चौदहवां बयान


भरतपुर की राजधानी के बाहर पड़े खेमों में एक सबसे बड़ा खेमा है। हो भी क्यों नहीं ? वह राजा चंद्रदत का खेमा जो है उनका खेमा सिपाहियों के खेमों के बीच में है, ताकि कोई भी आदमी आसानी से राजा चंद्रदत्त तक न पहुंच सके, मगर हम उसके अन्दर तक पहुंच गए हैं— वो देखो – डेरे के अन्दर तेज रोशनी वाली कंदील जल रही है। इस समय डेरे में केवल तीन आदमी हैं ——एक राजा चंद्रदत्त और शेष दोनों उनके पुत्र शंकरदत्त और बालीदत्त । शंकरदत्त उनका बड़ा बेटा है और बालीदत्त उनका छोटा बेटा — वे तीनों ही अभी तक जाग रहे हैं — और कुछ बातें कर रहे हैं... आइए हम इनकी बातों को सुनें।


-"अब हमें अधिक दिनों तक इन्तजार नहीं करना पड़ेगा, बेटे!” चंद्रदत्त शंकरदत्त से कह रहे थे—“कल सन्देश आया था कि राजधानी के अन्दर खाद्य सामग्री समाप्त हो चुकी है, अब या तो वे मजबूर होकर फाटक खोलकर युद्ध करेंगे, अथवा भूख से मरेंगे... दोनों ही तरह से हमारी जीत है। हमने तुम्हारे लिए बहू के रूप में कांता को ही चाहा था और अब जल्दी ही हम उसे तुम्हारी पत्नी बना देंगे।”


–" ये तो मेरे प्रति आपका प्यार है पिताजी !" शंकरदत्त सम्मान के साथ हाथ जोड़कर बोला – “मैंने बड़ी हिम्मत करके आपके सामने अपना विवाह कांता से करने का प्रस्ताव रखा था... मैं तो डर रहा था कि कहीं आप मुझसे नाराज न हो जाएं इसीलिए आपसे न कहकर माताजी से कहा था !"


-" और फिर पिताजी तो पहले ही कांता को मेरी भाभी बनाने के लिए तैयार थे।" मुस्कराते हुए बालीदत्त बोला । 


—"यह मेरा भाग्य ही था । " शंकरदत्त ने कहा – “मेरे ख्याल से आज तक किसी पिता ने किसी पुत्र को इस तरह दुल्हन न दी होगी । "


—“खुद हमें तो अभी तक रणक्षेत्र में उतरना भी नहीं पड़ा है।" चंद्रदत्त बोले – “अभी तक तो सिर्फ हमारे दारोगा जोरावरसिंह ने ही सबकुछ सम्भाल लिया । मानना पड़ेगा कि जोरावरसिंह बड़े काम का आदमी है। सारी सेना को उसने इस तरह अपने कहने में कर रखा है कि उसके आदेश पर सेना हर समय वार करने के लिए तैयार रहती है। जोरावरसिंह जैसे दारोगा किसी भाग्यशाली राजा को ही मिलते हैं। सारी सेना उसके कहने से इस तरह चलती है, मानो वही उनका राजा हो— उसी की वजह से हम एक बहुत बड़ी मुसीबत से अलग ही बचे पड़े हैं। "


- "वह कैसी मुसीबत, पिताजी ?" बालीदत्त ने पिता से प्रश्न किया ।


– “यही—–सेना की मुसीबत !" राजा चंद्रदत्त बोले – “हमारे साथ यह मुसीबत नहीं है कि हम हर सिपहसालार को अलग-अलग समझाते फिरें, हमें जो समझाना होता है, जोरावरसिंह को समझा देते हैं, बस वह पूरी सेना को सम्भाल लेता है—–— सेना के लिए उसके लफ्ज़ हमारे लफ्ज़ होते हैं । " 


-“लेकिन पिताजी, एक तरह से देखा जाए तो यह गलत भी है।" शंकरदत्त ने कहा ।


– “मेरे ख्याल से तो आपको सेना से खुद भी बात करनी चाहिए, क्योंकि इस तरह तो सेना पर सारा अधिकार जोरावरसिंह का ही रहता है। हो सकता है कि कभी दारोगा के दिमाग में बदी ही आ जाए... और वह सेना को आपके खिलाफ भड़का दे और खुद | "


-"क्या मतलब ?"


-"हम समझ गए कि तुम क्या कहना चाहते हो ।” राजा चंद्रदत्त मुस्कराकर बोले – “" किन्तु तुम अभी बच्चे हो— हम आदमी की परख अच्छी तरह जानते हैं, जोरावरसिंह ऐसा आदमी नहीं है, वह हमें राजा नहीं अपना भगवान मानता है | हमसे गद्दारी का विचार उसके दिमाग में आ ही नहीं सकता।"


उसी समय एक सिपाही डेरे में आया और सलाम करने के बाद बोला— "महाराज ऐयार नलकूराम आपसे मिलना चाहते हैं। " 


इसके जवाब में चंद्रदत्त ने कहा – “उसे भेज दो।" फिर सैनिक के जाने के बाद अपने दोनों बेटों से बोला— “लो, आज का सन्देश भी ले आया नलकू।"


कुछ ही सायत बाद डेरे में नलकू दाखिल हुआ— और फिर उसने "क्या मिला सन्देश ?”


