"सीताराम! मैं तुझे दोष नहीं देता। कभी-कभी इंसान इस कदर मजबूरी में हालात के दायरे में जकड़ जाता है कि ना चाहते हुए भी उसे सब कुछ करना पड़ता है।"

"मैं-मैं समझा नहीं किशनलाल कि तू...।"

"मैं समझाता हूं तुझे! दो घंटे पहले तू मेरे पास आया तो तेरे बोलने का ढंग सामान्य था। उसमें विश्वास भरा था। परन्तु अब तेरे बोलने में दम नहीं है। यही बात महसूस करके मैं शक में पड़ा था, फिर जब तूने कहा कि मैंने उन लोगों को शूट कर दिया, तब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि तू उन लोगों के-- डकैतों के कब्जे में आ गया है।"

सीताराम वास्तव में हैरान हो उठा।

"यह तू कैसे कह सकता है।"

"ऐसे कि तूने कहा, मैंने उन्हें शूट कर दिया है-- जबकि मैंने किसी भी फायर की आवाज नहीं सुनी। अब यह मत कह देना कि शूट करते समय तूने रिवॉल्वर पर साईलेंसर लगा लिया था।"

सीताराम से कुछ कहते ना बना।

देवराज चौहान और जगमोहन भी समझ गये कि मामला गड़बड़ हो गया है।

"तुम चुप क्यों हो गये सीताराम।" बैंक वैन से किशनलाल की आवाज आई--- "कुछ तो बोलो! यह तो बता दो कि उन लोगों ने तुझ पर कैसे काबू पा लिया?"

सीताराम ने आहत भाव से देवराज चौहान को देखा।

एकाएक जगमोहन खतरनाक लहजे से कह उठा---

"तुम ठीक कह रहे हो किशनलाल। वास्तव में हमने सीताराम पर काबू पा लिया है। अब यह और इसके बीवी-बच्चे हमारे रहमो-करम पर हैं। समझे कुछ।"

"समझ गया।" भीतर से किशनलाल की आवाज आई।

"सीताराम और इसके परिवार के प्रति तुम्हारा भी कुछ फर्ज बनता है। इस बार देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर दरिन्दगी भरे लहजे में कह उठा---"अगर तुम बाहर नहीं निकले तो हम अभी इसी वक्त सीताराम और इसके बीवी-बच्चे को शूट के देंगे। फायर की आवाज आसानी से तुम्हारे कानों तक पहुंचेगी।"

जवाब नहीं दिया कुछ भी किशनलाल ने।

“सीताराम!” देवराज चौहान ने उससे कहा--- "अब मैं आखिरी मौका देता हूं। अगर तुम अपने साथी किशनलाल को समझा सकते हो तो समझा लो--- नहीं तो तेरी बीवी-बच्चे की मौत निश्चित है।" कहने का अन्दाज ऐसा था कि सीताराम मन-ही-मन सिहर गया।

सीताराम ने फक्क चेहरे से देवराज चौहान को देखा।

"किशनलाल!” सीताराम सूखे स्वर में कह उठा--- "मैं इस समय मुसीबत में हूं।"

किशनलाल ने कोई जवाब नहीं दिया।

“किशनलाल, जवाब तो दे---।"

किशनलाल फिर भी कुछ नहीं बोला।

"व...वह ।” सीताराम ने देवराज चौहान को देखा--- "कुछ नहीं बोलेगा। खामोश रहेगा।"

“क्यों?” देवराज चौहान के लहजे में मौत की झलक थी।

“उसकी.... उसकी पुरानी आदत है। जो बात उसे नहीं माननी होती, तो वह खामोश हो जाता है।"

"वैन के पास रुकने की अब कोई जरूरत नहीं।" देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा---

“किशनलाल अब किसी भी हालत में वैन से बाहर नहीं निकलेगा।"

दोनों सीताराम को लेकर उसी कमरे में पहुंचे जहां सीताराम ने उन्हें बांधा था। उन्हीं खाली कुर्सियों में, एक पर सीताराम को बिठाकर, उसे सख्ती से बांध दिया गया। तभी उन्हें किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। फौरन वह सतर्क हो गये। अगले ही पल हाथों में रिवॉल्वर चमक उठीं। उन्होंने पोजीशन ले ली।

कुछ ही पलों उपरान्त डालचन्द नजर आया। बुरी हालत। हांफता हुआ। चेहरा पसीने से काला हो रहा था। आंखों में मौत का भय छाया हुआ था। कपड़े बहुत गन्दे हो रहे थे। उसने दायें हाथ में गठरी सी उठा रखी थी। उसकी हालत देखकर देवराज चौहान और जगमोहन चौंके।

डालचन्द वहीं दीवार के सहारे खड़ा होकर लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा। उसकी हालत बता रही थी कि जो कुछ हुआ है, ठीक नहीं हुआ है।

डालचंद ने किसी प्रकार अपनी सांसों पर काबू पाया और बुझे स्वर में कह उठा---

"सब कुछ चला गया हाथ से! बहुत बुरा हुआ! बहुत बुरा हुआ!"

"लेकिन हुआ क्या?" जगमोहन की आवाज में व्याकुलता भर आई थी।

जवाब में डालचंद ने नीना पाटेकर से लेकर, वानखेड़े और मंगल पांडे तक की सारी बातें बता दीं। डालचंद की बात सुनने के बाद कई पलों तक उनके होठों से कोई शब्द न निकला।

"तुम---तुम्हारा मतलब कि---।" जगमोहन की आवाज में थकान भर आई थी--- "आज दिन में की गई बैंक डकैती का चार करोड़ गया हाथ से ? पूरा का पूरा गया? जरा भी नहीं बचा!"

"जरा सा....बचा है।" डालचंद की आवाज में फीकापन था--- "यह गठरी! जो कुछ इसमें है.... यही बचा है।"

"यह....यह तो कुछ भी नहीं।"

जवाब में डालचंद सिर हिलाकर रह गया।

जगमोहन ने देवराज चौहान को मुंह फाड़कर देखा।

"देखा तुमने। चार करोड़ गया हाथ से। यह बेवकूफ लोग, चौबीस घंटे भी पैसे की रखवाली नहीं कर सके। लुटा दिया इन्होंने । बरबाद कर दिया हमें....।"

“इसमें इनका कोई दोष नहीं।" देवराज चौहान ने स्थिर किन्तु गम्भीर स्वर में कहा--- "वानखेड़े ने पुलिस वालों को साथ लेकर वहाँ घेरा डाल दिया तो क्या करते! यही गनीमत समझो कि डालचंद बच निकला है। मेरे ख्याल से मंगल पांडे शायद न भी बच सका हो।"

“यानी तुम्हें चार करोड़ का कोई गम नहीं।"जगमोहन ने झल्लाकर कहा।

“गम करने से चार करोड़ वापस आ जाता है तो गम कर लेता हूं।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।

जगमोहन दांत पीसकर कर रह गया।

देवराज चौहान ने सिगरेट का कश लिया, फिर गम्भीर स्वर में कह उठा---

"वानखेड़े के इस मामले में आ जाने से ही, हमारा मामला खतरे से भर उठा था। फिर भी हमने सावधानी बरती, आज की डकैती की दौलत को हमने दूसरी जगह रखा और कुछ ही घंटो में वानखेड़े ने उस जगह को भी तलाश कर लिया। हैरानी अवश्य है कि वह इतनी जल्दी कैसे उस ठिकाने तक पहुंच गया जहाँ हमने कुछ ही घंटे पहले दौलत रखी थी।"

“साले को पहले ही गोली से उड़ा देना चाहिए था।" जगमोहन दांत भींचकर कह उठा।

“यह काम इतना आसान नहीं है जगमोहन---।" देवराज चौहान एकाएक ही मुस्कुराया--- “कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें गोली मार देना आसान नहीं होता। वानखेड़े भी ऐसे ही लोगों में आता है। उसकी हिम्मत की दाद तो तुम इस बात से ही दे सकते हो कि हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ा हुआ है। मुझे हर कीमत पर जेल में ठूंसना चाहता है। मेरी खबर मिलते ही, वह सब काम छोड़कर मेरे पीछे पड़ जाता है।"

“तुम देखना !" जगमोहन ने खतरनाक स्वर में कहा--- "ये मरेगा एक दिन मेरे हाथों से। मैं इस चार करोड़ की चोट को भूलूंगा नहीं। हमेशा याद रखूंगा।"

“अवश्य याद रखना।" देवराज चौहान लापरवाही से हंस पड़ा।

“अब जल्दी जाकर वैल्डिंग मशीन और गैस का सिलेन्डर लाओ ।" जगमोहन ने खीज भरे स्वर में कहा।

“वानखेड़े को इस जगह के बारे में भी शक है। अगर उसने यहां पर भी कुछ कर दिया तो हम हाथ मलते रह जाएंगे। हमारी सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा।"

देवराज चौहान ने सिर हिलाया--- फिर डालचंद को देखकर बोला---

“नीना पाटेकर के बारे में कोई खबर नहीं ?"

