एक गठरी में बंधा हुआ विजय उसके कंधे पर था । वह तेजी के साथ भागता जा रहा था । अभी-अभी उसने एक गेंदनुमा बम का प्रयोग करके विकास, निर्भयसिंह, रैना, ब्लैक ब्वॉय, रघुनाथ और गौरव के आसपास अंधेरा कर दिया था। उसने धुएं का लाभ उठाकर विजय की गठरी बनाई और भाग लिया। उसके सारे बदन पर काले कपड़े थे और चेहरे पर भी नकाब था, अतः हम नहीं कह सकते कि वह कौन था । 


खैर—फिलहाल उसके साथ-साथ चलकर देखते हैं कि वह कहां जाता है ? जंगल में कुछ ही दूर भागने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच जाता है, जहां पेड़ के साथ एक मजबूत घोड़ा बंधा हुआ। कदाचित यह घोड़ा उसी रहस्यमय नकाबपोश का है।


अगले कुछ ही पलों उपरान्त वह घोड़े पर सवार होकर भागता चला जा रहा है ।


कोई पांच कोस दूर जाकर वह अपना घोड़ा एक शिकारगाह के समीप रोक देता है। शिकारगाह के बाहर ही कुछ आदमी उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे चार आदमी थे जो उसके घोड़े को चारों ओर से घेर लेते हैं।


- "तुम्हारा, हमे इस तरह घेरने का सबब ?" नकाबपोश  गरजता है।


—“हो सकता है कि तुम कोई ऐयार हो–अपने चेहरे से नकाब उतारो।" उनमें से एक आदमी बोला।


-"यकीन मानो, हम वही हैं।" कहते हुए नकाबपोश अपनी नकाब उतार देता है और हम कह सकते हैं कि यह व्यक्ति गौरवसिंह है, किन्तु यह कहना हमारे लिए कठिन है कि ये गौरवसिंह असली है या विकास के पास जो रह गया है वह असली है। 


- "पहचान बोलो । " दूसरा आदमी उसकी सूरत देखने के बाद थोड़ा-सा सन्तुष्ट होकर कहता है।


- "चूहे- बिल्ली का खेल।" गौरवसिंह पहचान बता देता है। यह पहचान सुनकर चारों आदमी सम्मान के साथ गरदन झुकाते हैं, विजय की गठरी को पीठ पर लादकर गौरवसिंह घोड़े से नीचे कूद पड़ता है, एक आदमी घोड़े को एक तरफ ले जाता है और गौरवसिंह शिकारगाह के अन्दर की ओर बढ़ जाता है। शिकारगाह के अन्दर और भी आदमी होते हैं। शिकारगाह के एक कमरे में बने एक पत्थर के चबूतरे पर विजय की गठरी खोलकर उसे लिटा दिया जाता है ।


उसके बाद गौरवसिंह विजय को लखलखा सुंघाकर होश में लाता है।


विजय कराहकर आंखें खोल देता है और अपने चारों ओर की स्थिति का भली प्रकार निरीक्षण करता है । वह देखता है कि उससे थोड़ी दूरी पर पांच आदमी एक लाइन में खड़े हुए हैं। एक आदमी उसके बिल्कुल समीप खड़ा है। विजय धीरे से उठकर चबूतरे पर बैठ जाता है। विजय यह समझने की भरपूर चेष्टा कर रहा था कि वह किन लोगों के बीच में है— और किन परिस्थितियों में है ? एक-एक आदमी को उसने बड़े ध्यान से देखा —सभी के जिस्म पर अजीब-से लिबास थे। लम्बे-लम्बे-घुटने को स्पर्श करते गाढ़े ( खद्दर) के कुरते - धोती- सिर पर बंधा हुआ कम-से-कम दस गज कपड़े का मुंड़ासा । बगल में लटकी म्यान और उनमें रखी तलवारें। दूसरी बगल में लटका हुआ सबके पास एक-एक बटुआ। उनमें से कोई भी नौ फीट से किसी प्रकार कम लम्बा नहीं था। सभी हृष्ट-पुष्ट और मजबूत थे। विजय को ऐसा लगा कि अगर वे उसे नम्बरबारी से एक-एक हाथ भी मारें तो उसकी रूह जिस्म त्याग दे । लिबास से तो सभी देहाती लगते थे। एक बार को तो विजय के दिमाग में आया - इस बार वह कहीं डाकुओं के बीच तो नहीं फंस गया है ! 


