30 नवम्बर-शनिवार
“पता नहीं कहाँ मर गया, कम्बख़्त!”
“हाय हाय, शुभ शुभ बोलो प्रभात बेला में।”
लाला रघुनाथ गोयल कलप रहा था कि लड़का रात को घर नहीं आया था — हालाँकि ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ था — बीवी भी फ़िक्रमन्द थी, लेकिन बेटे को कोस नहीं रही थी।
“ये प्रभात बेला है!” — रघुनाथ गोयल झल्लाया — “आठ बजने को हैं!”
“आ जायेगा।” — बीवी बोली।
“न आये, भाड़ में जाये, लेकिन फोन तो करे! ख़बर तो करे कि नहीं आ रहा था! खुद तो फोन किया ही नहीं, जवाब भी नहीं दे रहा।”
“आये तो आज अच्छी तरह से डाँटना।”
“जैसे उस पर कोई असर होगा! कान से मक्खी उड़ायेगा, कमीना। जाहिर करेगा बाप न बोला, कुत्ता भौंका!”
“हे भगवान! अरे, जुबान को लगाम दो अपनी!”
“मैं तो आजिज आ गया हूँ। ऐसी औलाद होने से तो न होना भला।”
“अब कह रहे हो! वो दिन भूल गये जब नगरी नगरी द्वारे द्वारे मुझे साथ लेकर दुआयें माँगते फिरते थे कि मेरी कोख हरी हो! बारह साल . . . बारह साल में ऊपरवाले ने तुम्हें बाप कह कर पुकारने वाली आवाज सुनायी!”
“तब क्या पता था बड़ी हो के ऐसी निकलेगी!”
“सब ठीक हो जायेगा।”
“औलाद न हो, एक दुःख; हो के मर जाये, सौ दुःख; हो और नालायक निकले तो दुःखों का कोई ओर छोर ही नहीं।”
“अरे, भगवान के लिये बुरे बोल न बोलो बच्चे के लिये।”
“तेरे ही लाड़ प्यार ने बिगाड़ा है उसे।”
“ख़ामख़ाह! मैंने तो माँ की ममता न्योछावर की अपने बच्चे पर। तुमने क्या किया! ख़जाने खोल दिये, जा बेटा ऐश कर।”
“उसी का तो पछतावा है!”
“नाहक है। आजकल के नौजवानों का सब का यही लाइफ़-स्टाइल है।”
“गोली लगे आजकल को! लाइफ़-स्टाइल को।”
“अब कोसते ही रहोगे कि कुछ करोगे भी?”
“क्या करूँ?”
“क्या करूँ! मेरे से पूछते हो क्या करूँ? अरे, पता करो कहीं से!”
“ईस्ट ऑफ कैलाश ही होगा, कमीना। रात का नशा अभी तक नहीं उतरा होगा। इसीलिये मोबाइल पर जवाब नहीं मिल रहा।”
“तुम्हीं ने उसको सलाह दी थी कि लेट हो जाया करे तो नोएडा तक की लांग ड्राइव न किया करे, पुराने घर में चला जाया करे।”
“उसी की भलाई के लिये। टुन्न हो के गाड़ी चलायेगा तो या तो एक्सीडेंट करेगा या पुलिस पकड़ लेगी। हाँ, मैंने सलाह दी थी लेकिन ये तो नहीं कहा था कि पुराने घर में गर्क हुआ हुआ हो तो यहाँ ख़बर ही न करे!”
“अब बस करो, और कुछ करो। पता करो लड़के का। मुझे बुरे-बुरे ख़याल आ रहे हैं।”
“अच्छा! आने लगे?”
“पहले से आ रहे थे लेकिन . . . ख़ामोश थी।”
“मैं जस्से से बात करता हूँ।”
जस्सा — जसवीर सिंह — उसका मुरीद था ऑडजॉब मैन था, ट्रबल शूटर था।
कुछ अरसा रघुनाथ गोयल फोन से उलझा रहा।
आखि़र फोन से फारिग हुआ।
“जस्से को ईस्ट ऑफ कैलाश भेजा है।” — वो बीवी से बोला — “तेरा लाल वहाँ न हुआ तो . . . प्रॉब्लम होगी। तो जी भर के फिक्र करना।”
“तो क्या करोगे?”
“क्या करूँगा? 100 नम्बर डायल करूँगा। शायद पता लगे कि पड़ा है कहीं ऐक्सीडेंटल केस बना।”
“हाय राम!”
“मुसीबतों का पिटारा बन गया हुआ है ये लड़का। एक जहमत से अभी निकला नहीं होता कि दूसरी में कदम रख देता है। मैं ही जानता हूँ कि कैसे मैंने उसे भगवानदास रोड वाले रेप केस में सजा पाने से बचाया था। वो चश्मदीद गवाह, वो फैब इंडिया का मलियाली मुलाजिम, साला टके का आदमी पचास लाख माँगता था गवाही से फिरने की एवज में — साले को मालूम भी नहीं होगा कि लाख में कितनी बिन्दियाँ होती थीं — फिर भी तीस ले के ही माना। पन्द्रह उस सब-इन्स्पेक्टर ने लिये जिसके हवाले उसका केस था। वो भी बीस लाख की माँग से नहीं हिल रहा था। बड़ी मुश्किल से हिला और पन्द्रह लेने को तैयार हुआ। तब जा के कहीं छूटा हमारा नौनिहाल। गवाह न मुकरता तो सजा हो के रहनी थी। आजकल इस मामले में कानून इतना सख्त है कि बतौर सजा उम्रकैद होती है, फाँसी भी होती है।”
बीवी के शरीर ने झुरझुरी ली।
“केस में उसके साथ जो दो और लड़के गिरफ्तार थे, मैंने उनके पिताओं से बात की कि केस को रफा-दफा करने के लिये पैंतालीस लाख रुपयों का ख़र्चा था, ख़र्चा शेयर करें। दोनों ने पोपले मुँह से कह दिया कि उनकी तो ऐसी हैसियत नहीं थी। हैसियत नहीं थी कम्बख़्तों की, जब कि एक डीडीए में और दूसरा एक्साइज के महकमे में अफसर है और दोनों ही महकमों में रिश्वत का दरिया बहता है। मैं क्या जानता नहीं! फिर भी ख़र्चे की बात पेश आयी तो दोनों ने ही हाथ खड़े कर दिये।”
“दुनिया बहुत चालाक है। चालाकी की उन्होंने हमारे साथ।”
“और क्या! औलाद की सलामती के लिये लोग घर-बार बेच देते हैं, खुद को बेच देते हैं, उन्होंने क्या किया? कह दिया हैसियत नहीं है। मेरी हैसियत सच में न होती तो क्या करते? औलाद को उम्रकैद के लिये जेल चला जाने देते! फाँसी चढ़ जाने देते! फिर जिस पैसे को गाँठ से न निकाला, उसे शहद लगा के चाटते? हद है साली लालच और खुदगर्जी की। चमड़ी जाये पर दमड़ी न जाये।”
“होते हैं ऐसे लोग।”
“तमाम ख़र्चा मैंने किया, तमाम जहमत मैंने की और उसका फायदा उन्होंने फोकट में उठाया। हमारा लड़का छूटा तो उनके लड़के अपने-आप ही छूट गये। हींग लगी न फिटकरी, रंग चोखा।”
“चलो, किसी का भला ही हुआ न! हमें पुण्य मिलेगा।”
“मिल रहा है न! ये पुण्य मिल रहा है कि उस वाकये से कोई सबक लेने की जगह और शेर हो गया हमारा नौनिहाल। हुआ जो कुछ नहीं! बाप ने छुड़ा जो लिया!”
“सख़्ती करो।”
“किस पर सख़्ती करूँ? दिखाई दे तो सख़्ती करूँ? काबू में आये तो सख़्ती करूँ? दोपहरबाद सोके उठता है जबकि मैं घर नहीं होता। आधी रात के कहीं बाद लौटता है जबकि मैं सो चुका होता हूँ। फिर भी कभी काबू में आ जाये इत्तफाक से तो मेरी सुनकर मुझे ही गलत ठहराने लगता है। अक्सर तो सुनता ही नहीं। मैंने अभी कुछ कहना शुरू ही किया होता है तो अंग्रेज का बच्चा ‘ओ डैड, ले ऑफ’ बोल देता है। मुझे कहता है मैं ओल्ड फैशंड हूँ, आजकल की जिन्दगी के तौर-तरीकों को नहीं समझता हूँ। मॉडर्न लाइफ फास्ट लेन में है, मैं पिछड़ गया हूँ। क्या करूँ अपना पिछड़ापन दूर करने के लिये? तेरे को साथ ले जा के डिस्को में डांस करूँ? या उसको बोलँू शाम की तफरीह के लिये एक लड़की मेरे लिये भी सैट कर दिया करे?”
“क्या कह रहे हो, जी!”
“मैं मॉडर्न लाइफ के खिलाफ नहीं। उसकी फास्ट लेन वाली रफ्तार के भी खिलाफ नहीं लेकिन कन्ट्रोल में तो रहे! जो करता है किसी लिमिट में तो करे! अति की वर्जना सब जगह है। वो नहीं समझता।”
“उसे पैसा देना बंद कर दो।”
“वो तुझे पटा लेगा। तू नहीं पटेगी तो उसके पास उसका भी हल है।”
“क्या?”
“स्वैच की चार लाख की घड़ी ले के दी थी उसको उसके बर्थडे पर। उसे गिरवी रख के पैसे खड़े कर लिये। मैंने घड़ी की बाबत पूछा तो असलियत बकी। नाक रगड़ कर पैसा दिया तो घड़ी वापिस ले कर आया।”
“सुधर जायेगा। पाँव में बेड़ी पड़ेगी तो सुधर जायेगा।”
“कहाँ से पड़ेगी? कम्बख़्त के यही लच्छन रहे तो कौन लड़की देगा उसे?”
“सब देंगे। रिश्तों की लाइन लग जायेगी। वक्त आने दो।”
“वक्त आने दूँ! आया नहीं वक्त अभी?”
“अख़बार में शादी के लिये इश्तिहार छपवाओ, मैं बिरादरी में फैलाती हूँ। देख लेना रिश्तों की झड़ी लग जायेगी। एक-से-एक बढ़ कर रिश्ते आयेंगे मेरे लाल के लिये . . .”
“ये माँ की अक्ल नहीं, माँ की ममता बोल रही है . . .”
फोन की घन्टी बजी।
रघुनाथ ने काल रिसीव की।
दूसरी तरफ से जो बोला गया, उसे सुनते ही उसका चेहरा चाक की तरह सफेद हो गया।
बीवी से उसमें एकाएक आयी वो तब्दीली छुपी न रही।
“क्या हुआ जी?” — वो व्यग्र भाव से बोली — “सब ख़ैरियत तो है न!”
रघुनाथ ने बेसब्री से हाथ उठा कर उसे चुप रहने का आदेश दिया, कुछ क्षण और फोन सुना, फिर फट सा पड़ा — “उसे एम्स में पहुँचा। . . . नहीं, नहीं . . . ग्रीन पार्क ले के जा। वहाँ डॉक्टर सक्सेना का नर्सिंग होम है। ग्रीन पार्क पहुँचकर किसी से भी पूछना, बोलेगा कहाँ है। मैं आता हूँ।”
उसने मोबाइल जेब के हवाले किया।
“क्या हुआ जी?” — बीवी अब आतंकित भाव से बोली — “कोई बुरी ख़बर है? बताते क्यों नहीं हो . . .”
काँपती आवाज में, रघुनाथ ने बताया।
बीवी की उससे बद् हालत हुई।
उसे गश आ गया।
अरमान त्रिपाठी पशेमान था।
बल्कि ख़ौफजदा था।
उसके जिगरी दोस्त अमित गोयल के साथ जो बीती थी, उसकी ख़बर, बाजरिया अपने पिता, उसे सुबह ही लग गयी थी। रघुनाथ गोयल उसके पिता का वैसा ही परम मित्र था जैसा कि अमित उसका था। वस्तुतः उसकी अमित से वाकफ़ियत हुई ही इस वजह से थी कि दोनों के पिता एक दूसरे के मित्र थे।
उसके पिता ने उसे ख़बर तो दी थी लेकिन साथ ही सख्त हिदायत दी थी कि वो उस वाकये का जिक्र हरगिज भी किसी से न करे।
तमाम दिन उसके जेहन में फैंटम के नकाब वाले अपने आततायी की क्रूर आवाज नगाड़े की तरह बजती रही थी:
“तेरे प्रारब्ध में तेरा बड़ा नुकसान लिखा है लेकिन पहले ये
नुकसान तेरे दोस्तों का होगा। तेरा नम्बर आखि़र में आयेगा।”
नुकसान तेरे दोस्तों का होगा। तेरा नम्बर आखि़र में आयेगा।”
अब उसकी समझ में ये भी बाख़ूबी आ गया था कि ‘फैमिली ज्वेल्स’ से उसका क्या मतलब था।
अनायास ही उसके शरीर में सिहरन दौड़ गयी। वो अपनी कल्पना नर्सिंग होम में पड़े अमित की जगह करने लगा।
“आपदा से ज्यादा आपदा का इन्तजार भारी पड़ता है। तेरी जिन्दगी के आइन्दा दिन तेरे पर भारी, बहुत भारी पड़ने वाले हैं।”
गॉड!
अमित पर जो बीती थी, वो क्यों बीती थी, सिर्फ वो जानता था। अमित भी जानता हो सकता था लेकिन पता नहीं वो अभी कुछ कहने के काबिल था या नहीं था।
कई बार उसके मन में आया कि अपने भीतर मचे हाहाकार को वो अपने पिता से साझा करे लेकिन ऐसा करना अगवा और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में अपनी शिरकत कबूल करना होता! वो ऐसा करता तो अपनी ही नहीं, अपने दोस्तों की भी पोल खोलता।
इस बात में शुबह की कोई गुंजायश नहीं थी कि अमित का विशिष्ट अंग भंग उस फैंटम की नकाब वाले ने ही किया था और उसका किसी-न -किसी तरीके से कोई रिश्ता उस औरत से था जिसे उन्होंने उस रोज जबरन उठा कर कार में डाला था। वो जरूर निश्चित तौर पर नहीं जानता था कि वारदात में वो शरीक था — बाकियों के बारे में तो जरूर बिल्कुल ही नहीं जानता था — इसी वजह से उसका जोर हकीकत उससे कबुलवाने पर था। उसने उसको गुमराह करने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन कामयाब नहीं हो सका था। हक़ीकत उसे कबूलनी पड़ी थी।
लेकिन उसके पीछे पड़ा तो कैसे पड़ा वो? कैसे उसे उसकी — ख़ासतौर से उसकी — बाबत ख़बर थी? जब वो बाकियों के बारे में कुछ नहीं जानता था तो एक उसके बारे में कुछ — या सब कुछ — कैसे जानता था?
उस औरत से जाना?
क्या वो औरत उसकी, सिर्फ उस की, सूरत देखने में — और फिर उसे बयान करने में — कामयाब हो गयी थी?
कैसे मुमकिन था?
कार में तो पर्दों की वजह से इतना अन्धेरा था कि खुद वो चारों ही उसकी सूरत नहीं देख पाये थे, खूँखार जँगली बिल्ली की तरह उनसे लड़ती जूझती वो कैसे देख पायी खास उसकी सूरत!
नहीं हो सकता था।
तो?
अपनी ‘तो’ का कोई जवाब उसे न सूझा।
उसकी तवज्जोे फिर अपने आततायी की तरफ गयी।
पता नहीं वो अगवा औरत का क्या लगता था लेकिन लगता ही नहीं था, बहुत करीबी था, तभी तो औरत की दुर्गत करने वालों को पाताल से भी खोद निकालने पर आमादा था।
दो को तो निकाल भी चुका था।
एक को तो सजा भी दे चुका था।
सजा!
उसके शरीर में फिर झुरझुरी दौड़ी।
गॉड! ऐसी सजा! जो न कभी देखी न सुनी!
फॉरेन में कहीं जरूर किसी औरत ने अपने बेवफा पति का गुप्तांग छुरी से काट डाला था और वो वाकया इतना मशहूर हुआ था कि ऐसे अंग भंग के लिये एक नया शब्द बन गया था:
बॉबीटाइजेशन। ‘ही वॉज बॉबीटाइज्ड’।
क्योंकि उस औरत का नाम लोरेना बॉबिट था जिसने स्टेक नाइफ (STEAK KNIFE) से अपने पति जॉन वेन बॉबिट का लिंग काट दिया था।
गॉड! गॉड!
जरूर नर्क का नजारा हुआ होगा भुक्तभोगी को!
जो कि अब अमित था।
और आगे वो खुद — आखि़र में — होने वाला था।
नकाबपोश के चले जाने के बाद उस रोज बड़ी मुश्किल से वो लुढ़कता, कलाबाजियाँ खाता खंडहर के दहाने पर पहुँचा था और तब तक गला फाड़ फाड़ कर ‘बचाओ, बचाओ’ चिल्लाता रहा था जब तक कि एक व्यक्ति उधर नहीं पहुँच गया था। उसने उसे बन्धनमुक्त किया था और बताया था कि वो ऑटो वाला था जिसने बाहर सड़क पर से गुजरते इत्तफ़ाक से ही उसकी चीख़-पुकार सुन ली थी।
पूछे जाने पर कि उसकी वो हालत क्योंकर हुई थी, उसने कहा था कि वो गुण्डों के एक ग्रुप के काबू में आ गया था, जिन्होंने उसका तमाम कीमती सामान भी झपट लिया था और कार भी काबू में कर ली थी। ऑटो वाले ने उसे महरौली थाने पहुँचाने की पेशकश की थी जो कि उसने यह कह कर ठुकरा दी थी कि ऐसा वो बाद में, होश ठिकाने आ जाने पर, भी कर सकता था।
वहाँ से जहाँ जाना था, कैसे जाता?
वो सवाल होने पर उसके मुँह से निकलने ही लगा था कि ‘ओला’ मँगवाता कि उसे याद आया कि उसने तो दावा किया था कि गुण्डे उसका सब कुछ लूट कर ले गये थे!
मोबाइल और कार भी।
उसने ये कह कर ऑटो वाले से पीछा छुड़ाया था कि वो थोड़ी देर वहीं रैस्ट करना चाहता था।
शाम को अरमान अपने पिता के साथ ग्रीन पार्क डॉक्टर सक्सेनाज नर्सिंग होम पहुँचा।
रघुनाथ गोयल की अपने दोस्त को ख़ास हिदायत थी कि मिजाजपुर्सी के लिये त्रिपाठी शाम से पहले वहाँ न आये। इस पाबन्दी की उसने कोई वजह बयान नहीं की थी। शायद उसे बताया गया था कि शाम से पहले अमित की हालत की बाबत कोई फाइनल रिपोर्ट जारी नहीं होने वाली थी।
या मुलाकाती को शाम को ही आने दिया जाता था।
वेटिंग लाउन्ज में पिता-पुत्र रघुनाथ गोयल से रूबरू हुए।
जस्सा उसके साथ था।
संयोगवश उस घड़ी वहाँ और कोई नहीं था।
बीवी बेटे के पास थी।
“क्या हाल है?” — सहानुभूतिपूर्ण स्वर में चिन्तामणि ने पहला, स्टैण्डर्ड, सवाल किया।
“ठीक है।” — रघुनाथ गमगीन लहजे से बोला।
“बिल्कुल?”
“बिल्कुल कहाँ से होगा! इतना बड़ा काण्ड हो गया, इतनी जल्दी बिल्कुल कहाँ से होगा!”
“ओह!”
“लेकिन इतना ठीक है कि कल घर ले जा सकेंगे। बिल्कुल ठीक होने में तो — अगर उसे बिल्कुल ठीक होना माना जायेगा — हफ्ता दस दिन लगेंगे।”
“ओह!”
“डॉक्टर कहते हैं कि काटने वाले ने काटने के बाद कटी जगह पर कोई खास मिट्टी थोप दी थी जिसमें कोई मैडिसिनल इफेक्ट था जिसकी वजह से ख़ून बहना बन्द हो गया था और दर्द में भी कमी आती चली गयी थी। वैसा न हुआ होता तो अभागा एक्सैसिव ब्लीडिंग से भी मर गया होता।”
रघुनाथ की आवाज भर्रा गयी।
“सब्र!” — चिन्तामणि बोला — “सब्र!”
“क्या सब्र!” — रघुनाथ रुंधे कण्ठ से बोला — “वंश नाश कर दिया किसी हराम के जने ने। पता नहीं किस जन्म का बदला उतारा! लेकिन” — उसके दाँत किटकिटाये — “छोड़ूँगा मैं भी नहीं। जस्सा ढूंढ़ के रहेगा उसे जिसकी ये करतूत है।”
जस्से का सिर स्वयंमेव ऊपर नीचे हिला।
“कुत्ते को ऐसी मौत मारूँगा कि सात पुश्तें पनाह माँग जायेंगी।”
“जरूर। जरूर। लड़का कुछ बोला आखि़र हुआ क्या था?”
“कुछ तो बोला!”
“क्या?”
“वसन्त कुंज के ‘हाइड पार्क’ नाम के नाइट क्लब में था जहाँ कि एक नौजवान लड़की से उसकी मुलाकात हुई थी जो कि ऐसी जगहों पर कोई बड़ी बात नहीं है।”
“कोई बड़ी बात नहीं आजकल दिल्ली में।”
“उस लड़की के साथ एक जोड़ा और था। तफरीह के लिये वो इकट्ठे मिल बैठे तो उनके बीच में ये बात उठी कि उस घड़ी की तफरीह को क्लाइमैक्स तक पहुँचाने के लिये कोई तनहा जगह होनी चाहिये थी . . .”
“किसने उठाई?”
