रात के तीन बजे तक, देवराज चौहान, रंजन तिवारी बुझे सिंह के घर की तलाशी लेते रहे। बुझे सिंह में सच्चे मन से उनकी सहायता कर रहा था।
अमृतलाल और चंद्रकांता कब के कमरे मे बंद हो चुके थे।
आखिरकार रंजन तिवारी देवराज चौहान से कह उठा।
“हीरे तो घर मे नहीं है।”
“मैं तो पहले ही कहा था।” देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।
“मैं अपनी तसल्ली करना चाहता हूँ -।”
बुझे सिंह कह उठा।
“करो जी करो। अपनी तसल्ली करो। रात को खराब कर दी मेरी। अब और हुक्म करो।”
“टैंपो को देखना है।”
“देखो। मैंने कब मना किया है। टूल-बॉक्स है वहां। जो जो भी नट-बोल्ट कहोगे, खोल दूँगा। ऐसी तसल्ली कर लो – पराजी (भाई साहब) कि दोबारा कभी मत आना। राह चलते मिलमिला गए जीजाजी से तो शगुन डालने के अलावा और कोई बात ही मत करना।
हद हो गई। हीरे हमे मिले होते तो कसम से कुछ हम रख लेते, कुछ आपको दे देते। दोनों की गाड़ी चल जाती। जब हीरे है ही नहीं हमारे पास तो बताओ कां से पैदा कर दू-। चलो टैंपो के पास।”
रंजन तिवारी ने देवराज चौहान को देखा।
“टैंपो मे हीरे नहीं है। मैं तसल्ली कर चुका हूँ। तुम अपनी कर लो।” देवराज चौहान ने कहा –”तब तक मैं बाहर बिछी चारपाई पर बैठा हूँ।”
“बैठो जी, बैठो। आराम करो। मैं इनकी तसल्ली भी करा देता हूँ। चलो जी, टैंपो के पास चलते है।”
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भोर का उजाला फैल गया। सुबह के पाँच बज गए।
आंगन मे चारपाई पर नींद मे डूबे देवराज चौहान को रंजन तिवारी ने उठाया।
“करा दी जी, इनकी तसल्ली।” बुझे सिंह थके स्वरे मे कह उठा –”ये मेरे नींद से उठने का वक़्त होता है और अब बिना सोये ही नींद से उठ गया। बज गये सुबह के पांच-।”
देवराज चौहान ने रंजन तिवारी के थके चेहरे को देखा।
“यहां नहीं है हीरे- “ तिवारी ने कहा।
“मैंने तो पहले ही कहा था। मेरी बात मानता कौन है।” बुझे सिंह गहरी सांस लेकर कह उठा।
“चलो-।” देवराज चौहान उठता हुआ बोला- “वापस मुंबई चलते है।”
“ओमवीर-।” रंजन तिवारी होंठ भींचकर कह उठा- “ अब हीरे सिर्फ उसके पास ही हो सकते है।”
दोनों ने हाथ-मुंह धोये। जब चलने लगे तो बुझे सिंह कह उठा।
“जो हुआ, बाकी सब तो ठीक है। लेकिन आपने मेरी बहन और जीजाजी को ब्याह का शगुन नहीं दिया। वो तो कमरे मे बंद सो रहे है। नौ बजे से पहले क्या उठेंगे। इतनी देर आप लोग भी कहां इंतजार करेंगे, उनके उठने का। जो भी सौ-पचास देना है, मुझे दे दो। मैं उन्हे दे दूँगा।”
“दस हजार कहां है ?” देवराज चौहान मुस्कुराया।
“वो तो जीजाजी ने रख लिए थे।”
“वो दस हजार, ब्याह का शगुन ही था।”
“लेकिन पराजी(भाई-साहब) तब तो उनका ब्याह भी नहीं हुआ था।” बुझे सिंह बोला।
“मैंने एडवांस मे शगुन दे दिया था।” देवराज चौहान ने मुस्कुरा कर कहा और गेट की तरफ बढ़ गया।
“वा-पई-वा! एडवांस मे शगुन। कमाल वे! ग्रहो ने साब जी को पैले ही इशारा कर दिया होगा की ब्याह होने वाला है। ये ई बात होगी।” बुझे सिंह बड़बड़ाया फिर रंजन तिवारी से कह उठा- “तुसी ते एडवांस मे शगुन नहीं दिया। तुसी ही सौ-पचास दे दो।”
रंजन तिवारी बिना कुछ कहे, आगे बढ़ गया।
“इन साब ने तो जवाब नहीं दिया। शगुन क्या देंगे। ये तो पक्का सरकारी आदमी होंगे। चल्लो जी ठीक वे। भूतो से जान छूटी। सारे बुरे गृह टल गये, आज सुबह सुबह। पर मजा आ गया। मेरी बहन दा ब्याह हो गया। टैंपो वाले के साथ। अब तो जीजाजी मुझे भी टैंपो चलाना सीखा देंगे। जीजाजी ने सिखाने से इंकार किया तो, मैं चंद्रकांता की सिफ़ारिश लगवा दूंगा। फिर तो सिखाना ही पड़ेगा।”
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मुंबई पहुंचकर देवराज चौहान ने सबसे पहले नर्सिंग होम जाकर सोहनलाल का हाल मालूम किया। वो ठीक था। चौबीस घंटे निकाल चुका था, परंतु उसे होश नहीं आया था। डॉक्टर के मुताबिक अब वो खतरे से बाहर था। प्रीतम वर्मा उसकी देखभाल मे कमी नहीं होने दे रहा था।
उसके बाद देवराज चौहान जगमोहन से मिला। तिवारी साथ ही था।
जगमोहन की हालत पहले से बेहतर होती जा रही थी। चूंकि वह व्यस्त था। इसलिए देवराज चौहान ने उसे कहा कि, अभी वो यहीं रहे। यहां उसकी देखभाल ठीक होती रहेगी। जगमोहन के पूछने पर, देवराज चौहान ने उसे सोहनलाल का हाल बताया। सुनकर जगमोहन ने राहत की सांस ली। हीरे अभी तक न मिलने की खबर पाकर वो व्याकुल हो उठा था। उसके ख्याल से हीरो को मिलने मे जितनी देर हो रही है, ऐसे मे हीरे उनसे उतने ही दूर होते जा रहे है। अब तक हीरे मिल जाने चाहिए थे।
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दोनों कार मे बैठे। देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी।
“मेरे ख्याल मे-।” रंजन तिवारी कह उठा –”अमृतपाल और बुझे सिंह सिरे से ही निर्दोष है।”
“बहुत देर बाद विश्वास आया -?” देवराज चौहान का स्वर शांत था।
“कुछ भी कह लो।” रंजन तिवारी बोला –”हीरे उसके पास है, जो हम लोगो की जान के पीछे पड़ा हुआ है। जब नानकचंद की हत्या की गई, अमृतपाल और बुझेसिंह मेरी निगाहों के सामने थे। उनका इस मामले से कोई वास्ता नहीं। अगर वास्ता होता तो, नानकचंद की हत्या के पश्चात वे फौरन टैंपो लेकर भाग जाते। क्यूकि वो जानते थे कि तब तुम, वहां किसी भी वक़्त पहुंच सकते हो।”
देवराज चौहान खामोश रहा।
“मैं-।” एकाएक रंजन तिवारी के होंठ भिंच गये –”दावे के साथ कह सकता हूं कि हीरे कांस्टेबल ओमवीर के पास है।” जगमोहन को टैंपो के साथ गिरफ्तार किया गया और कुछ घंटो बाद टैंपो अमृतपाल के हवाले किया गया, इन घंटो के दरम्यान टैंपो पूरी तरह ओमवीर के हवाले था। और उसे जाने कैसे मालूम हो गया कि टैंपो की स्टेपनी मे हीरे है। शायद उसे हीरे निकालने का मौका नहीं मिल पाया होगा तो, जल्दबाज़ी मे कहीं से उसने दूसरी स्टेपनी लेकर स्टेपनी ही बदल ली। और उसके बाद मे आराम से हीरे निकाल लिए होंगे। मैं ओमवीर को अच्छी तरह जानता हूं। दौलत के लिए वो कुछ भी कर सकता है।”
देवराज चौहान का चेहरा शांत किन्तु सख्ती लिए हुये था।
“तुम कुछ कह नहीं रहे।” रंजन तिवारी कह उठा।
“तुम हीरो के बारे मे सोच रहे हो-।” देवराज चौहान ने शब्दो को चबाकर कहा –” और मैं उसके बारे मे सोच रहा हूं जो कि चाकू के वार करता हुआ हमारी जान ले लेना चाहता है। जगमोहन को खत्म करने की उसने पूरी कोशिश की। सोहनलाल की जान लेने मे उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। केसरिया, भटनागर और नानकचंद को मारने मे कामयाब रहा। पहले मुझे उसकी जरूरत है, उसके बाद हीरो की।”
“वो ओमवीर ही है। वहीं तो मैं कह रहा हूं।” तिवारी कह उठा।
तभी देवराज चौहान ने सड़क के किनारे कार रोक दी।
रंजन तिवारी ने बाहर देखा तो चेहरा कठोर हो गया।
सामने चूना भट्टी का पुलिस स्टेशन था।
“जाओ।” देवराज चौहान ने भींचे होंठो से कहा –”ओमवीर को ले आओ।”
तिवारी बिना कुछ कहे नीचे उतरा और पुलिस स्टेशन की तरफ बढ़ गया।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
दस मिनट के बाद रंजन तिवारी लौटा। साथ मे ओमवीर नहीं था।
“ओमवीर आज छुट्टी पर है।” कार मे बैठते हुये रंजन तिवारी बोला।
“मालूम किया, कहां मिलेगा ?”
“हां। हवलदार सुच्चा राम से बात हुई है। उसने बताया कि आज उसकी बीवी का जन्मदिन है। जन्मदिन मना रहा है ठोंक-बजाकर। कहीं साड़ियाँ-वाड़ियाँ खरीद रहा होगा। दोनों पड़ोसी है, शायद दोनों मे लगती भी है।”
देवराज चौहान कार स्टार्ट करते हुये बोला।
“कहां रहता है ओमवीर।”
पुलिस कालोनी मे क्वार्टर मिला हुआ है। मैंने देखा हुआ है। चलो रास्ता बताता हूं।”
देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी।
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ओमवीर घर नहीं मिला। दोनों दूर रहकर उसकी वापसी का इंतजार करने लगे।
दोपहर के तीन बजे ओमवीर टू-व्हीलर पर लौटा। साथ मे उसकी पत्नी बैठी थी और साथ साथ चल रहा था, सामान ढोने वाला रिक्शा। जिस पर वीडियोकॉन की वशीन मशीन रखी थी।
देवराज चौहान और रंजन तिवारी की निगाह उस पर पड़ी।
“मैं उसे लेकर आता ......।” रंजन तिवारी ने कहना चाहा।
“अभी नहीं।” देवराज चौहान ने टोका –” इस वक़्त कईयो की निगाह उस पर होगी। ये पुलिस डिपार्टमेंट के क्वार्टर है। जल्दबाज़ी मत करो। उसे फुर्सत पा लेने दो।
“साला वॉशिंग मशीन लेकर आया है। एक-आध हीरा बेच दिया होगा।” तिवाड़ी कडवे स्वर मे बोला।
दोनों वहीं खड़े कांस्टेबल ओमवीर को देखते रहे।
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“सरला --।” सुच्चा राम की पत्नी ने अपना दरवाजा खोला तो वीडियोकॉन की वॉशिंग मशीन देखते ही आंखे फैलाकर कह उठी –”वॉशिंग मशीन आई है। कितने की आई है।”
ओमवीर रिक्शे वाले के साथ वॉशिंग मशीन उठाकर भीतर ले जा रहा था।
“मैं नहीं जानती। इन्होने पैसे दिये है। मेरे जन्मदिन का तौहफा है।” सरला मुसकराकर बोली।
“जन्मदिन तो मेरे भी बहुत आये-गये। मुझे तो किसी ने चिम्मच भी नहीं दिया।” वो चुबते स्वर मे कह उठी।
“देख ले। मेरे आदमी ने तो मुझे वॉशिंग मशीन दी है।” सरला इठलाकर बोली।
“ये साड़ी बहुत खूबसूरत है। कीमती भी लग रही है। नई है क्या ?”
“कल ही तो ये लाये है।”
सुच्चा राम की पत्नी के चेहरे पर तीखापन स्पष्ट नजर आने लगा।
ओमवीर मशीन के साथ घर मे जा चुका था।
“एक बात तो बता सरला-।”
“बोल बहन-।”
“मेरा आदमी हवलदार। तेरा आदमी कांस्टेबल। मेरे आदमी की तनख्वा ज्यादा। तेरे आदमी की कम। फिर भी हमारे घर का खर्चा पूरा नहीं पड़ता और तुम ऐश करते हो। चक्कर क्या है ?”
“चक्कर कुछ नहीं है।” सरला पास आकर बोली –”तू खामखाह परेशान होती है।”
“क्या मतलब ?”
“तू रोज दाल-सब्जी बनाती है। बनाती है ना ?” सरला ने कहा।
“वो तो बनाऊँगी ही। नहीं तो रोटी किससे खायेंगे ?”
“यहीं तो बात है।” सरला मुस्कराई- “अब देख, मैं भी रोटी बनाती हूँ। पेट तो भरना ही है। लेकिने साथ मे दाल-सब्जी नहीं बनाती। आचार से रोटी खा लेते है। वो आचार भी मैं अपनी माँ के घर से उठा लाती हूँ। अब दाल-सब्जी के पैसे बच गये ना ? दोनों चीज कितनी महंगी आती है। वो सारे पैसे मे इकट्टे करती रहती हूँ। उनसे ही साड़ी ले आती हूँ। इस बार जरा ज्यादा बचत कर ली और वॉशिंग मशीन ले आई। साल भर से तो इन्होने कोई पेंट-कमीज भी नई नहीं सिलवाई।”
“नहीं सिलवाई ?” सुच्चा राम की पत्नी का स्वर कड़वा हो गया।
“बिलकुल नहीं।”
“जब कपड़े ही घर मे नहीं है तो, वॉशिंग मशीन लाने का क्या फायदा ?” वो व्यंग से कह उठी।
“अपनी साड़ियों को धोने के लिए वॉशिंग मशीन लाई हूं-।” सरला ने मुसकराकर मीठे स्वर मे कहा और अपने फ़्लैट के खुले दरवाजे की तरफ बढ़ गई। दरवाजे पर पहुंचकर ठिठकी और उसे देखकर बोली- “कभी कपड़े ज्यादा हो जाये तो, आ जाना, वीडियोकॉन की वॉशिंग मशीन मे कपड़े धोने के लिये। शर्माना मत। पडौसी ही पडौसी के काम आता है।” कहकर वो पीछे हटी और दरवाजा बंद कर लिया।
सुच्चा राम की बीवी मुंह बनाकर बड़बड़ा उठी।
“रिश्वत ले-लेकर कब कट मजे ले लोगे। जल्दी फंसोगे।”
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दरवाजा बंद हुए जब दस मिनट बीत गए तो रंजन तिवारी बोला।
“ओमवीर को लेकर आता हूं-।” कहने के साथ ही तिवारी आगे बढ़ गया।
मिनट भर बाद ही उसे ओमवीर के फ्लेट का बंद दरवाजा थपथपाया। तिवारी पहले भी, अपने काम के लिये कई बार ओमवीर के घर आ चुका था।
सरला ने दरवाजा खोला तो तिवारी को देखते ही कह उठी।
“नमस्कार भाई साहब। आइये। आइये-।”
तिवारी भीतर प्रवेश कर गया।
“आज छुट्टी पर है ओमवीर।” तिवारी बोला- “थाने गया था तो मालूम हुआ।”
“जी हां। मेरे जन्मदिन पर वो हमेशा छुट्टी लेते है।” सरला खुशी से कह उठी।
“ओह-! आज आपका जन्मदिन है। मुझे नहीं मालूम था। वरना कोई तोहफा तो अवश्य लेकर आता।” तिवारी मुस्कराया।
“ऐसी कोई बात नहीं। बैठिये आप।”
“जरूरी काम है। जाना है। ओमवीर को बुलाना।”
“वो तो घर पर नहीं है।”
“नहीं है!” तिवारी चौंका। उसकी निगाह सरला के मुस्कराते चेहरे पर जा टिकी।
“कुछ देर पहले थे। पांच मिनट पहले ही पीछे वाले दरवाजे से चले गये है, कुछ काम है?”
