वो एक काफी बड़ा कमरा था। लेकिन उसमें एक गोल मेल और चार कुर्सियों के अलावा कुछ नहीं था।

विमल ने भीतर कदम रखा तो हवलदार ने उसके पीछे दरवाजा बंद कर दिया।

उस वक्त दो बजने को थे।

सुबह आठ बजे कचहरी में हाजिरी से पहले मायाराम से उसकी मुलाकात फिक्स कराने की लूथरा की कोशिश नाकाम रही थी। उस वक्त जनकराज भी उनकी कोई मदद नहीं कर सका था क्योंकि उसके एसएचओ के मुताबिक तब अहमतरीन काम मायाराम को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करना और उसका रिमांड हासिल करना था। तब विमल को अपने मेहरबान दोस्त योगेश पाण्डेय से मदद की गुहार करनी पड़ी थी जिसने कि उसकी इच्छापूर्ति का इन्तजाम किया था, जो उसके साथ ही वहां पहुंचा था और उस घड़ी एसएचओ के कमरे में उसके पास बैठा हुआ था।

विमल ने कुर्सी पर ढेर पड़े हुए मायाराम पर निगाह डाली। मायाराम का सिर उसकी छाती पर झुका हुआ था और वो बहुत निढाल और थका हुआ लग रहा था। कुर्सी के एक हत्थे के साथ टिकी उसकी दोनों बैसाखियां उसके करीब पड़ी थीं।

विमल उसके करीब पहुंचा तो उसने सिर उठाया। विमल पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये।

“कैसे हो, उस्ताद जी?” — विमल धीरे से बोला।

“तुझे क्या दिखाई देता है?” — मायाराम जले भुने स्वर में बोला।

“फंस गए आखिरकार!”

“फंसा दिया गया।”

“अरे! किसने किया ऐसा?”

“तू तो मुम्बई वापिस चला गया था!”

“हां। अखबार में छपी तुम्हारी खबर पढ़ के लौटा हूं।”

“जले पर नमक छिड़कने?”

“हमदर्दी जताने।”

“हमदर्दी से तकदीर पर लगे ताले नहीं खुलते।”

विमल हंसा।

“बहुत बढ़िया फिट किया मुझे।”

विमल फिर हंसा।

“कैसे किया? रिमोट कन्ट्रोल से?”

“मैंने बोला था मेरे हजार हाथ हैं।”

“अब कैसे आया?”

“इजाजत हो तो मैं बैठ जाऊं?”

“बैठ, भई। मैं कौन होता हूं इजाजत देने वाला!”

विमल उसके सामने एक कुर्सी पर ढेर हुअा।

“मैंने कई जुर्म किये।” — मायाराम अवसादपूर्ण भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला — “किसी जुर्म में गिरफ्तार हुआ तो किसी में पकड़े जाने से बच गया। पांच बार जेल गया जबकि पचास बार जा सकता था। इस लिहाज से हमेशा खुशकिस्मत समझता था अपने आपको। लेकिन अब देखो, किस्मत की कैसी मार पड़ रही है! अब मैं उस जुर्म में गिरफ्तार हूं जो मैंने नहीं किया।”

“सब ‘उस’ की माया है। रब्ब रूठे तो यही होता है। जब किसी पर परमात्मा की कृपा नहीं होती तो संसार में भी उसे कोई नहीं पूछता। जे तिसु नदरी न आवई, ता वात न पुछै के।”

“शायद तू ठीक कह रहा है।”

विमल खामोश रहा।

“उस सब-इन्स्पेक्टर ने जब मुझे कहा था कि मेरे से कोई मिलना चाहता था तो मैंने समझा था कि कोई अखबार वाला होगा। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे से मिलने तू आया होगा।”

विमल मुस्कुराया।

“कैसे आया?”

“तुम्हारा हालचाल जानने आया। मिजाज परखने आया। ये देखने आया कि मिजाज में पहले वाली तुर्शी अभी बाकी थी या खत्म हो गयी थी या घट गयी थी। या और बढ़ गयी थी।”

“उड़ा ले खुश्की। लेकिन ये न भूल कि बुरा वक्त किसी का भी आ सकता है।”

“उस्ताद जी, तुम्हारा बुरा वक्त आया नहीं है। तुमने खुद उसे न्योता दे के बुलाया है।”

“ऐसा नहीं है।”

“ऐसा ही है।”

“मैंने कत्ल नहीं किया। मैं बिलकुल बेगुनाह हूं।”

“मुझे मालूम है।”

“तुझे मालूम है?”

“हां। लेकिन मौजूदा हालात में सात जन्म अपने आपको बेगुनाह साबित नहीं कर पाओगे।”

वो कसमसाया, उसने बेचैनी से पहलू बदला।

“तू कहता है” — फिर वो बोला — “कि तुझे मालूम है कि कातिल मैं नहीं?”

“हां।”

“यानी कि कातिल कोई और है?”

“ये भी कोई कहने की बात है! जो काम तुमने नहीं किया, वो किसी ने तो किया ही होगा!”

“तू कैसे इतने यकीन से कहता है की कत्ल मैंने नहीं किया?”

“गलत तो नहीं कहता!”

“लेकिन कैसे कहता? तू जानता है कातिल को?”

“हां। तभी तो इतना बड़ा फतवा दिया कि तुम बेगुनाह हो।”

“कौन है कातिल? और तू कैसे जानता है उसे?”

“जरा कान इधर लाओ।”

बड़े सस्पेंसभरे अंदाज से मायाराम ने सिर आगे बढ़ा कर अपना एक कान उसके करीब किया।

“क्योंकि कत्ल मैंने किया है।” — विमल धीरे से बोला।

मायाराम चौंका।

“सच कह रहा है?” — वो संदिग्ध भाव से बोला।

“ऐसी बात पर कोई झूठ बोलता है?” — विमल बोला।

“मुझे ये तो अन्देशा बराबर था कि जो कुछ हो रहा था, तेरी शह पर हो रहा था लेकिन ये मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि... कि कत्ल ही तूने किया होगा।” — मायाराम एक क्षण ठिका और फिर बोला — “यानी कि कहीं गया नहीं था, शुरू से ही यहीं था?”

“हां।”

“मुझे भरमाने के लिए कह रहा था कि मुम्बई जा रहा था?”

“यही समझ लो।”

“तुझे सामने पा कर अब मुझे ये भी सूझ गया है कि आलायकत्ल पर मेरी उंगलियों के निशान कैसे बने!”

“बढ़िया।”

“क्या उम्दा ड्रामा किया तूने सोमवार शाम को मेरे घर पर! शहीदी हुलिया बना कर फरियाद करते करते फुल उल्लू बना लिया मुझे। वही रिवाल्वर मेरे पर थोप दी जिससे बाद में कत्ल हुआ। खुदकुशी नहीं कर सकता। मैं ही मार दूं तुझे। अहसान होगा मेरा तेरे पर। कोई साथ नहीं देता। कोई मददगार नहीं बनता। वाह! तुझे तो फिल्मों में होना चाहिये था!”

“सोचूंगा मैं इस बाबत।”

“वो सारा ड्रामा तूने रिवाल्वर पर मेरी उंगलियों के निशान हासिल करने के लिए किया था। मेरा जूता भी तब इसीलिए उतरवाया था कि तू देख समझ सकता कि वो कैसा था और बाद में वैसा ही सीमेंट लगा जूता मेरे जूते की जगह तू मेरे पर थोप सकता।”

“कितने समझदार हो गए हो!”

“वो टैक्सी ड्राइवर, वो रेस्टोरेंट का वेटर, वो कालगर्ल, सब तेरे पिट्ठू थे।”

“हाथ थे। हजार में से कुछ।”

“मैंने अभी तक पुलिस के सामने तेरा जिक्र करने से परहेज रखा है।”

“जो कि तुम्हारा अहसान है मेरे ऊपर?”

“क्यों नहीं है?”

“पुलिस यकीन कर लेगी तुम्हारी बात पर?”

“तेरा जिक्र करूंगा तो कर लेगी।”

“आजमा देखो। मैं चला जाता हूं। कामयाब हो गये तो बात ही क्या है! न हो सके तो फिर लौट आऊंगा।”

“तू आया क्यों है?”

“सोचो। अक्ल पर जोर दो। आखिर इतने सयाने हो! उस्ताद जी हो!”

वो खामोश रहा।

“एक बात ध्यान रखना, उस्ताद जी। अभी मैंने तुम्हारे खिलाफ कुछ ही हाथ आजमाये हैं, हजार हाथों का जोशोजलाल देखना अभी तुम्हें नसीब नहीं हुआ। तुमने मेरी बाबत जुबान खोली तो मेरे हजार हाथों की ताकत देखोगे। देखोगे और झेलोगे। तुम्हारी वाहिद आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन के रह जाएगी। जितना मर्जी भौंक लेना, कोई कान नहीं देगा।”

“तू ऐसा सलूक करेगा मेरे साथ?”

“और कैसे सलूक का हकदार समझते हो अपने आपको? जैसा सलूक तुमने मेरे साथ किया, नीलम के साथ किया उसकी रू में कौन सा बुरा सलूक हो रहा है तुम्हारे साथ ? हो रहा है तो उसकी दुहाई देने का मुंह बनता है तुम्हारा?”

“अपनी ताकत आजमा रहा है मेरे पर?”

“जिसके हाथ में ताकत होती है, वो उसे आजमाता ही है। जब तुम्हारा वक्त था तो क्या तुमने नहीं आजमाई थी?”

मायाराम ने जोर से थूक निगली।

“जिस हथ जोर कर वेखे सोई, नानक उत्तम नीच न कोई।”

“एक बात बता। तेरे बारे में तो मशहूर है कि तूने कभी किसी बेगुनाह की जान नहीं ली! फिर पंत को मार डालना तुझे कैसे गवारा हुआ?”

“वो बेगुनाह किधर से था? वो ब्लैकमेलर था। वो यारमार शख्स तुम्हें धोखा देकर वहां सात लाख की रकम कलैक्ट करने आया था।”

“ब्लैकमेलर की सजा मौत तो नहीं होती!”

“बलात्कारी की होती है। वो शख्स मेरी आंखों के सामने मेरी ब्याहता बीवी के साथ जबर जिना पर आमादा था, वो मौत की सजा का ही हकदार था।”

“उसने ऐसी कोई नीयत न दिखाई होती, वो रकम से ही तसल्ली कर लेता तो क्या तू उसे छोड़ देता?”

“क्या पता क्या करता! जो हुआ नहीं, उसका जिक्र किसलिये?”

“कैसे छोड़ देता? उसे मार कर उसका कत्ल तो तूने मेरे सिर मंढ़ना था! इतनी तैयारी की हुई थी तूने इस बात की! कैसे छोड़ देता?”

“जिसका बुरा वक्त आया होता है, ऊपर वाला उसकी मति पहले हर लेता है। उसने वही करना था जो उसने किया, मैंने भी वही करना था जो मैंने किया। जिस तिसु भावे तिवें चलावे, जिव होवै फरमानु।”

“तू इसे मेरा अहसान नहीं मानता कि इतना फंसा होने के बावजूद मैं तेरा नाम जुबान पर न लाया! उस पुलिस वाले ने बार बार मेरे से पूछा कि कौन मुझे फंसा रहा था, मैंने एक बार भी तेरा जिक्र न किया!”

