रात को सबने मिलकर, इकट्ठे बैठकर खाना खाया | देवा जो डेढ़ सौ बरस बाद लौटा था। जिस खुशी के माहौल को वे भूला- बिसरा मानकर, भूल चुके थे, वहां हंसी और ठहाको का वक्त आज फिर उनके सामने था । घर के विशाल आंगन में ही चारपाईयां बिछाए सब खा रहे थे।
पन्द्रह कदम दूर घर की औरतें नीचे चादर बिछाए खाना खा रही थी । अकेली संध्या ही सबको खाना खिला रही थी, दाल- सब्जी-रोटी-पानी, जिसको जिस चीज की जरूरत होती, फौरन पूरी करती ।
देवराज चौहान उसकी बातों में बराबर हिस्सा ले रहा था । वो मान चुका था कि, वो इसी घर का सदस्य है और भी कई नई बातें घर के बारे में मन-म -मस्तिष्क में आ गई थी, बातें याद आती है ? परंतु मन का एक कोना परेशान था बीते वक्त को लेकर, गुजरते वक्त को देखकर । वह समझ नहीं पा रहा था कि डेढ़ सौ बरस पहले सवाल उसके पास थे परंतु जवाब नहीं था। जैसे भूली आज के था । और हुआ क्या
"हां ।" ताऊ हुकम सिंह बोला--- "पूरे डेढ़ सौ बरस बाद।"
"मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा । क्या हुआ था तब ?" देवराज चौहान ने हुक्म सिंह को देखा।
आखिरकार बात देवराज चौहान ने ही छेड़ी ।
"आप सब कह रहे हैं कि डेढ़ सौ बरस बाद लौटा हूं।"
हुकम सिंह, विश्राम सिंह और भागवत सिंह की नजरे मिली । दो पल के लिए वे खाना खाते-खाते ठिठके फिर पुनः खाना खाने लगे और विश्राम सिंह कह उठा ।
"देवा बेटा, हम तेरे को सारी बातें बताएंगे । लेकिन उससे पहले तू जो भी पूछना चाहता है, पूछ ले । जो रह जाएगी, वह हम बता देंगे।" विश्राम सिंह के चेहरे पर निगाहें टिकाए देवराज चौहान ने सिर हिलाया ।
"मैं डेढ़ सौ बरस बाद लौटा हूं तो आप सब लोग वैसे ही क्यों है ? जहां तक मुझे याद आता है मैंने पहले आप सबको ऐसे ही देखा था तो डेढ़ सौ बरस बीत जाने पर भी आप सब वैसे के वैसे ही क्यों हैं ? बूढ़े क्यों नहीं हुए और - और इतनी लंबी उम्र तो होती नहीं कि... | " कहने के पश्चात देवराज चौहान बारी-बारी उनके चेहरे देखने लगा ।
जवाब दिया ताऊ हुकम सिंह ने।
"तेरी बात सही है। लेकिन ये जिंदगी नहीं हम सजा भुगत रहे हैं। "
"सजा ?"
"हां।" हुकम सिंह पक्के स्वर में बोला--- "दालूबाबा ने अपने लालच की खातिर हमारी पूरी बस्ती को, हमारे बैलों, जानवरों, यहां तक कि सारे खेतों को भी तिलस्मी कैद में डाल दिया । साथ ही दालूबाबा ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल करके, हमारी जिंदगी या वक्त का पहिया हमारे लिए, वैसे का वैसा ही रुकवा दिया । कैद के वक्त जो जैसा था, वैसा ही रहेगा । न कोई मरेगा न कोई पैदा होगा। कोई बूढ़ा नहीं होगा। सबकी उम्र ठहर गई । किसी का एक बाल भी सफेद नहीं हुआ और किसी के सिर या मूंछों के बालों में भी बढ़ोतरी नहीं हुई । डेढ़ सौ बरस पहले जो बच्चा था, वो आज भी उसी तरह बच्चा ही है । जो बूढ़ा था वो बूढ़ा ही रहा । वो जवान था, जवान ही रहा। उत्पत्ति और सन्तति वहीं की वहीं रुक गई। मौत हो चुकी है हमारे लिए । खाना-पीना और सो जाना डेढ़ सौ बरस से हम यही जिंदगी जी रहे हैं । कभी सुना था कि दालूबाबा ने ये हमारे साथ ही नहीं पूरी नगरी के साथ किया है । हर जगह का समय चक्र इसने रोक दिया है।"
देवराज चौहान के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे ।
"ताऊ, तेरा मतलब कि डेढ़ सौ बरस से न कोई पैदा हुआ और न कोई मरा ?" "हां । हमारी मौत और जिंदगी रोक दी दालूबाबा ने ।"
"क्यों ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।
"क्योंकि मरने से पहले मिन्नो ने दालूबाबा को कहा था कि तेरी पूरी बस्ती कैद कर ले । अभी फैसला नहीं हो सका । फैसला करने के लिए वो दोबारा जन्म लेकर आएगी ।" विश्राम सिंह ने गंभीर स्वर में कहा ।
"किस बात का फैसला ? कोई झगड़ा हुआ था ? "
"हां मिन्नो से तेरा झगड़ा हुआ था ।"
"मिन्नो कौन है ?" देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े ।
"मिन्नो ।" चाचा भागवत का चेहरा गुस्से से भर उठा--- "वो नगरी तिलस्मी की मालकिन थी । ये सारा तिलस्मी उसी का बनाया हुआ है । वो खतरनाक योद्धा थी । लेकिन पहले वो कुछ नहीं थी । ये सारी शक्तियां उसे तब मिली वो तिलस्मी नगरी की देवी बन गई । तिलस्मी ताज उसके सिर पर रख दिया गया । और...और...।"
