विकास फियेट पर कमर्शियल स्ट्रीट से निकला और सीधा रिचमंड रोड पहुंचा। दोनों जगहों के बीच कोई ज्यादा फासला नहीं था । फियेट को उसने सीधे कार बाजार के कम्पाउन्ड में दाखिल कर दिया ।
कम्पाउन्ड में कोई नहीं था ।
उसने कार को इमारत के पास ले जाकर खड़ा किया और बाहर निकला ।
उसे यह देखकर बड़ी सन्तुष्टि हुई कि स्पोर्टस कार अभी भी कम्पाउन्ड में खड़ी कारों के बीच मौजूद थी ।
जब काफी देर तक भी कोई सेल्समैन उसके पास न पहुंचा तो वह इमारत के मुख्यद्वार के पास पहुंचा ।
आफिस के शीशे के दरवाजे में से उसने भीतर झांका ।
आफिस छोटा-सा था । उसमें दो मेजें लगी हुई थीं, कुछ कुर्सियां पड़ी थीं और एक कोने में एक स्टील की अलमारी और एक फाइलिंग कैबिनेट दिखाई दे रही थी । आफिस की पिछली दीवार में दो दरवाजे थे जो इमारत के भीतर कहीं खुलते थे लेकिन उस वक्त वे दोनों बन्द थे ।
आफिस में एक आदमी और एक औरत मौजूद थे। प्रत्यक्षत: दोनों में लड़ाई हो रही थी । आवाजें तो विकास को सुनाई नहीं दे रही थीं, लेकिन दोनों के होंठ बड़ी तेजी से हिल रहे थे और उनके चेहरे तमतमाये हुए थे ।
आदमी को विकास ने फौरन पहचान लिया ।
उसकी तस्वीर उसने उसी रोज अखबार में देखी थी ।
वह प्रकाश देव महाजन था ।
विकास ने देखा उसके भारी चेहरे की तरह उसका शरीर भी भारी-भरकम था ।
औरत को वह नहीं पहचानता था लेकिन वह छक्के छुड़ा देने वाली खूबसूरती की मालकिन थी । उम्र उसकी बीस और तीस के बीच कोई भी हो सकती थी ।
शायद साहब अपनी सेक्रेट्री की किसी गलती पर खफा हो रहा था और सेक्रेट्री शायद अपनी गलती मानने को तैयार नहीं थी । उसका जवाब में लड़ने का अन्दाज ही बता रहा था कि वह बहुत सिर चढी हुई थी ।
किसी का ध्यान अपनी ओर आकषिर्तत न होता पाकर उसने दरवाजे के शीशे पर दस्तक दी ।
दोनों जने फौरन खामोश हो गये और दरवाजे की तरफ देखने लगे ।
विकास दरवाजा ठेल कर भीतर दाखिल हुआ ।
महाजन अपने क्रोध से तमतमाये चेहरे पर जबरन मुस्कराहट लाया । औरत ने भुनभुनाते हुए उसकी तरफ देखा । विकास ने अपने चेहरे पर अपनी दिल जीत लेने वाली मुस्कराहट लाकर उसे देखा । औरत के चेहरे से भुनभुनाहट का भाव फौरन गायब हो गया। वह गहरी दिलचस्पी-भरी निगाहों से विकास को देखने लगी ।
"फरमाइये !" - महाजन बोला ।
"मैं किसी सेल्समैन को देख रहा था ।" - विकास बोला
“सेल्समैन तो दोनों लंच पर गये हुए हैं।" - महाजन दीवार पर लगी क्लाक पर निगाह डालता हुआ बोला- "मैं प्रोप्राइटर हूं । फरमाइये, मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूं ?"
"बाहर जो स्पोर्टस कार खड़ी है, मैं जरा उसे देखना चाहता था ।"
औरत की बेबाक निगाह अभी भी विकास को अपने चेहरे पर चुभती महसूस हो रही थी। उसने औरत की तरफ देखा तो पाया कि निगाह केवल उसके चेहरे पर ही नहीं टिकी हुई थी बल्कि उसके सिर से पांव तक यूं घूम रही थी जैसे कोई कसाई सोच रहा हो कि वह अगर कोई बकरा होता तो उसमें से कितना गोश्त निकलता । विकास को वह बात बहुत अखरी । फिर उसने भी उसकी बेबाक निगाह का जवाब वैसी ही बेबाक निगाह से किया । उसने भी उसके नख-सिख का मुआयना करना आरम्भ कर दिया ।
खूबसूरत वह वाकई बहुत थी । उसकी खूबसूरती में एक बड़ी आकर्षक ताजगी थी । नाक-नक्श उसके बहुत तीखे थे और शरीर बहुत सन्तुलित था । रॉ सिल्क की कई रंग के फूलों वाली साड़ी और स्लीवलैस ब्लाउज उसे बहुत जंच रहा था ।
“आइये ।" - उसके कानों में महाजन की आवाज पड़ी - "मैं आपको स्पोर्टस कार दिखाता हूं।"
विकास ने फिर भी अपना मुआयना बन्द नहीं किया । औरत ने साड़ी बहुत नीचे बांधी हुई थी और उसका ब्लाउज बहुत ऊंचा था । उसका नंगा पेट...
