भंडारे ने गैराज के पास पहुंचते ही रत्ना को अपने आने की खबर दे दी और वैन को गैराज के बड़े फाटक के सामने ले जा रोका और उतरकर छोटे दरवाजे के पास पहुंचा। उसे थपथपाया तो भीतर की तरफ खड़ी रत्ना ने फौरन गेट खोल दिया।

भंडारे ने भीतर प्रवेश करके छोटा फाटक बंद किया और बड़े फाटक को खोलने लगा।

"काम हो गया?" रत्ना ने पूछा।

"हां।" फाटक की भारी कुंडी खोलते भंडारे ने कहा।

"वैन हमारे काम की है?"

"एकदम फिट...।"

भंडारे ने फाटक के दोनों बड़े पल्ले खोले। बाहर निकलकर वैन में जा बैठा।

रत्ना एक तरफ ओट में हो गई थी कि कोई उसे देख ना सके।

भंडारे वैन को भीतर ले आया आप फौरन उतरकर फाटक बंद किया। फिर वैन को यहां से आगे बढ़ाकर एंबुलेंस के करीब ले जाकर खड़ा कर दिया और नीचे उतरा।

भंडारे के चेहरे पर खुशी की चमक थी।

"ये काम भी हो गया हीरो...।" पास आती रत्ना मुस्कुराकर कह उठी।

भंडारे ने रत्ना को बांहों में ले लिया।

"हमारे सब काम आसानी से होते जा रहे हैं रत्ना...।" भंडारे बोला।

"ये सब तेरी समझदारी का नतीजा है। ऊपर कमरे में चल, चाय पिलाती हूं।" रत्ना ने प्यार से कहा।

"अभी हमें बहुत काम करने हैं रत्ना! सारा पैसा इस वैन में डालना है।"

"मैं तेरे साथ काम में लगूंगी हीरो! जल्दी क्या है। एक दिन पहले निकलें या एक दिन बाद में।"

"फिर भी जो काम हो जाए, वही ठीक है।"

"आ...।" भंडारे का हाथ थामे रत्ना सीढ़ियों की तरफ बढ़ गई--- "दोनों साथ में चाय पीते हैं। रात को काम पर लगेंगे और आधी रात तक काम करेंगे। सब काम निपट जाएगा। तू चिंता मत किया कर।"

ऊपर रत्ना किचन में चाय बनाने लगी।

भंडारे रेलिंग के पास खड़ा होकर नीचे खड़ी वैन और एंबूलेंस को देखने लगा। वो कोई ऐसी तरकीब सोच रहा था कि जिससे पैसा जल्दी वैन मेंपहुंचाया जा सके।

रत्ना शीशे के दो गिलासों में चाय डाले ले आई।

भंडारे ने चाय का गिलास थामा और घूंट भरा।

"क्या सोच रहा है?" रत्ना उससे सटती-सी खड़ी हो गई।

भंडारे ने गर्दन घुमाकर रत्ना को प्यार भरी निगाहों से देखा।

रत्ना भी अदा के साथ मुस्कुराई।

"तू मुझे अब बहुत अच्छी लगने लगी है।" भंडारे ने कहा।

"पहले नहीं लगती थी क्या?" रत्ना हंसी।

"पहले अच्छी लगती थी, अब बहुत अच्छी लगने लगी है।"

"ऐसा क्यों?"

"शायद मुझे तेरे से सच्चा प्यार हो गया है। इसका एहसास मुझे अब हुआ।"

"अब तू शायरों के अंदाज में बात करने लगा है।"

"सब तेरी मेहरबानी है।" भंडारे मुस्कुराया और चाय का घूंट भरा।

"शिंदे और क्या कह रहा था?"

"कुछ खास नहीं।"

"जल तो रहा होगा कि तेरे पास करोड़ों रुपया आ गया।" रत्ना में कहा।

"पांच करोड़ उसे भी तो मुफ्त का मिल गया है।"

"मैं अब तेरे कान खींचकर रखूंगी हीरो! मुझे नहीं अच्छा लगता कि तू रुपयों को इस तरह लुटाता रहे।"

"उसे पांच करोड़ देना जरूरी था कि वो अपना मुंह बंद रखे और मेरे लिए वैन का इंतजाम कर दे। इस काम के लिए मुझे भरोसे का बंदा चाहिए था और शिंदे ठीक था। वो सालों से हमारे लिए काम कर रहा है।"

"अब तो किसी को पैसा नहीं देना ना?"

"नहीं आज के बाद तू मुझसे पूछे बिना किसी को पैसा नहीं देना। पैसा बर्बाद नहीं करना है हमने।"

"जैसा तू कहेगी, मैं वैसा ही करूंगा।"

रत्ना भंडारे से सटी खड़ी रही। उसकी छातियां भंडारी की बांहों को छूती रहीं।

"हमें थोड़ा-बहुत काम पर लग जाना चाहिए।" भंडारे बोला--- "फुर्सत में तो हैं हम। शाम हो रही हैं।"

"हम रात को काम शुरू करेंगे हीरो...।"

"खाली बैठने से तो अच्छा है कि...।"

"हम खाली कहां हैं हीरो। हमारे पास फुर्सत ही कहां है।" रत्ना मुस्कुराकर, गहरी सांस लेकर कह उठी।

भंडारे ने रत्ना को देखा।

"चल कमरे में।" रत्ना मादकता भरे स्वर में कह उठी--- "अभी तेरे को व्यस्त कर देती हूं...।"

रत्ना का अंदाज ही ऐसा था कि इंकार कर पाना भंडारे के बस की बात नहीं थी।

■■■

देवराज चौहान वापस अपनी जगह पर आ टिका था। उसने सदाशिव पर नजर मारी, जो कि अभी भी उस पेड़ की छाया के नीचे खड़ा था कि भंडारे के जाने के बाद, वो गैराज में नहीं गया था।

देवराज चौहान के सामने अब भंडारे की योजना स्पष्ट होने लगी थी।

भंडारे के पीछे जाकर देवराज चौहान ने सब देखा था कि उस व्यक्ति को बोरी देना, उससे वैन लेना। देवराज चौहान को समझते देर नहीं लगी थी कि उस बोरी में नोट भरे हैं। जब भंडारे वैन के साथ गैराज पर पहुंचा तो देवराज चौहान समझ गया कि भंडारे एंबूलेंस से नोट निकालकर इस वैन में डालेगा और फिर रत्ना के साथ यहां से चल देगा।

परन्तु सदाशिव पर जाकर देवराज चौहान की सोचें ठहर गईं।

इस लड़के को रत्ना ने ही नजर रखने को कहकर खड़ा किया है। ऐसे में रत्ना भंडारे के साथ जाएगी या इसके साथ? रत्ना भी कोई खेल, खेल रही है भंडारे के साथ।

देवराज चौहान को पूरा भरोसा था कि अब मामला उसके हाथों में है। भंडारे को यहां से जाने नहीं देगा। ऐसे में वो देख लेना चाहता था कि रत्ना क्या करती है अब। शाम हो रही थी। दो घंटे तक अंधेरा फैल जाना था। लेकिन देवराज चौहान का इरादा वहां से हटने का जरा भी नहीं था।

इसी पल उसका फोन बज उठा।

"हैलो।" देवराज चौहान ने बात की।

"तेरे से बात करने का मन कर रहा था।" वागले रमाकांत की आवाज कानों में पड़ी।

"जगमोहन कैसा है?"

"एकदम बढ़िया। टी•वी• पर फिल्म देख रहा है। बाहर जाने को कह रहा था पर मैंने मना कर दिया। वागले रमाकांत का स्वर शांत था--- "तूने बहुत देर लगा दी भंडारे को ढूंढने में। बता तू किधर है, मैं अपने आदमी भेजता...।"

"ढूंढ लिया है उसे।" देवराज चौहान बोला।

"भंडारे मिल गया?" वागले रमाकांत की आवाज में सतर्कता आ गई।

"हां।"

"तूने बताया क्यों नहीं?"

"अभी तेरे को कुछ इंतजार करना पड़ेगा।" देवराज चौहान ने कहा--- "मुझे ये भी देखना है कि पैसा उसने कहां रखा है। इस बात को जानने-समझने में मुझे वक्त लगेगा।"

"पैसा उसके पास ही होगा। दूर क्यों रखेगा, वो...।"

"जब मालूम हो जाएगा तो तेरे को फोन करूंगा।"

"तू कहे तो लोहरा को भेजूं। वो सब संभाल लेगा। भंडारे मिल गया तो पैसा भी...।"

"मुझे कुछ वक्त दे वागले...।"

"अगर भंडारे तेरी नजरों से निकल गया तो?"

"नहीं निकलेगा। मेरी गारंटी...।" देवराज चौहान ने दृढ़ स्वर में कहा।

"मैं तेरे पर दबाव नहीं डालूंगा देवराज चौहान! तू जैसे चाहता है, वैसे ही कर। भंडारे को तू मारेगा?"

"वो मेरा शिकार है।"

"उसे तो मैं पहले ही तेरे हवाले कर चुका हूं। पाण्डे, मोहन्ती और कैंडी तो तेरे को नहीं चाहिए?"

देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े। वो बोला---

"मिल गए वे तीनों?"

"मिले ही समझ। वो जहां छिपे हैं, उन्हें छुपाने वाले ने ही हमें खबर कर दी कि कहीं बाद में वो ना फंस जाए। उसने फोन पर बताया कि पहले से उसे मामला नहीं मालूम था। मालूम हुआ तो फोन कर दिया। लोहरा को फोन आया था। अब लोहरा उन्हें साफ करने उधर गया है। अगर वो तेरे को चाहिए तो...।"

"मुझे उन तीनों में से किसी की जरूरत नहीं है।" देवराज चौहान ने कहा--- "वो तीनों भी मुझे धोखा दीनी में शामिल थे परन्तु वो मोहरे थे। असर खेल तो भंडारे का था।"

"मालूम है। बाबू भाई और जगमोहन से मैं सब कुछ जान चुका हूं। तू जल्दी फोन करना मुझे और भंडारे नजरों से दूर ना जाए। उसने हमारा बहुत वक्त खराब किया है।"

■■■

"हमारा तो जीना हराम हो गया है।" मोहन्ती गुस्से में मुट्ठियाँ भींचते कह उठा--- "हम कहीं के नहीं रहे। हरामजादा भंडारे एक बार मेरे हाथ लग जाए तो रिवाल्वर की सारी गोलियां उसके सिर में उतार दूं। कुत्ता कहीं का।"

पाण्डे और जैकब कैंडी के चेहरे पर भी क्रोध नाच रहा था।

"कमीने ने हमें बताया नहीं कि मामला वागले रमाकांत का है। हमसे छिपाकर रखा और विक्रम मदावत का नाम लेता रहा। हे भगवान हमने 180 करोड़ की दौलत पर हाथ मारा। यकीन नहीं आता।

"हाथ में 180 करोड रुपए भी नहीं आये। मुसीबत में पड़े वो अलग। वागले रमाकांत के आदमी हमें ढूंढ रहे हैं।" कैंडी ने गुस्से से कहा--- "हम बचने वाले नहीं। जल्दी मारे जाएंगे।"

"साले ने देवराज चौहान को धोखा देने के लिए हमें अपने साथ ले लिया। देवराज चौहान को झटका देने के बाद हमें भी धोखा दे दिया। अब बैठा कहीं 180 करोड़ से ऐश कर रहा होगा।"

"लेकिन बचेगा वो भी नहीं। वागले रमाकांत उसे छोड़ने वाला नहीं। अपने पैसे लेकर रहेगा।"

"वागले देवराज चौहान को भी नहीं छोड़ेगा।"

"इन बातों को छोड़ो।" मोहन्ती कड़वे स्वर में कह उठा--- "हमें अपने बारे में सोचना चाहिए। अपनी चिंता करनी चाहिए। आखिर हम कब तक यहां टिके रह सकते हैं। देर-सवेर में हमें बाहर निकलना ही होगा। अब हम क्या करें?"

तीनों एक-दूसरे को देखने लगे।

"जान बचानी है तो हमें मुंबई से दूर निकल जाना होगा। वरना वागले हमें रगड़ के रख देगा।" पाण्डे ने कहा।

"परेशानी तो ये है कि भंडारे को हम धोखे की सजा भी नहीं दे सकते।" मोहन्ती गुर्राया।

"उसे छोड़। वो बचने वाला नहीं। वागले ने उसे देर-सवेर में रगड़ देना है।" कैंडी बोला।

"कुत्ते को मैं अपने हाथों से मारना चाहता था। उसने हमें कहीं का नहीं छोड़ा।"

"देवराज चौहान को भी हमारा दुश्मन बना दिया।" पाण्डे बोला--- "कहां हम सोच रहे थे कि दस-बारह करोड़ मिलेगा और अब चूहे की तरह छिपे पड़े हैं। जान बचानी भारी पड़ रही है।"

"मुझे बाबू भाई से इस तरह की आशा नहीं थी।" कैंडी ने दांत पीसते हुए कहा--- "जिंदगी में साले के बहुत काम आया। बाप तरह समझता था उसे। छः महीने पहले जब वो बीमार पड़ा तो सारे काम छोड़कर उसकी सेवा की थी। वो ऐसा धोखा करेगा मेरे से, मैं तो सोच भी नहीं सकता था। सब कुछ सपना-सा लगता है।"

"देवराज चौहान की तो परवाह भी नहीं होगी भंडारे को। जगमोहन को उसने कैद कर रखा है। देवराज चौहान उसके पास पहुंच भी गया तो जगमोहन की मौत का डर दिखाकर उसे रुकने पर मजबूर कर देगा।"

"हमसे एक बड़ी गलती हुई।" मोहन्ती कठोर स्वर में कह उठा--- "हमें एक साथ एंबूलेंस से नहीं उतरना चाहिए था सूटकेस लाने के लिए। तब एक को एंबूलेंस में भंडारे के साथ ही रहना चाहिए था।"

"फिर क्या हो जाता?" कैंडी बोला।

"तब भंडारे वैन लेकर नहीं भाग सकता...।"

"उसने हमें धोखा देने की योजना बना रखी थी और हर हाल में ये काम पूरा करना था। अगर हममें से एक एंबुलेंस में रुक जाता तो भंडारे ने उसे शूट करके या चाकू से काटकर के भाग जाना था।"

"साला-कुत्ता...।" मोहन्ती दांत पीस उठा।

"अच्छा हुआ तब उसके पास कोई रुका नहीं, वरना वो मारा जाता।"

"इससे तो अच्छा होता कि तब मौका पाकर ही हम ही भंडारे को साफ करके पैसा ले उड़ते...।" पाण्डे बोला।

"तब हमें पता थोड़े ना था कि भंडारे हमसे धोखेबाजी करने वाला है।" कैंडी ने कहा।

"जो भी हुआ बहुत बुरा हुआ...।" पाण्डे ने अपना सिर पकड़कर कहा।

कई पलों तक वहां खामोशी रही।

"ये साधारण-सा कमरा था। तीन फोल्डिंग बैड बिछे थे। ये राजसिंह नाम के आदमी का ठिकाना था जो कि सस्ती ड्रग्स खरीदकर कॉलेज के युवक-युवतियों को महंगे भाव में बेचता था। पाण्डे ने राजसिंह के लिए ड्रग्स लाने का कई बार काम किया था, इसी कारण वो मोहन्ती और कैंडी के साथ उनके ठिकाने पर आ छिपा था। परन्तु तब राजसिंह को भी नहीं पता था कि मामला क्या है। ये तीनों क्या गुल खिलाकर आए हैं, परन्तु बाहर से मिली खबरों से वो जान गया कि इन तीनों ने वागले रमाकांत का पैसा लूटा है। ये जानकारी मिलते ही राजसिंह सतर्क हो गया था। क्योंकि वो वागले रमाकांत की ताकत जानता था और उसके खिलाफ काम करने की सोच भी नहीं सकता था। इन तीनों को अनजाने में उसने पनाह दे दी थी।

