भीड़ से खचाखच भरे अदालत कक्ष में कठघरे की तरफ उंगली उठाए सरकारी वकील मिस्टर शांडिल्य अपनी पूरी ताकत से चीखा—“कठघरे में खड़ा ललित जाखड़ नाम का यह शख्स इतना खतरनाक मुजरिम है युअर ऑनर, जितना खतरनाक मुजरिम आज से पहले इस अदालत में कभी नहीं आया होगा—जुर्म करने से पहले यह शख्स अपने चारों तरफ ऐसे हालात क्रिएट कर लेता है कि भारतीय दंड विधान को किसी धारा के तहत इसके कृत्य को जुर्म साबित ही न किया जा सके—बल्कि अगर यह कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा युअर ऑनर कि यह शख्स कानून के द्वारा जुर्म करता है।”

“कानून अमीर के लिए अलग है युअर ऑनर, गरीब के लिए अलग। उसका सम्मान कैसे किया जा सकता है?” दोनों हाथ कठघरे की रेलिंग पेर टिकाए ललित कहता चला गया—“मैं ऐसे कानून को नहीं मानता। कानून तो वह होता है सर, जो सबके लिए बराबर हो—अमीर-गरीब में भेदभाव न करता हो।”
“हमारा कानून अमीर-गरीब, सबके लिए समान है।”
“कानून का यह दावा झूठा है युअर ऑनर।”
न्यायाधीश ने अपना चश्मा दुरुस्त करते हुए कठघरे में खड़े युवक से कहा—“तुम अदालत और कानून का अपमान कर रहे हो।”
“मैं तर्क देकर यह बात साबित कर सकता हूं सर! कानून के बड़े-बड़े पंडित बैठे हैं यहां—अगर वे मेरे तर्क को तर्क से काट दें, साबित कर दें कि गलत कह रहा हूं तो मैं अदालत और कानून का अपमान करने की सजा काटने के लिए तैयार हूं—मैं जो कर सकता हूं कि एक ही जुर्म जब पैसे वाला करता है तो सजा कुछ और होती है, गरीब करता है तो कुछ और।”
“ऐसा नहीं है।”
“क्या मैं पूछ सकता हूं कि ट्रेन में बिना टिकट सफर करने की क्या सजा है?”
“छ: महीने की कैद या पांच सौ रुपये जुर्माना।”
ललित ने अत्यंत जहरीली मुस्कराहट के साथ कहा—“यानी जिसकी जेब में पांच सौ रुपये हैं, उसे कानून घर जाने देता है, जिसकी जेब में नहीं हैं, उसकी जिन्दगी के छ: महीने जेल में सड़ा देता है, जबकि जिसकी जेब में पांच सौ रुपये हैं, उसका बगैर टिकट सफर करना जानबूझकर कानून तोड़ना है, जिसके पास पैसे हैं ही नहीं, उस बेचारे की मजबूरी—मजबूर को जेल मिलती है, जेब में रुपये डालकर कानून का मजाक उड़ाने वाले को पांच सौ रुपये देकर छोड़ दिया जाता है—फिर भी आप कहते हैं कि कानून अमीर-गरीब नहीं देखता—इसके लिए सब समान हैं—अगर कानून सबके लिए समान है तो पांच सौ रुपये का मोहताज क्यों? क्यों नहीं यह कानून बनाया जाता कि बगैर टिकट सफर करने वाले को हर हालत में तीन महीने की सजा काटनी ही पड़ेगी?”
“मुजरिम बेसिर-पैर के पेचीदा सवालों में उलझाकर अदालत का कीमती वक्त जाया कर रहा है मी लॉर्ड।” मिस्टर शांडिल्य ने हस्तक्षेप किया—“मुजरिम ने एलoएलoबीo पास नहीं की है, न ही एडवोकेट होने की डिग्री इसके पास है, मगर फिर भी कचहरी परिसर में एक कमरा किराए पर लेकर बैठा रहता है—कमरे के बाहर जो बोर्ड इसने लगा रखा है, उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है, ‘कानून का पंडित’—नीचे अपेक्षाकृत छोटे अक्षरों में लिखा है— यहां से प्रत्येक केस के संदर्भ में आप कारगर कानूनी सलाह ले सकते हैं”—मजे की बात तो यह है सर कि हमारी कचहरी के कई जाने-माने वकील छुप-छुपकर इसके कमरे में जाते और कानूनी सलाह लेते देखे गए हैं।”
ललित ने व्यंग्यात्मक मुस्कराहट के साथ कहा—“क्या विद्वान वकील बताएंगे कि लोगों को कानूनी सलाह देना किस धारा के तहत जुर्म है?”
“यही तो मैं कहना चाहता हूं सर कि यह आदमी बेहद खतरनाक है, क्योंकि सीधे कानून की धाराओं के साथ खिलवाड़ करता है—खुद को कानून का पंडित कहता है यह—ऐसा रास्ता निकालकर जुर्म करता है कि कानून की  किसी भी धारा के तहत वह जुर्म साबित न हो सके।”
न्यायाधीश महोदय ने पूछा—“क्या आप इसके किसी जुर्म का हवाला दे सकते हैं मिस्टर शांडिल्य?”
“जी हां, मैं इसके एक ऐसे जुर्म का हवाला दे सकता हूं जिसके बारे में पूरा घटनाक्रम सुनने के बावजूद यह अदालत नहीं जान पाएगी कि इसने कहां और क्या जुर्म किया है, मगर जब रहस्य खुलेगा तो सब दंग रह जाएंगे।”
“हम उस घटनाक्रम को सुनना चाहेंगे!”
शांडिल्य ने कानून के पंडित को घूरा—गला ऐसे अंदाज में खंखारा, जैसे लंबे समय तक बोलते रहने के लिए तैयार हो रहा हो और फिर वह सचमुच किसी टेप के समान शुरू ही गया।
¶¶
दिल्ली का पंचशील मार्ग।
करीब डेढ़ हजार गज भूखंड को घेरे जलपोत के-से आकार की दो मंजिली भव्य, विशाल एवं शानदार कोठी के बाहर लगे बहुत बड़े-बड़े और मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था—‘आर्य आश्रम’।
इमारत के चारों ओर संगमरमरी चारदीवारी से घिरे लॉन में मन को बेहद प्रिय लगने वाली शांति छाई हुई थी—देवदार, अशोक और इलायची के लंबे-लंबे वृक्ष समीर के झोंकों के साथ यूं झूम रहे थे, मानो सिर झुका-झुकाकर उस इमारत को प्रणाम कर रहे हों।
बेचारे वृक्षों की बिसात ही क्या थी—आर्य आश्रम की इमारत को देश के बड़े-बड़े उद्योगपति, विधायक, एमoपीo और केंद्रीय मंत्री तक सिर नवाया करते थे—वजह यह थी कि इमारत के मालिक स्वामी सदानंद आर्य के सीधे संबंध पीoएमo हाउस से थे।
एक अत्यंत विशाल हॉल। उसे प्रतीक्षागृह बोला जाता था और प्रतीक्षागृह की चारों दीवारों के सहारे कीमती सोफे रखे थे।
स्वामीजी के शिष्य मिलने आने वालों को पानी आदि पिलाने का कार्य बड़ी शालीनता और सम्मानपूर्वक करते थे—हॉल में एक दरवाजा था—उस दरवाजे के अंदर स्वामी सदानंद आर्य बैठा करते थे।
इस वक्त प्रतीक्षालय में एक केद्रीय मंत्री, तीन राज्यमंत्री, दो विधायक और एक उद्योगपति के अलावा साधारण जनता के करीब बीस व्यक्ति मौजूद थे—किसी को स्वामीजी से मिलाने में शिष्य भेद-भाव नहीं करते थे। सभी को नंबर से अंदर भेजा जाता था। एक पंक्ति में बैठे पांच सीधे-सादे एवं भोले-भाले ग्रामीणों का जब नंबर आया तो एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक उनसे अंदर जाने का अनुरोध किया।
पांचों साथ थे, सो साथ ही अंदर पहुंचे।
दरवाजे के भीतर कदम रखते ही एक दुर्लभ खुशबू ने उनके नथुनों में प्रविष्ट होकर दिलो-दिमाग को आनंदित कर दिया। बाईं दीवार के साथ तीन डनलप के गावतकियों के बीच फर्श पर बिछे गद्दे पर अधलेटी अवस्था में स्वामी सदानंद आर्य मौजूद थे। मुखमंडल और नेत्रों में ऐसा तेज था कि पांच सेकंड से ज्यादा लगातार उनकी तरफ नहीं देखा जा सकता था। चौड़े भाल पर चंदन की बिंदी लगाए वे साक्षात स्वर्ग से उतरे देव-ऋषि मालूम पड़ते थे—अपने ऊंचे, बलिष्ठ एवं तंदुरुस्त जिस्म पर हमेशा की तरह दूध-सा सफेद, बेदाग चोंगा पहने। समीप ही ब्रह्मचारिणी के लिबास में एक खूबसूरत बाला विराजमान थी। ग्रामीणों ने असीम श्रद्धापूर्वक स्वामीजी के चरणस्पर्श किए और उनके सामने करीब दो गज दूर फर्श पर बिछे गद्दे पर बैठ गए।
“आप लोग कहां से आए हैं?” स्वामीजी की वाणी बेहद मधुर थी।
एक ग्रामीण ने हाथ जोड़कर कहा—“सुखपुरा गांव से महाराज।"
“ओह, सुखपुरा से—वहां तो पिछले साल हमने प्रवचन किया था।”
“हां महाराज, तभी से सारा गांव आपका अनन्य भक्त हो गया है।”
“खैर!” स्वामीजी ने पूछा—“किसलिए आना हुआ? कोई कष्ट है?”
“हां, महाराज।”
“बोलो।”
“मेरा एक लड़का है महाराज, उम्र करीब पंद्रह वर्ष, पिछले छ: महीने से उसकी टांगों को लकवा मार गया, चल-फिर नहीं सकता—मेरा एक ही लड़का है महाराज, मैं उससे बहुत स्नेह रखता हूं—आपके पैर पकड़कर प्रार्थना करता हूं कि उसे ठीक कर दीजिए।"
हल्के से चौंकते हुए स्वामीजी ने कहा—“हम भला लकवा कैसे ठीक कर सकते हैं?”
“आप अपने पवित्र कर-कमलों से उसकी टांगों को छू भर दीजिए महाराज; मेरे बेटे का लकवा ठीक हो जाएगा।”
ग्रामीण की बात सुनने के बाद कुछ देर तक तो स्वामीजी उसे देखते रहे, फिर ब्रह्मचारिणी की ओर देखा—दोनों के चेहरों पर ऐसे भाव थे, जैसे ग्रामीण की अक्ल पर तरस खा रहे हों। ग्रामीण ने पुन: अनुरोध दोहराया तो स्वामीजी ने पूछा—“क्या नाम है तुम्हारा?”
चेहरे पर दुख-दर्द के असंख्य चिह्न लिए ग्रमीण ने बताया—“रामशरण, महाराज।”
“क्या सुखपुरा में तुमने हमारा प्रवचन सुना था?”
“हां, महाराज।”
“क्या हमने कोई ऐसा दावा किया था कि हाथ लगाते ही किसी का रोग दूर कर सकते हैं?”
“न...नहीं।”
“फिर तुम यहां कैसे आ गए? यह विचार मन में कैसे आया कि हमारे हाथ लगाने से तुम्हारे बेटे का लकवा ठीक हो जाएगा?”
“म...मुझे विश्वास है महाराज, मुझे ही नहीं, बल्कि सारे गांव को विश्वास है कि यदि आप स्वयं चलकर एक बार उसे छू दें तो...।”
“यह विश्वास नहीं, अंधविश्वास है रामशरण! ऐसा दावा केवल फर्जी स्वामी ही करते हैं। तरह-तरह के चमत्कार भी दिखाते हैं ऐसे फ्रॉड लोग। उन चमत्कारों को देखकर ही तुम जैसे भोले-भाले लोग प्रभावित हो जाते हैं, मगर वे एक बाजीगर से ज्यादा कुछ नहीं होते। यकीन मानो, हमारे या किसी के भी हाथ लगाने से कुछ नहीं होगा। तुम अपने लड़के का इलाज किसी अच्छे डॉक्टर से कराओ। भगवान ने चाहा तो आराम जरूर होगा।”
“हमारे भगवान तो आप ही हैं।” पांचों एकसाथ बोल उठे।
“न...नहीं।” स्वामी सदानंद ने हाथ उठाकर सख्ती के साथ विरोध किया—“हम भगवान नहीं, सिर्फ उसकी स्तुति करने का ढंग बताने वाले स्वामी हैं।”
“ऐसा आप शायद इसलिए कह रहे हैं महाराज, क्योंकि हम ग्रामीण हैं, गरीब हैं—आपको कुछ दे नहीं सकते—यदि हमारी जगह किसी उद्योगपति या मंत्री का सगा-संबन्धी होता तो शायद आप उसे ठीक करने अभी चल पड़ते।”
“ऐ!” ब्रह्मचारिणी गुर्रा उठी, “तुम ऐसा कहकर स्वामीजी का अपमान कर रहे हो। यहां आने से पहले तुम लोगों को मालूम होना चाहिए कि स्वामी सदानंद मनुष्य को सिर्फ मनुष्य मानते हैं—उनमें भेदभाव नहीं करते।”
“मैं बहुत दुखी हूं देवी जी।” रामशरण जैसे रो पड़ने के लिए तैयार था। हाथ जोड़े वह बोला—“अगर मुंह से कोई गलत बात निकल गई हो तो माफ कर दीजिए, हालांकि दिल से मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी।”
बाला ने कुछ कहने के लिए होंठ खोले ही थे कि स्वामीजी ने हाथ उठाकर उसे शांत रहने का संकेत किया। रामशरण के शब्द सुनकर हालांकि नागवारी के चिह्न उनके मुखमंडल पर भी उभरे थे, परंतु शीघ्र ही उन्हें दबाकर विनम्र स्वर में बोले—“क्या तुमने कभी सुना है रामशरण कि हमने किसी रोगी को ठीक किया?”