“तुम इसे मेरा अहसान नहीं मानते कि मैंने पुलिस तक ये खबर नहीं पहुंचाई कि तुम वो मायाराम बावा हो जो भारत बैंक अमृतसर की डकैती का सरगना था! जिसने अपने ही दो साथियों का पूरी बेरहमी के साथ कत्ल किया था और जिसकी गिरफ्तारी पर, मुझे अब मालूम हुआ है कि, पंजाब पुलिस ने पच्चीस हजार रुपये के इनाम की घोषणा की हुई है!”

वो हड़बड़ाया।

“तुम गिरफ्तार हो। पंजाब पुलिस के पास तुम्हारी उंगलियों के निशान मौजूद हैं। दिल्ली पुलिस वो निशान अब हासिल कर लेगी — या शायद कर भी चुकी होगी — फिर चुटकियों में ये स्थापित हो जायेगा कि तुम क्या बला हो! फिर मौजूदा केस में तुम्हें कोई सजा हो न हो, उस पुराने केस में ही फांसी पर टांग दिये जाओगे।”

वो घबराया।

“देर सबेर तो” — फिर बोला — “मेरी पोल पट्टी पुलिस के सामने आ ही सकती है!”

“शायद न आये। शायद इसलिये न आये क्योंकि वो दूसरे राज्य का केस है। फिर भी आये तो शायद तब आये जबकि तुम आजाद हो चुके होवो।”

“मैं! आजाद!”

“आजाद हो जाओ तो फिर फरार हो जाना। दिल्ली और पंजाब से ज्यादा से ज्यादा दूर फरार हो जाना।”

“लेकिन आजाद!”

“हो सकते हो। जो तुम्हें फंसा सकता है, वो आजाद भी करा सकता है।”

“तू ...तू मुझे आजाद करा सकता है?”

“हां। इसीलिये तो यहां आया हूं!”

“तो करा। कराता क्यों नहीं?”

“कराऊंगा लेकिन अभी नहीं।”

“तो कब?”

“जब मुझे अहसास होगा कि तुम मेरी मुखालफत में पाले से पार नहीं खड़े हो, मेरे पहलू में मेरी तरफ खड़े हो।”

“ऐसा कैसे होगा?”

“सोचो।”

“तू चाहता है मैं नीलम का पीछा छोड़ दूं?”

“वो तो अब वैसे ही छूट जायेगा। जेल में बैठे कौन-सा नया करतब कर दिखाओगे! हवालात से जेल में, जेल से फांसी के तख्ते पर, वहां से जहन्नुम में। अब तो यही राम कहानी है तुम्हारी बाकी जिन्दगी की।”

उसके शरीर ने जोर से झुरझुरी की।

“लेकिन तुम मुझे बचा सकते हो?” — वो आशापूर्ण स्वर में बोला।

“अब क्या लिख के दूं?”

वो सोचने लगा।

“जहां हम बैठे हैं, ये हम में से किसी के घर की बैठक नहीं है। इसलिये जो फैसला करना है, जल्दी करो।”

“मुझे जरा तो सोचने दे!”

“जरा सोच लो। जरा सोचने में कौन से महीनों लगते हैं!”

“वही तो!”

“तुम्हारी सोच को परवाज देने के लिये मैं एक बात और भी कहना चाहता हूं।”

“वो क्या?”

“तुम्हारे से पिछली मुलाकात के बाद से मैं कुल्लु का चक्कर लगा आया हूं। मैं उस गांव में हो आया हूं जहां से तुम नीलम को भगा के लाये थे।”

उसके नेत्र फैले।

“तुम्हारी जानकारी के लिये वो पंडित जिसने कि शादी का सर्टिफिकेट जारी किया था, मर चुका है।”

“अरे! उपाध्याय जी मर गये!”

“और गांव में तुम्हारी शादी की किसी को खबर नहीं है। वहां बच्चे बच्चे की जुबान पर एक ही बात है कि मायाराम नीलम को भगा के ले गया था। आज भी उस गांव में तुम्हारी इस करतूत पर इतना रोष है कि अगर भूले भटके कभी तुम वहां पहुंच गये तो गांव वाले तुम्हें जूतों से मारेंगे। इसलिये ये खयाल अपने जेहन से निकाल दो कि तुम्हारी मौत की खबर सुन कर गांव से कोई सौ पचास लोग आयेंगे और तुम्हारी विधवा को जबरन अपने साथ ले जायेंगे। तुम्हारी खबर लगने पर तुम्हारी लाश पर थूकने को भले ही चंद लोग वहां से आ जायें, इस काम के लिये कोई नहीं आने वाला।”

“ये भी तेरी कोई साजिश है।” — मायाराम भड़का।

“क्या साजिश है? छ: महीने पहले हुई तुम्हारे पुजारी की मौत का सामान मैंने किया?”

“तूने भोले भोले गांव वालों को मेरे खिलाफ भड़काया होगा!”

विमल हंसा और फिर बोला — “तरस आता है मुझे तेरी अक्ल पर।”

“तू तसवीरों को नहीं झुठला सकता।”

“मैंने की कोई ऐसी कोशिश?”

“तो फिर?”

“उन तसवीरों का जब कोई वजूद ही बाकी नहीं रह जायेगा तो उनको झुठलाना क्यों जरूरी रह जायेगा, मेरे भाई?”

“ओह! तो ये मंशा है तेरी!”

“शुक्र है देर से समझा लेकिन समझा।”

“तो मेरी रिहाई की तेरी ये शर्त है कि वो तसवीरें मैं तुझे वापिस दूं?”

“तसवीरें ही नहीं, उनके नेगेटिव भी। शादी के सर्टिफिकेट की मूल प्रतिलिपि भी।”

“तसवीरें और नहीं हैं। तसवीरें वो ही थीं जो मैंने तुझे दे दी थीं।”

“तो नेगेटिव और सर्टिफिकेट मेरे हवाले कर।”

“यहां से निकले बिना कैसे करूं?”

“बातें मत बना। उस्तादी मत दिखा। मैं सच में ही तेरा शार्गिद नहीं।”

“तू कहां शार्गिद है! तू तो उस्तादों का उस्ताद हो गया है!”

“बोला न, बातें न बना।”

“मुझे यहां से निजात दिला, फिर मैं तेरी मांग पूरी करता हूं।”

“पहले कर।”

“पहले कैसे करूं?”

“तो फिर सत श्री अकाल।” — विमल ने उठने का उपक्रम किया।

“अरे, अरे!” — मायाराम हकबकाया सा बोला — “रुक जा।

“अच्छी बात है। रुक गया।”

“यहां से बाहर निकले बिना कैसे मैं वो चीजें तुझे सौंप सकता हूं?”

“उस जगह का पता बोल जहां कि तू ने उन्हें छुपाया है।”

“वो मेरे चाल वाले घर में हैं लेकिन मैंने उन्हें ऐसी खुफिया जगह छुपाया हुआ है कि मेरे सिवाय उन्हें कोई तलाश नहीं कर सकता।”

“बकवास मत कर। पहले तो तेरे घर की पुलिस ही भरपूर तलाशी ले चुकी है, उसके बाद सुई तलाश करने जैसी बारीकी से मैंने वहां का एक एक कोना खुदरा टटोला है। वहां कुछ नहीं रखा।”

“लेकिन...”

“वहां कुछ नहीं रखा। कोई दूसरा ऐसा ठिकाना हो तो बोल।”

“अब मैं तुझे कैसे समझाऊं?”

“कोशिश भी मत कर। उस्तादी हर जगह नहीं चलती।”

“तू मुझे कैसे बचायेगा?”

“जब वक्त आयेगा तो देखना।”

“पहले बता। मेरी जगह खुद को तो बतौर कातिल पेश कर नहीं देगा!”

“पागल हुआ है!”

“वही तो!”

“तेरे खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं है। सब परिस्थितिजन्य सबूत हैं जिन्हें कि अंग्रेजी में सरकमस्टांशल ईवीडेंस कहते हैं।”

“मेरे खिलाफ जो गवाह हैं, वो मुकर जायेंगे?”

“मुकर नहीं जायेंगे — मुकर जाने से तो वो फंस जायेंगे — गायब हो जायेंगे। ऐसे गायब हो जायेंगे कि किसी को ढूंढें नहीं मिलेंगे।”

“रिवाल्वर पर मेरी उंगलियों के निशान?”

“वैसे ही बने थे जैसे कि अभी तुझे सूझा है। वो कहानी पुलिस को तू अब सुनायेगा, सिर्फ मेरा नाम नहीं लेगा।”

“तो फिर किसका नाम लूंगा?”

“कोई भी फर्जी नाम जिसे तू अपना और पंत का वाकिफकार बतायेगा।”

“ऐसा चल जायेगा?”

“जब वो कालगर्ल तेरी इस बात को झुठलाने वाली नहीं होगी कि शाम आठ से दस तक तू निजामुद्दीन में था, वो टैक्सी ड्राइवर ये कहने वाला नहीं होगा कि निजामुद्दीन से कश्मीरी गेट के रास्ते में तू झण्डेवालान भी गया था, होटल का वेटर ये कहने वाला नहीं होगा कि शायद पंत ने साढ़े सात बजे खाना नहीं खाया था तो चल जायेगा। तेरे खिलाफ जो सबूत हैं, वो ऐसे हैं कि एक सबूत दूसरे सबूत को बल देता है और एक कड़ी दूसरी कड़ी को जोड़ती है। जब ‘एक’ सबूत नहीं रहेगा तो ‘दूसरे’ सबूत को बल मिलना अपने आप ही बन्द हो जायेगा। बीच की कुछ कड़ियां गायब हो जायेंगी तो वो जंजीर ही गायब हो जायेगी जो इस घड़ी तेरे गले में फंदे की तरह पड़ी हुई हैं।”

“कत्ल का उद्देश्य?”

“तूने बताया कुछ इस बाबत पुलिस को?”

“मैंने नहीं बताया लेकिन पुलिस अपनी तफ्तीश से इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि कत्ल की बुनियाद वो ब्लैकमेल थी जिसमें कि मेरा पार्टनर पंत बेइमान हो गया था और जिसकी बेइमानी की मैंने उसका कत्ल करके उसे सजा दी थी।”

“मुझे सुमन से मालूम हुआ है कि नीलम ने ब्लैकमेल की कोई वजह बयान नहीं की है, पुलिस के बहुत जोर देने के बावजूद बयान नहीं की है।”

“लेकिन पुलिस कहती है कि उसने कबूल किया है कि उसे ब्लैकमेल किया जा रहा था।”

“पंत कर रहा था। वो टाइपराइटर भी उसी के कमरे में से बरामद हुआ है जिस पर कि ब्लैकमेल वाली चिट्टी टाइप की गयी थी। जब हल्फिया बयान देने की नौबत आयेगी तो नीलम इसी बात पर जोर देगी कि ब्लैकमेलर पंत था और सिर्फ पंत था। अगर पहले किसी संदर्भ में उसने तेरा नाम लिया होगा तो वो अब मुकर जायेगी। कह देगी कि पुलिस को उसकी बात समझने में गलती हुई थी।”

“वो चिट्टी मैंने टाइप की थी। टाइपराइटर की कैरेज पर से पुलिस ने मेरी उंगलियों के निशान उठाये हैं।”

“तो क्या हुआ! उससे सिर्फ ये साबित होता है कि तूने टाइपराइटर इस्तेमाल किया था लेकिन खास वो चिठ्टी टाइप करने के लिये इस्तेमाल किया था, ये पुलिस साबित नहीं कर सकती। तूने किसी के सामने तो चिठ्टी टाइप की नहीं होगी!”