यह भी उसने नोट किया था कि सभी की दृष्टि उसी पर केन्द्रित है। 


– “कहिए प्यारो, किस खेत की मूली हैं, आप लोग ?" विजय ने 


— जी !" कहते हुए गौरवसिंह ने सम्मान के साथ उसके सामने हाथ जोड़ दिए — "हम समझे नहीं ।"


उसके इस प्रकार हाथ जोड़ने पर विजय को लगा कि उसका दिमाग अन्तरिक्ष में तैर रहा है। वह समझ रहा था कि इस बार वह किन्हीं डाकुओं के बीच फंस गया है, किन्तु उसके इस प्रकार हाथ जोड़ने से तो विजय चकरा ही गया, किन्तु फिर भी स्वयं को सम्भालकर उसने प्रश्न किया"


-"हमारा मतलब है आप लोग कौन हैं ?


" जी – मैं आपका पुत्र हूं।" गौरव उसी प्रकार सम्मान के साथ हाथ जोड़े हुए बोला ।


गौरव के इस छोटे से वाक्य ने विजय के मस्तिष्क की समस्त नसों को हिलाकर रख दिया। उसने बुरी तरह से चौंककर अपने सामने खड़े हुए आदमी को देखा और बोला – "मियां खां ——यार तुम्हें इससे ऊंची कोई गप्प नहीं मिली ?" -


–“जी —–मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं।" गौरव उसी प्रकार सम्मान प्रदर्शित करता हुआ बोला ।


- "जब हम मजाक के मूड में आएंगे तो इससे भी ऊंची गप्प लाएंगे प्यारे।” विजय बोला – “अगर हमारी राय मानो तो गप्प तैयार करने से पहले जरा उस पर ध्यान दे लिया करो कि सुनने वाला समझ तो नहीं जाएगा कि ये असली घी (शुद्ध) में तली हुई नहीं, बल्कि मिट्टी के तेल में तली हुई गप्प है। अबे मियां पहली बात तो ये कि हम बाल-ब्रह्मचारी आदमी हैं। किसी कन्या की तरफ हमने कभी अपनी कोप दृष्टि नहीं डाली और जहां तक हम समझते हैं किसी कन्या के पास जाए बिना कभी औलाद पैदा नहीं हो सकती — वो तो रामायण जैसे महान ग्रन्थ के कैरेक्टर हनुमान ही थे जिनके पसीने से ही मकरध्वज पैदा हो गया । "


“आप यकीन कीजिए—मैं गप्प नहीं मार रहा हूं—मैं वास्तव में आपका पुत्र हूं।”


-“देखो प्यारे । " विजय बोला – “ये बात कहीं तुम हमारे बापू के सामने मत कह देना, वर्ना कसम आलूबुखारे की — वह हमारा भुर्ता बना देगा। हम निहायत ही शरीफ आदमी हैं— हमने कभी इश्क विश्क भी नहीं फरमाया— तुम हमसे ढाई हाथ जुड़वा लो ।” विजय ने वास्तव में गौरव के सामने हाथ जोड़ दिए और बोला – “ये नाटकबाजी समाप्त करो प्यारे, और तुरन्त अपना मतलब बताओ।" 


गौरवसिंह एकदम उसके जुड़े हुए हाथ अलग करता हुआ बोला—“ये आप क्या करते हैं —— पुत्र के सामने हाथ जोड़कर पुत्र को नरक का भागी बना रहे हैं। मुझ पर ये पाप न चढ़ाएं। मुझ से ये अधर्म का बोझ नहीं ढोया जाएगा ।"


विजय की खोपड़ी भिन्नाकर रह गई ।


उसने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि वह जीवन में कभी ऐसी विचित्र परिस्थिति में भी फंस सकता है। उसके सामने खड़ा हुआ आदमी बात तो ऐसी कह रहा था, जिसका कोई सिर-पैर ही नहीं था। इस बात पर विश्वास करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था । विजय ये समझ चुका था कि उसके सामने खड़ा ये व्यक्ति या तो कोई बहुत बड़ा मसखरा -अथवा उसे किसी गहरे षड्यंत्र में उलझाया जा रहा है। उसे अपना दूसरा विचार ही अधिक उचित लग रहा था ।