“पीछे वाले दरवाजे से- !” रंजन तिवारी ने अपने को संभालने की चेष्टा की- “लेकिन ओमवीर का स्कूटर तो सामने की तरफ खड़ा है। क्या वो यूं ही चला गया ?”
“जी हां। कह रहे थे, स्कूटर की जरूरत नहीं है।”
रंजन तिवारी का दिमाग पूरी तरह उलझ गया। वह कुछ समझ नहीं पाया कि क्या कहे और क्या नहीं। बाथरूम जाने के बहाने, उसने दूसरे कमरे में भी नजर मार ली कि कहीं ओमवीर वहां न छिपा हो, परंतु वो घर पर नहीं था। इजाजत लेकर तिवारी बाहर निकाल गया।
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“मेरे ख्याल में उसने हमे यहां खड़े देख लिया था और शायद वो तुम्हें पहचानता भी है।” तिवारी पास आता हुआ बोला।
“क्या मतलब?” देवराज चौहान की निगाह उस पर जा टिकी।
“वो घर पर नहीं है। स्कूटर आगे की तरफ छोड़कर ही पीछे वाले दरवाजे से निकल गया है।” रंजन तिवारी कह उठा –”तुम्हें देखकर वो समझ गया कि हीरों वाला मामला खुल गया है-।”
देवराज चौहान के दाँत भींच गये। चेहरा कठोर हो गया।
“अब तो तुम्हें विश्वास हो गया होगा कि हमें ओमवीर की ही तलाश है।”
“वो घर में न छिपा हो-।” देवराज चौहान सख्त स्वर मे बोला।
“मैंने बाथरूम जाने के बहाने से घर देख लिया है। ओमवीर घर पर नहीं है।”
“कहां गया होगा?” देवराज चौहान ने रंजन तिवारी को देखा।
“क्या मालूम। लेकिन उसके खिसकने के पीछे गलती तुम्हारी है।” तिवारी ने गहरी सांस ली।
“कैसे ?”
“पुलिस के खास इलाके मे घूम रहे हो और मेकअप भी नहीं किया। जिसने कभी गलती से तुम्हारी तस्वीर देखी होगी, वो तो तुम्हें पहचान जाएगा। और तुम भी फंस सकते हो। इस समय मैं तुम्हारे साथ हूं तो मैं भी फंस सकता हूं कि देवराज चौहान के साथ, पुलिस लाइंस मे क्या कर रहा हूं-।”
देवराज चौहान के होंठ भिंचे रहे।
“लेकिन ओमवीर ज्यादा देर खुद को बचा नहीं पायेगा। आखिर कब तक छिपेगा?”
“यहां से निकलो-।”
“दोनों कार मे बैठे और वहां से निकल पड़े।
““मेरे ख्याल में रात को ओमवीर के घर धावा बोला जाये। तब वो पक्का मिलेगा।”
“अगर वो मेरे को देखकर भागा है तो थाने पहुंचेगा।” देवराज चौहान का चेहरा कठोर हुआ पड़ा था।
रंजन तिवारी ने देवराज चौहान के चेहरे पर निगाह मारी।
“शायद। क्यूकी उस स्थिति मे वो पुलिस स्टेशन को सबसे सुरक्षित जगह समझेगा।” रंजन तिवारी सिर हिलाकर कह उठा – “पुलिस स्टेशन ही चलते है।”
कई पलो तक दोनों मे कोई बात नहीं हुई।
कार तेजी से सड़क पर दौड़ती रही।
“मैं ओमवीर की आदतों से अच्छी तरह से वाकिफ हूं। वो लगातार ड्यूटी भी करेगा, तो रात को कुछ घंटो के लिये घर आकार नींद ले लेगा और थाने में यहीं कहेगा कि रात को गश्त पर था। यानी कि रात को वो वक़्त निकल लेता है।”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?”
“यहीं कि जब-जब भी हम लोगों पर हमले हुये, रात के वक़्त हुये। और रात को ओमवीर के लिये ड्यूटी से खिसक लेना मामूली बात है।” रंजन तिवारी एक-एक शब्द चबाकर कह उठा- “पहले तो उसने हीरों वाली स्टेपनी बदली। फिर वो डर गया कि हम –या सिर्फ तुम, हीरों को तलाश करने की पूरी कोशिश करोगे। ऐसे में कहीं उस तक न पहुंच जाओ। ये सोचकर वो हर इंसान को खत्म करने लगा जो हीरो को....।”
“पहले ओमवीर को सामने आ लेने दो।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में टोका।
“क्यों- क्या तुम्हें मेरी बात का विश्वास नहीं -?”
“मेरा ये मतलब नहीं था और रही बात विश्वास की तो, अभी किसी के बार में कुछ नहीं कहा जा सकता। ओमवीर के अलावा कोई और भी हो सकता है, जो इस बारे मे जान गया हो कि मैं अपने साथियों के साथ डकैती करने जा रहा हूं और मुझ पर नजर रखने लगा हो। ऐसे में वो ही जा सकता है कि जगमोहन ने हीरे स्टेपनी में छिपाये है। वो हीरो को हर वक़्त अपनी नजर मे रख रहा होगा।”
“ऐसा शख़्स कौन हो सकता है ?”
देवराज चौहान ने जवाब मे कुछ नहीं कहा।
वे चूना भट्टी पुलिस स्टेशन पहुंच गये।
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हवलदार सुच्चा राम किसी केस की फाइल में उलझा हुआ था कि तिवारी को देखकर बोला।
“क्या बात है आज तुम्हारा दूसरा चक्कर है ?”
“हां। ओमवीर से काम था। वो मिल नहीं रहा-।” तिवारी मुस्करा कर कह उठा।
“घर नहीं गये उसके?”
“गया था। नहीं मिला।”
“तो फिर साड़ियो की दुकान पर ढूंढो उसे।” सुच्चा राम सिर आगे करके, धीमे स्वर मे तिवारी से कह उठा –”मैं जानता हूं तुम बीमा कंपनी के जासूस हो और ओमवीर से, अपनी जरूरत के मुताबिक पुलिस वालों की भीतरी खबरें पाते रहते हो।”
“क्या बात करते हो !” तिवारी सकपकाया- “ओमवीर मेरा दोस्त-।”
“मैं तुम दोनों की दोस्ती से अच्छी तरह से वाकिफ हूं।” सुच्चा राम का स्वर कड़वा हो गया था- “तुम ओमवीर को बिगाड़ रहे हो। तुम्हारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा। लेकिन ओमवीर की वर्दी जल्दी ही उतर जाएगी। ये हरकते छोड़ दो और ओमवीर को भी समझा दो। वैसे वो दिल का बुरा नहीं। लेकिन वर्दी के साथ खेल खेलना ठीक नहीं होता। मैं कभी भी उसकी रिपोर्ट कर दूंगा। समझा देना उसे।”
“कह दूंगा।” रंजन तिवारी ने गहरी सांस ली और बाहर निकल गया।
सुच्चा राम पुनः फाईल पढ़ने मे व्यस्त हो गया।
दस मिनट ही बीते होंगे कि कांस्टेबल ओमवीर ने भीतर प्रवेश किया। वो सादे कपड़ो मे था। सुच्चा राम ने उसे देखा तो उसके चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।
“तुम-तुम तो छुट्टी पर हो। यहां क्या कर रहे हो ?” उसके होंठो से निकला।
“छुट्टी पर होने का मतलब ये तो नहीं कि मैं पुलिस स्टेशन नहीं आ सकता।” ओमवीर मुस्कराया।
“क्यों नहीं आ सकते? बैठो। चाय मंगवाऊ या खाना-पीना।” सुच्चा सिंह ने उसे घूरा –”बिना वर्दी के तुम काफी अच्छे लग रहे हो। अगर यहीं हरकते रही तो, बिना वर्दी के ही रह जाओगे।”
“क्या मतलब ?”
“तुम्हारा बीमे वाला दोस्त तुम्हें ढूंढ रहा है। दो चक्कर लगा चुका है। वह तुम्हें चाय पिलाना चाहता होगा।”
“मेरे भी चाय पीने का बहुत मन हो रहा है। उसी के साथ पी लूंगा।”
“भाभी के जन्मदिन पर, सारी चाय उड़ेल दी क्या -? क्या खरीददारी की ?”
“वॉशिंग मशीन लाया हूं।” ओमवीर ने लापरवाही से कहा।
“खूब तरक्की पर हो। सब निकलेगी। तुम तो उस टैंपो-चोर को पकड़ने का दावा कर रहे थे, जो पुलिस स्टेशन से भगा दिया गया, मेरा मतलब है कि भाग निकला। पकड़ा नहीं उसे ?”
“जल्दी मिल जायेगा।” ओमवीर कुर्सी पर बैठता हुआ बोला –”एक बात तो बताओ सुच्चा राम-।”
“मैं बताऊँ। अच्छा ! तुम्हारे पास तो इधर-उधर की खबरे पड़ी ही रहती है। मेरे से क्या पूछना चाहते हो ?”
“तुम्हें याद होगा कि कुछ दिन पहले केटली एंड केटली के यहां साढ़े चार अरब के हीरों की डकैती हुई थी। और वो डकैती देवराज चौहान ने की थी -?” ओमवीर ने शांत स्वर मे पूछा।
“तुम पूछना क्या चाहते हो ?” सुच्चा राम के होंठ सिकुड़े –”ये केस हमारे थाने का नहीं है।”
“वो तो मैं जानता हूं।” ओमवीर ने सिर हिलाया –”मैं तो ये पूछ रहा था कि उस डकैती का क्या हुआ ? देवराज चौहान या हीरे हाथ लगे कि नहीं ? सुना है वो केटली की बेटी को भी साथ ले गये थे, लेकिन बाद मे, उसे उसके घर पहुंचा दिया गया।”
सुच्चा राम सिर हिलाकर कह उठा।
“वो छः थे। जिन्होने डकैती की थी। उनमें से तीन की लाशे मिल चुकी है। तीसरे की लाश तो कल ही मिली है। सुनसान जगह से। वो चंबल का खूंखार डाकू नानकचंद है।”
“वो कैसे मरे ?”
“ये तो मारने वाला ही जानता होगा।” सुच्चा राम ने उसे घूरा –”चक्कर क्या है ?”
“क्या मतलब ?”
“लगता है, तुम देवराज चौहान को पकड़ने की तैयारी कर रहे हो।” सुच्चाराम व्यंग से बोला- “ऐसा है तो मुझे भी साथ ले लेता। थोड़ा बहुत ईनाम मुझे भी मिल जाएगा।”
ओमवीर मुंह बनाकर उठ खड़ा हुआ।
“तुम तो मेरी हर बात को मजाक में लेते हो। मैं पूछ रहा था, मेरे से मिले कि नहीं?”
“नहीं। अभी तक तो नहीं मिले। तुम्हे मिल जाए तो मुझे खबर कर देना। साढ़े चार अरब के हीरे हैं। कसम से तगड़ा ईनाम मिलगा। डिपार्टमेंट की तरफ से भी। केटली एण्ड केटली की तरफ से भी और वो बीमा कम्पनी भी कुछ ईनाम दे देगी। जिसे साढ़े चार अरब की ताजी-ताजी ठुकाई होने वाली है।”
“सीधे-सीधे तो बात करना तुम्हे आता ही नहीं।” ओमवीर कड़वे स्वर में बोला और वहां से बारह निकल गया।
“अपना ओमवीर, बिना वर्दी के बहुत जंचता है।” सुच्चा राम बड़बड़ा उठा।
☐☐☐
ओमवीर थाने से बाहर निकला और पान वाले से सिगरेट का पैकिट लेकर इधर-उधर देखता हुआ पैदल ही आगे बढ़ गया। उसके हाव-भाव में लापरवाही थी और सिगरेट सुलगाकर कश ले रहा था।
कुछ आगे जाकर ठिठका। यहां लोगों का आना-जाना कम था।
ओमवीर ने इधर-उधर नजर मारी फिर पेड़ के पास पहुंचकर तने से टेक लागकर कश लिया।
दूसरा हाथ जेब में गया। जब हाथ बाहर निकला तो मुठ्ठी बंद थी।
ओमवीर ने मुठ्ठी थोड़ी सी खोली।
हथेली पर बादाम के आकार का बहुत ही खूबसूरत हीरा चमक रहा था जो कि कई तरह के रंग छोड़ता महसूस हो रहा था। ओमवीर ने तुरंत मुठ्ठी बंद की। हीरा वापस जेब में डाला और सिगरेट के कश लेता, आगे बढ़ता चला गया। हाव-भाव में लापरवाही भरी हुई थी।
☐☐☐
“वो थाने नहीं आया। मेरे ख्याल में रात को उसे घर से पकड़ा जाए।” पास पहुंचता तिवारी कह उठा।
“अगर वो मुझे देखकर भागा है, तो हो सकता है, रात को घर पर भी न मिले।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई- “वो हमसे बचने का कोई न कोई इन्तजाम करेगा।”
“कोई बात नहीं।” रंजन तिवारी का स्वर सख्त हो गया- “वो कोई भी इंतजाम कर ले। लेकिन हमारे हाथों से ज्यादा देर नहीं बच सकता।”
“भूल में हो।” देवराज चौहान ने कश लेकर कहा- “अगर साढ़े चार अरब के हीरे उसके पास हैं तो वो अपनी नौकरी, पत्नी और शहर को छोड़कर, कहीं दूर खिसक सकता है।”
रंजन तिवारी एकाएक बेचैन हो उठा।
“ये तो मैंने सोचा ही नहीं था।” उसके होंठ भिंच गये।
“बेहतर होगा, ओमवीर को जल्दी से जल्दी ढूढ़ने की कोशिश करो। मालूम करो कि कौन-कौन उसकी पहचान वाले हैं। किन-किन लोगों से वो मिलता रहता था? कहां जाता था-?”
