डायन
कहते
हैं
कि
भूत-चुड़ैल
से
तो
किसी
ओझा
या
पंडित
से
मिलकर
पीछा
छुड़ा
सकते
हैं, लेकिन
जिसके
पीछे
डायन
पड़
जाए, उसका
कुछ
नहीं
हो
सकता!
यह बात आज से 25 वर्ष पहले की है। मेरा नाम राकेश पंडित है। मैं 18 साल की उम्र में ही फ़ौज में भरती हो गया था। इन्टरमीडिट करने के बाद से ही गाँव में दोस्तों के साथ समूह बनाकर, सुबह ब्रह्म मुहूर्त में ही एक गाँव से दूसरे गाँव तक दौड़ लगाते थे।
गाँव में उस वक़्त सुबह-सुबह लॉन्ग जम्प, रस्सीकूद, दण्ड बैठक, यह सब नित्य खेल के हिस्से जैसे हो गए थे। शायद यही कारण रहा कि इन्टरमीडिट के बाद फ़ौज की भर्ती में पहली बार में ही मेरा चयन हो गया था। उस ज़माने में गाँव के लगभग हर लड़के की फौज की नौकरी पहली पसन्द होती थी।
मेरा चयन गढ़वाल रायफल्स में सुबेदार के पद पर हुआ था। ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली नियुक्ति जम्मू में पठानकोट नामक जगह पर हुई थी। कुछ वक़्त के बाद मेरी छुट्टी की अर्जी मंजूर हो गई थी और लगभग डेढ़ साल बाद, मैं अपने गाँव जाने वाला था।
मेरे गाँव का नाम नयागाँव है, जो देहरादून रेलवे स्टेशन से 17 किलोमीटर की दूरी पर ग्रामीण क्षेत्र में पड़ता है। उस दिन मैंने अपना सामान फटाफट पैक किया और अपने गाँव के लिए निकल पड़ा। मैं पठानकोट से दिल्ली वाया ट्रेन आया, उसके बाद उसी शाम ठीक 6 बजे दिल्ली से देहरादून के लिए मैंने बस पकड़ी। मैं ठीक रात 12.15 बजे देहरादून बस स्टैंड पहुँच चुका था।
इतनी रात को नयागाँव जाने के लिए कोई भी बस या किसी तरह की गाड़ी नहीं थी। गाँव जाने के लिए सुबह 7:30 बजे पहली बस थी। मैंने अपने गाँव पैदल जाने का ही निश्चय किया।
मुझे आज भी बिलकुल ठीक-ठीक याद है, वह अक्टूबर का महीना था। साल का ये एक ऐसा महीना होता है, जिसमें न तो ठण्ड का अनुभव होता हैं, न ही गर्मी का। मैं अपने गाँव की तरफ बढ़ चला।
लगभग 2 घण्टे पैदल चलते-चलते, मैं भुड्डी गाँव पहुँच गया। मुझे बहुत जोरों से प्यास लगी थी। भुड्डी गाँव में ही सड़क किनारे एक कब्रिस्तान था, जिसके गेट से जरा सा अंदर जाते ही हैंडपंप था। मैंने अपने पिट्ठू बैग को नीचे उतारा और पानी पीने के लिए अंदर चला गया।
मेरी नजर वहाँ कब्रिस्तान में दफनाए हुए एक क़ब्र पर पड़ी। कब्र की ताज़ी मिट्टी को देखकर आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि आज सुबह ही यहाँ किसी को दफनाया गया होगा।
मेरे मन में विचार आया कि यह भी क्या जगह है, इंसान को मरने के बाद उसकी असली औकात दिखाती है। लोग पूरी ज़िन्दगी इसी धोखे में जीते हैं कि यहाँ जो कुछ भी है, सब मेरा है। किसी ने सच ही कहा है कि खाली हाथ आए थे, खाली हाथ ही जाएंगे।
लेकिन इंसान के मरने के बाद क्या होता होगा? क्या सच में आत्माएं होती हैं, जो कि मृत्यु के बाद शरीर को छोड़ कर जाती हैं, या वह आत्माएं हमारे इर्द-गिर्द ही मौजूद रहती है।
अचानक कुत्तों के भौंकने की आवाज से मेरी विचारों की श्रृंखला टूटी और मैं पानी पीने के लिए हैंडपम्प की तरफ बढ़ा। जैसे ही मैंने हैंडपम्प के हत्थे को अपनी हथेली से पकड़ कर नीचे की तरफ किया, कूईं... कूईं... की आवाज करते हुए पानी आने लगा। हैंडपम्प की हालत नाजुक थी। लगता था जैसे कब्रिस्तान के अन्दर हैंडपम्प होने की वजह से स्थानीय लोग इसका उपयोग बहुत कम करते थे। अपनी प्यास बुझाते ही मैंने अपने पिट्ठू बैग को पीछे लादा और अपने गाँव की तरफ बढ़ चला।
