मंगलवार : 25 नवम्बर

मोबाइल की घन्टी बजी।

अमर नायक नींद से जाग चुका था लेकिन अभी बैड में ही था और ऊंधता-आंधता चाय सर्व होने का इन्तजार कर रहा था।

उसने वाल क्लॉक पर निगाह डाली।

आठ बज कर चौबीस मिनट।

उसने मोबाइल उठाया और स्क्रीन पर निगाह डाली।

सोलंके!

उसने काल रिसीव की।

“गुड मार्निंग, बॉस।”—सोलंके की आवाज आयी—“किधर है?”

“मलाड। इतना अर्ली फोन बजाता है! दिन नहीं चढ़ने देता!”

“न्यूज ही ऐसा कड़क है, बॉस। अभी तो बोले तो मैं लेट बजाया...”

“ठीक! ठीक! न्यूज बोल। क्या हुआ?”

“बॉस, चोर की मां को पकड़ा।”

“कीरत मेधवाल को? जरनैल को?

“हां”

ओह! पकड़ भी लिया?”

“उसका पता निकाला न चौतरफा पूछताछ करके! इत्तफाक से जल्दी निकल आया। गिरगांव में ठाकुरद्वार रोड पर रहता था। अर्ली मार्निंग पुलिस का माफिक उधर रेड मारा। सोते से उठा के थामा।”

“कोई पंगा किया?”

“नहीं। करता भी तो कैसे करता! दस भीड़ू भेजा मैं।”

“अभी किधर है?”

“भायखला वाले अड्डे पर है।”

“हूं।”

“अभी उसके लिये क्या हुक्म है?”

“उसको मालूम कौन उसको थामा?”

“नहीं।”

“पूछता तो होयेंगा?”

“बार बार। पण मैं हमेरे प्यादों को बोल के रखा कि कुछ नहीं बोलने का था। वो कुछ भी पूछे, जवाब नहीं देने का था।”

“ठीक किया। यहीच मांगता है मेरे को। अभी उसको तपाने का। सस्पेंस में रखने का। चार पांच घंटा ऐसीच चलने दे, फिर चर्च गेट ले कर आना। दो बजे मैं खुद बात करेगा उससे।”

“बढ़िया। मैं सब सैट करता है। अभी एक बात और, बॉस।”

“वो भी बोल।”

“आज का अखबार पढ़ के मलाड से निकलना।”

“क्या है उस में?”

“देखना। खास खबर है। फ्रंट पेज पर ही। देखना, बॉस।”

“ठीक है।”

 

दोपहर के करीब जीतसिंह की गाइलो से मुलाकात हुई।

“परदेसी का फोन आया।”—गाइलो बोला।

“बता रहा है कि पूछ रहा है?”—जीतसिंह बोला।

“साला मसखरी करता है। अरे, बता रयेला है तेरे को कि कल पास्कल के बार पर नेपाली भीड़ू श्रेष्ठ के साथ जो डिसक्शन हुआ, उसका कान्टैक्स्ट में परदेसी का फोन आया।”

“ओह!”

“अभी आयी बात समझ में?”

“आयी। श्रेष्ठ ने कुछ किया? किसी से कोई बात किया?”

“बात भी किया और भी कुछ किया। तेरा मीटिंग फिक्स किया?”

“किस के साथ?”

“नाम नहीं बोला। दो बजे के टेम का तेरा किसी का साथ मीटिंग फिक्स है। डेढ़ बजे तेरे को चर्च गेट स्टेशन के सामने होना जिधर श्रेष्ठ या खुद आकर तेरे को मिलेगा या तेरे को फोन करेगा।”

“फोन करेगा? उसको मेरा मोबाइल नम्बर...”

“मैं बोल के रखा न!”

“ओह!”

“अभी बोले तो मीटिंग मांगता है तो तेरे को वन थर्टी पर चर्च गेट स्टेशन का फ्रन्ट में होना।”

“मांगता है। चलेंगे हम।”

“चलेगा तू।”

“बोले तो?”

“तेरे को अकेला उधर पहुंचने का।”

“ओह!”

कुछ क्षण खामोशी रही।

“जीते”—फिर गाइलो धीरे से बोला—“अगर तेरे को मीटिंग में लोचा तो तू अभी भी नक्की बोल सकता है।”

जीतसिंह ने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।

“अगर”—गाइलो बोला—“तेरा साथ कोई इलट्रीटमेंट हुआ, कोई धोखा हुआ...”

“नहीं होगा। मेर दिल बोलता है नहीं होगा। वो लोग मेरे को खोज निकालते तो ऐसा कुछ—कुछ भी—हो सकता था पण जब मैं खुद उन को अप्रोच करता है, उन के काम की जानकारी के साथ उन को अप्रोच करता है तो क्यों होगा? इतना जुल्म तो सी-रॉक एस्टेट वालों ने न किया जिनके यहां मेरी वजह से बम फूटा और बिग बॉस बहरामजी कान्ट्रैक्टर मरने से बाल बाल बचा!”

“वो एक डील था...”

“ये भी एक डील ही होगा।”

“सम्भाल लेगा?”

“उम्मीद तो पूरी है!”

“सम्भाल तो लेगा तू! कोई शक नहीं मेरे को। जब हास्पिटल में बहरामजी को सबड्यू कर लिया, उसके सिक्योरिटी चीफ सोलोमन कान्ट्रैक्टर को हैंडल कर लिया तो इधर भी कुछ, बोले तो, कर ही दिखायेगा। नो?”

“यस।”

“तो मेरे को वरी नहीं करने का?”

“नहीं करने का।”

“गुड। आइल प्रे फॉर युअर सक्सेस, डियर ब्रो।”

“थैंक्यू।”

 

दो बजने से पांच मिनट पहले अमर नायक चर्च गेट अपने ‘सिटी आफिस’ में पहुंचा।

सोलंके ने उसका अभिवादन किया।

नायक ने अभिवादन स्वीकार किया और बोला—“है इधर?”

“है न!”—सोलंके आश्‍वासनपूर्ण भाव से बोला—“किधर मिलने का?”

“आफिस में।”

“आता है आप के पीछे पीछे।... बॉस, एक भीड़ू और भी है।”

“और कौन?”—नायक की भवें यूं उठीं जैसे किसी और को उस घड़ी वो विघ्न मानता हो।

“हुसैन डाकी।”

“वो क्या मांगता है?”

“बोलेगा न!”

“ठीक। तो फिर पहले वो।”

सोलंके ने सहमति में सिर हिलाया।

नायक आफिसनुमा कमरे में अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर जा कर बैठा।

तुरन्त बाद हुसैन डाकी वहां पहुंचा। उसने अदब से बिग बॉस का अभिवादन किया।

“कैसे आया?”—नायक तनिक उतावले स्वर में बोला।

“कुछ बोलने का।”—डाकी झिझकता सा बोला।

“तो बोल न!”

“बोले तो रिक्वेस्ट करने का।”

“कर।”

“हीरों के सिलसिले में पुलिस को कस्टम से मेरी खबर लग गयी है और मेरी तलाश तेज हो गयी है।”

“हो जाये। क्या वान्दा है? तेरे मनोरी के पते से आगे तो उनकी तलाश नहीं बढ़ सकती न!”

“बाप, बात थाने की होती तो आगे न बढ़ती। पण मेरे को मालूम पड़ा है कि उस केस के वास्ते कोई स्पैशल टास्क फोर्स खड़ी की गयी है जिन के पास एक टेम में एकीच केस, इस वास्ते उन का तफ्तीश का स्टाइल थाने वालों से जुदा और ज्यादा कड़क, ज्यादा डेंजर।”

“क्या कहना मांगता है? वो स्पैशल करके फोर्स तेरा मौजूदा पता निकाल लेगी?”

“ये कहना मुश्‍किल है पण निकाल सकती है, इस वास्ते एहतियात जरूरी।”

“जो तेरे को करना मांगता है?”

“हां, बाप।”

“कोई है एहतियात मगज में?

“है तो सही!”

“क्या?”

“मेरे को कुछ टेम का वास्ते इमीजियेट कर के मुम्बई से नक्की करने का।”

“कितना टेम?”

“कम से कम दो महीना।”

“किधर जायेगा?”

“नेपाल।”

“जब बोलता है तलाश तेज तो साला एयरपोर्ट पर ही थाम लिया जायेगा।”

“मालूम, बाप। इस वास्ते एयरपोर्ट कट है न!”

“तो क्या करेगा?”

“बाई रोड निकल लेगा। छोटे छोटे टुकड़ों में सफर करके इधर से पटना पहुंचने का। फिर पटना से प्लेन से काठमाण्डू। या आगे भी रोड से ही।”

“बढ़िया। जा। निकल ले।”

वो खामोश खड़ा रहा।

“अब क्या है?”—नायक बोला—“कोई प्राब्लम तेरे को?”

“बाप, रोकड़ा मांगता है न! परदेस में जाने का, दो महीना में बहुत खर्चा होयेंगा। ज्यास्ती टेम भी लग सकता है इस वास्ते...”

डाकी ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

“इतना कमाता है साला, किधर गया?”

“घर भेजा न! बीवी बच्चे भी तो पालने का! बूढ़े मां बाप की भी तो फिक्र करने का! अपना वास्ते तो मैं इधर इतना ही रखता है कि गुजारा चलता रहे, बाकी तो घर भेजता है न!”

“पहले तो ये बात तू कभी न बोला!”

“पहले कभी नौबत ही न आयी।”

“अपने दुबई वाले आकाओं से मांग।”

“बाप, टेम लगेगा। बहुत ज्यास्ती टेम लगेगा। जब तक उधर से कोई मदद आयेगा, तब तक तो हो सकता है, मैं पकड़ा ही जाये।”

“ऐसा तो नहीं होना मांगता मैं!”

“मेरे को मालूम बाप, तभी तो... तभी तो तुम्हेरे पास आया!”

“हूं। क्या मांगता है तेरे को। कितना मांगता है?”

“बाप, आप ही फैसला करो न!”

“मेरा फैसला मंजूर होगा तेरे को?”

“बरोबर, बाप।”

“मैं बोला कुछ नहीं मिलेगा तो?”

“तो थैंक्यू बोलेगा और नक्की करेगा, पण...”

“क्या पण?”

“मेरे को मालूम ऐसा नहीं होगा।”

“साला श्‍याना।”

डाकी खामोश रहा।

“थोड़ा टेम दे मेरे को। सोचता है मैं। क्या!”

“बरोबर, बाप।”

“अभी मेरे को अर्जेंट कर के दूसरा काम। तू बाहर जाके किधर बैठ और वेट कर। मैं फिर बुलाता तेरे को। जा।”

डाकी ने अभिवादन किया और वहां से रुखसत हो गया।

 

कीरत मेधवाल उर्फ जरनैल पेश हुआ।

हैरान, परेशान, हलकान जरनैल अमर नायक के रूबरू हुआ।

सोलंके उसे वहां छोड़ के गया था, बॉस के इशारे पर खुद को वहां नहीं टिका था।

नायक ने सर्द निगाह से सामने खड़े जरनैल का सिर से पांव तक मुआयना किया।

पहले से विचलित जरनैल और विचलित दिखाई देने लगा, बार बार पहलू बदलने लगा।

“तो”—नायक सख्ती से बोला—“तू होता है जरनैल?”

जरनैल ने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।

“मूंडी नहीं हिलाने का।”—नायक का लहजा और सख्त हुआ—“क्या!”

“हं-हां।”—जरनैल फंसे कण्ठ से बोला।

“फौज का?”

“नाम का।”

“बोले तो?

“कुछ भीड़ू लोग मेरी कद्र करते हैं, मुझे मान देते हैं इसलिये जरनैल कह कर बुलाते हैं।”

“तेरे को जरनैल मानते हैंे तो बुलाते हैं!”

“नहीं। ये... टाइटल मेरे नाम के साथ पहले से जुड़ा हुआ है, इसलिये बुलाते हैं।”

“हूं। मेरे को जानता है?”

“हं-हां। अब जानता हूं।”

“पहले?”

“नाम से वाकिफ था।”

“नाम से वाकिफ था तो मालूम मैं कौन?”

“हां।”

“कौन?”

“बिग बॉस। अन्डरवर्ल्ड डॉन अमर नायक बॉस।”

“फिर भी पंगा लिया?”

“नहीं लिया।”

नायक ने कहरभरी निगाह से उसे देखा।

“कु-कुछ हुआ तो अनजाने में हुआ। जानबूझकर, इरादतन कुछ न किया।”

“पक्की बात?”

“हां।”

“तू मेरी मुखालफत में नहीं है?”

“मैं खयाल तक नहीं कर सकता।”

“बैठ।”

जरनैल के चेहरे पर हैरानी के भाव आये, झिझकता सा वो एक विजिटर्स चेयर पर बैठा।

“मैंने कभी तेरी सूरत नहीं देखी थी”—नायक बोला—“लेकिन तेरे नाम से पुराना वाकिफ हूं।”

जरनैल के चेहरे पर हैरानी के भाव और गहन हुए।

“कभी तू इब्राहीम कालिया के गैंग में होता था। कालिया खत्म हुआ तो गैंग खत्म हो गया। तब भोईवाडा में रहता था। ठीक?”

उसने गर्दन हिला कर हामी भरी।

“मूंडी नहीं हिलाने का! दो बार बोला। फिर न बोलना पड़े।”

“ठ-ठीक।”

तब चरस पीता था, अभी भी पीता है?”

“हां। प-पक्की आदत। नहीं छूटती।”

“उम्र कितनी हो गयी?”

“स-साठ।”

“क्या करता है आजकल।”

‘क-कुछ नहीं।”

“जुबान पर काबू कर। अभी तू ने बहुत सवालों का जवाब देना है। साला अटक अटक के बोलेगा तो टेम खोटी करेगा।”

“कुछ नहीं।”

“कुछ नहीं कर के ठाठ कैसे करता है? साला गिरगांव में बढ़िया फ्लैट में रहता है। स्विफ्ट कार रखता है। कैसे करता है?”

“कालिया बॉस बहुत मेहरबान था। उसकी लाइफ में बहुत रोकड़ा कमाया।”

“जो चल रहा है?”

“हां।”

“जो पहलवान अखाड़ा छोड़ देते हैं, वो उस्ताद बन जाते हैं। न कुछ करते हुए भी यहीच करता है तू आजकल। उस्तादी करता है। पट्ठे तैयार करता है। पण उस्ताद नहीं कहलाता, लीडर नहीं कहलाता, बॉस नहीं कहलाता, जरनैल कहलाता है जो एक्सपर्ट का माफिक शागिर्दों को सलाह देता है, गाइड करता है। उस्तादी हासिल करता है। ऐश करता है। साला और कुछ करना किधर जरूरी?”

जरनैल खामोश रहा।

“इधर कुछ भीड़ू लोगों की खबर पहुंची है जो खामोशी से, ढ़ंके छुपे ढण्ग से मेरे खिलाफ काम करते हैं और समझते हैं कि इधर न उन की कोई खबर है, न हो सकती है। ऐसे कुछ भीड़ुओं के नाम पकड़ में आये हैं, बाकियों के भी आ जायेंगे। इधर पक्की खबर है कि उन लोगों का लीडर नहीं तो रहनुमा, सलाहकार तू है... अभी बीच में नहीं बोलने का, अभी मेरी बात खत्म नहीं हुई... अभी वो नाम सुन जो इधर पकड़ में आये हैं। मगन कुमरा। विराट पंड्या। सुहैल पठान। श्रीनन्द कन्धारी। इन सब का तू सलाहकार है। बकौल तेरे, तेरे को मान देते हैं, तेरी कद्र करते हैं तो सब का तेरे कान्टैक्ट में होना जरूरी। ये बात ठीक है या गलत? जवाब हां या न में दे।”

“हं-हां।”

“फिर अटकने लगा?”—नायक गुर्राया।

“हां।”

“इन की हालिया हरकतों से तू वाकिफ है?”

“नहीं।”

“क्या बोला?”

“पूरी तरह से नहीं।”

“जितना वाकिफ है, उतना ही बोल। पहले बोल इन में से कड़क कौन है?”

“मेरे को नहीं मालूम।”

“वान्दा नहीं। जो तेरे को पक्की कर के मालूम, वहीच बोल।”

“क्या?”

“घुटना फूट जाये, घुटने की कटोरी के परखच्चे उड़ जायें तो भीड़ू हमेशा के वास्ते लंगड़ा हो जाता है, बैसाखियों के बिना नहीं चल सकता। दूसरे घुटने का भी यहीच हाल हो तो बैसाखियों के साथ भी नहीं चल सकता। मगज में बुलेट घुस जाये तो दिल धड़कना बन्द कर देता है। साला मैं तेरा लिहाज करके ये सब तेरे को बता रयेला है क्योंकि तू इब्राहीम कालिया के गैंग से हैं जो कि मेरा फिरेंड था। ये तीन चायस मैं तेरे को दिया तेरा लिहाज करके। न लिहाज करता तो तेरे को छत से उलटा टांगता और बोटी बोटी कर के जिस्म से तब तक गोश्‍त उतारता जब तक कि सारी हड्डियां नंगी न दिखाई देने लगतीं। इस स्टाइल का एक नाम मशहूर अन्डरवर्ल्ड में। मालूम क्या?”

