शाम के छः बजे मोना चौधरी, महाजन और पारसनाथ काशीपुर गांव पहुंचे।

सूर्य पांच बजे ही गायब हो गया था। आसमान में हल्के-हल्के बादल मंडराते नजर आ रहे थे। ऐसे में अगर बरसात आती तो उसमें बहुत वक्त बाकी था। वैसे भी बादल हवा के संग कहीं और जाकर भी बरस सकते थे।

ऐसे मौसम में गांव में वीरानी सी आ गई थी। लोग अपने घरों में जा बैठे थे।

पारसनाथ ने कार रोकी तो महाजन बाहर निकलते हुए बोला।

"मैं पता करता हूं। गांव में बाहर से कोई आया होगा तो फौरन मालूम हो जाएगा।"

महाजन कार से निकलकर आगे बढ़ गया तो पारसनाथ ने सिग्रेट सुलगाई।

"हमें यहां आने में कहीं देर न हो गई हो।" मोना चौधरी बोली--- "देवराज चौहान यहां आकर वापस भी जा सकता है ।"

"हो सकता है, अभी यहां आया ही न हो।" पारसनाथ ने पास ही के घर की दीवार के पीछे से चूल्हे के उठते धुएं को देखा--- "हो सकता है, वो कल यहां पहुंचे।"

"तुम ठीक कहते हो।" मोना चौधरी ने गरदन हिलाई--- "शायद वो यहां अभी पहुंचा ही न हो।"

महाजन को कुछ आगे जाकर एक बूढ़ी औरत मिली। जो कि पानी की बाल्टी भर के ले जा रही थी। बाल्टी भारी होने की वजह से बार-बार उसे नीचे रख देती थी।

"ला मां, मैं उठाता हूं। बता कहां ले जानी है ?" कहकर महाजन ने उसके हाथ से पानी की बाल्टी ले ली।

"जुग-जुग जियो बेटा!" बुढ़िया के झुर्रियों वाले चेहरे पर राहत के भाव उभरे--- "वो रहा घर ।"

महाजन ने उधर देखा, जिस घर की तरफ इशारा किया था---वहां थोड़ी सी खाली जमीन को ईंटों से घेर रखा था। जिसके भीतर एक तरफ कच्चा सा कमरा पड़ा था। जिसकी छत पर घास-फूस रखा हुआ था। उसके सामने ही एक झोंपड़ा भी बना हुआ था।

"चल मां।"

बुढ़िया आगे-आगे और महाजन पीछे-पीछे।

एक जगह पर दीवार नहीं थी। वो शायद उनका प्रवेश द्वार था। बुढ़िया वहां रुककर बोली ।

"ला बेटा, मैं पकड़...।"

"हटो मां, मैं रख देता हूं।" कहकर महाजन ने उसकी बगल से भीतर प्रवेश किया और बाल्टी को खुली जगह रख दिया।

सामने ही चारपाई पर एक बूढ़ा बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था।

एक तरफ चूल्हे के सामने बैठी, घूंघट निकाले युवती बनाने-पकाने में व्यस्त थी ।

"राम-राम काका!" महाजन बोला।

"राम-राम!" बूढ़ा सीधा बैठता हुआ बोला--- “आओ बैठो, क्यों री-तूने बाबू साहब को क्या तकलीफ...!"

"मेरी इतनी हिम्मत है जो मैं बाबू साहेब को तकलीफ दूंगी। इन्होंने ही बाल्टी पकड़ ली।"

"छोड़ो काका!" महाजन बोला--- "ये बताओ कि गांव में कहीं पर शहरी आदमी आया है।"

"शहरी आदमी-आप जैसा ?" बूढ़ा बोला।

"हां, मोटर गाड़ी पर होगा।"

"मेरे को क्या पता। तबीयत खराब थी। कई दिनों से बाहर ही नहीं...!"

तभी चूल्हे के सामने बैठी युवती कह उठी।

"जमींदार के यहां पे बोत लोग आयो हो।"

महाजन ने उसे देखा, फिर बूढ़े से पूछा।

"जमींदार कौन-किधर रहता...!"

"पश्चिम को जा के पीली कोठी किसी से भी पूछ लेना!" वो युवती फिर कह उठी।

महाजन ने सिर हिलाया। जाने लगा कि ठिठक गया। चारपाई के नीचे बोतल पड़ी दिखाई दी।

"वाह काका!" महाजन आगे बढ़ा और चारपाई के नीच से बोतल उठा ली--- "ये भी शौक रखते हो और मेहमान से पूछते नहीं।"

"ये तो देशी है।" बूढ़ा जल्दी से कह उठा--- "जमींदार के यहां जा रहे हो तो अंग्रेजी पीना।"

"जमींदार शौक रखता है ?"

"उसके यहां तो अंग्रेजी का ढेर लगा रहता है।"

महाजन ने बोतल चारपाई पर रख दी।

"चलता हूँ मैं।"

महाजन वहां से चला गया।

"वो पानी की बाल्टी उठाकर लाया था। दो घूंट उसे भी दे देते।" बूढ़ी औरत कह उठी।

"ये शहरी लोग बहुत चालाक होते हैं। दो बातें मारकर पूरी बोतल पी जाते हैं।" बूढ़े ने बोतल उठाते हुए कहा ।

"हां-हां, तुम तो जैसे बहुत शहर में रहे हो।"

"मैं नहीं रहा तो क्या हो गया ? राधेलाल शहर से आकर, वहां की बातें तो बताता है। उसी से समझ आ जाती है।"

■■■

महाजन पूछ-पाछकर जमींदार के यहां पहुंचा। धीरे-धीरे दिन अंधेरे की तरफ सरकता जा रहा था। जमींदार के घर से तब एक औरत बाहर निकल रही थी।

"जमींदार साहब का घर यही है?"

“जी हां, बाबूजी भीतर हैं।" कहते हुए औरत गली में निकलकर आगे बढ़ गई।

महाजन को वहां बेल लगी भी दिखी। उसने बेल बजाई। भीतर कहीं आवाज हुई।

फौरन बाद ही सामने का बंद दरवाजा खुला और जमींदार बाहर निकला।

"नमस्कार बाबूजी!" जमींदार मुस्कराकर बोला--- "भीतर आ जाइए।"

"बस जनाब, भीतर फिर बैठूंगा। शहर से कोई आया है यहाँ ?"

"हां, सेठजी आए थे। आज ही चले गए।" जमींदार ने उसे देखा--- "आप कौन हैं?"

"मैं देवराज चौहान का दोस्त हूं। वो इधर ही आया...!"

"देवराज चौहान ?"

"हां।" महाजन की निगाह उस पर टिकी--- "जानते हो उसे ?"

"उसे तो इतना ही जानता हूं कि वो सेठजी के साथ आया था। वो अभी यहीं हैं। सेठजी की जमीन ठीक करनी है ना।"

महाजन कुछ नहीं समझा लेकिन जमींदार से ज्यादा सवाल करना उसे शक में डालने जैसा था।

"कहां है देवराज चौहान ?"

"उधर, वो देखो। सामने से रास्ता जा रहा है। इस पर चलते जाओ--दस-बारह मिनट में वहां पहुंच जाओगे। इसी रास्ते के किनारे छोटे-छोटे तंबू गड़े हैं। पास ही में जमीन खोद रहे हैं। वहां तुम्हें देवराज चौहान मिल जाएगा।"

महाजन को विश्वास नहीं आ रहा था कि इतनी आसानी से देवराज चौहान तक पहुंच जाएगा।

"मेहरबानी बताने की कि...!"

"मेहरबानी कैसी-भीतर आइए। चाय-पानी तो...!"

"चाय-पानी रहने दीजिए। सील बंद बोतल हो तो मजा आ जाएगा।"

"बोतल ?"

"व्हिस्की की।"

"क्यों नहीं।" जमींदार हंसकर बोला--- "सेठजी ने बहुत बोतलें यहां रख छोड़ी हैं।"

महाजन वापस कार तक पहुंचा। हाथ में व्हिस्की की खुली आधी बोतल थी। आधी वो गले में उतार चुका था। मोना चौधरी कार में ही बैठी थी। जबकि पारसनाथ बोनट से टेक लगाए, अंधेरे में डूबते गांव को देख रहा था।

"देवराज चौहान का पता मिल गया।"

"गांव में है?" पारसनाथ की आंखें सिकुड़ीं।

"हां, कार कहीं साइड लगाओ। उधर छोटा रास्ता है, उस पर आगे बढ़ना है। पास ही है वो जगह, यही पता लगा है।" महाजन गंभीर था।

मोना चौधरी कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकली और महाजन से पूछा।

"क्या हुआ--देवराज चौहान का कुछ पता लगा?"

