रंभू के मुंह से न सिर्फ पट्टी हटा ली गई थी, बल्कि उसमें ठुंसे सारे कपड़े भी निकाल लिए गए और ऐसा होते ही उसके मुंह से मर्मांतक चीखें निकलने लगीं—ऐसी दशा हो रही थी उसकी कि देखने मात्र से घृणा होती थी।

रक्त से सराबोर चेहरा, टूटी नाक और कुचली हुई-सी एक आंख।
मुंह से दर्द में लिपटी चीखें निकल रही थीं, मगर कम-से-कम बंतासिंह के काले और चौड़े चेहरे पर रहम का कोई लक्षण न था—हां, गुस्से की ज्यादती के कारण वह चेहरा कुछ और ज्यादा वीभत्स जरूर नजर आने लगा था।
बंतासिंह रंभू के बहुत निकट पहुंचा और एकाएक हलक फाड़कर चिल्लाया—"चुप रह हरामजादे! मुंह से आवाज निकली तो वक्त से पहले कुचल डालूंगा।"
बेचारा रंभू।
दोनों हाथ अपने मुंह पर रखकर उसने निकलने वाली चीखों को हलक में घोंटने का प्रयास किया, जबकि बंतासिंह ऊंची आवाज में बोला— "मंगवा !"
"हां सरदार।"
"फूलो और उसका गिरोह आज तक इस इलाके में क्यों जिंदा है?"
"क्योंकि उसके अड्डे के चारों तरफ फैली पहाड़ियों से गुजरकर कोई अड्डे पर हमला नहीं कर सकता। उस भूल-भुलैया में फंसकर उनके द्वारा मारा जाता है।"
"अब लगे हाथन ये भी बता दे कि हम क्यूं जिंदा हैं?"
"क्योंकि हमारे अड्डे का किसी को भी पता नहीं लग सकता। गिरोह का सदस्य होने की एक ही मगर सख्त शर्त है कि पकड़ा जाने वाला साथी किसी भी हालत में अड्डे का पता किसी को नहीं बताएगा। मर सकता है, मगर जुबान नहीं खोलेगा।"
"और भट्ठी में ये सलाखें क्यूं दहके हैं?"
"जिससे गिरोह के हर सदस्य को हर पल यह याद रहे कि यदि उसने किसी को अड्डे का पता बताया तो ये सलाखें उसकी आंखों में घुसेड़ दी जाएंगी।"
"सुनत तूने—सुनत हरामजादे, अपना मंगवा क्या कहत है?" दोनों हाथों से उसका गिरेबान पकड़कर झंझोड़ता हुआ बंतासिंह जूनूनी हालत में चिल्लाया—"हम दोनों आंखें फोड़ देते—और तू एक ही आंख फूटत मुंह फाड़ बैठा?"
"म...मुझे माफ कर दो सरदार, उस जालिम ने मुझे...।"
"आक...थू।" गले में अटकी सारी खंखार बंतासिंह ने रंभू के चेहरे पर थूक दी। गिरेबान छोड़कर चबूतरे की तरफ बढ़ता बोला—"ये तो ठाकुरों के नाम पर कलंक लगावत है मंगवा! माफी भी मांगत है कमीना।"
"ये मुझे असली ठाकुर की औलाद ही नाहिं लगत सरदार।"
"तू ठीक कहत है मंगवा, यही बात लगत—जरूर इसकी मां रंडी थी और वह किसी नीच जात के साथ सोईत होगी।"
उफ!
रंभू सह न सका।
टांगें तेज हवा के बीच जमीन पर सरकंडों-सी कांप रही थीं। पुरजोर कोशिश के बावजूद वह खड़ा न रह सका—घुटनों के बल जमीन पर बैठकर दोनों हाथों से अपना चेहरा ढांपा और फूट-फूटकर रो पड़ा।
चबूतरे पर लुढ़कते हुए बंतासिंह ने पुकारा—जोगा!"
"हां सरदार।" शक्ल से ही जल्लाद नजर आने वाला डाकू दो कदम आगे आया।
"इस नीच की औलाद की बची-खुची आंख में सलाख घुसेड़ दो।"
"न...नहीं—नहीं सरदार, मुझे माफ कर दो।" हलक फाड़कर रंभू ने इस किस्म के जाने कितने शब्द कहे, मगर उन शब्दों का, उस गिड़गिड़ाहट का वहां भला किस पर क्या फर्क पड़ना था।
हुक्म जारी करने के बाद नली मुंह में घुसेड़कर बंतासिंह ने चिलम से लपटें उठानी शुरू कर दीं—उधर, भट्टी से सलाख निकालकर जोगा रंभू की तरफ बढ़ा।
दो डाकुओं ने उसके बाजू पकड़ लिए।
विजय, विकास और ब्लैक ब्वॉय शांत खड़े सबकुछ देख रहे थे—जाने क्यों विकास के दिल में एक बार रंभू की मदद करने का ख्याल आया, किंतु विजय की तरफ से हरी झंडी न पाकर चुप रह गया।
और फिर...।
उनके देखते-ही-देखते सलाख रंभू की आंख में घुसेड़ दी गई—कुछ देर हॉल में इस कदर उसकी चीखें गूंजती रहीं, जैसे धीरे-धीरे गर्दन रेतकर किसी बकरे को हलाल किया जा रहा हो।
फिर वह गिर पड़ा।
चीखें शांत।
"मर गया साला।" बड़बड़ाने के बाद बंतासिंह ने एक बार पुनः नली मुंह में घुसेड़ ली। चिलम से लपटें उठाने के बाद बोला— "बाहर, पीछे वाली पहाड़ की चोटी पर डाल दो इस कमीने को—परिंदे खाई जात।"
एक डाकू ने उसकी लाश कंधे पर उठा ली।
पंद्रह मिनट बाद।
विजय ने वहां के वातावरण को परिवर्तित करने की गरज से कहा— "मेरे प्रस्ताव के बारे में क्या सोचा ठाकुर बंतासिंह?"
हुक्का गुड़गुड़ाते बंता ने कुछ इस तरह देखा जैसे पहली बार इस हॉल में देखा हो। बोला— "हम तुम्हारी कदर करते हैं विजय बाबू, अपने निशाने से तुमने हमें लूट लिया, मगर तुम्हारा चेला तो तुमसे भी पांच बिलोंद आगे लगत—इसने ऊ काम करके दिखात जो हमारे जीवन में पहले कभी न हुआ।"
"क्या मतलब?"
"मंगवा।"
"जी सरदार !"
"जरा विजय बाबू को बता दो कि इन सलाखन की जरूरत हमें अपने जीवन में कितनी बार पड़त?"
"आपकी सरदारी में आज पहला ही मौका था सरदार।"
"सुना तुमने—सुना विजय बाबू—हमारा कोई साथिन मर सकत, मगर यहां का पता न बता सकत—ई हम सबको खत्म कर सकत था कि नाहिं—ई बात अलग है, लेकिन ई यहां तक पहुंचा—इसी से हम अपनी शिकस्त कबूल करत।"
"तो क्या मैं समझूं कि तुम समझौते को तैयार हो?"
"अभी नाहिं। खबर नाहिं कि तुम्हारे बाकी दोस्तन भी ऐसे ही हैं कि नाहिं?"
"हम सभी एक से बढ़कर एक हैं।" विजय ने कहा— "उदाहरण के लिए मेरा एक और दोस्त यहां मौजूद है। इसका नाम अजय है। इसे भी जिस तरह चाहो आजमा सकते हो—हम दोनों से किसी भी तरह कम नहीं है ये।"
"यही हम चाहत हैं।"
"ये तैयार हैं।"
अब, बंतासिहं ने अपनी आंखें ब्लैक ब्वॉय पर जमा दीं, बोला— "हमसे लड़ोगे?"
ब्लैक ब्वॉय की समझ में क्योंकि अभी ठीक से सारा माजरा नहीं आया था, अतः उसने पलटकर सवालिया नजरों से विजय की तरफ देखा। विजय ने जल्दी से कहा— "ठाकुर साहब और हमारे बीच एक समझौते की बात चल रही है। इनका कहना है कि समझौता बराबर की शक्तियों में होता है—हमारी और दिलजले की शक्ति ये देख चुके हैं—अब तुम्हारी शक्ति देखना चाहते हैं।"
"मुझसे लड़कर?"