“नहीं।" डालचंद ने सूखे होठों पर जीभ फेरी--- "वह राजाराम के पास, मेरी मां-बहन को लेने गई थी। यह दोपहर की बात है। और रात तक वापस नहीं लौटी। जबकि उसे कब का वापस आ जाना चाहिए था। कहीं और वह जा नहीं सकती। मुझे पूरा विश्वास है कि उसके साथ कुछ बुरा हुआ है। पाटेकर के वापस ना लौटने का सिर्फ, एक मात्र यही कारण हो सकता है।"

“जाते समय वह क्या कहकर गई थी?"

"यही कि, वह मेरी बहन और मां को वापस लेकर हो लौटेगी....।"

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।

"इसका मतलब राजाराम ने पाटेकर के साथ कुछ बुरा किया है।"

"तो मैं क्या करूं।" जले-भुने जगमोहन ने कहा। उसे तो चार करोड़ के हाथ से निकल जाने का मलाल हो रहा था। उसे इसे बात का दुख था कि जब वानखेड़े ने पुलिस वालों के साथ घेरा डाला, वह वहां क्यों नहीं था।

चंद पलों की सोचों के बाद, देवराज चौहान बोला।

"अब तुम क्या चाहते हो?"

"मैं....मैं नीना पाटेकर और अपनी मां-बहन को वापस पाना....।"

"डालचन्द....।" देवराज चौहान ने उसकी बात काट कर कहा--- "पाटेकर का मुझसे कोई वास्ता नहीं कि वह कहां चली गई है-- या उसके साथ क्या हुआ है। अलबत्ता तुम्हारी मां-बहन को मैं राजाराम की कैद से अवश्य वापस ला दूंगा। इस बात का वायदा करता हूं।"

डालचंद के चेहरे पर राहत के भाव उभरे।

"पाटेकर के बारे में क्यों नहीं मालूम करोगे?"

"इसलिए कि पाटेकर ने जो भी किया, अपनी जिम्मेवारी पर किया। राजाराम के पास गई तो मुझसे पूछ कर नहीं गई थी। अपनी मर्जी से गई थी। उसके साथ जो भी होगा, खुद ही भुगत लेगी।" देवराज चौहान की आवाज में सख्ती भर आई--- "मैंने उसे चार करोड़ की निगरानी के लिए छोड़ा था वहां--  और निगरानी करने के बदले वह तुम्हारे मामलों को निपटाने में लग गई। जबकि उसे वहां से हिलना भी नहीं चाहिए था।"

डालचंद अब क्या कहता। देवराज चौहान का कहना सही था।

"हमारे पास आज रात का काम है, ज्यादा से ज्यादा दिन होने तक हम बैंक वैन में मौजूद दौलत को हासिल कर लेंगे। उसके बाद तुम्हारी मां-बहन को कुछ नहीं होगा।"

डालचंद के चेहरे पर तसल्ली के भाव गहरे हो गये।

"तुम---।" देवराज चौहान ने अजीब सी मुस्कान के साथ जगमोहन से कहा--- "यहां जले भुने क्यों बैठे हो ? इस वक्त तुम्हारे पास हद से ज्यादा जरूरी काम पड़ा है।"

"कैसा काम ?”

"यह गठरी, जिसे कि डालचंद लाया है---इसमें नोटों की गड्डियां हैं। कम से कम इन्हें गिन तो लो कि चार करोड़ में से कितना माल हमारे हाथ लग सका है। देवराज चौहान हंस कर कह उठा।

और जगमोहन को जैसी भूली बात याद आ गई हो। वह जल्दी से आगे बढ़ा और नीचे पड़ी, डालचंद की लाई गठरी उठा ली।

"मैं वैल्डिंग का सामान और गैस सिलेंडर लेकर आता हूं।" देवराज चौहान बोला।

“कब तक आ जाओगे ?"

“दो घण्टे तो लग ही जायेंगे।"

"वैन पर निगाह रखने की तो कोई जरूरत नहीं है ना?"

"नहीं। अब किशनलाल किसी भी कीमत पर बाहर नहीं निकलेगा। अलबत्ता सीताराम पर नजर रखना। अगर वह किसी तरह की मुसीबत पैदा करने की चेष्टा करे तो फिर जो मर्जी करना....।"

जगमोहन ने सिर हिलाया। देवराज चौहान कॉटेज से निकला और वहां मौजूद कार की तरफ बढ़ गया। उसके जाते ही डालचंद ने गहरी सांस लेकर पूछा---

“सीताराम-किशनलाल कौन हैं?"

जगमोहन ने सारा किस्सा बताया और डालचंद को साथ लिए उसी कमरे में जा पहुंचा जहां पर सीताराम को कुर्सी पर बांध रखा था। फिर उसने डालचंद के साथ मिलकर, चादर की बना रखी गठरी को खोला और नोटों की गड्डियां गिनने लगे।

सीताराम आंखें फाड़े गड्डियों को देख रहा था।

गड्डियां पांच सौ और सौ के नोटों की थीं। उन्हें देखकर डालचंद को महसूस हुआ कि वह तो काफी ज्यादा माल ले आया।

आधा घंटा उन्होंने गड्डियां गिनने में लगाया। पांच सौ के नोटों की गड्डियां ज्यादा होने के कारण रकम उनकी उम्मीद से ज्यादा निकली। वह कुल इकत्तीस लाख रुपये थे। इकत्तीस लाख की रकम पाकर जगमोहन का जलना-भुनना कुछ कम हुआ।

"भागते चोरी की लंगोटी ही सही!" जगमोहन ने गहरी सांस लेकर डालचंद को देखा।

जवाब में डालचंद सिर्फ सिर हिलाकर रह गया।

"शायद मंगल पांडे भी कुछ ले आये।" जगमोहन पुनः बोला।

“उसे यहां के बारे में कुछ नहीं मालूम।" डालचंद ने लम्बी सांस लेकर कहा।

“फिर तो हरामी माल लेकर ऐसा गायब हो जायेगा कि दोबारा हमें मिलेगा ही नहीं।"

"मैं नहीं समझता कि पुलिस के हाथों वह बच निकला होगा।"

डालचंद की आवाज में हल्की सी घबराहट उभर आई--- "भगवान का शुक्र करता हूं कि मैं सही समय पर वहां से निकल गया।"

“हूं।" जगमोहन ने सिर हिलाया--- "ठीक है। कल सुबह मालूम हो जायेगा कि वह बच निकला है या पुलिस के फंदे में फंस गया है। मेवाराम के बारे में कुछ नहीं मालूम?"

