सब-इंस्पेक्टर कामटे बाहर ही था।
दावरे वाली दुकान से तीस कदम दूर फुटपाथ पर खड़ा इधर ही नजर रखे था। चूँकि वहां से और लोग भी आ-जा रहे थे, इसलिए उसका खड़े रहना किसी को खटका नहीं
देवराज चौहान के भीतर जाने के बाद, करीब मिनट पहले ही उसने शटर नीचे गिरते देखा तो मन ही मन व्याकुल हो उठा। वो जानता था कि देवराज चौहान बदले की आग में पागल हुआ पड़ा है, किसी को छोड़ने वाला नहीं। कामटे खुद को भी खतरे में महसूस कर रहा था।
20 लाख चौला से वसूला था।
40 देवराज चौहान से।
परंतु वो जानता था कि वो खतरनाक खेल खेल रहा है। किसी को जरा सी भी भनक पड़ गई कि इन दिनों वो देवराज चौहान से बात कर रहा है तो उसे शूट कर देंगे वो लोग।
60 लाख लाख कमा लेने के बाद कामटे अब खुद को इस मामले से पूरी तरह दूर कर लेना चाहता था।
उसने मन ही मन तय किया कि देवराज चौहान को जगमोहन के बारे में बताकर, घर पर ताला लगाकर सुनीता के साथ मुंबई से बाहर खिसक जाएगा और पन्द्रह-बीस दिन से पहले नहीं लौटेगा। तब तक देवराज चौहान वाला मामला आर या पार हो चुका होगा। कामटे को लगा कि वो गलती कर चुका है। देवराज चौहान को जगमोहन के बारे में भी बताकर, उससे पीछा छुड़ा लेना चाहिए था और तय प्रोग्राम के मुताबिक सुनीता के साथ महाबलेश्वर चले जाता।
खैर, कोई बात नहीं। अब देवराज चौहान को जगमोहन के बारे में बताकर सुनीता के साथ निकल जाएगा कहीं, घर पर ताला मारकर। इन खतरनाक लोगों के फेर में वो बुरी तरह फंसा पड़ा है। परंतु उसे ये राहत थी कि 60 लाख उसके पास आ गए।
दस-बारह मिनट ही बीते कि कामटे ने शटर को उठते देखा।
थोड़ा सा शटर उठा। नीचे से मोहन बाहर निकला और शटर पुनः नीचे कर दिया।
कामटे बुरी तरह चौंका।
आगे के विचारों के साथ ही झुरझुरी सी दौड़ती चली गई शरीर में।
वो तो देवराज चौहान के बाहर निकलने की आशा कर रहा था। परंतु ये तो दुकान का सेल्समेन बाहर आया है। इसी से उसने अंडरवियर बदलवाये थे।
देवराज चौहान कहां है?
कामटे ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। होंठ भींच लिए। वो मोहन को देखता रहा। मोहन आसपास नजरें मारकर सामने सड़क की तरफ बढ़ गया था। कामटे कभी दुकान के गिरे शटर को देखता तो कभी मोहन को, जो सड़क पार जाते वाहनों के बीच में से सड़क पार करता उस तरफ जा रहा था।
कामटे के मस्तिष्क में घंटी बज उठी।
वो समझ गया कि देवराज चौहान का काम हो गया है। देवराज चौहान अगर दुकान के भीतर सलामत होता तो ये सेल्समैन किसी भी हाल में बाहर नहीं आता।
कामटे की आंखों के सामने देवराज चौहान का चेहरा नाचा।
तो मर ही गया डकैती मास्टर।
सुधीर दावरे ने किसी प्रकार उसे खत्म कर ही दिया।
देवराज चौहान की मौत का एहसास पाकर दुख सा हुआ कामटे को। वो किसी भी हाल में इस मामले में दखल नहीं देना चाहता था। ये मामला खतरनाक लोगों का था। वो सिर्फ तमाशबीन बने रहना चाहता था। देवराज चौहान जिंदा है या दावरे। उसे इन बातों से कोई मतलब नहीं था। कोई भी उसका सगा नहीं था। वो सोच रहा था कि मरते-मरते देवराज चौहान उसे चालीस लाख दे गया।
कामटे ने गहरी सांस ली और इधर-उधर देखने लगा।
उसका अब यहां खड़े रहने का कोई मतलब नहीं था। बस यूं ही उत्सुकता के नाते खड़ा रहा। मन में बेचैनी की लहरें दौड़ रही थीं। रह-रहकर एक ही ख्याल आ रहा था कि देवराज चौहान मारा गया।
12-14 मिनट ही बीते होंगे कि कामटे पुनः चौंका। होंठ कस गए। माथे पर बल दिखने लगे।
उसने मोहन को देख लिया था, जो सड़क पार करता वापस आ रहा था। उसके हाथ में लाल रंग का फुल साईज का सूटकेस था। कामटे समझ गया कि वो सामने वाली दुकान से नया सूटकेस खरीद कर ला रहा है। सूटकेस का साईज बता रहा था कि उसमें देवराज चौहान की लाश डालनी है।
"मैंने नहीं सोचा था कि देवराज चौहान इस तरह मारा जाएगा...।" कामटे बड़बड़ा उठा।
कामटे, मोहन को देखता रहा।
मोहन सूटकेस संभाले शटर के पास पहुंचा। सूटकेस रखकर उसने दोनों हाथों से शटर ऊपर उठाया और नीचे से सूटकेस भीतर खिसका दिया, फिर खुद भी सरक कर भीतर चला गया और शटर नीचे कर दिया।
कामटे खड़ा रहा। बेचैनी से बार-बार दुकान के शटर को देखता रहा।
वो देवराज चौहान के लिए कुछ कर भी नहीं सकता था।
क्योंकि वो मर गया था।
वहीं खड़ा रहा कामटे। जैसे वो सब कुछ देख लेना चाहता था।
पच्चीस मिनट बीते कि एक पुरानी सी कार उसी दुकान के सामने आ रुकी। कामटे ने देखा कि एक आदमी कार चला रहा था, दूसरा बगल वाली सीट पर बैठा था। वो दोनों वहीं कार में बैठे रहे थे। दस मिनट के बाद कामटे ने देखा कि कार में बैठा व्यक्ति फोन पर बात करने लगा है। फिर वो कार से निकलकर दुकान की तरफ बढ़ गया। तभी दुकान के भीतर से मोहन ने दुकान का शटर पूरा उठा दिया।
वो आदमी दुकान में प्रवेश कर गया।
कामटे वहां खड़ा था, वहां से दुकान का नजारा नजर नहीं आ रहा था। कामटे वहीं खड़ा रहा। वो जानता था कि अब सूटकेस को दुकान से बाहर लाया जाएगा। उसके भीतर देवराज चौहान की लाश होगी। फिर कामटे ने वो ही देखा, जिसकी आशा वो कर रहा था।
मोहन और कार से निकलकर भीतर जाने वाला आदमी, दोनों लाल रंग का बड़ा सा सूटकेस उठाए दुकान से बाहर निकले। दोनों में एक-एक तरफ से सूटकेस को संभाल रखा था। उन्हें आते पाकर, कार की ड्राइविंग सीट पर बैठा आदमी बाहर निकला और कार के पीछे की सीट का दरवाजा खोल दिया।
कामटे खामोशी और गंभीरता से खड़ा उनकी हरकतें देख रहा था।
सूटकेस को पीछे वाली सीट पर डाला गया। हालांकि वो सूटकेस इतना बड़ा था कि भीतर नहीं घुस रहा था, परंतु जैसे-तैसे धकेल कर पीछे का दरवाजा बंद किया और मोहन भी उन दोनों के साथ आगे की सीटों पर जा बैठा था। दरवाजा बंद होते ही कार आगे बढ़ गई।
कामटे दुखी निगाहों से कार को जाते देखता रहा। देवराज चौहान की मौत उसे पसंद नहीं आई थी। परंतु उसे देवराज चौहान से ऐसा कोई प्यार भी नहीं था कि उसकी आंखें गीली होतीं।
कामटे ने गहरी सांस ली और सामान्य चाल चलता दुकान की तरफ बढ़ गया।
दुकान के सामने से निकलते उसने दुकान की तरफ देखा।
सब कुछ सामान्य था। वहां देखकर कोई ये नहीं कह सकता था कि कुछ देर पहले वहां कत्ल होकर हटा है और लाश ले जाई जा चुकी है। कैश काउंटर के पीछे, कुर्सी पर सुधीर दावरे दाढ़ी-मूंछें लगाए बैठा था। कामटे आगे बढ़ता गया। कुछ आगे जाकर ठिठका। सुनीता तो घर पर नहीं थी। क्या करेगा घर जाकर? वो जानता था कि दावरे अब जल्दी ही दुकान से निकलेगा। पुलिस उसके पीछे से हट गई थी। देवराज चौहान उसके हाथों से मर गया था। यानी कि अब उसे छिपे रहने की जरूरत नहीं थी।
कामटे वहीं रहा। आस-पास टहलता रहा।
देवराज चौहान की मौत का एहसास पाकर उसके मन में बेचैनी भरी हुई थी।
तभी कामटे का मोबाईल बज उठा।
"हैलो...।" कामटे ने फोन निकाल कर बात की।
"मैं बापू के यहां ठीक-ठाक पहुंच गई हूं। सारा सामान बापू को रखने को दे दिया है।" सुनीता की आवाज कानों में पड़ी।
"वो सारा पैसा बर्बाद न कर दे। समझा देना उसे कि...।"
"कह दिया है बापू से कि वो पांच लाख खर्च कर सकता है। बाकी संभाल के...।"
"शादी भी उसी पांच लाख में...।"
"शादी का पांच-छः लाख अलग से है।"
ये सुनते ही कामटे भुनभुना उठा।
"इस उम्र में वो पांच लाख का क्या करेगा? साल- छः महीने में तो उसने मर ही जाना है।"
"खुशी से मरेगा कि उसके पास लाखों रुपया पड़ा है। बाद में हम ले लेंगे। ठीक है ना?" सुनीता ने उधर से कहा।
"जो मर्जी कर। अब तूने फैसला ले ही लिया है तो मुझसे क्या पूछती है।" कामटे ने कहा और फोन बंद कर दिया।
कामटे का सोचना ठीक ही था। एक घंटे बाद उसने सुधीर दावरे को दुकान बंद कर जाते देखा।
वहीं खड़ा कामटे उसे जाता देखता रहा। मन में सोच रहा था कि देवराज चौहान खत्म तो खेल भी खत्म।
■■■
सर्दूल उसी हाल में बैठा जगमोहन से बातें कर रहा था कि उसे सुधीर दावरे का फोन आया।
"बोल...।"
"देवराज चौहान का काम कर दिया है मैंने।" उधर से दावरे ने कहा।
"क्या?" सर्दूल के होंठों से निकला--- "कैसे?"
उधर से दावरे ने सारी बात बताई।
"बेवकूफ! सूटकेस में बंद करने से पहले उसका गला घोंट देते। ताकि वो पूरी तरह मर...।"
"उसे मरा ही समझो। मोहन उस सूटकेस को पानी में फेंक कर आएगा। सूटकेस पानी में डूबा नहीं कि दो मिनट में देवराज चौहान खत्म। उस वक्त मुझे ध्यान नहीं रहा, वरना गला भी दबा देता।"
"उसे मारकर पूरी तसल्ली करके उसे सूटकेस में बंद करते।" सर्दूल कह उठा--- "मोहन सूटकेस कहां फेंकेगा?"
"पता नहीं, लेकिन वो काम को तसल्ली से पूरा करता है।"
सर्दूल ने कुछ नहीं कहा।
"अब हम आजाद हैं। पुलिस पीछे नहीं है। और देवराज चौहान भी नहीं रहा।"
"देवराज चौहान अभी मरा नहीं है।"
"मेरे ख्याल में तो अब तक मर गया होगा।"
"मोहन जब वापस आए तो उससे बात करके मुझे बताना।" सर्दूल ने कहा और फोन बंद कर दिया।
सामने की कुर्सी पर बैठा जगमोहन उसे ही देख रहा था।
"देवराज चौहान को खत्म कर दिया है दावरे ने...।"
"लेकिन उसे तो मैं मारना चाहता था।" जगमोहन दांत भींचकर कह उठा।
"काम होना चाहिए और वो हो गया। देवराज चौहान मर गया।" सर्दूल ने शांत स्वर में कहा।
"तो अब मैं क्या करूंगा?" जगमोहन ने सर्दूल को देखा।
"पहले की तरह तुम अकबर खान के काम...।" सर्दूल ठिठककर पुनः बोला--- "तुम मेरे साथ पाकिस्तान क्यों नहीं चलते?"
"पाकिस्तान?" जगमोहन ने सर्दूल को देखा।
"हां। वहां मेरी खूब चलती है। सरकार में मेरी पैठ है। I•S•I• से मेरा दोस्ताना है। वहां मेरे धंधे खुलकर चलते हैं। तुम वहां मेरे काम संभालना। खूब ऐश करना पाकिस्तान में।"
"क्या मेरा पाकिस्तान जाना ठीक रहेगा?" जगमोहन ने कहा।
"क्यों नहीं। वहां तुम ज्यादा मजे में रहोगे।"
"अकबर खान मुझे जाने देगा?" जगमोहन बोला।
"उसकी तुम फिक्र मत करो। उससे मैं बात कर लूंगा।"
"ठीक है। जैसा तुम कहो, मैं वैसा करने को तैयार हूं।" जगमोहन कह उठा।
"गुड।" सर्दूल हंसकर कह उठा--- तो तय रहा कि तुम मेरे साथ पाकिस्तान चलोगे। अकबर खान को मैं ये खबर दे दूं।" इसके साथ ही सर्दूल हाथ में दबे मोबाइल से नंबर मिलाने लगा।
अकबर खान से बात हो गई।
"दावरे कहता है कि उसने देवराज चौहान को खत्म कर दिया है।" सर्दूल ने कहा।
"सच में उसने ऐसा किया?" अकबर खान का चौंका स्वर आया।
"मुझे तो उसने यही कहा है। बाकी तुम उससे फोन करके पूछ लेना।"
"ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई तुमने...।" अकबर खान ने कहते हुए राहत की सांस ली।
"जगमोहन को मैं अपने साथ पाकिस्तान ले जा रहा हूं।" सर्दूल बोला।
"ये भी अच्छी बात है। अगर कभी उसकी याददाश्त वापस आ गई तो वहां तुम उसे आसानी से संभाल लोगे।"
जगमोहन पर नजर मारता सर्दूल फोन पर बोला---
"जगमोहन पाकिस्तान और दुबई में रहकर मेरे काम संभालेगा। मुझे अपने विश्वासी आदमी की जरूरत थी। ड्रग्स में काम करने वाले आदमी ड्रग्स गायब कर देते हैं और बेंचकर उसे खा जाते हैं। जानते हुए भी मुझे चुप रहना पड़ता है। पाकिस्तान सरकार से मिलने वाले हथियारों की देखरेख बहुत अहम होती है कि वो मेरे बताए ठिकाने पर पहुंचे हैं कि नहीं। जगमोहन पाकिस्तान में मेरा सबसे खास साथी बनकर रहेगा। मुझे कई कामों के लिए पाकिस्तान से बाहर भी जाना पड़ता है और पीछे से काम को संभालने वाला मेरा विश्वासी आदमी होना चाहिए। जगमोहन से ज्यादा विश्वासी मुझे कहां मिलेगा।"
"ये बढ़िया सोचा तुमने...।" उधर से अकबर खान ने कहा--- "मैं जरा दावरे से देवराज चौहान के बारे में पता कर लूं।"
"कर लो...।" सर्दूल ने कहकर फोन बंद किया और मुस्कुराकर जगमोहन से बोला--- "अकबर खान को खुशी होगी कि तुम मेरे साथ काम करोगे। उसने तुम्हें मेरे हवाले कर दिया है।"
"ठीक है।" जगमोहन भी मुस्कुराया--- "अब से मैं तुम्हारे लिए ही काम करूंगा कब चलना है पाकिस्तान?"
"चलेंगे। जल्दी चलेंगे, कल या परसों में।" सर्दूल ने सिर हिलाकर कहा।
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सोनू, प्यारा और गिन्नी।
आप भूले तो नहीं होंगे इन तीनों को।
पूर्व प्रकाशित देवराज चौहान सीरीज के उपन्यास 'यू-टर्न' में इनसे मिले थे। चंद लाइनों में याद दिला दूं कि देवराज चौहान डकैती करता है, परंतु चार बक्सों में मौजूद बैंक की वो दौलत 'यू-टर्न' लेकर वापस पुलिस के हाथों में पहुंच जाती है, परंतु इत्तेफाक से एक बक्सा सोनू और प्यारे के हाथ लग जाता है और वो उस बक्से को खेतों में दबा देते हैं और वहां से हर रोज चोरी-छुपे थैले भर-भर के, करोड़ों की दौलत को अपने घर पहुंचाते हैं और आपस में आधी-आधी बांट कर, दौलत को डालडे के खाली डिब्बों और कनस्तर में बंद करके, अपने घरों के भीतर, कच्ची जमीन खोदकर उनमें दबा देते हैं। इस दौरान पड़ोस में रहने वाली गिन्नी की मां, उनके पास नोट देखकर गिन्नी की शादी प्यारे से कर देती है। बेशक उसके पास करोड़ों रुपया आ गया, परंतु रहन-सहन वही रहा। वही खाना, वही पहनना। घर भी वही। कुछ काम करने की सोचते हैं, परंतु सोचते ही रहते हैं, करते नहीं। बहरहाल इसी तरह उनकी जिंदगी मजे से कट रही है। अगर आपने 'यू-टर्न' नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़िए, मजेदार उपन्यास है
इस उपन्यास में इनका जिक्र क्यों आया, वो भी जान लीजिए। कुछ ही देर में सब कुछ सामने ही होगा।
आज गिन्नी का मन घूमने का था।
गिन्नी को खुश करने की खातिर प्यारे उसे घुमाने ले चलने के लिए तैयार हो गया।
हमेशा की तरह मौके पर आ टपकने वाला सोनू, आज भी मौके पर टपक पड़ा। उसे जब पता चला कि प्यारा और गिन्नी घूमने जा रहे हैं तो वो भी चलने को तैयार हो गया।
तीनों चल पड़े।
एक जगह से लंच पैक करा लिया। गिन्नी ने दो-चार चादरें साथ ले ली थीं कि कहीं बैठना हो तो बिछाकर बैठा जाए। फिर टैक्सी ली और गिन्नी ने प्यारे से कहा कि वो उसी झील पर जाना चाहती है, जहां वे पिछली बार गए थे। इस तरह वे झील के किनारे पर जा पहुंचे
दोपहर का एक बज रहा था।
तीखी धूप थी। ऐसे में वहां कोई भी नहीं था। वे एक बड़ी सी चट्टान की ओट में, छाया में चादरें बिछाकर बैठ गए। सोनू बैठता हुआ कह उठा---
"यहां तो शाम को आना चाहिए था।"
"तेरे को किसने कहा था साथ चलने को?" प्यारे ने मुंह बनाकर कहा--- "घर पर ही रहता।"
"ऐसा कैसे हो सकता है! गिन्नी भाभी को प्यास लग जाए तो पानी कौन लाएगा?"
"मैं हूं नहीं क्या?" प्यारे झल्लाया।
"फिर भी मेरा साथ होना जरूरी है।"
"अच्छी जबर्दस्ती है। मेरी पत्नी है गिन्नी और तेरे को उसकी चिंता पड़ी है कि उसे प्यास ना लग जाए।"
"चिंता क्यों नहीं होगी। मेरी भाभी जो ठहरी गिन्नी! क्यों गिन्नी भाभी?"
"मेरा ख्याल मेरा देवर नहीं रखेगा तो कौन रखेगा।" गिन्नी ने हंसकर कहा।
"मैं नहीं हूं क्या?" प्यारा बड़बड़ा कर बोला।
"तुम तो हो ही। साथ में एक काम करने वाला भी होना चाहिए।"
"सुन लिया गिन्नी भाभी ने क्या कहा?" सोनू हाथ नचाकर बोला।
प्यारा गहरी सांस लेकर रह गया।
तभी गिन्नी चादर पर लेटी और सिर प्यारे की टांग पर रख दिया।
"सीधी बैठ।" प्यारे अपनी टांग हटाता कह उठा--- "इस तरह मुझे परेशानी होगी।"
गिन्नी सीधी होकर बैठ गई।
तभी सोनू अपनी टांगें फैलाता कह उठा---
"लो भाभी, तुम यहां सिर रख लो।"
"तू पागल तो नहीं हो गया?" प्यारा झल्ला उठा।
"तेरा बचपन का दोस्त हूं। क्या तेरे को कभी पागल लगा मैं?" सोनू ने भोलेपन से कहा।
"लेकिन अब तू होता जा रहा है। मेरी मान तो शादी कर ले।"
"शादी?" सोनू ने गहरी सांस ली--- "कोई मिलती ही नहीं।"
"तूने कहा किसी से कि तूने शादी करनी है?"