"हां।"
बंतासिंह के शरीर को देखकर ब्लैक ब्वॉय का जी चाहा कि ठहाका लगाकर हंस पड़े। अपनी हंसी को रोककर उसने बंतासिंह की ओर देखते हुए गंभीर स्वर में कहा— "मैं तैयार हूं।"
और!
बंतासिंह ने एक ही झटके में ब्लैक ब्वॉय के जेहन में भरी उन सब गलतफहमियों को तितर-बितर कर दिया जो उसका शरीर देखकर पैदा हुई थीं—यह सच है कि वह न जान सका कि पलक झपकने से पहले जो बंतासिंह चबूतरे पर बोरी-सा लुढ़का पड़ा था, वह पलक झपकने के बाद उससे सिर्फ दो गज दूर कैसे आ खड़ा हुआ है?
ब्लैक ब्वॉय के ही नहीं, विकास के जिस्म में भी सनसनी दौड़ गई—दरअसल जिस्म को देखकर कोई भी उससे इतनी फुर्ती की आशा नहीं कर सकता था—उन दोनों की हालत पर विजय मन ही मन मुस्कुराकर रह गया।
ब्लैक ब्वॉय ने हड़बड़ाकर स्वयं को तैयार किया।
पैतरा बदला।
अपने दोनों हाथों ब्वॉय ने शरीर हड़बड़ाकर को उसने कराटे की शक्ल में फैलाया ही था कि बंतासिंह की हाथी जैसी भारी टांग गजब की फुर्ती के साथ चली—ब्लैक ब्वॉय ने लपककर दोनों हाथों से उसका भारी जूता पकड़ लिया और उसे मोड़कर बंता को गिराने की कोशिश की।
मगर!
ये क्या!
बंता के भारी जिस्म को वह टस-से-मस न कर सका। उल्टे अपनी टांग को उसने इतनी जोर से झटका कि ब्लैक ब्वॉय धनुष से छूटे तीर की तरह करीब दस गज दूर पीछे वाली दीवार से जा टकराया।
मुंह से चीख निकली।
गरज यह कि पांच मिनट के मल्लयुद्ध के बाद ही विजय को यह अहसास होने लगा कि ब्लैक ब्वॉय को बंता से भिड़ाकर उसने अपने जीवन की भयंकर भूल की है।
शक्ति में बंता—यदि हाथी था तो फुर्ती में चीता और इन दो खूबियों वाला मल्लयुद्ध का शहंशाह कहलाता है—जिस आसानी के साथ वह ब्लैक ब्वॉय को अपने हाथों से उठा-उठाकर फेंक रहा था, उसने विजय को यकीन हो गया कि वे तीनों मिलकर भी बंता का कुछ नहीं बिगाड़ सकते—उसने अभी-अभी ब्लैक ब्वॉय को अपने सिर से ऊपर उठाकर गेंद की तरह जमीन पर दे मारा—ब्लैक ब्वॉय वहीं पड़ा छटपटा रहा था कि विजय बोला— "बस बंता ठाकुर, इस मोर्च पर हम शिकस्त कबू...।"
"न...नहीं सर।" ब्लैक ब्वॉय उछलकर खड़ा होता हुआ खूनी स्वर में गुर्राया—"जंग मैं लड़ रहा हूं, शिकस्त कबूल करने का आपको कोई हक नहीं है।"
सनसनी दौड़ गयी वहां।
विकास की भुजाएं फड़क उठीं।
"ये हुई मरदानी वाली बात।" कहता हुआ बंता ब्लैक ब्वॉय की तरफ बढ़ा और अपने अपमान से त्रस्त ब्लैक ब्वॉय ने जेहन को इकट्ठा किया— 'मल्लयुद्ध' की उन सारी कलाओ को याद किया जो ट्रेनिंग के दौरान उसे मिली थीं।
अचानक वह बंता की विपरीत दिशा में दीवार की तरफ दौड़ा। इस क्षण बंता समझ न पाया कि अभी-अभी शिकस्त कबूल करने वाला मैदान छोड़कर भाग क्यों रहा है?
मगर!
वह भाग नहीं रहा था।
दीवार पर ब्लैक ब्वॉय ने अपने जूतों के दोनों तले एकसाथ जोर से मारे और परिणामस्वरूप रबर की ठोस गेंद के समान हवा में वापस लहराया—उसके सिर की टक्कर बहुत जोर से हक्के-बक्के बंता के चेहरे पर पड़ी।
बंता के हलक से पहली बार चीख निकली।
जबकि ब्लैक ब्वॉय ने उसके संभलने से पूर्व अपने दांए बूट की ठोकर बंता की दोनों टांगों की बीच मारी—उस नाजुक स्थान पर चोट लगते ही बंता के दोनों हाथ वहां पहुंच गए, जबकि ब्लैक ब्वॉय ने उसकी छाती पर फ्लाइंग किक जड़ी।
गरज यह कि एक बार हावी होने के बाद ब्लैक ब्वॉय ने उसे संभलने का मौका नहीं दिया, हालांकि इस बीच बंता ने उसके जबड़े पर ऐसा घूसा जरूर जड़ा था जिसके परिणामस्वरूप ब्लैक ब्वॉय की आंखों के सामने रंग-बिरंगी चिंगारियां नाच उठीं, परंतु चूंकि यह बात ब्लैक ब्वॉय समझ चुका था कि यदि एक बार बंता को संभलने का मौका मिल गया तो फिर सारी डोरियां उसके हाथ से निकल जाएंगी। अतः एक और वार उसने तुरंत बंता के नाजुक स्थान पर किया—अब बंता के हलक से लगातार चीखें उबलने लगी थीं।
वह जमीन पर गिर पड़ा।
ब्लैक ब्वॉय लगातार उसके नाजुक स्थान पर बूट की नोक से चोट कर रहा था। चीखता हुए बंता का प्रयास यह था कि वह हाथ से उसका बूट पकड़ ले।
ब्लैक ब्वॉय जानता था कि यदि ऐसा हो गया तो बाजी उसके हाथों से निकल जाएगी, अतः लगातार उसके हाथों को धोखा देता रहा और एक समय ऐसा आया जब बंतासिंह चीख पड़ा—"बस-बस—मैं शिकस्त कबूल करता हूं।"
¶¶
बीस मिनट बाद!
बंतासिंह ने पुकारा—"मंगवा।"
"हां सरदार।"
"अरे ! ये शहरी छोकरे तो कमाल के निकले। शेर के बच्चे। बंतासिंह के मुंह से शिकस्त शब्द निकलवाने वाला दुनिया का ये पहला आदमी है।"
"आप ठीक कहते हैं सरदार।"
"तो क्यों न इससे समझौता कर ही लिया जाए?"
"मेरी भी यही राय है सरदार।"
"तो समझौता पक्का विजय बाबू—हम तुम्हारे और गुमटी गांव वालों के साथिन हैं। हालांकि मल्लाह हमारे शत्रु होते हैं और गुमटी मल्लाहों का ही गांव है, लेकिन यदि हमारे खातमे के खातिर फूलन सुच्चाराम के हत्यारे से हाथन मिलाय लियो तो हम मल्लाहों से हाथन क्यों नाहिं मिलाय सकत?"
"यही बात तो हम तुम्हें समझाना चाहते थे ठाकुर।"
"हम समझ गए हैं।" बंतासिंह ने कहा— "अब इतना और समझा दो कि ई मदद किस तरह करनी है—हम यहां हैं, गुमटी गांव वहां—जब उई गुमटी पर धावा बोलत तो...।"
"वह सब मैं सोच चुका हूं।"
"का?"
जवाब में विजय ने कुछ कहा। उसे सुनकर बंतासिंह और उसके साथी ही नहीं, बल्कि विकास और ब्लैक ब्वॉय भी चकित रह गए। पूरी बात सुनने के बाद बंता बोला— "तुम्हारा तो दिमाग भी उतना ही तेज चलत है, विजय बाबू जितनी रिवॉल्वर की लिबलिबी पर उंगली, लेकिन...।"
"लेकिन?"
"क्या गुमटी वालन उसके लिए तैयार हो जाईं?"