"नहीं। जब मैं निकला तो वह कुर्सी पर बैठा था---घबराया हुआ....।"

“पांडे अगर जरा भी समझदार हुआ तो, मेवाराम की आड़ में वहां से निकलने की चेष्टा करेगा।"

“वहां पर पुलिस।" डालचंद ने सूखे होठों पर जीभ फेरी--- “पुलिस का बहुत तगड़ा घेरा था।"

“पुलिस का घेरा तगड़ा ही होता है।" जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा--- "इसकी गठरी बांधो।"

"यह नोट--- इतना पैसा कहां से आया तुम लोगों के पास?" कुर्सी पर बैठा सीताराम बोला।

“चिन्ता मत करो। वैन का पैसा नहीं है। किशनलाल अभी तक वैन से बाहर नहीं निकला। यह आज की गई बैंक डकैती का पैसा है। चार करोड़ में से यही पल्ले पड़ा है। तुझे कोई तकलीफ है क्या?" जगमोहन ने भड़ककर कहा।

सीताराम ने होंठ बंद कर लिये। जगमोहन ने भुनभुनाते हुए डालचंद के साथ मिलकर, अच्छी तरह पुनः गठरी बांध ली।

■■■

राजाराम ने शराब का गिलास एक ही सांस में खाली किया। फिर टेबल के नीचे लगी घंटी का बटन दबा कर, सिगरेट सुलगाने के पश्चात कश लिया।

घंटी का बटन दबाने की एवज में भीमराव वहां हाजिर हो गया।

“वक्त क्या हुआ है भीमराव ?" राजाराम ने शांत स्वर में पूछा।

“सवा दस बज रहे हैं।" भीमराव ने जवाब दिया।

“मैंने तुझे कितने बजे चलने को कहा था---।"

“दस-ग्यारह बजे...।"

“तैयारी हुई?”

“हो गई। सारा इन्तजाम मुकम्मल हो गया है।"

“कितने आदमी तैयार किए?"

"पच्चीस। सब अच्छे लड़ाके हैं। बाजी हमारे हक में ही रहेगी।"

“हूं।” राजाराम ने सिर हिलाया--- “यानी कि अगर हम चलना चाहें तो, अभी चल सकते हैं।"

"जी।"

“तो फिर शुभ काम में देर नहीं करनी चाहिये।" राजाराम उठ खड़ा हुआ--- "चलो....।"

■■■

वानखेड़े ने अपनी कार पहले ही साइड में रोक दी, ताकि एकाएक किसी की नजर उस पर नहीं पड़ सके। उसके बाद वह पैदल ही चलकर वहां पहुंचा, जहां सुबह वह सुधीर को छोड़ गया था। उसे पहचान कर सुधीर अपनी छिपी जगह से बाहर निकल आया। उसके चेहरे पर दिन भर की थकावट के लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे थे।

वानखेड़े ने हाथ थाम रखा खाने का पैकेट उसे थमा दिया। सुधीर ने कोई बात नहीं की और जल्दी से खाना खाने में व्यस्त हो गया। सारा दिन कुछ ना खाया होने के कारण उसकी भूख के मारे जान निकली जा रही थी।

वानखेड़े सिगरेट सुलगा कर कश लेने लगा।

खाना समाप्त करते ही सुधीर बोला---

“वहां पर क्या हुआ था सर? खुलासा हाल बताईयेगा.... ।"

वानखेड़े ने सिलसिलेवार सारी घटना बता दी।

"इसका मतलब--- नीना पाटेकर, मंगल पांडे मर गये।" सुधीर विचार भरे स्वर में बोला--- "एक सुबह डकैती के समय मारा गया था। यानी कि तीन तो गये।"

“हां। बाकी बचे देवराज चौहान, जगमोहन, डालचंद और चौथा नटियाल ।"

"अब क्या करने का इरादा है सर?"

"सुधीर! एक जगह तो हम हल्ला बोलकर दुश्मन को चोट दे ही चुके हैं। उसके बारे में मालूम होते ही देवराज चौहान सतर्क हो जायेगा। और बाकी के काम जल्दी से निपटाने की सोचेगा। इससे पहले कि वह अपना काम जल्दी से निपटा कर खिसके, हमने उसे पकड़ लेना है। अब हमें चौकस होकर यहां की निगरानी करनी है। जो भी नजर आया, उसके पीछे जाकर हमें हर हाल में मालूम करना है कि वह लोग किस फार्म पर डेरा डाले हुए हैं।"

"बाहर तो बहुत अंधेरा है सर। किसी को पहचानना सम्भव नहीं।"

"जो भी हो--  हमें काम तो करना ही है।"

“सर!" सुधीर ने गम्भीर स्वर में कहा--- “आपके आने से सिर्फ पांच मिनट पहले की बात है, एक कार फार्मों की तरफ से आकर सड़क की तरफ गई है।"

“कौन था कार में?” वानखेड़े की आंखें सिकुड़ गई।

“यकीन के साथ तो कुछ भी कहा नहीं जा सकता। आप देख ही रहे हैं यहां पर कितना अंधेरा है--- फिर भी जहां तक मेरा ख्याल है वह शायद देवराज चौहान था.....।"

“सुधीर---।" कुछ देर बाद वानखेड़े ने कहा--- “अगर वह देवराज चौहान था तो घंटे भर में ही वापस लौट आयेगा। मेरे ख्याल में, वह उस जगह गया होगा, जहां उसने चार करोड़ रुपया बैंक डकैती का रखा होगा--- यानी कि जहां पर मैंने कुछ देर पहले रेड की थी। वहां के हालात मालूम होते ही उल्टे पांव यहीं वापस लौटेगा। हमें उसके इन्तजार में सतर्क रहना चाहिये।"

“यानी कि अब आपका इरादा यहां भी सीधे रेड करने का है... ।”

“हां। फार्म के बारे में मालूम होते ही, मोबाइल पर सीधे कमिश्नर साहब से कहना है कि तैयार कर रखें पुलिस को और स्टॉफ के आदमियों को फौरन यहां भेज दें। बस एक बार मालूम हो जाये कि उन लोगों ने किस फार्म पर डेरा जमा रखा है---।"

सुधीर सिर हिलाकर रह गया।

"आपका ख्याल है कि देवराज चौहान अभी वापस लौटेगा?"

“ख्याल ही नहीं पूरा विश्वास है।" वानखेड़े ने दृढ़ शब्दों में जवाब दिया।

■■■

शहर के बाहरी हिस्से में पड़ने वाली वर्कशाप में, देवराज चौहान को सिर्फ एक मिस्त्री मिला, जो गहरी नींद में था। देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब से निकाल उसे नींद से उठाया। पहले तो वह कुछ समझा नहीं। रिवॉल्वर देखकर जब समझा तो घबरा उठा।

"उठो.....।" देवराज चौहान ने अपना लहजा खतरनाक बनाकर कहा।

मिस्त्री ने तुरन्त हड़बड़ाकर बैड छोड़ दिया। उसकी आंखों में आतंक आया था। अपनी जिन्दगी में उसने कभी रिवॉल्वर के दर्शन नहीं किये थे। और रिवॉल्वर को अपने पर तने होने का तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

“सर.... साहब जी।" मिस्त्री ने कांपते स्वर में कहा--- "म-मैं नौकर हूं.... कैश तो सारा मालिक ले जाता है। यहां पर ऐसा कुछ नहीं है जिसकी आपको जरूरत हो। आप.... आप गलत जगह आ-आ गये हैं।”

“तुम ठीक कह रहे हो।" देवराज चौहान ने पूर्ववतः लहजे में कहा--- “लेकिन मुझे जो चाहिए, इसी जगह पर मौजूद है। जो मैं कहूं वही करना नहीं तो---।"

“आप जो कहेंगे, मैं वही करूंगा....।" मिस्त्री ने सूखे स्वर में कहा।

"वैल्डिंग का सारा सामान, गैस का सिलेन्डर उठाकर बाहर खड़ी मेरी कार में रखो।"

■■■

"बस-बस, यहीं रोक दो?"

कार में बैठे खूबचन्द के कहते ही कार फौरन रुक गई। वह कार ड्राईवर की बगल में नर्वस सा बैठा था। खिड़की की तरफ भीमराव था। पीछे वाली सीट पर तीन खतरनाक से दिखाई देने वाले दादे बैठे थे। उनके हाथों में हथियार थे।

कार के पीछे दो बंद मैटाडोर वैन थीं। जिनमें हथियार को थामें खतरनाक आदमी भरे पड़े थे। उसके पीछे वाली कार में स्वयं राजाराम मौजूद था।

“यहां क्या है- ।" भीमराव ने खूबचन्द को देखा।

"यहीं जाना है।"

"यहां कहा?"