महाजन और पारसनाथ की नजरें मिलीं।

"वो यहीं है।" पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा और हाथ अपने खुरदरे चेहरे पर फेरने लगा।

■■■

रात का अंधेरा चारों तरफ फैल चुका था। गांव में पांच-सात जगह यहां-वहां रोशनियां चमक रही थीं। रह-रहकर अब कुत्तों के भौंकने की आवाजें सुनाई दे जाती थीं।

पंद्रह मिनट से मोना चौधरी, पारसनाथ और महाजन, उन टैंटों के पास अंधेरे में छिपे वहां के माहौल को समझने की चेष्टा कर रहे थे और उन्हें यही समझ आया था कि उन दोनों टैंटों के पास कोई भी नहीं है और पचास-सत्तर फीट दूर, मिट्टी की खुदाई की गई है। ताजी मिट्टी का ढेर एक तरफ लगा हुआ था।

"यही वो जगह है।" महाजन कह उठा--- "जमींदार ने बताया था कि वहां दो टैंट लगे हैं।"

चंद्रमा आज पूरा था। उसकी रोशनी में सब साफ नजर आ रहा था।

"वो जगह देवराज चौहान ने खोदी है।" मोना चौधरी पुनः बोली--- "वरना उनके यहां टिकने का मतलब ही नहीं है।"

"बेबी।" महाजन सोच भरे स्वर में कह उठा--- "इसका मतलब, उस जगह में कुछ खास है। देवराज चौहान यूं किसी जमीन की खुदाई करने से रहा। उधर अवश्य कोई...!"

"मैं देखता हूं।" पारसनाथ उठा और रिवॉल्वर निकाल ली--- "तुम लोग मुझे पीछे से कवर करना।"

मोना चौधरी और महाजन ने रिवॉल्वरें निकालकर हाथ में ले लीं।

पारसनाथ आगे बढ़ा। टैंटों के पास जा पहुंचा। वो सावधान था। कभी भी, कुछ भी हो सकता था।

परंतु कुछ नहीं हुआ।

दोनों टैंटों को उसने खाली पाया लेकिन वहां किसी के रहने के लक्षण स्पष्ट नजर आ रहे थे। मोना चौधरी और महाजन भी वहां आ पहुंचे थे। उन्होंने भी सब कुछ देखा ।

"हैरानी की बात है।" महाजन ने गहरी सांस लेकर कहा--- "यहां की जगह देखकर ऐसा लगता है कि वो पास ही कहीं है, परंतु इस तरह सब कुछ खुला छोड़कर जा सकते... !”

"हो सकता है वो पास ही हों और इस तरफ आ रहे हों।" पारसनाथ सपाट स्वर में बोला ।

कुछ पलों के लिए उनके बीच चुप्पी रही।

वो टैंटों में से बाहर निकल आए थे।

"मैं उधर देखती हूं।" कहने के साथ ही मोना चौधरी उस तरफ बढ़ गई, जहां खुदाई हुई पड़ी थी।

पारसनाथ और महाजन की नजरें हर तरफ घूमी, वहां कोई नजर नहीं आया।

वो सोच भी नहीं सकते थे कि सुबह से ही उन पर नजर रखी जा रही है। बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव और नगीना उनके पीछे थे। इस वक्त भी दूर खेतों में खड़े उन्हें देख रहे है।

मोना चौधरी खुदाई वाली जगह पर पहुंची। वहां गड्ढा देखकर ठिठकी। उनके पास रोशनी का कोई भी इंतजाम नहीं था। चंद्रमा की रोशनी सीधी गड्ढे में पड़ रही थी।

मोना चौधरी ने गड्ढे में नजरें टिका दीं।

चंद्रमा की रोशनी में उसे वहां कोई हिलता दिखा।

मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ीं, फिर दांत भिंच गए।

"कौन हो तुम?" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने उसकी तरफ रिवॉल्वर कर दी।

कोई जवाब नहीं आया।

"मैं गोली मारने जा रही हूं। तुम...।" मोना चौधरी की आवाज में दरिन्दगी भर आई थी।

"गोली मत चलाना मोना चौधरी ।"

सोहनलाल की आवाज सुनकर मोना चौधरी चौंकी।

"सोहनलाल ?" उसके होंठों से निकला।

जवाब में सोहनलाल की आवाज नहीं आई।

"देवराज चौहान कहां है?" एकाएक मोना चौधरी के दांत भिंच गए।

सोहनलाल खामोश रहा।

मोना चौधरी की आंखें अब गड्ढे में देखने की अभ्यस्त हो गई थीं।

मोना चौधरी को बात करते पाकर पारसनाथ और महाजन पास आ गए थे।

"क्या हुआ ?" पारसनाथ ने पास पहुंचते हुए कहा।

"गड्ढे में सोहनलाल है। हैरानी है कि अंधेरे में क्या कर रहा है। अकेला है।" मोना चौधरी के शब्दों में संदेह था--- "अवश्य कोई बात है। तुम दोनों यहीं रहो, मैं नीचे जा रही हूं।" कहने के साथ ही मोना चौधरी नीचे जाने के लिए ढलवा रास्ते पर नीचे उतरती गई।

मोना चौधरी की आवाज सुनकर सोहनलाल हक्का-बक्का रह गया था। उसने तो सोचा भी नहीं था कि मोना चौधरी यहा पहुंच जाएगी। मोना चौधरी के पीछे-पीछे आने की कोई वजह भी नहीं थी। सोहनलाल को लगा कि गड़बड़ होने जा रही है। देवराज चौहान और जगमोहन नीचे गए हुए थे।

मोना चौधरी देवराज चौहान को पूछ रही है। उसके इरादे ठीक नहीं लग रहे थे। अंधेरे में, सोहनलाल को रिवॉल्वर निकालकर हाथ में लेने में कोई परेशानी नहीं हुई। मोना चौधरी के साथ महाजन-पारसनाथ को पाकर, वो स्पष्ट समझ गया कि मोना चौधरी के इरादे ठीक नहीं हैं। बात गंभीर ही है। मोना चौधरी नीचे आई तो अंधेरे का फायदा उठाते हुए सोहनलाल ने उससे रिवॉल्वर सटा दी।

"मरना चाहते हो।" मोना चौधरी गुर्राई।

"चलाऊं गोली।" सोहनलाल ने खतरनाक स्वर में कहा--- "सिर्फ ट्रेगर दबाना ही बाकी है।"

ऊपर खड़े पारसनाथ-महाजन ने सोहनलाल के शब्द सुने।

"उसके बाद तेरा क्या होगा ?" ऊपर से महाजन दांत किटकिटाकर कह उठा।

लेकिन मोना चौधरी अब उनकी बातें नहीं सुन रही थी। वो तो गड्ढे के उस हिस्से को देख रही थी, जिधर से गेट की सलाखें काटकर देवराज चौहान और जगमोहन नीचे गए थे। वहां मोना चौधरी को हल्की-सी, बेहद मध्यम सी रोशनी जैसा कोई एहसास हुआ था। मोना चौधरी को हैरत में डालने के लिए ये दृश्य बहुत था।

"ये... ये इधर क्या है सोहनलाल ?" उसके होंठों से निकला।

सोहनलाल के होंठ भिंच गए।

मोना चौधरी ने उधर बढ़ना चाहा।

"हिलना मत, गोली चला दूंगा।" सोहनलाल गुर्राया ।

"पागल मत बनो। तुम गोली चलाने की स्थिति में नहीं हो। ऐसी गोली चलाने का क्या फायदा कि बाद में खुद भी मर जाओ। रिवॉल्वर हटा लो।" मोना चौधरी शब्दों को चबाकर सख्त स्वर में कह उठी।

महाजन और पारसनाथ भी नीचे आ रहे थे ।

सोहनलाल जानता था कि गोली चलाते ही वो भी नहीं बचेगा। उसने गहरी सांस ली और रिवॉल्वर हटा ली । मोना चौधरी आगे बढ़कर वहां जा पहुंची थी, जहां से गेट की सलाखें काटकर वे नीचे गए थे। भीतर उसे रोशनी तो नजर नहीं आ रही थी लेकिन रोशनी होने का जरा-जरा एहसास हो रहा था।

"बेबी, उधर क्या है ?"