"उनकी फिक्र तुम मत करो बंता ठाकुर!" विजय ने कहा— "उन्हें तैयार करना मेरा काम है और उसी काम को निपटाने अब हमें गुमटी जाने की इजाजत दो।"
¶¶
गांव में कदम रखते ही हरिया और उसके साथियों को अऩ्य ढेर सारे युवकों ने घेर लिया। एक युवक बोला— "वही हुआ लगता है जिसका डर था।"
"क्या?" हरिया ने पूछा।
"तेरे साथ जो शहरी लौंडे थे, वे नजर नहीं आ रहे हैं और जिन्हें तू यहां छोड़ गया था वे भी गायब हैं—लगता है कि हमें धोखा देकर वे सब भाग निकलने में कामयाब हो गए।"
"न...नहीं—ऐसा मत कहो।" हरिया ने कड़ा विरोध किया— "मैं जान गया हूं कि वे लोग ऐसे नहीं हैं—वे कमाल के हिम्मती और हुनर वाले हैं।"
"तो कहां गए वो दोनों?"
संक्षेप में सारी घटना सुनाने के बाद हरिया ने कहा— "अड्डे का पता कबुलवाने के बाद अजय और विकास डाकू को लेकर बंतासिंह के अड्डे पर विजय नाम के अपने साथी को छुड़ाने गए हैं—हम सबने मदद के लिए उनके साथ चलने की बहुत जिद की.......मगर वे तैयार न हुए।"
"तैयार कैसे होते बेवकूफ, तुम लोग साथ जाते तो उऩ्हें भागने का मौका कहां से मिलता—वे लोग इस इलाके से हमेशा के लिए चले गए हैं।"
"नहीं, मैं ऐसा नहीं समझता।" हरिया अड़ गया—"वे लोग अपने साथी को छुड़ाने बंतासिंह के अड्डे पर ही गए हैं—और वापस यहीं आएंगे।"
"लो सुनो, भगवान ही जाने कि ये इतना मूर्ख कब से बन गया।" एक युवक ने बाकी को संबोधित किया— "क्या वे दो लौंडे बंतासिंह के पूरे गिरोह के बीच से अपने साथी को छुड़ाकर लाने में कामयाब हो जाएंगे?"
"उनकी हिम्मत और हुनर देखकर लगता है कि जरूर होंगे। जब उन्होंने बिना हथियार के ही डाकू को मार ड़ाला और दूसरे को जिंदा गिरफ्तार कर लिया तो अब तो उनके पास दोनों डाकुओं की बंदूकें भी हैं।"
"अच्छा, चल मान लिया कि वे अपने साथी को छुड़ाने गए हैं, मगर बाकी तीन जो यहां रहे, वे भला क्यों गायब हैं? उऩ्हें कौन-से साथी को छुड़ाना है?"
"हम कहीं गायब नहीं हैं।" अचानक बाईं तरफ से आवाज आई।
सभी ने चौंककर उधर देखा।
"हम छिप हुए थे। सिर्फ खुद को तुम्हारे पागलपन से बचाए रखने के लिए।" अशरफ ने बताया।
हरिया और उसके साथ के चार युवकों के अलावा सब बगलें झांकने लगे, जबकि हरिया ने अकड़कर कहा— "देखा, मैं कहता था न कि ये लोग कहीं जाने वाले नहीं हैं।"
सब चुप।
अशरफ ने  कहा— "जुल्म सिर्फ वहां होते हैं जहां हम नहीं पहुंचते—जहां हम पहुंच जाते हैं वहां जुल्म नहीं होते। इत्तफाक से जब इस इलाके में आ ही गए हैं तो तुमसे वादा करते हैं कि तब तक इस इलाके से नहीं जाएंगे, जब तक अकेला गुमटी ही नहीं, बल्कि आसपास के सारे गांव डाकुओं के आतंक से मुक्त नहीं हो जाते।"
"इतनी डींगे मारने को रहने दो बाबू।" एक युवक कह उठा—"तुम लोग यहां शायद सिर्फ इसलिए हो क्योंकि खुद से संबंधित एक आदमी से तुम्हारी दुश्मनी  शुरू हो गई हैं—रही डाकुओं की बात, उनसे न हमें कभी कोई छुटकारा दिला सका है, न दिला सकेगा—यहां की धरती बच्चे नहीं, डाकू पैदा करती है—हम जैसे गांव वाले जन्म लेने के बाद पहली सांस ही आतंकित हवा में लेते हैं—बड़े-बड़े बहादुर, कर्त्तव्यनिष्ठ और ईमानदार कहलाने वाले पुलिस अफसर हमें आतंक से मुक्त कराने आए, मगर सब बेकार।"
"हम अक्सर वही काम करते हैं जिसे पुलिस नहीं कर पाती।"
युवक ने हंसकर कहा— "देख लेंगे तुम्हें भी।"
"खैर।" अशरफ ने कहा—इस बहस का जवाब तो वक्त ही देगा। ये बताओ हरिया कि क्या तुम हमें बंतासिंह के अड्डे पर ले चल सकते हो?"
"क्या मतलब बाबू?"
"बंतासिंह के सारे गिरोह के सामने सचमुच विकास और अजय कमजोर पड़ सकते हैं। उनकी मदद के लिए हम लोगों को भी वहां पहुंचना चाहिए।"
"डाकू ने मेरे सामने पता बताया जरूर था, मगर वह इतना घुमावदार था कि ठीक से हमसें से किसी के भी दिमाग में नहीं बैठा—इसलिए वे लोग उसे साथ ले गए।"
"ओह!" अशरफ के मुंह से निकला।
विक्रम और नाहर भी सोच में पड़ गए, परंतु किसी को ऐसी तरकीब न सूझी जिससे विकास और ब्लैक ब्वॉय की मदद की जा सके—इस तरफ से निराश होने के बाद नाहर ने कहा— "खैर !" जिनकी हम मदद नहीं कर सकते, उनके बारे में चिंतित होने से कोई लाभ नहीं है—अब हम लोगों को अपना-अपना मोर्चा संभाल लेना चाहिए, क्योंकि फूलो का गिरोह किसी भी वक्त गांव पर हमला कर सकता है।"
परंतु!
यह शंका निर्मूल साबित हुई।
गांव के युवकों के साथ पहरा देते सारी रात आँखों में गुजरी—सुबह का धुंधलका अभी वातावरण में फैला ही था कि विजय, विकास और ब्लैक ब्वॉय गांव में पहुंच गए—लगभग सभी ने उन्हें घेर लिया।
सारे गांव पर—यह देखकर धाक जम गई कि वे डाकू बंतासिंह के अड्डे से अपने एक साथी को जीवित निकाल लाए थे।
तरह-तरह के सवाल किए गए।
सबके जवाब में विजय ने ऊंची आवाज में एक ही बात कही—"मैं बंद कमरे में गांव के जिम्मेदार लोगों से एक बहुत ही जरूरी बात करनी चाहता हूं।"
"ऐसी क्या बात है?"
"बातें कमरे में होंगी।"
इस प्रकार!
गांव के करीब बीस जिम्मेदार लोग, जिनमें बुजुर्ग ही नहीं जवान भी थे, एक कमरे में विजय के साथ बंद हो गए—विकास आदि को भी विजय ने कमरे से बाहर रहने का निर्देश दिया था। उसने बात शुरू की—"सबसे पहले तो मैं ये उम्मीद करता हूं कि इस मामले में आप लोगों को हम पर विश्वास जम गया होगा कि निर्भयसिंह, फूलवती या बंतासिंह के डर से हम यह इलाका छोड़ने वाले नहीं हैं।"
"हां बेटा, यह यकीन तो तुमने दिला दिया है।" एक बुजुर्ग ने कहा।
"आप जितने भी बैठे हैं, मेरे ख्याल से सबने जब से होश संभाला है, तब से अब तक का सारा जीवन डाकुओं के आतंक से त्रस्त रहकर गुजारा है।"
"गुजारा है और आगे भी गुजारेंगे, यह तो हमारे जीवन की मजबूरी बन गई है।" सबने एक स्वर में कहा।
विजय ने कहा— "हमारी कोशिश है कि ये जीवन आपको आगे न गुजारना पड़े।"
"रहने दो बेटे—इतने ऊंचे बोल बोलने को रहने दे।" एक बुजुर्ग ने उसे तालीम देने के-से स्वर में कहा— "माना तुम बहादुर हो, बंतासिंह के अड्डे से भी बचकर निकल आए, मगर इस इलाके को डाकुओं के आतंक से मुक्त कराने की बात 'मझाक' समझी जाती है।''
"फिर भी, हम कोशिश कर सकते हैं न चचा।"
"क्या कोशिश कर सकते हो, हालांकि यह असंभव है, मगर थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि तुम निर्भयसिंह, फूलो और बंतासिंह को उनके गिरोहों के साथ खत्म कर दोगे, तब भी ये इलाका डाकुओं के आतंक से मुक्त नहीं होगा।"
"क्यों?"
