उस चमकती दीवार पर वो सब दिखाई दे रहे थे।

उन सबकी हरकतें ऐसा स्पष्ट देख रही थीं। उनकी बातें सुन रही थी। जब उस कमरे में चलना शुरू किया तो प्रेमा हक्क-बक्की रह गई। फौरन समझ गई कि वे सब चक्रव्यूह में भरी मुसीबत में फंसने वाले हैं।

प्रेमा परेशान नज़र आने लगी।

वो किसी भी कीमत पर नहीं चाहती थी कि उन्हें कोई नुकसान पहुँचे। वो सब देवराज चौहान के साथी थे और देवराज चौहान को बचा नहीं सकी थी। अब इन्हें बचाना उसका फर्ज बन जाता था।

कैसे बचाये इन्हें?

कुर्सी से उठकर प्रेमा बेचैनी से चहलकदमी करती। आधा घंटा बीत गया। बार-बार उसकी नजरें दीवार पर नज़र आते सब पर पड़ रही थीं। उनकी बातें उसके कानों में पड़ रही थीं।

एकाएक वो ठिठकी और आगे बढ़कर उसी चमकती दीवार पर अपनी हथेली रख दी। दीवार में उसे हल्का-सा कम्पन होता महसूस हुआ फिर कानों में सौदागर सिंह की आवाज पड़ी। ।

“कहो प्रेमा।”

“इन सब के साथ क्या होने जा रहा है सौदागर सिंह?” प्रेमा ने गम्भीर स्वर में पूछा।

“ये सब?” सौदागर सिंह के हंसने की आवाज आई-“चक्रव्यूह के तल में पहुँचने जा रहे हैं।”

“तल में?”

“हाँ। चक्रव्यूह के नीचे वाले हिस्से में। जहाँ इन्हें सिर्फ मौत ही मिलेगी।”

प्रेमा ने दाँत भींच लिए।

“मैं इनका अहित नहीं होने देना चाहती।”

“बचा सकती तो तुम इन सबको।” सौदागर सिंह की आवाज कानों में पड़ रही थी-“तुम मेरी सेवा में आ जाओ। मैं इन्हें हर खतरे से निकाल दूंगा। देवा की आत्मा को भी इनके हवाले कर दूंगा। ये वापस काला महल में पहुँच जायेंगे। और काला महल को सुरक्षित पृथ्वी ग्रह की तरफ रवाना कर दूंगा। देवा जिन्दा हो जायेगा।”

होंठ भींचे प्रेमा खामोश रही। फिर कह उठी।

“तुम मुझसे इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हो। तुम्हारी सेविकाओं की क्या कमी जो मुझे अपनी सेवा में लेना चाहते हो। तुम भूल में हो। मुझमें कोई भी खास शक्ति नहीं। मैं साधारण हूँ।”

“सौदागर सिंह कभी भी साधारण लोगों में दिलचस्पी नहीं लेता। तुम्हें अपनी ताकत का अंदाजा नहीं है।”

“क्या ताकत है मेरी?”

“तुम्हें शैतान के अवतार ने बनावट देकर तिलस्म में मिट्टी का बुत बनाकर खड़ा किया था।” सौदागर सिंह की गम्भीर आवाज प्रेमा के कानों में पड़ रही थी-“और तुममें जान डाली मुद्रानाथ की पवित्र शक्तियों से भरी तलवार ने। बेशक तब वो तलवार देवा के हाथों में थी। इस वजह के तहत तुममें शैतानी और पवित्र शक्तियों का संगम मौजूद है। तुममें ऐसी-ऐसी शक्तियाँ आ चुकी है, जिन्हें पाने के लिए दूसरों को सौ बरस से भी ज्यादा लग जायें। तुममें जो शक्तियाँ हैं, वो आसानी से तुम्हें ही इस कैद से नहीं निकाल सकतीं बल्कि देवा के सब साथियों को चक्रव्यूह से निकाल सकती है। तुम बेखौफ वहां पहुँच कर देवा की आत्मा को ला सकती हो, जहाँ आत्माओं को रखा गया है।”

“ऐसा है तो मैं खुद को साधारण क्यों महसूस कर रही हूँ। क्यों मैं कुछ नहीं पा रही?” प्रेमा बोली।

“क्योंकि मार्गदर्शन के लिये तुम्हें गुरु की आवश्यकता है। जो शक्तियाँ तुम्हारे पास हैं, उनके बारे में तुम्हें नहीं मालूम कि उनका संचालन कैसे करना है। इसलिये सब शक्तियाँ तुम्हारे लिये बेकार हैं।”

“और तुम ये सब जानते हो?”

“अवश्य।”

“तो मुझे बताते क्यों नहीं?”

“मेरी शरण में आ जाओ। मेरे एक मंत्र से ही सब शक्तियों को इस्तेमाल करने का ज्ञान तुममें समा जायेगा।”

होंठ भींचकर प्रेमा गहरी सोच में डूब गई।

“खामोश क्यों हो गईं?”

“मैं देवराज चौहान को नहीं बचा सकी, परन्तु उसके साथियों को बचाना चाहती हूँ।” प्रेमा ने गम्भीर स्वर में कहा।

“मुझसे कहो। मैं सब ठीक कर देता हूँ।”

“मेरा जीवन देवराज चौहान की देना है। उसकी इजाजत के बिना मैं तुम्हारी सेवा में नहीं आ सकती।”

“वो मर चुका है।”

“परन्तु जिन्दा भी हो सकता है। उसकी आत्मा को हासिल करके उसे जिन्दा किया जा सकता है।”

“ये कार्य असम्भव ही है प्रेमा। आत्माओं के कैदखाने तक आसानी से नहीं पहुंचा जा सकता। रास्ते में खतरे हैं।”

प्रेमा की निगाह चमकती दीवार पर जा टिकी। जहाँ कमरा और वे सब नज़र आ रहे थे।

“मैं इन सबसे बात करना चाहती हूँ सौदागर सिंह।” प्रेमा ने गम्भीर स्वर में कहा।

“क्यों?”

“जरूरी तो नहीं कि तुम्हें हर बात का जवाब दूं।”

“अच्छी बात है। बातों के दौरान मेरी मौजूदगी की जरूरत होगी?” सौदागर सिंह की आवाज आई।

“नहीं। जरूरत पड़ी तो इसी तरह तुम्हें बुला लूंगी।”

“ठीक है। चमकती दीवार पर देखो। काला-सा बिन्दु अब नज़र आने लगा है। दांई तरफ।”

“हाँ।”

“जब तक वो काला-सा बिन्दु मौजूद रहेगा, उनसे बातें करने के तार जुड़े रहेंगे। मैं जा रहा हूँ।”

उसके बाद कई पल चुप्पी में बीत गये।

प्रेमा की निगाहें चमकती दीवार पर नज़र आ रहे। उन सब पर टिकी रहीं।

“मोना चौधरी...।”

प्रेमा ने देखा उसकी आवाज पर सब चौंक कर इधर-उधर देखने लगे।

“कौन?” मोना चौधरी के होंठों से निकला।

“नीलू-ये तो प्रेमा की आवाज लगती है।”

“लोगों का। ये तो उसो ही मिट्टी के बुतो वाली महिला की आवाजों हौवे ही।”

“तुम कहाँ हो प्रेमा?” जगमोहन के होंठों से निकला।

प्रेमा के होठो पर शांत सी मुस्कान उभरी।

“मैं सौदागर सिंह की कैद में हैं।” प्रेमा ने शांत स्वर में कहा।

“लेकिन तुम सौदागर सिंह की कैद में कैसे पहुंचीं?” मोना चौधरी कह उठी।

प्रेमा देख रही थी कि वो उलझन में फंसे कमरे में हर तरफ देख रहे थे।

“तुम किधर से बात करेला है बाप?”

“सौदागर सिंह की कैद में रहकर ही तुम लोगों से बात कर रही हूँ।” प्रेमा ने कहा-“मेरे सामने दीवार पर तुम सब लोग मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहे हो। मेरे कहने पर सौदागर सिंह ने तुम लोगों से बात करने का मुझे मौका दिया।”

“लेकिन तुम सौदागर सिंह की कैद में कैसे पहुँच गईं।” सोहनलाल ने कहा-“तुम तो पार्वती और दया के पास-।”

“हाँ। मैं उनके साथ थी। पार्वती चालबाज निकली। उसने दया को मार दिया और।”

प्रेमा ने बताया कि कैसे वो सौदागर सिंह की कैद में पहुंची।

“अब क्या होगा?” राधा कह उठी-“तुम उधर कैद में हो और इधर हम किसी बड़ी मुसीबत में फंसते जा रहे हैं।”

“ठीक कहती हो राधा। अब तुम लोग चक्रव्यूह के सबसे नीचे वाले हिस्से में फंसने जा रहे हो। वहाँ जिन्दा नहीं बचा जा सकता वहाँ से बाहर भी नहीं निकला जा सकता। सच बात तो ये है कि मौत ही तुम लोगों का भाग्य बन चुकी है।”

जवाब में कोई शब्द न आया।

प्रेमा ने देखा सब एक-दूसरे को देखने लगे थे।

“बचने का कोई रास्ता तो होगा कि हम लोग निकल सके।” पारसनाथ कह उठा।

“कोई रास्ता नहीं।

“तुम्हारा मतलब हम मर जायेंगे।” महाजन बोला।

“हाँ।”

“बहुत घटिया मौत मरेंगे। बिलकुल चूहे की तरह फंस कर।”

प्रेमा ने जवाब में कुछ नहीं कहा।

तभी मोना चौधरी कह उठी।

“सौदागर सिंह ने तुम्हारी बात कैसे मान ली कि, तुम हमसे बात कर सको। यूँ ही वो किसी की बात मानने वाला नहीं।”

“हाँ। ये बात ठीक कहीं तुमने।” प्रेमा कह उठी-“परन्तु तुम लोगों से बात करना उसने जरूरी समझा।”

“क्यों?”

“सौदागर सिंह कहता है कि वो तुम सबको बचा सकता है। देवराज चौहान की आत्मा तुम लोगों के हवाले करके, सबको काला महल में पहुँचा देगा और काला महल को सुरक्षित पृथ्वी ग्रह की तरफ रवाना भी कर देगा।”

“सौदागर सिंह की किसी बात पर विश्वास मत...।”

“सुन तो लो।” प्रेमा बोली-“तभी सब कुछ समझ पाओगी।”

मोना चौधरी होंठ भींचे खड़ी रही।

“वो मुझे अपनी सेविका बनाना चाहता है। इसके लिये मैं हां कर दूँ तो वो अपना कहा पूरा कर देगा। ऐसे में वो मेरे साथ कोई हेराफेरी-दगाबाजी नहीं कर सकेगा।” प्रेमा ने गम्भीर स्वर में कहा।

“इसका मतलब हम बच सकते हैं।” राधा के चेहरे पर खुशी नाचती नज़र आने लगी-“नीलू-अब तो मैं फिर से कोने वाले हलवाई के समोसे खा सकूँगी। कितना मजा आयेगा।”

“चुप कर।”

“क्यों-तेरे को खुशी नहीं हो रही नीलू कि-।”

“पहले यहां से निकल तो लें। खुशी फिर मना लेंगे।”

“हाँ-ये बात तो है।”

“तुम बहुत अजीब बात कर रही हो प्रेमा।” जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा।

“कैसी अजीब बात?” प्रेमा बोली।

“सौदागर सिंह तुम्हें क्यों अपनी सेविका बनाना चाहता है?”

“वो कहता है, मुझमें पवित्र और शैतानी शक्तियाँ, दोनों ही मौजूद हैं-जो उसके लिये फायदेमंद हैं।”

“कैसे?”

प्रेमा ने बताया कि कैसे।

कुछ पलों के लिये वहाँ खामोशी ही रही।

“अब तुम क्या चहेला बाप?”

“मैं तुम लोगों को बचाना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती तुम लोग मारे जाओ। देवराज चौहान के साथी हो तुम। मैं एहसानमंद हूँ देवराज चौहान की। उसने मुझमें जान डाली। ये जीवन उसका है। परन्तु मजबूर हूँ। अपनी मनमानी नहीं कर सकती।”

“क्या मतलब?” सोहनलाल के होंठों से निकला।

“क्या मजबूरी आ गई तुम्हें?”

“देवराज चौहान की आज्ञा के बिना मैं कुछ भी ऐसा फैसला नहीं ले सकती, जो सीधा उससे वास्ता रखता हो।”

“स्पष्ट कहो।”

“देवराज चौहान के हुक्म के बिना मैं सौदागर सिंह की सेवा ग्रहण नहीं कर सकती।”

“अब देवराज चौहान तो जिन्दा नेई बचेला बाप।” रुस्तम राव ने दाँत भींच कर कहा।

“वो जिन्दा हो जायेगा-अगर मैंने सौदागर सिंह की सेवा ग्रहण कर ली तो।” प्रेमा ने कहा।

सब एक-दूसरे को देखने लगे।

ठीक ही तो कह रही थी प्रेमा।

“और अगर तुमने सौदागर सिंह की सेवा ग्रहण नहीं की तो देवराज चौहान जिन्दा नहीं होगा। हम सब भी मारे जायेंगे।” मोना चौधरी गम्भीर स्वर में कह उठी-“हमसे ये सब बातें करके क्या कहना चाहती हो तुम?”

