इमारत के गिर्द हथियारबन्द पहरा था। दस्ते के इंचार्ज ने फ़ैयाज़ को पहचान कर सैल्यूट किया। फ़ैयाज़ ने उससे चन्द सरकारी क़िस्म की रस्मी बातें कीं और सीधा मुजाविर के कमरे की तरफ़ चला गया जिसके दरवाज़े खुले हुए थे और अन्दर मुजाविर शायद समाधि में बैठा था। फ़ैयाज़ की आहट पर उसने आँखें खोल दीं जो अंगारों की तरह दहक रही थीं।

‘क्या है?’ उसने झल्लाये हुए लहजे में कहा।

‘कुछ नहीं। मैं देखने आया था। सब ठीक-ठाक है या नहीं!’ फ़ैयाज़ बोला।

‘मेरी समझ में नहीं आता कि आख़िर यह सब कुछ क्या हो रहा है। उन गधों की तरह पुलिस भी दीवानी हो गयी है।’

‘किन गधों की तरह।’

‘वही जो समझते हैं कि शहीद मर्द की क़ब्र में ख़ज़ाना है।’

‘कुछ भी हो।’ फ़ैयाज़ ने कहा, ‘हम नहीं चाहते कि यहाँ से रोज़ाना लाशें बरामद होती रहीं, अगर ज़रूरत समझी तो क़ब्र खुदवायी जायेगी।’

‘भसम हो जाओगे!’ मुजाविर गरज कर बोला। ‘ख़ून थूकोगे...मरोगे!’

‘क्या सचमुच इसमें ख़ज़ाना है?’

इस पर मुजाविर फिर गरजने बरसने लगा। फ़ैयाज़ बार-बार घड़ी की तरफ़ देखता जा रहा था। इमरान को गये हुए पन्द्रह मिनट हो चुके थे।। वह मुजाविर को बातों में उलझाये रहा। अचानक एक अजीब क़िस्म की आवाज़ सुनाई दी। मुजाविर उछल कर मुड़ा। उसकी पीठ की तरफ़ दीवार में एक बड़ा-सा ख़ाली स्थान नज़र आ रहा था। फ़ैयाज़ बौखला कर खड़ा हो गया। वह सोच रहा था कि यकायक दीवार को क्या हो गया। वह उससे पहले भी कई बार उस कमरे में आ चुका था, लेकिन उसे भूल कर भी यह ख़याल नहीं आया था कि यहाँ कोई चोर दरवाज़ा भी हो सकता है। अचानक मुजाविर चीख़ मार कर उस दरवाज़े में घुसता चला गया। फ़ैयाज़ बुरी तरह बौखला गया था। उसने जेब से टॉर्च निकाली और वह भी उसी दरवाज़े में दाख़िल हो गया। यहाँ चारों तरफ़ अँधेरा था। शायद वह किसी तहख़ाने में चल रहा था। कुछ दूर चलने के बाद सीढ़ियाँ नज़र आयीं। यहाँ क़ब्रिस्तान की-सी ख़ामोशी थी। फ़ैयाज़ सीढ़ियों पर चढ़ने लगा और जब वह ऊपर पहुँचा तो उसने ख़ुद को मुर्शिद मर्द की क़ब्र से निकलते पाया जिसका पत्थर किसी सन्दूक़ के ढक्कन की तरह सीधा उठा हुआ था।

टॉर्च की रोशनी का दायरा सेहन में चारों तरफ़ गर्दिश कर रहा था। फिर फ़ैयाज़ ने मुजाविर को वारदातों वाले कमरे से निकलते देखा।

‘तुम लोगों ने मुझे बर्बाद कर दिया!’ वह फ़ैयाज़ को देख कर चीख़ा। ‘आओ अपनी करतूत देख लो!’ वह फिर कमरे में घुस गया। फ़ैयाज़ तेज़ी से उसकी तरफ़ झपटा।