“हां, महाराज, खूब सुना है—कृषि मंत्री की घरवाली की टीoबीo की बीमारी आपने उसके सिर पर हाथ रखते ही ठीक कर दी थी।”
बुरी तरह चौंकते हुए स्वामी सदानंद ने पूछा—“ऐसा कहां सुना तुमने?”
"एक हमारा ही गांव नहीं महाराज, आसपास के सभी गांवों में लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं।”
स्वामीजी ने अजीब नजरों से रामशरण को देखा, कुछ वैसे ही भाव ब्रह्मचारिणी के कमल-चक्षुओं में भी थे। स्वामी सदानंद ने पुन: समझाने वाले ढंग से कहा—“तुमने गलत सुना है रामशरण, हमने कभी किसी का इलाज नहीं किया—दरअसल हम कोई भगवान नहीं हैं जो किसी को छूने से...।”
“ए…एक बार—बस, एक बार मेरे बेटे को छू दीजिए महाराज।” वह स्वामी सदानंद की बात पूरी होने से पहले ही गिड़गिड़ा उठा— मैं गरीब सही; मगर अपने बेटे के लिए सबकुछ दे सकता हूं। मैं आपको यकीन दिलाता हूं महाराज, मंत्रीजी ने जो कुछ आपको दिया होगा, गरीब होने के बावजूद उससे ज्यादा ही दूंगा। बस, एक बार हमारे साथ गांव चलकर मेरे बेटे को देख भर लीजिए।"
स्वामी सदानंद उन पांचों भोले-भाले ग्रामीणों को देखते रह गए। दरअसल उनकी समझ में न आ रहा था कि उनका भ्रम किस तरह दूर करें। जाने क्या सोचकर उन्होंने कहा—“अच्छा, ठीक है, प्रतीक्षालय में बैठे लोगों से मिलने के बाद हम तुम्हारे साथ चलेंगे।”
¶¶
“बात कुछ समझ में नहीं आई स्वामीजी।” ग्रामीणों के बाहर जाते ही खूबसूरत बाला के गुलाब की पंखुड़ियों-से होंठ चटके—“आपने उन बेवकूफों के गांव जाने की बात कैसे और क्यों स्वीकार कर ली?”
“उनका भ्रम दूर करने के लिए।” स्वामी सदानंद आर्य ने ब्रह्मचारिणी के उन नयनों में झांकते हुए कहा जो जुगनुओं की मानिन्द दैदीप्यमान थे—“इन भोले ग्रामीणों को अंधविश्वास के अंधेरे से निकालना बहुत जरूरी है योगिता।”
“ल....लेकिन वहां जाकर आप करेंगे क्या?”
“जो ये ग्रामीण कहेंगे। हमारे किसी को हाथ लगाने से कुछ नहीं होगा, तब स्वयं इनको समझ में यह बात आ जाएगी कि हमारे हाथ लगाने से कुछ नहीं होता है।”
“मुझे बड़ा अजीब-सा लग रहा है स्वामीजी।”
स्वामी सदानंद ने मोहक मुस्कान के साथ कहा—“अगर वे यहां से निराश हो जाते तो निश्चय ही किसी पाखंडी स्वामी के पास जाकर फरियाद करते और वह इन्हें अपने जाल में फंसा लेता—लोगों को ज्ञान देना, अध्यात्मवाद का रास्ता दिखाना और अंधविश्वास के अंधेरे को दूर करना ही तो हमारा लक्ष्य है—यही सब करने हमें उनके गांव जाना होगा।”
¶¶
सुखपुरा गांव। रामशरण के कच्चे मकान के बाहर ग्रामीणों का हुजूम लगा हुआ था—स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, जवान आदि सभी इकट्ठे हो गए थे—कारण एक ही था—यह कि स्वामी सदानंद आर्य आए हैं।
मकान के अंदर। एक दालान के बीचो-बीच चारपाई पर पंद्रह वर्षीय लड़का लेटा था। रामशरण के साथ स्वामीजी और योगिता ने वहां कदम रखा। चारपाई पर लेटे लड़के ने असीम श्रद्धा के साथ दोनों हाथ जोड़े और बोला—“नमस्ते महाराज!"
स्वामीजी ने आशीर्वादस्वरूप अपना हाथ उठाया।
लड़का बेहद मासूम और सुंदर था। रामशरण आगे बढ़ा। उसकी टांगों से खेस हटाकर बोला—“देखिए महाराज, दोनों टांगों पर एकसाथ लकवा मारा है—पिछले छह महीनों से टांगें हिली तक नहीं हैं।”
स्वामी सदानंद आगे बढ़े। परिवार के अन्य लोग चारपाई के चारों ओर खड़े थे। लड़के की सूखी टांगों पर फालिज देखकर उनका ह्रदय द्रवित हो उठा। बोले—“क्या तुम्हारी टांगें बिल्कुल नहीं हिलतीं बेटे?”
“न...नहीं महाराज, मैं बहुत कोशिश करता हूं मगर....।" इतना कहने के बाद उसकी आवाज भर्रा गई। सूरत रोनी-सी बन गई थी।
स्वामी सदानंद चारपाई की  ‘बाही’ पर बैठ गए। उसकी टांगों के फालिज वाले स्थान को स्पर्श करके बोले—“कोशिश करो बेटे।”
वह कोशिश करने लगा। स्वामी सदानंद भूल गए थे कि यहां वे सिर्फ रामशरण और दूसरे ग्रामीणों का भ्रम दूर करने आए हैं। मासूम और प्यारे लड़के की बेबसी ने उनके दिल को इस कदर हिला डाला कि वे ईश्वर से प्रार्थना कर उठे—“हे ईश्वर, इन भोले-भाले लोगों के विश्वास को बनाए रख।”
बार-बार यही बुदबुदाते हुए वे फालिज वाले स्थान को सहलाने लगे और उस वक्त वे इस तरह चौंक पड़े, जैसे बिच्छु ने डक मारा हो, जब उन्होंने लड़के की टांगों में हल्का कंपन महसूस किया। उन्होंने चौंककर लड़के की तरफ देखा।
निचला होंठ दांतों में दबाए वह टांगों को हिलाने को चेष्टा कर रहा था। जाने किस भावना के वशीभूत स्वामी सदानंद उसे उत्साहित करते हुए बोले—“हां-हां—कोशिश करो बेटे। तुम्हें कुछ नहीं हुआ है—तुम टांगे हिला सकते हो।”
लड़के की कोशिश से टांगें हिलने लगीं। योगिता और रामशरण के साथ परिवार के सभी लोग चारपाई के और नज़दीक सिमट आए। सबको आंखों में खुशी के भाव थे —योगिता के नेत्रों में विस्मय। स्वामी सदानंद के उकसाने पर लड़का कोशिश कर रहा था। धीरे-धीरे उसके घुटने मुड़ गए। खुशी और जोश से अभिभूत रामशरण चीख पड़ा—“बोलो स्वामी सदानंदजी की !”
“जय! एकसाथ सभी कह उठे।
“बोलो स्वामी सदानंदजी की।”
“जय!” पुन: सम्वेत् स्वर उभरा।
लड़का जब चारपाई से उठने को कोशिश कर रहा था, स्वामी सदानंद ने हाथ उठाकर उन्हें अपनी ‘जय’ के स्थान पर ‘आरती’ गाने के लिए कहा।
परंतु कोई सुने, तब न। खुशी और जोश के उन्माद में डूबे वे उनकी जय-जयकार करते रहे। योगिता मुंह फाड़े उस लड़के को देख रही थी, जो चारपाई से उतरकर फर्श पर खड़ा चिल्ला रहा था—“म...मैं ठीक हो गया बापू—मैं ठीक हो गया।”
मारे खुशी के सारा परिवार नाच उठा। उन्हीं के बीच लड़का भी नाच रहा था और स्वामी सदानंद योगिता कभी लड़के की तरफ देखते, कभी एक-दूसरे की तरफ।
यह सुनते ही कि लड़का ठीक हो गया, सारा गांव परिवार के सदस्यों की तरह मारे खुशी के मानो पागल हो गया—किसी ने स्वामी सदानंद को कंधे पर उठा लिया—उन्मादी गांव वाले जय-जयकार के नारे लगाने लगे।
स्वामी सदानंद या योगिता की बात कोई सुनने को तैयार नहीं। सारे गांव में उनका जुलूस निकाला गया। एक घंटे बाद उन्हें रामशरण को विशाल दुकड़िया में ले जाया गया। शायद ही गांव का कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो, जिसने स्वामीजी के चरणस्पर्श न किए हों। हर तरफ खुशी, हर्षोल्लास। लोगों का उन्माद थमने पर स्वामी सदानंद ने गांव के मुखिया से कहा—“अब हम चलेंगे मुखिया।”
“न...नहीं महाराज, आज हम आपको नहीं जाने देंगे।” करबद्ध खड़े मुखिया ने पूरी दृढ़ता के साथ अनुरोध किया—“आप साक्षात ईश्वर हैं—और रामशरण के लड़के की बदौलत अगर इस गांव को आपकी सेवा करने का अवसर मिला है तो हम इसे यूं नहीं गंवाएंगे। आज रात आपको हमारा आतिथ्य स्वीकारना ही होगा।”
स्वामी सदानंद ने कहा—“हम जाना चाहेंगे। शहर में हमें बहुत-से काम हैं।”
उनके सवाल पर ध्यान दिए बिना वह घूमा। दुकड़िया के दरवाजे पर पहुंचकर बाहर खड़े गांव वालों के हुजूम से चीखकर पूछा—“स्वामीजी अभी और इसी वक्त शहर जाने के लिए कह रहे हैं भाइयो! आप लोगों की क्या राय है?”
सभी ने चीखकर इन्कार किया।
दरवाजे से पलटकर मुखिया पुन: योगिता और स्वामी सदानंद के नजदीक पहुंचा। असीम श्रद्धा के साथ हाथ जोड़कर बोला—“क्षमा करें स्वामीजी, गांव वाले आज आपको यहां से नहीं जाने देंगे—हमारा आतिथ्य आपको स्वीकार करना ही होगा।”
“प...परंतु...।" स्वामी सदानंद ने भरपूर कोशिश की, मगर असफल रहे। हथियार डालने ही पड़े उन्हें और इसके बाद गांव वालों में उनकी सेवा करने के लिए होड़-सी लग गई। दौड़-दौड़कर वे उनकी सुख-सुविधा का सामान जुटाने लगे।
उनका रवैया ऐसा था है जैसे स्वामी सदानंद सचमुच भगवान ही हों। जबकि थीड़ी-सी तन्हाई मिलते ही योगिता ने पूछा—“यह क्या चमत्कार है स्वामीजी?”
“हम स्वयं हैरान हैं—गांव वालों के विश्वास ने न जाने हमें कौन-सी अलौकिक शक्ति प्रदान कर दी है।
“अलौकिक शक्ति?”
“हां, योगिता।” हैरान स्वामी सदानंद बोले—“हम सच कहते हैं, उस लड़के की टांगों को स्पर्श करते ही हम भूल गए कि यहां सिर्फ इनका भ्रम दूर करने आए हैं, बल्कि हम सच्चे दिल से ईश्वर-स्मरण कर स्तुति करने लगे कि लड़के की टांगें ठीक हो जाएं, गांव वालों का हममें विश्वास बना रहे, मगर...।”
“मगर क्या?” योगिता के नेत्र सिकुड़ गए।
कहीं खोए से स्वामीजी बोले—“क्या ईश्वर ने हमारी प्रार्थना सुन ली?”
“ऐ...ऐसा कैसे हो सकता है स्वामीजी?”