“देवराज चौहान की तरफ से तुम सब फैसला करके मुझे बता सकते हो कि मैं क्या करूँ?”

“क्या मतलब होएला।” बांकेलाल राठौर की आँखें सिकुड़ीं-“अंम फैसलो क्यों करो हो। यो तो थारी मुसीबत होवो हो।”

“मुसीबत तुम सबकी है। मेरी नहीं। फंसे तुम लोग हो। मैं नहीं।” प्रेमा ने शांत स्वर में कहा-“मैं नहीं चाहती कि तुम लोगों को जान गंवानी पड़े और ये भी नहीं चाहती कि देवराज चौहान जिन्दा होने के बाद कहे कि उसके हुक्म के बिना, मैंने सौदागर सिंह की सेवा क्यों ग्रहण की। ऐसे में मैं उससे बात करना चाहती हूँ जो देवराज चौहान के सबसे करीब हो। जिसकी बात देवराज चौहान की बात ही मानी जाये।”

प्रेमा के इन शब्दों पर चुप्पी सी छा गई वहाँ।

“जवाब दो। खामोश क्यों हो गये?”

“देवराज चौहान का लंगोटिया तो जगमोहन ही हौवे। क्यों छोरे?”

“परफेक्ट कहेला बाप।”

“जगमोहन।” महाजन बोला-“तुम बात करो।”

जगमोहन के चेहरे पर गम्भीरता आ ठहरी थी।

“क्या कहना चाहती हो?” जगमोहन बोला।

“मैं सौदागर सिंह की सेवा में चली जाऊँ तो देवराज चौहान जिन्दा हो जायेगा। तुम सब भी बच जाओगे। परन्तु बाद में देवराज चौहान इस बात पर एतराज न उठाये कि मैं सौदागर सिंह की सेवा में उनसे पूछे बिना क्यों गई?”

“नगीना भाभी भी कैद...।”

“नगीना भी आजाद होकर काला महल में पहुँच जायेगी।” प्रेमा कह उठी।

जगमोहन होंठ भींच कर रह गया।

“सब ठीक हो जायेगा, जैसे पहले था। परन्तु मुझे खोना पड़ेगा।”

“तुम्हें नहीं खोयेंगे तो, सब कुछ वैसे ही खत्म हो जायेगा।” जगमोहन गम्भीर स्वर में कह उठा-“हम ही जिन्दा नहीं रहेंगे तो हमें तुम्हारा क्या लाभ? तुम सौदागर सिंह की सेवा ले लो।”

“ये इतना आसान नहीं है, जितनी आसानी से तुम कह रहे हो।” प्रेमा कह उठी।

“क्या मतलब?”

“तुमने तो सरलता से मुझे सौदागर सिंह की सेवा में जाने को कह दिया।” प्रेमा ने अपने शब्दों पर जोर देने के बाद कहा-“परन्तु जिन्दा होने के बाद देवराज चौहान ने इस बात पर एतराज किया तो क्या होगा?”

“वो एतराज नहीं करेगा।” जगमोहन बोला-“मैं समझा दूंगा उसे।”

“तुम्हारी बात न समझा तो?”

जगमोहन होंठ भींचकर रह गया।

“जगमोहन। बातों तो वो ठीकरे बोले हां। ईब तों तब छाती ठोंको के गारण्टी लयो हो। बाद में देवराज चौहान थारी बातों पसन्द न करो तो तब का हो। वो प्रेमा भी तो इज्जत घरो हो अपणी। देवराज चौहान के सामनो झूठी बनो हो तबो। इस बातों का तो कोईयो ईलायो निकालो हो।”

“इसका कोई ईलाज नहीं।” जगमोहन ने दाँत भींचकर कहा-“मेरी जुबान ही मेरी गारण्टी है।”

“थारी जुबानो-।” बांकेलाल राठौर ने बात अधूरी छोड़कर मुँह फेर लिया।

“मुझे गारण्टी वाली बात चाहिये कि मैं देवराज चौहान के सामने झूठी न पड़ूँ।” प्रेमा ने कहा।

“मेरी जुबान ही गारण्टी है।” जगमोहन कह उठा।

रुस्तम राव, बांकेलाल राठौर के कान में बोला।

“सुनेला बाप। जगमोहन गारण्टी देईला।”

“उसो का है छोरे। वो तो सारी दुनिया को गारण्टी बाँटो हो मुफ्त में।”

प्रेमा एक लम्बे समय तक खामोश रही।

“चुप क्यों हो गईं तुम? सोहनलाल ने कहा।

“जगमोहन की बात पर तुम?” सोहनलाल ने कहा।

“जगमोहन की बात पर मेरी तसल्ली नहीं हो रही।”

“इस वक्त देवराज चौहान तो मेरे सामने है नहीं कि उसके मुंह से कहलवा दूं। कुछ विश्वास तो तुम्हें करके चलना ही होगा।”

“प्रेमा।” मोना चौधरी गम्भीर स्वर में बोली-“अगर देवराज चौहान ने एतराज उठाया तो हम उसे समझायेंगे।”

“देवराज चौहान एतराज नहीं उठायेगा।” जगमोहन कह उठा-“क्योंकि उसकी निगाहों में प्रेमा की ऐसी कोई अहमियत नहीं कि वो प्रेमा को हमेशा अपने पास रखना चाहे।”

“तुम ठीक कहते हो।” पारसनाथ ने कहा।

“इस बात से मैं भी सहमत हूँ।” महाजन ने कहा।

“देवराज चौहान की पत्नी तो नगीना है। वो भला प्रेमा में क्यों दिलचस्पी लेगा।” राधा बोली।

“चुप रहो। यहाँ शादी ब्याह की बात नहीं हो रही।” महाजन कह उठा।

“प्रेमा।” बांकेलाल राठोर बोला।

“हाँ।”

“तुम जगमोहन की गारण्टी पर भरोसो करो हो। यो लंगोटियो हौवो हो देवराज चौहानो का।”

“अच्छी बात है। मैं सौदागर सिंह की सेवा ग्रहण करने के लिये हामी भरने जा रही हूँ।”

“धोखा मत खा जाना प्रेमा।” मोना चौधरी बोली-“एक बार मैं धोखा खा चुकी हूँ। ऐसा न हो कि सौदागर सिंह तुम्हें अपनी सेवा में भी ले ले और अपनी बात भी पूरी न करे।”

“इस बात का मैं ध्यान रखूँगी।”

प्रेमा ने आगे बढ़कर दीवार हथेली रखी तो उसी पल काला बिन्दु गायब हो गया और कुछ पलों के बाद सौदागर सिंह की आवाज प्रेमा के कानों में पड़ी।

“बात हो गई प्रेमा...।”

“हाँ। तुमने सुना सब कुछ?”

“नहीं। बहुत व्यस्त हूँ मैं। ढाई सौ बरस के पश्चात शैतान की कैद से आजाद हुआ हूँ। मेरे पास साथी कम हैं और काम ज्यादा। इधर-उधर झांकने का मेरे पास वक्त नहीं है।” सौदागर सिंह की आवाज आई-“कहो, क्या फैसला किया?”

“फैसला लेने में कठिनाई हो रही है।” प्रेमा ने कहा-“क्योंकि मैं अपने असल मालिक देवराज चौहान से बात नहीं कर पा रही हूँ।”

“उससे तुम्हारी बात हो पाना सम्भव नहीं। इससे ज्यादा छूट तुम्हें नहीं मिल सकती।”

सोच भरे ढंग में सिर हिलाती प्रेमा कह उठी।

“फैसला कर लिया है मैंने। अब तुमसे बात करना आवश्यक हो गया है।”

“मुझसे-बात...।”

“हाँ।” प्रेमा ने सिर हिलाया-“मैं तुम्हारी सेवा में आने को तैयार हूँ। परन्तु जो बात है वो पूरी करनी होगी।”

“पहले वायदा पूरा करो। फिर मैं हाँ भरूँगी। तुम्हारी सेवा में आने के लिये।”

“जैसा तुम कहो। मुझे कोई एतराज नहीं।”

“काम एक बार फिर सुन लो। देवराज चौहान को जिन्दा करना है। देवराज चौहान के साथ जो भी इस आसमान पर आयें है, उन्हें हर मुसीबत से निकाल कर काला महल में पहुँचाना है नगीना को भी।”

“समझ गया।”

“फिर काला महल को यहाँ से सुरक्षित वापस भिजवा देना है।” प्रेमा कह रही थी-“इन सब कामों के दौरान मैं तुम्हारे साथ रहूँगी। ताकि देख सकूँ कि तुम किसी प्रकार का मुझे धोखा तो नहीं दे रहे ।”

“मैं तुमसे धोखेबाजी नहीं कर सकता प्रेमा।”

“क्यों।”

“क्योंकि तुम्हें अपनी सेविका बनाकर मैं साथ रखना चाहता हूँ। तुम मेरे ही कार्य करोगी।”

“जब तक मैं तुम्हारी सेवा में नहीं आती, तब तक मैं तुम्हारी किसी बात का विश्वास नहीं करूँगी।” प्रेमा शांत स्वर में कह उठी-“तुम मोना चौधरी को बहुत बड़ा धोखा दे चुके हो। शैतान की कैद से तुम्हें मोना चौधरी ने आजाद किया था। और तुमने उसे जुबान दी थी कि, देवराज चौहान की आत्मा उसे लाकर सौंप दोगे।”

“अवश्य। परन्तु मैं उसे देवराज चौहान की आत्मा क्यों दूँ। क्योंकि तब मैं खुद ही कैद से आजाद होने वाला था। वो न आती तो भी मुझे कोई परेशानी नहीं थी।” सौदागर सिंह की आवाज आई।

“ऐसा है तो फिर उससे वायदा क्यों किया तुमने सौदागर सिंह?”

“यही बातें तो तुम्हें समझानी हैं प्रेमा।”

“क्या?”

“इसे जन्म के कर्म करना कहते हैं, जबकि मनुष्य लोग कहते है, ये धोखेबाजी है। परन्तु नहीं। कर्म हैं ये। जब तुम मेरी सेवा में आओगी, तो कर्मों की इस पढ़ाई को समझ जाओगी। मैंने आज तक कोई भी काम गलत नहीं किया। ये बात तो गुरुवर भी जानते हैं।” सौदागर सिंह के स्वर में शांत भाव थे।

“सबसे पहला काम तो तुमने गुरुवर से विद्या सीखकर, शैतान से मिल जाने का काम गलत किया।”

“नहीं प्रेमा नहीं। ऐसा मत कहो। जिस बात से अन्जान हो, वो बात मुँह से मत निकालो।” सौदागर सिंह की आवाज कानों में पड़ी-“गुरुवर ने मुझे विद्या सिखाकर अपना कर्म किया। विद्या सीखने के बाद शैतान के साथ मिलकर मैंने अपना कर्म किया। इसमें धोखा कहीं भी नहीं। कर्मों की कड़ी जब पढ़ोगी तो सब समझ जाओगी। मनुष्य इन विद्याओं से बहुत दूर हैं। तभी तो भटके हुए हैं ये लोग दूसरे ग्रहों को पहचान रहे हैं। पृथ्वी से दूर जा रहे है परन्तु ब्राह्मण या जमीन के नीचे बसने वाली दुनिया को नहीं पहचान सके। अभी तक किसी ने सोचा भी नहीं कि किसी ऐसी जगह भी दुनिया हो सकती है। परीलोक कहाँ स्थित है, इस बात को भी नहीं जान सके। कहानियों में अवश्य परीलोक का जिक्र करके, अपना काम समाप्त हुआ समझ लेते हैं। ये सब चीजें हैं। परन्तु ये मनुष्य अपने ही दिमाग को ही सब कुछ समझते हैं। दूसरे को नहीं। इन्हें एक चीज पर विश्वास करने के लिये, दूसरे की गवाही चाहिये।

प्रेमा दिलचस्पी से सुन रही थी।

नये-नये ग्रह खोज रहे है। क्या फायदा उसका। ग्रह तो है। ब्राह्मण में ऐसी तरंगें छोड़ रखी हैं कि दूसरे ग्रह का प्राणी उन तरंगों को पहचान कर, सम्पर्क बनाकर, उनसे बात कर सके। जिस तलाश की तरफ मनुष्य को ध्यान देना चाहिये, उस तरफ तो ध्यान दे ही नहीं रहे।”

“जैसे?”