अब तक मोना चौधरी को सलाखें कटे होने का एहसास हो गया था। पहचानने-समझने में उसे इसलिए इतनी देर लगी कि गेट का बाकी का हिस्सा मिट्टी में था।

"ये तो कोई गेट है। लोहे का बड़ा फाटक।" मोना चौधरी के होंठों से निकला।

"क्या?" पारसनाथ की आवाज सुनाई दी।

"मेरे खयाल में ये कोई ऐसी जगह है, जो वक्त के थपेड़ों के साथ धूल-मिट्टी पड़ते-पड़ते जमीन में दफन हो गई और ऊपर मिट्टी का नया ढेर आ गया। जाने ये जगह क्या है ? देवराज चौहान पक्का इसी में गया है। खास ही बात होगी।"

"ये बताएगा कि मामला क्या है ?" महाजन ने कठोर निगाहों से सोहनलाल को देखा।

सोहनलाल ने गहरी सांस ली और रिवॉल्वर जेब में रख ली ।

मोना चौधरी वहां से पीछे हटी और उनके पास आ गई। चंद्रमा की रोशनी में उनके साए बहुत हद तक स्पष्ट रूप से चमक रहे थे। गड्ढे में एक बार फिर हलचल पैदा हो चुकी थी। वे सब नीचे व्यस्त थे और इस बात को तो वे सोच भी नहीं सकते थे कि गड्ढे के ठीक ऊपर कोई हो सकता है।

ऊपर गड्ढे के किनारे पर रुस्तम राव पेट के बल लेटा, जरा सा सिर आगे किए नीचे झांक रहा था। नीचे से कोई ऊपर देखता तो जरा सा आगे बढ़ा सिर उसे मिट्टी का बढ़ा हुआ किनारा ही लगता ।

सोहनलाल घिर सा गया था उन तीनों के बीच।

"क्या चक्कर है ?" महाजन बोला और पैंट में फंसा रखी बोतल निकाल ली। थोड़ी सी व्हिस्की थी उसमें ।

सोहनलाल ने गोली वाली सिग्रेट सुलगाई।

"तू यहां क्या कर रहा है?" पारसनाथ सख्त स्वर में कह उठा।

सोहनलाल जानता था कि इन लोगों से छिपाने का कोई फायदा नहीं। ये सच बात सुनकर ही रहेंगे।

"देवराज चौहान और जगमोहन का इंतजार कर रहा हूं।" सोहनलाल धीमे स्वर में बोला ।

"जगमोहन... जगमोहन भी इस जगह से भीतर गया है!" महाजन के होंठों से निकला।

"कितनी देर हो गई उन्हें भीतर गए ?" मोना चौधरी ने पूछा।

“तीन बजे वो भीतर गए थे।" सोहनलाल ने कश लिया।

"इसका मतलब उन्हें भीतर गए साढ़े चार घंटे हो चुके हैं।" मोना चौधरी ने उस रास्ते की तरफ नजर मारी--- "वहां क्या है सोहनलाल ?"

सोहनलाल का चेहरा गंभीर था।

महाजन ने घूंट भरा।

"बोल।" पारसनाथ ने अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरा।

"तू सूखा सा है, तेरे पर हाथ उठाने का भी मन नहीं करता कि तू कहीं मर न जाए।" महाजन कह उठा।

"चिन्ता मत कर।" सोहनलाल ने तीखे भाव में कहा--- "हड्डियों में बहुत जान है।"

"मैंने पूछा हैं देवराज चौहान और जगमोहन भीतर क्यों गए हैं--वहां क्या है ?" मोना चौधरी ने पुनः पूछा--- "मेरे ख्याल में यहां कोई बरसों पुरानी दौलत दबी हो सकती है। जमीन में धंसा महल... !"

"मोना चौधरी !" सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा--- "ये दौलत का मामला नहीं है। यहां आए तो हम किसी दूसरे ही काम थे लेकिन इस मामले में आ फंसे। ये शायद देवराज चौहान के पूर्वजन्म का मामला है।"

"पूर्वजन्म!" मोना चौधरी चौंकी।

महाजन और पारसनाथ की नजरें मिलीं।

मोना चौधरी को पेशीराम की बातें याद आने लगीं।

"हां।” सोहनलाल ने मोना चौधरी को देखा--- "जहां तुम भी हो, हम सब हैं। पहले भी हम पूर्वजन्म में जा... !"

"मैं यहां देवराज चौहान को खत्म करने आई हूं।" मोना चौधरी एकाएक गुर्रा उठी--- "उसने इंस्पेक्टर लोकनाथ सिंह के हाथों मेरी जान लेनी चाही। मेरी पीठ पर वार करने की चेष्टा...।"

"ये तुमसे किसने कहा?" सोहनलाल की आंखें सिकुड़ीं ।

"लोकनाथ ने।"

"झूठ बोलता है वो, उसे मेरे सामने लाओ। मैं....।"

"वो अब किसी के सामने नहीं आ सकता।" मोना चौधरी ने दांत भींचकर कहा--- “उस गद्दार को मैंने शूट कर दिया है।"

"तो मरते-मरते भड़का गया वो तुम्हें।" सोहनलाल ने गहरी सांस ली--- "उसे मारने में तुमने जल्दी कर दी मोना चौधरी।"

"कब आएगा वो वापस ?"

"नहीं मालूम। उन दोनों की वापसी का ही इंतजार कर रहा हूं।"

"तुम भीतर क्यों नहीं गए?" पारसनाथ बोला।

"देवराज चौहान ने कहा था कि एक को बाहर रहने की जरूरत है, क्योंकि हमें नहीं मालूम था कि भीतर क्या है ?"

"बेबी एक मिनट।" महाजन ने कहा, फिर सोहनलाल से बोला--- "तुम पूर्वजन्म की कोई बात कह रहे थे।"

"मुझे ऐसा कुछ नहीं मालूम कि जो तुम्हें बताऊं।" सोहनलाल ने उसे देखा।

"कुछ तो पता होगा--जो पता है, वो ही बताओ।"

सोहनलाल चेहरे पर गंभीरता समेटे सोचता रहा, फिर कह उठा।

"मुझे सच में नहीं मालूम कि मामला क्या है? पूर्वजन्म की कोई रानी है जो देवराज चौहान के कान में उससे बात करती है। उसी ने ही देवराज चौहान को यहां जमीन खोदने को कहा। हमारे गांव में पहुंचते ही वो देवराज चौहान से बात करने लगी थी। उसके साथ कोई और भी थी। प्रेमा नाम था उसका। इसके अलावा मुझे कुछ भी नहीं पता।"

महाजन सोहनलाल को देखता रहा।

"इसे सच में कुछ नहीं मालूम।" पारसनाथ गंभीर स्वर में कह उठा।

मोना चौधरी नीचे पड़े रस्से को टटोलने लगी थी, फिर एकाएक सोहनलाल से बोली।

"वे लोग इस रस्से पर लटककर भीतर गए थे?"

सोहनलाल ने मोना चौधरी की तरफ देखते हुए सहमति से सिर हिला दिया।

"महाजन, पारसनाथ।" मोना चौधरी फैसले वाले स्वर में बोली--- "आओ, हम भी भीतर जाएंगे। देवराज चौहान को खत्म करके ही वापस आना है। भीतर वो हमें जल्दी ही मिलेगा।"

"मेरे खयाल में तुम लोगों का भीतर जाना ठीक नहीं होगा।" सोहनलाल ने कहा।

"क्यों ?"

"देवराज चौहान और जगमोहन को गए साढ़े चार घंटे हो चुके हैं, उन्हें अब तक वापस आ जाना चाहिए था। भीतर जाने क्या है ? वे खतरे में फंसे हो सकते हैं, तुम लोग भी फंस सकते हो। "

"अच्छा।" महाजन व्यंग से कह उठा--- "बहुत चिन्ता कर रहे हो हमारी।"

सोहनलाल उन्हें देखता रहा। कुछ भी नहीं कहा।

"मोना चौधरी।" पारसनाथ सोहनलाल को देखता हुआ गंभीर स्वर में कह उठा--- "इसकी किसी भी बात पर विश्वास करना ठीक नहीं। ये हमसे झूठी बातें भी कर सकता है। इसकी बातें किसी चालाकी का हिस्सा भी हो सकती हैं।"

"अगर ये चालाकी कर रहा है तो सबसे पहले ये ही मरेगा।" मोना चौधरी कड़वे स्वर में कह उठी--- "इसे भी ले चलो। पहले मैं नीचे उतर रही हूं। उसके बाद सोहनलाल नीचे आएगा, फिर तुम दोनों।"

सोहनलाल उनके बीच घिरा इनकार करने की स्थिति में नहीं था।

"मेरे खयाल में तुम लोग फैसला लेने में जल्दी कर रहे हो।" सोहनलाल ने कश लेकर गंभीर स्वर में कहा।

"देवराज चौहान और जगमोहन इसी जगह से भीतर गए हैं।" महाजन बोला।

"हां।"

"तो फिर हमें भी भीतर जाने में कोई एतराज नहीं। चलो बेबी ।"

उसके बाद रस्से के सहारे पहले मोना चौधरी फिर सोहनलाल, पारसनाथ और महाजन नीचे उतरे। महाजन ने उतरते समय रस्से को सलाख के साथ मजबूती से बांध दिया था, ताकि लटककर उतर सके।

■■■

जब वे सब उतर गए थे गड्ढे में झांकता रुस्तम राव उठ खड़ा हुआ। उसकी बिल्लौरी आंखों में गंभीरता ठहरी हुई थी। उसके नीचे झांकने के दौरान बांकेलाल राठौर और नगीना करीब आए थे, परंतु रुस्तम राव ने इशारे से उन्हें पीछे रहने को कह दिया था।

रुस्तम राव जब खड़ा हुआ तो बांकेलाल राठौर और नगीना पास आ पहुंचे थे।

"लैन क्लीयर हौवे इब ?" बांकेलाल राठौर ने पूछा।

"हां।"

"तम कल्ले-कल्ले नीचे का देखो हो ?" बांकेलाल राठौर गंभीर था।

"क्या बात है रुस्तम ?" नगीना ने उलझन भरे स्वर में पूछा।

"अपुन को लगेला कि बोत गड़बड़ होएला बाप!"