उन्हें सलाम किया— चंद्रदत्त ने पूछा- नलकू ने चुपचाप कागज में लिपटा पत्थर चंद्रदत की ओर बढ़ा दिया... चंद्रदत्त ने पत्र खोला — और फिर उसमें से दो कागज निकाले—–एक को अपने पास धरती पर रखकर दूसरा पढ़ने लगे। -


श्री चंद्रदत्तजी,


उम्मीद है कि आपको मेरा कल वाला पत्र भी प्राप्त हो गया होगा। किन्तु आज मुझे एक चौंका देने वाली बात का पता लगा है। जब से मुझे इस बात का पता लगा है, उसी समय से मेरा दिल बहुत परेशान है। बस ये समझ लीजिए कि हमारे सब किए-कराए पर पानी फिर गया है। जिसे आज से पहले हम अपनी जीत समझ रहे थे, आज पता लगा कि हम जीवन की सबसे बड़ी बाजी हार रहे हैं। आपको शायद यह सुनकर यकीन नहीं आएगा कि इस समय हम दोनों की जान खतरे में है। हम समझ रहे थे कि हम जीत रहे हैं, मगर सच जानिए कि हम दोनों खतरे में हैं। हम सोच रहे थे कि हमने दुश्मनों को घेर रखा है—मगर वास्तविकता ये है कि हमारे दुश्मनों ने हमें चारों ओर से घेर रखा है। दुश्मन ने ऐसा षड्यंत्र रचाया है कि किसी भी समय हम दोनों को ही नहीं, बल्कि शंकरदत्त और बालीदत्त को भी दुश्मन प्राणों से वंचित कर सकता है । 


आप सोच रहे होंगे कि मैंने कल के पत्र में क्या लिखा था और आज एकदम से मैं क्या लिख रहा हूं किन्तु हकीकत ये है जो इस समय लिख रहा हूं। कल तक मैं और आप दोनों ही भ्रमित थे। हम सोच रहे थे विजय हमारे साथ है, किन्तु आज ही दिन में मुझे पता लगा है कि हम बहुत बड़े खतरे में फंसे हुए हैं। अब मैं उस मंडराते हुए खतरे का जिक्र करता हूं। असल बात तो ये है कि — आपका दारोगा यानी जोरावरसिंह सुरेंद्र भैया से मिला हुआ है। सुरेंद्रसिंह ने जोरावर को वचन दिया है कि वे कांता का विवाह जोरावर से कर देंगे। उसी लालच से जोरावर आपके खिलाफ हो गया है । जोरावर का कहना है कि आपकी (चंद्रदत्त की) सारी सेना उसके कहने पर चलती है। अन्दर ही अन्दर वह आपकी सेना को आपके खिलाफ भड़का चुका है। वह ठीक समय पर आपके खिलाफ सेना के साथ विद्रोह कर देगा । इस तरह सेना द्वारा विद्रोह कराकर सुरेंद्रसिंह और जोरावरसिंह के बीच यह तय हुआ है कि वे आपको और आपके दोनों लड़कों को मार डालेगा। इस तरह सुरेंद्रसिंह कांता का विवाह जोरावर से कर देंगे और आपकी मृत्यु के बाद आपके राज्य राजगढ़ का राजा जोरावरसिंह बन जाएगा। सुरेंद्र भैया और जोरावर के बीच यही फैसला हुआ है। सुरेंद्रसिंह और जोरावर के बीच लगभग इसी तरह पत्र-व्यहार हो रहा है, जिस तरह कि हम करते हैं । भैया का ऐयार शेरसिंह रात के अन्तिम पहर में बारादरी से नीचे पत्थर में लपेटकर पत्र जोरावर तक पहुंचाता है। उसका जवाब जोरावर लिखता है और सुरेंद्रसिंह के पास पहुंचा देता है। उसका तरीका ये है कि राजधानी की दीवार के पश्चिम और दक्षिणी दीवारों के कोने पर एक डोरी लटकी रहती है ——जोरावर अपना खंत उसी डोरी में बांध देता है और वह डोरी ऊपर खींच ली जाती है। यह सारी बात मुझे उस समय पता लगी जब सुरेंद्र भैया और शेरसिंह तखलिए में बात कर रहे थे। मैंने छुपकर उनकी बातें सुनी थीं। आपके विरुद्ध एक गहरी साजिश रची जा रही है। इस कागज के साथ ही मैं आपको एक कागज और भेज रहा हूं—यह खत जोरावरसिंह का है, जो उसने परसों रात सुरेंद्र भैया के पास भेजा था। मैंने बहुत कठिनाई से यह पत्र प्राप्त किया है। आपके पास सुबूत के तौर पर भेज रहा हूं, ताकि आप सारी साजिश से वाकिफ हो जाएं– मेरा ये पत्र यहीं पढ़कर बन्द कर दीजिएगा। पहले जोरावर वाला पत्र पढ़ें, उसके बाद मेरा शेष पत्र पढ़ें । मेरे इस पत्र के साथ ही जोरावरसिंह का पत्र है।


पत्र यहां तक पढ़ते-पढ़ते चंद्रदत्त के पसीने छूट गए | दिल घबरा उठा। आंखों में चिन्ता की परछाइयां नृत्य करने लगीं। उन्होंने कांपते हाथों से दूसरा कागज उठाया। सबसे पहले उन्होंने खत के नीचे नाम पढ़ा । 'जोरावरसिंह' —–—–पढ़ते ही उनका दिल धंक से रह गया । फिर उन्होंने साहस करके पत्र शुरू से पढ़ा।


