शनिका ने कॉफ़ी का घूँट भरा और कुर्सी की पुश्त से सिर टिका लिया। बीते दिनों की भाग-दौड़ से वह थक गई थी। परन्तु अभी कुछ देर की भाग-दौड़ और करनी थी। चेहरे पर थकान के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे। इस वक़्त दिन का एक बज रहा था। कुछ देर पहले ही वह बंगले पर पहुँची थी। बाहर मौजूद लोगों का खाना शुरू होने जा रहा था। शनिका को उन लोगों के बीच जाकर दिखावे के तौर पर खाना उनके बर्तनों में डालना था, ताकि वोट मिल सके। खाना बनाने वाले चालीस लोग दिन रात वहीं बैठे खाना बनाने में लगे रहते थे। हर समय उत्सव जैसा मौहाल रहता था। आज सप्ताह में तीसरी बार इस तरह वह लोगों के बीच जाकर खाना सर्व करने जा रही थी। मात्र दिखावा ही तो करना होता था आधे घण्टे के लिए। उसके बाद वह पुनः काफिले के साथ चुनाव प्रचार पर निकल जाती थी।
उसे कहाँ-कहाँ जाना है, कहाँ उसके स्वागत की तैयारियाँ हैं और अन्य सभी बातों का ध्यान भँवरा और रामसिंह रखते थे। उसे तो बस उनके साथ रहना होता था।
शनिका ने आँखें खोली और पुनः कॉफ़ी का घूँट भरा। तभी कदमों की आहट कानों में पड़ी और वासु ने भीतर प्रवेश किया।
"आप तो थकी-थकी नजर आ रही हैं रानी साहिबा!" वासु मुस्कुरा कर कह उठा।
"कोई नई खबर?"
"जी। मैंने सूरज पाल के पास दो बार अपना आदमी भेजा था कि वह चुनाव न लड़े। पीछे हट जाए।"
शनिका की नजरें वासु पर जा टिकी।
"पहले तो वह माना नहीं। बहुत नखरे दिखाए। उसके बाद उसने दो करोड़ की माँग रखी।"
"चुनाव से हटने के लिए?"
"जी रानी साहिबा।"
"यह तो ज्यादा है। तुम्हारा क्या ख्याल है?"
"मेरा भी यही ख्याल है। मैं अब रकम कम करने की कोशिश कर रहा हूँ। एक कहा है। आपका क्या ख्याल है कितने तक सौदा हो जाना ठीक रहेगा?" वासु ने पूछा।
"एक ही ठीक रहेगा। ज्यादा नहीं।"
"यहीं कोशिश करता हूँ।" वासु बोला, "बाहर खाने पर आपका इंतजार हो रहा है।"
"आती हूँ।"
वासु बाहर निकल गया। शनिका ने कॉफ़ी समाप्त की और उठ खड़ी हुई। वह कमरे से निकली और आगे बढ़ गयी। इस वक़्त उसने सिल्क की चौड़े पल्ले वाली हरे रंग की साड़ी पहन रखी थी। लो कट ब्लाउज था। वह जरूरत से ज्यादा खूबसूरत लग रही थी।
शनिका रास्ते में पड़ने वाले प्रेम के कमरे में प्रवेश कर गयी। प्रेम बेड पर लेटा था। उसकी आँखें खुली हुई थीं। वह छत को देख रहा था। आहत पाकर उसने नजरें घुमाईं और शनिका को देखने लगा। वह पास आकर ठिठक गयी।
"कैसे हो पतिदेव?" शनिका मुस्कुरायी।
"तुम छः दिन बाद मेरे पास आई हो।"
"मैंने पहले ही कहा था कि महीना भर मैं व्यस्त हूँ।"
"इतनी व्यस्त कि तुम पाँच मिनट के लिए मेरे पास नहीं आ सकती।"
"शायद इतनी ही व्यस्त हूँ मैं।" शनिका ने लापरवाही से कहा, "मैं आऊँ तो तुम्हारा काम पाँच मिनट की बातों से नहीं चलता। तुम कुछ और करने को कहने लगते हो। जिसका कि मन नहीं होता।"
"कुछ वह कुछ और कौन करेगा?" प्रेम ने जले-भुने स्वर में कहा।
"मैं व्यस्त हूँ।"
"तुम मेरी पत्नी हो और मुझे तरसाती हो, जबकि तुम्हारी सारी ऐश मेरे पैसे पर है।" प्रेम गुस्से में बोला।
शनिका मुस्कुरायी।
"मैं एक ही झटके में सारी ऐश खत्म कर सकता हूँ। मत भूलो कि मैंने पॉवर ऑफ अटॉर्नी तुम्हारे नाम की है कि तुम मेरे सारे बिज़नेस को देख सकती हो। मेरे बैंक एकाउंट सम्भाल सकती हो। वह पॉवर ऑफ अटॉर्नी मैं कभी भी कैंसिल कर सकता हूँ। तब तुम कहीं की भी नहीं रहोगी। अगर तुम सब कुछ ठीक चाहती हो तो तुम्हें मेरे साथ ठीक से पेश आना होगा।"
शनिका जहरीले अंदाज में मुस्कुरा पड़ी।
"तुम कुछ नहीं कर सकते।"
"चुनौती देती हो मुझे।" प्रेम के दाँत भिंच गए।
"तुम इस काबिल हो ही नहीं कि मुझे चुनौती दे सको।" शनिका ने मुस्कुरा कर कहा, "तुम मरना तो नहीं चाहते प्रेम?"
"क्या?" प्रेम दो पल के लिए हक्का-बक्का रह गया, "क्या कहा तुमने?"
"अगर तुम मरना चाहते हो तो मेरे खिलाफ कुछ करने की सोचना।"
"तुम... तुम मुझे मारोगी। तुम?"
"प्रेम!" शनिका व्यंग्य भरे स्वर में कह उठी, "तुम्हें याद होगा कि मैं तुम्हें समझाया करती थी कि बाहर की औरतों के चक्कर में मत रहो, वरना बहुत पछताओगे। लेकिन तुम माने नहीं।"
"तो?" प्रेम के माथे पर बल नजर आने लगे।
"मैंने तुम्हारी टाँगें कटवा दीं।"
प्रेम हक्का-बक्का शनिका को देखता रह गया। शनिका के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान तैर रही थी।
"तुम!" प्रेम की रुकी साँसें चलीं, "तुम... तुमने यह सब किया?"
"हाँ! मेरे इशारे पर ही तुम्हें अपाहिज बनाया गया था। और अब लगता है कि तुम अपना गला कटवाना चाहते हो।" शनिका ने कड़वे स्वर में कहा, "तुम मर भी गए तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तुम्हारा सब कुछ मेरा ही तो है।"
प्रेम को काटो तो खून नहीं। यह हाल था उसका। एकाएक उसने गहरी साँस ली।
"अब फैसला तुम्हारे हाथ में है कि क्या तुम अपना गला कटवाना चाहते हो? मैंने तुम्हारी दौलत पाने के लिए तुमसे शादी की थी। वरना तुम में ऐसा कुछ नहीं है कि तुम्हारे खूंटे से बंधती। पॉवर ऑफ अटॉर्नी लेने की बात तो छोड़ो, चुनाव के बाद तुम अपना सब कुछ मेरे नाम करोगे। समझ गए?"
"तुम कमीनी औरत...।" प्रेम चीखा, "मैं...।"
शनिका ने उसी पल अपने हाथ से उसका गला जकड़ लिया। प्रेम ने अपने हाथों से गला आजाद करवाना चाहा।
शनिका ने सामने नजर आ रही खिड़की से बाहर देखा, जहाँ हजारों लोग कतार में बैठे थे और खाने का इंतजार कर रहे थे। उसके चेहरे पर दरिंदगी नाच रही थी।
"क्यों वक़्त से पहले मरना चाहते हो?" शनिका गुर्रायी।
प्रेम की आँखों में बेबसी के भाव दिखे। शनिका ने उसके गले से अपने हाथ हटा लिए।
"तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हें इतने गुणों वाली पत्नी मिली है।"
"तुम बहुत गिरी हुई औरत हो। तुमने मुझे बर्बाद कर दिया।" प्रेम का चेहरा धधक रहा था।
"मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ प्रेम।" कह कर शनिका हँस पड़ी।
"मुझे विश्वास नहीं आ रहा है कि तुमने... तुमने मुझे अपाहिज किया है।" प्रेम गुस्से और परेशानी में दिखा।
"अब अपना गला बचा कर रखना, नहीं तो वह भी कट जाएगा।" शनिका ने कठोर स्वर में कहा, "एक बात कान खोलकर सुन लो कि यहाँ वही होगा जो मैं चाहूँगी। तुम्हारी मर्जी चलना खत्म हो चुकी है।"
"मुझे हमेशा लगता था कि वामा के साथ मैंने नाइंसाफी की, गलत किया। वह अच्छी थी। आज साबित हो गया कि मैं ठीक ही सोचता था। वामा एक अच्छी पत्नी थी। परन्तु तुमने मुझे अपने जाल में फँसा कर अंधा कर दिया। मैंने तुम्हारे साथ मिल कर वामा को मार दिया और तुमसे शादी कर ली। यह कितनी बड़ी भूल थी मेरी।"
"वह वक़्त निकल चुका। आगे के बारे में सोचो प्रेम। यह याद रखो कि तुम एक ऐसे लाचार इंसान हो, जो कुछ नहीं कर सकता। मेरे से टक्कर ली तो कल के मरते आज मरोगे।" कहने के साथ ही शनिका बाहर निकलती चली गयी।
प्रेम बूत की तरह लेता रहा। फ़टी आँखों से उस दरवाजे को देखता रहा जहाँ से शनिका गयी थी। फिर तकिये को पीछे लगाकर हाथों के सहारे घिसटकर बेड से टेक लगाकर बैठ गया।
"वामा की जान लेने का जो पाप किया, वह शनिका के रूप में मेरे सामने आया है। मैंने दूसरों के साथ बुरा किया तो आज मेरे साथ बुरा हो रहा है।" प्रेम बड़बड़ा उठा, "लेकिन अब शनिका से कैसे बचूँ?"
