उस वक्त दिव्या राजदान के साथ कनाडा से आई अटैचियों को व्यवस्थित करने में तल्लीन थी जब सोफे पर बैठे देवांश ने कहा “भाभी।”
“हूं।" वह अपने काम में व्यस्त रही।
“एक बात कहूं?”
“बोलो।”
“इस तरह नहीं। यहां आकर बैठो। मेरे सामने ।”
थोड़ी चौंकी दिव्या | पलटकर देवांश की तरफ देखा बोली- --- " ऐसी क्या बात है?"
“आओ तो सही । ”
“ओ. के. बाबा ।" वह आगे बढ़ी और सेन्टर टेबल के उस तरफ पड़ी सोफा चेयर पर बैठती बोली ----“बोलो।”
“ये तुमने ठीक नहीं किया ।”
हौले से चौंकी दिव्या ---- “क्या ठीक नहीं किया ?”
“मेरी खातिर निःसंतान रहना ।”
“ओह !” इससे आगे दिव्या अपने मुंह से एक लफ्ज न निकाल सकी । उसके सुन्दर और आकर्षक चेहरे पर कहीं न कहीं पीड़ा का भाव जरूर था ।
उसे लक्षित करके देवांश ने कहा- “ये तो मेरे साथ अन्याय हुआ।"
दिव्या अब भी चुप रही।
“बोलो भाभी, क्या ये ठीक था ?”
दिव्या केवल इतना ही कह सकी---- “ये फैसला तुम्हारे भैया का था। "
“पति का फैसला अगर गलत हो तो पत्नी को उसका विरोध करना चाहिए।” देवांश गंभीर स्वर में कहता चला गया-- “खैर ! अच्छा हुआ वक्त रहते मुझे पता लग गया। टाईम गुजर नहीं गया है अभी । तुम्हें यह फैसला बदल देना चाहिए।” ——
“देवांश ---- इस बारे में अपने भैया से बात करना ।” कहने के साथ वह सोफे से उठी और तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ गई ।
देवांश के हलक से हल्की चीख-सी निकली- “भाभी!”
" इस वक्त जो सवाल सबसे ज्यादा मेरे दिमाग में चल रहा है वो ये है कि वो कौन है जिसने इनकी हत्या करने की कोशिश की ।” झटके से पलटती हुई दिव्या ने कहा --~-“अगर तुम उनसे प्यार करते हो तो उसका पता लगाओ देवांश। इंस्पैक्टर ठकरियाल की बात सच है । और वह रह-रहकर मेरे दिमाग में बिजली बनकर कौंध रही है । हमलावर एक हमला विफल होने पर दूसरा और दूसरा विफल होने पर तीसरा कर सकता है। जब तक वह पकड़ा नहीं जाता, तब तक तुम्हारे भैया की जान खतरे में है और मेरे प्राण सलीब पर लटके रहेंगे। कुछ करो देवांश, सबसे पहले इस दिशा में कुछ करो । कुछ ऐसा कि... वह जो भी है, जल्द से जल्द सलाखों के पीछे पहुंचे ।”
“उसे सिर्फ सलाखों के पीछे पहुंचाकर चैन नहीं मिलेगा मुझे । ” देवांश के हलक से गुर्राहट-सी निकली ---- “उसे तो सामने पड़ते ही चीर-फाड़कर डाल दूंगा मैं । बस एक बार पता लग जाये कि है कौन वो हरामजादा जिसके दिमाग में मेरे भैया की हत्या का ख्याल आया ।”
“इससे भी इम्पोर्टेन्ट बात ये है कि यह ख्याल किसी के दिमाग में आया क्यों? ऐसा किसका क्या बिगाड़ दिया है इन्होंने जो वह इस सीमा तक दुश्मन बन बैठा ? ”
“यह पता लग जाये तो शायद हमलावर का ही पता लग जाये हमें ।”
“दूसरी बात जो लगातार मेरे दिमाग को परेशान कर रही है, वह ये है कि एयरपोर्ट पर वे रोये क्यों थे?"
“इस बारे में तो भैया से बात करके ही कुछ पता लग सकता है।”
“आयें तो सही वे । अब तो हद हो गयी । पता नहीं क्या कर रहे हैं वहां?”