"सवाल ये है कि इस तरह यहां पर हम कब तक छिपे रहेंगे। ऐसे हमारा नहीं चलने वाला। हमें किसी नतीजे पर पहुंचना चाहिए। हम तीनों ऐसी कश्ती में सवार हैं, जहां कई छेद हो चुके हैं, ऐसे में कश्ती छोड़ना जरूरी हो गया है।"

"साफ कहो।"

"हमें मुंबई से निकल चलना चाहिए।" कैंडी ने कहा--- "वागले से हम बच नहीं सकते।"

"बात तो तेरी सही है।" पाण्डे ने गम्भीर स्वर में कहा।

मोहन्ती गुस्से से भरा बैठा था।

"तू क्या चाहता है मोहन्ती?" कैंडी ने पूछा।

"मैं मुंबई से नहीं जाऊंगा।" क्रोध में भरा मोहन्ती कह उठा।

"यहां तू वागले के हाथ लगा---।"

"मैं भंडारे को कुत्ते की मौत मारकर मुंबई से निकलूंगा। उसे तलाश करूंगा।"

"पागल मत बन। उसका काम तो वागले कर देगा। पर वागले हमें भी ढूंढ रहा है। वो हमें...।"

"अपने बारे में सोच मोहन्ती कि जान कैसे बचानी है।" पाण्डे ने कहा।

"एक भी पैसा हाथ नहीं लगा। मुंबई में सब कुछ जमा-जमाया है।" मोहन्ती ने परेशानी से कहा--- "अब कौन-सी नई जगह जाकर सब कुछ जमाऊंगा। यहां की प्रॉपर्टी बेच भी नहीं सकता।"

"हमारा भी तो यहां माल है।" कैंडी बोला--- "परन्तु जान पहले है। हमें कम-से-कम दो-तीन साल के लिए मुंबई से दूर निकल जाना चाहिए। अगर तीनों इकट्ठे रहे तो किसी नए शहर में टिकने में आसानी होगी और...।"

तभी पचास वर्षीय राजसिंह ने भीतर प्रवेश किया।

तीनों की बातें रुक गईं।

"मैं बाहर जा रहा हूं। कुछ चाहिए हो तो हॉल में काम कर रहे  लड़कों से कह देना।"

"ठीक है।" पाण्डे बोला।

"बाजार से कुछ खास चीज चाहिए तो बता दो।" राजसिंह बोला।

"व्हिस्की की दो बोतलें ले आना और मुर्गा भी...।"

"ले आऊंगा।" कहने के साथ ही राजसिंह कमरे से बाहर निकल आया।

ये बड़ा हॉल था जहां चौदह से बीस साल के लड़के ड्रग्स को छोटी पुड़िया में बदल रहे थे। बीस-पच्चीस लड़के थे जो ये काम कर रहे थे।

राजसिंह उनके बीच में से निकलता सामने के दरवाजे की तरफ बढ़ गया। दरवाजा खोला और बाहर निकलकर दरवाजा बंद कर दिया। अब वो तंग गली में खड़ा था। लोग आ-जा रहे थे। वो एक तरफ बढ़ गया। पचास वर्षीय राजसिंह स्वस्थ व्यक्ति था। होंठों पर मूंछें थीं। पतला था और ठीक-ठाक कद था। उसने सादी-सी पैंट-कमीज पहन रखी थी। वो गली पास ही के भरे बाजार में जा निकली। बाजार की भीड़ में से निकलता राजसिंह बाहर की सड़क पर पहुंचा और सड़क किनारे खड़ा हो गया। चेहरे पर बेचैनी थी। सड़क पर से वाहन बराबर निकल रहे थे। उसकी नजरें उन्हीं गाड़ियों पर थी।

आधे घंटे बाद तीन गाड़ियां सड़क के किनारे आ रुकीं।

राजसिंह उन्हें देखने लगा।

एक गाड़ी से उदय लोहरा बाहर निकला तो उसे देखकर राजसिंह उसकी तरफ बढ़ गया।

लोहरा की निगाह उस पर जा टिकी।

"नमस्कार साहब जी!" पास पहुंचते हुए राजसिंह कह उठा।

"पहचानता है मुझे?"

"आप लोहरा साहब हैं।" राजसिंह ने कहा।

"तूने फोन किया था?"

"जी साहब जी! मेरे को नहीं पता था कि वे तीनों क्या करके मेरे यहां आ छिपे हैं। जब पता चला तो तुरन्त आपको फोन कर दिया। दो दिन मैंने उन्हें अपने पास रखा, पर इसमें मेरी कोई गलती नहीं है साहब जी!"

"तूने फोन करके अपनी गलती धो डाली।" लोहरा की निगाह राजसिंह के चेहरे पर जा टिकी--- "कहां है वो?"

"पास ही मेरा ठिकाना है। आइए, मैं आपको ले चलता हूं...।" राजसिंह बोला।

"हथियार हैं उनके पास?"

"रिवाल्वरें हैं।"

"हमारे जाने के बाद उनकी लाश मुंबई की किसी सड़क पर फेंक देना।" लोहरा ने ठंडे स्वर में कहा।

"समझ गया, लेकिन साहब जी वहां गोलियां चलीं तो शोर होगा और मामला खुल जाएगा। मेरा धंधा...।"

"क्या धंधा करता है तू?"

"ड्रग्स का। ड्रग्स खरीदकर छोटी पुड़ियों में लड़के-लड़कियों को बेचता हूं।"

"किससे लेता है ड्रग्स?"

"करीम भाई से।"

लोहरा ने राजसिंह के कंधे पर हाथ रखकर कहा---

"तू हमसे ड्रग्स ले। तेरे को सस्ती देंगे। क्योंकि अब तू हमारे काम आ रहा है। जब ड्रग्स चाहिए हो, मुझे फोन कर देना।"

"ठीक है साहब जी, पर मेरे ठिकाने पर शोर...।"

"नहीं होगा। सब इंतजाम है हमारे पास। हम साइलेंसर लगा लेंगे।"

राजसिंह ने सहमति से सिर हिला दिया।

लोहरा ने इशारा किया तो एक गाड़ी से एक आदमी निकलकर पास आया।

"ये तुम्हें उन तीनों के पास ले जाएगा। पांच लोग जाना। रिवॉल्वरों पर साइलेंसर लगा लेना। गोली चलने का शोर नहीं होना चाहिए। इसके धंधा का सवाल है।" उदय लोहरा ने शांत स्वर में कहा।

"ऐसा ही होगा लोहरा साहब...।" वो बोला।

"उन्हें गोली चलाने का मौका मत देना। जाओ, शूट करो और वापस आ जाओ। लाशें ये संभाल लेगा। चूंकि ये तुम लोगों के साथ होगा, ऐसे में वो तुम पर शक नहीं करेंगे। आराम से काम हो जाएगा।"

उस आदमी ने सिर हिलाया और वापस कार की तरफ चला गया।

"दो दिन से वो तुम्हारे ठिकाने पर रहकर क्या कर रहे हैं?" लोहरा ने पूछा।

"सिर से सिर जोड़कर बातें कर रहे हैं। मेरे वहां जाते ही चुप हो जाते हैं।"

"फटी पड़ी है सालों की।" लोहरा के चेहरे पर सख्ती आ गई--- "वो अपनी मौत का इंतजार कर रहे हैं वहां।"

राजसिंह ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"तू घबरा मत। किसी को पता भी नहीं चलेगा कि तेरे ठिकाने पर कुछ हुआ है। मेरे आदमी बहुत समझदार हैं।" लोहरा ने एकाएक मुस्कुराकर कहा--- "तेरा धंधा बिगड़ा तो जुर्माना हम देंगे।"

दो मिनट में ही पांच लोग कार से निकलकर उनके पास आ गए।

"साइलेंसर चढ़ा लिया?" लोहरा ने पूछा।

"एकदम फिट...।"

"ले जा इन्हें।" राजसिंह को देखकर लोहरा ने कहा--- "ड्रग्स के लिए मुझे फोन करना, समझ गया...।"

■■■

"भंडारे को भूल जा मोहन्ती!" जैकब कैंडी बोला--- "मैंने और पाण्डे ने एक साथ इस शहर से निकलने का और दूसरी जगह टिकने का फैसला कर लिया है, तू अपनी बता।"

मोहन्ती का चेहरा गुस्से से भरा पड़ा था।

"कब जाना है?"

"आज रात निकल चलते हैं। शाम हो रही है। मुंबई से जितना दूर निकल जाएंगे, वागले रमाकांत से बचे रहेंगे।"

"मैं भी तुम लोगों के साथ रहूंगा।" मोहन्ती ने कहा।

"समझदारी का फैसला तो यही है।"

"मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं।"

"हमारे पास भी नहीं है। पैसा हमारे हाथ की मैल है, जहां जाएंगे, पैसा बना लेंगे।" पाण्डे ने कहा।

"तीन साल बाद मुंबई में हम आ सकेंगे?" मोहन्ती परेशान था।

"मेरे ख्याल में तो तीन सालों में वागले रमाकांत हमें भूल चुका होगा।" कैंडी ने पाण्डे को देखा।

"शायद तब तक उसकी हुकूमत भी बदल चुकी हो।" पाण्डे ने कहा--- "कोई और अंडरवर्ल्ड के लिए की कुर्सी पर आ टिका हो। तीन साल बहुत लंबे होते हैं। तब की बात हमें अब नहीं सोचना चाहिए।"

"ठीक है, आज रात निकल चलते हैं मुंबई से।"

"मैं राजसिंह से कुछ पैसे उधार कहकर ले लूंगा। उसे नहीं बताना कि हम मुंबई से बाहर जा रहे हैं। अभी तक वो हमें लेकर शांत है, क्योंकि शायद उसे नहीं पता चला कि हमारा वागले रमाकांत से पंगा हो गया है, पता होता तो वो जरूर हमें यहां से जाने को कह देता। अंडरवर्ल्ड में रहकर वागले के खिलाफ कोई भी काम नहीं करना चाहेगा।"

"बात खत्म। हम अंधेरा होने पर यहां से निकल जाएंगे। किस शहर में जाना है?" मोहन्ती बोला।

"दूर का कोई शहर सोच लेते हैं कि...।"

"अहमदाबाद कैसा रहेगा? माल भी है उस शहर में...।" कैंडी कह उठा।

तभी बेआवाज से एक-एक करते हुए तेजी से पांच आदमी दरवाजे से कमरे में आते चले गए। हाथों में साइलेंसर लगी रिवाल्वरें थीं। सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि वो मामला ठीक से समझ भी ना पाए कि पांचों के हाथों में दबी रिवाल्वरों से बेहद मध्यम-सी आवाज के साथ गोलियां निकलकर, उन तीनों के शरीर में प्रवेश करती रहीं। सिर्फ तीस सेकेंड में तीनों लाशों में बदल गए थे।

■■■

गैराज के भीतर छाई ख़ामोशी में बेहद मध्यम-सी आहटें गूंज रही थीं और एक छोटी टार्च से रोशनी कर रखी थी कि बाहर से गैराज में रोशनी ना दिखे। कोई खतरा पैदा ना हो। रात के ग्यारह बज रहे थे।

भंडारे और रत्ना काम पर लगे थे।

दोनों पसीने से भरे हुए थे। कपड़े गीले से हो रहे थे।

बीते दो घंटों में गत्ते का एक डिब्बा खाली करके उसे वैन के बीच में रखा था फिर बाहर निकाल रखी नोटों की गड्डियां ला- लाकर डिब्बे में ढंग से लगाने लगे थे। इस काम के लिए उन्हें सौ से ज्यादा चक्कर लगाने पड़े थे गड्डियों को लाकर रखने के लिए और दो घंटे का वक्त लगा। इस तरह एक डिब्बा एंबूलेंस से वैन में ट्रांसफर हो गया तो वे इसी प्रकार दूसरे डिब्बे को खाली करके वैन में रख आये और चक्कर लगा-लगाकर नोटों की गड्डियां उस डिब्बे के भीतर लगाने लगे। इतने में ही दोनों की सांसें फूलने लगी थीं।

"हीरो...!" कमर पर हाथ रखकर गहरी सांसें लेती रत्ना कह उठी--- "नोटों को संभालना तो बहुत मुश्किल काम है।"

भंडारे ठिठका और मुस्कुरा पड़ा।

अंधेरे की वजह से वे एक-दूसरे का चेहरा स्पष्ट ना देख पा रहे थे।

"पैसा संभालना बच्चों का खेल नहीं होता।"

"कमाना आसान है। इकट्ठा करना आसान है।" रत्ना भी मुस्कुराई--- "लेकिन शिमला पहुंचकर सारा पैसा मैं आसानी से संभाल लूंगी। वहां हमारे पास जगह होगी। तेरे को पैसा खर्चने नहीं दूंगी।"

"क्यों?"

"तू पैसा खराब कर देगा। हजार रुपए रोज का खर्चा का दूंगी। इसमें तू अपना खर्च भी चलाना और घर का खर्चा भी। औरत पैसे को संभाल कर रखती है। बर्बाद नहीं होने देती।"

"खुले दिल से भी ऐश करें तो 180 करोड़ को खत्म नहीं कर सकते उम्र भर।"

"पैसे में ना दिखने वाले पंख लगे होते हैं। उड़ जाता है पैसा। तूने बीस करोड़ खराब कर दिया।"

"वो बाबू भाई को दिया...।"

"वो ही तो...।"

"परवाह नहीं करते छोटी-छोटी बातों की। हमारे पास 160 करोड़ हैं।"

"पांच करोड़ तू शिंदे को दे आया।"

"वो भी जरूरी था।"

"155 करोड़ ही बचा है अब। कहां ये 180 करोड़ था। पच्चीस उड़ गया ना...।"

"हमारे लिए ये भी ज्यादा है।"

"बातें मत कर। जल्दी से काम कर। फिर मत कहना कि काम बचा रह गया।" रत्ना बोली।

"इस तरह तो ये काम कल शाम तक ही हो पाएगा।" भंडारे ने सोच भरे स्वर में कहा।

"परवाह नहीं। कल शाम काम खत्म होगा तो, कल की रात आराम करके परसों निकल चलेंगे।"

दोनों पुनः काम पर लग गए।

रात के डेढ़ बजे तक इस तरह नोटों से भरे तीन डिब्बे वैन में पहुंच गए थे।

"बस हीरो। मैं तो थक गई हूं। तू भी चल, दो पैग लगा ले। एक मैं लूंगी।" रत्ना थकी-सी बोली।

"दो-तीन घंटे आराम करके फिर यहां आ जाएंगे।"

"चल।" पास आकर रत्ना ने भंडारे की कमर में बांह डाली--- "तेरे को आराम दूं...।"

"तेरी यही तो अदा है जो मेरी जान निकाल देती है।" भंडारे ने प्यार से कहा और उसे बांहों में ले लिया।

"ऊपर चल, कमरे में। वहां सब कुछ करेंगे।"

■■■

देवराज चौहान अपनी कार में स्टेयरिंग सीट पर मौजूद था और चौकस था। इस बात के लिए पूरी तरह तैयार था कि अगर भंडारे वैन लेकर निकलता है तो वो नजरों से ओझल ना हो। शाम को भंडारे एक वैन लेकर आया था कि नोटों को उसमें लादकर भाग सके। तो लोग डेढ़ घंटे में नोटों को एंबूलेंस से निकालकर वैन में रख सकते थे। परन्तु उसे ये नहीं पता था कि गैराज के भीतर कितने लोग हैं? या भंडारे रत्ना अकेले हैं।

देवराज चौहान का ख्याल था कि भंडारे आज रात नोटों के साथ निकल सकता था।

लेकिन सदाशिव पर नजर जाती तो उलझन में पड़ जाता, क्योंकि वो उसी पेड़ के नीचे गुड़मुड़ हुआ सोया पड़ा था। अगर भंडारे ने निकलना होता तो रत्ना उसे बता देती। वो इतना निश्चिंत होकर ना सोता। जो भी हो देवराज चौहान सतर्कता से गैराज पर नजर रखे था और आज रात उसका सोने का इरादा नहीं था।

■■■

भंडारे ने रत्ना का माथा चूमा और उस पर चादर देते हुए कहा---

"नींद आ रही है?"

