तीरथराम पाहवा ने सुलगती निगाहों से अपने सामने खड़े आठ ओहदेदारों को देखा । जिसका नम्बर महेश चन्द के बाद आता था । वे आठों कुर्सियों के करीब बैठने के बजाय, उसके करीब खड़े थे । चेहरों पर गंभीरता और सतर्कता मौजूद थी । निगाहें पाहवा के हरकत करते जिस्म पर थीं ।

पाहवा खूनी शेर की भांति उस खूबसूरत कमरे में टहल रहा था । उसकी मुंह से निकलने वाली तेज सांसें खतरनाक गुर्राहटों की तरह लग रही थीं।  चेहरे पर वहशीपन के भाव नाच रहे थे। भिंचे हुए दाँत ! खींचाव के कारण चेहरा किसी भेड़िये के समान लग रहा था । सामने खड़े आठों बेहद सतर्क थे । वो इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ थे कि पाहवा ऐसे खतरनाक रूप में कभी आता नहीं और जब आता है तो उसका यह खतरनाक रूप खून की नदियाँ बहाये बिना दूर नहीं होता ।

पाहवा ठिठका । एड़ियों के बल घूमा और उसी अंदाज में आठों को घूरने लगा ।

पल भर के लिए वहां मौत का-सा सन्नाटा छा गया ।

"वो सिर्फ दो हैं, सिर्फ दो ।" तीरथराम पाहवा के होंठों से निकला ।

किसी ने कुछ नहीं कहा ।

"सब चलता है...चलता ही रहता है । घात-प्रतिघात तो हम लोगों के काम का हिस्सा है।" पाहवा की आवाज में बेहद खतरनाक भाव विद्यमान होने लगे--- "लेकिन उसका ये मतलब तो नहीं कि वो हमारा कोई भी, कैसा भी नुकसान कर दें । महेश चन्द की मौत कम से कम मेरे लिए तो बहुत बड़ा नुकसान है, वो मेरे अधिकतर काम कंट्रोल करता था । मैं निश्चिंत रहता था, और अब मेरे लिए दूसरा महेश चन्द जाने पैदा हो पायेगा या नहीं ? मेरे लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गई है । महेश चन्द की मौत मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता ।"

तीरथराम पाहवा ने भिंचे दाँतों से आठों को निहारा।

"वो सिर्फ दो हैं । सोहनलाल और जेल से भागा हुआ मुजरिम शंकरदास। और ये दो हमारे लिए कुछ भी मायने नहीं रखते । दो सौ भी हों, तो हम एक साथ उन्हें मसल सकते हैं । जवाब दो ।"

पाहवा का दरिंदगी से भरा ये रूप देखने लायक था।

"आप ठीक कह रहे हैं ।" एक ने कहा ।

"मैं ठीक कह रहा हूँ ?" पाहवा ने कहने वाले की आंखों में देखा ।

"जी...। आपने बिल्कुल ठीक कहा । वो पुनः उसी लहजे में बोला ।

"उन दोनों के प्रति तुम लोगों की क्या राय है...? क्या इंतजाम करना चाहिए...?"

"उन्हें उनकी किए की सजा मिलनी चाहिए । हमें सबको दिखाना है कि कोई भी हमसे जीत नहीं सकता । ताकि भविष्य में कोई हमारे खिलाफ सिर ना उठा सके ।" अन्य ने स्थिर किन्तु सख्त स्वर में कहा।

पाहवा ने होंठ भींचकर उसे घूरा ।

"मुझे खुशी है कि तुम लोगों को समझ है कि दुश्मनों के साथ अब कैसा व्यवहार करना चाहिए ।" तीरथराम पाहवा ने क्रूर स्वर में कहा--- "तो इन दोनों के मरने की खबर, कब तक मुझे सुना रहे हो...?"

"बहुत जल्द ।"

"बहुत जल्द की भी हद होती है समय की ?" तीरथराम पाहवा गुर्राया ।

"ज्यादा से ज्यादा एक-दो दिन में ।"

"ठीक है।  ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन तक मुझे सोहनलाल और शंकरदास की मौत की खबर चाहिए । अगर ये दोनों या दोनों में से कोई एक जिंदा भी हाथ आ जाये तो कोई बुरा नहीं ।" पाहवा ने पूर्ववत लहजे में कहा--- "जाओ अब तुम लोग।  उन दोनों को तीसरे दिन तक जिंदा नहीं रहना चाहिए ।" पाहवा के आखिरी शब्दों में धमकी थी । जिसे महसूस कर वो आठों-के-आठों मन ही मन खौफ से सिहर उठे ।

उनके बाहर जाने के बाद पाहवा भिंचे दाँतों से वहशी भरा चेहरा लिए कमर पर हाथ बांधे काफी देर तक चलता रहा । सोहनलाल और शंकरदास के प्रति आंखों में अंगारे दहक रहे थे ।

एकाएक फोन की घंटी बजने लगी । पाहवा ठिठका । फिर आगे बढ़कर रिसीवर उठाया ।

"हैलो....।"

"नमस्कार पाहवा साहब ।" खनकती आवाज रिसीवर के मध्यम से पाहवा के कानों से टकराई।

तीरथराम पाहवा के चेहरे पर छाया तनाव कुछ कम हुआ ।

"तुम...रानी...?"

"हाँ, आपकी रानी ।" आवाज में हँसी थी ।

"कैसी हो...?"

"आपकी मेहरबानी से वक्त कट रहा है । छः दिन हो गये जनाब के दर्शन ही नहीं हुए ।"

"व्यस्त था रानी ।"

"आवाज में कुछ परेशानी-सी लग रही है ।" रानी के शब्दों में मुस्कुराहट थी ।

"तुमने पहचाना है तो ठीक ही पहचाना है ।" पाहवा ने गहरी सांस ली ।

"सुनकर बहुत अफसोस हुआ कि तुम्हारा होटल उड़ा दिया गया है । बहुत नुकसान हुआ तुम्हारा ?"

"हाँ । भारी नुकसान ।" पाहवा के होंठों से सख्त स्वर निकला--- "होटल के उड़ जाने से मेरी आधी से ज्यादा ताकत खत्म हो गई । तुम नहीं समझ सकोगी कि मेरी क्या हालत हो रही है इस समय ?"

"मैं सब समझ रही हूँ ।" पाहवा साहब ।

"महेश चन्द की भी हत्या कर दी गई है ?"

"ओह ! वो तो आपका खास...वफादार आदमी था ।"

"हाँ ! उसका मर जाना दूसरी चोट है मेरे लिए...।"पाहवा ने रिसीवर पर ही दाँत भींचकर कहा ।

"वो कैसे मारा...?"

"उन्हीं कुत्तों ने मारा है...सोहनलाल और शंकरदास ने लेकिन वे बचेंगे नहीं । देर-सवेर में उनकी लाशें पड़ी होंगी शहर के किसी हिस्से में । मेरे खिलाफ खड़ा होकर कोई जिन्दा नहीं बच सका।"

"आप ठीक कह रहे हैं ।" रानी का स्वर शांत था--- "मेरे पास आ जाइये ना । फोन पर इतनी लम्बी बातें हो नहीं सकती । बैठकर बातें करेंगे और आपकी दिमागी परेशानी भी काफी हद तक हल कर दूँगी ।"

"हल्का...? कैसे...?" समझकर भी पाहवा ने पूछा । जाने क्या सोचकर उसके होंठों पर मुस्कान फैल गई थी ।

"वैसे ही...।" रानी की आवाज में खनकती हँसी थी ।

पाहवा के होंठों पर मुस्कुराहट उभरी ।

"सच मानो तो तुम्हारा फोन आने से पहले मैं तुम्हारे ही पास आने की सोच रहा था । वास्तव में मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत महसूस हो रही है ।" कहते हुए पाहवा ने गहरी साँस ली ।

"तो फिर देर किस बात की...?"

"कोई देर नहीं । छोटे-छोटे दो-चार काम हैं। उन्हें निपटाकर आता हूँ ।"

"कितनी देर तक...?"

"ज्यादा देर नहीं लगेगी...।" कहने के साथ ही पाहवा ने रिसीवर रख दिया । हालात तो अभी भी वहीं के वहीं थे, परन्तु रानी से बात करने के पश्चात मस्तिक के तनाव को काफी हद तक हल्का महसूस कर रहा था ।

■■■

सुन्दर लाल होश में था । उसकी आंखों में खुशी के आंसू थे । वो बैड पर लेटा अपने करीब खड़े सोहनलाल और शंकरदास को आभार भरी निगाहों से देख रहा था । अपनी किस्मत पर उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि पाहवा की कैद से वापस निकला है।

"क्या बात है...?" सोहनलाल ने उसे घूरा--- "रोता क्यों है ? कौन मर गया...?"

"कोई नहीं मरा। " सुन्दर ने भारी स्वर में कहा ।

"फिर रोता क्यों है...जवाब दे ।" सोहनलाल ने पूर्ववत लहजे में कहा ।

"तुम लोगों ने मुझे पाहवा की कैद से बचाया, मेरी चिंता की कि...।"

"तो कौन-सा तीर मार दिया हमने ।" सोहनलाल ने तीखे स्वर में कहा--- "तेरी चिंता नहीं करेंगे तो राह चलते की करेंगे । तू हमारा खैरख्वाह था, भूल गया ? अगर तू हमें अपने घर में ना घुसने देता तो पाहवा ने हम लोगों को कब का साफ कर दिया होता । मानता है ना...?"