"क्योंकि यहां  की औरतें बच्चे नहीं, डाकू पैदा करती हैं।"
"नहीं चचा, मैं आपकी इस बात का कड़ा विरोध करता हूं—कोई औरत बच्चे के अलावा कुछ पैदा नहीं करती। वह डाकू बने या जवान—बनाता समाज है, उसके आसपास के हालात, उसकी तालीम उसे कुछ बनाती है।"
"चलो ऐसा ही मान लो, मगर इस इलाके की तालीम और हालात...।"
"ये हालात बदलने होंगे चचा।"
"उन्हें तुम कैसे बदल दोगे?"
"जरा ये बताइये कि यहां का कोई भी युवक बंदूक हाथ में लिए बीहड़ों में क्यों कूद पड़ता है? क्यों बागी बन जाता है?"
"इंसाफ के लिए।"
"इंसाफ?"
"हां, डाकू बने चाहे जिस युवक की कहानी उठा लो—बंदूक उठाकर वह बीहड़ो में तब कूदा, जब उस पर या उसके परिवार पर कोई जुल्म हुआ और उस जुल्म के बदले जब उसे कहीं इंसाफ न मिला।"
"जुल्म कौन करता है?"
"इसके पीछे है सांप्रदायिकता, जातिवाद—एक जाति खुद को श्रेष्ठ जताने के लिए दूसरी जातियों पर जुल्म करती है—दूसरी जाति को गुलाम  बनाकर रखना चाहती है वह—बस, सारे विवाद खुद को अपनी ताकत के मद में चूर रखने वालों से पैदा होते हैं—कभी-कभी हम डाकुओं को जन्म देते हैं, इसके पीछे भी ताकत का नशा है।"
"इस सबको खत्म कर दिया जाएगा।"
एक बुजुर्ग ने व्यंग्य-सा किया— "कैसे?"
"जिस पर जुल्म हो, उसे बिना बंदूक उठाए इंसाफ दिलाकर।"
"यह कैसे होगा?"
"सबसे पहले आसपास के हर गांव में थाना खोला जाएगा, शहरी थानों जैसा नहीं, बल्कि कुछ ऐसा जैसा बार्डर पर मिलिट्री की चौकियां होती हैं। उन पर भरपूर हथियार ही नहीं, बल्कि इस्तेमाल करने वाले पर्याप्त से ज्यादा जवान भी होंगे—प्रदेश भर की पुलिस से चुन-चुनकर यहां सिर्फ ऐसे पुलिसमैन नियुक्त किए जाया करेंगे जो बहादुर, ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हों—पुलिस सहायता चौबीस घंटे उपलब्ध होगी—जालिम का सिर जुल्म करते वक्त ही कुचल दिया जाएगा—हरेक को इंसाफ मिलेगा, भले ही वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय का हो।"
"सब्जबाग तो बड़े खुशनुमा दिखा रहे हो बेटा, मगर जब इतनी ताकत पुलिस को सौंप दी जाती है तो पुलिस ही डाकू बन जाती है—पैसे वाले उसी को खरीदकर गरीब पर जुल्म कराने लगते हैं।"
"माना कि पुलिस में लालची और बिकाऊ लोग हैं चचा, मगर इसी तरह से ऐसे लोग भी हैं जो न बिकते हैं न किसी के दबाव में आते हैं—मैंने पहले ही कहा है कि प्रदेश-भर से ऐसे ही लोगों को छांट-छांटकर यहां भेजा जाएगा—दूसरे, किसी भी थाने पर नियुक्त अफसर से सवाल जवाब इस बात पर नहीं होंगे कि उसके इलाके में फलां डाकू का आतंक क्यों बना? जब ऊपर से अफसर पर सख्त कार्यवाही होगी, तब अफसर इस बात के लिए जान लड़ा देगा कि उसके इलाके का बच्चा भी बंदूक लेकर बीहड़ों में न कूद सके—थाने के अलावा इस सारे इलाके में देश के लिए समर्पित ऐसे जासूसों का जाल बिछाया जाएगा जो किसी भी पुलिसमैन, पैसे वाले या किसी से भी की गई छोटी-से-छोटी गड़बड़ की रिपोर्ट सीधे गृहमंत्री को देगा।"
"बिरादरीवाद का क्या होगा?"
"वह खत्म हो रहा है चचा, देश के महानगरों में ऐसा ही है—वहां हर जाति, संप्रदाय के लोग एक-दूसरे के अच्छे पड़ोसी हैं—अपवादों को छोड़कर, उनमें कभी झगड़े नहीं होते—अगर ऐसी मानसिकता यहां हो जाए जैसी वहां है तो जाने रोज क्या हो—वहां कोई कॉलोनी, कोई मोहल्ला ऐसा नहीं है जिसमें सिर्फ एक ही जाति या संप्रदाय के लोग रहते हों—यहां भी ऐसा ही किया जाएगा। गुमटी मल्लाहों का नहीं—'आरा' ठाकुरों का नहीं—हर गांव में हर संप्रदाय के लोग रहते होंगे—इस वक्त यहां की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि फलां गांव ब्रह्माणों का है, फलां कुर्मियों का, फलां जाटों का तो फलां बनियों का—यह अर्थव्यवस्था खत्म होगी। कोई गांव किसी एक जाति का नहीं कहलाया जाएगा—सभी जाति के लोग एक-दूसरे के पड़ोसी होंगे और तब सभी जाति के लोगों को एक-दूसरे को पढ़ने-समझने का मौका मिलेगा—मेरा दावा है कि दस-बीस साल बाद यहां उन सख्त और आदर्श थानों की जरूरत खत्म हो जाएगी।"
"ऐसा कौन करेगा बेटा?"
"हम करेंगे, इस देश की सरकार करेगी, मगर...।"
"मगर?"
"उससे पहले उन जालिमों के सिर कुचलने होंगे जो जुल्म का जीता-जागता प्रतिबिम्ब बन चुके हैं—जुल्म को खत्म करने के लिए मेरा सिद्धांत महात्मा गांधी वाला सिद्धांत नहीं है—मेरी राय है कि ताकत को सिर्फ ताकत से खत्म किया जा सकता है।"
"हम समझे नहीं?"
"बापू कहते थे कि जालिम को नहीं, जुल्म को खत्म करो—मुजरिम को नहीं, जुर्म को मारो—मुमकिन है कि उनकी सोच ठीक हो, मगर उनके जैसा धैर्य, अहिंसा और शांति की ताकत हमारे पास नहीं है—हम उनसे बहुत कमजोर है, शायद इसलिए ऐसा सोचते हैं कि जालिम मुजरिम कुत्ते की पूंछ होते हैं—वे कभी सीधे नहीं हो सकते, इसलिए जुर्म और जुल्म तब तक खत्म नहीं हो  सकते, जब तक जालिम और मुजरिम हैं। मेरा इशारा निर्भयसिंह, फूलो और बंतासिंह की तरफ है।"
"मगर उन्हें खत्म करने के लिए हमारे पास उन जितनी ताकत कहां है?"
"सबसे बड़ी ताकत दिमाग है।"
"क्या मतलब?"
"इस इलाके में दो ताकतें हैं, दोनों ही हमारी दुश्मन—ध्यान देने वाली बात है कि वे दोनों भी वापस में एक-दूसरे के दुश्मन हैं।"
"बंता और फूलो की बात कर रहे हो न?"
"हां।"
"अच्छा, फिर?"
"हमारे पास दोनों से टकराने की ताकत नहीं है, मगर दिमाग जरूर है और ऐसे हालात में दिमाग—ये कहता है कि क्यों न दोनों को आपस में टकरा दिया जाए—ऐसा करने से न तो हमें अपनी ताकत इस्तेमाल करने की जरूरत पड़ेगी और न ही किसी खतरे की आशंका—यूं समझो कि हमारे दोनों हाथों में गुड़ की अक-एक भेली है। अलग-अलग रखकर हम उन्हें तोड़ नहीं सकते, क्योंकि हाथ घेरे हैं—अतः दोनों को तोड़ने का सबसे आसान रास्ता ये है कि दोनों को एक-दूसरे से टकरा दें।"
"बात तो समझ में आने वाली है—मगर ऐसा होगा क्यों?"
"क्यों नहीं होगा?"
"क्यों वे आपस में टकरा सकेंगे?"