टॉर्च की रोशनी दीवार पर पड़ी। यहाँ का बहुत-सा प्लास्टर उधड़ा हुआ था और उसी जगह पाँच पाँच इंच के फ़ासले पर तीन बड़ी छुरियाँ गड़ी थीं। फ़ैयाज़ आगे बढ़ा। उधड़े हुए प्लास्टर के पीछे एक बड़ा-सा ख़ाना था।। और उन छुरियों के दूसरे सिरे इसी में ग़ायब हो गये थे। इन छुरियों के अलावा इस ख़ाने में और कुछ नहीं था।

मुजाविर खा जाने वाली नज़रों से फ़ैयाज़ को घूर रहा था।

‘ये सब क्या है?’ फ़ैयाज़ ने मुजाविर को घूरते हुए कहा।

मुजाविर ने इस तरह खँखार कर गला साफ़ किया जैसे कुछ कहना चाहता हो लेकिन उम्मीद के ख़िलाफ़ उसने फ़ैयाज़ के सीने पर एक ज़ोरदार टक्कर मारी और उछल कर भागा। फ़ैयाज़ चारों ख़ाने चित हो गया। सँभलने से पहले उसका दाहिना हाथ होल्स्टर से रिवॉल्वर निकाल चुका था।। मगर बेकार, मुजाविर ने क़ब्र में छलाँग लगा दी थी।

फ़ैयाज़ उठ कर क़ब्र की तरफ़ दौड़ा। लेकिन मुजाविर के कमरे में पहुँच कर भी उसका निशान न मिला। फ़ैयाज़ इमारत से बाहर निकल आया। ड्यूटी कॉन्स्टेबल बदस्तूर अपनी जगहों पर मौजूद थे। उन्होंने भी किसी भागते हुए आदमी के बारे में अनभिज्ञता ज़ाहिर की। उनका ख़याल था कि कोई इमारत के बाहर निकला ही नहीं।

अचानक उसे इमरान का ख़याल आया। आख़िर वह कहाँ गया था। कहीं यह उसी की हरकत न हो। इस ख़ुफ़िया ख़ाने में क्या चीज़ थी। अब सारे मामले फ़ैयाज़ के ज़ेहन में साफ़ हो गये थे। लाश का राज़, तीन ज़ख़्म, जिनके बीच का फ़सला पाँच पाँच इंच का था। अचानक किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया। फ़ैयाज़ चौंक कर मुड़ा। इमरान खड़ा बुरी तरह बिसूर रहा था!

‘तो यह तुम थे!’ फ़ैयाज़ उसे नीचे से ऊपर तक घूरता हुआ बोला।

‘मैं था नहीं, बल्कि हूँ...उम्मीद है कि अभी दो-चार दिन ज़िन्दा रहूँगा।’

‘वहाँ से क्या निकाला तुमने?’

‘चोट हो गयी प्यारे।’ इमरान भर्रायी हुई आवाज़ में बोला ‘वह मुझ से पहले ही हाथ साफ़ कर गये। मैंने तो बाद में ज़रा इस ख़ुफ़िया ख़ाने के मैकेनिज़्म पर ग़ौर करना चाहा था कि एक खटके को हाथ लगाते ही क़ब्र तड़क गयी!’

‘लेकिन वहाँ था क्या?’

‘वह बाक़ी काग़ज़ात जो चमड़े के उस हैंड बैग में नहीं थे।’

‘क्या! अरे ओ अहमक़, पहले ही क्यों नहीं बताया था!’ फ़ैयाज़ अपनी पेशानी पर हाथ मार कर बोला, ‘लेकिन वे अन्दर घुसे किस तरह?’

‘आओ दिखाऊँ।’ इमरान एक तरफ़ बढ़ता हुआ बोला। वह फ़ैयाज़ को इमारत के पश्चिमी कोने की तरफ़ लाया। यहाँ दीवार से मिली हुई आदमक़द झाड़ियाँ थीं। इमरान ने झाड़ियाँ हटा कर टॉर्च रोशन की और फ़ैयाज़ का मुँह हैरत से खुला का खुला रह गया। दीवार में इतनी बड़ी सेंध थी कि एक आदमी बैठ कर आसानी से उससे गुज़र सकता था।

‘यह तो बहुत बुरा हुआ।’ फ़ैयाज़ बड़बड़ाया।

‘और वह पहुँचा हुआ फ़क़ीर कहाँ है?’ इमरान ने पूछा।

‘वह भी निकल गया। लेकिन तुम किस तरह अन्दर पहुँचे थे?’