“हूं। ठीक कहा तुमने। वो पान वाला उसका खास है। उसकी रिश्वतों की रकम को वो ही सम्भालता है। हो सकता है, ओमवीर के किसी खास ठिकाने की जानकारी उससे मिल जाए। मैं पूछकर आता हूं-।”
“पानवाला आसानी से मुंह नहीं खोलेगा।”
“मैं खुलवा लूंगा-।” कहते हुए रंजन तिवारी ने कार का दरवाजा खोला, बाहर निकलने के लिये। नजरें दूर उस पान वाले पर गईं कि वो ठिठक कर रह गया।
तब ओमवीर पानवाले से सिगरेट का पैकिट ले रहा था।
“वो रहा। पानवाले के पास ही-।”
देवराज चौहान ने भी उसे देखा।
“साला, घर से सीधा पुलिस स्टेशन ही आया है। हमें देखकर ही खिसका था।” तिवारी बोला।
देखते ही देखते ओमवीर आगे बढ़ गया। चलते-चलते सिगरेट सुलगा ली।
तिवारी ने वापस, काठ का दरवाजा बंद कर दिया।
“ये आगे कहां जा रहा है।” तिवारी के होंठ सिकुड़ें हुए थे- “किसी खास चक्कर में लगता है ये। छट्टी पर है। बीबी का जन्मदिन है। स्कूटर घर पर छोड़ आया है, और सादे कपड़ों में थाने पहुंचा है।”
ओमवीर को आगे जाते देखकर देवराज चौहान ने कार स्टार्ट की।
“पैदल ये किधर जा रहा है।” तिवारी बड़बड़ाया।
देवराज चौहान ने अहिस्ता से कार आगे बढ़ा दी। उनके बीच फासला बहुत था। फिर उन्होने कुछ आगे जाकर ओमवीर को पेड़ के पास ठिठकते और इधर उधर देखने के पश्चात, जेब से कुछ निकालकर, हथेली में छिपाकर देखने के पश्चात, हाथ को वापस जेब में जाते और उसे पुनः और उसे पुनः आगे बढ़ते देखा।
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ चुकी थीं।
तिवारी के चेहरे पर उलझन नजर आने लगी।
“मुझे तो ये किसी फेर में लगता है।” तिवारी ने कहा।
उसे पुनः आगे बढ़ते पाकर, देवराज चौहान ने धीमी रफ्तार पुनः कार आगे बढ़ा दी।
“तिवारी-!”
“हूं-।”
“ये कोई गड़बड़ कर रहा है। इसके हाव-भाव से यही जाहिर होता है। वो गड़बड़ हीरों से वास्ता रखती है या नहीं, इस बारे में यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता है। इसे कार में डालो। ले चलते हैं।”
“ठीक है।”
“ले जाना कहां है इसे? जगह ह?”
“जगह-।” तिवारी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे, “हो जाएगा, जगह का इन्तजाम।”
“कहां-?”
“मेरा एक फ्लैट नई कॉलोनी में खाली पड़ा है। एक बार ऊपर से मोटी कमाई आ गई थी तो, वो फ्लैट लेकर डाल दिया। ओमवीर के सेवा-सत्कार के लिए वो जगह बढ़िया रहेगी। चाबी इस वक्त मेरे पास नहीं है। कोई बात नहीं। दरवाजे का ताला तोड़कर अन्दर जा सकते है।” तिवारी भिंचे स्वर में बोला।
देवराज चौहान ने कार की रफ्तार तेज की और फुटपाथ पर जाते ओमवीर के पास ले जाकर रोकी।
“हैलो ओमवीर-।” तिवारी मुस्कराकर बोला- “मैं कब से तुम्हे ढूंढ़ रहा हूं। मालूम हुआ कि तुम छृट्टी पर हो। घर गया तो भाभी ने बताया, कहीं बाहर गये हो। आओ-।”
ओमवीर ठिठका-सा, तिवारी को देखता रहा ! ने लापरवाही से कहा।
“देखता क्या है ?” तिवारी ने लापरवाही से कहा!
वहीं खड़े ओमवीर ने जरा सा झुककर देवराज चौहान को देखा।
“अभी मेरे पास वक्त नहीं है तिवारी साहब-।” वहीं खड़े-खड़े ओमवीर बोला।
“मोटा माल मिलेगा। अपना काम बाद में कर लेना।”
“कल बात करूंगा तिवारी साहब-।”
रंजन तिवारी कार का दरवाजा खोलकर मुंह बनाकर, बाहर निकलता हुआ बोला।
“तेरे को भी जाने कब अक्ल आएगी।” तिवारी कुछ कदम चलकर उसके पास पहुंचा- “मैं तेरे लिए पार्टी लेकर आया हूं और तू नखरे दिखा रहा। छोटा सा काम है, माल ज्यादा मिलेगा।”
“तिवारी साहब, आज नहीं। आज मुझे जरूरी काम...।”
“मेरे लिए थोड़ा-सा वक्त भी नहीं निकल सकता-।” तिवारी का स्वर शिकायती हो गया।
कांस्टेबिल ओमवीर ने पुनः झुककर कार में बैठे देवराज चौहान को देखा।
“ये आदमी कौन है?” ओमवीर के चेहरे पर सोच के भाव थे।
“नई पार्टी है और-।”
“तिवारी साहब, मैंने इस आदमी को पहले कहीं देखा है और बिना मुलाकात के देखा है। यानी कि इसकी मेरी मुलाकात नहीं हुई, परन्तु फिर भी इसे कहीं देखा है।” ओमवीर ने तिवारी को देखा।
“देख लिया होगा किसी सड़क चौराहे पर, तुम-।”
“सड़क चौराहे पर नहीं देखा लेकिन कहीं देखा है।” ओमवीर वास्तव में उलझ चुका था।
“तुम इतने वहमी नहीं थे। क्या हो गया है तुम्हे?” तिवारी उखड़े स्वर में कह उठा।
“कार में बैठा कोई पुलिस का आफिसर तो नहीं है, और तुम रिश्वत के इल्जाम में मुझे रंगे हाथ पकड़वाने की कोशिश में हो?”
“फालतू की बकवास मत कर।” तिवारी वास्तव में उखड़ गया- “तू क्या मेरी बीबी को भगा ले गया है या मेरी गैर मौजूदगी में मेरी बीबी से मिलने जाता है जो मैं ऐसा करूंगा। कुएं में जा। मैं तो तेरे भले के लिए कह रहा था कि तेरे को दो पैसे मिल जाएंगें। तू सिर पर ही चढ़ा जा रहा हैं संभल जा। सुच्चा राम से मिला था एक घंटा पहले। वो साफ-साफ जानता है कि तू रिश्वत लेता है। उसने मुझे बोला कि तुझे समझा दूं-जा रहा हूं में, आज के बाद तेरे पास कभी भी कोई पार्टी नहीं लाऊंगा और खुद भी काम के लिये तेरे पास नहीं आऊंगा। तू ही रह-।”
तभी दरवाजा खोलकर देवराज चौहान बाहर निकला और कार के गिर्द घूमकर, उनकी तरफ का पीछे वाला दरवाजा खोला और शांत भाव से ओमवीर को देखा।
ओमवीर समझ गया कि ये उसके लिये इशारा है कि कार में बैठ जाए। साथ ही साथ खतरे की घंटी भी उसके मस्तिष्क में बज उठी। पुलिस वाला था वो। सामने वाले को रंग ढंग से पहचान लेता था कि वो कया है। देवराज चौहान के अंदाज से समझ समझ गया कि ये कोई पहुंचा हुआ इंसान है।
“देख।” एकाएक रंजन तिवारी के लहजे में जहरीलापन आ गया- “तेरी कितनी आवभगत हो रही है। तेरे लिए कार का दरवाजा खोला जा रहा है। ऐसा सेवा-सत्कार तेरा पहले कभी किसी ने किया है तेरे ससुराल वालों ने भी नहीं किया होगा। चल बेटे, चल कार में बैठ जा। घुट-घुटकर बातें करेंगें तेरे से। तू हमारी सुनना। हम तेरी सुनेंगें।”
कांस्टेबिल ओमवीर स्पष्ट तौर पर सिर पर मंडराते खतरे को भांप गया।
देवराज चौहान की सपाट-सर्द निगाह ओमवीर पर थी।
“बात क्या है?” ओमवीर ने अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश की।
“पुलिस वाला होकर घबरा रहा है। तेरा दिल तो चूहे जैसा है। बैठ कार में। मैं तेरे साथ हूं-।” कहने के साथ ही तिवारी ने उसकी कलाई पकड़ी और कार की तरफ खींचा।
न चाहते हुए भी ओमवीर दो कदम कार की तरफ बढ़ा।
देवराज चौहान कार का दरवाजा खोले, एकाएक ओमवीर को देखे जा रहा था।
“फिर रुक गया।” तिवारी तीखे स्वर में कह उठा- “कार में बैठ जा। तेरे भले के लिये कह रहा हूं। ये जो देवराज चौहान दरवाजा खोले खड़ा है, इसके पास रिवाल्वर भी है। देखेगा क्या?” कहने के साथ ही तिवारी ने कांस्टेबिल ओमवीर को कार के खुले दरवाजे के पास खींच लिया।
“कौन हो तुम?” ओमवीर ने आंखें सिकोड़ कर देवराज चौहान से पूछा।
“ये तेरा बाप देवराज चौहान है। मेरे से पूछ समझा क्या?” रंजन तिवारी ने दाँत भींचकर कहा और ओमवीर के कूल्हे पर घुटना मारते हुए उसे कार की पिछली सीट पर डाला और खुद भी उसके साथ बैठ गया। दरवाजा बंद हो गया।
देवराज चौहान वापस अपनी ड्राइविंग सीट पर पहुंचा और कार आगे बढ़ा दी।
ओमवीर कुछ पलों के लिए हक्का-बक्का रह गया।
कार आगे बढ़ने पर वो हड़बड़ाया। होशो-हवाश ठीक करने की कोशिश की।
“क्या-क्या बोला तुमने-ये-ये देवराज चौहान है।” उसके होंठों से निकला- “हां, देवराज चौहान ही है। मैंने इसकी तस्वीर देखी थी अखबार में। ये देवराज चौहान, ओह...!”
“क्या हुआ, चुप क्यों कर गया?” तिवारी जहरीले स्वर में कह उठा- “बोल-बोल-।”
“मैं-मैं अभी तक नहीं समझा कि ये सब क्या हो रहा है?” ओमवीर ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी- “बात क्या है? मुझे इस तरह जबरदस्ती क्यों ले जा रहे हो?”
“बहुत जल्दबाज है तू। हर सवाल का जवाब तेरे को फौरन चाहिए।” तिवारी ने कड़वे स्वर में कहा- “अभी कार के झूले ले। सैर कर। मजा ले। बात-चीत भी कर लेंगें।”
ओमवीर समझ चुका था, कि कोई भारी मुसीबत उसके सिर पर है।
“तिवारी। तुम्हारे धोखे में मैं कार में आ गया। मुझे तुमसे ये आशा नहीं थी कि-।”
“ओमवीर। अब तू मुझसे यह आशा लगा ले।” कहते हुए रंजन तिवारी के दाँत सख्ती से भिंच गए- “तेरे को मैं ऐसी-ऐसा आशाएं दिखाऊंगा कि निराशा कहीं नजर नहीं आएगी। बहुत मजा आएगा।”
तिवारी के खतरनाक तेवर देखकर, ओमवीर ने होंठ भींच लिए। फिर मुंह खोला।
“मैंने क्या किया है?” ओमवीर जैसे फट पड़ा हो।
“सड़क पर धीमे बोलते हैं। शरीफ लोग हैं हम। समझा? चुपचाप बैठा रहा।”
“इस वक्त ओमवीर के पास चुप बैठने के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं था।
☐☐☐
ओमवीर को एक खाली फ्लैट में ले जाया गया। जहां यूं ही टूटा-फूटा फर्नीचर रखा था कि कभी यहां का फेरा लगे तो कुछ देर बैठा भी जा सके। दरवाजे पर ताला लगा था जिसे तिवारी ने तोड़ा था। वो भीतर आ गए।
ओमवीर के चेहरे पर कुछ घबराहट और परेशानी नजर आ रही थी। वह बार-बार देवराज चौहान को देख रहा था, जो अभी तक कुछ भी नहीं बोला था।
“बैठ जा-।” भीतर आकर तिवारी ने ओमवीर को कुर्सी की तरफ धकेलते हुए कहा।
ओमवीर लड़खड़ाया फिर कुर्सी पर बैठने के पश्चात दोनों को देखा। देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई। नजरें ओमवीर पर थीं।
“बोल-।” देवराज चौहान की आवाज में ठण्डापन था- “हीरे कहां है?”
“हीरे?” ओमवीर ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
“हीरे-।” देवराज चौहान का स्वर वैसा ही था।
“क-कौन से हीरे?”
“मुम्बई का पूरा पुलिस महकमा जानता है, कि मैंने हाल ही में हीरों की डकैती की है।” देवराज चौहान की नजरें उसके चेहरे पर थीं- “और ये बात तुम्हे नहीं मालूम-?”
“मालूम है। तुमने केटली एण्ड केटली के यहां डकैती की है।” ओमवीर जल्दी से कह उठा।
“वो हीरे कितनी कीमत के थे?”
“स..साढे चार अरब रुपये की कीमत के-।”
“हरामी, सब जानता हे। जानेगा भी क्यों नहीं! आखिर-।”
“मैं-।” देवराज चौहान के चेहरे पर कठोरता उभरने लगी- “उन्ही केटली एण्ड केटली वाले साढ़े अरब के हीरों के बारे में पूछ रहा हूं कि वो तुमने कहां छिपा रखे हैं?”
“म-मैंने छिपा रखे है!” ओमवीर हड़बड़ाकर जल्दी से कह उठा- “तुम्हे गलती हुई है। मैंने कोई हीरे नहीं छिपाए। मुझे क्या मालूम हीरों के बारे में-।”
“नहीं मालूम-?” देवराज चौहान के दाँत भिंच गए।
“नहीं।” ओमवीर के चेहरे पर घबराहट नाच रही थी।
“भाई ओमवीर-।” रंजन तिवारी भिंचे स्वर में कह उठा, “समझदार लोग अपनी औकात के बाहर हाथ नहीं मारते। रिश्वतें लेकर जो तू अपना घर भरता जा रहा है। वही बहुत है। आज तो वीडियोकॉन की मशीन भी आ गई। इतना ही बहुत है। ज्यादा आगे मत बढ़। अरबों के हीरों को तू हजम नहीं कर पाएगा। उन्हे पास में रखकर तू चैन की नींद भी नहीं सो सकता। बहुत बड़ी रकम होती है साढ़े चार अरब। साथ में ये भी सोच कि देवराज चौहान के हाथ तुम तक पहुंच गए है। ऐसे में तू कहां भागेगा। कब तक बचा रहगा। अब तो हीरे जहां हैं, वहां से अपने आप बाहर निकलेंगें। प्यार से निकाल दे तो, तेरे को रियायती दर में बख्श देंगें।”
“म..मेरे पास हीरे नहीं हैं।”
“तो फिर किसके पास हैं? ये बता दे-।”
“मैं नहीं जानता। मैंने तो हीरों को देखा भी नहीं।” ओमवीर के चेहरे पर घबराहट नाच रही थी- “मेरा हीरों से क्या मतलब? थोड़ी बहुत रिश्वत ले लेता हं वो अलग बात है। मैं तो-।”
“भाई ओमवीर-।” रंजन तिवारी का स्वर खतरनाक हो उठा- “हीरे कहां रखे है?”
“म-मैंने नहीं रखे तिवारी--।”
“स्टेप्नी में ही हैं या निकालकर ठिकाने लगा दिए हैं?”
“तिवारी की बात पर ओमवीर चौका। तुरन्त ही खुद को संभालने की चेष्टा की।
उसका चौंकना, देवराज चौहान और तिवारी छिपा न रहा।
देवराज चौहान और तिवारी की नजरें मिलीं।
“बताया नहीं तूने ओमवीर।” रंजन तिवारी का स्वर सामान्य होने लगा- “हीरे स्टेप्नी से निकाल लिए क्या?”