किन्तु वह यह नहीं समझ पा रहा था कि यह षड्यंत्र किस प्रकार का है।


जो पाठक हमारी विजय - विकास सीरीज की पुस्तकें पढ़ते रहते हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि विजय किस प्रकार का पात्र है, किन्तु हम उम्मीद करते हैं कि इस सन्तति को उन पाठकों के अतिरिक्त कुछ नए पाठक भी पढ़ेंगे । वे अभी विजय से परिचित नहीं हैं, अतः उन्हें असली चक्कर समझने में थोड़ी-सी दिक्कत अवश्य हो रही होगी । हम विजय के विषय में थोड़ा-सा बता देना  आवश्यक समझते हैं—


विजय ठाकुर निर्भयसिंह का लड़का है। ठाकुर निर्भयसिंह राजनगर पुलिस के आई.जी. हैं । विजय उनसे भी ऊंचे पद पर यानी एक प्रकार से भारत की सबसे बड़ी जासूसी संस्था सीक्रेट सर्विस का चीफ है। वह इस पद पर है यह रहस्य सीक्रेट सर्विस के अन्य सदस्य अशरफ, विक्रम, नाहर, आशा, परवेज, विकास और ब्लैक ब्वॉय के अतिरिक्त कोई नहीं जानता । उसके पिता ठाकुर निर्भयसिंह उसे आवारा लड़का समझते हैं और उसे घर से निकाल रखा है। विजय राजनगर में एक आलीशान कोठी में रहता है। क्योंकि वह भारत का एक माना हुआ जासूस है, अतः देश-विदेश में उसके हजारों दुश्मन हैं। ब्लैक ब्वॉय और रैना उसके चचेरे भाई-बहन हैं —— रघुनाथ रिश्ते में उसका जीजा है— अतः विकास उसका भानजा हुआ, किन्तु विकास को उसने जासूसी सिखाई है, इसलिए अधिकांशतः विकास उसे गुरु ही कहता है। विजय मजाकिया टाइप का है। लड़कियों से दूर भागता है, इत्यादि उसमें गुण तो इतने हैं कि अगर सभी को लिखने बैठें तो एक अलग ही उपन्यास तैयार हो जाएगा, किन्तु हम यहां उसका इतना अधिक विस्तृत परिचय देकर न तो विषय से भटकना ही चाहते हैं और न ही पाठकों की दिलचस्पी समाप्त करना चाहते हैं। हम विजय का इतना संक्षिप्त परिचय दे चुके हैं, जितना आवश्यक समझते थे। अब हम आपको वापस कथानक पर लाते हैं ।


विजय इस समय बड़ी उलझन में फंसा हुआ है। यह वह अच्छी तरह जानता है कि दुनिया में उसके हजारों दुश्मन हैं जो उसे किसी भी प्रकार जीवित नहीं देखना चाहते। उनमें से कोई भी हो सकता है जो उसके खिलाफ षड्यंत्र रच सकता है। किन्तु ये षड्यंत्र है किस प्रकार का यह समझना ही विजय की बुद्धि से बाहर हो रहा था ।


- "आखिर प्यारेलाल, तुम चाहते क्या हो ?” विजय ने गौरव आंखों में झांकते हुए प्रश्न किया ।


-" सबसे पहले तो यही यकीन दिलाना चाहता हूं कि मैं आपका पुत्र हूं ! " -गौरव ने उसी सम्मान के साथ कहा ।


  -“अगर प्यारे, तुम ये कहने लगे कि सूरज सन् अट्ठाइस में पश्चिम से निकलकर पूरब में डूबता था तो हम कैसे यकीन कर लेंगे ?" 


- "लेकिन ये बात दूसरी है, पिताजी ।" गौरव ने कहा विजय को यह पिताजी शब्द बड़ा अजीब-सा लगा, उसने घूरकर गौरव को देखा । किन्तु उसके चेहरे पर वह मासूमियत के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के भाव नहीं पढ़ सका। विजय को लगा कि वह व्यक्ति बहुत बड़ा अभिनेता है। परन्तु उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि आखिर ये व्यक्ति इतने सफल अभिनय के साथ खुद को उसका पुत्र साबित करके अपने कौन से षड्यंत्र अथवा उद्देश्य में सफल होना चाहता है ? उसने निश्चय किया कि इसकी चक्करदार बातों का जवाब उसे भी उसी ढंग से देना चाहिए इस तरह शायद ये व्यक्ति सीधा हो सके, विजय बोला—“वैसे प्यारे आपका लेबिल क्या है ?"


“जी लेबिल !” गौरव चकरा - सा गया – “मैं आपका मतलब नहीं समझा । "


– "बस प्यारे—इसी तरह मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।"


विजय बोला— “खैर, तुम अपना नाम बताओ।"


-“गौरवसिंह । '


-“कहां की पैदावार हो ?"


