काजल या कलंक?

ऋचा ने अंगड़ाई लेकर करवट बदली तो कमरे की खुली खिड़की से आती सूरज की तेज़ किरणों से उसकी आँखें चौंधिया गयी। उसने फौरन अपनी बाँह से अपनी आँखें ढक ली और फिर से करवट बदली।

तभी उसकी नज़र घड़ी पर पड़ी और वो झट से उठ गयी, “अरे! ये क्या सुबह के दस बज गए।”

ऋचा जल्दी से अपनी पलंग से नीचे उतरी तो उसने देखा, अनाया की डायरी फ़र्श पर पड़ी हुई थी।

“मैं भी न,” ऋचा ने डायरी को उठाकर मेज़ पर रखते हुए कहा, “बहुत लापरवाह होती जा रही हूँ। आज फिर से उठने में देरी हो गयी। अब, कार्तिक तो आसमान सर पर उठा लेगा।”

ऋचा जल्दी से मुँह हाथ धोकर अपने कमरे से बाहर निकली तो उसने देखा कार्तिक हॉल में बैठा अख़बार पढ़ रहा था। उसने एक बार आँखें उठाकर ऋचा को घूरा और फिर मुँह फुलाकर उससे नज़रें फेर ली।

“सॉरी, कार्तिक,” ऋचा ने अपने कान पकड़े और मुस्कुराते हुए कार्तिक के पास जाकर बैठ गयी।

“कल भी देर रात तक जाग कर डायरी पढ़ी होगी, तुमने।” अखबार पर नज़रें गड़ाए हुए कार्तिक ने बड़ी बेरुखी से कहा।

“क्या करूँ? वो अनाया की कहानी इतनी दिलचस्प होती जा रही थी कि रुकने का मन ही नहीं कर रहा था।”

“अब चलो, नाश्ता कर लेते हैं।” कार्तिक ने एक लम्बी साँस ली और अखबार बंद करके मेज़ पर रख दिया।

“अच्छा ये तो बताओ, आज का क्या प्लान है?” ऋचा ने कार्तिक की नाराज़गी दूर करने के लिए बड़े मीठे स्वर में कहा, “आज हम कहाँ जा रहे है?”

“कहीं नहीं,” कार्तिक की नाराज़गी थी कि जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। किसी चिपकू मेहमान की तरह उसके चेहरे से चिपकी हुई थी।

“ऐसा क्यों कहते हो?” ऋचा बड़े प्यार से उसकी खुशामद करने लगी, “अब ऐसी भी क्या नाराज़गी है मुझसे?”

“आज मेरा कुछ और प्रोग्राम है।”

“क्या है तुम्हारा प्रोग्राम? ज़रा मुझे भी तो बताओ।”

“आज रविवार की छुट्टी है इसलिए मैं और विराट आज दिन भर शतरंज खेलने वाले हैं।” कार्तिक ने ज़रा अकड़कर कहा, “तुम दिन भर यहाँ अकेले बैठकर अपनी डायरी ही पढ़ती रहना।”

“हाँ, ये ठीक रहेगा,” ऋचा मुस्कुराते हुए बोली। लेकिन तभी उसकी नज़र कार्तिक पर पड़ी जो कि उसे घूर रहा था। ये देखकर ऋचा ज़रा खिसियायी और बोली, “नहीं मेरा मतलब है...अगर...हम कहीं साथ, बाहर चलते तो अच्छा था।”

“रहने दो,” कार्तिक को ऋचा का लजाया हुआ चेहरा देखकर हँसी आ गयी, “मैं खूब समझता हूँ कि तुम क्या चाहती हो। चलो उठो, अब नाश्ता कर लेते हैं।”

नाश्ता करने के फौरन बाद कार्तिक, विराट के घर चला गया। कार्तिक के जाते ही ऋचा दौड़ती हुई अपने कमरे में गयी और मेज़ पर रखी डायरी हाथों में लेकर बड़े उत्साह से पलंग पर बैठ गयी।

“आज कार्तिक पूरे दिन बाहर ही रहेगा।” ऋचा ने डायरी के पन्ने पलटते हुए खुद से कहा, “उसके वापस आने से पहले-पहले, मुझे ये डायरी हर हाल में पूरी पढ़नी है। ये हर रोज़, रात-रात भर जागना, सुबह देर से उठना और फ़िर कार्तिक की किट-किट सुनना, अब नहीं होगा मुझसे। मैं तंग आ गयी हूँ।”