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शनिका के चेहरे पर मीठी-मीठी मुस्कान थी। हाथ में स्टील की बाल्टी लिए कतार में बैठे लोगों के बर्तन में, कड़छी से सब्जी डालती धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। इस दौरान लोगों से बातें भी करती जा रही थी। साथ में वासु और रामसिंह भी थे। लोग नारे लगा रहे थे कि रानी साहिबा ही जीतेगी।
शनिका कतार में बैठे एक व्यक्ति की कटोरी में सब्जी डालने लगी। उसने चादर ओढ़ रखी थी सिर पर कि उसी पल उसने चादर सिर से हटा ली और शनिका को देखा।
वह अजय वालिया था।
शनिका ने सरसरी तौर पर मुस्कुराते हुए उसे देखा। अगले ही पल शनिका की आँखें हैरानी से फैलती चली गईं। वालिया के चेहरे पर कड़वी मुस्कान नाच उठी।
"तुम?" शनिका के होंठों से निकला। फिर फौरन ही खुद को संभाला, "जैसलमेर में तुम्हारा स्वागत है वालिया। मैं जानती थी कि तुम मुझे ढूँढते हुए, यहाँ तक अवश्य पहुँचोगे, परन्तु यह इतनी जल्दी होगा यह नहीं सोचा था।"
"तुमने अपने खेल दिखा दिया।" वालिया के दाँत भिंच गए, "अब मेरा खेल भी देख लेना।"
"तुम कुछ नहीं कर सकते।" शनिका कि चेहरे पर मुस्कान थी।
"आगे बढ़िए रानी साहिबा!" पीछे से रामसिंह ने कहा।
"जिस तरह तुमने मुझे बर्बाद किया है, उसी तरह मैं तुम्हें...।"
"बकवास!" शनिका मुस्कुरा कर बोली, "यहाँ तक पहुँचे हो तो मेरी हैसियत भी जान ले होगी और उन नेगेटिव को भी मत भूलना जो तुम्हें फाँसी के फंदे पर या जेल की शिकंजों के पीछे पहुँचा सकती है। बेहतर होगा कि यहाँ से चले जाओ।"
"तुमने मुझे क्यों बर्बाद किया? मेरा कसूर क्या था?" वालिया के दाँत भिंचे हुए थे।
"दीपचंद ने तुम्हें बताया नहीं?"
अजय वालिया बुरी तरह चौंका।
"तुम दीपचंद को कैसे जानती हो?"
"मेरे सामने तू बच्चा है वालिया। छोटा सा बच्चा।" कहने के साथ ही शनिका आगे बढ़ गयी।
वालिया आँखें सिकोड़े, माथे पर बल डाले व्यस्त शनिका को देखता रहा। शनिका ने एक बार भी पलट कर उसे न देखा।
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इस काम से फारिग होकर शनिका वापस बंगले में, अपने बेडरूम में पहुँची और चहलकदमी करने लगी। चेहरे पर गंभीरता नजर आ रही थी। अजय वालिया का इतनी जल्दी उस तक पहुँच जाने का मतलब था कि उस पर नजर रखी गयी थी, जब वह मुम्बई से जैसलमेर के लिए रवाना हुई।
इतनी जल्दी वालिया का उस तक पहुँच जाना ठीक नहीं हुआ। वह अभी चुनाव में व्यस्त थी। परन्तु इस बात की तसल्ली थी कि उसके पास नेगेटिव हैं, जो वालिया को चुपचाप बैठने पर मजबूर कर सकते हैं।
तभी कदमों की आहट गूँजी। शनिका ठिठककर दरवाजे की तरफ पलटी। रेखा ने देवली के साथ भीतर प्रवेश किया।
देवली ने साधारण सा कमीज-सलवार पहन रखा था। बाल पीछे करके बाँध रखे थे। कलाइयों में मामूली सी काँच की चूड़ियाँ थीं। वह गरीब घर की साधारण सी युवती लग रही थी। परन्तु खूबसूरती छिपाए न छिप रही थी।
शनिका की निगाह एकाएक देवली पर जा टिकीं।
"रानी साहिबा को सलाम करो मुन्नी!"
देवली ने फौरन हाथ जोड़कर रानी साहिबा के सामने सिर झुकाया।
"यह कौन है रेखा?"
"रानी साहिबा! गाँव से खबर आई है कि माँ की तबीयत बहुत खराब है। मुझे छुट्टी चाहिए कुछ दिनों की। यह मुन्नी है, आपकी सेवा में रहेगी। मैंने सब समझा दिया है इसे। कुछ दिन की तो बात है। मैं लौटकर काम सम्भाल लूँगी।"
शनिका की निगाह देवली पर ही टिकीं थी।
"मुझे लगता है कि मैंने तुम्हें कहीं देखा है।"
"मैं तो पहली बार जैसलमेर आयी हूँ रानी साहिबा। इससे पहले मैं जोधपुर में रहती थी। वहीं काम करती थी। दसवीं तक पढ़ी हूँ।" देवली ने भोले स्वर में कहा, "आपको कोई शिकायत का मौका नहीं दूँगी।"
"तुम खूबसूरत बहुत हो।" शनिका ने होंठ सिकोड़े।
"जी!" देवली शरमा उठी, "मेरी माँ बताती हैं कि मेरा बाप बहुत खूबसूरत था। वह दिल्ली का कोई सेठ था। मैं उस पर ही गयी हूँ। मुझे नहीं पता, मेरी माँ बताती थी।"
"रेखा!" शनिका बोली, "इसे सारा काम अच्छी तरह समझा से।"
"जी रानी साहिबा!" रेखा ने कहा और देवली का हाथ पकड़कर बाहर निकल गयी।
शनिका कुर्सी पर जा बैठी। वह वालिया के बारे में सोच रही थी। कुछ देर बाद रामसिंह ने भीतर आकर कहा -
"चलिए रानी साहिबा! काफिला चलने को तैयार है।"
"मैं आती हूँ। तुम वासु को मेरे पास भेजो।"
रामसिंह चला गया। शनिका ने अपना मोबाइल फोन निकाला और नम्बर मिलाने लगी। बात हो गई।
"कैसी हो शनिका?" उसके कानों में दीपचंद की आवाज पड़ी, "चुनाव में मेरी जरूरत हो तो मैं आ जाता हूँ।"
"अजय वालिया जैसलमेर पहुँच गया है।" शनिका इस शांत स्वर में कहा।
"क्या?" दीपचंद का हैरानी से भरा स्वर कानों में पड़ा, "इतनी जल्दी वह...।"
"मैंने सोचा तुमने बताया होगा।"
"मैं क्यों बताऊँगा।"
"खैर कोई बात नहीं। वह कोई परेशानी खड़ी करेगा तो मैं सम्भाल लूँगी।"
"लेकिन वह इतनी जल्दी तुम तक कैसे पहुँच सकता है।"
"वह पहुँच गया, बात खत्म। राजन ने काम शुरू कर दिया?"
"शानदार ढंग से। तुमने तो कमाल कर दिया शनिका।"
"मैं जीत गयी दीपचंद।" शनिका एकाएक हँसी, "अब तुमने मुझे शानदार जगह डिनर कराना है।"
उधर से दीपचंद की हँसने की आवाज आई।
"मैं अपनी हार स्वीकार करता हूँ। तुम जब कहोगी डिनर पर ले जाने के लिए मैं हाजिर हो जाऊँगा। चुनाव में मेरी जरूरत हो तो मैं आ जाता हूँ।" उधर से दीपचंद ने पूछा।
"नहीं! यहाँ सब ठीक है। फिर बात करूँगी।" कहकर शनिका ने फोन बंद कर किया।
दस मिनट बाद वासु पहुँचा।
"हुक्म रानी साहिबा।"
"मुम्बई से चलते वक़्त मैंने तुम्हें नेगेटिव्स और तस्वीरों का लिफाफा दिया था।"
"जी! वह मेरे बैग में ही पड़ा होगा। यहाँ आते ही मैं व्यस्त हो गया कि उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया।"
"रात को जब मैं वापस आऊँ तो वह मेरे हवाले कर देना।"
"जी!"
शनिका बाहर निकलकर आगे बढ़ी कि सामने से रेखा आती दिखी। उनके पास आने पे शनिका ठिठकी और देवली को देखती रेखा से बोली -
"इसे अपने मालिक के बारे में समझा देना कि उसकी हर खबर, हर बात मुझ तक पहुँचाती रहे। मेरी कोई बात बाहर न जाये और सब की बातें मुझ तक पहुँचनी।"
"जी रानी साहिबा!"
शनिका आगे बढ़ गयी। पीछे से आता वासु, शनिका के पीछे-पीछे जा रहा था। देवली ने रेखा से धीमे स्वर में पूछा -
"क्या कहा इसने?"
"तुमने सुना?"
"हाँ! परन्तु ठीक से समझी नहीं।"
"मैं तुम्हें मालिक के पास ले चलती हूँ। मिला देती हूँ। वह रानी साहिबा के पति हैं, परन्तु तीन साल पहले अपाहिज हो गये थे। किसी ने उनकी दोनों टाँगे काट दीं। दोनों में नहीं बनती, यह तुम तक ही रहे। तुमने मालिक की जासूसी करनी है कि वह जो बातें करें, वह टीमने रानी साहिबा को बतानी है।"
"समझ गयी।"
"चलो, मैं तुम्हें मालिक से मिलवा दूँ।"
■■■
प्रेम ने देवली को देखा तो चंद पल अपलक उसे देखते ही रहा।
वह अभी तक तकिये से टेक लगाए बैठा था। कटी टाँगों पर लिहाफ डाल रखा था।
"मालिक, मैं छुट्टी पर जा रही हूँ। यह मेरी जगह काम करेगी। मुन्नी नाम है इसका।" रेखा कह उठी।
"तुम्हें!" प्रेम के होंठों से निकला, "तुम्हें कहीं देखा है।"
रेखा मुस्कुरा कर कह उठी -
"मालिक, रानी साहिबा ने भी इन्हें देखते ही यही कहा था।"
देवली जानती थी कि इन्हें ऐसा क्यों लग रहा है। वामा उसकी बहन थी और दोनों के चेहरे में कहीं-कहीं समानता थी। इस बारे में उसे अभी सतर्क रहना होगा।
"तुम कहाँ जा रही हो रेखा?" पूछते हुए प्रेम की निगाह देवली पर ही थी।
"माँ की तबीयत खराब है मालिक, जल्दी आ जाऊँगी।"
तभी देवली ने रेखा से कहा -
"मुझे कुछ देर यहीं पर रहने दें, मालिक के पास। मैं अभी आती हूँ।"
"ठीक है! जल्दी आना।" कहकर रेखा वहाँ से चली गयी।
देवली आगे बढ़ी और बेड के समीप जा पहुँची।
"अब से मैं आपकी सेवा करूँगी।" देवली ने प्यार से कहा।
प्रेम जरा सा मुस्कुराया।
"इस छोटी उम्र में आपकी टाँगों को क्या हो गया?" देवली ने सहानुभूति जताई।
प्रेम ने होंठ भींच लिए। आँखों में आँसू चमक उठे।
"बताइए न मालिक, यह सब कैसे हुआ?"
