शनिवार ।
अभिजीत घोष ने बड़े संकोचपूर्ण ढंग से अपने श्रोताओं पर निगाह डाली । उसे एक भी सूरत पर अपनी थ्योरी के प्रति उत्सुकता के भाव न दिखाई दिये । जैसे जोशो-खरोश से बाकी वक्ताओं को सुना गया था, वैसा जोशो-खरोश उस शाम की सभा में नहीं दिखाई दे रहा था । हर सूरत पर - सभापति महोदय की सूरत पर सबसे ज्यादा - ऐसे भाव थे जैसे अभिजीत घोष प्रोसीजर की आड़ लेकर उनका वक्त बरबाद करने के अलावा कुछ नहीं करने वाला था ।
अभिजीत घोष ने बड़े नर्वस भाव से दो-तीन बार खंखार कर अपना गला साफ किया और फिर बोलना शुरू किया ।
“लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - वो बोला - “मुझे इस बात का पूरा-पूरा अहसास है कि मिस रुचिका केजरीवाल का कल का बयान सुन चुकने के बाद आप लोग मुझे सुनना बेमानी मानते हैं । मिस केजरीवाल की शानदार दलीलों को और अकाट्य सबूतों को और निर्णायक नतीजों को सुन चुकने के बाद आपको मेरी बात सुनना अगर वक्त की बरबादी लगता है तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं । लेकिन मेरी गुजारिश सिर्फ ये है कि ऐसी शानदार दलीलें, अकाट्य सबूत, निर्णायक नतीजे थोड़ी कमीबेशी में हम मिस केजरीवाल से पहले चार और वक्ताओं की जुबानी भी सुन चुके हैं । इसी बात ने मुझे ये सोचने के लिये मजबूर किया है कि हो सकता है कि पहली चार थ्योरियों की तरह पांचवीं थ्योरी भी उतनी मजबूत और सिक्केबन्द न हो जितनी कि वो कल शाम को हर किसी की - मुझे भी - लग रही थी । गौर फरमाइयेगा, मैंने कहा है कि ऐसा हो सकता है ? मैंने ये नहीं कहा कि ऐसा है ।”
“कम टू दि प्वायन्ट, मिस्टर घोष ।” - आगाशे बेसब्रेपन से बोला ।
अभिजीत घोष ने जोर से थूक निगली और बड़े आहत भाव से सभापति की ओर देखा ।
“मैं ये कहना चाहता था” - आगाशे बदले स्वर में बोला - “कि हम बहुत बेकरार हैं आपकी थ्योरी सुनने के लिये ।”
“धन्यवाद ।”
“इसलिये जरा जल्दी....”
“जरूर । तो मैं ये अर्ज कर रहा था कि क्योंकि मैं आखिरी वक्ता हूं इसलिये मुझे ये सुविधा सहज ही प्राप्त हो गयी है कि मैं अन्य व्यक्तियों को थ्योरियों से, उनकी खूबियों से और उनके नतीजों से दिशाज्ञान प्राप्त कर सकता हूं । उनको परखकर, उनके विवेचन से में अपनी थ्योरी को सुधार सकता हूं, ज्यादा असैप्टेबल बना सकता हूं । मैं यहां हर थ्योरी के हर पहलू का विस्तृत वर्णन करूंगा तो बहुत वक्त लगेगा और मुझे दिखाई दे रहा है कि यहां कोई भी श्रोता बहुत वक्त तक मुझे सुनने का ख्वाहिशमन्द नहीं....”
“ऐसी कोई बात नहीं ।” - सभापति ने तुरन्त प्रतिवाद किया ।
“हो भी तो मुझे कोई एतराज नहीं, कोई शिकायत नहीं । यूं उपस्थित देवियों और सज्जनों का वक्त बरबाद न हो, इसलिये मैं घर से एक चार्ट बनाकर लाया हूं जिसकी एक-एक प्रति समस्त सदस्यों के अवलोकनार्थ हाजिर है ।”
उसने प्रतियां वितरित कीं ।
“इस चार्ट में” - अभिजीत घोष बोला - “मैंने विभिन्न वक्ताओं को, उन के द्वारा सुझाये कत्ल के उद्देश्यों को, उनकी थ्योरियों के विशिष्ट आकर्षणों को और उनके द्वारा सुझाये अपराधियों को क्लासीफाई किया है । तुलना के लिये चार्ट में मैंने पुलिस को भी एक वक्ता का दर्जा दिया है । इस चार्ट के अवलोकन से आप पायेंगे कि कोई भी वक्ता किसी भी महत्वपूर्ण प्वायन्ट पर किसी दूसरे वक्त से सहमत नहीं दिखाई देता और किन्हीं भी दो वक्ताओं ने किसी एक कामन अपराधी का नाम नहीं सुझाया । इसके बावजूद अपनी थ्योरी प्रस्तुत करते वक्त हर वक्त को ये विश्वास था कि उसी की थ्योरी सही थी, उसी का सुझाया हल दुरुस्त था । मिस्टर अशोक प्रभाकर ने तो न केवल एक हल प्रस्तुत किया बल्कि पहले अपनी भतीजी को और फिर खुद को ही अपराधी साबित करके दिखाकर इस बात पर जोर दिया कि तथ्यों को अपने मनमाफिक तरीके से तोड़-मरोड़कर, कुछ को छुपाकर तो कुछ को हाईलाइट करके, किसी भी बात से कुछ भी साबित किया जा सकता था ।”
उस क्षण उसे ये देखकर बहुत सन्तुष्टि हुई कि तमाम मेम्बरान बहुत गौर से उसके चार्ट का मुआयना कर रहे थे ।
“चार्ट से आप ये भी पायेंगे” - अभिजीत घोष फिर बोला - “कि विभिन्न वक्ताओं के केस से दो-चार हीने के तरीकों से उनके अपने चरित्र की भी झलक मिलती है । मिसाल के तौर पर दासानी साहब वकील हैं, प्रत्यक्ष सबूतों पर जोर देने की उन्हें ट्रेनिंग है इसलिये उनका सारा जोर लेटरहैड पर रहा जिसकी वजह से केवल वही ये बात भांप पाने में कामयाब हो पाये कि लेटरहैड पर से कोई इबारत मिटाकर उस पर दूसरी इबारत टाइप की गई थी । इसी प्रकार मिस रुचिका केजरीवाल ने क्योंकि केस को मनोवैज्ञनिक दृष्टिकोण से परखा इसलिये उनकी थ्योरी में उनका पूरा जोर अपराधी के चरित्र पर रहा । बाकी मेम्बरान
अभिजीत घोष का चार्ट | ||||
क्रमांक | वक्ता | उद्देश्य | विशिष्ट आकर्षण | अपराधी |
1 | एडवोकेट दासानी | आर्थिक लाभ | लेटरहैड | मिसेज पार्वती परमार |
2 | मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति | दुष्यंत परमार को रास्ते से हटाना | प्रेम तिकोन | लौंगमल दासानी |
3 (एक) | जासूसी उपन्यासकार | तजुर्बा | जहर | रोज पदमसी |
3 (दो) | अशोक प्रभाकर | ईर्ष्या | अपराध विज्ञान का ज्ञान | मुकेश निगम |
4 | विवेक आगाशे | आर्थिक लाभ | शर्त | मुकेश निगम |
5 | रुचिका केजरीवाल | हत्प्राण से पीछा छुड़ाना | अपराधी का चरित्र | दुष्यंत परमार |
6 | पुलिस | दीवानगी, धार्मिक धर्मान्धता | रूटीन पुलिस प्रोसीजर | क्रिमिनल न्यूमैटिक (सिरफिरा) |
ने भी जिन विशिष्ट बातों पर जोर दिया, उनमें उनके मिजाज की, उनकी ट्रेनिंग की, उनकी लाइन ऑफ बिजनेस की परछाई जरूर थी । इसी प्रकार हर वक्ता का अपने पसन्दीदा मुजरिम के खिलाफ अपना केस खड़ा करने का अन्दाज जुदा था । किसी ने इस काम की खातिर दौड़-धूप की जहमत उठायी, किसी ने कागजी कार्यवाही पर जोर रखा तो किसी ने - मसलन मिस्टर आगाशे ने - दोनों तरीकों को अपनाया । लेकिन तरीका किसी ने कोई भी अपनाया, नतीजा हर किसी ने मुख्तलिफ निकाला । यहां तक कि एक ही उपलब्ध जानकारी से एक ही स्थापित तथ्य से कई-कई नतीजे निकाले गये ।”
“कोई मिसाल ?” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“मैं अभी पेश करता हूं । आप जासूसी उपन्यासकार हैं, आपके लिये वो मिसाल विशेषरूप से रोचक सिद्ध होगी ।”
“वो कैसे ?”
“देखिये, जासूसी उपन्यासों में ये धारणा आम पेश की जाती है कि किसी एक तथ्य से एक ही नतीजा निकाला जा सकता है और वो ही दुरुस्त नतीजा होता है और उस दुरुस्त नतीजे को सिवाय आप के जासूस के दूसरा कोई नहीं भांप सकता । उपन्यास के बाकी चरित्र पड़े अटकलें लगाते रहें लेकिन नतीजा वही दुरूस्त होगा जो आपका जासूस निकालेगा और जो एक ही होगा । मेरी इस बात से मिलती-जुलती एक बात मिस केजरीवाल ने सोमवार को ‘हां’ और ‘न’ की दो पर्चियो के सन्दर्भ में कही थी ।”
रुचिका ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब मैं आपको बताता हूं कि क्राइम क्लब की बैठकों में चली केस की डिसकशंस में कैसे एक ही बात से, एक ही उपलब्ध तथ्य से, अनेक नतीजे निकले गये । मैं आपका ध्यान सोराबजी एण्ड संस के उस एक्सक्लूसिव लेटरहैड की तरफ आकर्षित करना चाहता हूं जिस पर टंकित एक चिट्ठी चाकलेटों वाले पार्सल में से निकली थी । उस लेटरहैड की एक शीट से पूरे छ: नतीजे निकाले गये । सुनिये कौन-कौन से ।
1. अपराधी सोराबजी एण्ड संस का वर्तमान या भूतपूर्व कर्मचारी था ।
2. अपराधी का सोराबजी एण्ड संस में फिक्स्ड डिपाजिट था ।
3. अपराधी प्रिंटिंग प्रैस चलाता था या उसकी किसी प्रिंटिंग प्रैस तक पहुंच थी ।
4. अपराधी कोई वकील था जिसके किसी केस के जरिये सोराबजी एण्ड संस से ताल्लुकात थे और मैनेजिंग डायरेक्टर सोराबजी के आफिस में जिसका आना-जाना था ।
5. अपराधी सोराबजी एण्ड संस के किसी भूतपूर्व कर्मचारी का कोई सगा-सम्बन्धी था ।
6. अपराधी प्रिंट आर्ट नाम की स्टेशनरी की दुकान का सम्मानित ग्राहक था ।
आप नोट करेंगे कि ये छ: नतीजे सोमवार से लेकर कल तक हमारे विभिन्न वक्ताओं ने एक इकलौते लेटरहैड से समय-समय पर निकाले और सब एक-दूसरे की काट करते दिखाई देते हैं ।”
“बहुत बढिया !” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“मैंने सिर्फ लेटरहैड की मिसाल दी है ।” - अभिजीत घोष तनिक शर्माता हुआ बोला - “जबकि केस में यही अहम दर्जा रखने वाले और भी सूत्र उपलब्ध हैं । जैसे टाइपराइटर, जहर, हर चाकलेट में उसकी निश्चित मिकदार, पोस्टमार्क वगैरह । इन तमाम सूत्रों से भी आधी-आधी दर्जन नतीजे निकाले गये । और इन्हीं बेशुमार नतीजों में से हर किसी ने अपनी पसन्द का अपराधी चुना ।”
“और आपका इत्तफाक” - आगाशे बोला - “किसी भी मेम्बर के चुनाव से नहीं ?”
“जी हां । इसीलिये मैंने कल आप से प्रार्थना की थी कि आप पुलिस के पास जाना चौबीस घण्टों के लिये मुल्तवी कर दें ।”
“यानी कि आपकी निगाह में अभी कोई और ही अपराधी है ?”
“जी हां ।”
आगाशे के चेहरे पर अविश्वास के भाव आये ।
“कौन ?” - वो बोला ।
“मैं तरतीब से बताता हूं ।” - घोष बोला ।
“कैसे भी बताइये । हम सुन रहे हैं ।”
“थैंक्यू । पहले मैं उस थ्योरी का हलका-सा जिक्र करना चाहता हूं जिसके अन्तर्गत कल शाम मिस रुचिका केजरीवाल ने दुष्यन्त परमार को अपराधी साबित करके दिखाया था । मिस केजरीवाल की शानदार थ्योरी की तमाम खूबियों को कबूल करते हुए मैं ये कहना चाहता हूं कि परमार को अपराधी करार देने के लिये इनके पास जो दो प्रमुख कारण हैं, वो ये हैं कि एक तो जैसा चरित्र मिस केजरीवाल ने अपनी थ्योरी में अपने अपराधी का निर्धारित किया था, दुष्यन्त परमार ऐन वैसे ही चरित्र का आदमी था । दूसरे ये कि दुष्यन्त परमार के अंजना निगम से ताल्लुकात स्थापित होते थे और इन ताल्लुकात का मिस केजरीवाल ने अपनी थ्योरी में ऐसा खाका खींचा था कि परमार का अंजना निगम से पीछा छुड़ाने के लिये उसके कत्ल के बारे में सोचना बहुत स्वाभाविक लगता था ।”
“आप टाइपराइटर के बारे में क्या कहते हैं” - छाया प्रजापति बोली - “जो कि परमार के खिलाफ अकाट्य सबूत है ?”
“मैं वहीं पहुंच रहा था” - अभिजीत घोष तनिक हड़बड़ा कर बोला - “लेकिन पहले मैं एक और बात का जिक्र करना चाहता हूं जिसे कि मिस केजरीवाल दुष्यन्त परमार के खिलाफ महत्वपूर्ण सबूत मानती हैं और जिसके लिये इन्होंने कल यहां बहुत वाहवाही हासिल की थी । ये कहती हैं कि प्रिंट आर्ट की सेल्सगर्ल सुनीता सूद ने इनकी दिखाई न केवल परमार की तस्वीर पहचानी थी बल्कि नाम लेकर उसकी शिनाख्त की थी । इस सन्दर्भ में मेरा सवाल ये है कि क्या उस सेल्सगर्ल ने परमार को अपनी स्पैशल फाइल से सोराबजी एण्ड संस का लेटरहैड चुराते भी देखा था ? जाहिर है कि नहीं देखा था । देखा होता तो क्या वो उसे यूं चोरी करने देती ? तो फिर तस्वीर की शिनाख्त से क्या साबित हुआ ? मैं कहता हूं कुछ भी नहीं ।”
“क्यों कुछ भी नहीं ?” - रुचिका केजरीवाल भड़ककर बोली - “इससे ये साबित हुआ कि वारदात के दिन से पहले वो एक बार वहां गया था और हालात का इशारा यही है कि वो वहां से लेटरहैड चुराने गया था ।”
“नहीं है हालात का ये इशारा ।” - अभिजीत घोष पहली बार तनिक जिदभरे स्वर में बोला - “आपको, सिर्फ आपको, लगता है ऐसा और ये कथित हालात का इशारा आप जबरन हमारे सिर थोपना चाहती हैं क्योंकि परमार को अपराधी साबित करती आपकी थ्योरी पर ये फिट बैठता है ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि परमार वहां नहीं गया था ?”
“बिल्कुल नहीं । वो जरूर वहां गया होगा ? आप कहती हैं वो एक बार वहां गया था । मैं कहता हूं वो एक सौ एक बार वहां गया था । और अभी फिर भी जायेगा ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो अपनी स्टेशनरी की तमाम जरूरतें प्रिंट आर्ट से पूरी करता है । वो पिछले पांच साल से प्रिंट आर्ट का रेगुलर कस्टमर है । इसीलिये सुनीता सूद ने निसंकोच उसकी तस्वीर पहचानी थी और बाई नेम उसकी शिनाख्त की थी । बढिया कम्पनियों की मुस्तैद सेल्स गर्ल्स अपने स्टेडी कस्टमर्स को बाई नेम याद रखती ही हैं । मिस केजरीवाल, आप शिनाख्त से ही खुश होकर वहां से लौट न आयी होतीं, आपने सेल्सगर्ल से ये सवाल भी किया होता कि पिछली बार वो शख्स, जिसकी कि वो शिनाख्त कर रही थी, किसलिये वहां आया था तो वो आपको बताती कि वो अपना नाम-पता छपे वो लिफाफे वहां कलेक्ट करने आया था जिनका एक हफ्ता पहले खुद वहां जाकर उसने आर्डर दिया था ?”
रुचिका ने जोर से थूक निगली ।
“इस बाबत कल छाया जी परमार को सन्देहलाभ देने के लिये इसलिये तैयार थीं क्योंकि किसी चीज का किसी के अधिकार में होना स्थापित कर देने से ही ये स्थापित नहीं हो जाता कि उसने उस चीज को इस्तेमाल भी किया था ? इस सन्दर्भ में मेरा ये कहना है कि वास्तव में तो आप लेटरहैड का परमार के अधिकार में होना स्थापित कर ही नहीं सकी थीं । वो तो छाया जी के सन्देहलाभ का तलबगार ही नहीं ।”
रुचिका चुप रही ।
“अब हौजर-707 साइन पैन की सुनिये जो कि आप कहती हैं कि आप ने परमार के घर में उसकी राइटिंग-टेबल पर पड़ा देखा था । इसकी बाबत मैं ये कहना चाहता हूं कि उस पैन को या उसकी स्याही को किसी सबूत का दर्जा देना या उसे अपराधी पर लागू होने वाले किन्हीं शर्तों में शामिल करना ही नादानी है । मैं ये बात बिल्कुल कबूल नहीं कर सकता कि रैपर की लिखावट देख कर ये बताया जा सकता हो कि वो कौन-सी स्याही से, कौन-से पैन से लिखी गई थी । कैमिकल अनैलेसिस से ये बता पाना शायद मुमकिन हो कि स्याही कौन से रंग की है और उसमें और कौन-सा खास द्रव्य शामिल है लेकिन ऐसे अनैलेसिस के लिये सैम्पल का प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होना जरूरी है । रैपर पर लिखे तेरह शब्दों को सैम्पल की प्रचुर मात्रा का दर्जा नहीं दिया जा सकता । दिया जा भी सकता हो तो वो सैम्पल तो सलामत है । वो रैपर अभी भी सुरक्षित पुलिस के अधिकार में है । उसके पता लिखे टुकड़े को किसी कैमिकल में घोलकर अनैलेसिस के लिये प्रयुक्त किया गया होता तो पीछे तो कुछ न बचा होता ! मेरा ये कहना है कि इस बाबत लेखक महोदय ने ये बेपर की उड़ाई है कि रैपर पर पता फलां पैन से या फलां स्याही से लिखा गया था । ऐसा इन्होंने अपनी फर्जी थ्योरी को ज्यादा ड्रामेटाइज करने के लिये, उसे और विश्वसनीय बनाने के लिये कहा था । इनकी जेब में हौजर-707 साइन पैन है और ये उसमें हौजर हाईंटैक प्वायन्ट इंक भरते हैं तो इन्होंने इन दोनों चीजों का नाम ले दिया । इनकी जेब में पार्कर का पैन होता और ये उसमें चेलपार्क इंक भरते होते तो ये ये साबित करके दिखा देते कि रैपर पर पता पार्कर के पैन से उसमें भरी गयी चेलपार्क नाम की काले रंग की स्याही से लिखा गया था । क्यों, प्रभाकर साहब ?”
अशोक प्रभाकर की आंखें आधी मुंद गयीं और वो बड़ी धूर्तता से हंसा ।
अब सभापति आगाशे के चेहरे पर अभिजीत घोष के प्रति पहले जैसे उदासीनता के भाव बाकी नहीं थे । अब वो सम्भल कर बैठ गया था और बड़े गौर से उसकी जुबान से निकले हर शब्द को सुन रहा था ।
“लेकिन” - छाया बोली - “रुचिका कहती है कि परमार के घर में एक हौजर- 707 पैन मौजूद था !”
“वो या महज इत्तफाक था” - अभिजीत घोष बोला “या....”
“या क्या ?”
“या फिर वो वहां प्लांट किया गया था ।”
“क्या ?”