"का हो गयो ?" कहने के साथ ही बांकेलाल राठौर ने गड्ढे के भीतर झांका--- "वो किधर गयो। मोन्नो चौधरी, पारसनाथ ओरो महाजन तो दिखो ना। किधर चलो गयो।" उसकी आवाज में हैरानी भर आई थी।

"इधर क्या है ?" नगीना ने भी आगे बढ़कर भीतर झांका।

उन लोगों की बातों से रुस्तम राव जो सुना-समझा था वो बांकेलाल राठौर और नगीना को बताया।

सुनकर वे दोनों हक्के-बक्के रह गए थे।

"थारो मतलब की यो पूर्वजन्म का मामलो हौवे।"

"पक्का होएला बाप।"

"देवराज चौहान और जगमोहन भीतर जा चुके हैं।" नगीना के होंठों से निकला।

"हां।" रुस्तम राव ने कहा--- "सोहनलाल इधर होएला। पर मोना चौधरी, पारसनाथ और महाजन उसे अपने साथ भीतर ले जाईला।"

"भीतर का हौवे छोरे ?"

"अपुन को नेई पता होएला बाप ?" रुस्तम सव गंभीर स्वर में कह रहा था--- "सोहनलाल रानी की आवाज का जिक्र करेला कि वो देवराज चौहान से बात करेला। वोई देवराज चौहान को इधर का रास्ता दिखेला बाप ?"

"अपणों समझ में कुछ नेई आवे हो।"

"देवराज चौहान खतरे में है।" नगीना बेचैनी से बोली--- "मोना चौधरी उसे मारने पीछे गई है।"

"म्हारे होते हुए फिक्र न करो बहना।" बांकेलाल राठौर गुर्रा उठा--- "जो भी देवराज चौहानो को हाथ लगावें, अम उसो को वड दयो।"

वे एक-दूसरे को देखने लगे।

चंद्रमा बादलों में गुम हो गया था। तेज हवा चलने लगी थी। गहरा, काला अंधेरा हर तरफ सिमट आया था।

"देवराज चौहान इधर काये को आईला बाप ?"

"कौणो बात तो हौवे जो वो इधर आवे।"

"हम यहां खड़े रहकर वक्त खराब कर रहे हैं।" नगीना बेसब्री से कह उठी।

"थारो मतलबो भीतर जावें अम, मोन्नो चौधरी की तरहो।"

"हां बाप, इधर खड़ा होकर क्या करेला ?"

हवा में एकाएक तेजी बढ़ने लगी थी।

तभी पानी की मोटी सी बूंद बांकेलाल राठौर के गाल पर पड़ी।

"यो तो बरसातो आ गयो।"आसमान की तरफ देखा उसने--- "घणो पाणी बरसो लागे हो।"

तभी नगीना आगे बढ़ी और तेजी से गड्ढे में उतरती चली गई।

"बहणो!"

"दीदी !"

बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव भी उसके पीछे-पीछे गड्ढे में जा उतरे।

"बाहर रहना, वक्त खराब करना है।” नगीना तेज स्वर में कह उठी--- "मैं इस रास्ते के भीतर जा रही हूं।"

"अम भी थारो साथी ही हौवे बहणों।"

अब रह-रहकर मोटी-मोटी बरसात की बूंदे पड़ने लगी थीं।

बांकेलाल राठौर ने नीचे झुककर गेट के ऊपर कटे रास्ते के भीतर झांका।

"भीतरो कई पे लाइटो भी लगो हो। खतरो तो पूरो हौवो नीचो जाणें में छोरे ।"

"बाप! वो लोग भी इधर उतरेला तो हम भी पीछो जाईला। खतरा सब को बराबर आईला बाप ।"

"ठीक बोलो हो।" बांकेलाल राठौर ने सिर हिलाया--- "पैले अम नीचे जाईयो। बादो में रहना, फिर तम छोरे।"

"ऐसा ही होईला बाप।"

तभी बरसात लग गई।

मोटी-मोटी तेज बूंदों के कारण उनका खड़ा होना कठिन हो गया। आंखें खोलने में परेशानी होने लगी। बांकेलाल राठौर जल्दी से नीचे उतरा। उसके बाद रस्सा पकड़कर नगीना नीचे सरकती चली गई, फिर रुस्तम राव। नीचे उतरने से पहले ही तीनों बरसात में पूरी तरह भीग गए थे।

इससे पहले कि मैं पाठकों को भीतर ले चलूं, उससे पहले बाहर का हाल देख लेना जरूरी है।

मिनटो में ही तूफानी बरसात लग गई। मिट्टी की चट्टान से किसी नाले की तरह पानी आता गड्ढे में प्रवेश करने लगा। पांच मिनट ही बीते होंगे कि गड्ढे के किनारे पर पड़ा मिट्टी का ढेर नीचे लुढक आया। वो काफी बड़ा ढेर था। कई हिस्सो में वो नीचे आया और आधे से ज्यादा गड्ढा भर गया। वो रास्ता भी बंद हो गया, जहां से वे लोग उस जगह के भीतर गए थे। धूप ने उस मिट्टी को सुखाकर पका देना था। तब किसी ने सोचना भी नहीं था कि यहां कोई रास्ता हो सकता है। फिलहाल तो तूफानी ढंग से बरसात जारी थी।

वो रास्ता बंद हो गया था।

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"ये कैसी जगह है?" नीचे उतरते ही महाजन के होंठों से निकला।

"यहां रोशनी कैसे हो सकती है?" पारसनाथ कह उठा--- "ये जगह तो गांव की जमीन के नीचे है।"

"ये कोई खास जगह ही लग रही है।" महाजन ने हाथ में पकड़ी बोतल होंठों से लगाकर खाली की और बोतल एक तरफ फेंक दी।

सोहनलाल हैरानी से सब कुछ देख रहा था।

मोना चौधरी की निगाह हर तरफ घूम रही थी। वो यहां के माहौल को समझने की चेष्टा कर रही थी।

"क्या देख रही हो मोना चौधरी ?" पारसनाथ ने पूछा।

"इस जगह को ।" मोना चौधरी की निगाह हर तरफ जा रही थी--- "हम, जहां से नीचे उतरे हैं, वो काफी ऊंचा गेट है--जो कि मिट्टी में धंसा हुआ है। सामने देखो, काफी जगह खाली होने के बाद आगे कुछ बना हुआ है। वहीं रोशनियां हो रही हैं। ऐसी जगह पर रोशनियां होना वास्तव में हैरत से भरा था। यकीन नहीं आ रहा।"

"तुम्हारा मतलब कि जहां लाइटें जल रही हैं।" महाजन कह उठा--- "वो जगह इमारत हो सकती है।"

"हां, बंगला जैसा कुछ...!"