अब सुन्दर लाल क्या कहता ।

"और फिर तुझे पाहवा ने क्यों पकड़ा ? तेरी पाहवा से क्या दुश्मनी थी ? हमें बचाने की चेष्टा में ही तो तेरी दुश्मनी पाहवा में से हुई और उसने तुझे पकड़ा । यानी जो कुछ भी हुआ हमारी वजह से हुआ । तू पकड़ा गया तो हमारी वजह से पकड़ा गया । इसलिए हमारा भी इंसानी फर्ज बनता था कि तुझे बचाएं, जैसे भी हो तुझे बचाया जाये । तुझे बचा भी लिया । तेरे पर अपना कोई अहसान नहीं किया ऐसा करके।"

शंकरदास ने मुस्कुराकर सुन्दरलाल का कंधा थपथपाया ।

"फालतू मत सोचो सुंदर, तुम घायल हो...आराम करो । तुम हम  पर बहुत अहसान कर चुके हो, वही बहुत है।  हम वे ही नहीं उतार सकते हैं । दो-तीन दिन लगेंगे । तुम्हारी हालत सुधर जायेगी ।"

सुन्दर लाल गहरी सांस लेकर रह गया । उसके जख्मों पर दवा लगा दी गई । जरूरत की हर वस्तु उसे मुहैया करा दी गई थी । इस समय उसे सिर्फ आराम की आवश्यकता थी । जो भी हो इस बात के लिए वो सोहनलाल और शंकरदास का दिल से शुक्रगुजार था कि उसे पाहवा की कैद से निकाल लिया गया । अगर ऐसा ना होता तो उसकी मौत निश्चित थी । वो तो कैद में खुद को मरा ही समझ रहा था ।

तभी बेल बजी ।

शंकर दास ने सावधानी से दरवाजा खोला ।

आने वाला जयचंद पाटिया था।

पाटिया ने सुन्दर लाल को देखा तो उसके होंठों पर मुस्कान बिखर गई ।

"ये शायद सुन्दरलाल होगा ?" जयचंद हौले से हँसा ।

"हाँ...।" सोहनलाल ने सिर हिलाया ।

"इसे बचाकर वास्तव में बहुत बड़ा काम किया तुमने । कहाँ से बचाया इसे...?"

शंकरदास ने बताया ।

जयचंद पाटिया ने हौले से हँस दिया ।

"महेश चन्द के मरने की खबर तो मुझे मिल गई थी और मैं समझ गया था कि ये कारनामा तुम लोगों का ही है । परन्तु सुंदरलाल को निकाल लाने के बारे में मैं नहीं जान सका था ।"

"सुन्दर लाल, पाटिया को चेहरे से पहचानता था ।" उसने बैड पर बैठना चाहा।

"लेटे रहो...।" जयचंद पाटिया ने मुस्कुराते हुए कहा ।

सुन्दर लाल ने पुनः उठने की चेष्टा नहीं की ।

"तुम आराम करो सुन्दर ।" सोहनलाल बोला--- "हम दूसरे कमरे में है ।"

उसके बाद सोहनलाल, शंकरदास और जयचंद पाटिया दूसरे कमरे में पहुँचे ।

जयचंद ने सिगरेट सुलगाई और कश लेकर गंभीर स्वर में बोला ।

"तीरथराम के बारे में अब तुम लोगों का क्या प्रोग्राम है?"

शंकरदास ने मुँह बनाकर पाटिया को देखा ।

"पाटिया ! हर काम वक्त पर सब्र के साथ होता है । जल्दबाजी अच्छी नहीं होती । तुम जब भी मिलते हो, आते ही पाहवा के बारे में ही बात करते हो ।" शंकरदास ने कहा ।

"हाँ...।" जयचंद पाटिया ने मुस्कुराकर सिर हिलाया--- "मेरे मतलब की यही बात है, इसलिए मैं तो करूंगा ही । लेकिन इस वक्त मेरा इस बात के प्रति, मतलब कुछ और ही था ।"

"क्या...?"

"तुम लोग पाहवा को निशाना बनाना चाहते हो । लेकिन पाहवा आसानी से हाथ नहीं आ रहा है । पहले वो अपने होटल में सुरक्षित था । अब वो अपने बंगले में सुरक्षित है । ऐसे में उस पर हाथ डालना मौत को दावत देना है...।"

"जो तुम कह रहे हो । वो तो हम भी जानते हैं ।" सोहनलाल ने कहा ।

"हाँ....।" लेकिन अब जो बता रहा हूँ, वो तुम लोग नहीं जानते...।" जयचंद बोला ।

"क्या...?"

"एक ऐसी जगह ऐसी भी है जहां पाहवा पर हाथ डाला जा सकता है, और इस जगह के बारे में मुझे सिर्फ दो घंटे पहले ही पता चला है । पाहवा के आदमियों में मौजूद मेरे आदमी ने मुझे ये जानकारी दी है ।" जयचंद पाटिया ने गंभीर स्वर में कहा और कश लेकर बोला--- "पाहवा की एक रखेल है। रानी नाम है उसका । पाहवा यदा-कदा उसके पास जाता रहता है और अब भी उसके पास जाने वाला है।"

"अब भी...?" सोहनलाल ने होंठ सिकोड़कर उसे देखा ।

"हाँ, रानी क्रिसेट रोड पर कहीं रहती है । जब पाहवा वहाँ जाता है तो कोई तगड़ी सिक्योरिटी लेकर नहीं जाता आपने विश्वास के तीन गार्डों को ले जाता है जो उसके साथ दूसरी कार में होते हैं और इधर वाली कार में केवल उसका ड्राइवर ही होता है । जो कि दस सालों से उसके साथ है । क्रिसेट रोड की शुरुआत होते ही पाहवा अपने तीनों गार्डों को वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाता है। वो तीनों गार्ड भी नहीं जानते कि वह कहाँ जाता है । सिर्फ ड्राइवर ही जानता है । वापसी पर पाहवा को गार्ड वहीं पर मिलते हैं । अगर पाहवा को ज्यादा देर रानी के पास रहना होता है तो वो गार्डों को बता देता है कि लगभग वो कब वापस लौटेगा...।"

दो पल के लिए जयचंद की आवाज के साथ वहां चुप्पी छा गई ।

सोहनलाल और शंकरदास की आंखें मिलीं, कुछ पलों तक मिली ही रही ।

"इसका मतलब...।" शंकरदास ने कहा--- "पाहवा के ड्राइवर के अलावा कोई नहीं जानता कि पाहवा क्रिसेट रोड पर कहां जाता है ?  रानी कहाँ रहती है...? सिर्फ उसका दस साल पुराना वफादार ड्राइवर ही जानता है...।"

जयचंद ने सिर हिलाया ।

शंकरदास ने सिर हिलाकर सिगरेट सुलगाई ।

"मतलब कि तीरथराम पाहवा क्रिसेट रोड पर पहुँचे तो तभी हम उसे शूट कर सकते हैं ।"

"मत भूलो कि उस समय उसके साथ तीन खतरनाक गार्ड भी होंगे और जंग तब खुले में होगी ।" जयचंद ने गंभीर स्वर में कहा--- "शायद वो लोग तुम्हें ही शूट कर दें, पासा पलट भी सकता है ।"

"हाँ, ऐसा भी हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं ।" शंकरदास ने सोच भरे स्वर में कहा।

सोहनलाल शांति से उनकी बातें सुन रहा था ।

"हमें कोई और रास्ता सोचना चाहिए ।" जयचंद पाटिया बोला ।

"तुम सोचो...।"

"तुम दोनों न सोच सके तो फिर मुझे ही कोई रास्ता निकालना पड़ेगा।"

"अब रास्ता निकाल लो ।"

"क्यों तुम्हारा दिमाग बंद हो गया है ?" जयचंद पाटिया मुस्कुराया ।

"बंद....।"  शंकरदास ने कहर भरी निगाहों से उसे देखा ।

"अभी तो मैंने खोला ही नहीं है फिर बंद कहां से होगा ।"

"तो फिर खोलो ना....।"

शंकरदास ने आंखें सिकोड़कर उसे देखा ।

"तुम्हें शायद पकी-पकाई खाने की आदत है, जयचंद पाटिया ।" शंकरदास का स्वर कड़वा था ।

"शायद ।" जयचंद मुस्कुराया--- "मेरे आदमियों ने मेरी हालत काफी बिगाड़ दी है । सब कुछ वही करते हैं । जब कभी फँस जाते हैं तो तब उन्हें रास्ता दिखाना पड़ता है।"

ऐसे में अगर तुमने पाहवा की जगह ले ली तो तब काम कैसे करोगे...?"

"तब ?" जयचंद पाटिया हँसा--- "तब-की-तब देखी जायेगी कि जयचंद काम कैसे करता है...?"

"मेरे ख्याल से पाटिया हम बेकार की ही बातें कर रहे हैं ।"

"हाँ...तभी तो कहता हूँ, फौरन कुछ सोचो ।" जयचंद पटिया के चेहरे के भाव बदले ।

शंकरदास ने कश लिया और कह उठा।

"मेरे ख्याल में जो होगा देखा जायेगा । पाहवा को क्रिसेट रोड पर ही घेरना ठीक रहेगा ।"

"वहां खतरा होगा गार्डों का...?"

"पाहवा को रास्ते से हटाना है तो खतरा तो होगा ही हर जगह ।"

"जयचंद पाटिया कुछ न बोला ।

"तीरथराम पाहवा ने आज ही रानी के पास क्रिसेट रोड पर जाना है ।" शंकरदास ने पूछा ।

"आज ही नहीं बल्कि किसी भी समय जल्दी ही।"

"फिर तो हमें फौरन ही यहां से रवाना हो जाना चाहिए ।" शंकरदास ने सोहनलाल को देखा ।

सोहनलाल ने कुछ नहीं कहा।

"तुम कुछ नहीं कह रहे ?" जयचंद पाटिया ने सोहनलाल को देखा । मैं तुम लोगों की बातें सुन रहा हूँ, अभी कुछ करने की जरूरत महसूस नहीं हुई ।" सोहनलाल बोला ।

"तुम्हें शंकरदास की बात जचीं कि....।"

"फालतू की बातें मुझे नहीं जँचती ।" सोहनलाल ने तीखे स्वर में कहा ।

"क्या मतलब ?"