“पंत के सामने की थी।”

“वो अब किसी गिनती में नहीं आता। वो मर चुका है। मुर्दा उठ कर तेरे खिलाफ बयान देने के लिये खड़ा नहीं हो सकता।”

“मेरे से पूछा नहीं जायेगा कि मैंने वो चिठ्टी टाइप नहीं की थी तो क्या टाइप करने के लिये टाइपराइटर इस्तेमाल किया था?”

“इसके दर्जनों जवाब मुमकिन हैं। तू काले चोर के लिये चिट्टी टाइप की होनी बता सकता है। तू ये तक कह सकता है कि तुझे तो टाइप आती ही नहीं, तू तो महज टाइपराइटर के साथ खिलवाड़ कर रहा था, या टाइप सीखने की कोशिश कर रहा था।”

“हूं।”

“ये मत भूल कि पुलिस को पहले से ही शक है कि चिट्टी में पांच को सात पंत ने किया था। चिट्टी टाइप भी उसी ने की हो, ये बात कोई बहुत ज्यादा दूर की कौड़ी नहीं साबित होगी। टाइप के वक्त वो तेरे पास मौजूद था। वो ये कहने के लिये उपलब्ध नहीं है कि असल में चिट्टी तूने टाइप की थी लेकिन तू ये कह सकता है कि चिट्टी उसने टाइप की थी। मुर्दा तेरी बात को नहीं झुठला सकता। या झुठला सकता है?”

“नहीं झुठला सकता।”

“दुरुस्त। लिहाजा ब्लैकमेल के मामले में फोकस उसी पर बना रहेगा।”

“ब्लैकमेल के इलजाम से फिर भी मेरी खलासी न हुई तो...”

“होगी। अकेला ये इलजाम तब तक कोर्ट में तेरे खिलाफ नहीं टिक सकता जब तक कि नीलम तेरे खिलाफ गवाह न हो। अब जब मैं कहता हूं कि वो तेरे खिलाफ गवाह नहीं होगी तो नहीं होगी। फिर पुलिस को भी इस बात के लिये तैयार किया जा सकता है कि वो ब्लैकमेल के केस को कोर्ट में वाटर डाउन कर के पेश करे और पहली ही पेशी में तेरी जमानत पर कोई हुज्जत न करे।”

“ये जो पुलिस को दो हफ्ते का रिमांड मिला है?”

“जरूरी नहीं पुलिस दो हफ्ते बाद ही तुझे अदालत में पेश करे, वो पहले भी पेश कर सकती है। करेगी।”

“करेगी?”

“उन्हें उसकी कीमत चुकायी जायेगी तो क्यों नहीं करेगी?”

“कीमत कौन चुकायेगा?”

“चुकायेगा तुम्हारा कोई हमदर्द! कोई खैरख्वाह! कोई सखी हातिम!” — विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “कोई हजार हाथ वाला!”

“मैं फौरन तो रिहा नहीं हो सकता न?”

“क्या कहने! सपने देख रहा है?”

“फिर क्या फायदा हुआ?”

“कोई और फायदा है तेरी निगाह में?”

वो खामोश रहा।

“तसल्ली से फैसला कर ले।” — विमल उठता हुआ बोला — “फिर मुझे चिट्टी लिख देना।”

“तू ... तू क्या चाहता है?”

“कौन-सी जुबान समझता है?” — विमल चिढ़ कर बोला — “अभी तक क्या मैं फारसी बोल रहा था जो तेरे पल्ले ये नहीं पड़ा कि मैं क्या चाहता हूं?”

“मैं यहां से निकले बिना वो चीजें तुझे नहीं सौंप सकता।”

“वो चीजें मुझे सौंपे बिना तू यहां से नहीं निकल सकता।”

“लेकिन...”

“वो चीजें तेरे घर पर नहीं हैं। जहां हैं, उस जगह का पता बोल।”

“मैं पता बोलूंगा, तू उन्हें वहां से हथियायेगा और फिर ताजिन्दगी मुझे तेरी सूरत देखना नसीब नहीं होगा।”

“अरे, बेवकूफ, अब उन चीजों की वो पहले जैसी अहमियत नहीं रही जैसी कि तूने सोमवार को खड़ी करके दिखाई थी। तब तेरी होशियारी और चालाकी ने मेरी डरपोक और जहालतभरी कैफियत पर जो रंग जमाया था, मौजूदा हालात में वो अब फीका पड़ चुका है। कोई माई का लाल किसी औरत पर जबरन काबिज नहीं हो सकता, भले ही वो उसकी ब्याहता बीवी हो। अब वो पोजीशन नहीं रही जिसमें कि तू मियां बीवी को राजी बताता था और मुझे काजी बताता था। तेरी सारी ताकत इस बात में थी कि तू सच में ही मुझे यकीन दिलाने में कामयाब हो गया था कि तू मर गया तो तेरी विधवा को तेरे घर वाले, तेरे गांव वाले, आकर जबरन अपने साथ ले जायेंगे और सिर मूंड कर कोरा लठ्ठा पहना कर जबरन घर पर बिठा देंगे। आजकल के तरक्की के जमाने में भी बहुतेरे गांवों में ऐसे रस्मोरिवाज होते हैं इसलिये मैं तेरी बातों में आ गया था और खौफ खा गया था। लेकिन अब मुझे मालूम है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला। अब तू कल मरता आज मर जा। अव्वल तो नीलम तेरी बीवी है नहीं...”

“है। बराबर है।”

“तो तू जल्दी फांसी लग, मैं तेरी विधवा से शादी कर लूंगा। मैं उस शादी को भूल कर, जिसे तू नाजायज कहता है, फिर शादी कर लूंगा। मेरे बच्चे को, जिसे तू हराम का बताता है, हम फिर शादी करने के बाद कानूनी तौर पर गोद ले लेंगे।”

वो सकपकाया।

“अब एक सैकेंड में बोल। क्या मर्जी है तेरी?”

“बैठ।”

“किसलिये?”

“बैठ तो!”

विमल बैठ गया। अनमने भाव से उसने अपनी जेब से पाइप निकाला और उसमें तम्बाकू भरने लगा।

मायाराम ने अपनी बैसाखी उठाई।

“जा रहा है?” — विमल हकबका कर बोला।

“एक मिनट चुप बैठ।”

“अच्छी बात है।”

मायाराम ने बैसाखी को अपने सामने करके उसका वो हिस्सा उमेठना शुरू किया जो कि चलते वक्त उसकी बगल में आता था। थोड़ी कोशिश के बाद वो गद्दीदार हैंडल-सा उसके हाथ में आ गया।

विमल अपलक उसके हर एक्शन को नोट करता रहा।

मायाराम ने एक बार परे बंद दरवाजे की तरफ देखा और फिर बैसाखी में दो उंगलियां डालीं।

तब विमल ने उचक कर देखा तो पाया कि उस सिरे की तरफ से बैसाखी का वह डंडा खोखला था।

एक बारीक नलकी-सी बैसाखी के खोखले हिस्से से निकल कर मायाराम के हाथ में पहुंची। उसने वो नलकी विमल के सामने मेज पर डाल दी और बैसाखी का हैंडल वापिस यथास्थान फि‍ट करने लगा।

विमल ने वो नलकी-सी उठायी और उसे खोल कर सीधा करने लगा। सीधा होने पर वो एक आयताकार कागज और एक नैगेटिव फिल्म के टुकड़े में तब्दील हो गयी। उसने कागज का मुआयना किया तो पाया कि वो शादी के सर्टिफिकेट की मूल प्रतिलिपि थी। उसने फिल्म को रोशनी की तरफ करके देखा तो पाया कि वो उन तीन तसवीरों के नैगेटिव थे जो कि मायाराम ने उसे दी थीं।

उसने मायाराम की तरफ निगाह उठायी। उसे लगा कि उससे इस बाबत कोई सवाल पूछना बेकार था, उसकी सूरत बता रही थी कि शादी के सबूत के तौर पर जो कुछ उसके पास था, उसे वो सोहल को सौंप चुका था।

विमल ने जेब से लाइटर निकाला और उसे जला कर उसकी लौ नैगेटिव फिल्म को दिखाई। पलक झपकते ही फिल्म जल कर राख हो गई। फिर उसने सर्टिफि‍केट को नलकी की सूरत में वापिस गोल लपेटा और उसके एक सिरे को लौ दिखाई। सिरा लपट पकड़ गया तो उसने लाइटर बंद करके जेब में रख लिया। फिर जलते कागज से वो अपना पाइप सुलगाने लगा।

जब तक पाइप सुलगा, तब तक कागज भी मुकम्मल तौर पर जल कर राख हो चुका था। उसने पाइप को तिरछा करके राख पर थोड़ा जला हुआ तम्बाकू झाड़ा, पाइप वापिस मुंह में लगा कर एक लम्बा कश खींचा, ढेर सारा धुआं उगला और फिर बोला — “मैं आऊंगा।”

“आयेगा?” — मायाराम सकपकाया — “क्या मतलब?”

“पत्थर से बेहिस लोगों के इस शहर में पता नहीं तेरा कोई होता सोता है या नहीं — एक पंत था जो मर गया — इसलिये मैं आऊंगा। जहां कहीं भी होऊंगा, सौ काम छोड़ के आऊंगा।”

“क्या ... क्या करने आयेगा?”

“तेरी अर्थी को कंधा देने। तेरी चिता को अग्नि देने। तेरी गति कराने। जिस दिन अखबार में तेरी फांसी की खबर छपेगी, उसी दिन तू मुझे दिल्ली शहर में तेरी लाश क्लेम करने के लिये खड़ा पायेगा। तेरी अस्थियां प्रवाहित करने मैं हरिद्वार भी जाऊंगा। तू जहन्नुम में पहुंचे या जन्नत में, कम से कम तेरी आत्मा नहीं भटकेगी।”

मायाराम के चेहरे ने कई रंग बदले। उसे समझते देर न लगी कि विमल क्या कह रहा था! उसने चुटकी से फिल्म और सर्टिफिकेट की राख को मसलते विमल को देखा और फिर धीरे से बोला — “ये सब ड्रामा तूने नैगेटिव और सर्टिफिकेट हासिल करने के लिये किया? मुझे बचाने का तेरा कोई इरादा नहीं था?”