यहाँ से नयागाँव डेढ़ किलोमीटर ही दूर था।
भुड्डी गाँव और नयागाँव के बीच एक बड़ी सी पुलिया पड़ती थी। पुलिया के उस तरफ नयागाँव की सीमा लगती थी तो इस तरफ से भुड्डी गाँव का क्षेत्र आरम्भ हो जाता था।
घड़ी में ठीक ढाई बज रहे थे। सड़क पर कोई भी नहीं दिख रहा था। चारों तरफ घुप्प अंधेरा पसरा हुआ था। इस वक़्त गाँव में कोई जंगली जानवर भी नहीं दिख रहा था। मैं जैसे ही पुल पर पहुँचता हूँ, तभी मुझे कुछ हलचल सुनाई देती है। जब मेरी नजर सामने पड़ती है तो मैं अपनी जगह पर ही खड़े के खड़े ही रहा जाता हूँ।
मैंने देखा कि सामने पीपल के पेड़ के नीचे चार औरतें हैं, जिनके जिस्म पर एक भी कपड़ा नहीं है। उस पीपल के पेड़ के नीचे अग्नि जल रही है। एक औरत हाथ में किसी इंसानी खोपड़ी का कंकाल लेकर बैठी हुई है और बाकी की तीन औरतें कुछ मंत्र बुदबुदाते हुए, उस औरत के गोल-गोल चक्कर काट रहीं हैं।
जब मैंने ध्यान देकर उन औरतों को देखा तो तीन औरतों को तो बिल्कुल ही नहीं पहचान पाया लेकिन चौथी औरत का चेहरा देखते ही मेरे होश उड़ गए। उस औरत को मैं पहचानता था, वह मेरे बचपन के मित्र विवेक कुमार की धर्मपत्नी थी। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
मैंने आजतक अपनी ज़िंदगी में, इस तरह की विचित्र स्थिति का सामना नहीं किया था। मुझे एक पल लगा कि ये मेरा वहम है लेकिन मैंने जैसे ही अपनी आँखों को भिंचकर दुबारा देखने की कोशिश की तो वही नज़ारा मेरे सामने था। मैं वहीं पुल के ऊपर किसी कोने में दुबक कर, यह सब देखने लगा कि आखिर यह क्या माजरा है?
थोड़ी देर में, जो औरत बैठी हुई थी, वह अपनी जगह से उठी और दोनों हाथों को ऊपर कर, चाँद की तरफ देखते हुए अजीब-अजीब सी आवाजें निकालने लगी। कुछ देर चाँद की तरफ देखने के बाद, वह दोनों हाथों को उठा कर पीपल के पेड़ के उलटे चक्कर(वामावर्त दिशा में) काटने लगी।
लगभग तीन चक्कर लगाने के बाद, उसके साथ की तीनों औरतें भी उसी तरह अपने हाथों को उठा कर, पीपल के चक्कर काटने लगीं।
मेरी समझ में बिल्कुल ही नहीं आ रहा था कि इस तरह नग्न हो कर, कौन सी साधना हो रही है? उनकी ये अजीब हरकतें देखकर, मेरी समझ में इतना तो आ रहा था कि यह जरूर कोई तंत्र साधना कर रहीं हैं।
मैं उन लोगों की इस अजीब तंत्र साधना में इतना खो गया कि मुझे याद ही नहीं रहा कि इन लोगों ने उस पीपल के पेड़ के कितने चक्कर काटे? वे नग्न स्त्रियाँ बहुत ही अजीब लग रहीं थी। मैंने थोड़ी देर के लिए, ना चाहते हुए अपनी नज़रें हटा ली। इस तरह की घटना मैंने पहले कभी नहीं देखी थी।
जब मैंने थोड़ी देर में दुबारा देखा तो वे अपने-अपने कपड़े पहन कर, गाँव की तरफ जाने लगीं। मेरे अंदर इतना साहस नहीं था कि मैं उनका पीछा करूँ।
जब मेरी नजर घड़ी पर पड़ी तो देखा कि सुबह के 3:30 हो गए थे। मैंने तकरीबन चार बजे तक वहीं पुल पर बैठ कर इंतजार किया और उसके बाद वहाँ से अपने गाँव की तरफ बढ़ गया। मैं ठीक 4:35 पर अपने गाँव पहुँच गया था।