“पता नहीं। लड़के की हालत ऐसी बातों की डिटेल में जाने लायक अभी नहीं है।”
“ओह! सॉरी!”
“उस बाबत कई बार इसरार हुआ तो लड़का ईस्ट-ऑफ-कैलाश की हमारी खाली पड़ी कोठी की बाबत बोल बैठा। मुलाहजे में वो उन्हें वहाँ ले गया फिर वहाँ . . . वहाँ . . .”
उसका गला फिर रुंध गया।
“लेकिन कोई वजह तो होगी! आखि़र किया क्यों उन लोगों ने ऐसा?”
“क्या पता क्यों किया! लड़का ही कुछ बतायेगा तो पता चलेगा।”
“वो लोग अनजान थे, पहली बार मिले थे, बारमेट्स वाली वाकफ़ियत बनी थी, कोई जाती दुश्मनी का दखल तो नहीं हो सकता!”
रघुनाथ ने ख़ामोशी से सहमति जताई।
“या सैडिस्ट होंगे साले।”
रघुनाथ की भवें उठीं।
“कुछ जेहनी तौर पर बीमार ऐसे लोग होते हैं जो दूसरे को प्रताडि़त करके सुख पाते हैं। ऊपर से नशे में थे। ऐसे लोग जो न कर गुजरें थोड़ा है। वो जो मेल पाटर्नर साथ था, वही साला होगा लाइलाज सैडिस्ट जो नशे में वो वारदात कर बैठा।”
रघुनाथ का सिर इंकार में हिला।
“यानी!” — चिन्तामणि बोला।
“जो किया उस लड़की ने किया जो उनके साथ विदाउट कम्पैनियन थी।”
“क्या!”
“जरूर जो इसी वजह से अमित को कम्पैनियन बनाने के लिये झट तैयार हो गयी थी। लड़का कहता है ईस्ट-ऑफ-कैलाश वाली हमारी कोठी के एक बैडरूम में वो उस लड़की के साथ अकेला था। तब लड़की के साथ का जोड़ा दूसरे बैडरूम में था।”
“यानी उन दोनों को ख़बर ही न लगी कि . . .”
“बाद में आया।”
“बाद में आया?”
“ख़ाली मर्द। मेल पाटर्नर। दूसरी लड़की का।”
“वो न आयी?”
“न! लड़का यही कहता है। अकेला आया।”
“कैसे . . . कैसे सूझा आना?”
“लड़की का कोई इशारा पाकर आया। लड़का कहता है कि आखि़र जो उसके साथ बीती, उसके दौरान उस मर्द की हैसियत महज दर्शक की थी।”
“जो किया, लड़की ने किया?”
“हाँ।”
“यकीन नहीं आता।”
“अमित यही कहता है।”
“लेकिन रघुनाथ, जब उस शख़्स ने अपने सामने इतना बड़ा काण्ड होने दिया तो उसे महज दर्शक तो नहीं कहा जा सकता?”
रघुनाथ की भवें उठीं।
“इससे तो साफ जाहिर होता है कि वो दोनों—बल्कि तीनों — इस वाकये में शरीक थे। उस तीनों की वो मिली भगत थी . . . इस फर्क के साथ कि उनकी उस नापाक स्कीम को अमली जामा उस लड़की ने पहनाया था जो कि अमित के साथ थी . . . इसी काम के लिये अमित के साथ थी।”
“हो सकता है।”
“हो सकता है नहीं, है।”
“पापा इज राइट।” — अरमान बोला — “इट स्टैण्ड्स टु रीजन। नो?”
रघुनाथ ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“लेकिन” — चिन्तामणि बोला — “जो हुआ, वो हुआ क्यों? बेवजह तो कोई काम नहीं होता!”
“वो तो है!”
“अमित क्या कहता है?”
“अभी कुछ नहीं कहता। बाद में शायद कहे।”
“हैरानी की बात है! एक अकेली लड़की की अमित के साथ क्या दुश्मनी हो सकती थी?”
“अकेली क्यों? अभी तुमने खुद तो कहा कि उन तीनों की मिली भगत थी!”
“अमित के साथ तो अकेली थी!”
“वाकये के वक्त नहीं।”
“फिर भी . . .”
“अभी ये एक उलझी हुई गुत्थी है, अमित ही कुछ बोलेगा तो सुलझेगी।”
“अकेली लड़की ने इतना बड़ा काण्ड कर दिखाया! अमित ने कर लेने दिया! ऐसी हरकत के लिये मर्द को काबू में करना पड़ता है। कैसे कर पायी?”
“मालूम पड़ेगा न!”
“रिपोर्ट दर्ज करायी?”
“नहीं।”
“नहीं?”
“नहीं, भई। रिपोर्ट दर्ज कराने का मतलब इस बात का ढिंढोरा पीटना होता कि मेरा जवाँमर्द बेटा अब मर्द नहीं रहा था।”
इस बार उसका गला ही न रुंधा, आँखें भी डबडबा आयीं।
“सब्र, रघुनाथ, सब्र।”
“इसीलिये तो अमित को इस प्राइवेट नर्सिंग होम में पहुँचाया जिसका मालिक अल्पेश सक्सेना मेरा वाकिफ है। और कहीं ले जाते को मैडिकोलीगल केस बनता, रिपोर्ट अपने आप ही दर्ज हो जाती।”
“वो तो ठीक है लेकिन पुलिस में जाये बिना तफ़्तीश कैसे होगी, पता कैसे लगेगा कि ये घिनौनी वारदात करने वाले लोग कौन थे, ख़ासतौर से वो लड़की कौन थी?”
“जो करेगा, जस्सा करेगा। लेकिन पुलिस नहीं। पुलिस में जाना अमित की बाकी जिन्दगी की बेचारगी का ढिंढोरा पीटना होगा। मुझे यकीन है कि खुद अमित ही ऐसा नहीं चाहेगा।”
“ये कर लेगा?”
“देखेंगे।” — रघुनाथ ने गहरी, ठण्डी साँस ली — “न कर पाया तो हरि इच्छा।”
इस बार जस्से ने कोई प्रतिक्रिया न दिखाई।
“लेकिन पुलिस नहीं।” — रघुनाथ बोला।
“हम अमित से मिल सकते हैं?”
“मिल तो सकते हो। होश में है। लेकिन फिलहाल न मिलना ही बेहतर होगा।”
चिन्तामणि को भवें उठीं।
“मिलना उसकी शर्मिन्दगी का बायस बनेगा।”
“ओह!”
“फिलहाल मैं ऐसा नहीं चाहता। उसे सम्भलने के लिये, हालात से समझौता करने के लिये वक्त देना जरूरी है।”
“ठीक!”
“वैसा हो जाने तक मैं खुद उससे ज्यादा सवाल नहीं करना चाहता।”
“भाभी से तो मिल सकते हैं?”
“न ही मिलो तो अच्छा है। बार-बार गश खा रही है। तुम हमदर्दी जताओगे तो उसके अभी हरे जख़्म ही खुरचोगे।”
“ओह! फिर तो चलते हैं, रघुनाथ।”
रघुनाथ ने सहमति में सिर हिलाया।
“फिर आयेंगे।”
“आना।”
अरमान ग्रीन पार्क में ही अपने पिता से अलग हो गया।
पिता ने सवाल किया तो उसने बहाना बनाया कि उस इलाके में उसका एक दोस्त रहता था, जिससे वो मिलना चाहता था।
पिता की कार दृष्टि से ओझल हो गयी तो वो वापिस नर्सिंग होम पर पहुँचा। उसने आती बार ही नोट किया था कि नर्सिंग के करीब एक रेस्टोरेंट था जो कि शाम की उस घड़ी कोई रश वाली जगह नहीं जान पड़ता था।
उसने जस्से को फोन लगाया।
तत्काल उत्तर मिला।
“मैं अरमान!” — वो बोला।
“मालूम। स्क्रीन पर नाम आया न!”
“थोड़ी देर के लिये बाहर आ सकता है?”
“आ सकता हूँ। क्या बात है?”
“बात करनी है। ख़ास।”
“बड़े त्रिपाठी साहब ने?”
“वो तो गये! मैंने।”
“तू बाहर है?”
“हाँ। नर्सिंग होम से थोड़ा परे जो रेस्टोरेंट है, उसके सामने।”
“आता हूँ।”
“भीतर आना।”
“ठीक है।”
अरमान भी रेस्टोरेंट में दाखिल हुआ और उसके लगभग ख़ाली पड़े पृष्ठ भाग में एक टेबल पर बैठ गया। वेटर आया तो उसने दो चाय का आर्डर किया।
जस्सा और चाय इकट्ठे ही टेबल पर पहुँचे।
जस्सा उसके सामने बैठने लगा तो अरमान ने उसे अपने पहलू की ओर की ख़ाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। जस्सा बैठ गया तो उसने एक चाय उसके आगे सरका दी।
“क्या बात है?” — जस्सा उत्सुक भाव से बोला।
“बोलता हूँ।” — अरमान दबे किन्तु सन्तुलित स्वर में बोला — “लम्बी बात है। टाइम है न तेरे पास?”
“है।”
“कहीं गोयल साहब ढूँढ़ते हों!”
“ऐसा नहीं होगा। होगा तो मोबाइल खड़कायेंगे।”
“ओह!”
“अब बोल।”
“गोयल साहब पुलिस में नहीं जाना चाहते। उन्होंने तेरे पर भरोसा जताया कि तू कुछ कर गुजरेगा। ढूँढ लेगा साले हरामियों को? खासतौर से लड़की को जिसने वारदात को अंजाम दिया?”
“उम्मीद तो है!”
“कैसे? खुलासा कर?”
“इस शहर में जरायमपेशा लोगों से मेरी ख़ासी वाकफियत है। आखि़र मैं भी कभी ऐसा ही होता था। कारें चुराया करता था। फिर लोकल अन्डरवर्ल्ड में भी मेरे कनैक्शन हैं . . .”
“ठीक! ठीक! लेकिन इस मामले में ऐसे लोग मेरे किस काम आयेंगे?”
“आयेंगे। जो हुआ है, वो कोई मामूली वाकया नहीं। किसी पर्सनल रंजिश का नतीजा नहीं, जैसा कि लाला जी सोच समझ रहे हैं। ये प्रोफेशनल जॉब है। प्रोफेशनल जॉब को प्रोफेशनल ही अंजाम दे सकता है। इसलिये मेरे कनैक्शन काम आयेंगे।”
“आते आते आयेंगे . . .”
“लेकिन आयेंगे।”
“सुन तो! मैं तेरी कुछ ऐसी मदद कर सकता हूँ जिससे ये काम रफ़्तार से हो सकता है — जैसे शार्ट कट से मंजिल पर जल्दी पहुँचा जा सकता है — और कोई फौरी नतीजा सामने आ सकता है।”
“तू . . . तू मदद कर सकता है?”
“हाँ।”
“कैसे?”
“जानता हूँ कुछ ख़ास। ऐसे।”
“क्या जानता है?”
“जस्से, मैं ऐसा कुछ जानता हूँ जिसे मैं अपने पापा के सामने नहीं दोहरा सकता, गोयल साहब के सामने तो बिल्कुल ही नहीं दोहरा सकता, लेकिन तेरे सामने दोहरा सकता हूँ क्योंकि गोयल साहब ने तेरे पर जो भरोसा जताया है, तू अगर उस पर खरा उतर कर दिखाता है तो उससे मेरा भी भला होता है।
“तेरा भी?”
“हाँ।”
“बहुत उलझी-उलझी बातें कर रहा है, काका। खुफ़िया भी।”
अरमान ख़ामोश रहा, बेमन से उसने चाय की एक चुस्की भरी।
जस्से ने चाय की तरफ तवज्जो ही न दी, उसने अपलक अरमान की तरफ देखा।
अरमान की निगाह न भटकी।
आखि़र जस्से ने ही निगाह फिराई, फिर बोला — “क्या जानता है?”
“जो जानता हूँ उससे उस वजह पर रौशनी पड़ सकती है जो अमित के साथ हुए हादसे की बुनियाद बनी।”
“बढि़या। आगे बोल।”
“आगे एक शर्मनाक कहानी है . . .”
“ओये काका, मेरे से कैसी शर्म! मैं तो घर का बन्दा हूँ!”
“. . . सिर्फ तेरे कानों के लिये।”
“मैंने पकड़ा न हिंट! तेरी बात मेरे से आगे नहीं जायेगी।”
“पक्की बात?”
“ओये, पक्की क्या, कच्ची क्या! बोल दिया न जस्से ने!”
“तो सुन।”
अरमान ने सविस्तार अपनी और अमित गोयल, शकील शेख और अशोक जोगी की सोमवार ग्यारह तारीख़ की साझी करतूत बयान करना शुरू किया।
ज्यों-ज्यों वो बोलता गया, जस्से की हैरानी में इजाफा होता गया।
कहानी का सिरा आया तो अरमान क्षण भर को ठिठका, उसने अपनी ठण्डी होती चाय का एक घूँट भरा।
“दाता!” — जस्सा असहाय भाव से गर्दन हिलाता बोला — “ये लड़का तो गोयल साहब के पिछले जन्म की सजा बनता जा रहा है। जनाना जिस्म की इतनी तलब! एक वारदात से बरी हुआ नहीं कि दूसरी कर डाली!”
अरमान की भवें उठीं।
“तुझे नहीं मालूम?”
“क्या?”
“सारे शहर को मालूम है, तुझे नहीं मालूम?”
“अरे, क्या?”
“नहीं मालूम कि अपने विकास जिन्दल और केतन साहनी नाम के तेरे जैसे दो साथियों के साथ पिछले दिनों गिरफ्तार था!”
“वो तो मालूम है! भगवान दास रोड वाले अगवा और जबरजिना के केस में गिरफ्तार हुआ था लेकिन नाजायज गिरफ्तार हुआ था। कोर्ट ने उसे और विकास और केतन को बाइज्जत बरी किया था . . .”
“बाइज्जत नहीं। लैक ऑफ ईवीडेंस की बिना पर बरी हुए थे तीनों। पुलिस का उनके खिलाफ चश्मदीद गवाह खड़े पैर मुकर गया था . . .”
“सरकारी गवाह मुकर गया! ऐसा कहीं होता है!”
“होता है। हुआ। गोयल साहब ने कहा ऐसा हो, ऐसा हो गया। मैजिस्ट्रेट को लैक आफ ईवीडेंस की बिना पर मजबूरन आरोपियों को छोड़ना पड़ा। ये बाइज्जत बरी होना तो न हुआ!”
“लेकिन इंसाफ तो हुआ! अमित का तो सच में ही उस वारदात से कोई लेना-देना नहीं था।”
“तुझे क्या पता?”
“वो मेरा दोस्त है, करीबी है, जब वो कहता है कि . . .”
“गलत कहता है।”
“उसने . . . उसने मेरे से झूठ बोला?”
“इस बार तो बोला! इज्जत ख़राब होती पायी होगी। करतूत आयी गयी हो गयी होती तो डींग हाँकता — तेरे सामने और तेरे जैसों के सामने — उलटी पड़ गयी तो शर्मिंदगी का बायस बन गयी। हमेशा कामयाबी की लम्बी-लम्बी हाँकता कैसे जुबान पर लाता अपनी नाकामी की दास्तान! अन्दर जाना पड़ा। खुदा-न-ख़ास्ता गोयल साहब की पेश न चली होती तो सोच, क्या होता!”
“उन्होंने . . . उन्होंने छुड़वाया?”
“हाँ। पैंतालीस लाख रुपये नकद गवाह को और केस के इंचार्ज पुलिस वाले को पूजे। और भी कई तरह के कई ख़र्च हुए।”
“कमाल है!”
“कोई सबक न लिया नामाकूल ने। एक जहमत से अभी निकला नहीं था कि दूसरी में कदम डाल दिया। ऐसी भी क्या जिंसी भूख! अब उलटी पड़ गयी न! भूख मिटाने चला था, निवाला छूने के काबिल न बचा।”
“अ-असल में भगवानदास रोड वाली वारदात — उसी का कारनामा था?”
“और मैं क्या कह रहा हूँ?”
“यकीन नहीं आता। अमित ने मेरे से पर्दादारी की!”
“फंसा न होता तो न करता। पकड़ा गया इसलिये उसके जिक्र से अपनी किरकिरी होती महसूस करता होगा।”
“आपसदारी में कैसी किरकिरी!”
“पूछना। मालूम करना।”
अरमान ख़ामोश हो गया।
“ख़ैर!” — गहरी साँस लेता जस्सा बोला — “जो किस्मत में लिखा होता है, वो तो हासिल होना ही होता है। अब तू ये बता कि जो कहानी तूने की, उसमें मेरे लायक क्या है?”
“कहानी पूरी नहीं हुई अभी, जस्से।” — अरमान बोला — “तेरे लायक आगे है।”
“अच्छा, अभी आगे भी है?”
“हाँ।”
“बोल। पहुँच आगे। मैं सुन रहा हूँ।”
अरमान ने सहमति में सिर हिलाया।
फिर उसने अकेले खुद के साथ बीती महरौली के रेस्टोरेंट वाली कथा की, जिसका हौलनाक समापन एक करीबी खंडहर इमारत में हुआ था जिसमें उसे मजबूरन ग्यारह तारीख़ की वारदात में शामिल अपने साथियों के नाम बताने पड़े थे।
आखि़र वो ख़ामोश हुआ।
कुछ क्षण जस्सा मन्त्रमुग्ध-सा उसे देखता रहा, फिर बोला — “ये तो तूने बड़ी ख़तरनाक कथा की, काके! इसका तो मतलब है कि जो अंजाम अमित का हुआ, वो रशीद शेख और अशोक जोगी का भी हो सकता है और आखि़र में तेरा भी हो सकता है!”
“मैं और क्या कह रहा हूँ?”
“तू तो जाहिर है कि ख़बरदार है — तभी कह रहा था कि मैं अगर कुछ कर दिखाता हूँ तो उसमें तेरा भी भला है — बाकी दो भी ख़बरदार हैं?”
“अभी नहीं।”
“ओये, रहे रब दा नां, उन्हें तो तेरे से पहले ख़बरदार होना चाहिये! तेरा नम्बर तो — रब न करे — आखि़र में आना है, वो तो . . .”
“ठीक, ठीक। लेकिन अमित के साथ बीती की मुझे आज सुबह ही ख़बर लगी है! तब से नहीं टाइम मिला उनसे बात करने का।”
“करेगा तो सही?”
“जरूर! आज ही करूँगा। आने वाली मुसीबत की पहले से ख़बर हो तो उससे बचाव की जुगत की जा सकती है।”
“ठीक। लेकिन तू कहता है महरौली में एक, सिर्फ एक आदमी तेरे गले पड़ा, उसने तेरे से अमित का नाम उगलवाया, लेकिन उसकी दुरगत उसने तो न की, वो तो किसी लड़की ने की!”
“उस लड़की के साथ एक औरत आदमी और थे न! मेरा दिल गवाही देता है कि औरत के साथ का वो आदमी फैंटम की नकाब वाला वही आदमी था, जिसने महरौली के खंडहरों में मेरा दिल बैठा देने में कसर नहीं छोड़ी थी।”
“औरत!”
“उसकी बाबत मैं क्या कह सकता हूँ? लेकिन एक दूर की कौड़ी सूझती है।”
“क्या?”
“वो वो औरत थी जिसे हम चार दोस्तों ने उठाया था और बाद में चलती कार में से बाहर फेंका था। लेकिन जो, पता नहीं क्या करिश्मा हुआ कि, मरने से बच गयी थी।”
“मॉडल टाउन में रहने वाली कोई औरत!”
अरमान की भवें उठीं।
“ओये, जब तू कहता है कि मार्केट से कोई ख़रीदारी करके अपनी ख़रीदारी के साथ पैदल लौट रही थी तो मॉडल टाउन में ही तो रहती होगी! मॉडल टाउन में भी मार्केट के करीब ही कहीं तो रहती होगी! . . . ऐसे क्या देखता है? रोजमर्रा की शॉपिंग के लिये — वो भी औरत, वो भी सूरज ढले — कोई मील, दो मील चल कर तो नहीं आता!”
“ये बात तो ठीक है!”
“उस वारदात के बाद वो खड़े पैर मॉडल टाउन छोड़ तो नहीं गयी होगी!”
“नहीं।”
“तो तेरे को उसको ट्रेस करने की कोशिश करनी चाहिये थी। इतने जरिये थे तेरे पास उसको ट्रेस कर लेने के! वो मॉडल टाउन में रहती थी, कम्यूनिटी सेंटर की मार्केट के करीब कहीं रहती थी, नोची-खँसोटी जाने की वजह से, चलती कार में से बाहर धकेली जाने की वजह से घायल थी, तेरे को इतनी मुँह से बोलने वाली बातों की तरफ तवज्जो देनी चाहिये थी।”
“पहले ऐसी कोई तवज्जोे देने की कोई वजह कहाँ थी! अमित के साथ जो बीती . . .”
“वो अब बीती। तेरे साथ जो बीती, वो तो हफ़्ता पहले बीती! करता कुछ!”
“क्या करता, यार?” — अरमान तनिक चिढ़ कर बोला — “मैं कोई जासूस हूँ! कोई ऐसी पड़ताल का तजुर्बा रखने वाला पुलिसिया हूँ! उस औरत की सूरत भी देखी होती तो कोई बात थी!”
“सूरत के अलावा, और भी बातें होती हैं जिनसे बन्दा पहचाना जाता है — जैसे कद-काठ, चाल-ढाल . . .”
“बन्दा पहचाना जाता है, बन्दी नहीं पहचानती जाती।”
“क्या बोला?”