"उधर चलते हैं मोना चौधरी।" पारसनाथ कहने के साथ ही उधर बढ़ गया।

मोना चौधरी महाजन और सोहनलाल भी चल पड़े।

"देवराज चौहान नजर नहीं आ रहा।" मोना चौधरी सख्त स्वर में कह उठी।

"वो भीतर होगा।" महाजन दांत भींचे कह उठा।

"अब मैं देवराज चौहान को हर हाल में खत्म हुआ देखना चाहती हूँ। उसे मौका नहीं देना है कि वो अपना बचाव कर सके।"

"वो नहीं बचेगा मोना चौधरी।" दो कदम आगे चल रहा पारसनाथ कठोर स्वर में कह उठा।

"इतना आसान नहीं है देवराज चौहान पर हाथ डालना।" सोहनलाल ने तीखे स्वर में कहा।

"जो होगा, तुम्हारे सामने होगा।" महाजन ने कठोर नजरों से सोहनलाल को देखा--- "देवराज चौहान को हम खत्म करके ही रहेंगे।"

"वो बात ही मत करो, जो पूरी न हो सके।" सोहनलाल ने चुभते स्वर में कहा।

"देखता जा।"

वे चारों दीवार के पास पहुंचे और फिर उस लकड़ी के दरवाजे पर जो खुला हुआ था।

"ये यहां का प्रवेश द्वार है।" पारसनाथ के होंठों से निकला।

"सच में, ये जगह अवश्य कभी जमीन के ऊपर हुआ करती होगी।" मोना चौधरी कह उठी।

"तुम ठीक कह रही हो बेबी।" महाजन का स्वर गंभीर था--- "भीतर चलें।"

मोना चौधरी आगे बढ़ी और भीतर प्रवेश कर गई।

पारसनाथ, महाजन और सोहनलाल उसके दो कदम पीछे थे।

"कभी ये कितना खूबसूरत...कितना बढ़िया हॉल रूम रहा होगा।" महाजन के होंठों से निकला।

"ये मंदिर है।" मोना चौधरी के होंठों से निकला।

"क्या ?" पारसनाथ ने उसे देखा--- "तुम्हें कैसे पता कि ये मंदिर है ?"

"म... मैं !" मोना चौधरी की फटी-फटी निगाह हर तरफ जा रही थी--- "मैं इस जगह को पहचान रही हूं। ये मंदिर है परसू ! मुझे बहुत कुछ याद आ गया। ये मंदिर है परसू !"

"परसू!" पारसनाथ के होंठों से निकला।

"पहले जन्म में तुम्हारा यही नाम हुआ करता...।"

"नील सिंह।" मोना चौधरी की निगाह धीरे-धीरे हर तरफ जा रही थी--- "तुम्हें क्या ये मंदिर याद नहीं। ये...।"

"नीलसिंह!" महाजन के होंठों से निकला--- "ये मेरे पहले जन्म का नाम... ?"

सोहनलाल की सिकुड़ी नजरें बारी-बारी तीनों पर जा थीं।

"हम पहले जन्म के मंदिर में तो हैं नीलसिंह। तुम्हें कुछ भी याद नहीं...।"

"मिन्नो...!"

तभी वहां वायुलाल का प्रभावशाली, मीठा स्वर गूंजा।

"वायुलाल!" मोना चौधरी के होंठों से निकला।

सोहनलाल चौंककर इधर-उधर देखने लगा।

"स्वागत है मिन्नो, मंदिर में, फिर तुम्हारा स्वागत है। तुम्हारा सेवक सिर झुकाता है।"

"कैसे हो वायुलाल ?" मोना चौधरी का अधिकार भरा स्वर वहां गूंजा।

पारसनाथ और महाजन हैरानी से सब सुन रहे थे।

"तुम्हारी दी शिक्षा के दम पर आज तक जीवित हूं। हर तरफ मेरा ही इशारा चलता है। सब तुम्हारा फल है मिन्नो।"

"लेकिन तूने भूल कर दी वायुलाल।" मोना चौधरी गरज उठी।

"भूल मैं स्वीकार करता हूं।"

"तूने नियम के विरुद्ध एक मामूली सी 'देवदासी' रानी को ये विद्या सिखा दी।"

"उसी गलती के कारण तो कब से परेशान हुआ पड़ा हूं। क्षमा चाहता हूं मिन्नो! जो गलत कार्य मुझसे हुआ, उसे स्वीकार करने में मैं पीछे नहीं हटता । मैं....।"

"तेरे को मैं अवश्य सजा देती तब लेकिन वक्त ही नहीं मिला कि...।"

"मेरा सिर तुम्हारे सामने हाजिर है मिन्नो।"

पारसनाथ, सोहनलाल और महाजन मोना चौधरी का गुस्से से भरा चेहरा देख रहे थे। वे मामले को समझने की चेष्टा कर रहे थे। मोना चौधरी के बदलते रूप की वजह से वे सतर्क हो चुके थे। वायुलाल की आवाज उन्हें भी सुनाई दे रही थी। परंतु जिस तरह मोना चौधरी उससे अधिकार भरे स्वर में बात कर रही थी, वो उनकी समझ से बाहर था।

"तूने मेरी कही बात पूरी नहीं की थी वायुलाल।" मोना चौधरी गरज उठी--- "मैंने तेरे को कहा था कि देवा को खत्म कर दे। उसकी वजह से रानी विद्रोह कर रही है लेकिन तूने मेरी बात...।"

"मैंने देवा को खत्म करवाने की कोशिश...!"

"झूठ बोलता है तू।" मोना चौधरी का स्वर और भी ऊंचा हो गया--- "तूने देवा को खत्म नहीं किया। रानी के हुस्न ने तेरे को रोक दिया। मुझे तू कहता रहा कि देवा को खत्म करने जा रहा है और उधर...।"

"गलत बात मत कहो मिन्नो! मैंने देवा को दो बार खत्म करने की चेष्टा की।"

"फिर वो मरा क्यों नहीं ?"

"बच गया। कुछ शक्तियां उसकी रक्षा कर रही थीं। तब मैं नहीं जान सका था कि वो शक्तियां उसके पास कहां से आई।"

"मेरे से सुन। वो शक्तियां उसे रानी ने दी थी और रानी को तूने । अपने हाथ तूने खुद ही कटवा लिए थे।"

"इस गलती का आभास मुझे बहुत देर बाद हुआ।" वायुलाल की गूंजने वाली आवाज़ में अफसोस के भाव थे--- "इन बातों को हम फिर भी कर सकते हैं, इस वक्त तो इतना कहना चाहूंगा कि तुम अच्छे वक्त पर आई हो।"

"देवा फिर जन्म ले के यहां आ पहुंचा है।" मोना चौधरी की तेज आवाज अधिकार भरी थी।

"हां।"

"तो क्या तेरे में इतनी हिम्मत नहीं कि तू उसका मुकाबला कर सके। उसे खत्म कर सके।"

"इस बार देवा नहीं बचेगा मिन्नो" वायुलाल की आवाज में खतरनाक भाव आ गए थे--- "वो रानी को मंत्रों से आजाद करवाने के लिए उस जंगल में जा चुका है, जहां मैंने कई खतरे छोड़ रखे हैं। वहां से वो जिन्दा कैसे बचेगा ?"

"इसका मतलब रानी से उसकी बात हो गई। वो फिर से रानी की बातों में...।"

"हां मिन्नो, मैंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की । रोकना चाहा, लेकिन वो नहीं माना।"

"वो मानेगा भी नहीं।" मोना चौधरी गरज उठी--- "अंत आ गया है उसका। मरेगा।"

"देवा की मौत की खबर मुझे कभी भी मिल जाएगी। ये तो अच्छा हुआ कि तेरे साथ परसू और नीलसिंह भी हैं। वायुलाल की आवाज में मुस्कान थी--- "ये दोनों चुप क्यों हैं? नीलसिंह तो चुप रहने वाला नहीं।"

"इन्हें अभी पहले जन्म की याद नहीं आई।" मोना चौधरी बोली--- "मैं तुम्हारे पास आ रही हूं वायुलाल ।"

"स्वागत है मिन्नो। मैं रास्ता खोल देता...।"

"कोई जरूरत नहीं, रास्ते मैं खुद बना लूंगी।"

"याद है।"

"यहां जो कुछ भी तुमने किया है, मेरे से सीखकर किया है। कुछ नया नहीं किया तुमने वायुलाल।"

"सच में।" वायुलाल की छोटी सी हंसी गूंजी--- "सब तुम्हारी दी विद्या का ही फल है। तुम आओ मिन्नो, मैं तुम्हारे स्वागत की तैयारियां करता हूं। मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि तुम्हें फिर से आया पाकर मुझे कितनी खुशी हो रही है।"

"तुम कौन हो, जो देवराज चौहान का जिक्र कर रहे हो ?" सोहनलाल ने कहना चाहा। उसके माथे पर बल थे।

वायुलाल के हंसने की आवाज आई।

"गुलचंद, बहुत देर बाद बोला। तेरी नशे वाली चिलम कहां है? वो पी और पड़ा रह।" वायुलाल की तीखी आवाज गूंज रही थी--- “तूने बहुत गलत काम किया था। सजा मिलेगी तेरे को। देवा की खबरें चोरी-छिपे रानी को देता रहा और मंदिर में आता था, नशे वाली चिलम पीने। बहुत गद्दारियां की तूने मेरे से।"

"क्या बकवास करता है।" सोहनलाल की आंखें सिकुड़ीं।

"बात करूंगा तेरे से। अब जाता हूं।"