"पाली चाचा से कहा था---वो...।"
"पाली चाचा, वो तो खुद शादी नहीं करा सका अपनी तो तेरी क्या कराएगा?" प्यारे ने अपने माथे पर हाथ मारा--- "तेरे को क्या वही मिला था, किसी और से कहता...क्यों गिन्नी?"
"मैं मां से कह दूंगी। वो इसके लिए लड़की ढूंढ देगी।"
"लड़की गोरी हो और पतली हो। कह देना अपनी मां से।" सोनू कह उठा।
"कह दूंगी। तुम खुद ही मां से बात कर लेना।"
"चाची से तो मुझे डर लगता है। बहुत तेज है।" सोनू बोला--- "तू ही बात कर लेना गिन्नी।"
"हां-हां कर लूंगी।" फिर गिन्नी प्यारे से बोली--- "मुझे भूख लग रही है।"
"चल खाना खा लेते हैं भाभी।" सोनू ने फौरन खाने वाला लिफाफा उठाकर बीच में रखा--- "जब तक तू खाना खा नहीं लेती, मुझे चैन नहीं मिलेगा।"
प्यारे ने खा जाने वाली नजरों से सोनू को देखा।
"तेरे को जितना खाना है, खा ले।" सोनू खाना बाहर निकालते हुए कह उठा--- "जो बचेगा, वो मैं खा लूंगा।"
"तू खा लेगा?" प्यारा भड़का--- "मैं बैठा, तुझे नजर नहीं आ रहा था?"
"ऊंची क्यों बोलता है...। आराम से बोल।" सोनू ने कहा--- "बचा खाना हम दोनों ही खाएंगे।"
"तू हमारे साथ मत आया कर।" प्यारे ने झल्लाकर कहा।
"क्यों?"
"हमें दो बातें भी करनी होती हैं आपस में।"
"तो कर लो, मैं सू-सू करने चला जाता हूं।" सोनू ने सादे स्वर में कहा।
प्यारे ने झल्लाकर गिन्नी को देखा तो गिन्नी कह उठी---
"प्यारे, तू इतना परेशान क्यों होता है? सोनू के साथ होने में बुराई ही क्या है।"
प्यारे ने गहरी सांस ली और मुंह फुला कर बैठ गया।
गिन्नी खाना खाने लगी।
सोनू उसके खाने के दौरान उसका ध्यान रखता रहा।
प्यारा मन ही मन उसे गालियां देता रहा। फिर नजरें झील की तरफ लगा दीं। धूप में तप रहा था झील का पानी। परंतु आसपास पेड़ों की छाया अच्छी लग रही थी। मन में यही सोच रहा था कि यहां पर तो शाम को आना चाहिए। पिछली बार तो वे शाम को ही आए थे।
गिन्नी के बाद सोनू और प्यारे ने खाना खाया।
फिर वे बातों के दौरान वहीं चादरों पर लेट गए।
"प्यारे! मैं सोचता हूं कोई काम कर लूं। जो लड़की देगा, वो ये तो देखेगा ही कि लड़का क्या काम करता है।"
"चाची ने गिन्नी की शादी मेरे से की। मैं क्या तब कोई काम करता था? ये सब बेकार की बातें हैं। जब शादी होनी होती है तो यूं ही हो जाती है। तेरे को भी कोई लड़की मिल जाएगी।" प्यारे ने कहा।
"तो काम ना करूं?
"क्या जरूरत है!" प्यारे ने लापरवाही से कहा--- "वैसे तेरी मर्जी है, करना हो तो कर लो।"
"क्यों गिन्नी भाभी, तू क्या कहती है।" सोनू ने गिन्नी से कहा--- "जो लड़की देगा, वो ये तो देखेगा कि लड़का काम क्या करता है।"
"कह देना, तू हमारी फैक्ट्री में काम करता है।" गिन्नी बोली।
"तुम्हारी फैक्ट्री?" सोनू हड़बड़ाया--- "वो कहां है?"
"जब लड़की वाले हमसे पूछेंगे तो हम उन्हें बातों में लगाकर बेवकूफ बना देंगे। तू फिक्र मत कर।"
सोनू ने समझने वाले ढंग से सिर हिला दिया।
इसी तरह वे बातें करते रहे।
वक्त बीतता रहा और शाम के साढ़े चार, पौने पांच बज गए।
तभी 'छपाक' किसी के पानी में गिरने की आवाज आई।
"ये कौन झील में नहाने आ गया?" सोनू ने गर्दन घुमाई, लेटे-लेटे झील की तरफ।
प्यारे ने भी यूं ही उधर देखा। जबकि गिन्नी उसी तरह आंखें बंद किए लेटी रही।
सोनू और प्यारे की निगाह झील की तरफ गई तो वे चौंके।
उन्होंने लाल रंग के सूटकेस को पानी में डूबते देखा।
स्पष्ट था कि सूटकेस झील में फेंका गया था। इस तरफ छोटी सी पहाड़ी थी। उन्होंने पहाड़ी के ऊपर की तरफ देखा। वहां दो लोग नीचे झांकते दिखे।
सूटकेस पानी में डूब गया था।
पहाड़ी से नीचे झांकने वालों में से एक मोहन था।
सोनू और प्यारे ने उन्हें पहाड़ी से जाते देखा। फिर उनकी आपस में नजरें मिलीं।
"प्यारे!" सोनू कह उठा--- "कुछ तो गड़बड़ है ही...।"
"वो तो दिख ही रहा है।" प्यारे कह उठा।
"मुझे लगता है सूटकेस में नोट भरे पड़े हैं। या फिर कीमती चीज। तभी झील में छुपाने के लिए फेंका उसे।"
"फिर हीरा या सोना होगा...।"
"हां...ये हो सकता है।"
प्यारे ने गिन्नी की तरफ देखा।
गिन्नी की शायद आंख खुल गई थी। वो झपकी में थी।
"निकालें सूटकेस को?" सोनू बोला।
"क्या करना है।" प्यारे ने लापरवाही से कहा--- "हमारे पास पहले से ही बहुत पैसा...।"
"बैठे-बैठे खाते रहेंगे तो वो खत्म हो जाएगा। हमें और पैसे की जरूरत है।"
"रखेंगे कहां?" प्यारे ने अपनी समस्या बताई।
"घर के कच्चे कमरे की मिट्टी खोदकर इन हीरों और सोने को भी, उन पैसों की तरह दबा देंगे।"
प्यारा सोचने लगा।
"सोचता क्या है? कल को हमारे बच्चे होंगे। उनका भी खर्चा होगा। पैसे की तो कदम-कदम पर जरूरत पड़ेगी।"
"तेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई। तू क्यों बच्चों की चिंता करता...।"
"शादी हो जाएगी। फिर बच्चे होने में क्या देर लगती है। हो गए तो बड़े हो जाएंगे। हर जगह पैसों की जरूरत पड़ेगी। सबको एक-एक घर अलग से लेकर दे देंगे। चल वो सूटकेस ले आते हैं।"
प्यारे ने गिन्नी पर निगाह मारी।
गिन्नी नींद में थी।
"भाभी सो रही है। तू उठ।"
प्यारा उठ खड़ा हुआ। सोनू भी उठा।
दोनों ने हर तरफ नजर मारी कि वहां कोई है तो नहीं?
कोई नहीं दिखा।
सोनू और प्यारे ने कपड़े उतारे और अंडरवियर में झील में उतरते चले गए।
फिर तैरते हुए उस जगह पर पहुंचे जहां सूटकेस पानी में डूबा था। फिर दोनों पानी में घुसते चले गए।
मिनट भर बाद ही दोनों पानी के ऊपर आ गए। सूटकेस को एक-एक तरफ से पकड़ रखा था और तैरते हुए धीरे-धीरे किनारे की तरफ सरकने लगे। प्यारा हांफता सा कह उठा---
"ये तो बहुत भारी है।"
"सोना भरा होगा सूटकेस में।" सोनू ने ऊंचे स्वर में कहा--- "वो भारी होता है।"
"शायद सोने के साथ हीरे भी हों।"
"हो सकता है।"
किसी तरह दोनों उस लाल सूटकेस को लेकर झील के किनारे पर पहुंचे। सूटकेस को पानी के किनारे रखकर दोनों गहरी-गहरी सांसें लेने लगे।
"ये तो सच में बहुत भारी है।" प्यारा बोला।
"वक्त बर्बाद मत कर।" सोनू कह उठा--- "इससे पहले कि कोई आए, इसे खोल कर देख लेते हैं।"
प्यारे ने गिन्नी को देखा। गिन्नी अभी तक नींद में थी।
दोनों सूटकेस खोलने लगे।
सूटकेस की 'जिप' खोली गई, फिर कवर हटा दिया।
अगले ही पल दोनों के दिल 'धक' से तेजी से बजने लगे।
भीतर हाथ-पांव बंधे, देवराज चौहान उकड़ू सा ठूंसा पड़ा था।
"ल-लाश...।" सोनू कह उठा।
"हम फंस जाएंगे।" प्यारा घबराकर बोला।
"पुलिस को खबर करनी चाहिए।"
"पागल है। हमें पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना है। चल यहां से चलते...।" कहते-कहते प्यारा ठिठका। सूटकेस में ठुंसे देवराज चौहान के चेहरे पर अब नजर पड़ी थी। एकाएक वो कह उठा--- "स-सोनू...।"
"हां?"
"ये...ये तो सरदार है।"
"सरदार?" सोनू के चेहरे पर उलझन के भाव उभरे।
"वो ही सरदार, इसे हमने तब देखा था, जब हम वहां गुबन्ध वाले पेड़ों के झुरमुट में से नोटों वाली वैन ले भागे थे।"
"वो सरदार?" सोनू आगे बढ़ा। (ये सब जानने के लिए पढ़ें रवि पॉकेट बुक्स से प्रकाशित देवराज चौहान सीरीज का उपन्यास 'यू-टर्न'।)
"हां, वो ही! मार दिया बेचारे को किसी ने...।"
सोनू ने पास पहुंचकर देवराज चौहान के चेहरे को देखा।
"ओह, ये तो सच में वही है।" सोनू के होंठों से निकला--- "देख तो इसकी सांसें चल रही हैं।"
"जिंदा है?"
"लगता तो ऐसा ही है। चल इसे बाहर निकाल...।"
"लेकिन...।"
"निकाल तो। इसकी ही वजह से आज हमारे पास दौलत है। हम इसे यूं ही मरने के लिए नहीं छोड़ सकते। हाथ लगा। सूटकेस से बाहर निकाल इसको...।"
"उसके पास सोनू और प्यारे ने देवराज चौहान को सूटकेस से बाहर निकालकर पास की जमीन पर लिटा दिया। हाथ-पांव बंधे हुए थे। वो हाथ-पांवों के बंधन खोलने लगे।
"नाड़े से हाथ-पांव बांध रखे हैं।" प्यारा बोला--- "कल मेरे पायजामे का नाड़ा टूट गया था। नाड़े को मैं साथ ले चलूंगा। घर जाकर पायजामे में डाल लूंगा।"
देवराज चौहान के हाथ-पांव खोल दिए गए।
प्यारे ने नाड़ा इकट्ठा करके पकड़ लिया।
दोनों की नजरें मिलीं।
"इसके सिर पर जख्म है। किसी ने खूब पिटाई की है इसकी।" सोनू देवराज चौहान को देखता कह उठा।
"इसे अब होश आ जाएगा।" प्यारा बोला--- "हमें देखकर कहीं ये हमें पहचान न ले कि उस रात हम ही इसका पैसा लेकर भागे थे। ऐसा हुआ तो ये सारा पैसा हमसे वापस ले लेगा।"
"बात तो तेरी ठीक है।" सोनू ने सिर हिलाया।
"हमने इसे पानी से निकाल दिया। ये ही बहुत है। इससे पहले कि इसे होश आए, हम निकल चलते हैं।"
"तेरी बात जंची प्यारे। यहां से निकल चलना ही ठीक है।"
उसके बाद सोनू और प्यारे ने कपड़े डाले। प्यारे ने नाड़ा पैंट की जेब में ठूंस लिया।
फिर गिन्नी को उठाया गया।
"सोने दो ना...।" गिन्नी कह उठी।
"उठ... घर चलना है।" प्यारा बोला--- "चाची परेशान हो रही होगी कि मैं गिन्नी को कहां ले गया।"
गिन्नी उठी। कुछ देर की नींद लेकर उठने से, उसका चेहरा और भी खूबसूरत हो गया था। तभी कुछ दूर पड़े सूटकेस पर और पास में लेटे देवराज चौहान पर उसकी निगाह पड़ी तो कह उठी।
"ये कौन है?"
"हमें क्या पता कौन है, क्यों सोनू...।" प्यारा कह उठा।
"हां...हां, हमें क्या पता? कुछ देर पहले ही ये आया था। सूटकेस रखा और पास ही में लेट गया।" सोनू बोला।
"ये धूप में क्यों लेटा है? इसे गर्मी नहीं लग रही।" गिन्नी उठते हुए बोली।
"हमें क्या! गर्मी लगे या ना लगे, क्यों सोनू?"
"हां... हां हमें क्या, हमें तो अपने बारे में सोचना है गिन्नी भाभी। अब घर जाकर चाची से कहना कि मेरे लिए कोई लड़की ढूंढे। मैं भी उसे लेकर झील पर आया करूंगा। वो मेरी टांग पर सिर रख कर लेटा करेगी।" कहते हुए सोनू बार-बार बेहोश पड़े देवराज चौहान को देख रहा था कि कहीं उसे होश ना आ जाए। "चलो अब जल्दी करो। बहुत पिकनिक मना ली। क्यों प्यारे?"
"हां, जल्दी घर पहुंचना है। चाची परेशान हो रही होगी।"
सोनू और प्यारे ने चादरें झाड़कर तह कीं और गिन्नी के साथ चल पड़े। वो जल्दी से जल्दी देवराज चौहान से, इस जगह से दूर हो जाना चाहते थे।
■■■
सुनीता आठ बजे घर लौटी।
कामटे घर पर ही था।
रात का खाना छोटी ने बनाकर साथ में बांध दिया था।
कामटे सोफे पर पसरा पड़ा था। उसने रोशनी भी नहीं कर रखी थी।
"ये क्या अंधेरा कर रखा है।" सुनीता घर की लाईटें ऑन करती कह उठी। खाने का सामान उसने टेबल पर रख दिया था--- "जब भी खाना हो बता देना।" वो कामटे के सामने जा बैठी।
कामटे खामोशी से सुनीता को देख रहा था।
"क्या बात है जी, सब ठीक तो है?" सुनीता ने पूछा।
"हां, अब सब ठीक हो गया।" कामटे ने शांत स्वर में कहा।
"अब सब, अब सब क्या?"
"ये सारा मामला खत्म हो गया।" कामटे गहरी सांस लेकर सीधा बैठता कह उठा।
"तो क्या देवराज चौहान ने सब को मार दिया?"
"देवराज चौहान मर गया। सुधीर दावरे ने उसे मार दिया।"
सुनीता चौंकी। देखती रह गई, वो कामटे को।
"त...तेरे को कैसे पता कि मर गया?"
कामटे ने सारी बात बताई। जो उसने देखी और महसूस की थी।
सुनीता ने गंभीरता से सुना।
"तेरे को दुख है देवराज चौहान के मारे जाने का?" सुनीता ने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा।
"नहीं, मुझे क्यों दुख होगा। मेरा उसका कोई रिश्ता नहीं था।" कामटे शांत भाव में मुस्कुराया।
"यही मैं तुम्हें कहने वाली थी। मर गया तो मर गया। हमें क्या, हमें तो चालीस लाख दे गया।"
कामटे ने सिर हिलाया।
"हमारे पास साठ लाख है। पांच बापू को दे दिया। पांच में छोटी की शादी कर देंगे। पचास तो हमारे पास रहेगा ही। बहुत है हमारे लिए। तुम इसी प्रकार नौकरी करते रहो। पैसे को कहीं लगा देना। ब्याज पर चढ़ा देना। या जो भी तुम चाहो।"
"मैं भी यही चाहता था कि ये मामला खत्म हो जाए। परंतु इस तरह नहीं चाहता था।"
"तो?"
"देवराज चौहान के मारे जाने का दुख है मुझे। इस मामले में उसकी मौत नहीं चाहता था।"
"छोड़ो भी।" सुनीता उसका गाल थपथपा कर मुस्कुराई--- "उसकी मौत को दिल पर क्यों लेते हो? जो हुआ ठीक हुआ। दो पैग लगाकर खाना खा लो। तब तक मैं नहा लूं। हमें अपनी जिंदगी खुश बनानी है। मैं बहुत खुश हूं आज। मेरा सपना था कि हमारे पास खूब पैसा हो और वो मिल गया। चलो उठो। पैग लगाओ और सब कुछ भूल जाओ।"
कामटे मुस्कुरा पड़ा।
"आज बहुत मूड में लग रही हो।"
"तो मैं रात को बताऊंगी।" सुनीता ने हंसकर कहा और उठ खड़ी हुई। टेबल से पैक खाना उठाकर किचन की तरफ चली गई।
कामटे उठा और बाथरूम में जाकर हाथ-मुंह धोया, फिर पैग तैयार किया और सोफे पर आ बैठा। सुनीता ने टेप पर ऊंची आवाज करके गाने लगा लिए थे।
घर का माहौल सामान्य हो चुका था।
साढ़े नौ बजे खाना खा लिया कामटे और सुनीता ने। वे फुर्सत में आए थे कि कॉलबेल बजी।
"मैं देखता हूं।" कामटे ने कहा और आगे बढ़कर दरवाजा खोला।
सामने देवराज चौहान खड़ा था।
कामटे हक्का-बक्का रह गया था उसे देखकर।
"तु...तुम...?" कामटे के होंठों से निकला।
देवराज चौहान ने कामटे को पीछे किया और भीतर प्रवेश कर आया।
देवराज चौहान को जिंदा देखकर सुनीता बुरी तरह चौंकी।
कामटे दरवाजा बंद करके पलटा।
"तुम जिंदा हो? मैं तो सोच रहा था कि दावरे ने तुम्हें मार दिया है।" कामटे अजीब से स्वर में कह उठा--- "जब तुम दावने के पास गए थे तो उत्सुकता के नाते मैं तुम्हारे पीछे गया था। दुकान का शटर बंद होते देखा। उसके बाद दावरे की दुकान के सेल्समैन को नया सूटकेस लाते देखा। कुछ देर बाद वो ही भारी सा सूटकेस बाहर ले जाते देखा... तो मैंने सोचा कि वो तुम्हारी लाश भरकर सूटकेस में ले जा रहे हैं। लेकिन तुम तो...।"
"तुमने जो देखा और समझा वो सही था।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "ऐसा ही हुआ था। मेरे से चूक हो गई और उन्होंने मुझ पर काबू पा लिया। उन्होंने मुझे जिंदा बेहोश सूटकेस में पैक किया और झील में फेंक दिया।"
"और फिर?"
"मुझे नहीं पता कि मुझे किसने बचाया। जब होश आया तो मैं झील के किनारे पड़ा था। पास ही लाल रंग का सूटकर पड़ा था। जिसे देखकर मैं समझ गया कि मेरे साथ क्या हुआ होगा। सूटकेस गीला था। मेरे कपड़े होश आने तक गीले ही थे। स्पष्ट था कि मुझे किसी ने निकाला झील से।"
कामटे और सुनीता देवराज चौहान को देखे जा रहे थे।
"कोई दवा हो तो मेरे सिर में लगा दो। रिवाल्वर के दस्ते की चोटें मेरे सिर पर मारी गई हैं।"
आमटे ने सुनीता को इशारा किया तो वो दूसरे कमरे से दवा ले आई।
देवराज चौहान कुर्सी पर बैठा तो कामटे रुई से उसके सिर में दवा लगाने लगा।
"तो तुम वहीं थे तब?"