“मैं कौन होता हूं बचाने वाला या मारने वाला!” — विमल उदासीन भाव से बोला — “ये सब तो वाहेगुरु के खेल हैं। वो जैसा चाहता है, जैसा उसे अच्छा लगता है, वैसा करता है। कौन उसे हुक्म दे सकता है। जो तिसु भावे सोई करसी, हुक्म न करना जाई।”

“भौंक मत, कुत्तीदया!” — मायाराम दांत पीसता बोला — “मैं तेरे बारे में इसलिये खामोश था क्योंकि तेरे जिक्र से मेरी ब्लैकमेल वाली हरकत की पोल खुल सकती थी। अब जब वो पोल खुल ही चुकी है तो मेरा खामोश रहना जरूरी नहीं।”

“मेरा भी खामोश रहना जरूरी नहीं।”

“तू भौंक ले। भौंक ले और मालूम होने दे दुनिया को कि मैं कौन सा मायाराम बावा हूं! अब जब मैं फंसा ही हुआ हूं तो मेरे कितने भी गुनाह उजागर हो जायें, क्या फर्क पड़ता है! फांसी एक खून की भी सजा है और तीन खून की भी!”

“गुड। काफी सयानी बातें सोचने लगा है जिन्दगी के आखिरी दिनों में!”

“लेकिन तू भी अब उसी अंजाम को पहुंचेगा जिसको कि तू मुझे पहुंचाना चाहता है। अभी मैं चिल्ला चिल्ला कर सारी दुनिया को बताता हुं कि तू सोहल है।”

“तू ऐसा करेगा?”

“मैं जरूर करूंगा।”

“तू कहेगा, मैं सोहल हूं और लोग तेरी बात मान जायेंगे?”

“मैं तेरी मुकम्मल केस हिस्ट्री जानता हूं, मैं तेरी गुजरी जिन्दगी के बखिये उधेड़ कर रख दूंगा, फिर कैसे नहीं मानेंगे लोग मेरी बात?”

“तेरे से ज्यादा गुणी ज्ञानी लोग तेरे से पहले ये कोशिश करके देख चुके हैं और फेल हो चुके हैं।”

“मुझे सब मालूम है। सरदार, समझ ले कि अब तेरी कहानी खत्म है।”

“ठीक है। खत्म है तो खत्म है। मैं चलता हूं। सत श्री अकाल।”

विमल दरवाजे के तरफ बढ़ा।

मायाराम तत्काल उठा और गला फाड़ कर चिल्लाया — “हवलदार! इन्स्पेक्टर साहब! एसएचओ साहब!”

दरवाजा खुला और बौखलाये-से हवलदार ने भीतर कदम रखा।

“क्या है?” — वो डपट कर बोला — “क्यों चिल्ला रहे हो?”

“इस आदमी को रोको।” — मायाराम पूर्ववत् चिल्लाया।

“क्यों?”

“ये सोहल है।”

“कौन सोहल?”

“मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल है ये जिसकी गिरफ्तारी पर तीन लाख रुपये का इनाम है।”

हवलदार भौंचक्का सा कभी मायाराम का तो कभी विमल का मुंह देखने लगा।

“हवालात में बंद रहने की वजह से” — विमल मुस्कराता हुआ बोला — “दिमाग हिल गया मालूम होता है बेचारे का।”

हवलदार ने सहमति में सिर हिलाया।

“अरे, इसकी बातों में न आओ।” — मायाराम बोला — “इसे गिरफ्तार करो। हथकड़ियां पहनाओ। इसकी गिरफ्तारी पर तीन लाख रुपये का इनाम है जो कि तुम्हें मिलेगा।”

“साहब!” — हवलदार अदब से बोला।

“बोलो, भाई।”

“आप बरायमेहरबानी एक मिनट रुकिये।”

“जरूर! लेकिन क्यों? क्योंकि ये आदमी कहता है कि मैं कोई इश्तिहारी मुजरिम हूं?”

“सवाल न कीजिए। बहस न कीजिये। सिर्फ एक मिनट रुकिये।”

“ठीक है।”

हवलदार ने एक सिपाही को करीब बुलाया और उसके कान में फुसफुसला कर कुछ कहा।

तत्काल वहां सब-इन्स्पेक्टर जनकराज पहुंचा।

हवलदार ने जल्दी जल्दी उसे बताया कि क्या माजरा था।

जनकराज ने उलझनपूर्ण भाव से विमल की तरफ देखा और फिर बोला — “मेरे साथ आइये।”

“कहां?” — विमल बोला।

“एसएचओ साहब के कमरे में।”

“वहीं तो मैं जा रहा था! मैं जिनके साथ आया हूं, वो एसएचओ साहब के पास ही तो बैठे हुए हैं!”

“किनके साथ आये हैं आप?”

“मिस्टर योगेश पाण्डेय के साथ।”

“वो कौन हुए ?”

“सीबीआई में उच्चाधिकारी हैं। उसके एण्टीटैरेरिस्ट स्क्वायड नाम के विभाग में डिप्टी डायरेक्टर हैं।”

उस ऊंचे ओहेदे का जनकराज पर तत्काल रौब गालिब हुआ।

“ये डिप्टी डायरेक्टर पाण्डेय साहब एसएचओ साहब के पास बैठे हुए हैं?”

“हां।”

“मैं अभी आया।”

जनकराज दौड़ा दौड़ा वहां से गया और थोड़ी देर बाद वैसे ही दौड़ा दौड़ा वापिस लौटा।

उस दौरान विमल बड़े इत्मीनान से खड़ा पाइप के कश लगाता रहा।

“वैल?” — जनकराज को लौटा पा कर वो बोला।

“आप यहां कैसे तशरीफ लाये?” — जनकराज बोला।

“मैं उस शख्स से मिलने आया था जो चिल्ला चिल्ला कर मुझे कोई सोहल नाम का इश्तिहारी मुजरिम बता रहा है।”

“क्यों मिलने आये थे?”

“मैं उसे अपना कोई वाकिफकार समझा था। अखबार में तसवीर देखी थी तो सूरत पहचानी लगी थी। साथ ही हैरानी हुई थी कि वो कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार था। लेकिन रूबरू देखा तो वो कोई अजनबी निकला। मैं उसे नहीं पहचानता था। दाढ़ी से धोखा खा गया। मैंने उस शख्स से अखलाकी तौर पर हमदर्दी दिखाई तो वो उसका नाजायज फायदा उठाने पर उतर आया। बोला, दिल्ली में उसका कोई नहीं था इसलिये मैं उसकी जमानत भर दूं। मैं भला ऐसा कैसे कर सकता था! मैंने इनकार किया तो भड़क गया। फिर चिल्ला चिल्ला कर पता नहीं क्या वाही तवाही बकने लगा।”

“आपका शुभ नाम?”

“कौल। अरविंद कौल। अपना परिचय मैं एसएचओ साहब को दे चुका हूं।”

“आप जरा जा कर एसएचओ साहब के कमरे में बैठिये और मेरे लौटने तक वहीं रहियेगा। प्लीज।”

विमल ने सहमति में सिर हिलाया।

“रामधन” — जनकराज सिपाही से बोला — “इन्हें साहब के पास ले के जा।”

सिपाही ने सहमति में सिर हिलाया।

पाइप के कश लगाता विमल उसके साथ हो लिया।

जनकराज उस कमरे में घुसा जहां गुस्से में थर थर कांपता मायाराम खड़ा था।

“अभी क्या हंगामा मचा रहे थे?” — जनकराज डपट कर बोला।

“वो सोहल है।”

“पागल हो क्या? थाने में सोहल की फोटो लगी है। मैं क्या उसकी सूरत नहीं पहचानता?”

“नहीं पहचानते। वो प्लास्टिक सर्जरी से अपनी सूरत तब्दील कर चुका है।”

“ऐसा कहीं होता है!”

“होता है। हुआ है। वो मुम्बई की खबर है जो आठ सौ मील दूर दिल्ली तक नहीं पहुंची मालूम होती। मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड का बच्चा बच्चा इस बात से वाकिफ है कि मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल प्लास्टिक सर्जरी से अपनी सूरत तब्दील करा चुका है।”

“तुम कैसे जानते हो? तुम्हारा मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड से क्या मतलब?”

“मैं सब जानता हूं। मैं उसके पीछे लगा, उसकी पिछली जिन्दगी को ट्रेस करता मुम्बई पहुंचा था। दस महीने की अनथक मेहनत से मैंने इस सोहल नाम के सुपर गैंगस्टार की सारी जिन्दगी का कच्चा चिठ्टा जाना था।”

“क्यों?”

“क्योंकि ..क्योंकि ...थी कोई वजह।”

“मुझे बताओ।”

“बताऊंगा। पहले मुझे इतने बड़े गैंगस्टर को पकड़वाने की एवज में इसके खिलाफ वादामाफ गवाह बनाओ। मुझे तीन लाख के उस इनाम का हकदार मानो जो कि उसकी गिरफ्तारी पर है।”

“इनाम की बात दीगर है लेकिन वादामाफ गवाह तुम्हें कैसे बनाया जा सकता है? तुम्हारे पर कत्ल का इलजाम है।”

“मैंने कोई कत्ल नहीं किया। वो कत्ल भी इसी शख्स ने किया है और इसने मेरे सामने अपने मुंह से ये बात कबूल की थी।”

“क्यों किया कत्ल?”

“क्योंकि जिस औरत को मैं ब्लैकमेल कर रहा था, उसे ये अपनी बीवी बताता है।”

“बताता है?”

“असल में वो मेरी ब्याहता बीवी है जिसे वो भगा कर ले गया था। वो कहता है कि उसने भी नीलम से विधिवत् शादी की है। अगर ऐसा है तो वो शादी नाजायज है, एक पति के होते कोई औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती।”

“उस औरत के तो एक बच्चा भी है, लिहाजा उसने इस शख्स में कोई कल ही तो शादी की नहीं होगी!”

“सोहल से उसकी पुरानी जुगलबंदी है। सोहल ने जब मुम्बई में राजबहादुर बखिया के खिलाफ जंग छेड़ी थी तो वो सोहल के कंधे से कंधा भिड़ा कर उस जंग में शामिल हुई थी।”

“वो औरत! जिसका नाम नीलम है!”

“हां। वो कोई मामूली औरत नहीं। वो ऐसी औरत है जिसे विदेशों में गैंगस्टर्स मौल (GANGSTER’S MOLL) कहते हैं।”

“ऐसी औरत को तुम ब्लैकमेल कर रहे थे?”

“हां।”

“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। वो सच में किसी गैगस्टर की संगिनी होती तो तुम्हारे छत्तीस टुकड़े करके दरिया में बहा देती।”

“वो ऐसा नहीं कर सकती थी।”

“क्यों नहीं कर सकती थी?”

“क्योंकि उसके मन में चोर था। क्योंकि उसने सच में मेरे से शादी की थी। क्योंकि वो अपने पति का अहित नहीं चाह सकती थी।”

“क्या कहने!”

“मैं जो कह रहा हूं, सच कह रहा हूं।”

“तुम साबित कर सकते हो कि तुमने उससे शादी की थी।”

“कर सकता था लेकिन अब नहीं कर सकता।”

“क्यों? अब क्या हो गया?”

“सबूत सोहल ने नष्ट कर दिये हैं। उसने धोखे से मेरे से वो दस्तावेज निकलवा लिये जो साबित करते थे कि मैं नीलम का पति था। उसने अभी आपके यहां आने से पहले वो दस्तावेज जला दिये थे। ये देखिये टेबल पर उनकी राख।”

“ये तो जले हुए तम्बाकू की राख है!”