ऋचा ने वो पेज खोला जहाँ से उसे आगे की कहानी पढ़नी थी। अनाया के लिखे अक्षरों में खोकर, ऋचा अपने इर्द-गिर्द की दुनिया को भूल गयी और एक बार फिर अनाया के जीवन की उधेड़-बुन में लौट गयी। डायरी में अगली एंट्री की तारीख़ करीब एक महीने बाद की थी और कुछ यूँ लिखा हुआ था–

“मैं आज पूरे एक महीने के बाद घर वापस आयी हूँ। अपनी पुरानी ज़िन्दगी में कदम रखते ही, खालीपन मुझे फिर से सताने लगा है। घर की ऊपरी मंज़िल का काम अब पूरा हो चुका था। इसलिए, घर में एक अजीब-सी, शमशान जैसी, शांति थी जिसकी वजह से मेरा दम घुट रहा था। जब ऊपर काम चल रहा था, तब घर में चल-पहल रहती थी। मशीनों की आवाज़ के बीच से काम करने वाले मज़दूरों के हँसने, बोलने की आवाज़ें भी सुनाई देती थी। लेकिन, अब तो घर सूना-सूना-सा लगता है। वापस आते ही मैंने सबसे पहले ऊपर जाकर नए कमरों को देखा। अरमान ने कमरे बिलकुल वैसे ही बनाये थे, जैसा मैं चाहती थी। उन कमरों ने मुझे बीते दिनों की याद दिला दी। आज मैं वहाँ अकेले खड़ी थी, जहाँ मैं कभी अरमान के साथ घंटों बातें किया करती थी। लेकिन, अब वो सब सोचने का क्या फायदा? मेरी किस्मत में तो बस अकेलापन ही लिखा था। मैं सीढ़ियों से नीचे उतर ही रही थी कि फ़ोन की घंटी बजी। मैंने अनमने मन से फ़ोन उठाया।

“सुनो, मैंने अलमारी में एक लिफाफे के अंदर कुछ पैसे रखे हैं,” फ़ोन पर विवेक थे, “अभी थोड़ी देर में अरमान वहाँ आएगा। तुम, उसे वो पैसे दे देना। और सुनो, चाय-नाश्ता देना मत भूलना।”

“जी” सिर्फ वो एक लब्ज़ कहकर, मैंने फ़ोन रख दिया।

अरमान का नाम सुनते ही मेरे मन में कुछ अज्ञात तरंगें उठने लगी। मैं, आईने के सामने जाकर बैठ गयी और बाल बनाने लगी। फौरन, अपने लिए अलमारी से एक नयी साड़ी भी निकाल ली।

तभी मुझे ख़याल आया कि ये मैं क्या कर रही हूँ? किसके लिए मैं खुद को यूँ सजा रही हूँ? वो मेरा कौन लगता है? ये सोचकर, मैंने साड़ी वापस अलमारी में ही रख दी और बालों का जूड़ा बना लिया।

मैं किचन की तरफ जा ही रही थी की तभी दरवाज़े की घंटी बजी। एक पल के लिए मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया। मुझे ऐसा लगा, मेरे पैर फर्श पर जम से गए हैं। दोबारा घंटी बजी और मेरे दिल की धड़कनों ने एकदम से रफ्तार पकड़ ली।

मैंने एक गहरी साँस ली और पक्का इरादा किया कि अगर अरमान होगा तो उससे कोई बात नहीं करूँगी। उसे पैसे और चाय देकर, जल्दी-से-जल्दी दफ़ा कर दूँगी। मैंने बड़े दृढ-निश्चय के साथ दरवाज़ा तो खोला, पर अरमान को देखते ही मेरा सारा जोश ठंडा पड़ गया और मैं उसे बस देखती ही रह गयी।

“क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?”

अरमान के शब्द मुझे ख्यालों की दुनिया से वापस खींच लाये और मैंने उन्हें बैठने के लिए कहा।

मैं अंदर गयी और लिफाफा ले आयी।

“तो फिर, मैं चलता हूँ।” अरमान ने लिफाफे को अपनी जेब में डालते हुए कहा।

“बैठिये, मैं आपके लिए चाय लाती हूँ।” अरमान के जवाब का इंतज़ार न करते हुए मैं जल्दी से किचन की तरफ चल पड़ी।

मेरी साँसें फूल गयी थी। किचन में आकर मैंने अपने दिल पर हाथ रखा और अपनी आँखें कस कर बंद कर ली। कुछ मिनटों के बाद, जब मैंने खुद पर काबू कर लिया तो मैंने चाय बनाना शुरू कर दिया।

“तुम कैसी हो, अनाया?”