"हां। आज तो बुरी तरह थक गई। ऊपर से अब तूने थका दिया। मैं तो एक-दो घंटे सोऊंगी।" रत्ना ने कहा।

"सो तू। मैं नीचे काम करता हूं।"

"तू भी कुछ आराम कर ले हीरो!  दो घंटे बाद उठकर एक साथ काम करेंगे।"

"मैं अगर सो गया तो फिर तू भी नहीं उठेगी।" भंडारे ने उठते हुए कहा--- "मुझे काम करने दे।"

"आराम कर ले। तेरी सेहत बिगड़ जाएगी।"

"मुझे कुछ नहीं होगा।" भंडारे ने कमरे की लाइट जलती रहने दी और टॉर्च उठाकर बाहर आ गया।

सीढ़ियां उतरकर नीचे पहुंचा और वैन, एंबूलेंस की तरफ कदम बढ़ा दिए।

तभी खटका हुआ।

भंडारे ठिठक गया।

खटका एक तरफ पड़ी कारों के कबाड़ की तरफ हुआ था।

भंडारे अंधेरे में कई पलों तक उधर देखता रहा।

हल्की-हल्की सरसराहट की आवाजों का उसे एहसास हुआ।

भंडारे पूरी तरह सतर्क हुआ।

कोई है?

उसने टार्च को बाएं हाथ में पकड़ा और जेब से रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली। फिर दांत भींचे दबे कदमों से उन कारों के कबाड़ की तरफ बढ़ने लगा। गैराज पर भरपूर खामोशी छाई हुई थी।

उसी पल पुनः खटका हुआ।

भंडारे के जिस्म में ठंडी लहर दौड़ गई।

कोई पक्का था।

कौन हो सकता है?

क्या देवराज चौहान या वागले रमाकांत के आदमी इस विचार के साथ ही माथे पर पसीने का अहसास होने लगा कि क्या उसका खेल खत्म हो गया है। उसे घेर लिया गया है?

भंडारे के दिल की धड़कन तेज हो गई है।

एकाएक भंडारे रुका और पूरे गैराज में सतर्कता भरी नजर डाली।

परन्तु कोई ना दिखा।

वो पुनः आगे बढ़ने लगा। एक हाथ में छोटी टॉर्च और एक में रिवाल्वर थी। उसे अपना सारा सपना बिखरता नजर आ रहा था। वो तो अपने को सुरक्षित समझ रहा था। उसे अपनी टांगें कांपती-सी महसूस हुई।

उन कारों के कबाड़े के पास पहुंचकर भंडारे ठिठका। किसी भी पल रिवाल्वर चलाने को तैयार था।

इसी पल पास की कार में पुनः खटका हुआ।

भंडारे ने कापते हाथ से टॉर्च ऑन कर दी और रिवाल्वर आगे किए भीतर झांका।

देखता रह गया भीतर।

कार के पीछे बिना सीटों की खाली जगह पर बिल्ली अपने तीन बच्चों के साथ खेल रही थी। छोटे-छोटे बच्चे थे। यहीं पर उसने अपने बच्चे दिए लगते थे। भंडारे ने बहुत लंबी गहरी सांस ली। रिवाल्वर वाला हाथ पीछे कर लिया। अभी भी वो अपनी टांगों में कंपन महसूस कर रहा था।

■■■

रत्ना की आंख खुली तो दिन निकल आया था। उसने करवट ली थी तो आंख खुल गई थी। भंडारे को बैड पर ना पाकर वो उठी। शरीर पर चादर ही लिपटी थी जिसे उसने एक तरफ उछाला और खड़ी होकर अपने कपड़े तलाशने लगी थी। उसके जिस्म का एक-एक अंग तराशा हुआ लग रहा था। चेहरे पर सादगी भरी ऐसी खूबसूरती थी कि देखते ही बनती थी। वो मर्दो के लिए दर्द निवारक गोली का काम करती थी, ये अब देखकर पता चल रहा था।

कपड़े पहनकर रत्ना कमरे से बाहर निकली और रेलिंग के पास आकर नीचे गैराज क्या हॉल में देखा।

भंडारे उस काम पर लगा दिया। एंबूलेंस से नोटों की गड्डियां उठा-उठाकर वैन में पड़े गत्ते के डिब्बे में रख रहा था। रत्ना वहीं खड़ी कुछ मिनट तक भंडारे को देखती रही फिर बड़बड़ा उठी---

"तेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला भंडारे। ना पैसा ना रत्ना...।" इसके साथ ही वो पलटी और किचन में चली गई।

पांच मिनट बाद कांच के गिलासों में चाय डाले बाहर निकली और ऊपर से ही बोली---

"चाय तैयार है हीरो। ऊपर आएगा या नीचे लाऊं?"

"नीचे ले आ...।"

रत्ना चाय के गिलास था मैं नीचे पहुंची।

भंडारे नोटों का पांचवा डिब्बा वैन में पहुंचा चुका था। अब बची-खुची नोटों की गड्डियां उसमें भर रहा था। जब तक वो सोई रही, उस वक्त में भंडारे ने दो डिब्बों को वैन में पहुंचा दिया। तीन उन्होंने रात में ही वैन में ट्रांसफर कर दिए थे। अब बाकी चार डिब्बे और थे जिन्हें आज के दिन में आसानी से वैन में पहुंचाया जा सकता था।

"चाय पी ले। काम तो होता रहेगा।"

भंडारे ने पास पहुंचकर रत्ना से चाय का गिलास थामा और घूंट भरा। रात भर के जगे रहने की वजह से उसकी आंखें भारी हो रही थीं। रत्ना घूंट भरकर बोली---

"बहुत मेहनत की है तूने। रात भर सोया नहीं।"

"मेहनत कैसी, अपना ही काम है। करना तो है ही।" भंडारे बोला--- "चार डिब्बे बचे हैं।"

"आज के दिन में आसानी से इन्हें वैन में पहुंचा देंगे।" रत्ना शोख भरे अंदाज में मुस्कुराई--- "रात को प्यार करेंगे और तगड़ी नींद लेंगे और कल उठने के बाद वैन लेकर शिमला के लिए चल देंगे।"

रत्ना को देखते भंडारे प्यार भरे ढंग से मुस्कुरा पड़ा।

"तू मुझे इतनी अच्छी क्यों लगने लगी है?" भंडारे बोला।

"मैं तो वही हूं। पुरानी वाली रत्ना। यूं ही समझ कि तू मुझसे अब प्यार करने लगा है। पहले मेरे साथ तेरा बंधन शरीर का था और अब मन का बंधन बन गया है। तभी तो मैं तुझे और भी अच्छी लगने लगी हूं।"

"तू है ही अच्छी...।"

"ज्यादा बातें ना बना। चलकर दो घंटे की नींद ले ले। उसके बाद हम दोनों बाकी का काम करेंगे।"

"काम निपट ले तो...।"

"नहीं, चलकर दो घंटे सो ले...।" रत्ना ने अपनेपन से कहा।

भंडारे भी थकान महसूस कर रहा था। नींद की जरूरत महसूस कर रहा था।

"हीरो...!" रत्ना सोच भरे स्वर में कह उठी--- "हम यहां से निकल जाएंगे ना?"

"क्या है तेरे मन में?"

"मुंबई में हमें वागले रमाकांत और देवराज चौहान ढूंढते फिर रहे...।"

"भूल जा उन्हें। हम उन्हें नहीं मिलने वाले।" भंडारे हाथ हिलाकर बोला।

"कभी-कभी डर लगता है कि यहां से निकले तो वो लोग कहीं पर हमें देख ना लें।"

"डर मत कुछ नहीं होगा। हमारी वैन को कोई पहचान नहीं सकता और एक घंटे में हम मुंबई से बाहर होंगे। किस्मत पूरी तरह भंडारे का साथ दे रही है और आगे भी देगी।" भंडारे के स्वर में विश्वास था।

"तेरे दम पर तो मैं जिंदा हूं।" रत्ना प्यार से कहा।

"हम दोनों एक-दूसरे को देखकर जिंदा रहेंगे भविष्य में।" भंडारे भावुक हो उठा--- "तू मेरी रानी है।"

"और तू मेरा हीरो...।" रत्ना के चेहरे पर प्यार के भाव देखने लायक थे।

"मैं सोच रहा था कि अगर कोई आदमी होता तो इन बक्सों को दो घंटे में ही वैन में पहुंचा दिया होता। दो आदमी एक बक्से को उठा सकते हैं। भंडारे ने कहा।

"मैं नहीं उठा सकती। बहुत भारी है। कल कोशिश तो की थी। वैसे भी अब कितना काम बचा है। चार बक्से तो रह गए हैं। पांच-छह घंटों में हम काम निपटा लेंगे।" रत्ना ने चाय का घूंट करते हुए कहा।

"हां, इतना ही वक्त लगेगा और काम निपट जाएगा।" भंडारे ने सिर हिलाया।

"आज रात हम जश्न मनाएंगे।" रत्ना खुशी से कह उठी--- "बोतल खोलेंगे और...।"

"हमारी हर रात जश्न की रात हुआ करेगी। हर दिन त्यौहार की तरह होगा।" भंडारे की आंखों में चमक आ गई थी।

"ठीक है, ठीक है तू ऊपर कमरे में सो जा। मैं नोटों की गड्डियों को बक्से में डाल देती हूं।"

"थोड़ी-सी पड़ी है।"

"ज्यादा भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। तुम दो घंटे की नींद ले ले।"

भंडारे ऊपर कमरे में चला गया।

रत्ना एंबूलेंस के फर्श पर बिखरी पड़ी गड्डियां उठाकर वैन में रखे, खुले डिब्बे में डालने लगी। ज्यादा गड्डियां नहीं थीं। आधे घंटे में ही उसने फुर्सत पा ली।

वैन के पास खड़ी रत्ना ने ऊपर के कमरे में निगाह मारी।

कमरे का दरवाजा खुला नजर आ रहा था। वो जानती थी कि भंडारे अब गहरी नींद में होगा। उसमें मोबाइल निकाला और सदाशिव का नंबर मिलाने लगी। जल्दी ही बात हो गई। बातों के दौरान रत्ना वैन की ओट में हो गई कि अगर भंडारे जाग भी रहा हो तो उसे बातें करता ना देख सके।

"मजे में है हीरो...!" रत्ना फुसफुसाकर बोली।

"मजे में?" सदाशिव का उखड़ा स्वर कानों में पड़ा--- "तूने तो मेरा बुरा हाल कर दिया है। कहां मैं हीरो बनने आया था फिर पिज़्ज़ा डिलीवरी करने लगा और अब तो तेरी वजह से रात को पेड़ के नीचे सोना पड़ता है।"

रत्ना हौले से हंस पड़ी।

"तू हंस रही है।" उधर से सदाशिव का नाराजगी भरा स्वर आया--- "मेरी हालत बिगड़ रही है। ना सोना, ना खाना, ना आराम, ना तेरी बांहे, ना तेरे दर्शन होना। ये सब मैं नहीं कर सकता अब तो...।"

"शांत हीरो, शांत...।" रत्ना फुसफुसाकर बोली--- "आज रात तूने बहुत काम करना है।"

"क्या?"

"तेरे को गैराज में आना है। मैं दरवाजा खोल दूंगी और फोन करके बता दूंगी।"

"कितने बजे?"

"वक्त का पता नहीं। जब मैं ठीक समझूंगी, दरवाजा खोलकर तेरे को फोन कर दूंगी।"

"समझ गया। ये काम आज रात होगा ना? मैं अब और नहीं सह सकता ये सब...।"

"आज रात ही होगा।"

"करना क्या है मुझे?"

"थोड़ा-सा काम है। भंडारे पर काबू पाकर, उसे बांध देना है। हम दोनों करेंगे ये काम।"

सदाशिव की आवाज नहीं आई।

"सुन रहा है?"

"हां...।"

"तू चुप क्यों हो गया?"

"मैंने तेरे से कहा था कि उस पर काबू पाकर उसके हाथ-पांव बांधना कठिन काम है। तू उसे गोली क्यों नहीं...।"

"मेरे में हिम्मत नहीं है किसी की जान लेने की।"

"ये आसान काम है। उसकी रिवाल्वर ले और उसे गोली मार दे। सिर्फ ट्रेगर ही तो दबाना।"

"हीरो...!" रत्ना गंभीर स्वर में कह उठी--- "ये फिल्म नहीं हकीकत है। किसी को गोली मारते-मारते मेरी जान निकल जाएगी। मैं ये काम नहीं कर सकती। तू पास में होगा उसके हाथ-पांव बांध...।"

"ठीक है। ऐसे ही सही...।" उधर से सदाशिव का गंभीर स्वर कानों में पड़ा।

"दोपहर में आराम कर लेना। रात को तूने बहुत बड़ा काम करना है।"

"यहां कौन-सा बैड बिछा है जो आराम...।"

"इतनी बड़ी दौलत के लिए तू थोड़ी-सी तकलीफ नहीं उठा सकता। 155 करोड़ की दौलत है।"

"एक सौ पचपन? कल तक तो एक सौ साठ करोड़ थी। पांच कहां चला गया?"

"कल किसी को दे आया था भंडारे। तू पांच के चक्कर में मत पड़। 155 करोड़ बहुत ज्यादा होती है।"

"अब भीतर क्या हो रहा है?"

"एंबूलेंस में पड़ी दौलत वैन में रखी जा रही है।"

"अभी तक ये काम हुआ नहीं?"

"आधे से ज्यादा हो गया है। बाकी का आज दिन में ही हो जाएगा। रात को हम दोनों भंडारे के हाथ-पांव बांधकर उसी वक्त ही नोटों से भरी वैन लेकर भाग जाएंगे। मजा आ जाएगा हीरो...।"

"तू रात को मुझे फोन कर देना। दरवाजा कौन-सा खोलेगी?"

"छोटा वाला। समझ गया ना?"

"समझ गया।"

"अच्छा हीरो अब रात को फोन करूंगी।" रत्ना ने कहा और फोन बंद कर दिया।

■■■

शाम हो रही थी।

देवराज चौहान पेड़ के नीचे खड़े होने की अपेक्षा कार में ही बैठा था। रात भी कार में ही रहा था। बैठे-बैठे शरीर दुखने लगा था। रात सोया भी नहीं था। इस वजह से थकान महसूस कर रहा था। गैराज भी उसकी निगाहों में था और सदाशिव भी। उसे महसूस हो रहा था कि मामला लंबा खींच रहा है।

सदाशिव कुछ करता नहीं दिख रहा था। दिन-रात गैराज पर नजर रखे था, जबकि उसे इस बात का पूरा भरोसा था कि रत्ना कोई खेल खेल रही है और जल्दी ही कुछ होगा। सदाशिव के बाहर खड़े होने का स्पष्ट मतलब था कि रत्ना की तरफ से अभी तक उसे कोई इशारा नहीं मिला है। ये बात भी उसने नोट की कि जब-जब भंडारे गैराज से बाहर गया, सदाशिव को फोन पर बात करते पाया।

जाहिर था कि वो गैराज के भीतर मौजूद रत्ना से ही बात करता होगा। वो एक बार भी भंडारे के पीछे नहीं गया था। रत्ना के माध्यम से उसे खबर मिल जाती होगी कि भंडारे कहां गया है और कब आएगा।

देवराज चौहान का फोन बजा तो उसने कॉल रिसीव की।

दूसरी तरफ वागले रमाकांत था।

"जगमोहन ठीक है?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हर बार जगमोहन के बारे में मत पूछा कर, वो सलामत है और खुश है। कभी-कभी बाहर जाने की जिद करता है पर फिर जिद छोड़ देता है।" वागले रमाकांत का मुस्कुराता स्वर कानों में पड़ा।

देवराज चौहान की निगाह गैराज और सदाशिव पर थी।

"तू उसे छोड़ क्यों नहीं देता।"

"तू नोट देगा मुझे तो मैं जगमोहन तेरे हवाले कर दूंगा।"

"नोट कहीं नहीं जाने वाले। वो मेरी नजरों में है।" देवराज चौहान बोला।

"तूने देखा नोटों को?"

