6 मई : बुधवार
“प्रधान जी! प्रधान जी!”
प्रधान जी गुरुद्वारे में परिक्रमा पर थे जबकि उन्होंने देखा कि सेवादार चानन सिंह उनके पीछे दौड़ा चला जा रहा था। वो ठिठके।
उस घड़ी दोपहर होने को थी।
“की होया?” – सेवादार चानन सिंह करीब पहुँचा तो प्रधान जी अप्रसन्न भाव से बोले – “की रौला पाया ई?”
“प्रधान जी” – चानन सिंह करीब पहुँच कर हाँफता हुआ बोला – “इक मिनट रुको, बस। आपको कुछ दिखाना है।”
“दिखा।” – प्रधान जी उतावले स्वर में बोले।
चानन सिंह ने अपना मोबाइल ‘फोटोज’ पर से ऑन करके एक फोटो उनके सामने की।
“ऐ वेखो।” – फिर बोला।
“क्या देखूं? फोटो है किसी के मुँह की! जिसे क्लोज़-अप कहते हैं।”
“किसी के मुँह की नहीं, प्रधान जी, किसी ख़ास बन्दे के मुँह की!”
“केड़ा ख़ास बन्दा?” – प्रधान जी फिर उतावले हुए।
“पछानो माड़ा जया।”
“ओये कौन है ये? किसकी फोटो है? तेरे पास क्यों है? मुझे क्यों दिखा रहा है?”
“आप सुनो तो! बेनती है।”
“तू कुछ कहे तो सुनूँ!”
“आप इतने सवाल इकट्ठे करेंगे तो मैं . . . कनफ्यूज़ हो जाऊँगा।”
“अरमान नाल बोल।”
“प्रधान जी, गल्ल ए है, मेरे मोबाइल की घन्टी ठीक नहीं बजती थी, घन्टी ठीक कराने सुबह मैं मार्केट गया था। वहाँ मैं घन्टी ठीक करा रहा था तो पीछे मार्केट से मेरी मोटरसाइकल उठ गई। घन्टी ठीक कराके लौटा तो आस-पास से पता लगा कि ट्रैफ़िक पुलिस की क्रेन उठा के ले गई क्योंकि वहाँ पार्किंग मना थी। मोटरसाइकल छुड़ाने थाने गया, ट्रैफि़क के इंचार्ज सब-इन्सपेक्टर के सामने पेश हुआ, फरियाद लगाई कि मैं गुरुद्वारे का सेवादार था, प्रधान गुरतेज सिंह होना दा ख़ास था . . .”
“चानन सिंह, मतलब की . . . मतलब की बात कर। समझया!”
“मेरा चालान होया, जी। चालान बनने की कार्यवाही के इन्तज़ार में मैं वहाँ खड़ा था तो बरामदे में मुझे ये, मेरे मोबाइल वाली, फोटो लगी दिखाई दी। ये फोटो एक बड़े पोस्टर के बीच में छपी थी और ऊपर लिखा था :”
फरार
इश्तिहारी मुजरिम
इश्तिहारी मुजरिम
और नीचे लिखा था :
पकड़वाने वाले को पाँच लाख रुपया ईनाम।
“फेर?”
“प्रधान जी, ये ओहो ही बन्दा है” – चानन सिंह का पहले से उत्तेजित स्वर और उत्तेजित हुआ – “जो पिछले चार महीनों से यहाँ कारसेवा कर रहा था, जो यहाँ गुरुद्वारे में यूँ पन्द्रह-सोलह घन्टे काम करता था जैसे तनखैया हो और जो कभी किसी से गल्ल-बात नहीं करता था।”
प्रधान जी हड़बड़ाए, उन्होंने सेवादार के हाथ से फोन झपटा और इस बार निगाह की ऐनक लगा कर फोन की फोटो का बारीक मुआयना किया।
वही था – उनके नेत्र फैले – इस फर्क के साथ कि मोबाइल की फोटो वाले सिख की दाढ़ी बंधी हुई थी जब कि ख़ामोश कारसेवक की हमेशा बेतरतीब, बिखरी हुई रहती थी। मोबाइल की फोटो वाले सिर पर सफेद फिफ्टी के साथ नफ़ासत से बंधी नीली पगड़ी थी जबकि कारसेवक को हमेशा उन्होंने पीला पटका लपेटे देखा था।
“पोस्टर पर नाम भी लिखा था” – बिना निरुत्साहित हुए चानन सिंह तरह देता बोला – “सुरेन्द्र सिंह सोहल। ये भी लिखा था कि वड्डा डकैत था, कई जगह कई ख़ून कर चुका था। इतना खतरनाक था कि अब उसकी गिरफ़्तारी पर घोषित ईनाम को तीन लाख से बढ़ा कर पाँच लाख कर दिया गया था।”
वही था। धीर-गम्भीर, विनम्र, संजीदा, सुबुद्ध नौजवान जो उन्हें कोई दिव्यपुरुष जान पड़ता था। कैसे ऐसा साधु-स्वभाव शख़्स इतना बड़ा ईनामी फ़रार मुजरिम हो सकता था! कैैसे वो गुरुद्वारे में मशीन की तरह चार महीने कारसेवा करता रहा हो सकता था! कमरे की पेशकश की फिर भी उसकी फ़र्श पर सोने की जि़द थी, दफ़्तर के कलम-दवाती काम की ऑफ़र दी फिर भी उसे फ़र्श धोना, बाटियाँ माँजना, जूते पालिश करना मंज़ूर था।
“एक पोस्टर और भी था। उधर थाने में।” – चानन सिंह बोला – “ऐ वेखो!”
चानन सिंह की मोबाइल स्क्रीन पर जो नई तस्वीर आई, वो एक बड़े पोस्टर की थी जिसमें तीन, तीन की तीन कतारों में नौ जनों के चेहरे अंकित थे और हर तस्वीर के नीचे तस्वीर वाले का नाम दर्ज था। नौ में से एक तस्वीर वही अकेले क्लोज़ अप वाली थी जो उसने प्रधान जी को पहले दिखाई थी और उसके नीचे लिखा था :
सुरेन्द्र सिंह सोहल
कैदी नम्बर – 714
कैदी नम्बर – 714
पोस्टर का हैडिंग था :
इलाहाबाद जेल से फरार
प्रधान जी ने सब नोट किया, फिर ख़ामोशी से फोन लौटा दिया।
“प्रधान जी!” – चानन सिंह आहत भाव से बोला – “तुसी कुछ कया नहीं!”
“ऐ ओ बन्दा नहीं।” – प्रधान जी सहज भाव से बोले।
“प्रधान जी, बिल्कुल ओहो ही ए!”
“ओये, मैंने कहा न, ये वो बन्दा नहीं।”
“प्रधान जी, बेनती है, एक बार फिर देखो।”
“क्या देखूँ?”
“ऐन-मैन ओहो ही ए। रत्ती भर फर्क नहीं। इश्तिहारी, ईनामी डाकू। ते ईनाम वी पंज लक्ख!”
“तो इन्तज़ार क्या कर रहा है? जाके पकड़ डाकू को और ले ईनाम!”
“म-मैं . . . मैं फड़ां?”
“होर कौन? तू ही तो हालदुहाई मचा रहा है कि इतना बड़ा, इतना मशहूर ईनामी डाकू चार महीने से यहाँ गुरुद्वारे में कारसेवक था!”
वो ख़ामोश हो गया, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“इश्तिहारों की शकलें ज़रूरी नहीं होता कि असल से मिलती-जुलती हों – छपाई में फर्क आ जाता है, वक्त के साथ शकल में फर्क आ जाता है। फिर पोस्टर के मुताबिक ये कई साल पहले इलाहाबाद जेल से फरार हुआ था। हुन तू अकल कर, इतने सालों में उस फरार मुजरिम की सूरत में कोई तब्दीली नहीं आई होगी? सिख था तो केश कटाने का पाप क्यों किया? फिर उसका तो आख़िर तक यही पता न लगा कि सिख था या नहीं! केश नहीं, कड़ा नहीं, कंघा नहीं, किरपान नहीं, कछहरा नहीं; सिखी वाला कोई निशान नहीं। सिख ऐसे होते हैं?”
“आ-आरती गाता था।”
“तूने सुनी?”
“न-नहीं। जूता घर के सेवादार करमसिंह ने कहा।”
“ठीक कहा। अब तू सुना।”
“म-मैं . . . मैं सुनाऊँ?”
“आहो।”
“प्रधान जी, आपको तो पता ही है कि आरती के लफ़्ज़ ऐसे कठिन ने, कि उचरे ही नहीं जान्दे। बड़ी मुश्किल नाल, जैसे-तैसे, गलत-सलत बस पहली लाइन गा लेता हूँ।”
“आरती गुरुद्वारे आने वाले ग़ैरसिख श्रद्धालु को भी आती हो सकती है।”
“तो . . . वो कारसेवक . . . कोई और था? कोई आम आदमी? ग़ैरसिख?”
“आहो।”
“जिन्नू गुरां दी शरण मंज़ूर सी?”
“आहो, भई।”
“अच्छा!” – चानन सिंह के लहज़े में गहन निराशा का पुट था।
“ओये, कमलया, जो तू कहता है, वो वो था तो था न! है तो नहीं? होता तो शायद कुछ करते। जब है नहीं तो बोल, क्या कर सकते हैं?”
“प्रधान जी, थाने ख़बर तो कर सकते हैं” – वो कातर भाव से बोला – “कि वो यहाँ था, चार महीने से यहाँ था?”
“जा, कर खबर। तूने ही पहचाना न उसे? जा, कर, जाकर वड्डे ईनाम पर अपना दावा लगा। जा!”
वो गड़बड़ाया।
“वहीं बिठा लेंगे। फिर पता नहीं कब छोड़ेंगे! ख़ास गवाह के साथ ऐसा ही होता है! यही नियम है, कायदा-कानून है।”
“वाहेगुरु!”
“तूने क्या सोचा था कि इधर तू उन्हें अपनी ख़ास जानकारी की ख़बर करेगा, उधर वो तेरी हथेली पर पाँच लाख रुपए रख देंगे?”
चानन सिंह का सिर बड़ी शिद्दत से इंकार में हिला।
“कोई ईनामी मुजरिम फड़या वी जाए तो ईनाम मिलने में सालों लग जाते हैं।”
“सालों लग जाते हैं!”
“और थाना, कोर्ट-कचहरी के जो धक्के खाने पड़ते हैं, वो अलग।”
“अच्छा!”
“जा, पहुँच थाने। जाएगा?”
हिचकिचाते हुए उसने इंकार में सिर हिलाया।
“जा, फेर कम्म कर अपना। पिच्छा छोड़ मेरा।”
“चंगा, जी। सत श्री अकाल, जी।”
वो चला गया।
पीछे प्रधान जी कितनी ही देर परिक्रमा पर ठिठके खड़े रहे।
कितनी ही देर वो उस अनोखे कारसेवक की विनम्र, दीन-हीन सूरत याद करते रहे।
कैसे . . . कैसे वो उस मनुख की कल्पना एक ख़ूनी-डकैत के तौर पर, एक असुर के तौर पर कर सकते थे? जिस श्रीमुख से उन्होंने शुद्ध रूप वाली आरती निकलती सुनी, कैसे उसमें आसुरी जुबान हो सकती थी!