"यह मेरी बीवी है ।" - महाजन का निहायत तीखा स्वर उसकी चेतना से टकराया ।
विकास को झटका सा लगा । उसने शायद विकास का ध्यान औरत की तरफ से हटाने के लिये ही ऐसा कहा था । वह बहुत हैरान हुआ । दोनों की उम्र में बहुत फर्क था ।
"इन्होंने बिल्कुल ठीक कहा ।" - औरत बड़ी मीठी आवाज से बोली- "मैं इनकी बीवी ही हूं । सुनयना महाजन | देख लो मैंने इनके क्लेम को झुठलाया नहीं है।"
महाजन ने कहर-भरी निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
तो वह मालिक सेक्रेट्री की लड़ाई नहीं थी विकास ने मन ही मन सोचा - मियां-बीवी की लड़ाई थी । -
और वह मियां के सामने हजम कर जाने वाली निगाह से बीवी को घूरे जा रहा था ।
"बन्दे को विकास गुप्ता कहते हैं ।" - प्रत्यक्षत: वह सिर नवाकर बोला ।
“तशरीफ लाइये ।" - महाजन आगे बढकर उसके लिए दरवाजा खोलता हुआ बोला ।
एक आखिरी तारीफी निगाह सुनयना पर डाल कर विकास महाजन के साथ हो लिया ।
दोनों कम्पाउन्ड में वहां पहुंचे जहां स्पोर्टस कार खड़ी थी।
महाजन ने कार की तारीफ में कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि तभी लम्बे डग भरती हुई सुनयना वहां पहुंच गई ।
“डार्लिंग।" - वह अपने पति से सम्बोधित हुई - "मुझे पैसे देना तो तुम भूल ही गये ।"
बात वह अपने पति से कर रही थी लेकिन उसकी आंखें विकास पर टिकी हुई थीं।
हर्राफा ! - विकास ने मन ही मन उसके बारे में फैसला किया ।
"देखो" - महाजन दांत पीस कर बोला- "मैं तुम्हें पहले ही कह चुका हूं कि..." - फिर एकाएक वह ठिठक गया । उसने अपनी जेब से अपना पर्स निकाला, उसमें से कुछ नोट खींचे और उन्हें अपने सामने फैले सुनयना के हाथ पर रख दिया ।
"थैंक्यू डार्लिंग।" - सुनयना ने नोट अपने हैण्डबैग में ठूंस लिये । फिर उसने एक चमकीली मुस्कराहट विकास पर डाली और बड़े चित्ताकर्षक स्वर में बोली- "बाई, मिस्टर विकास गुप्ता । सी यू अगेन ।”
" श्योर ।" - विकास बोला- "माई प्लेजर, मैडम | "
वह घूमी और वहां से चल दी ।
विकास छुपी निगाहों से उसके झूलते कूल्हों को देखता रहा । उसे पूरा विश्वास था कि उसी को दिखाने के लिये वह जरूरत से ज्यादा लचक-लचक कर चल रही थी। उसके देखते-देखते वह आफिस के समीप खड़ी एक काली एम्बैसेडर में सवार हो गई। उसने कार को घुमाया और दोबारा उनके पास से होती हुई ही बाहर की तरफ बढी ।
उनकी बगल से गुजरते समय उसने फिर एक बड़ी चित्ताकर्षक मुस्कराहट विकास पर डाली ।
विकास उस मुस्कराहट का जवाब न दे सका । वह जानता था उसके पति की भाले-बर्छियां फेंकती निगाह उसी पर टिकी हुई थी ।
सुनयना के वहां से जा चुकने के बाद दोनों का ध्यान एक साथ वहां मौजूद उस इकलौती स्पोर्टस कार की तरफ आकर्षित हुआ जिसके सामने वे खड़े थे ।
फिर महाजन का स्पोर्टस कार की विशेषतायें बखान करने वाला स्टैण्डर्ड लेक्चर आरम्भ हो गया ।
विकास बड़ी गौर से उसके मुंह से निकला एक-एक शब्द सुनने का अभिनय करने लगा ।
"कीमत ?" - अन्त में विकास ने पूछा ।
“पैंतीस हजार।" - महाजन यूं बोला जैसे वह कोहिनूर हीरे को कौड़ियों के मोल बेच रहा हो ।
"बहुत ज्यादा है ।"
“माल भी तो देखिये, साहब ।"
माल विकास बखूबी देख रहा था । कार पचपन हजार किलोमीटर चल चुकी थी, चार में से तीन टायर बुरी तरह घिसे हुए थे, बाडी पर से कई जगह से पेंट उखड़ा हुआ था और इंजन की हालत को तो अभी भगवान ही जानता था । कार में ये तमाम नुक्स न भी होते तो भी वह पैंतीस हजार के काबिल नहीं थी ।
"कुछ कम कीजिये ।" - विकास प्रत्यक्षत: बोला ।
"यह एकदम बाटम प्राइस है, साहब । इस प्राइस में कहीं फारेन कार मिलती है ?"