"पाहवा को हम रानी के घर पर उसके करीब ही कहीं पकड़ सकते हैं ।"

जयचंद पाटिया ने उखड़ी निगाहों से उसे देखा ।

"अवश्य ऐसा कर सकते हैं, बशर्ते कि हमें रानी के घर का पता हो ।"

"पता लगाया जा सकता है ।"

"कैसे ?"

"पाहवा कार ड्राइवर के साथ रानी के घर जाता है । क्रिसेट रोड का इलाका बेशक कितना भी बड़ा क्यों ना हो, अगर भरपूर कोशिश की जाये तो कार और ड्राइवर को हम कहीं भी खड़ा पा सकते हैं ।" जयचंद की आंखें सिकुड़ी ।

शंकरदास के चेहरे पर अजीब से भाव आ गये। उन दोनों को खामोश पाकर सोहनलाल कह उठा ।

"लगता है मेरी बात पसंद नहीं आई ?"

"ऐसी बात नहीं...।" शंकरदास बोला--- "बल्कि मैं तो सोच रहा था कि ऐसा मैंने क्यों नहीं सोचा...?"

"कोई फर्क नहीं पड़ता ।" सोहनलाल मुस्कुराया--- "मैंने सोच लिया...।"

"तुम कभी-कभी ठीक सोच लेते हो सोहनलाल ।" पाटिया ने हंसकर कहा ।

"कभी,कभी नहीं, मैं अक्सर ही ठीक सोचता हूँ ।" सोहनलाल ने तीखी निगाहों से उसे देखा ।

"हो सकता है तुम्हारा कहना सही हो, मैंने तुम्हें कभी आजमाया नहीं । क्योंकि हमारा वास्ता कभी नहीं रहा ।"

"न ही रहे तो अच्छा है ।"

शंकरदास उनकी बातों पर ध्यान न देकर बोला ।

"चलो, सोहनलाल हम ऐसा ही करेंगे । यहां रहना वक़्त बर्बाद करना है । अगर पाहवा अपने बंगले से निकल गया तो फिर उसे तलाश कर पाना कठिन हो जायेगा।

सोहनलाल की निगाहे जयचंद पाटिया पर जा टिकीं ।

पटिया ने प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखा ।

"मैं और शंकरदास सारा दिन भी भटकते रहे तो पूरी क्रिसेट रोड नहीं छान सकेंगे ।"

"तो...?"

"पाहवा की कार और ड्राइवर को ढूंढने में तुम्हारे आदमियों का इस्तेमाल किया जायेगा जयचंद...।"

"कैसे....?"

"क्रिसेट रोड के पास किसी जगह का नाम बताओ । जहां हम इकट्ठे हो सकें।"

"एक किलोमीटर के फासले पर म्यूजियम है ।

"ठीक है तुम कम से कम बीस आदमियों को लेकर वहाँ पहुँचों । इंतजार करो । हम वही मिलेंगे।"

"लेकिन मेरी क्या जरूरत है ? मैं आदमी भेज देता हूँ, बीस कहो, चालीस कहो ।"

सोहनलाल ने कड़ी निगाहों से उसे देखा।

"कुछ काम करने के नाम पर तुम्हारे बुरे हाल क्यों हो जाते हैं जयचंद पाटिया ।"

जयचंद पाटिया हँसा ।

"बोला तो....मेरे आदमी ने मेरी आदत खराब कर रखी है मेरा सारा काम वे जो निपटा देते हैं ।"

सोहनलाल एक-एक शब्द चबाकर कह उठा ।

"म्यूजियम पर, तुम्हारे आदमियों के साथ तुम्हारे मिलने की जरूरत इसलिए है कि हम और तुम्हारे आदमी एक-दूसरे को पहचान सकें । उसके बाद तुम बेशक वहाँ से चले जाना । समझ में आई बात कि नहीं...?"

"आई ।" जयचंद पाटिया मुस्कुराया ।

सोहनलाल वहाँ से निकलकर दूसरे कमरे में सुन्दर लाल के पास पहुँचा ।

सुन्दर लाल आंखें बंद किए बैड पर लेटा था ।

"कैसी हालत है तुम्हारी...?" सोहनलाल ने पूछा ।

"अभी तो वैसी ही है ।" उसने आंखें खोली--- "घायल जिस्म का बुरा हाल है । दो-चार दिन आराम की जरूरत है ।"

"हूँ...आराम करो । लेटे रहो । जल्दी ठीक हो जाओगे ।" सोहनलाल मुस्कुराया ।

सुन्दर लाल के होंठों पर भी मुस्कुराहट उभरी ।

"हम जरा बाहर जा रहे हैं...।"

"कहाँ...?"

"पाहवा को निशाना बनाने । मालूम हुआ कि वो कहीं पहुंच रहा है ।" सोहनलाल बोला।

"संभलकर....।"

"निश्चिंत रहो ।" सोहनलाल ने हौले से, विश्वास भरे ढंग से उसका कंधा थपथपाया ।

किस जगह पर पाहवा के मिलने की खबर है ।" सुन्दर लाल ने पूछा ।

"क्रिसेड रोड पर । वह यहाँ  किसी युवती से मिलने जाता है और आज भी जा रहा है ।"

"वह अकेला तो होगा नहीं।

"नहीं, गार्ड हैं उसके साथ । हम सब इंतजाम कर लेंगे । जयचंद के आदमी हैं हमारे साथ ।"

"जयचंद भी ?"

"नहीं ।" सोहनलाल ने कहा फिर एकाएक बोला--- "यह जयचंद कैसा आदमी है सुन्दर लाल ।"

"कैसा क्या...?"

"खुद को पाहवा के बाद का बड़ा दादा कहना पसंद करता है परन्तु मुझे तो बेकार और डरपोक लगता है ।"

सुन्दर लाल मुस्कुराया । अजीब-सी मुस्कान उसके घायल चेहरे पर फैली ।

"जयचंद पाटिया के बारे में गलत विचार हैं तुम्हारे ।"

"क्यों...?"

"जयचंद इतना खतरनाक इंसान है कि तुम सोच भी नहीं सकते । पाहवा से कहीं ज्यादा है वो । पाटिया के कारण पाहवा को कई बार बड़ी परेशानी उठानी पड़ी है ।" सुन्दर लाल ने बताया--- "पाटिया छोटे-छोटे कामों में हाथ नहीं डालता सिर्फ उन्हीं कामों में हाथ डालता है जहाँ उसे लगे कि उसकी जरूरत है । जयचंद जब अपनी करनी पर आता है तो फिर उसे संभाल पाना कठिन हो जाता है, जयचंद  अगर मामूली-सी शख्शियत होता तो पाहवा कब का उसे रास्ते से हटा चुका होता ।"

सुन्दर लाल की बात सुनकर, जयचंद के प्रति सोहनलाल के विचार बदले ।

"पाटिया ।"हर काम में हमें ही आगे कर रहा है और खुद पीछे हो रहा है, इसलिए मुझे लगा कि जयचंद डरपोक है परन्तु तुम्हारी बात सुनकर मुझे वास्तव में महसूस होने लगा है कि जयचंद पाटिया काफी खतरनाक आदमी है ।"

"वो इसलिए पीछे हो रहा है कि उसे खुद के आगे जाने की आवश्यकता महसूस नहीं हो रही है । जब आगे आयेगा तो तब देखना उसका रूप । उससे खतरनाक तुम्हें कोई लगेगा ही नहीं ।" सुन्दरलाल ने कहा ।

सोहन लाल ने उसका कंधा थपथपाया ।

"ठीक है तुम आराम करो ।"

"जा रहे हो, पाहवा से निपटने....?"

"अपना ध्यान रखना ।" सुन्दर लाल के चेहरे पर गंभीरता थी ।

सोहनलाल जवाब में मुस्कुराया और बाहर निकल गया ।

■■■

शंकरदास और सोहनलाल तीरथराम पाहवा के बंगले से काफी दूर कार के भीतर बैठे थे । परन्तु उनकी निगाहें पाहवा के बंगले के मुख्य गेट पर थीं ।"

"पाहवा अभी तक नहीं निकला ।" सोहनलाल बोला--- "आधा घंटा हो गया हमें ।"

"इंतजार की आदत डालो ।" शंकरदास ने शांत स्वर में कहा।

"और कितना इंतजार करें ।"

"सारा दिन ।"

"सारा दिन ?" सोहनलाल ने अजीब-सी निगाहों से उसे देखा--- "इस तरह सारा दिन बैठा नहीं जायेगा...।"

"यही तो फर्क है तुम में और हममें । हम मिलिट्री वालों को ये पढ़ाई मिली होती है कि हर काम में सब्र का इस्तेमाल करो । दुश्मन सामने हो तब भी सब्र के साथ उस पर वार करो । ये एक बहुत बड़ा इम्तिहान होता है । कई बार यही सब्र बड़े-बड़े काम आसानी से निपटा देता है ।" शंकरदास ने कहा।

सोहनलाल ने मुँह बिगाड़ा ।

"तुम तो मुझे मिलिट्री वाला लेक्चर देने लगे ।"

"समझा रहा हूँ ।"

"समझाओ मत । बल्कि खुद कुछ करने की चेष्टा करो ।"

सोहनलाल ने कहा ।

"क्या....?"

