“ये तो तूने बहुत गलत बात कर दी संतसिंह।”
“गलत बात ?” संतसिंह की आंखे सिकुड़ी-“क्या किया मैंने ?”
उस कमरे में संतसिंह कुर्सी पर बैठा था ।
दो आदमी इधर-उधर लापरवाही से खड़े थे। मुखिया कमर पर हाथ बांधे संतसिंह को देख रहा था। संतसिंह की निगाह मुखिया पर थी।
“जीवन पाल के भेजे आदमी से क्या कहा तूने की रानिका तेरे पास है।”
“मैंने कहा-“मैं क्यों कहूंगा ?”
“नहीं कहा तुने ।सौदे की बात नहीं की उससे ? छः करोड़ के हीरे नहीं मांगे ?”
संतसिंह के चेहरे पर दसियों तरह के भाव आ ठहरे थे ।
“तेरे को किसने भड़का दिया ?”
“तूने तो रोनिका का मामला मेरे को सौंपा है।तय ये था कि तू रोनिका की रखवाली करेगा। मैं आने वाले से सौदा करूंगा।” जो मिलेगा आधा-आधा। फिर तूने पूरा लेने की सोच कर मुर्गे से सौदा करना शुरू कर दिया । ये सोच कर कि सारा माल हजम कर लेगा।”
“तेरा दिमाग खराब हो गया है मुखिया।”
“क्यों ?”
“कैसी उल्टी बातें कर रहा है। मुझे क्या मालूम कि जीवन पाल का भेजा कोई आदमी आया है। वो कहां है। मुझे तो तेरे से पता चल रहा है कि मामला शुरू हो गया।” संतसिंह उखड़े स्वर में कह उठा ।
“मेहता को मार दिया गया ।उसके साथ, मेरे दूसरे आदमी को मार दिया ।
“ओह। बुरा हुआ। किसने मारा उन्हें ?” संतसिंह के होठों से निकला।
मुखिया ने शांत भाव में वहां खड़े अपने आदमी से कहा ।
“ससुरे को यहां लेकर आ।”
वो आदमी बाहर निकल गया ।
फौरन ही वापस आया । उसके यूवसिंह था। उसके हाथ पीछे की तरफ करके डोरी बांधे हुए थे। टांगों में डोरी इस तरह बंधी थी कि वो धीरे-धीरे चल सके ।
युवसिंह को देखते ही संतसिंह की आंखे सिकुड़ी। कई बार उसने सूखे होठों पर जीभ फेरी।
युवसिंह के चेहरे और जिस्म पर से ठुकाई होने का निशान स्पष्ट झलक रहे थे ।
मुखिया के होठों पर खतरनाक मुस्कान फैल गई ।
“ये है हरामजादा, जिसने मेहता और दूसरे आदमी को मारा । तीन सालों से मेरे लिए काम कर रहा है परंतु गद्दारी कर ही गया।” मुखिया मौत भरे स्वर में कह उठा –“तू जानता है न इसे युवसिंह।”
“हां…।,हां तेरा आदमी है।” संतसिंह के होठों से निकला ।
संतसिंह का चेहरा फक्क पड़ गया ।
मुखिया की आंखों में क्रूरता भरी मौत नाच रही थी ।
“इसे पैसा देकर के हाथों मेहता को तूने क्यों खत्म करवाया ? ”
“त…तुम्हें पीछे करने के लिए।” संतसिंह के होठों से कांपता स्वर निकला ।
“ताकि तू पूरा छः करोड़ हजम कर सके। जीवन पाल के भेजे आदमी के साथ तू सौदा कर ले। अब मुझे पता चला कि उस आदमी को किसी दूसरे ने भी फोन करके छः करोड़ के हीरो की सौदेबाजी की है। किसी दूसरे ने कहा कि रोनिका उसके पास है तो मैं समझ गया कि काम तेरे जैसा हरामि ही कर सकता है। तब मुझे भी मालूम हुआ कि उसने मेहता को नहीं, युवसिंह ने मेहता को गोली मारी है तो मुझे समझते देर नहीं लगी कि यूवसिंह को मोटे नोट दिखाए गए हैं। गर्दन पकड़कर युवसिंह से पूछा तो बता दिया इसने सब कुछ। ” मुखिया की आंखें सुर्ख हो रही थी।