मैंने सोचा कि बहुत दिन हो गए, अपने बचपन के मित्र विवेक कुमार से भी नहीं मिला। विवेक का घर का नाम गुड्डू था, वह अपने घर में और सभी परिचितों के बीच में गुड्डू के नाम से ही प्रचलित था। सुबह नहा धो कर मैं सबसे पहले गुड्डू के पास जाऊँगा और सारी सच्चाई उसके सामने रख दूँगा। मन में उससे मिलने का विचार लेकर, मैं उसके घर की तरफ चल पड़ा।
अपने घर से कुछ दूरी पर ही चला था कि मैंने देखा की कुछ लोग किसी की लाश काँधे पर रख कर जा रहे थे। मैं वहीं कोने में सहम कर खड़ा हो गया। जब अर्थी वहाँ से चली गई, तब मैं गुड्डू के घर की तरफ चल पड़ा। थोड़ी देर में ही मैं गुड्डू के दरवाजे पर खड़ा था।
मैंने जैसे ही उसके घर के दरवाजे को ठकठकाया, यह देखते ही मेरी आँखें फैल गईं कि गुड्डू की घरवाली ने दरवाजा खोला था।
वह मुस्कुराती हुई बोली, “अरे वाह! बहुत दिनों बाद दर्शन हुए आपके। आइये, अंदर आ जाइये।”
मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि उनसे कुछ कह सकूँ। मैं डरते हुए उन्हें देख रहा था और कुछ भी कहने में असमर्थ था। तभी अचानक उन्होंने हँसते हुए मेरी दाहिने हाथ की कलाई पकड़ी और अंदर की तरफ खींच लिया और दरवाजे में कुंडी लगा दी।
मेरा मित्र गुड्डू हँसते हुए आया और बोला, “क्या हुआ? तेरे ऐसे तोते क्यों उड़े हुए हैं?”,
मैंने अपने आपको संभाला और बनावटी हँसी बनाता हुआ बोला, “न...नहीं तो! मैं बिल्कुल ही सही हूँ।”
“ओह हो! लगता है इन्होंने अभी इस गाँव के मुखिया जी की शव यात्रा देखी, उसकी वजह से ये आहत हो गए हैं। बड़े भले मानस थे बेचारे लेकिन नियति के आगे किसकी चली है?”, भाभी यह कहकर हँसते हुए, शायद चाय नाश्ते के लिए रसोई-घर की तरफ चल पड़ी।
उनके जाते ही मैंने सोचा कि यहाँ इस तरह बताना सही नहीं होगा। यह मेरी बातों पर विश्वास भी नहीं करेगा। मैंने भाभी के रसोईघर में जाते देखते ही गुड्डू से कहा, “भाई! मुझे तुझसे बहुत ज़रूरी बात करनी है।”
“ठीक है तो, कर ना! बोल, क्या कहना चाहता है?”, गुड्डू ने पूछा।
“भाई, वह बात मैं यहाँ नहीं बता सकता। उसके लिए तुझे कहीं बाहर मिलना होगा।”, मैंने तुरंत उसे जवाब दिया।
“ठीक है, मैं थोड़ी देर में तेरे घर ही आ जाता हूँ। यह सही रहेगा?”, गुड्डू यह कह कर मुस्कुराने लगा।
“नहीं! यह बात इतनी गोपनीय है कि मैं उस बात को अपने घर पर भी नहीं बता सकता।”, मैंने इस बार भारी आवाज़ से कहा।
“ठीक है! शाम को हम अपने गाँव के पास जो अंग्रेजों के ज़माने वाला पुल है, वहाँ मिलते हैं। बोल, सही है ना?”, गुड्डू यह कहकर मेरी तरफ देखने लगा। मैंने भी उसको हाँ कहा।
अभी यही सब बातें हो ही रहीं थी कि भाभी चाय और बिस्कुट लेकर आ गई। मेरे अंदर अब इतना ज्यादा डर समा गया था कि मैं अपनी जगह से झटके से उठा और गुड्डू को यह कहते हुए चला गया कि मुझे बहुत ज़रूरी काम याद आ गया है। मेरे अचानक इस बर्ताव को देखकर वे दोनों भौंचक्के से रह गए।
मैं दिन में खाना खाकर, छत पर थोड़ी देर टहलने चला गया।
जैसे ही मेरी नजर अपनी गली में पड़ी, मेरे होश-ओ-हवास ही उड़ गए। एक के पीछे एक, बारी-बारी से पाँच शवों को लेकर लोग
‘राम नाम सत्य है’
कहते हुए बढ़ रहे थे।