“हो सकता है।” स्वामीजी कह उठे—“हुआ है। क्या तुमने अपनी आंखों से नहीं देखा—सच्चे दिल से की गई प्रार्थना ईश्वर ज़रूर सुनता है। भक्ति से प्रसन्न होकर शायद उसने हमें कोई ऐसी अलौकिक शक्ति बख्श दी है, जिसका इल्म आज से पहले स्वयं हमें भी नहीं था—ऐसा कई बार होता है योगिता। मनुष्य में कुछ ऐसी अज्ञात शक्तियां विद्यमान होती हैं जिनका इल्म आवश्यकता पड़ने से पहले स्वयं मनुष्य को कभी नहीं हो पाता।”
चकित योगिता स्वामी सदानंद को देखती रह गई अभी कुछ कहना ही चाहती थी कि मुखिया एक अन्य ग्रामीण को अपने साथ लिए अंदर दाखिल हुआ। अभी वे कुछ समझ भी न पाए थे कि हाथ जोड़े ग्रामीण स्वामी सदानंद के चरणों में गिरकर कह उठा—“मुझ पर कृपा कीजिए महाराज।”
“क...क्या हुआ?” स्वामीजी बौखला गए।
मुखिया बोला—“इसकी मां की आयु पिचहत्तर वर्ष की है स्वामीजी! दोनों आंखों में मोतियाबिंद उतर आया है—अंधी हो गई है बेचारी! डॉक्टर कहते हैं कि ऑपरेशन के अलावा कोई इलाज नहीं—और ऑपरेशन से इसकी मां बहुत डरती है। इसे विश्वास है कि यदि आप इसकी मां की आंखों को छू दें तो वह ठीक हो जाएगी।”
स्वामी सदानंद का दिल चाहा कि इन्कार कर दें। कहें कि उनके हाथ लगाने से कुछ नहीं होने वाला है—ऐसा कोई चमत्कार करना वे नहीं जानते—उनके पास कोई अलौकिक शक्ति नहीं है—यह ईश्वर की असीम कृपा थी, जिसकी वजह से लड़का ठीक हो गया। परंतु ऐसा कह नहीं सके वे।
स्वयं ही को आजमाने का ख्याल दिमाग में उभरा। सोचा कि क्यों न यह परीक्षण किया जाए—पता तो लगे कि आखिर यह चमत्कार हो कैसे गया?
सो वे उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए।
¶¶
स्वामी सदानंद आर्य के हाथ लगाने के दो मिनट बाद ही पिचहत्तर वर्षीय बुढ़िया खुशी से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी कि उसे सबकुछ धुंधला-धुंधला-सा दिखाई दे रहा है—स्वामीजी उसकी आंखों को सहलाते हुए सच्चे दिल से परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करते रहे। कुछ देर बाद बुढ़िया सबको उसी तरह साफ-साफ देख रही थी; जैसे अन्य लोग उसे देख सकते थे—बुढ़िया उनके चरणों में गिर गई। पुन: स्वामी सदानंद की जय-जयकार से सारा गांव गूंज उठा। एक बार फिर ग्रामीणों पर उन्माद छा गया था।
ग्रामीणों द्वारा दिए गए उपहारों से दुकड़िया भर गई—लोगों ने दिल खोलकर उन्हें आश्रम के लिए धन दिया—महिलाओं ने सोने से बनी नाक-कान की चीजें तक दे दीं।
स्वामी सदानंद इन्कार करते रहे—लेकिन कोई सुने तब न। सारी रात योगिता और स्वामी सदानंद की आंखों में कट गई—वे असमंजस में थे—चमत्कारों पर वार्ता करते रहे, किंतु किसी निश्चय पर न पहुंच सके—दोनों में से किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।
सुबह वे गांव से रवाना होने की तैयारी कर ही रहे थे कि एक अन्य ग्रामीण भागा-भागा उनके पास आया। बुरी तरह कांपते हुए उसने हाथ जोड़े और स्वामी सदानंद के चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा—“मेरी पत्नी को बचा लो भगवन, वह घड़ी-दो-घड़ी की मेहमान है। आप ही बचा सकते हैं उसे।”
"क्या हुआ है?”
"पांच दिन पहले बुखार हुआ था महाराज! रात से हालत बहुत खराब है—उसे उल्टी और दस्त लग गए हैं। उल्टी में खून आने लगा है। डाक्टर जवाब दे चुका है। कहता है कि घंटे-दो-घंटे की मेहमान है।”
“फिर तुम रात ही क्यों नहीं आ गए?”
“म...मैं इस गांव का नहीं हूं यहां से दो मील दूर एक दूसरे गांव का रहने वाला हूं महाराज—आज तड़के ही आपकी ख्याति हमारे गांव तक पहुंची—सुनते ही दौड़ा चला आ रहा हूं। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं महाराज—वे अनाथ हो जाएंगे। मेरी पत्नी को बचा लीजिए।”
"उठो हम चलते हैं।”
स्वामी सदानंद उसके गांव पहुंचे—बीमार महिला के सिर पर हाथ रखते ही उन्हें ऐसा लगा, जैसे गरम तवे पर हाथ रख दिया हो, परंतु अपना हाथ उन्होंने वहां से हटाया नहीं। सच्चे दिल से स्तुति करते रहे। शनै:-शनै: महिला के जिस्म की तपन कम होती चली गई और कुछ देर बाद वह स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त नजर आने लगी।
गांव वाले उन्मादी हो उठे। जय-जयकार करने लगे।
चमत्कृत, विस्मित एवं हैरत में डूबे।
स्वयं स्वामी सदानंद की समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसा चमत्कार है? उनके हाथ लगते की रोगी रोगमुक्त कैसे हो जाता है? अपने अंदर ऐसी किसी शक्ति के स्रोत का अंदाज उन्हें पहले कभी नहीं हुआ था। विस्मित नेत्रों से उन्होंने पुन: एक कार की बगल में खड़ी योगिता की ओर देखा। वह स्वयं जैसे लकवे की मारी थी। बीमार महिला उनके पैरों में पड़ी थी। पति यूं नाच रहा था, जैसे कोई खजाना मिल गया हो।
स्वामी सदानंद चीखना चाहते थे। चीख-चीखकर सारे गांव को बताना चाहते थे कि मैं कोई चमत्कारी या सिद्ध पुरुष नहीं हूं। कोई पीर नहीं हूं। मैं तो स्वयं हैरान हूं। समझ नहीं पा रहा कि कुदरत की यह कैसी लीला है? मेरे हाथ लगाते ही रोग जैसे छूमंतर हो जाता है? मगर कहें तो तब, जब कोई सुनने को तैयार हो।
उन्हें पूरा यकीन था कि कोई भी गांव वाला कुछ नहीं सुनेगा। उनकी इस बात को एक सिद्धपुरुष की नम्रता समझा जाएगा। किसी ने उन्हें अपनी गोद में उठा लिया, किसी ने कंधे पर बैठा लिया। जयघोष गूंज उठे। सारे गांव ने जुलूस की शक्ल ले ली। हर गली से यह जुलूस गुजरा।
अंत में गांव की चौपाल पर उन्हें एक कमरे में बैठा दिया गया।
जुनून थोड़ा थमने पर स्वामी सदानंद ने अपने सामने खड़े ग्रामीण से कहा—“अब हमें चलने दो। आश्रम में सब लोग हमारी प्रतीक्षा करते होंगे।”
“नहीं—अभी आप कैसे जा सकते हैं महाराज—आज आप इस गांव के मेहमान हैं—कल हम लोग खुद आपको आश्रम तक छोड़कर आएंगे।”
“नहीं।” योगिता बोली—“हमें जाना है। आश्रम में बहुत-सा काम है।”
परंतु जनसमूह के आगे कभी किसी की चली है क्या? शाम तक के लिए उन्हें रुकना पड़ा। भोले ग्रामीण उनकी सेवा में इस कदर मशगूल थे, मानो साक्षात ईश्वर की सेवा कर रहे हों। पैर दबाने वालों की लाइन लगी हुई थी।
¶¶
“मेरे बापू को कैंसर है। मुझे स्वामीजी से मिलने दो।” एक युवक चौपाल के दरवाजे पर खड़े ग्रामीण के पैरों में गिर गया—“बड़े-बड़े शहरों में, बड़े-बड़े अस्पतालों में उन्हें दिखा लिया है मैंने। सब डॉक्टर यही बोलते हैं कि वे ठीक नहीं हो सकते। मगर मुझे पूरा विश्वास है कि अगर स्वामीजी हाथ लगा देंगे तो मेरे बापू अवश्य ठीक हो जाएंगे।”
“मगर इस वक्त तुम स्वामीजी से नहीं मिल सकते।”
“क्यों?”
“तुम समझते क्यों नहीं। स्वामीजी अगर कुपित हो गए तो वे गांव से अभी चले जाएंगे—सारा गांव शाम तक उनके सान्निध्य-सुख से वंचित रह जाएगा।”
मगर युवक भला कहां मानने वाला था? वह अड़ा रहा।
कुछ ग्रामीणों ने उसे समझाने-बुझाने का असफल प्रयास किया। अंत में शोर सुनकर योगिता कमरे से बाहर निकल आई।
बोली—“क्या बात है? कैसा विवाद है यह?”
ग्रामीण ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़े और कहा—“विवाद कुछ नहीं देवी, इस युवक के पिता को कैंसर है—स्वामीजी का आशीर्वाद चाहता है। हम कह रहे हैं कि इस वक्त महाराज भोजन के उपरांत विश्राम कर रहे हैं। घंटे-दो-घंटे बाद आ जाना।”
“ठीक ही तो कह रहे हैं यह।” योगिता ने सीधे युवक से कहा—“तुम दो घंटे बाद आ जाना, स्वामीजी तुम्हारे घर चलेंगे।”
 ठीक है देवी।” योगिता के कहने पर युवक एक ही बार में मान गया। योगिता अंदर चली गई। उत्साह से भरे युवक ने वहां से दौड़ लगा दी थी। अपने घर की तरफ दौड़ा था शायद वह। पिता को यह सूचना देने कि अगले दो घंटे बाद कैंसर से उन्हें हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाने वाला है।
¶¶
"मगर एक बार जाने के बाद वह युवक फिर कभी लौटकर चौपाल पर नहीं आया। योगिता या स्वामी सदानंद से नहीं मिल सका। यहां तक कि स्वामीजी दिल्ली लौट आए। स्वामी सदानंद आज भी उस घटना के गवाह हैं।”
शांडिल्य के चुप होने पर अदालत में सन्नाटा छा गया। ऐसा सन्नाटा कि लोग सुई गिरने तक की आवाज को भी सुन सकें।
कुछ देर की खामोशी के बाद शांडिल्य पुन: चीखा—“भीड़ से खचाखच भरी इस अदालत में जो वृतांत मैंने सुनाया है, उसमें एक बहुत बड़ा क्राइम छुपा है। क्या कोई बता सकता है कि क्राइम क्या है? किसने किया? वह युवक फिर कभी लौटकर क्यों नहीं आया, जिसके पिता को कैंसर था?”