“मेरी उम्र में तमाम हसीन, बढि़या बनी हुई औरतें एक जैसी लगती हैं। जिस बहन की दीनी की फिगर अड़तीस-पच्चीस-अड़तीस हो, उसकी कोई सूरत देखता है! वो भी अन्धेरे में! वो भी अन्धेरे में उसका भोग लगाते वक्त!”
“तेरी माया तू जाने। ये जस्से के शौक नहीं।”
“तू समझता है कि मैं कोशिश करता तो उस औरत का मॉडल टाउन में कोई अता पता निकाल सकता था! चल, मेरी नालायकी है मैंने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। तू तो लायक है! तू कर कोशिश!”
“अभी तो तू ही कर, काके . . .”
“मैं करूँ?”
“. . . मेरे पास बहुत काम हैं। गोयल साहब को मेरे से बहुत उम्मीदें हैं, मैंने उनकी उम्मीदों पर खरा उतर कर दिखाना है।”
“दिखाना। लेकिन तू ये क्यों भूलता है कि जिस काम का तू हवाला दे रहा है, ये भी उसी की एक्सटेंशन है।”
“फिर भी . . . अभी तो तू ही कुछ कर, काके, क्योंकि अभी कोई एक्सटेंशन मेरा निशाना नहीं, अभी मैं मेन लाइन पर ही रहना चाहता हूँ।”
अरमान ने गिला करती निगाह जस्से पर डाली।
“ऐसे न देख मुझे। बात को समझ। बात के मर्म को समझ। फिर ये न भूल कि मॉडल टाउन तेरा देखा भाला, जाँचा परखा इलाका है जब कि मैं उस इलाके से, वहाँ के बाशिन्दों से मामूली तौर पर भी वाकिफ नहीं। काके, कोशिश करेगा तो इस मामले में तू कुछ कर गुजरेगा।”
“अच्छा!”
“हाँ।”
“ठीक है, करता हूँ कुछ।”
“जीता रह। अब तू मतलब की बात पर आ।”
“मतलब की बात!”
“ये बोल इतनी कथा तूने क्यों की? वो भी जस्से से! इतने खुफिया तरीके से! वारदात से इतने दिनों बाद! समझा?”
“नहीं, नहीं समझा! मोटी अक्ल है न मेरी!”
“मजाक न कर।”
“तो सुन! जो मादर . . . महरौली के खंडहरों में मेरे पर हावी हुआ था, साफ जाहिर था कि मेरे से अपनी सूरत छुपाने के लिये हाथ के हाथ उसने अपने मुँह पर फैंटम का मुखौटा लगा लिया था, और कोई तबदीली वो अपनी अपीयरेंस में नहीं लाया था, न खड़े पैर ला सकता था। ये भी जाहिर है कि वो महरौली के उस रेस्टोरेंट से ही मेरे पीछे लगा था, जिसमें मैं तफरीहन एक लड़की के साथ था।”
“वो लड़की कहाँ गयी?”
“कहीं न गयी। खंडहर में मेरे साथ थी। उसका भोग लगाने की गरज से ही मैं उसे खंडहर में ले के गया था . . .”
“क्या! दिन-दहाड़े!”
“हाँ, दिन-दहाड़े। अब ख़बरदार जो कोई कमेंट पास किया!”
“वो तैयार थी?”
“हाँ। तभी तो बिना हुज्जत किये खंडहर में मेरे साथ गयी। ऐसे मौकों पर थोड़ी बहुत नानुक्कर, नखरेबाजी लड़कियाँ करती ही हैं, लेकिन हामी उनकी बराबर होती है, जिन को तफरीह की ऐसी एक्सटेंशन कुबूल नहीं होती, उनको साथी के साथ तनहाई में जाना ही कुबूल नहीं होता।”
“ज्ञान न बघार, काके। मेरे को ये ज्ञान नहीं चाहिये। तू बोल, लड़की का क्या हुआ?”
“उसे उस शख़्स ने धमका कर, ख़ामोश रहने की वार्निंग देकर रुख़सत कर दिया।”
“फिर तेरे गले पड़ा?”
“हाँ। उसने . . .”
“काके, हम फिर असल बात से भटक रहे हैं। तू कह रहा था, उसने हाथ-के-हाथ मुँह पर मुखौटा लगाया था, बाकी कोई तब्दीली खुद में उसने नहीं की हो सकती थी। इससे आगे बोल।”
“उसकी मनहूस शक्ल के अलावा, जो मुझे मुखौटे की वजह से दिख नहीं रही थी, मुझे उसके बारे में सब याद है। उसका डील डौल, कद काठ, ख़ासतौर से उसकी उस वक्त की पोशाक।”
“क्या थी पोशाक? क्या पहने था?”
“वो कॉर्डरॉय की डार्क ब्राउन पैंट, लाइट ब्राउन, थ्री बटन कोट और मैचिंग ब्राउन शर्ट पहने था। उसके पैरों में चमड़े के ब्राउन जूते थे।”
“मैंने पकड़ा तेरा बयान जो तूने ख़ास शिद्दत से दिया। आगे बोल।”
“आजकल रेटिड रेस्टोरेंट्स में, जिनके पास लिकर लाइसेंस भी हो, सीसीटीवी सिस्टम लगाया जाना मैंडेट्री है। मैंने कोई कैमरा देखा तो नहीं था लेकिन मुझे यकीन है कि वहाँ होगा जरूर।”
“तेरे महरौली वाले रेस्टोरेंट में?”
“हाँ।”
“जिसका नाम तूने अभी तक नहीं बोला।”
“सॉरी। लोटस पौंड।”
“कहाँ है महरौली में।”
“कुतुब के करीब ही है। अप्रोच रोड के सिरे पर उसकी डायरेक्शन का बहुत बड़ा बोर्ड लगा है।”
“ठीक। तेरा सीसीटीवी कैमरों पर जोर है। तू ये कहना चाहता है कि उनमें तेरे हमलावर का अक्स आया हो सकता है!”
“मेरे को पूरा यकीन है कि मेरे पर निगाह रखने के लिये वो ‘लोटस पौंड’ में था, मेरे पीछे लगा ही वहाँ पहुँचा था और वहीं से मुझे फॉलो करता करीबी उजाड़ खंडहर में पहुँचा था। जस्से, अगर तू उस रेस्टोरेंट की इक्कीस तारीख़ की सीसीटीवी फुटेज को स्कैन करने की जुगत कर सके तो हमें मालूम हो सकता है उस माँ के दीने की सूरत कैसी थी?”
“बशर्ते कि उस जैसी पोशक वाले वहाँ और लोग भी मौजूद न हों!”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“क्यों नहीं हो सकता? जैसी ब्राउन ड्रैस तूने बयान की है, उसमें खास क्या है? हट के क्या है? बहुत कॉमन है वो।”
“ठीक। ठीक। लेकिन वैसी ड्रैस पहने कोई दूसरा — तीसरा — वहाँ हुआ भी तो जरूरी तो नहीं उसकी उम्र और कद-काठ भी मेरे हमलावर जैसा हो!”
“ठीक है, मैं समझ गया तेरी बात। मैं वहाँ से इक्कीस नवम्बर गुरुवार दोपहर के आस-पास की फुटेज निकलवाऊंगा।”
“वो लोग कोऑपरेट करेंगे?”
“आसानी से तो नहीं करेंगे!”
“क्या करेगा?”
“साँप छोड़ दूँगा। दोबारा कोई मूतने नहीं जायेगा लोटस वाले पौंड में। जहाँ साँप निकल आये, वहाँ कौन दोबारा कदम रखेगा! हर कस्टमर यही सोचेगा कि एक दिखाई दिया था, और भी हो सकते थे। कौन जायेगा फिर वहाँ! भाँ-भाँ कर रहा होगा ठीया अगले ही रोज से। फिर कुतुब के आसपास रेस्टोरेंट्स का घाटा है कोई! साली एक ईंट उखाड़ो तीन निकलते हैं।”
अरमान ने मन्त्रमुग्ध भाव से उसकी तरफ देखा।
“मुझे उम्मीद है मैनेजर पर मेरी धमकी कारगर होगी।”
“उसने पुलिस बुला ली तो?”
“बुला ले। सात जन्म साबित नहीं कर पायेगा कि जस्से ने ऐसी कोई धमकी उसे दी थी।”
“ओह!”
“साँप पकड़ना पुलिस का काम नहीं, काके।”
“जस्सों को पकड़ना पुलिस का काम है।”
“पकड़ें। उनके हाथ में ताकत है, पकड़ सकते हैं लेकिन पकड़े रखकर दिखायें।”
“ठीक!”
“फिर मदारी के झोले में कोई एक ही ट्रिक नहीं होती! ऐसे बहुत करतब आते हैं मेरे को जो ढिठाई दिखाते लोगों को कोऑपरेट करने पर मजबूर कर सकते हैं।”
“कैसे सीखे? कहाँ से सीखे?”
“सीखे कहीं से! वक्त सब सिखा देता है। ऐसे ही तो गोयल साहब का ट्रबलशूटर नहीं हूँ। वो भी एक दो साल से नहीं, चौदह साल से। आज तक तो हुआ नहीं कि बॉस की कोई ट्रबल जस्सा न शूट कर सका हो।”
“गुड! तू जरूर कुछ कर गुजरेगा।”
“तेरी बात ख़त्म हो गयी?”
“अभी नहीं।”
“तो कर न ख़त्म! फालतू बातों में क्यों वक्त जाया कर रहा है?”
“जस्से, जैसे-जैसे जो-जो बीता, उससे साफ जाहिर है कि जो मेरा हमलावर था, उसी की करतूत अमित ने भुगती है इसलिये ये लाजमी है कि जैसे वो मेरी ताक में ‘लोटस पौंड’ में था, वैसे कल अमित की फिराक में ‘हाइड पार्क’ में था। ये अपने आप में हैरानी की बात है कि अमित वहाँ अकेला था।”
“क्यों हैरानी की बात है?”
“क्योंकि आज तक तो कभी ऐसा हुआ नहीं कि अमित को शाम की तफरीह के लिये लड़की सैट करने में कभी कोई दिक्कत पेश आयी हो!”
“फिर भी अकेला था?”
“न सिर्फ अकेला था, लगता है किसी साजिश के तहत अकेला था — ताकि वहाँ वो लड़की उससे चिपकाई जाती जिसने आखि़र उसका अंग-भंग किया। जस्से, इस लिहाज से मेरा हमलावर ‘हाइड पार्क’ की सीसीटीवी फुटेज में दिखाई देना चाहिये। साथ में उसकी कम्पैनियन भी। और साथ में वो कम्पैनियनलैस लड़की भी जो अमित के साथ चिपकी। अगर मेरा हमलावर वहाँ भी हुआ तो ये डबल कनफर्मेशन होगी कि उसकी सूरत कैसी है!”
“फिर दिल्ली की दो करोड़ की आबादी में आराम से हम उसे ढूँढ़ लेंगे!”
“पागल है तू। अरे, वो सूरत हमारी जानी-पहचानी निकल सकती है। हो सकता है उस सूरत से हम पहले से वाकिफ हों।”
“ओह! ओह!”
“फिर उसके साथ की औरत और उस लड़की की भी शिनाख़्त होगी। लड़की का तो कोई क्लू हमारे पास नहीं है लेकिन तेरी मानें तो औरत का तो है! वो मॉडल टाउन में कहीं रहती है, मॉडल टाउन की म्यूनीसिपल मार्केट के करीब कहीं रहती है। सीसीटीवी के जरिये हम उस औरत की शक्ल से वाकिफ हो पाये तो सोच, कितना आसान होगा उसे मॉडल टाउन में तलाश कर लेना! फिर जो उसका मर्द, वो मेरा हमलावर। फिर अपना जस्सा उसे काबू में करेगा और चुटकियों में उससे कबुलवा लेगा कि वो लड़की कौन थी, जिसने अमित की दुरगत की। नहीं?”
मशीनी अन्दाज से जस्से का सिर सहमति में हिला।
“काके” — फिर बोला — “तेरी बात, तेरी लॉजिक पसन्द आयी मुझे। मैं करता हूँ कुछ।”
“कुछ नहीं, जस्से, सब कुछ। और जल्दी। ये न भूल कि मुझे मिला के अभी तीन और जने हैं जो अमित वाले अंजाम को पहुँच सकते हैं।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं ऐसी नौबत नहीं आने दूँगा। पर, काके, आइन्दा दिनों में तेरा ख़बरदार रहना फिर भी जरूरी है। ख़बरदार हो और बाकी दो दोस्तों को भी ख़बरदार कर। तुम तीनों को — ख़ास तौर से तुझे, क्योंकि तू मेरे बॉस के जिगरी दोस्त का बेटा है इसलिये मुझे तेरी ज्यादा फिक्र है — आइन्दा दिनों में मौजमेले के लिये इधर-उधर भटकने के अपने शगल को लगाम देना होगा। नहीं?”
“हाँ।”
“रहेगा ख़बरदार?”
“हाँ। बहुत।”
“शाबाश!” — जस्सा उठ खड़ा हुआ — “जल्दी ही तेरे से मिलूँगा — किसी कारगर नतीजे के साथ मिलूँगा।”
मीटिंग बर्ख़ास्त हुई।
1 दिसम्बर-रविवार
“मैं उस्तरे से आजिज हूँ।”
वो सुबह का वो वक्त था, जबकि मुबारक अली का टैक्सी लेकर निकलने का टाइम अभी नहीं हुआ था। दोनों तिराहा बैरम ख़ान के करीब के विमल के पहले से जाने-पहचाने एक टी स्टाल में मौजूद थे और चाय और ऑमलेट नोश फरमा रहे थे।
“ये भी कोई हथियार हुआ! किसी के आगे उस्तरा चमकाओ तो अन्देशा होता है कहीं ये समझ ले हज्जाम है, हजामत बनाना माँगता है।”
मुबारक अली की हँसी छूट गयी।
“मजाख!” — वो बोला — “मजाख करता है, बाप।”
“नहीं। मैं बिल्कुल संजीदा हूँ। उस्तरा नहीं चलेगा। मजबूरी में चलाया बराबर लेकिन . . . बस, और नहीं।”
“तो?”
“मेरे को गन माँगता हूँ।”
“क्या, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, पिराब्लम है। तेलीवाड़े पहुँच।”
“गया था। पहली बार की तरह सदर वाले हुसैन साहब के हवाले की भी अब तनवीर अहमद को दरकार नहीं होती। दूसरी बार ही पुराने वाकिफ की तरह मिला था।”
“इस बार भाव खाया? न मिला?”
“हाँ। लेकिन और वजह से।”
“और वजह?”
“अल्लाह को प्यारा हो गया।”
“अरे! क्या हुआ?”
“वही हुआ जिसका पहली मुलाकात में ही मैंने अन्देशा जताया था। मैंने वार्न किया था उसे कि एक दिन अपनी तमाम होशियारियों और फन्देबाजियों के बावजूद वो अपने वकील का आफिस लगने वाले कमरे में ही अपने तमाम आड़े-तिरछे, उल्टे-सीधे चलने वाले हथियारों के बीच मरा पड़ा होगा। वही हुआ आखि़र।”
“कैसे जाना?”
“उसके बड़े लड़के इंजमाम ने जनवाया। आफिस में मरा पाया गया। कोई जरायमयेशा ग्राहक ही शूट कर गया। उसी गन से जो वो उससे खरीदने आया था। तनवीर अहमद की गन भी ले गया, जान भी ले गया।”
“अल्लाह!”
“अब वहाँ गैरकानूनी फायरआर्म्स की सेल का धन्धा बन्द है। फरजन्द कहता है कि वो धन्धा चलाना अब्बा के ही बस का था। खूब चाँदी काटी, आखि़र खुद कट लिया।”
“अफ़सोस!”
“अब गन का कोई इन्तजाम चाहिये मुझे। एक हाथ आयी थी लेकिन किसी काम की नहीं थी।”
“हाथ आयी थी! कैसे?”
विमल ने पिछले इतवार अपने साथ बीता रोडरेज का वाकया बयान किया।
“अल्लाह!” — मुबारक अली बोला —”नसीबमारे ने महज इसलिए तेरे पर गन तानी कि तेरी वजह से रेड लाइट जम्प न कर सका!”
“हाँ।” — विमल बोला — “और खुल्ली माँ बहन की गालियां दीं।”
“अल्लाह! क्या होगा इस नस्ल का!”
“एसीपी का बेटा होने की ऐंठ थी।”
“गोली चला देता?”
“क्या पता!”
“तूने पहले ही उसकी गन कब्जा ली।”
“हाँ।”
“उसी को कह रहा है किसी काम की नहीं थी?”
“हाँ। घोड़ा अटकता था, सेफ्टी कैच था ही नहीं, नाल में जंग लगा साफ दिखता था। पता नहीं बावक्तेजरूरत चलती भी थी या नहीं!”
“शायद डराने धमकाने के ही काम आती थी!”
“चैम्बर तो फुल था!”
“फिर भी!”
“हाँ, शायद। तो कर सकते हो कोई इन्तजाम?”
“करना ही पड़ेगा। तेरा हुक्म है तो . . .”
“दरख़्वास्त है।”
“. . . करना ही पड़ेगा।”
“जल्दी!”
“जल्दी। उस्तरे से किनारा तो नहीं कर लिया?”
“नहीं, अभी नहीं।”
“जब तक गन का इन्तजाम न हो जाये, करना भी नहीं।”
“ठीक!” — विमल ने एक बन्द लिफाफा उसके सामने रखा।
“ये क्या है?” — मुबारक अली की भवें उठीं।
“पचास हजार रुपये। घट बढ़ बाद में।”
“अरे, बाप, क्यों दाढ़ी मूत में धोयेला है?”
“ये जरूरी है।”
“क्यों जरूरी है? इधर रोकड़े का कोई, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तोड़ा है? साले पन्द्रह कमाने वाले हैं हवेली में। चौदह भांजे और पन्द्रहवाँ मामू।”
“अल्लाह बरकत में और इजाफा करे . . .”
“क्या! भांजों की तादाद बढ़े?”
“कमाई की बरकत में।”
“ओह! कमाई की बरकत में।”
“ये जरूरी है।” — विमल ने लिफाफा मुबारक अली की तरफ और आगे सरकाया — कहना मानो।”
“माना। अब तू मेरा कहना मान।”
“क्या करूँ?”
“इसे पास रख।” — मुबारक अली ने लिफाफा वापिस उसकी तरफ सरकाया — “जब कोई जुगाड़ हो जायेगा, कीमत मुकर्रर हो जायेगी — बल्कि अदा हो जायेगी — तो ले लूँगा।”
“वादा?”
“पक्का।”
“वैसे इतने में काम हो जायेगा?”
“तनवीर अहमद से कितने में होता था?”
“चालीस में।”
“हो जायेगा।”
“गन चाक चौबन्द लेकिन चोरी की।”
“चोरी की तो होगी ही! लाखों का माल हजारों में चोरी का ही होगा तो मिलेगा न!”
“दुरुस्त।”
“अलबत्ता चाक चौबन्द जो तू बोला, वो यकीनन होगी।”
“बढि़या।”
“अब एक ख़ास बात सुन।”
“सुन रहा हूँ।”
“हैरान होगा सुन कर।”
“क्या बात है ऐसी?”
“अल्तमश की बड़े काम की फीस दस हजार मुकरर्र हुई थी। नहीं?”
“हाँ। मैंने परसों रात ही उसे रकम अदा करने की कोशिश की थी लेकिन उसने ये कह के टाल दिया था कि बड़े मियाँ से लेगा।”
“मेरे से नहीं ली उसने।”
“मिला था?”
“हाँ। कल मैंने ही बुलाया था ख़ैरियत जानने के लिये। बाप, बहुत जिद की पर उसने रोकड़ा कुबूल नहीं किया।”
“क्यों?”
“कोई वजह न बोली। मैंने जिद की तो बोला तेरे को वजह मालूम है।” — मुबारक अली ने अपलक विमल की तरफ देखा — “मालूम है?”
“है तो सही!” — विमल दबे स्वर में बोला।
“क्या है वजह?”
“वजह ये जान के समझ जाओगे, मियाँ, कि उसने वो हजार रूपये भी लौटा दिये हैं जो पिछले इतवार को तुमने उसको दिये थे।”
“क्या!”
“हाँ। अब ये तो रखो।” — विमल ने उसे पाँच-पाँच सौ के दो नोट थमाये — “ये तो तुम्हारे ही हैं। बल्कि तुम्हारे वाले ही हैं।”
“कमाल है! क्या जादू कर देता है, बाप!”
“मैं एक प्याली चाय और पिऊँगा।”
“बात बदल रहा है लेकिन . . . खैर।”
मुबारक अली के आदेश पर उन्हें तत्काल दो चाय सर्व हुईं।
“मुझे एक फिक्र सता रही है।” — एकाएक मुबारक अली दबे स्वर में बोला।
विमल ने सवालिया निगाह उस पर डाली।
“हाशमी कहता है कि महरौली वाले रेस्टोरेंट में तेरा अपनी शक्ल की नुमायश कर के आना ठीक नहीं था। हाशमी पढ़ा लिखा है, दानिशमन्द है, वो जानता है ऐसी जगहों पर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, निगाह की बीनी के लिये खुफिया करके कैमरे लगे होते हैं। तेरे मुख़ालिफों में से किसी को उन कैमरों का ख़याल आ सकता है, फिर उनकी अहमियत सूझ सकती है।”
“किसी को मेरी क्या ख़बर?”
“वो छोकरा देगा न ख़बर जिसको तूने होटल के करीब के खंडहर में थामा था! इतना भी तो अक्ल से पैदल नहीं होगा कि उसे न सूझे कि तू उस रेस्टोरेंट में उसको निगाह से बीनने के लिये मौजूद था और वहीं से उसके पीछे लगा था!”