“विषविज्ञान विश्वकोष और मर्डर्स बाई प्वायजन नामक उन दो पुस्तकों की तरह जो कि मिस केजरीवाल कहती हैं कि उनकी मिल्कियत थीं लेकिन जो उन्होंने परमार के घर में मौजूद पायी थीं । मैं तो इसे भी कोई बड़ी बात नहीं समझूंगा कि उन दोनों पुस्तकों की अपने घर में मौजूदगी की अभी दुष्यन्त परमार को कोई खबर तक न हो । हमारे सभापति महोदय कल पुलिस के पास चले जाते तो परमार के यहां पुलिस ही पहुंचती तो परमार को उन पुस्तकों की वहां मौजूदगी की खबर लगती ।”
“आपका कहना है” - आगाशे बोला - “कि वो पुस्तकें रुचिका के होस्टल के कमरे में से परमार ने नहीं चुराई ?”
“नहीं चुराई ।”
“तो फिर किसने चुराई ?”
“हत्यारी ने ।”
“हत्यारी ने ? आपका चुन्दीदा मुजरिम कोई औरत है ?”
“जी हां ।”
“कौन ?”
“सोचिये ।”
“मिस्टर घोष” - रुचिका भुनभुनायी हुई बोली - “आप ये कहना चाहते हैं कि मैं परमार की मेरी गैरहाजिरी में मेरे होस्टल के कमरे में आमद की बाबत झूठ बोल रही हूं ?”
“नहीं । आप ऐसा लचर झूठ क्यों बोलेंगी ? खास तौर से तब जब कि आप अपनी रूममेट की सूरत में उस विजिट का एक गवाह भी पेश कर सकती हैं !”
“तो फिर ?”
“मेरा ये कहना है कि वो किताबें उसने वहां से नहीं चुराईं ।”
“तो फिर वो वहां आया क्या करने था ?”
“ये मैं आगे बताऊंगा जबकि मैं उसके हत्यारी से ताल्लुकात स्पष्ट करूंगा । अभी मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि टाइपराइटर के अलावा कल आप के द्वारा दुष्यन्त परमार के खिलाफ कही गयी तमाम बातें उथली और भ्रामक हैं । दुष्यन्त परमार के खिलाफ आपके केस का मुकम्मल दारोमदार टाइपराइटर पर है जिसे कि आप ठोस सबूत बताती हैं - बिल्कुल वैसे ही जैसे मिस्टर आगाशे के मुकेश निगम के खिलाफ केस का मुकम्मल दारोमदार शर्त पर था जो कि ये समझते थे कि लगी ही नहीं थी ।”
“टाइपराइटर वाले सबूत से” - छाया प्रजापति बोली - “नहीं पार पा पायेंगे आप ।”
“मैडम” - अभिजीत घोष आहत भाव बोला - “पार पाने जैसी कोई कोशिश तो मेरी है ही नहीं । आपके ऐसा कहने से तो यू लगता है जैसे मैं महज एक मजाक के तौर पर मिस केजरीवाल की थ्योरी में नुक्स निकालने की कोशिश कर रहा हूं, जैसे मेरी इस कोशिश की बुनियाद शरारत या अदावत है । ऐसा तो नहीं है । मैं तो वही कुछ कर रहा हूं जो मेरे से पहले क्लब के बाकी मेम्बरान कर चुके हैं । मैं तो असली अपराधी का पता लगाने की एक नाचीज कोशिश कर रहा हूं ।”
“हम आपकी कोशिश की कद्र करते हैं ।” - आगाशे बोला - “बहरहाल बात टाइपराइटर की हो रही थी ।”
“जी हां । और मैं ये अर्ज कर रहा था कि टाइपराइटर परमार के खिलाफ उतना ठोस सबूत नहीं है जितना कि ये समझा जा रहा है । वो सबूत ही नहीं है ।”
“क्या !”
“जी हां ।”
“लेकिन कैसे ?”
“मामूली बात है । हैरानी है कि किसी को नहीं सूझी !”
“पहेलियां न बुझाइये, मिस्टर घोष ।”
“कोई पहेली है ही नहीं, जनाब । मेरे सामने तो सारी बात शुरू से ही दिन की तरह स्पष्ट थी । यहां मैं पहले ये कहना चाहता हूं कि मेरी तुच्छ राय से मुजरिम की काबलियत की बाबत हमारे सभापति महोदय का कथन सही था और मिस केजरीवाल का कथन गलत था । सभापति महोदय ने अपने बयान में मुजरिक को एक आलादिमाग, शातिर मुजरिम करार दिया था जबकि मिस केजरीवाल की राय में अपराधी या उसकी प्लानिंग इतनी तारीफ के काबिल नहीं थी । मुजरिम के हकीकत में आलादिमाग और शातिर होने का यही पर्याप्त सबूत है कि उसने तमाम उपलब्ध सबूतों को इस ढंग से सजाकर पेश किया कि उनके आधार पर अगर किसी पर शक किया जाता तो वो बद्किस्मत इंसान दुष्यन्त परमार ही होता । हर सबूत उस पर चस्पां किया गया, उसके खिलाफ प्लांट किया गया ।”
“मिस्टर घोष” - छाया प्रजापति बोली - “फॉर गॉड सेक, कम टु दि टाइपराइटर ।”
“बट हैवंट आई आलरेडी कम, मैडम ?” - अभिजीत घोष हड़बड़ा कर बोला - “जब मैं सबूतों का जिक्र ‘तमाम सबूत’ कह कर कर रहा हूं तो क्या टाइपराइटर भी इनमें शामिल नहीं ?”
“आपका मतलब है वो सबूत भी फर्जी है ?”
“गढा हुआ है ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“रिग्ड ?” - दासानी बोला ।
“परमार के सिर थोपा गया है ?” - आगाशे बोला ।
“जी हां ।” - अभिजीत घोष ने चारों सवालों का एक ही जवाब दिया ।
“कैसे ?” - आगाशे बोला ।
“बहुत आसान तरीके से ।” - अभिजीत घोष बोला - “जाहिर है कि हत्यारी की परमार के हाउसहोल्ड में पहुंच थी । अब जिस मुजरिम को हौजर-707 साइन पैन, विषविज्ञान विश्वकोष नामक ग्रन्थ और मर्डर्स बाई प्वायजन नामक पुस्तक उस घर में प्लान्ट कर आने की सलाहियात हासिल थीं, वो क्या वहां पड़े टाइपराइटर पर पार्सल के पत्ते की चार सतरें टाइप करके नहीं ला सकती थी ? पहले रैपर पर और फिर मिसाल के लिये नमूना पेश करने के लिये सादे कागज पर !”
सब चौंके । सब सीधे होकर बैठ गये । सब ने नये सम्मान के साथ अभिजीत घोष को देखा । अब उन्हें अहसास होने लगा कि अपनी बारी पर बोलने की जिद करके वक्त बरबाद करने का अभिजीत घोष का कोई इरादा नहीं था ।
“मिस्टर घोष” - फिर अशोक प्रभाकर बोला - “दम तो है आपकी बात में !”
“अब” - आगाशे बोला - “आगे आपका ये दावा तो नहीं कि आप ये भी जानते हैं कि ये सब कुछ किसने किया ?”
“जानता तो हूं ।” - अभिजीत घोष धीरे से बोला ।
“क्या ?”
“जानता हूं, जनाब । और एक तरह से आप ही लोगों के बताये जानता हूं । एक नहीं, दो नहीं, पूरी पांच इतनी शानदार थ्योरियों को सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त न हुआ होता तो अपनी बारी आने पर मुझे खेद प्रकाश ही करना पड़ता । मिस केजरीवाल को याद हो तो मैंने इस सिलसिले की शुरूआत में कहा था कि मुझे तो पता भी नहीं था कि प्रैक्टीकल इनवैस्टिगेशन कैसे होती थी ! यानी कि जैसी दौड़धूप बाकी मेम्बरान ने की, वैसी अगर मुझे करनी पड़ती तो मेरे हाथ तो कुछ भी न लगता । मेरी बारी आखिरी होने की वजह से अब तो एक तरह से मुझे पकीपकाई मिल गयी । अब तो मैंने तमाम उपलब्ध थ्योरियों के सच और झूठ को एक छलनी में डालना था और छलनी को तब तक चलाते रहना था जब तक कि सारा झूठ छन न जाता और सिर्फ सच छलनी में न रह जाता । साहबान, असलियत जानने के लिये मैं तो एक छलनी की तरह इस्तेमाल में आया था, छनने के लिये जो कुछ था वो तो आप लोगों का माल था । तफ्तीश के लिए मिला जो एक हफ्ता आप साहबान ने इतनी आला थ्योरियां तैयार करने में सर्फ किया वो मैंने हाथ पर हाथ रखे बैठकर इसी फिक्र में गुजारा कि मैं अपनी बारी आने पर अपनी कमतरी कबूल करके अपनी नाक कटने से कैसे बचाऊंगा ! हफ्ता गुजर गया । आप साहबान ने अपनी दौड़ मुकम्मल भी कर ली थी और मैं अभी स्टार्टिंग लाइन पर खड़ा था । यही वजह है कि जब दासानी साहब ने अपनी थ्योरी पेश की तो मुझे पूरा यकीन हो गया कि अपराधी पार्वती परमार थी । अगले ही रोज मुझे छाया जी ने भी यकीन दिला दिया कि मुजरिम दासानी साहब थे । मिस्टर प्रभाकर ने खुद को अपराधी साबित करती जो थ्योरी प्रस्तुत की थी, उस पर मुझे एतबार नहीं आया था लेकिन इनकी दलीलों से मैं इतना प्रभावित हुआ था कि अगर ये अपने सिवाय किसी और का नाम लेते तो मैं बेहिचक उसे अपराधी कबूल कर लेता । लेकिन इनकी तिरस्कृत प्रेमिका वाली थ्योरी मुझे बहुत दमदार लगी थी । यही एक इकलौता आइडिया था जो शुरू से ही मेरे भी जेहन में था । मेरी शुरू से ही ये मान्यता थी कि ये कत्ल दुष्यन्त परमार की किसी तिरस्कृत प्रेमिका का काम था । लेकिन उससे अगले रोज जब फिर हमारे सभापति महोदय मिस्टर आगाशे की बारी आयी तो इन्होंने साबित कर दिखाया कि अपराधी कोई तिरस्कृत प्रेमिका नहीं, मुकेश निगम था और मुझे इनकी थ्योरी विश्वास के काबिल लगने लगी ।”
“यानी कि” - रुचिका केजरीवाल बोली - “सिर्फ मेरी ही थ्योरी आपको विश्वास के काबिल नहीं लगी ?”
“मैं बहुत संकोच से ऐसा कह रहा हूं, मिस केजरीवाल लेकिन असल में बात ये ही है ।”
“आई सी ।” - रुचिका शुष्क स्वर में बोली ।
“लेकिन गौरतलब, काबिलेजिक्र और काबिलेतारीफ बात ये है कि कैसे किसी-न-किसी तरीके से किसी-न-किसी रास्ते से हर कोई हकीकत के किसी-न-किसी पहलू तक पहुंचा । हमारे माननीय वक्ताओं में से हर किसी ने कम-से-कम एक महत्वपूर्ण तथ्य तक जरूर पहुंचकर दिखाया, कम से कम एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष जरूर सही-सही निकाला । आपकी जानकारी के लिये मैं सोमवार के बाद से ही मीटिंग के बाद हर रोज घर जाकर मीटिंग की मुकम्मल कार्यवाही को कागज पर उतारता था और उसकी हाईलाइट्स को अलग नोट करता था । यूं यहां जो कुछ भी कहा गया था, उसका पूरा रिकार्ड मेरे पास उपलब्ध है ।”
“वैरी गुड !” - आगाशे बोला - “इस बात से प्रेरणा लेकर मैं प्रस्तावित करता हूं कि भविष्य में क्राइम क्लब की मुकम्मल कार्यवाही को टेपरिकार्डर पर टेप किया जाये ।”
सब ने उस प्रस्ताव का अनुमोदन किया ।
“बहरहाल” - अभिजीत घोष बोला - “कल सारी रात में अपने उन नोट्स को ले के बैठा रहा और सच और झूठ को छान कर अलग करने की कोशिश करता रहा । लेडीज एण्ड जेन्टलमैन, मुझे खुशी है कि मैं अपनी कोशिश में कामयाब रहा ।”
“किसका क्या कहा सही लगा आपको ?” - आगाशे बोला ।
“सुनिये । दासानी साहब ने ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज की थी कि पार्सल के साथ आयी चिट्ठी लेटरहैड से एक इबारत मिटाकर उसकी जगह दूसरी इबारत टाइप करके बनायी गयी थी । यानी कि उस लेटरहैड की जो खासियत पुलिस को या हममें से किसी को भी नहीं दिखाई दी थी, वो दासानी साहब को दिखाई दी थी । बात इनकी दुष्यन्त परमार के अपनी बीवी से तलाक सम्बन्धी भी महत्वपूर्ण थी लेकिन उस बात से इन्होंने जो नतीजा निकाला था, वो दुरुस्त नहीं था । कर्टसी मिस रुचिका केजरीवाल, ये पार्वती परमार को अपराधी नहीं साबित कर पाये थे । मिस केजरीवाल की लखनऊ में मौजूदगी की वजह से ये पार्वती परमार की दिल्ली में मौजूदगी नहीं स्थापित कर पाये थे । हमारी माननीया सदस्या मिस केजरीवाल ही पार्वती परमार की एलीबाई निकल आयी थीं कि दिल्ली में चाकलेटों वाला पार्सल पोस्ट किये जाने के समय के आस-पास तो पार्वती परमार मिस केजरीवाल के साथ लखनऊ में गोमती के किनारे शहीद स्मारक के सामने खड़ी थी ।”
“दैट्स ए फैक्ट ।” - रुचिका बोली ।
“मिसेज छाया प्रजापति ने” - रुचिका की बात की ओर ध्यान दिये बिना अभिजीत घोष बोलता रहा - “अपनी बारी पर जो मार्कें की बातें हमें बताई, उनमें से एक तो ये थी कि अपराधी या तो कोई क्रिमिनालोजिस्ट था या अपराध से दो चार होना जिसके कारोबार का अंग था । ये बात मैडम ने शत-प्रतिशत सच कही । अपराध से दो चार होना मेरी अपराधिनी की नौकरी का हिस्सा है । दूसरे इन्होंने भी प्रेम तिकोन पर जोर दिया लेकिन उसमें मार्के की बात ये थी कि इन्होंने ये समझाया कि दुष्यन्त परमार को विभा दासानी से कोई मुहब्बत नहीं थी । वो तो बाप की दौलत हथियाने के लिये बेटी से शादी करना चाहता था । ये बात भी मैडम ने सौ फीसदी सच कही । क्योंकि अगर ऐसा न होता - अगर दुष्यन्त परमार को सच में विभा दासानी से मुहब्बत होती - तो फिर अंजना निगम की जगह विभा दासानी का कत्ल हुआ होता ।”
“ओह माई गाड !” - दासानी के मुंह से निकला ।
“यहां तो” - अशोक प्रभाकर बोला - “फिर तिरस्कृत प्रेमिका वाली थ्योरी सिर उठा रही है ।”
“जो कि खुद आपकी थ्योरी की स्टार अट्रैक्शन थी ।” - अभिजीत घोष बोला - “मिस्टर प्रभाकर, मैं एक बात की आपको बधाई देना चाहता हूं कि मेरी राय में केस के असली हल के सबसे करीब सिर्फ आप पहुंचे थे । आपने खुद अपने खिलाफ जो केस गढा था, उसके भी कुछ नतीजे चौंका देने वाले थे । जैसे नाइट्रोबेंजीन के इस्तेमाल से निकाले गये आपके नतीजे कि अपराधी को आदतन नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द होना चाहिये - जो कि आधुनिक, नौजवान लड़कियां होती ही हैं । कि अपराधी को रचनात्मक मस्तिष्क का स्वामी और हर कार्य को योजनाबद्ध तरीके से करद का आदी होना चाहिए । अब अपराध से दो चार होना जिस आधुनिक नौजवान युवती की नौकरी का हिस्सा होगा, उसकी कल्पना हम रचनात्मक मस्तिष्क की स्वामिनी के रूप में तो कर सकते हैं, उससे हम ये भी अपेक्षा कर सकते हैं कि वो हर कार्य को योजनाबद्ध तरीके से करने की आदी होगी । लेकिन जो सबसे दूर की कौड़ी आप लाये, मिस्टर प्रभाकर, वो ये थी कि अपराधी को विषविज्ञान विश्वकोष की एक प्रति उपलब्ध होनी चाहिये थी ।”
“शुक्रिया ।”
“अब जबकि आप कबूल कर ही चुके हैं कि हौजर-707 साइन पैन और हौजर हाईंटैक प्वायन्ट इंक सम्बन्धी अपनी शर्त नम्बर सात और आठ में आपने बेपर की उड़ाई थी तो मैं निसंकोच कह सकता हूं कि आपकी छटी शर्त के अलावा मुझे आपकी बाकी तमाम शर्तों से इत्तफाक है । पैन वाली बात बेपर की न भी हो तो भी वो किसी काम की नहीं । पैन तो लोग डाकखाने में, रेलवे स्टेशन पर, कमेटी के दफ्तर में, कहीं भी चार अक्षर लिखने के लिये नितान्त अजनबी से उधार मांग लेते हैं । पैन की तो बिसात ही क्या है, मेरी अपराधिनी ने तो टाइपराइटर पराये से काम चलाया है ।”
“छटी शर्त से आपको क्या नाइत्तफाकी है ?” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“मुझे ये बात कबूल नहीं कि पार्सल पोस्ट करने के लिये अपराधी को खुद सवा एक और पौने तीन के बीच में जनपथ पर मौजूद होना चाहिये था । जनपथ तो क्या, उसका दिल्ली में भी मौजूद होना जरूरी नहीं ।”
“यानी कि ये काम उसने किसी से करवाया ?”
“जी हां ।”
“लेकिन यहां आम राय तो ये है कि अपराधी ने अपना ऐसा कोई अकम्पलीस, ऐसा कोई जोड़ीदार खड़ा करने से परहेज किया होगा !”
“जोड़ीदार ऐसा हो जो बाद में किसी के सम्पर्क में न आने वाला हो, जो बाद में दिल्ली से इतना दूर निकल जाने वाला हो कि उसे खुद ये खबर न लगने वाली हो कि उसके द्वारा पोस्ट किये गये पार्सल ने क्या कहर ढाया था तो ऐसा जोड़ीदार पालने का खतरा अपराधी को कबूल हो सकता है ।”
“आई सी ।”
“आपकी दूसरी थ्योरी का एक नतीजा तो यूं समझिये कि ऐन सच के सिर पर ही आन धमका था । वो नतीजा ये था कि अपराधी कोई स्त्री थी, क्राइम का सारा पैट्रन स्त्रीसुलभ था, हत्यारी कोई तिरस्कृत प्रेमिका थी जिसका अपराधशास्त्र में गहरा रुझान था और हत्या का उद्देश्य ईर्ष्या था ।”
“यानी कि” - अशोक प्रभाकर मन्त्रमुग्ध-सा बोला - “हत्यारी के नाम के अलावा मैंने सब कुछ ठीक कहा ?”
“जी हां । और इस लिहाज से आप मुबारकबाद के पूरे-पूरे हकदार हैं ।”
“शुक्रिया । शुक्रिया ।”
“अब हम अपने सभापति महोदय की थ्योरी पर आते हैं ।”
“यानी कि” - आगाशे बोला - “मेरी थ्योरी की भी कोई बात आपको किसी काबिल लगी ?”
“आपने तो जनाब, केस के असली हल की मुकम्मल बुनियाद तजवीज की ।”
“अच्छा !”
“जी हां । सबसे करामाती बात तो आप ही ने सुझायी थी कि अपराधी की योजना बैकफायर नहीं कर गयी थी । वो अपने मिशन में फेल नहीं हुआ था । गलत आदमी नहीं मारा गया था । उसकी योजना सौ फीसदी कामयाब रही थी । कत्ल उसी का हुआ था जिसका कि वो करना चाहता था ।”
“यानी कि आप भी यही समझते हैं कि अपराधी का निशाना अंजना निगम ही थी ?”
“जी हां । मैं भी ये ही समझता हूं लेकिन संशोधन के साथ ।”
“ओह ! तो दूध में मक्खी यहां भी है ।”
“जी !”
“कुछ नहीं । क्या है आपका संशोधन ?”
“ये कि अपराधी का निशाना सिर्फ अंजना निगम नहीं, अंजना निगम और दुष्यन्त परमार दोनों थे ।”
“दोनों ?”