सन्नाटा-ही-सन्नाटा। हर तरफ खामोशी।
“मैं बताता हूं सर।” शांडिल्य पुन: बोला—“मैं बताता हूं कि वह फिर कभी लौटकर क्यों नहीं आया। हकीकत यह है युअर ऑनर कि उसे लौटकर आने ही नहीं दिया गया—एक कमरे में बंद कर दिया गया था उसे।”
“क्यों?” न्यायाधीश ने स्वयं पूछा।
 क्योंकि उसके बाप को सचमुच कैंसर था और स्वामी सदानंद के हाथ लगाने से वह कभी दूर नहीं हो सकता था—अगर ऐसा हो जाता तो साजिश रचने वालों की सारी कलाई वहीं खुल जाती। वे पकड़े जाते।”
“हम समझे नहीं।”
“जितने बीमार और उनके रिश्तेदार थे, वे सब एक ही गिरोह के सदस्य थे युअर ऑनर। वास्तव में उनमें से एक भी बीमार नहीं था है, बल्कि स्वामी सदानंद के हाथ लगाते ही ठीक हो जाने का नाटक करते थे वे—उनमें से भी दो आदमी गिरोह के सदस्य थे, जो अनुरोधपूर्वक स्वामीजी को सुखपुरा गांव ले गए थे।”
“जरा विस्तार से बताओ......यह सब कैसे हुआ?” न्यायाधीश ने कहा।
"इसे समझने से पहले आपको हमारे गांवों की हालत समझनी होगी युअर ऑनर। ग्रामीण आज भी बेहद भोले-भाले और अंधविश्वासी हैं—शहर में जहां पड़ोसी के बारे में पड़ोसी तक भी नहीं जानता, वहीं गांवों के लोग एक परिवार की तरह रहते हैं। गांव में आकर बसे किसी अन्य शख्स को एक ही महीने में अपने परिवार का सदस्य मान लेते हैं और इस गिरोह के सदस्य तो इस घटना से दो महीने पहले सुखपुरा और उसके नजदीक वाले गांव में एक-दूसरे से अपरिचितों की तरह जाकर बसे थे—दो महीने तक इन्होंने ग्रामीणों का विश्वास जीता—धीरे-धीरे गांव में यह अफवाह फैलाई कि स्वामी सदानंद जिस बीमार व्यक्ति को हाथ लगा देते हैं, वह ठीक हो जाता है—एक साल पहले स्वामी सदानंद अपने प्रवचन हेतु यहां आ चुके थे—गांव वाले उनसे प्रभावित तो थे ही, अत: गिरोह के प्रचार के झांसे में आ गए और गिरोह के दो सदस्यों के साथ स्वामी सदानंद को लेने दिल्ली आ गए—यहां से स्वामी सदानंद को ले गए थे और उसके बाद दो महीने से बीमार बने गिरोह के सदस्य एक-एक करके धड़ाधड़ ठीक होने लगे—ग्रामीणों को तो कौन कहे, स्वयं स्वामी सदानंद और योगिता भी चक्कर में आ गए—स्वामीजी को भ्रम हो गया कि उनके भीतर से किसी अलौकिक शक्ति का स्रोत फूट पड़ता है—गिरोह के लोगों का घेरा स्वामीजी के चारों और इतना सख्त था कि किसी वास्तविक मरीज को उन तक पहुंचने ही नहीं दिया गया—कैंसरग्रस्त पिता के बेटे ने जब हंगामा किया तो उसे उस वक्त टाल दिया गया। बाद में एक कमरे में बंद कर दिया गया—उधर योगिता और स्वामीजी ने गांव छोड़ा, इधर गिरोह के सभी सदस्य भी गांव से गधे के सींग की तरह गायब हो गए—बाद में गांव वालों ने जब बंद कमरे के अंदर से युवक को निकाला तो उसने बताया कि उसे किस-किसने मिलकर बंद किया था। जिनके नाम वह ले रहा था, तलाश करने पर उनमें से गांव में कोई नहीं मिला।”
“यह अजीबो-गरीब हरकत करने से गिरोह को फायदा क्या हुआ?” विद्वान न्यायाधीश ने पूछा।
शांडिल्य कहता चला गया—“स्वामी सदानंद आर्य और योगिता आश्रम में पहुंचे—अपने अंदर से फूट पड़ने वाली अलौकिक शक्ति के मद में स्वामी सदानंद इतने चूर थे कि अपने शिष्यों के सामने गर्व से उन्होंने खुद घोषणा की कि वे हाथ लगाते ही किसी भी बीमार को ठीक कर सकते हैं—बस फिर क्या था—पलक झपकते ही सारी दिल्ली में यह हवा फैल गई—टीoवीo वाले स्वामी सदानंद का इंटरव्यू लेने पहुंच गए—इंटरव्यू में स्वामीजी ने सीना तानकर कहा कि—“हां, मैं हाथ लगाते ही असाध्य से असाध्य रोग को भी दूर कर सकता हूं।” पीoएमo हाउस में स्वामी सदानंद का बड़ा सम्मान था। वे जब चाहे वहां आ-जा सकते थे—पीoएमo से मिलने के लिए उन्हें टाइम लेने की जरूरत नहीं थी—ऐसा इसलिए था, क्योंकि स्वामी सदानंद पीoएमo की नजर में एक विद्वान साधु थे—उड़ती हुई खबर जब पीoएमo हाउस पहुंची तो वहां इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया गया कि स्वामी सदानंद ने यह पाखंडी साधुओं वाली बेसिर-पैर की घोषणा कैसे कर दी—पी एम हाउस से आश्रम में फोन आया। बात खुद स्वामी सदानंद ने की—दिल्ली में फैल रही अफवाह के बारे में जब पूछा गया तो स्वामीजी ने गर्व से कहा—“यह अफवाह नहीं, सच है—मैं हाथ लगाते ही किसी भी बीमार को ठीक कर सकता हूं। स्वामी सदानंद का इतना कहना था कि दूसरी तरफ से इस आदेश के साथ सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया कि भविष्य में वे कभी पीoएमo हाउस की तरफ पैर फैलाकर भी न सोएं—बस, गिरोह का यही उद्देश्य था।”
"क्या मतलब?”
"एक अन्य स्वामी हैं, स्वामी ब्रह्मावतार—ये पीoएमo हाउस में अपनी वैसी ही धाक जमाना चाहते थे, जैसी स्वामी सदानंद की थी, परंतु स्वामी सदानंद के रहते वे अपने इरादे में कामयाब नहीं हो पा रहे थे—हाउस में स्वामी सदानंद का स्थान स्वामी ब्रह्मावतार को तभी मिल सकता था, जब स्वयं स्वामी सदानंद अपने बारे में कोई ऐसी घोषणा करें, जिससे पीoएमo हाउस में उनकी इमेज एक पाखंडी और धूर्त साधु की बन जाए—इस सिलसिले में स्वामी ब्रह्मवतार मिस्टर ललित के कचहरी स्थित ऑफिस में आकर मिले और फिर उस गिरोह ने, जिसका सरगना मिस्टर ललित है, सुखपुरा गांव में वह नाटक रचा। यह दूसरी बात है कि स्वामी सदानंद की उपेक्षा के बावजूद पीoएमo हाउस में ब्रह्मावतार के लिए कोई स्थान नहीं बन सका।”
काफी देर से खामोश खड़ा ललित बोला— यह सब झूठ, बेबुनियाद और वकील साहब के दिमाग की उपजी कहानी है—अगर सुखपुरा गांव में किसी गिरोह ने ऐसा किया भी था तो उसका मुझसे कोई ताल्लुक नहीं है।”
शांडिल्य ने सीधे उसी से सवाल किया—“क्या सुखपुरा वाली घटना से ठीक ढाई महीने पहले स्वामी ब्रह्मावतार तुम्हारे ऑफिस में नहीं आए थे?”
“आए थे।”
"क्या उसके तुरंत बाद सुखपुरा गांव में ड्रामा नहीं हुआ?”
“हुआ होगा।”
“स्वामी ब्रह्मावतार तुम्हारे ऑफिस में क्यों आए थे?”
“मैं अपने किसी क्लाइंट की सीक्रेसी ओपन के लिए बाध्य नहीं हूं।”
“बस…यही तो बात है युअर ऑनर।” शांडिल्य न्यायाधीश की ओर पलटता हुआ बोला—“गिरोह के सदस्यों में से आज तक कोई भी पकड़ा नहीं जा सका। मिस्टर ललित एक्शन में नहीं था, नहीं तो साबित नहीं हो सकता था कि इसने कुछ किया है—हां, महसूस ज़रूर किया जा सकता है—इसलिए किया जा सकता है, क्योंकि सुखपुरा वाली घटना स्वामी ब्रह्मावतार से इनकी भेंट के बाद घटती है।”
“यह तो कोई बात नहीं हुई।”
“मैंने पहले ही कहा था युअर ऑनर कि अदालत में इसका क्राइम साबित न हो सकेगा। वह शख्स रास्ते ही ऐसे अपनाता है, मगर कानून को रोज-रोज धोखा नहीं दिया जा सकता युअर ऑनर। ऐसे ही एक केस में खुद को कानून का पंडित कहने वाली यह शख्सियत आखिर पकड़ी ही गई।”
कठघरे में खड़े ललित ने कहा—“स्पीच झाड़ने की जगह अगर आप अदालत को मुलजिम पर लगा चार्ज बताएं वकील साहब तो ज्यादा मुनासिब होगा।”
“मुलजिम पर वर्तमान चार्ज यह है युअर ऑनर कि यह ठीक उसी तरह देश के किसी वैज्ञानिक के लिए काम कर रहा है, जिस तरह ब्रह्मावतार के लिए कर रहा...।”
“आई ऑब्जेक्ट मी लॉर्ड।” कानून का पंडित शांडिल्य के मुकाबले कहीं जोर से चीखा—“जब मुझ पर ब्रह्मावतार के लिए काम करना ही साबित नहीं हुआ है तो उसका उदाहरण भला कैसे दिया जा सकता है?”
“मिस्टर ललित ठीक कह रहे हैं।” न्यायाधीश महोदय ने हस्तक्षेप किया—“ऐसा कोई उदाहरण कोर्ट में नहीं दिया जा सकता, जो काल्पनिक हो।”
“सॉरी युअर ऑनर।” शांडिल्य ने सम्मानित स्वर में कहा—“मुलजिम ललित पर लगाए गए आरोपों को इस तरह समझा जा सकता है कि सिद्धार्थ बाली नामक युवक इस देश का एक ऐसा प्रतिभाशाली वैज्ञानिक है, जिसका नाम अमेरिकी अंतरिक्ष शटल में जाने वाले युवा वैज्ञानिकों के लिए प्रस्तावित है—शटल में केवल एक भारतीय वैज्ञानिक को जाना है। भाभा विज्ञान संस्थान ने ट्रेनिंग के लिए दो युवा वैज्ञानिकों के नामों का चयन किया है, ताकि किसी वजह से ऐन वक्त पर किसी एक का चयन न हो सके तो दूसरे को भेजा जा सके—विज्ञान संस्थान ने सिद्धार्थ बाली का नाम प्रथम वरीयता वाले स्थान पर दिया है। इसी से स्पष्ट है कि वह देश का सर्वाधिक योग्य युवा वैज्ञानिक है—ऐसे बहुत-से लोग हो सकते हैं, जो सिद्धार्थ बाली को मिले इस सम्मान से चिढ़ सकते हैं—वह कोई वैज्ञानिक भी हो सकता है और दुश्मन राष्ट्र का एजेंट भी, जो यह चाहे कि अमेरिकी शटल में भारतीय वैज्ञानिक नहीं जाना चाहिए—वह शख्स क्योंकि अभी तक अज्ञात है, जिसने मिस्टर ललित को यह काम सौंपा, इसलिए उसके बारे में हम बाद में वृतांतवश बात करेंगे।” इतना कहने के बाद शांडिल्य सांस लेने के लिए रुका।
हर व्यक्ति ध्यान से एक-एक शब्द सुन रहा था।
शांडिल्य ने आगे कहा—“मिस्टर ललित और पूनमदेवी के कथनानुसार इनकी शादी पद्रह जनवरी, उन्नीस सौ पिच्चासी को गाजियाबाद में विधिवत हो चुकी है। पूनम देवी विज्ञान संस्थान में रिसेपशनिस्ट के पद पर कार्यरत थीं और संस्थान के नियमानुसार उस पद पर गैर-शादीशुदा लड़की ही रह सकती है, मगर इन्होंने संस्थान को अपनी शादी की कोई जानकारी नहीं दी। यह इनका पहला अपराध है। दूसरा संगीन अपराध यह है युअर ऑनर कि ललित ने मिस्टर सिद्धार्थ बाली का ध्यान भंग करने, उसे अपनी मंजिल से भटकाने और मुकम्मल रूप से बरबाद कर देने के उद्देश्य से अपनी पत्नी पूनम को कुंवारी लड़की बनाकर सिद्धार्थ बाली की जिन्दगी में दाखिल किया। पूनम ने सिद्धार्थ बाली को अपने रूपजाल में इस कदर फंसा लिया कि सिद्धार्थ ने इससे शादी तक कर ली—विज्ञान संस्थान का रिकॉर्ड गवाह है कि इस शादी के बाद वहां सिद्धार्थ बाली की उपस्थिति पचास प्रतिशत रह गई, यानी पूनमदेवी सिद्धार्थ को अपने रूपजाल में फंसाने वाले षड्यंत्र में कामयाब थी और अब, जबकि शटल में जाने से संबधित ट्रेनिंग की शुरुआत होने में केवल पंद्रह दिन बाकी हैं, मिस्टर ललित सिद्धार्थ बाली के यहां से अपनी बीवी को लेने पहुंच गया—यह सब सिद्धार्थ बाली को ऐसा शॉक देने के लिए किया गया जिससे यह उबर न सके—आज इसी शॉक की वजह से मिस्टर सिद्धार्थ मुकम्मल रूप से फ्रस्टेटिड हैं। पुलिस इन्हें ऐसा करने से रोक नहीं सकती थी, क्योंकि कानूनन पूनमदेवी इन्हीं की पत्नी हैं। सिद्धार्थ के साथ हुई शादी बाद में होने के कारण अवैध है—यह सब इन्होंने किसी अज्ञात व्यक्ति के इशारे पर किया, जिसके पूरे सबूत हैं—उस अज्ञात व्यक्ति से ये अक्सर फोन पर बात किया करते थे—उधर पूनमदेवी सिद्धार्थ को बरबाद करने के पीछे एक दूसरी कहानी सुनाती हैं, मगर गौर करने बाली बात है युअर ऑनर कि वे खुद स्वीकार करती हैं कि सिद्धार्थ का कैरियर तबाह करने के उद्देश्य से ही इन्होंने उससे प्यार किया और शादी का नाटक रचाया। दैट्स आल युअर ऑनर।”
कक्ष में खामोशी छा गई। ललित तक चुप था। न्यायाधीश ने उसी से कहा—"क्या आपने अपने ऊपर लगाया गया चार्ज सुना मिस्टर ललित?”
“यस सर।”
“आपने पूनमदेवी?” दूसरे कठघरे में खड़ी पूनम से भी पूछा गया।
“जी हां।” वह धीमे स्वर में बोली।
न्यायाधीश ने पुन: पूछा—“क्या आप दोनों में से किसी को अपने ऊपर लगाए गए आरोपों में से किसी पर आपत्ति है?”