“जमीन के नीचे दुनिया है। वहाँ लोग रहते हैं। मैंने देखा है उन्हें। वहाँ रहा हूँ मैं। मनुष्य आज तक उन से सम्पर्क नहीं बना सका। शैतान और भगवान के जन्मदाता कहाँ रहते हैं, ये जानना तो ये भी नहीं जान पाया मनुष्य कि इनका जन्मदाता एक ही है और कहाँ रहता है। हजारों वर्षों के बाद भी अपनी जगह पर, वहीं का वहीं खड़ा, गलत दिशा की तरफ बढ़ाया मनुष्य अंजान-सा जा रहा है।”

“तुम बातें अच्छी कर रहे हो सौदागर सिंह, लेकिन ये हमारा मुद्दा नहीं है।”

“तुम ठीक कहते हो। मैं-।”

“उन सबको कैद से छुड़ाकर, काला महल पहुँचा दो। देवराज चौहान की आत्मा को पहुँचा दो। वहाँ और नगीना को भी कैद से निकाल दो। उनकी बातों से मैंने जाना है, कि भामा परी तुम्हारी कैद में है। तुमने उनके बीच अपनी शक्ति से माया परी बनाकर भेज दिया।”

“हाँ।”

“उसे भी आजाद होना चाहिये। उनकी कोई भी चीज तुम्हारे पास न हो।”

“ठीक है।” शब्दों के साथ सौदागर सिंह के हंसने की आवाज भी आई-“ऐसा ही होगा।”

“बहुत शराफत से मेरी बात मान रहे हो।”

“क्योंकि मुझे तुम्हारी जरूरत है। तुम्हारी जैसी सेविका मुझे कहीं नहीं मिलेगी।

“सेविका क्या होती है, मैं नहीं जानना चाहूँगी। मैं सिर्फ तुम्हारे कार्यों को पूरा करूँगी।”

“यही मैं चाहता हूँ।”

“मेरी निगाहों में तुम ही सौदागर सिंह हो। सौदागर सिंह कह कर ही पुकारूँगी तुम्हें।”

“मुझे एतराज नहीं।”

“तो पाकर सब काम पूर्ण करो। मुझे दिखाओ कि सब ठीक है। उसके बाद मैं तुम्हारे साथ काम करने को हाँ कहूँगी। बेहतर होगा कि इन सब कामों के दौरान मुझे अपने साथ रख लो।”

“बेशक साथ रहो। तुम्हारा मन साफ है तो मुझे कोई एतराज नहीं।”

“मेरे मन को न देखकर, अपने मन को मुझे दिखाओ तो वो ज्यादा अच्छा रहेगा।”

“आओ मेरे साथ। सब काम मैं तुम्हें दिखाकर ही करूँगा।”

“इससे अच्छी और क्या बात होगी।”

“तुमने शैतान को मार दिया है।” प्रेमा ने पूछा।

“हाँ। शैतान को मार दिया। परन्तु वो कभी नहीं मरता। शैतान सिर्फ एक नाम है। एक जायेगा-दूसरा आ जायेगा।”

“ओह।”

“शैतान के आसमान के हालात बहुत बदल चुके हैं। काकोदर ने शैतान के काम संभाल लिए हैं। महामाया मेरी तलाश में है। वे सब ज्यादा शक्ति रखते हैं उस शैतान से, जो मेरे हाथों से मारा गया है। खैर, इस बारे में फिर बात करेंगे। अब मैं तुम्हें अपने पास बुला रहा हूँ प्रेमा।”

इसके बाद चुप्पी छा गई।

कुछ ही पल बीते होंगे कि प्रेमा ने अपने शरीर में हल्का सा झटका महसूस किया और दूसरे ही पल उसे किसी धुएँ ने घेर लिया। फिर धुआँ सिमटने लगा और प्रेमा उसमें लुप्त होने लगी। कुछ ही क्षणों में प्रेमा और धुआं, कुछ भी वहाँ नहीं था।

☐☐☐

काली बिल्ली उसी तरह हवा में मौजूद थी।कमी वो बैठ जाती तो कभी चहलकदमी करने लगी। उसकी आँखें चमकती रही थी बराबर।

जब से वे सब गये थे, तब वे यहाँ ऐसा ही माहौल था वहाँ। कोई हलचल नहीं। शोर-शराबा नहीं। सनसना देना वाली चुप्पी वहाँ छाई हुई थी।

कि एकाएक वहाँ बे-आवाज हलचल हुई बिल्ली की चमकदार आँखें फुर्ती से घूमने लगी।

वो कोई सितारा लग रहा था। एकाएक ही वो सितारा काला महल के विशाल खुले दरवाजे से भीतर आया और इधर-उधर मंडराने लगा। बिल्ली की चमकदार, सिकुड़ी निगाह उस सितारे के विशाल खुले दरवाजे से मिनट तक यही नजारा रहा फिर वो सितारा धीरे-धीरे देवराज चौहान की लाश की तरफ बढ़ा और पास पहुँच कर, सितारा कई बार नीचे झुका। और फिर देवराज चौहान के कटे सिर के माथे पर जाकर ठहर गया।

पल ठहरे रहे जैसे।

बिल्ली की चमकदार आँखें उस सितारे पर टिकी रही।

फिर देखते ही देखते वो सितारा जैसे उसके मस्तिष्क के भीतर प्रवेश करने लगा। कुछ पलों में, माथे पर ठहरकर वो सितारा कटे सिर के मस्तिष्क में प्रवेश कर गया।

उसके बाद सब कुछ सामान्य दिखने लगा।

“कौन हो तुम?” बिल्ली का मुँह खुला।

जवाब में कोई आहट नहीं आई।

तभी देवराज चौहान के कटे सिर में हल्का-सा कम्पन हुआ। फिर कटा सिर धीरे-धीरे देवराज चौहान के कटे धड़ की तरफ सरकने लगा। देखते ही देखते वो वापस अपनी जगह पर चिपक गया। अब सिर्फ वहाँ निशान नज़र आ रहा था, जहाँ गर्दन और धड़ चिपके थे। तभी हरे रंग की रोशनी, आसमान पर चमकती बिजली की तरफ वहाँ आई और गर्दन के उस हिस्से पर लिपट गई, जहाँ चिपकने का निशान था।

चंद क्षणों तक वहाँ रोशनी चमकती रही। फिर लुप्त हो गई।

परन्तु अब गर्दन पर जुड़े का निशान नहीं था।

शरीर अब एक ही हिस्सा नज़र आ रहा था। गर्दन जैसे कभी कटी ही न हो। इसके साथ ही खून की लाल सुर्ख धार नज़र आई, जो देवराज चौहान के भीतर की नाभि को छूने लगी। ये सब भी कुछ क्षण ही रहा। फिर खून की वो धार लुप्त हो गई।

सब कुछ पहले की तरह सामान्य था।

मात्र एक ही बदलाव था वहाँ कि देवराज चौहान की लुढ़की गर्दन, वापस अपनी जगह पर लगी थी। इतनी बड़ी बात चुप्पी में ही हो गई थी। अब लगता था जैसे सब कुछ ठहर गया हो। इस चुप्पी में बहुत ही पैनी धार थी जो दिल और मस्तिष्क को जैसे चीर-फाड़ रही थी।

“कौन हो तुम?” बिल्ली के होंठ पुनः खुले।

“कैसी हो बिल्ली?” आवाज गूंजी।

“तुम-प्रेमा?” बिल्ली के होंठ तेजी से खुले।

“तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरा नाम प्रेमा रख दिया गया है।” प्रेमा की आवाज पुनः सुनाई दी।

“जो बातें मेरे से वास्ता रखती हैं, उन्हें मैं जान लेती हूँ।” बिल्ली के होंठ अजीब ढंग से हिल रहे थे-“मुझे इस बात की बहुत हैरानी हो रही है कि तुम देवा की आत्मा कैसे ले आईं यहाँ...!”

“मैं नहीं लाई देवराज चौहान की आत्मा को। मैं ये काम नहीं कर सकती। मेरे बस से बाहर की बात है ये। ये सारा काम सौदागर सिंह ने किया है।” प्रेमा की आवाज आई।

“झूठ कहती हो तुम।” बिल्ली की आवाज तीखी हो गई।

“क्यों?”

“सौदागर सिंह ये काम कभी नहीं करेगा। उसकी आदत किसी की सहायता करने के खिलाफ है।”

“लेकिन देवराज चौहान की आत्मा को यहाँ लाने और आत्मा को उसके शरीर में प्रवेश कराने, गर्दन को वापस अपनी जगह लगाने और शरीर में खून पहुँचाने का काम सौदागर सिंह ने किया है।” प्रेमा की आवाज सुनाई दी।

“सामने आओ।”

“क्यों?”

“मैं तुम्हें देखना चाहती हूँ। तुम नज़र क्यों नहीं आ रहीं। कहाँ हो...।”

“मैं तुम्हारे क्या किसी के सामने नहीं आ सकती। सौदागर सिंह के साथ काम में व्यस्त...।”

“सौदागर सिंह कहाँ है?”

“मेरे साथ है।”

“उससे मेरी बात कराओ।”

कुछ खामोशी के बाद प्रेमा की आवाज आई।

“वो तुमसे बात नहीं करना चाहता। उसकी निगाहों में तुम बहुत छोटी हो।”

“वो मक्कार खुद को इज्जतदार समझता है।”

“ऐसा मत कहो बिल्ली। जो भी हो, सौदागर सिंह तुमसे बहुत बड़ा है।”

“बहुत तरफदारी कर रही हो सौदागर...।”

“फिर गलत बात कह रही हो। सौदागर सिंह के कहने पर तुमसे एक बात का जवाब चाहती हूँ।”

“क्यों?”

“देवराज चौहान की गर्दन सौदागर सिंह ने अपनी शक्ति से जोड़ दी है। खून उसके शरीर में बना दिया है। आत्मा को लाकर देवराज चौहान के शरीर में प्रवेश करा दिया है।” प्रेमा की आवाज वहाँ सुनाई दे रही थी-“अब शरीर की कार्यप्रणाली को चालू करना है। क्या ये काम तुम करोगी या सौदागर सिंह ही कर दे।”

“सौदागर सिंह ये काम कर सकता है तो बेशक कर दे। मैं अपनी शक्ति क्यों खर्च करूँ।”

“सौदागर सिंह ने देवराज चौहान के शरीर की कार्य प्रणाली शुरू कर दी तो देवराज चौहान पर, सौदागर सिंह का एहसान हो जायेगा। कभी न कभी देवराज चौहान को, उस एहसान को चुकाना पड़ेगा।”

“ये मेरा नहीं देवा-और सौदागर सिंह का मामला है। देवा को फिर से जीवन मिल रहा है, ये क्या कम है।”

पलों की चुप्पी के बाद प्रेमा की आवाज पुनः सुनाई दी।

“बिल्ली। इस एहसान के बदले, सौदागर सिंह देवराज चौहान से कोई गलत काम भी करा सकता है वो गुरुवर के खिलाफ भी काम करा सकता है। मेरी मानो तो देवराज चौहान के शरीर की कार्य प्रणाली तुम चालू कर दो। ऐसा करना ही ज्यादा बेहतर रहेगा।”

“तुम सलाह दोगी मुझे कि मैंने क्या करना है?” बिल्ली की आवाज में सख्ती आ गई।

“सलाह दे रही हूँ बिल्ली। ये नहीं कह रही कि तुम मेरी बात अवश्य मानो। लेकिन मैंने जो कहा है सही कहा है।”

“जो काम दूसरे कर सकते हैं, उन्हें करने का कष्ट मैं क्यों उठाऊँ।”

“तो ये काम सौदागर सिंह कर दे।”

“बेशक करे। मुझे क्या!” बिल्ली हंसी-“एक बात मुझे समझ नहीं आई।”

“क्या?”

“तुम सौदागर सिंह के साथ क्यों?”

“अगर देवराज चौहान जिन्दा हो गया तो हमेशा के लिये मेरा साथ सौदागर सिंह के साथ हो जायेगा।”

“वो क्यों?”

“देवराज चौहान को जिन्दा करने के पीछे मेरी यही बात कायम है।” प्रेमा की आवाज आई।

“मतलब कि देवराज चौहान के जिन्दा होते ही तुम सौदागर सिंह की हो जाओगी।”

“अवश्य।”

“ऐसा क्यों? सौदागर सिंह तुम में क्यों दिलचस्पी ले रहा है?” बिल्ली की आवाज में उलझन थी।

“तुम नहीं जानती?”