"हां, यूं ही उत्सुकता के नाते तुम्हारे पीछे-पीछे चला...।"
"दावरे अब कहां है?"
"मैं नहीं जानता। जब दावरे के आदमी सूटकेस में तुम्हें ले गए तो उसके 45 मिनट बाद दावरे भी दुकान बंद करके चला गया था। तब मैंने जरूरत नहीं समझी उसके पीछे जाने की।"
देवराज चौहान खामोश रहा।
कामटे ने दवा लगाकर शीशी एक तरफ रखते कह उठा---
"तुम्हें जिंदा देखकर खुशी हुई। परंतु तुम्हारा यूँ बार-बार मेरे पास आना ठीक नहीं। मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा।"
"इस मामले में तुम मेरे बहुत काम आए।"
"तुमने मुझे चालीस भी तो दिया है।" कामटे दबे स्वर में बोला।
"अभी तुमने मुझे जगमोहन के बारे में बताना है।" देवराज चौहान ने उसे देखा।
"हां...।" कामटे गंभीर नजर आने लगा।
"तो बताओ...।"
"मेरे पास अकबर खान का फोन आया था। वो जानना चाहता था कि तेरे पास देवराज चौहान के बारे में कोई खबर तो नहीं। क्योंकि वो तुमसे जगमोहन का सौदा करना चाहता है। उसका कहना है कि जगमोहन उसके पास है।" कामटे ने गंभीर स्वर में कहा।
"कब की बात है ये?"
"आज दिन की...।"
देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव दिखाई देने लगे।
कामटे उसे देखता रहा। चेहरे पर बेचैनी थी।
सुनीता भी एक तरफ खड़ी थी।
"मैं तुम्हें बताता हूं कि अब तुम क्या करो।" देवराज चौहान बोला--- "तुम्हारे पास अकबर खान का नंबर तो होगा।"
"शायद...। उसने जिस मोबाइल से मेरे से बात की थी, उसका नंबर मेरे फोन में आ गया है।"
"तुम उसे फोन कर कहो कि तुम्हारे पास देवराज चौहान के ठिकाने की जानकारी है। जानकारी देने के बदले सौदा करो और जो भी रकम तय हो, उसे कहो कि वो तुमसे अकेले मिले और इस बारे में किसी से बात ना करे कि तुम उसे देवराज चौहान के बारे में बता रहे हो।"
"वो अकेला मुझसे मिलने नहीं आएगा।" कामटे ने सिर हिलाया।
"वो आएगा। मेरे बारे में वो हर कीमत पर जानकारी पाना चाहेगा।"
"लेकिन मैं ये काम नहीं करूंगा।" कामटे ने देवराज चौहान को घूरा।
"क्यों?"
"अकबर खान अगर मुझसे मिलने आया भी तो, अपने दो-चार लोगों को बता कर निकलेगा कि वो सब-इंस्पेक्टर कामटे से मिलने और देवराज चौहान के बारे में जानकारी लेने जा रहा है।" कामटे ने गंभीर स्वर में कहा--- "और जब अकबर खान मिलेगा तो तुम उसे मारना चाहोगे।"
"हां, वो मेरा शिकार है।"
"तो मुझे भी साथ क्यों शिकार बना रहे हो?"
"कैसे?"
"अकबर खान की मौत के बारे में सुनकर, उसके आदमी समझ जाएंगे कि मैं तुमसे मिला हुआ हूं। वो मुझे मार देंगे।"
देवराज चौहान, कामटे को देखने लगा।
कामटे परेशान सा बैठा, उसे देखता रहा।
सुनीता सारे हालात समझ रही थी।
"ठीक है।" एकाएक देवराज चौहान ने कहा--- "तुम अकबर खान को फोन पर, कहो कि तुम्हारे पास देवराज चौहान का नंबर है। नंबर उसे बेचने के लिए सौदा करो। जो भी रकम तय हो, वो लो और उसे मेरा नंबर दे दो।"
"तुम्हें तो कोई फायदा नहीं हुआ, ऐसा करने में?"
"अकबर खान के आदमी मेरा नंबर लेने और नोट देने तुमसे मिलेंगे। उनके सहारे मैं अकबर खान तक पहुंच जाऊंगा।"
"ओह...।"
"अकबर खान को फोन करो...।" देवराज चौहान बोला।
"अब?"
"हां।"
"रात के साढ़े दस हो चुके हैं। तुम्हारे सिर पर चोट भी है। तुम आराम कर लो। सुबह उसे...।"
"ये काम अब ही करना पड़ेगा तुम्हें...।"
"ठीक है।" कामटे ने एक निगाह सुनीता पर मारकर, देवराज चौहान से कहा--- "मेरे दम पर तुम अकबर खान तक पहुंचने जा रहे हो। मुझे भी कुछ दो।"
"क्या चाहिए?"
"पहले तुमने दस लाख दिया था।"
"दस अब भी दूंगा।"
"दूंगा क्या, दे ही दो...।"
"मेरे पास इतना वक्त नहीं है कि बार-बार मैं तुम्हारे लिए पैसे लेने जाता रहूं। कल तुम्हें दस लाख दे दूंगा।"
खामोश खड़ी सुनीता कामटे से कह उठी---
"क्यों बे-वक्त भाई साहब को तंग करते हो। पहले भी तो तुम्हारी एक आवाज पर भाई साहब ने चालीस लाख दिया है। दस की ही तो बात है। कह रहे हैं तो कल आकर दे देंगे। क्यों भाई साहब, मैंने ठीक कहा ना।" सुनीता मुस्कुराई।
देवराज चौहान सिर हिलाकर रह गया।
कामटे ने अपना मोबाइल उठाया और दिन में आई अकबर खान की कॉल तलाशने लगा।
वो नंबर मिल गया, जिससे अकबर खान ने फोन किया था।
कामटे ने वो नंबर मिलाया और फोन कान से लगाते देवराज चौहान से बोला---
"तुम मुझे नोट दे रहे हो और मैं तुम्हारे लिए खतरा उठा रहा हूं...।"
दूसरी तरफ बेल जा रही थी।
"हैलो...।" फिर आवाज कानों में पड़ी, वो अकबर खान की आवाज थी।
कामटे ने खासतौर पर आवाज को पहचाना।
"अकबर खान।" कामटे संभले स्वर में कह उठा--- "मैं सब-इंस्पेक्टर कामटे बोल रहा हूं।"
"ओह तुम... कहो...?" अकबर खान की आवाज पुनः कानों में पड़ी।
"देवराज चौहान की खबर है मेरे पास। तुम चाहते थे ना उसकी खबर।"
"हां... बोल...।"
"मुझे कहीं से उसका नंबर मिला है।"
"बहुत बढ़िया... बता...।"
"देवराज चौहान के फोन नंबर को पाने के लिए मैंने खर्चा किया है। ये मुफ्त का माल नहीं है।" कामटे नाप-तौल कर बोल रहा था।
"क्या चाहता है?"
"दस लाख...।"
"ज्यादा मुंह मत फाड़। लाख का भी कम नहीं है। फिर भी तेरे को तीन लाख दूंगा। बोल कहां भिजवाऊं?"
"मेरे घर पर भेज दे। इंतजार कर रहा हूं। जो पैसा देगा, उसे फोन नंबर दे दूंगा।" कहकर कामटे ने अपना पता बताया।
"इंतजार कर। कुछ ही देर में मेरा आदमी पहुंचता है।" इसके साथ ही उधर से अकबर खान ने फोन बंद कर दिया था।
कामटे ने फोन को बंद करके जेब में रखा और देवराज चौहान से बोला---
"अकबर खान, अपने आदमी के हाथ तीन लाख भेज रहा है। अपना फोन नंबर बताओ।"
देवराज चौहान ने नंबर बताया। फिर बोला---
"मुझे रिवाल्वर चाहिए...।"
"रिवाल्वर?" कामटे ने उसे देखा--- "तुम पहले ही मेरी सर्विस रिवाल्वर छीनकर, उससे सबके कत्ल कर रहे थे।"
"वो दावरे की उस दुकान वाले ठिकाने पर गिर गई थी।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "अब मुझे रिवाल्वर चाहिए और इसका इंतजाम तुम्हें ही करना है। बेशक अपनी दे दो।"
"पागल हो क्या? मैं अपना सर्विस रिवाल्वर तुम्हें दे दूं?" कामटे झल्लाया।
"तो कहीं से इंतजाम करके दो।"
"इस वक्त रिवाल्वर का इंतजाम नहीं हो सकता।" कामटे स्पष्ट बोला--- "चाकू-छुरी मिल जाएगी। उससे ही...।"
"इस काम में मुझे रिवाल्वर...।"
"बार-बार मत कहो। इस वक्त मैं तुम्हें कहीं से भी रिवाल्वर नहीं दिला सकता।"
"रिवाल्वर की तगड़ी कीमत दूंगा।"
"कितनी भी कीमत दो--- इस वक्त रिवाल्वर नहीं ला सकता।" कामटे इंकार में सिर हिलाता कह उठा--- "अकबर खान का आदमी आने वाला है। अब मेरे पास इतना वक्त नहीं कि रिवाल्वर का इंतजाम करने बाहर जा सकूं। तुम्हें ठिकाना बता देता हूं कि जहां से...।"
"अकबर खान का जो आदमी तुम्हारे पास आएगा, मुझे उसके पीछे जाकर अकबर खान तक पहुंचना है। मेरे पास भी इतना वक्त नहीं कि यहां से कहीं दूर जा सकूं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
■■■
रात के बारह बज रहे थे
देवराज चौहान उस आदमी का पीछा करते एक मध्यमवर्गीय इलाके में जा पहुंचा था, जो कामटे से मिलने आया था। तब देवराज चौहान कामटे के घर से जरा हटके, एक टैक्सी में बैठा था। उसे यकीन था कि आने वाला कार में ही आएगा और ऐसा ही हुआ था। वो सिर्फ दो मिनट कामटे के घर के भीतर रहा था। सीधी सी बात थी कि उसने कामटे को तीन लाख रुपया दिया था और कामटे से उसका मोबाइल नंबर लेकर चलता बना था।
उसने कार उस कॉलोनी की गली के भीतर ले जा रोकी।
देवराज चौहान ने गली के बाहर ही टैक्सी को छोड़ा और टैक्सी वाले को ठीक-ठाक पैसा किराए के रूप में देकर गली में प्रवेश कर गया था।गली में स्ट्रीट लाइट का एक ही बल्ब जल रहा था, जो कि रोशनी के लिए पर्याप्त नहीं था। रात के इस वक्त मकानों की अधिकतर रोशनियां बंद थीं। गली में एक तरफ कारों की कतार लगी थी। उसने भी कार को उसी कतार में एक तरफ रोका और उतरकर सामने के बने एक मकान की तरफ बढ़ गया।
तब उसने गली में नजर घुमा कर यूं ही देखा था।
सामने से देवराज चौहान आता दिखा था।
परंतु उसे क्या पता था कि वो देवराज चौहान है। वैसे भी वो देवराज चौहान को पहचानता नहीं था। देखते ही देखते वो सामने के मकान में प्रवेश करता चला गया।
■■■
अकबर खान के हाथ में व्हिस्की का गिलास था। अपने आदमी के आने के इंतजार में वो व्हिस्की के छोटे-छोटे घूंट भर रहा था। परंतु वो परेशान था। उलझन में था। शाम को दावरे का फोन आया था कि उसने देवराज चौहान को ठिकाने लगा दिया है।
अकबर खान को दावरे की बात पर जरा भी यकीन नहीं हुआ था।
आदतन अकबर खान शक्की इंसान था। वो हर बात के अंत तक तसल्ली करता था। यही बात थी कि दावरे के मुंह से देवराज चौहान के मारे जाने की खबर सुनकर भी अकबर खान अपने इस ठिकाने से बाहर नहीं निकला था। फिर कामटे का फोन आया कि उसके पास देवराज चौहान का मोबाइल नंबर है तो अकबर खान को ये बढ़िया मौका लगा कि उस नंबर पर बात करके अपनी तसल्ली कर ले।
उसका आदमी भीतर आया। उसे देखते ही अकबर खान कह उठा---
"काम हो गया?"
"जी हां...।" उसने एक कागज निकालकर अकबर खान की तरफ बढ़ाया--- "इस पर एक मोबाइल का नंबर लिखा है।"
अकबर खान ने उससे नंबर लिखा कागज लिया और अपना मोबाइल निकालकर, नंबर मिलाने लगा।
एक बार, दो बार, तीन बार नंबर मिलाया।
तीनों बार यही सुनने को मिला कि इस वक्त ये नंबर काम नहीं कर रहा।
"काम कैसे करेगा?" अकबर खान बड़बड़ाया--- "बात करने वाला ही जिंदा नहीं बचा है...।"
वो आदमी अभी भी सामने ही खड़ा था।
"खाना लगा। भूख लग रही है।"
वो आदमी सिर हिलाकर किचन की तरफ बढ़ गया।
अकबर खान ने सुधीर दावरे का नंबर मिलाया।
"बोल अकबर?" फौरन दावरे की आवाज कानों में पड़ी।
"देवराज चौहान सच में मर गया है ना?" अकबर खान ने पूछा।
"मैं क्या झूठ कहूंगा।"
"अब तू कहां है?"
"अपने बंगले पर। पुलिस हमारे पीछे नहीं है। देवराज चौहान भी जिंदा नहीं रहा तो मैं बंगले पर पहुंच गया। अब सब ठीक है।"
"बंद करता हूं। कल बात करेंगे।" अकबर खान ने कहा और फोन बंद करके टेबल पर रख दिया। घूंट भरा।
तभी किचन में कोई बर्तन के गिरने की आवाज आई।
"क्या हुआ मुरली?" अकबर खान ने ऊंचे स्वर में पूछा।
परंतु दोबारा कोई आवाज नहीं आई।
अकबर खान भी, बर्तन गिरा समझकर शांत बैठ गया।
मिनट भर ही बीता होगा किचन की तरफ से कमरे में देवराज चौहान ने प्रवेश किया। देवराज चौहान के हाथ में रिवाल्वर दबी थी। जो कि उसने किचन में काम कर रहे आदमी से हासिल की थी। खुद उसने किचन की खिड़की से भीतर प्रवेश किया था और किचन में जो आदमी था, उसकी गर्दन की हड्डी टूटी पड़ी थी। वो मर चुका था।
आहट पाकर अकबर खान ने सिर घुमाया तो वो देवराज चौहान को देखने लगा।
कई पलों तक तो अकबर खान को समझ नहीं आया कि वो किसे सामने देख रहा है। पलकें तक नहीं झपकीं। दिमाग में कोई विचार नहीं आया। वो बस, देखता रहा देवराज चौहान को।
फिर जैसे बम फटा हो। इस तरह उछल पड़ा अकबर खान।
भूकंप के भाव चेहरे पर आए। गिलास हाथ से निकलकर टेबल से टकराया और टूट गई। व्हिस्की बिखर गई।
"त... तुम... देवराज चौहान...।" अकबर खान के होंठों से फटा-फटा स्वर निकला।
देवराज चौहान के चेहरे पर वहशी भाव नाच रहे थे। आंखों में मौत बरस रही थी। दरिंदा लग रहा था इस वक्त वो। उसका शिकार उसके सामने था, जिसने उसकी जिंदगी में तूफान ला दिया था। एक कदम आगे बढ़ा और ठिठक गया। हाथ में दबी रिवाल्वर का रुख अकबर खान की तरफ था। दांत सख्ती से भिंचे हुए थे।
अकबर खान के चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो दूसरा जा रहा था। उसने घबराए ढंग से जेब की तरफ हाथ बढ़ाया। फटी आंखें देवराज चौहान पर ही थीं। देवराज चौहान दांत पीसते आगे बढ़ा और जूते की ठोकर उसके पेट में मारी।
अकबर खान पेट पकड़कर चीखा और पीछे पड़े सोफे पर जा गिरा।
देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली और उसके माथे पर रिवाल्वर की नाल रख दी।
"मत मारो। मुझे मत मारो।" अकबर खान के होंठों से थरथराता स्वर निकला--- "मुझे माफ कर दो। मैं...मैं...।"
देवराज चौहान ने उसके माथे पर से रिवाल्वर हटा ली।
अकबर खान पेट पर हाथ रखे गहरी-गहरी सांसें लेने लगा। उसकी आंखों में खौफ नाच रहा था। वो कांपते अंदाज में देवराज चौहान को देखे जा रहा था। असंयत सा बुरे हाल लग रहा था वो।
देवराज चौहान उसके सामने सोफे पर जा बैठा। रिवाल्वर हाथ में दबी थी।
"कैसा है तू अकबर खान?"
"म...मैं तेरे को बहुत पैसा दूंगा। बहुत कि तू...।"
"मुझे जगमोहन चाहिए।" देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली।
"जगमोहन?" अकबर खान ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"कहां है वो?" देवराज चौहान इस वक्त मौत का दूसरा रूप लग रहा था।
"वो... वो... वो सर्दूल के पास है।"
"सर्दूल।" देवराज चौहान ने दांत पीसे--- "वो हिन्दुस्तान में है?"
"ह...हां...।"
"कहां?"
"मैं नहीं जानता। वो किसी को नहीं बताता कि वो किधर होता है।"
"पहले जगमोहन तेरे पास था?"
"ह...हां...।" भय से कांप उठा अकबर खान।
"हॉस्पिटल से तूने उठाया था उसे?"
"हां। मैंने उसका इलाज करवाया। उसे पूरी तरह ठीक करा दिया। मैंने उसका बहुत ध्यान रखा।"
"यहीं पर रखा था उसे?"
"न...हीं। दूसरे ठिकाने पर।"
"राठी कहां है?"
"जगमोहन के साथ।"
"सर्दूल का फोन नंबर बता।"
अकबर खान ने फौरन सर्दूल का मोबाइल नंबर बता दिया।
"सुधीर दावरे कहां है इस वक्त?"
"वो... वो...मैं नहीं जानता। तुम्हारे डर से सबने अपने ठिकाने छोड़ रखे हैं।" अकबर खान ने कहा--- "तुम व्हिस्की लोगे? गिलास तैयार करूं?"
"कर। लेकिन पहले अपनी रिवाल्वर जेब से निकालकर टेबल पर रख दे।" देवराज चौहान गुर्राया।
अकबर खान ने रिवाल्वर निकालकर टेबल पर रख दी, फिर उठा और सामने ही शो-केस में लगे बर्तनों की तरफ बढ़ गया। अब वो धीरे-धीरे संयत होता जा रहा था। दिमाग के ऊपर चढ़ा डर, नीचे आने लगा था। अलमारी से दो खाली गिलास लाकर टेबल पर रखे और टेबल पर पहले से पड़ी बोतल उठाकर गिलास तैयार करने लगा।
होंठ भींचे देवराज चौहान एकटक अकबर खान को देखे जा रहा था।
"तो जगमोहन अब बिल्कुल ठीक है?" देवराज चौहान के होंठों से सुलगते शब्द निकले।
"पूरी तरह...।" अकबर खान ने उसे ये नहीं बताया कि उसकी याददाश्त गुम हो चुकी है।
"उसे क्यों उठा लिया था हॉस्पिटल से?"