“सरासर आपत्ति है मी लॉर्ड।” ललित ने पुरजोर स्वर में विरोध किया—“हम पर लगाया गया यह आरोप बिल्कुल बेबुनियाद और सरासर गलत है कि हमने सिद्धार्थ को तबाह करने के उद्देश्य से ऐसा कुछ किया।”
“कोई सबूत दे सकेंगे आप?”
"साबित वकील साहब को करना है कि हम पर यह आरोप किस आधार पर लगाया गया है?”
और शांडिल्य—इंस्पेक्टर देशमुख द्वारा जुटाए गए सबूतों को एक के बाद एक करके कोर्ट के सामने लाने लगा—ललित सिर्फ मुस्करा रहा था।
¶¶
देश के सारे अखबारों ने एक ही न्यूज को प्रमुखता दी थी।
शीर्षक भले ही अलग-अलग थे परंतु सामग्री एक ही थी। हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, बांगला, तमिल और मराठी आदि देश की सभी भाषाओं के अखबारों ने उसे मेन न्यूज बनाकर छापा था।
किसी ने शीर्षक बनाया था—“युवा वैज्ञानिक को गुमराह करने की साजिश का भंडाफोड़।”
किसी ने ‘देश के खिलाफ खतरनाक साजिश।’
‘सिद्धार्थ बाली की पत्नी किसी और की बीवी निकली।’
सबसे ज्यादा सनसनीखेज शीर्षक बनाने के लिए कुख्यात अखबार का शीर्षक था—“देश के महान वैज्ञानिक डॉक्टर रामन्ना बाली के कुकर्मों का पर्दाफाश।”
हरेक जुबान पर यही चर्चा थी।
प्रत्येक अखबार ने यह छापने के साथ-साथ कि सिद्धार्थ बाली को किस तरह उसके उद्देश्य से भटकाया जा रहा था, पूनम का बयान भी प्रमुखता के साथ छापा था—साथ ही सवालिया निशान भी लगाया था कि क्या यह बयान सच है या वैज्ञानिक सिद्धार्थ को और ज्यादा अपसेट करने के लिए ऐसा कहा गया है? सारे देश में सनसनी-सी फैल गई थी।
¶¶
“लो !” हिस्टीरियाई अंदाज में चीखने के साथ ही डॉक्टर रामन्ना बाली ने सिद्धार्थ के चेहरे पर अखबार खींच मारा—“लो—ये भी लो—और लो—पढ़ो उन्हें—आज के सारे अखबार सिर्फ एक ही खबर से भरे पड़े हैं—जितने हमें मिले, ले आए—अपनी फूटी आंखों से इन्हें पढ़ो और फिर बताओ कि हम क्या गलत कहते थे?”
शराब का गिलास हाथ में लिए सिद्धार्थ बाली अपने डैडी के इस रुख पर बौखला-सा गया। आंखें फाड़-फाड़कर अपने चारों तरफ बिखरे अखबारों को कुछ देर तक यूं देखता रहा, जैसे कुछ समझ ही न पा रहा हो। फिर एक अखबार के शीर्षक पर नजर पड़ते ही उछल गया। गिलास हाथ से छूट गया।
बहुत जल्दी-जल्दी सभी अखबारों के हैडिंग्स पढ़ डाले उसने और फिर इंडियन एक्सप्रेस के विवरण को पढ़ता चला गया—रामन्ना बाली ने उसे पढ़ने दिया और पढ़ते वक्त उसके चेहरे पर उभरने वाले एक-एक लक्षण का बड़ी गहराई से निरीक्षण कर रहे थे वे। दिल धक-धक करके बज रहा था।
पूरा अखबार पढ़ने के बाद सिद्धार्थ मूर्खों की तरह बड़बड़ा उठा—“न...नहीं—यह नहीं हो सकता—पूनम ऐसी नहीं हो सकती।”
“हां।” डॉक्टर रामन्ना चीखे—“सारी दुनिया पागल है—सारे अखबार वाले बेवकूफ हैं, सिर्फ तुम ही सही हो—तुम्हारी सोच सही है या फिर गंदी नाली में रेंगने वाली वह लड़की सही है।”
“ड...डैडी।”
“होश में आओ—अभी भी वक्त है सिद्धार्थ।” रामन्ना बाली कहते चले गए—“खुद को पूनम के उस रूपजाल से आजाद करो, जिसका जिक्र सारे अखबार वाले ही नहीं, बल्कि दुनिया कर रही है। खुद उस गंदी लड़की ने कहा है कि वह तुम्हें रास्ते से भटकाने के लिए ही तुम्हारी जिंदगी में आई थी।”
“इसमें तो यह भी लिखा है डैडी कि...।”
“हमने उसकी मां के साथ मुंह काला किया था?”
“हां।”
“उसने बयान दिया और तुमने मान लिया, जबकि किसी ने नहीं माना—इसी अखबार में क्या तुमने यह नहीं पढ़ा कि यह बयान पूनम ने तुम्हें और ज्यादा अपसेट करने के मकसद से भी दिया हो सकता है?” रामन्ना बाली कहते चले गए—“उफ्फ—हद कर दी इस लड़की ने—हम इसे गंदी तो समझते थे, मगर इतनी ज्यादा नहीं। ऐसी तो कल्पना भी नहीं की थी कि वह हम पर इतना गंदा आरोप...।”
“क्या यह आरोप झूठा है डैडी?”
“तुम्हें शर्म आनी चाहिए सिद्धार्थ। एक गंदी लड़की ने तुम्हारे डैडी पर ऐसा आरोप लगाया है और तुम हमसे सवाल कर रहे हो—हमारे बेटे होकर हम पर ही संदेह कर रहे हो, जबकि गैर हमसे बिना कोई सवाल किए इसे झूठा मान रहे हैं।”
“मुझे जवाब दीजिए डैडी, क्या यह झूठ है?”
“उफ्फ—हमें तो तुम्हारे सवाल करने पर शर्मिन्दगी है। तुम यह सोच कैसे सकते हो कि तुम्हारे डैडी ऐसे हो सकते हैं—उस गंदी लड़की का यह आरोप सरासर झूठ ही नहीं, बल्कि बेबुनियाद भी है—यह बात इसी से जाहिर है कि अपने आरोप के पक्ष में एक भी सबूत पेश नहीं कर सकी वह।”
”आप सच कह रहे हैं न डैडी?” उनकी तरफ अजीब नजरों से देखते हुए सिद्धार्थ ने पूछा—“क्या मेरे सिर पर हाथ रखकर कसम खा सकते हैं आप कि यह सब झूठ है?”
डॉक्टर रामन्ना के सीने पर सांप लोट गए। तड़पकर बोले वे—“किसी अपने को कसम खाने के लिए तब कहा जाता है बेटे, जब शक हो कि वह झूठ बोल रहा है—और यह हमारा दिल ही जानता है कि यह अहसास करके हमें कितना दुख हो रहा है कि तुम हम पर शक कर रहे हो और वह भी सिर्फ एक अदनी-सी लड़की के ऊटपटांग बक देने पर—नहीं सिद्धार्थ, तुम हमारे उस दर्द को नहीं समझ सकोगे जो तुम्हारे शक करने से हमारे अंतर में उठ रहा है—इसलिए नहीं समझ सकोगे, क्योंकि अभी तक तुम किसी के पिता नहीं बने हो।”
“मेरे सिर पर हाथ रखिए डैडी और कसम खाकर कहिए कि यह सब झूठ है।”
निचले होंठ को डॉक्टर रामन्ना ने कसकर दांतों तले भींच लिया। दिल की गहराइयों से उठने वाले दर्द को अंदर-ही-अंदर पीते हुए अपना दायां हाथ बढ़ाकर सिद्धार्थ के सिर पर हाथ रख दिया। बोले—“हम तुम्हारी कसम खाकर कहते हैं बेटे कि उस लड़की द्वारा लगाया गया आरोप बिल्कुल झूठा है।”
और! सिद्धार्थ एक झटके से खड़ा हो गया।
ठीक इस तरह, जैसे जिस्म में बिजली भर गई हो।
आंखें शून्य में टिक गईं। मुंह से गुर्राहट निकली—“म...मैं पूनम को जान से मार डालूंगा—खून पी जाऊंगा उसका।”
“स...सिद्धार्थ!” रामन्ना बाली उछल पड़े।
“म...मेरे डैडी पर इतना गंदा और झूठा आरोप लगाने की जुर्रत कैसे हुई उसकी? मैं उसके टुकड़े-टुकड़े करके हवा में उछाल दूंगा।”
“सिद्धार्थ—पागल हो गए हो क्या?”
“हां।” वह दहाड़ा और फिर जोश में अपने मुंह  से शोले-से बरसाता कहता चला गया—“मैं पागल हो गया हूं। मेरे सिर पर हाथ रखने के बाद आप झूठ नहीं बोल सकते और उसने यह लांछन लगाया है, इसकी सजा उसे मिलेगी डैडी। पूनम को अपने हाथों से सजा दूंगा मैं।”
“क्या सजा दोगे?”
“म...मैं खून कर दूंगा उसका।” जोशवश कांपता सिद्धार्थ गुर्राया।
डॉक्टर रामन्ना ने कहा—“यानी उन लोगों की साजिश में फंसोगे?”
“किन लोगों की?”
“उन्हीं की, जो लोग उस गंदी लड़की के पीछे हैं। जो नहीं चाहते सिद्धार्थ कि तुम तरक्की करो, अमेरिकी अंतरिक्ष शटल के यात्री बनो।”
“उन मुर्खों का यह सपना कभी पूरा नहीं होगा।”
मारे खुशी के डॉक्टर रामन्ना का दिल नाच-सा उठा, परंतु इस खुशी का एक भी ज़र्रा जाहिर किए बगैर वे कहते चले गए—“अगर तुम पूनम का खून अपने हाथों से करोगे तो क्या होगा?”
उसने पुन: मूर्खों की तरह पूछा—“क्या होगा?”
“तुम खूनी बन जाआगे हत्यारे कहलाओगे।”
“म...मुझे परवाह नहीं है डैडी, मगर उसने आपको...।”
“होश में आओ सिद्धार्थ! क्या एक कातिल अंतरिक्ष यात्री बन सकता है? जरा सोचो बेटे—क्या भारत सरकार एक हत्यारे को यह गौरव दे सकती है?”
इस बार सिद्धार्थ डॉक्टर रामन्ना के चेहरे की तरफ देखता रह गया। बोला कुछ भी नहीं या यूं कहें कि बोलने के लिए उसे कुछ सूझा ही नहीं और उत्साहित रामन्ना ने गरम लोहे पर चोट करने की गरज से कहा— दिल नहीं विवेक से काम लो सिद्धार्थ। उस जाल को तोड़ डालो, जो हमारे दुश्मनों ने तुम्हारे चारों तरफ बुना है। उस साजिश के परखच्चे उड़ा दो, जो तुम्हें बरबाद करने के लिए रची गई है।”
“म..मगर…।”
“पूनम पकड़ी गई है बेटे। ललित भी गिरफ्तार है। उनकी साजिश का पर्दाफाश हो चुका है। इस घिनौने कृत्य की सजा उन्हें कानून
देगा—तुम अपने हाथ किसी के गंदे खून से रंगकर हत्यारे क्यों बनते हो?”
“डैडी!”
“मैं दिमागी स्तर पर तुम्हें इतना कमजोर नहीं समझता सिद्धार्थ कि सबकुछ स्पष्ट होने के बाद भी तुम उनकी इस सीधी-सादी साजिश को समझ न सको-—पूनम बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में सारे जमाने से, सारे अखबार वालों से चीख-चीखकर कह रही है कि सिद्धार्थ को उसने अपने रूपजाल में इस कदर फंसा रखा है कि अब वह शटल में नहीं जा सकेगा। क्या तुम उसी के दावे को वक्त की कसौटी पर खरा उतर जाने दोगे—क्या यह साबित नहीं करोगे सिद्धार्थ कि रामन्ना बाली का शेर बेटा सिर्फ विज्ञान की दुनिया के लिए ही पैदा हुआ है और देश के दुश्मनों द्वारा भेजी गई लड़की की जुल्फों में उलझकर वह भटक नहीं सकता।”
“देश के दुश्मन?”
“हां, वे देश के दुश्मन नहीं तो और क्या हैं, जिन्होंने इस राष्ट्र के एक महान वैज्ञानिक को अपनी राह से भटकने, लक्ष्य से विमुख करने और मुकम्मल रूप से बरबाद कर देने के लिए एक लड़की को हथियार बनाकर तुम्हारी जिंदगी में भेजा। आज पकड़े जाने पर वही साफ-साफ कह रही है कि उसे तुमसे कभी कोई प्यार नहीं रहा—पहले ही से वह ललित की ब्याहता थी। तुम्हारी जिन्दगी में तो वह सिर्फ तुम्हें बरबाद करने के लिए ही आई थी और आज वह अपनी कामयाबी का डंका पीट रही है। क्या तुम उसे और देश के दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब नहीं दोगे।”
“मुंहतोड़ जवाब?”