"तुम्हारे मिलिट्री के लेक्चर में, ये बात भी शामिल होती है कि अगर दुश्मन खिसक गया हो तो उसके बंगले के बाहर कार में बैठे सिगरेट फूँकते रहो । वक्त बर्बाद करते रहो ।"

"क्या मतलब...।"

"मतलब तो तुम भी समझ रहे हो शंकरदास...।"

शंकरदास दो क्षणों के लिए खामोश हो गया ।

"तुम्हारा क्या ख्याल है ? तीरथराम वास्तव में बंगले से हमारे आने से पहले ही चला गया होगा।"

"मैंने तो अपना विचार जाहिर किया है ।" सोहनलाल अब गंभीर हो गया था ।

"अगर ऐसा कुछ हुआ होता तो, दोबारा ऐसा कोई मौका तलाश करने में काफी दिन लग सकते हैं ।"

"हाँ । आज हमें अच्छा मौका मिल रहा था ।" सोहनलाल ने पहलू बदला ।

कई पलों के लिए उन दोनों के बीच खामोशी-सी रही ।

"अब कैसे मालूम किया जाए कि पाहवा क्रिसेट रोड की तरफ रवाना हो चुका है कि नहीं...?"

"मालूम करने का कोई रास्ता नहीं । उसके बंगले से तो ये जानकारी मिलने से रही ।"

दोनों असमंजता भरी मुद्रा में आधा घंटा और कार में बैठे रहे ।

"कब तक इस तरह बैठे रहेंगे...?"

"दिन भर ।" शंकरदास ने शांत स्वर में कहा ।

"ये तो फालतू के लटक गये । मालूम हो कुछ होना है तो दो दिन भी बैठा जा सकता है।"

शंकर दास ने कुछ नहीं कहा ।

"फाटक तो खुल रहा है ।" एकाएक शंकर दास ने शीत लहजे में कहा ।

सोहनलाल चौंका फौरन सीधा होकर बैठ गया । निगाहें दूर पाहवा के बंगले के फाटक पर जा टिकीं।

"बाहर आने वाला कौन है...?"

"ये तुम भी देख रहे हो और मैं भी...।"

दोनों की निगाहें फाटक पर ही टिकी रहीं तभी एक लम्बी विदेशी कार फाटक के बाहर निकली और सिर्फ आठ फीट के फासले पर ही पीछे दूसरी कार थी । सोहनलाल ने एक ही निगाह में पहचाना कि आगे वाली विदेशी कार की पिछली सीट पर तीरथराम पाहवा मौजूद है । मात्र एक ही सेकंड के लिए उसे पाहवा के अक्स की झलक मिली थी और जाहिर है कि पीछे वाले कार में उसकी हिफाजत के लिए गार्ड थे ।

"पाहवा कहाँ हैं...?" शंकरदास ने पूछा--- "आगे वाली कार में ।"

दोनों कारें आगे की दिशा की तरफ थीं।

"नीचे झुको शंकरदास ।" सोहनलाल व्याकुलता से बोला--- "कारें दूसरी तरफ आ रही हैं ।"

दोनों फौरन इस प्रकार से नीचे झुक गये कि बाहर से देखने पर कार के खाली होने का एहसास हो। कारों के इंजन की आवाजों को सुनकर उन्हें महसूस हुआ कि कारें गुजर गयी हैं ।

दोनों फौरन सीधे हुए । एक-दूसरे को देखा ।

शंकरदास ड्राइविंग सीट पर मौजूद था ।

"ये अब क्रिसेट रोड पर जा रहे हैं ।" सोहनलाल बोला--- "इनके पीछे चलो ।"

"लेकिन...पाहवा कार में है भी या नहीं...?" शंकरदास ने उलझन में पूछा।

"है...।"

"तुमने देखा...?"

"देखा है तभी तो कह रहा हूँ कि जल्दी कर बेवकूफ ! वरना सारा मामला गड़बड़ा जायेगा ।"

शंकरदास ने कार स्टार्ट करके वापस घुमाई और काफी अधिक फासला रखकर आगे जाती पाहवा की दोनों कारों के पीछे डाल दी। कुछ देर पश्चात शंकरदास बोला ।

"पाहवा आगे वाली विदेशी कार में होगा...।"

"हाँ...।" सोहनलाल विचारों में डूबा कह उठा--- "पीछे वाली कार में उसके गार्ड...।"

"सोहनलाल ! इस बार हमें नहीं चूकना । पाहवा को खत्म करना है हर हाल में...?"

"देखेंगे ।"

"देखेंगे ?" शंकरदास ने सिर घुमाकर सोहनलाल की तरफ देखा।

"हर काम सोच के मुताबिक नहीं, हालातों के मुताबिक होता है । इरादा तो हमारा पाहवा की हत्या करने का ही है । परन्तु हम सफल होते हैं कि नहीं, ये तो आने वाले हालात ही बताएंगे, हमारी कोशिश जारी है ।"

शंकरदास ने कुछ नहीं कहा। निगाहें आगे जाती कारों पर टिका दीं ।

"ये तो समान गति से कारें चला रहे हैं ?" शंकरदास ने कहा ।

"तेज चलाने की जरूरत ही क्या है । माशूका के यहाँ ही जाना है जंग पर तो नहीं...?"

सोहनलाल का जवाब सुनकर शंकरदास गहरी सांस लेकर रह गया।

आधे घंटे बाद पाहवा की और गार्डों की कार उस सड़क पर जाकर रुकीं। जहां से क्रिसेट शेड रोड शुरू होती थीं । शंकर दास ने अपनी कार काफी पहले ही रोक ली । उन्होंने देखा कि पीछे वाली कार में एक गार्ड उतरा और आगे बढ़कर, पाहवा की कार तक पहुंचा। पाहवा से बात की । फिर पाहवा की कार आगे बढ़ गई । गार्ड वापस कार में बैठ गया फिर गार्ड की कार मुड़ी और अन्य सड़क की ओर बढ़ गई ।

करीब मिनट भर सोहनलाल, शंकर दास कार में ही बैठे रहे ।

"अब...?" शंकरदास ने कहा।

"मैं कार से उतरकर यहीं रुकता हूँ और नजर रखता हूँ । तुम म्यूजियम पर जाकर जयचंद से मिलो । उसके साथ मौजूद आदमियों को उससे हासिल करो उन्हें यहां तक लाओ फिर आगे काम करते हैं ।" कहने के साथ ही सोहनलाल ने दरवाजा खोला और कार से नीचे उतर गया ।

शंकरदास ने कार आगे बढ़ा दी। ।

■■■

जयचंद पाटिया, शंकरदास से बहुत खुशी से मिला । वो कार में ही बैठा रहा । शंकरदास के कुछ कहने से पहले ही वो सामने की तरफ इशारा करके पाटिया से बोला--- "वो देखो, वो सामने खड़े हैं मेरे आदमी । जिनका इस्तेमाल तुम और सोहनलाल जैसे चाहो वैसे कर सकते हो। बीस के लिए बोला था, पच्चीस लाया हूँ ।"

शंकरदास ने उस तरफ निगाह मारी ।

वहाँ कई कारें खड़ी थीं। कुछ उनके अंदर बैठे थे और कुछ बाहर भी खड़े थे ।

यहाँ से निगाहें हटाकर, शंकर दास ने पुनः जयचंद पटिया पर निगाह मारी।

"उनमें से एक नीले रंग की चैक शर्ट वाला है, नजर आ रहा है ?" जयचंद पाटिया बोला ।

"हाँ ।" शंकर ने उस तरफ निगाह मारकर बोला ।

"वो पच्चीस के ऊपर हैं और खतरनाक आदमी हैं । सबको समझाने की अपेक्षा, सिर्फ उसे समझा देना कि तुम लोग क्या चाहते हो ? उसका नाम अजय चौधरी है ।" जयचंद पटिया बोला ।

शंकरदास ने सिर हिलाया ।

"और तुम...?"

"मैं...मैं क्या...?" उसकी बात का मतलब समझकर भी पाटिया अंजान बना रहा ।

"तुम हमारे साथ नहीं आओगे...?"

"क्या जरूरत है...?" पाटिया लापरवाही से कह उठा ।

"जरूरत तो बहुत है, तीरथराम पाहवा को खत्म नहीं करना क्या...?" शंकरदास ने उसकी आंखों में झाँका ।

जयचंद पाटिया मुस्कुराया ।

"इस काम के लिए तुम और सोहनलाल ही काफी हो। और मुझे बीच में घसीटना चाहते हो...?"