“नहीं।”

“बखिया स्टाइल। बखिया कौन, मालूम?”

“हां।”

“बढ़िया। बोले तो अभी तेरे को ईजी चायस।”—नायक ने मेज के एक दराज से गन निकाल कर हाथ में ले ली—“एक चुन।”

जरनैल का शरीर जोर से कांपा पर उसके मुंह से बोल न फूटा।

एक फायर हुआ।

ऐसा सच्चा निशाना था नायक का कि बुलेट ने उतना ही डैमेज किया जितने के लिये उसने उसे चलाया था।

गोली जरनैल के बायें कान को छूती गुजर गयी।

खून की एक बून्द कान पर से टपकी।

जरनैल ने कांपते हाथों से जेब से रूमाल निकाला और उसे कान के साथ दबाया। पलक झपकते उसका चेहरा कागज की तरह सफेद निकल आया।

“साला कितना खराब निशाना हो गया है मेरा!”—नायक फरमायशी अन्दाज से बड़बड़ाता सा बोला—“प्रैक्टिस का टेम तो बोले तो हैइच नहीं! साला मगज को निशाना बनाया, कान पर भी ठीक से न लगा। बुलेट कान को ‘हल्लो बोल के निकल गयी। पण वान्दा नहीं। फिर ट्राई करता है।”

“नहीं, नहीं! नहीं!”—जरनैल आतंकित भाव से चिल्लाया—“प्लीज।”

“क्या प्लीज?”

“मैं सब बोलता है।”

“सब तो तू जानता नहीं!”

“मैं जो जानता है, वो सब बोलता है।”

“बोल। पण एक बात पहले बोल।”

“क्या?”

“जिन चार भीड़ुओं का मैं अभी नाम लिया, उन में से एक को—विराट पंड्या को—कल रात पुलिस ने गिरफ्तार किया क्योंकि उन को उस पर जोकम फर्नान्डो करके एक भीड़ू का कातिल होने का शक है। जोकम हमेरा भीड़ू था। उस बारे में क्या जानता है?”

“वो, जो मैं बोलेगा, उसमें आयेगा न!”

“ठीक! बोल।”

मरता क्या न करता के अन्दाज में जरनैल ने बोलना शुरू किया...

 

दो बजने पर ही श्रेष्ठ के साथ जीतसिंह वहां पहुंचा था और आते ही बाहरले कमरे में उसकी सोलंके के सामने पेशी हुई थी।

“तो”— उसे घूरता सोलंके बोला—“तू है जीतसिंह?”

“हां, बाप।”—जीतसिंह अदब से बोला।

“टैक्सी डिरेवर?”

“हां, बाप।”

“कब से?”

“यही कोई तीन महीने से।”

“मुम्बई में कब से है?”

“छ: साल से।”

“पहले क्या करता था?”

“बाप, जिस काम के वास्ते मैं इधर आया, लाया गया, उस पर बात करो न! मेरे पास्ट को काहे वास्ते सबजेक्ट बनाता है?”

“पढ़ा लिखा जान पड़ता है?”

“मामूली।”

“कितना?”

“मैट्रिक।”

“पास?”

“फेल।”

“तो तेरे को मालूम हमेरा कोई कीमती माल गायब है?”

“हां, बाप।”

“कैसे मालूम?”

“बाप, श्रेष्ठ को बोला न!”

“ये बोला कि माल की वापिसी में तू हमेरा हैल्प कर सकता है और बदले में तेरे को ईनाम मांगता है!”

“बाप, मैं गरीब भीड़ू। ऐसे काम की, जो तुम्हेरे लिये खास, इम्पॉर्टेंट, तो क्या वान्दा है! राजा लोग परजा से खुश हों तो उसे ईनाम इकराम से नवाजते ही हैं!”

“राजा कौन?”

“बिग बॉस।”

“नाम ले।”

“अमर नायक बॉस।”

“मैं कौन?”

“बिग बॉस को सैकेंड-इन-कमांड। नवीन सोलंके बॉस। श्रेष्ठ यहीच बोला मेरे को।”

“हूं। क्या ईनाम मांगता है?”

“बाप, जो मिल जाये खुले दिल से।”

“जवाब दे।”

“मेरे को माल की कीमत मालूम हो तो जवाब दूं न!”

“अच्छा! माल की कीमत जान के ईनाम का साइज बोलेगा?”

“अब क्या बोलेगा, बाप! गरीब भीड़ू...”

“गरीब होने की बहुत दुहाई देता है!”

“बाप जो है, सो है न!”

“समझ ले माल की कीमत बीस करोड़।”

जीतसिंह ने दर्शनी अन्दाज से नेत्र फैलाये।

“फ्लैट हो गया!”—सोलंके के स्वर में व्यंग्य का पुट आया।

“हां, बाप।”—जीतसिंह बोला।

“इतना नहीं सोचा था!”

“हां, बाप।”

“अब बोल, क्या मांगता है तेरे को?”

“बाप, बेखौफ बोले?”

“हां, ऐसीच बोल।”

“बाप, मैं सुना, छापे में अक्सर पढ़ा, कि सरकार माल की बरामदी पर माल की कीमत का दस फीसदी देती है।”

“सरकार!”

“कस्टम वाले। इंकम टैक्स वाले। ऐसे और भी महकमे। मैं सुना कि समगलिंग का माल पकड़वाने पर तो बीस फीसदी तक मिलता है।”

“तो तेरे को बीस फीसदी मांगता है?”

“अरे, नहीं बाप, पण दस फीसदी तो होना न!”

“बोले तो दो करोड़!”

“अभी है तो ऐसीच!”

“साला औकात नहीं पहचानता अपनी। दो टके का छपड़ी टैक्सी डिरेवर करोड़ों के ख्वाब देखता है साला।”

“जाता है, बाप।”—जीतसिंह उठ खड़ा हुआ—“सलाम बोलता है।”

“किधर जाता है?”

“अरे, बाप, इंसल्ट ही कराने का तो किधर भी करा लेगा, इधर काहे वास्ते रुकना इस काम के वास्ते!”

“वापिस बैठ।”

“सब नक्की करता है मैं माइन्ड से अभी का अभी। बाप, मैं कहीं कुछ नहीं सुना, कुछ नहीं समझा।”

“वापिस बैठ!”

“पण, बाप...”

“कान से मैल निकालने का तेरी। बुलेट से निकलेगा। एक कान में डालेगा तो दूसरे से मैल को साथ ले के निकलेगा। फिर एन पर्फेक्ट कर के सुनायी देगा। क्या?”

जोर से थूक निगलता जीतसिंह वापिस बैठा।

“साला जानता नहीं किधर बैठेला है! इधर जो आता है, अपनी मर्जी से आता है पण जाता हमेरी मर्जी से है। क्या!”

“बाप, मैं शाबाशी की, ईनाम की उम्मीद में इधर आया। जब उम्मीद पूरी होने में ही लोचा तो...”

“तो भी मैं तेरे को इधरीच मांगता है।”

“ठीक है। बैठेला है।”

“अभी ठीक से बोल, क्या स्टोरी है तेरा?

“मैं श्रेष्ठ को बोला।”

“अभी मेरे को बोल।”

“बोलता है, बाप।”

जीतसिंह ने वही कहानी दोहरा दी जो उसने पिछली रात पास्कल के बार में रजत श्रेष्ठ को सुनाई थी।

“हूं।”—वो खामोश हुआ तो सोलंके बोला—“दो भीड़ू?”

“हां, बाप।”

“उन को या तो माल की खबर या माल हैइच उन के पास?”

“हां, बाप। मेरे को तो यहीच फीलिंग आया बरोबर।”

“तू उन का पता निकाल सकता है?”

“कोशिश करे तो निकाल सकता है न! आप भाव देगा तो बाई हार्ट कोशिश करेंगा न!”

“हूं।”

सोलंके उठ कर एक दीवार के साथ लगी एक वाल कैबिनेट के करीब गया, वो जब लौटा तो उसके हाथ में अखबार का एक वरका था।

उसने वो वरका एक स्थान से मोड़ कर जीतसिंह के सामने किया।

जीतसिंह ने उस पर से गुरुवार रात के अपने पैसेंजर की सूरत अपनी ओर झांकती पायी।

“उन दो में से एक भीड़ू ये था?”—सोलंके ने पूछा।

जीतसिंह ने बेचैनी से पहलू बदला।

“जवाब दे, भई!”

“नहीं।”

“हड़बड़ी में जवाब न दे। पहले छापे की फोटू को गौर से देख, फिर जवाब दे।”

“नहीं।”

“हूं।”—सोलंके ने अखबार एक ओर डाल दिया—“तो तेरे को ईनाम की कोई तसल्ली मिले तो तू कुछ कर दिखायेगा?”

“हां।”

“बहुत यकीन से बोलता है!”

“हां।”—जीतसिंह का स्वर और दृढ़ हुआ।

“वर्ना कुछ नहीं करेगा?”

“बाप, इतना टेम लगाना पड़ेगा। इतना जांमारी करना पड़ेगा। पता नहीं कितना टेम, कितना दिन धन्धे को नक्की बोलना पड़ेगा। जब कुछ मिलने का ही नहीं तो काहे वास्ते भटकते फिरने का! धक्के खाते फिरने का!”

“क्यों नहीं मिलने का? अब तेरे को मालूम माल बीस करोड़ का। काबू में करना। किसी शाबाशी की, किसी इनाम की तलब ही नहीं रहेगी।”

“बाप, माफी के साथ बोलता है, तुम मेरे को कनफ्यूज करता है और खुद कनफ्यूज होता है। मैं ये नहीं बोला मैं माल बरामद करके ला सकता है, मैं बोला मैं माल का कोई सुराग, कोई अता पता निकाल सकता है जिस पर एक्ट कर के माल आप वापिस काबू में कर सकता है।”

“यूं माल हमेरे काबू में न आया तो?”

“तो ईनाम न देना। मैं एडवांस में तो कुछ नहीं मांग रयेला है!”

“सरकारी महकमे बरामदी पर इनाम देते हैं, अता पता बताने पर नहीं देते।”

“देते हैं, बाप, अता पता से अगर बरामदी हो तो देते हैं।”

“उतना नहीं, जितना तू बोला।”

“तो तुम भी कम देना, बाप। मैं खुशी खुशी कबूल करेगा न!”

“हूं। इधरीच बैठ। आता है।”

“बरोबर, बाप।”

सोलंके उठा और पिछवाड़े का एक बन्द दरवाजा खोल कर उसके पीछे गायब हो गया।

पीछे जीतसिंह प्रतीक्षा करने लगा।

अब वो चिन्तित था। सिलसिला उसकी अपेक्षा के अनुसार नहीं चल रहा था। वो उम्मीद कर रहा था कि माल की बरामदी की उम्मीद जताई जाने पर उसे वहां हाथों हाथ लिया जायेगा लेकिन उसके साथ तो वो अन्डरबॉस ऐसे पेश आ रहा था जैसे माल के साथ गुजरे हादसे के लिए वो ही जिम्मेदार था।

शायद बिग बॉस ऐसे पेश न आये।

वो पहलू बदलता रहा, वक्त कटता रहा।

आधा घन्टा गुजर गया।

अब वो साफ साफ बेचैन होने लगा।

तभी बाहर का दरवाजा खुला।

दरवाजे पर उसे वो व्यक्ति दिखाई दिया जो वहां का कर्मचारी था और जिसने उसे वहां पहुंचाया था। वैसे ही वो किसी दूसरे व्यक्ति को भीतर कदम रखने को न्योत रहा था। नवागन्तुक ने भीतर कदम रखा तो कर्मचारी ने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया।

उसकी आगन्तुक से निगाह मिली तो उसको जैसे बिजली का झटका लगा।

कमरे में सुहैल पठान दाखिल हो रहा था।

अपने जोड़ीदार विराट पंड्या की गिरफ्तारी के बाद जिसे कहीं किसी हवालात में जोड़ीदार के बाजू में मौजूद होना चाहिये था, वो वहां पहुंचा हुआ था।

जीतसिंह के उसकी तरफ से पीठ फेर पाने से पहले दोनों की निगाह मिली।

हैरानी का वही दौरा पठान को भी पड़ा।

जो टैक्सी ड्राइवर सारे शहर में ढूंढ़े नहीं मिल रहा था, वो वहां उसके सामने बैठा हुआ था।

तभी पिछवाड़े का दरवाजा खुला और चौखट पर सोलंके प्रकट हुआ। उसने एक उड़ती सी निगाह नवागन्तुक की तरफ डाली और फिर हाथ के इशारे से जीतसिंह को करीब बुलाया।

जीतसिंह तत्काल उठा और लम्बे डग भरता उसके पास पहुंचा। उसके इशारे पर वो भीतर दाखिल हुआ तो सोलंके ने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया।

जीतसिंह ने आगे निगाह दौड़ाई तो पाया कि वो एक आफिस में था जिस की विशाल आफिस टेबल के पीछे एग्जीक्यूटिव चेयर पर बिग बॉस अमर नायक बैठा था।

कमरे में और कोई नहीं था।

जीतसिंह का दायां हाथ अपने आप ही अभिवादन के तौर पर उठ गया।

“जीतसिंह।”—सोलंके बोला—“जिसके बारे में मैं बोला।”

नायक का सिर सहमति में हिला। उसने जीतसिंह को करीब आने का इशारा किया। झिझकता सा वो टेबल के करीब पहुंचा तो बैठने का इशारा किया।

डरता, झिझकता, सकुचाता जीतसिंह यूं एक कुर्सी के सिरे पर बैठा जैसे पसर कर बैठने पर फटकार लग सकती हो।

सोलंके दरवाजे पर से हटा और आगे बढ़कर टेबल के एक पहलू के करीब आ खड़ा हुआ।

वो गन, जिसने जरनैल का कान छीला था, तब भी मेज पर पड़ी थी। नायक ने हाथ बढ़ा कर यूं उसे उठाया जैसे बेध्यानी में ऐसा किया हो, उसने गन को हाथ में तोला, बैलेंस करके देखा, एम कर के—जीतसिंह पर, उसका दम खुश्‍क करते हुए—देखा और फिर उसे वापिस मेज पर रख दिया।

तब जाकर उसने जीतसिंह की तरफ तवज्जो दी।

“तो तू होता है जीतसिंह टैक्सी डिरेवर”—वो बोला तो जीतसिंह को यूं लगा जैसे हवा में कोड़ा फटकारा गया हो—“जो हमेरे माल का अता पता निकाल पाने की पोजीशन में है और बदले में ईनाम मांगता है?”

“हं-हां, बाप।”—जीतसिंह दबे स्वर में बोला।

“जो जम्बूवाडी चाल में रहता है और नागपाडा में अलैग्जेन्ड्रा सिनेमा के करीब का टैक्सी स्टैण्ड जिसका पक्का अड्डा है?”

“हां, बाप।”

“जो परसों से दोनों ठिकानों से गायब है और किसी को ढूंढ़े नहीं मिल रहा?”

“मैं इधर है न, बाप!”

“ये मेरे सवाल का जवाब नहीं।”

“कुछ भीड़ू लोग पीछे पड़े हैं, बोले तो मेरी जान के पीछे पड़े हैं। उन की वजह से मजबूरी में थोड़ा टेम के वास्ते दोनों ठीये छोड़ने पड़े हैं।”

“कौन भीड़ू लोग? क्यों पीछे पड़े हैं?”

“मालूम नहीं, बाप। मैं बोले तो उन को कोई मुगालता, कोई गलतफहमी, जिस की वजह से उन का फोकस मेरे पर, बोले तो गलत भीड़ू पर।”

“ये जवाब गलत है।”

“क्या बोला, बाप?”

“तू ने एक बार झूठ बोला, समझा चल गया इस वास्ते तेरे में और झूठ बोलने का हौसला आ गया। अभी इधर मेरे सामने झूठ बोलेगा तो...”

उसका हाथ यूं गन पर पड़ा जैसे बेध्यानी में ऐसा हुआ हो।

“मेरे को टेम नहीं वेस्ट करने का।”—नायक बोला—“खास तौर से तेरे जैसे भीड़ू के साथ टेम नहीं वेस्ट करने का। तेरे आने से पहले इधर एक दूसरा भीड़ू था जिससे तेरे बारे में मेरे को बहुत कुछ मालूम पड़ा है। वो अक्खा स्टोरी मालूम पड़ा है जो साला पांच दिन से चलता है। अभी मालूम मेरे को ऐन फिट कर के क्यों कुछ भीड़ू लोग तेरे पीछे पड़ेले थे। इस वास्ते झूठ बोलेगा तो इधर से सीधा ऊपर जायेगा। ऊपर बोला मैं। कुछ पड़ा मगज में?”