"यह मेरे पापों का फल है जो मुझे मिल रहा है।"
"कैसा पाप?" कहने के साथ ही देवली ने अपना हाथ प्रेम के कंधे पर रख दिया।
प्रेम ने देवली को देखा। आँखों से आँसू निकलकर गालों पर आ गए। देवली ने प्रेम के गालों से आँसुओं को साफ किया।
"आप बहुत दुखी लगते हैं मालिक।"
प्रेम ने अपने पर काबू पाया।
"मैं समझ सकती हूँ आपकी हालत। अपाहिज इंसान की जिंदगी में रह ही क्या जाता है। परन्तु अभी आपकी उम्र ही क्या है। मैं आपका ध्यान रखा करूँगी। पूरा ध्यान रखूँगी आपका।"
प्रेम ने देवली को देखा। देवली मुस्कुरा पड़ी।
"मुझ पर आप पूरा भरोसा रखिये मालिक। मैं आपका पूरा ध्यान रखूँगी।" देवली ने उसका कंधा दबा दिया।
"तुम अच्छी लगी मुझे।"
"आगे मैं आपको और भी बहुत अच्छी लगूँगी।" देवली ने मुस्कुराकर कहा और कंधे से हाथ हटाकर उसके गालों पर उंगलियाँ फेरी।
प्रेम के शरीर में जैसे झनझनाहट दौड़ती चली गयी।
"मुन्नी!" तभी रेखा की आवाज आई और वह भीतर आ गयी, "चल, तेरे को अभी बहुत काम सम्भालना है।"
रेखा के भीतर आने तक देवली ने अपना हाथ, प्रेम के गाल से हटा लिया था।
"चलती हूँ मालिक। अभी काम समझना है मुझे।"
प्रेम ने उसे ऐसी निगाहों से देखा, जैसे कह रहा हो जल्दी आना।
देवली रेखा के साथ, कमरे से बाहर निकल गयी।
"क्या बात हो रही थी?" रेखा ने पूछा।
"हाल-चाल पूछ रही थी।" देवली ने मुस्कुराकर कहा।
चलते हुए रेखा नव गर्दन घुमाकर देवली को देखा फिर कहा -
"तू कोई गड़बड़ करने की तो नहीं सोच रही?"
"कैसी गड़बड़?"
"यही कि तू मालिक के साथ कुछ करे और मालिक तेरे को पैसा दे दे।"
"नहीं। मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं।"
"फिर भी तेरे को बता देती हूँ कि ऐसा कुछ किया और रानी साहिबा को पता चल गया तो वह तेरे टुकड़े करवा देंगी। मेरे भरोसे ही उन्होंने तेरे को रख लिया है। वैसे भी मालिक के पास पैसे के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं होती। सारा हिसाब-किताब रानी साहिबा ही देखती हैं। उनकी ही चलती है।"
"यह तो अच्छा हुआ कि तूने बता दिया।" देवली मुस्कुरायी।
"यहाँ शराफत से रहना।"
"तू राणा के साथ कब जा रही है?"
"कल चली जाऊँगी। आज तेरे को सारा काम जो समझाना है। वह देख सामने हरिया आ रहा है। यहाँ के नौकरों का हेड है। नौकरों से सारे काम हरिया ही लेता है। लेकिन तेरे को हरिया से कोई मतलब नहीं। तूने रानी साहिबा और मालिक की सेवा करनी है। पहले रानी साहिबा,उसके बाद मालिक। हरिया आ गया, मिल ले उससे।"
■■■
रात ग्यारह बजे शनिका वापस लौटी। उसे बहुत थकान हो गयी थी। कई दिनों की थकावट से शरीर टूट रहा था। उसके कमरे में आते ही देवली वहाँ तुरंत हाजिर हो गयी।
"मुझे बताइए रानी साहिबा, मैं आपके लिए क्या करूँ?"
साड़ी खोलते शनिका ने देवली को देखा और बोली -
"रेखा कहाँ है?"
"वह अभी सोने के लिए गयी है। दिन भर वह मुझे काम समझाती रही। बहुत थक गई रेखा।"
"तो तुमने काम समझ लिया?"
"जी रानी साहिबा!" देवली आगे बढ़ी और शनिका के हाथों से साड़ी ले ली।
"पहले मुझे एक बड़ा पैग बनाकर दो। रेखा ने बताया इस बारे में?"
"जी रानी साहिबा।" देवली ने साड़ी को कुर्सी पर रखा और कोने में मौजूद खूबसूरत अलमारी के पास जा पहुँची। उसने अलमारी खोला तो छोटा सा खूबसूरत बार बना नजर आया। विदेश की महँगी बोतलें वहाँ सजी हुई थीं। और कई तरह के डिज़ाइन के गिलास वहाँ रखे नजर आ रहे थे। देवली पलटकर बोली -
"कौन सी व्हिस्की पसन्द करेंगी आप?"
शनिका ने उसे देखा और पल भर सोचने के बाद बोली-
"रेड वाइन का गिलास भर दो।" इसके साथ ही शनिका ने मोबाइल उठाया और नम्बर मिलाने लगी।
अगले ही पल कानों में ओमी की आवाज पड़ी।
"हेलो!"
"एक घण्टे बाद मुझे वहीं मिलना।" शनिका ने धीमे स्वर में कहा। परन्तु देवली ने सुन लिया था।
"ठीक है रानी साहिबा।"
शनिका ने फोन बन्द करके रखा कि देवली रेड वाइन का गिलास थामे फुर्ती से पास आ गयी।
शनिका ने गिलास थामा और एक ही साँस में आधा खाली करके टेबल पर रखा।
"मुन्नी नाम है तुम्हारा?"
"जी रानी साहिबा।" देवली वहाँ रखी साड़ी को तह लगाने लगी थी।
"अभी मैं नहाने जा रही हूँ। आधे घण्टे बाद डिनर लूँगी। सब नौकर तो सोने जा चुके होंगे।"
"जी। हरिया आपको डिनर देने के लिए जाग रहा है।"
"उसे सोने के लिए भेज दो और डिनर तुम ही लाना।"
"जी।"
"मैं रात दस बजे के बाद किसी नौकर का बंगले में घूमना पसन्द नहीं करती।"
"रेखा ने मुझे बता दिया है। मैं तो आपके लिए जाग रही थी।" बातों के साथ देवली साड़ी को तह भी लगा रही थी।
शनिका कुर्सी पर जा बैठी और बोली-
"एक सिगरेट भी पिला दो।"
देवली फुर्ती से टेबल के पास पहुँची और दराज खोलकर, पैकेट-लाइटर शनिका को दिया।
शनिका ने सिगरेट सुलगाई।
देवली ने पैकेट लाइटर वापस रख दिया। फिर साड़ी भी तह लगाने के बाद वार्ड रोब में रखा उसने।
कश लेती शनिका के चेहरे पर सोच के भाव थे। फिर उसने फोन निकाल कर वासु को फोन किया।
"वासु, मेरे पा आओ। वह नेगेटिव्स वाला लिफाफा लेते आना।" कहकर शनिका ने फोन बंद कर दिया।
देवली वार्ड रोब का दरवाजा बन्द करके बोली-
"और क्या काम करूँ रानी साहिबा?"
"नाइटी निकाल दो।"
"कौन से रंग की?" वार्ड रोब पुनः खोलती देवली बोली।
"जो रंग तुम्हें पसंद हो।" कहकर शनिका ने कश लिया।
दो मिनट ही बीते होंगे कि वासु वहाँ आ पहुँचा। उसने नाइटी सूट पहन रखा था। उसे देखकर स्पष्ट लग रहा था कि वह बेड से उठकर आया है।
शनिका ब्लाउज-पेटीकोट में कुर्सी पर बैठी थी और जबरदस्त सेक्सी लग रही थी।
भीतर आते ही वासु की निगाह शनिका के वक्षों पर जा टिकीं।
"गिलास दो।"
वासु ने तुरंत आगे बढ़कर टेबल पर रखा गिलास उठाकर शनिका को थमाया और तीन-चार कदम दूर जा खड़ा हुआ। उधर देवली वार्ड रोब खोले खड़ी थी। परन्तु ध्यान इधर ही था।
शनिका वासु की नजरों को पहचान कर तीखे स्वर में कह उठी -
"कहाँ देख रहे हो?"
वासु ने हड़बड़ा कर नजरें झुका ली।
"तुम सब मर्द कमीने हो। हमेशा औरत को देखने के लिए कुछ न कुछ ढूँढते रहते हो।" शनिका ने कड़वे स्वर में कहा।
वासु सीए झुकाए खामोश खड़ा था।
"नेगेटिव्स वाला लिफाफा नहीं लाये तुम?" शनिका घूँट भर कर बोली।
"गजब हो गया रानी साहिबा!"
"क्या?" शनिका के चेहरे पर उलझन के भाव उभरे।
"मैंने उसे अपने बैग में रखे थे, परन्तु कह मिल नहीं रहा।" वासु ने घबराये स्वर में कहा।
"क्या बकवास कर रहे हो?" शनिका दाँत पीस कर कह उठी।
"मैंने कोई लापरवाही नहीं की। परन्तु वह मिल नहीं रहे।"
"सिर उठाओ, मेरी तरफ देखो।" शनिका गुर्रायी।
वासु ने सिर उठाकर शनिका को देखा।
"मेरी आँखों में देखो।"
वासु ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और शनिका की आँखों में देखा।
"अब बताओ, तुमने नेगेटिव्स के साथ क्या किया है?" शनिका एक-एक शब्द चबाकर बोली।
"म... मैंने कुछ नहीं किया। वह... वह बैग में रखे थे। परन्तु अब मुझे मिल नहीं रहे।"
शनिका के चेहरे पर खतरनाक भाव या ठहरे।
"कितने में बेचा उन नेगेटिव्स को?"