लिखा था--


आदरणीय सुरेंद्रसिंह जी, 


प्रणाम, मुझे आपका कल रात भेजा गया खत मिल गया है—मुझे खुशी है कि आपने मेरा प्रस्ताव मान लिया है—–— अपने खत में मैंने आपके सामने प्रस्ताव रखा था कि इस समय आपकी पराजय निश्चित है। आप अब इस तरह अधिक दिनों तक फाटक बन्द करके राजधानी में नहीं रह सकते, क्योंकि मैं जानता था कि राजधानी के अन्दर केवल चालीस दिन के लिए ही खाने की सामग्री थी और अब वह समाप्ति पर होगी। अब या तो विवश होकर आप राजधानी का फाटक खोलकर युद्ध करेंगे अथवा भूखे मरेंगे। दोनों ही तरह से आपकी पराजय निश्चित है। मैंने लिखा था कि अगर आप इस मुसीबत से बचना चाहते हैं तो केवल यही तरकीब है कि कांता से मेरा विवाह कर दें। चंद्रदत की सेना चंद्रदत्त के कहने से नहीं, बल्कि मेरे कहने से चलती है। मैं जानता हूं कि कांता राजकुमारी है, अतः आप उसका विवाह किसी राजकुमार अथवा राजा से ही करना चाहते होंगे। आप यकीन रखिए कि मैं जब चाहूं सेना के साथ बगावत करके राजा चंद्रदत्त के सारे खानदान को खत्म करके खुद राजा बन सकता हूं। मुझे इस बात की खुशी है कि आप मेरे पहले पत्र के प्रस्ताव से सहमत हो गए हैं, यानी आप मेरे साथ कांता का विवाह करने के लिए तैयार हो गए हैं। आप निश्चिंत रहिए, ऐसी कोई ताकत नहीं है जो आपका बाल भी बांका कर सके । सारी सेना मेरे कहने में है। अन्दर ही अन्दर मैं सेना को चंद्रदत्त के खिलाफ भड़का चुका हूं। अपने कल के पत्र में मैं पूरी तरकीब लिखूंगा, उसी के अनुसार काम करें। आप क्षत्रिय हैं और आपने मुझे वचन दिया है कि कांता का विवाह मुझसे करेंगे, अतः क्षत्रिय धर्म से गिरें नहीं । अगर आप अपने वचन से फिरे तो उसका अंजाम भी आप जानते हैं। कांता से विवाह करके मैं राजगढ़ का राजा बन जाऊंगा, इस तरह से भरतपुर के साथ-साथ राजगढ़ भी आपका ही राज्य होगा। आपका भावी दामाद-जोरावरसिंह ।


इस पत्र को पढ़कर तो राजा चंद्रदत्त की अजीब हालत हो गई। ऐसा लगता था कि जैसे वे अभी फूट-फूटकर रो पड़ेंगे। उन्होंने पुनः हरनामसिंह वाला खत उठाया और शेष पत्र पढ़ने लगे, लिखा थाआशा है मेरे ये शब्द आप उस पत्र को पढ़ने के बाद पढ़ रहे हैं, जो जोरावरसिंह ने सुरेंद्र भैया को लिखा है। इस पत्र को पढ़कर आपने अन्दाजा लगा लिया होगा कि जोरावरसिंह और सुरेंद्रसिंह के बीच आजकल किस तरह की बातें चल रही हैं। इन लोगों के बीच फैसला हो चुका है। वैसे तो सुरेंद्र भैया कांता की शादी जोरावर से करने के लिए तैयार होते अथवा नहीं होते, किन्तु ये पत्र बताता है कि परिस्थितियों से मजबूर होकर वे ऐसा करने के लिए तैयार हो गए हैं। जहां तक मेरा अपना ख्याल है, वह यही है कि जोरावरसिंह ने सुरेंद्र भैया को ठीक ही लिखा है। मुझे भी ऐसा ही लगता है कि आप अपने दारोगा पर जरूरत से ज्यादा विश्वास करते हैं। सारी सेना उसी के कब्जे में है। वास्तव में उसने जो कुछ सुरेंद्र भैया को लिखकर भेजा है, उसे वह आसानी से पूरा कर सकता है। पता नहीं सेना के साथ-साथ आपके कौन-कौन-से ऐयार जोरावरसिंह से मिले हुए हों। मेरे विचार से तो इस समय यही उचित होगा कि आप यह प्रकट न करें कि आप जोरावरसिंह और सुरेंद्रसिंह की बातों से वाकिफ हैं। आप जोरावरसिंह से इस बात का जिक्र करने की भी कोशिश मत करना, वर्ना हम लोगों का अन्त निश्चित है । जब सारी सेना ही उसके साथ है तो आप कर ही क्या सकेंगे ? इससे अच्छा ये है कि इस समय जोरावरसिंह को छेड़ा ही नहीं जाए। मेरे ख्याल से उसे इस समय छेड़ना अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारना है। मुझे कितना दुःख है कि मैं भरतपुर का राजा बनते-बनते रह गया हूं ! कुंवर शंकरदत्त की इच्छा भी इस समय पूर्ण नहीं हो सकेगी, किन्तु हमें निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि इस समय बुद्धि से काम लेना चाहिए । मेरी राय से आज सुबह होते ही यह घोषणा कर दें कि आपने भरतपुर जीतने और शंकरदत्त का विवाह कांता से करने का विचार त्याग दिया है, अतः सुबह ही बिना कोई कारण बताए कूच का हुक्म दे दें—–— इस तरह जोरावरसिंह और सुरेंद्र भैया की साजिश बीच में ही फेल हो जाएगी और आप अपने राज्य राजगढ़ में पहुंचकर अपने ढंग से जोरावर से निपट सकते हैं। उसके बाद आप सेना को अपने वश में करके कुछ दिनों बाद पुनः पूर्ण शक्ति से भरतपुर पर हमला कर सकते हैं। इस तरह हमें अपना उद्देश्य पूरा करने में कुछ देर तो अवश्य लगेगी, मगर सफल हो जाएंगे। अगर हमने जल्दबाजी की तो न केवल असफल होंगे, बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठेंगे। मेरी राय तो यही है, अब उसे मानना न मानना आपके अख्तियार में है। 


आपका दोस्त हरनामसिंह ।


चंद्रदत्त ने पूरा पत्र पढ़ लिया और कुछ देर तक अपने हवा में चकराते दिमाग पर काबू पाने का प्रयास करते रहे। काफी देर बाद वे खुद को संयत कर सके, शंकरदत्त और बालीदत्त भी ऐसी स्थिति देखकर घबरा गए। उन्होंने एकदम पूछा 


 "क्या हुआ पिताजी-इन खतों में क्या लिखा है ?"