जीतसिंह ने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया।

“अभी एक और भीड़ू इधर आने वाला है जिसके सामने तू बिल्कुल ही झूठ नहीं बोल पायेगा...”

“आ चुका है।”—सोलंके बोला—“बाहर है।”

“क्या!”

जीतसिंह खामोश रहा।

“एकीच बात है जिस की वजह से इधर तेरा लिहाज है। सुनता है?”

“हां, बाप। बरोबर।”

“तो पूछता काहे नहीं कौन सा बात!”

“क-कौन सा बात?”

“कि तू खुद चल के इधर आया। माल तेरे कब्जे में, फिर भी खुद चल के इधर आया।”

“म-माल...म-मेरे कब्जे में!”

“गलत बोला मैं?

“पण, बाप...”

“साला स्टोरी किया कि माल का अता पता बतायेगा। माल का अता पता तो साला पांच दिन से मालूम तेरे को। जब कि सोलंके को गोली सरकाया अभी मालूम करेगा, कोशिश करेगा, मेहनत करेगा, जांमारी करेगा, टेम लगायेगा, भटकेगा, धक्के खायेगा, और पता नहीं क्या क्या करेगा तो साला तब मालूम पड़ेगा। जब कि कुछ करने की जरूरत हैइच नहीं। जो करना था वो तो तू कर भी चुका, जो होना था वो तो हो भी चुका।”

“पण, बाप...”

“करता है मैं तेरा पण खत्म। जरनैल करके भीड़ू से वाकिफ है?”

“कभी देखा नहीं, मिला नहीं, पण नाम सुना। कौन है?”

“जो भीड़ू तेरे पीछे पड़ेले हैं, वो उन का लीडर है, इस वास्ते तेरे साथ आजकल जो बीत रयेली है, उसकी उसे हर मिनट की वाकफियत है। वो भीड़ू—जरनैल, असली नाम कीरत मेधवाल—ये टेम इधर है।”

“इधर है?”

“जो भीड़ू तेरे पीछे पड़ेले हैं, जिन्होंने शनिवार तेरे को तेरे टैक्सी स्टैण्ड पर थामा पण तू काबू में न आया, फिर सैकंड ट्राई किया तो साला उसमें भी लोचा पड़ा, फिर तू साला चिल्लाक भीड़ू अपना चाल में उन को थाम लिया, उन में से एक भीड़ू—नाम सुहैल पठान—इधर है ये टेम। आया कुछ मगज में?”

जीतसिंह ने जोर से थूक निगली।

“मैं दोनों को बुलाता है और...”

“जरूरत नहीं, बाप।”—जीतसिंह एकाएक सन्तुलित, निर्णायक भाव से बोला।

“क्यों? अक्कल आ गया?”

“हां, बाप।”

“मगज स्ट्रेट करके काम किया?

“हां, बाप।”

नायक मुस्कराया, उसने अपने डिप्टी की तरफ देखा।

सोलंके भी मुसाहिबी के अन्दाज से मुस्कराया।

“तो समझ ले तेरी जान बच गयी।”—नायक बोला—“अभी बोल, जो बोलना है। मेरे सवाल किये बिना बोल।”

“बोलता है न, बाप, पण एक बात मेरे को भी पूछना मांगता है। इजाजत हो तो पूछे?”

“पूछ!”

“तुम्हेरे माल की वजह से जो भीड़ू लोग मेरे पीछे पड़ेले थे, पहले मेरे गुरुवार रात के पैसेंजर के पीछे पड़ेले थे, उन्होंने माना मेरे पैसेंजर को वो लोग खल्लास किया?”

“उनके उस्ताद ने माना, जरनैल ने माना। जब सब भीड़ू उस को लीडर मानते हैं, उससे सलाह करते हैं तो जो वो बोलता है, वो गलत नहीं हो सकता। जो पठान करके भीड़ू बाहर बैठेला है, वो जरनैल के फोन करने पर ही इधर पहुंचा है। वहीच बोला कि औने पौने, कच्चे पक्के गैंग के जो दो भीड़ू इम्पॉर्टेंट, वो विराट पंड्या और सुहैल पठान। छापे में छपा है कि पंड्या को कल पुलिस ने थाम लिया, इस वास्ते खाली पठान इधर है। तू बोले तो मैं उसे इधर बुला कर ‘खल्लास’ के बारे में पहले उससे सवाल करे!”

“नहीं।”

“तू ने जो पूछा उसका जवाब तेरे को मिल गया। अब बोल जो बोलना है।”

“बाप, सब से पहले तो यहीच बोलना है कि मैं उतना खराब भीड़ू नहीं है जितना बदनाम भीड़ू है। मेरा पास्ट लाइफ में बहुत प्राब्लम, बहुत गलाटा, बहुत लोचा पण अभी मैं स्ट्रेट भीड़ू। भाड़े की टैक्सी चलाता है, मेहनत का रोटी खाता है और चैन की नीन्द सोता है। पण चैन किधर है साला! चैन तो हैइच नहीं! पंगा साला जीतसिंह का किधर पीछा छोड़ता है! ये टेम तो कोई मेरे को मजबूर भी नहीं किया कोई पंगे वाला काम हैंडल करने का वास्ते पण पंगा फिर भी गले पड़ा। ये टेम बीस तारीख को, गुरुवार रात को पंगा जोकम फर्नान्डो करके पैसेंजर की सूरत में खुद पड़ा...”

“तो तेरे को ये भी मालूम तेरे पैसेंजर का नाम जोकम फर्नान्डो?”

“हां, बाप। वो खुद बोला न!”

“पूरा स्टोरी बोल। शुरू से बोल।”

जीतसिंह ने पूरी ईमानदारी से, बातरतीब सब कुछ बयान किया, कुछ न छुपाया, कुछ न छोड़ा।

“अब तुम समझ सकता है, बाप।”—आखिर में वो बोला—“कि तुम्हेरा माल खुद मेरे गले पड़ा।”

“क्या सबूत है?”—सोलंके बोला।

“बोले तो?”

“तेरे को किसी तरह से खबर लग गयी कि पैसेंजर के पास जो ब्रीफकेस था, उस में कीमती माल था। इस वास्ते तू ने ब्रीफकेस उससे छीन लिया।”

“और पैसेंजर ने छीन लिया जाने दिया!”

“तू ने ब्रीफकेस छीनकर जबरन उसे टैक्सी से बाहर धकेल दिया।”

“और पुलिस को फोन लगाने की जगह उसने सड़क पार की और जा कर बस में बैठ गया चुपचाप! कोई ऐतराज नहीं, कोई प्रोटेस्ट नहीं, कोई वान्दा नहीं। बरोबर!”

सोलंके ने जवाब न दिया।

“बाप, एक बार फैसला करो न कि मैं सच बोल रयेला है या नहीं!—जीतसिंह एक क्षण ठिठका, फिर बोला—“वैसे तो सबूत भी है मेरे पास।”

“सबूत भी है?”—सोलंके सकपकाया।

“है न!”

“क्या?”

जीतसंह ने अपना बटुवा निकाला और उस में से नोट पैड का वो वरका निकाला जो अलीशा वाज़ का पता वगैरह लिख कर पैसेंजर ने उसे वापिस किया था।

“ये वरका देखो, बाप।”—वो हाथ बढ़ाकर कागज सोलंके को थमाता बोला—“इस पर जो लिख रयेला है, वो खुद जोकम फर्नान्डो लिखा। वो तुम लोगों का अपना भीड़ू था, या तो तुम उसका हैण्डराइटिंग पहचानता होयेंगा या तुम आसानी से किधर से उसके हैण्डराइटिंग का नमूना काबू में कर सकता है। फिर मिला कर देखने का...”

“मेरे को जोकम के हैण्डराइटिंग की पहचान है।”—सोलंके बोला—“ये उसी का हैण्डराइटिंग है।”

“और इस पर जोगेश्‍वरी ईस्ट का जो पता दर्ज है, वो अब छापे में भी छप चुका है कि उसकी सीक्रेट करके वाइफ अलीशा वाज़ का था जिसको वो मेरे को ब्रीफकेस सौंप के आने को बोला। बाप, वो भीड़ू मेरे पर इतना ट्रस्ट किया, मेरे को एडवांस में, बोले तो, ईनाम में चार बड़े वाला गान्धी दिया और मैं उससे उसका सामान छीनेगा?”

सोलंके से साफ नहीं कहते न बना, उसने खाली एक गम्भीर हूंकार भरी।

फिर उसने वरका बिग बॉस को सौंप दिया।

नायक ने बोल बोल कर उस पर लिखा पता पढ़ा फिर बोला—“तू इधर गया था?”

“नैक्स्ट डे मार्निंग गया न ब्रीफकेस साथ ले के!”—जीतसिंह बोला—“गया तो मालूम पड़ा कि अलीशा वाज़, जिसको मेरे को ब्रीफकेस सौंपने का था, तो रात को ही जोकम की—बोले तो अपने हसबैंड की—मौत की खबर सुनकर सदमे से मर गयी। अभी मैं ब्रीफकेस किस को सौंपता! जिसका ब्रीफकेस, उसका मर्डर हो गया। जिसको ब्रीफकेस सौंपना था, वो भी खल्लास। तो ब्रीफकेस तो गले पड़ा न मेरे!”

“हूं।”

“उधर निकोल मेंडिस कर के एक लड़की थी जो कि अलीशा वाज़ की नैक्स्ट डोर नेबर थी और जिससे मैं उधर बात किया था। बॉस, वहीच लड़की मेरे को बोली और तभी मेरे को मालूम पड़ा कि पिछली रात जोकम का मर्डर हुआ और अलीशा वाज़ असल में उसकी ब्याहता बीवी थी। वो लड़की निकोल मेंडिस बराबर कनफर्म करेगी कि मैं ब्रीफकेस डिलीवर करने का वास्ते नैक्स्ट मार्निंग उधर पहुंचा था। बाप, इंसाफ करो, मेरे मन में मैल होता, मैंने नीयत खोटी की होती तो मैं पैसेंजर से वादे के मुताबिक ब्रीफकेस लेकर जोगेश्‍वरी जाता!”

“ठीक!”

“तेरे को”—सोलंके बोला—“वो टेम मालूम था कि सूटकेस में क्या था?”

“नहीं।”

“सूटकेस सौंपते वक्त जोकम कुछ न बोला?”

“जो बोला वो पुडिया थी जो वो टेम चल गयी थी।”

“क्या बोला?”

जीतसिंह ने बताया।

“हीरों की कब खबर लगी?”—सोलंके ने नया सवाल किया।

“जोगेश्‍वरी से लौटती बार। खोला न!”

“क्यों?”

“बाप, जिस अलीशा वाज़ को वो सौंपना था, वो मर गयी। ब्रीफकेस मेरे गले पड़ा न! मेरे को तब तो मालूम होना मांगता था न कि उसमें क्या था!”

“क्यों?”

“अरे, बाप उसमें समगलिंग का कोई माल होता, नॉरकॉटिक्स का कोई स्टॉक होता, मैं उसके साथ थाम लिया जाता तो सोचो, मेरा क्या होता! कौन मानता कि वो ब्रीफकेस कोई मेरे को आगे डिलीवर करने का वास्ते दिया!”

“तू बोला उस पर नम्बर्ड लॉक था, जोकम नम्बर बताया तेरे को?”

“नहीं।”

“तो फिर तूने कैसे खोल लिया ब्रीफकेस?”

जीतसिंह खामोश रहा।

“जवाब दे।”

“बाप, अब खोल लिया...बोले तो खुल गया किसी तुक्के से।”

“तुक्के से न खुला, कारीगरी से खुला।”

“बोले तो?”

“क्योंकि ताले खोलना तेरा कारोबार, जिसका तेरे को खास तजुर्बा!”

“क्या बोलता है, बाप?”

“क्योंकि तू टैक्सी डिरेवर जीतसिंह नहीं, लाकबस्टर, सैफक्रैकर, तालातोड़ जीतसिंह है।”

“बाप, जब जानता है तो...”

“तेरे बहुत कारनामे मशहूर हैं।”—वो नायक की तरफ घूमा—“मैं गलत बोला, बॉस?

“नहीं।”—नायक बोला—“जरनैल भी इसके बारे में काफी कुछ बोला। इसके पीछे पड़े भीड़ुओं में एक किशोर पूनिया करके भीड़ू था जो इसकी असलियत से अक्खा वाकिफ था। बहुत कारनामे बयान किये उसने इसके। अब जब कि मेरे को मालूम है कि ये कौन सा जीतसिंह है तो इसका हालिया कारनामा तो मेरे को वैसे ही मालूम है। पिछले महीने सी-रॉक एस्टेट में जो बम फूटने की वारदात हुई थी, जिसकी चपेट में आकर बहरामजी कान्ट्रैक्टर मरता मरता बचा था, उसमें ये भी शरीक था।”

“गलत।”—जीतसिंह आवेश से बोला—“बिल्कुल गलत!”

“क्या गलत? तूने बहरामजी के बैडरूम की वाल्ट जैसी सेफ नहीं खोली थी?”

“खोली थी। पण मेरे को उस काम के लिये मजबूर किया गया था। और सेफ खोलने के अलावा मैंने कुछ नहीं किया था। बाद में किसी ने उसमें कोई बम रख दिया था, इस बात की मेरे को कतई कोई खबर नहीं थी। बाप, तुम बिग बॉस है, अन्डरवर्ल्ड का बहरामजी जैसा ही बादशाह है। तुम चाहे तो अभी चुटकियों में मालूम कर सकता है कि बम वाली साजिश का जो कर्ता धर्ता था, उसको मैं पकड़ कर सी-रॉक एस्टेट लाया था और इस बड़े काम को अंजाम देने की एवज में मेरे को उधर से बीस पेटी का ईनाम मिला था।”

दोनों बिग बॉसिज के चेहरे पर अविश्‍वास के भाव आये।

“मैं एस्टेट का दुश्‍मन होता तो ठौर मार दिया जाता। दूसरी सांस न आती। पण मेरे को तो शाबाशी मिला! बाकायदा ईनाम मिला। खुद सोलोमन कान्ट्रैक्टर बॉस ने दिया बीस पेटी का ईनाम।”

दोनों बिग बॉसिज़ के चेहरे पर अविश्‍वास के भाव गहन हुए।

“मालूम कर।”—नायक ने आदेश दिया।

तत्काल सोलंके फोन के हवाले हुआ। काफी देर वो फोन के साथ व्यस्त रहा। आखिर उसने फोन बन्द किया।

नायक ने सवालिया निगाह उस पर डाली।

सोलंके ने सहमति में सिर हिलाया।

“कमाल है!”—नायक बोला—“किससे बात हुई?”

“जहांगीर से?”

“जो बहरामजी का भतीजा है?”

“वही।”

“हूं।”—नायक फिर जीतसिंह की तरफ मुखातिब हुआ—“तो पहले तू कुछ भी था, अब तू स्ट्रेट भीड़ू?”

“हां, बाप।”—जीतसिंह व्यग्र भाव से बोला।

“गैरकानूनी कामों से दूर?”

“हां, बाप।”

“हमेशा का वास्ते?”

“हां, बाप।”

“इस वास्ते खुद चल के इधर आया?”

“हां, बाप।”

“क्यों? तेरे को क्या मालूम माल असल में किस का था?”

“बाप, जब मेरे को ये मालूम पड़ गया कि जोकम कौन था...”

“कौन था?”

“तुम्हेरे गैंग का भीड़ू था।”

“हूं। तो?”

“तो माल भी तो तुम्हेरा ही होना! तुम्हेरा भीड़ू किसी दूसरे का माल काहे वास्ते हैंडल करेगा? और काम भी कैसा, बाप! जिस में जान की बाजी लगी थी! इस वास्ते मेरे मगज में आया कि अगर जोकम तुम्हेरा भीड़ू तो माल भी तुम्हेरा होना। अब तुम बोलो माल तुम्हेरा नहीं है, मैं सॉरी बोलता है और जाता है इधर से।”

“माल साथ लाया?”

“नहीं, बाप।”

“क्यों कि अभी स्टोरी सैट करने आया और ईनाम का पता करने आया?”

“अब... है तो...यहीच बात!”

“कहां है माल?”

जीतसिंह हिचकिचाया।

“जवाब दे!”

“ऐन सेफ जगह पर है।”

“जायेगा और ले के आ जायेगा?”

“हां, बाप।”

“कितना टेम में?”

“एक घन्टा में।”

“फिर तेरी सेफ जगह कोई बहुत ज्यास्ती दूर तो न हुई!”

“दादर में है।”

“जा और ले के आ। माल चौकस हुआ तो पचास पेटी ईनाम इधर तेरा वेट करता होयेगा।”

“बस!”