धनासरी महला दूजा आरती इक ओंकार सतिगुर प्रसाद।।
गगन में थालु रवि चंदु दीपक बने . . .
गगन में थालु रवि चंदु दीपक बने . . .
वाहेगुरु सच्चे पातशाह!
ख़ूनी, डकैत, इश्तिहारी मुजरिम, ईनामी बदमाश गुरुद्वारे में कारसेवक! दो, चार, दस दिन नहीं, चार महीने!
जो मानस पश्चाताप कर सकता है, प्रायिश्चत कर सकता है, वो बिल्कुल बुरा कैसे हो सकता है! वो यकीनन ऐसा तो नहीं था कि बाहर से नेक, पवित्र बनकर दिखाता था और भीतर से झूठे, फरेबी दुष्ट विचारों वाला था! ऐसा होता तो कभी गुरुद्वारे में कदम ही न रखा होता।
नहीं – प्रधान जी ने आख़िरी फैसला किया – वो कोई भलामानस था जिसके व्यक्तित्व से भलाई की ऐसी अदृश्य ज्योति उजागर होती थी, जैसी पर सद्पुरुषों का ही दावा होता था।
अगर वो कारसेवक वही था जो चानन सिंह कहता था कि था – ख़ूनी! डकैत! – तो उनके मुँह से उसके लिए कोई बुरा बोल क्यों नहीं निकल रहा था? उन्हें ऐसा क्यों नहीं लग रहा था कि एक नीच, मलेच्छ प्राणि आकर गुरुद्वारे को अपवित्र कर गया था! क्योंकर अनायास उनके मुँह से निकला कि वो कोई दिव्य पुरुष था! क्या गलत पहचाना! वाहेगुरु ने गलत राह दिखाई! वो मलेच्छ को दिव्य पुरुष कह बैठे!
नहीं, उनसे कोई गलत बात नहीं उचरी गई थी। सिर्फ वो उस मायावी मानस की माया नहीं पहचान पाए थे।
जीव जंत सभ तिस दे, सभना का सोई,
मान्दा किस नौ आखिये, जो दूजा होई।*
मान्दा किस नौ आखिये, जो दूजा होई।*
“जा, काका”, – फिर उनके मुँह से उस शख़्स के लिए आशीर्वाद निकला जो कब का जा चुका था – “वाहेगुरु सदा तेरे अंग संग रहन।”
नज़ीर टोपी लोअर परेल में रेलवे स्टेशन के करीब नवजीवन अपार्टमेंट्स के एक वन-बैडरूम फ्लैट में रहता था। वो तमाम फ्लैट सरकार ने लो-इंकम-ग्रुप के लिए बनाए थे और किस्तों में पहले से रजिस्टर्ड प्रार्थियों को दिए थे। ऐसे फ्लैट आम सबलैट किए जाते थे। टोपी ने भी यूँ ही पाँचवें माले पर फ्लैट नम्बर 501 हासिल किया हुआ था।
शिवाजी चौक ख़बर पहुँच चुकी थी कि दोपहरबाद टोपी की हस्पताल से छुट्टी हो गई थी और वो वहाँ से सीधा लोअर परेल अपने फ्लैट पर आया था।
परेश काले अभी भी हस्पताल में था। बताया गया था कि उसे वहाँ अभी दो दिन और लगने थे।
मार दोनों को बराबर लगी थी लेकिन टोपी काले के मुकाबले में मज़बूत था इसलिए जल्दी रिकवर कर गया था।
ठीक ढाई बजे अहसान कुर्ला और अनिल विनायक उसके फ्लैट पर मौजूद थे।
टोपी बैड पर तकियों के सिरहाने लेटा हुआ था और वो दोनों जने उसके सामने दो प्लास्टिक चेयर्स पर बैठे हुए थे।
“कैसा है?” – अहसान हमदर्दीभरे लहज़े से बोला।
टोपी के होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट आई।
“वैसा है, जैसा देखता है, बाप।” – वो क्षीण स्वर में बोला – “हस्पताल से तो आ गया – उधर से जल्दी ही बाहर करते हैं क्योंकि सरकारी – पण अभी तरीके से फिट होने में हफ्ता लगेगा।”
“काले को?”
“वो बोलेगा न!”
“हुआ क्या था? तफसील से बता!”
उसने बताया।
“कितने आदमी थे?” – वो ख़ामोश हुआ तो अहसान बोला।
“अन्धेरे में ठीक से गिनती में तो न आए” – टोपी ने जवाब दिया – “लेकिन सात-आठ तो बराबर थे!”
“बढ़ा-चढ़ा के तो नहीं कह रहा?”
“बाप, कम होते तो क्या मैं उनके काबू में आने वाला था!”
“पहले से घात लगाए थे?”
“यही मालूम पड़ता था।”
“उन्हें मालूम कैसे था किधर घात लगाने का था?”
“अभी मैं क्या बोलेगा?”
“उनका मिशन रोकड़ा ही छीनना था?”
“और क्या होता?”
“रोकड़ा छीनना था तो छीन लेते! मार क्यों लगाई?”
“यहीच बात मेरे को हैरान करती है।”
“कल हम मैरीन ड्राइव वाले ज्वेलर से मिले थे – कालसेकर से जिसके बंगले पर परसों रात जाकर तुमने रोकड़ा काबू में किया था। टोपी, वो परसों की वारदात की कोई और ही कहानी करता है।”
“लुटेरे पड़ गए – इसके अलावा कोई कहानी करता है?”
“हाँ।”
“बोले तो?”
“रोकड़ा तू और काले हज़्म किया।”
“क्या!”
“और ख़ुद आपस में एक-दूसरे को ठोक कर ‘लुटेरे पड़ गए’ वाला इस्टोरी सैट किया।”
टोपी एक झटके से बैड पर से उठा।
“रिलैक्स! रिलैक्स!” – अनिल विनायक ने कुर्सी पर से उठकर, बाँह पकड़ कर वापिस सिरहाने पर उसकी पीठ टिकाई और तब तक उसे न छोड़ा जब तक उसका शरीर बैड पर ढीला न पड़ गया।
“अल्लाह!” – वो असहाय भाव से बोला – “मेरे पर इतना बड़ा इलज़ाम! सुनने से पहले मेरे को उठा क्यों न लिया!”
“नौटंकी न कर, टोपी!” – अहसान डपट कर बोला – “मैं खाली वो बोला जो ज्वेलर मेरे को बोला। इलज़ाम कब लगाया मैं तेरे पर!”
“ऐसा?” – वो आशापूर्ण स्वर में बोला।
“हाँ ऐसा।”
“वो भीड़ू लोग वैगन-आर को विक्टोरिया टर्मिनस की पार्किंग में छोड़ के गए थे जहाँ से एक टैक्सी डिरेवर ने हमें हस्पताल पहुँचाया था। बाप, सब मैं और काले किया होता तो रोकड़े का बड़ा पैकेट हम किधर छुपाया होता! बड़ा पैकेट! बीस पेटी का पैकेट! पॉकेट में न रखा जा सकने वाला पैकेट!”
“ठीक, ठीक! तो जो ज्वेलर बोलता था, वो गलत था?”
“सौ टांक गलत था।”
“वो लुटेरों का ही करतब था!”
“बरोबर, बाप।”
“टोपी, सबसे बड़ा सवाल ये है – जिसका जवाब किसी के पास नहीं है – कि परसों रात वाले लेन-देन की किसी तीसरे भीड़ू को ख़बर कैसे लगी?”
“मैं ख़ुद हैरान है, बाप।”
“लगी तो किसी को बरोबर! मगज लगा कि कैसे लगी?”
“मैं लगाये?”
“हम भी लगाते हैं, ज्वेलर भी लगाता है, तू भी लगा।”
“बाप, मैं तो परसों रात से यहीच सोच-सोच के हैरान है, हलकान है, पण कुछ सूझे तो सही!”
“पिछले तीन-चार दिनों में तेरे साथ ऐसा कुछ हुआ जो तुझे ग़ैरमामूली लगा हो! जो अमूमन तेरे साथ न होता हो पण हुआ हो! कोई छोटी से छोटी बात – भले ही वो बेमानी हो – जो तेरे को खटकी हो?”
टोपी ने उस बात पर विचार किया।
“है तो सही एक बात!” – फिर धीरे से बोला।
“क्या?”– अहसान आशापूर्ण स्वर में बोला।
“पण उसका वारदात से क्या रिश्ता?”
“देखेंगे। सोचेंगे। अभी बात तो बोल!”
“बाप, तुम्हेरे को मालूम” – उसने अनिल विनायक की तरफ देखा – “तुम्हेरे को भी मालूम कि मैं सिर पर जो हमेशा टोपी पहनता है – जिसकी वजह से मेरा नाम टोपी मशहूर है – उसके बिना मैं कभी, कभी भी, घर से बाहर कदम नहीं रखता। बरोबर?”
दोनों ने सहमति से सिर हिलाया।
“वो टोपी उधर दरवाज़े के पीछे खूंटी पर टंगी है, जरा ले के आना, प्लीज़़।”
अनिल विनायक उठकर पीक-कैप लेकर आया, उसने कैप टोपी को सौंपी।
“बाप, तुम इस टोपी को पहचानता है” – टोपी बोला – “अच्छी तरह से पहचानता है, उतनी अच्छी तरह से पहचानता है जितनी अच्छी तरह से मेरी शकल पहचानता है। हमेशा तुम दोनों ने, हर किसी ने, इस टोपी को मेरे सिर पर देखा। बरोबर?”
“हाँ।”
“कोई शक?”
“कोई नहीं।”
“ये टोपी मेरी नहीं है।”
दोनों चौंके।
“क्या बोला?” – अहसान के मुँह से निकला।
“ये टोपी मेरी नहीं है।”
“तेरा मतलब है हस्पताल में किसी तरह से बदल गई!”
“मेरे को मालूम नहीं क्या हुआ! मैं उधर नीमबेहोशी की हालत में था।”
“तेरे को वहीं पता न लगा कि उधर तेरी टोपी बदल गई थी?”
“नहीं लगा। मेरी ही टोपी थी, मेरे को सौ टांक पक्की। तभी तो जब उधर से छुट्टी मिली तो टोपी मैं साथ लेकर आया।”
“अरे, क्या पहेलियाँ करता है!” – अहसान झल्लाया – “टोपी तेरी थी भी, नहीं भी थी।”
“मैं हस्पताल से छूटा था तो घर आने के लिए टोपी हाथ में पकड़ के कैब में बैठा था क्योंकि हस्पताल के अर्दली ने टोपी मेरे को थमाई ही तब थी।”
“ऐसा क्यों?”