“जी हां । आप सच के बहुत करीब पहुंच गये थे, मिस्टर आगाशे, आप से सिर्फ ये चूक हुई कि आपने ईर्ष्या की मारी पूर्वप्रेमिका की तरफ तवज्जो देने की जगह ईर्ष्या के मारे पति की तरफ तवज्जो दी और उसी को खलनायक साबित करने पर पूरा जोर रखा । आपने एक बार भी बतौर अपराधी ईर्ष्या की मारी पूर्वप्रेमिका की सम्भावना पर विचार किया होता तो आपने तो केस हल कर भी लिया था ।”
“जानकर खुशी हुई ।”
“अब मैं मिस रुचिका केजरीवाल की थ्योरी पर आता हूं ।”
“क्या फायदा !” - रुचिका बोली - “जबकि आप पहले ही घोषित कर चुके हैं कि सिर्फ मेरी ही थ्योरी आपको विश्वास के काबिल नहीं लगी ।”
“लेकिन मेरे ज्ञानचक्षु आप ही के बयान से खुले । बावजूद इसके कि मैं आपकी थ्योरी से आश्वस्त नहीं हो पाया था, सत्यदर्शन मुझे आप ही की बातों से हुआ था ।”
“अच्छा ! ऐसी कौन-सी बात कह दी थी मैंने ?”
“रुचिका जी, आपने - सिर्फ आपने - हमें दुष्यन्त परमार और अंजना निगम के अत्यन्त गोपनीय अफेयर की खबर की थी और ये बात यूं समझ लीजिये कि वो चाबी है जिसने कि हमारी मर्डर मिस्ट्री के मुंह पर बन्द तमाम दरवाजों के ताले खोल डाले ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि ऐसी करामाती चाबी से मैं कोई ताला न खोल सकी ! मैंने इसे जहां भी लगाया, गलत लगाया !”
“तकरीबन ।”
“आई डोंट एग्री । मेरा अब भी यही कहना है कि मैंने जो भी नतीजे निकाले, ठीक निकाले ।”
“आप से पहले के वक्ताओं में से भी हर किसी का ये ही कहना था ।”
“आप मेरी छोड़िये” - रुचिका झुंझलाकर बोली - “अपनी कहिये, क्या कहना चाहते हैं ।”
“मैं ये कहना चाहता हूं कि आपका बतौर पति-पत्नी मुकेश निगम और अंजना निगम के सम्बन्धों का विश्लेषण बहुत उम्दा था । अंजना निगम जैसी एक शादीशुदा औरत के अवैध प्रेम सम्बन्ध की भी आपने बहुत खूबसूरत व्याख्या अपने श्रोताओं के लिये की ।”
“अभी भी आप मेरी ही बात कर रहे हैं ।”
“अपनी बात तक पहुंचने के लिये आपकी बात का हवाला जरूरी है, मैडम ।”
“ठीक है । मैं सुन रही हूं ।”
“आपने एकदम ठीक कहा था कि कत्ल की बुनियाद अंजना निगम का दुष्यन्त परमार से लव अफेयर नहीं था बल्कि अंजना निगम का अपना खुद का बड़ा पेचीदा कैरेक्टर था । अपने उस कैरेक्टर की वजह से ही उसने अपनी मौत को न्योता था । उस अवैध प्रेम सम्बन्ध के सन्दर्भ में आपने न केवल अंजना निगम के कैरेक्टर को ठीक समझा था बल्कि उसकी परमार को हमेशा के लिये अपना बना लेने की आन्तरिक इच्छा को भी ठीक पहचाना था लेकिन आपका ये ख्याल सर्वदा भ्रान्तिपूर्ण है कि परमार को अंजना निगम से उम्र भर के लिये बंधना नामंजूर था और वो उस घड़ी को कोसता था जबकि उसने अंजना जैसी औरत को अपने आप पर इतना ज्यादा हावी होने दिया था । ऐसा बिल्कुल नहीं था । हकीकत ये है कि परमार अंजना निगम पर दिलोजान से फिदा था । उतनी अंजना उसकी दीवानी नहीं थी जितना कि वो अंजना का दीवाना था । और, लेडीज एण्ड जन्टलमैन, यहीं इस ट्रेजेडी का निर्णायक पहलू था ।”
कोई कुछ न बोला । लेकिन इतना अब साफ दिखाई दे रहा था कि अब हर कोई अभिजीत घोष की हर धारणा, को हर तर्क को बहुत गम्भीरता से ले रहा था । रुचिका की थ्योरी पर से अभी उनकी निष्ठा नहीं घटी मालूम होती थी लेकिन अब माहौल ऐसा बन गया था कि ऐसा हो जाता तो कोई हैरानी की बात न होती ।
“मिस केजरीवाल की” - अभिजीत घोष महफिल में एकाएक हो उठी अपनी पूछ से मन-ही-मन आनन्दित होता हुआ बोला - “कही एक और बात से भी मैं पूरी तरह से सहमत हूं । वो ये कि हत्यारी को हत्या की तरकीब ‘मर्डर्स बाई प्वायजन’ नामक उस पुस्तक से सूझी थी जिसकी एक प्रति मिस केजरीवाल के पास थी लेकिन जो अब ‘हत्यारी के सौजन्य से’ दुष्यन्त परमार के घर में प्लांट हो चुकी है । दूसरी करामाती बात इन्होंने ये बताई किे वारदात वाले दिन की सुबह मुकेश निगम की हाजिरी शिवालिक क्लब में जरूर लगे, इसका बाकायदा षड्यन्त्र रचा गया था । लेकिन इस षड्यन्त्र के तहत सलमा शाह बन कर मुकेश निगम को फोन अंजना निगम ने नहीं किया था । न ही मुकेश निगम को शिवालिक क्लब में हाजिरी के पीछे अपराधी की ये मंशा थी कि वो दुष्यन्त परमार के नाम डाक से वहां पहुंचा जहरभरी चाकलेटों वाला पार्सल परमार से हथियाये । हकीकत ये है कि परमार और अंजना निगम की लंच अप्वायन्टमैंट कैंसल हो गयी थी, इस बात की अपराधी को कोई खबर नहीं थी । असल में मुकेश निगम की शिवालिक क्लब में हाजिरी का इन्तजाम इसलिये और सिर्फ इसलिये किया गया था ताकि इस बात का कोई जिम्मेदार गवाह बन सके कि दुष्यन्त परमार ने डाक से आया चाकलेटों वाला पार्सल रिसीव किया था । इसके पीछे मंशा ये थी कि उन चाकलेटों के सन्दर्भ में दुष्यन्त परमार का नाम मुकेश निगम के जेहन में ऐसा ठुक जाये कि अंजना निगम की मौत के बात जब ये तथ्य सामने आये कि वो मौत कैसे हुई तो पुलिस की तवज्जो भले ही किसी और की तरफ भी चली जाये, मुकेश निगम को शक के काबिल शख्स सिर्फ दुष्यन्त परमार दिखाई दे । हत्यारी की योजनानुसार अगर सब कुछ चलता तो अंजना निगम होटल क्राउन में ही मर गयी होती या हस्पताल जाकर मर गयी होती जहां कि वो होटल क्राउन से बहुत बुरे हाल में पहुंचायी जाती । यूं उनके प्रेम सम्बन्धों का राज फाश हो जाता और ये बात भी आम होती कि कैसे अंजना निगम अपनी मृत्यु को प्राप्त हुई ! ऐसे माहौल में जब दुष्यन्त परमार भी अपने घर में मरा पड़ा पाया जाता तो यही समझा जाता कि हालात से घबरा कर उसने आत्महत्या कर ली थी ।”
“आपका मतलब है कि हत्यारी उसकी यूं हत्या करती कि वो आत्महत्या लगती ?” - आगाशे नेत्र फैला कर बोला ।
“जी हां ।”
“कैसे ?”
“क्या पता कैसे ? वो कत्ल तो हुआ ही नहीं । मुमकिन है वो किसी तरीके से उसे नाइट्रोबेंजीन का ही तगड़ा डोज दे देती और कुछ जहरभरी चाकलेटें उसके इर्द-गिर्द बिखरा देती । बहरहाल इस बात की मेरी गारन्टी है कि हत्यारी की मूलयोजना के अनुसार जान दोनों की ही जानी थी । दुष्यन्त परमार क्योंकि खुद मर गया होता इसलिये अंजना निगम के कत्ल के सन्दर्भ में उसके खिलाफ जो षड्यन्त्र गढा गया था, उसको नकारने के लिये वो मौजूद न होता ।”
“ओह !”
“लेकिन हकीकत में हालात हमेशा वही रुख अख्तियार नहीं करते जिसकी अपेक्षा हत्यारे ने अपनी योजना के अन्तर्गत की हुई होती है । अब यहीं देखिये कितनी गड़बड़ें हुई ! चाकलेटें अंजना तक पहुंचीं तो सही लेकिन वैसे न पहुंची जैसे पहुंचने की हत्यारी ने अपेक्षा की थी । उसे ये न खबर लग सकी कि परमार और अंजना की लंच अप्वायन्टमैंट कैंसल हो गयी थी । यूं अंजना की मौत से वो स्कैन्डल न सिर उठा सका जिसकी वजह से दुष्यन्त परमार की आत्महत्या न्यायोचित लगती । और तो और शर्त वाली अतिरिक्त बात बीच में न आ गयी होती तो चाकलेटें तो अंजना निगम तक पहुंची न होतीं । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, कल मिस केजरीवाल ने कहा था कि अपराधी का ज्यादा साथ उसके आलादिमाग ने नहीं, उसकी आलाकिस्मत ने दिया था । मैं ये कहना चाहता हूं कि हालात ने असल में जो रुख अख्तियार किया उनसे ऐन इससे उलट नतीजा निकलता है । वो नतीजा ये है कि किस्मत ने ही हत्यारी का साथ नहीं दिया वरना अपने दिमाग को तो उसने इनाम के काबिल साबित करके दिखाया था । आप मेरी बात से सहमत हैं, मिस केजरीवाल ?”
रुचिका तनिक हड़बड़ाई, फिर उसने बड़े अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“अब मैं आपका ध्यान” - अभिजीत घोष बोला - “एक ऐसे सवाल की ओर आकर्षित करना चाहता हूं जो किसी के जेहन में नहीं उठा; सिवाय” - उसने आगाशे की तरफ देखा - “हमारे सभापति महोदय के ।”
“कौन-सा सवाल ?” - तत्काल आगाशे उत्सुक भाव से बोला ।
“चाकलेटों का पार्सल दुष्यन्त परमार के घर के पते पर क्यों नहीं भेजा गया ? वो उसके पास क्लब के पते पर क्यों भेजा गया ?”
“क्योंकि” - आगाशे बोला - “वो पहली डाक से डिलीवर होने वाला था और पहली डिलीवरी के वक्त के आस-पास परमार की क्लब में मौजूदगी की गारन्टी होती थी ।”
“जी हां, ये आपका जवाब था ।”
“आप इससे सहमत नहीं ?”
“मैं पूरी तरह से सहमत हूं लेकिन ये जवाब मुकम्मल जवाब नहीं है । दो और वजुहात का इजाफा इसमें होगा तो ये मुकम्मल जवाब बनेगा ।”
“और दो वजुहात कौन सी ?”
“मिस केजरीवाल, आप बताइये ।”
“आप ही बताइये ।” - रुचिका बोली । पता नहीं क्यों एकाएक उसके स्वर में चैलेंज का पुट आ गया था ।
“सुनिये ।” - अभिजीत घोष बड़े इत्मीनान से बोला - “एक तो इसलिये क्योंकि अगर पार्सल परमार के घर के पते पर आता तो उसमें कम्पलीमैंट्री चाकलेटों की मौजूदगी का वहां कोई गवाह न होता जबकि ऐसा एक गवाह क्लब में मुकेश निगम की सूरत में बड़ी मेहनत से, बड़ी चालाकी से स्थापित किया गया था । दूसरे, पार्सल क्लब के पते पर इसलिये भेजा गया था ताकि जब दुष्यन्त परमार अपनी लंच अप्वायन्टमैंट के लिये होटल क्राउन को रवाना होता तो चाकलेटों को वो अपने साथ लेकर जाता । घर पर तो वो पार्सल पीछे ही छूट सकता था । हत्यारी ने परमार की क्लब में हाजिरी को खूब स्टडी किया हुआ था इसलिये वो जानती थी कि क्लब से निकलने के बाद होटल क्राउन के अलावा कहीं और जाने का वक्त उसके पास नहीं उपलब्ध होने वाला था । और यूं पार्सल का होटल क्राउन उसके साथ जाना निश्चित था ।”
“लेकिन” - छाया प्रजापति बोली - “पार्सल तो उसने मुकेश निगम को दे दिया था ।”
“इसलिये दे दिया था क्योंकि लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल हो गयी थी और अब परमार के लिये उन चाकलेटों का कोई इस्तेमाल नहीं रहा था । खुद तो वो चाकलेटें खाता नहीं था । लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल न हुई होती तो अपनी प्रेमिका को भेंटस्वरूप देने के लिये वो उसे बेहतरीन तोहफा लगता । यहां ये बात गौरतलब है कि सीधे नहीं तो मुकेश निगम के जरिये सही, चाकलेटों का तोहफा पहुंचा फिर भी उसकी प्रेमिका के ही पास था । उसके वो पार्सल मुकेश निगम को बेहिचक सौंप देने की ये भी एक वजह हो सकती है ।”
“ओह !” - आगाशे के मुंह से निकला ।
“कहते हैं कि अपराधी कितना भी चालाक क्यों न हो, कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई ऐसी चूक उससे हो ही जाती है जो कि अन्त में उसके पतन का कारण बनती है । यहां हमारी अपराधनी से यही एक चूक हुई कि उसने ये न सोचा कि लंच अप्वायन्टमैंट कैंसल भी हो सकती थी । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, यही एक बात आखिरकार उसका वाटरलू बनी ।”
“अभी कहां बनी ?” - आगाशे बोला ।
“बन ही गयी, जनाब ।” - अभिजीत घोष तनिक नाटकीय स्वर में बोला ।
“है कौन वो, मिस्टर घोष ?” - छाया प्रजापति यूं बोली जैसे सस्पैंस से मरी जा रही हो ।
“मैडम” - अभिजीत घोष मुस्कराया - “जब हर किसी ने अपने अपराधी का नाम आखिर में बताया है तो मुझे क्यों आप अपराधी का नाम इस ड्रामेटिक स्टाइल से बताने से महरूम करना चाहती हैं ।”
“यानी कि अभी आपने और भी बहुत कुछ कहना है ?”
“बहुत कुछ तो नहीं । बहुत कुछ तो मैं कह चुका । तकरीबन मुद्दों पर तो मैं उपस्थित देवियों और सज्जनों का संशयनिवारण कर ही चुका हूं । लेटरहैड के बारे में एक बात मैं और कहना चाहता हूं । दरअसल सोराबजी एण्ड संस का लेटरहैड इसलिये इस्तेमाल किया गया था क्योंकि हत्यारी ने कत्ल का औजार जहरभरी चाकलेटों को बनाना था और सोराबजी एण्ड संस ही इकलौती चाकलेट निर्मात्री फर्म थीं जिसकी स्टेशनरी प्रिंट आर्ट से सप्लाई होती थी ।”
“क्या मतलब ?” - छाया प्रजापति के माथे पर बल पड़े - “मेरे पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ा । क्या कहना चाहते हैं आप ?”
“मैं कोशिश करता हूं समझाने की । देखिये, हत्यारी को इस बात की पहले से खबर थी कि दुष्यन्त परमार अपनी स्टेशनरी के मामले में प्रिंट आर्ट का पक्का ग्राहक था और वहां अक्सर आता-जाता था । अब अगर हत्यारी ने लेटरहैड का चोर परमार को स्थापित करना था तो वे लेटरहैड किसी ऐसी कम्पनी का होना जरूरी था जिसकी स्टेशनरी प्रिंट आर्ट से छपती हो और जिसकी स्टेशनरी के नमूने उसकी सैम्पल फाइल में उपलब्ध हों । तभी तो ये स्थापित किया जा सकता था, जैसे कि अपनी थ्योरी में मिस केजरीवाल ने किया था, कि वहां की सैम्पल फाइल से लेटरहैड परमार ने चोरी किया था ।”
“ओह !”
“यानी कि हम सब” - आगाशे बोला - “लेटरहैड के मामले में तांगे को घोड़े के आगे जोत रहे थे । यानी कि अगर दुष्यन्त परमार का स्टेशनरी सप्लायर कोई और होता तो हत्यारी ये पता लगाती कि वहां कौन-सी चाकलेट बनाने वाली कम्पनी की स्टेशनरी छपती थी । यानी कि उसकी योजना के लिये परमार का और किसी चाकलेट निर्मात्री कम्पनी का एक ही प्रिंटिंग एण्ड स्टेशनरी शॉप का ग्राहक होना जरूरी था ।”
“जी हां ।”
सबके चेहरे पर प्रशंसा के भाव आये ।
सिवाय रुचिका केजरीवाल के चेहरे पर ।
अभिजीत घोष उसकी मास्टरपीस थ्योरी को परत-दर-परत उधेड़ता जो चला जा रहा था ।
“उद्देश्य के बारे में क्या कहते हैं आप ?” - सभापति आगाशे बोला - “आपका इशारा ईर्ष्या की तरफ था लेकिन आपने तफसील से इस बाबत कुछ नहीं कहा । उद्देश्य की बाबत अब क्या कहते हैं आप ?”
“जनाब, मैं ईर्ष्या से ज्यादा बदले पर जोर देना चाहता हूं ।” - अभिजीत घोष बोला - “या दोनों का दखल मान लीजिये । यूं कह लीजिये कि हत्यारी दुष्यन्त परमार से बदला लेना चाहती थी और अंजना निगम से उसे ईर्ष्या थी ।”
“परमार से बदला !”
“जी हां । ये बड़ा नाजुक, बड़ा गोपनीय मसला है । ये मेरी हत्यारी का टॉप सीक्रेट है कि हमारे लार्ड बायरन की माशूकों की लम्बी लिस्ट में वो भी शुमार थी । कभी वो भी दुष्यन्त परमार की चहेती थी ।”
“जो अब तिरस्कृत प्रेमिका बन चुकी थी ?” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“जी हां । लेकिन कभी सिर्फ मेरी हत्यारी को ही परमार से नहीं, दोनों को एक-दूसरे से गहरी मुहब्बत थी । अपनी आदत से मजबूर दुष्यन्त परमार और औरतों पर लार तो तब भी टपकाता था लेकिन ये एक अन्डरस्टैण्डिंग उन दोनों में स्थापित थी कि तफरीहन वो कहीं भी मुंह मारता फिरे लेकिन इस मामले में गम्भीर ख्यालात उसके मेरी हत्यारी की बाबत ही रहें ।”
“यानी कि” - अशोक परमार बोला - “हमबिस्तर होने को तैयार दासियां वो अपने हरम में जितनी मर्जी भरती कर ले लेकिन रानी का दर्जा उसके अलावा किसी का न हो ।”
“वैरी वैल सैड, सर ।” - अभिजीत घोष बोला - “बल्कि यूं कहिये कि पटरानी का दर्जा उसके अलावा किसी का न हो । मेरी हत्यारी पढी-लिखी, आधुनिक और आजादख्याल है इसलिये जिस मर्द से उसे प्यार था, उसकी छोटी-मोटी एडवेन्चरों को वो नजरअन्दाज कर सकती थी । उन दोनों में ये क्लियर अन्डरस्टैन्डिंग थी कि परमार का अपनी बीवी से तलाक होते ही वो उससे - मेरी हत्यारी से - शादी कर लेगा । ये तब की बात है जब कि परमार ने तलाक ने तलाक के कागजात दाखिलदफ्तर किये भी नहीं थे और बीवी पार्वती परमार को उसके और मेरी हत्यारी के अफेयर की कोई खबर नहीं थी । लेकिन बाद में जब तलाक का मामला आगे बढा तो परमार ने पाया कि अपनी फ्रीडम हासिल करने की उसे इतनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती थी कि आर्थिक दृष्टिकोण से तो उसने नंगा हो जाना था । इसलिये उसने मुहब्बत की खातिर शादी करने की जगह दौलत की खातिर शादी करने का फैसला किया ।”
“ये फैसला” - अशोक प्रभाकर बोला - “आपकी हत्यारी को तो गवारा नहीं हुआ होगा ।”
“इस फैसले से मायूसी तो उसे होनी ही थी” - अभिजीत घोष बोला - “लेकिन गवारा इसे उसने ये सोचकर कर लिया कि परमार को आखिरकार विभा दासानी से कोई मुहब्बत तो थी नहीं, उस शादी का मकसद तो महज माली सहूलियत हासिल करना था और यूं परमार की दौलत की खातिर ऐसी लड़की से हुई शादी भी, जिससे कि परमार को कोई मुहब्बत नहीं थी, खुद मेरी हत्यारी के परमार की निगाह में रुतबे और दर्जे में कोई विघ्न बनने वाली नहीं थी । परमार की भलाई में इसे वक्त की जरूरत मान कर मेरी हत्यारी ने हालात से समझौता कर लिया और परमार को विभा दासानी के - जिसे कि वो दौलत के अलावा किसी भी लिहाज से अपनी प्रतिद्वन्द्विता के काबिल नहीं मानती थी - पीछे पड़ा रहने दिया । उसकी ये खुशफहमी बनी रही कि शादी परमार बेशक विभा दासानी से कर ले, तहेदिल से मुहब्बत वो सिर्फ उससे करता था । सिर्फ वो ही परमार का सच्चा प्यार थी, उसके बाकी तमाम रिश्ते या स्वार्थपूर्ति के थे या क्षणिक आकर्षण के थे ।”
अभिजीत घोष ठिठका, उसकी निगाह पैन होती हुई सारे सदस्यों के आति-गम्भीर चेहरों पर फिरी और फिर वो बोला - “यहां तक तो सिलसिला ठीक था मेरी हत्यारी के लिये । लेकिन फिर एक अप्रत्याशित घटना घटित हो गयी । दुष्यन्त परमार को न सिर्फ उससे मुहब्बत न रही बल्कि वो अंजना निगम पर बुरी तरह से मरा मिटा । सिर्फ मर ही न मिटा, बल्कि उसका दिल जीतने में कामयाब भी हो गया । विभा दासानी के बाद ये परमार का ताजातरीन अफेयर था और अंजना निगम के नुक्तानिगाह से इस अफेयर का बहुत ही सच्चा खाका मिस केजरीवाल ने हमारे सामने खींचा था, अलबत्ता दुष्यन्त परमार के नुक्तानिगाह से ये इतनी कामयाब न हो सकी ।”
“आई सी ।” - रुचिका शुष्क स्वर में बोली ।
“अब मेरी हत्यारी को अपने जेहन में रखकर सूरतअहवाल का मुलाहजा फरमाइये । दुष्यन्त परमार तलाक लेकर अपनी आजादी हासिल कर रहा है, विभा दासानी से उसके अफेयर का समापन हो रहा है क्योंकि उससे शादी की उसे कोई ख्वाहिश या जरूरत नहीं रही । अपनी अन्तरात्मा के बोझ के नीचे दबी ‘शरीफ औरत’ अंजना निगम को इसी में अपनी मुक्ति दिखाई देती है कि वो अपने पति से तलाक लेकर परमार से शादी कर ले । परमार को ये शादी बहुत-बहुत मंजूर है क्योंकि एक तो उसे सच में ही उससे मुहब्बत हो चुकी होती है और दूसरे, दौलत के मामले में वो अंजना निगम को विभा दासानी से कहीं ज्यादा सूटेबल कैन्डीडेट पाता है । यानी कि जैसे दोनों के पुरजोर इरादे थे, दुष्यन्त परमार और अंजना निगम का गठबन्धन हो के रहना था । अब देखिये इस तस्वीर में वो युवती कहां फिट होती है जिसे कि मैं हत्यारी समझता हूं ! वो कहीं भी फिट नहीं होती । अब उसे न परमार के नाम पर अपना दावा दिखाई देता है और न उसकी मुहब्बत पर । साहबान, ऐसी स्थिति को अंग्रेजी की एक कहावत में, जिससे कि यकीनन आप सब वाकिफ होंगे, यूं बयान किया गया है कि हैल हैथ नो फ्यूरी लाइक ए वूमेन स्कार्न्ड तिरस्कृत औरत से बड़ा कहर जहन्नुम में भी नहीं...”