“नहीं।”

“तो मैं भी नहीं बता सकती। जब वक्त आयेगा, खुद ही मालूम हो जायेगा। अब खामोश रहो। सौदागर सिंह देवराज चौहान के शरीर की कार्य प्रणाली को चालू करने जा रहा है।”

बिल्ली की चमकभरी आंखों में तीखापन उभरा और वो चहल कदमी करने वाले ढंग में इधर-उधर आने जाने लगी। गुरुवर की शक्तियों से भरी उसके गिर्द ही मंडरा रही थी। फिर वो ठिठकी और इधर-उधर देखते हुए नजरें देवराज चौहान के फर्श पर पड़े, शरीर पर जा टिकी।

तभी महल के उस हाल में ढेर सारे शोले उभरते दिखे और सारे के सारे ही एक साथ देवराज चौहान के मृत शरीर की ओर लपके और करीब पहुँचते ही, एक होते हुए, गर्दन में प्रवेश करते चले गये। लुप्त हो गये।

काली बिल्ली ने वहाँ से नज़रे हटाई और चहल कदमी करने लगी। उसकी चमकती आँखों में सोच, उलझन और परेशानी-सी दिखाई देने लगी थी।

“क्या हुआ। तुम उलझन से क्यों हो गईं?” प्रेमा की आवाज आई।

बिल्ली ठिठकी।

“आसानी से देवा को पुनः जीवन मिल गया। मुझे तो आशा नहीं थी कि-।”

“आसानी से नहीं मिला।” प्रेमा की आवाज ने उसकी बात काटी-“सबको बहुत मेहनत करनी पड़ी है। खतरों में कूदना पड़ा है। अच्छा बिल्ली, अब बात नहीं करूँगी। शेष सब मनुष्य आ रहे हैं। अभी उनसे बात नहीं कर सकती। फिर कभी मिल सकती तो अवश्य मिलूंगी। देवराज चौहान के शरीर में जीवन प्रवेश कर चुका है। ये कभी उठ खड़ा होगा।”

बिल्ली ने कुछ नहीं कहा।

उसके बाद प्रेमा की आवाज भी नहीं आई।

तभी रूई के कुछ गोले दिखाई दिए जो खुले दरवाजे के भीतर आते जा रहे थे। भीतर आते ही वो इधर-उधर बिखरने लगे। फिर वे गोले बड़े होने लगे। आदमकद साईज के होते ही गोले के चमकीले सितारे टूटने जैसी चमक हुई और देखते ही देखते वहाँ जगमोहन, महाजन, पारसनाथ, राधा, मोहनलाल, बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव, मोना चौधरी और भामा परी खड़े नज़र आने लगे।

बिल्ली के चेहरे पर शांत सी मुस्कान उभरी।

“आह।” महाजन के होंठों से निकला-“महल में आ पहुँचे हम।”

“इसका मतलब प्रेमा ठीक कह रही थी कि-“वो देखो-देवराज चौहान को देखो।” सोहनलाल के होंठों से हैरानी भरा स्वर निकला।

सबकी निगाह उस तरफ जा टिकी थी।

“देवराज चौहान की गर्दन जुड़ गई है।” पारसनाथ कह उठा।

“गर्दन जुड़ने का कहीं निशान भी नहीं।”

“नीलू-नीलू-ये कैसे हो गया? प्रेमा तो कह रही थी कि देवराज चौहान जिन्दा भी हो जायेगा।”

“ये सब देखकर तो लगता है कि जिन्दा हो पायेगा।”

जगमोहन ने बिल्ली को देखा। उसकी आँखों में आंसू और होंठों पर कम्पन था।

“ये-ये-क्या हो रहा है?” जगमोहन के होंठों से थरथराता स्वर निकला-“किसने किया ये सब?”

“तुम्हें नहीं मालूम जग्गू।” बिल्ली के होंठ हिले।

“प्रेमा ने?”

“प्रेमा का कहना है कि सौदागर सिंह ने अपनी शक्ति से सब किया है। वो ही देवा की आत्मा लाया।”

“आत्मा? तो देवराज चौहान की आत्मा आ गई?”

“हाँ जग्गू। आत्मा देवराज चौहान के शरीर में प्रवेश कर चुकी है। सौदागर सिंह हर कार्य को पूरा करते हैं। क्या कार्य किए, ये बताने की मैं आवश्यकता नहीं समझती।”

जगमोहन की आँखों से आंसू बहकर गालों पर आ लुड़के।

“देवराज चौहान जिन्दा हो...हो जायेगा?”

“हाँ।” बिल्ली मुस्कराई।

“सौदागर सिंह और प्रेमा यहाँ आये थे?” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में पूछा।

“मैंने किसी को देखा नहीं। प्रेमा की सिर्फ आवाज सुनी थी। उसी से बात हुई थी।”

सबके चेहरों पर राहत का समन्दर उभरा हुआ था।

“मुझे विश्वास नहीं आ रहा कि देवराज चौहान जिन्दा हो जायेगा।” पारसनाथ बड़बड़ा उठा।

“बाप।” रुस्तम राव बोला।

“का छोरे?”

“देवराज चौहान जिन्दा होएला बाप?”

“छोरे। गर्दनो जुड़ गये। अंम याँ ये पौंच गयो तो देवराज चौहान भी जिन्दा हो पायो।”

“नगीना कहाँ है?” राधा के होंठों से निकला।

“नगीना?”

“नगीना।”

सबकी निगाहें इधर-उधर घूमने लगीं।

तभी छोटा-सा धुंध भरा गोला भीतर आया। सबकी आँखें उस पर जा ठहरीं। जब वो गोला छंटा तो नगीना खड़ी नज़र आने लगी। सबको वहाँ देखकर, उसका चेहरा खुशी से खिल उठा।

“भाभी।” जगमोहन चीखा-”दे-देवराज चौहान जिन्दा हो जायेगा भाभी।”

“सच जगमोहन।” नगीना का स्वर खुशी से काँप उठा।

सब को इन्तजार था अब देवराज चौहान के होश आने का।

तभी सबको ही तीव्र झटका लगा। वे लड़खड़ाये, फिर संभल गये।

“ये क्या हुआ” जगमोहन के होंठों से निकला।

“बहुत जबर्दस्त झटका था।” पारसनाथ ने हर तरफ देखा।

“ये वैसा ही झटका था, जैसे झटका तब लगा था जब शैतान के अवतार की धरती से ये काला महल, शैतान के इस चौथे आसमान की तरफ रवाना हुआ था।” मोना चौधरी होंठ सिकोड़े कह उठी।

“ओह।” महाजन ने मोना चौधरी को देखा-“तो क्या काला महल वापस जा रहा है जैसे कि प्रेमा ने कहा था।”

तभी बांकेलाल राठौर की तरफ दौड़ा।

“छोरे। आईयो ज़रो।” (ये सब जानने के लिये पढ़े, पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)

रुस्तम राव भी उधर भागा।

दोनों खुली खिड़की के पास पहुंचे। बाहर झांका।

बाहर देखते ही दोनों हक्के-बक्के रह गये।

काला महल शैतान के आस्मान से ऊपर उठकर मध्यम-सी गति से एक तरफ जाता दिखा।

“यो महलों तो खिसक गयो।” बांकेलाल राठौर के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला।

“बाप।” रुस्तम ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी-“आपुन की वापसी होएला।”

बाकी सब भी वहाँ आकर खिड़की पर आ पहुँचे थे।

“नीलू-नीलू।” राधा खुशी से कह उठी-“हम-हम वापस जा रहे हैं।”

“हाँ।” महाजन के होंठों से भिंचा-सा स्वर निकला।

सब ही हक्के-बक्के रह गये थे।

“मुझे तो विश्वास नहीं आ रहा कि हम वापस जा रहे हैं।” सोहनलाल ने गहरी सांस ली।

“हम लोग पक्का वापस जाईला बाप। सौदागर सिंह ने प्रेमा से अपना वायदा पूरा किएला है।”

खुद में बेचैनी समेटे मोना चौधरी पलटी और काली बिल्ली को देखा।

“बिल्ली! महल कहाँ जा रहा है?” मोना चौधरी ने तेज स्वर में कहा।

“वापस । शैतान के अवतार की धरती पर।” बिल्ली ने शांत स्वर में कहा।

“वहाँ शैतान के अवतार का राज है।”

“शैतान के अवतार की जमीन थी कभी वो। परन्तु अब वो जगह शैतानी शक्तियों से मुक्त है। सामान्य जमीन है वो। शैतान को इतना वक्त नहीं मिल सका कि अपने अवतार को भेजकर, उस जमीन को पुनः शैतानी रंग में ला सके।”

“वहाँ पहुँच कर हम क्या कर सकेंगे?” पारसनाथ बोला।

“जो मन में आये करना।” बिल्ली मुस्कराई-“वहाँ पृथ्वी ग्रह की तरफ जा सकते हो। मुद्रानाथ वहाँ पर तुम लोगों के पहुंचने का इन्तजार करता मिलेगा। वो तुम सबको पृथ्वी ग्रह पर पहुँचा देगा।”

“मुद्रानाथ-वहाँ?”

“हाँ। गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल मैंने अब उसके हवाले करनी है। जब तक गुरुवर यज्ञ से बाहर नहीं आते, शक्तियों से भरी बाल अब उसके हवाले रहेगी। वो ही इसकी रक्षा करेगा।” बिल्ली ने शांत स्वर में कहा।

“गुरुवर का यज्ञ कब समाप्त होगा?”

“इसकी जानकारी मुझे नहीं है। गुरुवर का यज्ञ कभी भी समाप्त हो सकता है।” बिल्ली कह उठी-“सरजू और दया को खो दिया तुम लोगों ने। उन्हें अपने साथ जीवित नहीं ला सके।”

“वो-वो-उन्हें सौदागर सिंह के सेवकों ने मार दिया था।” जगमोहन बोला।

“प्रेमा से कहा नहीं कि उन्हीं भी जिन्दा करके इस महल में पहुँचा दो?”

बिल्ली के इन शब्दों पर वे एक-दूसरे को देखने लगे।

“तो क्या सौदागर सिंह उन्हें जिन्दा करेला बाप?”

“क्यों नहीं!” बिल्ली का स्वर शांत था-“सरजू और दया के शरीर सलामत थे। उनकी आत्मा कैद में पहुंच चुकी थी। चक्रव्यूह में सौदागर सिंह की हुकूमत है। सौदागर सिंह का एक इशारा उन दोनों को जिन्दा कर देता।”

“ओह। ये काम तो अब भी हो सकता।”

“अब नहीं हो सकेगा। काला महल की वापसी की रवानगी हो चुकी है। शैतान के आस्मान से तुम सब का नाता टूट चुका है। महामाया भी अब महल को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती।” बिल्ली ने पहले वाले स्वर में कहा।

“बुरा हुआ।” महाजन कह उठा-“उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया-वरना वो हमारे साथ होते।”

खामोशी सी छा गई वहाँ।

जगमोहन ने नगीना को देखा तो होंठ भींचकर रह गया। नगीना फर्श पर पड़े देवराज चौहान के शरीर के पास बैठी थी। उसका सिर अपनी गोद में रखा हुआ था।

“देवराज चौहान जिन्दा नहीं हुआ अभी तक।” जगमोहन का स्वर काँप उठा।

“जिन्दा हो जायेगा।” बिल्ली ने कहते हुये सिर हिलाया।

“कब?”

“मैं नहीं जानती। परन्तु जिन्दा होगा। इसके जिन्दा होने का मुझे सबसे ज्यादा इन्तजार है।”

“क्या मतलब?”

“मेरी कायाकल्प होने के तार गुरुवर ने देवा की आत्मा से जोड़ रखे हैं। देवा जिन्दा होगा तो मैं बिल्ली से युवती का रूप पा लूंगी। मनुष्य के रूप में आ जाऊँगी मैं।” बिल्ली ने गम्भीर स्वर में कहा।

“ओह।”

“धैर्य रखो। इन्तजार करो। कभी भी देवा जीवित हो उठेगा। सौदागर सिंह ने अपनी शक्ति से देवा में जीवन लाने के लिये सब जो कार्य पूर्ण कर दिया है। अब सब कुछ सर्वशक्तिमान पर सब कुछ बनाता और बिगाड़ता है। यकीनन वो खास कार्य में व्यस्त होगा। फुर्सत मिलते ही देवा को जीवित कर आशीर्वाद दे देगा। सांसें तो सर्वशक्तिमान ही भरेगा देवा के शरीर में।”

नगीना इन सब बातों से दूर, गोदी में रखे देवराज चौहान के माथे-सिर पर, प्यार भरा कांपता हाथ फेरे जा रही थी।

☐☐☐

वो ही आलीशान कमरा।

सौदागर सिंह और प्रेमा ही वे वहाँ।

प्रेमा कुर्सी पर आँखें बंद किए बैठी थी। व्याकुल भाव थे चेहरे पर। कभी-कभार पहलू बदले लेती थी। सौदागर सिंह कमर पर हाथ रखे खुली खिड़की के बाहर देख रहा था कि एकाएक पलटा।

“क्या सोच रही हो प्रेमा?”