“छुट्टी के वक्त अपने बद्हाल में मैं टोपी को भूल गया था – नॉर्मल होता तो कभी न भूलता – अर्दली मेरे पीछे टोपी लिए दौड़ा आया था, टैक्सी चलने को थी जब टोपी उसने मेरे को सौंपी थी। लोअर परेल तक का रास्ता मैंने ऊंघते गुज़ारा था इसलिए टोपी उस दौरान मेरे हाथ में ही रही थी। टैक्सी इधर पहुँची थी तो उतरने से पहले मैंने टोपी सिर पर लगाई थी और लगाते ही मेरे को बड़ा अजीब-सा फीलिंग आया था। अपने माले पर पहुँचने तक मेरे को लगता रहा था कि टोपी में कोई फर्क था, कोई भेद था। फिर मैं यहाँ फ्लैट में पहुँच गया तो वो भेद मेरी पकड़ में आया। मेरे को यकीनी तौर पर मालूम पड़ा कि वो टोपी मेरी नहीं थी।”
“कैसे? कैसे मालूम पड़ा?”
“मैंने वो टोपी खरीदी थी तो शुरूआती इस्तेमाल के बाद मैंने पाया था कि वो मेरे को लूज़ थी, सिर पर जैसे होनी चाहिए थी, वैसे फिट नहीं थी। तब उसे फिट बनाने के लिए मैंने टोपी के भीतर की तरफ, रिम के साथ-साथ गोलाई में, वैल्क्रो की दो एक इंच चौड़ी पट्टियां फिट कर दी थीं।”
“दो क्यों? ज्यास्ती लूज़ थी।”
“एक पट्टी बेस बनाती है” – जवाब अनिल विनायक ने दिया – “दूसरी पकड़ बनाती है।”
“हाँ।” – टोपी ने तसदीक की – “मैंने एक पट्टी भीतर फेवीक्विक से चिपकाई और दूसरी को वैल्क्रो के ज़रिए उसमें जोड़ा तो टोपी मेरे को फिट आने लगी।”
“आगे बोल! सिरे पर पहुँच।”
“इस टोपी में वैल्क्रो की वो दो पट्टियां नहीं हैं।”
अहसान ने उसके हाथ से टोपी लेकर उसका मुआयना किया।
“वो जो” – फिर बोला – “पट्टियां करके तू बोला . . .”
“स्ट्रिप्स!” – अनिल विनायक बोला – “वैल्क्रो स्ट्रिप्स।”
“. . . किसी तरह से उखड़ गई होंगी!”
“ये एक स्ट्रिप टोपी के भीतर फेवीक्विक से चिपकाई बताता है तो नहीं उखड़ सकती। जबरन उखाड़ी जाएगी तो टोपी का भीतर का अस्तर भी उधेड़ देगी।”
“ऐसा कुछ हुआ तो इसमें नहीं लगता!” – अहसान बड़बड़ाया, उसने टोपी पर से सिर उठाया – “तो तमाम बात का लुब्बोलुआब ये है कि ये टोपी तेरी नहीं है, हस्पताल में किसी से टोपी बदल गई!”
“यूँ कैसे बदल जाएगी!” – जवाब फिर अनिल विनायक ने दिया – “किसी ने बदल दी। इरादतन।”
“वजह?”
कोई कुछ न बोला।
“बोल, भई!” – अहसान उतावले स्वर में टोपी से सम्बोधित हुआ।
“मैं क्या बोलूँ?” – टोपी बोला – “मैं तो वही बोल सकता है न, टोपी के हवाले से जो मैं नोट किया।”
“हस्पताल में किसी ने तेरी टोपी बदल दी, तेरे को ख़बर न लगी?”
“अहसान भाई” – अनिल विनायक बोला – “इसने बोला तो है कि ये नीमबेहोशी के आलम में था।”
टोपी ने व्यग्रता से सहमति में सिर हिलाया।
“फिर अहम बात ये नहीं है कि टोपी बदली गई, अहम बात ये है कि क्यों बदली गई!”
“क्यों बदली गई!”
“हाँ। कोई काम बेवजह तो नहीं होता न!”
“वजह सुझा कोई!”
“लगता है टोपी में कोई भेद है।”
“निकाल भेद।” – अहसान ने जबरन टोपी उसे थमाई – “दिखा श्यानपन्ती!”
अनिल विनायक टोपी टटोलने लगा। पहले उसने उसे सरसरी तौर से उलटा-पलटा फिर उसका गंभीर मुआयना किया।
वो मुआयना इतनी देर चला कि अहसान खीजता, बोर होता पहलू बदलने लगा।
“मूँछ रखता है” – एकाएक वो टोपी से संबोधित हुआ – “शेव बनाते वक्त तराशने के लिए छोटी कैंची रखता है?”
“हाँ।” – टोपी बोला।
“कहाँ?”
“बाथरूम में। सिंक के ऊपर का शीशा कैबिनेट के पट की तरह खुल जाता है, भीतर शेव के बाकी सामान के साथ।”
अनिल उठकर गया और नन्हीं-सी कैंची के साथ वापिस लौटा।
फिर बड़े धीरज से उसने टोपी के टॉप के बटन को उसकी जगह से कैंची के ज़रिए उधेड़ना शुरू कर दिया।
आखिर बटन उसके हाथ में आ गया।
फिर टोपी की अदला-बदली का राज़ भी उजागर हो गया।
बटन भीतर से खोखला था और उसमें जो इलैक्ट्रॉनिक पुर्जा फिट था, बतौर माइक्रो-ट्रांसमिटर उसे अनिल ने ही पहचाना।
“ये है जवाब” – अनिल संजीदगी से बोला – “कि लेन-देन की ख़बर किसी को कैसे लगी! जहाँ हमारा नज़ीर, वहाँ ट्रांसमिटर, जिसके ज़रिए इसके हमलावरों ने इसका किसी के साथ भी होता – ज्वेलर कालसेकर के साथ भी होता – डायलॉग सुना। यूँ दो जनों की आपसी बात की किसी तीसरे जने को ख़बर लगी। ठीक!”
दोनों में से कोई न बोला, दोनों की शक्लों पर संजीदगी चस्पां थी।
“लेकिन” – अहसान एकाएक तमक कर बोला – “अगर टोपी हस्पताल में तब्दील हुई तो तब तक तो वो वारदात हो चुकी थी!”
“कौन बोला” – अनिल बोला – “हस्पताल में तब्दील हुई?”
अहसान मुँह बाये अपने साथी को देखने लगा।
“नज़ीर ने ख़ुद कुबूल किया है कि इसको हस्पताल में इसकी भरती के दौरान हुई ऐसी तब्दीली की कोई ख़बर नहीं थी। पूछो इससे।”
“ज़रूरत नहीं।” – अहसान बड़बड़ाया – “याद है मेरे को।”
“हस्पताल में टोपी बदली जाने का कोई मतलब ही नहीं, कोई मकसद ही नहीं। बदली गई टोपी – छुपाए गए ट्रांसमिटर वाली टोपी – तभी कारगर थी जब ये परसों वाली – ज्वेलर वाली – वारदात से पहले नज़ीर पर थोपी गई होती।”
“मेरे को तब ख़बर क्यों न लगी” – नज़ीर टोपी आवेश से बोला – “कि मैं कोई और टोपी पहने था?”
“नहीं लगी किसी वजह से। मामूली बात थी, न आई तेरी तवज्जो में।”
“उस तरफ तो चलो न गई तवज्जो कि मैं कोई जुदा टोपी पहने था लेकिन जो टोपी मैं घर से बाहर कभी सिर से उतारता ही नहीं था, वो बदली कैसे गई?”
“घर में बदली गई।”
“क्या?”
“यहाँ तो टोपी उतारता है न! तू ख़ुद बोला ऐसा। परसों से पहले कभी यहाँ बदली गई।”
वो सोचने लगा।
“सोच नहीं। परसों से पहले की अपने यहाँ की आवाजाही को याद कर।”
“आवाजाही तो बहुत थी!” – उसके मुँह से निकला।
“तो बस! उन्हीं में से किसी ने टोपी बदली।”
“अच्छा!” – टोपी चिन्तित भाव से बोला।
“ नहीं अच्छा।” – अहसान भड़का-सा अनिल से मुख़ातिब हुआ – “जब वो लूट तू पत्थरबाज़ों का कारनामा बताता है तो मेरे को समझा कि उनमें कोई एक टोपी का इतना अजीज दोस्त कैसे हो सकता है कि उसका इसके घर आना जाना हो?”
अनिल लाजवाब हो गया।
“कोई वाकिफ़ मेरा हो” – टोपी दबे स्वर में बोला – “लेकिन दुश्मनों की तरफ हो और मुझे इस बात की ख़बर न हो!”
“ये हो सकता है। अब अपने हालिया विज़िटर ऐसे किसी दोस्त के बारे में सोच जो किसी ग़ैर के हुक्म पर तेरे घर में आकर तेरी टोपी तब्दील कर सकता हो। बरोबर?”
टोपी ने सहमति में सिर हिलाया।
“फिर थामेंगे उसे।” – अहसान एक क्षण ठिठका फिर चुप्पी साघे बैठे अपने जोड़ीदार की ओर घूमकर बोला – “वैसे मेरा ऐतबार अभी भी इसी बात पर है कि टोपी हस्पताल में बदली गई। सरकारी हस्पताल के वार्ड में बिना इजाज़त आवाजाही बना लेना कोई बड़ी बात नहीं। फिर टोपी ख़ुद कहता है ये अपने होशो-हवास में नहीं था। लिहाज़ा आसान काम था जो किसी हरामी ने वहाँ कर दिखाया।”
“फिर वारदात के बाद टोपी में ट्रांसमिटर बेमानी!” – अनिल बोला।
“तू कनफ्यूज़ न कर मेरे को।” – अहसान बोला – “मेरी जिद है, मैंने मालूम करके रहना है कि कल दिन भर में कोई इजाजती या ग़ैरइजाजती भीड़ू टोपी के हवाले से उस वार्ड में आया था या नहीं जहाँ ये भर्ती था!”
“ठीक है।”
“अब जो टोपी इसके पास है, वो इसके काम आएगी या नहीं!”
“क्यों नहीं आएगी! वैल्क्रो की दो स्ट्रिप्स जैसे पहले टोपी में लगाई थीं, वैसे फिर लगा लेगा। बटन फिर सी लेगा।” – वो टोपी की ओर घूमा – “नहीं?”
“हाँ।” – टोपी अनमने भाव से बोला।
“अभी ये फैसला भी यहीं हो जाए तो बेहतर है” – अहसान बोला – “कि आइन्दा टोपी और काले की जगह कौन लेगा! काले तो अभी हस्पताल में ही है, ये भी एक्टिव होने में अभी बहुत टेम लगाएगा जब कि ऊपर से हुक्म है कि एकाध दिन में ही दो-तीन जनों से चन्दा वसूली करनी है। बता कोई स्मार्ट भीड़ू जिनमें से कम-से-कम एक टोपी की जगह लेने के लायक हो।”
टोपी की शकल पर बड़े दयनीय भाव आए।
“अरे, दिल पर नहीं लेने का।” – अहसान बोला – “दिल पर नहीं लेने का। ये इन्तज़ाम तभी तक का होगा जब तक तू ऐन फिट, चौकस अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता।”
“पक्की बात?” – टोपी आशापूर्ण स्वर में बोला।
“मैंने तेरे से कभी कच्ची बात की?”