अरमान की आवाज़ सुनकर मेरे हाथ ठिठककर रुक गए। वो किचन में आकर, ठीक मेरे पीछे खड़े हो गए थे। मैं बिना कोई जवाब दिये, पत्थर की मूरत बनी अपनी जगह पर खड़ी रही। इतने में, अरमान आगे बढ़े और पीछे से उन्होंने मेरी कमर को अपनी बाँहों में कस लिया। मैं न कुछ बोल पा रही थी, न उनकी इस हरकत का विरोध ही कर सकी। बस, अपनी आँखें बंद कर खड़ी हो गयी। उन्होंने मेरा जूड़ा खोल दिया और मेरी गर्दन पर एक हल्का सा चुम्बन दिया। मेरी बंद आँखों से कुछ आंसू की बूंदे चुपके से बरस गयी। फिर उन्होंने मुझे अपनी तरफ मोड़ लिया। मैंने अब भी अपनी आँखें बंद ही कर रखी थी। उन्होंने अपने होंठों को मेरे होंठों पर रखा और बड़े प्यार से चूमने लगे। अब, मेरे सब्र का बाँध टूट चूका था। मैंने अरमान को अपनी बाँहों में कस लिया और उनके सीने से लग कर फूट-फूट कर रोने लगी।

“मुझे आपसे प्यार हो गया है, अरमान।” मैंने सुबकते हुए कहा, “आपसे कुछ दिन दूर रहकर मैंने ये जाना कि आपके बिना एक पल भी बिताना कितना मुश्किल है। अब, अगर मैं आपसे अलग हुई तो मर जाऊँगी।”

“तो फिर, शादी कर लेते है, अनाया।” अरमान ने मेरे आँसू पोछते हुए कहा।

“नहीं, ये आप क्या कह रहें है?” मैं फौरन अरमान से अलग होकर, कुछ कदम पीछे हट गयी।

“क्यों? ऐसा क्या कह दिया मैंने जो तुम ऐसे घबरा रही हो।” अरमान मेरी तरफ बढ़े और कहा, “हम प्यार करते हैं एक-दूसरे से, तो फिर शादी के बंधन में बँधना क्या गलत है?”

“समाज की नज़रों में ये पाप है, अरमान।” मैंने अपने कानों पर हाथ रख लिया।

“कौन सा समाज, अनाया?” अरमान ने तैश में आकर कहा, “क्या समाज तुम्हारे आँसू पोंछने कभी आया था? क्या समाज को इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि तुम खुश हो या दुखी, ज़िंदा हो या मर गयी हो? नहीं, न? लेकिन, अगर तुम अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से, अपने तरीके से जीना चाहती हो तो, इस समाज को क्या हक़ है तुम पर उँगली उठाने का? जो तुमसे प्यार नहीं करता, उसे छोड़कर तुम उस इंसान के साथ घर बसाना चाहती हो जो तुम्हें बेहद चाहता है, तो ये समाज तुम्हारी खुशियों के रास्ते में रोड़ा क्यों ड़ाल रहा है? और, विवेक जो तुम्हारे साथ कर रहा है, क्या वो पाप नहीं है? ये समाज, उसे क्यों नहीं कुछ कहता? क्योंकि वो पति है, मर्द है। वो अपनी पत्नी के साथ चाहे जैसा बर्ताव करे, समाज उससे क्यों कोई सवाल नहीं करता?”

“मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा, अरमान?” मैंने रोते हुए कहा, “मैं क्या करूँ?”

“अगर, विवेक जो कर रहा है वो सही है, अनाया, तो न हम गलत हैं और न ही हमारा प्यार पाप है। ये तो काजल है, पगली, इसे कलंक का नाम देकर बदनाम मत करो।” ये कहकर अरमान ने मुझे अपनी बाँहों में ले लिया और चुम्बनों के रूप में अपना प्यार मुझ पर बरसाना शुरू कर दिया।

उनके प्यार में इतना नशा था कि मैं खुद को भूल कर उनमें समां गयी। मैंने अपना तन-मन, सब बेझिझक होकर, उनके हवाले कर दिया।”

* * *

“पता नहीं अनाया, ये जो तुमने किया उसे सही कहूँ या गलत।” ऋचा ने डायरी बंद कर दी और एक ठंडी आह भरी, “सही मानने की इजाजत दिमाग नहीं देता और गलत कहने को दिल नहीं मानता। खैर, जो बहुत पहले हो चुका है, उसके बारे में अब सोचने का भला क्या मतलब बनता है?”