"भागवत ।" ताऊ हुकम सिंह ने टोका--- "ये बातें बाद में। तेरे को समझाया था।"
भागवत सिंह अपना गुस्से से भरा चेहरा लेकर खामोश हो गया ।
देवराज चौहान कुछ कहने ही वाला था कि विश्राम सिंह बोला ।
"जब पूरी बस्ती तिलस्मी में कैद हो गई तो गुरुवर ने दर्शन दिए और बोले ईश्वर पर भरोसा रखो । देवा एक दिन लौटेगा । वो ही तुम सबको इस तिलस्मी कैद से मुक्ति दलाएगा । हम जानते हैं गुरुवर कभी भी झूठ नहीं बोलते । सब कुछ गुरुवर और के सहारे छोड़कर हम तेरे इंतजार में दिन बिताने लगे। दिन क्या, सब कुछ तेरे सामने है । डेढ़ सौ बरस बीत गए । तेरे इंतजार में थक गए, तब आया तू।"
देवराज चौहान के चेहरे पर परेशानी सी नजर आने लगी ।
"लेकिन मेरी और मिन्नो की लड़ाई क्यों हुई ? मुझे कुछ याद नहीं । " "देवा ।" ताऊ हुकम सिंह कह उठा--- "सारी बातें अभी मत पूछ । रात गुजर जाएगी और तब भी बातें पूरी नहीं होंगी। अभी इतना ही बहुत है। तू आराम कर । सुबह बात होगी।" "ताऊ मैं---।"
"सुबह सब बता देंगे तेरे को । हो सकता है गुरुवर कृपा करें तो शायद रात में तेरे को कुछ और भी याद आ जाए । सारी बातें सुनकर तेरे दिमाग पर एकदम बोझ पड़े, वो तेरे लिए अच्छा नहीं होगा।"
ताऊ के शब्दों पर देवराज चौहान खामोश हो गया ।
उसके बाद बातों का रुख बदल गया । वो सब हंसी-खुशी आधी रात तक हंसी-मजाक की बातें करते रहे । देवराज चौहान भी बच्चा बना, उनके बीच बराबर शामिल रहा ।
और काली बिल्ली एक तरफ बैठी चमकती निगाहों से देवराज चौहान को देखे जा रही थी ।
******
आधी रात के बाद का वक्त हो रहा था ।
घरवाले तक गहरी नींद में डूब चुके थे।
देवराज चौहान को उस विशाल मकान की पहली मंजिल पर एक कमरे में यह कहकर सुलाया गया था कि ये उसी का कमरा है । यहीं पर वो कभी पहले सोया करता था । उस वक्त देवराज चौहान थकान और नींद महसूस कर रहा था, इसलिए उसने कमरे में पड़ी चीजों को दिन में देखने की सोचकर, बेड पर जा लेटा । सोचो में वही बातें थी जो खाने के दौरान ताऊ हुकम सिंह, पिता विश्राम सिंह और चाचा भागवत सिंह के साथ हुई थी।
वह जानता था कि जो उसे बताया जा रहा है । यकीनी तौर पर वो बिल्कुल सच है। सब कुछ समझ रहा था वो, परंतु अतीत की परछाइयों को मस्तिष्क में मौजूद धुंधलके की परत नै ढांप रखा था । बीते वक्त की याद आना बहुत जरूरी था, तभी तो वो अपने परिवार वालों को इस तिलस्मी कैद से मुक्त करा पाएगा ?
कल सुबह बताएंगे वो, उस बीते वक्त की सब बातें ।
इन्हीं सोचों में देवराज चौहान नींद में डूबता चला गया ।
उस वक्त जाने कितना बजा था, जब देवराज चौहान की नींद हल्के से झटके के साथ खुल गई । आंख खुलते ही उसकी निगाह काली बिल्ली पर पड़ी, जो उसकी छाती पर बैठी चमकदार निगाहों से उसे देख रही थी ।
तभी बिल्ली ने अपना पंजा हौले से उसकी छाती पर मारा और फर्श पर कूद गई ।
देवराज चौहान समझ गया कि वो उसे साथ आने को कह रही थी । अब देवराज चौहान को बिल्ली के इशारे पर चलने के लिए, सोच की जरूरत नहीं थी । वह जान चुका था कि बिल्ली उसका बुरा नहीं चाहती।
देवराज चौहान चारपाई से उतरा और बिल्ली को देखा । उसे अपनी तरफ देखता पाकर, बिल्ली दरवाजे की तरफ बढ़ी तो देवराज चौहान उसके पीछे चल पड़ा । सीढ़ियों से उतरकर बिल्ली उसे नीचे ले आई फिर बाहरी गेट की तरफ बढ़ी |
देवराज चौहान उसके पीछे था ।
मकान के आंगन में, पांच-छः चारपाइयों पर, गहरी नींद में डूबे थे। अंधेरे में स्पष्ट नहीं नजर आ रहा था कि वहां कौन-कौन सोया पड़ा था ।
बिल्ली के पीछे चलता, उनके बीच से गुजरता देवराज चौहान गेट से बाहर निकलता चला गया । पूरी बस्ती में इस वक्त अंधेरा था । कहीं-कहीं लाइट जलती नजर आ रही थी । देवराज चौहान बिल्ली के पीछे चलता रहा, यह सोचकर कि, वह उसे किसी खास जगह ले जा रही है ।
जाने कितना, वक्त बीत गया, इस तरह चलते-चलते । दिन की रोशनी उभर आई थी ।
देवराज चौहान पूछना चाहता था कि वो उसे कहां ले जा रही है, परंतु बिल्ली से किसी तरह के जवाब की अपेक्षा करना बेकार था। उसे घर वालों की चिंता हो रही थी कि सुबह उठने पर उसे घर पर मौजूद नहीं पाएंगे तो, चिंता करने लगेंगे । उसे ढूंढने लगेंगे । परंतु बिल्ली का साथ छोड़ कर उसे वापस भी नहीं ले जा सकता था । वहां उसे अवश्य खास जगह ले जा रही होगी ।
