भयानक घटना
शाम का अख़बार बाज़ार में आते ही सारे शहर में सनसनी फैल गयी। अख़बार वाले गली-कूचों में चीख़ते फिर रहे थे— ‘‘इन्स्पेक्टर फ़रीदी का क़त्ल....एक हफ़्ते के अन्दर-अन्दर शहर में तीन क़त्ल...शाम की ताज़ा ख़बर...शाम की ताज़ा ख़बर...’’
अख़बार में इस घटना का ब्योरा कुछ इस तरह दिया गया था—
‘‘आज दो बजे दिन इन्स्पेक्टर फ़रीदी की कार पुलिस हस्पताल के कम्पाउण्ड में दाख़िल हुई। इन्स्पेक्टर फ़रीदी कार से उतरते वक़्त लड़खड़ा कर गिर पड़े। किसी ने उनके दायें बाज़ू और बायें कन्धे को गोलियों का निशाना बना दिया था। फ़ौरन ही डॉक्टरी मदद पहुँचायी गयी, लेकिन फ़रीदी साहब बच न सके। तीन घण्टे मौत और ज़िन्दगी की कशमकश में जूझने के बाद वे हमेशा-हमेशा के लिए रुख़सत हो गये। यक़ीनन यह मुल्क के लिए बहुत बड़ा नुक़सान है।
‘‘इन्स्पेक्टर फ़रीदी शायद सविता देवी के क़त्ल के सिलसिले में छान-बीन कर रहे थे, लेकिन उन्होंने इसकी ख़बर किसी को नहीं दी थी। चीफ़ इन्स्पेक्टर साहब को भी इस बात का पता नहीं कि उन्होंने जासूसी का कौन-सा तरीक़ा अपनाया था। अभी तक कोई नहीं बता सकता कि इन्स्पेक्टर फ़रीदी आज सुबह कहाँ गये थे। लेकिन उनकी कार पर जमी हुई धूल और पहियों की हालत बताती है कि उन्होंने काफ़ी लम्बा सफ़र किया था।
‘‘इन्स्पेक्टर फ़रीदी की उम्र तीस साल थी। वे कुँवारे थे। उन्होंने दो बँगले और एक बड़ी जायदाद छोड़ी है। उनके किसी वारिस का पता नहीं चल सका।’’
यह ख़बर आग की तरह सारे शहर में फैल गयी। डिपार्टमेंट ऑफ़ इनवेस्टिगेशन के दफ़्तर में हलचल मची हुई थी। इन्स्पेक्टर फ़रीदी के दोस्तों ने लाश हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें लाश देखने तक की इजाज़त न दी गयी और कई ख़बरों से मालूम हुआ कि पोस्ट मॉर्टम करने पर पाँच या छै ज़ख़्म पाये गये थे।
यह सब कुछ हो रहा था, लेकिन सार्जेंट हमीद न जाने क्यों चुप था। उसे अच्छी तरह मालूम था कि इन्स्पेक्टर फ़रीदी राजरूप नगर गया था, लेकिन उसने इसकी कोई ख़बर चीफ़ इन्स्पेक्टर को न दी। वह पुलिस और ख़ुफ़िया पुलिस की भागदौड़ देख रहा था।
दूसरे जासूसों और बहुत सारे लोगों ने उससे पूछा, लेकिन उसने एक को भी ठीक ढंग से जवाब न दिया। किसी से कहता कि उन्होंने मुझे अपना प्रोग्राम नहीं बताया था, किसी से कहता उन्होंने मुझसे यह तक तो बताया नहीं था कि उन्होंने अपनी छुट्टी कैन्सिल करा दी है, फिर जासूसी का प्रोग्राम क्या बताते। किसी को यह जवाब देता कि वे अपनी स्कीमों में किसी से न राय लेते थे और न मिल कर काम करते थे।
लगभग दस बजे रात को एक नेपाली चोरों की तरह छिपता-छिपाता सार्जेंट हमीद के घर से निकला। बड़ी देर तक यूँ ही सड़कों पर मारा-मारा फिरता रहा फिर एक घटिया-से शराब-ख़ाने में घुस गया। जब वह वहाँ से निकला तो उसके पैर बुरी तरह डगमगा रहे थे। आँखों से मालूम होता था जैसे वह बहुत पी गया हो। वह लड़खड़ाता हुआ टैक्सियों की तरफ़ चल पड़ा।
‘‘भाई शाप, हम दूर जाना माँगता है।’’ उसने एक टैक्सी ड्राइवर से कहा।
‘‘साहब, हमें फ़ुर्सत नहीं...!’’ टैक्सी ड्राइवर ने कहा।
‘‘ओ बाबा, पैसा देगा...’’ उसने जेब में हाथ डाल कर पर्स निकालते हुए कहा।
‘‘नहीं...नहीं साहब...मुझे फ़ुर्सत नहीं।’’ टैक्सी ड्राइवर ने दूसरी तरफ़ मुँह फेरते हुए कहा।
‘‘अरे लो, हमारा बाप...तुम भी शाला क्या याद करेगा।’’ उसने पचास-पचास के दो नोट उसके हाथ पर रखते हुए कहा। ‘‘अब चलेगा हमारा बाप।’’
‘‘बैठिए, कहाँ चलना होगा।’’ टैक्सी ड्राइवर ने कार का दरवाज़ा खोलते हुए कहा।
‘‘जाओ, हम नहीं जाना माँगता...हम तुमको सौ रुपया भीख दिया।’’ उसने रूठ कर ज़मीन पर बैठते हुए कहा।
‘‘अरे नहीं साहब, उठिए, चलिए...जहाँ आप कहें, आपको पहुँचा दूँ। चाहे जहन्नुम ही क्यों न हो।’’ टैक्सी ड्राइवर ने उसके नशे की हालत से लुत्फ़ उठाते हुए हँस कर कहा।
‘‘जहन्नुम ले चलेगा।’’ नेपाली ने उठ कर कहा। ‘‘तुम बड़ा अच्छा है। तुम हमारा बाप है...तुम हमारा भाई है...तुम हमारा माँ है...तुम हमारा बीबी है...तुम हमारा बीबी का शाला है...तुम हमारा...तुम हमारा...तुम हमारा क्या है?’’
‘‘साहब, हम तुम्हारे सब कुछ हैं। बोलो, कहाँ चलेगा?’’ टैक्सी ड्राइवर ने उसका हाथ अपनी गर्दन से हटा कर हँसते हुए कहा।
‘‘जिधर हम बतलाना माँगता। शाला तुम नहीं जानता कि हम बड़ा लोग है। हम तुमको और बख़्शिश देगा।’’ मदहोश नेपाली ने पिछली सीट पर बैठते हुए कहा। ‘‘शीधा चलो।’’
दूसरे मोड़ पर पहुँच कर टैक्सी राजरूप नगर की तरफ़ जा रही थी।
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