“देखो तो साले को! बोलता है बस! साला जानता नहीं किसके सामने बैठेला है! माल का जानकारी मैं साला तेरे हलक में बांह दे कर निकाल सकता है। करे मैं ऐसा?”

“नहीं, बाप।”

“तू सी-रॉक एस्टेट का ईनामी। इस वास्ते लिहाज है तेरा। आई बात मगज में?”

“आई, बाप।”

“कैसे जायेगा?”

“टैक्सी है न मेरा!”

“ये टेम रोड पर ट्रैफिक का प्राब्लम होता है। इस वास्ते तेरे को दो घन्टा का टेम है। जा ले आ।”

जीतसिंह उछल कर खड़ा हुआ और बॉस लोगों का अभिवादन करता बाहर को लपका।

“प्यादे पीछे लगाता हूं।”—सोलंके जल्दी से बोला।

“जरूरत नहीं।”—नायक बोला।

“फिर भी...”

“अरे, बोला न, जरूरत नहीं।”

“तुम्हेरे को पक्की कि लौट के आयेगा?”

“क्यों नहीं आयेगा? उसने माल के साथ कोई गेम करना होता तो क्या वो हमेरे पास आता! हमेरे एक प्यादे को लोकेट कर के उससे सिफारिश लगवाता तेरे से मीटिंग का वास्ते! माल उसके कब्जे में, चुप बैठता। क्या वान्दा था?”

“था न वान्दा, बॉस! दूसरे भीड़ू पीछे पड़े थे। माल हाथ से निकल सकता था, जान हाथ से निकल सकती थी, इस वास्ते हमेरे से सौदा करता था।”

“बोले तो बरोबर। मंजूर मेरे को तेरी बात। अभी सौदा किया न! किसी भी वजह से किया, किया न! तो क्यों नहीं आयेगा लौट के?”

सोलंके को जवाब न सूझा।

“वेट कर। वो जरूर आयेगा।”

“तब तक जो और भीड़ू लोग इधर है, उन का क्या करने का?”

“इधरीच रखने का। जब तक मेरा माल मेरे हाथ नहीं आ जाता, मैं उसको चौकस नहीं कर लेता, सब को इधरीच टिकने का। खास तौर से डाकी को जो कि अच्छा इत्तफाक हुआ कि ये टेम इधर है। माल की शिनाख्त के लिये उसकी जरूरत पड़ सकती है। जीतसिंह की किसी और तरह की शिनाख्त में जरनैल की जरूरत पड़ सकती है, उस दूसरे भीड़ू की...क्या नाम था?”

“पठान। सुहैल पठान।”

“उसकी जरूरत पड़ सकती है। अभी सब को इधरीच होने का।”

“ईनाम! पचास पेटी! जो जीतसिंह को बोला!”

“उसका क्या?”

“देने का?”

“क्या मतलब है, भई, तेरा? बहरामजी के मुकाबले में मेरे को टुच्चा डॉन साबित करना मांगता है?”

“सॉरी बोलता है, बॉस।”—सोलंके बौखलाया—“साला मगज किधर और घूम गया।”

“बल्कि इन्तजाम करके रख पचास पेटी का।”

“अभी। पण बॉस...”

“अब क्या है?”

“बॉस, वो दादर बोला। माफी के साथ बोलता है, ये तो पूछना था दादर में किधर?”

“बोले तो?”

“अभी वो टैक्सी पर निकलेगा, रास्ते में रोड एक्सीडेंट में खल्लास होगा तो माल का पता गया न उसके साथ! फिर कौन बोलेगा दादर में माल किधर है!”

“अभी पाकिस्तान हमला करेगा, पहला बम मुम्बई में इसी बिल्डिंग पर आ के गिरेगा जिसमें हम बैठेले हैं और हम सब को खल्लास करेगा। फिर किसको मांगता होयेंगा माल दादर में किधर है?”

“भाव नहीं खाने का, बाप, मैं सॉरी बोलता है।”

“कनफ्यूज करता है मेरे को! नुक्स निकालता है!”

“सॉरी बोला न, बाप!”

“तारानाथ को कोई चाय-वाय बोल। बाकियों के लिये भी।”

“अभी।”

 

वीजू अपने बॉस की स्विफ्ट की ड्राइविंग सीट पर बैठा था और उसकी निगाहों का मरकज वो पन्द्रह मंजिला बिल्डिंग थी जिसमें उसके बॉस को पकड़ कर ले जाया गया था। वो पीछे लॉबी में भी गया था इसलिये उसको मालूम था कि लिफ्ट उसको बिल्डिंग के टॉप फ्लोर पर ले कर गयी थी। उसने खामोशी से आसपास से टॉप फ्लोर की बाबत दरयाफ्त करने की कोशिश की थी लेकिन उसे कोई कामयाबी हासिल नहीं हुई थी। ज्यादा पूछताछ करना उसे मुनासिब नहीं लगा था क्योंकि तब खुद उस पर फोकस बन सकता था और उसका अंजाम भी उस के बॉस जैसा हो सकता था।

उस से पहले कई घन्टे उसने भायखला में गुजारे थे जिधर की एक वेयरहाउसनुमा इमारत में जरनैल को ले जाया गया था। एक बजे के करीब उसे वहां से निकाला गया था और चर्चगेट लाया गया था जहां कि वो उस घड़ी था। फिलहाल ऐसा नहीं लगता था कि जरनैल के साथ कोई दुर्व्यवहार हुआ था, इसलिये उसका निगरानी पर ही जोर था जिसके किसी हासिल के बारे में वो कुछ नहीं जानता था। बड़ी हद वो पुलिस को खबर कर सकता था कि उसके बॉस को कुछ लोग गिरगांव से जबरदस्ती उठा कर ले गये थे और अब वो उस पन्द्रह मंजिला इमारत के टॉप फ्लोर पर कहीं गिरफ्तार था।

लेकिन क्यों कि वहां पहुंचा जरनैल उसे ऐन चौकस दिखाई दिया था इसलिये फिलहाल उसका इरादा निगरानी जारी रखने का ही था।

फिर उसने एक खाली टैक्सी को वहां पहुंचते देखा। ड्राइवर ने टैक्सी को इमारत के करीब ही पार्क किया और उसमें से निकल कर इमारत के प्रवेश द्वार की ओर बढ़ा। उसने देखा ड्राइवर रसमिया वर्दी में होने की जगह जींस-जैकेट पहने था और इस बात की वजह से उसकी तवज्जो खासतौर से उसकी तरफ गयी। उसने देखा वो दुबला पतला, गोरी रंगत वाला, क्लीनशेव्ड नौजवान था जिसके सिर के स्याह काले बाल घने थे और भवें भी बालों की ही तरह घनी और भारी थीं।

टैक्सी ड्राइवर इमारत के प्रवेश द्वार पर पहुंचा और वहां खड़े एक अपने हमउम्र युवक से मिला जो कदकाठ और सूरत से साफ नेपाली लगता था। दोनों ने हाथ मिलाया, फिर नेपाली उसे भीतर ले चला।

जहां स्विफ्ट खड़ी थी, वहां से इमारत की चार लिफ्टें साफ दिखाई देती थीं। उस के देखते देखते वो दोनों—सिर्फ वो दोनों—एक लिफ्ट पर सवार हुए और लिफ्ट के इंडीकेटर के मुताबिक वो टॉप पर—पन्द्रहवें माले परपहुंचे।

अनायास वीजू का ध्यान जीतसिंह की तरफ गया।

वो अपने बॉस का भृत्य ही नहीं, राजदां भी था इसलिये उसे मालूम था कि किस शिद्दत से बॉस के चेलों को—पंड्या, पठान वगैरह को—जीतसिंह करके एक टैक्सी ड्राइवर की तलाश थी जो अभी परसों रात शुक्लाजी स्ट्रीट कमाठीपुरा में फेल हो के हटी थी।

क्या वो टैक्सी ड्राइवर जीतसिंह हो सकता था?

कोई जरूरी नहीं था।

फिर उसने एक और टैक्सी को वहां पहुंचते देखा जिस का पैसेंजर इमारत के सामने बाहर निकला तो उसने उसे फौरन पहचाना।

सुहैल पठान!

फिर वो भी एक्सप्रैस लिफ्ट पर सवार होकर टॉप फ्लोर पर गया।

क्या माजरा था!

वो अकेला था इसलिये कोई बड़ा काम तो वो कर नहीं सकता था, सिवाय वेट करने के और वाच करने के।

पांच मिनट गुजरे।

कुछ सोच कर उसने अपना मोबाइल निकाला और सुहैल पठान के मोबाइल पर काल लगाई।

“सुहैल भाई”—घन्टी बजनी बन्द हुई तो वो बोला—“मैं वीजू...”

“रांग नम्बर।”

लाइट कट गयी।

वीजू सकपकाया। क्या उसकी इन्डेक्स में किसी और के नम्बर पर उंगली दब गई थी?

इस बार उसने सावधानी से सुहैल पठान का नम्बर पंच किया।

तत्काल ‘ये नम्बर स्विच्ड आफ है’ की घोषणा होने लगी।

हैरान होते उसने फोन को वापिस जेब के हवाले किया।

आधा घन्टा गुजर गया।

फिर एकाएक जींस-जैकेट वाला टैक्सी ड्राइवर उसे फिर दिखाई दिया। वो तभी एक लिफ्ट में से निकला था और अब अपनी टैक्सी की तरफ बढ़ रहा था।

उसने सतर्क निगाह लॉबी में दौड़ाई।

कोई दूसरी परिचित सूरत उसे वहां न दिखाई दी।

टैक्सी ड्राइवर अपनी टैक्सी में सवार हो गया। टैक्सी अपने स्थान से हिली और आगे बढ़ी।

वीजू के जेहन में फिर घन्टी बजी।

क्या वो जीतसिंह हो सकता था?

अगर वो जीतसिंह था तो जीतसिंह और सुहैल पठान का एक जगह क्या काम था, ऐसी जगह क्या काम था जहां उसका बॉस गिरफ्तार था!

कोई जवाब तो उसके पास नहीं था लेकिन किसी अज्ञात भावना ने उसे फिर भी प्रेरित किया, उसने स्विफ्ट को स्टार्ट किया और उसे टैक्सी के पीछे डाल दिया।

आखिर टैक्सी दादर रेलवे स्टेशन पहुंची और फिर वहां के टैक्सी स्टैण्ड की ओर मुड़ी।

टैक्सी स्टैण्ड के दहाने पर एक लकड़ी का केबिन था जिसकी खिड़की में से गर्दन निकाल कर एक आदमी उच्च स्वर में बोला—“अरे, जीते! किधर रहता है? तेरे को बाबला पूछता था।”

“बोलेगा।”—उसका निशाना टैक्सी ड्राइवर बोला—“टेम नहीं है अभी।”

टैक्सी आगे बढ़ गयी और वहां खड़ी कई टैक्सियों में पार्किंग में जगह तलाशने लगी।

जीता!

जीतसिंह!

तो ये जींस-जैकेट वाला ड्राइवर जीतसिंह ही था।

तत्काल वीजू ने फिर मोबाइल निकाला और जल्दी से एक नया नम्बर पंच किया।

“विराट भाई”—काल लगी तो वो बोला—“वीजू बोलता है...”

 

जीतसिंह स्टेशन में दाखिल हुआ और आगे क्लॉकरूम पर पहुंचा।

उसने क्लॉकरूम की रसीद निकाल कर पेश की, चार दिन की स्टोरेज की फीस भरी और सूटकेस हासिल किया।

वो क्लॉकरूम के काउन्टर पर से हटा।

एक हीरा उसकी जेब में था जिस को उसके मुकाम पर पहुंचाना जरूरी था।

उसने बुकिंग विंडो पर जा कर मुम्बई सैन्ट्रल का फर्स्ट क्लास का टिकट खरीदा। उस टिकट के सदके अब वो फर्स्ट क्लास के वेटिंगरूम में जा सकता था।

उसने वेटिंगरूम तलाश किया, उसके बन्द दरवाजे पर दीवार के साथ लगी एक कुर्सी थी जिस पर एक वाचमैन बैठा मराठी की कोई पत्रिका पढ़ रहा था। जीतसिंह करीब पहुंचा तो उसने पत्रिका पर से सिर उठाया।

जीतसिंह ने उसे टिकट दिखाया।

वाचमैन ने सहमति में सिर हिलाया और फिर पत्रिका पढ़ने लगा। फर्स्ट क्लास के पैसेंजर में अब उसकी कोई दिलचस्पी बाकी नहीं थी।

जीतसिंह भीतर दाखिल हुआ।

वेटिंगरूम खाली था।

उसने अपने पीछे दरवाजा भिड़काया और उसके सिरे पर पहुंचा। वो एक कुर्सी पर बैठ गया और अपने सामने पड़ी टेबल पर रखकर उसने सूटकेस का ताला खोला, उसका ढक्कन उठाया और भीतर से ब्रीफकेस बरामद किया। सूटकेस को बन्द करके उसने उसे मेज के नीचे सरका दिया। अब उसे उसकी जरूरत नहीं थी। ब्रीफकेस को अपनी कारीगरी से खोलकर बन्द करने के लिये उसने उस पर अपना कोड नम्बर लगाया था इसलिये तब वो ब्रीफकेस तत्काल खुला। उसने उसमें से शनील की काली थैली बरामद की और जेब का हीरा वापिस उसमें स्थानान्तरित किया। वो थैली को वापिस ब्रीफकेस में डालने लगा था कि ठिठका। फिर निर्णायक भाव से उसने थैली को अपनी जैकेट की भीतरी जेब के हवाले किया और ब्रीफकेस बन्द किया। ब्रीफकेस सम्भाले वो उठकर खड़ा हुआ और दरवाजे की ओर बढ़ा।

तभी दरवाजा खुला।

वो ठिठका। उसने दरवाजे की ओर निगाह दौड़ाई।

विराट पंड्या भीतर दाखिल हो रहा था।

जीतसिंह चौंका। उसने आंखें मिचमिचाईं और फिर सामने देखा।

वही था।

और उसके हाथ में गन थी जो वो जीतसिंह पर ताने था।

उसने जीतसिंह को खामोश रहने का इशारा किया और पीछे दरवाजे की चिटकनी चढ़ाई। दृढ़ता से गन थामे वो दो कदम आगे बढ़ा।

“काफी चिल्लाक निकला तू साला।”—वो दांत पीसता सा बोला—“ब्रीफकेस सूटकेस में और सूटकेस इधर क्लॉकरूम में...”

“तू वाच करता था?”

“... साला मिलता भी तो कैसे मिलता!”

“तू तो गिरफ्तार था! छुट्टा कैसे घूम रहा है?”

वो हँसा। क्रूर हँसी।

“कैसे पता लगा तेरे को कि मैं इधर था?”

“साले फटेले! मैं तेरे से क्विज प्रोग्राम करने का वास्ते इधर है?”

“और किस वास्ते इधर है?”

“ब्रीफकेस को फर्श पर डाल और पांव की ठोकर से मेरी तरफ धकेल।”

“नहीं करेगा तो क्या करेगा?”

“बुलेट गाड़ देगा साला।”

“बाहर वाचमैन बैठेला है। तेरी मजाल नहीं हो सकती।”

उसने फायर किया।

गोली जीतसिंह के सिर के बालों को हवा देती गुजर गयी और पीछे दीवार से कहीं टकराई।

जीतसिंह ने बौखला कर ब्रीफकेस छोड़ दिया। वो फर्श पर गिरा तो उसने उस पर पांव की ठोकर जमाई। ब्रीफकेस फर्श पर फिसलता पंड्या के पांव के करीब जा कर रुका।

“घूम जा।”—पंड्या ने नया आदेश दिया—“मुंह दीवार की तरफ। पीठ मेरी तरफ।”

जीतसिंह ने आदेश का पालन किया।

“सौ तक गिनती गिनना शुरू कर। सौ हो जाने से पहले वापिस नहीं घूमने का। गिनती की आवाज सुनाई दे मेरे को। क्या?”

“एक, दो, तीन, चार...”

पंड्या ने झुक कर ब्रीफकेस उठाया और उसके खटके ट्राई किये।

खटके टस से मस न हुए।

“अनलाकिंग का कोड बोल।”—वो बोला।

तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी।

पंड्या तत्काल दरवाजे पर पहुंचा। उसने गन छुपाई, चिटकनी सरकाई, दरवाजा खोला और बाहर निकल गया।

“...सत्तरह, अट्ठारह, उन्नीस...”

वाचमैन ने भीतर कदम रखा।

“बोले तो?”—वो उच्च स्वर में बोला।

जीतसिंह घूमा।

“क्या करता है तुम?”—वाचमैन बोला—“गिनती काहे वास्ते बोलता है?”

“गिनती नहीं बोलता”—जीतसिंह बोला—“सांस का एक्सरसाइज करता है। दमा है मेरे को।”

“बोम मारता है।”

“अरे, नहीं।”

“मैं इधर ठांय कर के कुछ आवाज सुना। जैसे गोली चली हो!”