"वह देखो---I" खूबचन्द गर्दन को पीछे की तरफ घुमाकर बोला--- "सड़क से कच्चा रास्ता फार्मों की तरफ जा रहा है। हमें उसी रास्ते पर जाना है।"

"वह फार्म इस तरफ ही है?"

"हां!"

"पक्का कह रहा है ना?"

“इसमें कच्चे-पक्के की बात कहां से आ गई। वह फार्म इसी तरफ है।" खूबचन्द बोला।

खूबचन्द के बताये रास्ते को, भीमराव ने देखा।

"मैं राजाराम साहब से बात करके आता हूं।" कहने के साथ ही भीमराव दरवाजा खोलकर कार से उतरा और सबसे पीछे मौजूद राजाराम की कार की तरफ बढ़ गया।

फिर दो मिनट में ही भीमराव वापस लौटा और कार में बैठता हुआ बोला---

"कार को बैक कर लो....।"

तब तक पीछे की कार और दोनों वैन भी बैक होनी आरम्भ हो गई थीं।

कुछ ही क्षणों के बाद सारे वाहन सड़क से उतरे और कच्चे रास्ते पर बढ़ गये।

“यहां से कितना दूर है फार्म?" भीमराव ने पूछा।

“पास में ही है....मिनट डेढ़ मिनट में वहां पहुंच जायेंगे।" खूवचन्द ने सूखे स्वर में जवाब दिया।

■■■

इतने सारे वाहनों को एक साथ देखकर वानखेड़े और सुधीर चौंके। आंखें फाड़े वह तब तक उन्हें देखते रहे, जब तक कि उनके सामने से होकर, वह गुजर नहीं गये।

"यह क्या सर?" सुधीर के होठों से निकला।

"गड़बड़ है सुधीर---।"

"यह लोग कौन हैं सर?"

"सुधीर....। सबसे पीछे वाली कार के भीतर लाइट जल रही थी।" वानखेड़े असमंजसता भरे स्वर में कह उठा--- "मुझे ऐसा लगा जैसे उसमें राजाराम बैठा हो। लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि राजाराम जैसे गैंगस्टर का यहां क्या काम ? अगर मेरी निगारों ने धोखा नहीं खाया है, वह वास्तव में ही राजाराम था--- तो जाहिर है, वह देवराज चौहान वाले फार्म पर गया होगा। यहां आने का तो यही मतलब निकलता है।"

"लेकिन--राजाराम का देवराज चौहान से क्या वास्ता?"

"इस बारे में तो मैं कुछ भी नहीं कह सकता। राजाराम के काफिले के वाहनों की लाईट जल रही है। मैं भागता हुआ इनकी कारों का पीछा करता हूं। मुझे विश्वास है कि मुझे ज्यादा दूर तक नहीं जाना पड़ेगा। यह मालूम करते ही कि फार्म कहां है, कमिश्नर साहब को रेड के लिए कहते हैं।"

"मैं साथ चलूं सर---।"

"नहीं। तुम यहीं रहो। देवराज चौहान कभी भी वापस लौट सकता है। उसको भी निगाह में लेना बहुत जरूरी है। हमारा असली निशाना तो वही है।"

सुधीर सिर हिलाकर रह गया।

"अगर पीछे से देवराज चौहान आ जाये तो मुझे मोबाइल पर खबर देना।"

“ओ०के० सर ।"

वानखेड़े अपनी छिपी जगह से निकला और कच्चे रास्ते पर पहुंचकर तेजी से उस तरफ भागा, जिस तरफ राजाराम का काफिला गया था।

उसी पल सड़क से देवराज चौहान की कार कच्चे रास्ते पर आई और वानखेड़े सिर से पांव तक कार की हैडलाइट में चमक उठा। भागता हुआ वानखेड़े ठिठका। चेहरे पर क्षण भर में ही सकपकाहट के भाव उभरते चले गये। वह ठगा-सा खड़ा रह गया।

सुधीर ने जब यह सब देखा तो एकाएक सतर्क हो गया। कार की हैडलाहट में देवराज चौहान ने वानखेड़े को पहचाना तो उसके जबड़े कसते चले गए। कार को आगे ले जाकर उसने ठीक वानखेड़े के करीब रोक दिया।

वानखेड़े के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई-- -वह स्थिर सा कार को देखता रहा।

कार का दरवाजा खोलकर देवराज चौहान नीचे उतरा तो उसके हाथ में दबी रिवॉल्वर का रुख वानखेड़े की तरफ था। जबड़े भिंचे हुए थे। देवराज चौहान के सामने आने पर कार की हैडलाइट में वानखेड़े ने उसे पहचाना तो एकाएक सतर्क हो गया।

"मुबारक हो वानखेड़े!" देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- "कुछ ही घण्टों में तुमने उन चार करोड़ को तलाश कर डाला, जिन्हें मैंने सुबह बैंक से लूटा था।"

वानखेड़े होंठ भींचे उसे देखता रहा।

"डालचन्द तो मेरे पास आ गया था, मंगल पांडे का क्या हुआ? वह....।"

"मेरी गोली उसकी खोपड़ी में लगी थी।" वानखेड़े ने सर्द लहजे में कहा।

"मार दिया उसे---।"

"खुद ही मरा वह।" वानखेड़े ने सर्द लहजे में कहा--- “बच जाता, अगर वह पुलिस का मुकाबला न करता या फिर भागने की चेष्टा ना करता। फरारी के समय उसे मेरी गोली ठीक माथे पर।"

"मतलब निशाना बहुत अच्छा है तेरा।" देवराज चौहान की आवाज में जहरीलापन आ गया।

"हां दो बार निशानेबाजी में इनाम ले चुका हूं।"

"कभी मेरा निशाना देखा है तूने?" आवाज में दरिन्दगी का पुट आ गया।

"मौका ही नहीं मिला देखने का।" वानखेड़े के होंठ भिंचते चले गये थे।

"मैं अब दिखाता हूं तुझे निशाना।" देवराज चौहान के स्वर में वहशीपन आ गया--- "मेरे हाथ में थमी रिवॉल्वर भरी हुई है। इसकी दो गोलियां, तेरे दोनों घुटनों में लगेंगी। दो गोलियां तेरे कंधों में लगेंगी जिससे कि तेरी बांह उखड़कर झूलने लगेंगी। बाकी की दो तेरे सीने में......।"

वानखेड़े के दांत-पर-दांत जम गये। बोला वह कुछ भी नहीं।

■■■

सुधीर कुछ फीट के फासले पर ही छिपा यां। वानखेड़े और देवराज चौहान की बातों का स्वर उसे सुनाई दे रहा था, परन्तु क्या बातें हो रही है, वह नहीं सुन पा रहा था। बहरहाल, देवराज चौहान के हाथ में रिवॉल्वर देखकर सुधीर इतना तो समझ गया था कि वानखेड़े खतरे में है। वह यह बात भी महसूस कर चुका था कि देवराज चौहान इतना मौका नहीं देगा कि वानखेड़े अपनी रिवॉल्वर निकाल सके। और सबसे बुरा इत्तेफाक तो यह था कि सुधीर के पास भी रिवॉल्वर नहीं था। अपनी रिवॉल्वर वह आफिस के ड्राज में ही भूल आया था, वरना अब तक तो उसने देवराज चौहान को गोलियों से भून दिया होता।

कोई और रास्ता न पाकर, सुधीर ने मोबाइल पर कमिश्नर साहब से बात की। सारे हालात जल्दी से उन्हें बताये और रेड के लिए फोर्स भेजने को कहा। जवाब में कमिश्नर साहब ने उसे तसल्ली दी और मोबाइल ऑफ कर दिया। सुधीर ने मोबाइल ऑफ किया और निगाहें उन दोनों पर टिका दीं।

वानखेड़े ने अन्धेरे में चमकती देवराज चौहान की आंखों में झांका।

“अन्धेरे में तुम इतना बढ़िया निशाना नहीं ले सकते देवराज चौहान....।"

“तुम्हारी गलतफहमी मैं अभी दूर किये देता हूँ....।"

"मुझे मारने के बाद तुम्हारा क्या होगा? कुछ देर पहले ही फार्म पर अपने लश्कर के साथ राजाराम गया है। दो वैनों में आदमी भरकर ले गया है। उसका मुकाबला कैसे करोगे?"