संतसिंह को छः करोड़ का महल ढहता नजर आ रहा था। साथ ही अपनी जान भी खतरे में नजर आने लगी। उसने तो सोचा भी नहीं था कि मुखिया के सामने इतनी जल्दी बात खुल जाएगी ।
“मेरे से दगाबाजी करता है हरामी।” मुखिया गुर्राया।
“गलती हो गई मुखिया। मैं…।”
“मैं जानता हूं तेरे से गलती हो गई। गलती तो किसी से भी हो जाती है।” मुखिया दरिंदगी भरी आवाज में कह उठा-“अब मेरे से भी गलती होगी।”
“म…मुझे माफ कर…।”
“जीवन पाल की बेटी कहां है।” मुखिया गुर्राया।
“मेरे घर पर।”
“और वो छोकरा जो उसके साथ है। क्या नाम है उसका…वो…।”
“जुगल किशोर । वो रोनिका के साथ ही है। सूखे होठों पर जीभ फेरते हुए कहा।
“उन्हें मालूम है कि तू क्या गुल खिला रहा है ?”
“कुछ भी नहीं मालूम।” संतसिंह एकाएक बहुत बूढ़ा लगने लगा था-“मेरी गलती को जाने दो मुखिया। अब मैं कभी गलत नहीं सोचूंगा। मैं…।”
“मालूम है मुझे। तू गलत सोचने के काबिल ही नहीं रहेगा।” मुखिया ने दरिंदगी भरे स्वर में कहते हुए अपने आदमी को इशारा किया।
उस आदमी ने फौरन रिवॉल्वर निकाली ।
“नहीं…।” संतसिंह चीखबकर कहना चाहा
तभी फायर हुआ। गोली संतसिंह के सिर में जा लगी। वो बिना तड़पे ही शांत हो गया । दूसरी गोली यूवसिंह को लगी । वो नीचे गिरकर तड़पने लगा ।
“तुम दोनों संतसिंह के घर जाओ। वहां जुगल किशोर और जीवन पाल की लड़की रोनिका होगी। दोनों को यहां ले आओ। जुगल किशोर रास्ता रोके तो खत्म कर देना। रोनिका को कुछ ना हो।” मुखिया कठोर स्वर में बोला।
दोनों ने सिर हिलाया और पलट कर बाहर निकल गए ।
यूवसिंह का तड़पता शरीर शांत पड़ गया था। संतसिंह की लाश कुर्सी पर पड़ी थी । मुखिया ने अपने आदमियों को बुलाया और दोनो लाशें हटाकर, जगह साफ करने को कहा।
घंटे भर बाद ही मुखिया को, गए आदमियों का फोन आया ।
“संतसिंह का घर तो खाली है। ”
“क्या ?” मुखिया के होठों से निकला ।
“संतसिंह का घर खाली है। दरवाजे खुले है। यहां कोई भी नहीं है।”
“ये कैसे हो सकता है।” मुखिया के दांत भींच गए ।
कोई आवाज नहीं आई।
“कहीं संतसिह ने उस आदमी से सौदा कर के, हीरे लेकर रोनिका उसके हवाले तो नहीं कर दी।”
“इस बारे में तो हमें कोई जानकारी नहीं।”
“यही हुआ होगा।” मुखिया दांत किटकिटा उठा- “मैं तुम्हें होटल और कमरे का नंबर बताता हूं। उड़कर वहां पहुंचो। पकड़ लो उसे। मेरे ख्याल में वो वहां से निकल गया होगा, रोनिका को लेकर।” इसके साथ ही मुखिया ने होटल का नाम पता बताया।
“रोनिका वहां हो तो ?”