“हां, मुंहतोड़ जवाब—वे चाहते हैं कि तुम शटल में न जाओ। खुद को कामयाब भी समझते हैं वे और तुम्हारी तरफ से उन्हें मुंहतोड़ जवाब यह हो सकता है कि तुम शटल में जाओ। वे खुद-ब-खुद चमत्कृत ही नहीं, परास्त हो जाएंगे सिद्धार्थ।”
“मगर उसने आप पर लांछन लगा कैसे दिया डैडी?”
“कैसे की बात छोड़ो सिद्धार्थ। क्या तुम यह जुमला भूल गए कि जंग और मुहब्बत में हर बात जायज होती है? तुम्हें अपसेट करने के लिए उन्हें जो उचित लगा, कहा। यह आरोप उसके मुंह से इस उद्देश्य के साथ लगाया गया है कि फिलहाल तो तुम्हें एब्नॉर्मल कर ही दिया जाएगा—ट्रेनिंग का टाइम निकलने के बाद झूठा साबित होता हो तो हुआ करे—तुम्हारा जवाब यह होना चाहिए कि तुम अपसेट नहीं हो। इस आरोप को झूठा साबित होना है—और कोर्ट में जाकर इस काम को हम खुद करेंगे।”
शून्य में आंखें टिकाए सिद्धार्थ बोला—“मैं कभी सोच भी नहीं सकता था डैडी, ख्वाब में भी नहीं सोचा था मैंने कि पूनम दुश्मन की एजेंट हो सकती है।”
“होता है बेटे, ऐसा हो जाता है—बड़े-बड़े समझदार लोग भी दुश्मन की साजिश में फंस जाते हैं, मगर इतिहास समझदार उन्हें ही कहता है, प्रशंसा भी उनकी ही करता है जो वक्त रहते संभल जाएं और उस काम को अंजाम दें, जिसके लिए पैदा हुए हैं।”
“पूनम यह चाहती है कि मैं शटल में न जाऊं?”
 
“हां, बेटे।”  रामन्ना की आवाज कांप गई।
सिद्धार्थ बोला—“तो मैं जाऊंगा—पूनम को मुंहतोड़ जवाब देना है मुझे।”
“स...सच बेटे?”
“सच डैडी, आपकी कसम।”
और! सिद्धार्थ का हाथ रामन्ना ने जब अपने सिर पर महसूस किया तो मारे खुशी के पागल-से हो गए वे। झपटकर अपने बेटे को बाहों में भींचा—यह सच है कि फफक-फफककर रो पड़े थे वे, साथ ही कहा था—“कसम खाने की क्या जरूरत है बेटे, हमें तेरे वादे पर पूरा-पूरा विश्वास है।”
¶¶
“आओ—आओ प्रमोद।” रिवॉल्विंग चेयर पर बैठे, अत्यंत खुश नजर आ रहे राम तरनेजा ने लैब में दाखिल होते प्रमोद को देखकर कहा—“आज हम बहुत खुश हैं। इतने ज्यादा कि जो तुम मांगोगे, वह देंगे।”
“अच्छा—इसका मतलब ट्रेनिंग के लिए धवन के साथ मेरा नाम जुड़ गया है?”
एकाएक गंभीर होते हुए तरनेजा ने कहा—“नहीं।”
“न...नहीं।” प्रमोद भन्ना उठा।
“देश के दुश्मनों की साजिश नाकाम हो गई है बेटे। सिद्धार्थ पूरी तरह सामान्य हो गया है—डॉक्टर रामन्ना उसे अपने साथ लेकर आए थे—उसे देखने के बाद सभी मैम्बर्स ने खुशी-खुशी उसका नाम फाइनल कर दिया।”
“और आप वहां झक मारते रहे?” प्रमोद दहाड़ा।
“प्रमोद!” तरनेजा ऊंचे स्वर में बोला।
“तुम मेरे बाप नहीं, दुश्मन हो।” आपे से बाहर होकर प्रमोद चीखा। गुस्से की ज्यादती और उत्तेजना के तहत चीखता ही चला गया
वह— बाप तो डॉक्टर रामन्ना बाली है, जो अपने बेटे को अंतरिक्ष यात्री बनाने के लिए अपने साथ मीटिंग तक में ले गए और एक तुम हो—तुम—जो अपने फूटे मुंह से एक बार भी अपने बेटे का नाम तक नहीं ले सके।”
“होश में आओ प्रमोद।” राम तनरेजा उत्तेजित हो उठे—“सिद्धार्थ काबिल है। वही इस लायक था कि ट्रेनिंग के लिए चुना जाए।”
“और मैं बेवकफ हूं?” प्रमोद गरजा—“नालायक हूं?”
“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है प्रमोद।”
“हां।” वह गुर्राया—“मेरा दिमाग खराब हो गया है,पागल हो गया हूं मैं—इसलिए पागल हो गया हूं क्योंकि सोच रहा था कि तुम मेरे लिए बहुत कुछ कर रहे हो—मेरे ख्याल से तो वह अज्ञात व्यक्ति तुम ही थे, जिसने ललित के द्वारा पूनम का इस्तेमाल कराकर सिद्धार्थ को अपने लक्ष्य से भटकाया।”
“क...क्या?” राम तरनेजा कुर्सी से उछल पड़े।
“हां, मेरा दिल यही कहता था।”
“ज...जलील लड़के।” दांत भींचकर राम तरनेजा गुर्रा उठे—“मेरे बारे में तुम ऐसा सोचते थे! क्या मैंने तुमसे कभी ऐसा कहा था?”
“नहीं कहा। मैंने सोचा कि तुम स्पष्ट इसलिए नहीं कहते हो, क्योंकि कहने में यह बात अच्छी नहीं लगती—और फिर कहने से फायदा भी क्या था—मेरे हिसाब से तुम मेरे लिए ठोस काम कर रहे थे—सिद्धार्थ को रास्ते से हटाकर मेरा मार्ग प्रशस्त करने का काम—मगर मेरी सारी सोचें, तुमसे मेरी सारी आस्थाएं झूठी साबित हुईं—तुम बाप नहीं बाप के नाम पर कलंक हो।”
“जुबान संभालकर बात कर लड़के।”
“जुबान संभालकर तुम बात करो डैडी।” प्रमोद गुर्राया—“इस बात की थोड़ी अक्ल रामन्ना बाली से ही ले लेनी चाहिए थी कि बाप किसे कहते हैं।”
“तुम्हें सिद्धार्थ से सीखना चाहिए कि काबलियत क्या होती है। मेहनत करने की कूव्वत तुममें नहीं। खोपड़ी में इतना भेजा नहीं कि विज्ञान की जटिल पहेलियों को समझ सको—उल्टे बाप के कंधे पर सवार होकर अंतरिक्ष में जाना चाहते हो—और मुझे शर्म आती है यह सोचकर कि तुम अपने बाप के बारे में ऐसा सोचते हो कि वह देश के एक महान वैज्ञानिक को बरबाद करने की साजिश रचेगा।”
“नहीं, सिद्धार्थ को क्यों—तुम तो मुझे बरबाद करने की साजिश रचोगे।”
“उफ्फ—मैं शर्मिंदा हूं कि तुम मेरे बेटे हो!”
प्रमोद दहाड़ा—“और मैं गारंटी से कहता हूं कि तुम मेरे बाप हो ही नहीं सकते।”
“प्र...प्रमोद—तुम अपनी मां को गाली दे रहे हो बेवकूफ।”
“हां-हां—मैं अपनी मां को गाली दे रहा हूं। मैं तुम्हें भी गाली दूंगा।” पागलों को तरह दहाड़ता हुआ वह एक रिसर्च सीट की तरफ लपका—“मैं सारी दुनिया को गाली दूंगा—जलाकर राख कर दूंगा सबको।”
और! रिसर्च सीट से उठाकर-उठाकर वह एसिड्स की बोतलें चारों तरफ फेंकने लगा। राम तरनेजा बुरी तरह बौखला गए। कुर्सी से खड़े होकर प्रमोद की तरफ लपकते हुए बोले वे—“यह क्या हो रहा है प्रमोद! रुक जा बेटे.....पागल हो गया है क्या?”
परंतु ! जाने कैसा जुनून सवार हो गया था प्रमोद पर—वह नहीं रुका और उसी के द्वारा फेंकी हुई एक बोतल अचानक उनके चेहरे से टकराकर फूट गई।
राम तरनेजा के हलक से चीत्कार निकली। उनके चेहरे की खाल बुरी तरह जल रही थी। बाल जल चुके थे।
चिंघाड़ते हुए वे लहराकर जमीन पर गिरे और रेत पर पड़ी मछली की मानिन्द तड़पने लगे और उधर—अगली बोतल फेंकने के लिए प्रमोद का हाथ जहां-का-तहां रुक गया था—आंखें फाड़े, फर्श पर पड़े अपने पिता को देखता रह गया वह।
अवाक—हतप्रभ!
“बेटे।” तड़पते हुए तरनेजा ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं।
“ड...डैडी—डैडी!” हाथ में दबी बोतल को एक तरफ फेंककर प्रमोद उनकी तरफ लपका। नजदीक पहुंचकर चीखा—“न...नहीं, मैं आपको मारना नहीं चाहता था डैडी—मैं ये नहीं चाहता था। यह क्या हो गया—हे भगवान, क्या हो गया यह?”
तब तक संस्थान के दो कर्मचारी दौड़कर वहां पहुंच गए थे।
मरते हुए राम तरनेजा कह रहे थे—“हम जानते हैं बेटे कि तू हमें मारना नहीं चाहता था, मगर जो व्यक्ति हमपेशा लोगों के प्रति अपने दिल में ईर्ष्या या द्वेष रखते हैं, उनके हाथ से ऐसा ही कुछ हो जाता है—हमपेशाओं में एक-दूसरे से बेहतर काम करने, बेहतर बनने, आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए—ईर्ष्या नहीं। ईर्ष्या हमेशा उसे डसती है, जिसके अंदर पैदा होती है—याद रखना बेटे, हमपेशाओं से ज्यादा काबिल बनकर, तेज दौड़कर आगे निकलने की कोशिश करना—आगे दौड़ते वाले की टांग खींचकर अपने पीछे धकेलने का प्रयास करने वाला हमेशा खुद मुंह के बल गिरता है—तुम्हारे हाथों से तुम्हारा पिता सिर्फ इसलिए मारा जा रहा है, क्योंकि तुम सिद्धार्थ से ईर्ष्या करते थे—अपने मन में उसके लिए द्वेष-भाव रखते थे—देखो, आज वह चुना गया और तुम...तुम...आह!”
राम तरनेजा की गर्दन एक तरफ को लुढ़क गई। जिस्म ठंडा पड़ गया। दहाड़ मारकर प्रमोद अपने पिता की लाश से लिपट गया और संस्थान के दोनों कर्मचारियों के कानों में अभी तक राम तरनेजा के अंतिम शब्द गूंज रहे थे।
¶¶
और!