शंकर दास ने जयचंद पाटिया की आंखों में झाँका ।

"क्या देख रहे हो शंकरदास...?" पाटिया हौले से हँसा ।

"सोच रहा हूँ तुम कहीं डरपोक चूहे तो नहीं हो ?" शंकरदास का स्वर कड़वा हो गया ।

"डरपोक चूहा ।" जयचंद पाटिया बड़बड़ाया । फिर शांत स्वर में कह उठा--- "ये लम्बी वार्ता का विषय है । तुम जाओ और बाकी का काम निपटाओ शंकरदास ! इस बारे में फिर कभी बात करेंगे...।"

शंकरदास ने उसे घूरा और फिर अपनी कार की तरफ बढ़ गया । इसके साथ ही उसने नीली चैक शर्ट वाले की तरफ इशारा किया, जो कि उसे ही देख रहा था । उसने इशारा समझा । जब शंकरदास वहां से रवाना हुआ तो, नीली चैक शर्ट वाला अजय चौधरी भी कार पर उसके पीछे हो गया । यानी कि पच्चीस आदमियों से भरी तीन कारें, शंकरदास की कार के पीछे थीं।

जयचंद पाटिया कार में उसी तरह बैठा उन सबको देखता रहा ।

"डरपोक चूहा ।" शंकरदास के शब्दों को बड़बड़ाते हुए जयचंद पाटिया के होंठों पर मुस्कुराहट बिखर आई ।

■■■

सोहनलाल ! शंकरदास और अजय चौधरी, कार के पास इकट्ठे थे  ।

"तुम्हारे साथ कितने आदमी है ?" सोहनलाल ने पूछा ।

"पच्चीस...।"

"इन सबके हैड तुम हो, पाटिया ने कहा था ऐसा ।" सोहनलाल बोला ।

"हाँ...।"

"पाटिया ने बताया था कि क्या काम करना है तुम्हें ?" सोहनलाल ने उसे परखने वाली निगाह से देखा।

"खास नहीं, कुछ हद तक मालूम है ।" अजय चौधरी ने कहा--- "तुम काम बोलो, करना हमारा काम है ।"

सोहनलाल ने सिर हिलाकर सिगरेट सुलगाई ।

"कार का नम्बर नोट करो ।" सोहनलाल ने कहकर कार नम्बर बताया--- "ये क्रीम कलर की विदेशी कार है, देखते ही समझ जाओगे कि मैंने इसी कार के बारे में कहा है । ये क्रिसेट रोड पर भीतर गई है काफी बड़ी कॉलोनी है । ये कार इस समय कहाँ खड़ी है, किसके घर पर खड़ी है, हमें नहीं मालूम।"

"और यही मालूम करना है ।" अजय चौधरी ने सिर हिलाकर कहा ।

"हाँ ।"

"कार को तलाश करना है ।" अजय चौधरी की निगाह क्रिसेट रोड की तरफ उठी।

"हाँ ! खामोशी से । चुपचाप, शोर-शराबा नहीं होना चाहिए । कार के करीब ही पैंतालीस-पचास बरस का ड्राइवर भी होगा । हर काम गुप-चुप होना चाहिए ।" सोहनलाल ने उसे सतर्क किया।

"मुझे मालूम है, काम कैसे किया जाता है ।" अजय चौधरी ने शांत स्वर में कहा--- "वो कार किसकी है ?"

"जानना जरूरी है क्या ?"

"जरूरी तो नहीं फिर भी मालूम हो जाये तो ठीक रहेगा ।" अजय चौधरी ने सोहनलाल की तरफ देखते हुए कहा ।

"तीरथराम पाहवा ।"

"पाहवा...?"

"हाँ...तीरथराम पाहवा ।" सोहनलाल ने उसकी आंखों में झाँका--- "पाहवा का नाम आते ही कोई दिक्कत तो पैदा नहीं हो गई । कोई डर, भय या घबराहट तो नहीं ।"

"तुम कुछ ज्यादा ही सोचने लगे हो ।" अजय चौधरी ने कड़वे स्वर में कहा।

सोहनलाल कंधे उचकाकर रह गया 

"कब तक ढूंढ लोगे उस कार को...?" शंकरदास ने पूछा ।

"ज्यादा से ज्यादा घंटे तक ।" अजय चौधरी की आवाज में विश्वास का पुट था ।

"फिर तो हम तुम्हारी वापसी का यहीं इंतजार करते हैं ।"

"ठीक है। मैं घण्टे भर बाद यहीं मिलूँगा ।" अजय चौधरी ने कहा और पलटकर सौ गज दूर खड़े अपने आदमियों से भरी तीनों कारों की तरफ बढ़ गया।

"मेरे ख्याल में ये, अजय चौधरी काम निपटा लेगा । काफी तेज लगता है ये ।"

शंकरदास सिर हिलाकर रह गया ।

■■■

"घंटे का डेढ़ घंटा हो गया ।" सोहनलाल ने बोनट से टेक लगाये, कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारते हुए कहा ।

फिर निगाहें कार के भीतर बैठे शंकरदास पर टिका दीं ।

"सुना तुमने मैंने कुछ कहा ।" सोहनलाल पुनः बोला ।

"क्या...?" सुनने के बावजूद भी, शंकरदास बोरियत भरे अंदाज में कह उठा ।

"मैंने कहा, अपना वो शेर अजय चौधरी तो दहाड़कर गया था कि घंटे भर में कार का पता लगाकर वापस आ जायेगा । लेकिन अब तो डेढ़ घंटा बीत चुका है । अभी तक तो आया नहीं ।"

"आ जायेगा ।"

"वो तो मुझे भी पता है कि आ जायेगा । सारा दिन बिताकर रात को लौटा तो क्या फायदा...?"

"अब मैं क्या करूं...?" शंकर दास उसी कार में पसरे-पसरे बोला ।

सोहनलाल ने गहरी सांस लेकर क्रिसेट रोड की तरफ निगाहे घुमा दीं ।

"जयचंद पाटिया मुझे बड़ा हरामी लगता है ।" शंकरदास ने कहा ।

"कैसे...?"

"हरामी हमें आगे करता फिर रहा है और खुद पीछे को भागे जा रहा है ।"

"हरामी आदमियों की यही तो निशानी होती है ।" सोहनलाल ने कहा ।

"मुझे तो पूरा का पूरा डरपोक चूहा लगता है ।"

"डरपोक चूहा ।" सोहनलाल पुनः हँसा--- "भूल में हो। डरपोक चूहा वो नहीं, मैं हूँ, ये तो जाने कैसे मुझमें इतनी हिम्मत आ गई पाहवा के खिलाफ खड़े होने की, वरना मैं तो किसी को घूसा लगाने के भी काबिल नहीं था और न ही इस हक में रहता था कभी । खून-खराबे से तो मुझे दहशत होने लगी थी । अगर पाहवा के आदमी लड़के-लड़की की हत्या न करते जिनकी कार का ड्राइवर बनकर मैं इस शहर से निकल जाना चाहता था और ये काम वो मेरी रिवाल्वर के कारण मजबूर होकर कर रहे थे । बहरहाल एक बार मैं उनकी हत्या भी बर्दाश्त कर लेता । परन्तु उस मासूम युवती के साथ उन लोगों ने बलात्कार किया । फिर उसकी हत्या की ।" सोहनलाल का स्वर भारी हो गया था--- "शायद यही कारण था, जिसने मेरी आत्मा को झंझोड़कर रख दिया था । हर समय मुझ पर छाये रहने वाले आतंक के साये जाने कहाँ छठ गये और मेरे भीतर छाया दरिंदापन । जाने कहाँ से उभरकर बाहर आ गया और कहर बरस पड़ा तीरथराम पर । मैं खुद हैरान हूँ कि मैं ऐसा कैसे बन गया।"

कार के भीतर बैठा शंकरदास, सोहनलाल के चेहरे को देखता रह गया । जहां सिर्फ उदासी-ही-उदासी थी । उसकी आंखें बता रही थी कि वह जिन्दगी से थकता जा रहा है ।

कई पलों तक उनके बीच चुप्पी व्याप्त रही ।

"मैं जयचंद पाटिया की बात कर रहा था ।"

सोहनलाल ने निगाहें उठाकर कार के भीतर बैठे, शंकर दास को देखा ।

"जयचंद के बारे में तुम अपने मस्तिष्क में गलत ख्याल बसा रहे हो । पहले मैं भी ऐसा ही सोच रहा था । परन्तु सुन्दर से मेरी बात हुई तो उसने बताया कि जयचंद पटिया पाहवा से भी खतरनाक है । वक्त आने पर वो सब कुछ कर गुजरने की हिम्मत रखता है । परन्तु सामने तभी आता है । जब वो इस बात की जरूरत महसूस करता है कि उसे सामने आना चाहिए ।"

शंकर के होंठ सिकुड़ गये ।

"ऐसा...?"

"सुन्दर ने तो यही बताया था । मेरे ख्याल से गलत नहीं कहा होगा ।"

शंकरदास, सोहनलाल को देखता रहा । बोला कुछ नहीं ।

सोहनलाल ने बोनट की टेक छोड़ी और कार में शंकरदास की बगल में आ बैठा।

"एक घंटे से खड़े हो, थोड़ी देर और खड़े हो लेते । तुम्हारी टांगों में काफी दम लगता है ।" शंकरदास ने वक्त बिताने के लहजे से,  व्यंग भरे स्वर में कहा--- "तुम जैसों को खड़े होकर यूं ही टांगे तुड़वाने में मजा आता है ।"

"अब तुम्हारी बारी है ।"

"खड़े होने की...?

"हाँ...।"

"मेरा दिमाग ठीक है, मैं बैठा ही अच्छा हूँ ।"

"बैठे रहो मैंने उठने के लिए नहीं कहा ।" सोहनलाल का स्वर कड़वा हो गया ।

दो घण्टे बीत गये ।

अब सोहनलाल ही नहीं, शंकरदास भी बेचैनी से भर उठा ।

दोनों की निगाहें टकरायीं ।

"सोहनलाल !" शंकरदास ने पहलू बदला । घड़ी में समय देखा । दोपहर के दो बज रहे थे।

"हाँ...।"

"दो घंटे बीत चुके हैं । न तो अजय चौधरी ही आया और न ही उसका कोई आदमी ।"

"अपनी मिलिट्री वाली ट्रेनिंग भूल गया । धैर्य, धैर्य रखो जवान !" सोहनलाल व्यंग से बोला ।

"चुप रह। जो मैं कह रहा हूँ उस पर बात कर । मुझे कुछ गड़बड़ लग रही है ।"

"कैसी गड़बड़...?"