"ये सोच कर कि तुमसे सौदा करके अपनी जान बचा सकूंगा। अगर जरूरत पड़ी तो। वैसे तब मैंने कुछ खास नहीं सोचा था। यूँ ही उसे उठाने अपने आदमी भेज दिए थे। दरअसल मैं बहुत परेशान था उस वक्त।" बातों के दौरान अकबर खान की निगाह बार-बार किचन की तरफ उठ रही थी। बार-बार वो टेबल पर पड़ी रिवाल्वर को देख रहा था।
देवराज चौहान उठा और टेबल पर पड़ी रिवाल्वर उठाकर अपनी जेब में रख ली।
अकबर खान ने गिलास तैयार करके उसे दिया और दूसरा खुद थामें सोफे पर बैठ गया।
"तब आर्य निवास होटल में जो कुछ भी हुआ, उसके लिए मैं शर्मिंदा हूं और माफी मांगता हूं।" अकबर खान कह उठा--- "वो सब दावरे का किया-धरा था। मेरी कोई गलती नहीं थी।"
"तुमने और तुम्हारे आदमियों ने मुझ पर और जगमोहन पर चाकू के वार किए थे।"
"मैं सच में शर्मिंदा हूं। मेरा दिमाग बहुत खराब हो गया था, जो मैंने ऐसा किया। मैं उसका तुम्हें हर्जाना देने को तैयार हूं। हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं।मेरी जान लेकर तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा।"
देवराज चौहान होंठ भींचे मौत भरी निगाहों से उसे देखता रहा।
"किचन में मेरा आदमी था। वो... वो...।"
"मैंने मार दिया उसे।" देवराज चौहान ने कहा और हाथ में पकड़े गिलास को एक ही सांस में खत्म कर दिया।
देवराज चौहान का जवाब सुनकर उसके शरीर में सिरहन दौड़ती चली गई।
"म... मैं तुम्हें कितना पैसा दूं दोस्त बनने के लिए। जो मांगोगे, वो ही दूंगा।"
"दावरे का फोन नंबर बता...।" देवराज चौहान गिलास टेबल पर रखते कह उठा।
अकबर खान ने सुधीर दावरे का नंबर बताया।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर वाला हाथ अकबर खान की तरफ सीधा किया।
अकबर खान का चेहरा मौत के भय से फक्क पड़ गया।
"मुझे मत मारना। मैं तुम्हें बहुत सारा पैसा दूंगा।" अकबर खान चीखने के स्वर में कह उठा।
"मेरे पास अगर वक्त होता और ये जगह मुनासिब होती मैं तेरे को तड़पा-तड़पा कर कुत्ते से भी बुरी मौत मारता। लेकिन फिर भी मुझे खुशी है कि मैंने अपना एक और दुश्मन खत्म कर दिया। मरने से पहले तूने जो गिलास मुझे पिलाया, उसका मैं शुक्रिया अदा करता हूं ये गोली चलाकर।" देवराज चौहान ने वहशी स्वर में कहा और एक के बाद एक दो बार ट्रेगर दबाया।
फायरों की तेज आवाज गूंज उठी।
दोनों गोलियां उसकी छाती पर, ठीक दिल वाली जगह पर जा लगी थीं।
■■■
अगले दिन।
सर्दूल और जगमोहन एक फ्लैट पर मौजूद थे। दिन के 11 बज रहे थे। सर्दूल मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था और जगमोहन सोफे पर बैठा रिवाल्वर खोले उसे साफ कर रहा था। फ्लैट सजावट से भरा शानदार था। दोनों नाश्ता कर चुके थे। वहां एक बूढ़ी औरत थी, वही उनका सारा काम कर रही थी। वो औरत उसी फ्लैट में रहती थी। सर्दूल का ठिकाना था ये। कभी-कभी छुपकर रहने के लिए वो यहां भी आ जाता था।
सर्दूल ने फोन बंद किया और जगमोहन से मुस्कुराकर बोला।
"आज रात हम पाकिस्तान के लिए निकल जाएंगे।"
जगमोहन ने रिवाल्वर साफ करते उसे देखा और कहा।
"वहां मेरे करने को काम तो होगा?"
"बहुत...।" सर्दूल हंस पड़ा--- "वहां काम ही काम है। पाकिस्तान में तुम मेरे खास बनकर रहोगे। मेरे सबसे खास। वहां मेरे ड्रग्स के काम को संभालोगे। हथियारों का काम संभालोगे। जो काम तुम्हें बढ़िया लगे, वो करना। पाकिस्तान की सरकार के साथ मेरे अच्छे संबंध हैं। आई•एस•आई• मेरे दोस्तों की तरह है। वहां तुम बादशाह बनकर रहोगे। हिन्दुस्तान जैसी लाइफ नहीं है वहां कि तुम कानून से डर कर रहो। पाकिस्तान का कानून हम जैसे लोग ही हैं।इसी के दम पर पाकिस्तान है। वहां सब कुछ तुम्हें अच्छा लगेगा।"
जगमोहन मुस्कुराया।
"बहुत तारीफ कर रहे हो पाकिस्तान की। अब तो पाकिस्तान को जरूर देखना चाहूंगा।"
"पहले कभी पाकिस्तान नहीं गए?"
"याद नहीं।" जगमोहन ने गहरी सांस ली--- "पहले का मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा।"
"पाकिस्तान में तुम्हारा इलाज करवाऊंगा। सब याद आ जाएगा तुम्हें।"
"मैं देवराज चौहान को मारना चाहता था, परंतु वो तो मर गया।"
"भूल जाओ उसे। अब तुम मेरे साथ नई जिंदगी शुरु करोगे।" सर्दूल ने मुस्कुरा कर कहा।
उसी वक्त सर्दूल का मोबाइल बजा।
"हैलो।" सर्दूल ने फोन निकालकर बात की।
"गजब हो गया सर्दूल...।" सुधीर दावरे की तेज आवाज कानों में पड़ी--- "रात अकबर खान मर गया।"
"क्या?" सर्दूल चौंका।
"दो गोलियां उसके दिल पर मारी गईं। वो वहां सुबह उसका आदमी पहुंचा तो पता चला। उस अब खबर मेरे पास पहुंची। अकबर खान का साथी भी वहां मरा पाया गया। उसकी गर्दन की हड्डी तोड़ी गई है।"
सर्दूल के दांत भिंच गए।
दावरे की भी आवाज नहीं आई।
जगमोहन रिवाल्वर साफ करने में लगा हुआ था।
"किसने मारा उन दोनों को?" सर्दूल के होंठों से निकला।
"मुझे तो खुद समझ नहीं आ रहा कि किसने ये काम...।"
"देवराज चौहान ने ये काम...।"
"नहीं। उसे तो मैंने कल मार दिया था।"
"तुमने उसे बेहोश कर के सूटकेस में पैक करके फेंका था। वो बच गया होगा।"
"ये नहीं हो सकता। मेरे आदमी उसे पानी में फेंक कर आए थे। उसके हाथ-पांव बंधे थे। वो सूटकेस में बंद था।" दावरे की आवाज कानों में पड़ी।
सर्दूल के दांत भिंचे रहे।
"कोई और ही लफड़ा होगा। देवराज चौहान तो पानी में गिरते ही पांच मिनट में मर गया होगा।"
"जो भी हो रहा है, गलत हो रहा है। मेरे खास लोगों में अब सिर्फ तुम ही बचे हो। ये तो नुकसान वाली बात हो गई।" सर्दूल होंठ भींचे कह रहा था--- "तुम वहां अपने आदमी भेजो। पानी में से सूटकेस निकाल कर देखो कि देवराज चौहान मरा है या नहीं?"
"ठीक है। मैं अभी ऐसा ही करता हूं।"
सर्दूल ने फोन बंद करके जेब में रखा। चेहरे पर उखड़े भाव थे।
जगमोहन सर्दूल को ही देख रहा था। वो बोला---
"देवराज चौहान की क्या बात कर रहे हो तुम?"
"दावरे का फोन आया कि रात अकबर खान को किसी ने मार दिया है।"
जगमोहन के होंठों से गुर्राहट निकली। चेहरा दहक उठा।
"अकबर खान को मार दिया? वो मर गया?" जगमोहन ने दांत पीसे।
"मुझे लगता है कि ये काम देवराज चौहान का ही होगा। उसने ढूंढ लिया होगा अकबर खान का ठिकाना। परंतु दावरे कहता है कि कल उसने देवराज चौहान को मार दिया था। कहीं न कहीं तो गड़बड़ है ही...।"
"मैं चाहता हूं देवराज चौहान जिंदा हो, ताकि मैं उसे कुत्ते की मौत मार सकूं।" जगमोहन गुर्रा उठा।
"ये बात पता करने के लिए दावरे, वहां अपने आदमी भेज रहा है, जहां उसने कल देवराज चौहान को फेंका था।" सर्दूल ने भिंचे स्वर में कहा--- "अगर वो जिंदा है तो तुम उसे बुरी मौत मारना जगमोहन।"
"हां। बहुत बुरी मौत मारूंगा मैं।" पागल सा नजर आने लगा था जगमोहन।
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दो घंटे बाद सुधीर दावरे का फोन सर्दूल को आया।
"गजब हो गया सर्दूल। मैंने अपने आदमी वहां भेजे जहां उन्हें सूटकेस बंद करके फेंका था वो झील है। परंतु वो सूटकेस नहीं मिला झील में। उन्होंने सारी झील छान ली।" दावरे का हांफता स्वर कानों में पड़ रहा था--- "वहां मौजूद दो-चार छोटे-छोटे आवारा लड़कों से बात करने पर पता चला कि एक लाल रंग का सूटकेस कल शाम झील के किनारे पड़ा देखा था। वो खाली था। उसे कोई आदमी उठाकर ले गया।"
"अब तो तुम्हें विश्वास हो गया कि देवराज चौहान जिंदा है।" सर्दूल ने कठोर स्वर में कहा।
"लेकिन...लेकिन वो सूटकेस से कैसे निकला होगा? उसके हाथ-पांव बंधे थे। वो नहीं निकल सकता।"
"लेकिन वो निकल गया।"
"ये नहीं हो सकता।" दावरे की आवाज में बहुत परेशानी थी--- "तुम खुद ही सोचो कि हाथ-पांव बांधकर उकड़ू सा उसे सूटकेस में ठूंसा हुआ था। सूटकेस की बाहरी जिप बंद थी और फिर वो सूटकेस पानी के बाहर मिलता है। अगर देवराज चौहान को होश आ गया तो वो पानी में ही किसी तरह सूटकेस से बाहर... नहीं... वो सूटकेस से बाहर नहीं निकल सकता। उसके हाथ-पांव बंधे थे। सूटकेस की जिप बंद थी। वो हिल भी नहीं सकता होगा, तो उसने अपने हाथ-पांव कैसे खोल लिए? ये नहीं हो सकता सर्दूल। बच्चों ने बताया कि सूटकेस कहीं से फटा हुआ नहीं था, जबकि देवराज चौहान बाहर निकलता तो सूटकेस को फाड़ के ही बाहर निकलता।"
"फिर तो एक ही बात हो सकती है।"
"क्या?"
"किसी ने सूटकेस को पानी में गिराते देखा होगा।" सर्दूल का स्वर कठोर ही था--- "तुम्हारे आदमी सूटकेस पानी में फेंक कर चले गए होंगे। देखने वाले ने जाने क्या सोचकर सूटकेस पानी से बाहर निकाला होगा। इस कारण देवराज चौहान जिंदा बच गया।"
दावरे की आवाज नहीं आई
"तुम्हारे आदमियों को सूटकेस फेंकने के बाद कुछ देर वहीं रुकना चाहिए था।"
"ओह, शायद ऐसा ही हुआ हो।"
"तुम्हें बहुत सतर्क रहने की जरूरत है दावरे।"
"क्या मतलब?"
"देवराज चौहान बहुत तेजी से काम कर रहा है। शाम को वो झील से बच निकला और रात तक उसने अकबर खान को ढूंढ कर उसकी हत्या भी कर दी। मुझे लगता है कि इस काम में कोई उसका साथ दे रहा है। वो तुम तक भी पहुंच सकता है।"
दावरे की आवाज नहीं आई।
"देवराज चौहान पागल हुआ पड़ा है। वो सच में खतरनाक इंसान है। मैंने नहीं सोचा था कि वो इतना खतरनाक होगा। वो हम सबको मार देना चाहता है। हमारे पास ऐसा कोई रास्ता नहीं कि उससे बात करके उसके बढ़ते कदमों को रोक सकें।"
"जगमोहन हमारे पास है। ये बात उसे रोकने के लिए काफी है सर्दूल...।"
"तुम ठीक कहते हो।" सर्दूल ने सामने बैठे जगमोहन पर नजर मारी--- "पर ये तभी हो सकता है कि उससे हमारी बात हो।"
"अब क्या किया जाए?"
"सोचने दो मुझे।" कहकर सर्दूल ने फोन बंद कर दिया।
"क्या हुआ?" जगमोहन ने पूछा।
"तुम्हारे लिए खुशखबरी है।" सर्दूल मुस्कुराया--- "देवराज चौहान जिंदा है। तुम उसे मार सकते हो।"
दांत पीसता जगमोहन खड़ा हो गया।
"कहां है वो... मैं उसे...।"
"अभी हमें उसका ठिकाना पता नहीं है। मेरे आदमी उसकी तलाश में हैं। कभी भी उसका पता चल...।"
"अभी मैं पाकिस्तान नहीं जाऊंगा। जगमोहन गुर्रा उठा--- "पहले मैं देवराज चौहान को खत्म करूंगा।"
"ऐसा ही होगा। हम देवराज चौहान को खत्म करके पाकिस्तान जाएंगे।"
"हम नहीं।" जगमोहन जे गुर्राकर कहा--- "देवराज चौहान को सिर्फ मैं ही मारूंगा।"
"हां, तुम ही मारोगे।" सर्दूल ने सिर हिलाया--- "वो तुम्हारा शिकार है।"
सर्दूल का फोन बजा।
"हैलो।" सर्दूल ने बात की।
"सर्दूल।" देवराज चौहान का स्वर स्वर कानों में पड़ा।
सर्दूल के चेहरे पर चौंकने के भाव आए।
"तुम, देवराज चौहान?"
"हां, किसी की आवाज पहचानना तुम खूब जानते हो।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
जगमोहन, सर्दूल को आंखें सिकोड़े देखने लगा।
सर्दूल के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान नाच उठी।
"मैं तो तुमसे बात करने को तड़प रहा था। मेरा फोन नंबर तुम्हें कहां से मिला?"
"अकबर खान से...।"
"रात तुमने उसे भी मार दिया!"
"सब मरोगे।" कानों में पड़ने वाले, देवराज चौहान के स्वर में वहशी भाव थे।
"अब तुम्हारी बारी है।" सर्दूल ने तीखे स्वर में कहा--- "तुम्हारी मौत का सामान इकट्ठा हो चुका है।"
"जगमोहन कहां है?"
"जगमोहन?" सर्दूल ने हंसकर जगमोहन पर नजर मारी--- "वो इस वक्त मेरे सामने मौजूद है।"
"कैसा है वो?"
"बढ़िया।"
"उसे मेरे हवाले कर दो।" देवराज चौहान का कठोर स्वर कानों में पड़ा।
"तुम्हारे हवाले कर दूं जगमोहन को?" सर्दूल ने ये शब्द जगमोहन को सुनाए--- "क्यों करूं तुम्हारे हवाले?"
"मैं तुम लोगों का पीछा छोड़ दूंगा। अभी तुम और सुधीर दावरे बचे हुए...।"
"सर्दूल को डराने की कोशिश मत कर।" सर्दूल कड़वे स्वर में बोला--- "मत भूल, तू मेरे से बात कर रहा है।"
"मुझे जगमोहन वापस चाहिए।"
"तुम्हारी ये बात नहीं मानी जा सकती...।"
"तो तुम ये जंग जारी रखना चाहते हो?" उधर से देवराज चौहान कह उठा।
"तुमने क्या सोचा कि तुम्हारी बात सुनकर मैं डर जाऊंगा और जगमोहन को तुम्हारे हवाले कर दूंगा?"
जगमोहन दांत भींचे सर्दूल को देख रहा था।
"अगर जगमोहन को मेरे हवाले नहीं किया तो मैं तुम्हें बहुत बुरी मौत दूंगा। मैं...।"
"अब तुम्हारी बारी है मरने की।" सर्दूल गुर्राया--- "मेरे आदमी तेरी तलाश में लगे हुए हैं। वो तुम्हें मैं तुम्हें...।"
"मैं तुम्हें शाम को फोन करूंगा। सोच लो। जवाब देने में जल्दी मत करो।" इसके साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया।"
सर्दूल ने होंठ सिकोड़े फोन बंद किया तो जगमोहन कह उठा---
"देवराज चौहान था।"
"हां। तुम्हें मांग रहा था।"
"क्यों?"
"कहता है तुम्हें कुत्ते की मौत मारेगा। तुमसे तो उसकी जाने क्या दुश्मनी है!" सर्दूल ने कड़वे स्वर में कहा--- "वो जानता है कि एक तुम ही हो, जो उसे हरा सकते हो। इसलिए तुम्हें खत्म कर देना चाहता है। कहता है कि जगमोहन को मेरे हवाले कर दो तो मैं तुम लोगों का पीछा छोड़ दूंगा। बेवकूफ है। वो नहीं जानता कि सर्दूल किसी से डरता नहीं है।"
जगमोहन के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान नाच उठी।
"तुम मुझे उसके हवाले क्यों नहीं कर देते?"
"क्या मतलब?" सर्दूल ने उसे देखा।
"वो मुझे खत्म करना चाहता और मैं उसे खत्म करना चाहता हूं। फैसला हो जाने दो।"
"वो चालाकी करेगा।" सर्दूल बोला--- "अपने साथ आदमी लाएगा।"
"उसे कह दो कि वो अकेला आए...।"
"वो हां तो कर देगा, परंतु अकेला नहीं आएगा।"
"मिलने की जो जगह रखो, वहां तुम भी अपने आदमी फैला दो। वो चालाकी करेगा तो बुरी मौत मरेगा।"
सर्दूल सोच भरी नजरों से उसे देखने लगा।
"मैं आसानी से देवराज चौहान को खत्म कर दूंगा।मैं अच्छा मौका मिल रहा है, उसे खत्म करने का।" जगमोहन ने शब्दों को चबाते हुए कहा--- "ये मौका हमें हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।"
"वो तुम पर भारी भी पड़ सकता है जगमोहन।" सर्दूल ने अपनापन दिखाते हुए कहा।
"चिंता मत करो। मैं उसे खत्म कर दूंगा।" जगमोहन ने विश्वास भरे स्वर में कहा।
"मेरे ख्याल में ये ठीक नहीं होगा।"
"मुझ पर भरोसा रखो। मैं देवराज चौहान को खत्म कर दूंगा। उसके बाद हम पाकिस्तान चले जाएंगे।" जगमोहन के स्वर में दृढ़ता के भाव झलक रहे थे--- "मैं देवराज चौहान का किस्सा ही समाप्त कर देना चाहता हूं।"
सर्दूल खामोश रहा।
"तुम्हारे पास देवराज चौहान का फोन नंबर है?"
"नहीं।"
"तो अब तुम उससे बात नहीं कर सकते?" जगमोहन कह उठा।
"उसने कहा था कि वो शाम को फोन करेगा।"
"ये अच्छी बात है। शाम को जब देवराज चौहान का फोन आए तो तुम उसे कह देना कि तुम जगमोहन को उसके हवाले करने को तैयार हो। कोई भी जगह तय कर लेना और उसे अकेला आने को कहना...।" जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा।
सर्दूल होंठ सिकोड़े जगमोहन को देखने लगा।
"क्या देख रहे हो?" जगमोहन बोला।
"सोच रहा हूं कि इस बार तुम सच में देवराज चौहान को खत्म कर दोगे।" सर्दूल मुस्कुरा पड़ा।
"हां, मैं उसका किस्सा ही खत्म कर देना चाहता हूं। उसने रात अकबर खान को मार दिया। मैं छोटा सा था तो अकबर खान ने मुझे अपने साथ रखकर पाल-पोस कर बड़ा किया। उसकी मौत से मुझे बहुत दुख हुआ है। जब तक देवराज चौहान जिंदा रहेगा, मुझे चैन नहीं मिलेगा। कुत्ते को खत्म कर देना चाहता...।"
सर्दूल का फोन बजा।
"हैलो...।" सर्दूल ने तुरंत बात की।
"सर्दूल...।" दावरे का तेज स्वर कानों में पड़ा--- "अभी तुम देवराज चौहान का फोन आया था।"
"अच्छा...।"
"वो... वो मेरे से सौदा करना चाहता था। कह रहा था कि मैं उसे जगमोहन के बारे में बता देता हूं कि वो कहां है तो बदले में मेरी जान बख्श देगा। मैंने हरामी को दो-चार गालियां देकर फोन बंद कर दिया।"
"मुझे भी फोन आया। वो जगमोहन की मांग रख रहा था।" सर्दूल सोच भरे स्वर में बोला।
"फिर?"
"मैंने उसे समझाया कि बहुत जल्दी वो खुद मरने वाला है। परंतु सोचता हूं दावरे कि जगमोहन को देवराज चौहान के हवाले कर ही दूं।" आखिरी शब्दों में सर्दूल मुस्कुराया और जगमोहन पर नजर मारी।
जगमोहन के चेहरे पर दरिंदगी नाच रही।
"ये तुम क्या कह रहे हो?" उधर से सुधीर दावरे अचकचा कर बोला।
"जगमोहन बेसब्र होता जा रहा है... देवराज चौहान को मारने को। ये जगमोहन का ही प्लान है कि...।"
"ओह... समझा...ये तो अच्छा आईडिया है। जगमोहन को देवराज चौहान से भिड़ा देते हैं। जो भी मरे, हमें क्या! हमारी तो दुश्मन ही खत्म हो रहा है। आज तो जगमोहन की याददाश्त गई हुई है, कल को वापस आ गई तो ये हरामी हम पर ही गोलियां चला देगा।"
"तो मैंने यही फैसला किया कि जगमोहन की बात मान लेता हूं।" सर्दूल बोला।
"बहुत बढ़िया फैसला किया। दोनों को आपस में लड़ा दो। तुम्हारे पास देवराज चौहान का फोन नंबर है?"