"टकराने के लिए चौबीस घंटे तैयार बैठे रहते हैं। आप लोग जानते ही हैं कि वे एक-दूसरे के जानी दुश्मन हैं—सवाल सिर्फ दिमाग से उनकी आपसी दुश्मनी का लाभ उठाने का है यानि यह सोचने का कि वे आपस में कैसे टकराएं?"
"हमें आपकी यह तरकीब पसंद आई विजय बाबू।" एक उत्साही युवक ने कहा— "इन दोनों को टकराने की कोई तरकीब भी आप ही सोचिए।"
"जो लोग सहमत हैं, वे हाथ उठा लें।"
लगभग सभी के हाथ उठे।
कुछ क्षण विजय चुप रहा। हर आंख सिर्फ उसी पर स्थिर थी—विजय खुद को अपने उद्देश्य के बहुत नजदीक पा रहा था, बोला— "दोनों दस्यु दलों को आपस में टकराने की तरकीब मैं सोच चुका हूं।"
"स...सोच चुके?" अनेक के मुंह से निकला।
"सिर्फ सोच ही नहीं चुका, बल्कि उस पर अमल भी कर चुका हूं।"
"क...क्या?" लोग हैरत से उछल पड़े।
"जरूरत सिर्फ आप लोगों के सहमत होने की है।" विजय ने कहा— "गिरोहों के बीच ऐसा टकराव होगा कि दोनों की शक्ति धराशायी हो जाएगी—जो थीड़ी-बहुत बचेगी, उस पर काबू पाने में हम लोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी।"
"यह सब कहां होगा?"
"यहां, गुमटी की धरती पर।"
"य...यहां?"
"हां।"
"कैसे?"
विजय ने अपनी योजना का सबसे नाजुक पॉइंट कहा— "कुछ दिनों के लिए, या यूं कहो कि टकराव होने तक के लिए बंतासिंह और उसका गिरोह गांव में रहेगा।"
"ग...गांव में ?" बहुत-से लोग चिहुंक उठे।
"हां।" विजय ने बहुत ही सावधानीपूर्वक एक-एक शब्द चुनकर कहा— "उन दिनों लोगों को उन्हें अपना दोस्त ही नहीं, बल्कि रक्षक और हमदर्द दर्शाना पड़ेगा। उन्हें इल्म नहीं होना चाहिए कि आप लोग उनसे फूलो गिरोह से भी कहीं ज्यादा नफरत करते हैं।"
"ऐसा नहीं हो सकता।" एक बुजुर्ग ने खड़े होकर वही कहा जिसका विजय को डर था—"ठाकुरों के डाकू दल पर और हम विश्वास कर लें— हरगिज नहीं। अगर वह गांव में रहने लगा तो यहां की हर बहू-बेटी की इज्जत खतरे में पड़ जाएगी।"
"ऐसा नहीं होगा।"
"अजी होगा कैसे नहीं? तुमसे ज्यादा हम बंतासिंह और उसके गिरोह को जानते हैं।"
"जरूर जानते होंगे चचा, मगर...।"
"क्या अगर-मगर?"
"यहां रहकर वे हम पर अहसान नहीं करेंगे, बल्कि हम ही उन पर अहसान कर रहे हैं।"
"कैसा अहसान?"
"मैंने बंतासिंह के दिमाग में यह बात जमा दी है कि अगर हमने उसे गुमटी में पनाह देकर फूलो गिरोह के सफाए का मौका न दिया तो भविष्य में फूलो और निर्भयसिंह उसका सफाया कर देंगे।"
"इसके बावजूद यदि गांव की बहन-बेटियों पर गंदी नजर डाली तो उन्हें कौन रोकेगा?"
"हम।"
"तुम?"
"हां, हम।" विजय ने दृढ़तापूर्वक कहा— "आप लोगों को मेरी और मेरे दोस्तों की ताकत पर शक हो सकता है, मगर बंता और उसके साथियों को नहीं—वे अच्छी तरह जानते हैं कि अगर हम अपनी पर आए तो उन्हें रोक सकते हैं।"
"वे कैसे जानते हैं?"
जवाब में विजय ने बंतासिंह के अड्डे पर हुई समस्त घटना सुनाने के बाद कहा— "इस सारे वृत्तांत को सुनने के बाद आप लोगों को अच्छी तरह समझ जाना चाहिए कि बंतासिंह से हुआ समझौता किसी दबाव में या गिरकर नहीं हुआ है—मैंने उस पर साबित किया कि जितनी जरूरत हमें या गांव वालों को उसकी है, उतनी ही उसे भी हमारी है—ऐसे हालात में नहीं लगता है कि वह कोई गलत हरकत करेगा। फिर, भी यदि की तो हम उसे रोकने में सक्षम हैं और फिर, इस सब बातों से अलग एक बात यह भी है कि दो इतने बड़े खतरों को आपस में टकराकर खत्म कर देने के लिए यदि थोड़ा खतरा उठाना पड़ रहा है तो इसमें बुराई क्या है?"
एक युवक बोला—"विजय बाबू की बात ठीक है।"
"सोलह आने ठीक है जी।"
एक अन्य ने कहा— "दोनों गिरोह को खत्म करने के लिए यह खतरा कुछ भी नहीं है और फिर अपने स्वार्थवश यदि फूलो उससे समझौता कर सकती है जो उसका हत्यारा है जिसे वह अपना आदर्श कहती है तो हम बंता गिरोह से हाथ क्यों नहीं मिला सकते?"
"बात बिल्कुल ठीक है। लोहा लोहे को ही काटता है।"
इस बार वैद्य खड़ा हो गया—"वैसे गुमटी गांव में किस बहू-बेटी की आबरू कब खतरे में नहीं रहती—चौबीस घंटे डर बना रहता है।"
धीरे-धीरे सभी सहमत हो गए।
तब एक युवक ने पूछा— "यहां दोनों गिरोहों का टकराव किस तरह होगा?"
"इतना तो आप जानते ही हैं कि शीघ्र ही गुमटी पर निर्भयसिंह फूलो गिरोह के साथ हम लोगों की वजह से पहले जैसा हमला करने वाला है?"
"बेशक!"
"गांव के वृक्षों, छतों और छुपने के दूसरे स्थानों पर जैसा मोर्चा गांव के युवकों ने लगाया है, उसने मुझे प्रभावित किया है—कमी है तो सिर्फ डाकुओं का मुकाबला करने लायक हथियारों और उन्हें इस्तेमाल करने वाले अभ्यस्त हाथों की—वे हमने हासिल कर लिए हैं। जहां इस वक्त गांव के युवक मोर्चा लगाए हुए हैं, वहीं बंता के डाकू भी मोर्चा लगाएंगे—फूलो गिरोह के गांव में दाखिल होते ही चारों ओर से उन पर गोलियों की बारीश होगी—इस पहले ही झटके में उस गिरोह को काफी नुकसान होगा—उनके अलावा हम और गांव के युवक भी अपने ढंग से मोर्चे पर रहेंगे।"
"मामला जम जाएगा।" एक युवक ने कहा।
"इस जंग में सारा गांव पूरी तरह बंतासिंह का साथ देगा क्योंकि यदि ऐन मौके पर हमने बंता वाले डाकुओं को ही नुकसान पहुंचाने की कोशिश की तो मामला बिगड़ सकता है।"
"हमें इतना मूर्ख भी मत समझो विजय बाबू।"
"कहने का मतलब ये कि किसी एक गिरोह के समूल नाश तक हमें बंता के साथी की तरह काम करना है, वह चाहे एक मुठभेड़ में हो चाहे बीस में—जब तक एक का समूल नाश होगा, तब तक दूसरे की ताकत भी इतनी क्षीण पड़ चुकी होगी कि हम उस पर आसानी से काबू पा सकें।"
"हम सहमत हैं।" लगभग सभी ने हाथ उठा दिए।
¶¶
अगली रात!