"यह आप क्या कह रही हैं?" वासु के होंठों स निकला।
"वालिया से कितने पैसे लिए?"
"वालिया? मैं इस नाम के किसी आदमी को नहीं जानता। मैंने नेगेटिव्स किसी के हवाले नहीं किये।"
"पक्का?"
"पक्का रानी साहिबा। मेरा यकीन कीजिये।"
"फिर वह तुम्हारे बैग से कहाँ जा सकते हैं?"
"मैं... मैं खुद हैरान हूँ कि...।"
"तो तुमने मुझसे खेल खेलना शुरू कर दिया वासु।"
"मैं सच कह रहा हूँ रानी साहिबा। मेरी बात का यकीन करें। मैंने वह बैग में रखे थे, परन्तु अब कहीं नहीं मिल रहे। मैंने हर जगह चेक कर लिए हैं। आज दिन भर यही काम करता रहा।" वासु परेशान था।
"तो कौन ले गया?" शनिका ने घूँट भरा।
"मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है कि कौन ले गया।"
"जाओ!"
"क्या?" वासु अचकचाया।
"चले जाओ यहाँ से।"
वासु हड़बड़ाया सा वहाँ से निकलता चला गया। शनिका ने गुस्से से गिलास को एक ही बार में खाली कर दिया और उठ खड़ी हुई।
"रानी साहिबा, नाइटी।" देवली ने पास आकर कहा।
"यहीं रख दो।"
देवली ने नाइटी रखते हुए कहा-
"कोई कीमती सामान खो गया क्या रानी साहिबा?"
"डिनर ले आओ मेरा।" शनिका बाथरूम की तरफ बढ़ती कह उठी, "मैं नहाने जा रही हूँ।"
शनिका बाथरूम में चली गयी और दरवाजा बंद कर लिया।
देवली सोच रही थी कि घण्टे भर बाद शनिका को किससे मिलना है।
■■■
उस वक्त रात के बारह बजने वाले थे, जब शनिका नाइटी पहने नीचे वाले उसी कमरे में पहुँची जहाँ पर मौजूद ओमी पहले से ही उसका इंतजार कर रहा था।
शनिका यह न देख सकी कि देवली उस पर छिपकर नजर रख रही है।
शनिका का चेहरा गुस्से से भरा था।
"क्या बात है रानी साहिबा?" ओमी ने पूछा, "आपका मूड ठीक नहीं लग रहा।"
"एक समस्या है ओमी।"
"हुक्म करें। आपकी समस्या मैंने हर बार दूर की है। आपकी सेवा करके मुझे हर बार खुशी होगी।" ओमी कह उठा।
"मैंने वासु को कुछ कीमती सामान दिया था रखने को, लेकिन वह कहता है कि वह सामान खो गया। जबकि मुझे लगता है कि उसने वह सामान मेरे दुश्मन को, बड़ी कीमत लेकर बेच दिया है। मेरा वह दुश्मन इन दिनों जैसलमेर में ही है।"
"खत्म कर दूँ?"
"किसे?"
"दुश्मन को?"
"उसका मुझे कोई डर नहीं। जब डर होगा, तुम्हें बता दूँगी। समस्या वासु की है।"
ओमी सतर्क हुआ।
"वासु पर से मेरा भरोसा उठ गया है। जब किसी करीबी पर शक होने लगे तो बेहतर है उसे हमेशा के लिए दूर कर दो।"
"मैं समझ गया रानी साहिबा।"
"वासु को ऐसे मारना कि यह दुश्मन का काम लगे। उसकी मौत से शायद चुनाव में फायदा मिल जाये।"
ओमी ने सिर हिलाया।
"यहाँ से दूर ले जाकर यह काम करना और कत्ल कर देना।" शनिका ने सपाट स्वर में कहा।
"हो जाएगा रानी साहिबा।"
"तुम बहुत अच्छे हो ओमी। मेरी परेशानी दूर कर देते हो। तीन साल पहले तुमने मेरे कहने पर प्रेम को अपाहिज बना दिया। तुम सच में मेरे हमदर्द हो।" शनिका कह कर मुस्कुरा उठी।
"आप भी तो मेरा बहुत खयाल रखती हैं।"
"अब मेरी थकावट दूर करो।" शनिका अपनी नाइटी उतारती कह उठी, "भाग-दौड़ से मैं बहुत थक गई हूँ।"
■■■
दरवाजे पर कान लगाए, भीतर की बातें सुन रही देवली वहाँ से हट गयी। वह समझ गयी थी कि शनिका और ओमी की काम की बातें खत्म हो गयी हैं। उसे तीन बातें काम की पता चली थीं।
पहली यह कि शनिका, वासु को खत्म करने जा रही है। दूसरी, प्रेम की टाँगें शनिका के कहने पर ओमी ने ही काटी थी,और तीसरी यह कि शनिका हर काम में ओमी का इस्तेमाल करती है। उसके शरीर की आग भी ओमी ठंडी करता है।
देवली सीढ़ियों की तरफ बढ़ गयी। हर तरफ शांति थी। कोई नौकर नजर नहीं आ रहा था। देवली, प्रेम के कमरे में दरवाजे पर ठिठकी और आहिस्ता से पल्ले को धक्का दिया। वह थोड़ा सा खुल गया।
देवली ने भीतर प्रवेश किया और दरवाजा बंद करके सिटकनी लगा दी।
कमरे में नीले रंग का नाईट बल्ब जल रहा था। देवली कुछ पल वहीं खड़ी रही। जब उसकी आँखें अंधेरे की अभ्यस्त हो गईं तो वह बेड की तरफ बढ़ी, जिधर प्रेम सोया हुआ था। वह बेड के पास पहुँची और आहिस्ता से प्रेम के माथे पर, गालों पर हाथ फेरा कि उसी पल प्रेम की आँख खुल गयी।
"कौन हो...?" प्रेम ने कहना चाहा।
"धीरे...।" देवली बेहद धीमें स्वर में बोली, "मैं हूँ, मुन्नी।"
"तुम?" प्रेम का स्वर धीमा था।
"मैंने सोचा आप को पूछ लूँ कि किसी चीज की जरूरत तो नहीं।" देवली ने बेहद प्यार से कहा।
"तुम... तुम्हें इस वक़्त यहाँ नहीं आना चाहिए था।"
"मैं तो अपनी ड्यूटी पूरी कर रही हूँ मालिक।" देवली बेड के किनारे पर बैठ गयी। उसका हाथ प्रेम की छाती पर फिर रहा था, "कुछ नहीं चाहिए तो मैं जाऊँ?"
उसी पल प्रेम ने उसका हाथ थाम लिया। प्रेम की तेज साँसों की आवाज उसे सुनायी देने लगी।
"क्या हुआ मालिक?"
"तुम बहुत अच्छी हो।"
"सच?"
उसी पल प्रेम ने उसे अपने ऊपर खींचा और भींच लिया।
"आप तो प्यासे हैं।"
"बहुत। किसी औरत को देखे, जाने कितना वक्त हो गया।" प्रेम हाँफने लगा था।
देवली का हाथ फिसलता हुआ प्रेम की टाँगों के बीच पहुँच गया था।
आँ... ह... !" प्रेम के होंठो से सिसकारी सी निकली।
"औरत को देखोगे?"
"ह... हाँ...!"
देवली उसी पल पीछे हटी और अपने कपड़े उतारने लगी। नीली मध्यम रोशनी में उसका शरीर चमक उठा।
"लाइट जला दूँ?"
"न... नहीं! कोई आ जायेगा।" प्रेम की आवाज में अब मौजों की झलक उठी थी, "मेरे पास आ जाओ। जल रहा हूँ। मेरे बदन में आग लग रही है। आह... पकड़ लो मुझे...।"
देवली आगे बढ़ी। बेड पर चढ़ी और उस पर बिछ गई।
"कैसा लग रहा है?" देवली उसके होंठों को चूमते कह उठी।
"चुप रहो। मुझे आनंद ले लेने दो। बहुत लंबे वक्त के बाद यह पल मेरे जीवन में आया है।"
"मैं कर दूँ या...।"
"तुम कुछ मत करो। मेरा साथ दो बस। सब कुछ मैं करूँगा। ओफ्फ, पागल हो जाऊँगा। तुम... तुम... ला... जवाब हो।"
■■■
अगले दिन शनिका तैयार हुई तो सुबह के आठ बज रहे थे। उसने नाश्ता कर लिया था। आज का चुनावी दौरा लम्बा था। बाहर रामसिंह और भँवरा, कुछ गाड़ियों के काफिले के साथ आ चुके थे।
देवली सुबह छः बजे से उठी, शनिका की सेवा में लगी थी। जब शनिका चलने लगी तो देवली से बोली-
"तुम रेखा से अच्छा काम करती हो मुन्नी।"
"आप मेरे से खुश हैं, मुझे और क्या चाहिए।" देवली मुस्कुराकर कह उठी।
"रेखा आज जा रही है?"
"जी रानी साहिबा!"
"तुम मेरा काम इसी तरह दिल लगाकर करना। रेखा के वापस आने के बाद भी तुम्हारी नौकरी सलामत रहेगी।"
"शुक्रिया रानी साहिबा!"
शनिका चुनावी दौरे पर चली गयी।
देवली बंगले के पीछे बने नौकरों के कमरे में पहुँची। रेखा सामान बाँध चुकी थी।
"जा रही ही?" देवली कह उठी।
"हाँ! तुम रात कहाँ थी? दो बार आँख खुली तो दोनों बार तुम कमरे में नहीं थी।" रेखा बोली।
"रानी साहिबा की सेवा में थी। वे देर से बंगले में आयीं। उन्हें खाना खिलाया। इसी में वक़्त लग गया।"
"तुम इसी तरह रानी साहिबा का ध्यान रखना।"
"राणा कहाँ है?" देवली ने पूछा।
"वह बंगले के बाहर, किराये की कार में मेरे बाहर आने का इंतज़ार कर रहा है।" रेखा ने मुस्कुरा कर कहा।
वह अपना सामान लेकर चली गयी।
देवली प्रेम के कमरे में पहुँची। वह व्हील चेयर पर बैठा खिड़की से बाहर देख रहा था। कदमों की आहट सुनकर उसने सिर घुमाया तो देवली को देखकर मुस्करा पड़ा। देवली भी मुस्कुरायी। प्रेम का चेहरा आज तनाव से मुक्त लग रहा था।
"कैसे हैं आप?" पास पहुँचकर देवली मीठे स्वर में बोली।
"बहुत अच्छा। तुमने रात मुझे बहुत आराम पहुँचाया। इस आराम को मैं कब से पाना चाहता था।"
"धीरे बोलिये, कोई सुन लेगा।"
प्रेम के चेहरे पर आभार भरी मुस्कान बिखरी रही।
"मैंने कल जब आपको पहली बार देखा तो तभी समझ गयी थी कि आपको इस चीज की जरूरत है।" कहते हुए देवली ने बेहद प्यार से प्रेम के सिर पर हाथ फेरा।
प्रेम का चेहरा जैसे नशे से भर उठा।
"आप की इतनी खूबसूरत बीवी है फिर भी आप औरत को तरसते हैं।
प्रेम के चेहरे पर उखड़े मन के भाव या गए।
"वह... वह कमीनी औरत है।"
"कौन? आपकी पत्नी?"