वह नगर की अपराध निरोधक कमेटी का चेयर मैन था लेकिन अपने ग्राहकों को ठगने से उसे कोई गुरेज मालूम नहीं होता था । या शायद वह ऐसी ठगी को अपराध नहीं मानता था ।
"फिर भी कुछ कम कीजिये ।" विकास बोला ।
"चलिये चौंतीस दे दीजिये ।" - महाजन बोला ।
"जिस फियेट पर मैं आया हूं, वह देखी है आपने ?" "देखी है ।"
“इसका आप क्या देंगे मुझे ?"
महाजन के नेत्र सिकुड़ गये । उसने एक सरसरी निगाह दूर खड़ी फियेट पर डाली । फिर वह लम्बे डग भरता हुआ उसके पास पहुंच गया ।
उसने साथ चलता हुआ विकास भी वहां पहुंच गया ।
महाजन कितनी ही देर फियेट का पोस्टमार्टम करता रहा ।
"पन्द्रह ।" - अन्त में वह बोला ।
विकास यूं हंसा जैसे उसने भारी मजाक की बात सुन ली हो ।
“यह इससे ज्यादा का माल नहीं है, मिस्टर गुप्ता ।" वह बोला ।
और फिर वह उतनी ही बारीकी से फियेट के अवगुण गिनाने लगा जितनी बारीकी से मेहतानी के सेल्समैन ने उसके गुण बखान किये थे।
"इसके कम से कम बीस लगाइये, साहब | " - विकास बोला ।
"चलिये आपके लिए सोलह । "
"बीस ।"
"सवाल ही नहीं पैदा होता । बीस में तो वो भी इसे नहीं खरीदेगा जिसका ताजा बाप मरा हो ।"
"उन्नीस ।"
“सत्तरह पर सौदा कीजिये । न आपकी बात न मेरी बात।"
“अच्छी बात है।" - विकास हथियार डालता हुआ बोला ।
"विश्वास जानिये यह गाड़ी इतनी कीमत के काबिल नहीं है। दूसरे सत्तरह भी मैं आपको इसलिये दे रहा हूं क्योंकि आप स्पोर्टस कार भी मुझसे ही खरीद रहे हैं। दोनों सौदों को इकट्ठा मिलाकर मैं चार पैसे जरूर कमा लूंगा ।"
"जाने दीजिए आप | बहुत हार्ड बारगेन किया है आपने।”
महाजन ने एक फरमायशी ठहाका लगाया । विकास के आगमन के वक्त अपनी बीवी पर जो गुस्सा वह खा रहा था, उसे अब वह एकदम भूल चुका था ।
“आप बैलेंस के सत्रह हजार रुपये मुझे दे दीजिए और यह शानदार स्पोर्टस कार आपकी ।"
" और मेरी फियेट आपकी ।"
महाजन ने फिर अट्टहास किया ।
विकास ने बड़े अन्दाज से अपनी जेब से चैकबुक निकाली।
चैकबुक देखते ही महाजन के नेत्र सिकुड़ गये ।
" पेमेन्ट आप चैक से करेंगे ?" - वह बोला ।
"जी हां" - विकास बड़े सहज भाव से बोला - "कोई एतराज ?"
“जी नहीं, कोई एतराज नहीं । चैक कौन से बैंक का देंगे ?"