आगे की कहानी पढ़ने के लिए ऋचा ने डायरी खोली और पन्ने पलटने लगी। काफी देर तक पृष्ठ पलटने के बाद ऋचा को अगली एंट्री मिली, क्योंकि अगली एंट्री अनाया ने पूरे तीन महीने बाद लिखी थी।

“इतने दिन तुम कहाँ थी, अनाया?” ऋचा थोड़ी हैरान थी, “ऐसा क्या हो गया था कि तुम्हें डायरी लिखने की फुर्सत ही नहीं मिली?”

लेकिन, अनाया के लिखे शब्दों को पढ़ते ही ऋचा को अपने सवाल का जवाब मिल गया।

“मैं और अरमान, अक्सर चोरी-छिपे मिला करते थे। अब मुझे समझ आया कि लोग क्यों कहते हैं कि चोरी-छिपे मिलने में जो मज़ा है वो किसी और चीज़ में नहीं। मैं जानती हूँ कि समाज की नज़रों में ये गलत है। पर सच तो ये है कि न तो ये समाज मुझे कभी समझ पायेगा, न मैं अपनी विडम्बना इस कठोर समाज को कभी समझा पाऊँगी। लेकिन चाहे जो भी हो, मैं अब बहुत खुश हूँ। अरमान का साथ मिला तो मुझे ये एहसास हुआ कि प्यार को पाकर इंसान, सच-मुच, मोक्ष-प्राप्ति का सुख हासिल कर लेता हैं। मुझे भी पिछले कुछ दिनों से ऐसा ही एक दिव्य सुख मिल रहा था, जिसे मैं किसी कीमत पर भी खोना नहीं चाहती थी।

अरमान मुझसे अक्सर शादी की बात करते थे, पर मैं ही टाल जाती थी। मैं नहीं जानती थी कि मैं विवेक से, अपने बाबा से और इस पूरे समाज को ये बात कैसे कहूं। मैं जानती थी कि कोई मुझे कभी समझ नहीं पायेगा। इसलिए, हर बार मेरे कदम पीछे हट जाते थे। अरमान को जिस दिन काम से छुट्टी मिलती थी, उस दिन मैं विवेक से झूठ बोलकर, उनके साथ कहीं बाहर जाती थी। एक-दूसरे के साथ हमारा वक़्त तो अच्छा कटता था, मगर दिल में हमेशा एक डर बैठा रहता था। कहते है, एक सच पर पर्दा डालने के लिए सौ झूठ भी काफी नहीं होते। और वैसे भी झूठ की उम्र भी तो ज़्यादा लम्बी नहीं होती, एक-न-एक दिन वो ज़रूर पकड़ा जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

कल सुबह, जब मैं विवेक के लिए नाश्ता बना रही थी तो मेरे मोबाइल फ़ोन पर अरमान का मैसेज आया-

“मैंने मैटिनी की दो टिकटें ले ली हैं। समय पर पहुँच जाना। मैं, सिनेमा हॉल के बाहर तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।”

पिछले कुछ महीनों से, हर हफ्ते हमारी दो-तीन मुलाकातें तो होती ही रहती थी। विवेक के ऑफिस चले जाने के बाद, मैं कोई बहाना बनाकर घर से निकलती और शाम को चिराग के स्कूल से लौटने से पहले वापस आ जाती थी। मैंने नाश्ते की ट्रे हाथों में ले ली और घर से बाहर निकलने का कोई नया बहाना सोचते हुए हॉल की तरफ बढ़ी। विवेक हमेशा की तरह सुबह का अखबार पढ़ रहे थे।

“विवेक, मुझे आज डॉ. पाठक के क्लिनिक जाना है।” मैंने ट्रे को मेज़ पर रखते हुए कनखियों से विवेक को देखा।

“कौन? वो डेंटिस्ट?” विवेक ने मेरी ओर कोई ध्यान न दिया, “क्यों? क्या हुआ?”