"हाँ! वह सिर्फ नाम की पत्नी है।" प्रेम ने कड़वे स्वर में कहा, "उसे दौलत, नाम और शोहरत चाहिए था। वह सब मिल गया। मुझ जैसे अपाहिज की उसे जरूरत ही क्या है। मैं तो सिर्फ उसके हाथों का खिलौना हूँ।"
"सब कुछ आपने उनके नाम के दिया?"
"नहीं! इतना भी बेवकूफ नहीं हूँ। उसे सिर्फ इतना अधिकार है कि मेरे काम धंधे देख सके।"
"अपाहिज हो गए आप और इसका फायदा आपकी पत्नी ने उठाया।"
"यही बात है।"
"मैं आपको कुछ बताना चाहती हूँ। शर्त यह है कि उस बात को आप अपने तक ही रखें।" देवली ने गंभीर स्वर में कहा।
प्रेम ने देवली को देखा।
"क्या बात है?"
"पहले आप वादा करें कि बात अपने तक ही रखेंगे।"
"तुम्हें मुझ पर विश्वास करना चाहिए मुन्नी। खासतौर से तब, जब रात हमारे बीच...।"
"यह बात बार-बार अपने होंठों पर मत लाइये। कोई सुन लेगा।"
प्रेम ने गहरी साँस ली।
"क्या कहना चाहती हो, बोलो।"
"रात मैंने कुछ देखा और सुना...।" देवली ने गंभीर स्वर में कहा।
प्रेम की निगाह देवली पर थी।
"आपकी पत्नी नीचे वाले कमरे में गयी, जो कमरा यहाँ के सुरक्षा गार्ड ओमी को दे रखा है। ओमी और आपकी पत्नी ने वह सब किया जो पति-पत्नी करते हैं। ढेड़ घण्टे बाद आपकी पत्नी वापस अपने कमरे में लौटी।"
"हरामजादी।" प्रेम दाँत पीसकर बोला, "इतना तो मैं जानता था कि वह कहीं गुल खिला रही है, परन्तु यह न पता था कि वह कमीनी मेरे इतने पास गुल खिला रही है। और मुझे किसी ने खबर भी नहीं दी।"
"रानी साहिबा का मुझे हुक्म है कि उनकी कोई बात आपके सामने न करूँ और आपकी हरकतों की जानकारी उन्हें दूँ। रेखा भी यही काम करती थी। रानी साहिबा का हुक्म टालने की किसी मे हिम्मत नहीं।"
"और तुम... तुम्हें...।"
"मैं आपकी तकलीफ देख नहीं सकी। यही सब होता रहा तो कभी आपकी जान भी चली जायेगी।"
प्रेम, देवली के गंभीर चेहरे को देखने लगा।
"एक बात और भी बतानी है आपको। जो बात रात इन कानों ने सुनी, वह बात।"
"कहो।"
"आज से तीन साल पहले आपकी पत्नी के कहने पर, ओमी ने ही आपकी टाँगें काटी थीं।"
प्रेम हक्का-बक्का सा देवली को देखता रह गया। चेहरा तप सा उठा था।
"विश्वास नहीं आया?" देवली ने गहरी साँस लेकर पूछा।
"आया। शनिका यह बात मेरे सामने कबूल कर चुकी है कि उसके इशारे पर मुझे अपाहिज बनाया गया। परन्तु यह बात मेरे लिए नई है कि यह काम ओमी ने किया।" प्रेम गुस्से में भरा कह उठा।
"मैंने उन दोनों की रात बातें सुनी...।"
"ओह, मैं कहाँ फँस गया!" प्रेम तड़पकर बोला, "कितना बेबस हो गया हूँ मैं।"
"आपको हिम्मत से काम लेना होगा। कुछ भी बेबस नहीं हैं आप।" देवली ने कहा।
"कैसे?"
"पहले मुझे बताइए कि ओमी ने जब आपकी टाँगें काटी तो आप उसे पहचान क्यों नहीं पाए?"
"मैं नहीं जानता था कि उनमें ओमी भी है। वे चार लोग थे, जिन्होंने मुझे उठा लिया। सुनसान जगह ले गए और मेरी टाँगें काट दी। चारों ने अपने चेहरे ढाँप रखे थे कपड़ों से। वह बहुत कम बातें कर रहे थे मेरे सामने।"
"आपकी पत्नी आपकी टाँगें कटवा सकती है तो आपकी जान भी ले सकती है।"
प्रेम के होंठ भिंच गए।
"वे सिर्फ आपको इस्तेमाल कर रही है। ताकि उसके इशारे पर आप कागजों पर साइन करते रहें।" देवली के चेहरे पर गंभीरता थी, "जब वह आपकी जरूरत नहीं समझेगी तो यकीनन आपकी जान ले लेगी। आपने गलत इंसान को अपनी पत्नी बनाया।"
प्रेम ने गहरी-गहरी कई साँसें ली।
"हाँ! मुझे कब का अपनी गलती कक अहसास हो चुका है। शनिका ने खूबसूरती से मुझे पागल कर दिया था और वह मेरी दौलत के पीछे पागल हो चुकी थी। हम एक साथ ही पढ़ते थे। परन्तु पहले शनिका को।पता न था कि मैं इतना बड़ा दौलतमंद हूँ। मैं और वामा एक-दूसरे से प्यार करते थे। हमने शादी कर ली। शादी वाले दिन शनिका को पता लगा कि मेरे पास अथाह दौलत है। इसी दौलत की खातिर उसने मेरी पत्नी बनने के यत्न शुरू कर दिए। तब तो मैं नहीं समझ पाया परन्तु आज वह वक़्त याद आता है तो सब समझ में आ जाता है। शनिका ने अपनी खूबसूरती का जाल इस तरह मेरे ऊपर डाला कि मैं उसका दीवाना हो गया। हर तरफ मुझे शनिका ही शनिका नजर आने लगी। मैंने अपनी जिंदगी में बहुत बड़ी गलती की। बहुत बड़ी भूल...।"
"शनिका बीच में कहाँ से आ गयी? आपकी पत्नी तो वामा थी।"
"मेरा दिमाग खराब था जो...।"
तभी डॉक्टर रोडे ने कमरे में प्रवेश किया।
"गुड मॉर्निंग मिस्टर प्रेम!
"गुड मॉर्निंग डॉक्टर! बैठो!"
डॉक्टर रोडे कुर्सी पर बैठा और देवली को देखते प्रेम से बोला -
"मैडम को मैंने पहचाना नहीं।"
"यह मुन्नी है। रेखा की जगह काम पर आई है। रेखा छुट्टी पर गयी है।" प्रेम ने सहज स्वर में कहा।
"ओह! अब आपकी तबीयत कैसी है?"
"एकदम ठीक। मेरे नकली टाँगों की तैयारी कहाँ तक पहुँची?"
"उसी के बारे में बात करने आया हूँ।" डॉक्टर रोडे ने कहा, "शायद आपकी टाँगों का काम न हो सके।"
"क्यों?"
"मैंने एक्सपर्ट से विचार-विमर्श किया है। आपके केस में खतरा यह है कि नकली टाँगें लगाने से आपकी टाँगों में इंफेक्शन फैल जाएगा। उस स्थिति में ऊपर तक टाँगें काटनी पड़ेगी। आपकी जान को भी खतरा हो सकता है।"
"ओह!" प्रेम के होंठों से निकला। चेहरे पर मायूसी छा गयी।
"फिर भी मैं एक बार फिर एक्सपर्ट से बात करके, आपको बताऊँगा।" डॉक्टर रोडे ने कहा।
"मैं चलना-फिरना चाहता हूँ डॉक्टर।"
"मेरी पूरी कोशिश होगी कि आप चल फिर सकें।"
"एक टाँग भी नकली लग जाये तो मैं बैसाखी के सहारे चल सकूँगा। तुम...।"
"मेरी पूरी कोशिश है कि आपको चला दूँ।" डॉक्टर रोडे उठते हुए मुस्कुरा कर बोला, "अब मैं चलता हूँ। यहाँ से सीधा मैं एक्सपर्ट के पास ही जा रहा हूँ, आपके बारे में बात करने।"
डॉक्टर रोडे चला गया।
देवली गंभीर स्वर में कह उठी-
"आपकी पत्नी कभी नहीं चाहेगी कि आप चल-फिर कर उसकी आजादी में अंकुश लगा सकें।"
"क्या कहना चाहती हो?" प्रेम ने उसे देखा।
"मैंने ऐसे लोगों को देखा है जिनकी दोनों टाँगें नकली है और कार चलाते हैं वह।" देवली ने कहा, "डॉक्टर रोडे को ऐसा कहने को, आपकी पत्नी ने ही बोला होगा। मुझे तो यही लगता है।"
प्रेम के होंठ भिंच गए।
"आप कहें तो मैं किसी एक्सपर्ट का पता करके आपको फोन नम्बर दूँ। ताकि इस बारे में आप उससे बात कर सकें?"