"नहीं। पर मुझे पूरा भरोसा है कि नोट भी वहीं पर हैं।"

"वो गानोरकर है ना, जिसने नोट दिए थे।"

"हां...।"

"उसे सब्र नहीं है। मैंने ही उसे रोका हुआ है कि अभी ये मामला मुझे संभालने दे। सारे हालातों की जानकारी दी मैंने उसे। तो जानता है उसका क्या कहना है।"

"क्या?"

"कहता है देवराज चौहान नोट नहीं देने वाला। वो नोटों को खुद ले जाने की फिराक में है। कहता है कि हो सकता है वो नोटों को भी ले गया हो और ठिकाने लगाने में व्यस्त हो। उसे तेरे पर जरा भी भरोसा नहीं। मैंने उसे समझाया कि जब तक मेरे पास जगमोहन है, वो बेईमानी की नहीं सोचेगा। पर गानोरकर नहीं मानता। कहता है देवराज चौहान नोट लेकर भाग जाएगा।"

देवराज चौहान के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी।

"फिर तो तेरे को नोटों की चिंता होनी चाहिए वागले!" देवराज चौहान बोला।

"मेरे को चिंता नहीं है। तेरे पर मुझे पूरा भरोसा है देवराज चौहान।" वागले की आवाज कानों में पड़ी।

"मुझे तो लगता है गानोरकर से ज्यादा तू इस बात का शक खा रहा है कि मैं नोट लेकर भाग जाऊंगा।"

"क्या बात करता है देवराज चौहान! मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता, पर तू बहुत देर लगा रहा है।"

"वजह है देर लगाने की...।"

"क्या, बोल...बता मुझे...।"

चंद पल खामोश रहकर देवराज चौहान ने कहा।

"वो लड़की, जिस पर मैं नजर रख रहा था और तब बंसल को घायल करके भंडारे उसे ले...।"

"रत्ना की बात कर रहा है, नाम पता है मुझे, आगे बता...।"

"वो भंडारे के साथ है, नोट भी वहीं है और बाहर उसकी एक पहचान का युवक दिन-रात वहां नजर रखे हुए है।"

"समझा...।"

"मुझे पूरा विश्वास है कि रत्ना दो कश्तियों पर सवार है। वो किसी मौके की तलाश में है। शायद कि भंडारे को छोड़कर नोटों को लेकर बाहर खड़े युवक के साथ चली जाए। तभी तो उसे बाहर खड़ा कर रखा है।"

"फिर?"

"मैं देखना चाहता हूं कि क्या होता है इस मामले में कि...।"

"तेरे देखने के चक्कर में नोट हाथ से निकल गए तो...।"

"नहीं निकलेंगे।"

"ये तू समझदारी वाली बात नहीं कर रहा है। तेरे को चाहिए कि तू अभी मुझे बताए कि तू किधर है। लोहरा उधर आदमी लेकर आता है और सारा मामला पन्द्रह मिनट में निपट जाएगा। देर लगाने का कोई फायदा...।"

"मुझे ये भी नहीं पता कि उस जगह के भीतर कितने लोग हैं।"

"उसकी तू फिक्र मत कर। ये काम आसानी से लोहरा संभाल लेगा। बता तू किधर है?"

"जल्दी मत कर वागले...!"

"तू देर लगा रहा है।"

"मैं मामला अपने ढंग से संभाल रहा हूं।"

"नोट हाथ से निकल गए तो जगमोहन का क्या होगा?" तू जगह के बारे में हमें बताकर जगमोहन को ले ले।"

"वागले!" देवराज चौहान का स्वर सख्त हो गया--- "जगमोहन के नाम पर मुझे धमकी मत दे। ये ठीक है कि मैं तेरे से झगड़ा नहीं करना चाहता, परन्तु तूने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया तो झगड़े से मुझे परहेज नहीं होगा।"

"झगड़ा मैं भी तेरे से नहीं करना चाहता। फालतू वक्त नहीं है मेरे पास। मैंने तेरे को धमकी नहीं दी यूं ही तेरे को जगमोहन के बारे में याद दिलाया कि उसे तू जल्दी से मेरे से ले ले और मामले से किनारा कर।"

"कल सुबह तक का वक्त दे मुझे...।" देवराज चौहान बोला।

"अब से सुबह तक के बीच में सिर्फ एक रात ही तो है...।"

"ये रात आराम से बिता ले। सुबह तक यहां कुछ ना हुआ तो मैं तुझे जगह बता दूंगा।"

"मर्जी तेरी। तू एक और रात और खराब करना चाहता है तो कर ले।" इतना कहकर उधर से वागले रमाकांत ने फोन बंद कर दिया।

देवराज चौहान ने मोबाइल जेब में रख लिया।

■■■

जगदीप भंडारे और रत्ना पसीने से भीगे हुए थे। शाम के पांच बज रहे थे और आखिरी नौंवा डिब्बा भी उन्होंने वैन में पहुंचा दिया था और एंबूलेंस में पड़ी वो गड्डियां, जो डिब्बा खाली करने के दौरान डिब्बे से निकाली थी अब उन्हें उठा-उठाकर वैन में रखे डिब्बे के भीतर डाली जा रही थीं। थकान से ज्यादा इस बात की खुशी भी थी कि वक्त रहते उन्होंने सारा काम ठीक-ठाक ढंग से निपटा लिया है।

दोनों थक चुके थे। अभी आधे डिब्बे की गड्डियां डालनी बाकी थीं।

"हीरो...!" रत्ना सांसे लेती कह उठी--- "कल तो हमने मुंबई छोड़कर निकल जाना है।"

"हां...।" भंडारे नोटों की गड्डियां उठाकर एंबूलेंस से निकला और वैन में प्रवेश कर गया।

"तो आज छोले-भटूरे खिला दे...।"

"क्या?" भंडारे की चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।

"कुछ बड़ा-पॉव भी लेते आना। फिर ये चीजें खाने को मिले या ना मिले।"

"छोले-भटूरे शिमला में मिलते हैं।"

"बड़ा-पॉव?"

"वो नहीं होता वहां...।"

"तो बड़ा पॉव ही खिला दे। हरी मिर्चे ज्यादा लाना। जा, लाकर दे मुझे।"

"पहले ये काम निपट...।"

"इसकी तू फिक्र मत कर। तेरे आने तक मैं सारी गड्डियां डिब्बे में डाल चुकी होऊंगी। तू बस मुझे बड़ा पॉव खिला दे। आज बहुत मन कर रहा है।" रत्ना दर्द भरे स्वर में कह उठी।

"बहुत बचकानी डिमांड है तेरी।" भंडारे मुस्कुराया।

"औरतें ऐसी ही होती हैं।"

"ऐसा तूने पहले तो कभी नहीं कहा कि तेरे को फलां चीज लाकर खिलाऊं...।"

"पहले की बात और थी हीरो! अब तेरे पर मेरा ज्यादा हक है। हम शादी करने जा रहे हैं। ऐसे में मैं तेरे से नहीं कहूंगी तो किससे कहूंगी। अब तू तो सारी उम्र मुझे इसी तरह चीजें खिलाएगा।"

भंडारे ने मुस्कुराकर उसे देखा।

"जा बड़ा पॉव लाकर दे। तब तक मैं ये सारा काम निपटाती हूं। रात के जश्न के लिए व्हिस्की है ना?"

"रखी है।"

"मेरे लिए बियर ले आना। आज रात हम खूब प्यार करेंगे।" कहने के साथ ही रत्ना भंडारे के पास पहुंची और उसके गाल को चूमा और सट गई उससे।

भंडारे ने उसे बांहों में ले लिया।

"छोड़। पसीने से भीगी पड़ी हूं। अभी कुछ मत कर।" उससे अलग होती रत्ना कह उठी।

"मैं तेरे लिए बड़ा पॉव लेकर आता हूं...।"

"बियर भी...। तब तक मैं यहां का सारा काम निपटा चुकी होऊंगी।"

"दरवाजा बंद कर ले।" भंडारे फाटक के पास के छोटे गेट की तरफ बढ़ गया।

रत्ना उसके पीछे हो गई।

भंडारे गेट खोलकर बाहर निकला तो रत्ना ने उसे भीतर से बंद कर लिया फिर वैन के पास वापस आई। चेहरे पर गंभीरता दिखने लगी थी। काम के दौरान भंडारे ने रिवॉल्वर निकालकर ड्रम पर रख दी थी। रत्ना ने रिवाल्वर उठाई और उसे ऊपर नीचे से देखने लगी। वो रिवाल्वर की गोलियां निकालना चाहती थी, परन्तु उसे समझ नहीं आया कि कैसे निकाले।

रत्ना ने सदाशिव को फोन किया और बोली---

"भंडारे की रिवाल्वर मेरे हाथ में...।"

"मैंने उसे अभी बाहर जाते देखा है।" सदाशिव की आवाज आई--- "संभाल के रख रिवाल्वर को अब जब वो लौटे तो उसकी तरफ नाल करके ट्रिगर दबा देना। साले का काम हो जाएगा।"

"तेरे को कितनी बार कहूं कि मैं ये काम नहीं कर सकती।"

"तू दरवाजा खोल मैं भीतर आकर छिप जाता हूं जब वो आएगा तो मैं उसे गोली...।"

"खून करेगा तू...।"

"पता नहीं।" उधर से सदाशिव के गहरी सांस लेने का स्वर आया।

"तू रात को आएगा इधर। तेरे आने का रास्ता मैं बना दूंगी। सारा काम निपट गया है। नोटों के बड़े डिब्बे वैन में रखे जा चुके हैं। भंडारे के साथ मेरा प्रोग्राम है कि अब रात भर आराम करेंगे और सुबह वैन लेकर मुंबई से निकल जाएंगे। पर ऐसा कुछ नहीं होगा। रात तू गैराज में आएगा। मैं भंडारे को खूब व्हिस्की पिला दूंगी फिर हम दोनों मिलकर उसे बांध देंगे और वैन लेकर निकल जाएंगे।"

सदाशिव की आवाज नहीं आई।

"बोल...।" रत्ना ने पुनः कहा।

"सोच रहा हूं कि भंडारे जैसे बदमाश को बांध देना क्या आसान होगा।"

"वो तब नशे में होगा और...।"

"नशा करने वाला इंसान इतना बेवकूफ तो नहीं होता कि मक्खी की तरह बांध दे। कभी-कभी तो उस वक्त इंसान और भी खतरनाक हो जाता है। उस पर काबू पाना...।"

"हम दोनों उस पर काबू पा लेंगे।"

"ठीक है। ये काम किसी तरह रात को संभाल लेंगे।" सदाशिव का सोचों में डूबा स्वर कानों में पड़ा--- "तू रिवाल्वर को कहीं छिपा दे, ताकि जब मैं रात को आऊं तो मुझे दे देना फिर...।"

"वो रिवाल्वर हमेशा अपने पास रखता है। अभी वो जल्दी में भूल गया। आते ही वो रिवाल्वर उठाएगा और जेब में रख लेगा। मैं रिवाल्वर की गोलियां निकाल देना चाहती हूं कि रात को कहीं तेरे पर वो गोली ना चला दे।"

"ये अच्छा सोचा तूने...।"

"मेरे को पता नहीं कि गोलियां कैसे निकालते...।"

"आजकल पुराने जमाने की तरह एक-एक गोली नहीं डालते चैम्बर में। गोलियों की छोटी-सी मैग्जीन होती है रिवाल्वर में डालने के लिए जो कि हत्थे के नीचे की तरफ से डाली जाती है। देख तो जरा रिवाल्वर...।"

रत्ना ने हाथ में थमी रिवाल्वर को हत्थे के नीचे की तरफ से देखा।

वहां हत्थे में चकोर-सा कुछ घुसा देखा।

"कुछ है तो वहां...।" रत्ना ने फोन पर कहा।

"वो ही मैग्जीन है अब तू इसे निकालकर खाली कर दे।" उधर से सदाशिव ने कहा।

"कैसे निकालूं...?"

"फिल्में नहीं देखती तू?"

"बहुत देखती हूं पर मुझे नहीं पता कि ये सब कैसे होता है।" रत्ना बोली।

"मैग्जीन को भीतर की तरफ दबा तो उसका लॉक खुल जाएगा, वो थोड़ी-सी बाहर को आ जाएगी, फिर उसे पकड़कर बाहर खींच ले। ऐसे ही धकेलकर वापस डाल देना, वो ठीक हो जाएगी।"

"वापस क्यों डालूंगी। मैंने तो गोलियां निकालनी हैं...।"

"वापस नहीं डालेगी तो भंडारे मैग्जीन की जगह खाली देखकर सब समझ जाएगा। मैग्जीन बाहर निकालकर मैग्जीन से गोलियां बाहर निकालकर खाली मैग्जीन वापस रिवाल्वर के हत्थे में डाल दे।"

"एक मिनट रुक।" रत्ना ने कहा और फोन को पास के ड्रम पर रखकर हाथ में पकड़ी रिवाल्वर दस्ते में फिर मैग्जीन को दबाया तो मामूली से झटके के साथ वो कुछ बाहर को आ गई।

रत्ना ने उसे उंगलियों से पकड़कर खींचा तो वो हाथ में आ गई।

भीतर झांका तो गोली फंसी दिखाई दी।

उसने जोर से हिलाकर गोली निकालनी चाही, परन्तु वो अपनी जगह टिकी रही।

रत्ना ने मोबाइल उठाकर फोन कान से लगाया और सदाशिव से बात की।

"मैग्जीन मैंने बाहर निकाल ली है, परन्तु गोलियां बाहर नहीं आ रहीं।"

"तूने निकाली?"

"हां, मैंने कई झटके दिए परन्तु गोली...।"

"वो ऐसे नहीं निकलेगी। मैग्जीन में गोली क्लिप से टाइट होकर सैट हो जाती है। तू देख मैग्जीन के साथ ही छोटा-सा क्लिप है। ध्यान से देख, दिखा?" सदाशिव ने उधर से कहा।

"हां, लग तो रहा है।"

"क्लिप के पास हुक है। हुक क्लिप से जुड़ी हुई है। तू हुक को दबा और मैग्जीन को उल्टा कर दे। ऐसा करते ही एक के बाद एक गोलियां बाहर गिरती चली जाएंगी।"

रत्ना ने क्लिप के पास लगे हुक को तलाशा। वो छोटा-सा सूत भर का था। अंगूठे से उसने हुक को दबाया और मैग्जीन को उल्टा कर दिया। एक के बाद एक गोलियां टक-टक करती फर्श पर गिरती चली गई। रत्ना ने गहरी सांस ली और फोन पर बोली।

"हो गया।"

"मैग्जीन को वापस रिवाल्वर के दस्ते में फंसा दे। धकेल दे भीतर। वो अटक जाएगी।"

रत्ना ने ड्रम पर रखी रिवाल्वर उठाई और मैग्जीन को भीतर फंसा दिया। खट की मध्यम-सी आवाज के साथ मैग्जीन भीतर जाकर सेट हो गई थी।

रत्ना रिवाल्वर ड्रम पर रखती कह उठी---

"हो गया हीरो! बहुत सही बताया। कहां से सीखा तूने?"