“कागजात की राख भी है।”

“कागजात तुम्हारे पास थे?”

“हां।”

“कैसे थे? हवालात में बंद किये जाने से पहले तुम्हारी तो जामातलाशी हुई थी!”

“वो कागजात मेरी एक बैसाखी के खोखले हिस्से में थे। मैं दिखाता हूं कहां थे!” — उसने फिर एक बैसाखी पर से उसका ऊपर का हैंडल अलग किया — “ये देखिये वो खोखली जगह, जहां कि मैंने वो कागजात छुपाये हुए थे।”

“तुम ये कहना चाहते हो कि वो तुम्हारे पीछे इसलिये पड़ा हुआ था क्योंकि तुम उसकी बीवी को ब्लैकमेल कर रहे थे?”

“हां।”

“और कत्ल की नौबत भी इसी वजह से आयी?”

“हां।”

“उसने कत्ल ही करना था तो तुम्हें मारने का आसान काम क्यों न किया? उसने तुम्हारे जोड़ीदार को मार कर उसके कत्ल का इलजाम तुम्हारे सिर थोप कर तुम्हें रास्ते से हटाने का पेचीदा तरीका क्यों अख्तियार किया?”

“क्योंकि वो बहुत चालाक है।”

“क्या मतलब है तुम्हारा?”

“मैं मरता तो नीलम मेरी विधवा कहलाती। फिर वो उसके कब्जे में न आती।”

“क्यों?”

मायाराम ने वजह बतायी।

“पागल हुए हो! ऐसा कहीं होता है! आज के जमाने में एक बालिग औरत की मर्जी के खिलाफ कोई उसे कहीं ले जा सकता है! वो भी ऐसी औरत को जिसे तुम गैंगस्टर्स मौल बताते हो! कोई ऐसी कोशिश करेगा तो अपहरण का अपराधी होगा।”

“मेरे गांव में यही रिवाज है विधवा के साथ पेश आने का।”

“किसे उल्लू बना रहे हो?”

“आप न मानिये।”

“नहीं ही तो मान रहा हूं!”

“इन्स्पेक्टर साहब, आप यकीन मानिये, वो सोहल है। मेरे से बेहतर ये बात कोई नहीं जानता।”

“तुम कैसे जानते हो?”

“बताऊंगा। मुझे ये अभयदान मिलेगा तो बताऊंगा कि जो कुछ आप मेरी जुबानी सुनेंगे, उसे आप मेरे खिलाफ इस्तेमाल नहीं करेंगे।”

“ऐसा कैसे होगा?”

“क्या मुश्किल है? क्या पुलिस ने आज से पहले कभी कोई वादामाफ गवाह नहीं बनाया ?”

“वो तो ठीक है लेकिन...”

“आप इतना बड़ा मगरमच्छ पकड़ेंगे। सारे हिन्दोस्तान में दिल्ली पुलिस की जयजयकार होगी। वैसी ही जयजयकार होगी जैसी कि मुम्बई पुलिस की तब हुई थी जबकि उनके आप सरीखे ही एक सब-इन्स्पेक्टर ने चार्ल्स शोभराज को पकड़ा था। बल्कि उससे कहीं ज्यादा जयजयकार होगी क्योंकि सोहल के सामने तो चार्ल्स शोभराज कुछ भी नहीं! सोहल से बड़ा मगरमच्छ तो क्राइम की हिस्ट्री में हुआ ही नहीं जिसे कि आप फांसेंगे!”

“तुम्हारा मतलब है दिल्ली पुलिस?”

“दिल्ली पुलिस की तरफ से आप। जनाब, इतने बड़े यश का भागी बनने के लिये आप एक छोटी मछली को नजरअंदाज नहीं कर सकते?”

“वो सब अरेंज किया जा सकता है। लेकिन पहले मुझे तुम्हारी बात पर यकीन तो आये!”

“वो सोहल है।”

“जानते हो वो कितने बड़े आदमी के साथ यहां आया हुआ है? जिसके साथ वो आया है, उसके सामने मेरी और मेरे एसएचओ की तो कोई बिसात ही नहीं, हमारा एसीपी भी उसके सामने कुछ नहीं। वो शख्स — योगेश पाण्डेय — सीबीआई के एक महकमे का डिप्टी डायरेक्टर है। उसका रुतबा दिल्ली पुलिस के डीसीपी के बराबर है। उसका ससुर एस.पी. दुबे नॉरकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो का चीफ है। तुम ये कहना चाहते हो कि इतने बड़े रुतबे वाला सरकारी आदमी एक इश्तिहारी मुजरिम का दोस्त है? वो भी सोहल जैसे इश्तिहारी मुजरिम का! तुम्हारी बातों में आकर हमने उस पर हाथ डाला तो ऐसी बेभाव की पड़ेगी कि सालों याद रहेगी। क्या एसएचओ, क्या एएसएचओ, क्या मैं, क्या मेरे जैसे बाकी सब-इन्स्पेक्टर, सब लाइन हाजिर होंगे। वर्दियां भी उतर जायें तो कोई बड़ी बात नहीं।”

“यानी कि आप कुछ नहीं करेंगे?”

“हिम्मत का काम है। कर सकते हैं। बशर्ते कि तुम सब कुछ बिना कोई शर्त लगाये साफ साफ बताओ।”

“ठीक है। बताता हूं। मरता क्या न करता जान के बताता हूं। अपना मुंह फाड़ने के बाद मैं शायद न बचूं लेकिन ये जान कर भी मेरे कलेजे को ठण्डक पड़ेगी कि सोहल भी न बचा।”

“मैं सुन रहा हूं।”

“इन्स्पेक्टर साहब, मैं वो मायाराम बावा हूं जिसे इश्तिहारी मुजरिम करार देकर पंजाब पुलिस ने जिसकी गिरफ्तारी पर पच्चीस हजार रुपये के इनाम का ऐलान किया हुआ है। मैंने अपने जिन साथियों के साथ अमृतसर में वहां के भारत बैंक का वाल्ट खोला था और पैंसठ लाख रुपये लूटे थे, उनमें से एक साथी सोहल भी था जिसने कि तब अपना नाम रमेश कुमार रखा हुआ था और खुद को छुपाने के लिये वहां के एक लाला के ड्राइवर की नौकरी की हुई थी। मेरे ये कबूल कर लेने के बाद आपको ये पता लगे बिना नहीं रहेगा कि डकैती के दौरान हमारा एक साथी गुरांदित्ता बैंक की इमारत के टॉप फ्लोर तक की ऊंचाई से नीचे गिर कर मर गया था और कर्मचंद और लाभसिंह नाम के अपने ही दो साथियों को मैंने एक वैन की चपेट में लेकर मार डाला था। मैं सोहल को भी मारना चाहता था लेकिन वो कमीना किसी तरीके से बच निकला था।”

“क्यों मारा था तुमने अपने साथियों को?”

“क्योंकि मैं डकैती की रकम में किसी से हिस्सा नहीं बंटाना चाहता था, क्योंकि सारी रकम मैं खुद हड़प जाना चाहता था।”

“हड़प पाये?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“सोहल मेरे पीछे लग गया। पंजाब का एक माना हुआ बदमाश हरनाम सिंह गरेवाल मेरे पीछे लग गया। हालात ऐसे पैदा हो गये कि पैंसठ लाख रुपये की रकम किसी के भी हाथ न लगी, मैं अपनी लाख कोशिशों के बावजूद आज तक न जान पाया कि वो रकम कहां गर्क हो गयी! फिर गिरफ्तार हो गया और मैं चण्डीगढ़ में इसी औरत नीलम की दगाबाजी की वजह से सोहल के चंगुल में जा फंसा जिसने मेरी हड्डियां तोड़ कर मुझे सरेराह डाल दिया ताकि मैं गिरफ्तार हो जाता। लेकिन मेरी तकदीर अच्छी थी कि पुलिस से पहले मेरे पर हरि‍दत्त पंत की निगाह पड़ी जिसने मुझे सम्भाला। उस सोहल के बच्चे ने मुझे पूरी जिन्दगी के लिये अपाहिज बना दिया और मेरी बीवी को भी ले उड़ा। एक साल में कहीं जा कर मैं इस काबिल हुआ कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हो सकता और बैसाखियों के सहारे चल फिर सकता। तब मैं सोहल के पीछे पड़ा।”

“किसलिये?”

“उससे बदला लेने के लिये। उसकी उससे ज्यादा बुरी हालत बनाने के लिये जैसी कि उसने मेरी बनायी थी।”

“आगे?”

“दस महीने की अनथक मेहनत से मैं सोहल के कारनामों का मनका मनका चुन कर उन्हें एक धागे में पिरो पाया। इतना तो उससे अमृतसर में हुई मुलाकात से पहले से मुझे मालूम था कि पहले वो इलाहाबाद में ऐरिक जानसन नाम की एक फर्म में एकाउन्टेंट की नौकरी करता था जहां कि गबन के इलजाम में उसे दो साल की सजा हुई थी लेकिन वो जेल तोड़ के भाग गया था। फिर दाढ़ी मूंछ और केश कटा कर मुम्बई पहुंच गया था जहां कि उसने विमल कुमार खन्ना बन कर सर गोकुलदास के यहां नौकरी की थी और जहां उसने लेडी शान्ता गोकुलदास का कत्ल किया था और उसका कीमती मोतियों का हार लेकर फरार हो गया था। मुम्बई से भाग कर वो मद्रास पहुंचा जहां गिरीश माथुर बन कर और कुछ लोकल बदमाशों के साथ मिल कर अन्ना स्टेडियम से पचपन लाख रुपये की रकम लूटी। मद्रास से दिल्ली पहुंचा जहां कि बनवारी लाल बन कर तांगा चलाने लगा और एक बैंक वैन रॉबरी में शामिल हुआ, अपने साथियों की दगाबाजी से गिरफ्तार हुआ लेकिन फिर पता नहीं कैसे तिहाड़ जेल से निकल भागने में कामयाब हो गया। अमृतसर पहुंचा तो इत्तफाक से मेरे से टकरा गया और मैंने उसे पहचान लिया कि वो तो सोहल था। वहां, जैसा कि मैंने बताया, भारत बैंक की पैंसठ लाख की डकैती में मेरा साथी बना। मुझे अधमरा करके अपनी तरफ से मुझे पुलिस के रहमोकरम पर छोड़ वह खुद भाग के गोवा पहुंच गया जहां कैलाश मल्होत्रा बन के लोकल गैंगस्टर्स में घी में खिचड़ी की तरह जा मिला और मुम्बई के मशहूर स्मगलर विशंभरदास नारंग, उसके सहायक रणजीत चौगुले और वहां के सोनवलकर नाम के एक पुलिस इन्स्पेक्टर का कत्ल किया।”

“पुलिस इन्स्पेक्टर का भी?” — जनकराज हैरानी से बोला।

“जी हां।”

“फिर?”