देवराज चौहान काली बिल्ली के पीछे चलता रहा ।
सूर्य भी सिर पर चढ़ने लगा था ।
चलते चलते अब शरीर पर पसीना उभरने लगा था । उस बस्ती से वो जाने कितनी दूर निकल आया था बिल्ली के पीछे चलते-चलते।
तब दिन का एक बज रहा होगा, जब बिल्ली वहां पहुंची।
वहां जंगली बड़ी-बड़ी घास फैली थी । पेड़ खड़े नजर आ रहे थे । या फिर छोटे-छोटे जंगली पौधे । उनके बीच एक बस्ती नजर आ रही थी जोकि पूरी तरह उजड़ चुकी थी । वहां के मकानों के खंडहर भी अब गिरने शुरू हो चुके थे । बस्ती के अस्पष्ट से, गुम हो रहे रास्तों का कभी-कभी एहसास हो जाता था ।
बिल्ली के साथ लिए, बस्ती के उन्हीं अस्पष्ट हो रहे रास्ते से गुजरने लगी ।
देवराज चौहान सोच भरी निगाह से आसपास देखता जा रहा था और रह-रहकर उसके मस्तिष्क में अजीब तरह की बिजली कौंध रही थी । कभी-कभी उसे अहसास होने लगता कि ये बस्ती पूरी तरह उसकी देखी-भाली है। सारे रास्तों से वाकिफ है। यहां जाने कितनी बार आ चुका है और कभी ये सारी सोचें-यादें उसके मस्तिष्क से गायब हो जाती है और लगता यहां पहली बार आया है । सब कुछ उसके मस्तिष्क में गुड़मुड़ हो रहा था और दिमाग को जकड़ा-सा महसूस करने लगता ।
बिल्ली उसे खंडहर हो चुकी बस्ती के बीचो-बीच बने एक चबूतरे पर ले आई । चार फीट ऊंचा था वो चबूतरा और उस पर चढ़ने के लिए चार टूटी-फूटी सीढ़ियां नजर आ रही थी । बिल्ली ने ठिठककर क्षण भर के लिए देवराज चौहान को देखा फिर सीढ़ियां चढ़कर चबूतरे पर आ गई ।
देवराज चौहान ने भी उन सीढियों को तय किया और चबूतरे पर जा पहुंचा। बिल्ली चबूतरे के ठीक बीचो-बीच मौजूद पत्थर की टूटी-फूटी कुर्सी पर छलांग लगाकर बैठ गई । उसके बाद काली बिल्ली ने उछाल भरी और देवराज चौहान के कंधे पर आ बैठी। St
देवराज चौहान समझ गया कि बिल्ली उसे कुर्सी पर बैठने को कह रही है । उसे खड़ा पाकर, कंधे पर बैठी बिल्ली ने उसे हौले से पंजा मारा ।
वो उसे आगे बढ़ने को कह रही थी ।
देवराज चौहान आगे बढ़ा और कुर्सी पर जा बैठा ।
दो पल भी नहीं बीते होंगे कि एकाएक कुर्सी सहित चबूतरे का वो सारा हिस्सा जमीन में धंसने लगा । देवराज चौहान की आंखे सिकुड़ी परंतु शांत सा कुर्सी पर बैठा रहा । आधे घंटे में ही वो चबूतरा इतना नीचे धंस गया कि खंडहर हुई बस्ती नजर आनी बंद हो गई । देवराज चौहान ने सिर उठा कर ऊपर देखा तो, ऊपर आसमान नजर आ रहा था।
ऐसा लग रहा था जैसे चबूतरा किसी कुएं में उतर रहा हो।
करीब पांच मिनट बाद वो चबूतरा इतनी नीचे जाकर रुका कि सिर से ऊपर उठाकर देखने पर उस घेरे में आसमान जैसे किसी चंद्रमा की तरह नजर आ रहा था । जहां वो चबूतरा रुका था, वहां ठीक सामने सीढ़ियां नजर आ रही थी। कंधे पर बैठी बिल्ली ने उछाल भरी और सीढ़ियों पर पहुंचकर, उस पत्थर की जर्जर हो चुकी कुर्सी पर बैठे देवराज चौहान को देखने लगी।
देवराज चौहान बिल्ली का इशारा समझा और कुर्सी से उठकर आगे बढ़ा और चबूतरा छोड़कर सीढ़ियों पर जा पहुंचा । सीढ़ी पर पहुंचते ही चबूतरा अपनी जगह से हिला और फिर वापस, ऊपर उठने लगा । देवराज चौहान के देखते ही देखते चबूतरा निगाहों से ओझल हो गया। सामने दीवार नजर आ रही थी जो ऊपर को सरक रही थी, यानी कि चबूतरे के ठीक ऊपर पहुंचने पर सरकती दीवार रुक जाएगी।
सीढ़ियों पर पर्याप्त रोशनी थी ।
देवराज चौहान ने काली बिल्ली को देखा तो बिल्ली पलटकर आगे बढ़ने लगी । सीढ़ियां ऊपर की तरफ जा रही थी । देवराज चौहान चेहरे पर गंभीरता ओढ़े बिल्ली के पीछे सीढ़ियां तय करने लगा ।
कुछ आगे, ऊपर जाने के बाद सीढ़ियां समाप्त हो गई आगे सपाट गैलरी भी नजर आने लगी, जिसका अंत कहीं भी नजर नहीं आ रहा था। उसकी मार्गदर्शक बनी काली बिल्ली आगे-आगे चलती रही और वो पीछे-पीछे।
ये चलने का सिलसिला साढ़े तीन घंटे तक जारी रहा ।
देवराज चौहान को थकान और भूख महसूस होने लगी थी। वो आधी रात से पैदल चल रहा था । कहीं भी आराम नहीं किया था और इस वक्त शायद दिल ढलने को आ रहा था, परंतु पेट के भीतर कुछ भी नहीं गया ।
साढ़े तीन घंटे के बाद जब वो गैलरी समाप्त हुई तो सामने बेहद खूबसूरत सोने की नक्काशी वाला दरवाजा था । देवराज चौहान की निगाह दरवाजे पर जा टिकी ।