“मिस्टर घोष” - उसके आगे कुछ कह पाने से पहले रुचिका केजरीवाल तीखे स्वर में बोली - “कुछ साबित भी कर सकते हैं आप ?”
“ख्याल तो है ।” - अभिजीत घोष तनिक सकपकाये स्वर में बोला ।
“मुझे तो उम्मीद नहीं ।”
“लेकिन...”
“कैसे कुछ साबित कर पायेंगे आप ? आपने खुद ही तो कहा है कि आप के पास सिर्फ थ्योरियां ही थ्योरियां हैं और वो भी आपने हम ही लोगों की कही बातों में से निकाली हैं । यूं जुबानी जमाखर्च से ही कुछ साबित होता है, मिस्टर घोष !”
“लेकिन मैंने कुछ हाथ-पांव भी मारे हैं ।” - अभिजीत घोष हड़बड़ाया-सा बोला - “आप लोगों जितना न सही लेकिन छोटा-मोटा फील्ड वर्क तो मैंने भी किया है ।”
“ये नयी खबर है । मसलन क्या किया है आपने ?”
“मसलन मैंने बड़ी मेहनत से दुष्यन्त परमार का परिचय हासिल किया था और उससे एक बैठक का मौका पैदा किया था । आज दिन में मैं परमार से मिला था और वार्तालाप के दौरान मैं उससे कुछ ऐसी बातें कुबुलवाने में कामयाब हो गया था जिनकी बिना पर मेरे जेहन में हत्यारी का अक्स साफ-साफ उतर आया था । अनजाने में उसने कुछ ऐसी बातें भी कहीं जो...”
“बकवास ही की होगी उस बेहूदा आदमी ने ।” - रुचिका नाक चढाकर बोली - “इसलिये वो किस्सा बन्द करो ।”
“आप सुनना नहीं चाहतीं” - अभिजीत घोष तनिक हत्प्रभ स्वर में बोला - “कि उसने क्या कहा ?”
“मैं क्या, कोई भी नहीं सुनना चाहता होगा उस बेहूदा आदमी की बेहूदा बकवास ।”
“आप ये भी नहीं सुनना चाहतीं कि उसने आपके होस्टल के कमरे में अपनी विजिट की बाबत क्या कहा जिसमें कि आप कहती हैं कि वो आपकी दो किताबें चुरा कर ले गया था ?”
“क्या कहता है वो ?”
“वो कहता है कि वहां वो आपके आमन्त्रण पर गया था । वो कहता है कि आप उसे वहां बुला कर खुद गायब हो गयी थीं । फिर इंतजार से तंग आकर वो आपसे बिना मिले वहां से लौट आया था ।”
“वो तो ऐसा कहेगा ही ? ये नहीं कहेगा तो क्या साफ-साफ ये कह देगा कि वो यहां मेरी किताबें चुराने आया था ?”
“मैडम, वो किताबें किताबों की दुकानों पर भी उपलब्ध होती हैं ।”
“उसे नहीं मालूम होगी ये बात । या फिर उसके मेरे होस्टल के कमरे में आने की कोई और वजह होगी जो कि उसने आपसे छिपाकर रखी । बहरहाल मैंने उसे अपने यहां इनवाइट नहीं किया था ।”
“लेकिन वो कहता है कि....”
“नानसेंस । आप कुछ साबित नहीं कर सकते ।”
अभिजीत घोष हक्का-बक्का-सा उसका मुंह देखने लगा ।
“मेरी राय में” - सभापति आगाशे जल्दी से बोला - “सबूत का मुद्दा हमें थोड़ी देर के लिये मुल्तवी कर देना चाहिए और पहले मिस्टर घोष को, जो कुछ वा कहना चाहते हैं, जैसे वो कहना चाहते हैं, कह लेने देना चाहिए । तो मिस्टर घोष, आप कह रहे थे कि हालात ऐसे बन गये थे कि दुष्यन्त परमार और अंजना निगम में शादी अवश्यम्भावी हो गयी थी ।”
“जी हां ।” - अभिजीत घोष फिर से हिम्मत करके बोला - “इसी स्टेज पर मेरी हत्यारी ने हत्या का निर्णय लिया और उसकी बहुत चतुराईपूर्ण योजना बनायी । वो योजना क्या थी, ये मैं बता ही चुका हूं । क्योंकि वो दुष्यन्त परमार की प्रेमिका रह चुकी थी इसलिये उसके घर में वो बिन रोक-टोक आ-जा सकती थी । इसी सुविधा का फायदा उसने परमार की गैरहाजिरी में उसके टाइपराइटर पर पता टाइप करके उठाया । उसी ने वहां हौजर-707 साइन पैन और मिस केजरीवाल की मिल्कियत दो किताबें प्लांट कीं । उसी ने सलमा शाह जैसी आवाज बनाकर मुकेश निगम से बात की ।”
“किसने ? किसने ?” - छाया प्रजापति व्यग्र भाव से बोली - “क्या हममें से कोई उस औरत को जानता है ?”
“हम सब जानते हैं ।” - अभिजीत घोष सहमे-से स्वर में बोला ।
“और वो” - मन-ही-मन परमार की प्रेमिकाओं की लिस्ट पर निगाह दौड़ाता हुआ आगाशे बोला - “परमार की कोई भूतपूर्व प्रेमिका है ?”
“जी हां । लेकिन मुझे उम्मीद नहीं कि उसका नाम आप की लिस्ट में होगा । उसने परमार से अपने अफेयर को इतना ज्यादा गोपनीय रखा था कि मुझे तो यकीन है कि उसका नाम आपकी लिस्ट में नहीं होगा । जनाब, हमारे लार्ड बायरन दुष्यन्त परमार का वो एक दुर्लभ अफेयर था जिसकी किसी को खबर नहीं ।”
“ये कैसे हो सकता है ? क्या वो मिलते-जुलते नहीं थे ?”
“मिलते-जुलते तो यकीनन थे । इसके बिना अफेयर कैसे चल सकता है ?”
“किसी ने कभी उन्हें इकट्ठे नहीं देखा ?”
“देखा । एक वक्त ऐसा था जब वो अक्सर इकट्ठे देखे जाते थे लेकिन तब हत्यारी ने ये जाहिर किया कि वो मुलाकातें प्यार की नहीं थी बल्कि उनका कोई और ही मकसद था । वो मकसद पूरा हो जाने के बाद उसने ये जाहिर किया कि दोनों में तकरार हो गयी थी और वो सिलसिला वहीं ठप्प हो गया था लेकिन असल में तब उसने अपने प्रेमी से पूरी गोपनीयता के साथ मिलने का फैसला कर लिया था । वो बाद में भी मुतवातर मिलते रहे थे । पहले वाली मुलाकातों की बाबत हत्यारी सबको ये यकीन दिलाने में कामयाब हो गयी थी कि वो मुलाकातें उसकी नौकरी का हिस्सा थीं और जाती तौर पर उसका परमार से कुछ लेना-देना नहीं था ।”
“नौकरी का हिस्सा !” - दासानी मन्त्रमुग्ध-सा होंठों में बुदबुदाया ।
“जी हां । वो हत्यारी कोई मामूली हस्ती नहीं, बहुत पहुंची हुई चीज है । लेकिन वो अपनी मूल योजना से भटकने की भूल कर बैठी । उसका हर कदम उसकी मूल योजना के अनुसार ही उठा होता तो मुझे हकीकत की भनक तक न लग पाती ।”
“क्या भूल की उसने ?” - आगाशे बोला ।
“उसने अपना अपराध दूसरे के सिर थोपने की कोशिश की । उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था । जैसे काबिलेतारीफ कदम उसने बाकी उठाये थे, उनके मुकाबले में उसके इस कदम को माकूल नहीं कहा जा सकता । उसकी मूलयोजना फेल हो गयी थी । वो अपने मिशन में आधी कामयाबी ही हासिल कर सकी थी । उसकी ईर्ष्या का लक्ष्य तो परलोक सिधार गया था लेकिन अपने बदले के लक्ष्य को वो उसी अंजाम तक नहीं पहुंचा सकी थी । चाहिये ये था कि इन हालात में समझौता करके वो खामोश बैठ जाती । लेकिन वो खामोश न बैठी । उसके तिरस्कार ने कहर बरपाने की ख्वाहिशमन्द उस औरत को खामोश न बैठने दिया । उसने फिर कोशिश की । इस बात उसने प्रेमिका के कत्ल का इलजाम प्रेमी के सिर थोपने का ताना-बाना बुना । साहबान, मैंने और कुछ नहीं कहना ।”
और वो बड़े नर्वस भाव से अपने चेहरे पर चुहचुहा आयी पसीने की बूंदों को पोंछने लगा ।
सभा में एक बोझिल-सा सन्नाटा छा गया ।
“एलीबाई के बारे में तो कहना होगा ?” - फिर रुचिका धीरे से बोली ।
“हां ।” - अभिजीत घोष उससे परे देखता हुआ बोला - “ये एक बात मैं भूल गया था । एलीबाई के बारे में पहले मैं एक जनरल बात कहना चाहता हूं । एलीबाई दोतरफा काम करने वाली आइटम होती है । जब ए बी की एलीबाई बनता है तो बी ए की एलीबाई अपने आप बन जाता है । मसलन अगर मिस्टर आगाशे ये कहें कि फलां तारीख को फलां वक्त इन्होंने मुझे बम्बई में गेटवे आफ इन्डिया के सामने देखा था तो ये अपने आप ही स्थापित हो जाता है कि उस रोज उस वक्त वो दिल्ली से सैंकड़ों मील दूर बम्बई में थे ।”
“बात” - रुचिका बोली - “आपकी हत्यारी की एलीबाई की हो रही थी ।”
“वही हो रही है । मेरी राय में एलीबाई का ख्याल हत्यारी को एक सुखद संयोग की वजह से बाद में आया था । बाद में तब आया था जबकि संयोगवश हत्यारी को अपने एक वाकिफकार शख्स के लखनऊ में होने की खबर लग गयी थी और उसे ये भी मालूम हो गया था कि सोलह नवम्बर की दोपहर को उसने दिल्ली में होना था जहां कि दो दिन ठहर कर उसने फ्रांस चला जाना था । वो शख्स टॉम डेकर नाम का एक फोटो जर्नलिस्ट था जो कि शुक्रवार सोलह नवम्बर को सुबह की फ्लाइट से लखनऊ से दिल्ली आया था और पार्लियामेंट स्ट्रीट के कनाट प्लेस वाले सिरे पर स्थित पार्क होटल में ठहरा था । और साहबान, आप जानते ही हैं कि पार्क होटल और जनपथ के इन्डियन आयल के सामने वाले लेटर बाक्स के बीच मुश्किल से दो सौ गज का फासला है ।”
“आपका कहना है” - आगाशे बोला - “कि वो पार्सल उस आदमी ने पोस्ट किया जिसका नाम आप टॉम डेकर बता रहे हैं ?”
“जी हां । और जो मेरी हत्यारी का हमपेशा है । जिसे मेरी हत्यारी ने दिल्ली जाकर पोस्ट करने के लिए लखनऊ में पार्सल सौंपा । जो पन्दरह तारीख की रात को लखनऊ गयी ही उस पार्सल को टॉम डेकर के मत्थे मढने थी ताकि उसे एलीबाई हासिल हो सकती, ताकि अगर पूछताछ होती तो ये स्थापित होता कि पार्सल पोस्ट किये जाने के वक्त के आसपास तो वो दिल्ली से मीलों दूर लखनऊ में थी ।”
“लेकिन” - अशोक प्रभाकर ने तीव्र प्रतिवाद किया - “वो शख्स दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरते ही पार्सल को वही किसी लेटर बाक्स के हवाले कर सकता था, वो उसे एयरपोर्ट से पार्लियामेंट स्ट्रीट के लम्बे रास्ते पर कहीं पोस्ट कर सकता था, वो पार्क होटल पहुंचकर भी पार्सल को पोस्ट करता रात तक के लिए मुल्तवी कर सकता था, वो पार्सल को पोस्ट करने के लिए किसी वेटर को सौंप सकता था जाकि किसी गलत लेटर बाक्स में किसी गलत वक्त उस पार्सल को पोस्ट कर सकता था । इनमें से किसी भी एक बात का नतीजा ये निकल सकता था कि पार्सल अगले रोज पहली डाक से शिवालिक क्लब न पहुंचा होता और आपकी हत्यारी की सारी स्कीम धरी-की-धरी रह जाती ।”
“ऐसा कुछ नहीं होने वाला था ।” - अभिजीत घोष सकुचाता-सा बोला ।
“क्यों ? क्यों नहीं होने वाला था ?”
“क्योंकि हत्यारी ने उस शख्स को ये पट्टी पढा दी होगी कि वो पार्सल वास्तव में प्राप्तकर्त्ता के लिए उसके जन्म दिन का तोहफा था और उसका एक खास वक्त पर उसके पास पहुंचना जरूरी था । यही वजह उसने पार्सल को लखनऊ में पोस्ट न करने की बतायी होगी । उसने उस शख्स को बड़ी तफसील से ये समझाया होगा कि पार्सल तभी पूर्वनिर्धारित समय पर अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच सकता था जबकि वो फलां वक्त के दौरान फलां लेटर बाक्स के हवाले किया जाता ।”
“सब गैसवर्क है ।” - रुचिका बोली ।
“सब तो नहीं” - उससे निगाह मिलाने से परहेज करता हुआ अभिजीत घोष दबे स्वर में बोला - “क्योंकि मैंने पार्क होटल से मिस्टर टॉम डेकर की सम्बन्धित तारीख की रजिस्ट्रेशन चैक की है । मैंने फोन पर उससे पेरिस में बात की । मैंने इलाहाबाद फोन करके पार्वती परमार से भी बात की है, लखनऊ में जिसकी सोहबत में...”
रुचिका केजरीवाल एकाएक उठ खड़ी हुई । उसने सामने मेज पर पड़ा अपना हैन्डबैग उठाया और अपार व्यस्तता का प्रदर्शन करती हुई बोली - “बहुत देर हो गयी । मेरी तो कहीं फिक्स्ड टाइम अप्वायन्टमैंट है । सभापति महादेव, मैं इजाजत चाहती हूं ।”
“हां ।” - तनिक हकबकाया-सा आगाशे बोला - “जरूर ।”
रुचिका केजरीवाल ने बाहर की ओर कदम उठाया ।
“आप जा रही हैं ?” - अभिजीत घोष पीछे से बोला ।
रुचिका ठिठकी, उसकी ओर घूमी ।
“कोई ऐतराज ?” - वो अपलक उसकी ओर देखती हुई बोली ।
“बिल्कुल भी नहीं, लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“कुछ हां न तो कर जाती ।”
“वो मेरे पीछे तुम ही करना क्योंकि तुम्हारा बाकी का बयान सुनने के लिये में रुक नहीं सकती लेकिन जाने से पहले एक बार फिर भी कहती हूं ।”
“क्या ?”
“कुछ साबित नहीं कर सकोगे ।”
और वो एड़ियां ठकठकाती हुई वहां कूच कर गयी ।
“ठीक कहा मैडम ने ।” - अभिजीत घोष असहाय भाव से गर्दल हिलाता हुआ बोला - “वाकई मैं कुछ साबित नहीं कर सकता । लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मैंने जो कुछ कहा, सौ फीसदी सही कहा । मैडम ने माना हो या न माना हो, लेकिन मैंने जो कहा, बिल्कुल ठीक कहा ।”
“कहीं तुम... तुम” - छाया प्रजापति के नेत्र फैल गये - “तुम ये तो नहीं कहना चाहते कि.. कि... ये ही...”
“अब मैं क्या कहूं ?”
“लेकिन ये... ये...”
“आप मंगलवार का एक वाकया याद कीजिए जबकि आपने दासानी साहब को अपराधी साबित कर दिखाया था । तब रुचिका ने ही इस बात को सबसे ज्यादा एडवोकेट किया था कि पुलिस को आपकी थ्योरी की भनक भी नहीं लगने दी जानी चाहिए थी, हमें दासानी साहब को कवर करना चाहिए था और बात को वहीं खत्म कर देना चाहिए था । ऐसा क्या उसने इसलिये नहीं कहा था क्योंकि केवल वो ही निश्चित रूप से जानती थी कि दासानी साहब का कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं था ? क्योंकि उसने कातिल दुष्यन्त परमार को साबित करके दिखाना था ?”
कोई कुछ न बोला ।
“जो कि उसने निहायत खूबसूरती से करके भी दिखाया । लेकिन साहबान, ये शर्त किसलिये कि पुलिस को केस के हल से अवगत कराते समय उसके नाम का जिक्र न किया जाये ? क्या इसलिये कि जब दुष्यन्त परमार को पता लगता कि उसके लिए विपत्ति खड़ी करने के पीछे रुचिका का और सिर्फ रुचिका का हाथ था तो वो उससे अपने पुराने, अत्यन्त गोपनीय प्रेम सम्बन्धों की सारी पोल खोल देता ? ऐसा हो जाता तो क्या परमार के खिलाफ कत्ल के केस में रुचिका भी एक पार्टी न बन जाती ?”
सबके सिर सहमति में हिले ।
कई क्षण कोई कुछ न बोला ।
आखिरकार दासानी ने चुप्पी भंग की ।
“तो” - वो मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला - “अपराधविज्ञान का एक निष्ठावान अनुयायी हमारे बीच में ही मौजूद था ?”
“तभी आप ये कह रहे थे” - अशोक प्रभाकर बोला - “कि हत्यारे को हम सब जानते थे !”
“इतना ज्यादा जानते थे” - छाया प्रजापति बोली - “तब ये किसने सोचा था !”
“अब” - सभापति विवेक आगाशे असहाय भाव से बोला - “सवाल ये पैदा होता है कि हम करें क्या ?”