"जरूर!" देवली को देखते प्रेम ने सिर हिला कर कहा।
देवली मुस्कुरायी।
"तुम कोई साधारण नौकरानी नहीं लगती मुन्नी।" प्रेम कह उठा, "तुम्हारी बातें...।"
"मैं पढ़ी-लिखी हूँ मालिक। आपके यहाँ मुझे बहुत अच्छी तनख्वाह मिल रही है।" देवली बोली।
प्रेम कुछ न बोला।
"आप अपनी पत्नी वामा के बारे में बात कर रहे...।"
देवली की बात पूरी न हो सकी।
हरिया नाश्ते की ट्रॉली धकेलता कमरे में आ पहुँचा था। जब तक प्रेम नाश्ता न कर लेता तब तक हरिया ने पास ही रहना था। देवली कमरे से बाहर चली गयी।
■■■
"भँवरे, वासु से पूछो कि सूरजपाल सिंह से उसका कौन सा आदमी बात कर रहा है।" शनिका ने कहा। वह इस वक़्त सड़क पर जाती खुली जीप पर खड़ी, हाथ हिलाती जा रही थी। सड़क के दोनों तरफ लोग खड़े थे। जीप बेहद धीमी गति से चल रही थी। जीप के आगे भी शनिका के समर्थकों की दो कारें थीं और पीछे भी। सभी हथियारबंद थे कि अगर कहीं पर विरोधी पार्टी से झगड़ा हो जाये तो वह मुकाबला कर सकें।
भँवरा फोन निकालकर वासु को फोन मिलाने लगा था। सूर्य सिर पर चढ़ता जा रहा था। गर्मी बढ़ती जा रही थी। शनिका कि चेहरे पर पसीने की लकीर बह रही थी। भँवरा ने वासु से बात करके फोन बंद किया और शनिका से कहा-
"वासु कहता है कि सुजानसिंह को इस काम में डाला है।"
"ठीक है। वासु क्या कर रहा है?"
"वह इस समय ओमी के साथ कहीं जा रहा है।"
जवाब में शनिका ने कुछ नहीं कहा। लोगों की तरफ हाथ हिलाती रही।
"राम सिंह!" शनिका पास बैठे राम सिंह से कह उठी, "मेरी मुख्य टक्कर चूड़ा सिंह से है।"
"हाँ रानी साहिबा!"
"तुम्हारा क्या ख्याल है, वह जीतेगा या मैं?"
"बराबर की टक्कर है। वह एक बार पहले भी चुनाव जीत चुका है। लेकिन इस बार आपके नाम की हवा है।"
"देखते हैं। हमारे आराम करने का पड़ाव कब आएगा? खड़े-खड़े थक गई हूँ मैं।"
"पाँच मिनट और लगेंगे। वहाँ हमारे आदमियों ने खाने-पीने का, छाँव का पूरा इंतजाम कर रखा है।"
उसी पल शनिका चौंकी। माथे पर बल पड़े। सड़क किनारे उसे अजय वालिया खड़ा दिखा।
"जीप रोको।" शनिका ने तेज स्वर में कहा।
तुरंत ही छोटा काफिला रुक गया। शनिका और अजय वालिया की नजरें मिलीं। शनिका के होंठों पर जहरीली मुस्कान उभरी।
"भँवरे!" शनिका ने कहा, "वह सफेद कमीज वाला, उसे बुला और जीप में बिठा ले।"
"जी।" कहने के साथ ही भँवरा उछलकर जीप से नीचे आ गया और अजय वालिया के पास जा पहुँचा, "चलो, तुम्हें रानी साहिबा बुला रही हैं। वैसे 8स तरह रानी साहिबा किसी को बुलाती नहीं।"
वालिया मुस्कुराया। वह भँवरा के साथ खामोशी से चल पड़ा। दोनों जीप में बैठे। काफिला पुनः चल पड़ा।
"कैसे हो वालिया?" शनिका जीप में खड़ी लोगों की तरफ हाथ हिलाते बोली।
"ठीक हूँ!" वालिया ने कड़वे स्वर में कहा।
"मेरी हैसियत देखकर तुम्हें कैसा लग रहा है?" शनिका ने हँसकर पूछा।
वालिया खामोश रहा। कुछ ही देर में काफिले के आराम करने का पड़ाव आ गया। सारे समर्थक वहाँ खाने-पीने में लग गए। शनिका जीप में बैठ चुकी थी। वालिया सामने बैठा उसे देखे जा रहा था।
"तुम तो जैसलमेर में ही टिक गए लगता है।"
"तुम्हारी वजह से।"
"इरादा क्या है तुम्हारा?"
"मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि तुमने मुझे बर्बाद क्यों किया। उस दिन तुमने दीपचन्द का जिक्र किया था।"
"दीपचन्द से बात नहीं की तुमने?" शनिका मुस्कुरा रही थी।
"नहीं। मेरा मतलब तुमसे है, दीपचन्द से नहीं। तुम बताओ कि...।"
"वालिया! वह सब बात नहीं है जो तुम समझ रहे हो। मैं तुम्हें बताना तो नहीं चाहती थी परन्तु बता देती हूँ। दीपचन्द मेरा मुँहबोला भाई है। वह जिंदगी में मेरे बहुत काम आया है। परन्तु उसने मुझे कभी कोई काम नहीं कहा। वह अपने बेटे राजन को कंस्ट्रक्शन के वाम में लगाना चाहता था। राजन को बहुत बड़ा बिल्डर बनाना चाहता था। याद होगा कि उसने कई बार तुम्हारा पार्टनर बनने की ख्वाहिश भी रखी।"
"हाँ!"
"परन्तु तुम नहीं माने। खैर, दीपचन्द जहाँ-जहाँ अपने बेटे को काम शुरू करवाना चाहता था, वहाँ तुमने अपने पाँव फैला रखे थे। जब होटल के प्लाट की नीलामी हो रही थी तो वह होटल का प्लाट दीपचन्द को मिलने जा रहा था, परन्तु तुमने बड़ी बोली लगाकर, वह प्लाट उसके हाथों से छीन लिया। दीपचन्द तुमसे बहुत परेशान था। जब उसकी परेशानी का पता मुझे चला तो मैंने उससे शर्त लगाई, अगर वह मुझे शानदार जगह पर डिनर कराये तो मैं अजय वालिया को इस हद तक बर्बाद कर सकती हूँ कि वह भीख माँगता नजर आएगा। दीपचंद नहीं माना कि मैं ऐसा कुछ करने की काबिलियत रखती हूँ। शर्त तय हो गयी और फिर तुम्हें बर्बाद करके मैंने शर्त जीत ली।"
वालिया देखता रह गया इस खतरनाक औरत को।
"अब दीपचन्द खुश है और उसका बेटा राजन ने बिल्डर बनने की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि होटल का जो प्लाट तुमने दान में दिया था उसे दीपचन्द ने उस संस्था से खरीद लिया है। राजन का पहला प्रोजेक्ट वह होटल ही होगा। अब तो तुम्हें पता चल गया कि मैंने यह सब क्यों किया तुम्हारे साथ।"
"सच में तुम हरामजादी हो।"
"मैंने जो किया अपने भाई की खातिर किया। अपने भतीजे के लिए किया और...।"
"एक गलती कर दी तुमने।"
"क्या?"
"तुम्हें वह जमीनें दीपचन्द या उसके बेटे के नाम करा लेनी चाहिए थी। यूँ ही दान करवा दीं।"
"मैंने कहा था दीपचन्द से। परन्तु दीपचन्द ने इनकार कर दिया। तुम्हारी तबाही के साथ वह अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहता।" कहते हुए शनिका के चेहरे पर शान से भरी मुस्कान थी।
वालिया, शनिका के खूबसूरत चेहरे को देखता रहा।
"क्या देख रहे हो वालिया?"
"मैं उस दिन को याद कर रहा हूँ जब तुम्हें पहली बार देखा था।" वालिया ने कड़वे स्वर में कहा।
"मैं तो भूल भी गयी। मुझे वह दिन नहीं याद।"
"याद आएगा तुम्हें। हर वह दिन याद आएगा, जो तुमने मेरे साथ बिताया था।" वालिया दरिंदगी से कह उठा।
शनिका ने चुनौती भरी नजरों से वालिया की आँखों में झाँका।
"तुम क्या करने की सोच रहे हो?"
"तुमने जो करना था, कर दिया। अब तुम मेरे खिलाफ कुछ नहीं कर सकती। कुछ नहीं बिगाड़ सकती मेरा।"
"मैं मिनटों में तुम्हारे टुकड़े करवा सकती हूँ। मेरी ताकत तो तुम देख ही रहे हो।"
"मैं तुम्हें चुनाव नहीं जीतने दूँगा।"
"मुझे इन खोखली धमकियों की परवाह नहीं। तुम इसलिए उछल रहे हो कि वासु से तुमने नेगेटिव्स ले लिए हैं।" शनिका तीखे स्वर में बोली, "कितना पैसा दिया तुमने वासु को?"
"वासु? मैं इसे नहीं जानता। कौन है यह?"
"यह वही है, जिससे तुमने नेगेटिव्स का सौदा किया और...।"
"नेगेटिव्स तो तुम्हारी कार से तब चुराए गए थे जब तुम आधी रात को होटल में घण्टे भर के लिए रुकी थी।"
"चुराए गए थे?" शनिका चौंकी।
"हाँ!" वालिया मुस्कुरा रहा था।
"यह नहीं हो सकता। तब ड्राइवर कार के पास...।"
"तुम्हारा ड्राइवर कुछ देर के लिए कार छोड़कर चला गया था। तब नेगेटिव्स को निकाल लेना आसान रहा।"
"ओह!" शनिका ने फोन निकाला और बेचैन अंदाज में नम्बर मिलाने लगी।
"कुछ गलत हो गया क्या?"
"तुमने किसे मेरे पीछे लगाया था?"
"यह तुम नहीं जान सकती।"
शनिका ने फोन पर ओमी से बात की।
"ओमी, वासु के साथ कुछ मत करना।" शनिका ने जल्दी से कहा।
"यह आप क्या कह रही हो रानी साहिबा? मैंने अभी उसे खत्म किया है। चाकू से गला काट दिया उसका।"
शनिका के होंठों से गहरी साँस निकली।
"रानी साहिबा!" उधर से ओमी की आवाज कानों में पड़ी।
"ठीक है, काम कर दिया तो कर दिया।" शनिका ने कहा और फोन बंद कर दिया।
"क्या हुआ?" वालिया समझ रहा था कि क्या हो गया है।
"तुमने नेगेटिव्स के चक्कर में मेरे खास आदमी को मरवा डाला।"
शनिका ने दाँत भींचकर वालिया को देखा।
"तेरे को कभी अपने किये पर अफसोस नहीं होता कि तूने मुझे खामखाह ही बर्बाद कर दिया।"
"खामखाह नहीं। दीपचन्द की खातिर मैंने तेरे को बर्बाद किया। वह मेरा मुँहबोला भाई है। कम्पटीशन में तू दीपचन्द के रास्ते से हट गया तो अब वह आसानी से अपने बेटे को बिल्डर बना लेगा।"
"उसका बेटा बिल्डर नहीं बन पाएगा।"
"क्यों?"