"राजाराम ?" देवराज चौहान जोरों से चौंका।

"हां। गैंगस्टर राजाराम!" वानखेड़े अपने शब्दों को चबाकर कह उठा--- "इस समय तुम्हें मुझसे नहीं राजाराम से असली खतरा है देवराज चौहान। वैन में पड़ी दौलत छोड़ेगा नहीं...।"

देवराज चौहान के होंठ भिंच गये। आंखों में कठोरता भर आई। अगले ही पल उसकी आंखें सिकुड़ गई। ट्रेगर पर उसकी उंगली का दबाव बढ़ गया।

"खत्री!" देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर, दरिन्दगी भरे लहजे में कह उठा--- "यहां पर इस समय तुम्हारे और मेरे अलावा भी कोई है। अभी मैंने बहुत ही धीमी आवाज सुनी है। जाहिर है कि वह तुम्हारा ही साथी होगा और तुम्हें मेरे फंदे में फंसा देखकर, कुछ करने की कोशिश में होगा। उसे सामने आने को कहो। फौरन कहो।"

वानखेड़े के होंठ भिंचते चले गये। वह सुधीर को खतरे में नहीं डालना चाहता था। परन्तु देवराज चौहान का कहना मना करने का मतलब था, गोली। यह तो वह समझ गया कि सुधीर ने उसे खतरे में देखकर, कमिश्नर साहब से बात की होगी और आवाज सुन ली होगी देवराज चौहान ने।

"तुम्हें किसी से क्या लेना-देना? जो बात करती है, मुझसे करो।" वानखेड़े बोला।

"मैंने बोला ना वानखेड़े---।" देवराज चौहान ने वहशी स्वर में कहा--- "उसे यहां बुलाओ।"

ना चाहते हुए भी वानखेड़े को देवराज चौहान की बात माननी पड़ी।

"सुधीर!" वानखेड़े ने ऊंचे स्वर में पुकारा--- "यहां आ जाओ।"

अगले ही पल सुधीर अपनी जगह से निकलकर उनके पास आ गया।

देवराज चौहान ने ठण्डी निगाहों से उसे देखा।

“तुमने अभी मोबाइल पर बात की---।"

जवाब में सुधीर को खामोश पाकर देवराज चौहान मौत के स्वर में बोला--  "मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। गोली नहीं खानी तो फौरन हां या ना में जवाब दो।"

"हां।" सुधीर ने देवराज चौहान की आवाज में छिपे मौत के भाव को पहचाना।

"किससे बात की?"

“कमिश्नर साहब से।"

"क्या कहा?"

"यहां की सिचुएशन बताकर फौरन रेड करने के लिए कहा।" सुधीर ने शांत स्वर में कहा।

इन बातों के बीचे वानखेड़े देवराज चौहान के रिवॉल्वर पर झपटने या फिर जेब में मौजूद अपना रिवॉल्वर निकालने का मौका हासिल कर लेना चाहता था। पर देवराज चौहान उसके प्रति बेहद सतर्क था। उसे किसी प्रकार मौका नहीं देना चाहता था।

"कमिश्नर को इस जगह के बारे में पता है?" देवराज चौहान के होंठ भिंचे हुए थे।

"पता है।"

देवराज चौहान के होठों से गहरी लम्बी सांस निकली।

खेल खत्म। यही शब्द उसके मस्तिष्क में कौंधे।। सारी मेहनत बेकार! यानी कि अब पुलिस कभी भी आ सकती थी।

"अभी यहां से कौन लोग गये थे?" देवराज चौहान ने की बात की तस्दीक करनी चाही।

सुधीर क्षण भर ठिठका, फिर कह उठा---

"राजाराम गैंगस्टर! उनके साथ दो वैनें और एक कार थी ।"

"वैनों में क्या था?”

"मैटाडोर वैनों में उसके आदमी भरे हो सकते हैं...हमारा यही ख्याल है।"

देवराज चौहान दायें-बायें सिर हिलाकर रह गया। इतना तो वह समझ ही गया था कि राजाराम ने वहां अब तक कब्जा जमा लिया होगा।

सिर घुमाकर देवराज चौहान ने कार में रखे वेल्डिंग के सामान और गैस सिलेण्डर को देखा, जिनका अब कोई इस्तेमाल नहीं रह गया था।

देवराज चौहान ने बेहद शांत निगाहों से वानखेड़े को देखा।

“वानखेड़े! अब मेरे पास इतना वक्त नहीं कि मैं मजे ले-लेकर तुझे मार सकूं। वैसे भी अब खासतौर से इस वक्त मुझे तेरी जान लेने का कोई खास फायदा नजर नहीं आ रहा। इधर पुलिस आने वाली है-उधर राजाराम ने पूरा फार्म अपने कब्जे में ले लिया होगा। मुझे जगमोहन को ठीक-ठाक वहां से निकाल ले जाना है। इसलिए जल्दी में हूं। अब मैं चलूंगा। हमारी मुलाकातें तो अक्सर होती ही रहेंगी। क्योंकि....।" देवराज चौहान के होठों पर अजीब-सी मुस्कान उभर आई--- "तूने मुझे कानून की सलाखों के पीछे पहुंचाकर छोड़ना है, जबकि मैंने तेरी इस इच्छा को कभी पूरा नहीं होने देना है। वैसे तूने आज की बैंक डकैती के चार करोड़ पर रेड करवाकर मुझे बहुत नुकसान पहुंचाया है।"

"मैंने अपना फर्ज निभाया है देवराज चौहान!" वानखेड़े ने स्थिर लहजे में कहा--- “और तेरे को कानून के फंदे में फंसाना भी मेरे फर्ज का एक हिस्सा है।"

एकाएक देवराज चौहान उछला। रिवॉल्वर की नाल पलक झपकते ही उसने उंगलियों में पकड़ी और दस्ता वानखेड़े की कनपटी से जा टकराया। वानखेड़े के होंठों से कराह-सी निकली और उसने दोनों हाथों से अपने सिर को थाम लिया।

सुधीर चौंका। इससे पहले कि वह कुछ कर पाता--- रिवॉल्वर का दस्ता उसकी कनपटी पर पड़ा। उसके होठों से चीख उबल पड़ी। वानखेड़े के साथ-साथ वह भी जमीन पर लुढ़क कर बेहोश हो गया। देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब में डाली और दोनों को बांह से घसीट कर किनारे पर किया और पलट कर कार में बैठा और कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी। उसके चेहरे पर दुनिया भर की चिन्ता भरी पड़ी थी। मस्तिष्क में सिर्फ एक ही बात रह-रहकर आ रही थी कि राजाराम को फार्म के बारे में कैसे पता चल गया कि उसने वैन रॉबरी की दौलत वहां पर छिपा रखी है? उसी को हासिल करने आया होगा वह।

■■■

राजाराम सिगरेट सुलगाकर कॉटेज के बाहर टहल रहा था। भीमराव सब काम ठीक से संभाल रहा था।

“क्या रहा....?" उसके पास पहुंचते ही राजाराम ने उससे पूछा ।

“सब कुछ ठीक-ठाक निपट गया।" भीमराव बोला--- "कॉटेज में जगमोहन, डालचंद और वैन का एक गार्ड भी मौजूद था। उन्हें कमरे में बंद कर दिया गया। वैन का गार्ड पहले से ही कुर्सी पर बंधा हुआ था। उसे बंधा ही रहने दिया है। उसकी बीबी और बच्चे एक कमरे में थे। उस कमरे को बाहर से बन्द कर दिया गया है। दोनों कमरे के बाहर हमारे दो-दो आदमी हथियारों सहित पहरा दे रहे हैं। "

“हूं!” राजाराम ने सिर हिलाया।

"आप उस मोटे नटियाल को तो जानते ही होंगे, जो अब बार चला रहा है।"

“हां।” राजाराम ने आंखें सिकोड़कर भीमराव को देखा--- "क्या बात है?"

"वह कॉटेज के भीतर मरा पड़ा है।"

“यानी कि वह भी इस मामले में देवराज चौहान के साथ था---।"

"जाहिर है।"

“और देवराज चौहान ?”