प्रेमा ने आँखें खोलकर सौदागर सिंह को देखा फिर गम्भीर स्वर में बोली।

“देवराज चौहान के बारे में सोच रही हूँ।”

“उसकी फिक्र मत करो। शीघ्र ही उसके शरीर में जीवन आ जायेगा। सर्वशक्तिमान जल्द ही उसकी सांसों को चालू कर देगा।”

“मैं जानती हूँ कि वो जिन्दा हो जायेगा। परन्तु मेरी सोचों में कुछ और है।” प्रेमा ने उसे देखा।

“कहो। अब तुम अपनी हर परेशानी मुझसे कह सकती हो।”

“देवराज चौहान के साथियों ने तो वायदा कर लिया देवराज चौहान की तरफ से-जीवित होने के बाद देवराज चौहान इस बात पर कोई एतराज नहीं उठायेगा कि मैंने उसके हुक्म के बिना, तुम्हारी सेवा ग्रहण कर ली।” प्रेमा ने सिर हिलाया-“परन्तु उसने एतराज उठाया तो क्या होगा?”

“बेकार की बातें मत सोचो।”

“मेरे लिए ये बेकार की बात नहीं है-महत्वपूर्ण बात है।” प्रेमा ने टोका।

सौदागर सिंह ने प्रेमा के गम्भीर चेहरे को देखा फिर कह उठा।

“क्या कहना चाहती हो तुम?”

“मैं एहसानफरामोश नहीं बनना चाहती।” प्रेमा ने सौदागर सिंह को देखा-“अगर भविष्य में देवराज चौहान ने इस बात पर एतराज उठाया और मुझे वापस आने को कहा तो, मुझे उनके पास जाना ही होगा सौदागर सिंह।”

“ये क्या बात हुई ? तुमने मुझसे वादा किया है कि-।”

“तुमसे वायदा मैंने देवराज चौहान से नहीं, देवराज चौहान के साथियों से पूछ कर किया है। मजबूरी थी, तुम भी जानते हो कि देवराज चौहान से मैं पूछ नहीं सकती। वो मृत है। अगर देवराज चौहान को एतराज नहीं तो मैं हमेशा तुम्हारी सेवा में रहूँगी। मेरी तरफ से कोई भी गलत बात नहीं होगी।”

चंद पलों की खामोशी के बाद सौदागर सिंह ने गम्भीर स्वर में कहा।

“तुम्हारी बात मानने के अलावा मेरे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है अब।”

“मैं कभी भी जानबूझकर-सोच समझकर तुमसे दगा नहीं करूँगी।” प्रेमा बोली।

“तुम्हारी इस बात पर भरोसा है मुझे।”

“तुमने कहा था कि मुझमें पवित्र और शैतानी शक्तियों का वास है। कई शक्तियाँ हैं मुझमें। परन्तु मैं उनका इस्तेमाल नहीं जानती। मुझे बताओ कि वो शक्तियाँ कैसी हैं और कैसे मैं उनका इस्तेमाल कर सकती हूँ।”

सौदागर सिंह के कुछ कहने से पहले ही खुली खिड़की से आग का जलता हुआ गोला भीतर प्रवेश हुआ और उस हॉल कमरे में घूमने लगा। वो इस तेजी से घूम रहा था कि आग की लपटों की आवाजें कानों को महसूस हो रही थीं।

दोनों चौंके।

दूसरे ही पल सौदागर सिंह की आँखें सिकुड़ गई। होंठ भिंच गये।

“ये क्या है सौदागर सिंह।” प्रेमा के होंठों से निकला-“ये आग का गोला तो...।”

“सौदागर सिंह!” ढोल बजने जैसी गूंज थी उस आवाज में।

“मैं तुम्हें पहचान चुका हूँ महामाया।” भिंचे स्वर में सौदागर सिंह कह उठा।

“महामाया!” प्रेमा के होंठों से निकला। वो खड़ी हो गई।

“मैं जानती हूँ कि तुम मुझे पहचान लोगे। मैं तुमसे डरती नहीं जो यहाँ तक न आ सकूँ।”

“झूठ मत बोलो। डरती हो तुम मुझसे।”

“डरती तो कभी भी यहाँ ना आती।” महामाया की आवाज में तीखे भाव आ गये।

“मैं तुमसे ज्यादा ताकतवर हूँ।” सौदागर सिंह का स्वर कड़वा हो गया।

“लेकिन तुमसे टकराने में मुझे कभी परहेज़ नहीं रहा।”

“शैतानी शक्तियों से भरे आग के गोले में छिप कर आती हो और बात टकराने की करती हो।”

“इस तरह सामने आना मेरी मजबूरी है। मैं तुमसे बात करने आई हूँ-परन्तु जानती हूँ कि तुम मौके का फायदा उठाने से कभी नहीं चूकते। मुझे खत्म करने की कोशिश कर सकते हो।”

“वो मेरा कर्म है। सफलता तो सर्वशक्तिमान के हाथों में है।” सौदागर सिंह मुस्कराया-“सर्वशक्तिमान सबसे एक ही बात कहता है कि मैंने तुम्हें जन्म दिया। तुम कर्म करो। कर्म के हिसाब से फल में दूंगा। फलों का हिसाब तुम लोग मत रखो। सर्वशक्तिमान को इस बात से कोई वास्ता नहीं कि कौन शैतानी कर्म करता है या पवित्र कर्म करता है। इन सब बातों को तुम जानती हो। इसलिये ऐसी कोई भी बात करने का कोई फायदा नहीं। क्या बात करने आई हो?”

“तुमने शैतान को मार दिया?”

“उसने ढाई सौ बरस मुझे कैद में रखा था। वो भूल गया कि आजाद होते ही मैं प्रतिरोध लूंगा अपनी कैद का। खुद को बचाने-छिपने की अपेक्षा मेरे सामने आ गया। ऐसे में तो उसकी मौत और भी पक्की हो गई थी।”

“मैंने भेजा था शैतान को तुम्हारे पास, बात करने के लिये।”

“फिर तो तुम अपनी बेवकूफी का जिक्र कर रही हो।”

“चालाक मत बनो। मैं चाहती हूँ हम शत्रुता भूलकर मिल जायें। एक होकर काम करें और नाम कमायें।”

“असम्भव।” सौदागर सिंह बोला-“तुम लोगों के कार्यों में मैं अपनी भागीदारी पसन्द नहीं करूँगा।”

“कहीं तुम पर अच्छापन तो सवार नहीं हो गया?”

“मैं जैसा पहले था। वैसा ही अब हूं। मैं कर्मों पर यकीन करता हूँ। अच्छाई पर नहीं।”

आग का जलता गोला हवा में ठहरा हुआ तीव्र गति से घूम रहा था।

सौदागर सिंह की सतर्क निगाह उस पर ही टिकी थी।

“तुमने उन मनुष्यों को बचाकर वापस ही नहीं भेजा, बल्कि देवा की आत्मा भी उनके हवाले कर दी। बहुत गलत किया।”

“मैं अपने चक्रव्यूह में कुछ भी करूँ-तुम्हें बोलने का कोई अधिकार नहीं।”

“जिस जमीन पर तुमने चक्रव्यूह बना रखा है, वो जमीन शैतान ने ही कभी तुम्हें दी थी।”

“अवश्य।” सौदागर सिंह मुस्कराया-“मैं जानता हूँ तुम क्या कहने जा रही हो।”

“ग्रहों के हिसाब से, इस आसमान पर रहने का तुम्हारा वक्त समाप्त हो चुका है। अगर तुम यहाँ रहे तो तुम्हारी शक्तियाँ कमजोर पड़नी आरम्भ हो जायेंगी। बहुत बुर मौत मरना पड़ेगा तुम्हें।” महामाया की आवाज गूंजी।

सौदागर सिंह जहरीली हंसी हंसा।

“हंसो मत।”

“हंसना पड़ता है, जब पता चले कि दुश्मनों को, मेरी सेहत की चिन्ता होने लगी है। तुम जो कह रही हो, वो मालूम है मुझे। इस स्थिति में मेरी शक्तियाँ कमजोर होने में सौ बरस लगेंगे। सौ बरस तक मैं आसानी से तुम सबकी शैतानी शक्तियों का बचाव कर सकता हूँ और सौ बरसों में कम-से-कम दस बार शैतानी साम्राज्य को तबाह कर सकता हूँ।”

महामाया की हंसी की आवाज उभरी।

लपटों से घिरा आग का गोला हवा में स्थिर था।

“तुम क्यों हंसीं?”

“तुम्हारी नादानी पर सौदागर सिंह।” आवाज गूंजी महामाया की।

“नादानी और मुझसे-कैसी नादानी?” सौदागर सिंह की पैनी निगाह आग के गोले पर थी।

“जिस जगह पर तुम्हारा चक्रव्यूह है, तुम्हारी नहीं है ये जगह। शैतान ने कभी तुम्हें उधार-स्वरूप दी थी ये जगह और उधार स्वरूप दी गई किसी भी चीज की मियाद-सीमा होती है।”

“ओह! समझा।” सौदागर सिंह के माथे पर बल दिखाई देने लगे-“मैं जानता था कि ये वक्त आना है। परन्तु ढाई सौ बरस की कैद के बाद ही आ जायेगा-नहीं मालूम था।”

“शायद ये वक्त देर से आता। परन्तु कैद से आजाद होते ही तुमने एक के बाद एक काम हमारी दुनिया के खिलाफ करने शुरू कर दिए। इससे ज्यादा हम तुम्हें मौका नहीं दे सकते। खतरा हो तुम हमारी दुनिया के लिये-। अगर तुम्हें ज्यादा वक्त दिया गया तो, खतरा बड़ा हो जायेगा हमारे लिये।”

“तो तुमने हमें मिलाने वाली उन तारों को तोड़ दिया?”

“हाँ। तारों को तोड़कर सीधी ही तुम्हारे पास आई हूँ। काकोदर ने शैतान के सभी कार्यों को संभाल लिया है। जब तक शैतान के कार्यों के लिए उपयुक्त मशीनी मानव नहीं मिलता, तब तक काकोदर ही सब कार्यों को संभालेगा। और अब तक काकोदर चक्रव्यूह में शैतान द्वारा रखी आत्माओं को वहाँ से निकाल लाया होगा। तारों को तोड़ देने से अब तुम्हारा चक्रव्यूह कभी भी तबाह हो सकता है। हमने अपना कार्य पूर्ण कर दिया।”

“इतनी जल्दी हार मान गईं महामाया। तुम्हें मुझसे मुकाबला।”

“मैंने हार नहीं मानी।” महामाया की आवाज आई-“सम्बन्ध की तारों को तोड़ना जरूरी हो गया था। सच बात तो ये है कि तुमसे मुकाबला करने के लिये ही इन तारों को तोड़ना पड़ा। अगर मैं अब मुकाबला करती तो ये मुकाबला छोटा रहता। हार-जीत के फैसले में ज्यादा देर न लगती और मजा भी न आता। क्योंकि तुम हारने पर ये कह सकते थे कि लड़ने के लिये तुम्हारे पास अपनी जमीन नहीं थी। शैतान के आस्मान की जमीन पर लड़कर हारे। इधर यहाँ के बिगड़े हालातों की वजह से मैं व्यस्त हूँ। यहाँ के हालातों को सुधार कर फुर्सत में लड़ना ही मेरे हित में है।”

“तुमने मुझे खबर क्यों दी कि सम्बन्ध की तारों को तोड़ लिया?”