"जिस बैंक का आप कहेंगे, दे दूंगा ।”
“मजाक मत कीजिये । मेरा मतलब था किसी लोकल बैंक का चैक देंगे न आप ?"
“जी हां ।”
"कौन से बैंक का !"
“सैन्ट्रल बैंक का - म - मेरा मतलब है नैशनल बैंक का।"
'आइये भीतर आफिस में चलकर बैठते हैं । "
विकास उसके साथ आफिस में पहुंचा ।
वहां उसने अपना सबसे नाजुक अभिनय आरम्भ किया । पहले से ही तैयार की हुई योजना के अनुसार उसने जान बूझकर कई ऐसी बातें करनी आरम्भ कर दी जिससे महाजन का उसके प्रति अविश्वास बढ़ता ही चला गया। अपने उस अभिनय में उसने खास ख्याल इस बात का रखना था कि महाजन को यह शक न होने पाये कि वह अभिनय कर रहा था । यह बहुत जरूरी था कि बाद में अदालत में पेश होने पर महाजन अदालत में कोई ऐसी बात न बता पाये जो निर्विवाद रूप में विकास के गुनाह-भरे व्यवहार की चुगली कर पाती । विकास ने उसे सौदे को क्लोज करने के लिए जो नपी-तुली व्यग्रता दिखाई थी उसकी जरूरत यही थी कि वह महाजन को शक में डाल देती लेकिन वह अदालत में विकास के खिलाफ साबित न की जा पाती ।
उस ड्रामे का क्लाइमैक्स तब आया जब महाजन ने उससे कोई ऐसा सबूत मांगा जिससे फियेट उसकी मिल्कियत साबित हो सकती ।
सबूत के तौर पर विकास ने मेहतानी से हासिल हुई बिक्री की रसीद पेश कर दी ।
महाजन ने रसीद की तारीख देखी तो उसे एकदम गारन्टी हो गई कि उसका किसी ठग से वास्ता पड़ गया था ।
रसीद के मुताबिक फियेट सामने बैठे आदमी ने उसी रोज खरीदी थी ।
महाजन की निगाह अपने आप ही मेज पर रखे टेलीफोन की तरफ उठ गई ।
"मैं जरा हाथ धोना चाहता हूं।" - स्पोर्टस कार के मुआयने से मैले हो गये अपने हाथ महाजन को दिखाता हुआ विकास एकाएक बोला ।
“वो सामने दायां दरवाजा बाथरूम का है ।" - महाजन व्यग्र भाव से बोला ।
विकास उठकर बाथरूम की तरफ बढ़ा |
उसने जान-बूझ कर महाजन को ऐसा मौका दिया था कि वह जहां टेलीफोन करना चाहता था, कर ले । वैसे गारन्टी थी कि फोन उसने मेहतानी को ही करना था ।
बाथरूम में पहुंच कर विकास ने अपने पीछे का दरवाजा बन्द कर लिया। उसने वाश वेसिन का नल चला दिया और फिर दरवाजे के पास आकर उसने पल्ले के साथ अपने कान लगा दिये ।
उसे टेलीफोन का डायल घूमने की आवाज साफ सुनाई दी।
कुछ क्षण बाद महाजन की दबी हुई आवाज उसके कान में पड़ी - "मेहतानी ? मैं महाजन बोल रहा हूं।"
एक क्षण की खामोशी के बाद महाजन की आवाज फिर उसके कान में पड़ी - "मुझे लगता है यहां एक बोगस चैक चलाने वाला कलाकार पहुंच गया है । आज तुमने किसी विकास गुप्ता को कोई फियेट बेची है ? ... क्या ? अभी आधा घन्टा पहले ? ...क्या कह रहे हो ?... विकास गुप्ता को वह फियेट बेचे तुम्हें अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ ?... उसी फियेट का सौदा वह पट्ठा सत्रह हजार में मेरे से कर चुका है |"
एक लम्बी खामोशी के बाद महाजन की आवाज उसे फिर सुनाई दी - “नहीं, नहीं, मेरी आवाज वह नहीं सुन सकता । वह क्लाक रूम में है। ...ठीक है, उसे मैं थोड़ी देर यहीं ठहराता हूं, तुम पुलिस को फोन करो और उन्हें जल्दी से जल्दी यहां आने के लिये कहो । ... क्या ?... नहीं । मैं अकेला हूं यहां । इसलिये जरा जल्दी करो । मुझे यह आदमी कोई बहुत खतरनाक ठग लग रहा है । ... क्या ? जरा ठहरो, मेहतानी । दरवाजा खुल रहा है।"
महाजन के उस अन्तिम वाक्य ने विकास को उलझन में डाल दिया । उसने दरवाजे पर से अपना कान हटाया और इस ख्याल से उसके सिरे की तरफ देखा कि कहीं उसी के
दबाव से तो किसी प्रकार दरवाजा खुलने नहीं लग गया था ।
लेकिन दरवाजा उसने बड़ी मजबूती से बन्द पाया ।
पल्ला एकदम चौखट से मिला हुआ था ।
तभी ऑफिस में से महाजन की हैरानी भरी आवाज आई। तुरन्त बाद आफिस एक फायर की आवाज से गूंज उठा।
विकास ने उस आवाज को साफ पहचाना । वह एक भारी कैलिबर की रिवाल्वर के चलने की आवाज थी ।
फिर उसे उस आवाज के पीछे-पीछे ही एक चीख की आवाज सुनाई दी और फिर किसी भारी चीज के फर्श पर गिरने की आवाज !