विजय ने एक पत्र लिखकर विकास के हाथ अशरफ, विक्रम और नाहर को बंतासिंह के अड्डे पर भेजा। पत्र का मजमून कुछ यूं था—
'आदरणीय ठाकुर साहब,
मैंने गांव वालों से बातें कर ली हैं और वे सभी आपसे समझौता करने के लिए तैयार हैं, अतः अब आपको देर नहीं करनी चाहिए, क्योंकि फूलो और निर्भय का हमला कभी भी हो सकता है—यह सुनहरा मौका यदि एक बार निकल गया तो शायद फिर हाथ न लगे—मगर सावधानी जरूरी है।
तुम लोगों को अपने घोड़े वहीं छोड़कर आना चाहिए क्योंकि यदि इस तरह आओगे तो उन्हें हमारे मोर्चे की भनक लग सकती है—घोड़ो की देखभाल के लिए अपने कुछ साथियों को वहां छोड़ सकते हो—मैं तो ये कहूंगा कि पैदल भी सब लोग एकसाथ न आएं, बल्कि छोटे—छोटे जत्थों में बंटकर चुपचाप आएं ताकि कोई शोर-शराबा न मचे—जितना शोर मचेगा उतनी ही इस बात की संभावना बढ़ेगी कि उन्हें भनक लगे और यदि उन्हें इल्म हो गया तो संभव है वे गुमटी में घुसेंगे ही नहीं या घुसेंगे तो हमारे जाल को तोड़ने का इंतजाम करके—दोनों ही सूरतों में हमारी सारी कोशिश व्यर्थ हो जाएगी—अतः जत्थों में बंटकर आज सुबह तक सब यहां पहुंच जाएं और अपना-अपना मोर्चा संभाल लें।
सबकुछ उक्त पत्र के अनुसार हुआ।
सूरज निकलने से पहले स्वयं बंता और उसके साथी वृक्षों पर अपना-अपना मोर्चा जमा चुके थे—वैसा कुछ नहीं हुआ जैसा गांव के कुछ बुजुर्गो की शंका थी—फिर भी, सबने अपने घर की स्त्रियों को बाहर निकलने की सख्त मनाही कर दी थी।
¶¶
एक...दो...तीन...चार!
पूरे चार दिन गुजर गए, मगर कोई ऐसी उल्लेखनीय घटना न हुई जिसका विस्तारपूर्वक उल्लेख किया जाए—हां, ट्रांसमीटर पर विजय ने परवेज से बात जरूर कर ली थी और यह जानकर उसे संतोष हुआ कि वे लोग सुरक्षित राजनगर पहुंच गए हैं और मुकम्मल तौर पर निगरानी हो रही है।
बड़ी उबाऊ दिनचर्या चल रही थी।
बंतासिंह ने अपने साथियों को ही नहीं, बल्कि गांव के उत्साही युवकों और विजय ग्रुप तक को दो भागों में बांट दिया था—एक ग्रुप दिन में सोकर रात को मोर्चा संभालता और दूसरा रात को सोकर दिन में।
डाकुओं के लिए गांव में संयुक्त रूप से खाना बनता था अब, चूंकि चार दिन गुजर चुके थे—निर्भयसिंह से अभी तक हमला न किए जाने के कारण ग्रामीण और डाकुओं में ही नहीं, विजय ग्रुप में भी बेचैनी होने लगी थी—तरह-तरह की शंकाएं दिमाग में घर कर रही थीं—इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था कि जिस निर्भयसिंह के सिर पर विजय आदि को मार डालने का भूत सवार था, अब वह हमला क्यों नहीं कर रहा है?
एक वृक्ष पर बने मचान पर विजय और बंतासिंह के बीच चर्चा का यह विषय था—छिटकी हुई धूप पर एक दृष्टि डालता हुआ बंतासिंह कह रहा था—"अब तो इंतजार की हद होती जाती है विजय बाबू!"
"टूटो मत ठाकुर प्यारे!" इन चार दिनों में विजय ने उसे इस तरह पुकारना शुरू कर दिया था—"शिकार को जाल में फंसाने का काम बड़े धैर्य का होता है—तुमने मछली पकड़ने वाले देखे होंगे, कांटा डाले कितने धैर्यपूर्वक बैठे रहते हैं—बस, हमें भी उन्हीं की तरह बैठे रहना है। फल मीठा ही मिलेगा।"
"जब भी हम—यह कहत तब तुम यही जवाब देवत हो विजय बाबू!"
"अगर मैं तुमसे पूछूं ठाकुर प्यारे कि दो और दो कितने होते हैं तो तुम क्या जवाब दोंगे?"
"चार।"
"यदि दुबारा पूछूं?"
"चार।"
"यदि कुछ देर बाद तीसरी बार पूछूं?"
"चार।"
"और अगर चौथी बार पूछूं?"
"अरे! भाई, चार-एक बार पूछत चाहि हजार बार, जब दो और दो चार होवत हैं तो हम तीन कि पांच कैसे कहवत?"
"इसी तरह तुम्हारे एक सवाल का जवाब एक ही है। एक बार पूछो चाहे हजार बार, जवाब तो वही मिलेगा न जो है?"
बंतासिंह ही-ही करके हंस पड़ा—तोंद आंदोलित-सी हुई। विजय की इस बात में उसे काफी मजा आया था। बोला— "बस, तुम्हारी इन्हीं बातों पर हम कुरबान हो गए हैं विजय बाबू, मगर हम ई कहवत है कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नाहिं?"
"गड़बड़ कैसी?"
"कहिं ई बात तो नाहिं कि उन लोगन कू ई बात की भनके लग गई हो कि हम लोग उनकी ताक में यहां बैठत हैं?"
विजय अभी  इस बात का जवाब नहीं दे पाया था कि दाहिनी दिशा के एक दूर वाले पेड़ से आवाज आई—"प...पुलिस...गांव में पुलिस आ रही है ठाकुर।"
"प...पुलिस!" बंतासिंह भी बौखला गया—"ई का चक्कर है विजय बाबू, कहीं उन लोगन ने ही तो हमारी खातिर पुलिस नाहिं भेजी है?"
छक्के विजय के भी छूट गए थे।
पुलिस का ऐलान होते ही गांव में हड़कंप-सा मच गया, खासतौर से डाकुओं में—अपनी मौत उऩ्हें साक्षात् नजर आने लगी थी क्योंकि भागने के लिए घोड़े भी तो यहां नहीं थे—विजय ने देखा, पुलिस ऊपर—घुमावदार पहाड़ी सड़क पर नजर आ रही थी—फोर्स काफी थी, घोड़ों पर सवार।
हालांकि अभी वे काफी ऊपर थे।
कम-से-कम दो बार उन्हें घूमकर पहाड़ के पीछे पहुंचना था, यानि गांव में पहुंचने में उन्हें कम-से-कम पंद्रह मिनट लगने थे, परंतु-
विजय साफ देख रहा था।
फोर्स जरूरत से ज्यादा थी—देखने एकमात्र से ही जाहिर था कि वे मुठभेड़ के लिए निकले हैं और यही बात विजय की हवा उड़ाए हुए थी।
बंतासिंह की संभावना उसे सही लग रही थी। निश्चय ही निर्भयसिंह और फूलो को बंता गिरोह के यहां होने की भनक लगी होगी—इसीलिए चार दिन से कोई हमला नहीं हुआ और अब, किसी डाकू को उन्होंने ग्रामीण बनाकर बंता गिरोह के गुमटी में होने की सूचना थाने में पहुंचा दी होगी।
ये फौज उसी के परिणामस्वरूप आ रही है।
यह सब सोचकर अच्छी-खासी सर्दी के बावजूद विजय के पसीने छूट गए—जिस बात पर उसने एक पल के लिए भी गौर नहीं किया था, वही बात हो रही थी और उसका पूरा प्लान चौपट हुआ जा रहा था।
वर्तमान हालात में पुलिस के आगमन की सूचना इतनी हतप्रभ कर देने वाली थी कि विजय जैसे व्यक्ति का दिमाग इस हद तक जाम हो गया है कि बंतासिंह के कई बार पूछने पर भी उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दिया।
डाकू चारों ओर से बंतासिंह से पूछ रहे थे कि क्या करना है?
बंतासिंह ने विजय को बुरी तरह झंझोड़ दिया।
विजय ने चौंककर पुलिस दल के अंतिम सिरे को पहाड़ के पीछे गुम होते देखकर कहा— "ये तो मुझे भी नहीं मालूम ठाकुर प्यारे कि क्या चक्कर है?"
“जरूर ये हरकत फूलन की होई।"
"तो अब तुम्हीं बोलो कि क्या करें?" व्यग्रता की ज्यादती के कारण बंतासिंह लगभग चीख पड़ा—"चारों ओर से मेरे साथिन हुक्म मांग रहे हैं।"
"तुम उन्हें हुक्म दो कि सब चुप रहें, खुद को पत्तों में छुपा लें—कोई ऐसी हरकत न करें जिससे पुलिस का ध्यान उन पर जाए।"
"मगर इससे होगा क्या? सब लोग घिर जाएंगे।"
"मुमकिन है पुलिस को कोई खबर न हो, वे यूं ही आ रहे हों।"
"ऐसा कैसे हो सकता है?"
