पैराडाइज क्लब !



क़ानूनन मालिक और मैनेजर बलदेव मनोचा भारी बदन और गंजे सर वाला अधेड़ आदमी था । दायें हाथ की तीसरी उंगली में बड़ा–सा हीरा जड़ी सोने की मोटी अंगूठी उसे हसन भाइयों ने दी थी–उसकी सेवाओं से खुश होकर ।



क्लब के संचालक के रूप में वह फ्रंटमैन था । हसन भाइयों के अलावा सब उसे 'मनोचा सर' कहकर पुकारते थे । देखने में थुलथुल नजर आते भारी बदन वाले बलदेव मनोचा का अपनी मांसपेशियों पर जबरदस्त कंट्रोल था । वह घण्टों तक एक ही जगह खड़ा रहकर क्लब के किसी भी हिस्से की गतिविधियों पर नजर रख सकता था–शरीर के किसी भी भाग को जरा–सा भी हिलाये बगैर ।



वह इतना तिकड़मी और जुगाड़ू था कि पुलिस के विरोध के बावजूद अपने सियासती और प्रशासनिक रसूखात के दम पर क्लब चलाने का लाइसेंस हासिल कर लिया था ।



सर्कुलर रोड के पास क्लब की तीन मंजिला शानदार इमारत में ग्राउंड फ्लोर पर विभिन्न गेम्स रूम थे–कार्ड रूम, पूल रूम, बिलियर्ड रूम, रूलेट टेबल रूम वग़ैरा । उसके ऊपर शानदार बार, डांसिंग हॉल वगैरा थे । दूसरी मंज़िल पर रेस्टोरेंट था और टॉप फ्लोर पर ऑफिस के अलावा एक मिनी सिनेमा हॉल था । जहां पुराने और रेगुलर मेम्बरों की फरमाइश पर ब्लू फिल्में दिखाई जाती थीं ।



जब एस० आई० मनोज तोमर पहुंचा कोई खास चहल–पहल क्लब में नहीं था । अलबत्ता ग्राहक आने शुरू हो गये थे । वह जानता था जैसे–जैसे रात जवान होगी जुए, सुन्दरी और संगीत के माध्यम से शुरू हुई रंगीनियां हर तरह की अय्याशियों में बदलती चली जायेंगी ।



बलदेव मनोचा क्लब की लॉबी में क्रुपियर से बातें कर रहा था जब तोमर मजबूत कसरती जिस्म के लम्बे–चौड़े छह सादा लिबास वालों के साथ भीतर दाखिल हुआ ।



तोमर उसे पहचानता था । अपना परिचय पत्र निकालकर उसे दिखाया ।



बलदेव बुत बना खड़ा आई० कार्ड को देख रहा था । उसका चेहरा भावहीन था । एक पल के लिये उसे लगा रेड हो रही थी लेकिन वह जानता था ऐसी जगहों पर पुलिस रेड उस वक्त हुआ करती है जब रात पूरी तरह जवान होती है, ग्राहकों की भीड़ रहती है । और तमाम गतिविधियाँ अपनी चरम सीमा पर होती हैं । लेकिन शाम शुरू होते ही पुलिस आगमन की वजह उसकी समझ में नहीं आ रही थी ।



–"यह प्राइवेट क्लब है ।" वह बोला–"यहां सिर्फ मेम्बर ही...।"



–"आ सकते हैं ।" तोमर उसकी आंखों में झांकता हुआ वाक्य पूरा करके बोला–"लेकिन हम यहां एंटरटेनमेंट के लिये नहीं आये हैं...हम तुम्हारे दो रेगुलर मेम्बरों से मिलना चाहते हैं ।"



–"अभी कुछेक लोग ही आये हैं ।"



–"वे दोनों यहीं हैं । उनकी इम्पाला पार्किंग में खड़ी है और उनका जनाना–सा नजर आने वाला 'होमो' शोफर गुलशन बोनट से टिका खड़ा सिगरेट फूंक रहा है ।"



–"मैं समझा नहीं ।"



तोमर कटुतापूर्वक मुस्कराया ।



–"बनो मत ! तुम सब समझ रहे हो ।"



मनोचा ने सर्द निगाहों से उसे घूरा । अब तक वह सब समझ चुका था । पुलिस अफसर महज एस० आई० था । जवान और हेकड़ मगर ज्यादा तजुर्बेकार नहीं । अगर मामला वाकई संगीन होता तो एस० आई० की जगह किसी बड़े अफसर को भेजा जाना था । मगर खटकने वाली बात थी उसके साथ आये छ: पुलिसमैन के इरादे नेक नजर न आना...!



—"किस सोच में पड़ गये ?" तोमर गुर्राया ।



–"कुछ नहीं !"



–"तो फिर चलो । हम सारी रात यहां खड़े नहीं रह सकते । मुझे फारूख और अनवर हसन से बात करनी है ।"



–"पता नहीं वे...!"



–"मुझे पता है । इस इलाके की पैट्रोल कार ने एक घण्टा पहले उन्हें अंदर आते देखा था । अगर उन्हें जादू के जोर से गायब होना नहीं आता तो वे अभी भी यहीं होने चाहिये । समझे, मोटे बच्चे ?"



'मोटे बच्चे' सुनकर मनोचा को ताव आ गया । मामूली एस० आई० खुद युवक होते हुये भी उसे 'मोटे बच्चे' कह रहा था । साला ! हरामजादा । उसने मन ही मन गाली दी ।



"ओ० के०" अपनी कड़वाहट छिपाते हुये शांत स्वर में बोला–"मैं जाकर देखता हूं...।"



–"नहीं । तुम अकेले नहीं, मुझे साथ लेकर उनके पास चलोगे । अगर वे इस वक्त तुम्हारी छोकरियों के साथ बिस्तर में है तो भी तुम मुझे उनके पास ले जाओगे ।"



–"सॉरी, मैं...!"