“कौन सी स्टेप्नी से? कौन से हीरे? तुम लोगों को धोखा हुआ है। तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं तो जवाब क्या दूं-।” ओमवीर कह उठा- “हीरों की डकैती देवराज चौहान और इसके साथियों ने की है। भला इन बातों से मेरा क्या वास्ता। देवराज चौहान को मालूम होगा हीरों के बारे में-।”
रंजन तिवारी ने देवराज चौहान को देखा।
“सीधी तरह नहीं मानेगा ये-।”
देवराज चौहान कश लेकर, कठोर स्वर में कह उठा।
“अभी तुम्हारे पास बचने का मौका है, लेकिन बाद में ये चांस नहीं मिलेगा।”
“क्या मतलब?”
“तुमने मेरे साथियों की हत्या की और करने की पूरी कोशिश की कि हम हीरों की तरफ से अपना ध्यान हटा ले। तीन को तुमने मार दिया। जगमोहन और सोहनलाल को तुमने मौत के दरवाजे तक पहुंचा दिया, लेकिन किस्मत से वे बच गए।” देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी बरसने लगी थी- “मैं उन लोगों को कभी सलामत नहीं छोड़ता जो बिना किसी वजह, मात्र अपने लालच के लिये मेरे साथियों की जान लेने कोशिश करें। जो कि तुमने की। मैं शायद तुम्हे जीने का एक मौका दे सकता हूं। अगर तुम शराफत से हीरे मेरे हवाले कर दो, तो शायद तुम्हारे सारे जुर्म माफ हो जाएं।”
ओमवीर देखता रहा, देवराज चौहान को।
“मान ले देवराज चौहान की बात।” तिवारी ने जल्द से कहा- “बच जाएगा। वरना ऐसी मौत मरेगा कि, लाश भी पहचानी नहीं जाएगी। और तेरे मरने के बाद, तेरी बीबी का नम्बर लगाएंगें। उसे भी यहां ले आएंगें। अगर तूने हीरे अपनी पत्नी के हवाले कर रखे हैं या उसे मालूम है कि हीरे कहां हैं तो तेरी लाश देखते ही हीरों के बारे में बता देगी। जो भी हो तेरी जान तो गई। बचा ले अपनी जान और बता दे हीरों के बारे में। हमारे हवाले कर दे।”
ओमवीर का चेहरा फक्क पड़ चुका था।
“मु-मुझे कुछ नहीं मालूम-।”
रंजन तिवारी के दाँत भिंच गए।
देवराज चौहान की आंखों में सुर्खी आई। टैम्पो की स्टेप्नी का जिक्र आने पर ओमवीर में जो बदलाव आया था उससे स्पष्ट हो चुका था कि वो हीरों के बारे में जानता है।
“तूने पुलसिए के तौर पर दूसरों पर डंडे तो बहुत बरसाए होंगे।” तिवारी दरिन्दगी से कह उठा- “लेकिन डण्डों का स्वाद क्या होता है, वो मैं बताऊंगा, अगर तूने हीरों के बारे में नहीं बताया-।”
ओमवीर की आंखों में खौफ उछाल मार रहा था।
“मैं हीरों के बारे में नहीं जानता तिवारी। विश्वास करो, मैं-।”
“बहुत हो गया।” रंजन तिवारी दरिन्दगी से कह उठा- “मैं अब तब पिछली पहचान का लिहाज करके नरमी से बात कर रहा था, लेकिन अब समझ गया कि तेरी हड्डी सीधी नहीं होने वाली। सीधी करनी पड़ेगी। ये बता पेड़ के नीचे खड़ा होकर, जेब में से निकालकर हाथ में छिपाकर क्या देख रहा था?”
“ओमवीर का चेहरा पीला पड़ने लगा।
“खड़ा हो-।”
ओमवीर ने हिलने की भी कोशिश नहीं की।
“खड़ा हो।” तिवारी का जोरदार चांटा ओमवीर के गाल पर पड़ा।
परन्तु तब भी वो बैठा रहा। चेहरा जर्द हो चुका था।
दाँत भींचे देवराज चौहान आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठे ओमवीर का कॉलर पकड़कर तीव्र झटके के साथ उसे खड़ा कर दिया। ओमवीर पर पूरी तरह घबराहट हावी हो चुकी थी।
तिवारी ने उसकी जेबों को टटोला और बादाम के आकार का हीरा निकाल लिया। हीरे को देखते ही तिवारी की आंखें सिकुड़ीं और देवराज चौहान के होंठ भिंचते चले गए। उसी पल देवराज चौहान ने उसकी कमीज का कॉलर छोड़ा और जोरदार घूंसा उसके गाल पर जड़ दिया।
ओमवीर के होंठों से घुटी-घुटी चीख निकली और वो नीचे जा गिरा। घबराहट की वजह से उसे अपने शरीर से जान निकली सी महसूस हो रही थी। घूंसा इतना जबर्दस्त था कि मुंह के साथ-साथ सिर भी झनझनाता सा लग रहा था।
तभी रंजन तिवारी ने जोरदार ठोकर उसके कूल्हे पर मारी।
“हरामजादे! बोलता है, हीरे मेरे पास नहीं हैं।” तिवारी कढ़ाव पर चढ़े तेल की तरह खौल उठा- “ये क्या है? कांच का टुकड़ा है क्या जो अपनी बीबी के गले में डालना चाहता है।”
ठोकर पड़ते ही ओमवीर कराह उठा था।
“हीरा देखो।” तिवारी उसकी तरफ हीरा बढ़ाता हुआ बोला- “उन्ही हीरों में से है क्या?”
“देवराज चौहान ने हीरा लेकर देखा।
“हां-।” हीरा अपनी जेब में डालते हुए देवराज चौहान दाँत भींचे कह उठा- “यह उन्ही हीरों में से है। एक थैले को काट कर हीरों की झलक देखी थी। अब ये तो तय हो गया कि हीरे इसी के पास हैं और हम सबकी जानें भी ये ही लेता रहा है।”
“नहीं। मैं-।”
“चुप साले।” तिवारी नीचे झुका और उसके सिर के बाल पकड़कर खींचते हुए पैरों पर खड़ा किया- “मैं तेरी जात अच्छी तरह जानता हूं। तिवारी साहब कहता फिरता है और उस रात मेरी जान लेने की कोशिश की। तेरी तो मैं-।”
“म..मैं-।”
“कोई फालतू की बकवास नहीं।” तिवारी पागल सा हो रहा था- “अब तेरे मुंह से सिर्फ ये निकलना चाहिए कि तूने हीरे कहां छिपाए हैं? बोल-।”
“मैं सच कह रहा हूं मेरे को हीरों का कुछ नहीं पता।” ओमवीर का चेहरा पीला जर्द हो रहा था- “मैंने किसी की जान नहीं ली। मैंने किसी को मारने की कोशिश नहीं की। मैं तो-।”
तभी तिवारी का घूंसा ओमवीर के पेट में जा लगा।
ओमवीर चीखा।
“पुलिस में है ना तू कमीने। पुलिस वाला है और तेरे को ये बात अच्छी तरह पता होगी कि शुरू-शुरू में अपराधी कभी भी सच नहीं बोलता। जब डण्डा चढ़ता है तो तब बोलता है, और अब तेरे को भी डण्डे की ही जरूरत है। और ये डण्डा पुलिस का नहीं, बीमा कम्पनी का होगा। पुलिस को तो एक हद में रहकर डण्डा इस्तेमाल करना पड़ता है, क्योंकि अपराधी को सही सलामत अदालत में पेश करना होता है। लेकिन बीमा कम्पनी किसी को अदालत में पेश नहीं करती-।” पागलों की तरह कहते हुए तिवारी पलटा और एक तरफ पड़ी लकड़ी की पुरानी कुर्सी को उठाकर तोड़ने लगा।
भय की वजह से ओमवीर की हालत बद से भी बदतर हो रही थी।
“तिवारी साहब-।” ओमवीर का फीका स्वर कांप-सा रहा था- “मेरा विश्वास कीजिए। हीरों का मुझे कुछ भी पता नहीं। आप यूं ही मुझ पर शक कर रहे हैं।”
“पिछले जन्म की दुश्मनी अभी बाकी है कमीने। वो निकाल रहा हूं।” कुर्सी तोड़ता हुआ तिवारी कहर भरे स्वर में कह उठा- “जेब में हीरा पड़ा है, और कहता है, हीरों का नहीं पता। अभी पता चल जाता है। तिवारी हूं में। बहुत सीधे किए हैं, तेरे जैसे टेढ़े। तू तो सिर्फ ओमवीर है।”
ओमवीर घबराकर देवराज चौहान की तरफ पलटा।
“मैं कुछ नहीं जानता हीरों के बारे...।”
“मेरे से बात कर।” तिवारी गुर्रा उठा- “देवराज चौहान की बारी तो तब आएगी, जब तू मेरे बस से बाहर की चीज होगा।” इसके साथ ही तिवारी ने कुर्सी की बाजू तोड़कर हाथ में ली और पलटकर खतरनाक निागहों से ओमवीर को देखा।
उसके चेहरे के भाव देखकर ओमवीर मन ही मन कांप उठा।
“बताता है हीरों के बारे में?”
“मैं नहीं जानता कि...।” ओमवीर अपनी बात पूरी नही कर सका।
“कुर्सी की बांह रूपी डण्डा वेग के साथ ओमवीर के कंधे पर पड़ा। वो तड़पकर चीख पड़ा। दूसरी चोट घुटने पर हुई तो और भी जोर से चीखकर नीचे जा गिरा। उसके बाद तिवारी ने कहां बस की। ओमवीर की धुलाई पागलों की तरह करता रहा।
देवराज चौहान कुर्सी पर बैठा, आंखों में कठोरता लिए ये सब देख रहा था।
☐☐☐
तीन चार मिनट बाद रंजन तिवारी रुका और हांफने लगा। डण्डा हाथ में ही पकड़ा था। वो पसीने से भर चुका था। थक चुका था।
ओमवीर तो बुरे से भी बुरे हाल में था। उसकी जगह शायद कोई और होता तो अब उसका जाने क्या से क्या हो जाता है। शरीर के कई हिस्सों से खून बह रहा था। कई जगहों से सूजन साफ झलक रही थी। कपड़े जगह-जगह से फट चुके थे। वो बेहोश सा, मरा-सा नीचे पड़ा था। देखने में एक बारगी तो लाश लग रहा था। सांसों क वजह से जरा-जरा सा हिलता उसका बता रहा था कि अभी वो जिन्दा है।
“मान गया तेरी हिम्मत को ओमवीर।” गहरी-गहरी सांसें लेता सख्त स्वर में तिवारी कह उठा- “तेरी जगह कोई और होता तो हीरे हमारे हवाले कर चुका होता। लेकिन लालच भी तो बहुत है। साढ़े चार अरब का लालच कम नहीं होता। वो हर दुख-तकलीफ को सहने की हिम्मत दे देता है। या तो तू हीरों के बारे में बताएगा, या फिर तेरी लाश यहां से बाहर जाएगी-।”
ओमवीर ने हिलने की कोशिश की।
तभी देवराज चौहान उठा और दाँत भींचे आगे बढ़ उसने नीचे पड़े ओमवीर को उठाया। ओमवीर की टांगों का ये हाल था कि वो खड़ा नहीं हो पा रहा था। देवराज चौहान ने उसे थामे खड़ा रखा। वो ठीक तरह से आंखें भी नहीं खोल पा रहा था। देवराज चौहान ने रिवॉल्वर निकाली और ओमवीर के पेट में नाल लगा दी। ऐसा होते ही ओमवीर की आंखें जरा सी और खुलीं।
“आखिरी बार।” देवराज चौहान खतरनाक स्वर में कह उठा- “पूछ रहा हूं हीरे बता दे कहां हैं, अगर अब भी इंकार किया तो यहीं खड़े-खड़े गोली मार दूंगा।”
मौत के डर की वजह से ओमवीर ने बची-खुची ताकत इकठ्ठी की और किसी तरह टूटे-थके पीड़ाभरे स्वर में कह उठा।
“मैं-मैं नहीं जानता-।”
तभी देवराज चौहान का घुटना वेग के साथ ओमवीर के पेट में जा लगा। ओमवीर में इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि चीख पता। वो उछला। नीचे गिरा और बेहोश हो गया।
चेहरे पर सख्ती लपेटे देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब में डाल ली।
“बेहोश हो गया कमीना। लेकिन छोड़ूंगा नहीं। होश आते ही-।”
“हीरे इसके पास नहीं हैं।” देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला।
“क्या?” तिवारी के चेहरे पर से कई भाव गुजर गए।
“हीरे इसके पास नहीं।” देवराज चौहान के स्वर में पक्कापन था।
“ये कैसे हो सकता है। उन्ही हीरों में से एक हीरा तुम्हारे सामने इसकी जेब से निकला-।”
“इस बात से मैं इंकार नहीं कर रहा।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा, “लेकिन हीरे इसके पास नहीं हैं। एक हीरा इसके पास कैसे आ गया, होश में आने पर ये ही बताएगा।”
“तिवारी देवराज चौहान की बात से असहमत लग रहा था, परन्तु वो खामोश ही रहा।
☐☐☐
तब रात के करीब ग्यारह बज रहे थे, जब ओमवीर के होंठों से कराह निकली। उसे होश आ रहा था। देवराज चौहान कुर्सी पर बैठा कश ले रहा था। दस मिनट पहले तिवारी खाना लेने गया था और देवराज चौहान के कहने पर ओमवीर के लिए दवा वगैरह भी।
देवराज चौहान ओमवीर को देखता रहा।
ओमवीर को होश आता रहा। होंठों से धीमी-धीमी कराहें निकल रहीं थीं। पांच मिनट लगे उसे होश आने में। आंखें खुलीं तो कमरे में फैली तीव्र रोशनी की वजह से बंद कर लेनी पड़ीं। कुछ देर बाद आंखें खोलीं। वो ठीक से हिल नहीं पा रहा था। करवट नहीं ले पा रहा था। थोड़ी-बहुत गर्दन ही हिला पा रहा था। गर्दन हिलाई तो देवराज चौहान पर निगाह पड़ते ही उसकी आंखों में दहशत उछालें मारने लगी। चेहरे पर लगा खून सूख सूख चुका था। आसानी से वो पहचानने में नहीं आ रहा था।
देवराज चौहान पर निगाह पड़ते ही उसकी आंखों में दहशत उछालें मारने लगीं। चेहर पर लगा खून चुका था। आसानी से वो पहचानने में नहीं आ रहा था।
देवराज चौहान उठा। कुर्सी उसके पास सरकाई और बैठ गया।
“मुझे मत मारो।” उसी तरह लेटे-लेटे क्षीण स्वर में ओमवीर गिडगिड़ाने वाले ढंग से कह उठा- “मेरे पास हीरे नहीं हैं। यकीन करो। मैं सच कह रहा हूं। मेरे पास हीरे नहीं हैं।”
देवराज चौहान ने कश लिया और शान्त स्वर में कह उठा।
“अगर तुम्हारे पास केटली एण्ड केटली वाले हीरे नहीं हैं तो, तुम्हारी जेब से उन्ही हीरों में से वो हीरा कैसे निकला? इससे साफ जाहिर है कि वे हीरे तुम्हारे पास ही हैं। तुमने बाकी के हीरों को कहीं छिपा रखा है।”
“नहीं। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।” ओमवीर के चेहरे से लग रहा था कि वो किसी भी वक्त रो देगा- “जो हीरा मेरी जेब में था, वो तो मुझे, 2000 नम्बर वाले टेम्पो में से मिला था। आगें सीट के फर्श पर गिरा हुआ था। वो टेम्पो चोरी का था और मैंने ही चोर को टेम्पो के साथ पकड़ा था।”
“साथ में हवलदार सुच्चा राम भी था-?”