मेरे दिमाग में हलचल बढ़ गई। मुझे लगा कि शायद हमारा गाँव किसी महामारी के चपेट में आ गया है। मैं बहुत विचलित हो गया था। मैंने आज तक अपनी ज़िंदगी में एक गाँव में एक साथ इतने लोगों को मरते हुए नहीं देखा था।
मैं इन्हीं विचारों में खोया हुआ था कि अचानक मेरी चाची वहाँ आ गई। उन्होंने मुझे इस तरह परेशान होता देख, मुझे नीचे साथ चलने को कहा।
वह मुझे अपने साथ लेकर पूजा वाले कमरे में लेकर आ गई और बोलीं, “बेटा! हम लोग तुमको बताना नहीं चाहते थे। लेकिन मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि तुम्हें भी सच्चाई से वाकिफ करा दिया जाए। पिछले एक साल से अपने गाँव में डायनों का साया चल रहा है।”
“क्या चाची, आप तो बच्चों जैसी बातें कर रही हो।”, मैंने झुंझलाकर कहा।
“बेटे, पहले मेरी पूरी बात सुन लो, फिर तुम्हें विश्वास हो जाएगा। हमारे गाँव में चार औरतें हैं, जो इस गाँव के बाहर, अमावस्या की रात को तंत्र साधना करती हैं। वह डायन बनने के लिए यह सब कर रही हैं। डायन बनने के लिए उन्हें कठोर तंत्र-मंत्र और साधनाएं करनी पड़ती है।”
“उन्हें डायन बनने की प्रक्रिया में अंतिम दिन एक ऐसे इंसान की बलि देनी होती है, जो कुँवारा हो। यही कारण हैं कि यहाँ गाँव में सूर्यास्त होने के बाद, कोई भी बच्चे या कुँवारे लोग गाँव के बाहर ना आते हैं, ना जाते हैं। काली शक्तियों के दम पर ये डायन आत्माओं को अपना गुलाम बना कर, उनसे अपनी मन चाही इच्छा पूरी करवाती हैं। तंत्र साधना के वक़्त वे बुरी आत्माएँ, उन्हीं के इर्द-गिर्द ही अदृश्य रूप में मंडराती रहती हैं।”
“यदि इनकी साधना को कोई चोरी छुपकर भी देख ले तो उस गाँव में सात मौतें अकारण ही हो जाती हैं और जिस व्यक्ति ने उनकी साधना को करते हुए देखा हो तो उसकी 24 घण्टे के अंदर ही मृत्यु हो जाती है। चाहे कितने भी उपाय कर लो, लेकिन उस व्यक्ति की मौत होने से कोई नहीं रोक सकता।”
“क... क्या बात करती हो, चाची!? भला वह इंसान क्यों मरेगा, जिसने उसकी तंत्र-साधना देखी हो?”, मेरे मन में छिपे चोर ने यह सवाल कर दिया था क्योंकि मैंने आज सुबह ही वह साधना होते हुए छिपकर देखी थी।
“बेटे, तुम तो ऐसे बात कर रहे, जैसे तुमने उनकी तंत्र-साधना में विघ्न डाल दिया हो?”, यह कहते ही चाची जोर-जोर से हँसने लगीं।
“न... नहीं तो! मैंने तो इस तरह की घटना देखनी तो दूर की बात, सुनी भी नहीं हैं कभी।”, मैंने घबराते हुए लड़खड़ाती जबान में कहा, जैसे मेरी चोरी पकड़ ली गई हो।
चूँकि मैंने सुबह से छः लाशों को शमशान घाट के तरफ जाते हुए देखा था इसलिए मेरे मन में यह सवाल उठना लाजिमी था कि कहीं वह सातवां शिकार मैं ही तो नहीं। मैंने ही तो चोरी से छिपकर उन डायनों की तंत्र-साधना देखी थी और हो न हो, वह मेरी वजह से उस साधना में विघ्न पड़ा होगा।
इन्हीं ख्यालों में खोया था कि चाची ने मेरे ललाट पर पसीने की बूंदों को देखा, जो कान के पीछे-पीछे के रास्ते से होते हुए, गाल पर झिलमिला रहे थे और वह बोल पड़ीं।