"वह फार्म पर नहीं है।"

"खूबचन्द कहां है?”

"वह कॉटेज के दूसरी तरफ बैठा है।"

"हूं। वैन के पास दो-तीन आदमियों का पहरा बिठा दो। मैं जगमोहन से बात करता हूं कि देवराज चौहान कहां है....।"

तभी हल्का-सा शोर उनके कानों में पड़ा। राजाराम की आंखें सिकुड़ गईं।

"देखना तो---।"

भीमराव फौरन कॉटेज की बगल से होता हुआ दूसरी तरफ भागता चला गया।

कुछ ही देर पश्चात भीमराव वापस लौटा। उसके साथ पांच आदमी थे, जिनके हाथों में थमें हथियार देवराज चौहान के बदन को छू रहे थे।

देवराज चौहान को देखते ही राजाराम के होंठ मुस्कुराहट के रूप में फैलते चले गये।

"देवराज चौहान है। अभी-अभी फार्म पर आया है।" भीमराव ने कहा।

"हैल्लो देवराज चौहान! पहचाना मुझे?” राजाराम हंसा।

“पहचाना तो नहीं अलबत्ता मेरा ख्याल है कि तुम राजाराम हो।"

“ठीक कहा।" राजाराम ने इशारे से अपने आदमियों को जाने के लिए कहा। जब वह चले गये तो भीमराव से बोला--- "इसकी तलाशी लो।”

तलाशी में भीमराव ने देवराज चौहान की जेब से रिवॉल्वर बरामद करके अपनी जेब में डाल ली।

देवराज चौहान ने राजाराम को घूरते हुए सिगरेट सुलगाकर कश लिया।

“देवराज चौहान, यह फार्म अब मेरे कब्जे में है....।" राजाराम बोला।

“देख चुका हूं।”

“यहां पर अब वही होगा जो मैं चाहूंगा।"

देवराज चौहान ने कोई जवाब नहीं दिया। इस समय उसके दिमाग में तो पुलिस ही घूम रही थी, जिसने कुछ ही देर में इस सारी जगह को घेर लेना था।

“यह वैन बंद क्यों है?" राजाराम ने बैंक वैन की ओर इशारा किया।

“उसमें साढ़े पांच करोड़ रुपया कैश पड़ा है। साथ में एक गार्ड भीतर पड़ा है। उसी ने भीतर से दरवाजा बंद कर रखा है। लेकिन तुम यहां घेरा डालकर क्या करना चाहते हो?"

"मैं।" राजाराम हंसा--- "मैं यहां मौजूद सारी दौलत को अपना बनाना चाहता हूं।"

"यह नहीं हो सकता! जो मेहनत हमने की, उसका फल तुम कैसे खा सकते हो?"

"देख लो, फल तुम्हारे सामने खाऊंगा--- और तुम कुछ न कर सकोगे।"

"सोच लेना, मेरी बात न मानने का मतलब है खुद को गोलियों से भुनवाना ।"

देवराज चौहान ने इस तरह होंठ भींचे जैसे बहुत मजबूर हो गया हो।

“आज की डकैती की रकम कहां है?"

“भाड़ में गई!” देवराज चौहान दिखावे के तौर पर झल्लाहट का प्रदर्शन कर रहा था।

"क्या मतलब?"

देवराज चौहान ने उसे बताया कि उसने पैसा दूसरे ठिकाने पर रखा था लेकिन किस प्रकार इंस्पेक्टर वानखेड़े ने वहां रेड करके सारी दौलत जब्त कर ली।

“सच कह रहा है?” राजाराम की आवाज में संदेह भर आया।

“मुझे क्या पड़ी है झूठ बोलने की---।"

“भीमराव! खूबचन्द को बुला ला---।"

भीमराव वहां से चला गया।

"जगमोहन कहां है?"

"कॉटेज में बंद है।"

कुछ ही देर में भीमराव, खूबचन्द के साथ आया। देवराज चौहान को देखते ही खूबचंद सकपका उठा। उसके चेहरे पर सफेदी की परत छाती चली गई।

“तूने तो कहा था कि यहां पर साढ़े नौ करोड़ रुपया मौजूद है?"

खूबचंद ने थूक निगलते हुए सहमतिपूर्ण ढंग से सिर हिलाया।

"लेकिन देवराज चौहान तो कहता है कि वह आज की डकैती का पैसा यहां पर लाया ही नहीं। चार करोड़ को इसने अपने ठिकाने में रखा था।"

"हो सकता है। खूबचंद ने फक्क हालत में कहा--- " क्योंकि आज जब ये लोग बैंक डकैती कर के भागे तो इनके पीछे जाने के लिए मेरे पास कोई गाड़ी नहीं थी। तब मैंने यही सोचा था कि कल की तरह आज भी यह लोग पैसा लेकर फार्म पर ही आये होगे।"

“यानी कि तूने आपनी आखों से नहीं देखा कि---।"

खूबचंद ने इन्कार में सिर हिलाया।

"उल्लू का पट्ठा!" राजाराम ने दाँत भींचकर जोरदार चांटा खूबचंद के गाल पर दे मारा--- "अब करोड़ नहीं सिर्फ लाख तुझे मिलेगा। लेना है तो ले--- नहीं तो दफा हो जा यहां से।"

खूबचंद गाल पर हाथ रखे बच्चों की तरह वहीं पर खड़ा रहा।

राजाराम ने देवराज चौहान पर निगाह मारी।

"और! तू कान खोलकर मेरी बात सुन!" राजाराम ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "यहां पर हर तरफ मेरा ही कब्जा है। यहाँ मेरी चलेगी। तेरी हैसियत समाप्त। अब सवाल है कि तेरा क्या करूं? अगर तू वैन में पड़ी हुई दौलत के लिए जिद करता है तो मजबूरन मुझे तेरा इन्तजाम करना पड़ेगा। बोल-- तू क्या चाहता है?"

देवराज चौहान कुछ न बोला।

"चुप रहने से काम नहीं चलेगा" राजाराम के लहजे में गुर्राहट भर आई--- "वैन में मौजूद साढ़े पांच करोड़ को मैं लूंगा। अगर तुझे जरूरत है तो बता तेरा सीना मैं अभी छलनी कर दूं। सच पूछ तो मैं तुझे कुछ नहीं कहना चाहता क्योंकि तू बहुत हिम्मती इन्सान है। भविष्य में अगर कभी कोई मौका मिला तो तुझे साथ मिलाकर कोई बड़ा काम करूंगा।"

देवराज चौहान ने सिर हिलाकर कहा।

"तेरा मतलब है तू वैन की दौलत ले ले और मैं यहां से खामोशी से चला जाऊं?"

"हां। बिल्कुल यही मतलब है मेरा।"

देवराज चौहान ने पुनः चुप्पी साध ली।

"चुप मत रह, बोल। फालतू का वक्त नहीं है मेरे पास!"

देवराज चौहान अपने चेहरे पर ऐसे भाव ले आया जैसे वह बहुत ही मजबूर हो गया हो।

"यानी इस वैन में मौजूद सारा पैसा यानी साढ़े पांच करोड़ तुम लोगे"

"हां।"

"राजाराम, इस समय तुम यहां के वक्त के मालिक हो--- बाजी तुम्हारे हाथ है। मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता।"

“वाह! तुम हिम्मत वाले होने के साथ-साथ समझदार भी हो।"

"अब क्या चाहते हो तुम?"

"मैं चाहता हूं कि तुम फार्म से इतनी दूर चले जाओ कि दोबारा इधर आ ही न सको। मेरी बात मानने में ही तुम्हारी भलाई है।"

“धमकी मत दो राजाराम। प्यार मोहब्बत से मसला सुलझ रहा है तो सुलझ जाने दो।"

“तो जा रहे हो?"

"हां! लेकिन मेरी भी कुछ बातें तुम्हें माननी पड़ेगी राजाराम!"