-"कुछ नहीं बेटे-जोरावरसिंह विभीषण बन गया।" बुरी तरह परेशान राजा चंद्रदत्त बोले और उन्होंने सबकुछ अपने दोनों लड़कों और नलकूराम को भी बता दिया। नलकू भी वहीं उनके पास बैठ गया था। सब कुछ सुनने और दोनों पत्र पढ़ने के बाद उन तीनों के चेहरों से भी चिंता टपकने लगी। शंकरदत्त बोला- "मैं पहले ही कहता था पिताजी- हमें जोरावरसिंह पर इतना विश्वास नहीं करना चाहिए था। वो कमबख्त कांता के चक्कर में ।" 


 -“कांता सुन्दर ही इतनी है कुंवर साहब कि उसके लिए कोई भी पुरुष जो भी कुछ कर दे वह कम है । " नलकू बोला – “आज का हर जवान आदमी अपनी पत्नी के रूप में केवल राजकुमारी कांता को ही देखना चाहता है। हम लोगों ने भरतपुर पर हमला केवल कांता के लिए किया था। उसी कांता को प्राप्त करने के लिए जोरावरसिंह हमसे गद्दारी कर बैठा है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। कांता है ही ऐसी रूपवान । " 


- "इन बातों को छोड़ो, नलकू।" परेशान चंद्रदत्त बोले –  “अब तो आगे की सोचो।


 -"हम समझते हैं कि इस समय हमारे पास तुम ही एक वफादार ऐयार हो । अन्य किसी से तो हम यह भेद कह भी नहीं सकते—क्योंकि क्या पता कौन-सा ऐयार जोरावरसिंह से मिला हुआ हो ? शुरू से तुम ही हमारे विश्वासपात्र हो, तुम ही अपने ऐयारी के दिमाग से सोचकर कुछ ऐसी तरकीब बताओ— जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे । कल तक हमें अपनी विजय में किसी तरह का संदेह नहीं था मगर आज लगता है कि हमें अपनी जान भी बचानी भारी है। कुछ बताओ नलकू... इस समय हमें क्या करना चाहिए ?" 


—" सबसे पहले तो हमें यह पता लगाना चाहिए महाराज कि - जोरावरसिंह गद्दारी कर भी रहा है या नहीं।" नलकूराम बोला—“कहीं ऐसा न हो कि यह सारा जाल दुश्मनों के ऐयारों का बिछाया हुआ हो। वे आप में और जोरावरसिंह में फूट डलवाना चाहते हों ताकि आप खुद ही अपनी फौजें यहां से हटा लें।"


"हम तुम्हारा मतलब नहीं समझे नलकू !" चौंककर राजा चंद्रदत्त बोले- "भला ऐसा कैसे हो सकता है ? खुद जोरावरसिंह के हाथ का लिखा खत हमारे पास है। "


 -"ये तो मैं नहीं कह सकता महाराज" नलकू ने कहा- "इसमें दुश्मन के ऐयारों की क्या चाल हो सकती है यह तो मैं नहीं बता सकता - परन्तु इन खतों में कुछ इस तरह की बातें लिखी हैं जिसकी जांच करके हम सत्यता का पता लगा सकते हैं, जैसे इसमें लिखा है कि जोरावरसिंह धागे में बांधकर खत सुरेंद्रसिंह के पास पहुंचाता है। आज की रात ही हम जांच कर सकते हैं कि ऐसा है भी अथवा नहीं। दूसरी बात ये कि हम गुप्त ढंग से जोरावरसिंह के डेरे की तलाशी भी ले सकते हैं। अगर वास्तव में यह सुरेंद्रसिंह के ऐयारों की ऐयारी नहीं है... तो हमें जोरावरसिंह के डेरे से सुरेंद्रसिंह का एकाध खत जरूर मिलना चाहिए ।


-"शायद तुम ठीक कहते हो । " चंद्रदत्त बोले—“लेकिन क्या तुम अकेले आज की शेष रात में इतना सबकुछ काम कर सकोगे ?" 


- “आपके लिए अपने प्राणों की बाजी लगाना मेरा धर्म है महाराज । " नलकू पूरा वफादार बनकर बोला – "वैसे मुझे उम्मीद तो बिल्कुल नहीं है कि यह सबकुछ सुरेंद्रसिंह के ऐयारों की ऐयारी होगी... क्योंकि सबसे पहले तो सोचने की बात यही है कि वे महल से बाहर कैसे आ सकते हैं, किन्तु फिर भी ऐयारों का क्या भरोसा ? दूसरी तरफ खुद जोरावर की लिखाई का यह पत्र अन्य कौन लिख सकता है ? तीसरी बात ये है कि खुद मुझे भी इस बात का यकीन है कि जोरावरसिंह कांता को और राजगढ़ को पाने के लिए सबकुछ कर सकता है... परन्तु फिर भी अपनी बात की पुष्टि कर लेने में क्या हर्ज है ?"


“तुम ठीक कहते हो नलकू——तुम जाकर जल्दी से अपनी ऐयारी का कोई कमाल दिखाओ।" चंद्रदत्त ने उसे आज्ञा दी।


नलकू सलाम करके डेरे से बाहर निकल गया। राजा के डेरे के आसपास कई अलाव जल रहे थे । खास राजा के डेरे के चारों ओर जलते इन अलावों का एक सबब ये भी था कि अंधेरे का लाभ उठाकर कोई सिपाहियों की नजर से छुपकर महाराज के डेरे तक न पहुंच सके । नलकू डेरे से बाहर निकला, उसे किसी ने रोकने की कोई कोशिश नहीं की, सभी सैनिक जानते थे कि नलकू चंद्रदत्त का खास ऐयार है । वे तो नहीं जानते...किन्तु हम जानते हैं कि हमारे पाठक बहुत पहले समझ चुके हैं कि यह नलकू असली नलकू नहीं है - है— बल्कि सुरेंद्रसिंह के ऐयारों में से कोई है। जहां तक हमारा ख्याल है, बहुत से पाठक इसका नाम भी समझ गए होंगे—जो नहीं समझे हैं, उन्हें हम बता देते हैं कि नलकू के भेष में इस समय शेरसिंह महाराज हैं। हमारा ये दिलेर ऐयार दुश्मन की सेनाओं के बीच है। उसके प्राण इस समय हथेली पर हैं। अगर यह भेद खुल जाए कि वह शेरसिंह है... तो उसकी हड्डियों का भी पता न लगे। शेरसिंह के मालिक यानी राजा सुरेंद्रसिंह को इस युद्ध में विजयी होने का स्वप्न भी नहीं है। हारी हुई बाजी को हमारा ये दिलेर ऐयार अपने दिमाग का प्रयोग करके एक ही रात में किस तरह पलट रहा है, वह आपके सामने है। दुश्मनों की फौज में घुसकर शेरसिंह इतना सबकुछ कर रहा है और अभी तक चंद्रदत्त, शंकरदत्त तथा बालीदत्त के अलावा कोई ये भी नहीं जानता कि रात के इस अंधकार में, जबकि चारों ओर सन्नाटा है—हमारा ऐयार किस ढंग से बाजी पलट रहा है ! यह सबकुछ केवल शेरसिंह की बुद्धि और दिलेरी के कारण हो रहा है । शेरसिंह अपना आधा रंग चंद्रदत्त पर चढ़ा चुका है— आगे वह क्या करता है, वह जरा ध्यान से पढ़ने की बात है।