किसी के पास भी उस सवाल का जवाब नहीं था ।
समाप्त
Chapter 7
शनिवार ।
अभिजीत घोष ने बड़े संकोचपूर्ण ढंग से अपने श्रोताओं पर निगाह डाली । उसे एक भी सूरत पर अपनी थ्योरी के प्रति उत्सुकता के भाव न दिखाई दिये । जैसे जोशो-खरोश से बाकी वक्ताओं को सुना गया था, वैसा जोशो-खरोश उस शाम की सभा में नहीं दिखाई दे रहा था । हर सूरत पर - सभापति महोदय की सूरत पर सबसे ज्यादा - ऐसे भाव थे जैसे अभिजीत घोष प्रोसीजर की आड़ लेकर उनका वक्त बरबाद करने के अलावा कुछ नहीं करने वाला था ।
अभिजीत घोष ने बड़े नर्वस भाव से दो-तीन बार खंखार कर अपना गला साफ किया और फिर बोलना शुरू किया ।
“लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - वो बोला - “मुझे इस बात का पूरा-पूरा अहसास है कि मिस रुचिका केजरीवाल का कल का बयान सुन चुकने के बाद आप लोग मुझे सुनना बेमानी मानते हैं । मिस केजरीवाल की शानदार दलीलों को और अकाट्य सबूतों को और निर्णायक नतीजों को सुन चुकने के बाद आपको मेरी बात सुनना अगर वक्त की बरबादी लगता है तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं । लेकिन मेरी गुजारिश सिर्फ ये है कि ऐसी शानदार दलीलें, अकाट्य सबूत, निर्णायक नतीजे थोड़ी कमीबेशी में हम मिस केजरीवाल से पहले चार और वक्ताओं की जुबानी भी सुन चुके हैं । इसी बात ने मुझे ये सोचने के लिये मजबूर किया है कि हो सकता है कि पहली चार थ्योरियों की तरह पांचवीं थ्योरी भी उतनी मजबूत और सिक्केबन्द न हो जितनी कि वो कल शाम को हर किसी की - मुझे भी - लग रही थी । गौर फरमाइयेगा, मैंने कहा है कि ऐसा हो सकता है ? मैंने ये नहीं कहा कि ऐसा है ।”
“कम टू दि प्वायन्ट, मिस्टर घोष ।” - आगाशे बेसब्रेपन से बोला ।
अभिजीत घोष ने जोर से थूक निगली और बड़े आहत भाव से सभापति की ओर देखा ।
“मैं ये कहना चाहता था” - आगाशे बदले स्वर में बोला - “कि हम बहुत बेकरार हैं आपकी थ्योरी सुनने के लिये ।”
“धन्यवाद ।”
“इसलिये जरा जल्दी....”
“जरूर । तो मैं ये अर्ज कर रहा था कि क्योंकि मैं आखिरी वक्ता हूं इसलिये मुझे ये सुविधा सहज ही प्राप्त हो गयी है कि मैं अन्य व्यक्तियों को थ्योरियों से, उनकी खूबियों से और उनके नतीजों से दिशाज्ञान प्राप्त कर सकता हूं । उनको परखकर, उनके विवेचन से में अपनी थ्योरी को सुधार सकता हूं, ज्यादा असैप्टेबल बना सकता हूं । मैं यहां हर थ्योरी के हर पहलू का विस्तृत वर्णन करूंगा तो बहुत वक्त लगेगा और मुझे दिखाई दे रहा है कि यहां कोई भी श्रोता बहुत वक्त तक मुझे सुनने का ख्वाहिशमन्द नहीं....”
“ऐसी कोई बात नहीं ।” - सभापति ने तुरन्त प्रतिवाद किया ।
“हो भी तो मुझे कोई एतराज नहीं, कोई शिकायत नहीं । यूं उपस्थित देवियों और सज्जनों का वक्त बरबाद न हो, इसलिये मैं घर से एक चार्ट बनाकर लाया हूं जिसकी एक-एक प्रति समस्त सदस्यों के अवलोकनार्थ हाजिर है ।”
उसने प्रतियां वितरित कीं ।
“इस चार्ट में” - अभिजीत घोष बोला - “मैंने विभिन्न वक्ताओं को, उन के द्वारा सुझाये कत्ल के उद्देश्यों को, उनकी थ्योरियों के विशिष्ट आकर्षणों को और उनके द्वारा सुझाये अपराधियों को क्लासीफाई किया है । तुलना के लिये चार्ट में मैंने पुलिस को भी एक वक्ता का दर्जा दिया है । इस चार्ट के अवलोकन से आप पायेंगे कि कोई भी वक्ता किसी भी महत्वपूर्ण प्वायन्ट पर किसी दूसरे वक्त से सहमत नहीं दिखाई देता और किन्हीं भी दो वक्ताओं ने किसी एक कामन अपराधी का नाम नहीं सुझाया । इसके बावजूद अपनी थ्योरी प्रस्तुत करते वक्त हर वक्त को ये विश्वास था कि उसी की थ्योरी सही थी, उसी का सुझाया हल दुरुस्त था । मिस्टर अशोक प्रभाकर ने तो न केवल एक हल प्रस्तुत किया बल्कि पहले अपनी भतीजी को और फिर खुद को ही अपराधी साबित करके दिखाकर इस बात पर जोर दिया कि तथ्यों को अपने मनमाफिक तरीके से तोड़-मरोड़कर, कुछ को छुपाकर तो कुछ को हाईलाइट करके, किसी भी बात से कुछ भी साबित किया जा सकता था ।”
उस क्षण उसे ये देखकर बहुत सन्तुष्टि हुई कि तमाम मेम्बरान बहुत गौर से उसके चार्ट का मुआयना कर रहे थे ।
“चार्ट से आप ये भी पायेंगे” - अभिजीत घोष फिर बोला - “कि विभिन्न वक्ताओं के केस से दो-चार हीने के तरीकों से उनके अपने चरित्र की भी झलक मिलती है । मिसाल के तौर पर दासानी साहब वकील हैं, प्रत्यक्ष सबूतों पर जोर देने की उन्हें ट्रेनिंग है इसलिये उनका सारा जोर लेटरहैड पर रहा जिसकी वजह से केवल वही ये बात भांप पाने में कामयाब हो पाये कि लेटरहैड पर से कोई इबारत मिटाकर उस पर दूसरी इबारत टाइप की गई थी । इसी प्रकार मिस रुचिका केजरीवाल ने क्योंकि केस को मनोवैज्ञनिक दृष्टिकोण से परखा इसलिये उनकी थ्योरी में उनका पूरा जोर अपराधी के चरित्र पर रहा । बाकी मेम्बरान
अभिजीत घोष का चार्ट | ||||
क्रमांक | वक्ता | उद्देश्य | विशिष्ट आकर्षण | अपराधी |
1 | एडवोकेट दासानी | आर्थिक लाभ | लेटरहैड | मिसेज पार्वती परमार |
2 | मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति | दुष्यंत परमार को रास्ते से हटाना | प्रेम तिकोन | लौंगमल दासानी |
3 (एक) | जासूसी उपन्यासकार | तजुर्बा | जहर | रोज पदमसी |
3 (दो) | अशोक प्रभाकर | ईर्ष्या | अपराध विज्ञान का ज्ञान | मुकेश निगम |
4 | विवेक आगाशे | आर्थिक लाभ | शर्त | मुकेश निगम |
5 | रुचिका केजरीवाल | हत्प्राण से पीछा छुड़ाना | अपराधी का चरित्र | दुष्यंत परमार |
6 | पुलिस | दीवानगी, धार्मिक धर्मान्धता | रूटीन पुलिस प्रोसीजर | क्रिमिनल न्यूमैटिक (सिरफिरा) |
ने भी जिन विशिष्ट बातों पर जोर दिया, उनमें उनके मिजाज की, उनकी ट्रेनिंग की, उनकी लाइन ऑफ बिजनेस की परछाई जरूर थी । इसी प्रकार हर वक्ता का अपने पसन्दीदा मुजरिम के खिलाफ अपना केस खड़ा करने का अन्दाज जुदा था । किसी ने इस काम की खातिर दौड़-धूप की जहमत उठायी, किसी ने कागजी कार्यवाही पर जोर रखा तो किसी ने - मसलन मिस्टर आगाशे ने - दोनों तरीकों को अपनाया । लेकिन तरीका किसी ने कोई भी अपनाया, नतीजा हर किसी ने मुख्तलिफ निकाला । यहां तक कि एक ही उपलब्ध जानकारी से एक ही स्थापित तथ्य से कई-कई नतीजे निकाले गये ।”
“कोई मिसाल ?” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“मैं अभी पेश करता हूं । आप जासूसी उपन्यासकार हैं, आपके लिये वो मिसाल विशेषरूप से रोचक सिद्ध होगी ।”
“वो कैसे ?”
“देखिये, जासूसी उपन्यासों में ये धारणा आम पेश की जाती है कि किसी एक तथ्य से एक ही नतीजा निकाला जा सकता है और वो ही दुरुस्त नतीजा होता है और उस दुरुस्त नतीजे को सिवाय आप के जासूस के दूसरा कोई नहीं भांप सकता । उपन्यास के बाकी चरित्र पड़े अटकलें लगाते रहें लेकिन नतीजा वही दुरूस्त होगा जो आपका जासूस निकालेगा और जो एक ही होगा । मेरी इस बात से मिलती-जुलती एक बात मिस केजरीवाल ने सोमवार को ‘हां’ और ‘न’ की दो पर्चियो के सन्दर्भ में कही थी ।”
रुचिका ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब मैं आपको बताता हूं कि क्राइम क्लब की बैठकों में चली केस की डिसकशंस में कैसे एक ही बात से, एक ही उपलब्ध तथ्य से, अनेक नतीजे निकले गये । मैं आपका ध्यान सोराबजी एण्ड संस के उस एक्सक्लूसिव लेटरहैड की तरफ आकर्षित करना चाहता हूं जिस पर टंकित एक चिट्ठी चाकलेटों वाले पार्सल में से निकली थी । उस लेटरहैड की एक शीट से पूरे छ: नतीजे निकाले गये । सुनिये कौन-कौन से ।
1. अपराधी सोराबजी एण्ड संस का वर्तमान या भूतपूर्व कर्मचारी था ।
2. अपराधी का सोराबजी एण्ड संस में फिक्स्ड डिपाजिट था ।
3. अपराधी प्रिंटिंग प्रैस चलाता था या उसकी किसी प्रिंटिंग प्रैस तक पहुंच थी ।
4. अपराधी कोई वकील था जिसके किसी केस के जरिये सोराबजी एण्ड संस से ताल्लुकात थे और मैनेजिंग डायरेक्टर सोराबजी के आफिस में जिसका आना-जाना था ।
5. अपराधी सोराबजी एण्ड संस के किसी भूतपूर्व कर्मचारी का कोई सगा-सम्बन्धी था ।
6. अपराधी प्रिंट आर्ट नाम की स्टेशनरी की दुकान का सम्मानित ग्राहक था ।
आप नोट करेंगे कि ये छ: नतीजे सोमवार से लेकर कल तक हमारे विभिन्न वक्ताओं ने एक इकलौते लेटरहैड से समय-समय पर निकाले और सब एक-दूसरे की काट करते दिखाई देते हैं ।”
“बहुत बढिया !” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“मैंने सिर्फ लेटरहैड की मिसाल दी है ।” - अभिजीत घोष तनिक शर्माता हुआ बोला - “जबकि केस में यही अहम दर्जा रखने वाले और भी सूत्र उपलब्ध हैं । जैसे टाइपराइटर, जहर, हर चाकलेट में उसकी निश्चित मिकदार, पोस्टमार्क वगैरह । इन तमाम सूत्रों से भी आधी-आधी दर्जन नतीजे निकाले गये । और इन्हीं बेशुमार नतीजों में से हर किसी ने अपनी पसन्द का अपराधी चुना ।”
“और आपका इत्तफाक” - आगाशे बोला - “किसी भी मेम्बर के चुनाव से नहीं ?”
“जी हां । इसीलिये मैंने कल आप से प्रार्थना की थी कि आप पुलिस के पास जाना चौबीस घण्टों के लिये मुल्तवी कर दें ।”
“यानी कि आपकी निगाह में अभी कोई और ही अपराधी है ?”
“जी हां ।”
आगाशे के चेहरे पर अविश्वास के भाव आये ।
“कौन ?” - वो बोला ।
“मैं तरतीब से बताता हूं ।” - घोष बोला ।
“कैसे भी बताइये । हम सुन रहे हैं ।”
“थैंक्यू । पहले मैं उस थ्योरी का हलका-सा जिक्र करना चाहता हूं जिसके अन्तर्गत कल शाम मिस रुचिका केजरीवाल ने दुष्यन्त परमार को अपराधी साबित करके दिखाया था । मिस केजरीवाल की शानदार थ्योरी की तमाम खूबियों को कबूल करते हुए मैं ये कहना चाहता हूं कि परमार को अपराधी करार देने के लिये इनके पास जो दो प्रमुख कारण हैं, वो ये हैं कि एक तो जैसा चरित्र मिस केजरीवाल ने अपनी थ्योरी में अपने अपराधी का निर्धारित किया था, दुष्यन्त परमार ऐन वैसे ही चरित्र का आदमी था । दूसरे ये कि दुष्यन्त परमार के अंजना निगम से ताल्लुकात स्थापित होते थे और इन ताल्लुकात का मिस केजरीवाल ने अपनी थ्योरी में ऐसा खाका खींचा था कि परमार का अंजना निगम से पीछा छुड़ाने के लिये उसके कत्ल के बारे में सोचना बहुत स्वाभाविक लगता था ।”
“आप टाइपराइटर के बारे में क्या कहते हैं” - छाया प्रजापति बोली - “जो कि परमार के खिलाफ अकाट्य सबूत है ?”
“मैं वहीं पहुंच रहा था” - अभिजीत घोष तनिक हड़बड़ा कर बोला - “लेकिन पहले मैं एक और बात का जिक्र करना चाहता हूं जिसे कि मिस केजरीवाल दुष्यन्त परमार के खिलाफ महत्वपूर्ण सबूत मानती हैं और जिसके लिये इन्होंने कल यहां बहुत वाहवाही हासिल की थी । ये कहती हैं कि प्रिंट आर्ट की सेल्सगर्ल सुनीता सूद ने इनकी दिखाई न केवल परमार की तस्वीर पहचानी थी बल्कि नाम लेकर उसकी शिनाख्त की थी । इस सन्दर्भ में मेरा सवाल ये है कि क्या उस सेल्सगर्ल ने परमार को अपनी स्पैशल फाइल से सोराबजी एण्ड संस का लेटरहैड चुराते भी देखा था ? जाहिर है कि नहीं देखा था । देखा होता तो क्या वो उसे यूं चोरी करने देती ? तो फिर तस्वीर की शिनाख्त से क्या साबित हुआ ? मैं कहता हूं कुछ भी नहीं ।”
“क्यों कुछ भी नहीं ?” - रुचिका केजरीवाल भड़ककर बोली - “इससे ये साबित हुआ कि वारदात के दिन से पहले वो एक बार वहां गया था और हालात का इशारा यही है कि वो वहां से लेटरहैड चुराने गया था ।”
“नहीं है हालात का ये इशारा ।” - अभिजीत घोष पहली बार तनिक जिदभरे स्वर में बोला - “आपको, सिर्फ आपको, लगता है ऐसा और ये कथित हालात का इशारा आप जबरन हमारे सिर थोपना चाहती हैं क्योंकि परमार को अपराधी साबित करती आपकी थ्योरी पर ये फिट बैठता है ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि परमार वहां नहीं गया था ?”
“बिल्कुल नहीं । वो जरूर वहां गया होगा ? आप कहती हैं वो एक बार वहां गया था । मैं कहता हूं वो एक सौ एक बार वहां गया था । और अभी फिर भी जायेगा ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो अपनी स्टेशनरी की तमाम जरूरतें प्रिंट आर्ट से पूरी करता है । वो पिछले पांच साल से प्रिंट आर्ट का रेगुलर कस्टमर है । इसीलिये सुनीता सूद ने निसंकोच उसकी तस्वीर पहचानी थी और बाई नेम उसकी शिनाख्त की थी । बढिया कम्पनियों की मुस्तैद सेल्स गर्ल्स अपने स्टेडी कस्टमर्स को बाई नेम याद रखती ही हैं । मिस केजरीवाल, आप शिनाख्त से ही खुश होकर वहां से लौट न आयी होतीं, आपने सेल्सगर्ल से ये सवाल भी किया होता कि पिछली बार वो शख्स, जिसकी कि वो शिनाख्त कर रही थी, किसलिये वहां आया था तो वो आपको बताती कि वो अपना नाम-पता छपे वो लिफाफे वहां कलेक्ट करने आया था जिनका एक हफ्ता पहले खुद वहां जाकर उसने आर्डर दिया था ?”
रुचिका ने जोर से थूक निगली ।
“इस बाबत कल छाया जी परमार को सन्देहलाभ देने के लिये इसलिये तैयार थीं क्योंकि किसी चीज का किसी के अधिकार में होना स्थापित कर देने से ही ये स्थापित नहीं हो जाता कि उसने उस चीज को इस्तेमाल भी किया था ? इस सन्दर्भ में मेरा ये कहना है कि वास्तव में तो आप लेटरहैड का परमार के अधिकार में होना स्थापित कर ही नहीं सकी थीं । वो तो छाया जी के सन्देहलाभ का तलबगार ही नहीं ।”
रुचिका चुप रही ।
“अब हौजर-707 साइन पैन की सुनिये जो कि आप कहती हैं कि आप ने परमार के घर में उसकी राइटिंग-टेबल पर पड़ा देखा था । इसकी बाबत मैं ये कहना चाहता हूं कि उस पैन को या उसकी स्याही को किसी सबूत का दर्जा देना या उसे अपराधी पर लागू होने वाले किन्हीं शर्तों में शामिल करना ही नादानी है । मैं ये बात बिल्कुल कबूल नहीं कर सकता कि रैपर की लिखावट देख कर ये बताया जा सकता हो कि वो कौन-सी स्याही से, कौन-से पैन से लिखी गई थी । कैमिकल अनैलेसिस से ये बता पाना शायद मुमकिन हो कि स्याही कौन से रंग की है और उसमें और कौन-सा खास द्रव्य शामिल है लेकिन ऐसे अनैलेसिस के लिये सैम्पल का प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होना जरूरी है । रैपर पर लिखे तेरह शब्दों को सैम्पल की प्रचुर मात्रा का दर्जा नहीं दिया जा सकता । दिया जा भी सकता हो तो वो सैम्पल तो सलामत है । वो रैपर अभी भी सुरक्षित पुलिस के अधिकार में है । उसके पता लिखे टुकड़े को किसी कैमिकल में घोलकर अनैलेसिस के लिये प्रयुक्त किया गया होता तो पीछे तो कुछ न बचा होता ! मेरा ये कहना है कि इस बाबत लेखक महोदय ने ये बेपर की उड़ाई है कि रैपर पर पता फलां पैन से या फलां स्याही से लिखा गया था । ऐसा इन्होंने अपनी फर्जी थ्योरी को ज्यादा ड्रामेटाइज करने के लिये, उसे और विश्वसनीय बनाने के लिये कहा था । इनकी जेब में हौजर-707 साइन पैन है और ये उसमें हौजर हाईंटैक प्वायन्ट इंक भरते हैं तो इन्होंने इन दोनों चीजों का नाम ले दिया । इनकी जेब में पार्कर का पैन होता और ये उसमें चेलपार्क इंक भरते होते तो ये ये साबित करके दिखा देते कि रैपर पर पता पार्कर के पैन से उसमें भरी गयी चेलपार्क नाम की काले रंग की स्याही से लिखा गया था । क्यों, प्रभाकर साहब ?”
अशोक प्रभाकर की आंखें आधी मुंद गयीं और वो बड़ी धूर्तता से हंसा ।
अब सभापति आगाशे के चेहरे पर अभिजीत घोष के प्रति पहले जैसे उदासीनता के भाव बाकी नहीं थे । अब वो सम्भल कर बैठ गया था और बड़े गौर से उसकी जुबान से निकले हर शब्द को सुन रहा था ।
“लेकिन” - छाया बोली - “रुचिका कहती है कि परमार के घर में एक हौजर- 707 पैन मौजूद था !”
“वो या महज इत्तफाक था” - अभिजीत घोष बोला “या....”
“या क्या ?”
“या फिर वो वहां प्लांट किया गया था ।”
“क्या ?”