“रेस्टोरेंट में मैं गागल्स लगाये था।”
“क्या लगाये था?”
“धूप का चश्मा। बड़े-बड़े शीशों वाला।”
“उससे चेहरा छुप जाता है?”
“फर्क तो पड़ता है!”
“फर्क पड़ जाना काफी होता है?”
“काफी तो नहीं होता, फिर भी . . .”
“क्या फिर भी?”
“तुम अपनी बात कहो, मियाँ।”
“तू कहता है किसी को तेरी क्या ख़बर! मैं कहता हूँ उस छोकरे को ख़बर जिसको तूने रेस्टोरेंट के करीब के खंडहर में थामा था। ख़ाली थोबड़ा ही तो न देखा न उसने तेरा नकाब की वजह से! बाकी तो सब कुछ देखा न! या खंडहर में नकाब की तरह लबादा भी पहने था?”
विमल ने चिन्तित भाव से इंकार में सिर हिलाया।
“अगर उस छोकरे को रेस्टोरेंट के खुफिया कैमरों का ख़याल आया और उसे उन का करतब देखने का मौका मिला तो कैमरों की जद में आया तू भी तो उसे दिखाई देगा! फिर वो भले ही गारन्टी से कुछ न कह सके, कोई पुख्ता अन्दाज तो लगा सकेगा या वो भी नहीं कि खंडहर में उसका हमलावर कौन था!”
“रेस्टोरेंट की उस रोज की सीसीटीवी फुटेज उसे कौन देखने देगा?”
“क्या कौन देखने देगा?”
“खुफिया कैमरों का कारनामा उसे कौन देखने देगा?”
“बाल की खाल मत निकाल, बाप, बात का मतलब समझ।”
विमल ने कई क्षण जवाब न दिया, फिर संजीदगी से बोला — “वो मेरी मजबूरी थी, बल्कि गलती थी। मैंने . . . तू ईस्सा भाई विगवाला को जानता है?”
“जानता हूँ। तेरे ही बताये जानता हूँ। बड़ा मशहूरोमाहरूफ मेकअप मास्टर है मुम्बई का, इब्राहीम कालिया की नवाजिश से जिसका तू वाकिफ बना था।”
“वही। मैंने उसे हाल में कई तरह के मेकअप के सामान का ऑर्डर दिया था, जो कि उसने मुझे यहाँ दिल्ली में भेजना था। उस छोकरे के पीछे पड़ने के अभियान को मुझे तब तक मुल्तवी करके रखना चाहिये था, जब तक कि वो सामान मुझे डिलीवर न हो जाता। मुझे वो सब एक ही दिन के लिये मुल्तवी करना पड़ना था, क्योंकि अगले दिन तो ईस्सा भाई का भेजा पार्सल मुझे मिल ही गया था। गलती हुई बराबर वो मेरे से।”
“अब अपने वाहेगुरु से दुआ माँग कि उस गलती का ख़ामियाजा न तेरे गले पड़े।”
विमल ने सहमति से सिर हिलाया।
“ईस्सा भाई का भेजा शीराजा तुझे मिल गया था तो आइन्दा तो तूने एहतियात बरती थी?”
“हाँ। ‘हाइड पार्क’ में मैं हुलिया बदल के गया था। नीलम भी। और अल्तमश तो हुलिया बदलने के नाम पर अपना कायापलट ही कर लेता है। उसे देख कर कोई सात जन्म नहीं कह सकता था कि वो किसी ख़ानदानी लड़की को नहीं देख रहा था।”
“तू खुद ही कहाँ कह सका था! उसने जनाना मेकअप उतारा था तो तू भौंचक्का था। मुझे याद है तेरी कमरा बंगश वाली शक्ल।”
विमल हँसा।
“आइन्दा एहतियात बरतेगा?”
“ये भी कोई कहने की बात है! ईस्सा भाई के सदके अब मेरे पास एक-दो नहीं, दस रूप बदलने का इन्तजाम है।”
“पीछे कोई अन्देशा नहीं?”
“जैसे हाशमी कहता है, वैसे है तो सही छोटा-मोटा लेकिन . . . देखेंगे।”
“उस छोकरे की ख़बर आखि़र में लेने वाली बात भी मेरे को कोई ख़ास नहीं जंची। दुश्मन तो दुश्मन है। कोई पहले क्या, कोई बाद में क्या?”
“मुझे तुम्हारी बात से पूरा इत्तफाक है, मियाँ, लेकिन उस वक्त माहौल ही ऐसा बन गया था कि जोश में मैंने वो घोषणा कर डाली।”
“अरे, दफान कर अपनी घो -- घो . . . अपने ऐलान को।”
“नहीं, अब जो बोल दिया, सो बोल दिया। उस धृष्ट, गुस्ताख़, बिगड़ैल छोकरे से मुझे वैसे ही खुन्दक है। कार की रांग पार्किंग की शिकायत करने मैं उन के घर गया था तो बाप से ज्यादा बद्तमीजी से मेरे से वो पेश आया था।”
“वो छोड़। आजकल के बड़े घरों के सारे ही छोकरे ऐसे हैं कम्बख़्तमारे। अब ये बोल कि आगे तेरा क्या पिरोगराम है?”
“ ‘गोल्डन गेट’ का चक्कर लगाने का प्रोग्राम है।”
“कौन सा गेट?”
विमल ने बताया।
“मियाँ, ऐसा लगने की कोई वजह नुमायां नहीं है” — फिर बोला — लेकिन न जाने क्यों मुझे लगता है कि उस रेस्टोरेंट में कोई भेद है।”
“कैसा भेद?”
“पता नहीं। बात मामूली है लेकिन फिर खटकती भी है। क्यों फैक्ट्री का तीसरा पार्टनर, जो कहीं बाहर से है, अपने बाकी दो पार्टनरों से अपनी फैक्ट्री में जाकर मिलने की जगह बगल के रेस्टोरेंट में मिला!”
“जवाब तूने खुद दे लिया। क्योंकि रेस्टोरेंट बगल में था। इसलिये सहूलियत का ठिकाना था।”
“ठीक! ठीक! लेकिन पहले फैक्ट्री में जाता, फिर रेस्टोरेंट में पार्टनर्स से मीटिंग करता तो बात समझ में आती थी। फैक्ट्री में तो वो गया ही नहीं . . .”
“एक बार . . . एक बार नहीं गया न!”
“एक बार इसलिये क्योंकि उस एक बार — बकौल अतिवाचाल फैक्ट्री गार्ड जिससे मैंने जानकारी निकलवायी — उस गार्ड ने सुना था कि बाजू के रेस्टोरेंट में मिले थे सब लोग। कहाँ मिले थे? बाजू ने रेस्टोरेंट में। ‘गोल्डन गेट’ में वर्ना, फिर बकौल गार्ड, वो पाटर्नर साहब लोगों से मिलकर बाहरोबाहर ही चला जाता था। क्या समझे?”
मुबारक अली ख़ामोश रहा।
“तुम अपना तसव्वुर किसी ऐसे कारोबार के पार्टनर के तौर पर करो जो कि यहाँ से आठ सौ मील के फासले पर है।”
“किया।”
“अब बोलो, इतने फासले पर वाकया कारोबार के मुकाम पर कोई हर तीसरे-चौथे दिन पहुँच जाता होगा?”
मुबारक अली का सिर स्वयंमेव इंकार में हिला।
“कभी-कभी पहुँचने वाला शख़्स क्या अपने कारोबार के मुकाम पर कदम नहीं रखना चाहेगा? नहीं जानना चाहेगा कि सब ठीक से चल रहा था या नहीं? सब चौकस था या नहीं?”
“चाहेगा।”
“उस परदेसी पार्टनर ने तो ऐसा न किया!”
“किया न! तेरे गोल्डन कर के गेट में गया न!”
विमल सकपकाया, उसने अपलक मुबारक अली को देखा।
“बात को समझ, बाप!” — मुबारक अली धीरे से बोला।
“गोल्डन गेट भी उन लोगों की मिल्कियत!-” — विमल मन्त्रमुग्ध भाव से बोला — “वो गोल्डन गेट में पार्टनर।”
“या मालिक।”
विमल फिर सकपकाया।
“क्या नहीं हो सकता?”
“बहुत दूर की सूझी, बड़े मियाँ! लिहाजा निकला न रेस्टोरेंट में भेद!”
“अगरचे कि जो मुझे सूझी, उसमें दम निकले। ऐसे तीरों के तुक्का साबित होते देर नहीं लगती।”
“देखेंगे।”
“यानी जायेगा जरूर?”
“एक फेरा लगाने में क्या हर्ज है! कुछ न हाथ आया तो समझेंगे मियाँ बीवी की एक शाम की पिकनिक हुई।”
“अच्छा!”
“हाँ।”
“ठीक है, जाना। पर एक बात मेरी मान।”
“क्या बात?”
“एक भांजे को साथ ले के जाना।”
“वो किसलिये?”
“कोई वजह नहीं। तू भी तो बेवजह वो कदम उठायेगा! एक बेवजह काम मेरी वजह से सही।”
“मियाँ, वो जगह रेस्टोबार हैं, डिस्को है, नाइट क्लब है . . .”
“बोला तू। तभी तो भांजे का बोला। मैं ऐसी जगह खप नहीं पाऊँगा वर्ना मैं साथ चलता।”
“वहाँ भी वसन्त कुंज के ‘हाइड पार्क’ वाले कायदे कानून लागू हो सकते हैं। मैं तो बीवी के साथ जाऊँगा, जिस भांजे को साथ भेजोगे, वो भी बीवी के साथ होगा?”
“ये तो नहीं हो सकता! अभी कुछ ही भांजे शादीशुदा हैं और उन सबकी बीवियाँ पर्दानशीं हैं।”
“मेरा भी यही ख़याल था। तो?”
मुबारक अली ने ‘तो’ पर विचार किया।
“अल्तमश!” — फिर तमक कर बोला।
“क्या!”
“अल्तमश। भांजे के साथ मीशा।”
“भांजा कौन?”
“बोलूँगा।”
जसबीर सिंह जस्सा मोना सिख था, मलेरकोटला का रहने वाला था, लेकिन किशोरावस्था से घर से भागा हुआ था। दिल्ली आकर पेट भरने के लिये शायद ही कोई काम होगा, जो उसने न किया। उठाईगीरा बना, जेबें काटीं, चोरियाँ की, सालों पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन को अपना बसेरा बनाये रहा, आखि़र तरक्की की और कार थीफ बन गया। उस कारोबार का उसे इतना तजुर्बा हुआ कि कैसी भी कार हो, उसका ताला खोल लेता था, इग्नीशन आन कर लेता था। कमाई कोई ज्यादा नहीं थी लेकिन कम भी नहीं थी। हर महीने चालीस से पचास हजार तक मजे से कमा लेता था। अपना काम इतनी न फ़ासत और एहतियात से करता था कि कभी पकड़ा नहीं गया था।
वो छब्बीस साल का था जब कि उसने अपने जैसे ही एक साथी के साथ एक नयी नकोर होंडा सिटी चुराई थी जिसे वो सुबह पाँच बजे बागपत ले जा रहे थे, जहाँ कि उसे डिलीवर किया जाना था, कि रास्ते में गम्भीर एक्सीडेंट हो गया था। एक भड़की हुई गाय एकाएक सड़क के साथ-साथ उगी झाडि़यों में से निकली थी और रफ्तार से दौड़ती उनकी कार के सामने आ गयी थी। उसने भरपूर ब्रेक लगाई, लेकिन कार पूरे वेग के साथ गाय से टकराने से नहीं बच पायी थी। साथी सीट बैल्ट नहीं लगाये था इसलिये एक्सीडेंट के भीषण इम्पैक्ट के तौर पर कार की विंडस्क्रीन तोड़ता बाहर जा कर गिरा था और कार के नीचे आ गया था।
कार, जो उसके कंट्रोल से निकल गयी थी, पहले एक पेड़ से टकराई थी, फिर सड़क के किनारे-किनारे विपरीत दिशा में जाते एक राहगीर पर चढ़ गयी थी।
सीट बैल्ट की वजह से खुद जस्सा वैसे अंजाम से तो बच गया था लेकिन पता नहीं क्या हुआ था कि सीट बैल्ट खुल गयी थी, इम्पैक्ट से उसकी ओर का दरवाजा खुल गया था और इम्पैक्ट के बाद धीमी पड़ती कार से वो बाहर जाकर गिरा था।
दूसरी तरफ से एक ऑडी आ रही थी, जिसके पैसेंजर्स ने वो सब नजारा किया था।
वैसे सड़क सुनसान थी।
ऑडी के आगे से ड्राइवर और पीछे से पैसेंजर ने — जो उसे बाद में मालूम हुआ था कि कार का मालिक था — कार से निकल कर उसे उठाया था, उसका मुआयना किया था तो पाया था कि उसे मामूली चोटें लगी थीं, कोई हड्डी नहीं टूटी थी, कोई चोट इतनी गम्भीर नहीं थी कि डॉक्टरी इमदाद की फौरन जरूरत होती।
पैसेंजर के इशारे पर ड्राइवर ने कार के नीचे आये दोनों जनों का मुआयना किया, फिर मालिक को बताया कि दोनों ख़त्म थे।
फिर पैसेंजर उससे मुखातिब हुआ।
“ख़ुशकिस्मत हो” — वो बोला — बच गये।”
जस्से ने कराहते हुए हामी भरी।
“तुम्हारा साथी . . . गया।”
जस्से के चेहरे पर अवसाद के भाव आये।
“राहगीर भी।”
जस्सा ख़ामोश रहा।
“दो जानें . . . तुम्हारी वजह से गयीं।”
“मेरी कोई गलती नहीं थी। एकाएक वो गाय आगे आ गयी . . .”
“देखा मैंने। शूट भी किया।”
“जी!”
“भई, तमाम वाकया अपने मोबाइल के कैमरे पर रिकार्ड किया।”
“क्यों?”
“कार अपनी है?”
“हाँ।”
“नाम?”
“रमेश।”
“ड्राइविंग लाइसेंस दिखा।”
“नहीं है।”
“आइडेन्टिटी का कोई जरिया?”
“क्या?”
“अरे, कोई कागज-पत्तर है, जो साबित करे की तू रमेश है।”
“नहीं है।”
“ऐसे ही कार चलाता है?”
जस्सा ख़ामोश रहा।
पैसेंजर ने ड्राइवर को इशारा किया।
ड्राइवर जस्से से डबल नहीं तो डेढ़ गुणा तो यकीनन था। बड़े आराम से उसने जस्से को अपने काबू में कर लिया। एक्सीडेंट से थर्राया हुआ और चोटिल जस्सा उसका विरोध न कर सका। ड्राइवर ने उसकी जेब से उसका बटुवा बरामद किया और उसे टटोला।
“ड्राइविंग लाइसेंस है, साबजी।” — वो पैसेंजर से बोला — “लेकिन जसबीर सिंह जस्सा के नाम का। मलेरकोटला, पंजाब से जारी। फोटो इसी की है।”
“हूँ। गाड़ी में देख।”
ड्राइवर ने होंडा सिटी के ग्लव कम्पार्टमेंट से गाड़ी के कागजात बरामद किये, उनका मुआयना किया फिर पैसेंजर को बताया कि सब — आर सी, इन्श्योरेंस, ख़रीद की रसीद — मानक लाल जयपुरिया के नाम थे।
“हूँ।” — पैसेंजर फिर जस्से से मुख़ातिब हुआ — “चोरी की है?”
जस्सा परे देखने लगा।
“जवाब दे।” — पैसेंजर सख़्ती से बोला — “झूठ बोलेगा तो घाटे में रहेगा।”
“जी!”
“गम्भीर एक्सीडेंट किया, चोरी की कार से किया, दो आदमियों की मौत की वजह बना . . .”
“मेरी कोई गलती नहीं थी। वो भड़की हुई गाय . . .”
“बोलना पुलिस को।”
“पु . . . पुलिस को!”
“गाय की गवाही भी दिलाना। शायद बच जाओ।”
“आ-आप क-क्या चाहते हैं?”
“जवाब चाहता हूँ। कार चोरी की है?”
“ह-हाँ।”
“दिल्ली से चुराई?”
“हाँ।”
“कहाँ ले जा रहा था?”
“बागपत।”
“मेन रोड क्यों छोड़ी?”
“जहाँ मैंने कार पहुँचानी है, वहाँ के लिये ये शॉर्टकट है।”
“ओह! शॉर्टकट पकड़ा!”
“आपने भी तो . . .”
“नहीं, हमने नहीं। हम रास्ता भटक गये। भटक कर इस सड़क पर निकल आये।”
“ओह!”
“कार पहुँचानी है बोला। यानी ग्राहक तलाश कर भी लिया चोरी की कार का?”
“वो बात नहीं।”
“तो!”
“मैं सिर्फ कार उठाता हूँ। चोरी की कार को खुद ठिकाने लगाने लायक मेरी सलाहियात नहीं हैं।”
“यानी कार ठिकाने कोई दूसरा लगाता है?”
“हाँ।”
“क्योंकि उसकी ऐसी सलाहियात हैं! तेरी नहीं हैं!”
“हाँ।”
“तुझे क्या मिलता है?”
“कमीशन।”
“कितना?”
“पाँच से पन्द्रह हजार तक।”
“इसका — होंडा सिटी का — क्या मिलेगा?”
“दस।”
“दो जनों का?”
“मेरा साथी बस साथी था। साथ के लिये साथ था। शाम को बोतल मुर्गी से ही ख़ुश हो जाता।”
“दस हजार कोई ज्यादा उजरत तो नहीं!”
“काम के मुताबिक ठीक है। मेरा रिस्क कम है, मेरा दखल कम है। कार को एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट ही तो करना होता है, बस!”
“कभी पकड़ा नहीं गया?”
“नहीं।”
“कभी किसी रोड ब्लॉक पर चैकिंग नहीं हुई?”
“मैं रोड ब्लॉक वाले रास्तों से गुजरता ही नहीं। इसी वजह से तो अभी भी मेन रोड से परहेज किया।”
“ओह!”
“जनाब, आप इतने सवाल क्यों पूछ रहे हैं?”
“अरे, सोच रहे हैं तेरी कोई मदद कर दें।”
“मदद!”
“पसन्द आया तू हमें, इसलिये।”
“लेकिन मदद!”
“हाँ।”
“कैसे?”
“अभी सामने आता है कैसे?”
उसने ड्राइवर को इशारा किया।
ड्राइवर शायद मालिक के हर मिजाज को, हर इशारे को समझता था। कोई सवाल किये बिना उसने कार के भीतर और बाहर उस जगह पर पैट्रोल से भीगा एक कपड़ा रगड़ा जहाँ कि जस्से के फिंगरप्रिंट्स छुटे हो सकते थे। फिर उसने टूटने से बच गया विंडस्क्रीन का स्टियरिंग साइड का हिस्सा भी तोड़ दिया और कार से परे हट गया।
“कुछ समझ में आया?”
जस्से ने इंकार में सिर हिलाया।
“कार तेरा साथी चला रहा था, जिसने कि एक्सीडेंट किया, एक बन्दा मार दिया और खुद भी मर गया।”
“ल-लेकिन . . .”
“क्या लेकिन?”
“आपके ड्राइवर ने स्टियरिंग वगैरह से मेरी उँगलियों के निशान पोंछे, आखि़र मेरी समझ में आया कि ऐसा क्यों किया लेकिन अगर कार मेरा साथी चला रहा था तो उसकी उँगलियों के निशान भी तो स्टियरिंग पर होने चाहियें!”
“गुड प्वायन्ट। सयाना आदमी है। पसन्द आया मुझे।”
उसने फिर ड्राइवर को इशारा किया।
ड्राइवर कॉटन के ड्राइविंग ग्लवज पहने था। जस्से के देखते-देखते उसने दस्ताने उतारे और झुक कर होंडा सिटी के नीचे हाथ डालकर दस्ताने उसके साथी के हाथों में सरका दिये।
“कार तेरा साथी चला रहा था।” — पैसेंजर बोला — “कार में वो अकेला था। तेरे पर कोई केस नहीं।”
जस्से के चेहरे पर रौनक आयी।
“लेकिन” — फिर सशंक भाव से बोला — “आपके मोबाइल में वो . . . वो एक्सीडेंट का शूट!”
“वो हमारे पास है न! पुलिस के पास तो नहीं है न!”
“पहुँच तो सकता है!”
“मूर्खों जैसी बातें कर रहा है। ऐसा होना होता तो हम तेरे साथ यहाँ अपना वक्त जाया कर रहे होते!”
“वो तो ठीक है लेकिन अगर आप इरेज कर देते तो . . .”
“कर देंगे।”
“आपने एक्सीडेंट देखा। मेरे को देखा। आपके ड्राइवर ने भी सब देखा। आप लोग किसी को कुछ नहीं बोलेंगे?”
“मूर्ख! हमने कुछ बोलना होता तो यहाँ तेरे बचाव का इन्तजाम कर रहे होते? हमारा ड्राइवर एक्सीडेंट में तेरी हाजिरी के सबूत मिटा रहा होता?”
जस्से के मुँह से बोल न फूटा, उसने नर्वस भाव से होंठों पर जुबान फेरी।
“अब ठण्डे-ठण्डे घर जा। जो हुआ उस बाबत तेरे से सवाल होने की कोई नौबत नहीं आयेगी। किसी दूर-दराज तरीके से आ भी जाये तो बोलना घर पर था, नींद के हवाले था। बीवी से तसदीक कराना।”
“बीवी नहीं है। अकेला रहता हूँ।”
“कोई बात नहीं। मुझे उम्मीद नहीं कि तेरे से कोई सवाल होगा। तेरी कहीं हाजिरी ही नहीं है तो सवाल कैसे होगा!”
“मैं . . . मैं आप के अहसान का बदला कैसे चुकाऊंगा?”