‘उसी रास्ते से, आज ही मुझे इन झाड़ियों का ख़याल आया था।’

‘अब क्या करोगे, बाक़ी काग़ज़ात?’ फ़ैयाज़ ने बेबसी से कहा।

‘बाक़ी काग़ज़ात भी उन्हें वापस कर दूँगा। भला आधे काग़ज़ात किस काम के। जिसके पास भी रहें, पूरे रहें। उसके बाद मैं बाक़ी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए क़ब्र अपने नाम अलॉट करा लूँगा।’

***

इमरान के कमरे में फ़ोन की घण्टी बड़ी देर से बज रही थी। वह क़रीब ही बैठा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था। उसने घण्टी की तरफ़ ध्यान तक न दिया। फिर आख़िर घण्टी जब बजती ही चली गयी तो वह किताब मेज़ पर पटक कर अपने नौकर सुलेमान को पुकारने लगा।

‘जी सरकार!’ सुलेमान कमरे में दाख़िल हो कर बोला।

‘अबे देख, यह कौन उल्लू का पट्ठा घण्टी बजा रहा है।’

‘सरकार फ़ोन है।’

‘फ़ोन!’ इमरान चौंक कर फ़ोन की तरफ़ देखता हुआ बोला। ‘उसे उठा कर सड़क पर फेक दे।’

सुलेमान ने रिसीवर उठा कर कर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।

‘हैलो!’ इमरान माउथ पीस में बोला। ‘हाँ, हाँ, इमरान नहीं तो क्या कुत्ता भौंक रहा है।’

‘तुम कल रात रेस कोर्स के क़रीब क्यों नहीं मिले?’ दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी।

‘भाग जाओ गधे।’ इमरान ने माउथ पीस पर हाथ रखे बग़ैर सुलेमान से कहा।

‘क्या कहा?’ दूसरी तरफ़ से ग़ुर्राहट सुनाई दी।

‘ओह! वह तो मैंने सुलेमान से कहा था। मेरा नौकर है...हाँ तो क्या आप बता सकते हैं कि पिछली रात को मैं रेसकोर्स क्यों नहीं गया।’

‘मैं तुमसे पूछ रहा हूँ?’

‘तो सुनो मेरे दोस्त!’ इमरान ने कहा। ‘मैंने इतनी मेहनत मुफ़्त नहीं की।’ हैंड बैग की क़ीमत दस हज़ार लग चली है। अगर तुम कुछ बढ़ो तो मैं सौदा करने को तैयार हूँ।’

‘शामत आ गयी है तुम्हारी।’

‘हाँ मिली थी...मुझे बहुत पसन्द आयी।’ इमरान ने आँख मार कर कहा।

‘आज रात और इन्तज़ार किया जायेगा। उसके बाद कल किसी वक़्त तुम्हारी लाश शहर के किसी गटर में बह रही होगी।’

‘अरे बाप! तुमने अच्छा किया कि बता दिया अब मैं कफ़न साथ लिये बग़ैर घर से बाहर न निकलूँगा।’

‘फिर भी समझाता हूँ।’ दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी।

‘समझा गया!’ इमरान ने बड़ी विनम्रता से कहा और फ़ोन काट दिया।

उसने फिर किताब उठा ली और उसी तरह मशग़ूल हो गया जैसे कोई बात ही न हो। थोड़ी देर बाद घण्टी फिर बजी। इमरान ने रिसीवर उठा लिया और झल्लायी हुई आवाज़ में बोला—

‘अब मैं यह टेलीफ़ोन किसी यतीमख़ाने को प्रेज़ेण्ट कर दूँगा समझे...मैं बहुत ही मक़बूल आदमी हूँ...क्या मैंने मक़बूल कहा था? मक़बूल नहीं मशग़ूल आदमी हूँ।’

‘तुमने अभी किसी रक़म की बात की थी।’ दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी

‘क़लम नहीं फ़ाउन्टेनपेन!’ इमरान ने कहा।

‘वक़्त मत बर्बाद करो।’ दूसरी तरफ़ से झल्लायी हुई आवाज़ आयी। ‘हम भी उसकी क़ीमत दस हज़ार लगाते हैं!’