“फिर तो शुक्रिया, अहसान भाई।”
“अब तू बोल, भई।” – अहसान घूमकर अपने जोड़ीदार से मुख़ातिब हुआ – “सुझा कोई नाम!”
“अबरार बोगस।” – अनिल बोला।
“टोपी की जगह? लीडर?”
“हाँ।”
अहसान ने टोपी की तरफ देखा।
टोपी ने सहमति में सिर हिला कर अबरार बोगस के नाम को मोहरबन्द किया।
वो उस नाम से दो वजह से संतुष्ट था – एक तो अबरार उसका जातभाई था; दूसरे, उसका पुराना वाकिफ़ था।
“बढ़िया।” – अहसान बोला – “अब परेश काले की जगह लेने वाले का फैसला ख़ुद तू कर!”
“हरीश कोली।” – टोपी नि:संकोच बोला।
“मंज़ूर। लेकिन इस बार अबरार बोगस के साथ एक की जगह दो भीड़ू होंगे। दूसरा भीड़ू गनर होगा और उसका एकीच काम होगा – वसूली हो जाने के बाद बोगस और कोली को कवर करके रखना। उसको मेरी सख़्त हिदायत होगी कि अगर पहले जैसा लूट का खतरा पेश आए तो बेहिचक शूटिंग करे, भले ही जितने मर्ज़ी दुश्मन ढेर हो जाएं। आगे कोई ऊंच-नीच होगी तो कुबेर भाई संभालेगा, जैसे कि हमेशा संभालता है।”
“गनर कौन?” – टोपी उत्सुक भाव से बोला।
“हसन टकला।”
“ऐन दुरुस्त गनर चुना, अहसान भाई।”
“ये टेम वो कोई मामूली लोकल गन नहीं, जर्मन ऑटोमैटिक पिस्टल और तीन एकस्ट्रा मैगजीन ले के चलेगा।”
“बढ़िया।”
“वैसे जैसे पत्थरबाज़ों की पड़ताल सुलतान भाई ने की है, उससे लगता नहीं कि पिछली बार जैसी वारदात दोबारा होगी।”
“हो!” – टोपी जोश से बोला – “हसन भाई सब संभालेगा न, ऐन फिट करके! फिर बोगस और कोली खाली तमाशा ही तो नहीं देखते रहेंगे! टॉप के फाइटर हैं दोनों!”
“जो कि तू न निकला! तेरा जोड़ीदार काले न निकला!”
टोपी ने आहत भाव से अहसान कुर्ला की तरफ देखा।
“क्या गलत बोला मैं?” – अहसान शुष्क स्वर में बोला।
“हम तैयार नहीं थे।” – टोपी होंठों में बुदबुदाया – “हमें ऐसे वार की उम्मीद नहीं थी।”
“बस कर। पहले बहुत बहस हो चुकी है इस बाबत। अब फिर से शुरू न कर।”
टोपी ने होंठ भींच लिए।
“अभी एक बात मैं बोले?” – अनिल विनायक बोला।
“बोल!” – अहसान बोला।
“जिससे चन्दा लेना है, हम उसी को क्यों नहीं कह सकते कि वो रकम फलां जगह पहुँचाने का ख़ुद इन्तज़ाम करे?”
“कह सकते थे। लेकिन जब कहना चाहिए था, तब किसी को कहना न सूझा। तब ऊपर वाले सबको ये मामूली काम लगा कि कोई जाए, चन्दा देने वाले से चन्दा ले आए। अब परसों के वाकये के बाद हम ऐसा कहेंगे तो कारोबारियों को गलत सिग्नल जाएगा कि हम किसी दूसरी हमलावर पार्टी से – जिसके कि लुटेरे थे – डर गए।”
“ओह!”
“इस वास्ते बिग बॉस को रूटीन में चेज नहीं माँगता।”
अनिल विनायक फिर न बोला
शाम तक अहसान कुर्ला के पास फ़ोर्ट के सरकारी हस्पताल से रिपोर्ट पहुँच गई।
हमेशा की तरह अनिल विनायक तब उसके साथ मौजूद था।
रिपोर्ट पेश करने वाले शख़्स का नाम येड़ा जगेश था।
जगेश के संगी-साथी उसके दिमाग में नुक्स बताते थे और उसे ‘पागल’, ‘सिरफिरा’ कहते थे – जबकि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं था – इसलिए उसका नाम ही येड़ा – पागल – जगेश मशहूर था और गौरतलब बात थी कि ‘येड़ा’ जगेश के नाम से बुलाए जाने पर वो कतई बुरा नहीं मानता था।
“वहाँ से कुछ मालूम न पड़ा, अहसान भाई” – वो बोला – “न ऐसा कुछ मालूम हो पाना मुमकिन था।”
“वजह?” – अहसान अप्रसन्न भाव से बोला।
“बड़ा हस्पताल! बड़ा वार्ड! बड़ा स्टाफ़! ड्यूटी स्टाफ़ बदलता रहता था। वार्ड-ए में जो स्टाफ़ पहले था, वो तब नहीं था। क्या नर्सें, क्या आॅर्डरली सब बदल गए थे। किसी को किसी विज़िटर की तो क्या ख़बर होती, नज़ीर सैफी नाम के किसी हादसे के शिकार मरीज की ही ख़बर नहीं थी।”
“अरे, पिछले रोज़ वाले ड्यूटी स्टाफ़ में से किसी को तो काबू में करता!”
“किया न! एक नर्स को ढूंढ़ा। टका-सा जवाब मिला, ‘नहीं मालूम’।”
“रिकॉर्ड से भी कोई मदद नहीं?”
“अहसान भाई, रिकॉर्ड मरीज का होता है, विजि़टर का तो नहीं होता न! फिर पता नहीं वो किस टेम आया! मुलाकात की इजाजत के टेम आया या एसीच घुस आया!”
“हूँ।”
“जिस आर्डरली ने” – अनिल विनायक बोला – “टोपी की हस्पताल से छुट्टी के वक्त उसके पीछे दौड़ कर उसे उसकी पीछे छूट गई पीक-कैप थमाई थी, वो तो आसानी से उस मरीज को नहीं भूला होगा!”
“बरोबर बोला, विनायक भाई।” – येड़ा जगेश बोला – “उसको ढूंढ़ भी निकाला मैं। नाम भी मालूम किया। नकुल तारे। पण वो अपनी आज की शिफ्ट की ड्यूटी पूरी करके मेरे हस्पताल पहुँचने से पहले जा चुका था।”
“कल तो आएगा! कल फिर जाना!”
“या” – अहसान बोला – “उसके घर का पता मालूम करता।”
“सब किया मैं।” – येड़ा जगेश बोला – “मालूम पड़ा पन्द्रह दिन की छुट्टी पर गया। शाम को ही बीवी-बच्चों के साथ रत्नागिरी के लिए रवाना हो गया जहाँ का कि वो रहने वाला बताया जाता है, जहाँ उसके माँ-बाप रहते हैं।”
“अल्लाह! ढक्कन गया भी तो कहाँ! साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर!”
“कहने का मतलब ये हुआ” – अनिल विनायक बोला – “कि नज़ीर के ऐसे किसी विज़िटर की कोई ख़बर नहीं लग सकती जिसने कि हस्पताल में उसकी टोपी बदली हो! यही तसदीक नहीं हो सकती कि टोपी हस्पताल में बदली गई थी!”
“अब” – येड़ा जगेश संकोच से बोला – “है तो ऐसीच!”
“है तो है।” – अहसान भुनभुनाया – “जो काम साला नहीं होना, वो नहीं होना। नक्की कर।”
येड़ा जगेश ख़ामोशी से रुख़सत हो गया।
रात दस बजे विमल इरफ़ान के साथ बान्द्रा हिल रोड पर था।
पिछली रात की ‘शंघाई मून’ की विज़िट के तजुर्बे के जेरेसाया वहाँ पहुँचने का मुनासिब टाइम दस बजे के बाद का ही पास हुआ था जबकि पिछली रात वो दोनों नौ बजे पहुँचे थे और रात एक बजे तक वहाँ टिके थे।
पिछली रात के और इस बार के उनके फेरे में बड़ा फर्क ये था कि पिछली रात दोनों बराबर हैसियत के चमकते-दमकते मेहमान थे लेकिन अब वैसी सज-धज सिर्फ विमल की थी, इरफ़ान उसको – पैसेंजर को – वहाँ लाया कैब ड्राइवर था जैसा कि वो अपने उस कारोबार में होता था।
विमल उस वक्त एक ऐसे बिगड़ैल नौजवान के बहुरूप में था जैसों से हाल में उसका दिल्ली में वास्ता पड़ के हटा था। वो पम्प शूज, घुटनों से उधड़ी हुई जींस, चैक की कमीज जिसके ऊपरी चार बटन खुले थे और काॅटन की काॅलर वाली जैकेट पहने था। उसके गले में सोने की जंजीर थी जिसके सिरे पर क्राॅस लटक रहा था। क्रॉस की एक साइड प्लेन थी और दूसरी पर सूली पर टंगे ईसामसीह की उभरी हुई छवि अंकित थी। उसकी आँखों में नीले काॅन्टैक्ट लैंस थे और नाक पर बिना नम्बर का बड़ा फ़ैंसी चश्मा था। सिर पर वैसी फ़ैंसी पीक-कैप थी जैसी नेवी के उच्चाधिकारी पहनते थे। चेहरे पर बहुत ही जँचती, खूबसूरत लगती फ्रें़च कट दाढ़ी-मूंछ थी।
तमाम सामान सिवरी की प्रॉप्स की उस दुकान से हासिल किया गया था जो फिल्मवालों को शूटिंग के लिए सामान सप्लाई करती थी और जिससे विमल पुराना वाकिफ़ था; अलबत्ता दाढ़ी-मूँछ इस्साभाई विगवाला की देन थीं और इतनी नफीस थी कि थोड़े किए न ही उखड़ सकती थी, न पता लग सकता था कि नकली थी।
विमल वस्तुत: सिख रूप में वहाँ पहुँचना चाहता था लेकिन इरफ़ान और शोहाब ने फौरन उसका विरोध किया था। विमल ने काफी ज़ोर दिया था कि जैसी कहानी वो वहाँ सैट करना चाहता था उसके लिए एक अधेड़ सिख ही माकूल किरदार था लेकिन उस बाबत उन दोनों की हामी वो नहीं भरवा सका था। आख़िर उसी बहुरूप पर फैसला हुआ था जिसमें कि विमल उस वक्त था।
पिछली रात के फेरे से वो दोनों इस बात से वाकिफ़ थे कि क्लब के सामने बड़ा कम्पाउन्ड था, रात की उस घड़ी जिसको क्लब की निजी पार्किंग की तरह इस्तेमाल में लाया जाता था। लिहाज़ा जब तक विमल क्लब में रुकता तब तक इरफ़ान का मुकाम उसकी पुकार के करीब होता।
इरफ़ान ने टैक्सी को सीधे मेन गेट पर ले जाने की जगह यार्ड के आयरन गेट में दाखिल होते ही रोक दिया।
“मैं इधरीच।” – इरफ़ान पैसेंजर सीट पर बैठे ‘पैसेंजर’ विमल की ओर घूम कर बोला – “पार्किंग में कहीं। कोई भी डेंजर बात हो तो मोबाइल लगाना।”
“नहीं होगी।” – विमल ने उसे आश्वासन दिया – “मैं होने दूँगा तो होगी न!”