उसके बाद वायुलाल की आवाज नहीं आई।

मोना चौधरी ने पलटकर दोनों को देखा।

"यहां हमें किसी भी तरह का डर नहीं। हर तरफ अपना ही अधिकार है।" मोना चौधरी कह उठी।

"अपना अधिकार ?" पारसनाथ उलझन भरे स्वर में कह उठा।

"इस जगह की मालकिन हूँ मैं। यहाँ जो-जो भी तुम देखोगे, वो सब मेरा तो है।" मोना चौधरी सख्त अंदाज में मुस्कराई।

"तुम्हारा?" पारसनाथ के होंठों से निकला।

"ये वायुलाल कौन है ?" महाजन की आंखें सिकुड़ी हुई थीं।

मोना चौधरी ने बारी-बारी उन्हें देखा, फिर धीमे स्वर में कह उठी।

"ज्यादा देर की बात नहीं है। धीरे-धीरे तुम्हें सब याद आ जाएगा।"

"तुम्हें कैसे सब कुछ पता चल गया कि....।"

"क्योंकि ये जगह मेरी है। यहां पांव रखते ही मैं बिना किसी परेशानी के पूर्वजन्म में जा पहुंची। यहां पर अभी मेरे लिखे मंत्रों का असर हवा में है तो मुझे याद क्यों नहीं आएगा। यहां कुछ भी नया नहीं है मेरे लिए। सब कुछ मेरा तो है।"

सोहनलाल, पारसनाथ और महाजन मोना चौधरी को देखे जा रहे थे।

"हैरान हो रहे हो तुम ?"

"हैरानी की तो बात है। तुम... !"

"गलत हैरान हो रहे हो, क्योंकि यहां की हर चीज से तुम वाकिफ हो। ये जुदा बात है कि अभी तुम्हें कुछ याद नहीं आ रहा। याद आते ही मेरी ही तरह हर चीज तुम दोनों को भी स्पष्ट दिखाई देगी।"

वे मोना चौधरी को देखते रहे।

"आओ। वायुलाल मेरे स्वागत की तैयारी कर रहा है। देखूं तो सही कि क्या वो पहले जैसा ही स्वागत करता है या भूल गया।" कहने के साथ ही मोना चौधरी दाईं तरफ बढ़ती चली गई।

महाजन और पारसनाथ की नजरें मिलीं।

"यहां पहुंचते ही मोना चौधरी का व्यवहार बिल्कुल बदल गया।" पारसनाथ का सपाट स्वर धीमा था।

"हां, बेबी के बात करने का ढंग, हाथ-पांव हिलाने तक के ढंग में बदलाव है। क्या शान से चल रही...!"

"मुझे तो तुम लोग पागल लग रहे हो।" सोहनलाल कह उठा।

"तेरी सलाह नहीं पूछी किसी ने।" महाजन तीखे स्वर में कह उठा।

तभी सामने जाती मोना चौधरी पलटी और उन्हें देखकर बोली।

"परसू, नीलसिंह! बातें बाद में कर लेना। जल्दी चलो।"

तीनों आगे बढ़ गए।

"अब तो बेबी हमें पहले के जन्म वाले नामों से बुला रही है!" महाजन गहरी सांस लेकर कह उठा।

पारसनाथ ने बड़बड़ाहट सुनी तो धीमे स्वर में कह उठा।

"इस वक्त मोना चौधरी में इस जन्म का और पहले जन्म का असर मिला हुआ है। ये शायद दोनों जन्मों के ढंग की मिली-जुली बात कर रही है। पहले जन्म का असर आता है तो रौब से बात करने लगती है।"

"तोप होगी बेबी, पहले जन्म में।" महाजन गहरी सांस लेकर कह उठा।

"वो तो मुझे लग ही रहा है।" सोहनलाल मुंह बनाकर बड़बड़ा उठा।

दोनों मोना चौधरी के पास जा पहुंचे थे।

वे सब आगे बढ़ गए।

दाईं तरफ वाला ये रास्ता भी गैलरी वाला था। जगह-जगह मध्यम सी रोशनी हो रही थी। करीब पांच मिनट तक गैलरी में चलने के बाद मोना चौधरी एक दीवार के पास ठिठकी। उस दीवार पर डेढ़ फीट की पत्थर की मूर्ति इस तरह चिपकी हुई थी कि वो दीवार का ही हिस्सा लग रही थी।

मोना चौधरी ने अभ्यस्त हाथों की तरह एक हाथ आगे बढ़ाया और दीवार पर लगी पत्थर की मूर्ति के पैर का अंगूठा दबाया। अंगूठे वाला हिस्सा जैसे कुछ भीतर जा धंसा हो ।

कुछ पल बीत गए। कुछ भी न हुआ।

मोना चौधरी आंखें सिकोड़े मूर्ति को देखे जा रही थी। वो मूर्ति किसी बूढ़ी औरत की थी। परंतु स्पष्ट दिखाई न दे रहा था कि वो किस या कैसी औरत की मूर्ति है।

तभी वहां हल्की सी आवाज गूंजी। गैलरी में वो हल्की सी आवाज गूंज जैसी उठी थी। देखते ही देखते वो दीवार नीचे जा धंसी। मात्र दो फीट की चौड़ाई में रास्ता दिखाई देने लगा।

सोहनलाल होंठ सिकोड़े हैरानी से ये सब देख रहा था।

मोना चौधरी बेहिचक इस तरह उस रास्ते से भीतर प्रवेश कर गई, जैसे वहां से उसका रोज का आना हो। पीछे-पीछे पारसनाथ और महाजन आ गए। मोना चौधरी ने उनके आने के बाद सिर उठाकर ऊपर देखा तो सिर से डेढ़ फीट ऊपर छत की तरफ से आती मोटी जंजीर में मंदिर का पीतल का घंटा बंधा लटक रहा था। उसी पल मोना चौधरी, उछली और दोनों हाथों से घंटा पकड़कर नीचे खींचा।

करीब एक फीट घंटा नीचे आया तो मोना चौधरी ने उसे छोड़ दिया और फर्श पर आ गई। ऐसा होते ही फर्श में धंसा वो लंबा सा दीवार का टुकड़ा ऊपर की तरफ उठने लगा । वापस अपनी जगह लेने लगा।

"वाह बेबी!" महाजन गहरी सांस लेकर बोला--- "तुम्हें तो सब पता है।"

"कारीगर कितनी भी देर बाद अपनी मूर्ति को देखे, पहचान लेता है।'' मोना चौधरी के होंठों पर मुस्कान उभरी।

"ये सब तुमने बनाया है ?" पारसनाथ ने मोना चौधरी को देखा।

"इसका नक्शा मैंने बनाया है कि कहां क्या होना चाहिए। कैसा रास्ता होना चाहिए।"

"कब बनाया?" महाजन के होंठों से निकला।

"पहले जन्म में । ज्यादा मत पूछो। तुम दोनों को बहुत जल्दी, सब कुछ याद आ जाएगा। उसके बाद तुम कुछ भी नहीं पूछोगे, क्योंकि तब हर सवाल का जवाब तुम्हारे दिमाग में होगा। यूं समझो कि सवाल होंगे ही नहीं। तब तुम दोनों पहले जन्म की ही दुनिया और वक्त जिओगे।" मोना चौधरी का स्वर गंभीर हो गया।

वो मोना चौधरी को देखते रहे।

मोना चौधरी आगे बढ़ी तो वो भी चल पड़े।

ये रास्ता पहले वाले रास्ते की अपेक्षा कुछ तंग था। पंद्रह फीट बाद वो चारों सुरंग जैसी गैलरी से निकल आए। सामने का आहता पार किया तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां नजर आई। खुला आसमान और बाहर की रोशनी दिखाई देने लगी।

वे तीनों तेजी से सीढ़ियां उतरने लगे। तेज धूप निकली हुई थी। बहुत नीचे तक जा रही वो सीढ़ियां । ये सब कुछ मंदिर का ही हिस्सा था। इस ऊंचाई से दूर कहीं छोटे-छोटे मंदिर जैसे हिस्से नजर आ रहे थे। जिन पर लाल झंडे लगे दिखाई दे रहे थे।

सीढ़ियां उतरते-उतरते उन्हें थकान सी होने लगी, परंतु वे रुके नहीं।

सोहनलाल का भी बुरा हाल हो रहा था।

"बेबी, बुरा हाल हो रहा है।"

"तुम्हारे मुंह से ये शब्द अच्छे नहीं लगते नीलसिंह।" मोना चौधरी ने सीढ़ियां उतरते हुए बिना पीछे देखे कहा।