"हो सकता है।"
"मगर...।"
"मेहरबानी करके ये हुक्म जारी करो कि सब खुद को छुपा लें और कम-से-कम उस वक्त तक कोई हरकत न करें जब तक पुलिस की तरफ से किसी डाकू पर हमला न किया जाए—इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। भाग निकलने का न रास्ता है, न वक्त, न जरिया—एकमात्र यही तरीका है। भगवान के लिए जल्दी ये हुक्म जारी करो ठाकुर प्यारे...अभी वे दूर हैं। तुम्हारी आवाज उन तक नहीं पहुंचेगी।"
और।
बंतासिंह हलक फाड़कर चिल्लाया—"अगर पोलिस हमारे किसी भी साथिन पर हमला करे तो बाकि लोगन पोलिस को भूनकर रख दें, मगर खबरदार, जब तक पोलिस की तरफ से हमला न हो, तब तक सबको अपने-आपको पत्तों में छुपाए रखना है—किसी को ऐसी हरकत नाहिं करनी है कि पोलिस का ध्यान जाए।"
डाकू एकदम शांत हो गए।
विजय चीखा—"कोई भी गांव वाला पुलिस से यहां अपने साथी डाकुओं की मौजूदगी के बारे में कुछ नहीं कहेगा।"
यह ऐलान विजय ने कई बार किया।
फिर बंतासिंह से बोला— "मैं नीचे जाकर पुलिस से निपटता हूं।"
"ठीक है।"
जिस वक्त विजय ने फुर्ती के साथ पेड़ से उतरना शुरू किया, उस वक्त घोड़ों पर सवार पुलिस दल पहाड़ का एक राउंड लेने के बाद पुनः सामने आ गया था।
अब वे काफी नजदीक या नीचे आ चुके थे।
इस बार पहाड़ के पीछे गुम होने के बाद वे सीधे गुमटी में ही दाखिल होने वाले थे और विजय की इच्छा थी कि पुलिस दल को गांव के किनारे पर ही रोककर बात करे—अतः नीचे उतरने के बाद वह उस तरफ दौड़ा।
दौड़ता हुआ ही बोला— "कुछ ग्रामीण मेरे साथ आ जाएं।"
विकास और नाहर भी उसके साथ हो लिए थे।
काफी कोशिश के बावजूद वे पुलिस दल को गांव में दाखिल होने से न रोक सके—उस पेड़ पर भी डाकू थे जिसके नीचे विजय के साथ हुजूम देखकर पुलिस दल रुक गया।
दल में करीब पचास जवान थे।
स्वचालित राइफलों और हैंडग्रेनेड सहित।
उनका नेतृत्व करते व्यक्ति की वर्दी पर नजर पड़ते ही विजय जान गया कि वह एस.पी. रैंक का अफसर है, बराबर वाले घोड़े पर श्रीवास्तव सवार था।
"हैलो।" विजय ने नियंत्रित भाव से कहा।
"हैलो मिस्टर...।"
"सर!" उससे पहले इंस्पेक्टर श्रीवास्तव बोल पड़ा—"इनका नाम ठाकुर विजय सिंह हैं—निर्भयसिंह के पुत्र, और वह विकास हैं, और उनका नाम नाहर है, मिस्टर विजय के दोस्त।"
"हैलो!" सभी का अभिवादन-सा करता एस.पी. घोड़े से उतरता हुआ बोला— "मुझे बजाज कहते हैं, आरoएनo बजाज।"
"ओह!" बौखलाए हुए विजय ने सकपकाकर हाथ बढ़ा दिया।
हाथ मिलाते हुए बजाज ने कहा— "आप लोग ठीक हैं न?"
"बिल्कुल ठीक।" जवाब विकास ने दिया क्योंकि उस वक्त विकास का हाथ उसके हाथ में था—फिरकनी की तरह घूमते विजय के दिमाग में यह बात जम गई कि पुलिस दल को गांव में डाकुओं की मौजूदगी के बारे में कुछ पता नहीं है।
नाहर से हाथ मिलाने के बाद वह बोला— "मुझे तो आप लोगों की चिंता हो रही थी।"
"हम लोगों की?"
"हां, पता लगा था कि गुमटी में आप लोग बेहद खतरे में हैं। सुपर रघुनाथ ने यह शिकायत सीधी गृह मंत्रालय को की और मुझे सीधा गृहमंत्री का फोन मिला कि फौरन डिक्की पहुंचूं—फोर्स भी पहुंच जाएगी और गुमटी में आपके हाल जानूं।"
"ओह!" विजय ने मन-ही-मन रघुनाथ को एक भद्दी गाली दी।
"आप लोगों के तीन और साथी कहां हैं?"
"सो रहे हैं।"
"गुड! आप लोगों को महफूज देखकर मेरी आधी चिंता दूर हो गई है—यदि आपको कुछ हो जाता तो न जाने गृह मंत्रालय मेरे विरुद्ध क्या एक्शन लेता।"
सब चुप रहे।
"ठाकुर निर्भयसिंह ने गांव पर दुबारा तो हमला नहीं किया?"
"नहीं ।"
विजय ने अभी जवाब देना शुरू किया ही था कि इंस्पेक्टर श्रीवास्तव के मुंह से निकला—"अरे ! ये ऊपर पेड़ पर मचान जैसी क्या चीज है?"
सबकी नजरें एक साथ ऊपर उठ गईं।
विजय ने तेजी से कहा— "व...वो कुछ नहीं, हमने गांव वालों के साथ मिलकर डाकुओं का मुकाबला करने की तैयारी की थी—इन मचानों पर रात के वक्त गांव के उत्साही युवक पहरा देते हैं।"
"अच्छा!" बजाज ने कहा— "गुमटी में इतनी चेतना आ गई है।"
"देख लीजिए।" विजय ने मुस्कराने का सफल प्रयत्न किया।
"तो गांव के हर पेड़ पर ऐसा मचान बना है?"
"हां, बड़ी मेहनत की है युवकों ने।" विजय उसे भटकाने की गरज से बोलता चला गया—"रात—रातभर पहरा देतें हैं, परंतु उन्होंने दूसरा हमला नहीं किया। गांव वालों ने भी इस बार पक्का निश्चय कर रखा है कि निर्भयसिंह से गिन-गिनकर बदले लेकर रहेंगे।"
विजय उसे व्यर्थ की बातों में उलझाना चाहता था, अतः बोला— "आप जानते हैं कि वे मेरे पिता हैं?"
"ऑफकोस!" बजाज ने कहा— "मैं ठाकुर साहब को अच्छी तरह जानता हूं। मेरे अफसर रहे है वे। बीस साल पहले एस.पी. थे और मैं इंस्पेक्टर। जब उन्होंने इस इलाके से सुच्चाराम सहित डाकुओं का सफाया किया, तब मैं भी उनके साथ था।"
"अरे! आप वही इंस्पेक्टर बजाज हैं?" विजय सचमुच चौंक पड़ा—"ओह! याद आया—सुच्चाराम के अंत की कहानी सुनाते वक्त उन्होंने आपका जिक्र किया था—आप ही को उन्होंने सुच्चाराम के मकान में फिट करने के लिए टाइमबम दिया था। वही जो टाइम से दस मिनट पहले फट गया?"
"हां, अपने समूचे पुलिस जीवन में मुझसे वही एक भूल हुई थी।" कहते वक्त बजाज के चेहरे पर विषाद के अजीब लक्षण उभर आए—"टाइमबम में गलत टाइम सैट करने की भूल जाने कैसे हो गई थी? अगर वह न होती तो आज एस.पी. नहीं, कम-से-कम  एस.एस.पी. होता। खैर!"
"गलतियां भी इंसान से ही होती हैं बजाज साहब।"
"अभी-अभी आपने कहा था कि गांव वाले ठाकुर साहब से बदला लेना चाहते हैं—इंस्पेक्टर श्रीवास्तव ने बताया कि गांव वालों के मुताबिक ठाकुर साहब ने सुच्चाराम के अंत के बाद गुमटी में हर रात नरसंहार किया—मदद करने वाले वीर बहादुर के परिवार सहित बहुत-से परिवारों को जिंदा आग में झोंक दिया।"
"अब तो यह सब खुद बापूजान ने भी स्वीकार कर लिया है।"
"हां, श्रीवास्तव ने यह भी बताया था—मगर मैं हैरान हूं, यह सब आखिर कैसे हो सकता है—नामुमकिन, असंभव...ऐसा कुछ नहीं हो सकता!"