“दस मिनट के लिए कहकर गये थे। पूरा डेढ़ घण्टा हो चुका है।” देवांश ने रिस्टवॉच पर नजर डालते हुए कहा ।
“फोन भी तो नहीं है कंगलों के यहां ।” दिव्या झुंझला रही थी ---- “वरना उसी से पूछ लेते ऐसी क्या आफत आ गयी उस पर जो लौटने का होश ही नहीं है।"
“कहो तो जाकर देखूं?”
“नहीं, ये ठीक नहीं होगा । वे भड़क सकते हैं । "
“समझ में नहीं आता । उस 'लफंगे' से आखिर ऐसी क्या मुहब्बत हो गई है भैया को । कनाडा से जितनी बार फोन किया उसके हालचाल जरूर पूछे । जब यहां रहते हैं तो दिन में कम से कम एक बार जरूर बुला लेते हैं। जब तक उसे देख न लें, बातें न कर लें, तब तक चैन नहीं पड़ता ।”
“ बातें भी तो पता नहीं क्या करते हैं । हममें से कोई भी सामने हो तो हटा देते हैं। एकाध बार तो मैंने छुपकर भी सुनने की कोशिश की मगर कुछ पल्ले नहीं पड़ा । मुंह से मुंह सटाकर दोनों इतने धीरे-धीरे बोलते हैं कि पता नहीं आवाज एक-दूसरे के कान तक भी कैसे पहुंचती है।”
“मेरी बात याद रखना भाभी, ये लड़का किसी दिन बड़ा नुकसान पहुंचायेगा हमें।”
“क्या मतलब ?” दिव्या चौंकी ।
“क्या भरोसा ऐसे कंगलों का ? रुपया-पैसा कभी देखा हो तो पेट भी भरा हो । ड्राइंगरूम में ही चांदी के इतने 'शोपीस' हैं। उनमें से किसी एक पर भी हाथ साफ कर दे तो हजारों बन जायें। और हमें भनक तक न लगे इतनी सारी चीजों में से कोई चीज गायब भी है । "
“सच्ची! जब से उसने यहां आना शुरू किया है यह डर तो मुझे भी हमेशा बना रहता है । 'ये' उसे यहां, बैडरूम तक में बुला लेते हैं। मेरी तो शुरू से आदत रही है, बाहर से आई और जो जेवर आदि पहन रखे होते हैं, उन्हें सेन्टर टेबल पर, बैड की ड्राज पर या ऐसे ही किसी स्थान पर रखा और भूल गई ।”
“तभी तो कहता हूं, किसी दिन जबरदस्त चोट खाओगी। अब ये बैडरूम तुम्हारा प्राइवेट रूम नहीं रहा । जेवर पत्ता संभालकर रखा करो । सच्चे मोतियों या डायमंड का एक सैट भी उड़ा दिया तो लाखों बन जायेंगे पट्ठे के ।”
“करूं क्या ? एक दिन तो वो... उस पेन्टिंग के पीछे जो लॉकर है वह भी दिखा दिया इन्होंने ।”
“वह कैसे ?”
“वो ‘मरदूद' यहां बैठा था । डायमंड का पचास लाख वाला सैट सेन्टर टेबल पर पड़ा था । मुझसे बोले ---- 'दिव्या, इसे उठाकर 'लॉकर' में रख दो ।' मैंने यह सोचकर माथा पीट लिया कि उसी 'कम्बख्त' के सामने लॉकर में रखने के लिए कह रहे हैं। मगर बोलती क्या ---- बस इतना ही कहा, अभी रखती हूं। बात को टाल गई मैं । यह सोचकर कि लॉकर रूपी 'खान' तो कम से कम बची रहे 'उसकी' नजर से । मगर इन्हें भला कहां चैन था । पीछे ही जो पड़ गये मेरे । कहने लगे --- 'अभी, इसी वक्त इसे उठाकर लॉकर में रखो । कीमती चीजों को इधर- उधर डाल देने की तुम्हारी ये आदत बहुत गंदी है।’ अब बताओ, गंदी आदत मेरी है या उनकी ? मैंने तब भी सैट लॉकर में नहीं रखा तो गुस्से में उठाकर खुद रख दिया।”
" उसी के सामने ?”