“बरोबर! बरोबर! पण ख़बरदार रहने में कोई वान्दा तेरे को?”
“नहीं। ठीक है। जैसा बोला, करूँगा।”
“बढ़िया।”
इरफ़ान ने तब कैब आगे बढ़ाई और उसे क्लब के मेन डोर की सीढ़ियों के सामने ले जाकर रोका।
तत्काल लाल वर्दी वाले दरबान ने लपक कर कैब का पिछला दरवाज़ा खोला और दूसरे हाथ से सम्मानित मेहमान को सैल्यूट मारा।
विमल कैब से बाहर निकला। दरबान ने दरवाज़ा बन्द कर दिया तो इरफ़ान कैब को आगे बढ़ा ले गया। फिर दरबान ने विमल से पहले चार सीढ़ियाँ चढ़ कर शीशम का भारी दरवाज़ा खोला।
विमल ने उसकी मुट्ठी में एक पचास का नोट सरकाया और एक और मुस्तैद सलाम पाया।
दरवाज़ा खुलता पाते ही एक स्टीवॉर्ड उसकी अगवानी के लिए तैयार खड़ा था जिसने मुस्करा कर, सिर नवा कर विमल का स्वागत किया।
सहमति में सिर हिलाकर स्वागत कुबूल करता विमल बाजू में ही मौजूद चिट क्लर्क के डैस्क पर पहुँचा और उसके कुछ कहने से पहले ही उसने पाँच सौ के दो नोट डैस्क पर रख दिए।
उसके उस एक्शन से चिट क्लर्क को विमल स्टेडी कस्टमर लगा।
“सर” – वो विनयशील स्वर में बोला – “क्रेडिट कार्ड . . .”
“घर रह गया।” – जैसा विमल का उस वक्त का रखरखाव था, वो उससे मैच करती भुनभुन आवाज से बोला – “अभी कैश में प्रॉब्लम है तो मैं घर जाए कार्ड लेने?”
“कैसी बात करते हैं, सर!” – उसके समीप पहुँचा स्टीवॉर्ड उसकी कोहनी के करीब से बोला – “कैश इज़ मोस्ट वैलकम . . . ऐज़ यू आर।”
“शुकर!”
क्लब का हाल असाधारण रूप से बड़ा था जिसमें लग्ज़री बार, जगमग डांस फ्लोर, फैं़सी बैंड स्टैंड वो पहले फेरे में बाखूबी देख कर गया था। वहाँ उस वक्त काफी रौनक थी और डांस फ्लोर भी आधे के करीब भरा हुआ था। आधी रात तक, विमल ने पिछले फेरे में देखा था, न हाल में बैठने की जगह होती थी, न डांस फ्लोर पर डांस करने की।
उसने स्टीवॉर्ड को ख़ामोशी से दो सौ का नोट थमाया और डांस फ्लोर के साथ की टेबल की माँग की।
“सॉरी, सर।” – स्टीवॉर्ड बोला – “आॅल आर आकूपाइड। लेकिन बिल्कुल करीब, नैक्स्ट रो में ही, मैं आपको टेबल ऑफ़र कर सकता हूँ।”
“ओके! डू इट!”
उसने विमल को प्रस्तावित टेबल पर पहुँचाया और प्रोफे़शनल पोलाइटनेस के साथ आॅर्डर की बाबत सवाल किया। विमल ने एक ही ड्रिंक ऑर्डर किया तो आॅर्डर नोट करने को तत्पर स्टीवॉर्ड का हाथ स्वयंमेव ही क्षण भर को ठिठका।
“आई हैड ए रो विद माई डेट।” – विमल ने बद् मिजाजी से भुनभुना के दिखाया – “एण्ड दैड टू ऐट दि लास्ट मूमेंट। शी ब्लडी डिच्ड मी।”
“सर” – स्टीवॉर्ड जल्दी से बोला – “यू मीन यू डिच्ड दि लेडी . . . युअर कम्पैनियन ऑफ़ दि ईविनिंग?”
“अरे, नहीं, बाबा। वो मेरे मुँह पर जूता मार के गई।” – फिर फौरन उसका मिज़ाज बदला – “वाॅट दि हैल! वाई आई एम टैलिंग यू ऑल दिस . . .”
स्टीवॉर्ड उसके भड़कने पर गड़बड़ाया।
“युअर ड्रिंक कमिंग अप राइट अवे, सर।” – वो जल्दी से बोला और वहाँ से हट गया।
तत्काल उसे ड्रिंक सर्व हुआ।
पीनट्स और पोटेटो चिप्स के दो कटोरों के साथ, पिछली रात की विज़िट की वजह से उसे मालूम था कि वो दोनों चीजें कम्पलीमेंट्री थीं।
लापरवाही जताता लेकिन सावधानी से वो चारों तरफ निगाह फिराता रहा।
उसके ज़ेहन में जो स्कीम थी, उसको अमल में लाने में अभी वक्त था– वो एक ड्रिंक और तक, यानी एक घंटे तक, इन्तज़ार कर सकता था।
इसी वजह से पन्द्रह मिनट में उसने अभी अपना एक-तिहाई ड्रिंक ही चुस्का था।
“हल्लो!”
एक बिलौरी आवाज उसके कानों में पड़ी।
जैसे जाम में शीशे से बर्फ टकराई हो।
उसने सिर उठाया तो सामने एक खूबसूरत, कद्दावर, आवर-ग्लास फि़गर को मौजूद पाया।
विमल की उससे निगाह मिली तो वो मुस्कराई।
कलेजा निकाल ले जाने वाली मुस्कराहट! ऊपर से हुस्न और जवानी की दौलत से मालामाल! वो वाइट जींस के साथ एक ऐसा वाइट गिरहबान पर झालर वाला टॉप पहने थी जो कि उसके उन्नत वक्ष पर गिलाफ की तरह चढ़ा जान पड़ता था। जींस और टॉप के बीच में कोई आठ इंच स्किन वस्त्रविहीन थी जो स्किन शो के लिहाज़ से वहाँ के रंगीले माहौल में विमल के अलावा और देखने वालों को शायद कम जान पड़ती।
“हल्लो, युअरसैल्फ!” – विमल मीठे स्वर में बोला।
“सारे हाल में” – वो बोली – “एक तुम्हारे सिवाय कोई नहीं है जो विदाउट कम्पनी हो। नो?”
“मैंने सारा हाल तो चैक नहीं किया, क्योंकि थोड़ी देर पहले ही आया, लेकिन आस-पास जहाँ तक निगाह जाती है, कम्पनी के मामले में मेरे जैसा बद् नसीब कोई दूसरा तो, अब क्या बोलूं, नहीं ही दिखाई दे रहा!”
“जब ख़ुद को बद् नसीब मान रहे हो तो करो कुछ इस बारे में!”
“क्या करूँ?”
“ऐसा कुछ करो कि तनहा न रहो।”
“राय दो कोई!”
“इनवाइट मी फ़ॉर कम्पनी।”
“ओ, यस ! वैलकम! प्लीज़़ बी माई गैस्ट।”
“थैंक्यू।”
वो उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गई।
“अकेले होने की” – फिर बोली – “कोई ख़ास वजह?”
“है तो सही!” – विमल बोला।
“क्या?”
“तुम्हारा इन्तज़ार था।”
वो हँसी। सामने वाले का हाल बेहाल करने वाली हँसी। तजुर्बे से आता था ऐसा हँसना।
“बाकी बातें होती रहेंगी” – विमल बोला – “पहली बात पहले।”
उसकी भवें उठीं।
“मे आई ऑर्डर ए ड्रिंक फ़ॉर यू?”
“ए ड्रिंक!” – वो यूँ बोली जैसे समझाने की कोशिश कर रही हो ड्रिंक क्या होता था।
“ऑर ए बीएमडब्ल्यू? ऑर ए पैंथाहाउस! ऑर ए चौप्पर!”
वो इतनी ज़ोर से हँसी कि आस-पास की टेबल्स वाले उधर देखने लगे।
“बहुत मज़ाकिये हो!” – वो हँसी पर काबू करती पर बदस्तूर हँसती बोली।
बहुत मज़ाकिया! मैं! चार महीने पहले जिसकी बीवी का कत्ल हुआ था! लेकिन मजबूरी थी, जिस काम आया था उसके तहत सब करना था, सब सुनना था।
जबरन उसने उसकी हँसी में साथ दिया।
“तुम क्या पी रहे हो?” – वो बोली।
“विस्की, ग्लैनफ़िडिक ट्वैल्व इयर्स। विद वाटर।”
“आईल हैव ए स्माॅल वन ऑफ़ दि सेम बट विद कोक।”
विमल ने उसके ऑर्डर के मुताबिक ड्रिंक मंगाया।
दोनों ने चियर्स बोला।
“बल्ले!”
विमल को नीलम की आवाज़ ऐन अपने कान के करीब लगी।
“क्या बल्ले, सोहनयो!”
“मैं क्या गई, तुम्हारे पर से हर अंकुश हट गया, ये बल्ले, सरदार जी।”
“तू पहले कहाँ मेरे साथ होती थी?”
“हो तो सकती थी! अब तो हो ही नहीं सकती!”
“इसी बात का तो ग़म है!”
“ग़म खाओ, घूँट लगाओ, शबाब चबाओ – शबाब बोली मैं, कबाब नहीं – पर ख़बरदार कर रही हूँ, मेरे सूरज को इन लानतों से दूर रखना।”
“जो हुक्म, मालको!”
“क्या हुआ?”
विमल बड़बड़ाया, उसने सिर उठा कर अपने से मुख़ातिब युवती को देखा।
“क-क्या” – उसके मुँह से निकला – “क्या हुआ?”
“अरे, मैं तुमसे पूछ रही हूँ। तुम्हारी आँखें नम हैं – नम क्या हैं, यूँ डबडबा रही हैं जैसे आँसू टपक पड़ेंगे!”
विमल ने चश्मा उतारा और रूमाल निकाल कर आँखों पर फेरा।
“कुछ . . . पड़ गया था।” – फिर बोला।
“दोनों आँखों में!”
विमल ने जवाब न दिया।
“एकाएक तुम्हारी सूरत से ऐसा लगा जैसे तुम ट्रांस में थे, जैसे . . . जैसे किसी दूसरी दुनिया में थे।”
“अच्छा! ऐसा लगा?”
“हाँ।”
“मैं कोशिश करूँगा दोबारा न लगे।” – विमल एक क्षण ठिठका फिर बदले स्वर में बोला – “बाई दि वे, आयम जेम्स दयाल।”
“क्रिश्चियन हो?”