“बोलेंगे। नाशुक्रा तो नहीं है न?”
“नहीं।” — जस्से के स्वर में दृढ़ता का पुट आया — “हरगिज नहीं।”
“गुड! मेरा यही कयास था।” — पैसेंजर ने जेब से निकाल कर उसे एक विजिटिंग कार्ड दिया — “इस पर मेरा पता है। जब मामला ठण्डा पड़ जाये तो आकर मिलना।”
जस्से ने सहमति में सिर हिलाया।
“मेन रोड यहाँ से दूर नहीं है। लौटने के लिये वहाँ से तुम्हें जरूर कोई सवारी मिल जायेगी। कोई बस, कोई टैम्पो, कोई लिफ्ट। नहीं?”
“हाँ। जी हाँ।”
दोनों वापिस ऑडी में सवार हुए। ऑडी वहाँ से रुख़सत हो गयी।
तब तक वातावरण में भोर का उजाला फैलने लगा था।
जस्से ने कॉर्ड पर निगाह डाली। लिखा था:
रघुनाथ गोयल, टिम्बर मर्चेंट।
घर का पता ईस्ट-ऑफ-कैलाश का।
व्यापारिक पता पहाड़गंज।
चार दिन बाद एक सुबह वो डरता झिझकता ईस्ट-ऑफ-कैलाश पहुँचा और लाला रघुनाथ गोयल से मिला। लाला उसके साथ ऐसी मुहब्बत से पेश आया कि पहली मुलाकात से ही वो उस का मुरीद बन गया। तब का दिन था और आज का दिन था, वो रघुनाथ गोयल के साथ था — उसका ऑड जॉब मैन, जनरल हैण्डीमैन, ट्रबलशूटर, पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर सब कुछ था — और उसकी छत्रछाया में वो पूरी तरह से सन्तुष्ट था। वहाँ इज्जत थी, पैसा था, हैसियत थी; कार चोर का क्या भविष्य था? आज नहीं तो कल पकड़ा जाता। उस धन्धे से असली पैसा तो वो कमाते थे जो कार को आगे निपटा सकते थे, जिनके रातोंरात कार को निपटा देने के साधन थे, उसे तो चिडि़या का चुग्गा ही मिलना था, लेकिन तब वो भी उसे बहुत लगता था। अपनी ख़ूबियाँ तो उसने तब पहचानी जब वो लाला की छत्रछाया में आया। आज चौदह साल उस जुगलबन्दी को हो गये थे और कभी एक बार भी उसे अपनी जिन्दगी से कोई शिकायत नहीं हुई थी। लाला उस पर इतना मेहरबान था कि जुगलबन्दी के दो साल बाद ही उसने उसे नयी ‘सान्त्रे’ कार ले दी थी — जिसे वो अब तक दो बार बदल चुका था, अब लाला की ही नवाजिश से उसके पास ‘वैगन-आर’ थी — और दो साल बाद उसे मयूर विहार फेज टू में एक दो कमरों का फ्लैट ले दिया था। जिन्दगी चैन से — बल्कि ऐश से — कट रही थी। और क्या चाहिये था एक अकेले आदमी को जो कभी ख़ाली जेब, ख़ाली पेट घर से भागकर दिल्ली पहुँचा था और ओल्ड दिल्ली स्टेशन के रेलवे यार्ड में रात बसर करता था। लाला की नवाजिशों की वजह से वो उसका इतना अहसानमन्द था कि रेल से कट जा, दरिया में डूब जा, पैट्रोल से नहा कर खुद को माचिस दिखा दे जैसा भी कोई हुक्म होता तो वो बाख़ुशी उसकी तामील करता। लाला के एक इशारे पर वो जान दे सकता था, जान ले सकता था।
ऐसा ही मुरीद था वो लाला रघुनाथ गोयल का।
किसी सीसीटीवी सिस्टम से कोई रिकार्डिंग निकलवाना तो बहुत मामूली काम था।
लेकिन जब उसको अंजाम देने की नौबत आयी तो पता लगा कि मामूली नहीं था।
कुतुब वाले रेस्टोरेंट ‘लोटस पौंड’ में तो उसकी धौंस पट्टी चल गयी, मैनेजर का इंकार तो वहाँ उसे सुनना पड़ा, लेकिन वो साँप वाली हूल की धौंस खा गया, उसने इक्कीस नवम्बर गुरुवार दोपहर के आसपास की सीसीटीवी रिकार्डिंग भी उसे दिखाई और उसकी फरमायश के मुताबिक उसके एक हिस्से की डीवीडी भी उसे सौंपी।
‘लोटस पौंड’ ज्यादातर ऐतिहासिक स्थलों पर उपलब्ध टूरिस्ट ट्रेड पर निर्भर करने वाला एक आम रेस्टोरेंट था, लेकिन वसन्त कुंज में ‘हाइड पार्क’ एक फूं फां वाला, हाई फाई थ्री-इन-वन — रेस्टोबार, डिस्को, नाइट क्लब — ठीया था जहाँ मैनेजर तक पहुँच बनाने में ही उसे आधा घंटा लग गया।
क्यों मिलना चाहते हो?
मैनेजर को बोलूँगा।
वेट करो।
कम-से-कम चार बार विभिन्न लोगों ने उससे सवाल किया कि वो क्यों मैनेजर से मिलना चाहता था। हर बार एक ही जवाब था — मैनेजर को बोलूँगा।
आखि़र उसे रेस्टोरेंट के पृष्ठ भाग में स्थित मैनेजर के केबिन में पहुँचाया गया।
मैनेजर एक कोई पचपन साल का सख़्त चेहरे वाला गंजेपन की ओर अग्रसर व्यक्ति निकला जो काले सूट में सजा तो खूब था लेकिन संभ्रान्तता पर उसका कोई दावा कतई नहीं जान पड़ता था।
शक्की निगाह से, जिसे कि उसने छुपाने की भी कोशिश न की, उसने सिर से पाँव तक जस्से का मुआयना किया।
“हो गयी?” — जस्सा सहज भाव से बोला।
“क्या?” — मैनेजर तनिक हड़बड़ाया।
“स्क्रीनिंग।”
“क्या मतलब?” — मैनेजर के नेत्र सिकुड़े।
“मैं यहाँ मुलाजमत ट्राई करने नहीं आया।”
“वो तो अच्छा ही किया। यहाँ कोई वेकेंसी नहीं है।”
“मैं मुलाजिम बनता नहीं हूँ, मुलाजिम रखता हूँ।”
“कौन हो, भई?”
“बैठ के बोलने पर पाबन्दी है?”
“क्या! ओह! सॉरी! बैठो। प्लीज।”
जस्सा उसके सामने एक विजिटर्स चेयर पर बैठा।
“अब बोलो . . . बोलिये” — इस बार मैनेजर कदरन नर्म, सभ्य लहजे से बोला — “क्यों मिलना चाहते थे मैनेजर से . . . जो कि मैं हूँ?”
“मेरा नाम जसबीर सिंह है, मैं दिल्ली के एक बड़े सेठ के बड़े कारोबार में उसका सिक्योरिटी चीफ़ हूँ। सेठ का लड़का यहाँ का रेगुलर है।”
“नाम!”
“अमित गोयल।”
“मैं इस नाम से वाकिफ नहीं। शायद हाल का सुपरवाइजरी स्टाफ वाकिफ हो। बात क्या है?”
“परसों रात उसके साथ एक बहुत बड़ा हादसा गुजरा जिसकी बुनियाद यहाँ बनी?”
“क्या हुआ?”
“अमित गोयल के पास अस्सी लाख के हीरे थे जिनकी यहाँ किसी को भनक लग गयी। कुछ लोग उससे चिपक गये, फिर उन्होंने उसे लूट लिया।”
“यहीं।”
“नहीं। बाहर। यहाँ से काफी दूर। ईस्ट-ऑफ-कैलाश में।”
“ओह! दैट्स गुड न्यूज।”
“क्या! हमारा बन्दा लुट गया, ये आपके लिये गुड न्यूज है?”
“अरे, भई, लूट का वो वाकया यहाँ हमारे रेस्टोबार में न हुआ, ये गुड न्यूज है। हमारे लिये।”
“ओह!”
“आगे बढ़ो।”
“अमित गोयल कहता है कि जो लोग यहाँ उससे चिपके थे, वो एक जोड़ा था, जिसके साथ एक नौजवान लड़की थी। अमित को सैट करने के लिये उन्होंने लड़की को हथियार बनाया। लड़की उसे भाव देने लगी, फिर भाव देती-देती चिपक ही गयी!”
“कैसे? अमित के साथ भी तो कम्पनी होगी!”
“वो अकेला था।”
“कब? कब की बात है ये?”
“रात नौ बजे के बाद की।”
“नहीं हो सकता। नौ बजे के बाद अकेले मेल गैस्ट की ऐन्ट्री यहाँ मना है।”
“मैंने बोला न, अमित यहाँ का रेगुलर है।”
“फिर भी . . .”
“उसकी कम्पनी बाद में पहुँचने वाली थी।”
“ओह! बाद में पहुँचने वाली थी। फिर तो किसी जाने-माने पैट्रन का ऐसा लिहाज यहाँ हो सकता है। तो उसकी कम्पनी बाद में पहुँची?”
“नहीं। पहुँची ही नहीं। कम्पनी ने उसे डिच किया। इसी वजह से अमित अकेला था। और इसी वजह से जोड़े के साथ की वही विदाउट कम्पैनियन लड़की उससे चिपकने में कामयाब हुई। सब एक साजिश के तहत हुआ। किसी तरह से उन्हें मालूम था कि अमित के पास बड़ा माल था जिसको काबू में करने के लिये उन्होंने साथ की विदाउट कम्पैनियन लड़की को बेट बनाया। तफरीह की कन्टीन्यूटी के तौर पर वो उसे ईस्ट-ऑफ-कैलाश की एक कोठी में ले गये जहाँ उन्होंने जबरन उसे लूट लिया। लड़के ने बचाव की कोशिश की तो उसके साथ फौजदारी की — आखि़र वो तीन जने थे और अमित गोयल अकेला था, ऊपर से नशे में था — नतीजतन नर्सिंग होम में उसकी आँख खुली।”
“ओह! मुझे अफसोस है कि आपके बन्दे के साथ ऐसा हादसा हुआ, साथ ही शुक्र है कि हमारी एस्टेब्लिशमेंट में नहीं हुआ। अब आप चाहते क्या हैं? यहाँ क्यों आये हैं?”
“समझना इतना मुश्किल तो नहीं! ये जगह इलैक्ट्रॉनिक्स सर्वेलेंस के हवाले है। अमित को लूटने वाले को तीनों लुटेरे यहाँ के सीसीटीवी कैमरों की पकड़ में जरूर आये होंगे। नहीं?”
“आगे बोलिये।”
“मैं परसों रात नौ बजे से आधी रात तक की सीसीटीवी सिस्टम की रिकार्डिंग देखना चाहता हूँ . . .”
“आप क्यों?”
“और उसकी एक कॉपी चाहता हूँ।”
“क्यों?”
“उन लुटेरों की शिनाख़्त के लिये।”
“ये पुलिस का काम है।”
“मेरा भी काम है। मैं सिक्योरिटी का ट्रेण्ड बन्दा हूँ।”
“होंगे। हमें आपसे कोई मतलब नहीं। अस्सी लाख के हीरे लुटे हैं तो ये बड़ी वारदात है जिसकी एफआईआर हुई होगी। तो पुलिस की टीम तफ़्तीश के लिये यहाँ आती ही होगी। बल्कि अब तक उनका फेरा लग चुका होना चाहिये था। पुलिस चाहेगी तो हम उन्हें दिखायेंगे वो फुटेज।”
“मुझे दिखाइये।”
“नो!”
“मैं उस शख़्स का नुमायन्दा हूँ जिसके साथ वारदात हुई है। मैं उसके पिता का ख़ास हूँ।”
“हमें ऐसी किसी वारदात की ख़बर नहीं।”
“मैं दे रहा हूँ न ख़बर!”
“आप इस मामले में कम्पीटेंट अथॉरिटी नहीं। इस बाबत आपका कुछ कहना कोई मायने नहीं रखता।”
जस्से ने मुँह बाये मैनेजर को देखा।
“आपका वो फुटेज देखना जरूरी है तो पुलिस के साथ आना। फिर दिखायेंगे फुटेज।”
“आप मेरे साथ ऐसे पेश नहीं आ सकते।”
“नहीं आ सकते! आ तो रहे हैं!”
“मेरे साथ कोऑपरेट न करने का अंजाम बुरा होगा।”
“क्या होगा?”
“ऐसा कुछ होगा कि आने वाले दिनों में यहाँ कोई मूतने भी नहीं आयेगा।”
“मिस्टर सिंह, माइन्ड युअर लैंग्वेज।”
“मेरे साथ अंग्रेजी झाड़ने की जरूरत नहीं। मैंने जो कहा, वो करो वर्ना . . .”
“वर्ना क्या?”
“धन्धा ठप्प! ठीया भाँ-भाँ करता होगा।”
“ख़ामख़ाह!”
“जहाँ साँप निकल आयें, वहाँ कौन आयेगा?”
“साँप कैसे निकल आयेंगे?”
“देखना।”
“तुम कुछ करोगे?”
“देखना।”
“मैं तो देखते-देखते देखूँगा। अभी तुम देखो।”
“क्या?”
“अभी सामने आता है। बस, दो मिनट सब्र करो।”
उसने एक डैस्क फोन उठाया, इन्टरकॉम का कोई दो डिजिट नम्बर मिलाया, एक क्षण प्रतीक्षा की, फिर माउथपीस के साथ मुँह जोड़कर इतने धीमे स्वर में बोला कि बहुत कान खड़े करने के बावजूद जस्से को एक अक्षर सुनाई न दिया।
आखि़र मैनेजर ने रिसीवर को यथास्थान रखा और मन्द-मन्द मुस्कुराता जस्से को देखता, लापरवाही जताता दोनों हाथों की उँगलियों से मेज ठकठकाने लगा।
जस्से के चेहरे पर उलझन के भाव आये।
क्या माजरा था?
फिर माजरा पेश हुआ।
बन्द दरवाजा खुला और चार बाउन्सर्ज भीतर घुस आये। सब छः फुटे कडि़यल जवान थे जिनकी फड़कती मसल्स ही बताती थी कि रोज घन्टों जिम में आयरन पम्प करते थे।
“इन साहब की सूरत गौर से देखो सब।” — मैनेजर सन्तुलित स्वर में बोला — “पोशाक तो मॉडर्न पहने हैं लेकिन लगता है सपेरों के टोले से हैं। कहते हैं यहाँ का धन्धा चौपट कर देंगे।”
चारों की भवें उठीं।
“हाल में साँप छोड़ देंगे। ये नहीं बोले कि एक साँप छोड़ेंगे या फैमिली ही यहाँ होगी। बहरहाल रश आवर्स में हाहाकार मचाने के लिए एक साँप ही काफी है। अब बोलो तुम ‘हाइड पार्क’ का धन्धा चौपट देखना चाहते हो? नतीजतन बेरोजगार होना चाहते हो?”
सबके सिर इंकार में हिले।
“तो इनकी सूरत अच्छी तरह पहचान लो। खुद पहचान लो और सारे सिक्योरिटी और सुपरवाइजरी स्टाफ को पहचनवा दो। आइन्दा कभी ये यहाँ तो क्या, ‘हाइड पार्क’ के आसपास भी न दिखाई दें। समझ गये?”
सबके सिर सहमति में हिले।
“हैंडल कर लोगे?”
सबने हामी भरी।
“गो अहैड।”
“थोड़ा सेक दें।” — एक बोला।
“काफी टाइम से ऐसा मौक़ा हाथ नहीं लगा।” — दूसरा बोला।
“ज्यादा नहीं, बस यादग़ार के तौर पर कि कहाँ ठुका था!” — तीसरा बोला।
“कलफ तो झाड़ दें!” — चौथा बोला।
“नहीं, अभी नहीं। इस बार नहीं। अगली बार साहब ‘हाइड पार्क’ में तो क्या, ‘हाइड पार्क’ के आसपास भी दिखाई दें तो जो जी में आये, करना।”
सबके चेहरों पर नाउम्मीदी झलकी।
“जो काम अब साहब खुद नहीं कर पायेंगे” — मैनेजर बोला — “उसके लिये ये किसी दूसरे को तैयार कर लेंगे। इसलिये आइन्दा सिक्योरिटी बहुत टाइट रखनी है। सबको ख़बरदार करके रखना है। कोई मिस्टर स्नेक यहाँ के मेहमान न बन पायें? ओके?”
सबने हामी भरी।
“ले के जाओ।”
दो मजबूत, फौलादी हाथ दो तरफ से जस्से के कन्धों पर पड़े। हाथों ने कन्धों के करीब से उसकी बाँहें जकड़ लीं और बड़ी बेरहमी से उसे उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया। दोनों अपने बीच उसे जबरन चलाने लगे। बाकी दो में से एक उसके आगे और एक पीछे चलने लगा।
संयोग से वो रश का वक्त नहीं था। लेकिन अपना जुलूस निकलता उसने फिर भी महसूस किया।
ऐसा घोर अपमान उसका पहले कभी नहीं हुआ था।
कनॉट प्लेस के एक रेस्टोरेंट में अरमान अकील सैफी और अशोक जोगी से मिला।
उसका इरादा दोस्तों को सिर्फ ख़बरदार करने का था कि आइन्दा दिनों ने उनके साथ कुछ बुरा, बहुत बुरा हो सकता था, उन्हें ये बताने का नहीं था कि वो बहुत बुरा क्या था और वो अमित गोयल के साथ हो भी चुका था। लेकिन जब उसने दोस्तों को अपनी दास्तान सुनायी कि गुरुवार इक्कीस नम्बर को महरौली में उसके साथ क्या बीती थी और क्या वार्निंग थी जो अब तीनों के सिर पर तलवार की तरह लटक रही थी, तो दोस्तों ने वो बात पकड़ ली।
तीनों के सिर पर क्यों?
चारों के सिर पर क्यों नहीं?
जिस वारदात की सजा उन्हें मिलने वाली थी, जब चारों उसमें शरीक थे, तो हवाला तीन का क्यों?
तब गोपनीयता की कसम खिला कर अरमान को उन्हें बताना पड़ा कि अमित जोगी को तो सजा मिल भी चुकी थी। क्या सजा मिली थी, ये सुनकर उन दोनों के प्राण काँप गये।
“कैसे हुआ?” — दोनों ने पूछा।
“फुल डिटेल्स नहीं मालूम।” — अरमान बोला — “वो तो अमित ही बतायेगा तो मालूम होंगी। मोटे तौर पर जो मालूम है, वो बोलता हूँ।”
अरमान ने बोला।
“कमाल है!” — अशोक जोगी मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला — “अमित जान से गया होता तो इतनी हैरानी न होती, विशेष अंग भंग कर दिया! ये भी कोई सजा हुई!”
“बेचारा!” — अकील बोला।
“ऐसी बेचारगी हमारे पल्ले भी पड़ सकती है।” — अरमान बोला — “लेकिन हुआ तो तुम दोनों का ये बद्हाल पहले होगा। मेरे हमलावर ने साफ कहा था कि मेरा नम्बर आखि़र में आयेगा।”
“उस नम्बर लगाने वाले बहन . . . को हम पहले ख़त्म नहीं कर सकते?” — अशोक आवेश से बोला।
“किसको? जिस शख़्स की हमें ख़बर ही नहीं कि कौन है, खत्म कैसे करें उसे?”
“ख़बर निकाली नहीं जा सकती?”
“कोशिश हो रही है। बड़े गोयल साहब के हुक्म पर जस्सा उस सिलसिले में बहुत कुछ कर रहा है, लेकिन उसकी कोई कोशिश कामयाब होने से पहले ही हमारा हाल अमित जैसा हो गया तो उस हमलावर का पता लगना या न लगना हमारे लिये एक बराबर होगा।”
“तो क्या करें?”
“जो बस में हो, वो करो। जो सूझे, वो करो।”
“हम पुलिस में जा सकते हैं।” — अकील बोला।
“अक्ल टखनों में है मियाँ की। जा सकते हैं पुलिस में। वहाँ तू कबूल करेगा या मैं कबूल करूँगा कि हमने क्या करतूत की थी जो कोई हमारे — उसकी जुबान में — फैमिली ज्वेलस के पीछे पड़ा था और एक सैट पर अपना दावा लगा भी चुका था! पुलिस के आगे मॉडल टाउन वाली उस औरत के अगवा की, उससे सामूहिक बद्फेली की बात कौन कबूल करेगा?”
शकील से जवाब देते न बना।
“पुलिस के पास गये तो वही मसल बन जायेगी कि नमाज बख्शवाने आये, रोजे गले पड़ गये।”
शकील का सिर सहमति में हिला।
“तो” — अशोक बोला — “हम क्या कर सकते हैं?”
“फिलहाल हम कुछ नहीं कर सकते। सिवाय इसके कि जिस खतरे की आमद की हमें ख़बर है उससे ख़बरदार रहें। जब तक बड़े गोयल साहब के भरोसे के आदमी जस्से की कोशिशों से कोई नतीजा नहीं निकल आता, तब तक अनजान जगहों पर कदम डालने से हमें परहेज रखना होगा और जानी हुई जगहों पर जाने में भी एहतियात बरतनी होगी। जैसा जाल वो शख़्स अमित के लिये फैलाने में कामयाब हो गया, वैसे किसी जाल में तुमने हरगिज नहीं फँसना है।”
“हमने?”