"फिल्मों से।"

"फिल्मों से इतना कुछ कैसे सीख लिया?"

"बहुत कुछ सीखा है तभी तो हीरो बनने मुंबई आ गया।"

"अब सुन तू। शाम को तैयार रहना। मतलब कि रात को मैं तेरे को फोन करूंगी और छोटा फाटक खोल दूंगी। तू भीतर आ जाना और भंडारे के हाथ में रिवाल्वर देखे तो डरना नहीं, वो खाली होगी, समझ गया हीरो...!"

"समझ गया।"

रत्ना ने फोन बंद करके जेब में रखा और फर्श पर बिखरी गोलियां को उठाकर कुछ दूर कारों के कबाड़ के भीतर फेंक दिया। ये सब काम करके उसे लग रहा था जैसे बहुत बड़ा काम कर दिया है। उसने एक नजर ड्रम पर पड़ी रिवाल्वर पर मारी फिर एंबूलेंस से गड्डियां निकालकर वैन में रखे डिब्बे में भरने लगी।

■■■

जब तक भंडारे आया, तब तक काम निपटने को था। दो-तीन सौ गड्डियां ही बाकी रह गई थीं। रत्ना ने तेजी से सारा काम किया था। भंडारे ने सामान का लिफाफा एक तरफ रखा और रत्ना के साथ लगकर वो सारी गड्डियां डिब्बे में डाली और डिब्बा बंद करके उस पर टेप लगाकर काम निपटा दिया।

"ले, काम निपट गया हीरो...!" रत्ना गहरी सांस लेकर कह उठी--- "अब बड़ा पॉव खाते हैं।"

भंडारे आगे बढ़ा और ड्रम पर से रिवाल्वर उठाकर जेब में रखते बोला---

"तूने रिवाल्वर ले जाने की याद नहीं दिलाई।"

"मुझे कहां ध्यान था। पर हर समय रिवाल्वर पास में रखने की जरूरत क्या है?"

"जब तक मुंबई से बाहर नहीं निकलते तब तक खतरा है।" भंडारे बोला।

"मतलब कि मुंबई से बाहर निकलकर तू रिवाल्वर फेंक देगा?"

"फेंकूंगा तो नहीं। पर फिर कभी-कभी भूल भी जाऊं साथ रखना तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा।"

रत्ना ने आगे बढ़कर भंडारे का नया लिफाफा उठा लिया।

"क्या लाया?"

"बड़ा पॉव और कोक की ठंडी बोतल...।"

"चल, कमरे में बैठकर खाते हैं। उसके बाद नहाऊंगी। तू भी नहा लेना। रात को मजे करेंगे और सुबह चल देंगे। काम खत्म हो गया, नोटों को वैन में पहुंचाने का। बहुत लंबा काम था।"

"नोट भी ज्यादा हैं।" भंडारे मुस्कुराया--- "एक सौ पचपन करोड़...।"

"जिंदगी भी तो बहुत ज्यादा है। बूढ़े होने तक नोट खत्म भी हो सकते हैं। संभाल के खर्चे करेंगे।"

"बहुत हैं। खत्म नहीं होंगे।" भंडारे हंसा--- "फिर मेरे होते तू चिंता क्यों करती है, नोट फिर पैदा हो...।"

"चौबीस करोड़ वो भी हैं जो तूने मुझे बताया था। उसे भी तो साथ ले चलना है।"

"उसे वहीं पर रहने दे। फिर कभी मुंबई आए तो उसे ले लेंगे। वो वहां सुरक्षित हैं।" आगे बढ़कर भंडारे ने रत्ना की कमर में हाथ डाला--- "चल कुछ आराम कर ले। खाने के बाद नहाएंगे।"

"मेरी बियर नहीं लाया तू?"

"आज व्हिस्की से काम चला लेना। लाना दिमाग से उतर गया।"

■■■

अंधेरा हो चुका था।

देवराज चौहान कार की स्टेयरिंग सीट पर बैठा था और सो चुका था कि सुबह वागले रमाकांत को इस जगह के बारे में बताकर, इस मामले से निकल जाएगा। भंडारे के बारे में सोच रहा था कि उसे सबक सिखाना जरूरी है। ऐसे धोखेबाज को वो सिर्फ मौत ही देता था। अगर बाहर वो युवक (सदाशिव) ना होता तो इतना लंबा इंतजार नहीं करना था उसने और अब तक मामला खत्म हो जाना था।

परन्तु वो तो सदाशिव के इंतजार में था कि जिस कारण वो वहां था वो काम करे। परन्तु वो सिर्फ नजर रखने का काम कर रहा था। मन में तो था कि गैराज के भीतर जाकर भंडारे को शूट कर दे परन्तु खतरा ये था कि उसे भीतर जाते देखकर सदाशिव फोन करके रत्ना को उसके भीतर आने की खबर दे देगा और यहीं पर मामला बिगड़ जाएगा। या तो वो पहले सदाशिव से निपटे।

ये विचार देवराज चौहान को जंचा।

फौरन फैसला कर लिया कि रात को सदाशिव को बेहोश करके गैराज में प्रवेश करेगा और भंडारे को धोखे की सजा देने के बाद वागले रमाकांत को फोन कर देगा कि आकर अपने नोट संभाल ले।

देवराज चौहान अब रात गहरी होने का इंतजार करने लगा।

■■■

रात के ग्यारह बज रहे थे।

जगदीप भंडारे का चेहरा नशे में धधककर सुर्ख हो रहा था। उसके जिस्म पर सिर्फ अंडरवियर था। रत्ना के शरीर पर स्कीवी और नीचे पैंट पहनी हुई थी। टेबल पर व्हिस्की की खत्म होती बोतल और दो गिलास पड़े थे।

रत्ना ने भी पी थी, परन्तु सिर्फ एक पैग। वो पूरी तरह होश में थी और उसे पता था कि आज रात उसने क्या-क्या काम करने हैं। चंद मिनट पहले वो प्यार का खेल, खेल रहे थे।

रत्ना ने प्यार में ऐसे जौहर दिखाए थे कि भंडारे अपने को बहुत खुशनसीब समझने लगा था, जो कि उसे ऐसी करतबी औरत के साथ जिंदगी भर रहने का मौका मिल रहा था। उसे अपने चुनाव पर गर्व था कि रत्ना को चुनकर उसने कोई गलती नहीं की। एकदम मस्त लड़की थी और उसके हर काम में साथ देती थी।

रत्ना के चेहरे पर मस्ती छाई हुई थी।

भंडारे उठा और नया गिलास तैयार करते हुए कह उठा---

"तू तो हर बार नई लगती है।" वो खुश लग रहा था।

"औरत वही जो हर बार नई लगे।" रत्ना कहकर हंसी और उठकर अपनी पैंटी पहते बोली--- "तुझे अच्छा लगा ना हीरो।"

"बहुत।"

"तुझे हमेशा ही मैं इसी तरह मजे दूंगी। जिंदगी भर तू इसी तरह मेरी सैर करेगा।"

भंडारे हंस पड़ा।

"तू भी कम नहीं है हीरो! मेरी जान निकाल देता है।" रत्ना ने शरारती स्वर में कहा।

भंडारे पुनः हंसा। गिलास होंठों से लगाकर घूंट भरा।

"मैं जरा एक नजर वैन पर मार आऊं।" रत्ना दरवाजे की तरफ बढ़ते बोली।

"क्या जरूरत है। सब ठीक तो है।" नशे में भंडारे की आवाज भारी हो रही थी।

"मेरा दिल कर रहा है।"

"अब तेरे पर भी नोटों का नशा होने लगा है।"

रत्ना हंसकर बाहर निकल गई।

गैराज के हॉल में घुप्प अंधेरा था। परन्तु कमरे में मध्यम-सी रोशनी वहां तक आ रही थी। सीढ़ियां उतरकर रत्ना नीचे पहुंची और वैन की तरफ बढ़ते उसने ऊपर देखा।

रेलिंग पर कोई नहीं था।

वो फौरन दबे पांव फाटक की तरफ बढ़ गई। दिल जोरों से धड़कने लगा था।

रत्ना बड़े फाटक के पास छोटे गेट के पास पहुंचकर ठिठकी और उसकी कुंडी बेहद धीमे-धीमे से खोलने लगी। खोलते समय वो कुछ आवाज करती थी, ऐसे में रत्ना बहुत सावधानी से काम ले रही थी।

आधा मिनट के वक्त में उसने कुंडी खोल दी।

पल्ले को अपनी तरफ खींचा तो वो खुलने लगा। रत्ना ने उसे वहीं रोक दिया और वहां से दबे पांव तेजी से चलती वैन तक आ पहुंची। इतने में ही उसकी सांसें उखड़ गई थीं। टांगों में कंपन महसूस हो रहा था। उसे लगा कि वो डर गई है। जबकि सब ठीक-ठाक था। डरने की कोई बात नहीं थी।

चंद लंबी सांसें लेकर उसने खुद को ठीक किया और ऊपर रेलिंग पर देखा।

भंडारे कमरे में ही था।

रत्ना ने जेब से मोबाइल निकाला और सदाशिव के नंबर मिलाये। बात हो गई।

"हां...।" सदाशिव की आवाज आई।

"मैंने दरवाजा खोल दिया है तू आ जा...।"

"समझ गया।"

"मैं भंडारे के साथ ऊपर कमरे में हूं। आकर तू वैन या एंबूलेंस के पास छिप जाना। एक कोने में ऊपर जाने की सीढ़ियां है तू उधर से ऊपर आना। कमरे में भंडारे को पकड़कर हम दोनों बांध देंगे। समझ गया?"

"समझ गया।"

रत्ना ने फोन बंद कर दिया। जेब में रखा और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गई।

बेहद धीमी फुसफुसाहट में रत्ना ने बात की थी।

रत्ना ऊपर पहुंची फिर कमरे में।

भंडारे ने कमीज-पैंट पहन ली थी और हाथ में व्हिस्की का गिलास थमा था।

"देख आई नोटों को।" भंडारे मुस्कुराया।

"इतना पैसा हो तो चिंता हो ही जाती है हीरो!" रत्ना बैड पर बैठती कह उठी--- "अब तेरा क्या प्रोग्राम है?"

"प्रोग्राम?"

"मेरा मतलब है कि अब हमें सो जाना चाहिए। कल लंबा सफर शुरू होगा। कितनी जल्दी यहां से निकल सकें तो उतना ही बेहतर होगा। चल अब नींद ले लें। पीनी छोड़, बेड पर आ जा।"

"अभी तो आधी रात भी नहीं बीती और तू...।"

"बाकी जश्न शिमला पहुंचकर। कल हमें यहां से नोटों के साथ निकलना है।"

"ठीक है, ये गिलास खत्म कर लूं...।"

"तेरे को क्या लगता है हम मुंबई से निकल जाएंगे। देवराज चौहान या वागले रमाकांत...।"

"उनका नाम मत ले। भूल जा उन्हें। अब वो हमारी जिंदगी का हिस्सा नहीं है।"

"भूल गई।" रत्ना मुस्कुराई--- "अब आ जा।"

"गिलास खत्म करने दे। तू सो, मैं यहीं हूं।" भंडारे ने घूंट भरते हुए कहा।

रत्ना ने आंखें बंद कर लीं।

बंद आंखों के पीछे सदाशिव का चेहरा नाच रहा था कि वो सब कुछ संभाल लेगा? कहीं मौके पर घबरा तो नहीं जाएगा? रत्ना ने अपने को विश्वास दिलाया कि दोनों मिलकर आसानी से भंडारे को बांध देंगे। भंडारे ने खूब पी रखी है। ज्यादा हाथ-पांव नहीं मार सकेगा। ये काम होते देर नहीं लगेगी।

थोड़ी-सी आंख खोलकर उसने भंडारे को देखा।

कुर्सी पर बैठा भंडारे सोचों में डूबा घूंट भर रहा था।

रत्ना ने आंख बंद कर ली।

जबसे सदाशिव से मिला था, तबसे भंडारे उसे कभी अच्छा नहीं लगा। सदाशिव शरीफ था और भंडारे छंटा हुआ बदमाश। उसने बहुत सोच-समझकर फैसला किया था कि उसकी जिंदगी सदाशिव के साथ बीतेगी।

"हीरो! तू कब सोएगा?" रत्ना कह उठी। आंखें बंद थीं।

"कुछ देर में। तू नींद ले...।"

"जब तक तू पास में नहीं लेटेगा, तब तक मुझे नींद नहीं आएगी।"

"आ जाएगी, कोशिश कर। मैं गिलास खत्म करके लेटूंगा।"

फिर रत्ना ने कुछ नहीं कहा।

वक्त बीतने लगा। दस-पन्द्रह मिनट बीते कि नीचे गैराज में भारी चीज गिरने की आवाज आई।

भंडारे चौंका।

रत्ना तुरन्त उठकर बैठ गई। उसका चेहरा फक्क-सा हो गया था।

"क्या हुआ?" गैराज में बिल्लियां हैं। बच्चे दे रखे हैं।" एकाएक भंडारे को बिल्लियों का ध्यान आ गया था, परन्तु तभी उसकी आंखें सिकुड़ गईं--- "नहीं ये बिल्लियां नहीं हो सकतीं। कोई भारी चीज गिरी है। बिल्लियां भारी चीज नहीं गिरा सकतीं।" इसके साथ ही भंडारे तुरन्त खड़ा हो गया। गिलास एक तरफ रखा और जेब से रिवाल्वर निकाल ली।

हड़बड़ाई-सी रत्ना भंडारे को देख रही थी।

"ये तू क्या कर रहा है?"