“कोई ऐतराज़।”
“नहीं, जरा भी नहीं। गले में क्रॉस देखा इसलिए पूछ बैठी। फिर नाम – बोले तो आधा देसी, आधा क्रिस्तान! अपने आप ही सवाल मुँह से निकल गया।”
“आई डोंट माइन्ड।”
“थैंक्यू। कहाँ से हो?”
“पता नहीं। भटकता हुआ कहीं पहुँचा था, भटकता हुआ आगे यहाँ पहुँच गया।”
“लपेट के बात करना आदत जान पड़ती है तुम्हारी! सीधे कुछ नहीं कहते हो!”
“कहता हूँ। जिसका तआरुफ़ हासिल हो, उससे कहता हूँ।”
“ओह, सॉरी! आयम शेफाली।”
“सैफ अली?”
उसके चेहरे पर गहन अप्रसन्नता के भाव आए और लुप्त हुए।
“मैं” – फिर नकली हँसी के साथ बोली – “आदमी लगती हूँ?”
“लगती तो नहीं हो किधर से भी पर जब नाम मर्दों वाला रखा . . .”
“ख़ामख़ाह! शेफाली! . . . शेफाली बोला मैंने।”
“ओह!” – फरमायशी तौर पर विमल ने अपने माथे पर हाथ मारा – “हाउ क्लम्सी ऑफ़ मी। हल्लो अगेन, शेफाली!”
“हल्लो, मिस्टर दयाल!”
“नाओ वुई आर प्राॅपरली इन्ट्रोड्यूस्ड। अब बोलो, क्या खाओगी?”
“क्या खाऊंगी?”
सवाल दोहराना शायद उसका स्टाइल था।
“हाँ। कलेजा! मगज!”
“यू आर जोकिंग अगेन!”
“नहीं, भई, मेन्यू में लिखा है रैड एस्टैरिक के साथ – स्पैशियलिटी ऑफ़ दि हाउस।”
“अच्छा!”
“हाँ। अब बोलो, कलेजा खाओगी या मगज चाटोगी?”
“जोक अपार्ट, स्मार्ट टाॅक अपार्ट, आइल हैव सालमन फ़िशफिंगर्स इफ यू डोंट माइन्ड।”
विमल ने वेटर को बुलाकर ऑर्डर दोहराया।
“आई हैव टु वाच माई फिगर, यू नो।” – वो बोली।
“माई डियर, ऐवरी मेल पैट्रन प्रेसेंट हेयर वुड लव टु वाच युअर फिगर!”
“ऐक्सैप्ट यू?”
“इंक्ल्यूडिंग मी।”
वो हँसी। इस बार दिल से।
कौन होगी ऐसी औरत जो अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनकर ख़ुश न होती हो!
“अब एक सवाल मैं पूछूं?”
“पूछो।”
“अगर मैं अकेला हूँ यहाँ तो तुम भी तो अकेली हो!”
“नहीं समझे?”
“अभी तो नहीं समझा। समझाओगी तो समझ जाऊँगा।”
“मिस्टर दयाल, मैं गैस्ट नहीं, स्टाफ़ हूँ। होस्टेस हूँ ‘शंघाई मून’ की। तुम्हारे जैसे गैस्ट्स को कम्पनी देना मेरी नौकरी का हिस्सा है।”
“ओह! ओह!”
“मिस्टर कौशिक प्वायन्टिड यू आउट टु मी।”
“कौशिक! हू इज़ ही?”
“वो स्टीवॉर्ड जिसने तुम्हें गेट पर रिसीव किया था, इस टेबल पर पहुँचाया था।”
“आई सी।”
“वर्ना इतने बड़े हाल में मैं तुम्हें – मिस्टर लोनली ओनली को – इमीजियेटली लोकेट न कर पाई होती!”
“हम्म!”
“अगर तुम्हें मेरे इस स्टेटस से शिकायत है तो मैं उठ जाती हूँ . . .”
“नहीं, नहीं। ख़बरदार! हिलना नहीं यहाँ से।”
“सोच लो!”
“सोच लिया। स्टे पुट। प्लीज़़! मैंने तुमसे बहुत बातें करनी हैं। और फिर अभी तो तुमने फ़िश खानी है। सालमन की नाकद्री करोगी?”
उसके चेहरे के भाव बदले, उसने अपने शरीर को सीट पर ढीला छोड़ दिया और अपने ड्रिंक की तरफ तवज्जो दी।
तभी वेटर फ़िश ले आया। वो दोनों के लिए क्रॉकरी सैट करके वहाँ से रुख़सत हो गया।
“सालमन यहाँ इंगलैंड से आती है।” – उसने बताया – “डेली डिलीवरी है। इसलिए बिल्कुल फ़्रैश होती है।”
तभी एक प्लेट की कीमत आसमान छूती थी।
“सूपर!” – प्रत्यक्षत: विमल बोला।
थोड़ी देर दोनों ने ख़ामोशी से फि़श का आनन्द उठाया।
“तुम कह रहे थे” – फिर वो बोली – “तुमने मेरे से बहुत बातें करनी हैं!”
“हाँ, कह तो रहा था!”
“करो।”
“बॉटम्स अप करो तो करूँ?”
उसने गिलास खाली किया। विमल ने अपना गिलास खाली करके नए राउन्ड का ऑर्डर दिया।
“रिफ्रेशंड चियर्स!” – विमल बोला।
उसने अपना ड्रिंक वाला हाथ ऊंचा करके उस बात का अनुमोदन किया।
“अब बोलाे!” – वो बोली – “नहीं, पहले बोलो, कहाँ के हो? मुम्बईकर तो नहीं हो! और भटकन वाली बात भी मत बोलना। स्ट्रेट जवाब देना।”
“पंजाब से हूँ।”
“पंजाबी हो?”
“पंजाब में रहता-रहता पंजाबी बन गया वर्ना दिल्ली से हूँ।”
“पंजाब कैसे पहुँच गए?”
“कारोबार ले गया।”
“क्या कारोबार? किस्तों में बात मत करो, यार।”
यार!
“कारोबार तुम्हें बताऊँगा तो यहाँ शोर मच जाएगा। हंगामा बरपा जाएगा।”
“ऐसा क्या कारोबार है तुम्हारा? ओ, माई गॉड! कहीं स्मगलर तो नहीं हो?”
“धीरे! धीरे!”
“तो जवाब दो।”
“वही जवाब है जो तुमने ख़ुद दे लिया। अब ये पूछो मैं यहाँ क्यों हूँ?”
“बोलो।”
“मेरी बात को राज़ रख पाओगी?”
“तुम मुझे भले आदमी लगे इसलिए जवाब है – हाँ।”
“मेरी कोई छोटी-मोटी मदद करना कुबूल करोगी?”
“कैसी मदद?”
“ऐसी मदद जिससे तुम्हारा कुछ न बिगड़े लेकिन मेरा कोई भला हो!”
“करूँगी।”
“तो सुनो। पहले यही सुनो कि मैं यहाँ क्यों आया!”
“दैट्स ए गुड स्टार्ट।”
“मेरे को पता लगा था” – विमल तनिक आगे को झुका, उसका स्वर और धीमा हुआ – “कि इस नाइट क्लब का मालिक कोई बड़ा अन्डरवर्ल्ड डॉन है . . .”
“कैसे पता लगा था?”
सवाल पर उससे प्रबल विरोध अपेक्षित था – भड़क भी उठती तो कोई बड़ी बात न होती – लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। उसने बहुत सहज भाव से वो सवाल पूछा था।
“जब आपसदारी हो तो ऐसी बातें छुपती नहीं है।”
“आपसदारी! सच में ही स्मगलर हो?”
“हाँ।”
“हो तो हो। तुम्हें इससे क्या फर्क पड़ता है ‘शंघाई मून’ का मालिक कौन है?”
“मेरी एक प्रॉब्लम है। उसके पास मेरी प्रॉब्लम का हल है।”
“पहेलियाँ बुझा रहे हो। जिसके पास तुम्हारी प्रॉब्लम का हल है, उससे वाकिफ़ नहीं हो . . .”
“अब होऊंगा न वाकिफ़!”
“. . . उसका नाम तक नहीं जानते हो!”
“अब जानूंगा। तुम्हारी मेहरबानी हासिल होगी, जानूंगा।”
“क्या कहने! तू कौन मैं ख़ामख़ाह!”
“मैं ख़ामख़ाह हूँ तो आगे तो कोई बात करना बेमानी है! तो मीटिंग कनक्ल्यूड करते हैं।”
“तुम्हारी स्टोरी क्या है?”
विमल ख़ामोश रहा।
“मेरे पर ऐतबार दिखाया है तो साफ़ बोलो, तुम्हारी स्टोरी क्या है?”
“फिर कोई मदद करोगी?”
“नहीं।”
“फिर क्या बात बनी!”
“वो रास्ता सुझाऊंगी जहाँ से तुम्हें मदद हासिल हो सकती है।”
“अच्छा!”
“इतना हो चुकने के बाद शायद और भी कुछ कर पाऊँ लेकिन वादा कोई नहीं।”
“जितना कर सकोगी, उतना करने के वादे पर कायम रहोगी?”
“हाँ।”
“तो सुनो। मैं अमृतसर से हूँ जहाँ मैं छ: साल से ‘चिट्टा’ की स्मगलिंग में हूँ।”
“चिट्टा क्या?”
“उधर हेरोइन को कहते हैं। उसके सफेद रंग की वजह से। सफेद को पंजाबी में चिट्टा कहते हैं।”
“ओह!”
“अफगानिस्तान की प्रोडक्शन हेरोइन मेरे पास पाकिस्तान से आती थी। मेरा ऐसा अरेंजमेंट फिट था कि हेरोइन के लेन-देन में बाॅर्डर पर तैनात सिक्योरिटी वाले ही मेरी मदद करते थे।”
“बंडल!”
“मदद की मोटी फ़ीस लेते थे।”
“तो यूँ बोलो न! मैं तो समझी फोकट में मदद करते थे।”
“फोकट में कोई काम होता है!”
“आगे बढ़ो। कैसे तुम्हारी मदद करते थे? कैसे अपनी मदद करते थे?”
“सुनो। और समझो। फ़र्ज़ करो बॉर्डर पर पचास किलो ‘चिट्टा’ पहुँचा। उसमें से पाँच किलो बॉर्डर सिक्योरिटी वाले नाॅरकाॅटिक्स सैल को पकड़वा देते थे और अपनी मुस्तैदी के लिए वाहवाही हासिल करते थे कि बॉर्डर पर स्मगलिंग का करारा केस पकड़ा था।”
“बाकी! पैंतालीस किलो?”