मुकदमे की एक तारीख पर शांडिल्य कठघरे में खड़े प्रमोद तरनेजा की तरफ उंगली उठाए पुरजोर स्वर में चीख रहा था—“यह शख्स सिर्फ अपने पिता का हत्यारा ही नहीं युअर ऑनर, बल्कि वह अज्ञात शख्स भी है, जो मिस्टर ललित से फोन पर बात किया करता था—वह टेप अदालत सुन चुकी है—यही वह शख्स है, जिसने पूनम के जरिए सिद्धार्थ को बरबाद करने के लिए ललित को नियुक्त किया—यह बात विज्ञान संस्थान के उन दो कर्मचारियों की गवाही से शीशे की तरफ साफ है, जिनके सामने राम तरनेजा ने प्राण त्यागे—मरते हुए तरनेजा ने कहा था कि यह सिद्धार्थ से ईर्ष्या ही नहीं करता था, बल्कि मन में उसके लिए द्वेष-भावना भी रखता था—ऐसा इसने इसलिए किया युअर ऑनर, क्योंकि अगर मिस्टर सिद्धार्थ रास्ते से हट जाते तो ट्रेनिंग हेतु आलोक धवन के साथ इसी का नाम जुड़ना था—हालांकि टेप में दूसरी तरफ से बोलने वाले की आवाज अस्पष्ट है, किन्तु तथ्य चीख-चीखकर कह रहे हैं कि वह अज्ञात व्यक्ति यही है—प्रमोद तरनेजा—अपने पिता का हत्यारा।”
¶¶
हालांकि शुरू में प्रमोद पर राम तरनेजा के कत्ल का मुकदमा कोर्ट में अलग से चल रहा था, परंतु जब यह तथ्य सामने आया कि यही वह अज्ञात शख्स हो सकता है—तो दोनों मामलों को एक कर दिया गया। मुकदमा चल रहा था। दलीलें दी जा रही थीं, बहस हो रही थी। तारीखें लग रही थीं। प्रत्येक तारीख पर कोर्ट भीड़ से खचाखच भरी होती थी, देश-विदेश के अखबार अदालत की कार्यवाही को प्रमुखता के साथ छापते थे।
मगर।
सिद्धार्थ तक एक भी अखबार नहीं पहुंचने दिया जाता था।
निश्चित तारीख पर वह ट्रेनिंग हेतु आलोक धवन के साथ अमेरिका रवाना हो चुका था—वहां, जहां पांच अमेरिकी वैज्ञानिकों के साथ वे ट्रेनिंग ले रहे थे।
शटल में कुल तीन यात्री जाने थे। दो अमेरिकी और एक भारतीय, ट्रेनिंग सात वैज्ञानिक ले रहे थे।
एक-दूसरे को भेजे जाने की बेवकूफाना भावना किसी के दिल में न थी—सब एक-दूसरे से ज्यादा ट्रेंड होने की कोशिश कर रहे थे। आलोक धवन और सिद्धार्थ बाली भी।
कोई भी यह सोचकर ट्रेनिंग नहीं ले रहा था कि वह शटल में नहीं जाएगा— सबको यही विश्वास था कि शटल में सिर्फ उसे ही जाना है—हरेक का ध्यान अपनी ट्रेनिंग में था—एक-दूसरे की टांग खींचने में कतई नहीं।
भारत में मुकदमे की कार्यवाही चल रही थी, अमेरिका में भावी अंतरिक्ष यात्रियों की ट्रेनिंग—मुकदमे की कार्यवाही की तो बात ही दूर, बाहरी दुनिया की कोई खबर विज्ञान के उन तपस्वियों तक नहीं पहुंचने दी जा रही थी।
मुकदमे के बारे में सिद्धार्थ अब कुछ भी जानना नहीं चाहता था। एक ही धुन सवार थी उसे, अपने खिलाफ साजिश रचने वालों को मुंहतोड़ जवाब देना है—डैडी के सिर पर हाथ रखकर खाई गई कसम पूरी करनी है।
समय तेजी से गुजर रहा था। ट्रेनिंग मुकम्मल होने के बाद दो अमेरिकी यात्रियों के साथ-साथ शटल में जाने के लिए सिद्धार्थ के नाम की भी घोषणा की गई।
मुकम्मल गर्मजोशी के साथ सिद्धार्थ को बधाई देने वालों में सबसे पहला नाम आलोक धवन का था—अंतरिक्ष यात्रा पर रवाना होने से पहले चार दिन के लिए सिद्धार्थ और आलोक भारत आए।
पूनम या कोर्ट में चल रहे मुकदमे के संबंध में सिद्धार्थ ने किसी से एक सवाल तक नहीं किया—अपनी ट्रेनिंग के दिलचस्प अनुभवों को बताने से ही फुरसत नहीं थी उसे।
और फिर!
वह दिन भी आया जब आसपास की धरती को हिला डालने वाली तीव्र गर्जना के साथ भारत-अमेरिकी शटल स्पेस की ओर लपका। उधर, अंतरिक्ष में शटल करवटें बदल रहा था—इधर दिल्ली की एक कोर्ट में चल रहे दिलचस्प मुकदमे ने भी एक करवट ली।
¶¶
वह फैसले की तारीख थी।
न्यायाधीश महोदय पूरी गंभीरता के साथ फैसला सुना रहे थे—“इस मुकदमे के दौरान सामने आए सबूतों, गवाहों और बहस के बाद यह अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि मिस्टर प्रमोद तरनेजा ने युवा वैज्ञानिक सिद्धार्थ बाली को तबाह करने के लिए षड़्यन्त्र रचा—मिस्टर ललित और पूनम इस षड़्यन्त्र को कार्यान्वित करने के दोषी पाए गए हैं और यह षड़्यन्त्र केवल एक व्यक्ति के कैरियर को तबाह करने का नहीं था है बल्कि समूचे राष्ट्र के गौरव को धूल में मिला देने का था, अत: अदालत इन तीनों मुलजिमों को मुजरिम करार देती हुई भारतीय दंड संहिता की धारा नंबर...।”
“ठहरिए, मी लॉर्ड!” अचानक एक आवाज गूंजी।
न्यायाधीश सहित सभी ने चौंककर कक्ष के दरवाजे की तरफ देखा। यह आवाज डॉक्टर रामन्ना बाली की थी और तेजी के साथ कठघरे की तरफ चले आ रहे शख्स का राम डॉक्टर रामन्ना बाली ही था।
न्यायाधीश ने अपनी नाक से चश्मा उतारते हुए पूछा—“क्या कहना चाहते हैं आप?”
“सिर्फ यह कहना चाहते हैं मी लॉर्ड कि फैसला सुनाने से पहले अदालत हमारे बयान पर भी गौर कर ले।”
“अगर आप इस मुकदमे के फैसले को प्रभावित कारने वाला कोई बयान दे सकते थे तो आपको पहले ही देना चाहिए था—मुलजिम पूनम द्वारा लगाए गए आरोप की सफाई देने के लिए आपको बुलाया गया था और अपनी सफाई आपने दी भी थी—कहा था कि मुलजिमा द्वारा लगाया गया आरोप झूठा है।”
“अब हम कुछ और बयान देना चाहते हैं।”
“उसी समय क्यों नहीं दिया?”
“क्योंकि सच्चाई बताने के लिए वह समय उचित नहीं था।”
“क्या मतलब?”
“मुजरिम न मिस्टर ललित है मी लॉर्ड, न पूनम और न ही मिस्टर प्रमोद तरनेजा—अगर आप सच्चाई जानना चाहते हैं तो वह यह है कि मुजरिम हमे है।”
“अ...आप?” न्यायाधीश महोदय चौंक पड़े।
सभी उछल पड़े थे।
कक्ष में खुसर-फुसर की आवाजें गूंजने लगीं। कठघरे में खड़े ललित और पूनम के होंठों पर विजयी मुस्कान थी। सबसे ज्यादा आश्चर्य कोर्ट में मौजूद इंस्पेक्टर देशमुख को हो रहा था। अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया था वह।
“आर्डर-आर्डर।” न्यायाधीश महोदय ने हथौड़ी मेज पर मारी।
खुसर-फुसर बंद। सन्नाटा छा गया।
न्यायाधीश महोदय ने आदेश दिया—“आपको जो कुछ कहना है, कठघरे में आकर कहिए डॉक्टर रामन्ना।”
रामन्ना बाली कठघरे में पहुंचे। बोले—“सबसे पहली सच्चाई तो यह है मी लॉर्ड कि यह साजिश खुद हमने रची थी और दूसरी सच्चाई यह है कि साजिश सिद्धार्थ को शटल में जाने से रोकने के लिए नहीं, बल्कि उसे शटल में भेजने के लिए रची गई थी—हम, ललित या पूनम में से कोई भी सिद्धार्थ के कैरियर को तबाह करना नहीं, बल्कि उसके तबाह कैरियर को आबाद करना चाहते थे और वही हमने किया।”
“अदालत सबकुछ विस्तार से जानना चाहती है।”
“हम पूनम से चिढ़ते थे। सिर्फ इसलिए नहीं कि सिद्धार्थ ने सारे घर से विद्रोह करके इससे शादी कर ली थी, बल्कि इसलिए, क्योंकि हमारी नजर में यह सिद्धार्थ के कैरियर को बरबाद कर रही थी—हालांकि आज हम खुले दिल से मान रहे हैं कि पूनम की इसमें कोई गलती नहीं थी। यह सचमुच इस बात से बेहद दुखी थी कि सिद्धार्थ का ध्यान अपने काम से हटता जा रहा था—गलती सिद्धार्थ की ही थी कि वह पत्नी के प्यार में डूबकर अपने काम से विमुख होता जा रहा था—उस समय हम सिद्धार्थ की इस उदासीनता की दोषी पूनम को ही मानते थे—हमें डर था कि अगर सिद्धार्थ इसी तरह पूनम की जुल्फों में गिरफ्त रहा तो शटल में भी नहीं जा पाएगा और हमारे सारे सपने, सारे अरमान मिट्टी में मिल जाएंगे—हम चिंतित थे, सो मदद के लिए ललित के कचहरी स्थित ऑफिस में आकर इससे मिले—इसने हमें सलाह दी कि अगर हम पूनम को सिद्धार्थ के रास्ते की बाधा मानते हैं तो किसी तरह उसे सिद्धार्थ से दूर कर दें, मगर सवाल यह था कि ऐसा किस तरह किया जाए—ललित ने हमें तरकीब बताई—तरकीब जंची भी, परंतु हमारे पास उस तरकीब पर काम करने वाला कोई नहीं था, अत: ललित से ही यह सब करने की रिक्वेस्ट की—ललित ने यह कहकर इन्कार कर दिया कि इसका काम फील्ड वर्क नहीं है, कानूनी सलाह देना है या कोर्ट में अपने क्लाइंट का पक्ष रखना है—हमने इससे बेइन्तहा रिक्वेस्ट की—यह कहा कि यह काम वह हमारे लिए, किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र के लिए कर रहा है और देश के लिए उसे यह काम करना ही चाहिए, तब कहीं जाकर ललित तैयार हुआ और यहीं हम यह भी बता दें कि यह ललित ने देश के लिए किया है—हमसे कोई पैसा नहीं लिया इसने।”
“क्या काम किया मिस्टर ललित ने?”
“सबसे पहले हमने इसकी सलाह पर अपनी बेटी दिशा को सिद्धार्थ के यहां एक हफ्ते रहने के लिए भेजा—इसके निर्देश पर दिशा ने न सिर्फ उनके घर से सिद्धार्थ और पूनम की शादी की एलबम गायब कर दी, बल्कि लाल ब्रीफकेस के अस्तर में ललित द्वारा छपवाया गया कार्ड भी रख दिया—एलबम से पूनम का फोटो लेकर न सिर्फ ट्रिक फोटोग्राफी से एक फोटो तैयार करके ललित ने अपने पर्स में रखा, बल्कि इतना छोटा फोटो भी बनवाया, जो पूनम के गले में पड़े लॉकेट में आ सके—यह फोटो हमारी बेटी ने पूनम के लॉकेट में उस वक्त फिट किया, जब वह सो रही थी—यहीं यह बात भी स्पष्ट कर देनी आवश्यक है कि वास्तव में लॉकेट में पूनम और सिद्धार्थ की गोल्डन नाइट का फोटो था—इसी वजह से वह पुलिस को लॉकेट नहीं दिखाना चाहती थी—इसी तरह की दूसरी सब तैयारियां करके हमारी बेटी सिद्धार्थ के यहां से लौटी—इधर, ललित को अपने एक ऐसे नकली परिचय की जरूरत थी, जिसके जरिए वह खुद को सिद्धार्थ के घर पहुंचने का औचित्य साबित करे—इसमें हमने इसकी मदद की—विज्ञान पत्रिका के रिपोर्टर का पक्का कार्ड अपने एक मित्र संपादक से बनवाया—हमारी बातों की पुष्टि हमारी बेटी और संपादक मित्र से की जा सकती है—मोहन को दस हजार रुपये ललित हमसे लेकर देकर आया—उधर ललित ने गाजियाबाद वाले अपने मित्र और उसके मां-बाप को सबकुछ समझाने के बाद इस बात के लिए तैयार किया कि वे पंद्रह जनवरी को उसकी और पूनम की शादी की पुष्टि करेंगे—सारी तैयारियां हो चुकीं थीं—अब हमें इंतजार था तो सिर्फ सिद्धार्थ के लंदन कॉन्फ्रेंस में जाने का।”
“आप मिस्टर सिद्धार्थ की अनुपस्थिति में ही वह सब क्यों करना चाहते थे?”
“ताकि सिद्धार्थ को शॉक न लग सके—योजना के मुताबिक शॉक तो उसे लगना ही था, मगर हम उसे इस ढंग से सिद्धार्थ के सामने लाने की सोच रहे थे कि मामला उसे बहुत लाइट लगे—दरअसल हमारी योजना यह थी कि सिद्धार्थ के पीछे-पीछे लंदन जाकर हम उसे यह सूचना देंगे कि पूनम पहले ही से किसी की बीवी थी और वह उसे ले गया है—हमने यह सोचा था कि जो लाइट शॉक सिद्धार्थ को लगेगा, उसे हम संभाले लेंगे।”
“ओह!”