एक-दो क्षण विकास हक्का-बक्का सा पत्थर की प्रतिमा बना यथास्थान खड़ा रहा। फिर उसके कानों में आफिस का बाहर वाला दरवाजा भड़ाक से पल्ले के साथ टकराने की आवाज पड़ी ।
उसने किसी प्रकार अपने आप पर काबू किया और एक झटके से क्लाक रूम का दरवाजा खोला ।
एक निगाह में तो ऑफिस उसे एकदम खाली लगा । लेकिन जब वह कमरा पार करके मेज के पास पहुंचा तो महाजन उसे दिखाई दिया । वह अपनी कुर्सी से लुढक कर मेज के पीछे जा गिरा था । अब वह पीठ के बल फर्श पर पड़ा था उसे सांस फंस-फंस कर आ रही थी और हर सांस के साथ उसके मुंह से लाल रंग के बुलबले फूट रहे थे ।
उसकी छाती में खून का एक लाल दायरा दिखाई दे रहा था जो उसके देखते ही देखते बड़ा होता जा रहा था ।
विकास उसके ऊपर झुका । लेकिन तभी महाजन के मुंह से आखिरी कराह निकली और विकास के देखते-देखते ही उसकी आंखों से जीवन ज्योति बुझ गई ।
टेलीफोन का रिसीवर अपनी डोरी के सहारे मेज के पहलू में लटका हुआ था और उसमें से आती मेहतानी की आन्दोलित आवाज साफ सुनाई दे रही थी- "महाजन ! अभी गोली चली थी ? महाजन ? कैसी आवाज थी वह ? क्या हुआ है ? महाजन ! महाजन !”
विकास ने रिसीवर थामा और उसे धीरे से क्रैडिल पर रख दिया ।
वह दरवाजे के पास पहुंचा। उसने उसे जल्दी से खोला और बाहर झांका ।
उसे बाहर ऐसा कोई आदमी न दिखाई दिया जो हत्यारा हो सकता था । बाहर रिचमंड रोड पर ट्रैफिक अपने स्वाभाविक ढंग से चल रहा था । वहां शायद किसी ने भी फायर की आवाज नहीं सुनी थी और अगर सुनी थी तो शायद कोई समझ नहीं सका था कि वह कैसी आवाज थी।
विकास ने दरवाजा बन्द कर दिया । उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा । उसका सिक्केबन्द ठगी का खेल अब उसके लिए सिक्केबन्द फन्दा बनता जा रहा था ।
अगर वह पुलिस के आगमन तक वही खड़ा रहता तो क्या हत्यारा पुलिस को यह विश्वास दिला पाता कि उस कत्ल से उसका कोई रिश्ता नहीं था ?