‘वेरी गुड!’ इमरान बोला। ‘चलो तो यह तय रहा। बैग तुम्हें मिल जायेगा।’

‘आज रात को।’

‘क्या तुम मुझे अच्छी तरह जानते हो।’ इमरान ने पूछा।

‘उसी तरह जैसे पहली उँगली दूसरी उँगली को जानती हो।’

‘गुड,’ इमरान चुटकी बजा कर बोला। ‘तो तुम यह भी जानते होगे कि मैं बिलकुल बेवक़ूफ़ हूँ।’

‘तुम!’

‘हाँ मैं! रेसकोर्स बड़ी सुनसान जगह है! अगर बैग ले कर तुमने मुझे ठायें कर दिया तो मैं किससे फ़रियाद करूँगा।’

‘ऐसा नहीं होगा।’ दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी।

‘मैं बताऊँ! तुम अपने किसी आदमी को रुपये दे कर टिप टॉप नाइट क्लब में भेज दो। मैं मधुबाला की जवानी की क़सम खा कर कहता हूँ कि बैग वापस कर दूँगा।’

‘अगर कोई शरारत हुई तो?’

‘मुझे मुर्ग़ा बना देना।’

‘अच्छा! लेकिन यह याद रहे कि तुम वहाँ भी रिवॉल्वर की नाल पर रहोगे।’

‘फ़िक्र न करो। मैंने आज तक रिवॉल्वर की शक्ल नहीं देखी।’ इमरान ने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया और जेब से च्यूइंगम का पैकेट तलाश करने लगा।

***

ठीक आठ बजे के क़रीब इमरान अपनी बग़ल में एक चमड़े का हैंड बैग दबाये टिप टॉप नाइट क्लब पहुँच गया। क़रीब-क़रीब सारी मेज़ें भरी हुई थीं। इमरान ने बार के क़रीब खड़े हो कर मजमे का जायज़ा लिया। आख़िर उसकी नज़रें एक मेज़ पर रुक गयीं जहाँ लेडी जहाँगीर एक नौजवान औरत के साथ बैठी ज़र्द रंग की शराब पी रही थी। इमरान आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ मेज़ के क़रीब पहुँच गया।

‘आहा...माई लेडी।’ वह ज़रा झुक कर बोला।

लेडी जहाँगीर ने दाहिनी भौं चढ़ा कर उसे तीखी नज़रों से देखा और फिर मुस्कुराने लगी।

‘हल्लो...इमरान!’ वह अपना दाहिना हाथ उठा कर बोली। ‘तुम्हारे साथ वक़्त बड़ा अच्छा गुज़रता है। यह हैं मिस तस्नीम, ख़ान बहादुर ज़फ़र तस्नीम की साहबज़ादी...और यह अली इमरान।’

‘एम.एस-सी., पी-एच.डी.’ इमरान ने बेवक़ूफ़ों की तरह कहा।

‘बड़ी ख़ुशी हुई आपसे मिल कर,’ तस्नीम बोली। लहजा बेवक़ूफ़ बनाने का-सा था।

‘मुझे अफ़सोस हुआ।’

‘क्यों?’ लेडी जहाँगीर ने हैरतज़दा आवाज़ से कहा।

‘मैं समझता था कि शायद इनका नाम गुलफ़ाम होगा।’

‘क्या बेहूदगी है?’ लेडी जहाँगीर झुँझला गयी।

‘सच कहता हूँ। मुझे कुछ ऐसा ही मालूम हुआ था। तस्नीम इनके लिए बिलकुल ठीक नहीं...यह तो किसी ऐसी लड़की का नाम हो सकता है जो तपेदिक़ की मरीज़ हो, तस्नीम...बस नाम की तरह कमर झुकी हुई।’

‘तुम शायद नशे में हो।’ लेडी जहाँगीर ने बात बनायी। ‘लो और पियो!’