"म्याऊं ।"
काली बिल्ली की आवाज सुनकर देवराज चौहान ने उसे देखा ।
बिल्ली उछली और छलांग मारकर दरवाजे से टकराई और फर्श पर आ गई।
स्पष्ट तौर पर वो देवराज चौहान को दरवाजा खोलने को कह रही थी ।
चेहरे पर गंभीरता समेटे देवराज चौहान आगे बढ़ा और बंद दरवाजे को धकेला परंतु वो नहीं खुला । उसने पुनः कोशिश की, लेकिन दरवाजा नहीं खुला।
"म्याऊं।"
बिल्ली की आवाज पर देवराज चौहान ने उसे देखा ।
देखते ही देखते बिल्ली उछली और देवराज चौहान की आंखें हैरानी से फैल गई। जाने कैसे वो अपने पंजों के दम पर दरवाजे से इस तरह चिपक गई थी, जैसे फर्श पर खड़ी हो । परंतु यह सोचकर फौरन ही देवराज चौहान ने खुद पर काबू पाया कि ये सामान्य बिल्ली न होकर, असाधारण शक्तियों की मालकिन है।
बिल्ली ने गर्दन घुमाकर देवराज चौहान को देखा । वो बिल्ली को ही देख रहा था । बिल्ली ने अपना दाया पंजा उठाकर, दरवाजे पर लगे सोने के टुकड़े पर मारा, फिर देवराज चौहान को देखा और पुनः उछलकर नीचे आ गई। उसकी चमक भरी निगाह देवराज चौहान पर टिकी थी ।
देवराज चौहान ने हाथ बढ़ाकर, उस सोने के पीस को देखा जो एक ईंच लंबा-चौड़ा था और दरवाजे के ठीक बीचो-बीच लगा, सोने की नक्काशी का ही हिस्सा लग रहा था । बिल्ली इस पीस पर हाथ मारकर उसे क्या कहना चाहती है ? यूं ही तो कोई हरकत करने से रही।
सोने का वो पीस दरवाजे से चिपका हुआ था । उसको टटोलते देवराज चौहान के हाथ की उंगलियों को जब लगा कि वो हिल रहा है तो, देवराज चौहान ने उसे गोलाई में घुमा दिया । देखते ही देखते वो सोने का पीस उलटा हो गया ।
"म्याऊं।"
देवराज चौहान ने वहां से हाथ हटाकर बिल्ली को देखा ।
तभी वो बंद दरवाजा एकाएक खुलने लगा ।
बिल्ली उसे ही देख रही थी ।
देवराज चौहान समझ गया कि पुकारकर बिल्ली ने उसे और हाथ लगाने को मना किया था ।
दरवाजा पूरा खुल चुका था । बिल्ली आगे बढ़ी और दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गए । देवराज चौहान भी उसके पीछे, कमरे में प्रवेश कर गया । उसकी निगाह पूरे कमरे में घूम गई।
यह कमरा भी वैसा ही था, जैसा बिल्ली के साथ, पहले एक कमरा मिला था । कमरे में टेबल पर गर्म खाना मौजूद था । एक तरफ आराम करने को चारपाई थी । परंतु यहां कहीं भी उसका बुत नहीं था, जैसा कि पहले वाले कमरे में था।
तभी बिल्ली उछली और खाने की टेबल के पास मौजूद कुर्सी पर जा बैठी।
"म्याऊं।" बिल्ली ने देवराज चौहान को देखा ।
देवराज चौहान की निगाह बिल्ली पर गई तो वो कुर्सी से नीचे आ गई । देवराज चौहान ने बिल्ली का इशारा समझा और सोच भरे ढंग में आगे बढ़ाओ कुर्सी पर बैठकर खाना खाने लगा। बिल्ली एक तरफ दीवार के पास जा बैठी, उसे देखने लगी।
खाने के दौरान देवराज चौहान को अपने परिवार वालों का ध्यान बार-बार आ रहा था । आंखों के सामने हुकम सिंह, विक्रम सिंह, भागवत सिंह, किशना, सोमवती, माया, दर्शना और संध्या के चेहरे घूम रहे थे कि सुबह उसे मौजूद न पाकर, वो अब तक परेशान हो रहे होंगे। इन्हीं सोचों में देवराज चौहान ने खाना समाप्त किया और उठ खड़ा हुआ । काली बिल्ली को देखा ।
वो वैसे ही बैठी उसे देख रही थी ।
देवराज चौहान बिछी चारपाई की तरफ बढ़ गया और उस पर जा लेटा । करीब बारह घंटे लगातार चला था वह, शायद कुछ ज्यादा ही । लिखने के कुछ देर बाद ही वह नींद में जा डूबा और जब आंख खुली तो, समझ नहीं पाया कि कितनी देर कि उसने नींद ली है।
देवराज चौहान उठ बैठा ।
कमरे सब कुछ वैसा ही था । बिल्ली वैसे ही उसी जगह बैठी उसे देख रही थी । परंतु दो आंखें और थी जो उसे देख रही थी ।
फकीर बाबा की आंखें।
वो शांत मुद्रा में एक तरफ खड़े उसे देख रहे थे । चेहरे पर गंभीरता थी ।
"बाबा आप ?" देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ --- "आप यहां कैसे ?"
"मैं तो कहीं भी आ-जा सकता हूं । तिलस्म में भीतर भी, बाहर भी ।" फकीर बाबा ने शांत स्वर में कहा।
देवराज चौहान कुछ पलों तक फकीर बाबा को देखता रहा।
"आपका इस तिलस्मी नगरी से क्या रिश्ता है ?" देवराज चौहान बोला ।
"वक्त आने पर तेरे कोई सवाल का जवाब मिलेगा ।"
"यहां की नगरी से आपका क्या वास्ता है ?"