वो देखिए, नलकू बना हुआ शेरसिंह किस तरह मस्ती के साथ दुश्मन के सिपाहियों के बीच से गुजर रहा है। कुछ ही देर में वह उसी डेरे में पहुंच गया, जहां इस समय गोपालदास उसका इन्तजार कर रहा है। इस समय गोपालदास भी चंद्रदत्त के एक ऐयार सुखदेव के भेष में है। असलियत ये है कि यह डेरा नलकूराम और सुखदेव का ही था। शेरसिंह और गोपालदास ने अपने ढंग से उस पर कब्जा किया है। असली सुखदेव और नलकू डेरे में एक तरफ चटाई में लिपटे पड़े हैं और हमारे ये दिलेर ऐयार सुखदेव और नलकू बने हुए है। शेरसिंह के पहुंचते ही सुखदेव के वेश में बैठा गोपालदास पूछता है"


"क्या रहा ?"


-"सबकुछ ठीक चल रहा है । " शेरसिंह खुश होते हुए कहता "चंद्रदत्त के साथ-साथ उसके दोनों लड़के भी उन पत्रों के चक्कर में आ गये हैं। उन्हें पूरा विश्वास है कि कांता को प्राप्त करने के लिए जोरावरसिंह यह सबकुछ कर सकता है, परन्तु अगली चाल चलने के लिए मैंने उनसे यह कह दिया है कि हमें इन बातों की पुष्टि कर लेनी चाहिए, अतः उन्होंने मुझे ही उस डेरे से पत्र निकालने के लिए भेजा है । "


- " इसका मतलब अब सारा काम इस बात पर निर्भर है कि राजा साहब (सुरेंद्रसिंह) हमारे बताए हुए स्थान पर एक पत्र लिखकर डोरी से लटकाएं।" गोपालदास ने कहा।


–“लटकाएंगे क्यों नहीं — मैं उन्हें तखलिए में सबकुछ समझा आया था । " शेरसिंह ने कहा – “आज की रात डोरी में बांधकर जो पत्र मेरे बताए हुए स्थान पर उन्हें लटकाना है, वह मैंने खुद ही उनसे लिखवाया था—यानी उस पत्र में लिखा मजमून मैंने खुद उन्हें लिखकर दिया था। "


— "लेकिन तुमने यह लटकाने का झंझट ही क्यों रखा ?" गोपालदास बोला – "अगर तुम महल से बाहर आते ही उसे अपने साथ ले आते तो इस समय महल की दीवार के करीब जाने की क्या जरूरत पड़ती ? तुम यहीं से जाकर ये खत दिखा देते और चंद्रदत्त से कह देते कि तुम यह खत उसी डोरी से खोलकर लाए हो । बेकार अगर सुरेंद्रसिंह किसी कारणवश डोरी न लटका सके - "ऐसा नहीं हो सकता गोपाल | " शेरसिंह ने कहा- -"आज की रात सुरेंद्रसिंह का सबसे मुख्य काम यही है... अगर वे मर भी रहे होंगे तो वह पत्र डोरी में बांधकर लटकाएंगे जरूर – क्योंकि इस समय उन्हें मेरी तरकीब से ही कुछ आशाएं हैं। अगर मुझे ये पता होगा कि चंद्रदत्त खत लाने के लिए डोरी के पास भी मुझे ही भेजेंगे तो मैं डोरी का चक्कर ही नहीं रखता — बल्कि तुम्हारे कहे अनुसार ही करता... मगर मुझे क्या मालूम था कि चंद्रदत्त यह काम भी मुझे ही सौंप देगा। मैंने तो सोचा था कि वह काम वह चाहे किसी का भी सौंपे... डोरी में बंधा हुआ पत्र वही खोलकर लाएगा। लेकिन अब भी क्या बुराई है, मैं खुद डोरी में से वह खत खोलकर चंद्रदत्त के पास ले जाऊंगा। उसके बाद सुरेंद्रसिंह के हाथ के दो पत्र चंद्रदत्त को और दिखाए जाएंगे।"


तो सारी योजना ही असफल हो जाएगी ।"


— "तुम ठीक कहते हो, शेरसिंह । वास्तव में तुमने सारी योजना सोच-समझकर बनाई है । " गोपालदास बोला – “अब इसमें शक नहीं रह गया कि तुम सफल हो जाओगे। कौन जानता है कि तुम इस अंधेरी रात में बाजी को किस तरह पलटते हो । वास्तव में एक बुद्धिमान आदमी रातों-रात हारा हुआ युद्ध जीत सकता है । "


-"अब मैं चलता हूं।" शेरसिंह ने कहा - "तुम पूरी तरह सतर्क यहीं पर रहो, इन दोनों में से अगर कोई भी होश में आए तो पुनः वेहोशी की बुकनी सुंघाकर दुरुस्त कर देना ।" इतना कहकर शेरसिंह बाहर निकल आया । अब वह राजधानी की दीवार के पश्चिम और दक्षिण की दीवार के कोने की ओर बढ़ा। रास्ते में उसे सैनिकों ने टोका । किन्तु यह जानकर कि वह नलकूराम है, सभी उसका रास्ता छोड़ देते थे। कुछ ही देर उपरान्त वह दीवार के पश्चिम और दक्षिणी दीवार के कोने पर पहुंच गया। उसने टटोलकर देखा तो एक लटकी हुई डोरी उसकी उंगलियों में उलझ गई। डोरी का अहसास करते ही उसका दिल खुशी से उछल पड़ा । वह जल्दी से उस डोरी का सिरा ढूंढ़ने लगा— क्योंकि उसी में तो सुरेंद्रसिंह का पत्र बंधा हुआ था ।