“कई दिनों से दाँतों में बड़ा दर्द है।” मैंने नज़रें नीची कर ली, “कल रात तो दर्द इतना बढ़ गया था कि मैं ठीक से सो भी नहीं पायी। इसलिए, सोचा आज दिखा ही दूँ।”

“ठीक है।” विवेक ने अखबार से नज़रें उठाये बिना ही कह दिया।

विवेक और चिराग के जाते ही मैंने घर का काम जल्दी से ख़त्म किया और सिनेमा हॉल पहुँच गयी। अरमान से मिलते ही मैं अपने सारे दुःख-दर्द, डर और चिंताओ को ही नहीं बल्कि लोक-लाज तक भूलकर, एक नैसर्गिक आनंद में खो जाती थी। फिल्म के इंटरवल में अरमान जूस लेने सिनेमा हॉल के बाहर चले गए। तभी, मुझे विवेक का फ़ोन आया। मेरा मन आशंकाओं से भर गया। मैंने किसी तरह थोड़ी हिम्मत जुटाई और फ़ोन उठाया।

“सुनो, मैं डॉ. पाठक के क्लिनिक के बाहर हूँ।”

“क्या?” विवेक की बात सुनकर पल भर में मेरे चेहरे का रंग उड़ गया।

“हाँ, आज ऑफिस का काम ज़रा जल्दी ख़त्म हो गया था और डॉ. पाठक का क्लिनिक हमारे घर के रास्ते में ही पड़ता है, तो मैंने सोचा तुम्हें भी साथ लेता चलूँ। तुम डॉक्टर से मिल लो, मैं बाहर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।”

“नहीं...वो,” मुझे एयर-कंडिशन्ड सिनेमा हॉल में भी पसीना आने लगा और मैं हड़बड़ाती हुई कोई बहाना सोचने लगी, “मैं क्लिनिक में नहीं हूँ।”

“नहीं हो?” विवेक ज़रा चौंके, “पर तुमने तो सुबह कहा था...खैर छोड़ो, तुम घर पर हो क्या?”

“नहीं, मैं घर पर भी नहीं हूँ।” मैंने मन-ही-मन अंदाजा लगाया कि विवेक वहाँ से सीधा घर जाएंगे, जो क्लिनिक से केवल दस मिनट की दूरी पर है। और मुझे यहाँ से घर पहुँचने में कम-से-कम आधा घंटा ज़रूर लगेगा।

“अगर घर पर भी नहीं हो, तो कहाँ हो भई, तुम?”

“वो मेरी एक सहेली हैं न, रानी,” ईश्वर की कृपा से मुझे एक उपाय सूझा, “मैं उसके घर पर हूँ। उसकी तबीयत अचानक बिगड़ गयी थी तो मैं उससे मिलने चली आयी। आप घर जाइए, मैं बस आधे घंटे में घर पहुंचती हूँ।”

“ठीक है,” कहकर विवेक ने फ़ोन रख दिया और मेरी जान में जान आयी।

मैं अरमान के वापस आने का इंतज़ार किए बिना, सिनेमा हॉल से दौडती हुई बाहर चली गयी। फिर जल्दी से, सड़क के किनारे खड़ी टैक्सी में बैठ गयी और फौरन घर को रवाना हो गयी। घर लौटने के बाद मेरे और विवेक के बीच कोई ख़ास बात-चीत नहीं हुई। कल देर रात तक विवेक, अपने कमरे में बैठे ऑफिस का काम ही करते रहे। काम में व्यस्त होने की वजह से उन्होंने रात का खाना भी हमारे साथ नहीं खाया। मुझे अंदर-ही-अंदर बड़ी राहत महसूस हुई। मैंने सोचा यही अच्छा है। विवेक को क्लिनिक वाली बात पर कोई सवाल-जवाब करने का मौका भी नहीं मिलेगा और काम में मसरूफ़ होने की वजह से वो बहुत जल्दी ही इस बात को भूल भी जायेंगे।

आज सुबह, हम दोनों साथ बैठकर नाश्ता कर रहे थे। कहने को तो हम एक-दूसरे के करीब बैठे थे, लेकिन हम दोनों में दो दुनियाओं का फासला था। वो अखबार पढ़ते हुए चाय की चुस्कियों का मज़ा ले रहे थे। और मैं अपने मोबाइल फ़ोन पर उनकी आँख बचाकर अरमान का मैसेज पढ़ रही थी। न मैं उन पर कोई ध्यान दे रही थी और न वो मुझ पर। कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही लग रहा था।

“अब तुम्हारी सहेली कैसी है?” विवेक ने एकाएक मुझसे पूछा।

“जी?” मैंने हड़बड़ाते हुए अपना फ़ोन, अपनी चुनरी में छिपा लिया और पूछा, “कौन सी सहेली?”