“अरे! मैं तो मजाक कर रही हूँ। मुझे पता है, अगर ऐसी कोई बात होती तो तू मुझे अवश्य बताता। खैर! यह सब छोड़। मैं तुम्हें एक बेहद ज़रूरी बात बताती हूँ, जिसे तुम्हें जानकर घोर आश्चर्य होगा। तुम्हारे बचपन के दोस्त गुड्डू की पत्नी, उन्हीं चार में से एक डायन है। उससे लोग इतना ख़ौफ़ खाते हैं कि यदि वह गाँव में किसी को सामने मिल भी जाए तो बिना कुछ बोले ही निकल लेते है। यदि उस डायन ने पीछे से आवाज दे दी और तुमने पलट कर देख लिया और उसको जवाब दे दिया तो उस व्यक्ति की भी मौत सात दिन के अंदर ही हो जाती है। वह इस तरह लोगों को मार कर, अपनी तंत्र साधना की परीक्षा भी करती रहती है।”
“लेकिन अपनी साधना पूरी करने के लिए, किसी व्यक्ति को मारकर ही क्यों पूरी करती हैं?”, मैंने चाची की तरफ़ सन्देह भरी नजर से देखते हुए पूछा।
दो क्षण रुककर, कुछ सोचने के बाद वह मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोलीं, “बेटे! मृत्यु एक घटना है, जिसके तहत मनुष्य की चेतना का उसके मस्तिष्क से बहिर्गमन हो जाता है। ये वही चेतना होती है, जिसे विज्ञान में ऊर्जा का शुद्धतम रूप कहा जाता है। अर्थात जिस प्रकार ऊर्जा का नाश नहीं होता है, उसी प्रकार चेतना का नाश नहीं होता है। मतलब कि किसी व्यक्ति द्वारा मृत्यु के क्षणों तक अर्जित की गई समस्त चेतना, उसकी मृत्यु के उपरान्त स्थूल शरीर से अलग हो जाने के बाद भी ब्रह्माण्ड में कहीं न कहीं व्याप्त रहती है। यही चेतना जब किसी अन्य व्यक्ति की चेतना से अप्राकृतिक तरीके से जोड़ी जाती है या किसी अन्य व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करवाई जाती है, तो ये अतिरिक्त चेतना किसी बाहरी शक्ति रूप ले लेती है, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं। डायन अपनी शक्तियों के प्रयोग करके ही उस चेतना रूपी आत्मा को जब चाहे किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश भी करवा सकती हैं और इस तरीके से डायन अपनी काली शक्तियों से उन आत्माओं से मनचाहा काम भी करवाती हैं।”
चाची की बातों ने एक फौजी को अंधविश्वास की तरफ धकेल दिया था। इस अंधविश्वास के ऊपर मेरा विश्वास इसलिए भी कायम था क्योंकि मैंने पिछली रात ही बहुत अजीब-अजीब घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था।
कहीं एक हद तक मैं उन बातों को सही भी मानने के लिए मजबूर था। मैं अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गया।
मैंने यह निर्णय ले लिया था कि अगर यह डायन वाली बात सच है तो मैं अपने दोस्त को उसकी बीवी, जो की लगभग डायन बनने की ओर अग्रसर है, उसकी सारी सच्चाई से अवगत करवाऊंगा। क्या पता उसे मेरी बातों पर विश्वास होगा या नहीं? चाहे वह जो भी समझे लेकिन उसको इस दलदल से निकालना मेरा कर्तव्य है।
मैं यही सोचते-सोचते शाम होने का इंतजार करने लगा। लेटे-लेटे मैं कब नींद की आगोश में चला गया, पता नहीं लगा। जैसे ही मेरी नींद टूटी, उस वक़्त घड़ी पाँच बजने का इशारा कर रही थी।
मैं जैसे ही हाथ मुँह धोकर अपने कमरे में जा रहा था, तभी गुड्डू आ गया और मैं उसे अपने साथ गाँव से थोड़ी दूर पुलिया पर ले गया। वहाँ पहुँच कर मैंने गुड्डू को कल रात वाली सारी बात विस्तार से बता दी।
मेरी बातें उसने ध्यान सी सुनी और अचानक जोर-जोर से ताली मारता हुआ हँस पड़ा, “वाह भाई वाह! तू तो फ़ौज में जाकर बिल्कुल ही रंगीन मिजाज को हो गया है। तुझे सुबह से कोई मिला नहीं क्या?”