“अरे, नहीं, भीड़ू, इधर गोली कौन चलायेगा!”

“वो दूसरा, ब्रीफकेस वाला...जो अभी इधर से गया...”

“वो तो इधर रुका ही नहीं था। अपने किसी साथी पैसेंजर को देखता था, नहीं दिखाई दिया तो चला गया।”

“हूं। मेरे को लगा कि डोर भीतर से बन्द था। इसी वास्ते मैं नॉक किया।”

“नॉक किया तो अच्छा किया। गुड मैनर्स दिखाया। पण डोर भीतर से काहे वास्ते बन्द होयेंगा!”

“मेरे को लगा। मैं पुश किया तो...”

जीतसिंह ने देखा मराठी की मैगजीन तब भी उसके हाथ में थी।

“क्या पढ़ता था मैगजीन में?”—वो बोला—“कोई जासूसी स्टोरी?”

“हां। कैसे मालूम?”

“आजकल सब यहीच पढ़ता है। पढ़ता है तो डूब के पढ़ता है। फिर इमेजिन करता है कि जो पढ़ रयेला है, वहीच हो रयेला है। तेरी स्टोरी में गोली चली?”

“वो तो चली दो बार पण...”

“अभी छोड़ मैगजीन का पीछा। थोड़ा टेम रैस्ट दे स्टोरी के साथ उड़ते मगज को।”—वो आगे बढ़ा—“बाजू हट। जाने दे मेरे को।”

चेहरे पर असमंजस के भाव लिये वाचमैन एक बाजू हटा।

जीतसिंह बाहर निकला। उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई।

पंड्या उसे कहीं दिखाई न दिखाई दिया।

ये निश्‍चित था कि उसने पहली फुरसत में ब्रीफकेस को खोलना था, भले ही उसके तालों पर भी बुलेट दागनी पड़ती या ब्रीफकेस को काट डालना पड़ता। तब उसे मालूम पड़ता कि ब्रीफकेस खाली था तो उसकी जीतसिंह की तलाश फिर शुरू हो जाती।

दूसरे, वो इत्तफाक से वहां स्टेशन पर नहीं हो सकता था। जरूर किसी ने उसे उसकी वहां मौजूदगी की खबर दी थी। यानी कोई और भी भीड़ू था जिसकी निगाह में वो था। ऐसा दूसरा भीड़ू हो सकता था तो तीसरा और चौथा भी हो सकता था। लिहाजा उसका स्टेशन से बाहर निकलना एक नयी मुसीबत की बुनियाद बन सकता था। पंड्या, जाहिर था कि, पुलिस की गिरफ्त से निकल भागने में कामयाब हो गया था। जमा, उसके पास गन थी। जो पुलिस की गिरफ्त से निकल भागने जैसा बड़ा और खतरनाक कदम उठा सकता था, वो कुछ भी कर सकता था। वेटिंगरूम में गोली चलाने से वो जरा भी नहीं हिचका था। उसके सामने अहमतरीन मसला हीरों पर काबिज होना था जिन्हें वो ब्रीफकेस में न पाता तो फौरन समझ जाता कि वो जीतसिंह के पास थे। मौजूदा हालात में जीतसिंह को देखते ही वो शरेआम उसको शूट कर सकता था। स्टेशन से बाहर वो कहीं भी हो सकता था, बल्कि कभी भी वापिस लौट सकता था।

फिर अगर किसी दूसरे की निगाह में भी वो था तो यकीनन उसकी टैक्सी भी उस दूसरे की निगाह में थी। लिहाजा वो जानता था कि उसकी टैक्सी टैक्सी-स्टैण्ड पर खड़ी थी और उसका उसके पास लौट कर आना लाजमी थी।

नहीं, उन हालात में वो स्टेशन से बाहर कदम नहीं रख सकता था।

तो?

उसे टिकट का खयाल आया।

बिल्कुल ठीक!

मुम्बई सैन्ट्रल तक वो टर्मिनल के भीतर ही रह कर, लोकल पकड़ के जा सकता था। आगे वो चर्च गेट टर्मिनल तक लोकल से ही जा सकता था या टैक्सी पकड़ सकता था।

वो वैस्टर्न रेलवे के लोकल के प्लेटफार्म की तरफ बढ़ा।

उस उपक्रम में वो प्लेटफार्म पर बने एक बुक स्टाल के आगे से गुजरा तो एकाएक ठिठका।

स्टाल पर उस के उसकी ओर के काउन्टर के ऊपर ‘ईवनिंग न्यूज’ टंगा था जिस पर से फासले से ही सुर्खी पढ़ी जा सकती थी।

मर्डर सस्पैक्ट फरार

तीन पुलिसकर्मी सस्पेंड

जीतसिंह जानता था कि वो अखबार क्यों कि शाम को प्रकाशित होता था इसलिये उसमें वो खबरें भी होती थीं जो रेगुलर अखबारों में अगले रोज छपनी होती थीं।

उसने एक अखबार खरीद लिया और चलते चलते ही सुर्खी के नीचे का समाचार पढ़ा। जो छपा था उसका सारांश था :

सुबह मुजरिम विराट पंड्या को, जिसे कि पिछली रात गिरफ्तार किया गया था और दफा 302 के तहत बुक किया गया था, रिमांड हासिल करने के लिये कोर्ट की पेशी पर ले जाया जा रहा था जब कि पुलिस वैन का एक पहिया रास्ते में पंचर हो गया था। वैन में कैदी और ड्राइवर के अलावा एक सब-इन्स्पेक्टर और दो सिपाही थे। ड्राइवर जब पहिया बदलने लगा था तो उसकी मदद के लिये दोनों सिपाही भी वैन से बाहर निकल आये थे और सब इन्स्पेक्टर कैदी के साथ भीतर बैठा रहा था। सब-इन्स्पेक्टर उम्रदराज शख्स था जो सिपाही भर्ती हुआ था और जो बुढ़ौती में, रिटायर होने से एक साल पहले सब-इन्स्पेक्टर बना। वैन में कैदी ने सब-इन्स्पेक्टर पर हमला कर दिया था, उसकी सर्विस रिवाल्वर अपने कब्जे में कर ली थी और जब आगे सब जने पंचर पहिये के साथ मसरूफ थे, वो पीछे से फरार हो गया था।

अब जिस फरार मुजरिम की चौतरफा तलाश थी, वो दादर स्टेशन पर गन के साथ छुट्टा घूम रहा था।

 

सोलंके ने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली और अर्थपूर्ण ढण्ग से अपने बॉस की तरफ देखा।

“हौसला रख।”—नायक तनिक झुंझलाया—“अभी सवा घन्टा ही हुआ है। हमने उसे दो घन्टे का टेम दिया है।”

सोलंके खामोश हो गया, पर उसके चेहरे पर से असंतोष के भाव न गये।

तभी दरवाजा खुला और तारानाथ चौखट पर प्रकट हुआ।

“वो भीड़ू”—वो बोला—“जीतसिंह...वापिस आयेला है।”

नायक ने विजेता के से भाव से अपनी डिप्टी की ओर देखा।

सोलंके परे देखने लगा।

“बुला।”—नायक तारानाथ से बोला।

तारानाथ चौखट पर से गायब हो गया।

“खामखाह भाव खाता है!”—नायक ने अपने डिप्टी को मीठी झिड़की दी।

“मेरे को वो भीड़ू, ओके नहीं है, बॉस।”—सोलंके भुनभुनाया—“कुछ ज्यादा ही चिल्लाक साला!”

“होये न! हमेरे को उसकी चिल्लाकी से क्या लेना है! हमेरे से चिल्लाकी करेगा तो...देखेंगे।”

“अभी करता ही होयेंगा। कोई फैंसी एक्सक्यूज देता ही होयेंगा कि जिस काम का वास्ते गया, वो क्यों न हुआ!”

नायक तत्काल संजीदा हुआ।

“ऐसा हुआ”—वो सर्द लहजे से बोला—“तो पहले से इन्तजाम कर के रख इधर से एक लाश उठवाने का।”

गन उसने दराज में वापिस रख ली थी, उसने उसे फिर बरामद किया और सामने मेज पर रख लिया।

जीतसिंह ने भीतर कदम रखा।

“क्या?”—उसे अपलक देखता नायक शुष्क स्वर में बोला।

जीतसिंह ने खामोशी से शनील की काली थैली उसके सामने मेज पर रखी।

“क्या है?”

जीतसिंह ने डोरियां खींच कर थैली का मुंह खोला और उसे उलटा कर दिया।

सारे हीरे मेज पर ढेर हो गये।

तीव्र कृत्रिम प्रकाश में जगमग करते बेशुमार हीरे।

तत्काल नायक का मिजाज बदला।

“शाबाश!”—वो जोश से बोला।

जीतसिंह ने अदब से सिर नवा कर शाबाशी कबूल की।

“पूरे हैं?”

“पूरे कितने होने का, मेरे को नहीं मालूम, बाप, पण ये चार सौ हैं।”

“पूरे हैं। शाबाश!”

“बाप, मेरा ईनाम...”

मिलता है। बैठ अभी। अभी शाबाशी तो पूरी होने दे!”

जीतसिंह ने बैठने का उपक्रम न किया, वो अदब से खड़ा रहा।

सोलंके ने एक हीरा उठाया, उसे अपनी तंर्जनी उंगली और अंगूठे से थाम कर एक आंख के सामने आगे पीछे किया।

उसने वो हीरा वापिस रख कर दूसरा उठाया और उसके साथ भी वही बर्ताव किया।

“क्या करता है?”—नायक भुनभुनाया।

सोलंके ने जवाब न दिया। उसने तीसरा हीरा उठाया।

फिर चौथा, पांचवां...दसवां।

“अरे, क्या करता है?”—नायक झल्लाया।

जिस विजिटर्स चेयर पर सोलंके बैठा हुआ था, वो उस पर से उठा और टेबल का घेरा काट के बॉस की एग्जीक्यूटिव चेयर के करीब पहुंचा। उसने झुक कर बॉस के कान में कुछ कहा।

तत्काल नायक का मिजाज फिर बदला, उसके चेहरे की रंगत सुर्ख होने लगी।

जीतसिंह घबरा गया।

“बाप...!”—उसने कहना चाहा।

“बाहर जा।”—नायक बोला।

“पण, बाप...”

“बाहर जा।”—नायक सांप की तरह फुंफकारा।

तत्काल जीतसिंह वहां से रुखसत हुआ।

“हजारे को फोन लगा।”पीछे पूर्ववत् भड़का हुआ नायक बोला—“उसको फौरन इधर आने को बोल। बोल, अपने जैम एक्सपर्ट देशपाण्डे को भी साथ ले कर आये।”

तत्काल सोलंके अपने मोबाइल के साथ व्यस्त हो गया।

उसने कुछ क्षण फोन पर बात की, फिर नायक से बोला—“बोलता हैं ये टेम बहुत बिजी दोनों। काउन्टर पर बहुत रश। नहीं आ सकता। सात के बाद किसी टेम आयेगा।”

“मेरे को दे।”—नायक बोला, उसने फोन दिये जाने का इन्तजार न किया, सोलंके के हाथ से जैसे नोच के निकाला, फिर फोन में यूं चिंघाड़ा जैसे बादल गर्जे हों—“आधे घन्टे से पहले इधर आके मर देशपाण्डे को साथ ले के वर्ना जिधर बिजी है उधरीच मरा पड़ा होयेंगा। ये अमर नायक का वादा है तेरे से... कोई पण नहीं, कोई पुड़िया नहीं...सच्ची भी बोलता है तो नहीं मांगता... क्या!... बोल, कोई इमरजेंसी आ गया। बाप को धड़का लग गया। बीवी लोकल से गिर गयी। बेटा बस के नीचे आ गया। कुछ भी बोल। आधे घन्टे में तेरे को इधर चर्च गेट पर मेरे सामने खड़ेला होने का अपने जैम एक्सपर्ट के साथ...क्या?...ठीक है। समझ ले तेरी जान बच गयी।”

नायक ने फोन सोलंके को वापिस लौटाया।

सोलंके ने प्रश्‍नसूचक निगाह से बॉस को देखा।

“आता है।”—नायक भुनभुनाया।

“बढ़िया।”—सोलंके बोला।

“तब तक डाकी को बुला।”

बॉस के मूड के मद्देनजर सोलंके ने तारानाथ के लिये घन्टी न बजाई, खुद जा कर हुसैन डाकी को बुला कर लाया।

डाकी ने मेज पर बिखरे पड़े हीरे देखे तो उसके नेत्र फैले।

“ये”—उसके मुंह से निकला—“ये...”

“वही है जो दिखाई देता है।”—नायक भरसक अपने स्वर को सन्तुलित करता बोला—“अभी बोल, ये वही हैं जो तू दुबई से लाया था?”

“वो...वो... शनील की थैली तो वही है!”

“ढक्कन! साला कुछ समझता हैइच नहीं! शनील की थैली लेने दुबई गया!”

“हीरे...लगते तो वही हैं!”

“लगते हैं या हैं?”

“बाप, मेरे को हीरे की क्या पहचान है! मैं तो इतना ही बोल सकता है कि साइज वहीच, शेप वहीच, कलर वहीच। और मेरे को कैसे कुछ मालूम होयेंगा।...ये...कितने हैं?”

“चार सौ।”

“फिर तो वहीच होना।”

“पक्की कर के नहीं बोल सकता? गारन्टी नहीं कर सकता?”

“नहीं, बाप।”

“ठीक है। जा और उधरीच जा के बैठ जिधर बैठेला था। ड्राईंगरूम में नहीं बैठने का।”

“बाप, मेरे को बहुत टेम हो गया इधर।”

“तो? टेम का तोड़ा तेरे को? किधर जा के हल चलाने का?”

“वो तो नहीं, पण...”

“क्या, क्या, क्या, क्या पण?”

“कुछ नहीं, बाप। जाता है।”

तत्काल वो वहां से कूच कर गया।

“साला सब को टेम का तोड़ा।”—पीछे नायक बड़बड़ाया—“सब का टेम इम्पॉर्टेंट। एक मैं ही खाली बैठा है इधर।”

सोलंके खामोश रहा। बॉस के वैसे मूड में खामोश रहना ही मुनासिब होता था।

मेज के एक कोने में एक ट्रे पड़ी थी जिस पर कुछ प्लेटें और चाय के कप पड़े थे। नायक के इशारे पर सोलंके ने ट्रे को खाली किया और उसे उलट पर मेज पर बिखरे पड़े हीरों के ऊपर यूं रख दिया कि हीरे और शनील की थैली दिखाई देनी बन्द हो गयी।

पन्द्रह मिनट खामोशी से गुजरे।

फिर बद्हवास वीरेश हजारे ने वहां कदम रखा।

उसके पीछे पीछे कदरन नार्मल मुकुल देशपाण्डे था।

“समझो उड़के आया, बॉस।”—वो हांफता सा बोला।

“थैंक्यू बोलता है न मैं!”—नायक सन्तुलित स्वर में बोला—“अहसान है तेरा मेरे ऊपर।”

“अरे, बॉस, मैं इस वास्ते नहीं बोला। मैं तो...”

“बैठ। तू भी, देशपाण्डे! यहीच नाम न?”

देशपाण्डे ने सहमति में सिर हिलाया।

दोनों अगल बगल दो कुर्सियों पर बैठ गये।

“हमेरे को असल काम तेरे जैम एक्सपर्ट से—देशपाण्डे से—पण ये हमेरे वास्ते नवां भीड़ू। इस के साथ हमेरी कोई डीलिंग नहीं। इस वास्ते इसको एक्सप्रैस करके इधर आने को बोलने को हमेरा मुंह नहीं बनता था। इस वास्ते तेरे को बोलना पड़ा ताकि तू इसको साथ ले कर आता।”

“मैं आया न ले कर!”

“मैं बोलता है न थैंक्यू!”

“बोले तो मेरे से कोई काम नहीं! देशपाण्डे से काम! मेरे से यहीच काम कि मेरे को देशपाण्डे को अर्जेंट करके इधर ले के आने का था?”

“हां।”

हजारे ने चैन की सांस ली।

“इधर मेरी तरफ देख, भीड़ू।”—नायक देशपाण्डे से सम्बोधित हुआ—“तू जैम एक्सपर्ट है। बोले तो हीरे जवाहरात का पारखी है। ये हीरे हैं तेरे सामने। इन्हें परख।

नायक ने हाथ बढ़ा कर मेज पर से ट्रे उठा ली और उसे वापिस कोने में क्रॉकरी के करीब रख दिया।

हीरों पर निगाह पड़ते ही हजारे के नेत्र फैले।

“ये”—उसके मुंह से निकला—“ये हीरे...”

“पहचानता है?”—नायक ने पूछा।

“नहीं, पहचानता तो नहीं, पर...”

“अगर मैं बोले ये वहीच हीरे जो गुरुवार को, पिछली बीस तारीख को, डाकी दुबई से लाया तो...तो क्या बोलेगा?”