“विषविज्ञान विश्वकोष और मर्डर्स बाई प्वायजन नामक उन दो पुस्तकों की तरह जो कि मिस केजरीवाल कहती हैं कि उनकी मिल्कियत थीं लेकिन जो उन्होंने परमार के घर में मौजूद पायी थीं । मैं तो इसे भी कोई बड़ी बात नहीं समझूंगा कि उन दोनों पुस्तकों की अपने घर में मौजूदगी की अभी दुष्यन्त परमार को कोई खबर तक न हो । हमारे सभापति महोदय कल पुलिस के पास चले जाते तो परमार के यहां पुलिस ही पहुंचती तो परमार को उन पुस्तकों की वहां मौजूदगी की खबर लगती ।”
“आपका कहना है” - आगाशे बोला - “कि वो पुस्तकें रुचिका के होस्टल के कमरे में से परमार ने नहीं चुराई ?”
“नहीं चुराई ।”
“तो फिर किसने चुराई ?”
“हत्यारी ने ।”
“हत्यारी ने ? आपका चुन्दीदा मुजरिम कोई औरत है ?”
“जी हां ।”
“कौन ?”
“सोचिये ।”
“मिस्टर घोष” - रुचिका भुनभुनायी हुई बोली - “आप ये कहना चाहते हैं कि मैं परमार की मेरी गैरहाजिरी में मेरे होस्टल के कमरे में आमद की बाबत झूठ बोल रही हूं ?”
“नहीं । आप ऐसा लचर झूठ क्यों बोलेंगी ? खास तौर से तब जब कि आप अपनी रूममेट की सूरत में उस विजिट का एक गवाह भी पेश कर सकती हैं !”
“तो फिर ?”
“मेरा ये कहना है कि वो किताबें उसने वहां से नहीं चुराईं ।”
“तो फिर वो वहां आया क्या करने था ?”
“ये मैं आगे बताऊंगा जबकि मैं उसके हत्यारी से ताल्लुकात स्पष्ट करूंगा । अभी मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि टाइपराइटर के अलावा कल आप के द्वारा दुष्यन्त परमार के खिलाफ कही गयी तमाम बातें उथली और भ्रामक हैं । दुष्यन्त परमार के खिलाफ आपके केस का मुकम्मल दारोमदार टाइपराइटर पर है जिसे कि आप ठोस सबूत बताती हैं - बिल्कुल वैसे ही जैसे मिस्टर आगाशे के मुकेश निगम के खिलाफ केस का मुकम्मल दारोमदार शर्त पर था जो कि ये समझते थे कि लगी ही नहीं थी ।”
“टाइपराइटर वाले सबूत से” - छाया प्रजापति बोली - “नहीं पार पा पायेंगे आप ।”
“मैडम” - अभिजीत घोष आहत भाव बोला - “पार पाने जैसी कोई कोशिश तो मेरी है ही नहीं । आपके ऐसा कहने से तो यू लगता है जैसे मैं महज एक मजाक के तौर पर मिस केजरीवाल की थ्योरी में नुक्स निकालने की कोशिश कर रहा हूं, जैसे मेरी इस कोशिश की बुनियाद शरारत या अदावत है । ऐसा तो नहीं है । मैं तो वही कुछ कर रहा हूं जो मेरे से पहले क्लब के बाकी मेम्बरान कर चुके हैं । मैं तो असली अपराधी का पता लगाने की एक नाचीज कोशिश कर रहा हूं ।”
“हम आपकी कोशिश की कद्र करते हैं ।” - आगाशे बोला - “बहरहाल बात टाइपराइटर की हो रही थी ।”
“जी हां । और मैं ये अर्ज कर रहा था कि टाइपराइटर परमार के खिलाफ उतना ठोस सबूत नहीं है जितना कि ये समझा जा रहा है । वो सबूत ही नहीं है ।”
“क्या !”
“जी हां ।”
“लेकिन कैसे ?”
“मामूली बात है । हैरानी है कि किसी को नहीं सूझी !”
“पहेलियां न बुझाइये, मिस्टर घोष ।”
“कोई पहेली है ही नहीं, जनाब । मेरे सामने तो सारी बात शुरू से ही दिन की तरह स्पष्ट थी । यहां मैं पहले ये कहना चाहता हूं कि मेरी तुच्छ राय से मुजरिम की काबलियत की बाबत हमारे सभापति महोदय का कथन सही था और मिस केजरीवाल का कथन गलत था । सभापति महोदय ने अपने बयान में मुजरिक को एक आलादिमाग, शातिर मुजरिम करार दिया था जबकि मिस केजरीवाल की राय में अपराधी या उसकी प्लानिंग इतनी तारीफ के काबिल नहीं थी । मुजरिम के हकीकत में आलादिमाग और शातिर होने का यही पर्याप्त सबूत है कि उसने तमाम उपलब्ध सबूतों को इस ढंग से सजाकर पेश किया कि उनके आधार पर अगर किसी पर शक किया जाता तो वो बद्किस्मत इंसान दुष्यन्त परमार ही होता । हर सबूत उस पर चस्पां किया गया, उसके खिलाफ प्लांट किया गया ।”
“मिस्टर घोष” - छाया प्रजापति बोली - “फॉर गॉड सेक, कम टु दि टाइपराइटर ।”
“बट हैवंट आई आलरेडी कम, मैडम ?” - अभिजीत घोष हड़बड़ा कर बोला - “जब मैं सबूतों का जिक्र ‘तमाम सबूत’ कह कर कर रहा हूं तो क्या टाइपराइटर भी इनमें शामिल नहीं ?”
“आपका मतलब है वो सबूत भी फर्जी है ?”
“गढा हुआ है ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“रिग्ड ?” - दासानी बोला ।
“परमार के सिर थोपा गया है ?” - आगाशे बोला ।
“जी हां ।” - अभिजीत घोष ने चारों सवालों का एक ही जवाब दिया ।
“कैसे ?” - आगाशे बोला ।
“बहुत आसान तरीके से ।” - अभिजीत घोष बोला - “जाहिर है कि हत्यारी की परमार के हाउसहोल्ड में पहुंच थी । अब जिस मुजरिम को हौजर-707 साइन पैन, विषविज्ञान विश्वकोष नामक ग्रन्थ और मर्डर्स बाई प्वायजन नामक पुस्तक उस घर में प्लान्ट कर आने की सलाहियात हासिल थीं, वो क्या वहां पड़े टाइपराइटर पर पार्सल के पत्ते की चार सतरें टाइप करके नहीं ला सकती थी ? पहले रैपर पर और फिर मिसाल के लिये नमूना पेश करने के लिये सादे कागज पर !”
सब चौंके । सब सीधे होकर बैठ गये । सब ने नये सम्मान के साथ अभिजीत घोष को देखा । अब उन्हें अहसास होने लगा कि अपनी बारी पर बोलने की जिद करके वक्त बरबाद करने का अभिजीत घोष का कोई इरादा नहीं था ।
“मिस्टर घोष” - फिर अशोक प्रभाकर बोला - “दम तो है आपकी बात में !”
“अब” - आगाशे बोला - “आगे आपका ये दावा तो नहीं कि आप ये भी जानते हैं कि ये सब कुछ किसने किया ?”
“जानता तो हूं ।” - अभिजीत घोष धीरे से बोला ।
“क्या ?”
“जानता हूं, जनाब । और एक तरह से आप ही लोगों के बताये जानता हूं । एक नहीं, दो नहीं, पूरी पांच इतनी शानदार थ्योरियों को सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त न हुआ होता तो अपनी बारी आने पर मुझे खेद प्रकाश ही करना पड़ता । मिस केजरीवाल को याद हो तो मैंने इस सिलसिले की शुरूआत में कहा था कि मुझे तो पता भी नहीं था कि प्रैक्टीकल इनवैस्टिगेशन कैसे होती थी ! यानी कि जैसी दौड़धूप बाकी मेम्बरान ने की, वैसी अगर मुझे करनी पड़ती तो मेरे हाथ तो कुछ भी न लगता । मेरी बारी आखिरी होने की वजह से अब तो एक तरह से मुझे पकीपकाई मिल गयी । अब तो मैंने तमाम उपलब्ध थ्योरियों के सच और झूठ को एक छलनी में डालना था और छलनी को तब तक चलाते रहना था जब तक कि सारा झूठ छन न जाता और सिर्फ सच छलनी में न रह जाता । साहबान, असलियत जानने के लिये मैं तो एक छलनी की तरह इस्तेमाल में आया था, छनने के लिये जो कुछ था वो तो आप लोगों का माल था । तफ्तीश के लिए मिला जो एक हफ्ता आप साहबान ने इतनी आला थ्योरियां तैयार करने में सर्फ किया वो मैंने हाथ पर हाथ रखे बैठकर इसी फिक्र में गुजारा कि मैं अपनी बारी आने पर अपनी कमतरी कबूल करके अपनी नाक कटने से कैसे बचाऊंगा ! हफ्ता गुजर गया । आप साहबान ने अपनी दौड़ मुकम्मल भी कर ली थी और मैं अभी स्टार्टिंग लाइन पर खड़ा था । यही वजह है कि जब दासानी साहब ने अपनी थ्योरी पेश की तो मुझे पूरा यकीन हो गया कि अपराधी पार्वती परमार थी । अगले ही रोज मुझे छाया जी ने भी यकीन दिला दिया कि मुजरिम दासानी साहब थे । मिस्टर प्रभाकर ने खुद को अपराधी साबित करती जो थ्योरी प्रस्तुत की थी, उस पर मुझे एतबार नहीं आया था लेकिन इनकी दलीलों से मैं इतना प्रभावित हुआ था कि अगर ये अपने सिवाय किसी और का नाम लेते तो मैं बेहिचक उसे अपराधी कबूल कर लेता । लेकिन इनकी तिरस्कृत प्रेमिका वाली थ्योरी मुझे बहुत दमदार लगी थी । यही एक इकलौता आइडिया था जो शुरू से ही मेरे भी जेहन में था । मेरी शुरू से ही ये मान्यता थी कि ये कत्ल दुष्यन्त परमार की किसी तिरस्कृत प्रेमिका का काम था । लेकिन उससे अगले रोज जब फिर हमारे सभापति महोदय मिस्टर आगाशे की बारी आयी तो इन्होंने साबित कर दिखाया कि अपराधी कोई तिरस्कृत प्रेमिका नहीं, मुकेश निगम था और मुझे इनकी थ्योरी विश्वास के काबिल लगने लगी ।”
“यानी कि” - रुचिका केजरीवाल बोली - “सिर्फ मेरी ही थ्योरी आपको विश्वास के काबिल नहीं लगी ?”
“मैं बहुत संकोच से ऐसा कह रहा हूं, मिस केजरीवाल लेकिन असल में बात ये ही है ।”
“आई सी ।” - रुचिका शुष्क स्वर में बोली ।
“लेकिन गौरतलब, काबिलेजिक्र और काबिलेतारीफ बात ये है कि कैसे किसी-न-किसी तरीके से किसी-न-किसी रास्ते से हर कोई हकीकत के किसी-न-किसी पहलू तक पहुंचा । हमारे माननीय वक्ताओं में से हर किसी ने कम-से-कम एक महत्वपूर्ण तथ्य तक जरूर पहुंचकर दिखाया, कम से कम एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष जरूर सही-सही निकाला । आपकी जानकारी के लिये मैं सोमवार के बाद से ही मीटिंग के बाद हर रोज घर जाकर मीटिंग की मुकम्मल कार्यवाही को कागज पर उतारता था और उसकी हाईलाइट्स को अलग नोट करता था । यूं यहां जो कुछ भी कहा गया था, उसका पूरा रिकार्ड मेरे पास उपलब्ध है ।”
“वैरी गुड !” - आगाशे बोला - “इस बात से प्रेरणा लेकर मैं प्रस्तावित करता हूं कि भविष्य में क्राइम क्लब की मुकम्मल कार्यवाही को टेपरिकार्डर पर टेप किया जाये ।”
सब ने उस प्रस्ताव का अनुमोदन किया ।
“बहरहाल” - अभिजीत घोष बोला - “कल सारी रात में अपने उन नोट्स को ले के बैठा रहा और सच और झूठ को छान कर अलग करने की कोशिश करता रहा । लेडीज एण्ड जेन्टलमैन, मुझे खुशी है कि मैं अपनी कोशिश में कामयाब रहा ।”
“किसका क्या कहा सही लगा आपको ?” - आगाशे बोला ।
“सुनिये । दासानी साहब ने ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज की थी कि पार्सल के साथ आयी चिट्ठी लेटरहैड से एक इबारत मिटाकर उसकी जगह दूसरी इबारत टाइप करके बनायी गयी थी । यानी कि उस लेटरहैड की जो खासियत पुलिस को या हममें से किसी को भी नहीं दिखाई दी थी, वो दासानी साहब को दिखाई दी थी । बात इनकी दुष्यन्त परमार के अपनी बीवी से तलाक सम्बन्धी भी महत्वपूर्ण थी लेकिन उस बात से इन्होंने जो नतीजा निकाला था, वो दुरुस्त नहीं था । कर्टसी मिस रुचिका केजरीवाल, ये पार्वती परमार को अपराधी नहीं साबित कर पाये थे । मिस केजरीवाल की लखनऊ में मौजूदगी की वजह से ये पार्वती परमार की दिल्ली में मौजूदगी नहीं स्थापित कर पाये थे । हमारी माननीया सदस्या मिस केजरीवाल ही पार्वती परमार की एलीबाई निकल आयी थीं कि दिल्ली में चाकलेटों वाला पार्सल पोस्ट किये जाने के समय के आस-पास तो पार्वती परमार मिस केजरीवाल के साथ लखनऊ में गोमती के किनारे शहीद स्मारक के सामने खड़ी थी ।”
“दैट्स ए फैक्ट ।” - रुचिका बोली ।
“मिसेज छाया प्रजापति ने” - रुचिका की बात की ओर ध्यान दिये बिना अभिजीत घोष बोलता रहा - “अपनी बारी पर जो मार्कें की बातें हमें बताई, उनमें से एक तो ये थी कि अपराधी या तो कोई क्रिमिनालोजिस्ट था या अपराध से दो चार होना जिसके कारोबार का अंग था । ये बात मैडम ने शत-प्रतिशत सच कही । अपराध से दो चार होना मेरी अपराधिनी की नौकरी का हिस्सा है । दूसरे इन्होंने भी प्रेम तिकोन पर जोर दिया लेकिन उसमें मार्के की बात ये थी कि इन्होंने ये समझाया कि दुष्यन्त परमार को विभा दासानी से कोई मुहब्बत नहीं थी । वो तो बाप की दौलत हथियाने के लिये बेटी से शादी करना चाहता था । ये बात भी मैडम ने सौ फीसदी सच कही । क्योंकि अगर ऐसा न होता - अगर दुष्यन्त परमार को सच में विभा दासानी से मुहब्बत होती - तो फिर अंजना निगम की जगह विभा दासानी का कत्ल हुआ होता ।”
“ओह माई गाड !” - दासानी के मुंह से निकला ।
“यहां तो” - अशोक प्रभाकर बोला - “फिर तिरस्कृत प्रेमिका वाली थ्योरी सिर उठा रही है ।”
“जो कि खुद आपकी थ्योरी की स्टार अट्रैक्शन थी ।” - अभिजीत घोष बोला - “मिस्टर प्रभाकर, मैं एक बात की आपको बधाई देना चाहता हूं कि मेरी राय में केस के असली हल के सबसे करीब सिर्फ आप पहुंचे थे । आपने खुद अपने खिलाफ जो केस गढा था, उसके भी कुछ नतीजे चौंका देने वाले थे । जैसे नाइट्रोबेंजीन के इस्तेमाल से निकाले गये आपके नतीजे कि अपराधी को आदतन नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द होना चाहिये - जो कि आधुनिक, नौजवान लड़कियां होती ही हैं । कि अपराधी को रचनात्मक मस्तिष्क का स्वामी और हर कार्य को योजनाबद्ध तरीके से करद का आदी होना चाहिए । अब अपराध से दो चार होना जिस आधुनिक नौजवान युवती की नौकरी का हिस्सा होगा, उसकी कल्पना हम रचनात्मक मस्तिष्क की स्वामिनी के रूप में तो कर सकते हैं, उससे हम ये भी अपेक्षा कर सकते हैं कि वो हर कार्य को योजनाबद्ध तरीके से करने की आदी होगी । लेकिन जो सबसे दूर की कौड़ी आप लाये, मिस्टर प्रभाकर, वो ये थी कि अपराधी को विषविज्ञान विश्वकोष की एक प्रति उपलब्ध होनी चाहिये थी ।”
“शुक्रिया ।”
“अब जबकि आप कबूल कर ही चुके हैं कि हौजर-707 साइन पैन और हौजर हाईंटैक प्वायन्ट इंक सम्बन्धी अपनी शर्त नम्बर सात और आठ में आपने बेपर की उड़ाई थी तो मैं निसंकोच कह सकता हूं कि आपकी छटी शर्त के अलावा मुझे आपकी बाकी तमाम शर्तों से इत्तफाक है । पैन वाली बात बेपर की न भी हो तो भी वो किसी काम की नहीं । पैन तो लोग डाकखाने में, रेलवे स्टेशन पर, कमेटी के दफ्तर में, कहीं भी चार अक्षर लिखने के लिये नितान्त अजनबी से उधार मांग लेते हैं । पैन की तो बिसात ही क्या है, मेरी अपराधिनी ने तो टाइपराइटर पराये से काम चलाया है ।”
“छटी शर्त से आपको क्या नाइत्तफाकी है ?” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“मुझे ये बात कबूल नहीं कि पार्सल पोस्ट करने के लिये अपराधी को खुद सवा एक और पौने तीन के बीच में जनपथ पर मौजूद होना चाहिये था । जनपथ तो क्या, उसका दिल्ली में भी मौजूद होना जरूरी नहीं ।”
“यानी कि ये काम उसने किसी से करवाया ?”
“जी हां ।”
“लेकिन यहां आम राय तो ये है कि अपराधी ने अपना ऐसा कोई अकम्पलीस, ऐसा कोई जोड़ीदार खड़ा करने से परहेज किया होगा !”
“जोड़ीदार ऐसा हो जो बाद में किसी के सम्पर्क में न आने वाला हो, जो बाद में दिल्ली से इतना दूर निकल जाने वाला हो कि उसे खुद ये खबर न लगने वाली हो कि उसके द्वारा पोस्ट किये गये पार्सल ने क्या कहर ढाया था तो ऐसा जोड़ीदार पालने का खतरा अपराधी को कबूल हो सकता है ।”
“आई सी ।”
“आपकी दूसरी थ्योरी का एक नतीजा तो यूं समझिये कि ऐन सच के सिर पर ही आन धमका था । वो नतीजा ये था कि अपराधी कोई स्त्री थी, क्राइम का सारा पैट्रन स्त्रीसुलभ था, हत्यारी कोई तिरस्कृत प्रेमिका थी जिसका अपराधशास्त्र में गहरा रुझान था और हत्या का उद्देश्य ईर्ष्या था ।”
“यानी कि” - अशोक प्रभाकर मन्त्रमुग्ध-सा बोला - “हत्यारी के नाम के अलावा मैंने सब कुछ ठीक कहा ?”
“जी हां । और इस लिहाज से आप मुबारकबाद के पूरे-पूरे हकदार हैं ।”
“शुक्रिया । शुक्रिया ।”
“अब हम अपने सभापति महोदय की थ्योरी पर आते हैं ।”
“यानी कि” - आगाशे बोला - “मेरी थ्योरी की भी कोई बात आपको किसी काबिल लगी ?”
“आपने तो जनाब, केस के असली हल की मुकम्मल बुनियाद तजवीज की ।”
“अच्छा !”
“जी हां । सबसे करामाती बात तो आप ही ने सुझायी थी कि अपराधी की योजना बैकफायर नहीं कर गयी थी । वो अपने मिशन में फेल नहीं हुआ था । गलत आदमी नहीं मारा गया था । उसकी योजना सौ फीसदी कामयाब रही थी । कत्ल उसी का हुआ था जिसका कि वो करना चाहता था ।”
“यानी कि आप भी यही समझते हैं कि अपराधी का निशाना अंजना निगम ही थी ?”
“जी हां । मैं भी ये ही समझता हूं लेकिन संशोधन के साथ ।”
“ओह ! तो दूध में मक्खी यहां भी है ।”
“जी !”
“कुछ नहीं । क्या है आपका संशोधन ?”
“ये कि अपराधी का निशाना सिर्फ अंजना निगम नहीं, अंजना निगम और दुष्यन्त परमार दोनों थे ।”
“दोनों ?”