"गैराज में नीचे कोई है।"

"कोई नहीं है, हम ही...।"

"कोई है।" भंडारे ने दांत भींचकर कहा--- "देखना जरूरी है कि किसी चीज के गिरने का शोर कैसे हुआ।"

"मैं तेरे साथ चलती...।"

"तू यहीं रह। मैं तेरे को खतरे में नहीं डालना चाहता। शायद कुछ भी ना हो।" कहने के साथ ही भंडारे बाहर निकल गया।

■■■

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।

रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे कि एकाएक उसने सदाशिव को अपनी जगह छोड़कर सड़क पार करते देखा। सड़क पर से इक्का-दुक्का ट्रैफिक निकल रहा था। सदाशिव का रुख कुछ दूर नजर आ रहे गैराज की तरफ था।

देवराज चौहान सतर्क हो गया।

उसे लगा अब कुछ होने वाला है, जिसका शायद इंतजार था उसे।

देवराज चौहान उसी पल कार से निकला और आगे की तरफ बढ़ गया। नजरें सदाशिव पर ही टिकी रहीं, जो कि गैराज की तरफ जाता दिख रहा था। बाहर से गैराज अंधेरे में डूबा नजर आ रहा था। गैराज की दीवार के साथ सदाशिव आगे बढ़ता फाटक के पास जा रुका। तब तक देवराज चौहान काफी आगे बढ़ आया था परन्तु उसने सड़क पार नहीं की थी। ऐसे में उसमें और सदाशिव में काफी फासला था। फिर उसने सदाशिव को उस छोटे फाटक के पास रुकते देखा जहां से भंडारे अक्सर बाहर आता-जाता था। उसने सदाशिव को आसपास देखते देखा।

फिर सदाशिव को दरवाजा धकेलकर भीतर जाते और दरवाजा बंद करते देखा।

देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ गए।

स्पष्ट था कि रत्ना ने उसके भीतर आने के लिए फाटकनुमा छोटा गेट खोल रखा था। देवराज चौहान समझ गया कि भीतर बहुत कुछ होने वाला है। रत्ना ने सदाशिव के साथ मिलकर भंडारे को खत्म करने की योजना बनाई है कि भंडारे को मारकर पैसा लेकर वो दोनों यहां से निकल जाएं और बाहर रहकर सदाशिव रत्ना के इशारे का ही इंतजार कर रहा था और अब मोबाइल पर रत्ना का इशारा पाकर सदाशिव हरकत में आ गया था।

भीतर रत्ना तैयार होगी सदाशिव की सहायता करने को, परन्तु देवराज चौहान को शक था कि वो दोनों मिलकर भी भंडारे को नहीं संभाल सकेंगे। देवराज चौहान का इरादा बीच में दखल देने का जरा भी नहीं था। दो दिन से सदाशिव बाहर क्यों खड़ा था, वो समझ चुका था। देवराज चौहान को सिर्फ उस दौलत से मतलब था, जिसे कि उसने किसी भी हालत में हाथ से नहीं जाने देना था। उस पर सिर्फ वागले रमाकांत का हक था।

■■■

गैराज के नीचे के हॉल में अंधेरा फैला था। ऊपर कमरे में रोशनी रेलिंग पार करके वहां तक पहुंच रही थी। परन्तु वो नाकाफी थी। हॉल का थोड़ा-सा हिस्सा ही उससे रोशन हो रहा था। वो भी मध्यम-सी रोशनी में।

जगदीप भंडारे की पैनी निगाह गैराज के हॉल में घूम रही थी। रिवाल्वर हाथ में दबी थी।

गैराज में सन्नाटा छाया हुआ था।

भंडारे सीढ़ियां उतरकर गैराज के हॉल में पहुंचा और ठिठककर हर तरफ नजर दौड़ाने लगा।

कई पल यूं ही बीत गये।

हर तरफ सब कुछ शांत और ठीक-ठाक नजर आया।

भंडारे समझने की चेष्टा कर रहा था कि आवाज कहां से उभरी है। वो धीमे-धीमे, सतर्कता से नपे-तुले कदमों से आगे बढ़ने लगा। उसके पैरों की कोई आवाज नहीं उभर रही थी। उसका रुख उन कारों के कबाड़ की तरफ था, जहां कल उसने बिल्लियां देखी थीं। अगर वहां कोई चीज गिरी है तो उस चीज को पहचान सकता था। पैनी निगाह आगे बढ़ते हुए वैन और एंबुलेंस की तरफ भी जा रही थी।

भंडारे कारों के कबाड़ के पास जाकर ठिठका। आसपास देखने के बाद कारों के ढांचे के भीतर निगाह मारी। टार्च नहीं लाया था। परन्तु भीतर बिल्ली की चमकती आंखें उसे दिखाई दी। वो पीछे हट गया। आसपास देखा, नीचे देखा। वो समझने की चेष्टा कर रहा था कि किस चीज के गिरने की आवाज आई है।

परन्तु वहां फर्श पर, आसपास ऐसा कुछ नहीं दिखा कि लगे कि कोई चीज गिरी हो।

आस-पास देखता भंडारे एंबूलेंस की तरफ बढ़ने लगा। वो पूरी तरह सतर्क था और दाएं हाथ की उंगली ट्रेगर पर थी कि अगर गोली चलानी पड़े तो फौरन चला सके। नशा व्हिस्की का उस पर चढ़ा हुआ था। परन्तु होशो-हवास पूरी तरह कायम थे। उस पर अपना काम था।

एंबूलेंस का दरवाजा खुला हुआ था।

दो पल खुले दरवाजे को देखता रहा फिर भीतर प्रवेश कर गया।

भीतर आकर ठिठका और खाली एंबूलेंस पर भरपूर नजर मारी।

सब ठीक था।

जिस तरह उसे खाली छोड़ा था, वो वैसे ही खाली थी।

भंडारे एंबूलेंस से बाहर निकला और वैन के पास जा पहुंचा। वैन का पिछला दरवाजा बंद था। आगे का दरवाजा भी बंद था। वो आगे बढ़ा कि तभी पैर के नीचे आकर कुछ चुभा।

वो ठिठका। फौरन पैर पीछे किया और फर्श पर देखने लगा।

परन्तु अंधेरे की वजह से नीचे कुछ नजर नहीं आया।

भंडारे नीचे झुका और फर्श पर हाथ फेरा।

हाथ से कुछ टकराया। छोटी-सी चीज। उसे उठाकर सीधा खड़ा हो गया और उसी पल उसके मस्तिष्क को झटका लगा। नीचे से उठाई चीज को उंगलियों से छूते ही दिमाग ने उसे पहचान लिया था।

वो रिवाल्वर की गोली थी।

भंडारे कुछ पल अचकचाया-सा खड़ा रहा।

रिवाल्वर की गोली फर्श पर। क्या यहां पर कोई है?

भंडारे की निगाह पूरे गैराज पर घूमने लगी। वो वैन की ओट में खड़ा था। हर तरफ शांति थी। अभी तक उसे ऐसा कोई एहसास नहीं हुआ था कि गैराज में किसी प्रकार की गड़बड़ है।

गोली कहां से आई?

तभी उसका ध्यान अपने हाथ में दबी रिवाल्वर पर गया। दूसरे हाथ से हत्थे में धंसी गोलियों की मैग्जीन को छूकर देखा। वो अपनी जगह सलामत थी। गोली अभी तक हथेली में दबी थी। मन-ही-मन वो भारी उलझन में था कि रिवॉल्वर की गोली फर्श पर कैसे आ गई?

क्या यहां कोई आया था?

यहां कोई कैसे आ सकता है। हर पल तो वो यहां था। परन्तु शाम को बाहर गया था बड़ा पॉव लेने। तब भी कोई नहीं आ सकता। रत्ना यहां पर थी और...।

उसकी सोचें ठिठकीं।

तब उसकी रिवाल्वर ड्रम पर रखी रह गई थी।

भंडारे का ध्यान अपने हाथ में दबी रिवाल्वर पर गया।

अगले ही पल उसे लगा जैसे रिवाल्वर का भार कम हो गया हो। उसने तेजी से गोलियों की मैग्जीन बाहर निकाली तो ठगा-सा खड़ा रह गया। वो इतनी हल्की थी कि उसे समझते देर न लगी कि ये खाली है।

तो गोली उसी के रिवाल्वर की है।

निकाली किसने?

रत्ना ने।

भंडारे के माथे पर बल पड़े। आंखें सिकुड़ गईं। चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे। वो वैन की ओट से निकला और ऊपर रेलिंग की तरफ देखा। रत्ना रेलिंग पर खड़ी थी। पीछे से कमरे की रोशनी आ रही थी।

"कोई है क्या?" रत्ना ने ऊपर से पूछा।

"नहीं...।" भंडारे के होंठों से निकला।

"ऊपर आ जाओ। हमें सो जाना चाहिए अब।" रत्ना ने कहा।

भंडारे ने भरपूर निगाह गैराज पर मारी। जाने क्यों उसका मन ठोक-ठोक कर कह रहा था कि कोई गड़बड़ है। वो अपने शरीर में बेचैनी महसूस करने लगा था।

"आ भी जाओ अब...।" रत्ना ने ऊपर से पुनः पुकारा---- "क्यों वक्त खराब कर रहे हो।"

भंडारे मुट्ठी में गोली दबाए सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। रिवाल्वर दूसरे हाथ में दबी थी। होंठ भिंच चुके थे। गड़बड़ होने का एहसास उसे हो चुका था। उसके खिलाफ जाल बुना जा रहा था और उसमें रत्ना भी शामिल थी। शाम को रत्ना ने उसे बड़ा पॉव लाने के बहाने से बाहर भेजा। तब उसकी गैरमौजूदगी में या तो कोई आया और उसने गोलियों से भरी मैग्जीन निकालकर खाली की या रत्ना ने किया। जो भी हुआ, जैसे भी हुआ रत्ना की रजामंदी से हुआ। क्योंकि रत्ना यहां हर पल मौजूद थी। रत्ना कुछ ऐसा कर रही है जिसकी उसे हवा तक नहीं।

भंडारे को अपने विचारों पर यकीन नहीं आ रहा था।

रत्ना पर उसे अपने जैसा भरोसा था।

परन्तु उसकी रिवाल्वर खाली की गई थी और यहां पर रत्ना के अलावा कोई नहीं था।

उसे ऊपर आया पाकर रत्ना रेलिंग से हटी और कमरे में चली गई। उसका दिल जोरों से धड़क रहा था वो जानती थी कि गैराज के हॉल में कहीं पर सदाशिव छिपा हुआ है। चीज गिरने की आवाज सदाशिव से ही आई थी। उसे हर पल ऐसा लग रहा था कि भंडारे सदाशिव को ढूंढ लेगा। परन्तु सब ठीक रहा। अंधेरे की वजह से सदाशिव भंडारे की नजरों में ना आ सका था। अगर नजर आ जाता तो हालात बिगड़ जाने थे। सदाशिव को जिंदा नहीं छोड़ना था भंडारे ने।

रत्ना बैड पर आ बैठी।

तभी भंडारे ने भीतर प्रवेश किया।

रत्ना उसके चेहरे पर छाई कठोरता के भाव देखकर चौंकी।

"क्या हुआ?" रत्ना के होंठों से निकला। नजरें भंडारे के चेहरे पर थीं।

"जब मैं बड़ा पॉव लेने गया तो मेरे पीछे से कोई भीतर आया था?" भंडारे ने कठोर स्वर में पूछा।

"यहां कौन आएगा। मैं ही थी। क्यों?" रत्ना के चेहरे पर उलझन उभरी।

"कोई नहीं आया?"

"तुम्हारी कसम, यहां किसी के आने का सवाल ही पैदा नहीं होता।"

भंडारे ने अपने बाएं हाथ की मुट्ठी खोल दी।

रत्ना की निगाह उसकी हथेली पर रखी रिवाल्वर की गोली पर पड़ी। अपलक-सी गोली को देखती रह गई। एकाएक उसका दिल धड़क उठा। चेहरे का रंग बदला।

"तुमने मेरे रिवाल्वर से गोलियां क्यों निकाली?" भंडारे ने शब्दों को चबाकर कहा।

"म...मैंने?" रत्ना हड़बड़ाकर बोली--- "मैं गोलियां क्यों निकालूंगी। तुमने कैसे सोच लिया कि मैं ऐसा करूंगी।"

भंडारे ने रत्ना की आंखों में झांका।

"तुम मुझ पर शक कर रहे हो।" रत्ना एकाएक शिकायती स्वर में कह उठी।

"तुमने गोलियां नहीं निकालीं?"

"नहीं भंडारे, क्या तेरे को अपनी रत्ना पर भरोसा नहीं रहा।" रत्ना विश्वास भरे स्वर में बोली।

भंडारे के दांत भिंच गए। गोली उसने बैड पर उछालते हुए कहा।

"अगर गोलियां तूने नहीं निकाली तो इस वक्त गैराज में कोई छिपा हुआ है। उसी ने तब गोलियां निकाली जब मैं बड़ा पॉव लेने बाहर गया था और इस बात का तेरे को भी पता ना चल सका। तब तू कहां थी?"

"न...नीचे गैराज पर। नोटों की गड्डियां वैन में रख रही थी।"

"हम खतरे में हैं।" भंडारे के होंठों से गुर्राहट निकली--- "गैराज पर कोई है। उसने रिवाल्वर इसलिए खाली की कि वक्त आने पर मैं बेबस हो जाऊं। वो कभी भी मुझ पर हमला कर सकता है।"

"तू गोलियां फिर से डाल ले...।"

"फालतू मैग्जीन नहीं है मेरे पास। रिवाल्वर वाली गोलियां थीं। मुझे नीचे जाकर गैराज में उसे ढूंढना होगा, जो यहां छिपा हुआ है। वो देवराज चौहान हो सकता है। वागले रमाकांत हो होता तो यहां ढेर सारे आदमी भी आ जाते।" भंडारे दांत भींचे परेशान स्वर में कह उठा--- "समझ में नहीं आता कि ये जगह किसी को कैसे मालूम...।"

जगदीप भंडारे के शब्द होंठों में ही रह गए।

उसने रत्ना की आंखें फैलती देखीं। वो उसके पीछे दरवाजे को देख रही थी।

भंडारे को समझते देर न लगी कि पीछे दरवाजे पर कोई है। वो तेजी से घूमा।

'ठक'

लोहे का गोल पाइप जो उसके सिर के पीछे वाले हिस्से पर पड़ने वाला था, वो घूमते ही उसके माथे पर पड़ा। भंडारे के हाथ से रिवाल्वर गिर गई। वो ठीक से पीछे देख भी नहीं सका था कि ये सब हो गया। लोहे के पाइप को पूरी ताकत से मारा गया था कि उसी पल उसका माथा और सिर फट गया था। खून बहने लगा।

भंडारे के दोनों हाथ सिर पर पहुंचे। वो झूमने-सा लगा।

दरवाजे पर पांच फीट का जंग लगा पुराना पाइप पकड़े सदाशिव खड़ा था। दरिंदा लग रहा था वो। दांत भिंचे, सुर्ख आंखें, धधकता चेहरा वहशी लग रहा था वो।

रत्ना आंखें फाड़े ये सब देखे जा रही थी।

तभी सदाशिव ने दोनों हाथों से थामें लोहे के पाइप को पुनः सिर से ऊपर उठाया और पूरी ताकत से भंडारे के सिर पर मारा। जबकि भंडारे ने सिर पर हाथ रखे हुए थे। खून बहता चेहरे को रंग रहा था। उसकी आंखें बंद थीं।

'ठक'

पुनः लोहे के पाइप का वार उसके सिर पर हुआ।

भंडारे के होंठों से बहुत ही भयानक चीख निकली। सिर पर रखे हाथों की उंगलियां पिचक गई थीं। वो तड़पता हुआ फर्श पर जा गिरा था। सिर पर भी चोट लगी थी। रह-रहकर उसके होंठों से चीखें निकल रही थीं।

रत्ना की आंखें और भी फट गईं। वो बैड पर बैठी थी। होंठों में कोई बोल नहीं था। जैसे कोई बुत हो। ऐसी लग रही थी वो। बैड के पास फर्श पर गिरा भंडारे उसे आधा-अधूरा नजर आ रहा था।

सदाशिव ने यहीं पर बस नहीं की। वो एक कदम आगे बढ़ा और लोहे का पाइप एक के बाद एक तब तक भंडारे के सिर पर मारता रहा था, जब तक कि वो शांत ना पड़ गया। उसका हरकत करता शरीर थम ना गया।

फर्श पर खून-ही-खून नजर आ रहा था।

भंडारे का शरीर शांत पड़ा था। टांगें फैली हुई थीं। बांहें शरीर के साथ सटी थीं और हाथों की उंगलियों से भी खून बह रहा था। उसके चेहरे पर खून-ही-खून नजर आ रहा था। आंखें बंद थीं। वो मर चुका था।

सदाशिव ने लोहे का पाइप एक तरफ फेंका तो टन-टन की आवाज गूंज उठी।

सदाशिव गहरी-गहरी सांसें लेने लगा। हांफने लगा। हांफते-हांफते वो नीचे बैठ गया। स्पष्ट था कि उसने अपनी हिम्मत से बाहर का काम किया था इस प्रकार भंडारे को मारकर। उसका तनाव से भरा चेहरा अब ढीला पड़ने लगा था। अजीब-सी थकान अभी भी उसके चेहरे पर थी, परन्तु उसके चेहरे पर छाई दरिंदगी कम नहीं हुई थी। आंखों की सुर्खी पूरी तरह दिखाई दे रही थी। इस वक्त वो ऐसे दरिंदों की तरह हांफ रहा था जिसे शिकार करने में भरपूर कठिनाई पेश आई हो और अब थकान से भरकर चैन से हांफ रहा हो।