“उसका कोई ज़िक्र नहीं आता था। उसको बाहर आने देने की उन लोगों की पर किलो फ़ीस मुकर्रर थी जो मैं बाखुशी अदा करता था।”
“ओह! जो पाँच किलो पकड़ी दिखाई जाती थी, उसका क्या होता था।”
“नाॅरकाॅटिक्स वाला ग्रुप भला हो तो वो उच्चाधिकारियों और मीडिया के सामने पूरी की पूरी डेस्ट्राय कर दी जाती थी, ग्रुप हमारी सरकारी मुलाज़मत के टिपीकल भ्रष्ट किरदार वाला हो तो बोलेगा पकड़े गए माल को मालखाने की दीमक लग गई, एक किलो या दो किलो यूँ नष्ट हो गया, टाइम ज़्यादा गुज़र गया हो तो कहेंगे सारा ही नष्ट हो गया।”
“यूँ भांजी मार के हेरोइन का वो क्या करते हैं?”
“उनके ज़ीरो नम्बर होते हैं न!”
“ज़ीरो नम्बर बोले तो?”
“मुखबिर! ख़बरी! इनफ़ॉर्मर!”
“ऐसे भीड़ू लोगों को पंजाब में ज़ीरो नम्बर बोलते हैं?”
“पंजाब में नहीं, इधर ज़ीरो नम्बर बोलते हैं।”
“तुम्हें क्या मालूम?”
“अरे, भई, मैं कल तो यहाँ नहीं आया! परसों तो यहाँ नहीं आया! इधर के अन्डरवर्ल्ड में ढेर धक्के खाए, तभी तो ‘शंघाई मून’ के बारे में जान पाया! तभी तो यहाँ हूँ!”
“आगे बढ़ो।”
“दो साल वो सिलसिला बिना रोक-टोक बिना विघ्न चला, फिर एकाएक ही पंगा पड़ गया, इतना बड़ा कि हेरोइन की सप्लाई लाइन टूट गई, ढेर माल पकड़ गया, कई आदमी गिरफ़्तार हो गए और मैं ख़ुद गिरफ़्तार होने से बाल-बाल बचा।”
“ऐसा क्या हुआ?”
“पाकिस्तान में सरकार बदल गई। उधर मिलिट्री के हाकिम और कड़क आ गए और बॉर्डर पर चौकसी ऐसी बढ़ी कि कुछ भी कर पाना नामुकिन हो गया। फिर भी कोशिश की तो माल भी पकड़ा गया और कई आॅपरेटर भी पकड़े गए।”
“इधर ही!”
“उधर भी कुछ हुआ ही होगा – बल्कि ढेर हुआ होगा। सप्लाई तो इधर से ही न! – लेकिन उसकी मुझे ख़बर न लग सकी। काल्ज़ इन्ट्रप्ट होने लगीं जिसकी वजह से गिरफ़्तारी का खतरा चार गुणा बढ़ गया। आख़िर निकल लेने में ही गति दिखाई दी।”
“मुम्बई आ गए?”
“हाँ।”
“उधर किसी को तुम्हारी बाबत कोई ख़बर न लगी?”
“उन लोगों काे न लगी जिन्हें लगनी चाहिए थी। जिनको लगी, वो लोग वो थे जो मेरे से रेगुलर पैसा खाते थे इसलिए किसी ने मेरे बारे में मुँह न खोला और मैं सेफ़ बच निकलने में कामयाब हो गया। पीछे यही बात मशहूर थी कि गैंग के सरगना का सुराग तो मिल गया था लेकिन वक्त रहते उसकी शिनाख़्त नहीं हो सकी थी इसलिए वो गिरफ़्तारी से बच गया था।”
“सरगना तुम?” – वो मंत्रमुग्ध स्वर में बोली।
“हाँ।”
“मेरे सामने मौजूद?”
“हाँ।”
“नाम जेम्स दयाल?”
“हाँ।”
“असली।”
विमल हिचकिचाया।
“झूठ बोलोगे तो अपना ही नुकसान करोगे।”
“गिरीश माथुर।”
“क्रििश्चयन नहीं हो! गले में क्रॉस दिखावा है?”
“हाँ।”
“अब प्रॉब्लम क्या है? क्यों तुम्हें किसी अन्डरवर्ल्ड डॉन की मदद की ज़रूरत है! माइन्ड इट, मैंने नहीं कहा कि इस एस्टैब्लिशमेंट का मालिक कोई लोकल माफ़िया डॉन है लेकिन अपनी प्रॉब्लम फिर भी बोलो।”
“सुनो। बहुत राज़ की बात है, ख़ुदा के वास्ते किसी पर आउट न करना। बात ये है कि मेरी सारी फि़ज़ीकल असैट्स पंजाब में थीं और पीछे वहीं रह गई ं हैं। मौजूदा हालात में तो क्या, आइन्दा भी मैं उनको क्लेम करने के लिए पंजाब लौटने की जुर्रत नहीं कर सकता . . .”
“आई अन्डरस्टैण्ड। प्लीज़़ कम टु दि प्वायन्ट।”
“मेरी तमाम मौजूदा बद्किस्मती के बावजूद मेरे काबू में आठ किलो ‘चिट्टा’ फिर भी है जिसकी कीमत दस करोड़ होती है। मेरे को उसका कोई एक मुश्त ग्राहक चाहिए। मुम्बई से मैं नावाकिफ़ नहीं, लेकिन मेरा फ़ील्ड ऑफ़ वर्क ये शहर कभी नहीं रहा इसलिए पंजाब से फरार होकर जब मैंने यहाँ कदम रखा तो अंडरवर्ल्ड में कोई वर्केबल, कोई भरोसे के काबिल कॉन्टैक्ट बनाने में मुझे एक महीना लगा।”
“क्या कॉन्टैक्ट बनाया?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! तुम समझती हो ‘शंघाई मून’ में मैं व्हिस्की पीने आया हूँ! सालमन खाने आया हूँ!”
“हूँ।”
कई क्षण ख़ामोशी रही। उस दौरान उसने अनमने भाव से अपना जाम चुसका, फि़श खाई।
विमल ने उसे डिस्टर्ब न किया, वो धीरज से प्रतीक्षा करता रहा।
“देखो” – एकाएक वो बोली – “मैं नहीं जानती यहाँ का मालिक कौन है, ऑनेस्ट नहीं जानती। कभी जानने की ज़रूरत ही न पड़ी। लेकिन जो शख़्स यहाँ का निजाम चलाता है, अगर तुम चाहो तो मैं उससे तुम्हारी बात कराने की कोशिश कर सकती हूँ।”
“खाली कोशिश?”
“हाँ। दावा कोई नहीं।”
“है कौन वो?”
“कहलाता तो मैनेजर ही है लेकिन हमेशा मुझे लगता है कि मैनेजर से कोई बेहतर हैसियत है उसकी।”
“इस वजह से वो मालिक का करीबी हो सकता है?”
“हाँ।”
“नाम क्या है?”
“जमशेद कड़ावाला।”
“पारसी है?”
“मेरे ख़याल से हाँ।”
“अभी मौजूद है क्लब में?”
“हाँ।”
“मुलाकात को राज़ी होगा?”
“कोशिश कर देखती हूँ। नहीं होगा तो जैसे ये कॉन्टैक्ट ढूंढ़ा, वैसे कोई दूसरा ढूंढ़ लेना।”
“महीना और बर्बाद करके!”
“इस बार शायद वक्त कम लगे। तजुर्बा हो गया न पहले महीने में!”
“ओके, करो कोशिश।” – विमल एक क्षण ठिठका फिर बोला – “प्लीज़़!”
सहमति में सिर हिलाती वो उठ खड़ी हुई।
“पहले नाम की बाबत ही सवाल होगा” – फिर बोली – “इसलिए नाम फ़ाइनल करो।”
“जेम्स दयाल।” – विमल बोला।
“ओके! स्टिक टु इट।”
वो चली गई।
पीछे ख़ामोश बैठा, शर्मिन्दगी के अहसास के साथ पाइप को मिस करता वो प्रतीक्षा करता रहा।
“आदी स्मोकर हो गए हो!” – उसे नीलम कहती लगी – “लगता है जल्दी ही फिर शुरू हो जाओगे।”
“गलत लगता है।”
“अच्छा!”
“हाँ। जो बीत गई, सो बीत गई।”
“जैसे मैं!”
विमल के दिल से हूक सी उठने लगी।
नहीं! नहीं! नहीं!
“रिपीट, सर!”
अपने ख़यालों में डूबे विमल ने चिहुँक कर सिर उठाया।
वेटर उसके पहलू में खड़ा था।
“नो!” – विमल हड़बड़ाया-सा बोला – “मे बी लेटर। आइल लैट यू नो।”
“राइट, सर।”
वो अदब से परे हट गया।
ड्रिंक चुसकता – या चुसकने का बहाना करता – वो प्रतीक्षा करता रहा।
वो बीस मिनट में लौटी।
“बहुत मुश्किल से मुलाकात को राज़ी हुआ।” – वो बोली – “आओ।”
विमल तत्काल उठ खड़ा हुआ।
टेबल पर से हटने से पहले शेफाली ने वेटर को बुला कर ताकीद की कि वो टेबल अभी आकूपाइड थी, आकूपेंट उसके साथ क्लब में ही था।
फिर शेफाली आगे बढ़ी और विमल ने उसका अनुसरण किया। टेबलों के बीच से गुज़रते वो विशाल हाल के पिछवाड़े में पहुँचे जहाँ एक पच्चीकारी वाली लकड़ी की स्क्रीन के पीछे एक बन्द दरवाज़ा था। शेफाली ने आगे बढ़ कर दरवाज़े पर हौले से दस्तक दी, तनिक इन्तज़ार किया फिर शायद भीतर से कोई आदेश जारी हुआ, उसने दरवाज़े को धीरे से धकेल कर खोला और विमल को भीतर दाखिल होने का इशारा किया। विमल ने चौखट से पार कदम रखा तो शेफाली भी भीतर दाखिल हुई, उसने अपने पीछे दरवाज़ा बन्द कर दिया।
विमल ने देखा वो क्लब जैसा ही भव्य ऑफ़िस था जहाँ विशाल एग्ज़ीक्यूटिव टेबल के पीछे एक कोई पचास साल का सज़ा-धजा व्यक्ति बैठा था। उसका चेहरा कठोर था और आँखों में काईयांपन स्पष्ट रूप से परिलक्षित था।
विमल ने उसका अभिवादन किया।
भावहीन ढंग से उसने विमल पर ऊपर से नीचे तक खुर्दबीनी निगाह दौड़ाई, फिर वैसे ही भावहीन ढंग से एक विज़िटर्स चेयर की तरफ इशारा किया।
‘थैंक्यू’ बोलता विमल एक कुर्सी पर काबिज़ हुआ।
शेफाली को न बैठने को बोला गया, न डिसमिस किया गया। वो आगे बढ़ कर अदब से टेबल के एक पहलू में खड़ी हो गई।
“जेम्स दयाल?” – वो बोला।
“यस, सर।” – विमल अदब से बोला।
“माईसैल्फ़ जमशेद कड़ावाला।”
“नाइस मीटिंग यू, सर।”
कड़ावाला ने ये बताने की कोई कोशिश न की कि वहाँ उसकी क्या हैसियत थी।
“शेफाली ने जो मेरे को बताया है, उसको दोहराने की ज़रूरत नहीं। जो मैं सुन चुका, उससे आगे बोलो। तो तुम्हारे पोजे़शन में आठ किलो हेरोइन है?”