“अरे वही, जिसकी कल तबीयत खराब हो गयी थी।”

“नहीं तो,” मेरा ध्यान विवेक के सवाल पर नहीं बल्कि अपने फ़ोन पर था। मुझे डर लग रहा था कि कहीं विवेक ने अरमान के मैसेज न देख लिए हों, “मेरी किसी भी सहेली की तबीयत खराब नहीं है।”

“लेकिन कल तुमने ही तो कहा था न कि तुम्हारी किसी सहेली की तबीयत अचानक ख़राब हो गयी थी। और, तुम उससे मिलने, उसके घर चली गयी। इसलिए तुम डॉ. पाठक के क्लिनिक नहीं जा पायी।” विवेक ने मेरी आँखों में आँखें ड़ाल कर कहा।

“अच्छा, हाँ!” विवेक की आँखों में शक के बादल मँडराते देखकर मेरे चेहरे का रंग ही उड़ गया। मैं अपने बिछाये जाल में खुद ही फँस गयी थी, “वो...वो अब ठीक है। मैं भी न... बिल्कुल भुलक्कड़ हो गयी हूँ।”

“मैं आज ऑफिस से सीधे अहमदाबाद के लिए रवाना हो जाऊंगा।” विवेक की नज़रें वापस अखबार की तरफ लौट गयी, “वहाँ मेरी एक क्लाइंट के साथ मीटिंग है। दो दिन बाद ही लौटूँगा। मेरे वापस आने तक तुम, चिराग का अच्छे से ख्याल रखना।”

“जी!” कहते हुए मेरे होंठ कांप रहे थे। विवेक के ऑफिस चले जाने के बाद ही मेरी जान में जान आयी। मैं ख्यालों में उलझी हुई बैठी थी कि तभी मेरे मोबाइल फ़ोन पर एक कॉल आया।

“तुम तो हमें भूल ही गयी, अनाया।” रानी ने फ़ोन पर फटकार लगायी।

“अरे रानी, कैसी हो तुम?” बड़े दिनों बाद अपनी सहेली से बात करके मुझे बड़ी ख़ुशी हो रही थी।

“तुम तो कभी हमसे मिलने नहीं आती। हाँ, कल तुम्हारे पतिदेव मिल गए थे।”

“क्या?” मरे पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी।

“मैं अपनी कार में पेट्रोल डलवाने पेट्रोल पंप गयी थी, कल। वहीं मुझे विवेक मिल गए। लेकिन, बड़ी अटपटी-सी बातें कर रहे थे।”

“क्या कहा, उन्होंने?” मेरे दिल की बढ़ती धड़कनों के शोर ने मुझे बहरा कर दिया था।

“पहले तो उन्होंने मुझे बड़ी हैरानी से देखा और फिर पूछा कि मेरी तबीयत कैसी है। मैंने कहा, ईश्वर के आशीर्वाद से मैं तो भली चंगी हूँ।

“क्या?” फ़ोन मेरे हाथों से नीचे गिर गया और में सुन्न होकर कुर्सी पर बैठ गयी। मुझे समझ आ गया था कि विवेक ने मेरा झूठ पकड़ लिया है और उन्हें मुझ पर शक है। और अब वो दिन भी ज़्यादा दूर नहीं जब वो मेरे और अरमान के रिश्ते के बारे में भी जान जायेंगे।

मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। मैंने अरमान को फ़ोन करके उन्हें सारी बातें बता देना ही ठीक समझा।

विवेक को सच का पता चल चुका है, अरमान।” सारी घटना अरमान से कहकर मैंने अपने दिल पर रखा बोझ उतार दिया, “अब, उन्हें मुझ पर एतबार नहीं रहा। और, मुझे पूरा यकीन है कि एक-न-एक दिन, हमारे रिश्ते का सच भी उनके सामने आ जायेगा।”

“उससे पहले, हमें ही विवेक को सच बता देना चाहिए।”

“लेकिन, अरमान...”