“मैं बोलूंगा हो सकता है। मैं तो हीरे हैंडल किया नहीं! मैं तो खाली डाकूमैंटेशन करता है, बोले तो कागजी कार्यवाही करता है। हैंडलिंग तो देशपाण्डे का काम है न!”

“तो तू क्यों हैरान हो के दिखाता है? जब हीरों के बारे में कुछ जानता हैइच नहीं तो देख के आंखें क्यों फैलाता है?”

“वो तो...वो तो...और वजह से...”

“और क्या वजह?”

“बॉस, जो चीज गायब है, वो आंखों के सामने दिखाई दे तो हैरानी तो होती है न!”

“ठीक!”

“अगर ये वही हीरे हैं तो आप को बधाई कि आपका माल वापिस आप के पास है।”

“अभी बधाई को बाजू में ले, आगे देने का टेम आये, माहौल बने तो देना। क्या!”

हजारे खामोश रहा।

“तू इधर मेरी तरफ देख, भीड़ू।”—नायक देशपाण्डे से सम्बोधित हुआ—“तेरे से मेरे को नहीं पूछने का कि तू इन हीरों को पहचानता है या नहीं! तेरे से मैं तेरे धन्धे की बात पूछता है रिपीट कर के। तू जैम एक्सपर्ट है। बोले तो हीरे जवाहरात का पारखी है। ये हीरे हैं तेरे सामने। इन्हें परख।”

संजीदासूरत देशपाण्डे ने कोई हुज्जत न की, कोई सवाल न किया, उसने जेब से ज्वेलर्स ग्लास निकाल कर एक आंख में दबाया और एक हीरा उठा कर उसके सामने किया। ज्वेलर्स ग्लास के लैंस के सामने उसकी उंगली और अंगूठे में थमा हीरा पहलू बदलता रहा।

फिर उसने उसको वापिस रखा और दूसरा हीरा उठाया।

“सारा लॉट परखने की जरूरत नहीं।”—सोलंके बोला—“उसमें तो रात हो जायेगी। बीच बीच में से उठा कर कुछ पीस परखने से भी चलेगा।”

“रैंडम एग्जामिनेशन?”—देशपाण्डे बोला।

“यहीच बोलते होंगे!”

“ओके।”

उसने बीच बीच से उठा कर दस बारह हीरे परखे।

फिर एकाएक आंख पर से ज्वेलर्स ग्लास उतार कर वापिस जेब में रख लिया।

सोलंके और नायक ने यूं उसकी तरफ देखा जैसे वो जज हो और फैसला सुनाने वाला हो।

उसने फैसला ही सुनाया।

सख्त फैसला।

“नकली हैं।”—वो बोला।

सोलंके ने विजेता के से भाव से अपने बॉस की तरफ देखा।

नायक का सिर मशीनी अन्दाज से सहमति में हिला।

“अच्छी क्वालिटी की नकल है”—देशपाण्डे आगे बढ़ा—“लेकिन है नकल ही। किसी अच्छे कारीगर का काम है। नकली हर अदद की कीमत भी दो-ढ़ाई हजार रुपये से कम न होगी।”

“पण हैं ये नकली ही?”

देशपाण्डे ने आहत भाव से नायक की तरफ देखा।

“भाव नहीं खाने का, भीड़ू। जवाब दे।”

देशपाण्डे ने जुबानी जवाब न दिया, उसने एक हीरा उठाया और मेज पर से एक पेपरवेट उठाया। कुर्सी से उठ कर वो नायक के करीब गया, झुक कर हीरा फर्श पर रखा और पूरी शक्ति से हथौड़े की तरह पेपरवेट को हीरे पर पटका।

हीरे के परखच्चे उड़ गये। अभी जो हीरा था वो ‘ग्लास पाउडर’ बन गया।

“हीरा दुनिया की सबसे सख्त चीजों में से एक होता है।”—देशपाण्डे बोला—ऐसी चोट से उस पर खरोंच भी नहीं आती।”

“ओह!”—नायक के मुंह से निकला।

“ये हीरा नहीं, शीशा था। शीशा ही ऐसे चकनाचूर होता है जैसे कि ये हीरा हुआ।”

“ऐसी नकल आनन फानन तो तैयार नहीं की जा सकती होगी? वो भी बड़ी तादाद में! चार सौ नग!”

देशपाण्डे ने इंकार में सिर हिलाया।

“टेम मांगता होयेंगा?”

“हां।”

“बैठ।”

देशपाण्डे वापिस जा कर अपनी कुर्सी पर बैठा।

“तो ये”—नायक आगे बढ़ा—“बीस तारीख के दुबई वाले हीरों की ऐन असली जैसी नकल?”

“मैं अपनी लाइन आफ ड्यूटी में बहुत जैम्स, बहुत प्रैशस स्टोंस हैंडल करता हूं। ऐवरेज में डेली चार-पांच लॉट तो परखता ही हूं। मेरे को याद नहीं बीस तारीख के दुबई वाले हीरे कैसे थे!”

“तू काबिल भीड़ू है, अभी बड़ी काबिलियत से, बड़ी गारन्टी से तूने साबित करके दिखाया कि ये हीरे नकली। मैं तेरी तारीफ करता है पण ये जवाब तो ठीक नहीं तेरा! शरीफ भीड़ू जान पड़ता है। रोकड़ा थाम के काम करना तेरा रोज रोज का शगल तो होगा नहीं! जो काम रोकड़ा थाम के लिया, जिसको किये अभी सिर्फ पांच दिन हुए हैं, वो तो नहीं भूल जाना चाहिये!”

देशपाण्डे ने घबराकर हजारे की तरफ देखा।

“मजबूरी थी।”—हजारे थूक निगलता होंठों में बुदबुदाया—“बोलना पड़ा।”

“ये कबूल कर चुका है”—नायक बोला—“कि हमेरे से जो गुलदस्ता इसने थामा, उसने इसमें तेरे को हिस्सेदार बनाया क्योंकि बोलता है उधर कस्टम का सिस्टम ही ऐसा है कि दूसरे भीड़ू को, जैम एक्सपर्ट को—जो कि तू है—हजारे, क्या करना पड़ता है?”

“क-कन्फीडेंस”—हजारे बोला—“कन्फीडेंस में लेना पड़ता है।”

“जिस में कि लिया इसने तेरे को। फिर तू दुबई वाले माल को कैसे इतनी जल्दी भूल गया?”

देशपाण्डे से जवाब देते न बना।

“कितना सरकाया हजारे तेरे को?”

“द-दो।”

“क्या दो।”

“लाख।”

“मिल चुका?”

उसने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।

नायक ने घूर कर हजारे को देखा।

हजारे बौखला कर निगाहें चुराने लगा।

“अभी बोल”—नायक देशपाण्डे से वापिस मुखातिब हुआ—“हमेरा दुबई वाला माल तेरे को याद कि नहीं याद?”

“अब”—देशपाण्डे दबे स्वर में बोला—“याद आ गया।”

“क्या याद आ गया? तू ने गुरुवार बीस नवम्बर को दुबई के पैसेंजर हुसैन डाकी के आदेश पर पेश किये चार सौ हीरों के लॉट को परखा था बरोबर?”

“हां।”

“मेरा ये डिप्टी सोलंके बोलता था कि न ऐसी कोई परख हुई थी, न उसकी जरूरत थी, हजारे जो गुलदस्ता थामा था वो अक्खा खुद ही हज्म कर गया था, पण अब तू जो बोला, उससे सामने आया कि मेरे डिप्टी का खयाल गलत था, हजारे ने गुलदस्ता शेयर किया था और हीरे बाकायदा परखे गये थे। क्या!”

“ठीक।”—देशपाण्डे बोला।

“और असली पाये गये थे?”

“हां।”

“शक की कोई गुंजायश नहीं?

“नहीं। वो एकदम जेनुइन, हाईप्राइस्ड लॉट था।”

“और वो ही लॉट जब हाथ से निकल जाने के बाद आखिर वापिस हाथ में आया तो नकली पाया गया। ऐसी जादूगरी कैसे हो गयी?”

“मैं...मैं क्या कह सकता हूं?”

“शायद”—नायक हजारे की ओर घूमा—“तू कुछ कह सकता हो!”

हजारे ने कुछ बोलने के लिये मुंह खोला, फिर कुछ सोच कर होंठ भींच लिये और मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।

“इतना तो कह सकता है या वो भी नहीं कह सकता कि जो हीरे कस्टम पर पेश किये गये थे, वो असली थे? यानी पीछे से ही नकली नहीं आये थे?”

“हं..हां। वो तो है!”

“नकली होते तो देशपाण्डे बोलता कि नकली थे। फिर ड्यूटी अदा करने का, तेरे को गुलदस्ता थमाने का कोई मतलब ही न होता?”

“हां।”

“हूं।”—नायक सोलंके की ओर घूमा—“डाकी को बुला।”

हजारे के नेत्र फैले।

“अभी।”

सोलंके बाहर को बढ़ा।

‘वो”—देशपाण्डे बोला—“इधर है?”

नायक ने जवाब न दिया।

हुसैन डाकी के साथ सोलंके वापिस लौटा।

“डाकी”—नायक सहज भाव से बोला—“तेरे को टेम का तोड़ा। तेरे को जाने की जल्दी। इस वास्ते जल्दी जवाब दे ताकि जल्दी जा सके। मेरा माल तेरे पास है या हजारे के पास?”

डाकी के चेहरे का रंग उड़ गया।

मिलता जुलता हाल ही हजारे का हुआ।

“म-माल!”—डाकी बामुश्‍किल बोल पाया।

“हीरे! चार सौ! कीमत बीस करोड़!”

“वो... वो मैंने सावंत को सौंपे न कस्टम से बाहर निकलते ही! सावंत को और फर्नान्डो को! सोलंके बाप के हुक्म के मुताबिक!”

“समझता नहीं है। हड़बड़ी में जवाब देता है। अरे, मैं उन हीरों की बात करता है जो तू दुबई से लाया। जिन की कस्टम पर ड्यूटी भरी। वो तेरे पास हैं या हजारे के पास?

“मेरे पास होने का क्या मतलब?”—आवेश का प्रदर्शन करता हजारे बोला—“मेरा काम तो...”

नायक उछल कर खड़ा हुआ। आंखों में कहर लिये उसने हजारे की तरफ देखा।

हजारे अपने आप में सिकुड़ कर रह गया। उसकी आंखों में भय की छाया तैर गयी।

“मैं बोला तेरे को बोलने के वास्ते?”—नायक खूंखार लहजे में बोला।

हजारे की घिग्घी बन्ध गयी, बड़ी मुश्‍किल से वो इंकार में गर्दन हिला पाया।

“तभी बोलने का जब मैं बोलने को बोले वर्ना हलक से जुबान खींच लेंगा। क्या!

हजारे का सिर फिर सहमति में हिला।

नायक ने मेज पर पड़ी गन उठायी और मेज का घेरा काट कर डाकी के करीब पहुंचा।

डाकी घबराकर एक कदम पीछे हट गया।

“पीछे दीवार है।”—नायक बोला—“उधर तक ही हट सकता है। कर जो करना है।”

डाकी की फिर अपनी जगह से हिलने की हिम्मत न हुई।

नायक ने गन को बायें हाथ में स्थानान्तरित किया और दायें हाथ का एक झांपड़ डाकी के गाल पर रसीद किया।

डाकी का हाथ तत्काल अपने बायें गाल पर पड़ा।

“लाफा दिया मैं तेरे को। बुलेट नहीं दिया। इस से कोई सबक लिया तू?”

डाकी के मुंह से बोल न फूटा।

“उठ के खड़ा हो।”—नायक हजारे से बोला—“अपनी करतूत के जोड़ीदार के बाजू में खड़ा हो। मैं कुछ बोलने का तुम दोनों को। दोनों को सुनने का कान खोलकर, मगज खोल कर।”

बद्हवास हजारे उठा ओर अपने से ज्यादा बद्हवास डाकी के पहलू में जा कर खड़ा हुआ।

“जो स्टोरी बीस तारीख की रात को हीरों की वजह से हुआ”—नायक बोला—“वो अब क्लियर करके मेरे मगज में है। वो मैं रिपीट करता है पण शुरू से आखिर की तरफ नहीं, आखिर से शुरू की तरफ। उस का आखिर उसी रात को हुए जोकम फर्नान्डो के मर्डर में है। कोई मवाली लोग जोकम को खल्लास किया पण तुम्हेरे लिये ये इम्पॉर्टेंट नहीं कि कौन खल्लास किया! तुम्हारे लिये इम्पॉर्टेंट कि जो हीरे सावन्त को सौंपे थे, वो अपनी मौत से पहले जोकम के कब्जे में थे। वो हीरे तब्दील नहीं कर सकता था। उसके पास हीरों को तब्दील करने की कोई वजह ही नहीं थी क्योंकि थामे जाने के वक्त हीरे उसके पास नहीं थे, वो हीरों को पहले ही जीतसिंह करके एक टैक्सी डिरेवर के हवाले कर चुका था। जोकम ने जीतसिंह को एक ब्रीफकेस सौंपा था जिसे जोकम आधी रात तक खुद उस से वापिस लेता या ऐसा न हो पाने की सूरत में जीतसिंह जोगेश्‍वरी में अलीशा वाज़ नाम की एक बाई को सौंप के आता जो कि असल में जोकम की बीवी थी। जीतसिंह अगली सुबह जोगेश्‍वरी गया था तो उसको मालूम पड़ा था कि पिछली रात जोकम का मर्डर हो गया था और उसकी मौत के सदमे में अलीशा वाज़ को जानलेवा धड़का लग गया था और वो भी टपक गयी थी। तब जाकर जीतसिंह ने ब्रीफकेस खोला था और उसे खबर लगी थी कि ब्रीफकेस में हीरे थे लेकिन वो उन की कीमत से, उन की औकात से नहीं वाकिफ था। तब शुक्रवार, इक्कीस तारीख की सुबह को वक्ती तौर पर दादर रेलवे स्टेशन के क्लॉकरूम को महफूज जगह जान कर उसने ब्रीफकेस वहां जमा करा दिया था। इक्कीस तारीख की सुबह से लेकर आज दोपहरबाद तक वो हीरे दादर स्टेशन के क्लॉकरूम में जमा पड़े रहे थे। तुम दोनों के हठेले मगज में ये बात आ सकती है कि मेरे को कैसे मालूम कि वो अक्खा टेम हीरे दादर स्टेशन के क्लॉक रूम में थे; वहां से निकाले नहीं गये थे, निकाल कर वापिस नहीं रखे गये थे। मेरा जवाब है कि खुद जीतसिंह बोला कि ऐसा नहीं हुआ था, हीरे शुरू से आखिर तक उधरीच थे। अब अगला सवाल तुम्हेरे मगज में आता होयेंगा कि जीतसिंह मेरे को ऐसा कब बोला! कब वो मेरे को मिला! कब मेरे को मालूम पड़ा कि जीतसिंह कौन था, किधर पाया जाता था! क्या!”

किसी ने जवाब न दिया।

“वान्दा नहीं। तुम्हेरी बोलती बन्द है तो मैं ही जवाब देता है। वो टैक्सी डिरेवर जीतसिंह इधरीच है, अभी भी इधरीच है। बोले तो बुलाये मैं?”

दोनों के सिर इंकार में हिले।

“जो हीरे मेज पर पड़े सब को दिखाई दे रहे हैं, वो दादर स्टेशन के क्लॉकरूम से निकाल के जीतसिंह इधर लाया। अभी तुम बोलेगा कि उसके पास शुक्रवार से लेकर आज तक का टेम था और वो बड़े इत्मीनान से नकली हीरों का इन्तजाम कर सकता था। उसका जवाब है कि उसको ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं थी। हमें जीतसिंह की कोई खबर नहीं थी—आखिर लग जाती तो लग जाती पण अब तक कोई खबर नहीं थी—हमेरे को कोई खबर नहीं थी कि जान से जाने से पहले जोकम ने हीरों का क्या किया था और न वो खबर हमें लगने का कोई जरिया हमारे पास था। हीरों की खबर के साथ जीतसिंह खुद चलकर हमेरे पास आया क्योंकि आखिर उसे मालूम पड़ गया था कि माल हमेरा था। उसका ये एक्शन अपने आप में उसकी बेगुनाही का सबूत है। हीरे हाथ में लगते ही वो हमेशा के लिये कहीं गायब हो जाता तो हम उसे कभी तलाश न कर पाते। तलाश क्या कर पाते, जानते ही न होते कि जीतसिंह करके किसी भीड़ू का कोई वजूद था जिसके पास हमारा माल हो सकता था। पण वो भीड़ू गायब न हुआ, वो इधर पेश हुआ, खुद चल कर आया और अमर नायक के पास पेश हुआ। ये अपने आप में सबूत है कि उस भीड़ू ने हीरों के साथ कोई गेम नहीं किया था, कोई अदला बदली कोई हेराफेरी—हीरा फेरी—नहीं की थी। बरोबर?”