“क्या?” राजाराम ने देवराज चौहान को संशय से देखा।

"जगमोहन, डालचंद, वैन के गार्ड सीताराम, उसकी बीवी-बच्चे और डालचंद की मां-बहन, जो तुम्हारी कैद में हैं, सबको छोड़ना पड़ेगा।"

"बदले में तू फार्म की तरफ नहीं देखेगा। साढ़े पांच करोड़ को भूल जायेगा।"

"हां---जिसकी लाठी उसकी भैंस। इस खेल में तुम आखिर में आए और जीत गये। एक शर्त और भी है---।"

"बोल--- वह भी बोल!"

"मेरे पास सुबह की बैंक डकैती का कुछ लाख रुपया है जो कि रेड के समय वहां से भागते हुए डालचंद अपने साथ ले आया था। उस रुपये को तुम हमें ले जाने दोगे।"

"कितना है?"

"इकत्तीस लाख।"

"ठीक है।"

"तो फिर अपने आदमियों से कहो कि--- भीतर जाकर सबको ले आए। और हमारे साथ चलकर डालचंद की मां-बहन को हमारे हवाले कर दे।"

"कॉटेज में मौजूद सबको तो तू ले जा--- डालचंद की मां-बहन तो सुबह ही मिलेंगी।

"राजाराम! हमारे पास वक्त बहुत कम है। हम जल्द से जल्द यह शहर छोड़ देना चाहते हैं। मैं चाहता हूं जब सुबह हो तो मैं बहुत दूर होऊं। कहीं ऐसा न हो कि दौलत तो हाथ में आई नहीं,  ऊपर से फांसी का फंदा गले में आ पड़े। समझदारी इसी में है। कि हममें सारा काम दोस्ती से तय हो। ताकि भविष्य में भी हम दोस्तों की तरह एक-दूसरे के काम आ सकें। अगर तुम्हारी दुश्मनी पैदा हो गई तो दोनों को ही नुकसान होगा।"

"ठीक कहता है तू ।" राजाराम ने भीमराव को देखा--- "भीमराव, कॉटेज से सबको बाहर निकाल ला-- और इनके साथ अड्डे पर जाकर डालचंद की मां-बहन को इनके हवाले कर दे। ताकि सुबह होने तक यह लोग शहर से दूर हो सकें।"

देवराज चौहान के होठों पर जहरीली मुस्कान उभरी और लुप्त हो गई।

“तूने तो---।” राजाराम ने देवराज चौहान से कहा--- "बहुत-सी डकैतियां डाली हैं। करोड़ों की डकैतियां। तेरे पास तो करोड़ों रुपया होगा। इसलिए तुझे वैन में पड़ी दौलत की परवाह नहीं होनी चाहिए---।"

देवराज चौहान अजीब अन्दाज में मुस्कुराया ।

“तभी तो आसानी से सारी दौलत तेरे हवाले करके जा रहा। हूं---।"

देवराज चौहान जल्दी से जल्दी यहां से निकल जाना चाहता था--- और राजाराम जल्दी से जल्दी उन्हें वहां से दफा कर देना चाहता था। ताकि बाद में वैन खुलवाकर साढ़े पांच करोड़ को अपने कब्जे में कर सके।

राजाराम ने भीमराव को आदेश दिया कि सबके साथ वह यहां से जाये और अड्डे पर पहुंचकर डालचंद की मां-बहन को इनके हवाले करके, वापस फार्म पर आ जाए। सब वहां से रवाना हो गये।

देवराज चौहान ने अपनी कार इस्तेमाल की और ड्राइविंग की डालचंद ने। फार्म के गेट से बाहर निकलकर देवराज चौहान बोला--

“डालचंद, जो रास्ता हम हस्तेमाल करते रहे हैं, हमें उस रास्ते से नहीं जाना है। दूसरे रास्ते से हमें निकलना है।”

“दूसरा रास्ता भी काफी खराब है।"

“तुम्हें जो कहा, वही करो।"

पिछली सीट पर जगमोहन नोटों की गड्डियों वाली गठरी को टांगों पर संभाले ऐसे बैठा था जैसे मां ने अपने बच्चे को संभाल रखा हो।

“दूसरे रास्ते से क्यों जा रहे हो?” भीमराव ने पूछा।

“यूं ही, कोई खास वजह नहीं।" देवराज चौहान ने लापरवाही से कहा।

■■■

सीताराम, उसकी पत्नी लाजवंती और उसके बच्चे को शहरी सीमा शुरू होते ही उतार दिया गया था।

उसके बाद उनकी कार राजाराम के अड्डे के बाहर रुकी।

“तुम जाकर डालचंद की मां-बहन को ले आओ....।" देवराज चौहान ने भीमराव से कहा--- "हम यहीं पर रहेंगे। अड्डे के भीतर हमारी कोई जरूरत तो है नहीं।”

भीमराव तेजी से भीतर की तरफ बढ़ गया।

डालचंद का चेहरा खुशी से भर उठा कि राजाराम की कैद से उसकी मां-बहन को छुटकारा मिल रहा है। तभी जगमोहन ने अपने माथे पर बल डालकर देवराज चौहान से पूछा---

“यह सब क्या हो रहा है? मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा---।"

देवराज चौहान के होठों पर कटुता भरी मुस्कान उभरी।

“जगमोहन, बाजी हमारे हाथ से निकल चुकी है....। समझो यही इकत्तीस लाख रुपया ही सारे मामले में हमारे हाथ लगा। बाकी कुछ नहीं।"

“मेरे ख्याल से तो तुमने राजाराम के सामने जरा भी आनाकानी नहीं कि---।"

"ठीक समझे तुम। मैं खुद भी फार्म से तुम लोगों के साथ जल्दी से जल्दी निकल जाना चाहता था-- क्योंकि कुछ ही देर में पुलिस फार्म को घेर लेगी। यह बात राजाराम को नहीं मालूम।"

“पुलिस---।" जगमोहन के साथ-साथ डालचंद भी चौंका।

देवराज चौहान ने इंस्पेक्टर वानखेड़े और सुधीर के बारे में बताकर कहा---

“अच्छा हुआ जो उन लोगों के साथ मेरा टकराव हो गया। वरना हमने सीधे जेल में पहुंचना था। तब मुझे न मालूम होता कि फार्म को पुलिस घेरने वाली है।”

"और इसी कारण तुम सब कुछ राजाराम को सौंपकर फौरन दूसरे रास्ते से खिसक आये---।"

"हां! अगर पहले वाले रास्ते से फार्म से निकलते तो वहां हमें पुलिस भी मिल सकती थी या फिर हो सकता था कि वानखेड़े और सुधीर को होश आ गया होता और उनसे पुनः टकराव होता। इसलिए मैंने दूसरे रास्ते से निकलने में ही भलाई समझी।"

जगमोहन के होठों से गहरी सांस निकल गई।

डालचन्द ने मन-ही-मन में भगवान का लाख-लाख शुक्र अदा किया कि वह पुलिस के हाथों से बच निकला।"

तभी भीमराव, डालचंद की मां-बहन को लेकर आता दिखाई दिया। मां-बहन को देखकर डालचंद का दिल खुशी से उछलने लगा। उसका मन किया कि कार से उतर कर मां से जा लिपटे । परन्तु देवराज चौहान ने उसका घुटना दबाकर उसे बैठे रहने का इशारा कर दिया।

“यह लो देवराज चौहान---।" पास आकर भीमराव ने कहा--- “राजाराम ने अपना वायदा पूरा कर दिया।"

“शुक्रिया।” देवराज चौहान ने शांत भाव में सिर हिलाया। उसके बाद डालचंद की मां-बहन को कार में बिठाया गया।

“एक बात तो बताओ भीमराव।" देवराज चौहान ने कहा।

भीमराव ने प्रश्न भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

“नीना पाटेकर दिन में यहां आई थी, डालचंद की मां-बहन को लेने।"

“आई थी!” भीमराव ने गहरी सांस लेकर सिर हिलाया।

“वह कहां है?”