"कहीं, ये सारा मामला, पाहवा की निगाह में न आ गया हो ।"

"ये संभव ही नहीं ।" सोहनलाल ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया ।

"क्यों ?"

"जिस ढंग से हम काम कर रहे हैं । उस हिसाब से पाहवा को किसी प्रकार का शक होना संभव नहीं है।"

शंकरदास ने कंधे उचकाये और फिर बोला ।

"गलतफहमी है तुम्हारी।  मिलिट्री की सर्विस के दौरान हमें लिखवाया गया था कि हमेशा हर बात की आशा रखो ।"

"शटअप ।" सोहनलाल ने दांत भींचकर कहा--- "बात-बात पर मिलिट्री का रोना रोने लगते हो । यहाँ हम कोई सरहद की जंग लड़ रहे हैं । एक बंदे को मारना है।  तुम तो बात का पहाड़ बनाने लगते हो ।"

शंकरदास ने सख्त निगाहों से सोहनलाल को देखा ।

"मेरी निगाहों में मारधाड़ के मामले में तुम अभी बहुत छोटे हो ।"

"छोटा हूँ ।"

"हाँ...।"

"छोटा ही ठीक हूँ । पाहवा जब सामने आये तो संभाल लेना उसे ।" सोहनलाल ने कड़वे स्वर में कहा--- "मिलिट्री की सर्विस के दौरान तुम्हें इस बात की ट्रेनिंग तो मिली होगी कि तीरथराम पाहवा को कैसे संभालना है।"

"बेकार की बात छोड़ो । सोचो कि अभी तक उसकी वापसी क्यों नहीं हुई ?"

"बेकार की बात सोचने से कोई फायदा नहीं । आराम से बैठे रहो । शाम तक कोई नतीजा तो सामने आयेगा ही । तुम तो धैर्य का इस्तेमाल करना अच्छी तरह जानते हो ।" सोहनलाल ने लापरवाही से कहा।

शंकर दास ने दाँत भींचकर सख्त निगाहों से सोहनलाल को देखा । 

जवाब में सोहनलाल ने उसे सुलगाने वाले अंदाज में दाँत दिखा दिये ।

शंकरदास का मन किया कि सोहनलाल का सिर फाड़ दे । लेकिन वो अपनी इस ख़्वाहिश को दबाकर रह गया । वो भी जानता था कि सिवाय इंतजार के उसके पास और कोई रास्ता नहीं है।

तीसरा घंटा पूरे होने को आया ।

दोनों की बेचैनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी ।

"मुझे तो लगता है कि अजय चौधरी के न आने के पीछे भारी गड़बड़ है ।" शंकरदास बोला ।

सोहनलाल अब क्या कहता । वो व्याकुलता से भरा पड़ा था । सिर्फ कंधे उचकाकर रह गया था ।

"मेरे ख्याल से हमें जयचंद पाटिया से बात करनी चाहिए ।" शंकरदास बोला ।

"वो क्या करेगा ?" सोहनलाल ने गर्दन घुमाकर, शंकरदास को देखा ।

"कुछ तो करेगा ही ।"

"कुछ नहीं करेगा वो । अपने आदमी उसने हमारे हवाले कर दिए उसका काम खत्म । हमारी तरह वो भी अंजान होगा कि उसके आदमी इस समय कहाँ हैं, और वैसे भी जयचंद पाटिया से संबंध । कहाँ बनेगा ? क्या मालूम कहाँ पर होगा वो ?" सोहनलाल बोला।

शंकरदास होंठ भींचकर रह गया ।

एकाएक सोहनलाल चौंककर सीधा हुआ । पूरी तरह से हिल उठा।

"वो आ रहा है ।" सोहनलाल की आवाज गूंजी ।

शंकरदास ने फौरन सामने देखा ।

अजय चौधरी चार आदमियों के साथ उनकी कार की ओर आ रहा था ।

"गनीमत है । अपना थोबड़ा तो दिखाया इसने ।"

शंकरदास के होंठों से निकला ।

"थोबड़े की छोड़...पहले ये तो देखें कि क्या तीर मारकर लौटा है अपना शेर...?"

उन चारों आदमियों के साथ अजय चौधरी कार के करीब ठिठका । अजय चौधरी ने गंभीर निगाहों से दोनों को देखा । सोहनलाल आंखें सिकोड़कर उसे देख रहा था।

चौधरी के कुछ कहने से पहले ही सोहनलाल बोल उठा ।

"क्यों पहलवान तुम तो घंटे भर में लौट रहे थे और अब तीन घंटे हो गये हैं ।"

"हाँ। क्योंकि क्रिसेट रोड पर वो कार नहीं थी । पाहवा क्रिसेट रोड पर जाता ही नहीं है । बल्कि क्रिसेट रोड पार करके आगे आबूलेन पर जाता है । हमने वहाँ पर उसकी कार और ड्राइवर को ढूंढा ।"

"वाह ! फिर तो तुमने बहुत हिम्मत वाला काम किया ।" सोहनलाल खुशी से हौले से हँसा ।

"क्या...?"

"पाहवा को हमारे बारे में पता है कि हम क्या कर रहे हैं, जिसके कारण मेरे सारे आदमी उसके कब्जे में है, सिर्फ मैं अकेला ही इस समय आजाद हूँ ।" चौधरी ने कहा।

सोहनलाल और शंकरदास की निगाहें चौधरी के साथ मौजूद चारों पर घूमीं ।"

"ये चार तो है तुम्हारे साथ ?"

"ये मेरे नहीं पाहवा के आदमी हैं ।"

"पाहवा के ।" सोहनलाल के शब्द उसके होंठों में ही रह गये ।

तभी चौधरी को पीछे खींचकर एक ने रिवाल्वर उसकी कमर लगा दी। अजय चौधरी के चेहरे पर विवशता के भाव नाच उठे ।

अन्य तीनों ने रिवाल्वरें सोहनलाल और शंकरदास की तरफ कर दीं।

"हिलना नहीं वरना...।"

सोहनलाल और शंकरदास स्तब्ध रह गये ।

"क...क्या चाहते हो तुम लोग...?" शंकरदास के होंठों से निकला ।

"कार की पिछली सीट पर आ जाओ और अपनी रिवाल्वरें अगली सीट पर ही रखते आना ।"

"क्यों ?" सोहनलाल के होंठ भिंच गये थे ।

"तुम लोगों को पाहवा के पास ले जाना है । वो तुम लोगों के इंतजार में हैं।"

"एकाएक सोहनलाल का चेहरा फक्क-सा पड़ने लगा । जबकि शंकरदास के दाँत भिंच गये । आंखों में सुर्खी और जलजले के से भाव उजागर हो गये ।

■■■

तीरथराम पाहवा ने सामने खड़े सोहनलाल और शंकरदास को वहशी निगाहों से देखा। ये रानी का चार कमरों का खूबसूरत घर था जो कि पाहवा ने ही उसे दे रखा था । वहाँ पर ज्यादा लोग भी नहीं थे-पाहवा था, रानी थी और चार वे थे । जो सोहनलाल और शंकरदास तो वहाँ लाये थे । दो अन्य खतरनाक इंसान और नजर आ रहे थे । इनके अलावा रिवाल्वर की जद में अजय चौधरी खड़ा हुआ था।

अजय चौधरी के अठारह आदमी पाहवा के हाथ लगे थे, जिन्हें पाहवा के आदमी कब के ले जा चुके थे । इस समय कमरे में मौत का-सा सन्नाटा छाया हुआ था ।

पाहवा के छः के छः आदमियों के हाथ में रिवाल्वर फँसी थी और फायर करने की तैयारी थी ।

सोहनलाल और शंकरदास को महसूस हो चुका था कि अब उन्हें बच निकलने का या कुछ भी करने का मौका नहीं मिलने वाला।

एक तरफ बला की हसीन रानी कुर्सी की बाजू पर कुल्हे रखे वहाँ का तमाशा देख रही थी । उसके चेहरे पर इत्मीनान के भाव थे । वह जानती थी कि जो भी होगा उसकी खैरखाह पाहवा के हक में ही होगा ।

तीरथराम पाहवा ने दोनों को मौत से भरी निगाहों से देखते हुए सिगरेट सुलगाई । "तो तुम ?" पाहवा ने सोहनलाल को देखा । दरीदगी भरे स्वर में कह उठा--- "बम्बई अंडरवर्ल्ड किंग सोहनलाल हो । यही कहा था तुमने मुझे ?"

"हाँ...।" खतरनाक हालातों में फँसे देखकर सोहनलाल ने खुद को मौत के खौफ से दूर कर लिया था ।

"जबकि नहीं हो...?"

"नहीं ।"

"कौन हो...?" पाहवा एक-एक शब्द चबाकर भिंचे होंठों से पूछ रहा था।

"दाना-पानी चुगने वाला छोटा शिकारी ।" सोहनलाल मुस्कुरा उठा--- "खुद को दूसरे शहर का बड़ा दादा दर्शाकर रौब मारकर छोट-मोटे बदमाशों से माल झाड़ना और फिर अगले शहर खिसक जाना । मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा था, तुम ही मेरे रास्ते में आये थे पाहवा । जबरदस्ती मेरे पीछे पड़ गये थे ।"

तीरथराम पाहवा मौत भरी निगाहों से सोहनलाल को देखता रहा ।

"तुमने मेरा बहुत कुछ तबाह कर दिया । मेरा होटल मेरी आधी ताकत और...?"

"छोड़ो भी उसकी बात । वो तो कब का खत्म हो चुका है ।" सोहनलाल ने कड़वे स्वर में कहा ।

पाहवा ने दाँत किटकिटाये ।

"महेश चन्द को भी तुमने ही मारा...?"