सिर्फ एक बार दोनों की मूंडी ऊपर से नीचे को हिली।

“अब बात फिर जोकम पर आती है। जोकम के कब्जे में हीरे कैसे आये, ये एक बड़ा सवाल है। उसका जो जवाब मेरे मगज में आता है वो यहीच कि जोकम दगाबाज निकला। उसने शिशिर सावंत को खल्लास करके उसकी लाश गायब कर दी और हीरे अपने कब्जे में कर लिये। वो अलग स्टोरी है कि कोई मवाली लोग जोकम के पास हीरों की मौजूदगी के बारे में जान गये और उससे हीरे छीन लेने के लिये उसके पीछे लग गये। हमेरी स्टोरी में इम्पॉर्टेंट करके जो बात है वो ये है कि वो चाहता भी तो नकली हीरों का इन्तजाम एडवांस में करके नहीं रख सकता था। अभी इधर देशपाण्डे बोला कि वो बड़ी कारीगरी का काम था जिसको तरीके से फिनिश करने का वास्ते बहुत टेम मांगता था। जोकम के पास इतना टेम नहीं था। उसे खड़े पैर उस काम के लिये चुना गया था। सिर्फ एक दिन पहले उसको बोला गया था कि डाकी से बन्दरगाह पर हीरे रिसीव करने के टेम उसने शिशिर सावन्त के साथ होना था। अभी बोले तो नकली हीरों का इन्तजाम करने का न जोकम के पास टेम था और, जब उसका मंसूबा खून खराबे से हीरे झपटने का था तो, न इस बात की जरूरत थी। अभी मेरे को पक्की कि हीरों की अदला बदली न जोकम ने की थी, न करने की उसको जरूरत थी। अभी और बोले तो उसको मालूम होइच नहीं सकता था कि जो हीरे उसके कब्जे में थे, वो नकली थे। कैसे मालूम होता! वो कैसे सोच लेता कि डाकी दुबई से नकली हीरे लेकर आया होता! किसी तरह से बाद में मालूम हो गया होता तो क्या वो हीरों को, नकली हीरों को, अलीशा वाज़ तक पहुंचाये जाने का डील जीतसिंह से करता? नकली हीरों की खातिर पीछे लगे मवालियों के हाथों जान से जाता? नहीं, ये सब होइच नहीं सकता था। वो न हीरे बदल सकता था, न उसे हीरे बदलने की कोई जरूरत थी और न उसे मालूम था कि एक खून करने के बाद जो हीरे उसने काबू में किये थे, वो नकली थे। अब कौन बचा?”

“सावन्त।”—जवाब सोलंके ने दिया।

“शिशिर सावन्त।”—नायक भावपूर्ण स्वर में बोला—“पण तेरे को मालूम वो हमेरा कितना परखा हुआ, कितना वफादार भीड़ू था! सावन्त हमेरे इससे बड़े प्रोजेक्ट अक्खी कामयाबी और अक्खी ईमानदारी से हैंडल कर चुका था और कभी उसने नीयत मैली नहीं की थी। कभी नहीं की थी तो अब काहे वास्ते करता! जब मेरे और सोलंके के बीच इसी दुबई वाले काम के लिये भरोसे के भीड़ू की बात उठी थी तो सावन्त का नाम सुझाने में सोलंके ने एक सैकंड भी नहीं लगाया था जब कि दूसरे भीड़ू को—जोकम को—फाइनल करने में इसको बहुत मगज मारना पड़ा था।”

सोलंके का सिर सहमति में हिला।

“और फिर सौ बातों की एक बात। जो खुद शिकार हो गया हो, वो शिकारी नहीं हो सकता।”

“बोले तो बरोबर।”—सोलंके पूरे विश्‍वास के साथ बोला।

“आखिर से शुरू की तरफ चलती इस स्टोरी में अब बाकी कौन बचा?”

“डाकी।”

“डाकी! दुबई और मुम्बई का परखा और आजमाया हुआ डाकी! दुबई के पारखियों का परखा और हमारा आजमाया हुआ डाकी! जिसको हीरों की, उनकी किस्म की, हर जानकारी थी। जो दुबई बैठा वो जानकारी अपने भरोसे के किसी जोड़ीदार को मुम्बई भेज सकता था जो कि इसके पहुंचने से पहले हीरों की नकली खेप का इन्तजाम करके रख सकता था। यही एक भीड़ू था जिसके पास इस काम के लिये खुल्ला टेम था। इसने हवाई जहाज पर नहीं आना था जो एक घन्टे में मुम्बई में होता, शिप पर आना था जो आते-आते आता। बोले तो जब तक ये पहुंचता, तब तक अदली बदली के लिये नकली हीरे इधर इसका इन्तजार कर रहे होते...”

“मेरे को नहीं मालूम था”—डाकी तब पहली बार हिम्मत करके बोला—“कि हीरे बन्दरगाह से बाहर निकलते ही मेरे से ले लिये जाने थे। हुक्म के मुताबिक मेरे को खुद हीरे तुम्हेरे पास मलाड पहुंचाने का था। बाप, नकली हीरों के साथ मेरी उधर पहुंचने की मजाल होती?”

“इसके दो जवाब हैं। मैं दोनों को एक्सप्लेन करता है। पहला ये है कि नहीं होती। नहीं होती तो ये अपने आप में सबूत कि मुम्बई असली हीरे पहुंचे थे और उनके साथ आगे जो गेम हुआ था, इधर हुआ था। दूसरा जवाब ये हैं कि हां, होती क्यों कि जब तू मलाड में हीरे मेरे को सौंपता तो उन को झांकने से ही मेरे को मालूम नहीं पड़ सकता था कि वो असली थे या नकली थे। जब मालूम पड़ता तो तेरा यही दावा होता कि जो माल तेरे को दुबई में सौंपा गया था, वहीच तू मुम्बई ले कर आया था।”

“पण कस्टम पर इंस्पेक्शन ...”

“नहीं होने वाली थी। हुई तो इत्तफाक से हुई, ऐसे हालात में हुई जिन पर हजारे का कोई जोर न बन सका। पण ये चिल्लाक भीड़ू फिर भी जोर बनाया और हालात को बोले तो ऐन फिट हैंडल किया। उसका हजारे को दो पेटी का नुकसान हुआ जो इसने आगे देशपाण्डे को थमाई और हमें ये फायदा हुआ कि पक्की हो गया कि पीछे से ऐन असली माल इधर पहुंचा था। सब कुछ नार्मल कर के हुआ होता, तू हीरों के साथ कस्टम पर पेश होता, हीरों को परखने के लफड़े में पड़े बिना हमेरा गुलदस्ता थाम के हमेरे लिये काम करता हजारे तेरे को कस्टम क्लियरेंस का सर्टिफिकेट देता, तू आगे हीरों के साथ मलाड मेरे पास पहुंच जाता और आखिर जब पता चलता कि हीरे नकली थे तो तू अपनी बेगुनाही का डिरियामा करता, दुहाई देता, आसमान सिर पर उठा लेता कि तेरे को बिल्कुल नहीं मालूम था कि हीरे नकली थे। तू तो जो तेरे को सौंपा गया, वो तू डिलीवर किया। क्या?”

डाकी खामोश रहा, उसने नर्वस भाव से होंठों पर जुबान फेरी।

“पण साले डेढ़ दीमाक!”—नायक गुर्राता सा बोला—“ये भी तो तू ही प्लान कर के रखा, इन्तजाम करके रखा कि नार्मल कर के साला कुछ होईच नहीं।”

“क-क्या बोला, बाप?”—वो हड़बड़ाता सा बोला।

“साला सुनाई में लोचा!”

“मैं...मैं कैसे कर सकता था कि...”

“साले श्‍याने, जब तू दुबई बैठा इधर नकली हीरों का इन्तजाम कर सकता था तो ये काम बहुत मुश्‍किल तेरे वास्ते?”

“पण मैं...क्या ... क्या किया बोले तो?”

“तू इधर अन्डरवर्ल्ड में टिप सरकाने का इन्तजाम किया कि कौन दिन, कौन टेम, मुम्बई से क्या कीमती माल—बीस करोड़ के हीरे—कौन लेकर इधर आता था। मेरे को साला गिला था कि हीरों की आमद—इतनी टॉप सीक्रेट बात—लीक हो गयी। अब पता लगा कि हो न गयी, की गयी। इत्तफाकन न हुई, इरादतन की गयी। और करने वाला कौन! हरदिलअजीज हुसैन डाकी। दुबई का दुलारा, मुम्बई का प्यारा, हुसैन डाकी। ये इन्तजाम भी तू ही करवाया कि पक्की करके वो टिप किसी ऐसे भीड़ू की पकड़ में आये जिसकी बैकग्राउन्ड ऐसी हो कि वो उसका लालच न छोड़ सके। वो टिप विराट पंड्या करके एक भीड़ू ने पकड़ी जो बन्दरगाह के इलाके में आपरेट करता था और जो पहले बल्लू कनौजिया के गैंग का प्यादा होता था। उसने अपने एक दूसरे अपने जैसे ही बल्लू कनौजिया के गैंग के प्यादे सुहैल पठान करके भीड़ू के साथ उस माल पर घात लगाने का मन बना लिया। वो दोनों एडवांस में अपने कारनामे के लिये तैयार थे, इस वास्ते उन्हें शिशिर सावन्त की और जोकम फर्नान्डो की भी खबर लगी जिन को कि बन्दरगाह पर ही तूने माल सौंप देना था, बोले तो आगे मलाड जाना थाइच नहीं।”

“बाप, मेरे को कैसे मालूम पड़ता कि ऐसा होने वाला था?”

“मालूम तो तेरे को था बरोबर, साला हरामी, वर्ना जो हाल जोकम का हुआ वो तेरा हुआ होता। जो कि तेरे को हरगिज मंजूर न हुआ होता। अब सवाल ये बचा कि कैसे मालूम पड़ता तो इसका एकीच जवाब।”

“क-क्या?”

“ये एकीच जवाब, साले जुगाड़ू, कि तेरा इधर, मेरे गैंग में कोई भेदिया। कोई भेदिया जो तेरे को तेरा काम का खबर सप्लाई किया। इसके अलावा और कोई तरीका होइच नहीं सकता कि तेरे को मालूम पड़ता कि तेरे को बन्दरगाह पर ही फारिग कर दिया जाने वाला था। नाम बोल!”

“न-नाम बोलूं? कि-किस का?”

“भेदिये का। जो साला जिस थाली में खाता है, उसीच में छेद करता है। औकात हमारे से बनाता है, अंडवा तेरा बन के बताता है। नाम बोल!”

“म-मैं कुछ न-नहीं जानता।”

“वान्दा नहीं। अब जब कि मालूम कोई ऐसा भीड़ू है तो तू समझता है कि वो हम से छुपा रहेगा? सोलंके एक दिन में मालूम कर लेगा...”

“मैं अभी मालूम करता है।”—सोलंके शान्ति से बोला।

“कैसे?”

“इस को इधरीच गोटी से लटकाता है न! दो मिनट में बकेगा।”

“हूं।”—फिर नायक वापिस डाकी से मुखातिब हुआ—“क्या!”

डाकी सिर से पांव तक कांप गया।

“गोटी से कैसे लटकाने का! मालूम?”

डाकी का शरीर और जोर से कांपा।

“बोल तो मालूम। पण नक्को! साला इधरीच ऑफ हो जायेगा। फिर सोलंके को इधर से पोटला बनाना मुश्‍किल पड़ेगा। वो गद्दार भीड़ू बाद में ओपन में आ जायेगा। अभी और काम मेरे को तेरे से। अब स्टोरी का जो बाकी बचा, वो सुन। बल्कि जवाब दे। क्या!”

“दे-देता है न!”

“उधर कस्टम पर एक नवां काम हुआ, जो पहले नहीं होता था। तेरे को माल समेत हिफाजत से घर पहुंचाने के वास्ते उधर कस्टम से एक हथियारबन्द सिपाही मिला। बरोबर?”

डाकी ने फांसी लगते हुए सहमति में सिर हिलाया।

“मूंडी मत हिला।”

“ब-बरोबर।“

“वो सिपाही उधर कस्टम के काउन्टर पर ही वेट करता था?”

“न-हीं।”

“तो?”

“बुलाना पड़ा न!”

“उधरीच?”

“हां।”

“कितना टेम लगा?”

“प-पांच मिनट।”

“पांच मिनट। अभी बोले तो हीरों की अदला बदली के लिये तेरे पास खाली पांच मिनट का टेम था। इतने में ये काम तू एकीच तरीके से कर सकता था। पूछ, कौन से तरीके से?”

“क-कौन से तरीके से?”

“हजारे ने हैल्प किया। हजारे ने हैल्प किया तो बोले तो पक्का और पूरा हैल्प किया। अदला-बदली के लिये डुप्लीकेट माल इसके पास था। तेरे लोकल कान्टैक्ट ने डुप्लीकेट माल तेरे को नहीं, तेरे दुबई से इधर पहुंचने से भी पहले इसको पहुंचाया हुआ था। तूने असली हीरे इसको दिये और नकली इससे हासिल किये। और किसी तरीके से बिना किसी की जानकारी में आये ये काम पांच मिनट में नहीं हो सकता था। पांच मिनट बाद सिपाही तेरे साथ था, उसके बाद सावन्त और फर्नान्डो तेरे को मिल गये थे और तूने सावन्त को हीरों वाला ब्रीफकेस सौंप दिया था। अभी बोल, असली माल अभी भी हजारे के ही पास है या तू काबू कर चुका पहली फुरसत में?”

डाकी खामोश रहा।

“मेरी तरफ देख!”

डाकी ने नायक से निगाह न मिलाई। वो बेचैनी से बार बार पहलू बदलने लगा।

“सोलंके!”—नायक असहाय भाव से बोला—“ये तो बहरा हो गया! अभी तक तो सब सुनता था!”

सोलंके ने संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया।

“तेरी क्या पोजीशन है, भई?”—नायक ने हजारे से पूछा।

“बॉस, मैंने कुछ नहीं किया।”—हजारे फरियाद करता बोला—“मैं तो...”

“शुक्र हैं। कम से कम बहरा नहीं हो गया अपना पार्टनर का माफिक।”

“मैं इसका पार्टनर नहीं...”

“तेरे को असली माल की कोई खबर नहीं?”

“नहीं। कैसे मेरे को...”

“ठीक। अभी चुप कर।”

“बॉस, मेरे को तो बस...”

“अरे, बस ही कर भई, चुप नहीं कर सकता तो!”

हजारे ने होंठ भींच लिये।

“तारानाथ को बुला।”—नायक ने आदेश दिया।

“अभी।”—सोलंके बोला?

चुटकियों में तारानाथ हाजिर हुआ।

“बाजू के फ्लैट में कितने प्यादे हैं?”—नायक ने पूछा।

“छ:।”—तारानाथ बोला—“या शायद सात।”

“तीन को इधर बुला।”

तारानाथ लौट गया।

एक मिनट में तीन राक्षस से लगने वाले लम्बे तड़ंगे व्यक्ति वहां पहुंचे।

“तेरा नाम”—नायक एक, जो सब से जबर था, से सम्बोधित हुआ—“बोले तो भाऊ। ठीक? या मेरे ऊपरले माले में लोचा?”

“ठीक।”—भाऊराव बोला—“कोई लोचा नहीं, बाप। ऐन बरोबर।”

“ये हुसैन डाकी है। मेरा खोपड़ी सरकाता है। इस को कोपचे में ले और धो डाल। फिर उठा के इधर ला।

“उठा के बोला, बाप!”

“हां। ये चल के आया तो मैं बोलेगा साला तेरे को कुछ आता हैइच नहीं। धो डालना भी नहीं।”

“मैं समझ गया, बाप। अभी सब सैट करता है।”

“बढ़िया। और बाकी जनों को दूसरे भीड़ू के वास्ते भेज।”

“दूसरा भीड़ू?”

“जो डाकी के बाजू में खड़ेला है। ये हजारे है। बतोलेबाज हजारे। साला करता कुछ है, बोलता कुछ है। गुलदस्ता हमेरे से थामता है, काम दूसरों के आता है। तू जा के दूसरी टीम को इधर भेज, इस को भी वहीच, डाकी वाला, आदर मान देने का। जो पहले ट्यून बदलने को तैयार लगे, उसको पहले इधर ले के आने का।”

बरोबर, बाप।”—फिर भाऊराव ने कुर्सी पर बैठे देशपाण्डे की ओर देखा।

पहले से विचलित देशपाण्डे अपने आप में सिकुड़ कर रह गया।

“इसको नहीं।”—नायक बोला—“ये स्ट्रेट भीड़ू। थोड़ा रोकड़े का लालच किया पण स्ट्रेट भीड़ू। लालच करके जो किया, हमेरे भले का किया इसलिये इसको सब माफ है...”