“हां!... और वो... वो लॉकर को ऐसे देख रहा था जैसे भूखा रोटी को देख रहा हो ।”
“ ये तो बेवकूफी की हद कर दी भैया ने। तुमने बाद में उनसे बात की ?”
“हां ।”
“क्या बोले?”
“ उल्टा डांट दिया मुझे। कहने लगेहै'" -- 'वह लड़का ऐसा नहीं ————
“जरूर भैया एक न एक दिन उसके हाथों जबरदस्त धोखा खायेंगे।”
“नहीं छोटे ! ऐसा नहीं होगा।” कहता हुआ राजदान कमरे में दाखिल हुआ ---- “ऊंचा उठना है तो अपने अंदर आदमी को परखने की क्वालिटी पैदा कर | यह क्वालिटी भगवान ने मुझे दी है। उसी के बूते पर फुटपाथ पर बचपन गुजारने वाला शख्स आज इतने सारे लोगों को घर मुहैया करा रहा है । बबलू गरीब है। मगर चोर नहीं है। गरीब होना कोई अपराध नहीं है छोटे । एक दिन हम भी गरीब थे ।”
न देवांश पर कुछ कहने बन पड़ा, न दिव्या पर...
दरअसल इस मात्र एक एहसास ने ही उन्हें हकबका दिया कि राजदान ने उनकी बातें सुन ली थीं। उनमें से किसी को हिम्मत यह तक पूछने की न पड़ी कि उसने उनकी कितनी बातें सुनी हैं। काफी देर तक किसी के न बोलने के कारण कमरे में खामोशी छा गयीं। अंततः इस खामोशी को राजदान ने ही तोड़ा ---- “वो सबसे छोटा सूटकेस देना दिव्या"
दिव्या अटैचियों की तरफ बढ़ गई ।
कुछ देर बाद राजदान एक नक्शे का 'ब्लूप्रिंट सेन्टर देवन पर फैलाये देवांश से कह रहा था ---- “ये है हमारी नई कॉलोनी में बनने वाली इमारतों का नक्शा ।"
देवांश ने देखा----ऐसे लग रहा था जैसे 'शंख’ अपनी निचली नोंक जमीन पर टिकाये खड़ा हो । देवांश कहे वगेर न रह सका ---- “ये तो शंख बना हुआ है।”
“करेक्ट! शंख ही है ये । शंख ही से आईडिया लिया है मैंने अपनी नई इमारतों का कल्पना कर --- -कैसे लगेंगे जमीन के एक हिस्से पर खड़े हुए पन्द्रह शंख | बीस-वीस मंजिन ऊंचे होंगे ये। निचली मंजिल पर एक फ्लैट, दूसरी पर ठो, तीसरी पर तीन, चौथी पर चार और पांचवीं से लेकर पन्द्रहवीं मंजिल तक पांच-पांच | फिर सोलहवीं पर चार, सत्रहवीं पर तीन, अट्ठारहवीं पर दो और उन्नीसवीं तथा बीसवीं पर एक - एक । ऊपर-नीचे फ्लैट इसलिए कम हैं क्योंकि शंख की तरह इमारत ऊपर नीचे से कम व्यास वाली और बीच में ज्यादा व्यास वाली है। इसका एक फायदा ये भी है कि जितनी जगह में हम दस इमारतें बना सकते हैं, उतनी जगह में पन्द्रह बनायेंगे। क्योंकि शंखाकार होने के कारण इमारत जमीन पर कम जगह घेरेगी जबकि ऊपर जाकर उतनी ही चौड़ी हो जायेगी जितनी आम इमारत होती है।" अपने आइडिए पर खुद ही मुग्ध सा राजदान कहता -“देखना छोटे, हमारी इस कालोनी के बाद दूसरे बिल्डर्स भी ऐसे ही नक्शे बनवायेंगे जिनकी इमारतें जमीन पर कम जगह घेरें क्योंकि मुंबई में जमीन पहले ही कम है।”
“आइडिया तो बेहतरीन है भैया । वाकई ऐसी इमारतें दुनिया में कहीं नहीं हैं। इस कॉलोनी को अगर 'भविष्य की कॉलोनी' नाम दिया जाये तो बेहतर होगा क्योंकि मुंबई में ही क्यों सारी दुनिया में जमीन की कमी है। आबादी लगातार बढ़ रही है। लोगों को जमीन पर नहीं, हवा में ही रहना होगा। वहीं घर बनाने होंगे ।”
“यही ---- बिल्कुल यही संदेश देना चाहता हूं मैं लोगों को इस कॉलोनी के जरिए ।” खुशी से झूमता-सा राजदान कहता चला गया-- “सारा प्लान मैंने बना दिया है, अब इसे धरती पर उतारने का काम तेरा है । साइट पर खड़ा होकर तू बनवायेगा ये कॉलोनी ।”
“म-मैं?”