"देवा ।" फकीर बाबा का स्वर गंभीर था--- "मैं तिलस्मी नगरी का ही वाशिंदा हूं।" "यहां क्या हैसियत है आपकी ?"
"इस बात का जवाब भी वक्त देगा।"
देवराज चौहान की निगाह बराबर फकीर बाबा पर टिकी थी ।
"आप मुझे इस तिलस्मी नगरी में क्यों ले आए ?"
"तुम्हारी और मिन्नो की दोस्ती कराने के लिए---"
"इसका मतलब वो ताज लाने का बहाना झूठा था ।" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।
"मैं झूठ नहीं कहता । ताज लाने वाली बात अपनी जगह कायम है ।" फकीर बाबा का स्वर गंभीर था ।
"आप जानते हैं, यहां पर मेरे साथ क्या बीती । यहां...।"
"मेरी निगाहों से कोई भी ओझल नहीं है। मैं सब कुछ देख सकता हूं।" "तो वो लोग पहुंचे जो-जो...।"
"चौधरी विश्राम सिंह की बात कर रहा है देवा ?" फकीर बाबा ने टोका ।
"हां। और पूरे घर वालों की बात कर रहा हूं। उस बस्ती की बात कर...।"
"देवा ।" फकीर बाबा ने टोका--- " मैंने तुम्हें कहा था कि ये तुम्हारा तीसरा जन्म है, मिन्न के साथ दुश्मनी भरा और जिस परिवार में तुम रिश्ते-नातों से जुड़े । वो सब तुम्हारे पहले जन्म के परिवार वाले हैं। तुम कभी उसी बस्ती में रहा करते थे।"
"और मेरे पहले जन्म के परिवार वाले अभी तक जिंदा है।" देवराज चौहान के होंठ भिंच गए।
"हां ।"
"बस्ती वाले भी जिंदा है ? "
"हां।"
"उन सबको तिलस्म में कैद कर रखा है। "
"हां । तुम्हारे परिवार वाले, बस्ती वाले सब तिलस्म में कैद हैं । उन्हें देवा के आने का इंतजार था । क्योंकि देवा ही तिलस्म को तोड़कर, अपने पहले जन्म के परिवार वालों और बस्ती वालों को सामान्य जिंदगी दे सकता है।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा।
देवराज चौहान के दांत भिंच गए। वो दांत भींचकर कह उठा ।
"मैं पागल हो जाऊंगा बाबा । सब कुछ मुझे साफ-साफ बताओ कि...।" "मैं कुछ नहीं बताऊंगा। लेकिन तुम्हारे सवालों का जवाब अवश्य दूंगा।" फकीर बाबा ने कहा ।
देवराज चौहान गुस्से से तपते चेहरे के साथ, कई पलों तक खड़ा रहा।
"आपने मेरे परिवार वालों को, बस्ती वालों को तिलस्म मैं कैद कर रखा है ? "
"नहीं।"
"लेकिन आप उन्हें आजाद तो करवा सकते...।"
"नहीं। मैं कुछ भी नहीं कर सकता । जिसके नाम से तिलस्म बांधा हो, वही तिलस्म तोड़ सकता है ।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा--- "और वो तिलस्म में तुम्हारे परिवार वाले, बस्ती वाले कैद है । वो तुम्हारे और मिन्नो के नाम से बंधा है। उसे तुम और ही मिन्नो ही मिलकर तोड़ सकते हो । तब ही वो आजाद होंगे।"
"ओह । यह तिलस्म किसने बांधा था ?"
"दालूबाबा ने और उसे ऐसा करने को मिन्नो ने ही कहा था।" फकीर बाबा ने बताया ।
देवराज चौहान के चेहरे पर परेशानी के भाव नजर आए ।
"आखिर मालूम तो हो कि मिन्नो, पहले जन्म में कौन थी । मेरा उससे क्या और क्यों झगड़ा हुआ था । मेरे परिवार और बस्ती वालों का इस तरह तिलस्म में क्यों किया गया ? और उसे नगरी में देवी क्यों कहा जा रहा है? कुछ भी तो नहीं मालूम मुझे ।"
"सब कुछ जानना चाहते हो ?" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा ।
"हां । "
"तो तुम्हें मिन्नो के साथ दुश्मनी छोड़कर, दोस्ती करनी होगी । उसके बाद तुम्हें सब सवालों का जवाब मिल जाएगा । याद रखना, मिन्नो से दोस्ती किए बिना, तुम अपने परिवार और बस्ती वालों को तिलस्मी कैद से छुटकारा नहीं दिला सकते ।" फकीर बाबा पहले वाले ही स्वर में कह रहे थे--- "तुम अपने परिवार वालों से मिले। उनकी मजबूरियां देखी । उनका प्यार देखा । क्या तुम नहीं चाहते कि वो सब कैद से मुक्त होकर सामान्य जिंदगी बिताएं।"
"मैं उन्हें कैद से आजाद करवाना चाहता हूं।"
"तो फिर तुम्हें उस कैद का तिलस्म तोड़ना होगा, जो कि मिन्नो की सहायता के बिना नहीं तोड़ सकते । क्योंकि तिलस्म का वो हिस्सा तुम्हारे और मिन्नो के नाम से बांधा गया है । " देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।
"एक बात तो बताओ बाबा ।
"क्या ?"
"आपने कहा कि मिन्नो के कहने पर, दालूबाबा ने तिलस्म बांधकर मेरे परिवार वालों और बस्ती वालों को कैद किया। यही कहा था आपने ?" देवराज चौहान बोला । "हां ।
"तो मिन्नो ने तिलस्म तोड़ने में मेरे साथ अपना नाम क्यों डाला ?"