देशपाण्डे ने चैन की मील लम्बी सांस ली।

दोनों, खास तौर से हजारे, और आतंकित दिखाई देने लगे।

“...इस भीड़ू का लिहाज, इस वास्ते दोनों को दूसरे फ्लैट में ले जाने को बोला वर्ना इधरीच धो डालने को बोलता और फिर देखता कौन पहले मेरे को मेरी पसन्द का गाना गा के सुनाता। क्या?”

“समझ गया, बाप।”

भाऊराव ने अपने दोनों साथियों की ओर इशारा किया। खुद उसने गन निकाल कर हाथ में ले ली।

दोनों साथियों ने यूं डाकी को दबोचा जैसे बाजों ने झपट्टा मारा हो।

डाकी के प्राण कांप गये। उसकी सूरत से यूं लगने लगा जैसे उसको दिल का दौरा पड़ने वाला हो।

“अभी आखिरी चांस है तेरे को।”—नायक की आवाज डाकी को यूं सुनाई दी जैसे फासले से आ रही हो—“वर्ना...”

“वो चांस मेरे को मांगता है, बाप।”—एकाएक हजारे आर्तनाद करता बोला।

नायक ठिठका, हजारे की तरफ घूमा, उसने अपलक उसकी तरफ देखा।

“क्या बोला?”—फिर बोला—“मैं सुना नहीं। मेरा ध्यान डाकी की तरफ था। फिर बोल।”

“अभी कुछ नहीं बोला, बाप।”—हजारे ने फरियाद की—“अभी बोलता है न!”

“क्या?”

“ओजी मेरे पास।”

“मेरा माल! दुबई वाला! जो डाकी लाया!”

“हां।”

“चार सौ हीरे? कीमत बीस खोखा?”

“हां।”

नायक ने गहरी सांस ली, उसने भाऊराव को इशारा किया।

भाऊराव ने आगे अपने साथियों को इशारा किया।

दोनों ने डाकी पर से अपनी पकड़ ढ़ीली कर दी और उससे परे हट गये।

“कहां है मेरा माल?”—नायक ने फिर हजारे से सवाल किया।

“आफिस में।”—हजारे फंसे कण्ठ से बोला।

“आफिस में! कौन से आफिस में! कस्टम के आफिस में? जिधर तू ड्यूटी करता है?”

“हां।”

“उधर कहां?”

“मेरे लॉकर में।”

“क्या बोला?”

“उधर एक लॉकररूम है जिधर आफिसर्ज के लिये लॉकर हैं। कस्टम के सारे आफिसर्ज को उधर एक लॉकर मिलता है अपना निजी सामान रखने के लिये। कस्टम की वर्दी पहनना होता है न! वर्दी लॉकर में...”

“ओह! तो वर्दी घर से पहन कर ड्यूटी पर नहीं जाता, उधर जा के चेंज करता है?”

“हां। सभी आफिसर ऐसीच करते हैं। इस वास्ते उधर सब को लॉकर।”

“तू ये बोलना मांगता है कि हीरे तेरे लॉकर में बन्द हैं?”

“हां।”

“शुरू से ही? गुरुवार बीस तारीख की शाम से ही?”

“हां।”

“क्यों?”

“वो...वो... डाकी बोलता था वो लॉकर में सेफ थे। किसी का लॉकर की ओर ध्यान नहीं जा सकता था। लेकिन कोई उलटी पड़ जाती—वैसे इसे गारन्टी थी कि नहीं पड़ने वाली थी—तो डाकी की ओर जा सकता था। ऐसा होता तो हीरे किसी भी हाल में उसके पास से बरामद नहीं होने चाहियें थे। इस वजह से उन का काफी टेम मेरे लॉकर में ही पड़े रहना बेहतर था।”

“क्या मतलब हुआ इसका?”—नायक के माथे पर बल पड़े—“कहीं ये तो नहीं कि अभी भाऊराव इसे धो के लाता तो ये तब भी नहीं बकता हीरे कहां थे?”

“इसने यही दावा किया था।”

“क्या?”

“ये टार्चर से नहीं टूटने वाला था।”

“कमाल है! सोलंके, ये क्या सुनता है मैं! अपना डाकी इतना मजबूत भीड़ू?

सोलंके ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये।

“इसका काम इस बात ने बिगाड़ा, बॉस”—हजारे पूर्ववत् दयनीय स्वर में आगे बढ़ा—“कि तुम तमाम स्टोरी भांप गया। भांप गया कि हीरों के गायब होने में अकेला डाकी का ही नहीं, मेरा भी रोल था। ये बोलता था मैं ने बड़ा, मनमाफिक गुलदस्ता थाम के बॉस का काम किया था, बॉस का मेरी तरफ ध्यान नहीं जा सकता था। कितना गलत बोला!”

नायक ने डाकी की तरफ देखा।

डाकी उसने निगाह मिलाने की ताब न ला सका।

“साला इतना चिल्लाक भीड़ू!”—नायक मन्त्रमुग्ध भाव से बोला—“सोलंके, अभी तेरे मगज में पड़ा कि ये ये टेम इधर काहे वास्ते आया?”

सोलंके का सिर इंकार में हिला।

“आ के बोला कि पुलिस के फोकस में, इस वास्ते लम्बा टेम कहीं खिसक जाना मांगता था। नेपाल का नाम लिया ये। इस वास्ते इसको रोकड़ा मांगता था। रोकड़ा नहीं मांगता था साला हरामी को, ये बात इधर सरकाना मांगता था कि जिसके पास करोड़ों का माल, वो रोकड़ा काहे वास्ते मांगता होयेंगा! इसी वास्ते ये इतना टेम खिसका नहीं। नार्मल बन के कल्याण में बना रहा। वारदात के फौरन बाद गायब हो जाता तो हमेरा ध्यान जरूर इसकी तरफ जाता। साला डेढ़ दीमाक, डबल चिल्लाकी किया। खिसका भी नहीं, और रोकड़ा का हैल्प मांगने इधर आ गया। क्या!”

कोई कुछ न बोला।

“बॉस साला अक्खा ईडियट!”—नायक के स्वर में वितृष्णा का पुट आया—“येड़ा! ऐसीच बॉस बन गया। श्‍याना तो अपना डाकी, जो बॉस की गोद में बैठ के दाढ़ी मूंड जाता और बॉस को खबरीच न लगता! मैं छोड़ता है साला अपना कुर्सी। और तेरे को बिठाता है अपनी जगह। फिर बोलता है हुक्म बोलो, डाकी बाप, क्या करने का मेरे को! साला करता है न पर्फेक्ट करके अभी का अभी! आ। आ जा इधर।”

डाकी अपने स्थान से न हिला, उस की गर्दन इतनी झुकी कि ठोढ़ी छाती के साथ जा लगी।

कई क्षण खामोशी रही।

“वो लॉकर!”—फिर नायक हजारे से मुखातिब हुआ—“खाली तू ही खोल सकता है?”

हजारे ने व्यग्र भाव से इंकार में सिर हिलाया।

“मुंडी मत हिला। जवाब दे।”

“नहीं।”—हजारे बोला।

“और कौन खोल सकता है?”

“कस्टम का कोई भी दूसरा आफिसर जिसका कि लॉकररूम में लॉकर हो?”

“देशपाण्डे अफसर? इसका भी उधर लॉकर?”

“हां।”

“ये खोल सकता है तेरा लॉकर?”

“हां।”

“चाबी किधर है?”

“मेरे पास है।”

“हीरे तेरे लॉकर में किस हालत में है? बोले तो कैसी पैकिंग में हैं?”

हजारे ने डाकी की तरफ देखा।

“इसकी तरफ मत देख।”—नायक ने डपटा—“ये गूंगा है। ये नहीं बोल सकता।”

डाकी के गले की घन्टी जोर से उछली।

“तूहीच बोल।”

“वैसी में ही हैं जैसी में दुबई से इधर पहुंचे थे। शनील की काली थैली में।”

“ओह! तो डाकी बॉस ने असली जैसे हीरे ही आर्डर न किये, असली जैसी थैली भी आर्डर की! बढ़िया!”

कोई कुछ न बोला।

“चाबी देशपाण्डे को दे।”—नायक ने आदेश दिया।

हजारे ने चुपचाप जेब से एक चाबी निकाल कर देशपाण्डे को सौंपी।

“इधर कैसे पहुंचे थे?

“टैक्सी पर।”—हजारे बोला।

“अभी तेरे को कार पर वापिस जाने का।”—नायक देशपाण्डे से सम्बोधित हुआ—“भाऊराव ले के जायेगा। तेरे मगज में पड़ गया तेरे को क्या उधर करने का, क्या ले के इधर आने का?”

वो सहमति में सिर हिलाने ही लगा था कि ठिठक गया।

“यस बॉस।”—वो बोला।

“कर लेगा?”

“यस, बॉस।”

“जा। कर।”

देशपाण्डे उठा और भाऊराव के साथ हो लिया।

“इन दोनों को बाहर ले के जाओ”—नायक प्यादों से बोला—“और इज्जत से बिठाओ।”

हजारे और डाकी दोनों की आंखें उम्मीद से चमकीं।

“इन्हें कोई ठण्डा गर्म मांगता होये तो तारानाथ को बोलना।”

दोनों प्यादे उन दोनों के साथ वहां से निकल गये।

“जरनैल और उसके फौजी को बुला।”—पीछे नायक सोलंके से बोला।

सोलंके ने तत्परता से आदेश का पालन किया।

कीरत मेधवाल और सुहैल पठान नायक के सामने हाजिर हुए।

“तुम भीड़ू लोग”—नायक सख्ती से बोला—“जाने अनजाने मेरे को बहुत िगराब्लम किया। तेरा खास जोड़ीदार”—वो पठान से बोला—“अभी भी पिराब्लम करता है। साला थाम लिया गया पण चिल्लाकी किया, भाग गया, फरार हो गया। मैं आर्डर करे तो पुलिस से पहले मेरे ही भीड़ू उसको ढ़ूंढ़ के टपका सकते हैं। तुम दोनों का भी पोटला बनाना इधर कोई प्राब्लम नहीं। पोटला बनाना समझता है न!”

“हां।”—पठान दबे स्वर में बोला।

“मैं बोले सोलंके को?”

“नहीं, बाप।”—जरनैल हड़बड़ी में बोला।

“फिरयाद करता है, बाप।”—पठान बोला।

“एक शर्त पर तुम्हारी सब खतायें माफ हो सकती हैं।”

“हम हर शर्त मानने को तैयार हैं।”

नायक ने घूर कर जरनैल को देखा।

“हर शर्त मंजूर मेरे को।”—जरनैल पूर्ववत् हड़बड़ी में बोला।

“तो सुनने का कान खोल के। खास तौर से, जरनैल, तेरे को। बल्लू कनौजिया के बिखर चुके गैंग जैसा कोई गैंग खड़ा करने का मंसूबा जो तुम भीड़ू लोग पाले हो, उससे अभी किनारा करने का। कोई औना पौना, कच्चा पक्का, छोटा मोटा गैंग खड़ा कर चुके हो तो उस को फौरन तोड़ देने का और सबको अक्कल देने का कि कोई और धन्धा देखें। भाईगिरी के धन्धे में पिटे हुए मोहरे अपनी बिसात पर कोई नहीं बिछाता। प्यादा वजीर से नहीं लड़ सकता, बादशाह की बराबरी नहीं कर सकता। मेंढ़क छाती फुला कर बैल नहीं बन सकता। आई बात समझ में?”

दोनों ने व्यग्रता से सहमति में सिर हिलाया।

“कोई अक्कल बाकी हो तो सोचने का कि कितने थोड़े टेम में तुम्हेरे कितने भीड़ू लोगों पर फोकस बना लिया गया! मगन कुमरा, विराट पंड्या, सुहैल पठान, श्रीनन्द कन्धारी, सब का एक्सपर्ट सलाहकार जरनैल! ज्यास्ती टेम लगाने पर कोई बचेगा हमेरी निगाह से? नहीं बचेगा। साला श्यानपन्ती नहीं छोड़ेगा तो एक एक को चुन चुन कर कमती करेगा। मांगता है?”

दोनों के सिर पहले से ज्यादा व्यग्रता से इंकार में हिले।

“अभी मेरा माल मेरे पास वापिस पहुंचा नहीं है पण मेरे को पक्की कि पहुंचेगा। ये टेम कोई झोल नहीं आयेगा, कोई पंगा नहीं पड़ेगा उसके इधर पहुंचने में। इस वास्ते मैं खुश। इस वास्ते माफ किया, बकश दिया मैं तुम्हेरे को। पण शर्त याद रखने का। गलती से भी भूल नहीं जाने का। कोई गैंग नहीं। कोई कोशिश भी नहीं करने का इस लाइन पर। अभी थैंक्यू बोलने का और निकल लेने का।”

दोनों ने सम्वेत स्वर में थैंक्यू बोला और यूं वहां से हवा हुए जैसे अन्देशा हो कि वापिस घसीट लिये जायेंगे।

“क्या!”—पीछे नायक अपने डिप्टी से बोला।

“बोले तो”—सोलंके हिचकिचाता सा बोला—“ठीक किया।”

“तेरे को मेरे फैसले पर मन में लोचा तो मेरे को मालूम तू उसे जुबान पर नहीं लायेगा। पण मैं बोलता है न, ठीक किया बरोबर। मेरे को खामखाह का खून खराबा पसन्द नहीं।”

“वो न बाज आये तो? सोच बैठे सस्ते में छूटे तो?”

“तो मेरे को भूल जाने का कि क्या मेरे को पसन्द नहीं। तो ये शहर ऐसा मौत का नंगा नाच देखेगा जो पहले बखिया के टेम पर ही कभी हुआ होयेंगा। क्या!”

“बोले तो”—सोलंके के चेहरे पर संतोष के स्पष्ट भाव आये—“अब ठीक है।... बॉस, अभी एक भीड़ू और है इधर।”

“और है। कौन?”

“वो टैक्सी डिरेवर। जो रेलवे के लॉकर से नकली हीरे लाया।”

“जीतसिंह! उसे तो मैं सच में भूल गया था। किसी वजह से उसे रोका था, सोचा था शायद डाकी से आमना सामना कराना पड़े पण जरूरत ही न पड़ी। बुला उसे।”

जीतसिंह वापिस नायक के सामने पेश हुआ।

“भीड़ू”—नायक बोला—“तेरे इधर होते बहुत थोड़े टेम में बहुत कुछ हो गया इधर। पण तेरा उससे कोई मतलब नहीं। तेरा मतलब उस ईनाम से था जो हमेरा खोया माल हमें वापिस दिला पाने का तेरे को मिल सकता था। बोले तो पचास पेटी। जब तू स्टेशन गया तो तेरे पीछू इन्तजाम करके रखा इधर। पण तेरा लाया माल नकली निकला। इस वास्ते शाबाशी पर, ईनाम पर तो तेरा कोई हक बाकी न बचा! या बचा?”

“नहीं।”—जीतसिंह कठिन भाव से बोला।

“पण कोई एक्सपर्ट कर के भीड़ू बोला कि तेरा लाया नकली माल भी साला फोकट का नहीं था। बोला हर नकली हीरा नकली होते हुए भी बढ़िया कारीगरी की वजह से दो-ढ़ाई हजार से कम का नहीं था। वो नकली हीरे तेरे को वापिस मिल सकते हैं। मांगता है?”

“नहीं।”

“अरे, कुछ तो रोकड़ा खड़ा कर सकेगा?”

“मैं नहीं कर सकूंगा। नहीं मांगता।”

“हूं। तू मेरे द्वारे आया, अपनी खुदगर्जी के हवाले भी तू बरोबर था कि ईनाम मिलेगा पण ईमानदारी से आया, बोले तो हीरा फेरी से परहेज किया, इस वास्ते मेरे को नहीं मांगता तू बिल्कुल ही खाली हाथ वापिस जाये। क्या?”

“बाप, मैं समझा नहीं।”

“अभी मैं समझाया किधर है? बोले तो एक्सपर्ट बोला न, एक नकली हीरा दो-ढ़ाई हजार का! मेरे को ढ़ाई हजार कीमत मंजूर। तो चार सौ नग कितने का, सोलंके?”

“दस लाख का।”—सोलंके बोला।

“दस पेटी। तू बोला, सरकार पकड़वाये गये, या बरामदी के लिये अता पता बताये गये माल पर दस फीसदी ईनाम देती है। मेरे को तेरा बोला कुबूल। दस पेटी का दस फीसदी एक पेटी। ले के जा।”

जीतसिंह सकपकाया।

“अभी खाली हाथ नहीं जायेगा न इधर से! क्या!”

“मैं... थैंक्यू बोलता है, बाप।”

“सोलंके!”

अभी, बॉस।”—सोलंके बोला—“चल भीड़ू।”

पराजित भाव से जीतसिंह ने नायक का अभिवादन किया और सोलंके के साथ हो लिया।