“इसीलिये कि हमारी हार-जीत लड़ाई के खुले मैदान में हो। फैसला हो तो बराबर का हो कि किसकी विद्या में ज्यादा ताकत थी। सम्बन्धों के तार तोड़ने की खबर तुम्हें न बताती तो, ध्वस्त होने वाले चक्रव्यूह में तुम खुद को नहीं बचा सकते थे और जान गवाँ बैठते। फिर मैं कैसे पसला करती कि हममें कौन ताकतवर था।”

“ओह! समझा।”

“सम्बन्ध के तार टूटने के बाद शैतान के आसमान पर तुम्हारा ठहरना खतरनाक है। कभी भी चक्रव्यूह तबाह होना शुरू हो जायेगा। फिर तुम नहीं बच सकोगे। ऐसे में तुम्हें इस जगह से चले जाना चाहिये। कहीं ओर अपनी दुनिया बसानी पड़ेगी। या फिर गुरुवर के चरणों में जाकर शेष जीवन व्यतीत करो। परन्तु शैतान के आसमान से तुम्हारा सम्बन्ध समाप्त हो चुका है। मैंने आगाह करके तुम्हारा जीवन बचा लिया कि अब जब भी हम में युद्ध हो तो मैं खुद को तुममे श्रेष्ठ साबित कर सकूँ।”

सौदागर सिंह के चेहरे पर कहर भरी मुस्कान उभर आई।

“तुम मुझसे श्रेष्ठ नहीं हो।”

“सौदागर सिंह! अभी तुम महामाया की माया से वाकिफ ही कहाँ हो।” लपटे उगलते आग के गोले से आवाज निकल रही थी-“देखा नहीं मेरी माया का कमाल कि पलों में ही मैंने तुम्हें चाहकर भी यहाँ नहीं रुक सकते। शैतान के आसमान से जाने के लिये मजबूर कर दिया। अब तुम चाहकर भी यहाँ नहीं रुक सकते।”

“मैं जानता हूँ कि कभी तो मुझे यहाँ से जाना ही था।” सौदागर सिंह व्यंग्य से हंसा-“फिर भी ढाई-तीन सौ सालों से मैं तुम लोगों के आसमान पर अपनी जगह बनाए बैठा रहा। ये मेरी जीत ही है। इसी से मेरी श्रेष्ठता साबित हो जाती है।”

“इस तरह कुछ भी साबित नहीं होता। जाओ-मैं तुम्हें पूरा मौका दे रही हूँ कि अपनी दुनिया कहीं भी बसा लो। फिर वहाँ से तुम्हारे और मेरे बीच श्रेष्ठता के युद्ध की शुरूआत होगी। हम दोनों में से श्रेष्ठ कौन है-इस बात का फैसला होने के बाद, हममें मौत और जीवन का फैसला होगा सौदागर सिंह।”

सौदागर सिंह के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान स्थिर रही।

तभी वो आग की लपटों वाला गोला अपनी जगह से हिला और कमरे में चकराता हुआ धीरे-धीरे उसी खिड़की से बाहर निकलता चला गया, जहाँ से वो भीतर आया था।

प्रेमा स्तब्ध सी खड़ी सब देख सुन रही थी।

आग के गोले के जाते ही सौदागर सिंह के होंठों से व्यंग्य भरी मुस्कान गायब हो गई। गहरी सांस लेने के पश्चात दोनों हाथ कमर पर बांधे वो चहलकदमी करने लगे।

“महामाया क्या कह गई सौदागर सिंह? सम्बन्धों की तार की क्या बात है।” प्रेमा ने पूछा।

सौदागर सिंह ठिठका। प्रेमा को देखा।

“मुझे जब यहां शैतान ने जगह दी तो सम्बन्धों की तार बांध दी। शैतान के पास एकमात्र वो ही हथियार था कि जब वो मुझे खतरा समझे। सम्बन्धों की तार को तोड़ दे। ऐसा करते ही, शैतान के आसमान पर रहते हुए मेरी शक्तियाँ नष्ट होना शुरू हो जायेंगी। मेरा बनता चक्रव्यूह टूट जायेगा। अब भी मैंने ये जगह नहीं छोड़ी तो कभी भी मेरा अंत होना शुरू हो जायेगा। अगर महामाया ये बात मुझे न बताती तो कुछ ही देर में मुझे मेरी शक्तियों ने सम्बन्ध की तार टूटने का एहसास करा देना था।”

“ओह।”

“अब मुझे शैतान के आस्मान को छोड़कर जाना होगा। कहीं और अपनी जगह बनानी होगी। वहाँ से मैं महामाया के खिलाफ अपनी लड़ाई शुरू करूँगा।” सौदागर सिंह का स्वर कठोर हो गया-“सम्बन्धों की तार तोड़कर महामाया ने मेरे से लड़ाई की शुरूआत की है। उस लड़ाई को मैं अवश्य जारी रखूगी। जब तक महामाया से मेरी हार-जीत का फैसला नहीं होगा, मैं चैन से नहीं बैठ सकूँगा।”

प्रेमा, देखती रही सौदागर सिंह को।

“लेकिन-।” प्रेमा कह उठी-“यहाँ से तुम एकाएक कैसे जा सकते हो? यहाँ तुम्हारा कई तरह का सामान होगा। क्या उसे यहीं छोड़कर जाओगे। फिर ये भी तो नहीं मालूम कि कहाँ जाना है?”

“मालूम है। मैं जानता था कि एक दिन मुझे यहाँ से जाना पड़ेगा। कहाँ जाऊँगा, वो जगह मैंने ढाई सौ बरस पहले, शैतान की कैद में जाने से पहले ही चुन ली थी।”

प्रेमा ने सोच भरे ढंग से सिर हिलाया।

“तुमने कभी गुरुवर को छोड़कर शैतान का दामन थामा था।”

“अवश्य प्रेमा।”

“क्या फिर से गुरुवर के पास जाना तुम्हारे लिये बेहतर नहीं होगा।” प्रेमा ने कहा।

“ऐसा करके मैं गुरुवर को कमजोर नहीं बनाऊँगा। वो कभी भी ये पसन्द नहीं करेंगे कि उनका शिष्य कहीं से हार मानकर वापस उनके चरणों में आ जाये।” सौदागर सिंह ने दृढ़ता भरे शब्दों में कहा-“एक दिन मैं गुरुवर के पास अवश्य वापस जाऊँगा। परन्तु उनका कमजोर शिष्य नहीं-। होनहार शिष्य बनकर।”

“मतलब कि गुरुवर की इज्जत तुम्हारे मन में है।”

“हाँ। परन्तु इज्जत करने का ये मतलब नहीं कि सौदागर सिंह अपने अस्तित्व को मिटा दे। मैं अपने अस्तित्व पर कोई आंच नहीं आने दूंगा। गुरुवर की वजह से मेरा अस्तित्व काँपा तो गुरुवर से भी दूर हो जाऊँगा।”

“इसका मतलब तुम गुरुवर की इज्जत मन से नहीं करते।”

“गलत मत कहो। गुरुवर की ही शिक्षा है कि अपने कर्मों के सामने किसी को मत आने दो। पहले कर्म, बाकी बातें बाद में।” सौदागर सिंह ने गम्भीर स्वर में कहा-“अपनी दुनिया अलग बसाऊँगा। गुरुवर को खुशी होगी कि उनका शिष्य सौदागर सिंह इस काबिल है कि अपनी दुनिया अलग बसाकर, शैतान लोक से लड़ाई करने की हिम्मत रखना है। मैं अच्छा करूँ या बुरा, ये बात ये कभी भी नहीं मिट सकती कि मैं गुरुवर का शिष्य हूँ।”

प्रेमा गम्भीरता से सौदागर सिंह को देखती रही। कहा कुछ नहीं।

“सम्बन्धों के तार टूट जाने के बाद अब यहाँ रूकना ठीक नहीं प्रेमा। हमें अभी चलना होगा। तुम मेरे साथ ही चलोगी। मेरी शक्तियाँ मेरा जरूरी सामान मेरे पास पहुँचा देंगी। अब तुम मेरे साथ जीवन की सख्त और तकलीफदेह डगर तय करोगी। जिन्दगी के सच-झूठ का सामना करोगी। आओ, मेरे पास आओ। हाथ थाम लो मेरा।”

प्रेमा आगे बढ़ी और सौदागर सिंह का हाथ थाम लिया।

सौदागर सिंह ने आंखें बंद की और होंठों में कुछ बड़बड़ाया। उसी पल दोनों के शरीर गायब होते हुए इस तरह हवा में घुल गये, जैसे वहां कोई हो ही नहीं। सौदागर सिंह ने आज हमेशा-हमेशा के लिये शैतान के आसमान को छोड़ दिया था और चला गया था अपनी दुनिया बसाने। जहां से उसने महामाया के खिलाफ लड़ाई शुरू करनी थी और ये साबित करना था कि वो महामाया की माया कम नहीं है। उसके पास ऐसी शक्तियां हैं, जिसकी काट उसके पास भी नहीं है। अब जो भी होना था, वो भविष्य के गर्भ में था।

मौत का कहर तो बरसना ही था।

☐☐☐

सब को इन्तजार था देवराज चौहान के जिन्दा होने का।

देर से गहरी खामोशी छाई हुई थी वहां। रह-रह कर सबकी नजरें देवराज चौहान के नीचे पड़े शरीर पर जातीं। नगीना ने देवराज चौहान का सिर अपनी गोदी में रखा हुआ था। बराबर उसके सिर पर हाथ फेर रही थी। देवराज चौहान की गर्दन जुड़ जाने से सबको जैसे विश्वास था कि वो जिन्दा हो पायेगा।

पल-पल बीतना भारी पड़ रहा था।

आंखों ही आंखों में सब बात कर रहे थे कि देवराज चौहान अभी जिन्दा क्यों नहीं हुआ।

कब जिन्दा होगा वो? पहले की तरह कब वो उनके बीच उठ बैठेगा। बोलेगा। बातचीत करेगा।

“नीलू। मेरे को तो गड़बड़ लग रही है।” राधा महाजन के कान में कह उठी।

“क्या?”

“ये देवराज चौहान जिन्दा ही न हो और काला महल वापस नीचे पहुंच जाये। तब हम क्या करेंगे? किससे बात करेंगे? प्रेमा या सौदागर सिंह तो है नहीं हमारे पास जो-।”

तभी पास खड़ी भामा परी कह उठी।

“ऐसा नहीं होगा।”

दोनों की निगाहें भामा परी के गम्भीर चेहरे पर गईं।

“क्या मतलब?”

“मैं सौदागर सिंह की कैद में पहुंच गई थी। वो मुझे हरगिज भी आजाद न करता, अगर इस मामले में उसके मन में कोई बेइमानी होती। अभी तक उसने अपनी हर बात पूरी की है।” भामा परी ने गम्भीर स्वर में कहा-“यहां तक कि देवराज चौहान की गर्दन भी जोड़ दी। बिल्ली का कहना है कि देवराज चौहान में सौदागर सिंह उसकी आत्मा प्रवेश करा गया है। शरीर में खून भी पहुंचा दिया है। हर काम कायदे से हो रहा है। अब सिर्फ सर्वशक्तिमान की तरफ से ही कमी है। उसे फुर्सत मिली तो वो देवराज चौहान के शरीर में सांसें डाल देगा। सौदागर सिंह कोई गड़बड़ नहीं कर रहा।”

राधा और महाजन की नजरें मिलीं।

“सर्वशक्तिमान कौन है?”

“वो, जो सबको जीवन देता है। जिसे कोई भी नहीं जानता। उसके कार्यों को कोई भी समझ नहीं पाता।”

“तुम जानती हो उसे?”

“नहीं। बचपन में देवता ने जो शिक्षा दी, उसमें सर्वशक्तिमान के बारे में बताया था।” भामा परी ने कहा।

“ओह-तब तो...।”

उसी क्षण चीख उठी नगीना।

“जगमोहन। ये देखों-सब देखो-इसकी सांसें चलने लगी हैं।” नगीना के कम्पन भरे स्वर में थरथराहट थी। आंखों से झर-झर आंसू बह निकले थे-“ये-ये जिन्दा हो गये। म-मेरे देवराज चौहान जिन्दा हो गये। मैं-मैं विधवा नहीं हूं। सुहागिन हूं मैं। कितनी खुशनसीब हूं मैं अब-अब मैं फिर मांग में सिन्दूर लगा पाऊंगी इनके नाम का। लाल साड़ी पहन सकूँगी। भगवान ने मेरी सुन ली। शैतान से बड़ा है वो, जो मेरे देवराज चौहान को जिन्दा कर दे, उससे बड़ा दुनिया में दूसरा नहीं। वो ही मेरा सबसे बड़ा पूजनीय है सुहाग के बाद। आह-कितना पवित्र और आत्मा को शान्ति पहुंचाने वाला वक्त है ये। इस दुनिया की-इस ब्रह्माण्ड की सबसे खुशनसीब औरत हूं में। मुझे मेरी ही नजर न लग जाये।” फफक पड़ी नगीना। आंखों में बहते आंसू और तेज हो गये। गर्म-गर्म आंसू देवराज चौहान के शांत चेहरे पर गिर रहे थे।

जगमोहन की आंखों में भी आंसू आंसू चमक उठे थे। वो मुस्करा रहा था। सबके चेहरों पर खुशी थी। अचानक ही वहां का माहौल खुशनुमा हो गया था।

“छोरे-।” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया।

“बाप-।”

“म्हारा शेर नींद से जागो हो।”

“हां बाप-।” रुस्तम राव की मासूम नीली आंखें खुशी से भरे आंसुओं से चमक रही थीं।

“थे तो बोत बढ़ियो बात हो गयो। सुखो ही सुखो मिलतो हो म्हारे दिलो को। म्हारी खोपड़ियो को-।”

तभी बिल्ली ने छत की तरफ मुंह किया।

“म्याऊँ-।”

कइयों की निगाह बिल्ली की तरफ गई।

“देख-उठने वाला है।” बिल्ली के चेहरे पर मुस्कान फैली दिखी।

किसी ने कुछ नहीं कहा। नजरें देवराज चौहान की तरफ पुनः उठ गईं।

☐☐☐

देवराज चौहान के शरीर में हल्का-सा कम्पन हुआ। होंठों से तीव्र कराह निकली।

वो कराह जैसे सबको खुशियों से भरा जीवन दान दे गई। वहां मौजूद सबके चेहरे प्रसन्नता से भर उठे। आंखों में चमक दिखाई देने लगी।

बिल्ली ने मुंह छत की तरफ किया। मुंह खुला।

“म्याऊँ-।” उसके होंठों से तीव्र स्वर में आवाज निकली।

“वाह भगवान।” पारसनाथ की आवाज में हल्का सा कम्पन था-“तेरे रंग निराले।”