“हां-।”
“वो चोर नहीं था।” देवराज चौहान की निगाह उस पर थी- “मेरा साथी जगमोहन था।”
“जगमोहन।” ओमवीर के होंठों से निकला- “वो तुम्हारा खास साथी?”
“हां।”
“ओह!” ओमवीर से एकाएक कुछ कहते न बना।
“तो वो हीरा, तुम्हे टैम्पो की सीट के पास से मिला?”
“ओमवीर ने हौले से गरदन हिलाई।
“तो बाकी के हीरे कहां गए?”
“मैं कुछ नहीं जानता हीरों के बारे में।” दो पल के लिए ओमवीर ने आंखें बंद कीं, फिर खोल लीं- “उस वक्त जो टैम्पो चला रहा था, यानि कि तुम्हारा वो साथी जगमोहन, तब उसके पास लैदर के लिफाफों के साईज के पांच थैले थे। ये हीरा मिलने के बाद मुझे लगा कि उन लैदर के लिफाफों में में हीरे होंगें, परन्तु जब उसे गिरफ्तार किया गया, तो वो पांचों थैले उसके पास नहीं थे।”
“कहां गए?”
“मैं नहीं जानता।” ओमवीर ने गहरी सांस ली।
“तुम्हारे साथ जो हवलदार था, वो भी तो उन हीरों के थैलों को-।”
“नहीं। वो तो मेरे साथ ही था। टैम्पो खाली था। उसने तो थैले देखे भी नहीं होंगें।”
देवराज चौहान ने कश लेकर सिगरेट एक तरफ उछाल दी।
“इस सारे मामले के बारे में जो भी जानते हो, वो बता दो। बेशक वो बात मेरे से, वास्ता रखती हो या नहीं। जरा-जरा सी बात भी बताते जाओ।”देवराज चौहान का स्वर बेहद सामान्य था।
कुछ पल चुप रहकर ओमवीर धीमे स्वर में कह उठा।
“हीरा मिलने के बाद मैं समझ गया कि उन पांचों लैदर के लिफाफों में हीरे ही थे। टैम्पो पूरी तरह खाली था। मैंने ऊपरी तौर पर नजर मार ली थी। उसके बाद यही सोचता रहा कि हीरे, वो थैले कहां हो सकते है। वो सारा दिन बीत गया। रात को ध्यान आया कि, टैम्पो के साथ जिसे गिरफ्तार किया है, उसने हीरों को वहीं गाय भैंसो के तबेले में कहीं छिपा दिया होगा। तभी वो थैले नहीं मिले। ये सोच मैं अगले दिन सुबह ही वर्दी पहनकर तबेले में जा पहुंचा। मेरी वर्दी की वजह से कोई परेशानी नहीं आई। मैंने तबेले का जर्रा-जर्रा छान मारा। यहां मौजूद सब लोगों लैदर के थैलों के बारे में पूछताछ की लेकिन लैदर के उन थैलों का कुछ पता नहीं चला। मैंने ये भी पूछा कि उस वक्त वहां, जब हमने जगमोहन को गिरफ्तार किया था, तब तबेले में कौन था। तो यही पता लगा कि एक घंटे के दरम्यान तबेले का चौकीदार पास ही के गांव गया था। तब ये जगह खाली। यानी कि वहां कोई भी नहीं था। अलबत्ता भूसे में से रिवॉल्वर अवश्य मिली। मैं समझ गया कि टैम्पो चोर ने गिरफ्तार होने से पहले रिवाल्वर छिपा दी होगी कि केस भारी न बने। उसके बाद तो मैंने लाख कोशिश कर ली, परन्तु ये नहीं जान सका कि हीरों से भरे लैदर के थैले कहां गए? जिस-जिस रास्ते से टैम्पो निकला था, वो सारे रास्ते चैक किए कि कहीं बैग, टैम्पो चोर ने डर के मारे कहीं फेंक न दिया हो। लेकिन कहीं से भी हीरे नहीं मिले। एक हीरा मेरे पास मिला। उसे हर वक्त अपनी जेब में रखता था।”
देवराज चौहान समझ गया कि जिस लैदर के थैले का मुंह चाकू से काटकर, उसके भीतर हीरे हाने की तसल्ली की थी। उसी थैले में से वो एक हीरा गिरा होगा, जो ओमवीर को मिला।
“स्टेप्नी की बात सुनकर तुम चौंके क्यों थे?” देवराज चौहान ने पूछा।
“हां।” ओमवीर ने गहरी सांस ली- “क्योंकि तुम लोगों के कहते ही मुझे ध्यान आया कि मैंने स्टेप्नी चैक नहीं की। जिस तरह तुमने कहा, मैं तभी समझ गया कि वो अरबों के हीरे स्टेप्नी में ही छिपा दिए होंगें।”
देवराज चौहान उसे देखता रहा।
“लेकिन-।” ओमवीर ही बोला- “स्टेप्नी में से हीरे तुम लोगों को मिले नहीं क्या?”
“नहीं।”
“ये कैसे हो सकता है?”
“ये हुआ है, तभी तो तुम इस वक्त इस हाल में सामने पड़े हो।” देवराज चौहान का स्वर कठोर हो गया- “तुम पुलिस वाले हो। इसलिए मैं जो कह रहा हूं वो तुम ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हो। तुम्हारी जेब से हीरा मिला और उसके साथ के हीरे, तुम कहते हो कि तुम्हारे पास नहीं हैं। कौन मानेगा, तुम्हारी बात को। कोई भी नहीं मानेगा। कोई अपराधी पुलिस वालों से, अपनी सफाई में कुछ कहे तो क्या पुलिस मान जाती है? नहीं मानती। ऐसे में मैं तुम्हारी बात किस आधार पर मान लूं कि तुम सच कह रहे हो?”
एकाएक ओमवीर का घायल चेहरा पुनः डर के सागर के में डूबने लगा।
“मेरा विश्वास करो। मैं-।”
“मैं तो कर लूंगा।” देवराज चौहान ने लापरवाही से कहा- “लेकिन तिवारी को इस बात पूरा विश्वास है कि हीरे तुम्हारे पास हैं। वो तो मेरी बात नहीं समझने वाला। क्योंकि और मैं, साथी नहीं हैं। तिवारी अपने तौर पर सोचने और करने को आजाद है। मैं उसे नहीं रोक सकता।”
ओमवीर ने खून से सने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
“और मैं भी महज बातों पर विश्वास करके, साढ़े चार अरब के हीरों को नहीं भूल सकता। उनमें से एक हीरा तुम्हारे पास से मिला है, तो अपनी पोजिशन तुम समझ ही सकते हो।” देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर धमकी भरे लहजे में कहा।
ओमवीर का चेहरा जर्द होने लगा।
“तिवारी ने तुम्हारे साथ जो किया, वो तो सिर्फ तुम्हारे समझने के लिये किया है कि अभी भी तुम्हारी जिन्दगी का वक्त तुम्हारे हाथ में है। संभल जाओ और सच-सच बता दो कि हीरे कहां छिपा रहखे हैं और उन्हे हमारे हवाले कर दो।”
“मेरे पास हीरे नहीं है। मैंने जो कहा है, सच कहा है।”
“इसका जवाब मैं पहले ही दे चुका हूं कि क्या पुलिसवाले अपराधी की सिर्फ बातों में विश्वास करके उसे छोड़ देते है?” देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांका।
ओमवीर ने आंखें बंद करके होंठ भींच लिए। फिर वो हिला। बैठने की कोशिश में उसके होंठों से पीड़ा भरी कराहें, चीख निकली। खामोशी से बैठा देवराज चौहान उसे देखता रहा। करीब पांच मिनट लगाकर ओमवीर कूल्हों के बल फर्श पर बैठा, परन्तु तिवारी ने उसकी इस कदर बुरी तरह ठुकाई की थी कि इतना बैठने में ही वो हांफने लगा। फिर वो किसी तरह धीरे-धीरे पीछे की तरफ सरका और दीवार से टेक लगाकर, लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा। पूरा शरीर पीड़ा से भरा पड़ा था।
“अभी तो तिवारी तुम पर, शक से भरा विश्वास कर रहा है। या फिर उसे तुम पर पूरा विश्वास है।” देवराज चौहान कश लेते हुए बेहद शांत स्वर में कह रहा था- “हो सकता है, कोई बात मेरी सोचों में भी आ जाए और मुझे लगे कि तिवारी ठीक रास्ते पर जा रहा है। हीरे वास्तव में तुमने ही छिपा रखे हैं। उस हालत में मैं तो तुम्हे जिन्दा छोड़ने वाला नहीं। तिवारी बीमा कम्पनी का जासूस है और मैं क्या हूं ये तो तुम अच्छी तरह जानते हो।”
ओमवीर की हालत और भी बुरी होने लगी, उसे लग रहा था ये लोग उसे जिंदा छोड़ने वाले नहीं। वो कुछ भी कह ले लेकिन उसकी कही सच बात पर ये लोग विश्वास नहीं करेंगें।
“मुझे समझ में नहीं आता कि कैसे यकीन दिलाऊं कि-।”
“तुम्हारे पास ऐसे शब्द ही नहीं है। कि तुम विश्वास दिला सको।” देवराज चौहान का स्वर कठोर हो गया।
ओमवीर ने अपने जख्मों से भरे चेहरे पर हाथ फेरा तो, होंठों से पीड़ा भरी तीव्र कराह निकली। कंधे और कोहनी पर किए गए डण्डों के प्रहारों की वजह से, वहां जोरों की पीड़ा हो रही थी।
देवराज चौहान की निगाह एकटक, ओमवीर पर थी।
“जगमोहन टैम्पो की स्टेप्नी में हीरे छिपाकर हटा ही था कि तुम लोगों ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया। जब दिन के बारह और एक के बीच का वक्त था। और शाम को तुमने टैम्पो अमृतलाल के हवाले किया। तुम करीब साढ़े पांच घंटों में वो टैम्पो तुम लोगों के पास ही रहा। पुलिस स्टेशन खड़ा। कोई बाहरी व्यक्ति स्टेप्नी बदलने की, या स्टेप्नी में से हीरे निकालने की हिम्मत नहीं कर सकता पुलिस स्टेशन में आकर। ऐसे में तुम कैसे खुद को-।”
देवराज चौहान कहते-कहते ठिठका। उसकी आंखें सिकुड़ीं।
उसने हैरानी से ओमवीर की आंखें फैलती देखीं।
“क्या हुआ?” देवराज चौहान के होंठों से निकला।
“टैम्पो-।” ओमवीर के होंठों से आवेश में कांपता स्वर निकला- “टैम्पो तो थाने में सिर्फ दो-सवा घंटे ही खड़ा हुआ था। टैम्पो तो ढाई तीन पुलिस स्टेशन पहुंचा था।”
“क्या मतलब? तुम-।” देवराज चौहान ने कहना चाहा।
“सुच्चा राम। हवलदार सुच्चा राम के पास हैं हीरे। उसने बदली है स्टेप्नी। सारी गड़बड़ उसने की है। ओह, ये बात पहले मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई?” ओमवीर के चेहरे के भाव देखने के लायक हो रहे थे- “रिश्वतखोर पुलिस वाला होने की वजह से मैं खामखाह, तुम लोगों में आ फंसा।”
“साफ-साफ कहो।” देवराज चौहान के होंठ भिंच गए।
“मैं-मैं तो तब जगमोहन को गिरफ्तार करके, मोटरसाइकिल पर उस पुलिस स्टेशन ले गया था। सुच्चा राम के कहने पर ही मैंने ऐसा किया था। जगमोहन ने मोटर साइकिल चलाई थी और मैं उसके पीछे बैठा था।” ओमवीर कहे जा रहा था- “सुच्चा राम टैम्पो लेकर पुलिस स्टेशन पहुंचा था। तब तीन बजने वाले थे। मैंने पूछा कि देर क्यों लगा दी आने में, वो बोला, टैम्पो खराब हो गया था। सुच्चा राम को मालूम होगया था कि स्टेप्नी में हीरे हैं। मैं नहीं जानता केसे मालूम हुआ, तो उसने ही स्टेप्नी बदली। तभी आने में देर हुई। हीरे सुच्चा राम के पास ही हैं। टैम्पो हम दोनों के अलावा और किसी के पास नहीं रहा। मैंने हीरे निकाले नहीं। स्टेप्नी हटाकर, वहां दूसरी स्टेप्नी नहीं रखी तो जाहिर है, ये काम सुच्चा राम ने ही किया है।”
ओमवीर कुछ पलों के लिए अपनी सारी पीड़ा भूल गया था।
देवराज चौहान होंठ सिकोड़े उसे देखे जा रहा था।
“वक्त बरबाद मत करो। सुच्चा राम को पकड़ो। हीरे उसी के पास हैं।” ओमवीर व्याकुलता से कह उठा।
“तिवारी को तो आने दो।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा- “तुम्हे अकेला छोड़ना मैं ठीक नहीं समझता।”
उसी पल तिवारी भीतर प्रवेश करता कड़वे स्वर में कह उठा।
“बकवास कर रहा है साला। खुद को बचाने की घटिया कोशिश कर रहाहै। सब जानते हैं कि हवलदार सुच्चा राम को ऊपरी कमाई से नफरत हैं अपनी मुसीबत उसके सिर पर डाल रहा है। हीरे तेरे ही पास है।”
“तू सुच्चा राम के बारे में कह तो ऐसे रहा है, जैसे तू भी जानता हो कि रात को वो अपने घर पर क्या करता है, क्या खाता पीता है?” ओमवीर की आवाज में गुस्सा था- “ऐसा किसी को बुरा लगता है क्या? साढ़े चार अरब के हीरे उसे मिले तो क्या उसे पागल ने कुत्ते ने काटा है, जो अपनी जेब में नहीं डाल लेगा। वो भी तब, जब उसे देखने वाला कोई न हो। मैं रिश्वत लेने वाला पुलिस वाला हूँ। रिश्वत लेने के लिए जिगरा चाहिए। क्योंकि जिस्म पर पड़ी वर्दी उतरने का डर सिर पर सवार रहता है। ये जिगरा सुच्चा राम में नहीं है कि वर्दी की आड़ में रिश्वत लेने की हिम्मत कर सके। इसलिए शराफत का चोला ओढ़े रहता है। अंधेरे में कोई उसकी जेब में माल डाल दे तो क्या वो, माल निकालकर, सड़क पर फेंक देगा...?”