तूफान आने के बाद जैसे शांति छा जाती है, ऐसे थे अब कमरे के हालात।

रत्ना फटी-फटी-सी आंखों से बैड पर पुतले की तरह बैठी थी। उसकी सिर्फ आंखें हिल रही थीं। उसे भंडारे की लाश नजर ना आ रही थी, क्योंकि वो बैड की ओट में थी। वो अब सदाशिव को देखे जा रही थी जो कि मुंह खोले वहशी जानवर की तरह गहरी सांसें ले रहा था। उसे देखे जा रही थी, जो कि घुटनों के बल फर्श पर बैठा था।

तभी रत्ना के शरीर में तीव्र कंपन हुआ। वो ऐसे कांपी जैसे सूखी टहनी को हिलाया जाए तो वो बुरी तरह कांपती है। उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और खरखराते स्वर में बोली---

"त...तु...तुमने भंडारे को मार दिया...।"

सदाशिव ने मुंह खोले हौले से सिर हिला दिया।

"तुमने खून कर दिया।"

"हां, मैंने पहले ही सोच रखा था कि साले को जिंदा नहीं छोडूंगा।" सदाशिव गुर्रा उठा।

"क...क्यों? हमने तो इसे बांधकर...।"

"तेरा प्लान घटिया था। बाद में ये हमें ना छोड़ता। मैंने बहुत सोच-समझकर ऐसा किया है। ढाई दिन बाहर खड़ा मैं यही सोचता रहा कि मौका मिलने पर मैंने कैसे काम करना है।" सदाशिव की आवाज में सख्ती थी और नजरें रत्ना पर थीं...। तू कान खोल कर सुन ले, मैं तेरे साथ कहीं भी जाने वाला नहीं।"

"क...क्या मतलब?" रत्ना का चेहरा अभी भी घबराहट से भरा था। जो अभी हुआ था वो उससे अभी उबर नहीं पाई थी।

"मैं मुंबई छोड़कर कहीं जाने वाला नहीं। फैसला कर लिया है मैंने कि हम पैसे को आधा-आधा बांट लेंगे। तू अपने हिस्से के पैसे का जो भी कर। मुंबई में रह, बाहर जा, मुझे कोई मतलब नहीं। अपने हिस्से के पैसे की मैं फिल्म बनाऊंगा और उसमें हीरो बनकर आऊंगा। मेरा सपना है हीरो बनना। इसी के वास्ते मैं मुंबई आया था। अब मुझे मौका मिला है तो पीछे नहीं हटूंगा। सुना तूने, मैं अपने हिस्से के पैसे की फिल्म बनाऊंगा।" दृढ़ था सदाशिव।

रत्ना टकटकी बांधे उसे देखती रही फिर धीमे स्वर में बोली---

"तू मुझे छोड़ देगा हीरो...।"

"ये तेरे पर है।"

"वो कैसे?"

"तू मेरे साथ मुंबई में रह। हम मिलकर फिल्म बनाएंगे और...।"

"कहीं जाकर शांति से जिंदगी बिताते हैं हीरो। तू सिर्फ मेरा हीरो बनकर...।"

"नहीं, मैं फिल्म बनाऊंगा। बहुत ही शानदार फिल्म। तू चाहे तो फिल्म में हीरोइन बन जाना। तेरे चेहरे में दम है। हीरोइन बन सकती है तू। थोड़ी-सी ट्रेनिंग ले लेना। अगर तेरे को मेरी बात पसंद नहीं तो पैसे को आधा-आधा बांटकर अपने-अपने रास्ते पर चल देना चाहिए।" सदाशिव ने स्पष्ट कहा।

"तू बेईमानी कर रहा है। पहले हममें कुछ और था।"

"लेकिन मैंने तो अपने मन में तय कर ही रखा था कि मैंने फिल्म बनानी है। बाहर कितना पैसा है?"

"एक सौ पचपन करोड़...।"

"अपने हिस्से के पैसे की मैं तीन फिल्में तो बना ही सकता हूं। साली कोई फिल्म तो हिट होगी।" सदाशिव पहली बार मुस्कुराया।

"उसके बाद तू किसी हीरोइन के चक्कर में पड़ गया तो मेरा क्या होगा?" रत्ना बोली।

"ऐसा नहीं होगा।"

"क्या पता।"

"तेरी कसम रत्ना! तू मुझे बहुत अच्छी लगती है। तेरे लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूं पर फिल्म बनाने और हीरो बनने का ख्याल नहीं छोड़ सकता। ये मेरी जिंदगी का सपना है। इसके अलावा तू जो कहेगी मान लूंगा।"

"सच कहता है।"

"ये ही देख ले। तूने जो कहा, मैंने किया। भंडारे की लाश तेरे सामने पड़ी है।" सदाशिव ने गहरी सांस ली--- "अपनी हिम्मत से बढ़कर काम किया है मैंने। तेरी किसी बात से मैंने मना नहीं किया। पर फिल्म तो मैंने हर हाल में बनानी ही है, मैं...।"

"ठीक है हीरो! मानी तेरी ये बात।" रत्ना ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "किसी और के चक्कर में पड़कर मेरे को छोड़ना नहीं।"

"तू तो मेरी जान है।" सदाशिव खुलकर मुस्कुरा पड़ा--- "चल मेरे को नोट दिखा।"

"नीचे वैन में डिब्बों में पड़े हैं।"

"तू साथ चल, दिखा मुझे...।" सदाशिव खड़ा होते कह उठा।

रत्ना बैड से उतरी तो टांगों में थकान-सी पाई। अभी तक बीते पलों से बाहर नहीं निकल पाई थी। घबराहट अभी भी उस पर सवार थी। ऐसा ही हाल सदाशिव का था। वो अभी भी बीते वक्त से डरा हुआ था। वो डर रहा था तब कि पता नहीं उसका वार सही पड़ेगा या नहीं? कहीं भंडारे उसे ही ना मार दे। ये तो वही जानता था कि उसने कितनी हिम्मत का काम किया है भंडारे से निपटकर।

रत्ना दरवाजे की तरफ बढ़ी। भंडारे की लाश से नजरों को बचा कर रखा।

"एक नजर इसका भी हाल देख ले।" सदाशिव कह उठा।

"वो सिर्फ मेरी मजबूरी रहा। कभी पसंद नहीं आया मुझे...।" रत्ना ने गंभीर स्वर में कहा और बाहर निकल गई।

"और मैं।" सदाशिव भी उसके पीछे बाहर निकला--- "मैं तो पसंद हूं ना?"

"बहुत। तू तो मेरा सच्चा हीरो है। मैं तेरे को दिल से प्यार करती हूं।" रत्ना ने गहरी सांस ली।

दोनों नीचे वाली सीढ़ियों की तरफ बढ़ गये थे।

"मैं भी तेरे को बहुत पसंद करता हूं रत्ना। दिल से तुझे चाहता हूं। तूने सोचा है कि अगर भंडारी मेरे बस में नहीं आता तो वो मुझे मार देता। अब मेरी लाश कमरे में पड़ी होती।"

"बुरी बात होंठों पर मत ला। सिर्फ ये सोच कि तू सलामत है और भंडारे मारा गया।" रत्ना ने गंभीर स्वर में कहा।

दोनों सीढ़ियों से नीचे उतरे।

गैराज में भरपूर सन्नाटा छाया हुआ था। उनके कदमों की आहटें ही गूंज रही थीं।

"यहां अंधेरा है।" सदाशिव बोला।

"उधर टॉर्च रखी है।"

रत्ना ने टॉर्च उठाई। वैन के पास पहुंचे।

"मैंने भंडारे की रिवाल्वर से गोलियां निकाली थीं। एक गोली नीचे गिरी रह गई। वो भंडारे को मिल गई थी।"

"हां। तब मैं कमरे के बाहर ही खड़ा था और सब बातें सुन रहा था। तब तूने भी बहुत हिम्मत से काम लिया था।"

दोनों वैन के पीछे दरवाजे के पास खड़े थे।

"दोनों पल्ले खोल। भीतर पड़े डिब्बों में 155 करोड़ की दौलत पड़ी है।" रत्ना बोली।

सदाशिव ने वैन के पीछे के दरवाजे के दोनों पल्ले खोले।

रत्ना ने टॉर्च की रोशनी भीतर डाली। डिब्बे चमक रहे थे।

सदाशिव वैन के भीतर जा पहुंचा और डिब्बों को खोल-खोलकर देखने लगा। फिर हंसा।

"बहुत माल है रत्ना!" आवाज में खुशी नाच रही थी--- "साली ऐसी टॉप की फिल्म बनाऊंगा कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री को हिलाकर रख दूंगा। एक ही फिल्म में टॉप का हीरो ना बन गया तो कहना।"

"अब ये सोच करना क्या है?"

सदाशिव ने डिब्बे बंद किए और कूदकर वैन से नीचे आ गया।

रत्ना के हाथ में दबी टॉर्च रोशन थी।

"क्या पूछा तूने?"

"करना क्या है हीरो! यहां पर हम ज्यादा देर नहीं रह सकते। हमारे पास नोट बहुत हैं। हमें कोई ऐसा ठिकाना चाहिए जहां हम बेखौफ होकर नोटों के साथ रह सकें। ऐसी जगह हमें जल्दी ही ढूंढनी होगी।" रत्ना ने कहा।

"एक-दो दिन में मैं कोई इंतजाम कर लूंगा।"

"तब तक यहीं रहेंगे?" रत्ना ने पूछा।

"क्या हर्ज है। दो दिन और यहां रहने में हमें कोई परेशानी नहीं आएगी। मैं कल सुबह ही जगह तलाश करने निकल जाऊंगा और वो तेरा फ्लैट तो है ही। वो भी ठीक रहेगा...।"

"नहीं हीरो! वहां रहना ठीक नहीं। देवराज चौहान उस जगह के बारे में जानता है। वागले रमाकांत भी मेरे बारे में जान चुका है। उस फ्लैट को भूल जा। कोई और जगह ही...।"

"चिंता मत कर मैं कल ही कोई जगह ढूंढ...।"

"हीरो...!" रत्ना के होंठों से फटी-फटी आवाज निकली--- "व...वो कौन है?"

"कौन... किधर?" सदाशिव ने चौंककर गर्दन घुमाई।

मात्र दस कदमों के फासले पर अंधेरे में कोई खड़ा था।

"भंडारे मरा नहीं, जिंदा है। वो बेहोश हुआ था।" रत्ना चीखी--- "वो... वो उठकर आ गया है।" बदहवास-सी रत्ना पीछे हटने लगी।

सदाशिव की भी टांगें कांप उठीं।

रत्ना के हाथ में टॉर्च दबी थी, परन्तु हाथ खौफ के मारे नीचे लटक रहा था।

सदाशिव ने घबराए अंदाज में रत्ना के हाथ से टॉर्च ली और उसकी रोशनी उस पर डाली।

वो देवराज चौहान था।

हाथ में रिवाल्वर थाम रखी थी जिसका रुख उनकी तरफ था। चेहरे पर सख्ती थी।

"कौन हो तुम?" सदाशिव के स्वर में घबराहट भी थी और गुस्सा भी।

टॉर्च की रोशनी में चमकते देवराज चौहान को देखकर रत्ना के मस्तिष्क को झटका लगा। वो ठिठककर रह गई। भंडारे के जीवित होने की सोचकर जो डर उसके दिलो-दिमाग पर छाया था, वो गायब हो गया।

"ये देवराज चौहान है।" रत्ना के होंठों से तेज स्वर निकला।

देवराज चौहान की सख्त निगाह दोनों पर थी।

"देवराज चौहान?" सदाशिव चौंका--- "जिसके बारे में तूने बताया था कि वो डकैती मास्टर है।"

"वो ही।"

"ये यहां क्या कर रहा है?" सदाशिव के दांत भिंचने लगे।

रत्ना सदाशिव के पास आ गई थी।

सदाशिव की निगाह पूरे गैराज में घूमी, फिर देवराज चौहान से बोला---

"कितने आदमी हैं तेरे साथ?"

"एक भी नहीं।"

"अकेला आया नहीं हो सकता तू। तू इतना बहादुर नहीं लगता कि...।"

"मेरे साथ ये है।" देवराज चौहान ने हाथ में पकड़ी रिवाल्वर को हिलाया--- "भंडारे को मार दिया?"

"पक्की तरह, अब तू भी मरेगा।" सदाशिव गुर्रा उठा।

"लाश ऊपर के कमरे में है ना?"

"तेरे को कैसे पता?"

"मैंने यहां से तेरे को उस पर लोहे के डंडे से वार करते देखा था।" देवराज चौहान बोला।

"यहां कैसे आ गया तू?"

"मैं तो तब से ही यहां हूं जब भंडारे रत्ना को लेकर यहां आया था।" देवराज चौहान ने रत्ना पर निगाह मारी--- "तब मैं रत्ना के घर के बाहर था, भंडारे मुझे नहीं देख सका।"

"और जिसे भंडारे ने घायल किया वो...?" रत्ना ने कहना चाहा।

"वो वागले रमाकांत का आदमी था।" देवराज चौहान बोला।

रत्ना ने गहरी सांस ली और कहा---

"तो तुम दो दिन से बाहर खड़े क्या करते रहे?"

"तुम्हारा खेल देखना चाहता था जो तुमने इसके साथ मिलकर अब खेला। ये भी बाहर था और मैं तुम्हें पहले इसके साथ मिलते उस रेस्टोरेंट में देख चुका था। ऐसे में मैं समझ गया इसके बाहर होने का खास ही मतलब है। जो मतलब मैं समझ रहा था वही मतलब सामने आया।"

"अब क्या चाहता है तू?" सदाशिव गुर्रा उठा।

"ये पैसा वागले रमाकांत का है।" देवराज चौहान बोला--- "मैं उसके लिए इस पैसे को ढूंढ रहा था।"

"अब ये हमारा है।"

"तुम दोनों का तो ये पैसा कभी भी नहीं था।" देवराज चौहान का स्वर सख्त हो गया, फिर रत्ना से कहा--- "बाबू भाई वागले रमाकांत के पास है। मैं नहीं जानता कि उसे मार दिया है या वो जिंदा है। जिंदा है तो उसे मार दिया जाएगा। कृष्णा पाण्डे, मोहन्ती, जैकब कैंडी को वागले रमाकांत ने ढूंढ कर मार दिया है।"

रत्ना के होंठों से गहरी सांस निकली।

"जो भी गलत इरादे से इस पैसे के पास आया, वागले रमाकांत ने उसे नहीं छोड़ा। अभी तक उसे तुम दोनों का पता नहीं है। पता लगते ही वो तुम दोनों को भी खत्म कर देगा। मैं तुम लोगों को अपनी जिंदगी बचाने का मौका दे रहा हूं। नोट यहीं छोड़ो और चुपचाप यहां से खिसक जाओ। तुम दोनों के बारे में मैं वागले रमाकांत को नहीं बताऊंगा।"

"ये नोट हमारे हैं। मैंने बहुत मेहनत करके भंडारे को नोट पाने के वास्ते मारा।" सदाशिव दांत किटकिटा उठा--- "तू हमें डराना चाहता है। चुपचाप चला जा यहां से, वरना...।"

"मेरे हाथ में रिवाल्वर देख रहा...।"

तभी सदाशिव ने हाथ में पकड़ी टॉर्च जोरों से देवराज चौहान पर फेंकी और खुद भी पागलों की तरह देवराज चौहान की तरफ दौड़ पड़ा।