उसके हक में एक यह बात हो सकती थी कि उसके पास रिवाल्वर नहीं थी। वह ठग था, हत्यारा नहीं । रिवाल्वर उसने कभी भी अपने पास नहीं रखी थी। लेकिन हो सकता था कि वह रिवाल्वर वहीं कम्पाउण्ड में कहीं फेंका गया हो और उसकी बरामदी के बाद पुलिस यह दावा कर सकती थी कि रिवाल्वर विकास की थी और उसी ने वहां फेंकी थी ।
उसके हक में दूसरी बात यह थी कि सोमवार को बैंक खुलने के बाद वह यह साबित कर सकता था कि वह कोई बोगस चैक चलाने की कोशिश नहीं कर रहा था । लेकिन उसे इसमें अपना कोई खास बचाव न दिखाई दिया । कत्ल की दख्लअन्दाजी के बिना अगर उसकी ठगी की योजना काम कर जाती तो उसके बारे में पुलिस की पूछताछ विशालगढ के नैशनल बैंक से आगे न बढी होती। जब यह बात सामने आती कि बैंक में उसका पर्याप्त रुपया जमा था तो सारे सम्बन्धित लोगों के कस बल निकल जाते और उसके बारे में पूछताछ वहीं खत्म हो जाती । लेकिन अब वह कत्ल का मामला था और एक मर्डर-सस्पैक्ट के तौर पर पुलिस उसकी बैकग्राउन्ड को बहुत दूर तक खोदने की कोशिश कर सकती थी । उसने बैंक में जो पचास हजार रुपये का ड्राफ्ट जमा कराया था, वह उसने दिल्ली से हासिल किया था इसलिए दिल्ली पुलिस से उसके बारे में पूछताछ की जानी तो लाजमी बात थी । और दिल्ली पुलिस से उसकी जो रिपोर्ट आती, वह यही होती कि वह एक बहुत बड़ा ठग था ।
यही बात उसके खिलाफ कत्ल का उद्देश्य बन जाती ।
विकास ठगी का क्या जाल फैला रहा था, यह तो शायद स्थानीय पुलिस न समझ पाती लेकिन एक बार यह मालूम हो जाने के बाद कि वह एक पेशेवर ठग था, वह यही समझती कि विकास ने महाजन को ठगने की कोशिश की थी, ठगी चली नहीं थी और अपनी पोल खुलती पाकर उसने महाजन का खून कर दिया था ।
रही सही कसर महाजन का टेलीफोन पर कहा यह आखिरी फिकरा पूरी कर देता 'जरा ठहरो, मेहतानी । दरवाजा खुल रहा है। वह फिकरा सुनकर खुद विकास ने यही समझा था कि वह क्लाक रूम के दरवाजे के खुले रहे होने की बात कर रहा था । जरूर लाइन के दूसरे सिरे पर मौजूद मेहतानी ने भी यही समझा था । -
आखिरी बात, जिसने उसे यह सोचने पर मजबूर किया कि उसका वहां से खिसक जाने में ही कल्याण था, यह थी कि उस कत्ल के मामले में वह स्थानीय पुलिस द्वारा जानबूझ कर भी बलि का बकरा बनाया जा सकता था । महाजन को मिली कत्ल की धमकी के अखबार में छपने के फौरन बाद उसका कत्ल हो जाने से जनता द्वारा यही समझा जाता कि वह बख्तावर सिंह के गैंग की करतूत थी- आखिर अपने बयान में महाजन ने खासतौर से बख्तावर सिंह का जिक्र किया था - चाहे बख्तावर सिंह का उस कत्ल से कोई रिश्ता होता या न होता । यह बात भी अब विकास से छुपी नहीं थी कि विशालगढ के पुलिस विभाग पर बख्तावर सिंह का पूरा होल्ड था । वहां की पुलिस कत्ल का इलजाम विकास के सिर थोप कर बख्तावर सिंह को बचाने से एक क्षण के लिए भी न हिचकिचाती चाहे उन्हें यह मालूम ही क्यों न होता कि विकास निर्दोष था ।
किसी बाहर से आये आदमी के साथ उस शहर में ऐसी धांधली हो सकती थी, इस बात का संकेत उसे शबनम से मिल चुका था ।
उसने मन ही मन एक फैसला किया, और जेब से रूमाल निकाल कर हर उस स्थान पर से अपनी उंगलियों के निशान पोंछ दिये जिसको कि उसने छुआ हो सकता था ।
वह वहां से निकल ही गया था कि उसे फियेट की बिक्री की रसीद की याद आई । वह रसीद उसने महाजन को दी थी ।
वह वापिस महाजन की मेज के पास पहुंचा।
रसीद वहां पड़ी थी । उसने उसे उठा कर जेब में रख लिया ।
वह बाहर आकर कार में सवार हुआ और वहां से निकल पड़ा ।
कार अभी कम्पाउन्ड से निकल कर सड़क पर पहुंची ही थी कि उसे कहीं करीब से बहुत करीब से पुलिस के सायरन की आवाज सुनाई दी।
उसने कार को सीधे होटल रिवर व्यू की तरफ भगा दिया ।
वह जानता था कि उसके लिए फौरन वहां से बोरिया बिस्तर गोल कर लेना निहायत जरूरी था क्योंकि मेहतानी को दिए चैक के पीछे उसने अपने होटल का नाम और कमरा नम्बर भी लिखा था । यह बात पुलिस को मालूम होने में थोड़ा वक्त जरूर लगता लेकिन मालूम होती जरूर और फिर वे उसकी तलाश में उसके होटल के कमरे में जरूर पहुंचते ।
होटल में वापिस लौटना उसके लिए वैसे भी जरूरी था । उसकी जेब में मुश्किल से डेढ सौ रुपये मौजूद थे। उसकी सारी नकद रकम उसके होटल में पड़े सूटकेस में थी ।
उसने कार को होटल के कम्पाउन्ड में ले जाने के स्थान बाहर सड़क पर ही खड़ी कर दिया। कार से निकलकर सड़क से पार होटल की तरफ बढ़ा |
पर वह
तभी उसे योगिता भी सड़क पार करती दिखाई दी ।
वह सड़क पार करके फुटपाथ पर ठिठक गया ।
योगिता उसके समीप पहुंची ।
"हल्लो, मिस्टर गुप्ता !" - उसके समीप पहुंचकर वर मधुर स्वर में बोली ।
"हल्लो" - विकास अपने परेशान चेहरे पर जबरन एक मुस्कराहट लाता हुआ बोला- "आप होटल से बाहर कैसे ?"