“देवराज चौहान और तिवारी की नजरें मिलीं। तिवारी के दाँत भिंचे हुए थे।
“वो टैम्पो या तो मेरे पास रहा या हवलदार सुच्चा राम के पास। टैम्पो मेरे पास अकेले में नहीं रहा, लेकिन सुच्चा राम के पास करीब दो घंटे टैम्पो अकेला रहा। और हीरों से भरी स्टेप्नी बदल दी गई। मैंने नहीं बदली तो जाहिर है सुच्चा राम इस काम को करने की हिम्मत दिखा गया।”
“मैं नहीं मानता। तुम।” तिवारी ने दाँत भींचकर कहना चाहा।
ये ठीक बोलता लग रहा है।” देवराज चौहान ने तिवारी को देखा”और अगर ये भी झूठ कह रहा है तो फिर समझ लो हीरे कभी भी हमें नहीं मिल सकते। इन हालातों में अगर कोई और हीरे ले गया है तो उस तक हम किसी भी हालत में नहीं पहुंच सकते।”
रंजन तिवारी दाँत भींचे ओमवीर को देखने लगा।
ओमवीर के चेहरे पर दृढ़ता उभरी पड़ी थी।
“तिवारी।” देवराज चौहान का स्वर शांत था “सुच्चा राम को यहां ला सकते हो?”
“आसानी से। लेकिन-।”
“इसके जख्मों पर दवा लगाओ। इसे खाने को दो और सुच्चा राम को ले आओ। मैं इसके पास रहूंगा।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने ओमवीर को देखा, “इस वक्त सुच्चा राम कहां होगा?”
“उसकी ड्यूटी चल रही है। पुलिस स्टेशन में होगा। कोई खास काम नहीं हुआ तो अपने घर भी जा पहुंचा होगा, दो-चार घंटों की नींद मारने। पिछले दिनों उसके पल्ले कोई खास केस नहीं आया तो रोज रात ही घर खिसक जाता था और भोर होने पर आ जाता था।”
“रोज रात?” देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।
“हां।”
“वो रातें याद हैं तुम्हे?”
“याद क्या, बीती पांच-छैः रातों से वो रोज रात थाने से खिसक-।” कहते-कहते ओमवीर ठिठका, उसके होंठ भिंच गए- “तुम मुझे कह रहे थे कि मैं-मैं तुम्हारे साथियो को मारता पीटता रहा हूं। ये काम को करता था। यही कहा था न तुमने। अगर हीरे सुच्चा राम के कब्जे में हैं तो दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम्हारे साथियों की जान सुच्चा राम ही लेता रहा। कमीना, ईमानदारी का ढोल पीटता है और साढ़े चार अरब के हीरे दबाकर बैठ-।”
“देवराज चौहान-।” रंजन तिवारी दाँत पीसकर कह उठा- “ये झूठी बकवास कर रहा है। हमारा वक्त खराब कर रहा है। वक्त गंवा कर खुद को बचाने की कोशिश-।”
“तिवारी।” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा, “मुझे पूरा विश्वास था कि हीरों के बारे में अमृतपाल और बुझे सिंह निर्दोष है। इस पर भी तुम्हारे कहने पर तुम्हारी तसल्ली कराने के लिए, उनके गांव गया। क्योंकि हम दोनों मिलकर काम कर रहे हैं। ऐेसे में काम तभी पूरा होगा जब दोनों की तसल्ली होती रहे। तुम्हे सुच्चा राम पर लाख विश्वास सही, लेकिन अब मैं अपनी तसल्ली करना चाहता हूं।”
“तिवारी होंठ भींचे देवराज चौहान को देखता रहा। बोला कुछ नहीं।
“इसके जख्मों पर हवा लगा देता हूं। खाना भी दे दूंगा।” देवराज चौहान बोला, “रात के बारह बज रहे हैं। सुच्चा राम पुलिस स्टेशन में हो या घर में। जहां भी हो, उसे लेकर आओ।”
☐☐☐
हवलदार सुच्चा राम पुलिस स्टेशन में ही मिला, रंजन तिवारी को।
“तिवारी साहब।” सुच्चा राम उसे देखते ही कह उठा, “अभी तक ओमवीर नहीं मिला क्या?”
“मिला।” तिवारी कुछ आगे होकर धीमे स्वर में बोला, “बाहर आना, कुछ काम है।”
“मुझसे?”
“हां।”
“मैं हवलदार सुच्चा राम हूं। कांस्टेबिल ओमवीर नहीं। तुम शायद पहचानने में भूल कर रहे हो।” सुच्चा राम व्यंग से बोला।
“मैं किसी को पहचानने में में भूल नहीं करता।” रंजन तिवारी मुस्कराया, “मैं जानता हूं हवलदार सुच्चा राम से ही बात कर रहा हूं। ओमवीर ने भेजा है तुम्हारे पास।”
“ओमवीर ने भेजा है!” सुच्चा राम की आंखें सिकुड़ीं, “वो कहां है?”
“वो कहां है, बता देता हूं। बाहर आकर बात करो।”
दोनो पुलिस स्टेशन से बाहर निकल आए।
“अब बोलो-ओमवीर-।” हवलदार सुच्चा राम ने कहना चाहा।
“सुनो।” रंजन तिवारी स्वर को गंभीर बनाकर कह उठा, “ओमवीर बहुत घायल है। इस हद तक घायल है, अब उसे डॉक्टर की भी जरूरत नहीं। मालूम नहीं कि मेरे वापस पहुँचने पर वो जिन्दा भी रहता है या नहीं। मैं उसके साथ ही था। मैं तो उस वक्त भागकर छिप गया। लेकिन वो खुद को नहीं बचा सका। अब ओमवीर को कहना है कि वो बहुत ही खास अपराधी के बारे में जानकारी रखता है। पूरे सबूत भी हैं उसके पास। पूछने पर भी उसने मुझे नहीं बताया। कहने लगा जल्दी से सुच्चा राम को बुलाओ, वो सबूत उसे ही दूंगा। मुझे उसके अलावा किसी पर भी विश्वास नहीं। तुम्हे अकेले आने को कहा है। जल्दी करो। अगर वो मर गया तो, कोई भी नहीं जान सकेगा कि वो कहना चाहता है।”
“ओमवीर है कहां?” सुच्चा राम गम्भीर हो उठा।
“मेरे साथ चलो। उसके पास चलते हैं।”
शक वाली तो कोई बात नहीं थी। तिवारी पर वो क्या, शक करेगा।
“मैं अभी मोटर साइकिल पर-।”
“मेरी कार खड़ी है। देर मत करो अब।”
“हवलदार सुच्चा राम ने जरा भी देर नहीं की। दोनों कार में बैठे और तिवारी ने कार आगे बढ़ा दी। कुछ पलों बाद सुच्चा राम गम्भीर सा कह उठा।
“ओमवीर के जिन्दा रह पाने का कोई खास चांस नहीं?”
“नहीं। मुझे तो डर है कि कहीं अब तक वो मर न गया हो।” तिवारी गम्भीर स्वर में कह उठा।
“समझ में नहीं आता कि वो किसी बड़े मामले में कैसे फंस गया। तुम्हे कुछ भी नहीं बताया?”
“नहीं। कहता है, सिर्फ सुच्चा राम को अकेले में बताऊंगा।”
☐☐☐
“यहां कहां?” फ्लैटों की सीढ़ियां चढ़ते हुए हवलदार सुच्चा राम ने पूछा।
“बोलो मत। चुपचाप चलते रहो। मैंने बदमाशों की नजरों से छिपकर, खतरा उठाकर, ओमवीर को यहां छिपाया है। उनको मालूम हो गया तो, मैं भी खतरे में पड़ जाऊंगा।”
तिवारी की बात सुनकर सुच्चा राम का हाथ कमर में बंधे होलेस्टर पर गया। रिवॉल्वर छूकर हाथ नीचे आ गया।
एक कदम आगे बढ़कर रंजन तिवारी एक फ्लैट के बंद दरवाजे पर रुका।
“ओमवीर, यहीं पर है?” सुच्चा राम ने पूछा।
“हां।” कहते हुए तिवारी ने दरवाजा थपथपाया।
दरवाजा खुला। दरवाजा खोलते ही देवराज चौहान एक तरफ हो गया। पहले ओमवीर ने भीतर प्रवेश किया फिर हवलदार सुच्चा राम ने।
सामने ही दीवार का सहारा लिए कांस्टेबिल ओमवीर बेठा था।
“ओमवीर।” सुच्चा राम जल्दी से उसकी तरफ लपका, “क्या हुआ तेरे को। कौन लोग तेरे पीछे पड़ गए हैं, ठीक तो है तू?” पास पहुंचकर सुच्चा राम ने ध्यानपूर्वक ओमवीर को देखा।
ओमवीर दाँत भींचे कड़ुवी निगाहों से उसे देख रहा था।
सुच्चा राम की आंखें सिकुड़ीं।
“तू तो ठीक है। तेरी मरने वाली कोई हालत नहीं। तिवारी साहब कह रहे थे कि तू-।”
तभी पीछे से फर्ती से तिवारी ने, उसकी कमर पर बंधे होलेस्टर को खोला और रिवाल्वर निकालकर अपने कब्जे में कर ली।
हवलदार सुच्चा राम फुर्ती से पलटा।
पहली बार उसने कमरे का नजारा किया। देवराज चौहान पर निगाह पड़ते ही सुच्चा राम चिंहुंक पड़ा। आंखें अविश्वास भरे ढंग से फैलती चली गईं।
“देवराज चौहान-।” उसके होंठों से निकला।
“पहचान लिया?” देवराज चौहान के चेहरे पर खतरनाक भाव उभरे।
“हाँ। तुम्हारी तस्वीरें तीन-चार दिन पहले अखबार में देखीं थीं, “सुच्चा राम ने अजीब से स्वर में कहा, फिर तिवारी को देखा, “ये सब क्या हो रहा है! ओमवीर घायल है! तुम बहाने से मुझे यहां ले आए। देवराज चौहान जबरर्दस्त डकैती मास्टर यहां-!”
“सुच्चा राम।” देवराज चौहान दाँत भींचे दरिन्दगी से आगे बढ़ा, “बहुत तेज निकले तुम। नजरों में तो पहले आ गऐ होते। लेकिन तुम्हारी शराफत आड़े आ गई, जो तुम्हारी ढाल बन गई और तुम बचे रह गए। लेकिन कभी तो सामने आना ही था, अब आ गए।”
“क्या मतलब?” सुच्चा राम की आंखें सिकुड़ी-फिर उसने तिवारी को देखा- “ये सब क्या हो रहा...।”
“मेरे से बात कर।” देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी मचल रही थी।
सुच्चा राम की नजरें देवराज चौहान के चेहरे पर जा टिकीं।
“बहुत फुर्ती से मेरे साथियों को मारा। लेकिन जगमोहन और सोहनलाल बच गए। तुमने पूरी कोशिश की कि मेरे साथियों के बीच खून-खराबा पैदा करके हमारा ध्यान हीरों की तलाश से हटा दो। दो-तीन रातें लगातार तुम रात की ड्यूटी के दौरान निकल आते और खून खराबा करने लगते। इस बात का ओमवीर गवाह है, कि तुम रात को थाने से गायब हो जाते थे और ओमवीर ये बात भी मालूम कर चुका है, कि तब तुम अपने घर सोने नहीं जाते थे बल्कि मेरे साथियों में-।”
सुच्चा राम ने जल्दी से तिवारी को देखा।
“माना कि ये देवराज चौहान है। लेकिन मैं इससे पहली बार मिला हूं। ये ऐसा ही है या अब पागल हो गया है, जो इस तरह की उल्टी-सीधी बातें कह रहा है?”
“पहले देवराज चौहान ऐसा नहीं था।” ओमवीर कह उठा, “अब पागल हुआ पड़ा है।”
सुच्चा राम ने ओमवीर को घूरा।
“मुझे तो हैरानी है कि तुम्हे बंगले के बारे में कैसे मालूम हो गया कि हम वहां है? सारी खबरें तुम तक कैसे पहुंचती रह? सब ......... कैसे जान गए?” देवराज चौहान एक-एक शब्द को चबाकर कठोर स्वर में कह रहा था- “जब रंजन तिवारी को तुमने हीरों की तलाश में देखा तो उसकी जान लेने की चेष्टा की। लेकिन ये किस्मत वाला निकला जो बच गया और-।”
“सच में।” सुच्चा राम के चेहरे पर अजीब से, घबराहट भरे भाव उभरे ।
भरे, “तुम तो मुझे वास्तव में पागल लग रहे हो। ये सब क्या हो रहा है ओमवीर?”
“सुच्चा राम, तेरे लिए लकड़ियां इकट्ठी हो रही हैं।” ओमवीर कडु़वे स्वर में कह उठा।
तिवारी दाँत भींचे, सुच्चा राम को घूर रहा था।
“तुम मुझसे जलते हो ओमवीर। ये तुमने ही कोई मुसीबत खड़ी की है मेरे लिए? तुम-?”
“मैं क्या जानता हूं, लकड़ियां इकठ्ठी होने के बाद देवराज चौहान तेरे को जलाने का पूरा प्रबन्ध कर देगा। मेरी तरह थोड़ा-थोड़ा खाता। तू तो एक बार में ही कुतुबमीनार पर बैठ गया।”
“क्या मै..।” सुच्चा राम की हालत अजीब सी हो रही थी।
“तुम्हारी जगह में होता तो कभी भी ऐसा नहीं करता।” कहते हुए देवराज चौहान का घूंसा चला और सुच्चा राम के चेहरे पर पड़ा। वो चीख कर तीन-चार कदम पीछे हट गया, “गलती से हीरे हाथ लग गए तो उन्हे लेकर एक तरफ खामोश बैठ जाता। पूरे मामले से दूर हो जाता, किसी की भी जान लेने की चेष्टा न करता। एक बात मुझे समझ नहीं आ रही कि तुम्हे कैसे मालूम हो गया कि टैम्पो की स्टेप्नी में जगमोहन ने हीरे रखे हैं?”
सुच्चा राम ने हड़बड़ाकर तिवारी को देखा।
“तुम मुझे यहां लाए हो तिवारी। ये सब क्या हो रहा है?”
“देवराज चौहान से बात करो।”
सुच्चा राम ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान का दरिन्दगी भरा चेहरा रंजन तिवारी की तरफ घूमा।
“मैंने इसे जो समझाना था, समझा दिया तिवारी। आगे का काम अब तुम्हारा है।”
“मेरा?”
“वो डण्डा जो-?”
“नहीं देवराज चौहान।” तिवारी ने इंकार में सिर हिलाया, “ओमवीर मेरा शिकार था। वो सारा मेरा इन्तजाम था। मैं आगे भी और बहुत कुछ करता लेकिन तुमने मुझे रोक दिया। कोई नहीं। तुम अपना काम जारी रखो। मेरा मामला अभी यहीं हैं” कहते हुए तिवारी की कड़वी निगाह ओमवीर पर गई, “तुम्हारे सामने मैं और पानी अलग कर दूंगा।”
देवराज चौहान के चेहरे पर वहशी भाव नाच उठे।
सुच्चा राम के चेहरे पर भय से भरी घबराहट स्पष्ट नजर आने लगी थीं
ओमवीर और तिवारी की निगाह देवराज चौहान पर थी।
देवराज चौहान की निगाह, हवलदार सुच्चा राम पर जा टिकी।
“मेरे पास इतना वक्त नहीं कि डण्डा तुम्हे मारूं।” देवराज चौहान की आवाज में ऐसे भाव थे कि वहां मौजूद तीनों के बदन में ठण्डी सिहरन दौड़ती चली गई। इसके साथ ही देवराज चौहान ने रिवाल्वर निकाली और सुच्चा राम की तरफ कर दी।
सुच्चा राम थर-थर सा कांप उठा।
तभी ओमवीर की व्यंग्य भरी हंसी वहां गूंजी।
“मैंने जो कहा, वो तुम सुन चुके हो।” देवराज चौहान के शब्दों में मौत के भाव नाच रहे थे, “अगर जवाब देने का इरादा हो तो मैं ट्रेगर न दबाऊं।”
सुच्चा राम के होंठ हिले। शब्द कोई नहीं निकला। चेहरा जर्द हो रहा था। आंखों में मौत की परछाइयां नाच रहीं थीं। खौफ से भरी कंपकंपी, खून के साथ शरीर में दौड़ रही थी।
“अब सिर्फ हां या न में जवाब देना।” देवराज चौहान की उंगली का दबव ट्रिगर पर बढ़ गया था, “तुम्हारा जरा सा भी झूठ, तुम्हारी जान ले लेगा।”
सुच्चा राम के बदन में डर की लहर जोरों से दौड़ी। बदन कांप उठा। वो जानता था कि उसके सामने खतरनाक शख्सियत खड़ी है। जो कि कुछ भी कर सकती है।
“साढ़े चार अरब के हीरे स्टेप्नी में थे। बोल हां, थे-?”