मैं जानती थी अरमान ठीक कह रहें है। मगर, न जाने क्यों उस बात को स्वीकार करने की मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी।

“तुम कब तक यूँ ‘लेकिन-लेकिन’ करती रहोगी, अनाया?” अरमान ने एक लम्बी साँस लेते हुए कहा, “मुझे नहीं लगता अब और ज़्यादा देर करना ठीक होगा।”

“मैं अपने बाबा को कैसे समझाऊंगी?” अपने बूढ़े पिता का ख्याल मन में आते ही मेरा चेहरा उतर गया, “क्या तुम्हें लगता है, वे मुझे ख़ुशी-ख़ुशी विवेक से तलाक़ लेने देंगे? हमारी बिरादरी में उनकी कितनी बेइज़्ज़ती होगी।”

“वो तुम्हारे पिता हैं, अनाया।” अरमान ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा, “उनके लिए तुम्हारी ख़ुशी से बढ़कर और कुछ नहीं हैं। हो सकता है कि शुरुआत में वो हमारे रिश्ते को क़ुबूल न करें और शायद इसका विरोध भी करें। लेकिन, जब उन्हें ये एहसास होगा कि तुम मेरे साथ कितनी खुश हो, तो वो ज़रूर मान जायेंगे।”

“और विवेक?” कहते हुए मेरी आँखें भर आयीं, “मैं, उनसे ये बात कैसे कहूँगी?”

“मुझे समझ नहीं आता कि तुम किस लिए इतना अफ़सोस कर रही हो?” अरमान खीज उठे, “विवेक ने आज तक तुम्हें पत्नी होने का कोई भी अधिकार दिया है?

फिर, जिस रिश्ते का कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसे तोड़ने से पहले इतना भी क्या सोचना?”

मैंने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

मुझे स्वयं नहीं पता था मैं ऐसा क्यों कर रही हूँ? शायद, पाप-पुण्य, सच-झूठ, सही-गलत, नैतिकता और सदाचार का डर, ये समाज हमारे मन में इतनी गहराई से बिठा देता है कि इंसान, जीवन भर इनके बनाये चक्रव्यूह से कभी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर पाता।

“तुम परेशान मत हो, अनाया।” मेरी चुप्पी में छिपे दर्द का एहसास होते ही अरमान का आक्रोश शांत हुआ और वो बोले, “तुम्हें विवेक से कुछ भी कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। आज शाम को मैं वहाँ आता हूँ और उससे सारी बात कह देता हूँ। मुझे पूरा यकीन है, उसे कोई एतराज़ नहीं होगा क्योंकि उसे तुमसे कोई लगाव ही नहीं है।”

“नहीं, आज नहीं। वो दो दिन के लिए अहमदाबाद गये हैं।”

“ठीक है, जब वो वापस आ जाये, तब मुझे फ़ोन कर देना। आपस में बात करके इस मामले को जल्दी-से-जल्दी निपटा लेते है।” इतना कहकर, अरमान ने फ़ोन रख दिया।

अब मुझे भी अरमान का फैसला सही लगने लगा था। मैंने अपने चारों ओर नज़र घुमाई। मैं उस दिन के सपने देखने लगी जब मैं, माया के इस मक़बरे से आज़ाद होकर, अरमान के घर उसकी दुल्हन बनकर जाएंगी। एक नया जीवन पाने की उम्मीद ने मेरे मन को खुशियों से भर दिया।

* * *

ऋचा ने वो पन्ना पलटा। मगर आगे के कई पन्नों पर कुछ नहीं लिखा हुआ था। आगे की कहानी जानने की बेकरारी में ऋचा, जल्दी-जल्दी पन्ने पलटने लगी। पलटते, पलटते डायरी का आखिरी पन्ना भी आ गया, मगर उस पर भी कुछ नहीं लिखा था।

“क्या?” ऋचा परेशान हो गयी, “इसमें तो आगे कुछ नहीं लिखा।” ऋचा ने एक बार फिर से डायरी का एक-एक पन्ना बड़े ध्यान से देखा। लेकिन, आगे के पन्नों में अनाया ने कहीं कुछ नहीं लिखा था, “अब क्या होगा?” सोच में डूबी हुई ऋचा ने डायरी बंद करते हुए कहा, “अब कैसे पता चलेगा कि आगे क्या हुआ?”