‘फ़ालूदा है?’ इमरान ने पूछा।

‘डियर तस्नीम!’ लेडी जहाँगीर जल्दी से बोली। ‘तुम इनकी बातों का बुरा न मानना, ये बहुत मज़ाक़ करते हैं! ओह...इमरान बैठो न!’

‘बुरा मानने की क्या बात है?’ इमरान ने ठण्डी साँस ले कर कहा। ‘मैं इन्हें गुलफ़ाम के नाम से याद रखूँगा।’

तस्नीम बुरी तरह झेंप रही थी और शायद अब उसे अपने रवैये पर अफ़सोस भी था।

‘अच्छा मैं चली!’ तस्नीम उठती हुई बोली।

‘मैं ख़ुद चला...’ इमरान ने उठने का इरादा करते हुए कहा।

‘माई डियर्स! तुम दोनों बैठो।’ लेडी जहाँगीर दोनों के हाथ पकड़ कर झूमती हुई बोली।

‘नहीं, मुझे एक ज़रूरी काम याद आ गया है।’ तस्नीम ने आहिस्ता से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा और वहाँ से चली गयी।

‘और मैं!’ इमरान सीने पर हाथ रख कर बोला। ‘तुम पर हज़ार काम क़ुर्बान कर सकता हूँ।’

‘बको मत! झूठे...तुम मुझे ख़ामख़ा-ख़ामख़ा ग़ुस्सा दिलाते हो।’

‘मैं तुम्हें पूजता हूँ स्वीटी!...मगर इस बुड्ढे की ज़िन्दगी में....’

‘तुम फिर मेरा मज़ाक़ उड़ाने लगे।’

‘नहीं डियरेस्ट! मैं तेरा चाँद, तू मेरी चाँदनी...नहीं दिल का लगाना...’

‘बस बस!...कभी कभी तुम बहुत ज़्यादा चीप हो जाते हो!’

‘आई एम सॉरी।’ इमरान ने कहा और उसकी नज़रें क़रीब ही की एक मेज़ की तरफ़ उठ गयीं। यहाँ एक जानी-पहचानी शक्ल का आदमी उसे घूर रहा था। इमरान ने हैंड बैग मेज़ पर से उठा कर बग़ल में दबा लिया, फिर अचानक सामने बैठा हुआ आदमी उसे आँख मार कर मुस्कुराने लगा। जवाब में इमरान ने बारी-बारी उसे दोनों आँखें मार दीं। लेडी जहाँगीर अपने गिलास की तरफ़ देख रही थी और शायद उसके ज़ेहन में कोई इन्तहाई रोमांटिक जुमला कुलबुला रहा था।

‘मैं अभी आया!’ इमरान ने लेडी जहाँगीर से कहा और उस आदमी की मेज़ पर चला गया।

‘लाये हो?’ उसने आहिस्ता से कहा।

‘ये क्या रहा?’ इमरान ने हैंड बैग की तरफ़ इशारा किया फिर बोला, ‘तुम लाये हो?’

‘हाँ, हाँ!’ उस आदमी ने हैंड बैग पर हाथ रखते हुए कहा।

‘तो ठीक है!’ इमरान ने कहा, ‘इसे सँभालो और चुपचाप खिसक जाओ।’

‘क्यों?’ वह उसे घूरता हुआ बोला।

‘कप्तान फ़ैयाज़ को मुझ पर शक हो गया है। हो सकता है कि उसने कुछ आदमी मेरी निगरानी के लिए लगा दिये हों।’

‘कोई चाल?’

‘हरगिज़ नहीं! आजकल मुझे रुपयों की सख़्त ज़रूरत है।’

‘अगर कोई चाल हुई तो तुम बचोगे नहीं।’ आदमी हैंड बैग ले कर खड़ा हो गया।

‘यार, रुपये मैंने अपना मक़बरा बनवाने के लिए नहीं हासिल किये।’ इमरान ने आहिस्ता से कहा। फिर वह उस आदमी को बाहर जाते देखता रहा। उसके होंटों पर शरारती मुस्कुराहट थी। वह उस आदमी का दिया हुआ हैंड बैग सँभालता हुआ फिर लेडी जहाँगीर के पास आ बैठा।

***

वह आदमी हैंड बैग लिये हुए जैसे ही बाहर निकला क्लब के कार पार्क से दो आदमी उसकी तरफ़ बढे।

‘क्या रहा?’ एक ने पूछा।

‘मिल गया।’ बैग वाले ने कहा।

‘काग़ज़ात हैं भी या नहीं?’