“परंतु सिद्धार्थ द्वारा लंदन कॉन्फ्रेंस मिस कर देने के कारण सारी योजना गड़बड़ा गई—उधर, सिद्धार्थ के घर ललित अपना ड्रामा शुरू कर चुका था—तभी मुंबई से सिद्धार्थ का फोन आया—शुरू कर दिए गए ड्रामे से अलग हटना अब उसके लिए मुमकिन न था, अत: ड्रामा जारी रख—थाने से यह सीधे हमारे पास आया—जब उसने बताया कि सिद्धार्थ मुंबई से लौट रहा है तो हमारे हाथ-पांव फूल गए—हमारी समझ में आने लगा कि सारे सबूत पुख्ता होने के बावजूद सिद्धार्थ की मौजूदगी में पूनम को उस घर से निकालकर या तो ललित ला नहीं सकता या सिद्धार्थ के मस्तिष्क को बहुत तीव्र शॉक लगेगा—तभी ललित ने सलाह दी कि क्यों न पूनम को अपनी साजिश में मिला लिया जाए—अगर वह खुद कहेगी कि वह ललित की बीवी है तो कोई कानून उसे वहां नहीं रहने दे सकता—हमारे मन में गहन उलझन पैदा हुई—पूनम भला इस सबके लिए तैयार कैसे होगी—तब ललित ने बताया कि हम पूनम के बारे में अपने दिल में जो धारणा रखते हैं, वह बहुत गलत है—वास्तव में वह सिद्धार्थ की तरक्की चाहती है—यह अनुमान इसने पूनम के उस वक्त के फेस एक्सप्रेशन से लगाया था, जब फोन पर सिद्धार्थ ने यह बताया कि वह लंदन नहीं जा सका है—हालांकि यही बात सिद्धार्थ के घर से लौटने पर हमारी बेटी ने भी कही थी, मगर हम विश्वास नहीं कर पाए थे—सोचा था कि उसने ऐसा हम लोगों का दिल जीतने के लिए दर्शाया है—जब यही बात ललित ने कही तो हम चौंके जरूर, परंतु विश्वास तब भी न कर सके—इस बात पर उस वक्त हममें और इसमें मतभेद था—फिर भी हमने यह कहकर सारा मामला इसी पर छोड़ दिया कि जो बेहतर समझे, करे—उसी रात ललित छुपकर सिद्धार्थ की कोठी पर गया और पूनम से मिला—पूनम को यकीन दिलाने के लिए यह हमसे पूनम के नाम एक पत्र लिखवाकर ले गया था—हालांकि इसे कठिनाई जरूर हुई, किंतु अंत में पूनम को यह यकीन दिलवाने में कामयाब हो गया कि सारा ड्रामा हमारे द्वारा रचा जा रहा है और यह सिर्फ और सिर्फ सिद्धार्थ की बेहतरी के लिए है—पत्र से नहीं, बल्कि फोन पर हमसे बात करने के बाद ही पूनम ने ललित पर यकीन किया था—जब पूनम सारी योजना पर काम करने के लिए तैयार हो गई तो ललित ने उसे सारी योजना समझा दी—अगली सुबह पूनम ने अपना बयान बदल दिया—इंस्पेक्टर देशमुख और अन्य लोग चकरा गए—इंस्पेक्टर देशमुख ने बेडरूम का निरीक्षण करके ताड़ लिया कि रात वहां ललित आया था—दरअसल ललित भी यही चाहता था—जानबूझकर यह अपनी सिगरेट के टुकड़े वहीं छोड़कर आया था—ऐसा ड्रामे में स्वाभाविकता लाने के लिए किया गया था—पकड़े जाने पर पूनम और ललित को एक ही कहानी सुनानी थी—जो रात में उनके बीच तय हो चुकी थी—हम जानते थे कि इस घटना से सिद्धार्थ को वह शॉक लगेगा, जो हम लगने देना नहीं चाहते थे या चाहते थे कि बहुत लाइट शॉक लगे—योजना के मुताबिक ऐन मौके पर उसे संभालने हम वहां पहुंच गए—शॉक से बचाने के लिए ही सिद्धार्थ को बेहोश किया—उस वक्त इंस्पेक्टर देशमुख के दिल में निश्चय ही देशप्रेम की भावना उमड़ पड़ी थी, जब यह पूनम से सिद्धार्थ के पास रहने की रिक्वेस्ट कर रहा था, किंतु पूनम को नहीं मानना था, सो वह नहीं मानी और उसके किसी भी तरह न मानने पर हमें यह कहना था कि वह दुश्मनों की एजेंट है। सो, कहा—दरअसल हम यह चाहते थे कि सिद्धार्थ के होश में आने से पहले ही ललित और पूनम इस आरोप में गिरफ्तार हो जाएं कि वे दुश्मन के एजेंट हैं और सिद्धार्थ को बरबाद कर देना ही इनका मकसद था—यही हम तीनों की भी योजना थी—दरअसल, हमने यह सोचा भी कि होश में आने पर सिद्धार्थ को इस दलील के साथ समझाना आसान होगा कि पूनम हमारे दुश्मनों की एजेंट थी, किंतु उस वक्त इंस्पेक्टर देशमुख ने इन्हें गिरफ्तार नहीं किया—सबूतों की जरूरत बताई—पूनम और ललित वहां से चले गए—तब इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा कि हमें किस पर शक है—हमारे कोई भी नाम नहीं लेने पर इंस्पेक्टर देशमुख ने आलोक पर अपना संदेह जाहिर किया—आपको याद होगा इंस्पेक्टर देशमुख कि हमने कितना सख्त विरोध किया था—दरअसल हम व्यर्थ ही आलोक को डिस्टर्ब नहीं करना चाहते थे—सिद्धार्थ को नुकसान पहुंचाने की बात तो उस बेचारे की कल्पनाओं में भी नहीं आ सकती थी—इंस्पेक्टर देशमुख समझ वही रहा था, जो हम सिद्धार्थ और सारी दुनिया को समझाना चाहते थे, यानी सिद्धार्थ को बरबाद करने वाला दुश्मन का षड्यंत्र कामयाब हो रहा है—दिल में देशभक्ति की भावना होने के कारण परेशान यह भी बहुत था, परंतु सबूतों के साथ ललित और पूनम पर हाथ डालना चाहता था—हमारे सामने ही इसने मिस मंजु को ललित का फोन टेप करने का हुक्म दिया—हम तो खुद चाहते थे कि दुश्मन के एजेंट के रूप में पूनम और ललित जल्दी गिरफ्तार हों, अत: पुलिस टीम के वहां से जाते ही फोन पर ललित से बात की—ललित बोला कि अगर इंस्पेक्टर सबूत चाहता है तो सबूत भी उसे मिल जाएंगे, मगर हमें जल्दी-से-जल्दी गिरफ्तार होना है—हमने पूछा कैसे, तो उसने सारी योजना बताई—इस योजना के मुताबिक हमने ललित को तब फोन किया, जब ललित की तरफ से ग्रीन सिग्नल मिल गया कि फोन टेप हो चुका है—अज्ञात व्यक्ति बनकर फोन पर वे सारी बातें ललित ने हम ही से की थीं, जिनका सार यह था कि वह किसी अज्ञात व्यक्ति के लिए काम कर रहा है—यह एक इत्तेफाक ही था कि इंस्पेक्टर देशमुख ललित के कचहरी वाले ऑफिस में पहुंच गया—ललित चाहता तो सेक्रेटरी द्वारा मिलने से इन्कार कर इंस्पेक्टर देशमुख को लौटा भी सकता था, परंतु तभी उसे लगा कि अगर इंस्पेक्टर देशमुख को पता लग जाए कि वह ही ‘कानून का पंडित’ है तो इंस्पेक्टर देशमुख को न सिर्फ यकीन हो जाएगा कि वो कोई साजिश रच रहा है बल्कि गुस्से में आकर अपने एक्शन और फास्ट कर देगा—वही हुआ भी, ललित से उस मुलाकात के तुरंत बाद इंस्पेक्टर देशमुख ने मोहन पर सख्ती की—ऑटोरिक्शा वाले सरदारजी को ढूंढ निकाला और इन्हीं सबूतों के आधार पर ललित को गिरफ्तार करने पहुंच गया—उधर ललित ही नहीं, पूनम भी अपनी गिरफ्तारी का इंतजार कर रही थी—उसने बता दिया था कि जब इंस्पेक्टर देशमुख सबूत पेश करे, टेप हासिल करे तो कैसी एक्टिंग करनी है—वह कहानी भी ललित ने ही गढ़ी थी, जो पूनम ने इस तरह सुनाई, जैसे उत्तेजित होकर उगल दी हो—बीच-बीच में ललित उसे रोकने का नाटक करता रहा—यह कहानी इसलिए तैयार की गई थी, ताकि पूनम का सिद्धार्थ के विरुद्ध षड्यंत्र में शामिल होना स्वाभाविक और सनसनीखेज़ लगे—इस कहानी के जरिए खुद पर आरोप तक लगवाया हमने, मगर आज खुशी है कि उस आरोप के कारण ही सिद्धार्थ अंतरिक्ष में हमारे सपनों को साकार कर रहा है।”
“यह सब अदालत को आपने पहले क्यों नहीं बताया? ”
“अगर पहले बता देते तो इस केस में आए इस मोड़ की सूचना किसी भी तरह सिद्धार्थ तक पहुंच जाने का खतरा था मी लॉर्ड! और अगर ऐसा हो जाता तो हमारी सारी मेहनत धूल में मिल जाती—अपनी समझ में सिद्धार्थ आज अपने खिलाफ रचे गए षड्यंत्र का मुंहतोड़ जवाब दे रहा है।”
“और प्रमोद तरनेजा?”
“उसके मुजरिम होने का कोई सवाल ही नहीं है—विज्ञान संस्थान के कर्मचारियों के बयान से यह जरूर जाहिर है कि यह सिद्धार्थ और आलोक से ईर्ष्या रखता था, परंतु इस ईर्ष्यावश प्रमोद ने उनमें से किसी को कभी कोई नुकसान पहुंचने की चेष्टा नहीं की—राम तरनेजा का कत्ल भी इससे अनजाने में ही हुआ है—यह कर्मचारियों के बयान से ही जाहिर है, अत: हम अदालत से दरख्वास्त करेंगे कि इस युवा और योग्य वैज्ञानिक के साथ नरमी बरती जाए।”
डॉक्टर रामन्ना बाली चुप हो गए। अदालत में खामोशी छाई हुई थी। किसी को बोलता न देखकर फिर स्वयं ही बोले वे—“साजिश जरूर रची गई है, मगर सिद्धार्थ या देश के खिलाफ नहीं, बल्कि उसके हक में, मुल्क की बेहतरी के लिए—फिर भी अगर यह अदालत मुजरिम के खिलाफ फैसला देना चाहती है तो जो सजा सुनाती है, हमें सुनाए। मुजरिम हम हैं। अपने बेटे को अंतरिक्ष में भेजने के लिए अवैध रास्ते तो हमने अपनाए—पूनम और ललित सिर्फ निर्दोष ही नहीं हैं, बल्कि पूजने योग्य भी हैं—एक ने देशप्रेम की भावना से यह सब किया, दूसरी ने राह से भटके अपने पति को राह पर लाने के लिए सारी दुनिया की गालियां सुनीं—इन्हें सजा नहीं युअर ऑनर, इन्हें तो ‘ईनाम’ मिलना चाहिए—सम्मान किया जाना चाहिए इनका—जहां ललित ने साबित कर दिया कि वह अनन्य देशभक्त है, वहीं पूनम ने जबरदस्त बहादुरी के साथ अपने पति को अपनी जुल्फों से झटककर वतन के हवाले कर दिया—इन्हीं दोनों की वजह से आज मेरा बेटा इस मुल्क का लाडला दो अमेरिकियों के साथ यहां से करोड़ों मील दूर अंतरिक्ष में परवाज कर रहा है—अरे, सम्मान उस नालायक का नहीं, इसका होना चाहिए—इस देवी का, जिसने अपने पति को तड़पते देखा, बिलखते देखा, मगर टूटी नहीं—हां, दिल-ही-दिल में यह जरूर कहती थी यह कि—“जा, मेरी जुल्फों में उलझने की कोशिश मत कर मेरे सुहाग—जा, तेरी मंजिल तेरा वतन है, मेरा आँचल नहीं—तेरी मंजिल अंतरिक्ष है—स्पेस है।”
जाने क्या हुआ रामन्ना बाली को कि वहीं खड़े-खड़े वे फूट-फूटकर रो पड़े।
और!
जाने क्या हुआ कक्ष में भरी भीड़ को कि जोरदार तालियों की गड़गड़ाहट से सारी कचहरी को गुंजा दिया था। न्यायाधीश महोदय को भी जरूर कुछ हुआ था, तभी तो मेज पर हथौड़ी मारकर उन्होंने आर्डर-आर्डर नहीं कहा।
काफी देर बाद!
जब तालियों की गड़गड़ाहट रुकी तो रोते हुए डॉक्टर रामन्ना बाली ने अपना चेहरा ऊपर उठाकर कहा—“अब दिल में सिर्फ एक ही तमन्ना है, यह अदालत मुझे मेरी बहू के साथ अमेरिका जाने की इजाजत दे दे—जब उन तीन महान वैज्ञानिकों को लिए शटल धरती की तरफ लौट रहा होगा, तब प्रयोगशाला में बैठकर मैं अपने बेटे से बात करूंगा—पल-पल धरती के नजदीक आते सिद्धार्थ को यह सारी कहानी बताऊंगा, जो इस कोर्ट में सुनाई है और मेरी बहू दुनिया की वह पहली शख्स होगी, जो सिद्धार्थ को उसकी सफल अंतरिक्ष यात्रा की ही नहीं, बल्कि उसके होने वाले बेटे की भी मुबारकबाद देगी।”
समाप्त