“राजाराम ने उसे शूट कर दिया।"

भीमराव के शब्द सुनकर डालचंद का मन भारी हो गया। उसकी मां-बहन को छुड़ाने के चक्कर में पाटेकर ने अपनी जान गंवा दी थी।

देवराज चौहान के चेहरे पर दुख के भाव उभरे।

डालचंद की मां-बहन खामोशी से बैठे सारा माजरा समझने की कोशिश कर रही थीं। वह डालचंद से कई बातें पूछना चाहती थीं, परन्तु उन्हें कोई मौका ही नहीं मिल पा रहा था।

“तुम लोगों को कैद में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?" डालचंद ने अपनी मां-बहन से पूछा।

दोनों ने इन्कार में सिर हिलाया।

“भीमराव !” देवराज चौहान बोला--- “अब तू अपने काम की बात सुन ! तू यहां से सीधा फार्म पर ही जायेगा न?"

"हां।"

"अब वहां मत जाना। आराम से भीतर जाकर बैठ जा। राजाराम अब वापिस नहीं आने वाला, क्योंकि अब वह सारी जगह पुलिस ने घेर ली होगी या फिर घेरी जाने वाली होगी। यही कारण था कि मैं सब कुछ राजाराम के हवाले करके जल्दी से वहां से खिसक आया।" कहने के साथ ही देवराज ने डालचंद को इशारा किया।

अगले ही पल डालचन्द ने तुफानी रफ्तार से कार को दौड़ा दिया।

"अब किस तरफ जाना है? शहर से बाहर?" जगमोहन ने पूछा।

"नहीं....यहां से सीधा डालचन्द के घर पर। राजाराम और वानखेड़े इस समय बेहद व्यस्त होंगे। इस वक्त डालचंद के घर पर कोई नहीं आयेगा।" देवराज चौहान ने जवाब दिया।

"वहां-वहां जाकर क्या करना है?"

"इकत्तीस लाख में से तीसरा हिस्सा डालचंद को देना है। दो हिस्से हम दोनों के।"

जगमोहन मुंह बनाकर रह गया।

■■■

दस लाख! तैंतीस हजार तीन सौ रुपये डालचंद को अलग से दिये गये। जगमोहन होता तो सीधे-सीधे दस लेकर ही बंटवारा कर देता। परन्तु देवराज चौहान ने बराबर का हिस्सा किया था। डालचंद ने घर में मौजूद बड़ा-सा सूटकेट खाली किया और सारा माल उसमें भर लिया। जगमोहन ने भी अन्य सूटकेस खाली करके बाकी का बीस लाख उसमें भर लिया। सारा मामला ठीक-ठाक निपट गया।

डालचंद को मन ही मन तसल्ली थी कि अब वह कमला की शादी अच्छे ढंग से बढ़िया सा लड़का तलाश करके कर सकेगा। और बाकी बचे पैसे से अच्छा-सा काम करके शांति और चैन से भरी जिन्दगी जी सकेगा। मन ही मन उसने कसम खा ली थी चाहे कुछ भी हो जाये, अब वह किसी भी बुरे काम में हाथ नहीं डालेगा।

ढेर सारी दौलत देखकर मां के माथे पर बल पड़ गये, वह समझ गई थी कि वह बदमाश लोग ठीक ही कह रहे थे कि डालचंद ने बुरा काम किया है। तभी इतनी दौलत उसे मिली। इस समय खामोशी ही बनाये रखी। वह अकेले में डालचंद से इस बारे में बात करना चाहता थी। डालचंद का गलत ढंग से दौलत कमाना उसे जरा भी अच्छा नहीं लगा था।

सब काम समाप्त होते ही देवराज चौहान बोला---

"डालचंद तुम्हारे पास अगले दो घण्टों का वक्त है उसके बाद पुलिस ने जोर-शोर के साथ हम सब की तलाश शुरू कर देनी है। कार हमारे पास है और हम अब शहर से बाहर निकलने जा रहे हैं। अगर तुम चाहो तो हमारे साथ चलो हम दूसरे शहर में तुम्हें उतार देंगे। वहां से अपनी मां और बहन के साथ कहीं भी तुम चले जाना।"

डालचंद अच्छी तरह से समझ रहा था कि इस शहर में उसका गुजारा नहीं। यहां रहा तो सिर्फ जेल की सलाखें ही नसीब में आयेंगी। कहीं दूर....दूसरे शहर में जाकर ही बचा जा सकता है। नई जिन्दगी शुरू की जा सकती है।

डालचंद ने फौरन उनके साथ चलने की सहमति दे दी। उसकी मां-बहन इस मामले में बिल्कुल खामोश रहीं, वह भी मामला समझ रही थीं और बातों में दखल देना उन्होंने उचित नहीं समझा था। इतना तो वह जान ही चुकी थीं कि डालचंद ने कोई बड़ा गलत काम कर डाला है।

कुछ ही पलों में उनकी कार शहर की सीमा की ओर तूफानी गति से दौड़ी जा रही थी। कार को डालचंद ही ड्राइव कर रहा था। कभी-कभार उसे नीना पाटेकर का भी ख्याल आ जाता कि अगर वह जिंदा होती तो इस समय उसके साथ ही होना था उसने।

■■■

कार कई शहरों को पार कर गई थी। रात भर जगे होने के कारण सबकी आंखें लाल हो रही थीं। इसके बावजूद भी उन्हें तसल्ली थी कि वह लोग पुलिस के खतरे से, और वानखेड़े की पहुंच से दूर जा चुके हैं। भोर के उजाले के साथ ही जब वह एक शहर के बीचों-बीच पहुंचे तो देवराज चौहान ने डालचंद को कार रोक देने के लिए कहा।

डालचन्द ने साइड में कार रोक दी।

“अब तुम अपनी मां-बहन के साथ यहीं उतर जाओ डालचंद!" देवराज चौहान बोला--- “हम बहुत दूर आ चुके हैं। तुम यहां से देश के किसी भी हिस्से में जाकर रह सकते हो। जहां भी जाओ, अगर पुलिस निगाहों में नहीं चढ़ना चाहते हो तो कम से कम खर्च करना। जो कुछ भी करना, बहुत धीरे-धीरे करना। समझ गए ना?"

डालचंद ने सिर हिलाया और दौलत से भरे सूटकेस के साथ कार से नीचे उतर गया। डालचंद की मां-बहन भी कार से नीचे उतर गईं। देवराज चौहान ने ड्राईविंग सीट संभाली और मुस्कुराकर, सड़क पर खड़े डालचंद को देखा। वह अच्छी तरह समझ रहे थे कि वह उनकी जिन्दगी की आखिरी मुलाकात है। और फिर अगले ही पल देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी।

डालचंद सड़क पर अपनी मां-बहन के साथ खड़ा तब तक कार को देखता रहा जब तक कि वह नजर आती रही। तभी मां का गुस्से से भरा स्वर उसके कानों से टकराया तो गहरी सांस लेकर रह गया।

"क्यों रे! क्या कर डाला तूने? इतना पैसा तूने कहां से चोरी किया? सच बता नहीं तो मार-मार कर मैं तेरी खाल उधेड़ दूंगी।"

■■■

रास्ते में जगमोहन ने हॉकर से अखबार खरीदा तो उसके फ्रण्ट पेज पर ही राजाराम की गिरफ्तारी की खबर थी। खबर में बताया गया था कि छः आदमियों के साथ उसे जिन्दा गिरफ्तार किया गया है। अन्य सब पुलिस का मुकाबला करते-करते अपनी जान गंवा बैठे। बैंक वैन रॉबरी और बैंक डकैती के पूरे ब्यौरे के साथ अखबार में देवराज चौहान, जगमोहन, डालचंद, उस्मान अली, नीना पाटेकर, मंगल पांडे और नटियाल वगैरह का भी खुलासा जिक्र था। देवराज चौहान, जगमोहन या डालचंद को पकड़वाने वाले को एक लाख रुपये की घोषणा की गई थी।

जगमोहन ने गहरी सांस लेकर अखबार को देवराज चौहान की तरफ बढ़ा दिया, जो कि तेजी से कार ड्राईव कर रहा था और पिछली सीट पर पड़े सूटकेस पर निगाह मारी, जिसमें करीब बीस लाख रुपये कैश मौजूद था। जो भी हो, अब उसे इतने में ही तसल्ली करनी थी। यह नहीं देखना था कि हाथ से क्या निकला। सिर्फ यही देखना था कि हाथ में क्या आया है!

समाप्त