"क्योंकि तेरे से निपटने के बाद मैं दीपचन्द और उसके बेटे से निपटूंगा। उन्हें भी बर्बाद करूँगा।" वालिया पुनः गुर्राया।
"तब तक के लिए तू जिंदा ही नहीं बचेगा।" शनिका के चेहरे पर कठोरता आ गयी। उसकी नजरें आसपास घूमीं। पड़ाव में उसके अपने लोग थे तो बाहरी लोग भी वहाँ काफी संख्या में मौजूद थे। उसकी निगाह पुनः वालिया पर आ टिकीं, "अभी तो तू बच गया, लेकिन बहुत जल्दी तू मरेगा।"
वालिया मुस्कुराया और छोटी सी छलांग लगाकर जीप से उतरा। शनिका की कठोर निगाह उस पर थी।
"मैं तुझे बर्बाद करके ही जैसलमेर से जाऊँगा।"
शनिका होंठ भींचे उसे देखती रही। वालिया आराम से चलता हुआ, वहाँ से दूर होता चला गया। शनिका, वासु के बारे में भी सोच रही थी कि गलतफहमी में वह मारा गया।
■■■
देवली दोपहर को बंगले के पीछे अपने सर्वेंट क्वार्टर में आराम कर रही थी कि उसका फोन बजा।
"हेलो!" देवली ने बात की।
"कैसी हो?" अजय वालिया की आवाज कानों में पड़ी।
"मैं ठीक हूँ। मेरे पाँव शनिका के बंगले में टिक चुके हैं।" देवली धीमे स्वर में बोली, "मुझ पर किसी को शक नहीं हुआ। मैंने तुमसे कहा था कि तुम शनिका को उलझाए रखना, इधर मैं अपना काम करूँगी। शनिका को बर्बाद कर दूँगी।"
"उन नेगेटिव्स के चक्कर में शनिका ने अपने खास आदमी वासु की जान ले ली।"
"यह बात मैंने तब सुनी थी, जब शनिका ने वासु को मारने के लिए किसी को कहा था।"
"ओमी को।"
"तुम जानते हो?"
"अभी शनिका से पता चला।"
"तुम मिले उससे?"
"कुछ देर पहले मिला था। वह चुनाव में लगी है। मुझे मारने की धमकी दे रही है। मैंने तुम्हें यह बताने के लिए फोन किया कि शनिका ने बताया मुझे कि उसने मुझे क्यों तबाह किया।" इसके साथ ही वालिया ने दीपचन्द से वास्ता रखती सारी बात बताई।
"यह तो बहुत ही गलत किया उसने।" देवली के होंठों से निकला।
"मैंने नहीं सोचा था कि दीपचन्द ऐसा होगा।" उधर से वालिया का कठोर स्वर कानों में पड़ा।
"हर कोई अपनी गेम खेल रहा है अजय।"
"शनिका के बाद मैं दीपचन्द को नहीं छोड़ूँगा।"
"मैं तुम्हारे साथ हूँ।"
"तुम बहुत अच्छी हो।"
"मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। तुम मेरे हो अजय, हो न?"
"इस वक़्त तो मुझे सिर्फ शनिका ही नजर आ रही है।" वालिया का कठोर स्वर देवली के कानों में पड़ा।
"शनिका नहीं बचने वाली। अब तुम्हें पता है न कि तुमने क्या करना है।"
"वही करने जा रहा हूँ।"
"मैं भी यहाँ जो करूँगी, उससे शनिका का दिमाग खराब हो जाएगा।"
"वह तस्वीर तुम...।" उधर से वालिया ने कहना चाहा।
"वही!" देवली हँसी, "शनिका अपना सिर नोचेगी कि यह क्या हो रहा है।"
"बन्द करता हूँ। अब मुझे चूड़ासिंह के पास जाना है।"
फोन बंद होते ही देवली मुस्कुराहट भरे ढंग से बड़बड़ा उठी।
"सब अपनी गेम खेल रहे हैं।"
फिर देवली ने जगत पाल को फोन किया।
"कैसा है जगतू?"
"मेरी जान, तू कहाँ है? छोड़ इन सब बातों को, वापस कानपुर चलते हैं।"
"सब्र रख जगतू!"
"कब तक इस रेगिस्तान में पड़ा रहूँगा। मेरे को कोई काम बता।"
"अभी तो कोई काम नहीं आया तेरे लिये।"
"तेरे बिना मेरे मन नहीं लग रहा है मेरी जान। तू मेरे पास आ जा। एक चक्कर ही लगा जा।"
"काम में हूँ।"
"किसी को शक तो नहीं हुआ?"
"नहीं!"
"वह हरामजादी शनिका कैसी है?"
"मजे में है।"
"तेरा क्या इरादा है? वहाँ कैसे हालात हैं और तूने क्या सोचा कि वामा की मौत का बदला कैसे लेगी?"
"पहले तसल्ली तो कर लूँ कि इन्होंने ही वामा को मारा है।" देवली के होंठ भिंच गए।
"वहाँ के सारे हालात बता?"
"फोन पर नहीं, मिलने पर बताऊँगी।"
"मिलती तो तू है नहीं।"
"एक-दो दिन में तेरे से मिलूँगी।"
"पक्का?"
"कसम से?" कहने के साथ ही देवली ने फोन बंद कर दिया।
उसके बाद देवली ने सर्वेंट क्वार्टर से निकलकर बंगले के पीछे वाले दरवाजे से बंगले में प्रवेश किया। नौकर साफ-सफाई पर लगे थे। हरिया को उसने एक तरफ जाते देखा।
देवली पहली मंजिल पर प्रेम के कमरे में पहुँची। प्रेम बेड पर बैठा मैगज़ीन पढ़ने में व्यस्त था कि देवली को देखते ही मुस्कुराया। देवली भी कातिलाना अंदाज में मुस्कुरायी।
प्रेम ने मैगजीन एक तरफ रख दी।
"कैसे हैं आप?" पास पहुँचकर देवली मीठे स्वर में बोली।
"बहुत अच्छा हूँ।"
"आज रात फिर आऊँ क्या?" देवली पास पहुँची। प्रेम के हाथ पर अपना हाथ रखा। प्रेम का जिस्म स्पर्श से काँपा।
"किसी को शक हो जाएगा।"
"आप तो यूँ ही घबराते हैं।" देवली कह उठी, "आप तो यहाँ के मालिक हैं और फिर अपनी पत्नी से डरते क्यों हैं। वह जब रात को ओमी के पास जाती है तो किसी से भी नहीं डरती। उसकी तरह बहादुर बनिये।"
"मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है, मेरा अपाहिज होना।"
"मैं आपकी टाँगें बन सकती हूँ।"
प्रेम, देवली को देखता रह गया। देवली के खूबसूरत मासूम चेहरे पर, अपनापन था।
"ठीक है, आना रात को।" प्रेम ने धीमे स्वर में कहा।
"आप कितने अच्छे हैं।" देवली ने अपना हाथ उसके माथे पर और सिर पर फेरा।
प्रेम को ढेर सारा सुकून मिला, जैसे माँ का हाथ सिर पर फिरा हो।
"मैं आपको बिल्कुल ठीक कर दूँगी। आपकी टाँगे बनवाऊँगी। आप बाहर घूमने जाया करेंगे।"
"सच?" प्रेम की आँखें भर आयी।
"हाँ! बस आपको थोड़ा हिम्मत से काम लेना होगा। अपनी पत्नी से डरना छोड़ दीजिए।"
प्रेम ने गहरी साँस लीं।
"एक बात तो आपको बताना भूल ही गयी।" एकाएक देवली बोली।
"क्या?"
"आपकी पत्नी ने ओमी के हाथों वासु की हत्या करवा दी।" देवली ने कहा।
"नहीं!" प्रेम के होंठों से चौंकते हुए स्वर निकला, "सुबह मैंने वासु को देखा था।"
प्रेम हक्का-बक्का सा देवली को देखता रहा।
"क्या हुआ आपको?" देवली बोली।
"शनिका बहुत गलत रास्ते पर चल रही है।" प्रेम ने बेचैनी से कहा।
"उसने गलत रास्ता चुना है तो उसे फल भी मिलेगा। आप क्यों फिक्र करते हैं।"
"मुझे शनिका से कभी-कभी डर लगता है। वह... वह...।"
"मैं आपके साथ हूँ। आप किसी से भी डरिये मत।"
प्रेम कुछ नहीं बोला। चेहरे पर गंभीर बेचैनी नाचती रही।
"आप सुबह अपनी पहली पत्नी के बारे में कुछ बताने जा रहे थे।"
"वामा के बारे में?" प्रेम के होंठों से निकला।
देवली प्रेम को देखती रही।
"तुम क्यों जानना चाहती हो वामा के बारे में?"
"यूँ ही, आपकी बात अधूरी रह गयी थी। आपने बताया कि आपकी शादी वामा के साथ हो गयी थी। तब रानी साहिबा ने जाना कि आप ढेर सारी दौलत के मालिक है। रानी साहिबा ने आप पर डोरे डालने शुरू कर दिए। उसके बाद क्या हुआ?"
प्रेम के होंठ भिंचने लगे।
"आपकी शादी शनिका के साथ कैसे हो गयी? वामा के साथ...।"
"चुप हो जाओ।" प्रेम के होंठों से तेज स्वर निकला। वह गहरी-गहरी साँसें लेने लगा था।
देवली की निगाह प्रेम पर थी। वह गंभीर थी।
"आप नाराज हो गए मेरे सवाल पर?" देवली का स्वर मीठा था।
"यह सब बातें मुझसे न करो।" प्रेम का स्वर अभी भी तेज था।
"आप कहते हैं तो नहीं करती।"
प्रेम ने आँखें बंद कर लीं। चेहरे पर बेचैनी उभरी पड़ी थी।
"मैं जाती हूँ।" कहकर देवली पलटने लगी तो प्रेम कह उठा-
"सुनो!"