"नहीं, शाम को उसका फोन आएगा। तब ही बात बढ़ेगी।"
दोनों में बातचीत खत्म हो गई। सर्दूल फोन को जेब में रखता कह उठा---
"तुम देवराज चौहान को खत्म करना। उसके सामने जाते ही रिवाल्वर निकालकर उसे शूट कर देना जगमोहन। शाम को देवराज चौहान का फोन आएगा तो इस बारे में प्रोग्राम आगे बढ़ाएंगे।"
जगमोहन के चेहरे पर दरिंदगी नाच उठी। दांत किटकिटाना था वो।
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कामटे घर पर ही था। लुंगी-बनियान पहन रखी थी। दिन के बारह बज रहे थे। कुछ देर पहले ही वो और सुनीता नाश्ता करके हटे थे। मोहम्मद रफी के पुराने गाने धीमी आवाज में लगा रखे थे ल। आंखें बंद किए कामटे सोफे पर धंसा पड़ा था। चेहरे पर सुकून के भाव थे, ये सोच कर कि बहुत पैसा आ गया है उसके पास। जिंदगी आराम से कटेगी।
सुनीता भी खुश थी। जैसे आसमान में उड़ रही हो।
सुनीता थाल में करेले लिए पास आ बैठी और उन्हें छीलने लगी और बोली---
"मोहम्मद रफी के गाने मुझे बहुत पसंद हैं। कभी-कभी तो मौका मिलता है सुनने का।"
"मुझे किशोर दा के गाने बढ़िया लगते हैं।" आंखें बंद रखे कामटे ने कहा।
"तुम तो पुलिस वाले हो। तुम्हें गानों का क्या पता?"
"क्यों?" कामटे ने आंखें खोलकर सुनीता को देखा--- "पुलिस वाले गाने नहीं सुनते क्या?"
"मेरे ख्याल में तो नहीं।"
"मैं तो बहुत सुनता हूं...।"
"साल भर हो गया शादी को। किशोर दा के गाने लगाए, तुम्हें कभी नहीं देखा।"
"शादी के पहले बहुत सुना करता था।"
"शादी के बाद क्या हो गया, मैंने रोका तुम्हें कभी...।"
"वो बात नहीं। शादी हो गई तो गाने पीछे छूट गए।"
"शादी क्या कहती है गाने मत सुनो?" सुनीता मुंह बनाकर कह उठी--- "तुम यूं ही बात बढ़ा रहे हो। गानों का क्या है! गाने बजने लगा दो और अपना काम भी करते रहो।"
"मेरे काम घर संभालने का होता तो मैं ऐसा ही करता।"
"तो तुम्हारा काम क्या है?" सुनीता तुनक कर बोली।
"सरकारी नौकरी के बाद, तुम्हारी नौकरी करने का।" कामटे गहरी सांस लेकर मुस्कुराया।
"छोड़ो भी, मेरी नौकरी कहां करते हो? कितने-कितने दिन तो घर नहीं आते।"
"और जब आता हूं तो तेरी गोद में ही पड़ा रहता हूं...।"
"इस बार छः महीने हो गए। तुम गांव नहीं गए, अपने मां-बाप से मिलने।"
"वक्त ही कहां लगा।"
"अब हो आओ। तुम पैसे भी उन्हें दे देना। मैं भी साथ चलूंगी इस बार।"
"देखते हैं। पहले ये मामला निपट जाने दो।"
"देवराज चौहान वाला मामला?" सुनीता ने उसे देखा।
"हां...।" कामटे गंभीर हो उठा।
"जो भी कहो जी। हम तो देवराज चौहान के चक्कर में अमीर हो गए। हमारे पास साठ लाख रुपए आ गए। चालीस लाख तो देवराज चौहान ने ही दिया है। आदमी भी भला है देवराज चौहान...। एक बात तो बताओ।"
"क्या?"
"देवराज चौहान ने हमारा दस लाख देना है। वो देगा भी नया नहीं?"
"तेरे को पता होगा।"
"मेरे को? वो कैसे...?"
"तूने ही कल कहा था कि दे देंगे भाई साहब। भागे थोड़े ना जा रहे हैं।"
"वो तो कहना पड़ा मुझे। चालीस लाख जो वो दे चुका था।"
कामटे बजते गीत के साथ, बोल गुनगुनाने लगा।
"तुम्हें दस लाख की चिंता है कि नहीं?" सुनीता झल्लाई।
"चिंता हो भी तो क्या होगा! मेरे पास देवराज चौहान का पता-ठिकाना तो है नहीं, जो उससे ले आऊं...।"
"तुम्हारे पास उसका फोन नंबर है।"
"फोन नंबर?"
"वो जो कल देवराज चौहान ने तुम्हें बताया था और तुमने किसी को...।"
"अकबर खान के आदमी को दिया था।"
"वो ही, वो ही! उस नंबर पर फोन करके देवराज चौहान को दस लाख के लिए कहो।"
कामटे सुनीता को देखने लगा।
"क्या हुआ?" सुनीता ने पूछा।
"मैंने देवराज चौहान के पास मोबाइल नहीं देखा। वो नंबर मोबाइल का था।"
"तुम उस पर फोन करके तो देखो। उधर से वो बोले तो दस लाख की बात कर लेना।"
"रहने दो।" कामटे बोला--- "उसे अच्छा नहीं लगेगा कि हम...।"
"मैं करती हूं फोन।" सुनीता ने करेलों का थाल और चाकू एक तरफ रखा और उठ खड़ी हुई--- "अपना पैसा भी नहीं मान सकते तुम।"
कामटे गहरी सांस लेकर रह गया।
सुनीता उठकर फोन के पास पहुंची और रिसीवर उठाकर नंबर मिलाने लगी।
परंतु बेल जाने की अपेक्षा ये शब्द कानों में पड़े कि ये नंबर मौजूद नहीं है।
"मुझे तो लगता है कि हमारा दस लाख डूब गया।" सुनीता वापस आकर बैठती कह उठी।
"क्या हुआ?"
"फोन पर आवाज आ रही है कि ये नंबर मौजूद नहीं है।" सुनीता ने मुंह फुलाकर कहा।
"मैंने तो पहले ही कहा था कि देवराज चौहान के पास मैंने मोबाइल नहीं देखा।" कामटे बोला।
सुनीता फिर करेलों में व्यस्त हो गई।
"हमारा दस लाख तो गया।"
"ये सोचो कि वो दस दे गया।"
"ये तो अच्छा हुआ कि तुमने चालीस लाख पहले ले लिया। वरना वो भी डूब जाता।"
कामटे गाना गुनगुनाने लगा, फिर बोला।
"किशोर कुमार की कैसेट लगा?"
"तुम्हें किशोर कुमार की पड़ी है, मेरी तो जान निकली जा रही है कि दस लाख हाथ से फिसल गया...।"
"किशोर कुमार की कैसेट लगा, मोहम्मद रफी बहुत हो गया।"
"रात देवराज चौहान उस आदमी के पीछे गया था जो आया और तीन लाख देकर फोन नंबर ले गया था।"
"तो?"
"फिर क्या किया होगा देवराज चौहान ने?"
"हमें क्या, तू करेले बना। इस तरह मेरा सिर खाती रहेगी तो करेले खाने में मुझे मजा नहीं आएगा। चुपचाप बना और किशोर कुमार की कैसेट लगा दे, तेरा मोहम्मद रफी बहुत हो गया... चल...।"
■■■
देवराज चौहान बंगले पर था।
शाम के चार बज रहे थे।
सुबह होटल छोड़ने के बाद वो बंगले पर ही आया था। वो कपड़े बदल लेना चाहता था जो कि मैले हो रहे थे। यहीं से उसने सर्दूल और सुधीर दावरे को फोन किया था।
उसके बाद दिन भर आराम किया।
मन में बेचैनी रही कि जगमोहन नहीं मिल रहा। वो सर्दूल के कब्जे में था। परंतु वो जानता था कि सर्दूल उसे नहीं छोड़ेगा और अगर वो सर्दूल तक जा पहुंचा तो उस मौके पर सर्दूल उसे, अपने बचाव के लिए ढाल बना लेगा।
जबकि देवराज चौहान फौरन जगमोहन को पा लेना चाहता था।
सर्दूल को उसने शाम को फोन करने को कहा था।
परंतु जानता था कि कोई फायदा नहीं होगा। सर्दूल जगमोहन को, उसके हवाले नहीं करेगा।
सर्दूल का ठिकाना जानना भी देवराज चौहान के लिए आसान नहीं था। सर्दूल जैसी हस्ती इस बात को कभी बाहर नहीं जाने देगी कि वो कहां पर है। परंतु सुधीर दावरे का तो ठिकाना ढूंढा जा सकता था।
दावरे का ख्याल आते ही देवराज चौहान फौरन उठ बैठा। दावरे अभी तक बचा हुआ था, जबकि मुसीबत की जड़ यही था। इसी की वजह से मामला शुरू हुआ था। बल्कि कल तो दावरे ने उसे लगभग मार ही डाला था। जाने किसने सूटकेस को झील से निकाला और वो बच गया।
देवराज चौहान के शरीर में गुस्से की लहर दौड़ती चली गई। उसने कपड़े पहने। सोचें चेहरे पर दौड़ रही थीं। कामटे का ध्यान आया। कामटे उसके बहुत काम आया था। दीपक चौला का पता उसने बताया। अकबर खान तक पहुंचने में उसने पूरी सहायता दी। देवराज चौहान ने एक लिफाफे में, वादा किया वाला दस लाख डाला, जो उसने कामटे को देना था। कुछ गड्डियां उसने कमीज के भीतर पैंट में फँसाई। दोनों रिवाल्वरें...एक रिवॉल्वर अकबर खान वाली थी और दूसरी उसके आदमी से वसूली थी, जब वो किचन में था... दोनों रिवाल्वरों को कमीज के भीतर पैंट में फंसाया और लिफाफा थामें, बंगला लॉक करके बाहर निकलता चला गया।
पैदल ही आगे बढ़ता रहा और काफी आगे जाकर उसने फोन बूथ से दावरे को फोन किया।
उसकी आवाज सुनते ही उधर से सुधीर दावरे भड़क उठा---
"कमीने, हरामी! तू बहुत जल्दी मरेगा मेरे हाथों... ।"
"मैं तेरे ठिकाने के बाहर खड़ा हूं।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
"क्या?" दावरे की आवाज में कम्पन आ गया।
"डर गया?" देवराज चौहान गंभीर था।
"तो तू मजाक करता है मेरे से...।"
"वो वक्त सोच जब मैं सच में उस जगह के बाहर पहुंच जाऊंगा, जहां तू छिपा होगा। तब तेरे को मेरे से कोई नहीं बचा सकता। बचने का एक ही रास्ता है कि जगमोहन को मेरे हवाले कर दे। तेरे को बख्श दूंगा।"
"जगमोहन तेरे को मिल जाएगा।" एकाएक दावरे की आवाज आई--- "तू सर्दूल को फोन कर ले।"
"सर्दूल को--- मैं समझा नहीं...।" तू देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"कुछ देर पहले ही सर्दूल से मेरी बात हुई थी। उसने जगमोहन को तेरे हवाले करने का प्रोग्राम बनाया है।"
देवराज चौहान के शरीर में हल्का सा कम्पन हुआ।
"जिंदा?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"फिक्र मत कर। उसकी लाश तेरे हवाले करने का कोई इरादा नहीं है। सर्दूल ये झगड़ा खत्म करना चाहता है।"
"कब देगा वो जगमोहन को?"
"पता नहीं! सर्दूल से बात कर ले।" सुधीर दावरे की आवाज कानों में पड़ी।
देवराज चौहान ने फोन काटा और सर्दूल के नंबर मिलाने लगा।
चेहरे पर गंभीरता नाच रही थी।
फौरन ही बेल गई, फिर सर्दूल की आवाज कानों में पड़ी---
"हैलो...।"
"दावरे ने मुझे बताया कि तुम जगमोहन को मेरे हवाले करने का इरादा रखते हो।"
"ओह देवराज चौहान...।" सर्दूल की दोस्ताना आवाज आई--- "मेरे पास तेरा कोई नंबर नहीं था। नहीं तो ये मामला अब तक निपट गया होता। दावरे ने तुझे ठीक कहा है कि मैं जगमोहन को तेरे हवाले करने को तैयार हूं...। एक बात तो बता।"
"क्या?"
"जगमोहन को लेने के बाद तू हमसे दुश्मनी खत्म कर देगा?"
"हां...।"
"वादा करता है?"
"मेरी हां ही वादा है।" देवराज चौहान गंभीर था।
"बाद में तू अपनी बात से फिर गया तो?"
"ऐसा नहीं होगा। जगमोहन मुझे ठीक-ठीक हाल में देना। उसकी लाश नहीं चाहिए।" देवराज चौहान का स्वर कुछ कांपा।
"क्या बात करते हो! लाश क्यों दूंगा। एकदम ठीक-ठाक, जिंदा दूंगा। परंतु बाद में तुम हमारे लिए मन में मैल मत रखना।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा। मेरा भरोसा करो।"
"हूं। तो ठीक है। बताओ, जगमोहन को मैं कहां भेजूं?"
देवराज चौहान चुप रहा। होंठ भिंचे रहे।
"देवराज चौहान...।" सर्दूल की आवाज आई।
"हां...।" देवराज चौहान के होंठ खुले।
"तुमने जवाब नहीं दिया कि जगमोहन को हम कहां पहुंचा दें?"
"उसे आजाद कर दो। वो जानता है कि उसने कहां पर आना है।" देवराज चौहान बोला।
"ऐसे नहीं। तुम जहां पर उसे लेना चाहोगे, वहीं पर उसे तुम्हारे हवाले किया जाएगा।"
"यानी कि मुझे बुलाकर, मुझे घेरना चाहते हो? मुझ पर गोलियां चला देना चाहते हो?"
"कैसी बातें करते हो? हम दोस्ती की तरफ बढ़ रहे हैं। दुश्मनी खत्म कर देना चाहते हैं। मेरी जुबान कभी झूठी नहीं होती। जो कह दिया तो कह दिया। तुम ही जगह बताओ कि जगमोहन को कहां पर लेना पसंद करोगे। वहां कम से कम हम हाथ तो मिला ही लेंगे दोस्ती की तरह।" सर्दूल के हंसने की आवाज आई।
"मैं तुम्हें बाद में फोन करूंगा। जगह सोच कर...।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
"ठीक है। जल्दी फोन करना। मुझे तुम्हारे फोन का इंतजार रहेगा।"
देवराज चौहान ने रिसीवर रख दिया।
■■■
सब-इंस्पेक्टर कामटे उठता हुआ बोला---
"मैं बीयर लेकर आता हूं...।"
"बीयर?" सुनीता ने अचकचाकर देखा--- "पैसा आया नहीं कि बुरी आदतें साथ आई गईं।"
"आज गर्मी बहुत है, सुना है कि गर्मी में बीयर पी जाती है।"
"गर्मी क्या तुम्हें ही लगती है, मुझे नहीं लगती? मैं भी तो बीयर के लिए कह सकती हूं...।"
कामटे ने गहरी सांस ली, फिर मुस्कुरा कर बोला---
"तेरे लिए भी ले आता हूं...।"
"राम-राम कैसी बुरी बात करता है तू। ये जहर मुझे नहीं चाहिए। तू ही पी और मर। तेरे को तो...।"
तभी कामटे का मोबाइल बजने लगा।
"देवराज चौहान का फोन होगा।" सुनीता बोली--- "शाम हो गई है, वो दस लाख देने के वास्ते फोन कर रहा होगा।"
कामटे ने फोन पर बात की।
दूसरी तरफ सावरकर था। उसका खबरी।
"खबर है कोई?" कामटे ने पूछा।
"बिल्कुल है। पच्चीस हजार से कम नहीं लूंगा।" सावरकर ने उधर से कहा।
"किसके बारे में खबर...।"
"पच्चीस हजार ले आओ इंस्पेक्टर साहब, खबर भी दे दूंगा। आपके काम की खबर है।"
कामटे ने बताया कि कहां मिलेगा, फिर फोन बंद करके बोला।
"मुझे पच्चीस हजार चाहिए।"
"क्यों?" सुनीता ने तीखी नजर से उसे देखा।
"किसी को देना है। वो मुझे काम की खबर बताएगा। मैं वो खबर दस लाख में देवराज चौहान को बेचूंगा।"
"लेकिन देवराज चौहान है कहां?"
"आ जाएगा।"
"ना आया तो पच्चीस गया पानी में...।"
"तू ज्यादा सवाल मत पूछ। 25 दे। वो मेरा इंतजार कर रहा है।"
"एक लाख रुपया उन पैसों में से मैंने रख लिया था की जरूरत पड़ जाती है पैसे की। उसमें से तुम्हें 25 दे देती हूं।" कहते हुए सुनीता दूसरे कमरे में चली गई।
कामटे ने दीवार में लगी घड़ी में वक्त देखा, शाम के साढ़े छः बज चुके थे।
सुनीता ने लाकर उसे पच्चीस हजार दिए तो कामटे नोटों को जब में ठूंस कर बाहर की तरफ बढ़ गया।
"रात को क्या खाओगे?" पीछे से सुनीता ने पूछा।
"दाल बना लेना...।"
सुनीता वहीं खड़ी खुले दरवाजे को देखती रही।
सोच रही थी कि कामटे पच्चीस हजार बर्बाद करने गया है। पैसा आ गया है तो चैन नहीं कि कुछ दिन मुंह बंद करके रह ले। एकाएक सुनीता के मस्तिक को तीव्र झटका लगा।
खुले दरवाजे पर देवराज चौहान आ खड़ा हुआ था।
यकीन ना हुआ सुनीता को।
उसने आंखें मलीं, फिर फौरन ही उसकी निगाह हाथ में पकड़े लिफाफे पर पड़ी तो कह उठी---
"आइए भाई साहब, आइए-आइए...।"
देवराज चौहान भीतर आ गया। नजरें हर तरफ गईं तो सुनीता फौरन कह उठी---
"बैठिए भाई साहब। वो जरा बाहर गए हैं, एक-आध घंटे में आ जाएंगे। आप भी हद करते हैं। इतनी भी जल्दी क्या थी दस लाख देने की? आपके पास रहा या हमारे पास रहा, एक ही बात थी, आ जाता।"
देवराज चौहान ने सुनीता को देखा। छोटी सी मुस्कान होंठों पर उभरी और लुप्त हो गई।
"बैठिए तो...।"
देवराज चौहान सोफा चेयर पर जा बैठा। लिफाफा उसने सेंटर टेबल पर रख दिया।
"क्या लेंगे... पानी... जूस...चाय... कॉफी...।"
"चाय।" देवराज चौहान शांत स्वर में कह उठा--- "कामटे अभी आएगा?"
"हां...हां, वो अभी आ जाएगा। बल्कि आप अच्छे वक्त पर आए। वो कह रहे थे कि आपका कोई फोन नंबर नहीं है। शायद उन्हें कुछ काम था आपसे।" सुनीता पास पहुंचकर, लिफाफे की तरफ हाथ बढ़ाती बोली--- "इसे मैं भीतर रख दूं?"
देवराज चौहान ने मुस्कुराकर सहमति से सिर हिलाया।
'पूरा दस लाख ही है ना?"
"हां...।"
"यहां भी पड़ा रहे, कोई हर्ज नहीं। लेकिन जमाना बड़ा खराब है। कुछ पता नहीं चलता कि नोट कब गायब हो जाए। मैं अभी लाई चाय बनाकर।" सुनीता लिफाफा थामें पलटी और भीतर की तरफ चली गई।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
पांच मिनट में ही सुनीता चाय ले आई। वो खुश थी।
"लीजिए भाई साहब...चाय लीजिए। मैं चाय बहुत अच्छी बनाते हूं। ये तो सारा दिन मेरे हाथ की चाय ही पीते रहते हैं। आजकल छुट्टी पर चल रहे हैं ना, इसलिए...।" कह कर वो सामने ही बैठ गई।
"दस लाख पूरे हैं।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में पूछा।
"गड्डियां ही गिन्नी थीं। वो तो पूरी हैं। अब आपने पैसे दिए हैं तो पूरी ही होंगे। एक बात पूछूं भाई साहब...।"
"क्या?"