सोहनलाल की आंखों में खुशी से भरे आंसू नजर आने लगे थे।

मोना चौधरी के होंठों पर मुस्कान थी परन्तु आंखें गीली थी।

जगमोहन की टांगों में खुशी भरे कम्पन ने ऐसी उछाल मारी कि उसके लिये खड़ा रह पाना जब कठिन महसूस हुआ तो वो घुटनों के बल नीचे बैठता चला गया।

“नीलू-।” राधा के होंठों से अविश्वास भरा स्वर निकला-“ये सच में जिन्दा हो रहा है।”

होंठ भींचे महाजन ने सिर हिला दिया।

देवराज चौहान का पुनः शरीर हिला। इस बार होंठों से मध्यम-सी कराह निकली।

“ये-ये जीवित है।” नगीना की आवाज थरथरा रही थी-“होश आ रहा है इन्हें।”

कोई कुछ न बोला। हर किसी की निगाह देवराज चौहान पर थी।

“हे मेरे देवता।” भामा परी बुदबुदा उठी-“सबकी रक्षा करना। अब किसी के साथ अनर्थ न हो।”

देवराज चौहान के बेहोश शरीर की हरकत बढ़ती जा रही थी।

फिर उसकी पलकों में थिरकन होती पाकर नगीना के दिल की धड़कन खुशी के मारे रुकती-सी मालूम हुई। मिनट भर तक पलकें इस तरह हिलती रहीं, जैसे उन्हें खोलने की कोशिश की जा रही हो और वो खुश न रही हो।

देवराज चौहान की पलकें खुलीं।

नगीना की आंखों से आंखें मिलीं।

लगा जैसे वक्त ठहर गया हो। दोनों की निगाहें अपलक एक-दूसरे को देखती रहीं।

“नगीना-।” देवराज चौहान के होंठों से मध्यम-सा स्वर निकला।

“होश आ गया आपको। कैसे हैं आप-।” तड़प उठी नगीना।

देवराज चौहान को जैसे अपने अंक में भर लिया।

“ओह नगीना-।” देवराज चौहान के होंठों से अस्पष्ट-सा स्वर निकला।

नगीना की आंखों से बहते आंसू देवराज चौहान के सिर के बालों को भिगो रहे थे।

तभी दोनों हाथों से चेहरा ढांपे जगमोहन जोर-जोर से फफक उठा।

“बाप, वो रोईला है।”

“गलत कहो हो छोरे। जगमोहन तो जश्न मनावे हो। देवराज चौहान के जिन्दो होने पर खुशी दिखावो हो।” बांकेलाल राठौर की आंखों में आंसू आ ठहरे थे।

खुशी में सब ही कांप रहे थे।

हर किसी की हालत जुदा-जुदा सी थी।

भामा परी के चेहरे पर जीवन से भरी शांत मुस्कान थी। देर बाद वो जैसे आज हर परेशानी से दूर नजर आ रही थी। खुशी की पूर्ण चमक उसकी आंखों में देर बाद दिखी थी।

बिल्ली हवा में शति-सी बड़ी चमकपूर्ण निगाहों से देवराज चौहान को देख रही थी।

“क-कैसे हैं आप?” नगीना के होटों से भीगा-सा स्वर निकला।

“ठ-ठीक हूँ। कमजोरी है।” देवराज चौहान ने धीमे स्वर में कहा-“सहारा देकर मुझे बिठा देना।”

जगमोहन का फफकना अब ठीक हो गया था।

देवराज चौहान का जिन्दा हो जाना, उनके लिये अद्भुत था।

नगीना ने सहारा देकर देवराज चौहान को बैठा दिया। देवराज चौहान की निगाह हर तरफ जाने लगी। सबको सामने पाकर देवराज चौहान के चेहरे पर मध्यम-सी मुस्कान उभरी।

“थारे को मालूम हो कि शैतानो चक्रो ने गर्दन ‘वड’ क्यों थारी-।”

“हां।” देवराज चौहान ने बांकेलाल राठौर को देखा।

“ईब ये न पूछा हो कि जिन्दो कैसो हो गयो?”

“मैं नहीं पूछूँगा।” देवराज चौहान ने कहा-“सब मालूम है कि मैं जिन्दा कैसे हुआ।”

“तुम्हें कैसे मालूम?” मोला चौधरी के होंठों से निकला।

“मैं नहीं जानता। परन्तु सारी जानकारी मेरे भीतर है। जैसे मुझे बताया गया हो सबकुछ-।”

देवराज चौहान के इन शब्दों पर एकाएक कोई कुछ न कह सका।

“सौदागर सिंह और प्रेमा नहीं है यहां?” देवराज चौहान ने पूछा।

“न-हीं-।” महाजन के होंठ, हैरानी से हिले।

“बाप ये तो सब जानेला है।” संजय राव अजीब से स्वर में कह उठा।

“छोर। इसी की आत्मो बोत जगहो घूमो के आयो। जातो हवा ने बता दयो इसो सारी बातो।”

“सरजू और दया के बारे में मालूम है?” राधा ने टटोलने वाले ढंग में पूछा।

“हां। उन्हें भी यहां होना चाहिये था।” देवराज चौहान ने धीमे-गम्भीर स्वर में कहा-और नगीना को सहारा लेकर उठ खड़ा हुआ। वो अपने शरीर में कमजोरी महसूस कर रहा था-“प्रेमा को ध्यान नहीं रहा और तुम सबने भी जल्दी कर दी। सौदागर सिंह के लिये मामूली काम था, सरजू-दया को जिन्दा करके यहां पहुंचा देना। परन्तु तुममें से किसी ने भी उसके सामने उनका जिक्र नहीं किया।”

“हां” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में कहा-“ये भूल जाने कैसे हमसे हो गई।”

“अब तुम खुद को कैसा महसूस करेला बाप?”

“अच्छा।” देवराज चौहान ने मुस्करा कर कहा-“पहले की ही तरह सामान्य महसूस कर रहा हूं। शरीर में कमजोरी अवश्य है। इसलिये कि कई दिनों से मेरा शरीर हिला नहीं। एक-दो दिन में पूरी तरह स्वस्थ हो जाऊंगा।” इसके साथ ही देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा जिसकी आंखें गीली पड़ी थीं-“तू क्यों चुप है। बोलता क्यों नहीं-।”

“क्या बोलूँ-।” जगमोहन की आंखों से पुनः आंसू बह निकले। “बहुत रूलाया तूने। आंसू भी सूख गये थे।”

देवराज चौहान की आंखों में पानी चमका। कुछ न कहकर, सिगरेट सुलगा ली।

“म्याऊँ-।”

तभी सबकी निगाह बिल्ली की तरफ गईं।

देवराज चौहान ने भी उसे देखा और आंखें सिकुड़ गईं।

“ये तो मोना चौधरी की बिल्ली है।” देवराज चौहान के होंठों से निकला।

“हां।” जगमोहन के होंठों से निकला-“तुम इसके बारे में नहीं जानते क्या?”

“नहीं।” देवराज चौहान ने आंखें सिकोड़े इन्कार में सिर हिलाया-“ये बाल जैसी चीज कैसी जो...?”

“ये गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल है।” राधा ने कहा।

“क्या?” देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन नज़र आने लगी-“गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल जिसे हम शैतान के अवतार के हाथों से बचाना चाहते थे।”

“हां। पहले बिल्ली से वास्ता रखती सारी बातें जान लो। फिर बाकी की बातें भी समझ जाओगे।” जगमोहन ने कहा-“ये बिल्ली मोना चौधरी के पूर्व जन्म की साथी है। परन्तु अब ये गुरुवर की सेवा में जा चुकी है। गुरुवर ने इसे विद्याओं का ज्ञान दिया है। इस वक्त ये गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल की रक्षा कर रही है।”

“ओह-।”

उसके बाद देवराज चौहान को बिल्ली से वास्ता रखती सारी बातें बताई गई।

“तो अब तुम मनुष्य के रूप में आ जाओगी।” सब कुछ जानने के बाद देवराज चौहान ने बिल्ली को देखा।

“हां। गुरुवर के आशीर्वाद से, मुझे यहां तक बिल्ली के रूप में रहकर कार्य करना था।” बिल्ली का शांत स्वर सबके कानों में पड़ा-“परन्तु आगे के कार्य मनुष्य के रूप में ही मुझे पूर्ण करने होंगे।”

“कैसे आओगी मनुष्य के रूप में?” मोना चौधरी कह उठी।

“अब कोई परेशानी नहीं रही।” कहते हुए बिल्ली ने देवराज चौहान को देखा-“क्या तुम चाहते हो कि मैं मनुष्य के रूप में मैं आ जाऊँ? मेरे रूप बदलने पर तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?”

“मुझे क्या ऐतराज होगा।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा-“लेकिन एक बात तुम्हें स्पष्ट बता दूं देवा कि जब तक तुम नहीं चाहोगे, मैं मनुष्य के रूप में नहीं आ पाऊँगी। गुरुवर के कहे मुताबिक तुमने छूना है, तब तुम्हारे मुंह से खुद-ब-खुद ऐसा मंत्र निकलेगा, जो मुझे बिल्ली से युवती बना देगा। ये काम मैंने तुमसे कराना है। परन्तु गुरुवर का कहना है कि पहले सब कुछ तुम्हें बताना है।”

“ऐसा क्यों?” देवराज चौहान बोला।

“क्योंकि आने वाले वक्त में, मैं तुम्हारी मौत की वजह बन सकती हूं। मुझे युवती का रूप मिलते ही काल-चक्र के घूमने की दिशा बदल जायेगी। बहुत उथल-पुथल होगी। जाने कौन-कौन पिसेगा काल-चक्र में फंस कर। जो भी हो देवा, अगर तुमने मुझे युवती का रूप दिया तो, आने वाले वक्त में तुम्हें अफसोस भी हो सकता है कि, मुझे बिल्ली ही रहने देते तो बेहतर रहता। मुझे युवती बनाकर तुम अपनी मौत को जीवन दान दोगे। इसलिये सोच लेना कि मुझे युवती का रूप देना है या बिल्ली ही रहने देना है।”

बिल्ली के इन शब्दों के साथ ही वहां गम्भीर-पैना सन्नाटा छा गया।

“मुझे तो इराकी शक्लो-सूरत कभी भी पसन्द नहीं आई-।” राधा जले-भुने स्वर में कह उठी-“क्या जरूरत हैं इसे युवती बनाने की। बिल्ली ही अच्छी है।”

आंखें सिकोड़े देवराज चौहान ने जेबें टटोलीं और सिगरेट निकाल कर सुलगा ली।

एकाएक हर कोई बेचैन-सा दिखाई देने लगा था।

“सोच-समझकर फैसला करना देवा-।” बिल्ली ने बेहद गम्भीर स्वर में कहा।

“गुरुवर ने तुम्हें कहा कि सब बातें मुझे बतानी है।” देवराज चौहान का स्वर गम्भीर था।

“हां।”

“गुरुवर न कहते तो तुम ये सब बातें मुझे बताती-।”

“कभी नहीं बताती-।”

“ये बात तो सच कह रही है नीलू-।”

“चुप रह-।”

“ठीक है। नहीं बोलती।”

देवराज चौहान ने कश लिया और सोच भरे स्वर अंदाज में टहलने लगा। हर किसी को अपनी सांसों की आवाज ही महसूस हो रही थी। हर कोई बिल्ली को देखता तो कभी देवराज चौहान को। बिल्ली की बात ने सबको उलझा कर रख दिया था।

“आने वाले वक्त में हालात खराब क्यों होंगे बिल्ली?” देवराज चौहान ने पूछा।

“क्योंकि सौदागर सिंह जैसे शक्तिशाली इन्सान और शैतानी शक्तियों की मालकिन महामाया में श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये बहुत जल्दी झगड़ा शुरू होगा। उस झगड़े में न चाहते हुए भी गुरुवर शामिल हो जायेंगे। तुम्हारे और मिन्नो के ग्रह ऐसे हैं कि उस झगड़े से तुम भी दूर नहीं रह पाओगे। उस वक्त ऐसी स्थिति आ सकती है कि हालातों के हाथों मजबूर होकर मुझे तुम्हारी जान लेनी पड़े।”

“क्या मेरी जान लेना तब इतना आसान होगा?” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में पूछा।

“नहीं। परन्तु उस वक्त कोशिश करना मेरा फर्ज होगा। मैं नहीं जानती कि तब सफल हो पाऊंगी या नहीं-।”

“क्या जरूरत है इतना सोचने-सिर खपाने की। तुम क्यों नहीं कुछ कहतीं नगीना।” राधा मंह बनाकर बिल्ली को देखते हुए कड़े स्वर में कह उठी-“बिल्ली ही रहने दो इसे। एक तो इसे बिल्ली से युवती बनाओ और अपने लिए ही खतरा खड़ा करो। म्याऊँ-म्याऊँ ही करने दो इसे-।”

कुछ पलों की खामोशी के बाद देवराज चौहान बोला।

“ये बात ऐसी है कि अपने साथियों से सलाह लेना मेरे लिये जरूरी हो गया है।”

बिल्ली ने कुछ नहीं कहा। चमक भरी नजरों से देवराज चौहान को देखती रही।

☐☐☐

देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीर मुस्कान ठहरी हुई थी।

“बिल्ली। तुम्हारे सामने ही मैंने सबसे राय ली है।” देवराज चौहान बोला-“परन्तु किसी ने भी ये नहीं कहा कि तुम्हें बिल्ली से मनुष्य बनाने में मैं तुम्हारी सहायता करूं। क्योंकि मनुष्य बनकर मेरे जीवन के लिये तुम खतरा बन सकती हो।”

बिल्ली की चमक भरी आंखें तेजी से घूमी।

“मत भूलो मैंने इस मामले में तुम लोगों की सहायता की है।” बिल्ली तेज स्वर में कह उठी।

“ये मैं नहीं जानता। मैं तो इन सबकी राय तुम्हें बता रहा हूं।” हर किसी के चेहरे पर गम्भीरता के भाव थे।

“मनुष्य हर कोई बनना चाहता है।” जगमोहन ने बिल्ली से कहा-“लेकिन तुम्हें मनुष्य बनाकर हम, देवराज चौहान के जीवन का-खतरा मोल नहीं लेंगे। बेहतर होगा किसी अन्य क्रिया से मनुष्य बन जाओ।”

“ये सम्भव नहीं।”

“क्यों?”