"हाँ...एक ही गोली में ढेर हो गया था वह ।" सोहनलाल पुनः हँसा ।

"और मेरे खिलाफ पाटिया की सहायता भी तुमने ली ।" पाहवा के होंठों से गुर्राहट निकली ।

"जी नहीं...उसने खुद आगे बढ़कर दी ।"

"एक ही बात है ।" कहते हुए तीरथराम पाहवा की वहशी निगाह, शंकरदास पर जा टिकी--- "तुम शंकरदास हो न । जिसे चार दिन बाद फांसी लगने वाली थी और जेल से भाग निकले थे...?"

"खबर अच्छी रखते हो हर तरफ की ।" शंकर दास का स्वर गंभीर था ।

"मेरी तुम्हारी क्या दुश्मनी है ?" पाहवा की आवाज में अभी तक गुर्राहट थी ।

"कोई दुश्मनी नहीं ।"

"फिर तुम सोहनलाल के साथ मिलकर मुझे बर्बाद करने को क्यों तुले हुए थे...?"

"अब शंकरदास कैसे बताता कि इंस्पेक्टर पाल देशमुख और उनके बीच सौदा तय हुआ था कि वो उसे कैद से, जेल से निकालेगा और बदले में वो उसके दुश्मन पाहवा को खत्म करेगा ।

"जवाब दो...तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ?" तीरथराम पाहवा विक्षिप्त-सा नजर आने लगा...मेरे मासूम बेटे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, जो उसके हिन्दुस्तान पहुँचते ही उसे उड़ा दिया गया था।"

"मासूम बेटा...?" शंकरदास ने गम्भीर निगाहों से पाहवा की आंखों में झाँका ।

"हाँ मासूम...?" पाहवा पागलों की तरह बोला--- "तुम्हें अगर किसी तरह का बदला लेना था तो मुझसे लेते । मेरे बेटे की जान क्यों ली ? उसने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था ।"

"ये बात तुम पर भी लागू होती है पाहवा....।" शंकरदास ने गम्भीर स्वर में कहा--- "खुद को भूल जाना ठीक नहीं होता । तुम्हारी दुश्मनी एक से होती है और तुम परिवार के परिवार को भुनवा देते हो...?"

तीरथराम की आंखों से जैसे ज्वालामुखी फट पड़ा ।

"तो तुमने मेरे दुश्मनी का बदला मेरे बेटे से लिया ।" आवाज में जहान भर की दरिंदगी भर आई थी ।

"कुछ भी समझ लो...।"

"तुम दोनों को तड़पती हुई मौत दूँगा मैं...।" तीरथराम पाहवा विक्षिप्तों की तरह चिल्लाया--- "तुम दोनों ने मुझे तबाह ही नहीं किया, बल्कि मेरे बेटे की हत्या करके, मुझे जीते जी मार डाला । मैं सिर्फ अपने बेटे के सहारे ही जिंदा था । वही मेरी कमाई थी मेरी सारी जिंदगी की, जिसने तुम लोगों ने छीन लिया ।" पाहवा ने पागलों की तरह अपने आदमियों को देखा--- "सुन लो तुम सब लोग...ये दोनों तब तक नहीं मरने चाहिए, जब तक कि मैं न चाहूँ । गोली इनके घुटनो पर लगे या कंधे पर या फिर कोहनी पर, इन्हें तड़पाना चाहिए । ज्यादा से ज्यादा तड़पाना।"

"मौत का खेल शुरू करने से पहले एक बात का जवाब दो पहलवान...।"

पाहवा ने किटकिटाकर सोहनलाल को देखा ।

"तुम तो यहाँ अकेले थे, सिर्फ ड्राइवर था तुम्हारे साथ । इस पर भी तुमने बीस-पच्चीस आदमियों पर काबू कैसे कर लिया ?"

"बच्चे हो अभी तुम ।" तीरथराम पाहवा ने दाँत भींचकर कहा--- "जब मैं बंगले से बाहर निकला तो तुम दोनों को कार में छिपते मैंने देख लिया था । शंकरदास को मैं नहीं पहचानता था। परन्तु तुम्हें पहचानता था । इस कारण समझने में देर न लगी कि तुम्हारे साथ शंकरदास ही हो सकता है । तब मैं समझ गया कि तुम लोग कोई खेल खेलना चाहते हो । इसलिए मैंने तुम लोगों को पूरी छूट दी । क्रिसेट रोड पर जब मैंने अपने गार्डों को विदा किया तो तुम दोनों के बारे में खबरदार कर दिया था कि तुम लोग जो भी करो, वे लोग उसी के मुताबिक काम करें, समझे ? वे गार्ड तुम लोगों पर बराबर निगाह रखे थे लेकिन तुम लोग नहीं जान सके ।"

"ओह...।"

"जब जयचंद पटिया के आदमी सड़क पर फैले तो मेरे गार्डों की समझ में माजरा आ गया। उन्होंने फोन करके अपने ढेरों आदमी बुलवाकर सबको पकड़ लिया । पांच-सात अवश्य भाग गये । परन्तु बाजी हमारे हाथ ही रही । इस दौरान तुम वहीं रहे, कार के पास आगे क्या हो रहा है, तुम लोगों को कोई खबर नहीं । तभी अजय चौधरी ने मेरी कार तलाश कर ली थी । परन्तु इससे आगे वो कुछ ना कर सका । क्योंकि मेरे आदमी उसे गिरफ्त में ले चुके थे ।" पाहवा खतरनाक लहजे में कह रहा था ।

सोहनलाल और शंकरदास समझ गये कि पाहवा ने उन्हें भारी चोट दी है । गलती उनकी भी थी । तीन  घंटे कार में बैठकर अजय चौधरी का इंतजार करने की अपेक्षा अगर एक चक्कर क्रिसेट रोड पर लगाया होता तो शायद सारा माजरा उनकी समझ में आ जाता ।

वहाँ पर मौत का सन्नाटा छाया हुआ था ।

तीरथराम पाहवा की हालत पागल हाथी की तरह हो रही थी । जैसे वह सोहनलाल और शंकरदास को पैरों तले रौंद देने का इरादा रखता हो ।

"पाहवा...।"

रानी की आवाज सुनकर पाहवा ने गर्दन घुमाई ।

"देर मत लगाओ । जल्दी से सब कुछ खत्म कर दो । तुम्हें और भी काम करने होंगे ।" रानी ने कहा।

पाहवा ने तुरंत अपने आदमियों पर, खूंखारतापूर्ण निगाह मारी ।

"देख क्या रहे हो ? मैंने जो कहा है वैसा ही करो ।"

तीरथराम पाहवा अपने शब्द पूरे ना कर सका था कि गोली की तेज आवाज वहाँ गूंजी और पाहवा का मुंह खुला का खुला रह गया । क्योंकि गोली उसकी खोपड़ी में जा धंसी थी । चंद पलों तक उसका शरीर वैसे ही खड़ा रहा था । फिर तीव्र झटके के पश्चात दाईं करवट नीचे जा गिरा । मरने के पश्चात की आंखें खुली हुई थीं ।

रानी के होंठों से भयपूर्ण चीख निकली।

वहाँ मौजूद हर कोई स्तब्ध और फटी-फटी-सी अविश्वास भरी निगाहों से पाहवा की लाश को देखे जा रहा था । इन चंद पलों में किसी की समझ में कुछ नहीं आया था ।

"कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा । सब वैसे ही खड़े रहो जैसे खड़े हो ।"

खतरनाक आवाज सुनकर सबकी निगाहें उसी दिशा की तरफ घूमीं । कमरे के ऊपर वाले रोशनदान से रिवाल्वर वाला हाथ और जयचंद पाटिया का चेहरा झाँक रहा था।

पाटिया को वहाँ मौजूद पाकर सोहनलाल और शंकरदास चौंके ।"

"चौधरी ।" पाटिया का स्वर पुनः उभरा--- "इन सबके हाथ से रिवाल्वर ले लो और हर कोई सुन ले कि जिसने भी आनाकानी की, चालाकी की, मेरा अगला निशाना वही होगा । मैं जयचंद पाटिया हूँ । सोहनलाल, शंकरदास तुम भी चौधरी का साथ दो।"

चौधरी, सोहनलाल और शंकरदास ने अगले ही पल उन छः के छः हाथों से रिवाल्वरें झपटकर उन पर तान दीं । एक-एक रिवाल्वर जेबों में ठूंस लीं ।

रानी भय की मूर्ति बनी हक्की-बक्की-सी खड़ी थी।

रोशनदान से जयचंद का चेहरा गायब हो चुका था । आधे मिनट पश्चात पाटिया ने भीतर कदम रखा । उसके हाथ में रिवाल्वर थी और चेहरे पर खतरनाक भेड़िये जैसा भाव । आगे बढ़कर उसने नीचे पड़ी तीरथराम की लाश को जूते से सीधा करके उसे देखा ।

"मर गया साला ।" जयचंद ने निगाहें उठाकर सब पर निगाह मारी ।" सुनने के बाद कोई नहीं मानेगा कि तीरथराम पाहवा को जयचंद पाटिया ने आसानी से गोली से उड़ा दिया है । इतनी आसानी से कि पाहवा को अपनी मौत की भी खबर नहीं हो सकी...।"

जयचंद पाटिया इस समय वास्तव में सबसे बड़ा दरिंदा लग रहा था।

"तुम अचानक से कहाँ टपक पड़े ।" सोहनलाल ने पूछा ।

"टपका....?" जयचंद हँसा--- "मैंने कहाँ टपकना है, मैं तो तब से यहीं था, कहीं गया ही नहीं था, मेरे सबसे बड़े दुश्मन को खत्म करने की तैयारी हो रही है और मैं चला जाऊं...ये कैसे हो सकता है ? और मेरे यहाँ रहने के कारण ही तो सारे हालात नजर आते चले गये कि पाहवा ने बाजी का रुख अपनी तरफ मोड़ लिया है और मैं इसी वक्त की घात लगाये बैठा था कि कब मुझे मौका मिले और मैं पाहवा को शूट करूँ । उस रोशनदान पर तो मैं तुम लोगों के आने से पहले ही मौजूद था । लेकिन मैंने पाहवा को इस बात की खबर नहीं होने दी।"

"वास्तव में तुमने कमाल कर दिया ।" शंकरदास ने मुस्कुराकर कहा--- "वरना मैं तो समझ बैठा था कि मैं तो गया । सारी उम्र तुम्हें याद रखूँगा ।"

"कमाल तो अब होगा ।" पाटिया दरिंदगी से हँसा ।

"अब...वो कैसे...?"