"आप चाय तो लीजिए...।"
देवराज चौहान ने चाय का प्याला उठा लिया।
"आपके पास बहुत से पैसे हैं क्या?" सुनीता ने दोनों हाथ फैलाकर कहा।
देवराज चौहान उसे देखने लगा।
"मैं उधार नहीं मांगूंगी। यूं ही पूछ रही हूं। हमें तो जो मिल गया, वही खत्म नहीं होगा। यूं ही पूछा, मन में आया कि पूछ लूं तो पूछ लिया। आपको बुरा लगा हो तो नहीं पूछती। अब आप आ ही गए हैं तो रात का खाना खाकर ही जाइएगा। खाने में कोई खास सब्जी चाहते हैं तो संकोच मत कीजिए। कह दीजिए। अभी बना देती हूं।"
देवराज चौहान ने कश लिया और सिगरेट चाय की प्लेट में बुझा दी।
"भाई साहब, ये तो सिगरेट भी नहीं पीते। कई बार कहती हूं कि कभी-कभी आप भी सिगरेट पी लीजिए। कभी-कभी बीयर भी ले लिया करें। लेकिन इन्होंने तो कसम खा रखी है कि ये चीजें नहीं लेनी।" दांत फाड़ती सुनीता कह रही थी।
"कामटे कब गया?" देवराज चौहान ने पूछा।
"आपके आने से पहले ही। कह रहे थे कि अभी लौट आऊंगा। वो आ जाएंगे। आप चाय पीजिए। ठंडी हो रही है।"
देवराज चौहान ने चाय का घूंट भरा।
"आपका फोन नंबर नहीं है क्या?" सुनीता ने पूछा।
"अभी नहीं है।"
"फोन तो पास में जरूर होना चाहिए। क्या पता कि कब जरूरत पड़ जाए। ये तो बहुत परेशान हो रहे थे कि आपका फोन नंबर नहीं है इनके पास। मैं तो अपना फोन हमेशा पास में रखती हूं।"
"आप खाना बनाइए।" देवराज चौहान ने कहा--- "मैं कुछ देर चुपचाप बैठना चाहता हूं "
"क्यों नहीं भाई साहब। आपका अपना ही तो घर है। आराम करना हो तो वहां लेट जाइएगा। मैं जरा बाजार होकर आती हूं, कोई बढ़िया सी सब्जी ले आऊं आपके लिए...।" कहने के साथ ही सुनीता उठ खड़ी हुई।
■■■
रात नौ बजे कामटे अपने घर पर पहुंचा।
सुनीता किचन में खाना बनाने में व्यस्त थी। देवराज चौहान सोफे पर पसरा पड़ा था।
देवराज चौहान को आया देख कामटे दो पल के लिए ठिठक सा गया था।
देवराज चौहान ने भी उसे देखा।
"तुम?" कामटे के होंठों से निकला।
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।
कामटे उसके सामने आ बैठा, फिर धीमे स्वर में बोला---
"रात अकबर खान का क्या रहा?"
"अब वो नहीं रहा।"
"ओह...।" कामटे ने गहरी सांस ली और टेक लगाकर बैठ गया।
"दस लाख तुम्हारी पत्नी को दिए हैं।"
कामटे ने गंभीरता से सिर हिलाया।
"तुम्हारी पत्नी बता रही थी कि तुम मुझसे मिलना चाहते थे।" देवराज चौहान बोला।
"सुधीर दावरे के बारे में खबर है मेरे पास।" कामटे धीमे स्वर में बोला।
देवराज चौहान उसे देखता रहा।
"क्या बात है? दावरे के बारे में जानने के लिए तुमने उत्सुकता नहीं दिखाई?" कामटे के माथे पर बल पड़े।
"मेरे सामने एक बड़ी समस्या है। मैं तुमसे सलाह लेना चाहता हूं।" देवराज चौहान सीधा होकर बैठ गया
"कैसी समस्या?"
"अकबर खान से मैंने दावरे और सर्दूल का नंबर लिया था। उनसे बात हुई मेरी। खासतौर सर्दूल से।"
कामटे की एकटक निगाह देवराज चौहान के चेहरे पर टिकी थी।
तभी वहां सुनीता आई और एक कुर्सी खींचकर, चार कदम दूर बैठ गई।
कामटे ने उसे देखा।
"करो... करो। बातें करो। मैं बीच में नहीं आऊंगी।" सुनीता ने शांत स्वर में कहा।
"सर्दूल से तुम्हारी बात हुई?" कामटे गम्भीर स्वर में बोला।
"हां, वो जगमोहन को वापस देने को तैयार है।"
"जगमोहन को वापस देने को तैयार है?" कामटे के होंठों से निकला--- "शर्त तो रखी होगी उसने?"
"यही कि मैं उसके पीछे से हट जाऊं।" देवराज चौहान ने कहा।
"ऐसा सर्दूल ने कहा...?"
"कुछ ऐसा ही।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
"और तुम समझ रहे हो कि सर्दूल जैसा खतरनाक इंसान तुमसे डर गया है?" कामटे कह उठा--- "नहीं, ये गलत है। सर्दूल किसी से डरने वाला नहीं। उसकी नजरों में तुम कुछ भी नहीं हो।"
देवराज चौहान कुछ पल कामटे को देखता रहा, फिर बोला---
"ये मामला जगमोहन का है। मैं नहीं चाहता कि मुझसे कोई गलती हो। मैं जगमोहन को सुरक्षित वापस चाहता हूं। यही वजह है कि इस बारे में मैं तुमसे बात कर रहा हूं। सलाह ले रहा हूं। तुम जो भी मुझसे बात करो, स्पष्ट करो।"
"वो ही तो मैं कह रहा हूं कि सर्दूल तुमसे डरने वाला नहीं।"
"तुम्हारा मतलब कि ऐसा करके वो मेरे से कोई चाल चल रहा है?"
कामटे हिचकिचाया, फिर सहमति से सिर हिला दिया।
"मेरा भी यही ख्याल है कि मुझसे कोई खेल, खेलना चाहता है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "वो कहता है कि तुम जहां भी कहोगे, वो जगमोहन को वहीं ले आएगा।"
"इसमें भी उसकी कोई चाल है।"
"मेरा भी यही ख्याल है।"
कामटे की निगाह, देवराज चौहान पर थी।
सुनीता खामोशी से बैठी उनकी बातें सुन रही थी।
"वो मेरी बताई जगह पर जगमोहन को लेकर आएगा?"
"क्या पता, वो तुम्हें कहीं बुलाकर, तुम्हें खत्म कर देना चाहता हो। वैसे तो तुम उसके हाथ लग नहीं रहे। वो भला जगमोहन को तुम्हारे हवाले क्यों करेगा? वो भी ऐसे मौके पर कि तुम उसके साथियों को एक-एक करके मारते जा रहे हो। ऐसे मौके पर तो उसे चाहिए कि जगमोहन को गोली मारकर किसी सड़क पर फेंक दे।"
देवराज चौहान के दांत भिंच गए। फिर उसने गहरी सांस ली
"मैं सर्दूल की बात पर जाना चाहता हूं।"
"पागल हो। वो तुम्हें जगमोहन नहीं देगा। तुम्हारी जान लेगा के लिए वो ये सब करने में लगा है।"
"परंतु वो जगमोहन को लौटाने को कह रहा है। मैं एक चांस लेना चाहता...।"
"ये तुम्हारी बेवकूफी होगी।" बेचैनी से बोला कामटे।
"मैं ये चांस लूंगा।" देवराज चौहान ने दृढ़ स्वर में कहा।
"जो मन में आए करो।" कामटे बेचैनी से भर उठा। नजरें देवराज चौहान पर थीं।
देवराज चौहान खामोश रहा।
"तुम मेरे पास क्यों आए हो?" कामटे बोला।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई। कश लिया, फिर शांत स्वर में कह उठा---
"मैं अकेला हूं और सर्दूल के मामले में हर किसी पर भरोसा नहीं कर सकता।"
कामटे की आंखें सिकुड़ी।
"क्या मतलब?"
"तुम मेरा साथ दो। मैं जगमोहन को वापस पाने की कोशिश करूंगा। तुम मुझे कवर दोगे।"
"दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?" कामटे भड़कने के अंदाज में कह उठा--- "तुम क्या समझते हो कि सर्दूल क्या यूं ही सामने आ जाएगा? उसके कई आदमी पास में होंगे। मैं अकेला तुम्हें कहां तक कवर करूंगा? नहीं...मैं ये नहीं...।"
"मैंने अकेले ही कई बड़े कामों को अंजाम दिया है।"
"तो ये काम भी अकेले कर...।"
"ये अकेला नहीं कर सकता। क्योंकि मुझे पहले से ही पता है कि वहां कुछ गड़बड़ होगी। मुझे एक ऐसा इंसान वहां पर चाहिए जो सही निशानेबाज हो और समझदारी से मुझे कवर कर सके। तुम मेरे काम आ सकते हो।"
"ये मौत से भरा काम है।" कामटे ने स्पष्ट कहा--- "मैं इस मामले में तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।"
"बीस लाख दूंगा।"
"नहीं, बिल्कुल नहीं...।" कामटे ने दृढ़ स्वर कहा--- "मैं नहीं...।"
"सुनो, खामोश बैठी सुनीता एकाएक कह उठी।
कामटे ने उसे देखा।
"जरा एक मिनट आना, तुमसे बात करनी है।" सुनीता कहते हुए खड़ी हो गई।
कामटे ने कठोर निगाहों से उसे घूरा।
"एक मिनट के लिए...।" सुनीता ने कहा---फिर देवराज चौहान से बोली--- "सिर्फ एक मिनट भाई साहब...।"
देवराज चौहान खामोश रहा।
कामटे उठा और सुनीता के साथ दूसरे कमरे में जा पहुंचा।
"क्या है?" कामटे ने उसे घूरा।
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है जो आती माया को लात मार रहे हो?"
"तेरे को नोट दिखाई दे रहे हैं हरामी कहीं की? वहां मेरी जान जा सकती...।"
"धीरे बोलो, हमारी बातें देवराज चौहान के कानों में नहीं पड़नी चाहिए।" सुनीता कामटे का हाथ पकड़कर कह उठी--- "क्या मैं ये चाहूंगी कि तुम्हारी जान जाए? मैं क्या तेरा बुरा चाहूंगी? तू मेरा पति है।"
"चुप रह। तेरे में जितनी अकल है, जानता हूं...तू...।"
"मेरी अक्ल की भी सुन ले। पहले क्यों उखड़ रहे हो। वो तेरे को बीस लाख दे रहा है। हां कर दे। वो जो कहता है, वो कर। वहां पर तूने उसके साथ तो रहना नहीं है। उसे कवर करना है। खतरा ज्यादा लगे तो वहां से गोल हो जाना...।"
"लेकिन...।"
"उसने ये भी कहा है कि अगर उसे जगमोहन मिल गया तो वो हमें मालामाल कर देगा। भगवान करे उसे जगमोहन मिल जाए और हम मालामाल हो जाएं।" सुनीता की आंखों में चमक आ गई--- "तू वहां पर वर्दी पहन कर जाना। वर्दी पहनी होगी तो बदमाश वैसे भी डरेंगे, गोली चलाने में। पुलिस वाले पर गोली चलाना मजाक थोड़े ना है।"
"कह लिया...।" कामटे जले-भुने स्वर में उसे घूरता बोला।
"मेरी बात तेरे को समझ नहीं आई?"
"सर्दूल का मामला है ये। पैसे के लालच में तू मुझे कुएं में छलांग लगाने को...।"
"गलत मत कह। पैसा और आएगा तो हम बड़ा मकान...।"
"मेरी लाश ही वापस आएगी।"
"शुभ-शुभ बोल। यहां से तू जाएगा तो मैं हनुमान चालीसा पढ़ूंगी। हनुमान जी तेरे को बहुत ताकत देंगे।"
कामटे का दिल कर रहा था कि माथा पीट ले।
"आ...।" सुनीता कामटे का हाथ पकड़े वापस वापस ड्रॉइंग रूम में पहुंची और देवराज चौहान से बोली--- "मेरा पति आपका साथ देगा भाई साहब। दिल से आपका काम करेगा।"
कामटे होंठ भींचे सुनीता को देख रहा था। उसका जरा भी मन नहीं था देवराज चौहान का साथ देने का। परंतु ये सोचकर चुप था कि अगर इंकार किया तो ये कहीं अपने बाप के घर ना पहुंच जाए। इस मामले में कामटे को पैसे नहीं, खतरा दिखाई दे रहा था, जो कि सुनीता समझ नहीं रही थी।
"अब खाना खा लीजिए भाई साहब। मैंने बना रखा है। अभी लगा देती हूं।" सुनीता बोली--- "आपने बीस लाख देने को कहा है, वो सुबह लेते आइएगा। ये भी कहा कि अगर जगमोहन आपको मिल गया आप हमें मालामाल कर देंगे।"
"अपनी कही बात मैं नहीं भूलता।" देवराज चौहान बोला।
कामटे का मन कर रहा था कि अपना माथा पीट ले।
सुनीता किचन में चली गई।
"तुम आग में कूदने की सोच रहे हो।" कामटे देवराज चौहान से बोला।
"जानता हूं।" देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला--- "जगमोहन को पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं...।"
"सर्दूल को जब भी, जहां भी बुलाओगे, वो पूरी तैयारी के साथ आएगा। वो बहुत खतरनाक है।"
"मैं भी तो तैयारी करके वहां जाऊंगा। तुम पीछे रहकर मुझे कवर करोगे। कहीं मामला बिगड़ा तो उसे संभालने की कोशिश करोगे।"
कामटे ने गहरी सांस ली और मुंह फेर लिया।
■■■
अगले दिन सुबह देवराज चौहान ने सर्दूल को फोन किया
"फोन करने में देर कर दी।" सर्दूल की आवाज कानों में पड़ी--- "मैंने तो सोचा था कि तुम कल शाम ही जगमोहन को ले लोगे।"
"मैं व्यस्त था।"
"तो आज का पक्का रहा?"
"हां, बारह बजे।" कहकर देवराज चौहान ने जगह बताई कि वो कहां मिलेगा।
"ठीक है। येकाम खत्म करके मैं आज ही पाकिस्तान निकल जाऊंगा। तो बारह बजे मिलते हैं।"
"कितने आदमी साथ लाओगे?"
"आदमियों का क्या काम वहां? हम दोस्तों की तरह मिल रहे हैं और जगमोहन को तुम्हारे हवाले कर के चला जाऊंगा।"
"जगमोहन के साथ सिर्फ तुम होगे?"
"हां। हम दो ही होंगे। शक मत करो। हम दोस्त बनने जा रहे हैं।" सर्दूल के हंसने की आवाज आई।
देवराज चौहान जानता था कि वो झूठ बोल रहा था।
"बेहतर होता कि तुम जगमोहन को यूं ही भेज...।"
"तो हमारी मुलाकात कैसे होती?मैं भी तो तुमसे हाथ मिलाना चाहता हूं। क्या तुम मुझे दोस्त नहीं बनाना चाहते?"
"जगमोहन को मेरे हवाले करोगे तो हम जरूर दोस्त बन जाएंगे।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "बारह बजे वहीं मिलते हैं।"
■■■
देवराज चौहान दस बजे कामटे के घर पहुंचा।
उसे देखकर कामटे बेचैनी से भर उठा, जबकि सुनीता उसके हाथ में लिफाफा देखकर खुश हो उठी।
"आईए भाई साहब... आईए...। अभी आप ही की बातें चल रही थीं। कितनी लंबी उम्र है आपकी...।"
भीतर आकर देवराज चौहान ने हाथ में थमा लिफाफा कामटे के सामने रखा।
लिफाफे को देखने के बाद कामटे ने देवराज चौहान को देखकर कहा---
"बात कर ली सर्दूल से? जगह तय कर ली?"
"हां। बारह का वक्त है।" देवराज चौहान ने जगह बताई जहां सर्दूल और जगमोहन से मिलना था।
"काफी वीरान जगह को चुना तुमने।"
"सर्दूल जरूर कुछ करेगा। इसलिए जगह वीरान हो तो ज्यादा ठीक है। तुम चलने की तैयारी कर लो।"
"अभी भी सोच लो। वो कोई शातिर चाल चल रहा है। वो जगमोहन को, तुम्हारे हवाले करने वाला नहीं...।"
"यहां से चलो। जो भी सोचना है, वहां चलकर सोचेंगे। सर्दूल कहता है कि वहां पर जगमोहन के साथ सिर्फ वही आएगा। लेकिन मैं जानता हूं कि वो झूठ कह रहा है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
"तुम मुझे मरवा कर रहोगे।" कामटे उठ खड़ा हुआ।
सुनीता आई और नोटों वाला लिफाफा उठाते कह उठी---
"शुभ-शुभ बोला करो। तुम भाई साहब को कहो कि तुम ये काम ठीक से करके दिखाओगे।" कहकर वो भीतर चली गई।
कामटे भी भीतर वाले कमरे में पहुंचा।
"तुम्हारी जिद की वजह से मैं आज खतरे में छलांग लगाने जा रहा हूं...।" कामटे ने उखड़े स्वर में कहा।
"समझाया था ना मैंने तुम्हें...।" सुनीता धीमे स्वर में बोली--- "खतरे के वक्त गोल हो जाना।"
"बाद में देवराज चौहान मुझे छोड़ेगा कि...।"
"क्या पता वो देवराज चौहान को ही मार दें। वैसे मर ही जाए तो ठीक रहेगा। अब बहुत हो गया। हमारे पास काफी पैसा आ गया।"
कामटे सुनीता को खा जाने वाली नजरों से देखता रहा।
"ऐसे मत देखो। वो सामने वर्दी रखी है, मैंने अपने हाथों से प्रेस की है। पहन लो। घर पर मैं हनुमान चालीसा की कैसेट लगा लूंगी। तुम घबराना मत। हनुमान जी तुम्हें बहुत हिम्मत देंगे। वैसे भी तुमने हिम्मत का क्या करना है। वहां से खिसक आना ही तो है।"
"उल्लू की पट्ठी...।" कामटे कह उठा।
■■■
दिन के बारह बज रहे थे।
सूर्य सिर पर चढ़ चुका था। गर्मी थी। धूप थी।
देवराज चौहान उस जंगल जैसी जगह पर मौजूद था। आसपास पेड़ थे। दूर भी पेड़ थे। परंतु वे पेड़ घने नहीं थे। कुछ तो सूखे हुए थे। बहुत कम पेड़ों की पत्तियां पूरी और हरी-भरी थीं। जमीन भी बिना घास के सूखी थी। कहीं-कहीं ही घास नजर आ रही थी। ये मुंबई की सीमा पर लगा इलाका था। मुंबई सड़क हटकर थी। यहां किसी का आना-जाना नहीं होता था। कोई आहट, आवाज नहीं। हर तरफ गहरी खामोशी थी।
देवराज चौहान हाथ में रिवॉल्वर थामें एक पेड़ के मोटे तने के पीछे सतर्क खड़ा था।
तभी देवराज चौहान की जेब में पड़ा मोबाइल बजा।
ये मोबाइल फोन सुनीता का था, जो कि कामटे ने उसे दिया था कि जरूरत पड़ेगी।
"हैलो।" देवराज चौहान ने बात की।
"मैंने एक पेड़ पर एक आदमी को देखा है।" कामटे की आवाज आई--- "और अभी होंगे।"
"नजर रखो।" देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती नाच उठी।
"बाकी को तलाश कर रहा हूं मैं।"
"सर्दूल दिखा?"
"अभी नहीं।"
"तुम हर तरफ नजर रखो। पर ज्यादा खुले में ना रहो। तुम्हारी वर्दी किसी ने देख ली तो ये समझेंगे कि पुलिस का घेरा है.. और गड़बड़ हो जाएगी।"
"मैं इस बारे में पहले से ही सतर्क हूं...।"
देवराज चौहान ने फोन बंद किया और आसपास देखने लगा। फिर उस पेड़ के ऊपर देखा, जिसके नीचे वो छुपा था। सब ठीक था। बारह से पन्द्रह मिनट ऊपर हो चुके थे। देवराज चौहान ने मोबाइल निकाला और सर्दूल के नंबर मिलाने लगा।
जल्दी ही सर्दूल से बात हो गई।
"कहां हो तुम?" देवराज चौहान ने पूछा।
"अभी-अभी पहुंचा हूं...।" सर्दूल की आवाज कानों में पड़ी।
"जगमोहन?"