“हां-हां।” पीला हो चुका था सुच्चा राम का चेहरा।
देवराज चौहान दरिन्दा लग रहा था। भिंचे होंठ। पत्थर की तरह कठोर चेहरा। आंखों में दिल दहला देने वाली सुर्खी। ऐसा कौन सा भाव था, जो इस वक्त उसके चेहरे पर मौजूद नहीं था। सुच्चा राम का जवाब सुनते ही उसका रिवाल्वर वाला हाथ हिला फिर धीरे-धीरे हाथ नीचे की तरफ झुकता चला गया।
रंजन तिवारी हक्का-बक्का, ठगा सा खड़ा था।
मौत से भी गहरा छा चुका था वहां।
ओमवीर के होंठों से निकलने वाली व्यंग्य भरी हंसी ने वहां की चुप्पी तोड़ी।
“तेरा तो काम हो गया सुच्चा राम।”
रंजन तिवारी पागलों की तरह उस पर झपटा।
“तूने उस रात मेरी जान लेने की कोशिश की।” तिवारी ने उसकी गर्दन थाम ली, “मैं तेरी-।”
“छोड़ दे इसे-।” देवराज चौहान के होंठों से सर्द स्वर निकला।
तिवारी ने देवराज चौहान का चेहरा देखा तो फौरन पीछे हट गया।
हवलदार सुच्चा राम चेहरा हल्दी की तरह पीला पड़ चुका था। भय से उठने वाला उसके जिस्म का कमान कभी-कभार स्पष्ट सा महसूस होने लगा। शरीर इस कदर ढीला पड़ चुका था कि वो लटका सा नजर आ रहा था। आंखों में ऐसी सफेदी झलकने लगी थी जैसे वो मरों की सफेदी हो। किसी मशीन की भांति वो बार-बार अपने सूखे होंठों पर जीभ फेर रहा था।
“तुम्हे बंगले का कैसे पता चला कि हम लोग वहां पर हैं?” जगमोहन तो बाद में पुलिस स्टेशन से निकला था कि तुम ये भी नहीं कह सकते कि उसके पीछे-पीछे आये थे। वैसे भी उस वक्त तुम पुलिस स्टेशन से घर के लिए जा चुके थे। मैं ये पूछ रहा हूं कि तुम्हे पहले ही कैसे मालूम हो गया कि हम लोग बंगले में हैं।”
सुच्चा राम के होंठों से कोई शब्द नहीं निकला।
देवराज चौहान के चेहरे पर मौत के भाव नाच रहे थे। वहां के माहौल में दहशत थी। कुछ पल वहां चुप्पी रही। देवराज चौहान हाथ में दबी रिवॉल्वर को जेब में डालता कठोर स्वर में कह उठा।
“मेरे एक-एक सवाल का जवाब देने में तुम्हे परेशानी हो सकती है। मैं तुम्हे इतनी छूट दे सकता हूं कि मेरे सवालों का जवाब तुम अपने ढंग से भी दे सकते हो।”
“म..मेरी जान तो न..नहीं लोगे।” सुच्चा राम की आवाज थरथरा रही थी। वो कांप रहा था, “मेरी जान मत लेना। माफ कर दो मुझे। मैं-।”
“मेरे सवालों का जवाब दो।” देवराज चौहान के दाँत भिंच गए।
सुच्चा राम का जिस्म जोरों से कांप रहा था। दो पलों में ही कई बार सूख रहे होंठों पर जीभ फेरी।
तिवारी की खतरनाक नजरें और ओमवीर की जहरीली निगाह उस पर थीं।
“मुझे-मुझे मारोगे तो नहीं। मैं-।” सुच्चा राम भय से कांप रहा था, “मुझे मा..।”
“फिक्र मत कर।” ओमवीर व्यंग्य से कह उठा, “मेरे को देख। थोड़ी सी ठुकाई हुई है मेरी। मैंने गलती से देवराज चौहान की जान लेने की कोशिश की थी। क्या हुआ मेरे को। मार-पीट कर, यहां बैठा दिया। तेरे को भी इसी तरह मार-पीट कर बिठा देंगें। बता दे जो बताना है। तेरी माफी की सिफारिश मैं लगा दूंगा। अब तो याराना हो गया है देवराज चौहान से मेरा। कह दे सब कुछ।”
दो पल की चुप्पी के बाद सुच्चा राम सूखे डरे स्वर में कह उठा।
“उस दिन जगमोहन जब टैम्पो के साथ पकड़ा तो वो भाग निकला। मैं समझ गया कि ओमवीर ने ही ले-देकर उसे भगाया है। खैर, बाद में भागदौड़ करके, जगमोहन को टैम्पो के साथ पुनः पकड़ा और जानबूझ कर मैंने जगमोहन को ओमवीर के साथ पुलिस स्टेशन रवाना किया मोटरसाइकिल पर कि, अगर अब फिर जगमोहन भाग जाता है तो ओमवीर के खिलाफ ऊपर रिपोर्ट करूंगा कि ये रिश्वत लेकर अपराधियों को भागने का मौका देता है।”
ओमवीर हौंले से हंसा।
“तब मैं नहीं जानता था कि वो टैम्पो-चोर नहीं, बल्कि तुम्हारा साथी जगमोहन है। ओमवीर और जगमोहन के जाने बाद, मैं टैम्पो लेकर तबेले से बाहर आ गया। एक बात उस वक्त मुझे अजीब सी लगी थी कि टैम्पो चोर ने बहुत आसानी से खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। जरूर कोई बात है। मैंने सोचा थाने पहुचंकर उससे अच्छी तरह पूछताछ करूंगा। अभी कुछ आगे गया था। टैम्पो लेकर कि टैम्पो का आगे वाला पहिया पंचर हो गया। वो खाली रास्ता था। पास में कोई दुकान नहीं थी। मैंने जैक लगाकर खुद ही टैम्पो के अगले पहिए को खोला फिर स्टेप्नी निकाली। तब मुझे लगा कि स्टेप्नी में कुछ गड़बड़ है। कहीं से टाईट और कहीं से ढीली है। मैंने टूल बाक्स से औजार निकालकर टायर को रिम से अलग किया तो तब मुझे मालूम हुआ कि उसके भीतर ट्यूब नहीं, बल्कि हीरे हैं। मैं फौरन समझ गया कि वो हीरे केटली एण्ड केटली वाले हैं। तब तक पुलिस वालों में डकैती की खबर फैल चुकी थी। मैंने जल्दी से टायर को वैसे ही रिम में फंसा दिया। मैं जान चुका था कि केटली के शोरूम से साढ़े चार अरब के रुपयों की डकैती हुई है। ये रकम इतनी बड़ी थी कि मैंने हीरों को अपने पास रखने की सोच ली। किसी को क्या मालूम कि मैंने हीरे लिए है। फिर यहां से निकलने वाले ट्रैक्टर वाले से कहकर पंचर लगवाया। उसके बाद ही हीरों वाली स्टेप्नी को टैम्पो में डाला और मार्किट जाकर आनन-फानन टैम्पो के रंग से मिलती स्टेप्नी खरीदी और टैम्पो में उसी जगह फिट करा दी। अब मेरे सामने समस्या थी कि साढ़े चार अरब के हीरों वाली स्टेप्नी कहां रखूं। यही सोच-समझकर मैं टैम्पो के साथ थाने पहुंचा और टैम्पो में रखी स्टेप्नी को थाने के मालखाने में रखवा दिया। ये सोचकर कि एक-दो दिन में, कभी मौका पाकर, उसमें से हीरों को निकालकर ले जाऊंगा। किसी को पता भी नहीं चलेगा और स्टेप्नी के थाने के मालखाने में पड़ी होने की वजह से कोई सोच भी नहीं सकेगा कि उसमें अरबों के हीरे हो सकते हैं।”
सबकी निगाहें, सुच्चा राम के फक्क चेहरे पर थीं।
सुच्चा राम ने पुनः कहना शुरू किया।
“एक आदमी का कोई खास काम मेरे पास फंसा हुआ था। वो मामले को ख्त्म करवाने के लिए मुझे रिश्वत देना चाहता था, जो कि मैं नहीं ले रहा था। उसी शाम वो मेरे पास आया और बोला कि वो मुझे बहुत ही खास बात बता सकता है, अगर मैं उसका केस रफा-दफा कर दूं। मैंने उसे कहा कि बात अगर खास हुई तो, सोचूंगा। और वो आदमी तुम्हारे साथी भटनागर का खास था, उसी के द्वारा भटनागर ने वो बंगला लिया था। उसने बंगला दिया, तो अपने तौर छिपकर चैक कर आया था कि भटनागर किस फेर में है। यानी कि तुम सब लोगों को बंगले में एक साथ देखकर और पुलिस द्वारा डकैती की उड़ती खबरें सुनकर, वो जान चुका था कि केटली के यहां तुम लोगों न ही डकैती की है। देवराज चौहान की सूरत उसने पहचान ली थी। तो उसने मुझे बताया कि केटली के यहां डकैती डालने वाले सारे लोग उस बंगले में छिपे हुए है। ये खबर मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। मैंने उसका केस खत्म करने का वायदा किया और इस बारे में किसी को न बताने को कहकर उसे चलता कर दिया।”
सुच्चा राम पल भर के लिए ठिठका।
“बोल-बोल। अपने कर्मों के पोल खोल।” ओमवीर तीखे स्वर में कह उठा।
“मुझे-मुझे मारोगे तो नहीं?” सुच्चा राम का स्चर कांप उठा।
“बार-बार एक ही बात पूछता रहेगा।” ओमवीर कड़वे स्वर में कह उठा, “कुछ नहीं होगा तेरे को। मैं गारण्टी देता हूं कि कोई तेरे को टेढ़ी आंख करके भी नहीं देखेगा।”
सुच्चा राम ने लम्बी सांस ली, फिर कह उठा।
“उसके बाद मैंने सारे मामले पर गौर किया तो मुझे लगा कि बात खुल सकती है कि हीरे मेरे पास है। ये मामला देवराज चौहान का है, वो आसानी से हीरों की भूलने वाला नहीं। देर सवेर में देवराज चौहान और उसके साथी समझ ही जाएंगें कि हीरे मेरे पास है। मैंने स्टेप्नी बदली है और साढ़े चार अरब के हीरे मैं अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। आखिरकार मैंने तुरन्त ही ये फैसला किया कि डकैती करने की वजह से तुम लोगों में पहले से ही घबराहट होगी। अगर मैं किसी तरह तुम लोगों को और डरा दूं तो हीरों की तरफ से तुम लोगों का ध्यान हट जाएगा। ये ही सोचकर, मैंने तुम लोगों को खत्म करने की सोची कि, तुममें से एक-दो मरेंगे तो खुद-ब-खुद ही हीरों की तरफ से तुम लोगों का ध्यान हट जाएगा और इस उलझन में पड़ जाओगे कि, तुम लोगों को कौन मार रहा है। मैंने अंधेरा होते ही, बिना देर किए चाकू का इन्तजाम किया। घर गया। कपड़े बदले और भटनागर के दोस्त के बताए बंगले पर पहुंच गया और किसी तरह भीतर प्रवेश कर गया। इस तरह चुपके से पहला शिकार मैने केसरिया को बनाया। तब वो नशे में था और अपना बचाव नहीं कर सका। केसरिया की जान लेने के बाद मैं नानकचंद और भटनागर को खत्म करने की सोच रहा था कि बाहर से कार पर तुम और सोहनलाल आ गए थे तो मैं चुपके से पहली मंजिल की खिड़की के साथ लगे पाइप के सहारे उतरकर सामने वाले लॉन में पहुंचा ही था कि तब मेरी निगाह जगमोहन पर पड़ी, जो भीतर प्रवेश कर रहा था। इस वजह से मुझे अंधेरे में, लॉन में छिप जाना पड़ा।”
देवराज चौहान की आंखों में वहशी चमक नाच रही थी। दाँत भिंचे हुए थे।
“मेरे देखते ही देखते तुम सोहनलाल के साथ जगमोहन को डॉक्टर के पास ले गए। मेरे पास तब ऐसा कोई इन्तजाम नहीं था कि तुम लोगों के पीछे जाकर देख पाता कि जगमोहन को कहां ले गए हो। क्योंकि मुझे सबसे ज्यादा खतरा उसी से था। उसी ने टैम्पो की स्टेप्नी में हीरे छिपाए थे। उसके ये बात बताने की देर थी कि तुमने हिसाब लगाना शुरू कर देना था, कि स्टेप्नी से हीरे किसने निकाले? टैम्पो किसके पास ज्यादा देर रहा? और तो मुझे कुछ सूझा नहीं उस वक्त, परन्तु मौका पाकर मैंने भटनागर को खत्म कर दिया। तुम लोगों पर मैं ऐसा खौफ हावी कर देना चाहता था कि, हीरों की तलाश की तरफ से पूरी तरह अपना ध्यान हटा लो।”
“मुझ पर तूने हमला क्यों किया?” तिवारी ने सख्त स्वर में पूछा।
“क्योंकि तुम भी हीरों की तलाश कर रहे थे।” सुच्चा राम सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कह उठा, “मैं जानता हूं तुम बहुत तेज हो। तुम भी मुझ तक पहुंच सकते थे, इसलिए तुम्हारे मारने की कोशिश की। लेकिन तुम बच गए। और इसलिए भागा कि हाथापाई से मेरे चेहरे पर लिपटा रूमाल हटाकर मेरा चेहरा न देख ले।”
“उल्लू का पठ्ठा।”
“आगे कह सुच्चा राम।” ओमवीर ने गहरी सांस ली, “खामोश क्यों हो गया?”