“मुझे अपने जीवन में एक ही मौका मिला है मनुष्य बनने का और वो मौका इस वक्त मेरे सामने है।”

महाजन ने घूंट भरा।

सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट का कश लिया।

“बिल्ली।” नगीना ने गम्भीरता से कहा-“तो फिर तुम कभी से भी मानव के रूप में नहीं आ सकोगी।”

बिल्ली ने उखड़ी निगाहों से नगीना को देखा।

“इस जन्म में नहीं आ सकोगी।” राधा बोली-“अगले जन्म का इन्तजार करना।”

“मिन्नो।” बोली बिल्ली-“तुम ही मेरी सहायता करो-।”

“जब मुझे जरूरत पड़ी थी तो तुमने इन्कार कर दिया था। मेरी सहायता करने के लिये-।” मोना चौधरी बोली।

“मैं मजबूर थी तब-।”

“अब मैं मजबूर हूं। ये मामला पूरी तरह से देवराज चौहान का है। मेरा बीच में आना जरा भी ठीक नहीं।”

तभी नगीना के मस्तिष्क को हल्का-सा झटका लगा।

मस्तिष्क की सोचें अपनी जगह कायम रहीं परन्तु हाथ-पांव जैसे बेकाबू से हो गये थे। वो समझ गई कि पेशीराम की आत्मा उसके पास आई है।

“बाबा-।” नगीना बुदबुदाई।

“हाँ बेटी। मैं ही हूं। देवा के पुनः जीवित हो जाने की बधाई हो।”

“सबकी बात सुन बेटी-।”

“मेरी बात सुन बेटी-।”

“क्या?”

“बिल्ली को मनुष्य बना दे। कह देवा से-।”

“ये कैसे हो सकता है बाबा।” नगीना का स्वर एकाएक तेज हो गया-“बिल्ली को युवती बना दिया गया तो आने वाले वक्त में बिल्ली ही इनके लिये खतरा बनेगी। खुद ही तो कहा है बिल्ली ने-।”

“अवश्य-। बिल्ली ने सच कहा है। उसने अपना कर्म बता दिया कि आने वाले वक्त में वो क्या करेगी। परन्तु दूसरे के कर्म को देखकर, तुमने अपने कर्म से पीछे नहीं हटना है।” पेशीराम के शब्द नगीना के मस्तिष्क को महसूस हो रहे थे।

“तुम्हारा कहना मैं टाल नहीं सकती बाबा। देवराज चौहान से मैं ये बात कर लेती हूं।”

उसी पल नगीना को पुनः हल्का-सा झटका लगा। वो खुद को पहले की तरफ आजाद महसूस करने लगी।

“पेशीराम था?”-मोना चौधरी बोली।

“वो ही होगा।” राधा ने कहा-“दूसरों के दिमाग खराब करता फिरता है।”

नगीना ने गम्भीर-व्याकुल निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

“बिल्ली को मनुष्य के जीवन में ला दीजिये।” देखता रहा देवराज चौहान नगीना को।

“फकीर बाबा की आत्मा से बात हुई थी मेरी। वो-वो चाहते है कि बिल्ली की बात मान ली जाये। अगर आपको एतराज-।”

मुस्कान आ गई देवराज चौहान के होंठों पर।

नगीना कहते-कहते ठिठक गई।

“क्या हुआ?”

“सच बात तो ये है कि मैं मन से चाहता था कि बिल्ली को युवती के रूप में ला दूं। परन्तु किसी की भी हाँ न होती पाकर मैंने अपना विचार मन में दबा लिया। देवराज चौहान ने कहा-“इसे मनुष्य जीवन देने में मुझे कोई एतराज नहीं।”

“ये क्या कह रहे हो।” जगमोहन के होंठों से निकला-“भविष्य में ये तुम्हारे सामने मौत बनकर खड़ी हो सकती है।”

“आने वाले वक्त में क्या होगा और क्या नहीं, ये फिर भी देखा जा सकता है।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा-“मैं इस वक्त की सोच रहा हूं। इसे बिल्ली से मनुष्य मैं बना सकता हूं तो अपने इस फर्ज को या कर्म को अवश्य पूरा करूंगा।”

जगमोहन के चेहरे पर असहमति के भाव थे।

अन्यों के चेहरों पर भी कभी भी सहमति नजर आ रही थी।

“नीलू-।” राधा तीखे स्वर में बोली-“तू समझा देवराज चौहान को कि-।”

“अब मेरा कुछ भी कहना ठीक नहीं।” गम्भीर स्वर में बोला महाजन।

“क्यों?”

“पेशीराम इस मामले में आ गया है। देवराज चौहान बच्चा नहीं है। जो करेगा सोच समझकर करेगा।”

देवराज चौहान ने बिल्ली को देखा।

बिल्ली की चमकती नजरें देवराज चौहान पर ही थीं।

“मैं तुम्हें मनुष्य के रूप में लाने को तैयार हूं।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

बिल्ली का चेहरा मुस्कान के रूप में फैल गया।

“लो, गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल को थामो।”

उसी पल बिल्ली के गिर्द मौजूद गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल देवराज चौहान की तरफ बढ़ी और पास आ पहुंची। देवराज चौहान ने दोनों हाथों से उस बाल को थामा और प्रणाम की मुद्रा में सिर झुकाया।

“देवा।” बिल्ली की आवाज गूंजी-“सच्चे मन से मुझे युवती से बनाने की प्रार्थना करो गुरुवर से।”

देवराज चौहान ने बाल थामें आंखें बंद करके सच्चे मन से गुरुवर से प्रार्थना की।

तभी देवराज चौहान के मस्तिष्क को झटका लगा। अजीब-सी स्थिति में उसका दिमाग हो गया कि वो ठीक से कुछ भी सोच समझ न पाया। दूसरे ही पल उसके होंठों से किसी मंत्र की बुदबुदाहट निकलने लगी।

कुछ सेकेंडों में ही मंत्र पूर्ण हो गया।

इसके साथ ही देवराज चौहान को लगा जैसे उसका मस्तिष्क अंजानी पकड़ से आजाद हो गया हो। उसने आंखें खोली तो देखा वो बाल लाल सुर्ख हुई पड़ी है। बिल्ली को देखा तो देखता रह गया। पीले रंग का बड़ा सा रूई जैसा गोला बिल्ली को अपने में समेटता जा रहा था। देखते ही देखते उस पीले गोले में छिप कर नजर आनी बंद हो गई।

देवराज ने अभी दोनों हाथों में गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल को थाम रखा था। फिर वो पीला-सा, रूई जैसा गोला बड़ा होने लगा। सबकी नजरें एकटक वहीं टिकी थीं।

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मिनट भर भी नहीं बीता होगा कि वहां तीव्र चमक उठी। रुई के गोले से चिंगारियां-सी उपरी और लुप्त हो गईं। बड़ा-सा गोला धीरे-धीरे छोटा होकर लुप्त-सा होने लगा।

सबसे पहले उसके, पांव दिखे। चांदी के समान चमकती चप्पलें थीं उसके पांवों में। फिर सफेद रंग की साड़ी टांगों पर लिपटी नजर आई। उसके बाद एकाएक रूई का सारा गोला गायब अब वो फर्श पर अपने पूरे रंग-रूप से साथ खड़ी थी।

स्याह रंग था उसका। जैसे बिल्ली थी। सफेद साड़ी में लिपटी हुई थी वो। खुले-संवरे बाल कमर तक जा रहे थे। उसका काला जिस्म तीव्रता से चमक रहा था। तीखे नैन-नक्श। आकर्षक चेहरा। रंग काला अवश्य था, परन्तु खूबसूरती ऐसी कि नजरें न हटें। आंखों में ऐसी तीव्र चमक कि नजरें न टिके।

बिल्ली नये रूप में सामने खड़ी थी।

हर कोई हैरानी से ठगा-सा उसे देख रहा था।

“तुम बिल्ली हो?” पारसनाथ के होंठों से निकला।

“हाँ।” बिल्ली का खनकता स्वर वहां गूंजा। चेहरे पर मुस्कान भर आई थी।

“ये तो तवे की तरह काली है। जैसे पहले काली थी।” राधा के होंठों से निकला।

युवती बनी बिल्ली ने देवराज चौहान को देखा।

“धन्यवाद देवा। सब कुछ मालूम होने पर भी तुमने मुझे मनुष्य रूप में आने का मौका दिया। परन्तु अभी मेरा अस्तित्व पूर्ण नहीं हुआ। गुरुवर की आज्ञा के मुताबिक तुमने मुझे कोई नाम भी देना है।”

“नाम?” देवराज चौहान के होंठों से निकला।

“हां। मुझे मनुष्य के रूप में तुम लाये हो तो मेरा नाम भी तो कोई होना चाहिये।”

“बिल्ली को तो बिल्ली ही कहा जायेगा।” देवराज चौहान के होंठों से निकला।

“बिल्ली!” वो मुस्कराई-“अच्छा नाम है। मुझे कोई ऐतराज नहीं। लाओ गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल मेरे हवाले कर दो। इसकी सुरक्षा सिर्फ मैं ही कर सकती हूं। मनुष्य बनते ही मेरी शक्तियां और भी बढ़ गई हैं।”

तभी देवराज चौहान के हाथ से बाल निकली और बिल्ली के पास जा पहुंची। बिल्ली ने बाल को दोनों हाथों में थामा। उस पर मखमल का सुर्ख कपड़ा दिया तो वो सबकी निगाहों के सामने से लुप्त हो गई।

“मिल गया इसे जीवन मनुष्य का।” राधा कह उठी-“जीवन देने वाले को ही खायेगी ये-।”

“ऐसा मत कहो।” बिल्ली ने मुस्कराकर अपने लम्बे बालों को झटका दिया-“मैं अहसानमंद नहीं हूं। मैं कभी भी देवा को तकलीफ नहीं दूंगी। मेरे कर्म ही देवा के आड़े आ गये तो, वो जुदा बात है।”

“कर गई दो तरफी बात-।”

“छोरे-।” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया।

“हां बाप-।”

“इसो कालो बिल्लो का थोबड़ो पहचान लयों। कभो यो देवराज चौहान को खतरो पहुंचायो तो इसो को तबो ‘वडनो’ हौवो।”

“अपुन फोटो खिंचेला बिल्ली की।”

तभी मोना चौधरी कह उठी।

“तुम्हारी मौत से सारा काम रुक गया था देवराज चौहान। वरना अब तक तो-।”

“भूल में हो तुम सब।” बिल्ली कह उठी-“शैतान कभी भी खत्म नहीं हो सकता। उसे खत्म करने की सोचना भूल है। सृष्टि का अहम हिस्सा है। शैतान का अस्तित्व मिट जाये तो सृष्टि हिल जाये। अलबत्ता शैतान की हरकतों का रुख मोड़ा जा सकता है। जैसे भगवान अपनी जगह कायम है। वैसे ही शैतान हर जगह कायम है।”

सब एक-दूसरे को देख रहे थे तो कभी बिल्ली को देखने लगते।

“आप ठीक हो गये। सब ठीक हो गया।” नगीना का स्वर थरथरा उठा।

देवराज चौहान की आंखों में आंसू चमके। नगीना का हाथ थाम लिया उसे।

काला महल मध्यम-सी गति से नीचे, धरती की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। हर कोई आने वाले हादसो से बेखबर कि सौदागर सिंह और महामाया के बीच मौत से भरी लड़ाई कभी भी शुरू हो सकती थी।

-: समाप्त:-