फकीर बाबा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी ।
"ताकि मिन्नो अधूरे पड़े फैसले को पूरा कर सके।"
"कैसा फैसला ?"
"तुम दोनों के झगड़े का । लड़ाई का । अगर तुम सिर्फ तुम्हारे नाम से कैद वाला तिलस्म होता तो तुम शायद उन्हें आजाद करवा चुके होते । तिलस्म तोड़ चुके होते। मिन्नो ने अपना नाम तिलस्म तोड़ने में इसलिए डाला कि उसका और तुम्हारा सामना हो सके ।"
देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे ।
"बाबा । तुमने बताया था कि हर बार हम झगड़ा करके एक-दूसरे को मार देते हैं ?"
"हां ।"
"पहले जन्म में भी मरे थे ?"
"हां ।" फकीर बाबा के चेहरे पर दुख नजर आने लगा--- "मेरी ही गलती की वजह से झगड़ा बढ़ा । तभी तो गुरुवर के हिसाब से श्राप से मैं आज तक भटक रहा हूं।"
"जब मिन्नो मरी तो उसे मालूम था कि दोबारा जन्म लेकर वह और मैं यहां आएंगे ?"
"हां । मालूम था उसे । तब वो बहुत शक्तियों की मालिक बन चुकी थी । लेकिन उसका गुस्सा और सब कुछ ले डूबा। उधर तुम उससे कम नहीं थे । बरबादी तो होनी ही थी । मरते हुए भी उसी गुस्से में उसने दालूबाबा को तुम्हारे परिवार और बस्ती वालों को तिलस्म मैं कैद कर देने को कहा और तिलस्म तोड़ने के लिए तुम्हारे साथ अपना नाम भी लगा लिया कि इसी बहाने तुम उससे मिलोगे तो वो तुमसे हिसाब बराबर करेगी ।"
"ऐसा है तो फिर मैं मिन्नो के साथ दोस्ती कैसे कर सकता हूं । वो मेरे साथ मिलकर उस कैद वाले को तिलस्म को तोड़कर उन सबको आजाद क्यों करवाएगी।" देवराज चौहान ने कहा
"तू ठीक रहता है देवा । लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है । वक्त को बदलते देर नहीं लगती।"
"बाबा आपकी उलझन भरी बातें मेरी समझ से बाहर है।"
"वक्त के साथ तेरे को हर बात का जवाब मिलेगा । अपने परिवार और बस्ती वालों को दुखों से निकालना चाहता है तो मिन्नो के साथ दोस्ती कर ले । उसके साथ ले ले । तभी वो तिलस्म टूट पाएगा।"
"और वो ताज ?"
"ताज वाली बात अपनी जगह कायम है।"
देवराज चौहान, फकीर बाबा को देखता रहा ।
"उलझन में क्यों पड़ गया देवा ?"
"बाबा । आपके जवाब ही मुझे उलझन में डाल रहे हैं। मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि आप मुझे स्पष्ट जवाब नहीं दे रहे । आपके जवाबों से मेरे सवाल और उलझ रहे हैं ?"
फकीर बाबा मुस्कुराए ।
"जिन सवालों का जवाब तेरे को आने वाले वक्त में मिलने वाला है, उसके बारे में मुझसे पूछ कर क्या करेगा ? किसी से भी कुछ मत पूछ । सब कुछ तेरे सामने आता, चला जाएगा ।"
"बेला कौन हैं, आप उसे जानते हैं बाबा ?"
जवाब में फकीर बाबा के चेहरे पर भेद भरी मुस्कान उभरी। कहा कुछ नहीं।
"बताओ बाबा, कौन है बेला ? " देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े।
"मैं चलता हूं देवा । फिर मिलूंगा।"
"लेकिन बाबा...।" देवराज चौहान के शब्द होठों में ही रह गए ।
उसके देखते ही देखते फकीर बाबा, हवा बनकर गायब हो चुके थे। देवराज चौहान कई पलों तक ठगा-सा रह गया । उसके मस्तिष्क में उमड़े सवाल जहां के तहां खड़े थे । फकीर बाबा उसके सवालों के आधे-अधूरे जवाब देकर जा चुके थे । कुछ पलों बाद सोच भरे अंदाज में सिर घूमाया तो चौंका फिर तुरंत ही संभल गया ।
एक दरवाजे से वो भीतर आया था, परंतु दूसरी तरफ अब एक और दरवाजा नजर आ रहा था, जो पहले नहीं था । वो दरवाजा बंद था। देवराज चौहान ने बिल्ली को देखा तो वो काली बिल्ली अपनी जगह से उठी और उसी नए दरवाजे की तरफ बढ़ गई । पास पहुंचकर उसने दरवाजे पर पंजा मारा और गर्दन घुमाकर देवराज चौहान को देखा।
उसका मतलब समझ कर देवराज चौहान आगे बढ़ा और हाथ बढ़ाकर दरवाजे को धकेला । दरवाजा खुलता चला गया ।
और सामने जो नजर आया वो देवराज चौहान को हक्का-बक्का कर देने के लिए काफी था। उसकी नजरें धोखा नहीं खा सकती थी ।