चालीस मिनट लगे उन्हें सीढ़ियां उतरने में।

वे तीनों ही हांफ रहे थे। पसीने से भीगे हुए थे।

सामने ही मोटे-मोटे पहाड़ी पत्थरों का रास्ता जा रहा था। मोना चौधरी आगे बढ़ी तो महाजन, पारसनाथ भी उसके पीछे चलने लगे। तीनों के चेहरों पर थकान थी।

"कुछ आराम करें।" महाजन, पारसनाथ से बोला ।

"मेरे से चला नहीं जा रहा।" सोहनलाल ने गहरी सांस ली।

"चलते रहो।" पारसनाथ शांत-सपाट स्वर में बोला।

सोहनलाल-महाजन की नजरें मिलीं, परंतु वे मन मारकर सीढ़ियां उतरते रहे।

दूर-दूर तक कोई दिखाई न दे रहा था। ये भव्य मंदिर और ये सुनसानी मेल नहीं खा रही थी। करीब दस मिनट चलने के पश्चात उनके कानों में बहते पानी की आवाज पड़ने लगी। इस आवाज ने जैसे महाजन और पारसनाथ के जिस्म में जान फूंक दी थी। कुछ ही पलों में वे तीनों नदी के किनारे खड़े थे।

नदी बहुत चौड़ी और दूर तक जाती दिखाई दे रही थी। बहुत दूर नदी के बीचोबीच छोटी सी पहाड़ी नजर आ रही थी। मोना चौधरी वहीं खड़ी कई पलों तक उस पहाड़ी को देखती रही।

सोहनलाल की सिकुड़ी निगाह भी नदी में नजर आती पहाड़ी पर गई। उसके चेहरे पर सोच के भाव थे।

"बेबी!" मोना चौधरी जैसे खयालों से बाहर निकली। उसे देखा।

"नदी में नजर आ रही पहाड़ी पर क्या देख रही हो?"

"जान जाओगे।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा, फिर इधर-उधर नजरें घुमाई ।

कुछ दूर किनारे पर पंद्रह-बीस पत्थर की नावें और कश्तियां उलटी पड़ी थीं। जैसे किसी कलाकार ने उन नावों-कश्तियों को गढ़ा हो। आदमकद पत्थर की मूर्तियां भी विभिन्न मुद्रा में उनके पास मौजूद थीं। मोना चौधरी तेजी से आगे बढ़ी और उनके पास पहुंची।

महाजन, पारसनाथ और सोहनलाल एकटक मोना चौधरी को ही देख रहे थे।

मोना चौधरी ने छू-छूकर नावों-कश्तियों और आदमकद बुतों को देखा, फिर वो सीधी हुई। चेहरे पर गुस्सा चमक रहा था। उसने गरदन घुमाई और नदी में नजर आ रही पहाड़ी को देखकर गुर्राई।

"वायुलाल!"

"क्या बात है मिन्नो ?" वायुलाल की आवाज वहां गूंजी--- "मुझसे कोई भूल हुई क्या?"

"कश्तियां और ये लोग पत्थर के क्यों हैं ?" मोना चौधरी के दांत भिंच गए थे--- "तुमने सब ठीक क्यों नहीं किया ?"

"तुम्हारे होते हुए मैं ये काम नहीं कर सकता। मैं चलते पहिए को आगे तो चला सकता हूं लेकिन रुके को धकेलने का दम मुझमें नहीं है। ये विद्या तुमने मुझे नहीं सिखाई। तुमने तो सब कुछ चालू करके मेरे हवाले कर दिया था।"

"लेकिन तुम रुके वक्त को आगे बढ़ाने की विद्या जान गए थे।" मोना चौधरी का स्वर सख्त था।

"वो विद्या सत्तू ने छीन ली थी।"

मोना चौधरी दांत भींचकर रह गई।

"मैं जानता था कि तुम ये बात कहोगी। तुम परेशानी में न पड़ो, इसलिए गंगूदास को मैंने पहले ही किनारे पर भेज दिया है। तुम तो जानती ही हो कि गंगूदास मेरे अलावा किसी की सेवा नहीं करता लेकिन तुम्हें लिवाने के लिए वो तैयार हो गया।"

"कहाँ है गंगूदास ?"

"वो तुम्हें कुछ आगे किनारे पर मिलेगा।" वायुलाल की आवाज सुनाई दी।

मोना चौधरी ने पारसनाथ, महाजन और सोहनलाल को देखा।

"आओ, कुछ आगे चलना है।"

वे सब चल पड़े।

"गंगूदास कौन है?" एकाएक सोहनलाल ने गंभीर स्वर में पूछा।

"क्यों पूछ रहे हो ?" मोना चौधरी ने चलते हुए उस पर नजर मारी।

"मुझे लगता है, जैसे मैं इस नाम के व्यक्ति को जानता हूं।" सोहनलाल गंभीर ही था।

मोना चौधरी ने आंखें सिकोड़कर उसे देखा ।

"ऐसे क्या देख रही हो?"

"तो तुम अब पूर्वजन्म में प्रवेश करते जा रहे हो।" कहते हुए मोना चौधरी मुस्करा पड़ी।

"क्या मतलब ?"

"मेरे खयाल में जल्दी ही तुम सब समझ जाओगे।"

वे चारों तेजी से आगे बढ़े जा रहे थे।

"बेबी! चल चल के बुरा हाल हो रहा है।" महाजन ने गहरी सांस लेकर कहा ।

"ज्यादा नहीं चलना पड़ेगा अब ।"

सोहनलाल के चेहरे पर उलझन सी दिखाई दे रही थी।

दस मिनट उस रास्ते पर चलने के पश्चात उनकी निगाह फूलों से सजी बड़ी सी कश्ती पर पड़ी, जो कि नदी के किनारे खड़ी थी। बहुत ही सुंदर लग रही थी वो कश्ती। कश्ती के ठीक बीचोबीच लकड़ी का कमरा बना था, जिसमें चारों तरफ खिड़कियां और परदे लगे हुए थे। कश्ती पर सफेद रंग पुता हुआ था।

कश्ती के पास ही कूल्हों पर सफेद रंग का कपड़ा लपेटे चालीस वर्षीय व्यक्ति खड़ा था। क्लीन शेव्ड चेहरा था उसका। सिर के बाल तेल में भीगे पीछे की तरफ जाते हुए गरदन तक पहुंच रहे थे। माथे पर चंदन का तिलक। वो दोनों हाथ आगे की तरफ बांधे उन्हें ही देख रहा था ।

"गंगूदास।" उसे देखते ही मोना चौधरी के होंठों से निकला।

महाजन, पारसनाथ और सोहनलाल ने भी उधर देखा।

गंगूदास पर नजर पड़ते ही सोहनलाल के मस्तिष्क को झटका लगा। एकाएक उसका चेहरा खिल उठा। वो तेजी से उसकी तरफ भागता हुआ चीखा।

"गंगू! क्या हाल है तेरा ?"

गंगूदास भी उसे देखकर खिल उठा।

"मैं बढ़िया हूँ गुलचंद! अपनी सुना।"

"सुनाना छोड़।" सोहनलाल दबे स्वर में कह उठा--- "वो निकाल।"

"क्या ?"

"वो ही।"

"चुपकर।" गंगूदास ने पीछे देखते हुए दबे स्वर में कहा--- "मिन्नो है यहां।"

"है तो क्या हो गया। मैं डरता हूं उससे।" सोहनलाल नाराजगी भरे स्वर में कह उठा ।

"चुपकर गुलचंद--- चुपकर।" गंगूदास हड़बड़ाकर बोला--- "वायुलाल मिन्नो की बहुत इज्जत करता...।"

"देख, सीधी बात कर-- टरका मत। तेरे को पता है कि ये सब मेरे को पसंद नहीं।" सोहनलाल ने उसे घूरा--- "जब मेरे पास नशा होता है तो तू दम मारे बिना नहीं मानता और अब तू...।"

"कैसे हो गंगूदास।" पास पहुंचकर मोना चौधरी मुस्करा पड़ी।

"अच्छा हूँ मिन्नो।" गंगूदास दोनों हाथ आगे बांध मुस्कान भरी आवाज में कह उठा। "खुश हो ?"