पंद्रहवां बयान


“आप जोरावरसिंह को पहचानने में गलती कर गए, पिताजी । " शंकरदत्त चंद्रदत्त से कह रहा था — "आपने उसे सीधा, सच्चा और वफादार जानकर उस पर जरूरत से ज्यादा विश्वास कर लिया। सारी सेना का भार उस पर छोड़ दिया, अब नतीजा क्या निकला – हमारी ही सेनाओं के बल पर वह हमारे पूरे खानदान को नष्ट करने की तरकीब लड़ा रहा है। वह मेरी कांता को भी प्राप्त करना चाहता है और हमारा राज्य भी । " 


- "हमें अच्छी तरह से आदमी की पहचान है शंकर बेटे !” चंद्रदत्त टूटे-से स्वर में बोले – “अच्छी तरह से परखकर ही हमने जोरावरसिंह को अपना दारोगा और सेना का सर्वेसर्वा बनाया था। हम अब भी विश्वास के साथ कह सकते हैं कि अगर कांता की बात नहीं होती तो वह हमसे किसी भी कीमत पर दगा नहीं कर सकता था... लेकिन कांता इतनी रूपवान और गुणवती है कि जोरावरसिंह का भी मन डोल गया और वह हमसे दगा करने लगा। अगर ध्यान से गौर किया जाए बेटे तो यह कोई ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं है। कांता को प्राप्त करने के लिए जब हम भरतपुर पर चढ़ाई कर सकते हैं तो उसे ही पाने के लिए जोरावरसिंह हमसे दगा करने के लिए तैयार हो जाए तो इसमें क्या आश्चर्य है ? कांता है ही ऐसी कि उसे प्राप्त करने के लिए कोई भी पुरुष अपना गला तक काट सकता है।”


-“लेकिन अगर ऐसा हो गया पिताजी तो मैं कांता के बगैर तड़प-तड़पकर मर जाऊंगा।" शंकरदत्त दीवाना - सा होकर बोला- "मैं राजकुमारी कांता को किसी और की पत्नी के रूप में नहीं देख सकता। कुछ भी नहीं कर सका तो मैं अपनी जान दे दूंगा—–—मुझे कांता से बेइन्तिहा मुहब्बत है।"


अभी चंद्रदत्त अपने बेटे की इस दीवानगी-भरी बात का उत्तर भी नहीं दे पाए थे कि नलकू (शेरसिंह) खेमे के अन्दर दाखिल हुआ। तीनों अपनी बातें भूलकर उसकी ओर जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से देखने लगे। राजा चंद्रदत्त स्वयं को रोक नहीं सके और उन्होंने प्रश्न किया— “क्या रहा ?”"


-" दारोगा साहब वास्तव में दुश्मन से मिल गए हैं महाराज !” नलकू ने दुखी मन का अभिनय करके कहा – “मुझे वह धागा उसी स्थान पर लटका हुआ मिला। उसमें इस पत्र के साथ-साथ ये अंगूठी भी बंधी हुई थी - खत तो मैंने नहीं पढ़ा, मगर अंगूठी पर कांता लिखा है ।”


-“कांता !" शंकरदत्त एकदम दीवाना - सा होकर नलकू पर झपटा और उसने नलकू के हाथ से वह अंगूठी ले ली। यह हीरे की एक कीमती अंगूठी थी। उसके ठीक बीच में हीरे को तराशकर लिखा गया था — कांता–अंगूठी को देखते ही शंकर पागल सा होकर बोला – “हां, मैं इस अंगूठी को पहचानता हूं—यह राजकुमारी कांता की अंगूठी है मैंने एक बार उसे यह अंगूठी पहने हुए देखा है—हाय मेरी कांता... मेरी कांता !" 


— “लेकिन डोरी में इस अंगूठी को बांधने का क्या सबब हो सकता है ?" बालीसिंह कुछ सोचता हुआ बोला ।


- " शायद सुरेंद्रसिंह के इस खत को पढ़ने से कुछ पता लग सके । " नलकूराम ने कहा—–—खुद चंद्रदत्त ने वह खत खोला — शंकरदत्त, बालीदत्त और खुद नलकू भी उस पत्र पर झुक गए। चारों ने मन-मन में पढ़ा, लिखा था


बेटे जोरावरसिंह,


तुम्हारा ये पत्र हमें प्राप्त हो चुका है। तुमने इसमें लिखा है कि तुम्हें इस बात में सन्देह है कि हम अपनी बेटी कांता का विवाह अपने वायदे के मुताबिक तुमसे करेंगे भी या नहीं। हम क्षत्रिय हैं और हम तुम्हें वचन दे चुके हैं। तुम तो खुद क्षत्रिय हो—अतः स्वयं क्षत्रिय के वचन का मतलब जानते हो। हम प्राण दे सकते हैं परन्तु अपने वचन से नहीं मुकर सकते । फिर तुममें ऐसी कोई कमी भी नहीं है जो हम तुम्हें कांता के लायक न समझें तुम क्षत्रिय हो। हमारी जाति के हो। राजा भी तुम बनने ही वाले हो । शंकरदत्त से तो तुम लाख गुना अच्छे हो । हम फिर वचन देते हैं कि कांता का विवाह तुम्हीं से करेंगे। तुम्हारे विश्वास के लिए हम इस पत्र के साथ राजकुमारी कांता की अंगूठी भी भेज रहे हैं। अब बस कांता को तुम अपनी ही समझो। तुमने अपने इस पत्र में अपनी पूरी योजना लिख भेजी है तुम्हारे लिखने के अनुसार हम कल संध्या के अन्तिम पहर में यह घोषणा कर देंगे कि हम चंद्रदत्त से हार स्वीकार करते हैं और अपनी बेटी कांता का विवाह हम चंद्रदत्त के पुत्र शंकरदत्त से करने के लिए तैयार है। अपने कुछ खास-खास सैनिकों को और ऐयारों को हम असलियत बता देंगे, वर्ना सबसे यही कहा जाएगा कि द्वार खोलकर चंद्रदत्त को सम्मान के साथ राजधानी में लाया जाए। इस घोषणा से चंद्रदत्त खुश हो जाएगा और इस तरह उन्हें भरतपुर के महल में ले जाया जाएगा । महल में ही तुम तीनों बाप-बेटों की गरदनें काटकर कांता के पैरों में डाल दोगे-उधर तुम अपने खास-खास आदमियों को पहले ही बता देना कि राजा चंद्रदत्त को महल के अन्दर सम्मान के साथ किसलिए ले जाया जा रहा है । कल ही रात्रि में तुम्हारा और कांता का विवाह सम्पन्न हो जाएगा और उन तीनों बाप-बेटों की हत्या करके तुम राजगढ़ के राजा कहलाओगे । अब चंद्रदत्त को पता लगेगा कि दूसरों की बेटी पर बुरी नजर डालने का नतीजा क्या होता है। चंद्रदत्त के जैसे होश फाख्ता हो गए ।