“जी हां । आप सच के बहुत करीब पहुंच गये थे, मिस्टर आगाशे, आप से सिर्फ ये चूक हुई कि आपने ईर्ष्या की मारी पूर्वप्रेमिका की तरफ तवज्जो देने की जगह ईर्ष्या के मारे पति की तरफ तवज्जो दी और उसी को खलनायक साबित करने पर पूरा जोर रखा । आपने एक बार भी बतौर अपराधी ईर्ष्या की मारी पूर्वप्रेमिका की सम्भावना पर विचार किया होता तो आपने तो केस हल कर भी लिया था ।”
“जानकर खुशी हुई ।”
“अब मैं मिस रुचिका केजरीवाल की थ्योरी पर आता हूं ।”
“क्या फायदा !” - रुचिका बोली - “जबकि आप पहले ही घोषित कर चुके हैं कि सिर्फ मेरी ही थ्योरी आपको विश्वास के काबिल नहीं लगी ।”
“लेकिन मेरे ज्ञानचक्षु आप ही के बयान से खुले । बावजूद इसके कि मैं आपकी थ्योरी से आश्वस्त नहीं हो पाया था, सत्यदर्शन मुझे आप ही की बातों से हुआ था ।”
“अच्छा ! ऐसी कौन-सी बात कह दी थी मैंने ?”
“रुचिका जी, आपने - सिर्फ आपने - हमें दुष्यन्त परमार और अंजना निगम के अत्यन्त गोपनीय अफेयर की खबर की थी और ये बात यूं समझ लीजिये कि वो चाबी है जिसने कि हमारी मर्डर मिस्ट्री के मुंह पर बन्द तमाम दरवाजों के ताले खोल डाले ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि ऐसी करामाती चाबी से मैं कोई ताला न खोल सकी ! मैंने इसे जहां भी लगाया, गलत लगाया !”
“तकरीबन ।”
“आई डोंट एग्री । मेरा अब भी यही कहना है कि मैंने जो भी नतीजे निकाले, ठीक निकाले ।”
“आप से पहले के वक्ताओं में से भी हर किसी का ये ही कहना था ।”
“आप मेरी छोड़िये” - रुचिका झुंझलाकर बोली - “अपनी कहिये, क्या कहना चाहते हैं ।”
“मैं ये कहना चाहता हूं कि आपका बतौर पति-पत्नी मुकेश निगम और अंजना निगम के सम्बन्धों का विश्लेषण बहुत उम्दा था । अंजना निगम जैसी एक शादीशुदा औरत के अवैध प्रेम सम्बन्ध की भी आपने बहुत खूबसूरत व्याख्या अपने श्रोताओं के लिये की ।”
“अभी भी आप मेरी ही बात कर रहे हैं ।”
“अपनी बात तक पहुंचने के लिये आपकी बात का हवाला जरूरी है, मैडम ।”
“ठीक है । मैं सुन रही हूं ।”
“आपने एकदम ठीक कहा था कि कत्ल की बुनियाद अंजना निगम का दुष्यन्त परमार से लव अफेयर नहीं था बल्कि अंजना निगम का अपना खुद का बड़ा पेचीदा कैरेक्टर था । अपने उस कैरेक्टर की वजह से ही उसने अपनी मौत को न्योता था । उस अवैध प्रेम सम्बन्ध के सन्दर्भ में आपने न केवल अंजना निगम के कैरेक्टर को ठीक समझा था बल्कि उसकी परमार को हमेशा के लिये अपना बना लेने की आन्तरिक इच्छा को भी ठीक पहचाना था लेकिन आपका ये ख्याल सर्वदा भ्रान्तिपूर्ण है कि परमार को अंजना निगम से उम्र भर के लिये बंधना नामंजूर था और वो उस घड़ी को कोसता था जबकि उसने अंजना जैसी औरत को अपने आप पर इतना ज्यादा हावी होने दिया था । ऐसा बिल्कुल नहीं था । हकीकत ये है कि परमार अंजना निगम पर दिलोजान से फिदा था । उतनी अंजना उसकी दीवानी नहीं थी जितना कि वो अंजना का दीवाना था । और, लेडीज एण्ड जन्टलमैन, यहीं इस ट्रेजेडी का निर्णायक पहलू था ।”
कोई कुछ न बोला । लेकिन इतना अब साफ दिखाई दे रहा था कि अब हर कोई अभिजीत घोष की हर धारणा, को हर तर्क को बहुत गम्भीरता से ले रहा था । रुचिका की थ्योरी पर से अभी उनकी निष्ठा नहीं घटी मालूम होती थी लेकिन अब माहौल ऐसा बन गया था कि ऐसा हो जाता तो कोई हैरानी की बात न होती ।
“मिस केजरीवाल की” - अभिजीत घोष महफिल में एकाएक हो उठी अपनी पूछ से मन-ही-मन आनन्दित होता हुआ बोला - “कही एक और बात से भी मैं पूरी तरह से सहमत हूं । वो ये कि हत्यारी को हत्या की तरकीब ‘मर्डर्स बाई प्वायजन’ नामक उस पुस्तक से सूझी थी जिसकी एक प्रति मिस केजरीवाल के पास थी लेकिन जो अब ‘हत्यारी के सौजन्य से’ दुष्यन्त परमार के घर में प्लांट हो चुकी है । दूसरी करामाती बात इन्होंने ये बताई किे वारदात वाले दिन की सुबह मुकेश निगम की हाजिरी शिवालिक क्लब में जरूर लगे, इसका बाकायदा षड्यन्त्र रचा गया था । लेकिन इस षड्यन्त्र के तहत सलमा शाह बन कर मुकेश निगम को फोन अंजना निगम ने नहीं किया था । न ही मुकेश निगम को शिवालिक क्लब में हाजिरी के पीछे अपराधी की ये मंशा थी कि वो दुष्यन्त परमार के नाम डाक से वहां पहुंचा जहरभरी चाकलेटों वाला पार्सल परमार से हथियाये । हकीकत ये है कि परमार और अंजना निगम की लंच अप्वायन्टमैंट कैंसल हो गयी थी, इस बात की अपराधी को कोई खबर नहीं थी । असल में मुकेश निगम की शिवालिक क्लब में हाजिरी का इन्तजाम इसलिये और सिर्फ इसलिये किया गया था ताकि इस बात का कोई जिम्मेदार गवाह बन सके कि दुष्यन्त परमार ने डाक से आया चाकलेटों वाला पार्सल रिसीव किया था । इसके पीछे मंशा ये थी कि उन चाकलेटों के सन्दर्भ में दुष्यन्त परमार का नाम मुकेश निगम के जेहन में ऐसा ठुक जाये कि अंजना निगम की मौत के बात जब ये तथ्य सामने आये कि वो मौत कैसे हुई तो पुलिस की तवज्जो भले ही किसी और की तरफ भी चली जाये, मुकेश निगम को शक के काबिल शख्स सिर्फ दुष्यन्त परमार दिखाई दे । हत्यारी की योजनानुसार अगर सब कुछ चलता तो अंजना निगम होटल क्राउन में ही मर गयी होती या हस्पताल जाकर मर गयी होती जहां कि वो होटल क्राउन से बहुत बुरे हाल में पहुंचायी जाती । यूं उनके प्रेम सम्बन्धों का राज फाश हो जाता और ये बात भी आम होती कि कैसे अंजना निगम अपनी मृत्यु को प्राप्त हुई ! ऐसे माहौल में जब दुष्यन्त परमार भी अपने घर में मरा पड़ा पाया जाता तो यही समझा जाता कि हालात से घबरा कर उसने आत्महत्या कर ली थी ।”
“आपका मतलब है कि हत्यारी उसकी यूं हत्या करती कि वो आत्महत्या लगती ?” - आगाशे नेत्र फैला कर बोला ।
“जी हां ।”
“कैसे ?”
“क्या पता कैसे ? वो कत्ल तो हुआ ही नहीं । मुमकिन है वो किसी तरीके से उसे नाइट्रोबेंजीन का ही तगड़ा डोज दे देती और कुछ जहरभरी चाकलेटें उसके इर्द-गिर्द बिखरा देती । बहरहाल इस बात की मेरी गारन्टी है कि हत्यारी की मूलयोजना के अनुसार जान दोनों की ही जानी थी । दुष्यन्त परमार क्योंकि खुद मर गया होता इसलिये अंजना निगम के कत्ल के सन्दर्भ में उसके खिलाफ जो षड्यन्त्र गढा गया था, उसको नकारने के लिये वो मौजूद न होता ।”
“ओह !”
“लेकिन हकीकत में हालात हमेशा वही रुख अख्तियार नहीं करते जिसकी अपेक्षा हत्यारे ने अपनी योजना के अन्तर्गत की हुई होती है । अब यहीं देखिये कितनी गड़बड़ें हुई ! चाकलेटें अंजना तक पहुंचीं तो सही लेकिन वैसे न पहुंची जैसे पहुंचने की हत्यारी ने अपेक्षा की थी । उसे ये न खबर लग सकी कि परमार और अंजना की लंच अप्वायन्टमैंट कैंसल हो गयी थी । यूं अंजना की मौत से वो स्कैन्डल न सिर उठा सका जिसकी वजह से दुष्यन्त परमार की आत्महत्या न्यायोचित लगती । और तो और शर्त वाली अतिरिक्त बात बीच में न आ गयी होती तो चाकलेटें तो अंजना निगम तक पहुंची न होतीं । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, कल मिस केजरीवाल ने कहा था कि अपराधी का ज्यादा साथ उसके आलादिमाग ने नहीं, उसकी आलाकिस्मत ने दिया था । मैं ये कहना चाहता हूं कि हालात ने असल में जो रुख अख्तियार किया उनसे ऐन इससे उलट नतीजा निकलता है । वो नतीजा ये है कि किस्मत ने ही हत्यारी का साथ नहीं दिया वरना अपने दिमाग को तो उसने इनाम के काबिल साबित करके दिखाया था । आप मेरी बात से सहमत हैं, मिस केजरीवाल ?”
रुचिका तनिक हड़बड़ाई, फिर उसने बड़े अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“अब मैं आपका ध्यान” - अभिजीत घोष बोला - “एक ऐसे सवाल की ओर आकर्षित करना चाहता हूं जो किसी के जेहन में नहीं उठा; सिवाय” - उसने आगाशे की तरफ देखा - “हमारे सभापति महोदय के ।”
“कौन-सा सवाल ?” - तत्काल आगाशे उत्सुक भाव से बोला ।
“चाकलेटों का पार्सल दुष्यन्त परमार के घर के पते पर क्यों नहीं भेजा गया ? वो उसके पास क्लब के पते पर क्यों भेजा गया ?”
“क्योंकि” - आगाशे बोला - “वो पहली डाक से डिलीवर होने वाला था और पहली डिलीवरी के वक्त के आस-पास परमार की क्लब में मौजूदगी की गारन्टी होती थी ।”
“जी हां, ये आपका जवाब था ।”
“आप इससे सहमत नहीं ?”
“मैं पूरी तरह से सहमत हूं लेकिन ये जवाब मुकम्मल जवाब नहीं है । दो और वजुहात का इजाफा इसमें होगा तो ये मुकम्मल जवाब बनेगा ।”
“और दो वजुहात कौन सी ?”
“मिस केजरीवाल, आप बताइये ।”
“आप ही बताइये ।” - रुचिका बोली । पता नहीं क्यों एकाएक उसके स्वर में चैलेंज का पुट आ गया था ।
“सुनिये ।” - अभिजीत घोष बड़े इत्मीनान से बोला - “एक तो इसलिये क्योंकि अगर पार्सल परमार के घर के पते पर आता तो उसमें कम्पलीमैंट्री चाकलेटों की मौजूदगी का वहां कोई गवाह न होता जबकि ऐसा एक गवाह क्लब में मुकेश निगम की सूरत में बड़ी मेहनत से, बड़ी चालाकी से स्थापित किया गया था । दूसरे, पार्सल क्लब के पते पर इसलिये भेजा गया था ताकि जब दुष्यन्त परमार अपनी लंच अप्वायन्टमैंट के लिये होटल क्राउन को रवाना होता तो चाकलेटों को वो अपने साथ लेकर जाता । घर पर तो वो पार्सल पीछे ही छूट सकता था । हत्यारी ने परमार की क्लब में हाजिरी को खूब स्टडी किया हुआ था इसलिये वो जानती थी कि क्लब से निकलने के बाद होटल क्राउन के अलावा कहीं और जाने का वक्त उसके पास नहीं उपलब्ध होने वाला था । और यूं पार्सल का होटल क्राउन उसके साथ जाना निश्चित था ।”
“लेकिन” - छाया प्रजापति बोली - “पार्सल तो उसने मुकेश निगम को दे दिया था ।”
“इसलिये दे दिया था क्योंकि लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल हो गयी थी और अब परमार के लिये उन चाकलेटों का कोई इस्तेमाल नहीं रहा था । खुद तो वो चाकलेटें खाता नहीं था । लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल न हुई होती तो अपनी प्रेमिका को भेंटस्वरूप देने के लिये वो उसे बेहतरीन तोहफा लगता । यहां ये बात गौरतलब है कि सीधे नहीं तो मुकेश निगम के जरिये सही, चाकलेटों का तोहफा पहुंचा फिर भी उसकी प्रेमिका के ही पास था । उसके वो पार्सल मुकेश निगम को बेहिचक सौंप देने की ये भी एक वजह हो सकती है ।”
“ओह !” - आगाशे के मुंह से निकला ।
“कहते हैं कि अपराधी कितना भी चालाक क्यों न हो, कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई ऐसी चूक उससे हो ही जाती है जो कि अन्त में उसके पतन का कारण बनती है । यहां हमारी अपराधनी से यही एक चूक हुई कि उसने ये न सोचा कि लंच अप्वायन्टमैंट कैंसल भी हो सकती थी । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, यही एक बात आखिरकार उसका वाटरलू बनी ।”
“अभी कहां बनी ?” - आगाशे बोला ।
“बन ही गयी, जनाब ।” - अभिजीत घोष तनिक नाटकीय स्वर में बोला ।
“है कौन वो, मिस्टर घोष ?” - छाया प्रजापति यूं बोली जैसे सस्पैंस से मरी जा रही हो ।
“मैडम” - अभिजीत घोष मुस्कराया - “जब हर किसी ने अपने अपराधी का नाम आखिर में बताया है तो मुझे क्यों आप अपराधी का नाम इस ड्रामेटिक स्टाइल से बताने से महरूम करना चाहती हैं ।”
“यानी कि अभी आपने और भी बहुत कुछ कहना है ?”
“बहुत कुछ तो नहीं । बहुत कुछ तो मैं कह चुका । तकरीबन मुद्दों पर तो मैं उपस्थित देवियों और सज्जनों का संशयनिवारण कर ही चुका हूं । लेटरहैड के बारे में एक बात मैं और कहना चाहता हूं । दरअसल सोराबजी एण्ड संस का लेटरहैड इसलिये इस्तेमाल किया गया था क्योंकि हत्यारी ने कत्ल का औजार जहरभरी चाकलेटों को बनाना था और सोराबजी एण्ड संस ही इकलौती चाकलेट निर्मात्री फर्म थीं जिसकी स्टेशनरी प्रिंट आर्ट से सप्लाई होती थी ।”
“क्या मतलब ?” - छाया प्रजापति के माथे पर बल पड़े - “मेरे पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ा । क्या कहना चाहते हैं आप ?”
“मैं कोशिश करता हूं समझाने की । देखिये, हत्यारी को इस बात की पहले से खबर थी कि दुष्यन्त परमार अपनी स्टेशनरी के मामले में प्रिंट आर्ट का पक्का ग्राहक था और वहां अक्सर आता-जाता था । अब अगर हत्यारी ने लेटरहैड का चोर परमार को स्थापित करना था तो वे लेटरहैड किसी ऐसी कम्पनी का होना जरूरी था जिसकी स्टेशनरी प्रिंट आर्ट से छपती हो और जिसकी स्टेशनरी के नमूने उसकी सैम्पल फाइल में उपलब्ध हों । तभी तो ये स्थापित किया जा सकता था, जैसे कि अपनी थ्योरी में मिस केजरीवाल ने किया था, कि वहां की सैम्पल फाइल से लेटरहैड परमार ने चोरी किया था ।”
“ओह !”
“यानी कि हम सब” - आगाशे बोला - “लेटरहैड के मामले में तांगे को घोड़े के आगे जोत रहे थे । यानी कि अगर दुष्यन्त परमार का स्टेशनरी सप्लायर कोई और होता तो हत्यारी ये पता लगाती कि वहां कौन-सी चाकलेट बनाने वाली कम्पनी की स्टेशनरी छपती थी । यानी कि उसकी योजना के लिये परमार का और किसी चाकलेट निर्मात्री कम्पनी का एक ही प्रिंटिंग एण्ड स्टेशनरी शॉप का ग्राहक होना जरूरी था ।”
“जी हां ।”
सबके चेहरे पर प्रशंसा के भाव आये ।
सिवाय रुचिका केजरीवाल के चेहरे पर ।
अभिजीत घोष उसकी मास्टरपीस थ्योरी को परत-दर-परत उधेड़ता जो चला जा रहा था ।
“उद्देश्य के बारे में क्या कहते हैं आप ?” - सभापति आगाशे बोला - “आपका इशारा ईर्ष्या की तरफ था लेकिन आपने तफसील से इस बाबत कुछ नहीं कहा । उद्देश्य की बाबत अब क्या कहते हैं आप ?”
“जनाब, मैं ईर्ष्या से ज्यादा बदले पर जोर देना चाहता हूं ।” - अभिजीत घोष बोला - “या दोनों का दखल मान लीजिये । यूं कह लीजिये कि हत्यारी दुष्यन्त परमार से बदला लेना चाहती थी और अंजना निगम से उसे ईर्ष्या थी ।”
“परमार से बदला !”
“जी हां । ये बड़ा नाजुक, बड़ा गोपनीय मसला है । ये मेरी हत्यारी का टॉप सीक्रेट है कि हमारे लार्ड बायरन की माशूकों की लम्बी लिस्ट में वो भी शुमार थी । कभी वो भी दुष्यन्त परमार की चहेती थी ।”
“जो अब तिरस्कृत प्रेमिका बन चुकी थी ?” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“जी हां । लेकिन कभी सिर्फ मेरी हत्यारी को ही परमार से नहीं, दोनों को एक-दूसरे से गहरी मुहब्बत थी । अपनी आदत से मजबूर दुष्यन्त परमार और औरतों पर लार तो तब भी टपकाता था लेकिन ये एक अन्डरस्टैण्डिंग उन दोनों में स्थापित थी कि तफरीहन वो कहीं भी मुंह मारता फिरे लेकिन इस मामले में गम्भीर ख्यालात उसके मेरी हत्यारी की बाबत ही रहें ।”
“यानी कि” - अशोक परमार बोला - “हमबिस्तर होने को तैयार दासियां वो अपने हरम में जितनी मर्जी भरती कर ले लेकिन रानी का दर्जा उसके अलावा किसी का न हो ।”
“वैरी वैल सैड, सर ।” - अभिजीत घोष बोला - “बल्कि यूं कहिये कि पटरानी का दर्जा उसके अलावा किसी का न हो । मेरी हत्यारी पढी-लिखी, आधुनिक और आजादख्याल है इसलिये जिस मर्द से उसे प्यार था, उसकी छोटी-मोटी एडवेन्चरों को वो नजरअन्दाज कर सकती थी । उन दोनों में ये क्लियर अन्डरस्टैन्डिंग थी कि परमार का अपनी बीवी से तलाक होते ही वो उससे - मेरी हत्यारी से - शादी कर लेगा । ये तब की बात है जब कि परमार ने तलाक ने तलाक के कागजात दाखिलदफ्तर किये भी नहीं थे और बीवी पार्वती परमार को उसके और मेरी हत्यारी के अफेयर की कोई खबर नहीं थी । लेकिन बाद में जब तलाक का मामला आगे बढा तो परमार ने पाया कि अपनी फ्रीडम हासिल करने की उसे इतनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती थी कि आर्थिक दृष्टिकोण से तो उसने नंगा हो जाना था । इसलिये उसने मुहब्बत की खातिर शादी करने की जगह दौलत की खातिर शादी करने का फैसला किया ।”
“ये फैसला” - अशोक प्रभाकर बोला - “आपकी हत्यारी को तो गवारा नहीं हुआ होगा ।”
“इस फैसले से मायूसी तो उसे होनी ही थी” - अभिजीत घोष बोला - “लेकिन गवारा इसे उसने ये सोचकर कर लिया कि परमार को आखिरकार विभा दासानी से कोई मुहब्बत तो थी नहीं, उस शादी का मकसद तो महज माली सहूलियत हासिल करना था और यूं परमार की दौलत की खातिर ऐसी लड़की से हुई शादी भी, जिससे कि परमार को कोई मुहब्बत नहीं थी, खुद मेरी हत्यारी के परमार की निगाह में रुतबे और दर्जे में कोई विघ्न बनने वाली नहीं थी । परमार की भलाई में इसे वक्त की जरूरत मान कर मेरी हत्यारी ने हालात से समझौता कर लिया और परमार को विभा दासानी के - जिसे कि वो दौलत के अलावा किसी भी लिहाज से अपनी प्रतिद्वन्द्विता के काबिल नहीं मानती थी - पीछे पड़ा रहने दिया । उसकी ये खुशफहमी बनी रही कि शादी परमार बेशक विभा दासानी से कर ले, तहेदिल से मुहब्बत वो सिर्फ उससे करता था । सिर्फ वो ही परमार का सच्चा प्यार थी, उसके बाकी तमाम रिश्ते या स्वार्थपूर्ति के थे या क्षणिक आकर्षण के थे ।”
अभिजीत घोष ठिठका, उसकी निगाह पैन होती हुई सारे सदस्यों के आति-गम्भीर चेहरों पर फिरी और फिर वो बोला - “यहां तक तो सिलसिला ठीक था मेरी हत्यारी के लिये । लेकिन फिर एक अप्रत्याशित घटना घटित हो गयी । दुष्यन्त परमार को न सिर्फ उससे मुहब्बत न रही बल्कि वो अंजना निगम पर बुरी तरह से मरा मिटा । सिर्फ मर ही न मिटा, बल्कि उसका दिल जीतने में कामयाब भी हो गया । विभा दासानी के बाद ये परमार का ताजातरीन अफेयर था और अंजना निगम के नुक्तानिगाह से इस अफेयर का बहुत ही सच्चा खाका मिस केजरीवाल ने हमारे सामने खींचा था, अलबत्ता दुष्यन्त परमार के नुक्तानिगाह से ये इतनी कामयाब न हो सकी ।”
“आई सी ।” - रुचिका शुष्क स्वर में बोली ।
“अब मेरी हत्यारी को अपने जेहन में रखकर सूरतअहवाल का मुलाहजा फरमाइये । दुष्यन्त परमार तलाक लेकर अपनी आजादी हासिल कर रहा है, विभा दासानी से उसके अफेयर का समापन हो रहा है क्योंकि उससे शादी की उसे कोई ख्वाहिश या जरूरत नहीं रही । अपनी अन्तरात्मा के बोझ के नीचे दबी ‘शरीफ औरत’ अंजना निगम को इसी में अपनी मुक्ति दिखाई देती है कि वो अपने पति से तलाक लेकर परमार से शादी कर ले । परमार को ये शादी बहुत-बहुत मंजूर है क्योंकि एक तो उसे सच में ही उससे मुहब्बत हो चुकी होती है और दूसरे, दौलत के मामले में वो अंजना निगम को विभा दासानी से कहीं ज्यादा सूटेबल कैन्डीडेट पाता है । यानी कि जैसे दोनों के पुरजोर इरादे थे, दुष्यन्त परमार और अंजना निगम का गठबन्धन हो के रहना था । अब देखिये इस तस्वीर में वो युवती कहां फिट होती है जिसे कि मैं हत्यारी समझता हूं ! वो कहीं भी फिट नहीं होती । अब उसे न परमार के नाम पर अपना दावा दिखाई देता है और न उसकी मुहब्बत पर । साहबान, ऐसी स्थिति को अंग्रेजी की एक कहावत में, जिससे कि यकीनन आप सब वाकिफ होंगे, यूं बयान किया गया है कि हैल हैथ नो फ्यूरी लाइक ए वूमेन स्कार्न्ड तिरस्कृत औरत से बड़ा कहर जहन्नुम में भी नहीं...”