“हाँ, तुमने। क्योंकि तुम्हारी सलामती पर मेरी सलामती का दारोमदार है। उसने मुझे अपना आखि़री शिकार मुकर्रर किया है। तुम सलामत रहोगे तो मेरा नम्बर नहीं लगेगा। तो मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। इसलिये अपनी ख़ातिर ही नहीं, मेरी ख़ातिर भी ख़बरदार रहना, दोस्तों। हिजड़े की तरह जीने के ख़याल से भी मेरे प्राण काँपते हैं।”
“मेरे भी।”
“मेरे भी।” — अकील बोला।
“सो देयर।”
“अब मेरा एक सवाल है।”
“क्या?”
“इस बाबत हमें घर ख़बर करनी चाहिये?”
“हिम्मत हो तो करना। ख़बर यही नहीं करनी होगी, मियाँ, कि कोई तुम्हारा थ्री-पीस-सैट चॉप ऑफ करने पर आमादा है, ये भी बताना पड़ेगा कि क्यों आमादा है! हिम्मत हो तो बताना।”
“तूने बताया?”
“नहीं। नहीं हुई हिम्मत। लेकिन जस्से को बताया, क्योंकि असलियत जानने से उसकी मदद होती थी।”
“मैं घर नहीं बता सकता।” — अशोक दृढ़ता से बोला।
“मैं भी।” — अकील बोला।
“मैं भी।” — अरमान बोला — “तो अब फैसला ये हुआ कि तुम लोग बहुत-बहुत ख़बरदार रहोगे और वैसी कोई नौबत नहीं आने दोगे जैसी बेचारे अमित के साथ आयी।”
दोनों ने मजबूती से सहमति में सिर हिलाया।
“ये मेरे किये से नहीं होगा, लेकिन याद रखना, जब तक तुम सेफ हो तब तक मैं सेफ हूँ। तुम्हारा सफाया हो गया तो मेरा होकर रहेगा। इसलिये, फिर कहता हूँ, अपना नहीं तो मेरा लिहाज करना।”
“तू तो ऐसे कह रहा है जैसे जो उस हरामजादे ने कहा, तुझे गारन्टी है वो उस पर अमल करेगा!”
अरमान ने सकपका कर उसकी तरफ देखा।
“नहीं करेगा तो वादाखिलाफी के इलजाम में तू उसका चालान कर देगा?”
“मैं तेरी बात समझ रहा हूँ।” — अरमान धीरज से बोला — “ऐसी कोई गारन्टी न है, न हो सकती है। लेकिन उसका ये बात कहने का ढंग ऐसा था जैसे तुम दोनों तक पहुँच बना लेना उसके लिये मामूली बात हो। उसके ऐसे आत्मविश्वास ने उससे ये बड़ा बोल बुलवाया कि वो मेरी ख़बर आखि़र में लेगा तो वो उस पर अमल भी कर सकता है।”
“हम दोनों तक मामूली बात जानकर पहुँच बना लेगा!” — शकील आवेश से बोला — “मजाक है कोई!”
“तू अमित से बड़ा सूरमा है?”
“क्यों पूछ रहा है?”
“उसने आराम से अमित तक पहुँच बनायी न! उसकी बुरी गत बनायी न! तो तू आसमान से उतरा है? तेरे पास तोप है जो जब वो सामने पड़ेगा तो तू उस पर तान देगा?”
अकील के मुँह से बोल न फूटा।
“दुश्मन को कमजोर नहीं समझना चाहिये। ऐसे कामों में हेकड़ी काम नहीं आती, अक्ल का माकूल इस्तेमाल काम आता है . . .”
“अब उपदेश तो तू रहने ही दे।” — अशोक चिढ़ कर बोला — “तेरे को काबू में किया न उसने! कर लिया अक्ल का इस्तेमाल!”
“मैं बेख़बर था।” — अरमान सब्र से बोला — “तुम बेख़बर नहीं हो। मैंने तुम्हें ख़बरदार किया है इसलिये तुम्हें मालूम है आगे स्टॉक में क्या है तुम्हारे लिये। मैंने जो इतना कल्याण किया, अगर तुम समझते हो कि बेकार किया, नाहक भैंस के आगे बीन बजाई तो” — अरमान उठ खड़ा हुआ — “जाओ, भाड़ में जाओ। समझो मैंने कुछ नहीं कहा। मैं भी समझता हूँ मेरा नम्बर आखि़री नहीं, पहला है और इस समझ के मुताबिक अपने बचाव के लिये मेरे से जो होगा, मैं करूँगा। तुम दोनों बेशक उँगली भी मत हिलाना क्योंकि तुम दोनों ने तो अमृत पिया है न, बहन के दीनो।”
अरमान घूमा और फर्श को रौंदता सा वहाँ से रुख़सत हो गया।
दोनों मुँह बाये उसे जाता देखते रहे।
“बिल तो दे जाता!” — फिर अकील के मुँह से निकला।
जस्सा मॉडल टाउन पहुँचा।
वो सुनिश्चित करके आया था कि अरमान घर पर था।
अरमान उसे कोठी की पहली मंजिल के अपने बैडरूम में ले आया, जहाँ जस्से ने वो सीडी पेश की जो उसने ‘लोटस पौंड’ से हासिल की थी। अरमान की राइटिंग टेबल पर दोनों अगल-बगल बैठ गये, फिर अरमान ने अपने लैपटॉप पर वो सीडी चलाई।
सीडी इक्कीस नवम्बर, गुरुवार दोपहरबाद तब से शुरू होती थी जब अरमान ने अपनी उस रोज की संगिनी के साथ ‘लोटस पौंड’ में कदम रखा था और उसकी लड़की के साथ वहाँ से रुख़सती पर खत्म होती थी।
“ये आदमी” — अरमान स्क्रीन पर एक जगह इशारा करता बोला — “जो हमारे से दो टेबल परे अकेला बैठा कोई ड्रिंक चुसक रहा है, इसकी पोशाक नोट की?”
“की।” — जस्सा बोला।
अरमान ने विजुअल्स को थोड़ा बैक करके उस शख़्स पर फ्रीज किया।
“देख!” — वो बोला।
“पहले ही देख चुका हूँ, काके!” — जस्सा बोला — “कार्डुराय की डार्क ब्राउन पैंट, लाइट ब्राउन कोट, मैचिंग शर्ट, मैचिंग जूते, सब देख चुका हूँ। ये भी देख चुका हूँ कि मुक़म्मल ऐसी ड्रैस वाला कोई दूसरा बन्दा इस क्लिप में नहीं है। एक कार्डुराय की डार्क ब्राउन पैंट तो पहने है लेकिन कोट की जगह पुलोवर पहने है। जो लाइट ब्राउन कोट पहने है उसकी पतलून कार्डुराय की नहीं है, ब्राउन भी नहीं है। जो पोशाक तूने बयान की थी, ऐन वैसी वाला तो ये एक ही बन्दा है।”
“यही है। यही पीछे लगा था। एक बात ये भी नोट करने लायक है, जस्से, कि सारे हॉल में किसी भी टेबल पर कोई अकेला कस्टमर मौजूद नहीं है। ये लंच के रश का टाइम था, हर कोई वहाँ लंच के लिये था, एकाध क्विक ड्रिंक के लिये था और कम्पनी के साथ था। ये अकेला शख़्स है जिसके साथ कोई नहीं और जिसने लंच का भी ऑर्डर नहीं दिया।”
“तेरे वहाँ से रुख़सत होते ही” — जस्से ने तरह दी — “ये भी उठ खड़ा हुआ और तकरीबन तेरे पीछे-पीछे ही वहाँ से गया।”
“यही है। यही मेरे और मेरी फ्रेंड के पीछे खंडहर में पहुँचा था जहाँ हमारे रूबरू होने से पहले इसने अपने चेहरे पर फेंटम का मास्क चढ़ा लिया था।”
“पहचानता है!”
“गागल्ज लगाये है, आधा चेहरा तो उन्हीं से ढँका हुआ है . . .”
“फिर भी बहुत कुछ नुमायाँ है।”
“. . . ऊपर से हॉल में पूरी रौशनी नहीं थी, नीमअन्धेरा था, जिसको कि हॉस्पिटेलिटी बिजनेस की जुबान में कोजी एटमास्फियर कहते हैं। इस वजह से भी इमेजिज उतने स्पष्ट नहीं हैं जितने कि वहाँ फुल रौशनी होती तो होते।”
“काके, जो है तेरे सामने है। अब तू ये फैसला कर तू इस सूरत से वाकिफ है या नहीं!”
“कोई घन्टी तो जेहन में नहीं बज रही है, बार-बार देखने पर शायद बजे। तू ये डिस्क यहाँ छोड़ के जायेगा न!”
“हाँ। मेरे पास कॉपी है।”
“गुड। अब ‘हाइड पार्क’ की फुटेज दिखा। अगर ये उसमें भी हुआ तो . . .”
“नहीं है।”
“क्या बोला?”
“नहीं मिली।”
“क्या! जस्से को नहीं मिली!”
“इज्जत का जनाजा अलग से निकला। ऐसी बेइज्जती पहले कभी नहीं हुई मेरी। चार बाउंसर्ज ने जबरन उठाके बाहर फेंका।”
“जस्से को?”
“गामा पहलवान भी होता तो यही गत बनवाता। न काबू में आता तो बाउंसर्ज चार से आठ हो जाते, दस हो जाते। न सिर्फ यूँ बाहर निकाला गया, वार्निंग मिली कि आइन्दा कभी ‘हाइड पार्क’ के आसपास भी न दिखाई दूं।”
“हुआ क्या?”
“यानी अपना फातिहा खुद पढ़ूँ?”
“अरे, बोल न!”
जस्से ने बोला।
“ओह!” — वो ख़ामोश हुआ तो अरमान मन्त्रमुग्ध भाव से बोला — “पहली बार सुना कि कभी जस्से को भी नाकामी का मुँह देखना पड़ा।”
“ऐसा न बोल, काके।” — जस्सा आवेश से बोला — “अभी मैंने हार नहीं मान ली है। एक बाजी हार जाने से कोई मुकाबला नहीं हार जाता।”
“यानी कुछ करेगा?”
“बहुत कुछ करूँगा, ऐसा कुछ करूँगा कि वो मैनेजर का घोड़ा पनाह माँग जायेगा। हाथ जोड़ के मेरे से माफी माँगेगा और गिड़गिड़ा के बोलेगा कि सीसीटीवी की जो फुटेज मुझे चाहिये, उसे कबूल करके मैं उसकी इज़्ज़तअफ़जाई करूँ।”
“ऐसा?”
“हाँ, ऐसा। काके, ये तेरा काम नहीं है, बड़े गोयल साहब का काम है, चौदह साल से एक बार भी मेरे से कभी नाउम्मीदी नहीं हुई बड़े गोयल साहब को तो अब कैसे होने दे सकता हूँ!”
“क्या करेगा?”
“करूँगा कुछ।”
“अरे, कुछ तो बता!”
“जब दूसरी सीडी तेरे हाथ में होगी, तब बताऊँगा। अभी जाता हूँ।”
पीछे अरमान को सस्पेंस में छोड़ कर वो चला गया।
रात नौ बजे विमल, नीलम, अशरफ और अल्तमश फोरसम की सूरत में ‘गोल्डन गेट’ में थे।
वहाँ रात की उस घड़ी भरपूर रौनक थी।
विमल उस रोज काला सूट पहने था और सफेद शर्ट पर वो टाई लगाये था। उसके चेहरे पर उस रोज मूँछ के साथ मैच करती फ्रेंच कट दाढ़ी भी थी। सिर पर छोटे कटे, खड़े बालों वाला विग था और आँखों पर मोटे फ्रेम वाला, प्लेन ग्लासिज वाला चश्मा था। नीले कन्ट्रैक्ट्स से, घनी भवों से और लम्बी कलमों से उस रोज उसने किनारा कर लिया था।
नीलम प्लाजो के साथ अनारकली कुर्त्ता पहने थी, जिसके नीचे लेटेक्स रबड़ की एक इंच मोटी परत थी, जिसकी वजह से वो खूब फैली-पसरी लग रही थी। वैसे ही लेटेक्स रबड़ की स्किन के कलर से मैच करती परत उसकी ठोड़ी के नीचे थी जिसकी वजह से उसका सुतवाँ चेहरा भरा भरा-सा लग रहा था और वो अपनी उम्र से काफी बड़ी लग रही थी। सिर पर पिछली बार से जुदा किस्म का ऐसा विग लगाये थी, गर्दन को जरा सा झटका देने पर जिसके बाल उसके चेहरे पर बिखर जाते थे। नीले कॉन्टैक्ट्स उस रोज भी उसकी आँखों में थे लेकिन पिछली बार की तरह कोई दिखावटी जेवर उस रोज वो नहीं पहने थी। उसके गले में मोतियों की सिर्फ एक लड़ी वाला हार था और कानों में हीरे के टाप्स थे। अंगूठी बायें हाथ की सिर्फ एक उँगली पर थी।
अशरफ भी काले सूट में था और बहुत सुन्दर और सम्भ्रान्त लग रहा था।
वो काला सूट विमल के हुक्म पर उसने उसी रोज रेडीमेड खरीदा था।
अल्तमश का जलवा जलाल फिर टॉप पर था। उस रोज वो खुले पाउंचों वाली सफेद पैंट, कालर वाली सफेद कमीज और जनाना स्टाइल का कमर से तंग और कूल्हों में जरा ऊपर तक आने वाला कोट पहने था। उसके खुले गले में लाल मनकों की माला थी, जिसके सिरे पर ख़ूब बड़ा गणेश गुदा गोला कंठा लटक रहा था। सिर पर विग पहले वाला ही था, पैरों में तीन इंच की हील पहने था, जिसकी वजह से उसका लम्बा कद और लम्बा लग रहा था। चेहरे के मेकअप पर उसने पहले से कहीं ज्यादा एहतियात बरती जान पड़ती थी।
राग रंग की महफिल जवान थी, बैंड बज रहा था, जिसकी धुन पर कभी कभी कोई-कोई जोड़ा डांस करने के लिये डांस फ्लोर पर उतर आता था।
चारों के सामने ड्रिंक्स के गिलास थे। विमल बड़ी मुश्किल से नीलम को एक गिलास वाइट वाइन कबूल करने के लिए तैयार कर पाया था।
कहने को सब शाम के मौजमेले में मसरूफ़ थे लेकिन विमल और अशरफ की निगाह वहाँ की हर एक्टिविटी को, हर रखरखाव को नोट करने में मसरूफ़ थी।
वो हॉल काफी बड़ा था जिसमें दायीं ओर पूरी लम्बाई में बार था, बायीं ओर बैंड स्टैंड और डांस फ्लोर था और बीच में बेशुमार मेजें थीं। पृष्ठ भाग में एक जगह लकड़ी की स्क्रीन खड़ी थी, जिसके करीब थोड़ा एक तरफ हट कर दो मेजें थीं जिन पर उनकी मौजूदगी में किसी मेहमान ने जाकर बैठने की कोशिश नहीं की थी। कोई उधर गया था तो स्टीवार्ड ने बड़े अदब से कहीं और किसी और ख़ाली टेबल की तरफ इशारा कर दिया था।
उत्सुकतावश एक बार विमल उठकर उन मेजों के करीब पहुँचा था तो उसने दोनों पर ‘रिजवर्ड’ लिखी तख़्ती रखी पायी थी।
किनके लिये रिजर्व्ड थी वो दो मेजें?
उसने स्क्रीन के पीछे जाने की कोशिश की थी तो तत्काल एक स्टीवार्ड उसके पास पहुँचा था।
“सर?” — उसने पूछा था।
“वाशरूम।”
स्टीवार्ड ने स्क्रीन से परे एक बन्द दरवाजे की तरफ इशारा कर दिया।
विमल वो दरवाजा खोल कर भीतर दाखिल हुआ तो उसने खुद को एक गलियारे के दहाने पर पाया। उसी गलियारे में आमने-सामने लेडीज और जेंट्स टॉयलेट थे।
स्क्रीन के पीछे भी एक बन्द दरवाजा था लेकिन दरवाजे के पीछे क्या था, वो न जान सका।
दस बज गये।
“क्या ख़याल है, जनाब?” — अशरफ बोला।
“भई, यहाँ तो सब कुछ नॉर्मल ही लग रहा है।” — विमल संजीदगी से बोला — लगता है जेहन में गलत घन्टी बजी।”
“तो?”
“तो क्या? थोड़ी देर ड्रिंक्स एनजॉय करते हैं, मौजमेला देखते हैं फिर डिनर ऑर्डर करते हैं और खाकर घर चलते हैं।”
“ठीक . . . भाई जान!”
“क्या हुआ?”
“एक काम नया हुआ।”
“क्या?”
“उन दो रिजर्व्ड टेबल्स की तरफ देखिये, एक पर कोई आन बैठा है। और किसी ने ऐतराज भी नहीं किया!”
विमल ने तत्काल उधर निगाह उठाई।
एक कोई पचास साल का बहुत ही सजीला, सूटबूटधारी सिख दो रिजर्व्ड मेजों में से एक पर तभी आकर बैठा था और एक स्टीवार्ड झुक कर अदब से उससे बात कर रहा था।
सिख ने जेब से मोबाइल निकाला और वो उसका की-पैड पंच करने लगा।
फिर उसने मोबाइल वापिस जेब में रख लिया।
तत्काल एक वेटर जैसे जादू के जोर से एक ड्रिंक के साथ वहाँ प्रकट हुआ। उसने बड़े अदब से सिख को ड्रिंक सर्व किया और रुख़सत हो गया।
स्टीवार्ड भी परे हटकर खड़ा हो गया।
“कमाल है!” — अशरफ दबे स्वर में बोला।
“क्या?” — विमल भी वैसे ही बोला — “क्या कमाल है?”
“उस सिख ने कोई ऑर्डर तो दिया ही नहीं था! वो तो अभी आ के बैठा था, बस। इतनी जल्दी ड्रिंक कैसे सर्व हुआ उसे?”
“वैलकम ड्रिंक! ऐसे ड्रिंक को, जो ऐसी जगह पहुँचने पर किसी को बिना ऑर्डर तुर्त-फुर्त सर्व होता है, वैलकम ड्रिंक बोलते हैं।”
“हमें क्यों नहीं सर्व हुआ?”
“क्योंकि हम कोई ख़ास मेहमान नहीं। वो जाकर रिजर्व्ड टेबल पर बैठा है इसलिये ख़ास मेहमान है, जाना पहचाना मेहमान है, मुअज्जिज मेहमान है।”
“ओह!”
बात आयी गयी हो गयी।
वो फिर अपने अपने ड्रिंक्स की तरफ तवज्जो देने लगे।
थोड़ा वक्त गुजरा।
“भाई जान!” — एकाएक अशरफ बोला।
विमल ने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा।
“वो सिख!”
“क्या हुआ उसे?”
“टेबल पर नहीं है।”
“तो?”
“कहाँ गया?”
“नहीं मन लगा होगा! चला गया होगा!”
“किधर से चला गया होगा? एक ही तो निकासी का रास्ता है। उधर गया होता तो हमारे करीब से गुजरा होता और मुझे जरूर दिखाई दिया होता क्योंकि मेरा मुँह ही पैसेज की तरफ है।”
“अरे, टॉयलेट गया होगा?”
“टेबल ख़ाली है। उस पर रिजर्व्ड की तख़्ती फिर पड़ी है।”
“अच्छा! तो कहाँ गया? जरूर पिछवाड़े से भी निकासी का कोई रास्ता होगा!”
“ऐसा?”
“और क्या?”
अशरफ ख़ामोश हो गया लेकिन आश्वस्त न हुआ। अब वो ज्यादा बारीकी से रिजर्व्ड टेबलों की निगाहबीनी करने लगा।
दस मिनट बाद एक घने सफेद बालों वाला व्यक्ति एक रिजर्व्ड टेबल पर आकर बैठा। वो उम्रदराज शख़्स था और उसके सफेद बाल इतने घने थे कि विग जान पड़ते थे। वैसी ही सफेद उसकी घनी भवें और मोटी मूँछ थी।
इस बार उस नजारे की बाबत अशरफ ज्यादा ख़बरदार था।
कुछ क्षण के लिये सफेद बालों वाले के हाथ में एक मोबाइल दिखाई दिया जो स्टीवार्ड के करीब आ खड़े होते ही उसने ऑफ करके अपनी जेब में रख लिया।
उसको वैलकम ड्रिंक सर्व हुआ।
सफेद बालों वाले ने ड्रिंक को होंठों से लगाकर एक चुसकी ली और उसे वापिस मेज पर रख दिया।
पाँच मिनट में तीन बार गिलास ने होंठों तक का सफर तय किया।
तभी स्टीवार्ड उसके करीब पहुँचा, उसने झुककर उसे कुछ कहा।
सफेद बालों वाले ने हाथ में थमा गिलास मेज पर रख दिया और उठ खड़ा हुआ।
फासले से भी अशरफ ने देखा कि गिलास किसी गहरे रंग के तरल पदार्थ से अभी आधे से ज्यादा भरा हुआ था।
स्टीवार्ड अदब से दो कदम पीछे हट गया।
सफेद बालों वाला आगे बढ़ा और स्क्रीन के पीछे जाकर निगाह से ओझल हो गया।
अशरफ को तब जान पड़ा कि विमल की तवज्जो भी उधर ही थी।
“देख रहे हैं?” — फिर भी उसने पूछा।
“हाँ।” — विमल बोला।
“सफेद बालों वाले को? रिजर्व्ड टेबल पर था!”
“हाँ।”
“टॉयलेट गया शायद।”
“टॉयलेट स्क्रीन के पीछे नहीं है।”
“तो कहाँ गया?”
“स्क्रीन के पीछे मैंने एक बन्द दरवाजा देखा था। शायद उसके पीछे आफिस है। शायद मैनेजर का। उससे मिलने गया।”
“अच्छा!”