-“जी ।" गौरव पुनः चकरा गया।


-"मेरा मतलब कहां पैदा हुए – कहां रहते हो ?"


“जी, मैं भरतपुर में पैदा हुआ और वहीं रहता हूं।" गौरव ने उत्तर दिया ।


"तुम्हारी उम्र क्या होगी ?"


" यही कोई चालीस वर्ष । "


“और तुम्हारी जानकारी के लिए हम तुम्हें बता दें प्यारे गौरव मियां कि हमारी भी चालीस साल की बांकी उम्र है।" विजय अपने ही ढंग से अपने ही मूड में बोला – “अब प्यारे तुम ही सोचो कि तुम हमारे पुत्र कैसे हो सकते हो— हमारे ख्याल से तो दुनिया में कभी ऐसा हुआ नहीं होगा कि चालीस वर्ष के बाप का चालीस साल का ही पुत्र हो — — फिर तुम हमें जरा सिद्ध करके दिखाओ कि हम तुम्हारे बाप और तुम हमारे पुत्र कैसे हो गए ?"


-“ओह ! आपका मतलब इससे था ?" गौरव एकदम इस प्रकार बोला, मानो खुश हो गया हो।


“जी हां।” विजय उसी की नकल उतारता हुआ बोला – “अव जरा ये भी बता दो कि तुम्हारे माता-पिता का नाम क्या है ?" 


-“देवकांता ।" गौरव ने जवाब दिया।


–"देवकांता ?" विजय ने पूछा- "ये कौन से युग का नाम है, प्यारे ?”


-"मेरा विचार है पिताजी कि आप समझे नहीं।" गौरव ने कहा – “देवकांता मेरे माता-पिता का नाम है, अर्थात् पिता का नाम देवसिंह और माता का नाम कांता और मैं देवकांता की सन्तति यानी सन्तान हूं—मेरी एक बहन भी है—–वन्दना | "


देव और कांता ।


ये दो नाम विस्फोट से बनकर विजय के मस्तिष्क पर फट गए। उसका सिर चकराने लगा। इस बार उसने ध्यान से गौरव को देखा और बोला— “लेकिन प्यारेलाल, मेरा नाम तो देवसिंह नहीं है—फिर तुम हमारे पीछे क्यों हाथ धोकर पड़े हो ?"


– -“मैं जानता हूं कि इस समय आपका नाम विजय है।" गौरव ने कहा- “लेकिन मुझे यकीन है कि मेरी मां और अपनी पत्नी कांता को देखते ही आप सबकुछ समझ जाएंगे—– अगर हुक्म हो तो मैं मां को बुलवा दूं ?" 


विजय को लगा —— जैसे उसके मस्तिष्क पर कोई जोर-जोर से हथौड़े बरसा रहा है। उसे लगने लगा, जैसे उसके मस्तिष्क में कीड़ा रेंग रहा है और कीड़ा कह रहा है— 'देव... देव... कांता... कांता... देवकांता... देवकांता... ।"


–“हां, मैं मां को साथ लाया हूं।" गौरव ने कहा ।


-“जल्दी कांता को मेरे सामने लाओ।" विजय न जाने किस मूड - में आ गया था ।


—"रोशनसिंह।" गौरव ने तुरन्त एक आदमी को आदेश दिया — "जल्दी से भागकर मां को सूचना दो कि मैं पिता जी को ले आया हूं। पिताजी उन्हें बुला रहे हैं। उन्हें तुरन्त यहां ले आओ— अब उनकी जिन्दगी में किसी प्रकार का कोई दुःख नहीं रहेगा।" —


रोशनसिंह नामक आदमी तुरन्त उस कमरे से बाहर चला गया ।


विजय के मस्तिष्क में एक तेज तूफान चल रहा था। उसके दिमाग में तेजी से हजारों विचारों का आवागमन हो रहा था । वह स्वयं नहीं समझ पा रहा था कि उसका दिमाग क्यों परेशान है। उसे अचानक क्या हो गया है ।