“फिर गोवा से भाग कर जयपुर पहुंचा जहां कि बसन्त कुमार मोटर मकैनिक बन कर बीकानेर बैंक की वैन लूटी। जयपुर से आगरा पहुंचा जहां रत्नाकर स्टील मिल के पे रोल वाली बख्तरबंद गाड़ी लूटी। आगरे से भागा तो राजनगर पहुंच गया जहां नितिन मेहता बन कर सिडनी फोस्टर नाम के अमरीकी डिप्लोमैट का फिरौती की रकम की खातिर अपहरण किया। उसके बाद मुम्बई पहुंचा और एक लम्बे अरसे तक वहीं डेरा जमाये रहा। मुम्बई में तब राजबहादुर बखिया नाम के अन्डरवर्ल्ड के सुपरबॉस का बोलवाला था जिसकी क्रिमिनल आर्गेनाइजेशन ‘कम्पनी’ के नाम से जानी जाती थी और मुम्बई का होटल सी-व्यू जिसका हैडक्वार्टर था। वहां पता नहीं किस बात पर उसकी बखिया से ठन गयी, नतीजतन उसने बखिया के जान रोडरीगुएज, ज्ञानप्रकाश डोगरा, शिवाजीराव, पालकीवाला, कान्ति देसाई, मोटलानी, दन्डवते, मुहम्मद सुलेमान, शान्तिलाल और जोजो जैसे बड़े ओहदेदार मार गिराये और रतनलाल जोशी, अमीरजादा आफताब खान और मैक्सवैल परेरा नाम के तीन और बड़े ओहदेदारों की मौत की वजह बना। इसके अलावा और भी बखिया के कई आदमी मार गिराये और कई ठिकानों पर हमला किया। उसने बखिया की कायनात तो उजाड़ी ही, आखिर में बखिया का भी काम तमाम कर दिया।”

“एक अकेले आदमी ने?”

“तब तक कुछ लोकल स्मगलर और गैगस्टर उसका रौब खा कर उसके हिमायती बन गये थे। लेकिन मोटे तौर पर उसने जो कुछ किया था, अकेले ही किया था। इसीलिये वो आज भी मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड में वन मैन आर्गेनाइजेशन के नाम से मशहूर है।”

“वन मैन आर्गेनाइजेशन!”

“फिर मुम्बई में ही आलमगीर म्यूजियम से बेशकीमती फ्रांसीसी पेंटिगें चुराईं। जौहरी बाजार में प्रीमियर वाल्ट सर्विस का अभेद्य वाल्ट खोल तो लिया लेकिन किसी वजह से लूट न सका। उसकी जगह वहीं बनी सुनारों की मार्केट लूट ली। तब तक ‘कम्पनी’ की गद्दी पर बखिया का एक लेफ्टीनेंट इकबाल सिंह काबिज हो चुका था। उसने इकबाल सिंह के खिलाफ ‘कम्पनी’ के दुश्मन इब्राहिम कालिया से जुगलबंदी की और स्वैन नैक प्वायंट नाम के आइलैण्ड पर स्थित ‘कम्पनी’ के बराबर के पार्टनर बादशाह अब्दुल मजीद दलवई का कैसीनो लूटा। उस दौरान उसने जो बड़ा करतब किया था, वो ये था कि उसने अपने चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करा ली थी जिससे कि उसकी सूरत ही नहीं, आवाज भी बदल गई थी।”

“आवाज भी?”

“हां।”

“मैं नहीं मानता। मैं तो ये ही नहीं मानता कि सर्जरी से सूरत बदली जा सकती है। लेकिन आवाज! नामुमकिन।”

“मत मानो। तुम्हारे मानने या न मानने से हकीकत थोड़े ही बदल जायेगी!”

“खैर, आगे?”

“उसके बाद कुछ अरसे के लिये वो मुम्बई से गायब हो गया। वो गायब हो कर कहां चला गया, ये मैं न जान पाया लेकिन फिर बाद में जैसे एकाएक वो गायब हुआ था, वैसे ही एकाएक वापिस मुम्बई पहुंच गया था। उसी दौरान ‘कम्पनी’ का सुपरबॉस और बखिया का उत्तराधिकारी इकबाल सिंह भी अपनी खूबसूरत पारसी बीवी लवलीन समेत कहीं गायब हो गया था और उसकी जगह ‘कम्पनी’ का दूसरे नम्बर का ओहदेदार व्यास शंकर गजरे ‘कम्पनी’ की गद्दी पर काबिज हो गया था। इस बार सोहल ‘कम्पनी’ का समूल नाश कर देने की घोषणा करता है। तब वो अपना अगला वार मुम्बई से तीन सौ किलोमीटर दूर स्थित गजविलास फोर्ट पर करता है जहां कि डिस्टिलरी की ओट में ‘कम्पनी’ की हेरोइन बनाने की फैक्ट्री चलती थी। डिस्टिलरी के एकाउन्टेंट सुबीर बापट और एक भूतपूर्व कर्मचारी शिन्दे के साथ मिल कर उसने वहां से बीस करोड़ रुपया लूटा और ‘कम्पनी’ के तत्कालीन सुपरबॉस गजरे को आमने सामने होकर अल्टीमेटम दिया कि वो गजरे समेत ‘कम्पनी’ के तमाम ओहदेदारों को खत्म कर देगा।”

“कर दिया?”

“बिल्कुल कर दिया। उसने बारी बारी से ‘कम्पनी’ के जिन टॉप के ओहदेदारों का खात्मा किया, वो थे दशरथ किलेकर, भाई सावन्त, रशीद पावले, कावस बिलिमोरिया, किशोर पिंगले और आखिर में खुद व्यास शंकर गजरे। आज की तारीख में अकेले सोहल की वजह से ‘कम्पनी’ नेस्तनाबूद हो चुकी है।”

“और तुम्हारा ये कहना है कि जो शख्स अभी तुमसे मिल के यहां से गया है और इस घड़ी एसएचओ साहब के पास बैठा हुआ है, वो सोहल है?”

“हां।”

“वो वो सोहल है जिसके इतने कारनामों का तुमने बखान किया, जो इश्तिहारी मुजरिम है और जिसकी गिरफ्तारी पर तीन लाख रुपये के इनाम की घोषणा है?”

“हां।”

“और मॉडल टाउन में रहती वो औरत नीलम, जिसे तुम ब्लैकमेल कर रहे थे, सोहल की संगिनी है? गैंगस्टर्स मौल है?”

“हां।”

“उस तक कैसे पहुंचे? उसकी खोज खबर कैसे जानी?”

“इत्तफाक से जानी।”

“कैसे?”

“गजरे से अपनी आखिरी लड़ाई के दौरान, जब कि गजरे के तमाम ओहदेदार मारे जा चुके थे और वो अकेला बाकी बच रहा था, सोहल महालक्ष्मी के उस यतीमखाने में गजरे के आदमियों द्वारा घेर लिया गया था जहां कि वो पनाह पाये था। वहां उसकी मौत निश्चित थी लेकिन फिर एक करिश्मे की तरह नीलम वहां पहुंच गयी थी और उसने सोहल को बचा लिया था।”

“नीलम वहां पहुंच गयी थी? मुम्बई में?”

“हां।”

“और उसने गजरे के आदमियों द्वारा घिरे हुए सोहल को बचा लिया था?”

“हां।”

“उस अकेली औरत ने?”

“उसके भी वहां कई हिमायती थे जो कि उसके साथ वहां पहुंचे थे। वो लोग कौन थे, ये मैं नहीं जान पाया था।”

“और वो नीलम वो ही नीलम है जो कि एक मामूली गृि‍हणी की तरह मॉडल टाउन में रहती है और अपना बच्चा पालती है?”

“हां।”

“तुम्हें नीलम की खबर कैसे लगी? तुम महालक्ष्मी में हुए उस वाकये के दौरान वहां मौजूद थे?”

“नहीं। क्योंकि गजरे की मौत के बाद मुम्बई के अण्डरवर्ल्ड में बच्चे बच्चे की जुबान पर था कि सोहल को नीलम ने बचाया था, उसी नीलम ने बचाया था जो कि तब भी सोहल के साथ थी जबकि वो बखिया से भिड़ा था। तब मैं फौरन नीलम की टोह में लग गया था।”

“नीलम की? सोहल की नहीं?”

“जहां नीलम होती, वहां सोहल भी होता।”

“कहां थी नीलम?”

“होटल सी-व्यू में। अगले रोज नीलम और वो लड़की सुमन हवाई जहाज से दिल्ली रवाना हो गयीं तो मैं खुद उसी जहाज में सवार होकर दिल्ली आने में कामयाब न हो सका। लिहाजा मैंने यहां पंत को फोन कर दिया, उसे नीलम और सुमन का हुलिया समझा दिया, उनकी फ्लाइट का नम्बर वगैरह लिखवा दिया और उनके पीछे लगने के लिये उसे एयरपोर्ट पहुंचने को कहा जहां से कि उनका पीछा करता वो मॉडल टाउन पहुंचा और यूं मुझे नीलम की खोज खबर लगी।”

“और सोहल! वो कहां गया?”

“वो पीछे मुम्बई में ही रह गया।”

“क्यों?”

“क्योंकि काफी अरसे से वही उसका फील्ड आफ आपरेशन है।”

“यानी कि वो मुम्बई में रहता है?”

“हां।”

“और उसकी बीवी दिल्ली में?”

“हां।”

“अब दिल्ली कैसे पहुंच गया?”

“किसी तरह से उसे भनक लग गयी कि मैं उसकी बीवी को ब्लैकमेल कर रहा था।”

“कैसे लग गयी? बीवी ने बताया?”

“नहीं। बीवी ने तो नहीं बताया होगा! नीलम की तो ऐसी मजाल नहीं हो सकती थी! उसने बताना होता तो...”

“ऐग्जैक्टली! तो तभी बता देती जबकि तुमने पहली बार उस पर अपनी ब्लैकमेल की मंशा जाहिर की थी। ब्लैकमेल की तीन किस्तें चुका चुकने के बाद वो अपने ऐसे सुपर गैंगस्टर पति को मुम्बई से न बुलाती।”

मायाराम खामोश रहा।

“मैंने गलत कहा?” — जनकराज बोला।

“गलत तो नहीं कहा लेकिन...”

“क्या लेकिन?”

“सोहल को किसी और तरीके से इन वाकयात की खबर लगी होगी!”

“बहरहाल खबर उसे थी?”

“हां। वो बाकायदा मेरे पास आया था और उसने गिड़गिड़ा कर मुझे कहा था कि मैं नीलम का पीछा छोड़ दूं, भले ही मैं कितनी ही बड़ी रकम एकमुश्त उससे ले लूं। लेकिन मैंने उसकी पेशकश कबूल नहीं की थी।”

“वो क्या किस्सा है?”

मायाराम ने बयान किया।

जनकराज के चेहरे पर विश्वास के भाव न आये।

“तुम कहते हो कि प्लास्टिक सर्जरी से सूरत तब्दील हो जाती है, तुम कहते हो कि ऐसी तब्दीली सोहल भी अपनी सूरत में ला चुका था, तो फिर तुमने उसे कैसे पहचाना?”

“एक तो नीलम की वजह से पहचाना।”

“वो नीलम के साथ था, इसलिये सोहल था?”

“हां।”

“क्या कहने!”