वो मोना चौधरी ही थी।
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पिंडली में लिपटी जंजीर ने जब मोना चौधरी को नीचे खींचा तो वह हड़बड़ा उठी । वह समझ नहीं पाई कि क्या हो गया है । जंजीर जहां पहुंची, वहां तीव्र प्रकाश फैला हुआ था । वो उल्टी नीचे लटक रही थी । जब देखने के काबिल हुई तो, भय से भरी झुरझुरी सी बदन में दौड़ती चली गई ।
उसने खुद को तालाब के ऊपर अटकती पाया और वो तालाब मगरमच्छों से भरा पड़ा था । लंबे-सेहत वाले खतरनाक मगरमच्छ थे, जिनके नुकीले दांत चमक रहे थे। यूं तो वो सब आराम से तालाब में और तालाब के बाहर आराम से पड़े थे, परंतु उसके नीचे लटकते ही तालाब में हलचल पैदा हो गई । उसके पानी में तैरने की आवाजें आने लगी। कई मगरमच्छों ने अपने मुंह खोल लिए ।
मोना चौधरी की पिंडली पर जंजीर लिपटी थी और उल्टी नीचे लटकी थी । उसकी एक टांग और दोनों हाथ आजाद थे । तालाब के पानी से वो सिर्फ चार फीट ऊपर थी ।
तभी एक मगरमच्छ पूरा मुंह खोले, पानी से ऊपर की तरफ उछला ।
लेकिन अपने भारी शरीर की वजह से वो ढाई फीट से ज्यादा नहीं उछल सका । जबकि मोना चौधरी को उस वक्त लगा था कि उसका सिर अपने मुंह में ले लेगा । मगरमच्छ वापस पानी में जा गिरा।
इसके साथ ही कई मगरमच्छ उसके सिर के नीचे पानी में इकठ्ठे होने लगे । मोना चौधरी को अपनी दर्दनाक मौत स्पष्ट नजर आ रही थी । वो जानती थी कि आखिरकार जीत मगरमच्छों की ही होनी थी । कब तक वो इस तरह लटके बची रह सकती है। कोई न कोई मगरमच्छ उसके सिर को अपने मुंह में दबाकर चला जाएगा ।
मोना चौधरी अपने बचाव का रास्ता सोच रही थी कि बदन में ठंडी सिरहन दौड़ गई । उसे स्पष्ट तौर पर महसूस हुआ की पिंडली में लिपटी जंजीर के बल खुलने शुरू हो गए हैं। यानी की जंजीर खुलते ही वो सीधे मगरमच्छों की गोद में जा गिरेगी और मगरमच्छ मिनट भर में ही उसे चीर-फाड़ देंगे।
मोना चौधरी हड़बड़ाकर, जल्दी से बचने का रास्ता सोचने लगी ।
अगले ही पल वह जंजीर धीरे-धीरे झूलने लगी । तालाब बहुत ज्यादा गोलाई लिए हुए था । कूदकर तालाब के किनारे भी नहीं पहुंचा जा सकता था । अगर किनारे पर उतरा भी जाए तो ज्यादा देर बचा नहीं जा सकता, क्योंकि तालाब के आसपास दीवारें उठी हुई थी। कहीं कोई दरवाजा नहीं था। यानी कि वहां से बाहर भी नहीं जाया जा सकता था । देरसवेर में मगरमच्छों ने उसे चबा जाना था ।
जंजीर पर झूलना तेज हो गया था ।
पिंडली से हटती जंजीर भी धीरे-धीरे खुल रही थी।
एकाएक मोना चौधरी ने अपने शरीर को झटका दिया झूलता हुआ उसका शरीर तेजी से ऊपर की तरफ उठा और दोनों हाथ जंजीर पर जा टिके । अब वो मगरमच्छों की पहुंच से दूर हो चुकी थी ।
उसने जंजीर को ऊपर से थाम लिया था । पिंडली पर लिपटी जंजीर धीरे-धीरे खुलती जा रही थी और एक वक्त ऐसा भी आया की पिंडली से जंजीर हटकर, लटकने लगी और मोना चौधरी जंजीर थामें लटकी हुई थी। उसके लटकने की जगह से, भी लटकती जंजीर नीचे तक जा रही थी ।
मोना चौधरी ने गर्दन आगे करके नीचे देखा ।
नीचे इकठ्ठे होकर मगरमच्छ ऊपर को देखते अभी भी, उसके नीचे आने का इंतजार कर रहे थे।
मोना चौधरी ने वहां से निगाहें हटाई और होंठ भींचे आसपास देखा । वह किसी बड़े से कुवैत जैसी जगह में लटक रही थी। सौ फीट का घेरा होगा उस जगह का। हर तरफ उठी उठी दीवारें थी । उसने सिर उठा कर ऊपर की तरफ देखा ।
काफी ऊंचे जहां से जंजीर लटक रही थी, वहां छत के जैसी जगह थी ।
यानी कि कहीं से भी बाहर नहीं निकला जा सकता । दाएं बाएं और ऊपर । सब तरफ से रास्ते बंद थे । सिर्फ एक रास्ता बचा था । मौत का रास्ता, जो कि जंजीर छोड़ते ही मिल जाना था । सीधे नीचे और फिर भूख से लपलपाते मगरमच्छों के पेट में। a
बचने के लिए जरूरी था कि जंजीर को सख्ती से दोनों हाथों से पकड़े रहना ।
लेकिन कब तक ?
