सोमवार-मंगलवार : 25-26 मई
सोमवार सुबह साढ़े दस बजे कोर्ट में सुष्मिता की पेशी हुई जिसमें सरकारी वकील का दर्जा रखने वाले पुलिस के एडवोकेट ने लम्बे रिमाण्ड की जरूरत पर ये कह के भरपूर जोर दिया कि वो एक कत्ल जैसे गम्भीर जुर्म की मुजरिम थी और जुर्म में शरीक उसका जोड़ीदार अभी भी पुलिस की गिरफ्त से दूर था। जोड़ीदार की गिरफ्तारी के लिये गिरफ्तार मुलजिमा पर दबाव बनाया जाना जरूरी था, उसी से हासिल जानकारी से जीतसिंह नाम के दूसरे मुजरिम की गिरफ्तारी मुमकिन हो सकती थी इसलिये पुलिस कम से कम दस दिन के रिमाण्ड की जरूरत पेश करती थी।
मीडिया से मुतासिर जज उस रोज का ‘एक्सप्रेस’ पढ़ के घर से आया था जिसमें मुलजिमा से ताल्लुक रखती लीड स्टोरी इतने दमदार तरीके से छपी थी कि मुलजिमा के जुर्म की बाबत वो पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो पाया था। लिहाजा एडवोकेट गुंजन शाह की बाजरिया ‘एक्सप्रेस’ फेंकी गोटी चल गयी, जज का मिजाज उसके क्लायन्ट के काम आया और उसने सिर्फ तीन दिन का रिमाण्ड मंजूर किया, जिसमें कोई बढ़ोत्तरी न हो पाने की बाबत उसने पहले ही संकेत दे दिया और हुक्म जारी किया कि गुरुवार सुबह मुलजिमा को चार्जशीट के साथ कोर्ट में पेश किया जाये।
तदोपरान्त गुंजन शाह के बड़े वकील के रुतबे और दबदबे ने ये सुनिश्चित किया कि वापिस पुलिस की गिरफ्त में पहँुचने से पहले मुलजिमा का मैडीकल एग्जामिनेशन हो, क्योंकि शार्ट रिमाण्ड की रू में उसके साथ थर्ड डिग्री वाले तरीके आजमाये जाने का अन्देशा था, और ये कि उसकी इनटैरोगेशन को सिर्फ महिला पुलिस अधिकारी हैंडल करें।
शाम तक बाजरिया मीडिया पुलिस ने जीतसिंह की गिरफ्तारी पर बीस हजार रुपये के ईनाम की घोषणा कर दी जिसकी खबर शाम को घर से बाहर निकली मिश्री लेकर लौटी। नतीजतन आइन्दा मिश्री का घर ही जीतसिंह के लिये कैदखाने सरीखा बन गया। वो नवलानी को फोन लगाता था तो मालूम पड़ता था कि उसके लायक कोई खबर उसके पास नहीं थी और तीन दिन के रिमाण्ड के वक्फे के दौरान गुंजन शाह भी नया कुछ कर के नहीं दिखा सकता था।
दो दिन यूँ ही गुजरे।
उस दौरान मिश्री घर से कहीं जाती थी तो बाहर से ताला लगा के जाती थी। बकौल उसके ऐसा किया जाना जरूरी था क्योंकि उसका कोई स्टेडी कस्टमर कभी भी वहाँ आ टपकता था जो दरवाजे पर ताला न झूलता पाकर समझ सकता था कि मिश्री भीतर थी और उसे ही दरवाजा नहीं खोल रही थी। उस स्थिति में स्टेडी होने की अपनी हैसियत की वजह से ही वो वहाँ कोई उपद्रव खड़ा कर सकता था। इसके विपरीत ताला लगा पा कर वो आसानी से वहाँ से टल सकता था। लेकिन यूं ताला लगा के गयी मिश्री जब तक लौट नहीं आती थी, जीतसिंह की जान सूली पर टंगी रहती थी। बीस हजार कोई बहुत बड़ी रकम नहीं थी लेकिन फिर भी इन्सान की लालची फितरत का क्या पता लगता था! ताला लगा के गयी मिश्री पुलिस के साथ लौटती, ये बात उसके एतबार में नहीं आती थी लेकिन जेहन में दस्तक दिये बिना नहीं रहती थी और उसके अन्दर से कहीं से दबी हुई आवाज निकलती थी जो कहती थी क्या पता लगता था।
लेकिन उसकी वो शंका हर बार निर्मूल साबित हुई, दो दिन वैसी कोई अनहोनी न हुई।
फिर तीसरे दिन राजाराम लोखण्डे का फोन आया।
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