जब मैंने उसको बताया कि उन चार डायनों में से एक डायन खुद उसकी पत्नी है तो वह पहले घबराया, फिर मुझे उलटा-सीधा सुनाते हुए, मुझसे नाराज हो कर वहाँ से चला गया।
मैं अब और भी डर गया था कि कहीं वह यह बात जाकर अपनी पत्नी को न बता दे। एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई थी। मेरे लिए यह बहुत ही विकट समस्या थी। मैं भी थोड़ी देर बाद अपने घर आ गया।
दो दिनों बाद गुड्डू मेरे घर आया। उसने बताया कि वह कुछ दिनों से बहुत परेशान था। उसकी परेशानी की वजह उसने अपनी पत्नी पूजा को बताया।
उसने यह भी बताया कि कुछ दिनों से उसके घर में कुछ अजीब सी हरकतें हो रहीं थीं।
उसकी पत्नी ने घर से सभी देवी-देवताओं की तस्वीरें और मूर्तियों को हटा दिया था। अचानक बिना किसी कारण हुई ऐसी हरकतों को वह समझ नहीं पाया। पिछले कुछ दिनों से वह नोटिस कर रहा था कि उसकी पत्नी रात भर गायब रहती है और ठीक सुबह 4 बजे चुपके से कहीं से आकर सो जाती है।
जब मैंने उसको कहा कि पूजा भाभी अब डायन बन चुकी हैं तो वह यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं था कि उसकी बीवी कोई तंत्र साधना भी करती है। मैंने अपने मित्र गुड्डू को समझाया कि आज रात ही उसके सारे शक का जवाब मिल जाएगा। मैंने गुड्डू को यह भी कहा कि आज वह अपनी पत्नी से कहे कि उसे काम से शहर जाना है, ऐसा वह अपनी पत्नी को कह कर मेरे यहाँ आ जाए।
गुड्डू ने ऐसा ही किया। वह दिन में ही मेरे घर आ गया और हम लोग रात होने का इंतजार करने लगे। जैसे ही घड़ी में ठीक बारह बजे का वक़्त हुआ, हम दोनों उस पुलिया के पास पहुँचे।
आज चाँद कहीं दिख नहीं रहा था। चारों ओर घनघोर काली रात थी। हमलोगों ने लगभग दो घंटे तक वहाँ छिपकर इंतजार किया।
ठीक दो बजे वही चार डायन दिखीं और पीपल के पेड़ के पास आकर बैठ गई। उनमें से एक डायन पीपल के पेड़ पर पलक झपकते ही चढ़ गई। उसकी यह हरकत देखते ही हम दोनों सकते में आ गए और पुल के लोहे के रैलिंग के सहारे छिप गए। हम दोनों वहीं से दुबक कर दुबारा उस पीपल के पेड़ की तरफ देखने लगे।
उनमें से एक औरत ने कुछ लकड़ियों को जलाया और उस जलती लकड़ी को वहाँ बने एक गड्ढे में डाल दिया। थोड़ी-थोड़ी देर में उसमें कुछ और लकड़ियाँ डालती जा रही थी। तभी कुछ देर में पेड़ से औरत उतरी और उसके नीचे उतरते ही सभी औरतें एक साथ अपने अंगों से वस्त्रों को निकालने लगीं। थोड़ी ही देर में वे सभी औरतें पूरी की पूरी नग्न अवस्था में थी।
तभी एक डायन उस जलती हुई अग्नि के निकट पहुँची और उस से थोड़ी दूरी पर बैठ गई।
उसने अपने हाथ को आगे बढ़ाया और एक धारदार हथियार से अपनी हथेली पर चला दिया। बाकी की तीन औरतें, उसके चारों ओर अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा कर, अजीब तरह की आवाजें करते हुए, उस डायन का जो कि गुड्डू की पत्नी थी, उसके गोल-गोल चक्कर काटने लगीं।