“अपना ड्रिंक पीछे छोड़ के गया है, लौटेगा।”
“ड्रिंक की बात है तो उसमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं जान पड़ती थी। पी नहीं रहा था, चुसक रहा था। बल्कि चुसकने का भी बहाना ही कर रहा था।”
“तू देख रहा था सब?”
“हाँ।”
“देखते हैं क्या होता है! देखते हैं लौटता है या नहीं!”
“मुझे उम्मीद नहीं कि लौटेगा।”
“भई, उसका ड्रिंक . . .”
“वेटर उठा के ले गया।”
“अच्छा! मैंने ध्यान न दिया।”
“और स्टीवार्ड ने रिजर्व्ड की तख़्ती — जो उसके आके बैठते ही हटा ली थी — वापिस मेज पर रख दी है।”
“क्या माजरा है! जरूर पीछे भी कोई निकासी का रास्ता है, वो उधर से चला गया।”
“क्यों चला गया? ऐसे चले जाना था तो आया ही क्यों था? फिर भी गया तो पीछे से क्यों गया? . . . बशर्ते कि पीछे से कोई निकासी का रास्ता हो।”
“थोड़ा धीरज रख। देख तो सही कि लौटता है कि नहीं!”
“ठीक है।”
वो न लौटा।
“अशरफ मियाँ” — विमल तनिक आगे झुककर राजदाराना लहजे से बोला — “लगता है वैसी कोई हिल डुल हुई है जिसकी उम्मीद में हम यहाँ आये हैं।”
“न समझ में आने वाली।” — अशरफ बोला।
“आइन्दा शायद समझ में आये। देखते हैं।”
“ठीक है।”
दस मिनट बाद दो जने इकट्ठे आये और फिर वही ड्रिल रिपीट हुई।
फिर एक अकेला व्यक्ति आया जो शक्ल से विदेशी लगता था।
“लगता है” — विमल बोला — “स्क्रीन के पीछे कोई आफिस नहीं, कोई प्राइवेट डायनिंग रूम है जो ऐसे वीआईपीज के लिये है जो हाल के मौजूदा भीड़भरे और शोरगुल वाले माहौल में ड्रिंक-डिनर एनजॉय करना पसन्द नहीं करते।”
“हो सकता है।”
“फैंसी थ्री-इन-वन ठीया है, क्यों नहीं हो सकता?”
कुछ अरसा और गुजरा।
फिर जिस व्यक्ति के हाल में कदम पड़े, उस पर निगाह पड़ते ही अशरफ के नेत्र फैले।
“सुखनानी।” — अशरफ बोला — “कीमतराय सुखनानी। सिविल लाइन्स वाला बड़ा एक्सपोर्टर जिसका तब मैंने जिक्र किया था जब हम बगल की फैक्ट्री की टोह में इधर आये थे। बीस नवम्बर वाले बुधवार को। अभी यहाँ पहुँचा।”
विमल ने दरवाजे की तरफ देखा।
“वो . . . वो भारी भरकम उम्रदराज अधगंजा आदमी जो ट्वीड का कोट पहने है।”
विमल ने ग़ौर से आगे बढ़ते उस शख़्स को देखा।
इतनी रौनक में उसकी निगाह दायें-बायें कहीं न भटकी। नाक की सीध में वो पृष्ठ भाग की दो रिजर्व्ड टेबल्स में से एक पर जा बैठा। स्टीवार्ड उसकी तरफ बढ़ा तो वो स्टीवार्ड को नजरअंदाज करके जेब से मोबाइल निकाल कर उसके हवाले हो गया। स्टीवार्ड ने तत्काल मेज पर से रिजर्व्ड वाली तख़्ती उठा ली और पीछे हट गया।
मोबाइल ट्वीड वाले की जेब से वापिस पहुँच गया।
वेटर ने उसे ड्रिंक सर्व किया।
कम-से-कम उसने वैलकम ड्रिंक के साथ पूरा न्याय किया।
बड़े इत्मीनान से उसने उसके घूँट भरे।
स्टीवार्ड उसके करीब पहुँचा और झुक कर उसके कान में कुछ बोला।
ट्वीज के कोट वाले ने, सुखनानी ने, अपना गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ।
स्टीवार्ड अदब से पीछे हट गया।
सुखनानी आगे बढ़ा और स्क्रीन के पीछे गायब हो गया।
स्टीवार्ड ने मेज पर ‘रिजर्व्ड’ की तख्ती वापिस रख दी।
“वही बात जान पड़ती है।” — विमल बोला — “पीछे जरूर कोई प्राइवेट, एक्सक्लूसिव डायनिंग एरिया है।”
“सुखनानी जैसे एक्सक्लूसिव कस्टमर्स के लिये!” — अशरफ बोला।
“हाँ।”
“तो रास्ते में हाल्ट क्यों जरूरी है? ऐसा कस्टमर सीधा उस एक्सक्लूसिव एरिया में क्यों नहीं पहुँच सकता?”
“स्क्रीनिंग होती होगी! परखा जाता होगा कि मेहमान की हैसियत एक्सक्लूसिव एरिया में जाने लायक है या नहीं!”
“जनाब, जब उसे वैलकम ड्रिंक सर्व हो गया, तो परख तो अपने आप हो गयी!”
“दिमाग तीखा पाया है, अशरफ मियाँ। जेहनियत में हाशमी के बाद तुम मुबारक अली के दूसरे भांजे हो जिसने मुझे मुतमईन किया।”
“शुक्रिया, जनाब। तो क्या कहते हैं?”
“क्या कहूँ? कोई भेद तो है!”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“मैं अभी आया।” — एकाएक अशरफ उठ खड़ा हुआ।
विमल की भवें उठीं।
“बस, गया और आया।”
अशरफ लम्बे डग भरता प्रवेश द्वार की ओर बढ़ा और वहाँ से बाहर निकल कर निगाहों से ओझल हो गया।
पीछे विमल नीलम की ओर झुका और बोला — “तेरे को दो मिनट अकेला बैठना पड़ेगा?”
“क्यों?” — नीलम सशंक भाव से बोली।
“एक ख़ास काम है। तेरे से नहीं होगा, ये कर लेगा। ओके?”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया।
विमल ने अल्तमश को इशारा किया और उठकर खड़ा हुआ।
अल्तमश भी उठा और उसके साथ हो लिया।
पिछवाड़े की तरफ बढ़ते विमल ने उसे समझाया कि उसने क्या करना था।
“कर लेगा?” — उसने पूछा।
“देखना!” — पूरे विश्वास के साथ अल्तमश अपनी महीन आवाज में बोला।
तब तक वो पिछवाड़े में पहुँच गये थे।
अल्तमश उससे एक कदम आगे बढ़ा और बड़ी अदा से स्टीवार्ड से बोला — “जरा सुनिये।”
स्टीवार्ड तत्काल उसकी तरफ आकर्षित हुआ।
स्टीवार्ड से बतियाने की तैयारी करता अल्तमश जानबूझकर यूँ खड़ा हुआ कि वक्ती तौर पर स्टीवार्ड की विमल की तरफ पीठ हो जाती।
“मैं ये पूछ रही थी कि . . .”
विमल धीरे से स्क्रीन के पीछे सरक गया। उसने आगे बढ़ कर उसके पीछे मौजूद इकलौता बन्द दरवाजा ट्राई किया तो वो हैंडल घुमाते ही खुल गया। उसने भीतर निगाह दौड़ाई तो पाया कि वो कोई बारह गुणा पन्द्रह फुट का एक कमरा था जो पुराने फर्नीचर और किचन इक्विपमेंट्स से इस कदर भरा हुआ था कि सामान छत छू रहा था। फिर भी कबाड़ का वो पहाड़ बायीं दीवार तक नहीं पहुँच रहा था, जबकि दायीं ओर सब कुछ दीवार पर चढ़ा जान पड़ता था। कबाड़ के पीछे क्या था, वो दरवाजे पर से नहीं जाना जा सकता था।
वो भीतर कदम डालने ही लगा था कि . . .
“अरे, अरे, कहाँ जा रहे हैं?” — पीछे से स्टीवार्ड की उतावली आवाज आयी — “उधर न जाइये।”
“वा . . . वाश . . . वाशरूम।” — विमल यूँ बुदबुदाया जैसे टुन्न हो।
“उधर नहीं है वाशरूम। वापिस आइये।”
“नहीं है?”
“नहीं है। वापिस आइये। उधर आपका कोई काम नहीं है। हटिये वहाँ से।”
विमल हटा तो स्टीवार्ड ने आगे बढ़ कर गुस्से से दरवाजा बन्द किया।
विमल वापिस लौटा।
“मैंने जो कहानी उससे की थी” — अल्तमश जल्दी से बोला — “उसकी वजह से लेडीज टॉयलेट में जाना जरूरी है।”
“ठीक है, जा। मैं यहीं रुकता हूँ।”
अल्तमश उस दरवाजे में दाखिल हो गया जिसके आगे टायलेट्स वाला गलियारा था। विमल झूमता सा एक रिजर्व्ड टेबल पर जा बैठा।
तभी स्टीवार्ड वापिस लौटा।
“अरे, यहाँ न बैठिये!” — वो सख़्ती से बोला — “ये रिजर्व्ड टेबल है।”
“किसके लिये?”
“किसी के लिये भी। आप प्लीज उठिये वहाँ से।”
“भई, अभी चलते वक्त मैं लड़खड़ा गया था और मेरा पाँव औंधा पड़ गया था। मुझे थोड़ी देर बैठने दो ताकि मुझे पता चल सके कि मोच नहीं आयी है।”
“सर, मैंने कहा न, ये रिजर्व्ड टेबल है।”
“किसके लिये रिजर्व्ड है? शाहरुख के लिये? सलमान के लिये?”
“किसी के लिये भी। आप उठिये, प्लीज!”
“अरे, जिसके लिये रिजर्व्ड है, वो आ तो नहीं गया न! आ तो जाने दो उसको, उसके आते ही मैं उठ जाऊँगा।”
“सर, यू आर गैटिंग डिफीकल्ट।”
“वाट डिफीकल्ट! आई वान्ट टु सिट हेयर एण्ड रैस्ट एण्ड आई एम सिटिंग हेयर एण्ड रेस्टिंग। नाओ, ले ऑफ।”
“सर, यू आर ड्रंक।”
“ऑफ कोर्स आई एम ड्रंक! फॉर वाट ऐल्स एम आई हेयर, स्पैंडिंग बिग मनी? टु गैट ड्रंक। एण्ड यू आर टैलिंग मी ऐज इफ आई डोंट नो।”
“सर, प्लीज, प्लीज . . .” — वो एक क्षण ठिठका फिर संदिग्ध भाव से बोला — “आप तो वही साहब हैं जिनको मैंने पहले भी बताया था कि वाशरूम कहाँ था!”
“तो?”
“फिर भी भूल गये कि वाशरूम कहाँ था! अभी कहीं और ही घुसे जा रहे थे!”
“अरे, भई, अभी खुद तुमने मुझे सर्टिफिकेट दिया न कि मैं टुन्न हूँ। जो पहले बताया था, वो भूल गया नशे में।”
“फिर वाशरूम गये भी तो नहीं आप! यहाँ आके बैठ गये!”
“क्योंकि पाँव औंधा पड़ गया। चलने में तकलीफ होती है। अभी ठीक हो जायेगा तो जाऊँगा न।”
“ये टेबल आप को हर हाल में खाली करनी पड़ेगी। आइये, मैं आप को दूसरी जगह बिठाता हूँ।”
“कहाँ?”
“कहीं भी।”
“पर मेरे से चला तो जाये!”
“चला जायेगा। मैं सहारा दूँगा तो चला जायेगा।”
तभी विमल को अल्तमश दिखाई दिया।
“मेरे ख़याल से पाँव अब ठीक हो गया है।” — विमल उठ खड़ा हुआ — “सम्भालो अपनी जायदाद . . . आई मीन रिजर्व्ड टेबल।”
स्टीवार्ड ने साफ-साफ चैन की साँस ली।
विमल अल्तमश के पास पहुँचा।
“वो स्टीवार्ड” — वो बोला — “अब हमारी तरफ ख़ास तवज्जो देगा। हमें कुछ ऐसा करना चाहिये जो उसे स्वाभाविक लगे, नार्मल लगे।”
“क्या?” — अल्तमश संजीदगी से बोला।
“क्या! . . . हम्म . . . आओ, डांस फ्लोर पर चलते हैं।”
“डांस फ्लोर पर! पर मेरे को तो डांस करना आता नहीं!”
“मेरे को भी नहीं आता। डांस फ्लोर पर जाकर बाकी जोड़ों की तरह थोड़ी देर हिलते-डुलते हैं, बैंड बन्द होगा तो जाकर अपनी टेबल पर बैठ जायेंगे। मेरे ख़याल से इतने में स्टीवार्ड की तवज्जो हमारी तरफ से, ख़ास तौर से मेरी तरफ से, हट जायेगी।”
“ठीक है, चलिये।”
दोनों डांस फ्लोर की तरफ बढ़े।
“स्टीवार्ड को क्या पुडि़या सरकाई थी?” — रास्ते में विमल बोला — “मैंने तुझे ‘मैं पूछ रही थी’ कहते सुना था। क्या पूछ रही थी? क्या कहानी की थी उससे जिसकी वजह से लेडीज रैस्टरूम में जाना जरूरी था?”
अल्तमश धूर्त भाव से मुस्कुराया।
“पूछ रही थी, सूई धागा कहाँ मिलेगा!” — फिर बोला।
“क्या!”
“मेरी ब्रा का हुक टूट गया था, बोला न!”
“ओह!”
“घौंचू की शक्ल से साफ लग रहा था कि जेहन पर अक्स उतारने की कोशिश कर रहा था कि जवान लड़की की ब्रा का हुक टूटा हो तो नजारा कैसा होता था!”
“यार तू तो . . . अब क्या कहूँ। . . . कमाल का है।”
अल्तमश हँसा।
दोनों डांस फ्लोर पर पहुँचे।
अकेली बैठी नीलम बहुत अजीब महसूस कर रही थी।
आसपास की टेबलों पर कई व्यक्ति मौजूद थे जिनमें से दो तीन तो साफ-साफ उसे ताड़ रहे थे। उसे फिक्र हो रही थी कि कोई उसके सामने ही न आ बैठे।
सामने आ तो आखि़र बैठा कोई लेकिन वो एक सुन्दर युवती थी। वो लाल साटन का एक टखनों तक आने वाला गाउन पहने थी, जिसके दोनों तरफ घुटनों से कहीं ऊपर तक झिरी थीं। वो जरा हिलती थी तो किसी न किसी तरफ से उसकी नंगी, सुडौल टाँग जाँघ तक दिखाई देती थी।
“ये सीट खाली नहीं है।” — नीलम भुनभुनाती-सी बोली।
“मालूम।” — वो बड़े चित्ताकर्शक ढंग से मुस्कुराती बोली — “मैं हूँ न इसमें!”
“मेरा ये मतलब नहीं था। मेरा मतलब था कि ये — बाकी दो भी — मेरे साथियों की सीट हैं जो लौट के आते ही होंगे।”
“जब ऐसा होगा, तब ये सीट खाली होगी।”
“अभी खाली करो।”
“लेकिन . . .”
“वर्ना मैं मैनेजर को बुलाती हूँ।”
“गॉड! तुम तो बड़ी सख़्त हाकिम हो!”
“खाली करो।”
“कर रही हूँ। लेकिन इसलिये नहीं क्योंकि तुम्हारी धमकी कारगर हुई है।”
“तो और किसलिये?”
“नैक्स्ट टेबल अभी खाली हुई है।”
“बधाई!”
“कोई जरूरत नहीं। मेरा काम हो गया है।”
“काम!”
“तुम्हें करीब से देखना था।”
“क्या बोला?”
“तुम्हारी शक्ल अच्छी तरह से देखनी थी, ये बोला।”
“मेरी शक्ल अच्छी तरह से देखनी थी!”
“करीब से। पहले तुम कम्पनी में बिजी थीं। अभी चांस लगा।”
“लेकिन क्यों? क्यों देखनी थी मेरी शक्ल . . .”
“अरे, ये देखो, तुमने कुछ गिरा दिया मालूम होता है।”
उसने नीचे झुक कर फर्श पर से कुछ उठाया — या उठाने का बहाना किया — और उसे जबरन नीलम के मेज पर टिके एक हाथ की मुट्ठी में सरका दिया। फिर वो उठी और रुख़सत होने को तत्पर घूमी।
“अरे, सुनो!”
वो न रुकी। तभी खाली हुई बगल की टेबल पर भी न रुकी। लम्बे डग भरती, मेजों के बीच से गुजरती वो आगे बढ़ गयी।
तभी विमल और अल्तमश वापिस लौटे।
“कौन थी?” — विमल उत्सुक भाव से बोला।
“देखा तुमने?” — नीलम बोली।
“हाँ, फासले से देखा न! हमारे करीब आने से पहले उठ के चली गयी। कौन थी?”
“पता नहीं।”
“पता नहीं! उसने खुद कुछ न बताया?”
“न! मैंने उसके यहाँ बैठने पर ऐतराज जताया तो थोड़ी देर हुज्जत की, फिर उठ के चली गयी। जाने से पहले जबरन ये कागज का पुर्जा मुझे थमा गयी। बोली, मैंने नीचे गिरा दिया था, जबकि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया था।”
विमल ने मुड़े-तुड़े कागज के बल निकाल कर उसे सीधा किया जो ‘गोल्डन गेट’ का नाम छपे छः इंच गुणा आठ इंच साइज के स्क्रैच पैड का एक वरका था, जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था:
फेरा का फेरा फिर। आगे बोलने का
“क्या मतलब हुआ इसका?” — विमल बोला।
“तुम बोलो।” — नीलम बोली।
अल्तमश ने भी उचक कर कागज पर की इबारत पढ़ी, पर मुँह से कुछ न बोला।
“हैंडराइटिंग साफ जनाना है।”
“जब उस लड़की ने लिखा तो . . .”
वो ख़ामोश हो गयी।
“क्या हुआ?” — विमल सकपकाया।
“कब लिखा?” — नीलम यूँ बोली जैसे स्वतः भाषण कर रही हो — “मेरे सामने तो न लिखा! ये गुच्छा-मुच्छा कागज तो उसने यहाँ पहुँचने के, आकर बैठने के, बाद फर्श पर से उठाया और जबरन मुझे थमाया!”
विमल ने उस बात पर विचार किया।
अनमने भाव से इसने कागज को पलटा तो सकपकाया।
“पीछे भी कुछ लिखा है” — वो बोला — “छपा है। . . . फ्रंट की टैक्स्ट की तरह हैण्डरिटन नहीं है, टाइप्ड है।”
“क्या है?” — नीलम उत्सुक भाव से बोली।
“लिस्ट है, ऊपर हैडिंग है — ‘टु बी स्क्रीन्ड बिफोर फेरा फेरा’। हैडिंग के नीचे बीस नाम हैं, हर नाम के आगे ब्रैकेट में नाम वाले का प्रोफेशन है, जैसे कि — बिल्डर, ज्वेलर, होटेलियर, फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर वगैरह। आगे सबके मोबाइल नम्बर हैं।”
“मतलब क्या हुआ इसका?”
“क्या पता! लेकिन ये निश्चित है कि ये लिखा हुआ कागज वो साथ लाई। यहाँ तेरे सामने उसे फर्श पर से उठाने का महज नाटक किया।”
“हो सकता है। पर मतलब क्या हुआ इसका?”
“मैसेज है — और कुछ नहीं हो सकता — जो उसने तुझे कोई और समझ कर तुझे थमाया।”
“पीछे?”
“कोई लिस्ट है बड़े व्यापारियों की जिनकी स्क्रीनिंग की तरफ इशारा है।”
“कैसी स्क्रीनिंग?”
“क्या पता?”
“फेरा फेरा?”
“वो भी क्या पता! लगता है किसी ख़ास कम्यूनिटी के किसी त्योहार का नाम है जिससे पहले उस लिस्ट की स्क्रीनिंग होनी है।”
“फेरा फेरा!” — अल्तमश बोला — “मैंने तो ऐसा कोई त्योहार कभी नहीं सुना!”
“जैसे बाकी सारे त्योहार सुने हैं?”
“ओह!”
“फिर मैंने ये भी तो कहा कि लगता है — रिपीट, लगता है — दावा तो न किया कि ऐसा कोई त्योहार होता है!”
“ठीक।”
“लेकिन” — नीलम बोली — “एक खसमांखाने, बेफिजूल के मैसेज के लिये इतना आडम्बर क्यों? इतना खुफिया तरीका क्यों? मैसेज सीधे मुझे थमा देती या जुबानी बोल देती तो क्या प्रॉब्लम थी?”
“क्या पता!”
“कौन समझा उसने मुझे?”
“कोई ऐसी महिला जिसको दिया मैसेज आगे पहुंचता है।”
“आगे कहाँ? किसको?”
“मेरे ख़याल से बॉस को।”
“बॉस को! फिर तो वो औरत यहाँ कहीं होनी चाहिये!”
“होनी चाहिये थी लेकिन किसी वजह से नहीं थी। तभी तो उस लड़की ने तेरे से धोखा खाया और मैसेज तुझे थमा दिया।”
“क्योंकि मेरी शक्ल किसी से मिलती है!”
“तेरी शक्ल नहीं, तेरी वो शक्ल जो इस वक्त तू बनाये हुए है। जरूर वो किसी से मिलती है।”
“सुनो!” — एकाएक नीलम व्यग्र भाव से बोली — “बैंड स्टैंड के करीब खड़े उस सिग्रेट के कश लगाते बिना माँग के झब्बेदार बालों वाले उस हरा सूट पहने आदमी को देख रहे हो?”