"लंच करने गई थी।"
"आप होटल में लंच नहीं करती ?"
"नहीं । यहां लंच बहुत महंगा मिलता है ।"
"स्टाफ के लिए रियायत होती होगी ?"
"होती है लेकिन रियायत के बाद भी लंच यहां बहुत महंगा है । "
दोनों साथ-साथ चलते हुए होटल के दरवाजे तक पहुंचे
विकास ने एक गुप्त निगाह लाबी में चारों तरफ दौड़ाई
यह देख कर उसे बड़ी तसल्ली हुई कि वहां कोई पुलिस वाला मौजूद नहीं था, हालांकि वह जानता था कि पुलिस इतनी जल्दी वहां अपेक्षित नहीं थी ।
विकास को दरवाजे पर ठिठका पाकर लड़की भी ठिठक गई ।
"मुझ पर एक मेहरबानी करेंगी आप ?" - विकास बोला ।
"फरमाइए ।" - योगिता बोली ।
"मैं होटल छोड़ रहा हूं और जरा जल्दी में हूं। आप क्या जरा फटाफट मेरा बिल बनवा सकती हैं ?"
'आप जा रहे हैं ?" - वह तनिक मायूसी भरे स्वर में बोली।
"आपके शहर से नहीं जा रहा मैं" - वह बोला "लेकिन किसी वजह से होटल छोड़कर जा रहा हूं।"
"ओह !"
“कल शाम मैंने आपको फोन किया था । "
“अच्छा !"
“डिनर पर इनवाइट करने के लिए। लेकिन आप ड्यूटी खत्म करके जा चुकी थीं । "
"आई एम सारी ।" - वह बड़ी संजीदगी से बोली ।
"क्या ऐसी गुस्ताखी मैं फिर कभी कर सकता हूं ? मेरा मतलब है सैटल हो जाने के बाद ? "
"मुझे बहुत खुशी होगी।"
“मैं आपको फोन करूंगा। यहां आपको लोग किस नाम से ज्यादा जानते हैं। बता दीजिए ताकि मैं वही नाम लूं ।"
"मिस महाजन के नाम से ।"
"मिस महाजन ?"
"हां । मेरा पूरा नाम योगिता महाजन है।"
'आपकी उन महाजन साहब से कोई रिश्तेदारी तो नहीं जो अपराध निरोधक कमेटी के चेयरमैन हैं, कार डीलर हैं और जिनकी आज के अखबार में तस्वीर भी छपी थी ?"
“वे मेरे पिता हैं । "
"क्या ?" - विकास सख्त हैरानी से बोला - "आप उस औरत की... सुनयना महाजन की बेटी हैं ?"
“आप सुनयना से मिल चुके हैं ?"