“और बचा ही क्या है, कहने को।” भय से सुच्चा राम का चेहरा सर्द था, “उसके बाद मैंने मौका पाते ही नानकचंद की हत्या कर दी। जब टैम्पो में हीरे न मिलने पर, देवराज चौहान जगमोहन से पूछने गया था कि, उसने टैम्पो से हीरे कहां रखे हैं। जिस खतरे से मैं दूर होना चाहता था, वही खतरा मेरे पास आता जा रहा था। तब मैंने टैम्पो पर, अमृतपाल और उसके घर पर नजर रखनी शुरू कर दी थी क्योंकि हीरों को पाने की खातिर तुम सब पर नजर रखनी शुरू कर दी थी क्योंकि हीरों को पाने की खातिर तुम सबकी नजरें टैम्पो पर थीं इसी बीच एक रात मौका मिला तो मैंने सोहनलाल को चाकू से मार डाला। यही सोच कर उसके पास से हटा कि वो मर गया है। लेकिन बाद में पता लगा कि वो जिन्दा रह गया है। उसे प्रीतम वर्मा किसी हस्पताल में ले गया है। लेकिन इसके बाद मैंने महसूस किया कि, तुम लोग हीरे तलाश करने से पीछे हट गए हो। ये महसूस करके मुझे शान्ति मिली कि मैं अपनी कोशिश में कामयाब रहा। मैं समझा खतरा मुझसे दूर हो गया है।”
सबकी निगाहें सुच्चा राम के फक्क चेहरे पर थीं।
सुच्चा राम ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए ओमवीर को देखा।
“लेकिन मैंने ये सोचा ही नहीं था कि ओमवीर की रिश्वत लेने की आदत की वजह से, उस पर शक करोगे और इसकी वजह से मैं तुम लोगों के हत्थे चढ़ जाऊंगा। इसने ही तुम्हे बताया होगा कि तबेले से टैम्पो लेकर, पुलिस स्टेशन पहुंचते ही मुझे ढाई-तीन घंटे लग गए थे। टैम्पो के साथ में इतनी देर अकेला रहा था, जबकि रास्ता सिर्फ तीस-चालीस मिनट का था। ये बात जानते ही तुम समझ गए होगे कि हीरों से भरी स्टेप्नी मैंने ही बदली है। कोई समझ सकता है, इस बात को।”
रह-रहकर सुच्चा राम की टांगों में होने वाला स्पष्ट महसूस हो रहा था।
“माल बड़ा हो तो अकेले नहीं खाना चाहिए।” ओमवीर व्यंग्य से कह उठा, “हराम का माल संभालने के लिए बहुत बड़ी समझदारी और उससे भी ज्यादा हिम्मत चाहिए। मेरे में ये सब क्वालिटीज है। मुझे भी हिस्सेदार बना लिया होता तो, मैं कहीं भी गड़बड़ न होने देता। न तो किसी की हत्या करनी पड़ती और न ही कोई खतरा सिर पर आता। और सारी जिन्दगी मिल बांटकर मजे लेते। वैसे भी जब मामला देवराज चौहान जैसे इंसान से वास्ता रखता हो तो, बड़ा पंगा नहीं लेना चाहिए। ये बात तब मैं तेरे को समझाता। लेकिन तब तो तू खुद को दुनियां का सबसे अकलमंद समझ रहा होगा। तेरे को ट्यूशन की जरूरत ही महसूस नहीं हुई होगी। हवलदार होने के नाते कांस्टेबल को मुंह लगाना भी तू बेईज्जती समझ रहा होगा।”
सुच्चा राम की हालत देखने के लायक थी। पीला रंग। आंखों में मौत का खौफ। डर की चादर में सिमटा-सिमटा खड़ा था। दहशत और मौत का खौफ उसके बदन के जर्रे-जर्रे में समा चुका था।
“तिवारी साहब।” ओमवीर गहरी सांस लेकर कह उठा, “मेरी ठुकाई तो आपने बिना वजह ही कर दी।”
“जरूरी थी ये ठुकाई।” तिवारी कड़ुवे स्वर में बोला, “तेरी ठुकाई न होती तो तेरे दिमाग की खिड़कियां भी न खुलतीं और तेरे को ध्यान नहीं आता कि टैम्पो अकेले में देर तक, इसके कब्जे में रहा।”
ओमवीर ने सुच्चा राम को देखा।
“वो स्टेप्नी पुलिस स्टेशन के मालखाने में पड़ी है?”
सुच्चा राम ने सिर हिलाया।
उसी पल देवराज चौहान के हाथ में रिवॉल्वर दबी नजर आने लगी। दरिन्दगी और वहशत से भरा चेहरा। आंखों में नाचती मौत। भिंचे होंठ। चेहरा चट्टान से भी ज्यादा कठोर हुआ पड़ा था।
“नहींऽऽऽ..!”मौत के भय से थरथराकर चीख पड़ा सुच्चा राम, “मुझे मत मारो। तुमने वादा किया था कि मेरा जान नहीं लोगे। मुझे नहीं मारोगे। तुम-।”
“वो वायदा मैंने किया था।” ओमवीर कह उठा, “देवराज चौहान ने नहीं।”
“ओमवीर, मुझे बचा लो। मुझे बचा-।”
“मैं खुद मरते-मरते बचा हूं, तेरे को कहां से बचाऊंगा।” ओमवीर मुंह बनाकर कह उठा।
रंजन तिवारी के दाँत भिंचे हुए थे।
“तिवारी के दाँत भिंचे हुए थे।
“तिवारी।” देवराज चौहान गुर्राया।
“हां।”
“इसकी बैल्ट, टोपी और हवलदार होने वाली फीती उतारो।”
“नहीं। मैं-।” सुच्चा राम की थरथराहट बहुत ज्यादा बढ़ गई थी।
“चुप साले। दूसरों की जानें लेता है। पुलिस वाला होकर अपराधियों से भी ज्यादा बढ़कर, बुरे काम करता है। तू मुझे मारने में कामयाब हो जाता तो, मेरी बीबी का क्या होता?” तिवारी कठोर स्वर में कहता हुआ आगे बढा और उसके शरीर से हर वो चीज उतार दी, जो खाकी कपड़ों के साथ लगी थी उसे पुलिस डिपार्टमेंट का हवालदार बना रही थी।
“मैं तुम लोगों के पांव पड़ता हूं।” सुच्चा राम हाथ जोड़े गिड़गिड़ा उठा, “सारी जिन्दगी तुम लोगों के पांव धो-धो कर पियूंगा। मुझे मत-।”
“मैं तुझे कभी भी नहीं मारता।” देवराज चौहान मौत से भरे स्याह स्वर में कह उठा, “अगर बात सिर्फ हीरों की होती! दौलत तो किसी की भी नहीं होती। कोई भी ले जा सकता है। लेकिन तूने केसरिया, भटनागर, नानकचंद की हत्यायें कीं। जगमोहन और सोहनलाल को मारने में कोई कसर न छोड़ी। सिर्फ इसी वजह से-।”
“नहींऽऽऽ।” सुच्चा राम भय से चीख कर पागलों की तरह झपटा और देवराज चौहान से लिपट गया कि वो गोली न चला सके, “मुझे मत मारो। मैं-।”
तभी तिवारी दाँत भींचे आगे बढ़ा और सुच्चा राम की बांह पकड़कर जोरों से झटका दिया तो, सुच्चा राम लड़खड़ाकर पीछे जा गिर, गिरते ही उसकी जेब में पड़ा हुआ चाकू बाहर आ गिरा। सुच्चा राम फौरन चाकू पर झपटा और उसे पकड़कर, खोलते हुए खड़ा हुआ और चाकू वाला हाथ लहराया। आंखों में पागलपन भरा पड़ा था।
“देवराज चौहान हाथ में रिवॉल्वर थामे शांत भाव से, कठोर निगाहों से सुच्चा राम को देखता रहा।
“खबरदार, जो मेरी जान लेने की कोशिश की।” सुच्चा राम चाकू थामे पागलों की भांति कह उठा, “वो हीरे मेरे हैं। उन्हे मुझसे कोई नहीं छीन सकता। कोई मेरी जान नहीं ले सकता। मैं सारी उम्र ऐश करूंगा। मैं-।”
“तेरी तो-।” रंजन तिवारी ने कहना चाहा।
तभी सुच्चा राम चाकू थामे तिवारी पर झपट पड़ा।
देवराज चौहान रिवॉल्वर थामे शांत खड़ा था।
चाकू वाला हाथ आगे आते ही तिवारी ने दाँत भींचकर उसकी कलाई पकड़ी और फुर्ती के साथ वापस मोड़ दी। लम्बे फल वाला चाकू सुच्चा राम के पेट में पूरा का पूरा धंसता चला यगा। सुच्चा राम की आंखें पीड़ा और अविश्वास से फैलती चली गईं। अभी भी उसने चाकू की मूठ को थाम रखा था। एकाएक उसके शरीर को अजीब सा झटका लगा और वो नीचे जा गिरा। उसकी सांसों की डोर टूट चुकी थी। वो मर चुका था।
पैनी खामोशी वहां फैल गई।
ओमवीर ने आंखें बंद कर लीं। चेहरे पर अफसोस के भाव थे।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर, वापस जेब में रख ली।
दाँत भींचे तिवारी सुच्चा राम की लाश को देखे जा रहा था।
“मेरे को हीरों के बारे में पहले ही बता देता तो इस वक्त ये जिन्दा होता।” ओमवीर गहरी सांस लेकर कह उठा।
देवराज चौहान ने शांत भाव से सिगरेट सुलगाई।
दाँत भींचे तिवारी ने ओमवीर को देखा।
“तेरा क्या किया जाए ओमवीर?” तिवारी गुर्रा उठा।
“मेरा! मैंने क्या किया है।”ओमवीर जल्दी से कह उठा।
“यहां जो हुआ है? वो तूने देखा और-।”
“वाह तिवारी साहब। मैंने कहां देख लिया। मैं तो यहां हूं नहीं। छुट्टी पर हूं। घर पर हूं और अपनी बीबी का जन्मदिन मना रहा हूं। रात को घर पर तो खाना बना नहीं। होटल से खाना लेने निकला, तो कुछ बदमाशों ने मुझे अंधेरे में घेर कर मुझ पर हमला कर दिया फिर भाग गए। तो मैंने यहां का मामला कैसे देख लिया?”
“बाद में पीछे हट गए तो?”
“तिवारी साहब। आपको विश्वास होना चाहिए कि ओमवीर मुंह से गलत बात नहीं निकालता।”
देवराज चौहान ने कश लिया और तिवारी से बोला।
“हीरे, पुलिस स्टेशन के मालखाने में पड़ी स्टेप्नी में हैं।”
एकाएक रंजन तिवारी मुस्करा उठा।
“कम से कम मैं तो वहां से टैम्पो की स्टेप्नी निकालकर नहीं ला सकता।”
देवराज चौहान ने ओमवीर को देखा।
“पुलिस स्टेशन से वो स्टेप्नी बाहर निकालनी है।” देवराज चौहान ने कहा।
“मालखाने में जमा माल को, निकालना आसान नहीं। मालखाने का इन्चार्ज बहुत ही सख्त है। वो कमीना तो एक तिनका इधर से उधर नहीं होने देगा, तुम स्टेप्नी निकालने की बात कर रहे हो। वैसे भी थाना बहुत बड़ा है। चोरी छिपे भी ये काम नहीं हो सकता। फिर भी तुम कोशिश कर सकते हो। शायद वहां से स्टेप्नी ले जाने में कामयाब हो जाओ।”
“तुम्हारे लिए ये काम मामूली है।” देवराज चौहान के दाँत भिंच गए, “तुम-।”
“मामूली होता तो मैं इंकार ही क्यों करता। सुच्चा राम ने वो स्टेप्नी मालखाने में जमा कराई थी, वो एक बार को आसानी से उसे निकाल सकता था, वहां से। वैसे भी मालखाने के इंचार्ज से मेरी बनती नहीं। तिवारी साहब, आप ही बताइए अब मैं क्या करूं।”
तिवारी के होंठों पर मुस्कान नाच रही थी।
उसकी मुस्कराहट देखकर बरबस ही देवराज चौहान भी मुस्करा पड़ा।
“अगर ओमवीर स्टेप्नी को वहां से निकालना भी चाहे तो, तुम उसे निकालने नहीं दोगे।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा, “इस वक्त हीरे ऐसी जगह पर पड़े हैं कि तुम नहीं चाहोगे कि उन्हें आधा-आधा किया जाए। और बीमा कम्पनी को आधा नुकसान हो। सीधे-सीधे इंकार न करके तुम अपनी मजबूरी दर्शाना शुरू कर दोगे।”
“अगर इस वक्त तुम बीच में न होते तो, मैं आसानी से ओमवीर के सहारे, पुलिस स्टेशन से वो स्टेप्नी निकलवा लेता। तुम कोई न कोई अड़चन पैदा करके, किसी भी हालत में ओमवीर को पुलिस स्टेशन से हीरों से भरी वो स्टेप्नी नहीं निकालने दोगें।” देवराज चौहान का मुस्कान से भरा स्वर शांत था, “बीमा कम्पनी के बहुत वफादार हो तुम। या फिर नहीं?”
“ये सब कहकर तुमने अच्छा किया देवराज चौहान। मुझे तुम्हारे सामने झूठ नहीं बोलना पड़ा। कोई बहाना नहीं लगाना पड़ा। वास्तव में बहुत समझदार हो तुम।” तिवारी सिर हिलाकर कह उठा, “अगर स्टेप्नी पुलिस स्टेशन की अपेक्षा कहीं और होती तो किसी भी हालत में तुम सारे हीरे नहीं ले जा सकते थे।” देवराज चौहान शांत स्वर में बोला। ओमवीर पर निगाह मारी फिर कश लेता हुआ पलटा और बाहर निकलता चला गया।
ओमवीर की निगाह, सुच्चा राम की लाश पर जा टिकी।
“तुम आ जाना। मैं पुलिस स्टेशन से स्टेप्नी-।”
“तिवारी साहब।” ओमवीर जल्दी से कह उठा, “इतने जुल्म मुझ पर ढा लिये, अब तो बस कीजिए।”
“क्या मतलब?”
“आपने मेरे जिस्म की जो हालत की है, उसका कुछ तो मुझे फायदा उठा लेने दीजिए। मैंने बादशाहों से लड़ाई की। जान खेलकर उनका मुकाबला किया। बाकी भाग गए, एक को पकड़ लिया तो उसने बताया कि साढ़े चार अरब के हीरों से भरी टैम्पो की स्टेप्नी पुलिस स्टेशन के मालखाने में पड़ी है। मेरा मतलब है कि खुद को हीरो बनाने के लिए, मैंने आने ऑफिसरों को जो बताना होगा, वो तो मैं सोच लूंगा। उन्हे बताऊंगा, मेरे मुखबिर ने मुझे खबर दी हीरों के बारे में तो, मैंने कितने बड़े-बड़े खतरे उठाकर, मालूम किया कि, वो हीरे कहां हैं। कल के अखबारों में पांच सात तस्वीरें भी छप जाएंगी। और ये तो पक्का है कि तरक्की भी मिलेगी। आपको और आपकी कम्पनी को तो हीरे मिल ही जाएंगें। थोड़ी सी मेरी वाह-वाह हो लेने दीजिए। ऐसे मौके भला बार-बार कहां मिलते हैं। मना मत कीजिएगा, वरना मेरा दिल टूट जाएगा और-।”
“ठीक है।” रंजन तिवारी मुस्कराया, “तुम्हारी बात मानी। लेकिन ये लाश यहां से हटानी होगी। मेरे फ्लैट में लाश मिली तो, जवाब देना कठिन हो जाएगा।”
“लाश तो यहां से अभी हटा देते हैं। खून वाला फर्श भी मैं धो दूंगा।” कहने के साथ ही ओमवीर अपना दर्द भरा शरीर लिए उठ खड़ा हुआ। होंठों से कई कराहटें निकलीं, “हीरों के बरामद के बदले, कल जो वाह-वाही मुझे मिलने वाली है उसके हिसाब से तो ये मामूली काम है। मैं तो सिर के बल इस वक्त आपकी हर सेवा करने को तैयार हूं।”
“सिर्फ इस वक्त?” तिवारी के होंठ सिकुड़े।
“मेरा मतलब है, ओमवीर आपकी सेवा में हमेशा हाजिर रहेगा।” कहकर ओमवीर दाँत दिखाने लगा।
समाप्त
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