विमल ने बैंड स्टैंड की तरफ निगाह दौड़ाई, फिर बोला — “अब देख रहा हूँ। क्यों?”
“थोड़ी देर पहले मैंने उसे लाल गाउन वाली लड़की के साथ डांस करते देखा था।”
“अच्छा!” — तब विमल ने नयी दिलचस्पी के साथ उस व्यक्ति को देखा।
वो ड्रैस अच्छी पहने था लेकिन शक्ल सूरत से कोई सम्भ्रान्त व्यक्ति नहीं लग रहा था। उसने यही फैसला किया कि वो वहाँ का बाउन्सर था। अमूमन बाउंसर मवालियों जैसी शक्लों वाले ही होते थे।
“अगर ये शख़्स” — वो बोला — “‘उस लड़की का कम्पैनियन है तो देर-सबेर वो लड़की फिर उसके करीब जरूर दिखाई देगी।”
“दिखाई दी तो क्या करोगे?”
“किसी तरह से उससे सम्पर्क साधूँगा और पूछूँगा इस मैसेज का क्या मतलब था जो किसी और के धोखे में उसने तुझे डिलीवर किया था।”
“मेरे को तो” — अल्तमश धीरे से बोला — “कम्पैनियन की जगह वो यहाँ का स्टाफ लग रहा है।”
“तो फिर वो लड़की भी स्टाफ होगी!”
“स्टाफ डांस फ्लोर पर?”
“क्या पता उनका काम डांस फ्लोर पर रौनक लगाना, डांस के लिये मेहमानों को उकसाना हो, ऐनकरेज करना हो!”
“ये हो सकता है।”
तभी लाल ड्रेस वाली महिला जैसे जादू के जोर से उनकी टेबल पर प्रकट हुई। उसने क्रोधित भाव से बाज जैसा झपट्टा विमल के हाथ पर मारा, उसमें से मैसेज वाला कागज निकाला और उसके टुकड़े-टुकड़े करके टेबल पर उछाल दिये। फिर जैसे एकाएक वो वहाँ पहुँची थी, वैसे ही एकाएक वहाँ से कूच कर गयी।
पीछे तीनों हकबकाये से एक दूसरे का मुँह देखने लगे।
“धज्जियाँ उड़ा गयी।” — फिर विमल बोला।
“बेतहाशा भड़की हुई थी।” — अल्तमश बोला।
“. . . जो वापिस जोड़ी भी नहीं जा सकतीं।”
“कोशिश के लिये समेटूँ?”
“कोई फायदा नहीं होगा। उसे भी ये बात मालूम थी वर्ना कागज के पुर्जे यहीं न फेंक गयी होती!”
“ये भी दुरुस्त है।”
“बहरहाल ये साबित कर गयी कि वो कोई इम्पॉर्टेंट मैसेज था जो उसकी नादानी से गलत हाथों में पहुँच गया था। इस बात से वो और भी ज्यादा बिफरी जान पड़ती थी कि मैसेज नीलम के नहीं, मेरे हाथ में था।”
“थी कौन?” — नीलम उत्सुक भाव से बोली।
“क्या पता! अभी यहाँ है, शायद पता लगे।”
तभी अशरफ वापिस लौटा।
“बहुत देर लगाई, मियाँ।” — विमल ने शिकायत की।
“सॉरी!” — अशरफ बोला — “जितना काम करने गया था, उससे ज्यादा करके आया न!”
“अरे, भई, हमें तो यही नहीं पता कि तू करने क्या गया था!”
“देखने गया था कि सुखनानी साहब की मर्सिडीज बाहर पार्किंग में थी या नहीं!”
“ओह! थी?”
“नहीं।”
“पिछले से पिछले बुधवार की तरह इंडिका पर आया?”
“पता नहीं। मेरे पास ये जानने का कोई जरिया नहीं, क्योंकि मेरे सामने तो न आया!”
“तो?”
“पर मैंने इंडिका देखी।”
“वही?”
“हाँ। ड्राइवर वही था लेकिन बतौर पैसेंजर उस पर कोई और सवार था।”
“टैक्सी होगी!”
“आप सुनिये तो!”
“सॉरी!”
“वो ‘इंडिका’ पैसेंजर उतार कर वहाँ से रुख़सत हो गयी। थोड़ी देर बाद एक और इंडिका वहाँ पहुँची — पहले वाली ही नहीं, कोई दूसरी जिसे कोई दूसरा ड्राइवर चला रहा था — जनाब, दोनों के नम्बर बताते थे कि वो प्राइवेट व्हीकल थे, टैक्सी नहीं थीं पर पैसेंजर ढो रही थीं। ख़ाली जाती थीं, पैसेंजर लेकर आती थीं। और ऐसा कहीं फासले से भी नहीं करती थीं क्यों थोड़े ही अरसे में लौट भी आयी होती थीं। मैं उनके बारे में कोई राय कायम करने की अभी कोशिश ही कर रहा था कि पहली इंडिका पैसेंजर के साथ फिर लौट आयी और पैसेंजर उतार कर वापिस चल दी। तब मेरे को अन्दर से कोई हुक्म हुआ जिस पर अमल की सूरत में मैं इंडिका के पीछे लगा।”
अशरफ का अन्दाजेबयाँ ही ऐसा था कि विमल चौकन्ना हो उठा। गहरी दिलचस्पी लेता तनिक आगे झुक कर वो उसकी बात सुनने लगा।
“इंडिका ग्रीन पार्क के मैट्रो स्टेशन की पार्किंग में पहुँची और वहाँ उसके एग्जिट गेट पर ड्राइवर ने इंजन बन्द कर दिया, लेकिन कार से बाहर न निकला। मैं अपनी टैक्सी बाहर सड़क पर खड़ी करके टहलता हुआ भीतर गया और . . . सोचिये, मैंने क्या देखा?”
“क्या देखा?” — विमल उत्सुक भाव से बोला।
“वहाँ सुखनानी साहब की मर्सिडीज खड़ी थी।”
“क्या! तूने ठीक से पहचानी?”
“जनाब, एक इलाके में मर्सिडीज जैसी कारें क्या सैकड़ों में दिखाई देती हैं?”
“क्या मतलब हुआ इसका?”
“मेरा भी यही सवाल है, क्या मतलब हुआ इसका? जब सुखनानी साहब की मंजिल ‘गोल्डन गेट’ थी, तो उन्होंने कार ग्रीन पार्क में क्यों खड़ी की? सीधे यहाँ क्यों न पहुँचे?”
“यहाँ रेस्टोरेंट की पार्किंग में जगह नहीं होगी!”
“यहाँ आये बिना उन्हें ये बात कैसे मालूम होती?”
“पुराने तजुर्बे से मालूम होगा कि रात की इस घड़ी यहाँ की पार्किंग में जगह नहीं होती थी।”
“ये भी मालूम कि ग्रीन पार्क मैट्रो स्टेशन की पार्किंग से उन्हें इंडिका मिलनी थी जो आराम से उन्हें यहाँ पहुँचाती?”
विमल ख़ामोश हो गया।
“और भी लोग तो यूँ यहाँ पहुँचे! सब को मालूम?”
“क्या कहना चाहता है? लगता है तेरे माइन्ड में कुछ है!”
“है तो सही माइन्ड में कुछ लेकिन उसके होने की कोई वजह समझ से दूर है।”
“क्या है माइन्ड में?”
“वो दो इंडिका यहाँ और ग्रीन पार्क मैट्रो स्टेशन की पार्किंग के बीच शटल सर्विस है। यहाँ के कुछ ख़ास मेहमान, कुछ ख़ासुलख़ास मेहमान सीधे यहाँ नहीं पहुँचते, उन्हें यहाँ के लिये ग्रीन पार्क मैट्रो स्टेशन की पार्किंग से पिक किया जाता है।”
“ऐसे, तुम्हारी जुबान में ख़ासुलख़ास, मेहमान यहाँ आकर उस दो रिजर्व्ड टेबल्स में से एक पर बैठते हैं . . .”
“दो टेबल किसलिये?”
“भई, शटल सर्विस के लिये दो इंडिका हैं न! हो सकता है और भी हों जो इतनी जल्दी तुम्हारी निगाह में न आयी हों। ऐसे मेहमान बड़ी तादाद में आ जायें तो सब एक टेबल पर कैसे बैठ पायेंगे?”
“ठीक!”
“इन्तजाम दो रिजर्व्ड टेबल्स का है, भले ही एक वक्त में एक ही इस्तेमाल में आये।”
“ठीक! तो मैं कह रहा था कि ऐसे मेहमान आकर रिजर्व्ड टेबल पर बैठते हैं, उन्हें वैलकम ड्रिंक से नवाजा जाता है, जिसको तकरीबन मेहमान ख़ातिर में भी नहीं लाते, फिर स्टीवार्ड की ओके पर वो उठकर स्क्रीन के पीछे जाते हैं और किसी प्राइवेट, एक्सक्लूसिव डायनिंग एरिया में पहुँच जाते हैं। वो डायनिंग एरिया कहाँ है, उस तक कैसे पहुँचा जाता है, ये तफ्तीश का मुद्दा है क्योंकि स्क्रीन के पीछे एक कबाड़ से भरे कमरे के अलावा कुछ नहीं है।”
“उसी में कोई भेद है खसमांखाना।” — नीलम उत्साह से बोली।
“शाबाश! लगता है कभी-कभी तुझे याद आ जाता है कि वाहे गुरु ने तुझे भी दिमाग दिया है।”
नीलम शरमाई।
“ये सब” — अशरफ बोला — “जो हमारी तवज्जो में आया, किसी और की तवज्जो में नहीं आया होगा?”
“काहे को आया होगा?” — विमल बोला — “कोई वजह आने की? हम तो यहाँ आये ही इस मकसद से हैं कि यहाँ खास कुछ है तो उसे भाँप सकें। औरों को तो ये वजह यहाँ नहीं लाती! फिर जैसे इत्त फ़ाकन कीमत राय सुखनानी हमारे किये प्वायन्टर बन गया, वैसे औरों को तो उससे कोई मतलब नहीं न!”
अशरफ ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“जो कोई खास सैट-अप यहाँ हमारी निगाह में आया है, उसमें हमारी सूझबूझ और दूरन्देशी ही वजह नहीं है, काफी सारा इत्त फ़ाक का भी हाथ है। जरूरी नहीं कि ये इत्त फ़ाक औरों के साथ भी हो।”
“लेकिन” — अल्तमश बोला — “ऐसा कोई प्राइवेट डायनिंग एरिया यहाँ है या नहीं है, उससे हमने क्या लेना-देना है?”
“कोई लेना-देना नहीं। ऐसी जगह बेशक यहाँ हो, ख़ुशी से हो। बड़े लोगों के मिजाज में अगर ऐसा फैंसी सैट-अप — जो उन्हें आम डाइनर्स से अलग करता है — आता है तो बाख़ुशी आये। लेकिन वो ऐसा खुफिया क्यों कि ढूँढ़े न मिले! इतने ऐसे ख़ास लोग हमारे सामने आये — वो सरदार आया, वो विग जैसे सफेद बालों वाला आया, सिन्धी सेठ आया, वग़ैरह-वग़ैरह आया — सब कहाँ चले गये? ये भेदभरी बात है जो इसे हमारा — ख़ासतौर से मेरा — सरोकार बनाती है।”
अल्तमश का — अशरफ का भी — सिर सहमति में हिला।
“दोस्तो” — विमल आगे बढ़ा — “एक शख़्स है जो इस सैट-अप के मामले में हमें ब्रीफ कर सकता है।”
“कौन?” — अशरफ बोला।
“कीमत राय सुखनानी। जो यहाँ के एक्सक्लूसिव डायनिंग एरिया का रेगुलर जान पड़ता है।”
“वो क्यों करेगा?”
“सीधे से तो नहीं करेगा! लेकिन करे, इसकी कोई सूरत निकालेंगे।”
“कौन?”
“हम सब।”
“कैसे?”
“देखेंगे।”
“अब?”
“अब डिनर ऑर्डर करते हैं, और फिर चलते हैं।”
“जिन ख़ासुलख़ास साहिबान को हमने जाते देखा, उनके लौटने का इन्तजार नहीं करना चाहिये हमें!”
“क्या फायदा होगा? यूँ वक्त ही जाया होगा। जो गया है, उसने लौटना तो है ही! जाने में भेद है, लौटने में क्या भेद होगा?”
“शायद हो।”
“ऐसा हो तो तुम रुको यहाँ, हम मियाँ बीवी चलते हैं।”
अशरफ हड़बड़ाया।
विमल हँसा।
फिर उसने स्टीवार्ड को बुला कर डिनर का ऑर्डर दिया।
“मैं” — अल्तमश संकोच में बोला — “एक जाम और ले सकता हूँ?”
विमल की भवें उठीं।
“आप की नवाजिश के सदके जिन्दगी में पहली बार विलायती दारू का मजा चखा . . .”
“दूसरी बार।” — विमल बोला — “परसों रात को भूल गया?”
“हवाला आप की नवाजिश का था। ‘हाईड पार्क’ में तो मेरे ड्रिंक्स उस, अब मेरे जैसे, जमूरे की तरफ से थे!”
“ओह! सॉरी!”
“. . . पता नहीं फिर कभी ऐसा मौक़ा कब नसीब होगा . . . होगा भी या नहीं!”
“होगा। पर मैं ड्रिंक मँगाता हूँ।”
उसने अशरफ की तरफ देखा।
अशरफ ने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।
विमल ने वेटर को बुला कर सिर्फ अल्तमश के लिये ड्रिंक का ऑर्डर दिया।
एकाएक नीलम ने विमल की बाँह थाम कर व्यग्र भाव से दबाई।
तत्काल विमल उसकी तरफ घूमा।
“उधर देखो।” — नीलम उसकी तरफ झुकती रहस्यपूर्ण स्वर में बोली।
“किधर?”
“बैंड स्टैंड की तरफ। उसके बायें बाजू। थोड़ा पीछे। वो दोनों खड़े हैं?”
“कौन दोनों?”
“जिन्हें मैंने डांस फ्लोर पर डांस करते देखा था। वो बघियाड़ जैसी शक्ल वाला आदमी। हरा सूट! बिना माँग के झब्बेदार बाल . . .”
“बाउन्सर!”
“अगर है तो। और वो लाल गाउन वाली औरत जो तुम लोगों के लौटने से पहले यहाँ थी। जो मेरे लिये सन्देशा छोड़ के गयी!”
“ओह!”
विमल ने गौर से उधर देखा तो फासले से भी उसे लगा कि औरत का चेहरा फव्फ़ था और हरे सूट वाला उस पर आगबगूला हो रहा था। उसके देखते-देखते दो बार उसने उसे बाँह पकड़ कर बुरी तरह से झिंझोड़ा।
तभी वेटर उनके डिनर के ऑर्डर की डिशिज से सुसज्जित ट्राली धकेलता वहाँ पहुँचा। वो डिशिज को टेबल पर ट्रांसफर करने लगा तो विमल ने उसे रोका।
“सर!” — वेटर ठिठका और बोला।
“हम सर्विस से बहुत खुश हैं।” — विमल बोला — “ये तुम्हारी एडवांस टिप।”
ये देखकर वेटर के नेत्र फैले कि विमल उसकी तरफ पाँच सौ का नोट बढ़ा रहा था।
वेटर ने सादर नोट स्वीकार किया।
“अभी उसका जुड़वाँ भी है तुम्हारे लिये।” — विमल अर्थपूर्ण भाव से बोला।
“जी!” — वेटर सकपकाया।
“बशर्ते कि एक छोटी-सी बात पर रौशनी डालो।”
“कौन-सी बात, सर?”
“बैंड स्टैंड की तरफ देखो। वहाँ बायीं तरफ एक हरे सूट वाले साहब और लाल गाउन वाली मेम साहब खड़ी हैं। देखा?”
“यस, सर।”
“साहब कौन हैं?”
“चौहान साहब हैं। यहाँ के सिक्योरिटी के इंचार्ज हैं।”
“पूरा नाम?”
“मालूम नहीं, सर। हर कोई चौहान साहब ही बुलाता है उन्हें।”
“और मेम साहब?”
“मीनू ईरानी। यहाँ की होस्टेस हैं।”
“ओह! थैंक्यू! प्लीज सर्व।”
वेटर ने ख़ामोशी से, मशीनी अन्दाज से तमाम प्लेटें ट्राली पर से टेबल पर सर्व कीं और ट्राली के साथ वहाँ से रुख़सत हो गया।
विमल ने बैंड स्टैंड की तरफ फिर निगाह डाली तो पाया कि वो वहाँ नहीं थे और हाल में भी नहीं दिखाई दे रहे थे।
चारों डिनर में मशगूल हो गये।
डिनर के दौरान एकाएक लाल गाउन — मीनू ईरानी। होस्टेस — विमल को फिर दिखाई दी।
प्रवेशद्वार के करीब के एक बन्द दरवाजे के करीब।
उसके देखते-देखते वो दरवाजा ठेल कर भीतर दाखिल हुई। तत्काल दरवाजा उसके पीछे बन्द हो गया।
“आता हूँ।” — विमल उठा और लम्बे डग भरता उस तरफ बढ़ा।
इस दरवाजे के करीब पहुँच कर उसने उसे धकेला और भीतर कदम डाला।
दरवाजे के परली तरफ एक स्टूल पर एक अधेड़ महिला बैठी थी। उसके अलावा उसे भीतर कोई दिखाई न दिया।
“सर” — उसे देखते ही महिला सभ्य किन्तु स्थिर स्वर में बोली — “ये स्टाफ का रैस्टरूम है। गैस्ट वाशरूम्स उधर बैंड स्टैंड के पीछे पैसेज में है।”
“अभी यहाँ एक लाल गाउन वाली मैडम आयी थीं . . .”
“हाँ। भीतर हैं। वाशरूम में। आप प्लीज, बाहर जाइये।”
“मैं चौहान साहब का दोस्त हूँ।”
“ओह! लेकिन, सर, फिर भी . . . प्लीज, बाहर जाइये।”
विमल बाहर निकला और प्रतीक्षा करने लगा।
थोड़ी देर बाद वो उतावला होने लगा।
वो फिर भीतर दाखिल हुआ।
“क्या बात है?” — उसने स्टूल पर बैठी अधेड़ महिला से पूछा — “वो लाल गाउन वाली मैडम तो . . .”
“चली गयीं।” — महिला सहज भाव से बोली।
“चली गयीं! किधर से चली गयीं? मैं तो बाहर . . .”
“यहाँ पीछे भी एक दरवाजा है जो बाहर राहदारी में खुलता है।”
“ओह!”
“मैडम बहुत जल्दी में थीं। इतनी ज्यादा कि अपना हैण्डबैग भूल गयीं।”
महिला ने परे एक टेबल पर पड़े एक लाल रंग के जनाना हैण्डबैग की तरफ इशारा किया।
“अरे! हैण्डबैग भूल गयी अपनी मीनू। अभी बाहर ही होगी। दे के आता हूँ।”
लम्बे डग भरता वो आगे बढ़ा, उसने मेज पर से हैण्डबैग उठाया और पिछवाड़े को लपका।
“सर! सर!”
विमल ने उसकी एक न सुनी। पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर वो राहदारी में पहुँचा और उस पर चलता आगे फ्रंट यार्ड में पहुँचा जिससे आगे मेन रोड थी।
लाल गाउन उसे कहीं दिखाई न दी।
वो पार्किंग में खड़ी अपनी कार में पहुँचा। उसने कार की भीतर की लाइट जलाई, हैण्डबैग को खोला और भीतर का सामान टटोला।
आम जनाना आइटमों के अलावा दो चीजें उसे दिलचस्पी के काबिल लगीं।
एक, आधार कार्ड जिसके मुताबिक उसका पता था: 14/1 सैकण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली—110008 । कॉर्ड पर दर्ज जन्मतिथि के मुताबिक उसकी उम्र बत्तीस साल थी।
दूसरी आइटम एक चाबियों का गुच्छा था, जिसमें जुदा शेप और साइज की तीन चाबियाँ थीं।
उसने तीनों चाबियों की कई कोणों से अलग-अलग कई तसवीरें खींच लीं। फिर उसने बैग से ही एक कागज और बॉल पैन बरामद किया और तीनों चाबियों की कागज पर आउटलाइन उकेर ली।
आखि़र उसने दोनों चीजें वापिस बैग में डालीं और वापिस लौटा।
वो फिर कथित स्टाफ रैस्टरूम में अधेड़ महिला से रूबरू हुआ।
“नहीं मिली।” — वो बोला — “निकल गयी। बैग सम्भालो। खुद ही देना।”
महिला ने चैन की लम्बी साँस लेते बैग वापिस लिया।
“आपको ऐसा नहीं करना चाहिये था।” — फिर गिला करती आवाज में बोली।
“कैसा नहीं करना चाहिये था?” — जानबूझकर अंजान बनता विमल बोला।
“जैसा . . . आपने किया?”
“क्या किया? क्या समझा? गया बैग?”
“अब क्या बोलूँ! मैं तो सच में ही यही समझी थी . . .”
“कि मैं चोर! झपटमार!”
“मैं तो मैनेजर को इस बाबत ख़बर करने जा रही थी कि . . . कि . . .”
“चोर लौट आया!”
“स-सॉरी!”
“चाहो तो बैग का सामान भी चैक कर लो।”
“जरूरत नहीं। आपकी . . . आपकी . . . नीयत में कोई . . . कोई खोट होती तो आप लौट कर न आये होते।”
“सयानी हो काफी।”
विमल वापिस टेबल पर लौटा।
सब की सवालिया निगाहें उस पर पड़ीं।
डिनर की तरफ फिर से तवज्जो देते विमल ने बताया कि क्या हुआ था।
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