"आप कहते रहें, वे खुद स्वीकार कर रहे हैं।"
"क्या मतलब?" विजय चौंका।
"श्रीवास्तव ने मुझे बताया कि ठाकुर साहब ने बीस साल पहले गुमटी में अपने से किए गए नरसंहार की वजह भी बताई—हैरत की बात है कि वह 'वजह' सिरे से झूठ और मनगढ़ंत है। जाने ठाकुर साहब झूठ क्यों बोल रहे थे।"
खोपड़ी नाच गई विजय की। बोला— "आप कहना क्या चाहते हैं?"
"सुच्चाराम के गिरोह में रामकुमार नाम का डाकू था जरूर और निश्चय ही उसके डाकू बनने के पीछे कहानी भी वही थी जो बकौल श्रीवास्तव के ठाकुर साहब ने सुनाई—यानि आरती नामक उसकी पत्नी और सुलभा बेटी को गुमटी की चौपाल पर बहादुर और दूसरे लोगों ने इतना बेइज्जत किया कि वे वहीं मर गई, परंतु इस कहानी को अपने से जोड़ने वाले ठाकुर साहब की कहानी पूरे तौर पर झूठ है।"
"हम अब भी नहीं समझे?"
"ठाकुर साहब कहते हैं कि आरती उनकी पत्नी कम प्रेमिका थी। सुलभा रामकुमार की नहीं बल्कि उनकी बेटी थी—ये सारी कहानी मनगढ़ंत है—मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि न तो ठाकुर साहब का रामकुमार से कोई पूर्व संबंध था और न ही आरती या सुलभा से—उन दोनों को शक्ल से शायद वे पहचान भी नहीं सकते।"
"यह बात दावे के साथ आप कैसे कह सकते हैं? बापूजान ने खुद कहा कि रामकुमार से उनकी बात जिस टॉर्चर-रूम में हुई, वहां उनके और रामकुमार के अलावा तीसरा व्यक्ति नहीं था।"
"टॉर्चर-रूम में तो रामकुमार से उनकी बातें तभी होतीं न जब रामकुमार पुलिस के हाथ जीवित लगा होता।"
"यानि?"
"रामकुमार पुलिस के हाथ लगने वाले जीवित डाकुओं में नहीं था, बल्कि उन मृत डाकुओं में था जो मकान पर हुई मुठभेड़ में सुच्चाराम के साथ ही पुलिस की गोली से मारे गए थे।"
"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सोलह आने सच बात यही है।"
"आपको अच्छी तरह याद है कि रामकुमार घटनास्थल पर ही मारा गया था, टॉर्चर-रूम में उसने बापूजान के रिवॉल्वर से आत्महत्या नहीं की?"
"जीवित पकड़े गए डाकुओं में से किसी ने भी टॉर्चर-रूम में आत्महत्या नहीं की।"
बजाज के उक्त जवाब पर विजय अवाक् रह गया, जबकि अतिदृढ़ता के साथ बजाज ने आगे कहा— "जब श्रीवास्तव ने मुझे यह बताया कि ठाकुर साहब ने चौपाल पर नरसंहार की यह वजह बताई तो मैं चौंक पड़ा क्योंकि मुझे अच्छी तरह याद था कि रामकुमार घटनास्थल पर ही मारा जाने वाला डाकू था और टॉर्चर-रूम में तो किसी ने आत्महत्या की ही नहीं—फिर भी मैंने डिक्की थाने के रिकॉर्ड़ से 'सुच्चा—ऑपरेशन' की फाइल निकलाकर देखी—उसमें रामकुमार का नाम घटना-स्थल पर मारे गए डाकुओं के नाम की लिस्ट में साफ-साफ अंकित है। श्रीवास्तव को भी मैंने वह नाम दिखाया जबकि गिरफ्तार डाकुओं की लिस्ट में झूठे को भी रामकुमार का नाम नहीं है।"
विजय ने विकास और नाहर की तरफ देखा।
उनके चेहरों पर भी हैरत के लक्षण नृत्य कर रहे थे। विजय ने बड़बड़ाने के-से अंदाज में कहा— "अजीब बात है, बापूजान आखिर झूठ क्यों बोल रहे हैं?"
"यही हैरानी मुझे भी है।"
कुछ देर उनके बीच खामोशी रही।
अब एक तरफ जहां बजाज से दी गई इन्फॉर्मेशन विजय के दिमाग में हलचल मचाए थी, वहीं यह सोचने की कोशिश भी कर रहा था कि किस तरकीब से पुलिस को जल्द-से-जल्द गांव से निकाला जाए।
"खैर!" एक लंबी सांस छोड़ने के बाद वह बोला— "कुछ तो पहले ही बापूजान पहेली बन हुए थे, कुछ आपकी इस इन्फॉर्मेशन ने उसमें चार चांद फिट कर दिए—आरती से अपनी प्रेमलीला का झूठा किस्सा गढ़कर उन्होंने सुलभा को अपनी बेटी साबित करने की कोशिश क्यों की, यह रहस्य भी दूसरे रहस्यों की तरह तभी खुलेगा जब बापूजान पकड़े जाएंगे और इसमे संदेह नहीं कि जिस दिन भी उन्होंने गुमटी पर हमला किया—उस दिन उनका पकड़ा जाना निश्चित है। गांव के बहादुर युवकों में अपार उत्साह है। कड़ी मेहनत कर रहे हैं ये रात-दिन जागकर—बापूजान और फूलो के गिरोह का इंतजार करते हैं।"
बजाज ने गांव वालों की तरफ देखते हुए कहा— "आपने कड़ी मेहनत करके इन लोगों की मदद की, इसके लिए शुक्रिया—मगर अब आप लोगों को रातों में जागने की जरूरत नहीं है—आराम से सोइए। आपकी हिफाजत और इनकी मदद के लिए हम लोग आ गए हैं।"
"क्या मतलब?" नाहर के मुंह से निकला।
"हम लोग यहीं, गुमटी में रहेंगे।
"य...यहां?" विजय के समूचे जिस्म पर चीटिंयां-सी रेंग गईं।
"जी हां, यहां।  बजाज ने मुस्कराते हुए पूछा— "आपको कोई आपत्ति?"
"न...नहीं—भला आपत्ति क्या हो सकती है, मगर...।"
"मगर?" बजाज ने अपनी चमकदार आंखें विजय पर केंद्रित कर दीं।
"ब...बात ये है कि भला इसकी क्या जरूरत है?" विजय ने कहा— "हम लोग उनका मुकाबला करने में पूरी तरह सक्षम हैं—आपकी नियुक्ति डिक्की थाने पर है, वहीं रहिए—अगर हमें किसी मदद की जरूरत पड़ेगी तो...।"
"आप अजीब आदमी हैं मिस्टर विजय, दुनिया का हर आदमी चाहता है कि पुलिस उसकी मदद के लिए मुहैया रहे, जबकि आप बिल्कुल उलटी बात कर रहे हैं।"
विजय भी क्या करता? इस वक्त उल्टी ही बात करने के लिए विवश था। बोला— "वे लोग कमजोर होते हैं, हमें अपने ऊपर भरोसा है।"
"मैं आपकी हिम्मत की कद्र करता हूं।" बजाज ने कहा— "मगर मजबूर हूं मिस्टर विजय! ये आदेश सीधे गृह मंत्रालय से मिले हैं कि जब तक आप गुमटी में रहें, तब तक मैं भी पूरी फोर्स के साथ यहां रहूं।"
विजय का दिल चाह रहा था कि अपने बाल नोच ले—उसने कतई कल्पना नहीं की थी कि रघुनाथ उनके लिए इतना चिंतित होगा—इतना ज्यादा कि सीधे गृह मंत्रालय में खलबली मचा देगा। अपनी ही धुन में बजाज कहता जा रहा था—"हम लोग पूरा इंतजाम करके यहां आए हैं—टैंट आदि सब हैं। यहीं कहीं कैंप लगाकर रहेंगे और अपना खाना आदि भी स्वयं तैयार करेंगे।"
विजय को लगा कि गले पड़ गई इस मुसीबत से बिना सच बोले छुटकारा नहीं पा सकेगा, अतः बजाज पर दृष्टि गड़ाकर रहस्यमय स्वर में बोला— "आपसे अकेले में कुछ जरूरी बातें करना चाहता हूं।"
"मुझसे?"
"जी।"
सौम्य मुस्कराहट के साथ बजाज ने कहा— "जरूर कीजिए।"