वह पत्र पूरा पढ़ने के बाद तो अपने सामने उन्हें अपनी मौत नजर आने लगी। उनकी आंखों में आंसू तैरने लगे। शंकरदत्त और बालीदत्त का भी घबराहट के कारण बुरा हाल था । नलकू जो कुछ भी कर रहा था, वह अभिनय था ।


"अब क्या होगा नलकू ?" घबराए से चंद्रदत्त ने कहा- "इस दुष्ट दारोगा ने तो पूरी योजना भी सुरेंद्रसिंह को लिख भेजी है। मैंने तो कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि जोरावरसिंह एक दिन हमारे साथ ऐसा करेगा। हमें मारने तक की योजना बना बैठा दुष्ट | " 


- "हमें अभी और पुष्टि करनी चाहिए महाराज !” नलकू ने कहा – “आप ऐसा कीजिए कि किसी सिपाही द्वारा दारोगा साहब को यहां बुलाइए। आप उसे यहां बातों में लगाइए, इस बीच मैं उसके डेरे की तलाशी लूंगा— शायद सुरेंद्रसिंह का एक-आध खत और मुझे उसके डेरे से हाथ लगे।"


–“बस नलकू— हो चुकी पुष्टि । " चंद्रदत्त बोले- "हम सुरेंद्रसिंह की लिखाई लाखों में पहचान सकते हैं। बेशक यह खत सुरेंद्रसिंह ने लिखा है । इसी पत्र से सबकुछ जाहिर है। हमारी पुष्टि हो चुकी है, अब हमें ज्यादा पुष्टि करके समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। पुष्टि हो चुकी है कि यह सुरेंद्रसिंह के ऐयारों की ऐयारी नहीं— बल्कि हमारे दारोगा की गद्दारी है। अब तो तुम कुछ ऐसा उपाय सोचो कि जिससे दारोगा को उसकी करनी का फल चखाया जा सके।"


अन्दर ही अन्दर खुश हो गया शेरसिंह । अपने उद्देश्य में लगभग वह सफल हो चुका था। कुछ देर तक वह सोचने का अभिनय करता रहा फिर नलकू की ही आवाज में बोला- "इस समय यहां पर दारोगा के खिलाफ कुछ भी करना मुनासिब नहीं होगा महाराज – क्योंकि सारी सेना उसकी है। "


–" तो कोई ऐसी तरकीब निकालो – जिससे सुबह को ही यहां से राजगढ़ की ओर कूच हो जाए । " चंद्रदत्त बोले – “अगर हम बिना किसी कारण के सेना को वापस कूच का हुक्म देंगे तो हो सकता है कि दारोगा को शक हो जाए कि हमें उसकी साजिश का पता लग गया है। कल शाम को वह अपनी योजना कार्यान्वित करना चाहता है। कोई ऐसा कारण सोचो जिसे सुनकर खुद दारोगा भी वापस चलने के लिए बाध्य हो जाए।" -“वापसी के नाम से तो जोरावरसिंह एकदम बिदक जाएगा।" शंकरदत्त बोला— “उसे अपनी योजना एकदम असफल होती दिखाई देगी और किसी भी कीमत पर वह वापस राजगढ़ लौटने के लिए तैयार नहीं होगा। वह भला अपना बनता हुआ काम खटाई में क्यों डालेगा ?” -"यह तो हम भी समझते हैं । " चंद्रदत्त ने कहा – “तभी तो कहते हैं कि कोई ऐसा बहाना होना चाहिए जिसे सुनकर जोरावरसिंह खुद भी राजगढ़ लौटने के लिए व्यग्र हो जाए। कोई ऐसा बहाना हो, जिसे दारोगा कांता से भी अधिक महत्त्व दे सके और इस काम को बाद में करने का विचार करके वह कल सुबह राजगढ़ के लिए कूच करने के लिए तैयार हो जाए। बस — वहां पहुंचकर हम उसे उसके किए की सजा आसानी से दे देंगे।"


-“लेकिन ऐसी उसे क्या खबर दी जाए—जिसे वह कांता से बढ़कर महत्त्व देता हो और तुरन्त राजगढ़ पहुंचने के लिए व्यग्र हो जाए ?" शंकरदत्त बोला— “मेरे ख्याल से तो उसके लिए कांता से अधिक महत्व की कोई बात नहीं हो सकती । "


– “हो सकती है।" कुछ सोचने के उपरान्त नलकू बोला ।


—“क्या ?" यह प्रश्न करके तीनों एक साथ उसका मुंह ताकने लगे । नलकू बोला—“अगर कल सुबह कोई ऐयार कुछ ऐसी खबर लेकर यहां पहुंचे, जिसमें पूरे राजगढ़ के साथ-साथ दारोगा साहब के भी नुकसान की बात हो तो दारोगा सुबह को वापस राजगढ़ चलने के लिए तैयार हो सकता


- "लेकिन जब राजगढ़ में ऐसी घटना घटी नहीं है तो यहां ऐसी खबर लेकर कोई आएगा क्यों ?" बालीसिंह ने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रश्न किया ।


–“आप कौन-कौन से ऐयारों को राजगढ़ में छोड़कर आए हैं महाराज ? " नलकू ने प्रश्न किया ।


–“पन्नालाल, हीरामल, हरीराम और गहराचन्द इत्यादि ऐयार राजगढ़ में हैं।” चंद्रदत्त ने बताया —" किन्तु यहां उनके नाम पूछकर तुम क्या करना चाहते हो ? अब इस समय तो वे यहां नहीं आ सकते — हमें तो ये सोचना है कि इस समय हम दारोगा को कैसे धोखा दें ?"