‘मैंने खोल कर नहीं देखा।’

‘गधे हो।’

‘वहाँ कैसे खोल कर देखता?’

‘लाओ....इधर लाओ।’ उसने हैंड बैग अपने हाथ में लेते हुए कहा। फिर वह चौंक कर बोला, ‘ओह! यह इतना वज़नी क्यों है।’

उसने बैग खोलना चाहा, लेकिन उसमें ताला लगा हुआ था।

‘चलो यहाँ से,’ तीसरा बोला। ‘यहाँ खोलने की ज़रूरत नहीं।’

बाहर पहुँच कर वे एक कार में बैठ गये। उनमें से एक कार ड्राइव करने लगा।

शहर की सड़कों से गुज़र कर कार एक वीरान रास्ते पर चल पड़ी। आबादी से निकल आने के बाद उन्होंने कार के अन्दर रोशनी कर दी।

उनमें से एक जो काफ़ी उम्रदराज़ और अपने दोनों साथियों से ज़्यादा ताक़तवर मालूम होता था, एक पतले-से तार की मदद से हैंड बैग का ताला खोलने लगा। जैसे ही हैंड बैग का फ़्लैप उठाया गया, पिछली सीट पर बैठे हुए दोनों आदमी एकदम उछल पड़े। कोई चीज़ बैग से उछल कर ड्राइवर की खोपड़ी से टकरायी और कार सड़क के किनारे के एक दरख़्त के टकराते हुए बची। रफ़्तार ज़्यादा तेज़ नहीं थी, वरना कार के टकरा जाने में कोई कमी नहीं रह गयी थी। तीन बड़े-बड़े मेंढक कार में उछल रहे थे।

बूढ़े आदमी के मुँह से एक मोटी-सी गाली निकली और दूसरा हँसने लगा।

‘शप अप,’ बूढ़ा गले के पूरे ज़ोर से चीख़ा। ‘तुम गधे हो। तुम्हारी बदौलत...’

‘जनाब, मैं क्या करता? मैं उसे वहाँ कैसे खोल सकता था! इसका भी तो ख़याल था कि कहीं पुलिस न लगी हो।’

‘बकवास मत करो। मैं पहले ही इत्मीनान कर चुका था, वहाँ पुलिस का कोई आदमी नहीं था। क्या तुम मुझे मामूली आदमी समझते हो? अब इस लौंडे की मौत आ गयी है। अरे, तुम गाड़ी रोक दो।’ कार रुक गयी।

बूढ़ा थोड़ी देर तक सोचता रहा, फिर बोला।

‘क्लब में उसके साथ और कौन था?’

‘एक ख़ूबसूरत-सी औरत, दोनों शराब पी रहे थे।’

‘ग़लत है, इमरान शराब नहीं पीता।’

‘पी रहा था जनाब।’

बूढ़ा फिर किसी सोच में पड़ गया।

‘चलो, वापस चलो।’ वह कुछ देर बाद बोला। ‘मैं उसे वहीं क्लब में मार डालूँगा।’ कार फिर शहर की तरफ़ मुड़ी।

‘मेरा ख़याल है कि वह अब तक मर चुका होगा।’ बूढ़े के क़रीब बैठे हुए आदमी ने कहा।

‘नहीं! वह तुम्हारी तरह बेवक़ूफ़ नहीं है!’ बूढ़ा झुँझला कर बोला, ‘उसने हमें धोखा दिया है तो ख़ुद भी ग़ाफ़िल न होगा।’

‘तब तो वह क्लब ही से चला गया होगा।’

‘बहस मत करो।’ बूढ़े ने गरज कर कहा, ‘मैं उसे ढूँढ कर मारूँगा। चाहे वह अपने घर ही में क्यों न हो।’

***