"मेरे साथ है।"
"बात कराओ।"
"हम पांच मिनट में मिलने जा रहे हैं। तुम पेड़ों की तरफ ही हो?"
"हां।"
"हम वहीं आ रहे हैं।" कहकर सर्दूल ने फोन बंद कर दिय।
देवराज चौहान ने कामटे को फोन करके कहा---
"फोन पर सर्दूल से मेरी बात हुई है। वो जगमोहन के साथ आ पहुंचा है।"
"आने दो।" कामटे की आवाज कानों में पड़ी।
"तुम मुझे देख रहे हो?"
"अच्छी तरह। मेरी नजर तुम पर भी है और आसपास भी...।"
"ठीक है।" देवराज चौहान ने कहा और फोन जेब में रख लिया।
नजरें हर तरफ घूमती रहीं। धीरे-धीरे वक्त बीतने लगा।
चंद मिनट बीते कि उसे सर्दूल और जगमोहन आते दिखे।
जगमोहन को देखते ही देवराज चौहान का दिल धड़क उठा।
वो जगमोहन ही तो था।
देवराज चौहान के चेहरे पर शांत सी मुस्कान उभर आई।
एकाएक सर्दूल और जगमोहन को पेड़ों के बीच ठिठकते देखा। वो दोनों नजरें दौड़ा रहे थे। बातें कर रहे थे।
देवराज चौहान पेड़ की ओट में उन्हें देखता रहा।
फिर देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ने लगी।
जगमोहन और सर्दूल बहुत ही दोस्ताना अंदाज में, सहज भाव में खड़े बातें कर रहे थे। ये नहीं हो सकता था। क्योंकि जगमोहन जानता था कि सर्दूल उनका दुश्मन है। वो सर्दूल से इस तरह पेश नहीं आ सकता।
अगले ही पल देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।
उसने जगमोहन को रिवाल्वर निकालते देखा। जगमोहन ने रिवाल्वर चैक की और वापस रख ली।
देवराज चौहान के मस्तिष्क में खलबली मच गई।
ये क्या हो रहा है? जगमोहन के पास रिवाल्वर है। पास में सर्दूल है। उसने सर्दूल को शूट नहीं किया। परंतु जगमोहन के पास रिवाल्वर क्यों है? अगर सर्दूल जगमोहन को उसके हवाले करने आया है तो, जगमोहन के पास रिवाल्वर नहीं होनी चाहिए। भला सर्दूल जगमोहन को रिवॉल्वर देने का खतरा क्यों लेगा?
गड़बड़ है।
कुछ तो चक्कर है।
देवराज चौहान की निगाह जगमोहन पर टिकी रही।
वो दोनों उसकी तलाश में नजरें घुमा रहे थे।
देवराज चौहान ने पुनः तसल्ली से जगमोहन को सिर से पांव तक देखा। वो जगमोहन ही था। उसके हाव-भावों को पहचान गया था। परंतु जगमोहन के पास रिवॉल्वर होना, सर्दूल से दोस्ताना लहजे में बातें करना, देवराज चौहान को जरा भी समझ में नहीं आ रहा था। ये सामान्य बातें नहीं थीं।
तभी देवराज चौहान ने सर्दूल को मोबाइल निकलते देखा। देवराज चौहान समझ गया कि वो उसे ही फोन कर रहा होगा। वो उसी नंबर पर कॉल बैक करेगा, जिस नंबर से उसने सर्दूल को फोन किया था।
देवराज चौहान ने जेब से मोबाईल निकाला कि तभी फोन बजने लगा।
"बोलो...।" देवराज चौहान ने फोन कान से लगाकर कहा--- "मैं तुम्हें और जगमोहन को देख रहा हूं...।"
'तो सामने क्यों नहीं आ रहे? जगमोहन तेरा इंतजार कर रहा है।" सर्दूल के शब्द कानों में पड़े।
"तूने चालाकी की सर्दूल...।" बात करते हुए भी, पेड़ की ओट से देवराज चौहान की निगाह उन दोनों पर थी। वो पच्चीस कदम दूरी थे।
"चालाकी की? ये क्या कहता है? मैं तेरे से दोस्ती करने आया...।"
"पेड़ों पर मैंने तेरे आदमी बैठे देखे हैं।" देवराज चौहान बोला।
"वो... वो तो महज सावधानी के लिए कि...।"
"तेरी-मेरी बात हुई थी कि जगमोहन के साथ सिर्फ तू होगा। तू अपनी बात पर खरा नहीं रहा।"
"बताया तो...वो सावधानी के...।"
"यहां कोई खतरा नहीं है। उन आदमियों की जरूरत नहीं। उन्हें वापस भेज दे।" देवराज चौहान ने कहा।
"मैं तेरे से दोस्ती करने आया हूं। तू शक क्यों करता है?"
"मैं तेरे से दोस्ती करने और जगमोहन को लेने आया हूं। हमारे बीच किसी और की जरूरत नहीं।"
"ठीक है। मैं उन्हें वापस भेजता देता हूं। तू तो बेकार में वहम कर रहा है।" इसके साथ ही फोन बंद हो गया।
देवराज चौहान ने सर्दूल को कोई नंबर मिलाते और फोन पर बातें करते देखा।
यकीनन सर्दूल उन लोगों को वापस जाने को कह रहा था।
देवराज चौहान ने कामटे को फोन करके कहा---
"पेड़ों पर छिपे सर्दूल के आदमी, पेड़ों से उतर कर जाने वाले हैं। तुम ठीक से छुप जाओ। वो तुम्हें ना देखें।"
"तुमने ऐसा करने को कहा सर्दूल को?" उधर से कामटे ने पूछा।
"हां...।"
"और सर्दूल मान गया?"
"हां...।"
"देवराज चौहान!" कामटे दृढ़ स्वर में कह उठा--- "सर्दूल जबर्दस्त चाल के साथ यहां आया है। वो इतना शरीफ नहीं है कि अपने आदमियों को वापस भेज दे। शायद उसे पूरी उम्मीद होगी कि उसकी अगली चाल पक्का सफल रहेगी। वो तुम्हें मार देना चाहेगा...वो।"
देवराज चौहान की नजरें उन लोगों पर थीं जो अलग-अलग पेड़ों से नीचे उतरे थे। उनमें राठी भी था। सब खतरनाक और हथियारबंद लग रहे थे। वो कुल छः थे। उतरकर वो आपस में इकट्ठे हुए और उस दिशा की तरफ चल पड़े जिस तरफ सड़क थी। देवराज चौहान जहां था, वहां से कुछ ही दूरी पर से वो निकले थे।
दो मिनट में ही वो नजरों से ओझल हो गए।
देवराज चौहान ने सतर्क निगाह हर तरफ मारी। सर्दूल को उसने फोन करते देखा।
उसी पल उसके मोबाइल की बेल बजने लगी।
"कहो...।"
"मेरे आदमी चले गए हैं। तुमने देखा होगा।"
"कितने बाकी हैं अभी?"
"एक भी नहीं।" सर्दूल ने मुस्कुरा कर कहा--- "मुझ पर शक मत करो। मैं तुम्हारा दोस्त हूं। अब सामने आओ।"
"आ रहा हूं।" देवराज चौहान ने कहा, फिर कामटे को फोन करके कहा--- "क्या अब कोई पेड़ पर है?"
"मैंने दो को देखा था। वो दोनों चले गए हैं।"
"ठीक है, मैं सर्दूल के पास जा रहा हूं।" देवराज चौहान ने कहा--- "मैंने एक अजीब बात देखी कि जगमोहन के पास रिवाल्वर है। उसने वहां खड़े-खड़े रिवाल्वर निकाली और उसे चैक करके पुनः जेब में रख लिया।"
"सर्दूल उसे रिवाल्वर क्यों देगा?"
"यही तो सोचने वाली बात है कि अगर जगमोहन के पास रिवाल्वर है तो उसने सर्दूल को खत्म क्यों न कर दिया?"
कामटे की तरफ से आवाज नहीं आई।
"मैं उनके पास जा रहा हूं...।"
"देवराज चौहान...।" एकाएक कामटे का स्वर कानों में पड़ा--- "मैं समझ गया, सर्दूल तुम्हें जगमोहन के हाथों खत्म करा देना चाहता है। उसने किसी तरह का लालच देकर जगमोहन को तैयार किया होगा कि वो तुम्हें मारे और तुम आसानी से शिकार हो जाओ। क्योंकि तुम सोच भी नहीं सकते कि जगमोहन तुम्हें मारेगा। यही चाल है सर्दूल की और...।"
"मुझे उनके पास जाना ही होगा...।"
"बेवकूफी मत करो।" कामटे का तेज स्वर कानों में पड़ा--- "यही चाल है सर्दूल की...।"
"मैं जगमोहन को लिए बिना वापस नहीं जा सकता। और ये बात अपने दिमाग से निकाल दो कि जगमोहन मुझ पर गोली चलाएगा...।"
"तुम पागल हो जो ऐसा सोच रहे हो। कुछ भी हो सकता...।"
"मैं जा रहा हूं...।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा।
"ठहरो। रुको।" कामटे का हड़बड़ाया स्वर देवराज चौहान के कानों में पड़ा--- "मुझे पहले उस तरफ पहुंच लेने दो। तुम 1 से 100 तक गिनती गिनो और उस तरफ बढ़ना शुरू कर दो। तब तक मैं उधर पोजीशन ले लूंगा। परन्तु याद रखो कि...।"
देवराज चौहान ने फोन बंद करके जेब में रखो। चेहरे पर गंभीरता थी।
जगमोहन उस पर गोली नहीं चला सकता, इस बात का उसे पूरा भरोसा था। परंतु जगमोहन के पास रिवॉल्वर होना और सर्दूल को शूट न करना, देवराज चौहान के लिए भारी तौर पर उलझन की बात थी।
देवराज चौहान ने 1 से 100 तक की गिनती गिनी, फिर कदम उनकी तरफ बढ़ा दिया।
रिवॉल्वर हाथ में दबा दी।
धीरे-धीरे आगे बढ़ता देवराज चौहान उनकी निगाहों में आ गया।
सर्दूल और जगमोहन की नजरें मिलीं।
देवराज चौहान दस कदम पहले ठिठक गया। साथ ही मन ही मन चिंहुक उठा। नजरें जगमोहन पर थीं।
देवराज चौहान को देखकर जगमोहन अभी तक वहीं खड़ा था। उसकी तरफ ना बढ़ा था। जगमोहन के चेहरे पर उसने खुशी के कोई भाव न देखे, अलबत्ता उसने जगमोहन के चेहरे पर छाते खतरनाक भावों को महसूस किया था।
ये बात देवराज चौहान को सतर्क करने के लिए काफी थी।
लेकिन वो समझ नहीं पाया कि जगमोहन इस कदर बदली हालत में क्यों है?
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा, सर्दूल को देखा। आंखें सिकुड़ी पड़ी थीं।
"देख लो।" सर्दूल मुस्कुराकर बोला--- "तुम्हारे सामने है जगमोहन। लेकिन तुमने रिवाल्वर क्यों पकड़ रखी है? दोस्तों के बीच हो देवराज चौहान। रिवाल्वर जेब में रखो और गले मिलो। आज से हमारी दोस्ती की शुरुआत होगी।"
देवराज चौहान की निगाह जगमोहन पर जा टिकी। एकाएक वो सतर्क हो गया।
जगमोहन का चेहरा सुलग रहा था।दांत जैसे भिंच से गए थे। वो, उसे ही घूर रहा था।
जगमोहन की इस बदली हालत को समझ नहीं पाया देवराज चौहान। जगमोहन को तो कब का उसके पास आ जाना चाहिए था। परंतु जगमोहन तो वहीं खड़ा, उसे मौत की सी नजरों से देख रहा था।
"एक बात तो मैं जरूर कहूंगा देवराज चौहान कि तुम किस्मत के सुल्तान हो। पहले तुम मौत से लड़कर जिंदा बच गए और दावरे ने तुम्हारे हाथ-बांध के तुम्हें सूटकेस में बंद करके पानी में फेंका था। बचने का कोई चांस नहीं था। परंतु तुम जाने कैसे बच गए। यही तुम्हारे 'किस्मत का सुल्तान' होने की निशानी है।" सर्दूल हंसकर कह उठा।
देवराज चौहान की निगाह जगमोहन पर टिकी थी।
"इसे क्या हुआ है?" बरबस ही देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"जगमोहन को...।" सर्दूल जगमोहन को देख कर मुस्कुराया--- "ठीक तो है। ये ऐसा ही रहता है। क्यों-क्या बदला हुआ है ये?"
"हां। बहुत बदला...।"
यही वो पल थे कि जगमोहन ने बाज की सी तेजी से जेब से रिवाल्वर निकाली और उसकी तरफ की। देवराज चौहान ने सब देखा। समझा, परंतु आंखों पर यकीन नहीं हुआ।
देवराज चौहान हक्का-बक्का जगमोहन को देख रहा था और जगमोहन ने ट्रेगर दबा दिया।
गोली चलने की तेज आवाज गूंजी।
देवराज चौहान ने बचना चाहा। परंतु थोड़ा सा ही हिल पाया।
जो गोली छाती में लगनी थी, उसके हिलने की वजह से बांह में जा लगी।
परंतु दूसरी गोली चलाने का मौका ना मिला जगमोहन को।
कामटे जो कि कुछ ही दूरी पर पेड़ के तने की ओट में खड़ा था, ये देखकर उसने उसी पल जगमोहन की टांग का निशाना लेकर ट्रेगर दबा दिया। गोली जगमोहन की टांग में जा धंसी, वो चीख कर उछला और टांग थामें नीचे बैठता चला गया। रिवाल्वर उसके हाथ से छूट गई थी।
ये देखकर सर्दूल चौंका। उसने फुर्ती से अपनी रिवाल्वर निकालनी चाही।
लेकिन तभी कामटे की चलाई गोली उसकी छाती में जा लगी। सर्दूल चीखा। दोनों हाथ छाती पर जा लगे। उसी पल कामटे ने दूसरी गोली चलाई, जो कि उसके सिर में लगी और वो ऐसे नीचे गिरा जैसे किसी ने उसे धक्का दे दिया हो। चंद पल वो तड़पा, फिर शांत पड़ता चला गया।
ये सब चंद पलों में ही हो गया।
देवराज चौहान वहीं खड़ा जगमोहन को देख रहा था, जो कि एक हाथ से जख्मी टांग थामें, दूसरा हाथ आगे किए धीरे-धीरे नीचे गिरी अपनी रिवाल्वर की तरफ सरक रहा था।
होंठ भींचे देवराज चौहान आगे बढ़ा और नीचे पड़ी रिवाल्वर को ठोकर मारी।
रिवाल्वर को दूर होते पाकर जगमोहन, देवराज चौहान को देखकर गुर्रा पड़ा---
"हरामजादे! मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा।"
होंठ भींचे देवराज चौहान जगमोहन को देखता रहा।
तभी रिवाल्वर थामें कामटे पास आया और कठोर स्वर में कह उठा---
"इसकी टांग पर मैंने इसलिए गोली मारी कि ये तुम्हारा मामला है। वरना मैं इसके सिर में भी गोली मार सकता था। ये तुम्हारी जान लेना चाहता है। और एक तुम हो इसके लिए जान खतरे में डाल दी।"
"जगमोहन मेरी जान नहीं ले सकता।" देवराज चौहान जगमोहन को देखे जा रहा था।
"तो क्या तुम ये कहना चाहते हो कि ये जगमोहन नहीं है?" कामटे ने देवराज चौहान को देखा।
"ये जगमोहन ही है।"
"तो ये फिर इसने तुम पर गोली क्यों चलाई...और अब...।"
तभी जगमोहन ने एक पत्थर उठाकर, देवराज चौहान पर दे मारा और चीखा।
"मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा, तुझे कुत्ते की मौत मारूंगा।"
"सुन लिया!' कामटे कड़वे में बोला--- "ये तो सर्दूल की भाषा बोल रहा है अभी तक...।"
"मुझे ये अपने होश में नहीं लग रहा। अभी तो इसे ले चलना होगा। इसे बेहोश कर दो।" देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला।
"बेहोश कर दूं?" कामटे ने अजीब सी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
"हां। रिवाल्वर के दस्ते की चोट इसकी कनपटी पर मारो और बेहोश कर दो।"
"खबरदार जो कोई मेरे पास आया।" जगमोहन गला फाड़कर चीख उठा।
परंतु कामटे ने फौरन उस पर काबू पाया और दो चोटें मारकर उसे बेहोश कर दिया।
देवराज चौहान ने अपनी रिवाल्वर जेब में रखी और आगे बढ़कर जगमोहन को उठाकर कंधे पर लाद लिया।
"चलो।" देवराज चौहान बोला।
कामटे ने बहुत हसरत भरी नजरों से सर्दूल की लाश को देखा, फिर कह उठा---
"अगर सर्दूल को मैंने किसी और मौके पर मारा होता तो अखबारों में मेरा नाम होता। मेरी तरक्की हो जाती। मेरी शान बढ़ जाती, लेकिन अब किसी से कह भी नहीं सकता कि सर्दूल को मैंने मारा है...।"
जगमोहन को कंधे पर लादे देवराज चौहान वहां से आगे बढ़ता चला गया।
कामटे ने सर्दूल की लाश से नजरें हटाकर गहरी सांस ली। आसपास देखा, फिर रिवॉल्वर जेब में रखे देवराज चौहान के पीछे चल पड़ा था।
■■■
जगमोहन की टांग से गोली निकाल दी गई थी। वहां अब बैंडेज की हुई थी। कामटे ने उसके सिर पर दस्ते की चोटें मारी थीं, वहां भी जख्म हो गया था। दवा लगाकर वहां भी पट्टी बांध दी गई थी। जगमोहन इस वक्त बैड पर पड़ा था और उसकी बांहें और टांगें डोरी से बांध रखी थीं कि होश आने पर वो कोई गड़बड़ ना कर सके।
देवराज चौहान ने सोहनलाल को बुला लिया था, जगमोहन की देखरेख करने के लिए।
देवराज चौहान ने सोहनलाल को बताया कि पूरा मामला क्या है।
सबकुछ जानकर सोहनलाल खूब नाराज हुआ कि उसे पहले क्यों नहीं बताया। ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत ही सही, उसके काम तो आता। बहरहाल अब सोहनलाल जगमोहन की रखवाली पर बैठ था। जगमोहन को धीरे-धीरे होश आता जा रहा था। कभी उसके पांव हिलते दिखाई देते तो कभी हाथ या सिर।
तभी देवराज चौहान की जेब में पड़ा मोबाइल बज उठा।
ये सुनीता वाला ही मोबाईल था।
"हैलो।" देवराज चौहान ने जगमोहन पर से नजरें हटाकर बात की।
"बधाई हो भाई साहब। जगमोहन मिल गया आपको।" सुनीता का खुशी से भरा स्वर कानों में पड़ा।
"हां, मिल गया।"
"अपना वादा याद है ना, हमें मालामाल कर देने का? सोचा कहीं भूल ना जाएं, याद दिला दूं...।"
"याद है।" देवराज चौहान के होंठों पर छोटी सी मुस्कान उभरी।
"आज रात जगमोहन के साथ, हमारे यहां खाने पर आईए। हिसाब-किताब भी हो जाएगा। आज छोटे लिफाफे से काम नहीं चलेगा। आज तो बड़ा लिफाफा लाना भाई साहब, जो कि नोटों से ऊपर तक भरा हो। तब हम मालामाल...।"
"कामटे कहां है?"
"पास में ही खड़े हैं।"
"उसे फोन दो...।"
अगले ही पल कामटे की आवाज कानों में पड़ी---
"कहो...।"
"इस मामले में तुमने मेरी बहुत सहायता की...।"
"अपने आप ही सहायता हो गई।" कामटे के गहरी सांस लेने की आवाज आई--- "मैं तो इस मामले से दूर जाने को कह रहा था...।"
"तुम कल मुझे दावरे के बारे में बता रहे थे...।"
सोहनलाल, देवराज चौहान को देखता बातें सुन रहा था।
दोनों ये नहीं देख सके कि जगमोहन की आंखें खुल चुकी हैं। वो बारी-बारी दोनों को देख-सुन रहा है।"
"कहां है दावरे?"