“पोज़ेशन में नहीं, सर, पहुँच में! ईज़ी एक्सेस में।”
कड़ावाला ने शेफाली पर आँखें तरेरीं।
शेफाली अपने आप में सिकुड़ कर रह गई।
“ईज़ी एक्सेस में कहाँ?” – फिर बोला।
“पंजाब से बाहर।”
“नेम दि प्लेस, मैन।”
“दिल्ली में।”
“वाट्स दैट! यानी तुम अपनी कंसाइनमेंट से चौदह सौ किलोमीटर दूर हो?”
“कंसाइनमेंट जब हुक्म होगा, विदइन थ्री डेज़ यहाँ होगा। ऐसा इन्तज़ाम है मेरा।”
“मुम्बई में होना चाहिए था।”
“हो सकता था अगरचे कि डिसपोज़ल आउटलैट तलाश करने का लम्बा, वक्तखाऊ काम मेरे सामने न होता।”
“कौन बोला इधर डिसपोज़ल आउटलैट?”
“अब कोई तो बोला ही, सर! ऐसे ही तो नहीं कोई भटकता फिरता!”
“हम्म! हेरोइन के बारे में बताओ। पर्सनल नॉलेज रखते हो?”
“आप रखते हैं?”
उसने घूर कर विमल को देखा।
“ओह!” – विमल बोला – “यानी कि रखते हैं। मैं भी रखता हूँ। छ: साल से ट्रेड में हूँ।”
“अपना लॉट डिस्क्राइब करो।”
“चायना वाइट। नम्बर फ़ोर। नाइन्टी नाइन पर्सेंट प्योर।”
“इसकी खूबी जानते हो?”
“हाँ, ये बेहतरीन हेरोइन मानी जाती है, इससे बेहतर एशिया में कहीं नहीं मिलती – न सिंगापुर में, न थाईलैंड में, न लाओस में।”
“तुम्हारे सप्लायर के पास कहाँ से आई?”
“पाकिस्तान से।”
“वहाँ से तो आई! लेकिन इतनी सुपरियर हेरोइन का सोर्स क्या था?”
“ईरान या चायना।”
“अफ़गानिस्तान नहीं?”
“अफ़गानिस्तान की अपनी प्रोडक्शन है, वो नम्बर फ़ोर चायना व्हाइट को मैच नहीं कर सकती।”
“ओके! यू नो ए लॉट अबाउट हेरोइन। अब चाहते क्या हो?”
“हेरोइन को डिस्पोज़ करना चाहता हूँ। उधर बॉर्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स ने, नॉरकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो ने, लोकल पुलिस ने बर्बाद कर दिया मुझे। अब सर्वाइवल के लिए ये डिसपोज़ल ज़रूरी है।”
“सैम्पल है?”
“अभी नहीं है – क्योंकि ये जेब में लेकर फिरने वाली चीज़ नहीं – लेकिन जब आप लोग मेरे से डील करने का मन बना लेंगे तो हो जाएगा।”
“क्या कीमत चाहते हो?”
“सर, मेरी कोई डिमाँड नहीं। मौजूदा हालात में मैं अपनी कोई डिमाँड खड़ी करने की पोज़ीशन में नहीं हूँ। आई विल असैप्ट ऐनी रीज़नेबल ऑफ़र।”
“ऑफ़र का अख़्तियार मेरे को नहीं है।”
“आ-आपको नहीं है?”
“हाँ।”
“तो फिर क्या बात बनी?”
“आख़िरी फैसले के लिए तुम्हारी पेशकश आगे पहुँचाई जाएगी।”
“आगे कहाँ?”
“बिग बॉस के पास।”
“माफ़िया डॉन के पास! जो यहाँ का . . .”
“मिस्टर दयाल, डोंट यू ऐवर यूज़ दिस नेस्टी वर्ड फ़ॉर बिग बॉस।”
“आई एम सॉरी, सर, लेकिन जैसा मैंने सुना . . .”
“गलत सुना।”
“बाई दि वे, बिग बॉस है कौन? कोई नाम?”
“मिस्टर क्वीन।”
“क्वीन! मलिका! रानी!”
“नो। मिस्टर . . . मिस्टर एल्फ्रेड क्वीन।”
“लाइक ऐलरी क्वीन! दि फेमस डिटेक्टिव फिक्शन राइटर ड्यूओ! आलसो दि फेमस डिटेक्टिव ऑफ़ बुक्स एण्ड टीवी सीरियल्ज़ बियरिंग सेम नेम!”
“नाओ यू गैट इट।”
“फॉरेनर हैं मिस्टर एल्फ्रेड क्वीन? अमेरिकन, लाइक ऐलरी क्वीन?”
“नहीं। लोकल हैं। लोकल क्रििश्चयन हैं।”
“आई सी। कहाँ मुलाकात हो सकती है मिस्टर क्वीन से?”
“यहीं।”
“कब?”
“जब वो यहाँ हों।”
“कब होंगे वो यहाँ?”
“उनकी मर्ज़ी पर मुनहसर है।”
“सर, यू आर गिविंग मी ए रन अराउन्ड। यू आर नॉट टैलिंग मी एनीथिंग।”
“मिस्टर क्वीन यहाँ का अपना शेड्यूल ख़ुद बनाते हैं, उनके शेड्यूल की यहाँ किसी को ख़बर नहीं होती। वो कभी भी आ सकते हैं। ऐसा कल हो सकता है, अगले हफ्ते हो सकता है, अगले पखवाड़े हो सकता है, रोज़ हो सकता है।”
“रोज़ हो सकता है?”
“हाँ। बिग बॉस हैं, चाहें तो रोज़ आएं, चाहें तो कई दिन न आएं।”
“बिग बॉस हैं या टॉप बॉस हैं?”
“तुम्हारे लिए एक ही बात है।”
“लिहाज़ा उनसे मुलाकात दरकार है तो रोज़ आना ज़रूरी!”
“हाँ। लेकिन ताकीद है, इन्तज़ार एक दिन में भी ख़त्म हो सकता है, हो सकता है हफ्ता ख़त्म न हो।”
“कमाल है! मिस्टर क्वीन से मिलने का कोई शाॅर्ट कट नहीं?”
“नहीं।”
“फ़र्ज़ कीजिए मैंने इस ड्रिल से गुज़रना कुबूल किया तो मैं पहचानूंगा कैसे उनको?”
“शेफाली पहचान करवा देगी। गैट अलांग नाओ।”
“क्या! ओ, यस। यस।” – विमल उठ खड़ा हुआ – “थैंक्यू, सर, फ़ॉर दि मीटिंग।”
कड़ावाला का सिर दो बार ऊपर-नीचे हिला।
विमल ने वहाँ से रुख़सत पाई, कड़ावाला का अभिवादन करती शेफाली उसके साथ हो ली।
दोनों टेबल पर वापिस लौटे। तत्काल उनके वेटर ने उनकी हाजिरी भरी। विमल ने उसे ड्रिंक और फ़िश रिपीट करने को बोला तो वैशाली ने फ़िश को मना कर दिया।
ड्रिंक्स सर्व होने तक दोनों ख़ामोश बैठे रहे।
विमल ने अपने जाम की एक चुसकी भरी फिर नाउम्मीद लहज़े में बोला – “क्या बात बनी?”
“तुम्हें तपाने के लिए मिस्टर क्वीन की यहाँ विज़िट के बारे में बढ़ा-चढ़ा के बोल रहा था।”
“रोज़ की हाजिरी की बाबत भी?”
“नहीं, उस बाबत नहीं, कभी-कभार रोज़ आना होता है।”
“लास्ट कब आया था?”
“परसों।”
“यानी मैं परसों आया होता तो परसों ही मुलाकात हो जाती?”
“मुमकिन है।”
“दैट्स टू बैड। उसने कह दिया मिस्टर क्वीन की शेफाली पहचान कराएगी। शेफाली न मिली तो कैसे पहचान होगी?”
“बताती हूँ। तुमने देखा हाल की तमाम टेबल्स पर टेबल क्लाॅथ सफेद हैं?”
“हाँ।”
“हमेशा सफेद होते हैं लेकिन जब मिस्टर क्वीन की विज़िट एक्सपैक्टिड होती है तो डांस फ्लोर के साथ की एक टेबल का टेबल क्लॉथ लाल होता है। वो टेबल सिर्फ और सिर्फ मिस्टर क्वीन के लिए रिज़र्व होती है।”
“तुम्हारा मतलब है किसी शाम को जो लाल टेबल क्लॉथ वाली इकलौती टेबल पर बैठा दिखाई दे, वो मिस्टर क्वीन! बिग बॉस!”
“हाँ।”
“लेकिन टॉप बॉस नहीं?”
“क्या कहना चाहते हो?”
“वो बोला, मेरे लिए एक ही बात! मिस्टर क्वीन टॉप बॉस होता तो वो फुल कनविक्शन से कहता कि हाँ, बिग बॉस ही टॉप बॉस था।”
“बहुत बारीक बात पकड़ी।”
“तुम इस बारे में क्या कहती हो?”
“कुछ नहीं। मेरे को खाली ये मालूम है कि कड़ावाला इस क्लब का ओनर नहीं है। मैं स्टाफ़ हूँ, मेरा वास्ता कड़ावाला तक ही है इसलिए मेरे को कोई फर्क नहीं पड़ता ओनर कोई हो।”
“जानना चाहो तो जान सकती हो कि टॉप बॉस कौन है?”
“नहीं।”
“ये कनफर्म कर सकती हो कि मिस्टर क्वीन टॉप बाॅस नहीं है?”
“नहीं।”
“आई सी।”
“लेकिन तुम्हें इससे क्या फर्क पड़ता है! कड़ावाला ने बोल तो दिया कि तुम्हारा काम मिस्टर क्वीन से हो जाएगा, फिर टॉप बॉस भले ही कोई हो!”
“ठीक।”
“इस सिलसिले में एक हैल्प मैं तुम्हारी और कर सकती हूँ।”
विमल की भवें उठीं।
“जिस दिन मुझे डांस फ्लोर के साथ रैड टेबल क्लॉथ वाली टेबल दिखाई देगी, मैं तुम्हें फोन कर दूँगी। यूँ तुम्हें रोज़ यहाँ नहीं आना पड़ेगा।”
“ये तो बड़ी हैल्प है!”
“अपना मोबाइल नम्बर दो। या मेरे नम्बर पर मिस्ड काल छोड़ो।”
विमल ने दूसरा काम किया। यूँ उसे उसका नम्बर तभी हासिल हो गया।
उसके बाद डिनर की बात उठी जिससे शेफाली ने इंकार कर दिया और इज़ाज़त चाही।
विमल ने बतौर टिप ख़ामोशी से उसे दो हज़ार का नोट थमाया।
वो बाग-बाग वहाँ से रुख़सत हुई।
अब डिनर विमल इरफ़ान के साथ कहीं और करने के लिए स्वतंत्र था – बान्द्रा में उम्दा रेस्टोरेंट्स की कोई कमी नहीं थी।
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