“हां । आज ही मिला हूं । लेकिन वह तो इतनी बड़ी बेटी की मां नहीं लगती ।”
"वह मेरी मां नहीं है । मेरी मां मर चुकी है । वह मेरे पिता की दूसरी बीवी है।”
“लगता है आपकी अपनी सौतेली मां से बनती नहीं
योगिता ने उत्तर नहीं दिया लेकिन विकास ने उसके चेहरे पर सख्त नफरत के भाव देखे ।
"मैं जानता हूं" - एकाएक विकास बदले स्वर में बोला " आप मेरा बिल तैयार रखियेगा ।" -
"ठीक है ।"
"थैंक्यू ।”
वह लम्बे डग भरता हुआ लिफ्ट की ओर बढ़ गया ।
उसे यह बात बड़ी अजीब लगी थी कि महाजन जैसे सम्पन्न बाप की बेटी एक होटल में रिसैप्शनिस्ट की मामूली नौकरी करती थी । और होटल का लंच उसे महंगा लगता था ।
जरूर योगिता की उस स्थिति की वजह उसकी सौतेली मां थी । और तो कोई वजह हो नहीं सकती थी ।
वह अपने कमरे में पहुंचा ।
वहां उसने अपना नकद रुपया सूटकेस में से निकाल कर अपने कोट की जेबों में भरना आरम्भ कर दिया ।
तभी एकाएक टेलीफोन की घन्टी बज उठी ।
घण्टी यूं अकस्मात बजी थी कि वह चौंक गया ।
वह बड़े असमंजसपूर्ण ढंग से टेलीफोन को घूरने लगा ।
फिर उसने आगे बढकर फोन उठा लिया ।
"यस !" - वह सावधानी से बोला ।
"मिस्टर गुप्ता !" - एक दबी हुई जनानी आवाज उसके कान में पड़ी ।
"हां ।"
"मैं योगिता बोल रही हूं । अभी-अभी दो पुलिस वाले आपको पूछते हुए यहां आये थे। इस वक्त वे लिफ्ट की इन्तजार में उसके सामने खड़े हैं। मुझे पता नहीं क्या चक्कर है लेकिन फिर भी मैंने सोचा कि आपको बता दूं । "
"वे मेरे कमरे की ओर आ रहे हैं ?" - विकास ने घबरा कर पूछा ।
“हां ।”
“उन्हें मालूम है, मैं अपने कमरे में हूं ?”
"हां । मैंने बताया था । मैं न बताती तो... "नैवर माइन्ड । फोन के लिए शुक्रिया ।" उसने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया ।
यानी कि उसका ख्याल गलत निकला था कि पुलिस इतनी जल्दी उस तक नहीं पहुंच सकती थी ।
उसने जल्दी से अपना सूटकेस बन्द किया और उसे उठाकर दरवाजे की तरफ लपका । उसने बाहर गलियारे में आकर अपने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया। एक व्याकुल निगाह उसने गलियारे में उस दिशा में डाली जिधर लिफ्ट थी । फिलहाल लिफ्ट का दरवाजा बन्द था।
वह सीढियों की तरफ लपका।
सीढियों पर नीचे उतरने के स्थान पर वह ऊपर चढने लगा।
आधी सीढ़ियों के बाद मोड़ था जहां वह हांफता हुआ ठिठक गया ।
गलियारे में से भारी जूतों वाले दो जोड़े पांव पड़ने की आवाज आ रही थी।
“यह रहा 312।" - कोई बोला ।
विकास बाकी की सीढियां चढ गया ।
वह बाल-बाल बचा था ।
चौथी मंजिल का गलियारा उस वक्त खाली था ।
उसका सूटकेस बहुत भारी था और उसके समेत वहां से खिसकने की उसकी कोशिश उसे फंसवा सकती थी ।
उसने देखा उस मंजिल के कई दरवाजों में से एक पर कोई नम्बर नहीं था । उसने वह दरवाजा खोला । वह एक अलमारी निकली जिसमें सफाई के झाड़ू और बाल्टियां वगैरह पड़ी थीं ।
अपना सूटकेस उसने वहां रख दिया और बाहर से दरवाजा बन्द कर दिया ।
अब सवाल होटल से बाहर निकलने का था ।
मुख्य द्वार से जाना उसे खतरनाक लग रहा था । वहां कोई और पुलसिया तैनात हो सकता था ।
निचली मंजिल से उसका दरवाजा निरन्तर खटखटाये जाने की आवाज आ रही थी ।
उसने वहां से निकलने के लिए फायर एस्केप का रास्ता चुना ।
फायर एस्केप की लोहे की गोल सीढियां उतरता हुआ वह होटल के पिछवाड़े में पहुंचा ।
गनीमत थी कि इमारत से बाहर बिना किसी ओट के बनी हुई उन सीढियों पर किसी ने उसे देखा नहीं था ।
वह पिछवाड़े से ही कम्पाउन्ड से बाहर निकल गया और घेरा काट कर सामने सड़क पर पहुंचा ।
अपनी कार की तरफ अभी उसने दो ही कदम बढाये थे कि वह ठिठक गया ।
कार के पास एक वर्दीधारी पुलसिया खड़ा था ।
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