"नहीं हीरो, रुक जा...।" रत्ना चीखी।

टॉर्च देवराज चौहान की छाती पर जा लगी थी।

उससे संभलने के लिए देवराज चौहान को दो पल लगे। उसी क्षण सदाशिव 'धाड़' से उससे आ टकराया। देवराज चौहान संभल ना सका। उसके पांव उखड़े और वो कूल्हों के बल पीछे को जा गिरा। परन्तु रिवाल्वर हाथ में ही रही। इससे पहले कि वो संभलता, सदाशिव उसके ऊपर आ गिरा।

"कमीने, कुत्ते मैं तुझे भी मार दूंगा।" सदाशिव उसके सिर के बाल पकड़े गुस्से से खींचता बोला--- "रत्ना।" वो चीखा--- "लोहे की रॉड, पाइप कुछ भी लाकर दे मुझे। इस हरामी का भी काम तमाम करता हूं।"

"इसके पास रिवाल्वर है।" रत्ना चीखी।

सदाशिव को रिवाल्वर का ध्यान आया।

तब तक देवराज चौहान अपने ऊपर बैठे सदाशिव के पेट से रिवाल्वर की नाल सटा चुका था।

सदाशिव थम-सा गया।

"हट पीछे।" देवराज चौहान गुर्राया--- "वरना मैं गोली चलाने जा रहा हूं।

सिटपटाया-सा सदाशिव ठगा-सा वहीं बैठा रहा। वो समझ नहीं पाया कि क्या करे।

"मारूं गोली?" देवराज चौहान की आवाज में बेहद सख्ती आ गई।

"न...नहीं...। मैं उठ रहा हूं।" सदाशिव ने जल्दी से कहा और उसके ऊपर से उठ खड़ा हुआ।

देवराज चौहान ने उठना चाहा कि तभी सदाशिव के जूते की ठोकर देवराज चौहान के रिवॉल्वर वाले हाथ पर पड़ी तो रिवाल्वर हाथ से निकल अंधेरे में खड़ी एंबूलेंस की तरफ सरकती चली गई।

दांत भींचे देवराज चौहान ने उसी पल सदाशिव की दोनों टांगों को पकड़कर झटका दिया।

सदाशिव 'धड़ाम' से नीचे जा गिरा।

देवराज चौहान फुर्ती से उठा। तब तक सदाशिव भी किसी तरह खड़ा हो गया था।

"रत्ना!" सदाशिव देवराज चौहान पर झपटते कह उठा--- "इस रिवॉल्वर को मुझे दो। मैं इसका भी काम खत्म करता...।"

देवराज चौहान और सदाशिव फिर टकरा गए।

रत्ना जो हक्की-बक्की खड़ी थी, उसने रिवाल्वर को एंबूलेंस की तरफ जाते देखा था। टॉर्च का तो कहीं पर पता नहीं था, वो रिवाल्वर लेने के लिए अंधेरे में ही एंबूलेंस की तरफ भागी।

तभी देवराज चौहान ने जोरों का घूंसा सदाशिव के पेट में मारा।

तेज चीख के साथ सदाशिव दोहरा होता चला गया।

देवराज चौहान ने नीचे झुके सदाशिव के सिर के बाल पकड़े और घुटने का जोरदार वार उसके चेहरे पर किया। सदाशिव गला फाड़कर चीखा और पीछे को जा गिरा। इस बार देवराज चौहान नहीं रुका और पास पहुंचकर जूते की जोरदार ठोकर उसकी कमर पर मारी।

सदाशिव पुनः तेज चीख के साथ छटपटा उठा।

देवराज चौहान ने उसकी कमर में ऐसी ही दो-तीन ठोकरें मारी तो सदाशिव पस्त होने लगा। वो फर्श पर पड़ा दोहरा हुआ कराह रहा था। देवराज चौहान ने उसकी कमीज पकड़कर उसे किसी प्रकार खड़ा किया और चेहरे पर जोरों का घूंसा मारा तो वो चीख के साथ नीचे जा गिरा। अब वो लगातार कराहे जा रहा था।

देवराज चौहान फिर उसके पास पहुंचा तो वो पीड़ा भरे स्वर में कह उठा---

"बस करो। इतना क्यों मार रहे हो मुझे?"

"दौलत का भूत उतर गया?" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

"मत मारो, मैं मार नहीं सह सकता। मैं तो मुंबई हीरो बनने आया था।" सदाशिव कराहता हुआ कह उठा--- "गलत चक्कर में फंस गया मैं। मुझे नहीं चाहिए पैसा। तुम ले लो। किसी को भी दे दो, मैं...।"

तभी रत्ना तेजी से दौड़ी पास आई।

"ये लो रिवाल्वर...।"

देवराज चौहान ने खतरनाक निगाहों से रत्ना को देखा।

अंधेरे में रत्ना समझ नहीं पाई कि कौन नीचे गिरा है और कौन खड़ा है।

"रिवाल्वर ले आई।" नीचे पड़े सदाशिव में जैसे जान आ गई--- "गोली मार दे इसे, जल्दी से इसकी तरफ नाल करके गोली चला दे। तेरे हीरो का चेहरा बिगाड़ दिया है इसने। जल्दी चला...।"

तभी देवराज चौहान के जूते की ठोकर उसके चेहरे पर पड़ी।

सदाशिव चीखकर तड़प उठा।

"रिवाल्वर मुझे दो।" देवराज चौहान दांत भींचे गुर्राया।

रत्ना ने जल्दी से रिवाल्वर उसे दे दी।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर जेब में रखी और जेब से मोबाइल निकालकर नंबर मिलाने लगा।

"हीरो, कैसा है तू?" रत्ना नीचे झुककर सदाशिव को संभालते कह उठी।

"मर गया तेरा हीरो! बहुत बुरा मारता है ये। तूने गोली क्यों नहीं चलाई इस पर...।"

"किसी की जान लेने की सोच कर ही मेरे हाथ-पांव कांप जाते...।"

"मैं तो तेरे को बहुत बहादुर समझता...।"

"बहुत बहादुर हूं मैं।" रत्ना गंभीर स्वर में बोली--- "पर किसी की जान लेने वाली बहादुर नहीं।"

बात होते ही देवराज चौहान के कानों में वागले रमाकांत की नींद से भरी आवाज पड़ी।

"बोल देवराज चौहान!"

"मैं तेरे को एक गैराज का पता बता रहा हूं जगमोहन को लेकर फौरन आ जा।"

"तो नोट मिल गये तेरे को?"

"हां। जगमोहन को लेकर आना...।"

"लोहरा को भेजता...।"

"मेरा सौदा तेरे साथ हुआ था। तेरे को ही जगमोहन को लेकर आना होगा।" देवराज चौहान ने कहा।

"इतनी रात को तू मेरे को तकलीफ देगा। ठीक है, आता हूं। पता बोल...।"

देवराज चौहान ने इस जगह का पता बताया।

"एक घंटे में जगमोहन को लेकर मैं पहुंचा उधर।" उधर से वागले रमाकांत ने कहा और फोन बंद हो गया।

देवराज चौहान ने फोन बंद किया और रत्ना से बोला---

"भंडारे जिस आदमी से वैन लाया था उसे बोरी में भरकर क्या दिया था?"

"प...पांच करोड़ रुपए।" रत्ना जल्दी से कह उठी।

"वो कौन था?"

"शिंदे कहां रहता है?"

रत्ना ने उसके गैराज का पता बताया।

"ठीक है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैंने वागले रमाकांत को फोन कर दिया है। वो एक घंटे में अपने आदमियों के साथ यहां आ जाएगा। तुम दोनों सोच लो उसके हाथों मरना चाहते हो या यहां से जाकर अपनी जान बचाना चाहते हो। मैं तुम दोनों को जान बचाने का मौका दे रहा हूं।" कहने के साथ देवराज चौहान नोटों से भरी वैन की तरफ बढ़ गया। दरवाजा खुला था। पल्ला पकड़कर वैन के भीतर प्रवेश कर गया और डिब्बों में पड़े नोटों को चैक करने लगा। जब तक वागले रमाकांत यहां नहीं आ जाता, नोटों को संभाले रखना उसकी जिम्मेवारी थी।

"आह...!" सदाशिव कराहा--- "सारा जिस्म दर्द कर रहा है।"

"यहां से निकल चल। वागले रमाकांत आने वाला है।" रत्ना गंभीर स्वर में बोली।

"नोटों को छोड़कर जाना है।"

"वो देवराज चौहान डकैती मास्टर है। भंडारे भी उससे डरता था। अभी तक तो वो हम पर रहम खा रहा है। उसका दिमाग फिर गया तो गोली मार देगा। बहुत खतरनाक है वो...।"

"अब हमारा क्या होगा। इतना कुछ करके भी हाथ कुछ नहीं...।"

"देख हीरो! तेरी फिल्म बनाने के लिए तो पैसा नहीं है, पर जिंदगी भर की रोटी-पानी का जुगाड़ है अगर आराम से बैठकर मक्खन-पनीर, नान खाने हो तो...।" रत्ना ने कहा।

"किस जुगाड़ की बात कर रही है तू?"

"भंडारे का 24 करोड़ मुझे पता है वो कहां पड़ा है। वो तो हमारा है ही, पर तेरे को अपने दिमाग से फिल्में निकालनी होंगी और मुंबई से हमेशा के लिए निकल चलना होगा। नहीं तो तेरी-मेरी नमस्ते।"

सदाशिव ने गहरी सांस ली फिर बोला---

"मक्खन, पनीर, नान के साथ वो सब भी होगा ना?"

"क्या वो सब?"

"वही, वो... वो तेरा प्यार...वो...।"

"मुझसे शादी करेगा तो वो भी होगा।" रत्ना मुस्कुरा पड़ी--- "तेरे को अच्छा पति बनकर दिखाना पड़ेगा।"

"अच्छा पति नहीं, तेरा अच्छा हीरो बनकर दिखाऊंगा।" सदाशिव ये सोचकर खुश था कि 24 करोड़ तो हैं ही।

"चल चलें।"

रत्ना ने सहारा देकर सदाशिव को उठाया।

तब तक देवराज चौहान भी वैन से बाहर कूद आया था।

"हम जा रहे हैं।" रत्ना ने कहा।

"इस पैसे में से और कहां-कहां खर्च किया?" देवराज चौहान ने पूछा।

"कुछ भी खर्च नहीं किया। बस पांच करोड़ शिंदे को दिया है।" रत्ना कह उठी।

■■■

वागले रमाकांत चालीस मिनट में ही उदय लोहरा और पन्द्रह आदमियों के साथ वहां आ पहुंचा। साथ में जगमोहन भी था जो कि वहां खड़ी एंबूलेंस को देखकर चौंका और उसकी तरफ बढ़ गया।

वागले रमाकांत ने मुस्कुराते हुए देवराज चौहान से हाथ मिलाया।

"तुमने अपना वादा पूरा कर दिखाया। मेरा और मेरे आदमियों का वक्त बचा लिया।" वागले रमाकांत बोला।

"तुमने भी तो जगमोहन की तलाश करके अपना वादा पूरा किया। और सफेद वैन में एक सौ पचपन करोड़ रुपया मौजूद है।"

वागले रमाकांत ने लोहरा को इशारा किया तो वे वैन की तरफ बढ़ गए।

तब तक जगमोहन भी एंबूलेंस को खाली पाकर वैन तक आ गया था।

"तुमने कहा एक सौ पचपन करोड़। जबकि ये एक सौ साठ करोड़ होना चाहिए।" वागले रमाकांत ने कहा।

"पांच करोड़ भंडारे ने शिंदे नाम के आदमी को दिया, जिसने उसके लिए इस सफेद वैन का इंतजाम किया। शिंदे गैराज चलाता है। उससे पांच करोड़ वापस ले सकते हो।" देवराज चौहान ने शिंदे के गैराज का पता बताया।

"भंडारे कहां है?" वागले रमाकांत गंभीर हुआ।

"उसकी लाश ऊपर, उस कमरे में पड़ी है।" ऊपर रेलिंग पर कमरे के खुले दरवाजे को देखते देवराज चौहान ने कहा।

"रत्ना कहां है और वो जो बाहर रहकर यहां पर नजर रख रहा था, जिसके बारे में तुमने बताया था।"

"तुम्हें अपना पैसा मिल गया?" देवराज चौहान बोला।

"हां...।"

"तो रत्ना और उस लड़के को भूल जाओ। वो कहीं दिखे भी तो उन्हें कुछ मत कहना। हमारा मतलब भंडारे से था, वो मारा गया। तुम्हें पैसा मिल गया और मुझे जगमोहन। अगर मुझे पता चल जाता कि तुम्हारे पैसे पर हाथ डाला जा रहा है तो मैंने कभी इस मामले में नहीं आना था, परन्तु बाबू भाई ने ये कहकर मुझे इस भ्रम में रखा कि पैसा किसी विक्रम मदावत का है। बाबू भाई का तुमने क्या किया?" एकाएक देवराज चौहान ने पूछा।

"कुछ भी नहीं किया।" वागले रमाकांत ने सिर हिलाया।

"रात खाना खाते समय उसे दिल का दौरा पड़ गया। बूढ़ा तो था ही।"

"मर गया?"

"हां...।"

तभी उदय लोहरा पास पहुंचकर वागले रमाकांत से बोला---

"वागले साहब। एक डिब्बे में कुछ नोट कम हैं।"

"पांच करोड़ किसी को दिए हैं भंडारे ने। मैं तुम्हें उसका पता बता दूंगा अभी आदमी भेजकर उससे वसूल कर लेना।"

लोहरा ने सिर हिलाया तो देवराज चौहान कह उठा---

"मैं जगमोहन के साथ यहां से जा रहा हूं वागले रामाकांत...!"

"जरूर।" वागले रमाकांत मुस्कुराया--- "मैं तुमसे खुश हूं कि तुमने...।"

"ये काम मैंने तुम्हारे लिए नहीं अपने लिए किया है।" देवराज चौहान ने कहा और वैन के पास खड़े जगमोहन के पास पहुंचा--- "चलो।"

"लेकिन ये पैसा...।" जगमोहन ने कहना चाहा।

"ये हमारा नहीं वागले रमाकांत का...।"

"वो तो मुझे सब पता चल चुका है परन्तु इसमें से कुछ पर तो हमारा हक बनता...।" जगमोहन ने कहना चाहा।

"यहां से चलो...।" देवराज चौहान बाहर की तरफ बढ़ गया।

जगमोहन उसके पीछे चलता कह उठा---

"तुम सारा पैसा वागले रमाकांत को देकर जा रहे हो। उससे बात करो, कुछ तो हम ले सकते हैं। हमारा हक बनता...।"

"हक की बात मत करो।" गैराज से बाहर निकलते देवराज चौहान ने कहा--- "उस पर वागले रमाकांत का ही हक बनता है। मैंने कठिनता से ये मामला निपटाया है, अब पीछे पलटकर मत देखो।"

"हमने जो इतनी भागदौड़ की, उसका क्या, वो...।"

"हमें शुरू से ही बाबू भाई ने धोखा दिया। उसी धोखे की वजह से हमारी मेहनत, भागदौड़ मिट्टी में मिल गई। लेकिन इतनी तसल्ली है कि वाग रमाकांत से झगड़ा होते-होते बच गया। नहीं तो मामला बहुत लंबा खिंच जाता।"

देवराज चौहान ने गहरी सांस लेकर कहा और मुस्कुरा पड़ा।

"और भंडारे?"

"मारा गया।"

"तुमने मारा?"

"नहीं, मैंने नहीं मारा। फिर बताऊंगा वो कैसे मरा। अब मैं बंगले पर पहुंचकर आराम करना चाहता हूं।"

"तुम्हें आराम की पड़ी है और उधर वागले रमाकांत नोट गिन रहा होगा।" जगमोहन ने मुंह बनाया।

"वो अपना ही माल गिन रहा होगा।"

"हमारे हाथ तो कुछ ना आया।" जगमोहन झल्लाकर कह उठा।

समाप्त