"आज सैकड़ों बरसों के बाद नदी के किनारे पर पहुंचा हूं। वायुलाल ने पहाड़ी और उसके भीतरी रास्तों के बीच अपने साथ-साथ सबको कैद कर लिया था।" गंगूदास ने गंभीर स्वर में कहा---"मजबूरी थी वायुलाल की। जो भी इस जमीन पर पांव रखता, वो जलकर राख हो जाता, इसलिए अपने साथ-साथ उसने सबको बांधकर रखा।"

मोना चौधरी गंगूदास को देखती रही।

"अब तुम आई हो तो ये जमीन शुद्ध हो गई। वायुलाल कहता था कि जब तक मिन्नो के पांव इस जमीन पर नहीं पड़ेंगे, तब तक इस नदी के बाहर की जमीन पर पांव नहीं रख सकेंगे। रखेंगे तो जल जाएंगे। वायुलाल हमेशा कहा करता था कि मिन्नो जल्द ही वापस आएगी। तब सब ठीक हो जाएगा। वे पहले की तरह चल-फिर सकेंगे। मैं सोचता था कि वायुलाल यूं ही हमारा दिल रखने को कहता है कि तुम वापस आओ और सब ठीक हो जाएगा, लेकिन अब लगता है कि वो सच कहता था।"

मोना चौधरी के होंठों पर मुस्कान उभरी।

"वायुलाल ने बताया था कि तुम पूर्वजन्म के दूसरे हिस्से में जाकर दालू बाबा और हाकिम से जा टकराई। तुम्हारे साथ देवा भी था और भी सब थे। ये गुलचंद था। हाकिम और दालू बाबा को तुम लोगों ने खत्म कर दिया।" गंगूदास कहे जा रहा था--- "उसके बाद वायुलाल ने बताया कि तुम सब लोग ही सात आसमान ऊपर शैतान से लड़ने जा पहुंचे थे। शैतान के अवतार, प्रेतनी चंदा और महामाया को तुम लोगों ने खत्म कर दिया था।" (ये सब जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन के पूर्व प्रकाशित उपन्यास 1. जीत का ताज, 2. ताज के दावेदार 3. कौन लेगा ताज, 4. पहली चोट, 5. दूसरी चोट, 6. तीसरी चोट, 7. महामाया की माया)--- "वायुलाल तुम लोगों के बारे में कभी-कभार बता दिया करता था।"

"मैं आ गई हूं गंगूदास! अब सब ठीक हो जाएगा।"

"तुम्हारे दूर जाने की वजह से वायुलाल की सारी विद्याएं सिमटकर रह गई थी। लेकिन अब सब ठीक हो गया। वायुलाल बहुत खुश है। देवा उधर जंगल में फंस चुका है। वो भी नहीं बच...!"

"खामोश गंगू।" सोहनलाल सख्त स्वर में कह उठा--- "अगर देवा को कुछ हुआ तो मैं तेरे से दोस्ती छोड़ दूंगा।"

"इसमें मेरा क्या कसूर गुलचंद ?"

"मैं नहीं जानता। जाकर वायुलाल से कह कि देवा को....।"

"वायुलाल मेरी बात कहां मानेगा। मिन्नो को कह। ये तेरे साथ है। अब तो वो ही होना है, जो मिन्नो चाहेगी।"

सोहनलाल ने मोना चौधरी को देखा और तीखे स्वर में गंगूदास से कह उठा।

"ये दुश्मन है देवराज चौहान की। ये तो उसे मारना चाहती है।"

मोना चौधरी का चेहरा गुस्से से भर उठा।

गंगूदास कुछ कहने लगा कि मोना चौधरी बोली।

"चलो गंगू! हमें पहाड़ी पर पहुंचाओ।"

"आओ!"

वे उस बड़ी कश्ती पर चढ़े और केबिन रूपी कमरे में पड़े बड़े-बड़े तख्तों पर जा बैठे।

गंगूदास कश्ती के पीछे वाले हिस्से में पहुंचा और दोनों हाथों से बड़े-बड़े चप्पू चलाने लगा। सोहनलाल उसके साथ ही था वो नीचे बैठता हुआ बोला।

"नशा ला गंगू। किधर रखा है ?"

"वहीं, जहां हमेशा रखता हूं।"

सोहनलाल वहां से हटा और पास ही बनी लकड़ी की सीट के नीचे पड़ी कपड़े की थैली में से चिलम और तम्बाकू निकाला, फिर गंगूदास की तरफ देखकर बोला।

"नशे का सामान कहाँ है ?"

“तम्बाकू में मिला रखा है। तू चिलम भर के सुलगा।"

सोहनलाल ने चिलम तैयार की और सुलगाकर कश लिया, फिर गंगूदास के पास आ गया।

"माल तेरा तीखा ही होता है हमेशा।" सोहनलाल ने दो-तीन कश मारे फिर चिलम उसकी तरफ बढ़ाकर बोला--- "ले।"

"मेरा चप्पू ?"

"वो मैं पकड़ लेता हूं। कश मार तू। कश्ती तो चलती ही रहेगी।" सोहनलाल ने एक हाथ से चप्पू पकड़ा और गंगूदास को चिलम थमा दी--- "ले जल्दी से दो-चार खींच ले।"

गंगूदास चिलम से कश खींचने लगा।

सोहनलाल ने एक तरफ का चप्पू थाम रखा था। कश्ती पानी में पहाड़ी की तरफ सरकती जा रही थी।

"गंगू! देवा जंगल में क्या कर रहा है?" सोहनलाल ने एकाएक पूछा।

"मरने का रास्ता तैयार कर रहा होगा।" गंगूदास हंसकर कह उठा।

सोहनलाल की गंभीर निगाह उस पर जा टिकी ।

"क्या पता मर गया हो।"

"अभी जिन्दा है।"

"कैसे पता?"

"उसके मरते ही यहां की हर चीज पहले की तरह सामान्य हो जाएगी। बहुत चीजें पत्थर हुई पड़ी हैं।"

"ऐसा क्यों ?"

"वायुलाल ने इस मंदिर की जगह को बांधते हुए उसका नाम ये सोचकर शामिल कर लिया कि वो फिर कभी भी यहां नहीं आ सकेगा। अब आ गया तो उसके मरते ही सब कुछ पलट जाएगा।"

"वायुलाल दूसरों की आड़ में अपनी गलतियां छिपा रहा है।" सोहनलाल तीखे स्वर में बोला--- "वो रानी को...!"

"गुलचंद, ये बातें मत कर। वायुलाल जो भी करे, मुझे क्या ?"

"तुझे नहीं, मुझे तो है।" सोहनलाल तीखे स्वर में ही कह रहा था--- "उसने देवा की जान को खतरे में डाल दिया है।"

"ये कोई नई बात नहीं है। वो तो पहले भी देवा की जान लेने की चेष्टा कर चुका है।" गंगूदास धीमे स्वर में कह उठा।

"एक बार तो तूने मुझे पहले ही वायुलाल की हरकत बता दी थी। तभी मैंने देवा को बचा लिया।"

"धीरे बोल, कोई सुन लेगा।"

"अब फिर दोस्ती का फर्ज निभा।" सोहनलाल उसके हाथ से चिलम लेते कह उठा।

गंगूदास ने चप्पू थामा और पुनः दोनों चप्पू पानी में मारने लगा।

"कैसा फर्ज ?"

"मुझे बता कि देवा जंगल में कैसे बचेगा। मैं उसे वहां से बचा...!"

"पागलों वाली बातें मत कर। देवा और जग्गू में से अब कोई नहीं बचेगा।" गंगूदास धीमे स्वर में कह उठा।

"वायुलाल से बहुत ज्यादा वफादारी दिखा रहा है गंगू।" सोहनलाल कड़वे स्वर में कह उठा।

"उसका नमक खाता हूं।"

"वो तो तू पहले भी खाता था और मुझे वायुलाल की बातें बताया करता था। जो कि मैं देवराज चौहान से जाकर बताता था।" सोहनलाल ने गंगूदास को देखा--- "अब तू कौन सा खास नमक खाने लग गया।"

दोनों हाथों से दोनों चप्पू चलाते गंगूदास ने सोहनलाल को देखा, फिर कह उठा।

"इस बार मैं देवा के लिए कुछ नहीं कर सकता।"

"मैं तेरी झूठी बातों में नहीं फंसने वाला।" सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा--- "मुझे देवा के बचाने का रास्ता बता, नहीं तो मैं वायुलाल को बता दूंगा कि तू मुझे उसकी बातें बताता है और मैं देवा को वो बातें बता देता हूं।"

"जो तेरे मन में आए, वो कर।" गंगूदास ने धीमे स्वर में कहा--- "इस बार तो मैं सच में नहीं जानता कुछ।"

सोहनलाल ने गंगूदास को देखा, फिर एक तरफ लकड़ी के फट्टे पर जा बैठा। चेहरे पर बेचैनी थी।

"गुलचंद !" कह उठा गंगूदास--- "तू फिक्र मत कर। कुछ पता लगा तो मैं तेरे को बता दूंगा।"

"तब तक तो देवा मर जाएगा।"

"ये मैं नहीं जानता।"

कश्ती नदी के बीचो बीच नजर आ रही पहाड़ी के पास पहुंचती जा रही थी।

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