“मिस्टर घोष” - उसके आगे कुछ कह पाने से पहले रुचिका केजरीवाल तीखे स्वर में बोली - “कुछ साबित भी कर सकते हैं आप ?”
“ख्याल तो है ।” - अभिजीत घोष तनिक सकपकाये स्वर में बोला ।
“मुझे तो उम्मीद नहीं ।”
“लेकिन...”
“कैसे कुछ साबित कर पायेंगे आप ? आपने खुद ही तो कहा है कि आप के पास सिर्फ थ्योरियां ही थ्योरियां हैं और वो भी आपने हम ही लोगों की कही बातों में से निकाली हैं । यूं जुबानी जमाखर्च से ही कुछ साबित होता है, मिस्टर घोष !”
“लेकिन मैंने कुछ हाथ-पांव भी मारे हैं ।” - अभिजीत घोष हड़बड़ाया-सा बोला - “आप लोगों जितना न सही लेकिन छोटा-मोटा फील्ड वर्क तो मैंने भी किया है ।”
“ये नयी खबर है । मसलन क्या किया है आपने ?”
“मसलन मैंने बड़ी मेहनत से दुष्यन्त परमार का परिचय हासिल किया था और उससे एक बैठक का मौका पैदा किया था । आज दिन में मैं परमार से मिला था और वार्तालाप के दौरान मैं उससे कुछ ऐसी बातें कुबुलवाने में कामयाब हो गया था जिनकी बिना पर मेरे जेहन में हत्यारी का अक्स साफ-साफ उतर आया था । अनजाने में उसने कुछ ऐसी बातें भी कहीं जो...”
“बकवास ही की होगी उस बेहूदा आदमी ने ।” - रुचिका नाक चढाकर बोली - “इसलिये वो किस्सा बन्द करो ।”
“आप सुनना नहीं चाहतीं” - अभिजीत घोष तनिक हत्प्रभ स्वर में बोला - “कि उसने क्या कहा ?”
“मैं क्या, कोई भी नहीं सुनना चाहता होगा उस बेहूदा आदमी की बेहूदा बकवास ।”
“आप ये भी नहीं सुनना चाहतीं कि उसने आपके होस्टल के कमरे में अपनी विजिट की बाबत क्या कहा जिसमें कि आप कहती हैं कि वो आपकी दो किताबें चुरा कर ले गया था ?”
“क्या कहता है वो ?”
“वो कहता है कि वहां वो आपके आमन्त्रण पर गया था । वो कहता है कि आप उसे वहां बुला कर खुद गायब हो गयी थीं । फिर इंतजार से तंग आकर वो आपसे बिना मिले वहां से लौट आया था ।”
“वो तो ऐसा कहेगा ही ? ये नहीं कहेगा तो क्या साफ-साफ ये कह देगा कि वो यहां मेरी किताबें चुराने आया था ?”
“मैडम, वो किताबें किताबों की दुकानों पर भी उपलब्ध होती हैं ।”
“उसे नहीं मालूम होगी ये बात । या फिर उसके मेरे होस्टल के कमरे में आने की कोई और वजह होगी जो कि उसने आपसे छिपाकर रखी । बहरहाल मैंने उसे अपने यहां इनवाइट नहीं किया था ।”
“लेकिन वो कहता है कि....”
“नानसेंस । आप कुछ साबित नहीं कर सकते ।”
अभिजीत घोष हक्का-बक्का-सा उसका मुंह देखने लगा ।
“मेरी राय में” - सभापति आगाशे जल्दी से बोला - “सबूत का मुद्दा हमें थोड़ी देर के लिये मुल्तवी कर देना चाहिए और पहले मिस्टर घोष को, जो कुछ वा कहना चाहते हैं, जैसे वो कहना चाहते हैं, कह लेने देना चाहिए । तो मिस्टर घोष, आप कह रहे थे कि हालात ऐसे बन गये थे कि दुष्यन्त परमार और अंजना निगम में शादी अवश्यम्भावी हो गयी थी ।”
“जी हां ।” - अभिजीत घोष फिर से हिम्मत करके बोला - “इसी स्टेज पर मेरी हत्यारी ने हत्या का निर्णय लिया और उसकी बहुत चतुराईपूर्ण योजना बनायी । वो योजना क्या थी, ये मैं बता ही चुका हूं । क्योंकि वो दुष्यन्त परमार की प्रेमिका रह चुकी थी इसलिये उसके घर में वो बिन रोक-टोक आ-जा सकती थी । इसी सुविधा का फायदा उसने परमार की गैरहाजिरी में उसके टाइपराइटर पर पता टाइप करके उठाया । उसी ने वहां हौजर-707 साइन पैन और मिस केजरीवाल की मिल्कियत दो किताबें प्लांट कीं । उसी ने सलमा शाह जैसी आवाज बनाकर मुकेश निगम से बात की ।”
“किसने ? किसने ?” - छाया प्रजापति व्यग्र भाव से बोली - “क्या हममें से कोई उस औरत को जानता है ?”
“हम सब जानते हैं ।” - अभिजीत घोष सहमे-से स्वर में बोला ।
“और वो” - मन-ही-मन परमार की प्रेमिकाओं की लिस्ट पर निगाह दौड़ाता हुआ आगाशे बोला - “परमार की कोई भूतपूर्व प्रेमिका है ?”
“जी हां । लेकिन मुझे उम्मीद नहीं कि उसका नाम आप की लिस्ट में होगा । उसने परमार से अपने अफेयर को इतना ज्यादा गोपनीय रखा था कि मुझे तो यकीन है कि उसका नाम आपकी लिस्ट में नहीं होगा । जनाब, हमारे लार्ड बायरन दुष्यन्त परमार का वो एक दुर्लभ अफेयर था जिसकी किसी को खबर नहीं ।”
“ये कैसे हो सकता है ? क्या वो मिलते-जुलते नहीं थे ?”
“मिलते-जुलते तो यकीनन थे । इसके बिना अफेयर कैसे चल सकता है ?”
“किसी ने कभी उन्हें इकट्ठे नहीं देखा ?”
“देखा । एक वक्त ऐसा था जब वो अक्सर इकट्ठे देखे जाते थे लेकिन तब हत्यारी ने ये जाहिर किया कि वो मुलाकातें प्यार की नहीं थी बल्कि उनका कोई और ही मकसद था । वो मकसद पूरा हो जाने के बाद उसने ये जाहिर किया कि दोनों में तकरार हो गयी थी और वो सिलसिला वहीं ठप्प हो गया था लेकिन असल में तब उसने अपने प्रेमी से पूरी गोपनीयता के साथ मिलने का फैसला कर लिया था । वो बाद में भी मुतवातर मिलते रहे थे । पहले वाली मुलाकातों की बाबत हत्यारी सबको ये यकीन दिलाने में कामयाब हो गयी थी कि वो मुलाकातें उसकी नौकरी का हिस्सा थीं और जाती तौर पर उसका परमार से कुछ लेना-देना नहीं था ।”
“नौकरी का हिस्सा !” - दासानी मन्त्रमुग्ध-सा होंठों में बुदबुदाया ।
“जी हां । वो हत्यारी कोई मामूली हस्ती नहीं, बहुत पहुंची हुई चीज है । लेकिन वो अपनी मूल योजना से भटकने की भूल कर बैठी । उसका हर कदम उसकी मूल योजना के अनुसार ही उठा होता तो मुझे हकीकत की भनक तक न लग पाती ।”
“क्या भूल की उसने ?” - आगाशे बोला ।
“उसने अपना अपराध दूसरे के सिर थोपने की कोशिश की । उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था । जैसे काबिलेतारीफ कदम उसने बाकी उठाये थे, उनके मुकाबले में उसके इस कदम को माकूल नहीं कहा जा सकता । उसकी मूलयोजना फेल हो गयी थी । वो अपने मिशन में आधी कामयाबी ही हासिल कर सकी थी । उसकी ईर्ष्या का लक्ष्य तो परलोक सिधार गया था लेकिन अपने बदले के लक्ष्य को वो उसी अंजाम तक नहीं पहुंचा सकी थी । चाहिये ये था कि इन हालात में समझौता करके वो खामोश बैठ जाती । लेकिन वो खामोश न बैठी । उसके तिरस्कार ने कहर बरपाने की ख्वाहिशमन्द उस औरत को खामोश न बैठने दिया । उसने फिर कोशिश की । इस बात उसने प्रेमिका के कत्ल का इलजाम प्रेमी के सिर थोपने का ताना-बाना बुना । साहबान, मैंने और कुछ नहीं कहना ।”
और वो बड़े नर्वस भाव से अपने चेहरे पर चुहचुहा आयी पसीने की बूंदों को पोंछने लगा ।
सभा में एक बोझिल-सा सन्नाटा छा गया ।
“एलीबाई के बारे में तो कहना होगा ?” - फिर रुचिका धीरे से बोली ।
“हां ।” - अभिजीत घोष उससे परे देखता हुआ बोला - “ये एक बात मैं भूल गया था । एलीबाई के बारे में पहले मैं एक जनरल बात कहना चाहता हूं । एलीबाई दोतरफा काम करने वाली आइटम होती है । जब ए बी की एलीबाई बनता है तो बी ए की एलीबाई अपने आप बन जाता है । मसलन अगर मिस्टर आगाशे ये कहें कि फलां तारीख को फलां वक्त इन्होंने मुझे बम्बई में गेटवे आफ इन्डिया के सामने देखा था तो ये अपने आप ही स्थापित हो जाता है कि उस रोज उस वक्त वो दिल्ली से सैंकड़ों मील दूर बम्बई में थे ।”
“बात” - रुचिका बोली - “आपकी हत्यारी की एलीबाई की हो रही थी ।”
“वही हो रही है । मेरी राय में एलीबाई का ख्याल हत्यारी को एक सुखद संयोग की वजह से बाद में आया था । बाद में तब आया था जबकि संयोगवश हत्यारी को अपने एक वाकिफकार शख्स के लखनऊ में होने की खबर लग गयी थी और उसे ये भी मालूम हो गया था कि सोलह नवम्बर की दोपहर को उसने दिल्ली में होना था जहां कि दो दिन ठहर कर उसने फ्रांस चला जाना था । वो शख्स टॉम डेकर नाम का एक फोटो जर्नलिस्ट था जो कि शुक्रवार सोलह नवम्बर को सुबह की फ्लाइट से लखनऊ से दिल्ली आया था और पार्लियामेंट स्ट्रीट के कनाट प्लेस वाले सिरे पर स्थित पार्क होटल में ठहरा था । और साहबान, आप जानते ही हैं कि पार्क होटल और जनपथ के इन्डियन आयल के सामने वाले लेटर बाक्स के बीच मुश्किल से दो सौ गज का फासला है ।”
“आपका कहना है” - आगाशे बोला - “कि वो पार्सल उस आदमी ने पोस्ट किया जिसका नाम आप टॉम डेकर बता रहे हैं ?”
“जी हां । और जो मेरी हत्यारी का हमपेशा है । जिसे मेरी हत्यारी ने दिल्ली जाकर पोस्ट करने के लिए लखनऊ में पार्सल सौंपा । जो पन्दरह तारीख की रात को लखनऊ गयी ही उस पार्सल को टॉम डेकर के मत्थे मढने थी ताकि उसे एलीबाई हासिल हो सकती, ताकि अगर पूछताछ होती तो ये स्थापित होता कि पार्सल पोस्ट किये जाने के वक्त के आसपास तो वो दिल्ली से मीलों दूर लखनऊ में थी ।”
“लेकिन” - अशोक प्रभाकर ने तीव्र प्रतिवाद किया - “वो शख्स दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरते ही पार्सल को वही किसी लेटर बाक्स के हवाले कर सकता था, वो उसे एयरपोर्ट से पार्लियामेंट स्ट्रीट के लम्बे रास्ते पर कहीं पोस्ट कर सकता था, वो पार्क होटल पहुंचकर भी पार्सल को पोस्ट करता रात तक के लिए मुल्तवी कर सकता था, वो पार्सल को पोस्ट करने के लिए किसी वेटर को सौंप सकता था जाकि किसी गलत लेटर बाक्स में किसी गलत वक्त उस पार्सल को पोस्ट कर सकता था । इनमें से किसी भी एक बात का नतीजा ये निकल सकता था कि पार्सल अगले रोज पहली डाक से शिवालिक क्लब न पहुंचा होता और आपकी हत्यारी की सारी स्कीम धरी-की-धरी रह जाती ।”
“ऐसा कुछ नहीं होने वाला था ।” - अभिजीत घोष सकुचाता-सा बोला ।
“क्यों ? क्यों नहीं होने वाला था ?”
“क्योंकि हत्यारी ने उस शख्स को ये पट्टी पढा दी होगी कि वो पार्सल वास्तव में प्राप्तकर्त्ता के लिए उसके जन्म दिन का तोहफा था और उसका एक खास वक्त पर उसके पास पहुंचना जरूरी था । यही वजह उसने पार्सल को लखनऊ में पोस्ट न करने की बतायी होगी । उसने उस शख्स को बड़ी तफसील से ये समझाया होगा कि पार्सल तभी पूर्वनिर्धारित समय पर अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच सकता था जबकि वो फलां वक्त के दौरान फलां लेटर बाक्स के हवाले किया जाता ।”
“सब गैसवर्क है ।” - रुचिका बोली ।
“सब तो नहीं” - उससे निगाह मिलाने से परहेज करता हुआ अभिजीत घोष दबे स्वर में बोला - “क्योंकि मैंने पार्क होटल से मिस्टर टॉम डेकर की सम्बन्धित तारीख की रजिस्ट्रेशन चैक की है । मैंने फोन पर उससे पेरिस में बात की । मैंने इलाहाबाद फोन करके पार्वती परमार से भी बात की है, लखनऊ में जिसकी सोहबत में...”
रुचिका केजरीवाल एकाएक उठ खड़ी हुई । उसने सामने मेज पर पड़ा अपना हैन्डबैग उठाया और अपार व्यस्तता का प्रदर्शन करती हुई बोली - “बहुत देर हो गयी । मेरी तो कहीं फिक्स्ड टाइम अप्वायन्टमैंट है । सभापति महादेव, मैं इजाजत चाहती हूं ।”
“हां ।” - तनिक हकबकाया-सा आगाशे बोला - “जरूर ।”
रुचिका केजरीवाल ने बाहर की ओर कदम उठाया ।
“आप जा रही हैं ?” - अभिजीत घोष पीछे से बोला ।
रुचिका ठिठकी, उसकी ओर घूमी ।
“कोई ऐतराज ?” - वो अपलक उसकी ओर देखती हुई बोली ।
“बिल्कुल भी नहीं, लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“कुछ हां न तो कर जाती ।”
“वो मेरे पीछे तुम ही करना क्योंकि तुम्हारा बाकी का बयान सुनने के लिये में रुक नहीं सकती लेकिन जाने से पहले एक बार फिर भी कहती हूं ।”
“क्या ?”
“कुछ साबित नहीं कर सकोगे ।”
और वो एड़ियां ठकठकाती हुई वहां कूच कर गयी ।
“ठीक कहा मैडम ने ।” - अभिजीत घोष असहाय भाव से गर्दल हिलाता हुआ बोला - “वाकई मैं कुछ साबित नहीं कर सकता । लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मैंने जो कुछ कहा, सौ फीसदी सही कहा । मैडम ने माना हो या न माना हो, लेकिन मैंने जो कहा, बिल्कुल ठीक कहा ।”
“कहीं तुम... तुम” - छाया प्रजापति के नेत्र फैल गये - “तुम ये तो नहीं कहना चाहते कि.. कि... ये ही...”
“अब मैं क्या कहूं ?”
“लेकिन ये... ये...”
“आप मंगलवार का एक वाकया याद कीजिए जबकि आपने दासानी साहब को अपराधी साबित कर दिखाया था । तब रुचिका ने ही इस बात को सबसे ज्यादा एडवोकेट किया था कि पुलिस को आपकी थ्योरी की भनक भी नहीं लगने दी जानी चाहिए थी, हमें दासानी साहब को कवर करना चाहिए था और बात को वहीं खत्म कर देना चाहिए था । ऐसा क्या उसने इसलिये नहीं कहा था क्योंकि केवल वो ही निश्चित रूप से जानती थी कि दासानी साहब का कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं था ? क्योंकि उसने कातिल दुष्यन्त परमार को साबित करके दिखाना था ?”
कोई कुछ न बोला ।
“जो कि उसने निहायत खूबसूरती से करके भी दिखाया । लेकिन साहबान, ये शर्त किसलिये कि पुलिस को केस के हल से अवगत कराते समय उसके नाम का जिक्र न किया जाये ? क्या इसलिये कि जब दुष्यन्त परमार को पता लगता कि उसके लिए विपत्ति खड़ी करने के पीछे रुचिका का और सिर्फ रुचिका का हाथ था तो वो उससे अपने पुराने, अत्यन्त गोपनीय प्रेम सम्बन्धों की सारी पोल खोल देता ? ऐसा हो जाता तो क्या परमार के खिलाफ कत्ल के केस में रुचिका भी एक पार्टी न बन जाती ?”
सबके सिर सहमति में हिले ।
कई क्षण कोई कुछ न बोला ।
आखिरकार दासानी ने चुप्पी भंग की ।
“तो” - वो मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला - “अपराधविज्ञान का एक निष्ठावान अनुयायी हमारे बीच में ही मौजूद था ?”
“तभी आप ये कह रहे थे” - अशोक प्रभाकर बोला - “कि हत्यारे को हम सब जानते थे !”
“इतना ज्यादा जानते थे” - छाया प्रजापति बोली - “तब ये किसने सोचा था !”
“अब” - सभापति विवेक आगाशे असहाय भाव से बोला - “सवाल ये पैदा होता है कि हम करें क्या ?”
किसी के पास भी उस सवाल का जवाब नहीं था ।
समाप्त
0 Comments