देवली ने ठिठककर प्रेम को देखा। प्रेम ने आँखें खोलकर उसे देखा और कहा-
"मुझे यूँ ही गुस्सा आ गया। मुझे तुम्हारे साथ इस तरह नहीं बोलना चाहिए था।"
"तो क्या हो गया जो आपको गुस्सा आ गया।" देवली मुस्कुरायी, "सबको ही आता है। मुझे लगता है कि यह सवाल करके मैंने आपको तकलीफ दी। पहले पता होता तो यह सब न पूछती।"
प्रेम ने मुस्कुराने की चेष्टा की।
"चलती हूँ। फिर आऊँगी।" देवली ने कहा और पलटकर दरवाजे की तरफ बढ़ गयी।
उसके मन में यह बात ठहर चुकी थी कि वास्तव में गड़बड़ है। वामा की मौत के पीछे रहस्य है। यकीनन उसकी हत्या की गई होगी। तभी तो प्रेम उसके पूछने पर हत्थे से उखड़ गया।
एकांत में पहुँचकर देवली ने जगत पाल को फोन किया।
"आ रहा हूँ।" उसकी आवाज सुनते ही जगत पाल कह उठा।
"कूरियर वाला बनकर उस तस्वीर को लिफाफे में।डाल बंगले के दरबान को दे जा।" देवली ने कहा।
"यह काम तो मैं एक घण्टे में कर देता हूँ। तू कानपुर कब...।"
देवली ने फोन बंद कर दिया।
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चूड़ा सिंह जैसलमेर का नामी आदमी था। पाँच साल पहले एक बार चुनाव जीत चुका था और अब दूसरी बार पुनः चुनाव में खड़ा हुआ था। परन्तु शनिका का भी चुनाव में खड़ा होना, उसके लिए परेशानी का सबब बन गया था। शनिका जैसलमेर और आस-पास के इलाकों में अच्छी तरह जानी-पहचानी जाती थी। उसके पास दौलत थी। जनता में उसके नाम का क्रेज था। इसलिए जनता का झुकाव चुनाव में रानी साहिबा की तरफ ज्यादा था।
चूड़ासिंह को विश्वास नहीं था कि वह जीतेगा। इसलिए चुनाव की भाग-दौड़ वह बेमन से कर रहा था। उसे इस बात का भी अहसास था कि शनिका खतरनाक औरत है।
कुल मिलाकर चूड़ासिंह को अपना पलड़ा हल्का दिखा। वह समझ नहीं पा रहा था कि रानी साहिबा को कैसे पछाड़े।
इस वक़्त शाम के चार बज रहे थे। चूड़ासिंह एक सभा में भाषण देकर कुछ देर पहले ही अपने चुनावी कार्यालय में लौटा था। कार्यकर्ताओं से बात करने के पश्चात उसने खाना खाया फिर पीछे बने कमरे में आराम करने चला गया। शाम आठ बजे एक अन्य सभा मे उसने भाषण देना था। घर जाने का तो जरा भी समय नहीं मिल पा रहा था।
आराम करते हुए चूड़ासिंह को आधा घण्टा बिता होगा कि उसका खास चमचा भीतर आया।
"चूड़ा जी!"
"आराम करने दे। बाद में आना।"
"कोई आपसे मिलने...।"
"शाम का वक़्त दे दे। कह दे नेताजी हैं ही नहीं यहाँ पर।"
"सब कुछ कह चुका हूँ।"
"तो फिर?"
"वह कहता है कि वह आपको चुनाव में जीता सकता है।"
"मतपेटियाँ लूटने वाले गिरोह से होगा। बोल दे इस तरह हेरा-फेरी करके मुझे नहीं जीतना।"
वह व्यक्ति खड़ा रहा। गया नहीं।
"जाता क्यों नहीं?"
"आप एक बार उससे मिल लीजिए नेताजी। उसके बात करने के ढंग में खामखाह वाली बात नहीं झलकती।"
"ठीक है। तेरी यही मर्जी तो उसे ले आ भीतर।"
वह व्यक्ति चला गया और आधे मिनट में ही अजय वालिया के साथ भीतर आया।
नेता और वालिया ने एक-दूसरे को देखा। चूड़ासिंह अपने आदमी से बोला-
"तू जा, मैं इससे बात कर लूँगा।"
वह आदमी चला गया।
"तुम चूड़ासिंह हो?" वालिया पास पड़ी खाली कुर्सी पर बैठता कह उठा।
"हाँ!" चूड़ासिंह ने उसे गहरी नजरों से देखा, "तुम तो यहाँ के नहीं लगते।"
"मैं मुम्बई का हूँ। मेरा नाम अजय वालिया है। मैं मुम्बई का जाना-माना बिल्डर हुआ करता था।"
"अब नहीं हो?"
"दो महीने से नहीं हूँ।" अजय वालिया मुस्कुराया।
चूड़ासिंह ने गहरी निगाहों से वालिया को देखते हुए कहा-
"तुमने मेरे आदमी से कहा कि तुम मुझे चुनाव जिता सकते हो।"
"हाँ!"
"लेकिन मैं किसी हेरा-फेरी से चुनाव जीतना ठीक नहीं समझता।"
"कोई हेरा-फेरी नहीं होगी।"
"तो तुम कैसे चुनाव में मुझे जीता देने का दावा करते हो?" चूड़ासिंह बोला।
"तुम्हारी सीधी टक्कर शनिका से है।"
"हाँ! सूरजपाल सिंह की मुझे परवाह नहीं है।"
"शनिका पैसे वाली है और ताकतवर है।"
"वह तो है।"
"मैं तुम्हें कुछ ऐसा दे सकता हूँ कि उसकी वजह से शनिका को बहुत कम वोट मिलेंगे।"
"क्या है तुम्हारे पास?" चूड़ासिंह की आँखें सिकुड़ी।
"तुम्हें जिताने का पूरा सामान है।" वालिया गंभीर था, "परन्तु शनिका, यह जान कर तुम्हारे खिलाफ बहुत कुछ कर सकती है।"
"जैसे कि?"
"वह तुम्हारी जान भी ले सकती है।"
चूड़ासिंह गंभीर हुआ।
"तुम जो भी करना, दिखाना चाहते हो, साफ-साफ कहो और अपने बारे में भी बताओ।"
"मैं शनिका का पति हूँ।"
"नहीं।" चूड़ासिंह चौंका, "उसका ब्याह तो प्रेम के साथ...।"
"दो महीने पहले मुम्बई में शनिका ने मेरे से शादी की थी।" वालिया मुस्कुराया।
"यह नहीं हो सकता। मैंने सुना है कि वह दो महीने अमेरिका में अपनी बहन के पास लगा कि आयी है।"
"वह अमेरिका नहीं गयी। मुम्बई में थी। मेरे से शादी की उसने। इस बात के मुम्बई में मेरे पास बहुत से गवाह हैं।"
"वह क्या पागल है जो इतने बड़े आदमी की पत्नी होते हुए तुमसे शादी...।"
"दीपचन्द को जानते हो?"
"हाँ! वह शनिका का मुँह बोला भाई है। मुम्बई में रहता है।"
"उसकी खातिर शनिका मुम्बई में मुझे बर्बाद करने पहुँची। तुम यह बातें छोड़ो। जो तुम्हारे काम की बातें हैं उसे सुनो। शनिका ने दो महीने पहले मेरे से मुम्बई में ब्याह किया था। मेरी पत्नी की तौर पर मेरे साथ भी रही। मेरे साथ हनीमून पर स्विट्जरलैंड भी गयी। अब तुम इन सब बातों का सबूत देखना चाहोगे चूड़ासिंह?"
"जरूर देखूँगा! इस तरह तो तुम्हारी बातों का विश्वास करूँगा नहीं।"
वालिया ने जेब से कुछ तस्वीरें निकालीं और सामने रख दीं। वह तस्वीरें शादी के वक़्त की थीं। हनीमून के वक़्त की थीं। वालिया और शनिका उसमें स्पष्ट नजर आ रहे थे। चूड़ासिंह ने तस्वीरें देखी तो खुशी से उछल पड़ा।
"वाह! अब तो मैं हर हाल में चुनाव जीत जाऊँगा। शनिका की शादी वाली तस्वीरों के पोस्टर छपवाकर पूरे जैसलमेर में बँटवा दूँगा। लोग थू-थू करेंगे उस पर कि एक पति के होते दूसरी शादी कर ली। उसे कोई वोट न देगा।"
वालिया मुस्कुराया।
"तुम्हारे पास इन तस्वीरों के नेगेटिव्स हैं?"
"सब कुछ है।"
"यह तो बहुत ही अच्छी बात है।" चूड़ासिंह की खुशी देखने लायक थी, "तुमने मेरी राहें आसान कर दी। वरना मैं तो परेशान था कि शनिका का पलड़ा भारी पड़ रहा है। क्या तुम चुनाव प्रचार में मेरे साथ रह सकते हो?"
"क्या जरूरत है?"
"जरूरत है।" चूड़ासिंह ने कहा, "शनिका ने तुमसे शादी की। जब इन तस्वीरों के पोस्टर लगेंगे तो लोग तुम्हें भी पहचान लेंगे। ऐसे में अगर तुम मेरे साथ रहो तो लोगों को भरोसा होगा कि यह असली मामला है। मैं कोई चाल नहीं चल रहा।"
"ऐसी बात है तो मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा।"
"लेकिन शनिका फिर तुम्हें मुम्बई छोड़ क्यों आयी?"
"मेरी वजह से दीपचंद अपने बेटे को बड़ा बिल्डर न बना पाए रहा था। शनिका ने दीपचन्द की मदद की खातिर, मेरे से चाल खेली। मेरे से शादी की। मेरे साथ रहकर मुझे बर्बाद कर दिया। उसने जब अपना काम कर दिया तो मुम्बई से निकलकर यहाँ जैसलमेर में आ पहुँची। परन्तु इत्तेफाक से मुझे पता चला कि वह यहाँ आयी है और मैं भी यहाँ आ गया।"
"समझ गया। सब कुछ समझ गया। अब मैं मैदान मार लूँगा। चुनाव जीतने के बाद मैं तुम्हें बढ़िया सा काम दिला दूँगा। आखिर तुमने मुझे जीतने का रास्ता दिखाया है।"
वालिया मुस्कुराकर रह गया।
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