“एसआई साहब, ये न भूलिये कि जो शख्स मैंने मुम्बई में नीलम के साथ देखा था, वही बाद में — पिछले सोमवार — रोता गिड़गिड़ाता, फरियाद करता मेरे पास पहुंचा था और उसने अपनी जुबानी कबूल किया था कि वो सोहल था। वो सोहल था तभी मेरी — मायाराम बावा की — पिछली जिन्दगी को जानता था! सोहल के सिवाय और किसी को मालूम नहीं था कि अमृतसर में मैंने क्या किया था!”

“कबूल। कबूल। सब कबूल। लेकिन इससे ये कैसे साबित हो गया कि जिस शख्स को तुम अपने से मिलने आया बताते हो, वो वही था जो अभी यहां मौजूद था?”

मायाराम गड़बड़ाया। मूर्खों की तरह पलकें झपकाते उसने जनकराज की तरफ देखा।

“तुम्हारी जानकारी के लिये उस शख्स का नाम अरविंद कौल है! वो यहां की एक बड़ी कम्पनी, गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन, में एकाउन्ट्स आफिसर की नौकरी करता है और वो कोई सरदार नहीं, कश्मीरी ब्राह्मण है जो कि कश्मीर से विस्थापित होकर दिल्ली पहुंचा है।”

“वो सब उसका मायाजाल है। वो बहुत मायावी आदमी है। वो कुछ भी बन सकता है, कुछ भी कर सकता है। अपने आपको बचा के रखने का उसका यही स्टाइल है जो कि वो शुरू से आजमाता आ रहा है।”

“शुरू से?”

“हां। वो जहां भी जाता है, वहां हमेशा अपना कोई फाल्स फ्रंट बना कर रखता है। इसी वजह से जब वो मुझे अमृतसर में मिला था तो वो वहां एक रईस लाला का ड्राइवर बना हुआ था। दिल्ली में वो बनवारी लाल बन कर तांगा चलाता रहा था। गोवा में एक नाइट क्लब का कैशियर जा बना था। जयपुर पहुंचा था तो वहां मोटर मकैनिक बन गया था और बाकायदा एक मोटर वर्कशाप चलने लगा था। मुम्बई में वो अपने आप को एक बड़े, रिटायर्ड स्मगलर तुकाराम का गांव से आया भांजा आत्माराम बताता था। फिर बड़ोदा से आया पीएन घड़ीवाला बताने लगा। पिछले दिनों गजरे के साथ छिड़ी जंग के दौरान तो मैंने सुना था कि वो फिर सरदार बन गया था और अपने आपको नैरोबी से आया कोई एनआरआई बताने लगा था। वो आदमी पक्का बहुरूपिया है। जिस आदमी के इतने बहुरूप पहले से स्थापित हों, वो अब क्या दिल्ली में आपका अरविंद कौल नहीं बन सकता?”

जनकराज सोचने लगा।

“और उसकी पहचान उन इश्तिहारों से हो सकती है जो कि मुम्बई में ‘कम्पनी’ के ऊंचे ओहदेदारों ने उसकी तलाश में वक्त वक्त पर मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड में बंटवाये थे। ऐसे कई इश्तिहार मेरे पास हैं।”

“पास हैं?” — जनकराज सकपकाया।

“जैसे वो कागजात पास थे जो अभी उस कमीने ने मेरे से हथियाये थे और मेरे सामने जला डाले थे।”

“बैसाखी में?”

“दूसरी बैसाखी में।”

“निकालो।”

पहली बार की तरह ही दूसरी बैसाखी का हैंडल उमेठ कर मायाराम ने उसके खोखले हिस्से में से कागजों की एक नलकी सी निकाली। फिर उसने उसे सीधा करके जनकराज को पेश किया।

“ये हैं वो इश्तिहार?” — जनकराज एक एक पर निगाह डालता बोला।

“हां।” — मायाराम बोला — “ये उसकी सिख वाली असली सूरत है। ये उसकी तब की सूरत है जब वो अपना हुलिया छुपाने के लिये दाढ़ी मूंछ और केश मुंडा चुका था और अपने नये बहुरूप को और भी बल देने के लिये सिग्रेट वगैरह पीने लगा था। ये फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ वाली तसवीर भी उसी की है और ये आखिरी तसवीर उसके नये चेहरे की है।”

“ये तसवीरें सिर्फ अण्डरवर्ल्ड में बंटवाई गयी थीं?”

“हां। ‘कम्पनी’ को उम्मीद थी कि ओहदे और इनाम के लालच में कोई सोहल की मुखबिरी करेगा लेकिन तब तक वो अण्डरवर्ल्ड में इतना पापुलर हो चुका था और मुम्बई में इतने उसके हमदर्द पैदा हो गये थे कि कोई उसकी मुखबिरी के लिये तैयार न हुआ।”

“हैरानी है।”

“अब बोलिये, क्या कहते हैं आप?”

“ये आखिरी तसवीर जिसे तुम सोहल के नये चेहरे की तसवीर बताते हो, मिलती तो है इन कौल साहब से कुछ कुछ!”

“कुछ कुछ? जनाब, मुकम्मल तौर से मिलती है।”

“तुम तो ऐसा कहोगे ही।”

“माईबाप, ये...”

“ये बात मुझे हज्म नहीं हो रही, मेरे गले से नहीं उतर रही कि इतना बड़ा इश्तिहारी मुजरिम अपनी मर्जी से यहां थाने में बैठा है।”

“ये सब उसकी माया है। इन्हीं बातों से तो वो लोगों का विश्वास जीतता है और उन्हें ये सोचने पर मजबूर करता है कि जो दिखाई दे रहा है, वो नहीं हो सकता।”

जनकराज कुछ क्षण सोचता रहा, फिर एकाएक उठ कर खड़ा हो गया।

“क्या हुआ?” — मायाराम हकबकाया-सा बोला।

“मैं अभी आता हूं।”

“लेकिन ....”

“तुम थोड़ी देर यहीं टिक कर बैठो। मैं हवलदार को बोल देता हूं कि वो तुम्हें लॉकअप में न ले जाये।”

“लेकिन...”

उसकी बाकी बात सुनने को जनकराज वहां न रुका।

कॉल बैल बजी।

नीलम ने दरवाजा खोला तो अपने सामने उसी सब-इन्स्पेक्टर को खड़ा पाया जो कि पहले भी वहां आ चुका था।

लेकिन इस बार वो अकेला वहां पंहुचा था।

“आप फिर आ गये!” — नीलम अप्रसन्न भाव से बोली।

“मैं सिर्फ दो मिनट लूंगा।” — जनकराज हांफता सा बोला। आंधी तूफान की तरह अपनी मोटरसाइकिल चलाता वो वहां पहुंचा था — “आप से सिर्फ चंद सवाल...”

“ब्लैकमेल की बाबत जो कुछ मैंने कहना था, कह दिया।”

“ब्लैकमेल की बाबत नहीं।” — जनकराज जल्दी से बोला — “ब्लैकमेल की बाबत नहीं।”

“तो?”

“मैं आपसे चंद दुनियादारी के सवाल पूछना चाहता हूं।”

“क्या?”

“एकदम सिम्पल सवाल, जिनका किसी केस से, किसी क्राइम से, कुछ लेना देना नहीं।”

“आइये।”

“शुक्रिया।”

ड्राईंगरूम में पहुंचते ही जनकराज बोला — “आप कब से दिल्ली में हैं?”

“पिछले साल अगस्त के महीने से।”

“कहां से आना हुआ?”

“चण्डीगढ़ से।”

“वहां रिहायश कहां थी?”

“वहां के सत्तरह सैक्टर में, इमारत नम्बर पच्चीस में। उसकी पहली मंजिल के एक फ्लैट में।”

“मैं चण्डीगढ़ से ज्यादा वाकिफ तो नहीं लेकिन सत्तरह सैक्टर तो तमाम का तमाम कमर्शियल है।”

“कुछ रिहायशी फ्लैट हैं उसमें।”

“कमर्शियल फ्लैट्स को ही रिहायशी बना लिया होगा!”

“इस बाबत मुझे कोई जानकारी नहीं।”

“बहरहाल आप वहां के सत्तरह सैक्टर के एक फ्लैट में रहती थीं?”

“हां।”

“फ्लैट अपना था?”

“अपना होता तो क्या मुझे खबर न होती कि वो कमर्शियल से रिहायशी बना था या था ही रिहायशी?”

“यानी कि अपना नहीं था।”

“अपना कहां से होता! हम तो शरणार्थी लोग हैं। किराये का था।”

“दिल्ली कैसे आना हुआ था?”

“मेरी प्रेग्नेंसी का केस बिगड़ गया था। वहां के डाक्टर ने दिल्ली जाने की सलाह दी थी। फिर यहां इनकी नौकरी लग गयी थी इसलिये हम यहीं टिक गये थे।”

“यानी कि चण्डीगढ़ लौट के गये ही नहीं?”

“क्या करने जाना था! हम तो वहां भी परदेसी थे, यहां भी परदेसी हैं। यहां दाना पानी बन गया, यहां टिक गये।”

“असल में कहां के हैं आप?”

“सोपोर के। वहां उग्रवादियों ने हमारा सब कुछ फूंक डाला। बड़ी मुश्किल से जान बचा कर भागे।”

“शादी सोपोर में हुई?”

“नहीं। माता वैष्णोदेवी के दरबार में। जहां हम खास शादी कराने के लिए ही गये थे।”

“जब से दिल्ली में हैं? यहीं, इसी कोठी में, रह रहे हैं?”

“नहीं। पहले हम गोल मार्केट के इलाके में कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स में रहते थे। किराये के फ्लैट में।”

“वो लड़की सुमन जो आपके साथ रहती है, वो आपकी क्या लगती है?”

“कुछ नहीं लगती। वो भी कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स में हमारे पड़ोस में रहती थी। वहां उसके साथ एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी हो गयी थी। दिन दहाड़े कुछ बलात्कारी उसके घर में घुस आये थे और उसकी मां और छोटी बहन के साथ बलात्कार करने के बाद उन्होंने उन मां बेटी को मार डाला था। सुमन अकेली रह गयी थी इसलिये उसे हमने अपने साथ रख लिया था।”

“ये कोठी किराये की है?”

“नहीं।”

“तो?”

“पिपलोनिया साहब की थी ये कोठी जो कि अब इस दुनिया में नहीं हैं। वो मेरे पति को अपना वारिस बना कर मरे थे। बाकायदा वसीयत करके। वसीयत मेरे पास है। दिखाऊं?”

“जरूरत नहीं। आपने कल भी कहा था कि आपके पति पिपलोनिया साहब के कानूनी वारिस थे। पिपलोनिया साहब की आप लोगों से कोई रिश्तेदारी थी?”

“नहीं। सिर्फ दोस्ती।”

“उनका अपना होता सोता कोई नहीं था?”

“नहीं था। तभी तो मेरे पति को वारिस बनाया!”

“सोपोर में भी आपके पति मुलाजमत में थे?”

“नहीं। वहां उनका टिम्बर का अपना कारोबार था। लेकिन सब बर्बाद हो गया। सब जल फुंक गया।”

“आप भी कश्मीरी हैं?”