उधर से कामटे ने बताया।
"ठीक है।" सुनने के बाद देवराज चौहान ने कहा--- "मैं तुमसे जल्दी ही मिलूंगा।" कहकर फोन बंद किया और जेब में रखा। गर्दन घुमाई तो जगमोहन से नजरें जा मिलीं। ठिठक सा गया देवराज चौहान उसे देखते ही।
सोहनलाल ने भी जगमोहन को देखा।
"कामटे कौन है?" जगमोहन ने पूछा।
"तुम नहीं जानते?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"नहीं।" जगमोहन ने आसपास निगाह मारी, फिर उसका ध्यान अपने बंधे हाथ-पांवों पर गया--- "मैं यहां कैसे आ गया? मेरे हाथ-पांव क्यों बांध रखे हैं। ह... हम तो आर्य निवास में थे। वहां सर्दूल, दावरे, अकबर खान, दीपक चौला, वंशू करकरे और उनके ढेर सारे आदमी...।" जगमोहन का चेहरा सुलग उठा--- "कहां हैं वो कुत्ते? खोलो मुझे, मैं उन्हें नहीं छोडूंगा। बहुत बुरा मारा था उन्होंने मुझे... तुम्हें और... और...।" जगमोहन का चेहरा गुस्से में धधक उठा था।
देवराज चौहान और सोहनलाल की नजरें मिलीं।
चेहरों पर गंभीरता थी।
"तुम्हें याद नहीं...?" देवराज चौहान ने पूछा।
"क्या?"
"उसके बाद क्या हुआ?"
"उसके बाद तो मुझे अब होश आया है।" जगमोहन में दांत भींचे देवराज चौहान को देखा--- "क्यों, उसके बाद भी कुछ हुआ था? मैं शायद लंबा बेहोश रहा। मुझे कुछ नहीं पता, बताओ मुझे, क्या हुआ था उसके बाद... और वो सब हरामजादे कहां हैं। मैं उन्हें चुन-चुन कर मारूंगा।"
देवराज चौहान ने गहरी निगाहों से जगमोहन को देखा।
उसके चेहरे पर सच्चाई झलक रही थी।
"बताओ मुझे, उसके बाद क्या हुआ था?" जगमोहन दांत पीस उठा।
"तुम्हें सर्दूल के बारे में मुझे कुछ याद नहीं?" देवराज चौहान ने पूछा।
"सर्दूल? याद है। उसने मेरे सिर में गोली मारी थी। उसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं रहा। शायद बेहोश हो गया था। मेरे हाथ-पांव खोलो। मुझे इस तरह क्यों बांध रखा है?"
"अभी तुम बंधे ही ठीक हो।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
"लेकिन क्यों?" जगमोहन झल्ला उठा--- "खोलो मुझे। आह, मेरी टांग पर दर्द हो रहा है--- ये क्या?"
"तेरी टांग पर गोली लगी है।" सोहनलाल बोला--- "ज्यादा हिल मत...।"
"गोली? ये क्या...कब लगी...मुझे कुछ पता क्यों नहीं है कि कब गोली लगी?"
सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान सिगरेट सुलगा ली।
"मुझे खोलो तो...।" जगमोहन गुस्से से बोला।
"मुझे तो ये ठीक लगता है।" सोहनलाल ने देवराज चौहान से कहा।
"इसे बीती कोई बात भी याद नहीं रही।" देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला--- "तुम इसके पास रहो और इसका व्यवहार चैक करो। मुझे इसके बारे में अभी तसल्ली नहीं हुई।"
"आखिर ये सब हो क्या रहा है?" जगमोहन झुंझलाकर बोला--- "सोहनलाल...।"
"हां...।"
"मेरे हाथ-पांव खोल दो। मेरे हाथ-पांव नहीं खुलेंगे तो मैं तुम्हें ढाई लाख कैसे वापस दूंगा?" जगमोहन बोला।
सोहनलाल के चेहरे पर अजीब से भाव आ गए।
"तेरे को याद है कि तूने मेरा ढाई लाख देना है?"
"इसमें भूलने वाली कौन सी बात है?"
"पहले तो तू मेरे मांगने पर भी कहता था कि कौन से ढाई लाख...।"
"वो तो मैं यूं ही कहता था... कि...।"
सोहनलाल आगे बढ़ा और जगमोहन के बंधन खोलने लगा।
"ये क्या कर रहे हो?" देवराज चौहान कह उठा।
"ये अब ठीक है।"
"तुमने इसका पहले वाला रूप नहीं देखा...ये...।"
सोहनलाल ने जगमोहन के हाथ-पांव खोल दिए।
देवराज चौहान, गंभीर निगाहों से जगमोहन को देखे जा रहा था।
आजाद होते ही जगमोहन ने गहरी सांस ली कि तभी उसकी निगाह देवराज चौहान की बांह पर बंधी बैंडेज पर गई तो उसके होंठों से निकला---
"तुम्हारी बांह पर क्या हुआ?"
"गोली लगी थी।" सोहनलाल ने कहा।
"गोली?" जगमोहन के दांत भिंच गए--- "किस हरामी ने देवराज चौहान को गोली मारी, मैं उसे...।"
"तुमने...।" सोहनलाल गंभीर था।
"मैंने...? नहीं सोहनलाल, ऐसा मजाक मुझसे मत कर। जगमोहन गुर्रा उठा--- "जिसने देवराज चौहान को गोली मारी? मैं उसे बुरी मौत मारूंगा। मुझे उसका नाम बता दे...।"
तभी देवराज चौहान ने सोहनलाल से कहा---
"इसके पास रहना। मैं कुछ घंटों में वापस आऊंगा।"
सोहनलाल ने सिर हिलाया तो देवराज चौहान बाहर निकलता चला गया।
जगमोहन कुछ पल उस दरवाजे को देखता रहा, जहां से देवराज चौहान गया था। चेहरे पर उलझनों के जाल के साथ, गुस्सा भी दिखाई दे रहा था। वो सोहनलाल से कह उठा---
"मुझे बता सोहनलाल, ये सब क्या हुआ पड़ा है। मेरी टांग में गोली लगी। देवराज चौहान की बांह में गोली और ऊपर से तुम लोगों ने मेरे हाथ-पांव बांध रखे थे। कुछ मुझे भी तो पता लगे कि क्या हुआ। सर्दूल की गोली सिर में लगी तो उसके बाद अब होश में आया हूं। सब कुछ बता मुझे कि मेरी बेहोशी के दौरान क्या हुआ।"
"तू बेहोश नहीं रहा। होश में था, परंतु...।" सोहनलाल गहरी सांस लेकर रह गया।
"क्या परंतु...?"
और सोहनलाल, जगमोहन को सब कुछ बताने लगा, जो वो नहीं जानता था।
■■■
शाम के आठ बज रहे थे।
क्वीनलैंड रेस्टोरेंट अपनी रौनक पर आता जा रहा था। डिनर के लिए ये जाना-माना रेस्तरां था। अंधेरा होते ही यहां भीड़ लगनी शुरू हो जाती थी। यहां का खाना भी लाजवाब था। खाने के अलावा यहां की खासियत थी कि यहां खाने को युवतियां सर्व करती थीं। खूबसूरत, सुंदर, स्मार्ट युवतियां। ये भी एक आकर्षक था क्लीनलैंड का। रेस्टोरेंट में बाउंसर भी मौजूद रहते थे। अगर कोई मनचले खाना सर्व करने वाली युवतियों को परेशान करे तो मनचलों को बाउंसर बाहर का रास्ता दिखा देते थे। परंतु ऐसा कम ही होता था।
बहुत कम लोग ही इस बात को जानते थे कि ये रेस्टोरेंट ड्रग्स किंग सुधीर दावरे का है। दावरे ने इस रेस्टोरेंट की आड़ में एक कमरे को ड्रग्स का गोदाम बना रखा था।
इस समय दावरे रेस्टोरेंट में ही मौजूद था। उसने फ्रेंच कट दाढ़ी लगा रखी थी और रेस्टोरेंट की यूनिफॉर्म काले कोट, पैंट और सफेद कमीज में, वहां का कर्मचारी बना, दो अन्य कर्मचारियों के साथ कैश काउंटर पर बैठा था। खुद को व्यस्त दर्शा रहा था, जबकि हकीकत में वो परेशान था।
परेशान इस बात को लेकर था कि सर्दूल की कोई खबर नहीं मिल रही। दोपहर बाद से वो कम से कम पचास बार सर्दूल के मोबाईल पर फोन कर चुका था। बेल जाती रहती थी, परंतु कॉल को कोई रिसीव नहीं कर रहा था। वो जानता था कि दोपहर में सर्दूल ने देवराज चौहान से मिलना था। सर्दूल ने ही बताई थी ये बात कि वो जगमोहन के हाथों से देवराज चौहान को खत्म कराने जा रहा है।
परंतु उसके बाद सर्दूल से कोई बात नहीं हो हो सकी।
सर्दूल फोन रिसीव नहीं कर रहा था।
दावरे के मन में ये शंका उछाले मारने लगे कि कहीं सर्दूल के साथ कोई गड़बड़ ना हो गई हो। इस सोच के साथ उसे अपनी चिंता होने लगी थी कि कहीं देवराज चौहान उस तक ना पहुंच जाए। यही वजह थी कि सुधीर दावरे रेस्टोरेंट का मामूली कर्मचारी बना हुआ था कि अगर देवराज चौहान किसी तरह वहां पहुंच भी जाए तो उसे पहचान ना सके। यूँ उसने मन ही मन फैसला कर लिया था कि इस तरह खतरे में रहना ठीक नहीं। एक-दो महीने के लिए विदेश चला जाएगा। जब लौटेगा तो ये मामला ठंडा पड़ चुका होगा। लेकिन इस वक्त वो सर्दूल की खबर जानने को बेचैन था कि कहीं देवराज चौहान ने उसका काम भी तो नहीं कर दिया। वैसे उसका मन नहीं मान रहा था कि सर्दूल मारा जा सकता है।
दावरे ने बेचैन मन से गहरी सांस ली। कैश काउंटर के पीछे कुर्सी पर बैठे, रेस्टोरेंट की भीड़ पर नजर मारी। मन में सोच रहा था कि देवराज चौहान उसके काबू में आ गया था। तब उसका गला घोंट कर उसे सूटकेस में बंद करना चाहिए था, कि उसके बचने की गुंजाइश जरा भी ना रहती। उसे याद आया कि दुकान पर एक पुराना चाकू भी पड़ा था। उसी से देवराज चौहान का गला काट देता तो ठीक रहता।
तभी दावरे का मोबाइल बज उठा।
दावरे ने ये सोचकर जल्दी से कॉल अटैंड की कि सर्दूल का फोन होगा।
"मैंने तुझे कितनी बार फोन किया सर्दूल...।" फोन कान से लगाते दावरे बेचैनी से कह उठा।
"वो तो मर गया।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
सुधीर दावरे के शरीर में सिहरन दौड़ती चली गई।
देवराज चौहान!
सर्दूल मर गया!
दावरे फोन कानों से लगाए रहा। समझ नहीं पाया कि क्या कहे?
"वो जगमोहन के हाथों मुझे खत्म करा देना चाहता था।" देवराज चौहान की आवाज पुनः कानों में पड़ी--- "लेकिन वो ऐसा नहीं कर सका। मैंने खत्म कर दिया उसे। देर-सवेर में उसकी लाश मिलने की खबर तुम सुन लोगे।"
दावरे को काटो तो खून नहीं।
"एक बात तो बता।" देवराज चौहान की आवाज पुनः कानों में पड़ी।
"क्या?" दावरे के होंठ हिले।
"सर्दूल ने क्या कहकर जगमोहन को तैयार किया कि वो मुझे मार दे।"
"जगमोहन को कुछ भी याद नहीं रहा था। हॉस्पिटल से जब उसको अकबर खान ने उठाया और उसका इलाज कराकर ठीक किया उसे तो, जाना कि वो याददाश्त खो चुका है।" दावरे कह उठा।
"तो ये बात थी...।"
"अकबर खान ने जगमोहन के होश आने पर उसे कहा कि वो उसका आदमी है। उसे देवराज चौहान को मारने भेजा था, परंतु देवराज चौहान ने उसकी बुरी हालत कर दी। इसके बाद से ही वो तुम्हारा दुश्मन बन गया था।"
"सर्दूल ने अच्छी चाल खेली मेरे से, लेकिन कामयाबी नहीं हो सका।"
"तुम... तुमने सबको मार दिया।" सुधीर दावरे सूखे स्वर में बोला--- "मुझे मत मारना। मैं तुम्हें पैसा दूंगा। मैं...।"
"जानता है तेरी दूसरी गलती क्या रही?"
"क्या?" दावरे के होंठों से निकला।
"मुझे सूटकेस में बंद करते वक्त मेरे गला काट देते तो मैं किसी भी हालत में जिंदा न बचता।"
सुधीर दावरे ने गहरी सांस ली। यही बात तो वो सोच रहा था।
"एक बार मैंने तुझे मजाक में कहा था कि मैं तेरे ठिकाने के बाहर खड़ा हूं।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
"त...तो?"
"लेकिन इस वक्त मैं क्वीनलैंड रेस्टोरेंट के भीतर हूं और तुझे कैश काउंटर के पीछे बैठा देखा रहा हूं।"
तिरपन कांप उठे दावरे के।
मोबाईल हाथ से छूटते-छूटते बचा।
डर से भरी नजरें रेस्टोरेंट में घूमती चली गईं। वहां बहुत भीड़ थी। चंद सेकेंडों में देवराज चौहान को नहीं देख पाया। कांपती टांगों के साथ कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
"भागना चाहता है दावरे...।" देवराज चौहान का मौत से भरा स्वर कानों में पड़ा।
"न...हीं...।" दावरे थरथराते स्वर में फोन पर बोला--- "मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हें बहुत पैसा दूंगा। मुझे माफ कर दो...। ये रेस्टोरेंट तुम्हारे नाम कर दूंगा। और भी बहुत कुछ...।"
"दावरे...।" देवराज चौहान के कानों में पड़ने वाले स्वर में शरीर को कंपकंपा देने वाले भाव थे--- "तू मरने जा रहा है।"
"न...न...नहीं। मुझे माफ कर...।"
"अपने बाईं तरफ देख--- मैं तेरे से सिर्फ सात कदम दूर हूं...।"
फोन कान से लगाए दावरे फुर्ती से दाईं तरफ घूमा। आंखें खौफ से फटी पड़ी थीं।
देवराज चौहान से नजरें मिलीं।
वो महज सात कदम ही दूर था।
दावरे के देखते ही देखते देवराज चौहान ने अपना दांया हाथ उठाया रिवाल्वर दबी थी उस हाथ में। दूसरे हाथ में मोबाइल फोन था, जो कान से लगा रखा था।
दावरे के चेहरे पर मौत के भाव, दहशत के भाव नाच रहे थे।
'धांय'
फायर की तेज आवाज रेस्टोरेंट में गूंजी और गोली दावरे के माथे में जा लगी। दावरे पास पड़ी कुर्सी से टकराया और नीचे जा गिरा। एकाएक रेस्टोरेंट में स्तब्धता छा गई थी। किसी को समझ नहीं आया कि क्या हुआ है। जो दो कर्मचारी दावरे के पास व्यस्त थे, ये होता पाकर सहम कर, वो वहीं सिमट गए थे।
देवराज चौहान दांत भींचे हिंसक, अंदाज में कैश काउंटर के पास पहुंचा और भीतर झांका, जहां दावरे गिरा पड़ा था। वो मर चुका था। उसकी आंखें अभी तक फटी पड़ी थीं। देवराज चौहान की आंखों में वहशी चमक लहरा रही थी। उसने पुनः रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया और ट्रिगर दबा दिया।
'धांय'! दूसरी गोली भी दावरे की लाश के माथे में जा लगी।
शांत रहा उसका शरीर।
देवराज चौहान ने रिवाल्वर जेब में रखी और खतरनाक निगाहों से, उन लोगों को देखा जो ठगे से खड़े उसे ही देख रहे थे, फिर वो रेस्टोरेंट से बाहर निकलता चला गया।
■■■
देवराज चौहान रात ग्यारह बजे बंगले पर पहुंचा।
जगमोहन बैड पर पड़ा बेसब्री से उसके आने का ही इंतजार कर रहा था।
सोहनलाल ने उसे सब बता दिया था।
"सोहनलाल ने मुझे बताया कि ठीक होने के बाद में अकबर खान और सर्दूल के साथ रहा...।" जगमोहन तेज स्वर में कह उठा--- "और तुम्हें मारने की चेष्टा करता रहा।"
"ये सच है।" देवराज चौहान गंभीर भाव में मुस्कुराया।
"तो मुझे याद क्यों नहीं कि मैं ऐसा कर रहा था-- और तब मैं तुम्हें ही क्यों भूल गया कि...।"
"सर्दूल ने जब तुम्हें सिर में गोली मारी तो होश आने पर तुम्हारी याददाश्त चली गई थी। तुम्हें कुछ भी याद नहीं रहा। अकबर खान ने तुमसे जो कहा, तुमने उसी को सच माना।" देवराज चौहान बोला--- "और आज कामटे ने तुम्हें बेहोश करने के लिए, तुम्हारे सिर में दो तगड़े वार किए। तुम बेहोश हो गए। मैं तुम्हें यहां ले आया। अब तुम्हें होश आया तो तुम्हारी याददाश्त लौट आई। ऐसा कामटे के द्वारा मारी सिर में चोटों की वजह से हुआ।"
"ओह! ऐसा भी होता है क्या?"
"हां। कभी-कभी ऐसा भी होता है।" देवराज चौहान ने गंभीरता से कहा--- "किसी खास हादसे के पश्चात याददाश्त चली जाती है जो बीता जीवन याद नहीं रहता। जब याददाश्त लौटती है तो, वो वक्त याद नहीं रहता, जो उसने याददाश्त गुम होने के दौरान बिताया होता है।"
जगमोहन के चेहरे पर गुस्सा नजर आने लगा।
"मैं उन कमीनों को जिंदा नहीं...।"
"वो सब मर गए। मैंने किसी को नहीं छोड़ा।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
"सब?"
"हां, सब। एक बचा है राठी। वो जब नजर आएगा, तो वो भी मारा जाएगा।" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।
"इतनी कठिन लड़ाई तुमने अकेले ही लड़ी...।" जगमोहन दांत पीस कर कह उठा--- "बल्कि मैं भी तुम्हारी जान के पीछे पड़ गया था...।"
"तुम ठीक हो गए, मुझे यही खुशी है। वैसे मैंने ये लड़ाई अकेले नहीं लड़ी। सब-इंस्पेक्टर कामटे ने मेरा भरपूर साथ दिया...।"
"कामटे?" जगमोहन ने गहरी सांस ली।
"हां। अगर उसने मेरे साथ ना दिया होता तो ये लड़ाई अभी खत्म ना हुई होती। उसने सच में बहुत साथ दिया।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "कल उसे एक करोड़ रुपए दूंगा।"
"ए... एक करोड़...।" जगमोहन हड़बड़ा उठा--- "इतना ज्यादा? दस-बीस लाख से काम चला लो। इतना ज्यादा तो...।"
"मैं उसका एहसान पैसे से नहीं उतार सकता। जो उसने किया, उसे देखते हुए करोड़ भी कम है।" देवराज चौहान ने उसे देखा।
जगमोहन, देवराज चौहान को देखता रहा। कुछ कह ना सका।
"मेरा भी ढाई लाख दे देना...।" जगमोहन से कहा सोहनलाल ने।
"ढाई लाख?" जगमोहन ने सोहनलाल को देखा--- "कौन सा ढाई लाख?"
"पुराना हिसाब है। और तूने ही तो मुझे याद दिलाया कि तूने मेरा ढाई लाख देना...।"
"देख सोहनलाल! पैसा मांगकर शर्मिंदा मत हो। पुराने हिसाब तो मैं वैसे ही याद नहीं रखता। मेरी याददाश्त गड़बड़ा गई थी, शायद इस चक्कर में कह दिया होगा। अब मुझे कुछ भी याद नहीं है कि तू किस ढाई लाख की बात कर रहा है।"
"कमीना!" सोहनलाल बड़बड़ाया और आंखें बंद कर लीं।
जगमोहन ने सोहनलाल को देखकर गहरी सांस ली, फिर मुस्कुरा पड़ा था।
समाप्त
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