-“देव।" अचानक एक नारी स्वर उसकी विचार शृंखला तोड़ देता है—‘‘मेरे प्राणनाथ... मेरे देवता... मेरे भगवान !” विजय तेजी से पलटकर कमरे के दरवाजे की ओर देखता है। वहां एक औरत खड़ी है— अत्यन्त बूढ़ी औरत । परन्तु फिर भी बेहद सुन्दर – उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई हैं— चेहरे की हड्डियां उभरी हुईं...मानो वह एक लम्बे समय से विरह की अग्नि में ही हो । उसके जिस्म पर एक दूध जैसी सफेद और साफ धोती है। बूढ़ी आंखों में आंसू हैं। उसने ‘देव' कहकर विजय को पुकारा था। उसकी आवाज में असीम दर्द था—मानो अभी फूट-फूटकर रो पड़ेगी। कमरे में एक चिराग जल रहा था। चिराग के इस क्षीण से पीले प्रकाश में द्वार पर खड़ी वह बूढ़ी औरत रूह-सी लग रही थी । विजय ने देखा, उसने अपनी बांहें फैला रखी थीं और खड़ी खड़ी कांप रही थी । 


-“कांता !" एकदम पागल सा होकर चीख पड़ा विजय । न जाने उस बूढ़ी औरत की बांहों में समाने के लिए मचल उठा, उसे एकदम क्या हो गया कि वह  उसका सारा चेहरा सुर्ख हो गया। सारी दुनिया को भूलकर वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति से चीखा–"कांता...!" 


कांता उसकी तरफ दौड़ी विजय कांता की तरफ । 


विजय की बांहें भी इस कदर फैल गई थीं, मानो सदियों से बिछुड़ा हुआ प्रेमी अपनी प्रेमिका को बांहों में लेने के लिए तड़प उठा हो । वे दोनों पागल होकर एक-दूसरे की ओर लपके !


और फिर –  एक झटके से एक-दूसरे की बांहों में समा गए ।  फूटकर रो रही थी ।


गौरव के साथ उसके सभी साथियों के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान नृत्य कर उठी। कांता नामक वह बुढ़िया और विजय इस प्रकार एक-दूसरे से लिपटे जा रहे थे, मानो एक-दूसरे के जिस्म में समा जाना चाहते हों। विजय... विजय जैसे पागल हो गया था । इस समय विजय का एक नया रूप देखने को मिल रहा था । गले मिले - ही - मिले... विजय रो पड़ा । कांता पहले ही फूट-फुट कर रो रही थी।


विजय रो रहा था, कदाचित् जीवन में पहली बार ।


सारी दुनिया को भूलकर विजय और कांता एक-दूसरे की बांहों में समाए हुए थे। उन दोनों को कमरे में उपस्थित अन्य किसी का भी जैसे कोई आभास ही नहीं था। और उधर गौरवसिंह ने अपने आदमियों को वहां से हटने का संकेत दिया। वे सब चुपचाप कमरे से बाहर निकल गए। स्वयं गौरवसिंह भी कमरे से बाहर चला गया और बाहर से उसने इस कमरे का दरवाजा बंद कर दिया । 


उसके बाहर जाते ही बूढ़ी कांता ने एकदम रंग बदला। उसके हाथ में एक कागज था, जिसमें सफेद चूर्ण था। उसने वह चूर्ण विजय की नाक के सामने अड़ा दिया। सांस के साथ उसकी सुगंध विजय के मस्तिष्क में घुसती चली गई। एक क्षण बाद वह बेहोश होकर कांता की बांहों में झूल गया । कांता... जो अभी तक बूढ़ी और शक्तिहीन नजर आती थी एकदम उसकी बांहों में इतनी शक्ति आ गई कि उसने बेहोश विजय को अपनी बांहों में समा लिया। इसके बाद उसने धीरे-धीरे उसे धरती पर लिटा दिया।


इस समय कांता की फुर्ती दर्शनीय थी ।


उसने जल्दी से अपनी धोती के नीचे कमर पर बंधा कमन्द निकाला और दूसरे कमरे की छत में बने रोशनदान पर अटका दिया। उसने तेजी से अपनी सफेद साड़ी उतार दी और इसके नीचे उसने सलवार और कुर्ता पहन रखा था। धोती में उसने जल्दी से विजय को बांधा । गठरी कन्धे पर लटकाई और फुर्ती के साथ कमन्द पर चढ़कर रोशनदान पर पहुंच गई।


कदाचित वह विजय को लेकर जल्दी से जल्दी गौरवसिंह इत्यादि से दूर निकल जाना चाहती थी ।


और अगले ही पल वह बेहोश विजय के साथ रोशनदान के दूसरी ओर फुर्ती के साथ उतर रही थी ।


चारों ओर सन्नाटा-सा छाया हुआ था ।


*****