गाढ़े लाल रंग का खून टप-टप कर बहने लगा था। उसने कुछ बूंदों को उस जलती अग्नि में छिड़का और एक कटोरे में उस रक्त को भरने लगी। तीन चक्कर लगाने के बाद वे तीनों औरतें रुकी और उस कटोरे में भरे हुए खून को बारी-बारी से पीने लगीं।
बड़ा ही भयानक और दिल दहला देने वाला मंज़र था। मुझसे यह देखा नहीं जा रहा था तो मैंने अपना मुँह फेर लिया। मैंने थोड़ी देर बाद देखा तो गुड्डू रो रहा था। मैंने जब उससे पूछा तो उसने बताया कि उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि पूजा डायन है। जिस औरत ने बैठकर खून की आहुति दी है, वह पूजा है, उसकी धर्मपत्नी।
गुड्डू ने अपने दोनों हाथ जोड़कर, मुझसे माफी मांगी। वह उस दिन के व्यवहार के लिए बहुत शर्मिंदा हुआ। मैंने उसको समझाते हुए कहा कि उसकी जगह कोई भी होता तो उसके लिए विश्वास करना मुश्किल होता।
तभी अचानक उसमें पता नहीं कहाँ से इतनी ऊर्जा आ जाती है और वह अपनी जगह से उठकर गुस्से से तमतमाए उस पीपल की पेड़ की तरफ बढ़ चला। मैंने उसके हाथ को पकड़ा, लेकिन वह झटक कर उस तरफ बढ़ चला था। मैं उसकी इस हरकत को देख, और भी डर गया। मैं भी उसके पीछे-पीछे भागा।
गुड्डू को देखकर, जो औरतें वहाँ पीपल के पेड़ के नीचे तंत्र साधना कर रहीं थी, उन पर कोई असर नहीं हुआ। वे चारों अभी भी तंत्र साधना में लगी हुई थी। गुड्डू ने वहाँ पड़े धारदार हथियार को उठाकर, जैसे ही वह वार करने वाला था, मैंने उसके हाथ को पकड़ लिया। तभी अचानक मेरे पीछे से... ‘ख़च्चाक’ की आवाज आई।
मैं धरती पर पड़ा था। मेरे सिर से खून बह रहा था। किसी ने पीछे से धोखे से किसी मजबूत हथियार से मुझ पर हमला किया था। धीरे-धीरे मेरी आँखें बन्द हो रही थी।
थोड़ी देर में मैंने देखा कि मेरा सिर धड़ से अलग था और गुड्डू मेरे धड़ पर पाँव रखकर, उन चारों डायनों के साथ ठहाके मार रहा था। उन चारों डायनों ने मेरे शरीर को घेर रखा था और मेरे गले से बहते रक्त को पी रहीं थी।
ठहाके लगाते हुए गुड्डू बोल रहा था, “हे माँ काली! यह बलि कबूल करो और हमें शक्ति दो।”
अगली आवाज पूजा भाभी की थी, “गुड्डू, अगर तुमने मुझे यह सारी बात न बताई होती तो मेरे वर्षों की तपस्या और मेहनत पानी में मिल जाती। वह तो शुक्र है कि हमें बलि देने के लिए कुंवारा इंसान मिल गया, नहीं तो हमारी तंत्र साधना अधूरी ही रह जाती।”
“बिल्कुल सही कहा तुमने, प्रिये! मुझे पता था कि यदि इस साधना को कोई छिपकर देख लेता है तो उसी गाँव में सात मौतें लगातार होती हैं। मुझे शक तो उसी दिन हो गया था, लेकिन इसको अपने शतरंज का मोहरा बनाने में हम दोनों का जवाब नहीं। इसकी बलि ने आज तुम्हें पूर्ण रूप से डायन बना दिया है। अब हमारी हर इच्छा पूरी होगी। हा! हा! हा!”
पूजा भाभी, जो कि अब पूर्ण रूप से डायन बन चुकी थी, वह उन सभी शैतानों के साथ उनकी हँसी में साथ दे रही थी।
मैं मूक दर्शक बन कर, उस पीपल के पेड़ से अपने कटे धड़ और सिर को बेबस हो कर देख रहा था।
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