"तीरथराम पाहवा की जगह मैंने लेनी है । घंटे भर में ही इस बात का ऐलान हो जायेगा कि शहर में अब पाहवा की नहीं जयचंद पाटिया की चलेगी । पाहवा के दो नम्बर के सब ठिकानों पर मेरा ही कब्जा होगा। सिर्फ चौबीस घंटों में अंडरवर्ल्ड का भीतरी चेहरा सारा का सारा ही बदल चुका होगा। हर तरफ मेरा ही नाम होगा यानी पाटिया का । बरसों से मैं इस दिन की राह देख रहा था । और आज वो बनसीब वाला दिन आ ही गया, जब मैं इस शहर का सबसे बड़ा दादा बन जाऊँगा।"

सोहनलाल ने गहरी सांस लेकर नीचे पड़ी तीरथराम पाहवा की लाश पर निगाह मारी और मस्तिष्क में सिर्फ एक ही बात थी कि कुछ देर पहले ही तीरथराम ही सबसे बड़ा दादा था ।

■■■

बाहर आकर सोहनलाल और शंकरदास ने एक-दूसरे को देखा । दोनों के होंठों पर मुस्कान उभरी ।

ये मुस्कान शायद हमेशा-हमेशा विदाई के लिए थी ।

"बाकी का मामला हमसे ताल्लुक नहीं रखता । सोहनलाल बोला--- "पाटिया खुद निपटता रहेगा ।"

"हाँ...।" शंकरदास ने सिर हिलाकर कहा ।

"अगर तुम मेरा साथ ना देते तो शायद मैं इतना आगे बढ़कर पाहवा के खिलाफ ना उठ पाता।"

"क्या कहा जा सकता है कि कब क्या होता है । सब ऊपर वाले का खेल है।" शंकरदास ने मुस्कुराकर कहा--- "और सुन्दर ? उसका क्या होगा...?"

"होना क्या है ? एक-दो दिन में ठीक होकर अपने रास्ते पर लग जायेगा ।" सोहनलाल हँसा ।

"चलते हैं अपने-अपने रास्ते पर । तुम्हारे पीछे पुलिस है । इस शहर में तो क्या, तुम्हारा इस शहर के आसपास भी रहना ठीक नहीं है । मेरे ख्याल से यहां से फौरन ही दूर हो जाओ।"

"हाँ...।" शंकरदास ने कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारी। शाम हो रही थी--- "मैं रात तक निकल जाऊंगा इंस्पेक्टर पाल देशमुख से मैंने जो वायदा किया था वो पूरा हो चुका है ।"

"तो विदा दोस्त !" सोहनलाल ने हाथ आगे बढ़ाया ।

शंकरदास ने गर्मजोशी से उसका हाथ थामा ।

"विदा ! मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगा...।"

"लेकिन मुझे बीता वक्त याद रखने की आदत नहीं है । नया दिन नई बात, जो बीता दूर कर दिया ।"

शंकरदास हँस पड़ा ।

दोनों ने विदा ली और अलग-अलग रास्तों पर बढ़ गये।

चलते-चलते सोहनलाल ने सिगरेट सुलगाई और निगाहें उठाकर आसमान की तरफ देखा । सूर्य पश्चिम की तरफ डूब रहा था । उसकी सुर्खी अब लाली में बदलती जा रही थी । अब इस शहर से सोहनलाल का दाना-पानी खत्म हो चुका था । अब उसे किसी दूसरे शहर में पहुँचना था और वहां पर दादाओं के बीच खुद को किसी दूसरे शहर का बड़ा दादा साबित करना था । उन पर रौब जमाकर, अपने खतरनाक अंदाजों से उन्हें प्रभावित करके, उनसे नोट ऐंठकर । इससे पहले कि किसी को उस पर शक हो वहाँ से चंपत हो जाना था।

अब किस शहर का रुख करना है और वहाँ जाकर क्या कहानी बनानी है, ये सोचने के लिए उसने रात किसी होटल में बिताने और सुबह इस शहर को छोड़ने का फैसला किया ।

थोड़े से ठीक-ठाक होटल में उसने सिंगल रूम लिया । अंधेरा होने को था । दो-चार पैग मारकर पिछले दिनों की थकान को कुछ कम किया और खाना खाकर थका-टूटा सो गया । सुबह जब आंख खुली तो दिन के नौ बजे थे । उसने बैल मारकर वेटर को बुलाया । और चाय के साथ अखबार लाने को कहा। तत्पश्चात सिगरेट सुगाकर अपने अगले कदम के बारे में सोचने लगा।

दस मिनट में ही वेटर चाय के साथ न्यूज पेपर दे गया ।

चाय की घूँटो के साथ सोहनलाल अखबार पर भी निगाह मारने लगा । पहले पेज पर ही तीरथराम की मौत का जिक्र था । खबर में यही था कि कानून उसके हत्यारे की तलाश कर रहा है । बस पाहवा की मौत के बारे में सिर्फ इतनी ही खबर थी । सोहनलाल के चेहरे पर कड़ी मुस्कान फैल गई । उसे अच्छी तरह मालूम था कि कानून का जर्रा-जर्रा जानता था कि तीरथराम को जयचंद पाटिया ने मारा है परन्तु अब किसी में इतनी हिम्मत ही कहाँ थी कि पाटिया के खिलाफ आवाज उठा पाता । सब डंडे का खेल है।

तभी पहले पेज पर ही नीचे दी खबर पर सोहनलाल की निगाहें जा अटकीं । आंखें फटी-की-फटी रह गईं, सांस लेना और चाय पीना तक भूलकर वो ठगा-सा बैठा रह गया था।

वो खबर शंकरदास की थी । रात को स्टेशन पर शंकरदास को पुलिस ने मौके पर उस समय पकड़ लिया, जब वो शहर से फरार हो जाने की कोशिश में था । गिरफ्तारी के समय शंकरदास ने पुलिस का मुकाबला करना चाहा । उसने एक कॉन्स्टेबल पर गोली भी चलाई जो कि उसके पेट में लगी। परन्तु तुरन्त डॉक्टरी सहायता मिल जाने के कारण वो कॉन्स्टेबल खतरे से बाहर है । गिरफ्तारी के पश्चात शंकरदास से दो रिवाल्वरें बरामद की गईं। इस समय शंकरदास पुलिस की सख्त हिरासत में है और कल कोर्ट में पेश करने के पश्चात उसे सेंटर जेल भेज दिया जायेगा । याद रहे शंकर जेल से फरार फाँसी प्राप्त खतरनाक मुजरिम है और फाँसी लगने के चार दिन पूर्व ही वो जेल से भाग निकला था।

सोहनलाल ने गहरी सांस लेकर अखबार एक तरफ रखा और आंखें बंद कर लीं । चेहरे पर अफसोस झलक रहा था ।

आखिरकार उसे अपनी सोचों पर ये सोच लगाकर उन्हें रोक देना पड़ा कि जिसकी जितनी सांसें बऊपर वाले ने दी हैं, उसे उतनी ही सांसें लेनी हैं । न कम, न ज्यादा। शंकरदास की सांसें बाकी थीं तो वो जेल से निकलकर, पाहवा को खत्म करने के लिए उसके साथ मिला था और अब सांसें खत्म होने का वक्त आया तो ऊपर वाले ने पुनः उसे कानून के घेरे में ला पटका।

और उसे इस बात का भी पूरा विश्वास था कि कानून के ठेकेदार शंकरदास को हद से ज्यादा खतरनाक घोषित करके, ज्यादा से ज्यादा दो सप्ताह के भीतर ही फाँसी के फंदे पर लटका देंगे ।

कुछ देर तक सोहनलाल इसी मुद्रा में बैठा रहा । फिर आंखें खोलीं। मस्तिष्क कुछ भारी हो रहा था । ठंडी हो चुकी चाय को उसने टेबल पर रखा और सिगरेट सुलगा ली । निगाहें पुनः करीब पड़े अखबार की तरफ घूम गईं । शंकरदास का इस तरह पुनः कानून के शिकंजे में फँस जाना उसे तो अच्छा ही नहीं लगा था । लेकिन वो कर भी क्या सकता था ? सिर को झटका देकर उसने शंकरदास के प्रति सारे विचार दिलो-दिमाग से निकालने चाहे परन्तु वो निकल नहीं पा रहे थे।

सोहनलाल ने पुनः वेटर को बुलाकर चाय का आर्डर दिया और उठकर कमरे में टहलते हुए, अपने बारे में सोचने लगा कि अब किस शहर में जाकर क्या करना है ? परन्तु शंकरदास को फाँसी लगने का ख्याल बार-बार उसके मस्तिष्क में, सोचों में भटकता रहा था ।

समाप्त