“हां, तू।”
“मगर भैया- - आप तो जानते हैं मैं अभी धंधे की ए बी सी डी तक नहीं जानता।”
“यही तो रोना है। मगर कब तक नहीं जानेगा? जाननी तो पड़ेगी। इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता कि शुरूआत इसी कॉलोनी से की जाये। मैं कब तक बैठा रहूंगा तेरे सिर पर? बहरहाल, यह सब तुझे ही संभालना है ।”
आगे बढ़कर दिव्या ने कहा ---- -" ऐसी जल्दी क्या है देवांश को बिजनेस के पचड़ों में डालने की। मौज-मस्ती लेने दीजिए । अभी उम्र ही क्या है इसकी ?”
“उम्र ?” राजदान हंसा ---- “पच्चीस साल का है देवी जी। तुमसे एक साल बड़ा । है न मजेदार बात - बेटा।” -मां से बड़ा
देवांश बोला- -“मगर भैया, कनाडा जाने से पहले आपके
दिमाग में मुझे बिजनेस में उतारने का ख्याल दूर-दूर तक नहीं था, फिर कनाडा से आते ही इस बात पर इतना जोर क्यों? ऐसी क्या जल्दी..
“बहस मत कर छोटे। मैं इस बारे में कुछ सुनना नहीं चाहता। मेरा यह सपना तुझे... तुझे और सिर्फ तुझे पूरा करना है।” झुंझलाहट भरे स्वर में कहने के साथ वह एक. झटके से खड़ा हो गया । उत्तेजित नजर आ रहा था वह । दिव्या और देवांश जानते थे, आमतौर पर वह झुंझलाता नहीं था । यह झुंझलाहट एक बार फिर साबित कर रही थी कि के अंदर कुछ है । किसी पर कुछ कहते न बन पड़ा। माहौल थोड़ा तनावपूर्ण हो गया था । कुछ देर बाद राजदान ने देवांश को शब्दों का चाबुक सा मारा - - - - “तुम जा सकते हो ।” .
देवांश हिला नहीं अपने स्थान से। जहां का तहां खड़ा राजदान की तरफ देखता रहा ।
इस बार राजदान के हलक से गुर्राहट सी निकली ---- “सुना नहीं तुमने? अपने कमरे में जाओ।”
बहुत से सवाल घुमड़ रहे थे देवांश के दिमाग में ! उन सभी के जवाब वह एक साथ पा लेना चाहता था । शायद इसीलिए इस बार भी अपने स्थान से न हिल सका और इससे पहले कि राजदान और भड़क उठे, दिव्या ने आंखों से चले जाने का इशारा किया। सभी सवालों को दिल में 'मसोसे' वह घूमा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया । उधर उसने दरवाजा पार किया, इधर राजदान ने उसी झुंझलाये स्वर में दिव्या से कहा- -“तुम खड़ी - खड़ी मेरा मुंह क्या देख रही हो ? इन सब कागजों को उठाकर वापस सूटकेस में रखो और... उस दूसरी अटैची से मेरी शेविंग किट निकालकर बाथरूम में पहुंचाओ । नहाना चाहता हूं।"
दिव्या को लगा - - - - इस वक्त कुछ कहने का मतलब राजदान को और भड़का देना होगा । अतः आगे बढ़कर सेन्टर टेबल पर फैले 'ब्लूप्रिंट' को समेटने में लग गई । राजदान ने सिगार सुलगाया । जैसे खुद को व्यवस्थित करने की कोशिश कर रहा हो । दिव्या ने निश्चय कर लिया ---- उसके दिमाग में जितने - भी सवाल हैं, उनका जवाब रात को पाने की कोशिश करेगी तब, जब वे बिस्तर पर होंगे ।
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