कहा—“मैं वही सोच रहा हूं महाराज । " नलकू बने शेरसिंह ने "कल सुबह को मैं पन्नालाल का भेस धरकर यहां आऊंगा । अपने साथ मैं कोई सन्देश लाऊंगा | आप तीनों के अलावा सब यही समझेंगे कि पन्नालाल आया है और कोई सूचना लाया है । यह रहस्य केवल आप तीनों ही जानेंगे कि पन्नालाल के भेस में वह मैं होऊंगा और एक झूठी खबर लाऊंगा । बस — आपको यहां से कूच कर देना है । "


"लेकिन तुम सूचना क्या लाओगे ?" चंद्रदत्त ने पूछा ।


—"यह तो सब जानते ही हैं कि रामगढ़ी के राजा सूर्यजीत से हमारा पुराना बैर चला आ रहा है ।" नलकू बने हुए शेरसिंह ने अपना शब्द जाल बिछाया — "जानते हैं कि हमारा और सूर्यजीत का झगड़ा राक्षसनाथ के तिलिस्म के ऊपर है। राजा सूर्यजीत कहते हैं कि राक्षसनाथ का तिलिस्म उसके राज्य में है और आप कहते हैं कि हमारे राज्य में है। इस तिलिस्म के ऊपर सदियों से दुश्मनी चली आ रही है। अतः मैं यहां ये सूचना लेकर पहुंचूंगा कि सूर्यजीत अपनी पूरी शक्ति से राजगढ़ को जीतने के लिए हमारी तरफ बढ़ रहा है। मैं ये कहूंगा कि सूर्यजीत को यह पता है कि आप (चंद्रदत्त) इस समय अपनी सेना के साथ यहां हैं। इसी का लाभ उठाकर आपकी अनुपस्थिति में वह राजगढ़ में कत्लेआम मचाने आ रहा है। अगर उसे रोका नहीं गया तो वह जल्दी ही अपने उद्देश्य में सफल होने वाला है । अतः हमें राजगढ़ की ओर कूच करना चाहिए।"


"बहाना तो अच्छा है । " चंद्रदत्त बोले – “राजगढ़ में कत्लेआम की सूचना सुनकर सारी सेना को अपने-अपने परिवार की चिन्ता होगी और हर सिपाही राजगढ़ की ओर चलने के लिए आतुर हो उठेगा। वैसे तो दारोगा का परिवार भी राजगढ़ में है—– किन्तु संभव है कि कांता को प्राप्त करने के लालच में वह अपने परिवार की चिन्ता छोड़ दे और सेना को यहां से हटने का आदेश न दे।”


" ऐसा नहीं होगा, क्योंकि इसके पीछे एक सबब है    जिसे केवल मैं जानता हूं।" नलकूराम की आवाज में ही शेरसिंह ने कहा।


 - ऐसा क्या सबब है ?" चंद्रदत्त ने पूछा- "हमें भी बताओ।"


 - "यह बात अभी आपको भी नहीं पता है कि सूर्यजीत का लड़का रमाकांत और जोरावरसिंह की बहन राजेश्वरी आपस में मुहब्बत करते हैं- जो जोरावरसिंह को पता है और उसे बिल्कुल पसन्द नहीं है। उसने राजेश्वरी को सख्ती से रमाकान्त से मिलने से मना किया है। वह किसी भी कीमत पर नहीं चाहता कि राजेश्वरी व रमाकांत आपस में मिलें। इसीलिए वह सूर्यजीत के हमले के बारे में सुनकर खुद ही राजगढ़ पहुंचने के लिए आतुर हो उठेगा और अपनी बहन को बर्बादी से बचाने के लिए वह राजगढ़ कूच करने के लिए तुरन्त तैयार हो जाएगा ।


-"लेकिन तुम्हें राजेश्वरी और रमाकांत के बारे में कैसे पता लगा ?" बालीसिंह ने पूछा ।


-“मेरा काम ऐयारी है छोटे कुंवर !" नलकूराम ने कहा – "मुझे लोगों के गुप्त रहस्य पता रखने के ही राजा साहब पैसे देते हैं। इस वक्त यह बताने का समय नहीं है कि मुझे राजेश्वरी और रमाकांत के बारे में कैसे पता लगा ? इस समय तो केवल आप इतना ही समझ लें कि मुझे पता है । कभी समय मिलने पर पूरी घटना अवश्य बताऊंगा । इस समय हमें दारोगा को करनी का मजा चखाना है— अतः सबकुछ भूलकर यही सोचते हैं। मैं सुबह पन्नालाल के भेस में यहां आऊंगा और यह सूचना लाऊंगा । इस सूचना को सुनकर सभी सिपाहियों को राजगढ़ में बसे अपने परिवारों की चिन्ता होगी। मेरा विश्वास है कि दारोगा जोरावरसिंह भी खुद को रोक नहीं सकेगा और कांता वाले काम को फिर करने का विचार करके यहां से कूच कर देगा । इस तरह हम अपने उद्देश्य में सफल हो जाएगे। राजगढ़ पहुंचकर दारोगा को उसकी करनी का फल दिया जाएगा।"


चंद्रदत्त, शंकरदत्त एवं बालीदत्त को नलकू की योजना ठीक ही जंच रही थी । इस समय खुद को बचाने के लिए उनके पास इसके अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं था । वे समझ रहे थे कि वे एक गहरे षड्यन्त्र से निकल जाएंगे। किन्तु...!

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