कब तक वो पकड़े रह सकेगी जंजीर को। कितनी देर लटकी रह सकेगी । अगर कोई रास्ता न मिला तो, एक वक्त अवश्य ऐसा आएगा, जब उसके हाथ जंजीर से छूट जाएंगी और वह तालाब में मौजूद मगरमच्छों के ऊपर जा गिरेगी।
यानि कि कोई न कोई रास्ता निकालना होगा बचने का ।
वरना उसे मौत से कोई नहीं बचा सकता ।
बचने के लिए मोना चौधरी की बेचैन निगाह हर तरफ फिरने लगी।
मोना चौधरी को नहीं मालूम हो सका कि दोनों हाथों से जंजीर थामें वो कब से लटकी हुई है । लेकिन इतना अंदाजा तो हो ही चुका था कि इस तरह लटके उसे एक-डेढ़ दिन बीत चुका था। उसके हाथ और उंगलियां सुन्न सी हो रही थी । हाथों में जगह जगह छाले पड़ गए थे। जंजीर पर लिपटी उंगलियों की गिरफ्त, पसीने और छालों की वजह से कभी-कभी ढीली होने लगती । ऐसे में मोना चौधरी सतर्क हो जाती और सारा दुख-दर्द भूल कर जंजीर को कसकर थाम लेती, क्योंकि नीचे मौत उसका इंतजार कर रही थी ।
तालाब में मौजूद मगरमच्छ कब से टकटकी लगाए उस पर निगाहें टिकाए बैठे थे । एक-दो मगर तालाब से निकलकर किनारे पर जा बैठे थे । परंतु बाकी के अभी भी उत्साहित है। रह-रहकर वे पानी से मोना चौधरी की तरह उछलते, जो काफी ऊंची लटक रही थी । यकीनन उन्हें उसके नीचे गिरने का इंतजार था और शायद उन्हें एहसास हो रहा कि देर सवेर में वो नीचे अवश्य गिरेगी ।
मोना चौधरी को बचने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।
वो समझ चुकी थी कि देर-सबेर में उसे मौत ही मिलनी है। वह नीचे गिरेगी मगरमच्छ उसे चीर-फाड़ कर खा जाएंगे। क्योंकि अब हाथों की उंगलियों और हाथों में बेपनाह दर्द उठने लगा था । कलाइयों का ही नहीं, पूरे शरीर का बुरा हाल होने लगा था अब । ज्यादा देर इस तरह हवा में नहीं लटका रहा जा सकता था और उससे लटके करीब डेढ़ दिन हो चुका था। और SE
मन ही मन मोना चौधरी ने हिसाब लगाया कि अब वो पांच-सात घंटों से ज्यादा जंजीर थामें लटकी नहीं रह सकती । तब उसके हाथों और कलाइयों में इतनी शक्ति नहीं बचेगी की वो जंजीरों थामें रहे। मोना चौधरी ने पुनः नीचे देखा कि क्या जंजीर छोड़ने के बाद वो बच पाएगी ?
तालाब में मौजूद मगरमच्छों का रौद्र रूप देखते ही समझ गए कि उनसे नहीं बच सकती। इन्हीं सोचो-विचारों में दो घंटे बीत गए कि एकाएक उसे कमर में फंसे खंजर का ध्यान आया । इसके साथ ही उसकी आंखों में तीव्र चमक लहरा उठी । मोना चौधरी ने दोनों टांगों को जंजीर के गिर्द लपेटा । फिर बाएं हाथ और हाथ की कलाई को सख्ती से जंजीर पर जकड़ा और फुर्ती के साथ दांया हाथ छोड़कर कमर में, पैंट के साथ फंसा रखे खंजर की तरफ बढ़ा और खंजर निकालकर हाथ वापस आ गया जंजीर पर ।
खंजर हाथ में आते ही, मोना चौधरी ने राहत महसूस की। उसे पूरा विश्वास था कि खंजर कोई चमत्कार दिखाएगा और जैसे भी हो उसे बचा ले जाएगा ।
"ऐ खंजर ।" खंज़र को मुठ से थामे मोना चौधरी बुदबुदा उठी --- "मुझे इस मुसीबत से बचा।"
पल बीता । दो पल बीते ।
आधा मिनट बीत गया । परंतु कुछ नहीं हुआ।
मोना चौधरी खंजर की मूठ थामें पुनः बुदबुदाई ।
"खंजर मुझे इस मुसीबत से बचा। इन मगरमच्छों से मुझे बचा ।"
इस बार भी वही हुआ, जो पहले हुआ था।
खंजर से कोई चमत्कार नहीं हुआ । ऐसा कोई करिश्मा नहीं हुआ कि जो मोना चौधरी को बचा पाता।
मोना चौधरी समझ गई कि खंजर ने उसे कोई सहायता नहीं मिल पा रही । वह नहीं समझ पाई खंजर ने हर कदम पर सहायता की, परंतु यहां उसकी सहायता क्यों नहीं कर रहा । किसी तरह मोना चौधरी ने खंजर को वापस पैंट में, कमर पर फंसाया । तभी मोना चौधरी का हाथ फिसला ।
वो तेजी से नीचे की तरफ गिरी ।
मोना चौधरी की आंखों के सामने मौत नाची ।
उसके हाथ पुनः जंजीर पर जा टिके । कसकर जंजीर को थाम लिया हाथों-कलाइयों में दर्द की तीव्र लहर उठी । परंतु जंजीर को उसने नहीं छोड़ा । पसीने से भरे हाथ, जंजीर से फिसल रहे थे । हाथ इस हद तक बुरे हाल में थे, कि उसे जंजीर के छूटने का भी एहसास नहीं हो पाया था ।
बाल-बाल बची थी वो ।
गहरी-गहरी सांसे लेती मोना चौधरी खुद पर काबू पाने की चेष्टा कर रही थी । गर्दन घुमा कर नीचे देखा । पहले वो काफी ऊपर थी, लेकिन अब वो मगरमच्छों के करीब पहुंच गई थी। पानी में मौजूद मगरमच्छों में तीव्र हलचल पैदा हो चुकी थी, शिकार को करीब आया पाकर । परंतु वो इतनी करीब नहीं थी कि वे उस तक पहुंच पाते । अलबत्ता अब वो शिकार के लिए तैयार हो गए थे ।
मोना चौधरी जानती थी कि अब वो जरा भी फिसलकर, नीचे हुई तो मगरमच्छों के मुंह में जाने से वो खुद को नहीं रोक पाएगी। मौत को बेहद करीब महसूस करने लगी थी वह । ठीक तभी उसकी निगाह, पन्द्रह फीट दूर दीवार पर पड़ी तो चिंहुक उठी।
जहां पहले कुछ भी नहीं था, वहां एकाएक दरवाजा नजर आने लगा था । इससे पहले वो कुछ सोच-समझ पाती, उसके देखते-ही-देखते दरवाजा खुला और दरवाजे पर खड़ा देवराज चौहान नजर आया।
दोनों कई पल तक अविश्वास भरी निगाहों से एक-दूसरे को देखते रहे।
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