–"अगर तुमने और ज्यादा हुज्जत में वक्त जाया किया तो मैं तुम्हारे चेहरे का हुलिया हमेशा के लिये बिगाड़ दूँगा और मेरे ये आदमी तुम्हारी इस दुकान को कबाड़खाने में बदल देंगे ।"



–"यह क्लब पूरी तरह लीगल है ।"



–"तुम और तुम्हारा यह दड़बा कितना लीगल है, मैं जानता हूं । मुझे कानून समझाने की बजाये चुपचाप फारूख और अनवर के पास ले चलो...अभी । फौरन !"



मनोचा जरा भी विचलित नहीं हुआ ।



–"ठीक है । लेकिन इन सब लोगों को अंदर ले जाना ठीक नहीं होगा । ग्राहकों पर बुरा असर पड़ता है ।"



तोमर मुस्कराया ।



–"तुम बाहर जाओ ।" अपने मातहतों की ओर पलटकर बोला–"तुम दोनों यहीं ठहरो । तुम, तुम और तुम मेरे साथ आओ ।"



वे चारों मनोचा के पीछे सीढ़ियों की ओर बढ़ गये ।



* * * * * *



रंजीत ने हसन भाइयों की फाइल का आखिरी पेज पलटकर फाइल बंद करके रखी और कुर्सी में आराम से पसर गया ।



एस० आई० दिनकर चौहान ड्यूटी खत्म करके जाते वक्त उसके लिये कॉफी भिजवा गया था । बची–खुची कॉफी खत्म करके उसने आँखें बंद कर लीं । हसन भाइयों के बारे में सोचने लगा ।



ताकत, मक्कारी और बेरहमी के दम पर गरीबी और तंगहाली से निकलकर वे मौजूदा मुकाम तक पहुंचे थे ।



फारूख और अनवर हसन की मौजूदा शख्सियत की बुनियाद उनकी शुरूआती बैकग्राउंड में ही रखी जा चुकी थी । अभावों और असुरक्षा भरा वातावरण और हालात उन्हें जैसा बनाते रहे, वे बनते गये ।



उनकी पैदाइश ही अपने आपमें असामान्य थी । जिसकी शुरूआत हुई थी दो बहनों जैनब और हसीना सईद और दो भाइयों अबरार और सलमान हसन से ।



दोनों बहनें उन दोनों भाइयों को बचपन से जानती थीं । हजारों की तादाद वाली जिस बस्ती में वे रहते थे, वो बरसों पहले खाली पड़ी सरकारी जमीन पर अवैध रूप से कब्जा करके धीरे–धीरे बसी थी । बसने वालों ने अपनी औकात के हिसाब से एक–दो कमरों के कच्चे–पक्के मकान वहां खड़े कर लिये थे । सब मजदूर तबके के लोग थे । सीवर लाइन के अलावा सारी जरूरी सहूलियात बिजली, पानी, स्कूल, डिस्पेंसरी वगैरा वोटों के लालची राजनीतिबाजों ने धीरे–धीरे वहां मुहैय्या करा दी । पड़ोसियों में एक–दूसरे की मदद और सहयोग करने का ज़ज़्बा होने के साथ–साथ जरा–जरा सी बातों पर आपस में गाली–गलौज, झगड़ा, मारपीट वग़ैरा भी वहां आम बात थी ।



बाप की मौत के बाद उन्नीस वर्षीय अनवर और बीस वर्षीय सलमान उसकी जगह डॉकयार्ड में मजदूरी करने लगे । दोनों लम्बे–चौड़े, तंदुरुस्त और देखने में बढिया लड़के थे ।



उसी साल दोनों बहनें जैनब और हसीना सतरहवें और अट्ठारहवें में कदम रख चुकी थीं । जैनब अपनी मां पर गयी थी–गेहुआं रंग, औसत कद–बुत और सुडौल शरीर । जबकि हसीना बाप से मिलती–जुलती थी–ऊंचा कद, गोरा–चिट्टा रंग और नैन–नक्श तीखे । नितंबों में नपा–तुला उतार–चढ़ाव पैदा करते हुये उसके चलने का अंदाज बड़ा ही मादक था ।



दोनों तेज–तर्रार और मुंहफट थीं । लड़कों द्वारा कसी गयीं फब्तियों के ऐसे मुंहतोड़ जवाब देतीं कि बेचारे बगलें झांकने लगते ।



लड़कियों के गदराये जिस्मों पर दूसरों की तरह उन दोनों भाइयों की भी नजरें थीं ।



एक शाम सलमान ने दिल की बात छोटे भाई के सामने रख ही दी ।



–"अब्बी, सईद की दोनों बेटियां पक गयी हैं । मुझे उम्मीद नहीं वे हमें मना करेंगी । इससे पहले कि कोई और उन्हें तोड़े, हमें उनका स्वाद चख लेना चाहिये...एकदम नई नकोर हैं । मुझे बड़ी पसंद है । उसकी आंखों में हर वक्त भूख झांकती है...!"



असलियत यह थी दोनों बहनें सोलहवें में कदम रखते ही औरत–मर्द के जिस्मानी रिश्तों से वाक़िफ़ हो चुकी थीं लेकिन सलमान उन्हें अनछुई ही समझता और मानता था ।



चढ़ती जवानी का जोश रंग लाने लगा ।



दोनों भाई उन दोनों सुंदर बहनों को दिल दे बैठे और अपनी चाहत भी उन पर पर जाहिर कर दी ।