“नहीं। मैं हिमाचल की हूं।”

“मेल कैसे हुआ?”

“हो गया किसी तरह से। करा दिया किस्मत ने।”

“कहां? हिमाचल में या कश्मीर में?”

“चण्डीगढ़ में।”

“शादी हुए कितना टाइम हुआ?”

“डेढ़ साल होने को आ रहा है।”

“आप कभी मुम्बई गई हैं?”

“क्यों पूछते हैं?”

“गयी हैं?

“हां। हाल ही में गयी थी।”

“अकेली?”

“नहीं। सुमन भी साथ गयी थी।”

“क्या करने?”

“सैर करने। उनसे मिलने।”

“वो तब मुम्बई में थे?”

“हां।”

“मुलाकात हुई?”

“लो! तो न होती!”

“कौल साहब अभी भी मुम्बई में हैं या आपके साथ लौट आये थे?”

“हमारे साथ नहीं लौटे थे।”

“यानी कि अभी भी मुम्बई में हैं?”

“हां। लेकिन आते-जाते रहते हैं।”

“तब से तो वहीं हैं?”

“हां।”

“मुम्बई में उनका पता?”

“कोई अपना पता तो है नहीं। होटल में ठहरते हैं।”

“जब आपसे मिले थे, तब भी होटल में थे?”

“हां।”

“कौन से होटल में?”

“ ‘मराठा’ नाम है। कोलीवाड़े में है। मालिक का नाम सलाउद्दीन है।”

“आप तो बहुत कुछ जानती हैं उस होटल के बारे में!”

“इसलिये क्योंकि वो जब भी मुम्बई जाते हैं, वहीं ठहरते हैं।”

“नौकरी के सिलसिले में जाते हैं मुम्बई?”

“हां।”

“क्या नौकरी है उनकी?”

“गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन में — जो कि केजी मार्ग पर है — एकाउन्ट्स आफिसर हैं।”

“काफी मोटी तनख्वाह की नौकरी होगी उनकी!”

“क्या मतलब ?”

“जिस शख्स की बीवी एक महीने में नौ लाख रुपये पल्ले से ब्लैकमेलर के हवाले कर सकती हो, वो मोटी तनख्वाह ही कमाता होगा!”

“फिर पहुंच गये एक आने वाली जगह पर!”

“आपने कहा था आप काशीनाथ उर्फ मायाराम से पहले से वाकिफ थीं?”

“आपने भी कहा था कि आप इस बाबत कोई सवाल नहीं पूछेंगे।”

“मैंने यह भी कहा था कि मैं ब्लैकमेल का सिरा दूसरी तरफ से पकड़ूंगा।”

“तो पकड़ा क्यों नहीं?”

“पकड़ा। बराबर पकड़ा। आपकी जानकारी के लिये मायाराम कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार है और गा गा के सब कुछ बता रहा है।”

नीलम सकपकाई।

“ये भी कि किस बिना पर मुझे ब्लैकमेल कर रहा था?”

“जी हां।” — जनकराज बोला — “ये भी।”

“जब आप बात को जान ही चुके हैं तो मेरे से क्यों पूछते हैं?”

“तसदीक के लिये।”

“वो क्या कहता है?”

“वो आप को अपनी ब्याहता बीवी बताता है।”

“मैं मिसेज कौल हूं।”

“वो कौल साहब से आपकी शादी को नाजायज बताता है। वो कहता है आप पहले से उसकी ब्याहता बीवी हैं।”

नीलम खामोश रही।

“ये बात बेबुनियाद तो नहीं हो सकती!” — जनकराज तनिक जिदभरे स्वर में बोला।

“क्यों नहीं हो सकती?”

“क्योंकि बुनियाद तो आपने खुद ही बना दी है! आप उसकी ब्लैकमेल को कामयाब बना रही हैं। उसका मुंह बंद रखने के लिये आप उसे मुतवातर बड़ी-बड़ी रकमें दे रही हैं।”

“अब नहीं दे रही हूं।”

“अब तो कहानी ही खत्म हो गयी! अब तो वो गिरफ्तार हो गया! लेकिन जब दे रही थीं, तब तो दे ही रही थीं!”

“जो देना था, दे चुकी थी।”

“वो फिर भी बाज न आता तो आप क्या करतीं?”

“तो खून कर देती कमीने का।”

“कैसे?”

“गोली मार देती।”

“कैसे मार देतीं? जो गोलियां आपके घर में मौजूद हैं, वो तो नकली हैं?”

“मुझे नहीं मालूम था।”

“अब आप चाहें तो असली गोलियां हासिल कर सकती हैं?”

“मैं कहां से कर सकती हूं? मुझे क्या पता गोलियां कहां से मिलती हैं, कैसे मिलती हैं ?”

“अगर आप कत्ल का हौसला रखती हैं, तो ये कदम पहले ही क्यों न उठाया? तभी क्यों न उठाया जब मायाराम ने अपनी पहली मांग की थी?”

“क्योंकि पहले कुत्ता फासले से भौंक रहा था। हड्डी डालने से चुप हो जाता था। मैं हड्डी डालना अफोर्ड कर सकती थी इसलिये लाठी लेकर उसे मारने के लिये उसके पीछे दौड़ना मैंने जरूरी न समझा। जब करीब आ के भौंकता और काटने की धमकी देता तो हड्डी भी न मिलती और लाठी भी पड़ती।”

“लिहाजा अब के बाद कोई मांग करने पर मायाराम की मौत निश्चित थी?”

नीलम खामोश रही।

“हैरानी है कि आप इतने सहज भाव से कत्ल का इरादा कर सकती हैं!”

“सहज भाव से नहीं, मरता क्या न करता के भाव से।”

“मरते के इलाज का एक रास्ता पुलिस की तरफ भी जाता है। ब्लैकमेल एक गम्भीर अपराध है। आप पुलिस की शरण में पहुंचतीं तो मायाराम और उसके जोड़ीदार का वैसे ही काम हो जाता।”

“मैं कुत्ते का मुंह बंद देखना चाहती थी। ऐसे तो वो और भौंक कर दिखाता! बात अखबारों तक पहुंच जाती!”

“वो तो अब भी पहुंचेगी।”

“जी!”

“वो तो अब ऐसी जगह बैठकर भौंकेगा जहां आप उसे चुप भी नहीं करा सकेंगी। न हड्डी से, न लाठी से।”

“ये तो” — नीलम असहाय भाव से बोली — “बहुत बुरा होगा।”

“आपके लिये?”

“और किसके लिये?”

“आप असलियत बयान करें तो मैं आपकी मदद कर सकता हूं। मैं उसका भौंकना भी बन्द कर सकता हूं।”

“आप कर सकते हैं?”

“क्यों नहीं कर सकता? मैंने उसे गिरफ्तार किया है। मेरे पास उसके खिलाफ कत्ल का ओपन एण्ड शट केस है। ऐसा फंसा हुआ आदमी पुलिस को कोआपरेट करने से इंकार नहीं कर सकता।”

“ऐसा?”

“जी हां, ऐसा।”

“तो वो असलियत ये है कि वो मुझे मेरे गांव से तब भगा कर लाया था, जब कि मैं नाबालिग थी, नादान थी। वो मुझे फिल्म स्टार बना देने का झांसा देकर भगा कर लाया था। फिल्म स्टार तो मैं बन न सकी, कोई और ही स्टार बन गयी।”

“और कौन सी स्टार?”

“बस, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं बता सकती। मैंने खामखाह मुंह फाड़ा। मुझे अब उसका भी अफसोस है।”

“बीच में शादी वाली बात कहां से आ घुसी?”

“मैं कुछ नहीं बता सकती।”

“कुछ बताइये मत। कुछ हां न तो कीजिये शादी की बाबत! शादी की बात से हां नहीं तो इंकार ही कीजिये।”

“अाप कुछ और पूछना चाहते हैं?”

“लिहाजा नोटिस दे रही हैं आप मुझे!”

“कुछ और पूछना चाहते हैं?”

“एक आखिरी सवाल। आपने कहा कि आपके पति, कौल साहब, आजकल मुम्बई हैं।”

“हां।”

“पक्की बात?”

“हां।”

“ऐसा हो सकता है, वो लौट आये हों और आपको खबर न हो?”

“ऐसा कैसे हो सकता है! जब आयेंगे तो पहले घर ही आयेंगे!”

“अगर मैं कहूं कि वो आजकल दिल्ली में हैं?”

“तो मैं कहूंगी कि आप झूठ बोल रहे हैं।”

“आजकल बड़े शहरों में घरवाली बाहरवाली के कम्बीनेशन का बहुत रिवाज हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके केस में घरवाली को किसी बाहरवाली की खबर न हो?”

“पागल हुए हो!”

“यानी कि ऐसा नहीं है?”

“वो इतने अच्छे हैं कि ऐसा सोचना भी गुनाह है।”

“फिर तो बहुत अच्छी बनती होगी आपकी उनसे?”

“हां। बहुत अच्छी बनती है।”

“कभी कोई रंजिश नहीं? कोई शिकायत नहीं?”

“नहीं।”

“उन्हें आप से?”

“नहीं।”

“कोर्टशिप कितनी देर चली?”

“वो क्या होती है?”

“मुलाकात और शादी के बीच का वक्फा। आप पढ़ी लिखी हैं?”

“कौन से सवाल का जवाब पहले दूं?”

“पहले का ही दीजिये।”

“ठीक से याद नहीं लेकिन काफी लम्बी चली थी ये... कोर्ट शिप।”

“कोई अंदाजा? मसलन एक साल, दो साल, तीन साल...”

“एक साल! क्यों?”

“उस दौरान आप कहां पायी जाती थीं?”

“चण्डीगढ़।”

“और कौल साहब?”

“सोपोर।”

“मुलाकातें कैसे होती थीं?”

“अपने व्यापार के सिलसिले में वो अक्सर चण्डीगढ़ आते थे।”

“और अब आप लोग दिल्ली में बसे हुए हैं?”

“हां।”

“लेकिन कौल साहब अक्सर दिल्ली से बाहर जाते रहते हैं?”

“नौकरी के सिलसिले में।”

“आप कभी किन्हीं गैंगस्टर्स की गिरफ्त में आयीं? कभी बलात्कार की शिकार हुईं?”

“कौन कुत्ता ऐसा कहता है?”

“आप कभी...”

“अभी दो मिनट नहीं हुए आपके?”

“हो गये।” — जनकराज उठता हुआ बोला — “चलता हूं।”

“शुक्र है।”

“लेकिन जाने से पहले एक बात कहना चाहता हूं।”

“वो भी कहिये।”

“आप या तो बहुत ही सीधी और भली औरत हैं या बहुत चालाक और खतरनाक हैं।”

“बहुत मौलिक सूझबूझ पायी है आपने। मेरी बधाई कबूल कीजिये।”

“एक सवाल का जवाब रह गया।”

“कौन से का?”

“आप पढ़ी लिखी हैं?”

“नहीं। निरी फूलन देवी हूं।”

जितने उलझे दिमाग के साथ जनकराज वहां पहुंचा था, उससे ज्यादा उलझे दिमाग के साथ वो वहां से वापिस लौटा।

*****