“दोनों को पकड़ लो। वहां पहुंचा। उसके बाद हालातों की खबर दो।”
मुखिया न फोन रखा और एक आदमी को बुलाकर कहा।
“केदार को भेजो।”
दस मिनट में ही केदार नाम का आदमी वहां पहुंचा। चालीस बरस का घुटा हुआ खतरनाक आदमी था वो। क्रुरता की छाया उसके चेहरे पर स्पष्ट नजर आती थी ।
“मुखिया जी ।” केदार ने गंभीर स्वर में कहा- “संतसिंह गद्दारी कर गया?”
“हां ।” मुखिया शब्दों को चबाकर बोला- “मैंने उस पर विश्वास किया ही नहीं। क्योंकि भीतरी खबर मालूम थी कि पहले उसने ये मामला सोनू भाटिया से तय किया था, लेकिन बेईमान ने धोखे से सोनू भाटिया को अंधेरी गली में मार दिया।”
“इतना हिम्मती तो नहीं था संतसिंह।” केदार मुस्कुराया ।
“छः करोड़ के माल का सवाल हो तो हिम्मत तो हवा की तरह शरीर में प्रवेश कर जाती है।” मुखिया कड़वे स्वर में बोला-“गड़बड़ हो गई मुझे मालूम नहीं था। वरना संत सिंह को अभी नहीं मारता ? ”
“क्या ?”
“मेरे ख्याल में संतसिंह ने, जीवन पाल के भेजे आदमी से सौदा कर लिया था रोनिका का। छः करोड़ के हीरे ले लिए थे।” मुखिया शब्दों को चबाकर के है उठा- “अभी-अभी मुझे खबर मिली है कि रोनिका संत सिंह के घर पर नहीं है। जबकि कुछ घंटे पहले वो वहां थी।”
केदार होंठ भींच कर रह गया ।
“आप का मतलब है कि हीरे संतसिंह के पास थे। वो आपको नहीं मिले।” केदार बोला ।
“हां । तुम्हारा क्या ख्याल है कि हीरे संतसिंह ने कहा रखे होंगे ? ” मुखिया अपने शब्दों को चबाकर कहा ।
“संतसिंह के किसी साथी के पास। ये काम संतसिंह अकेले नहीं कर रहा होगा।” करदार ने मुखिया को देखते हुए शांत स्वर में कहा-“संतसिंह का खास यार कल्लू है।”
मुखिया के होंठ भींच गए।
“मैं कल्लू से बात करता हूं। संभाल लूंगा उसे।”
“संतसिंह का घर देखना। वहां की एक-एक जगह देखना। हो सकता है संतसिंह ने हीरे अपने घर में कहीं छुपा रखे हो।” हमें सिर्फ हीरे चाहिए। देर हो गई तो हीरे हाथ से निकाल सकते हैं।”
“जीवन पाल के आदमी को देखा। क्या वो रोनिका को लेकर नहीं निकल गया रथपुर से ?” केदार ने पूछा।
“उसके होटल गए हैं मेरे आदमी ।वो…।” कहते कहते मुखिया ठिठका। दूसरे ही पल टेबल पर मौजूद फोन की तरफ बढ़ा। रिसीवर उठाकर फोन नंबर मिलाने लगा। होंठ भिंचे हुए थे ।
“क्या हुआ ?” केदार ने पूछा ।
“अभी मालूम हो जाता है कि वो होटल में है या कमरा खाली करके जा चुका है।”
देवराज चौहान होटल में था ।
बात हुई ।
“तभी तुम अभी तक होटल में ही हो।” मुखिया के होठों से निकला ।
“मैंने कहा जाना है।” देवराज चौहान का शांत स्वर कानों में पड़ा-“रोनिका तुम्हारे पास है या दूसरी पार्टी के पास ? ”
अपनी हालत पर काबू पाने की कोशिश की मुखिया ने।
“वो पहले भी मेरे पास थी और अब भी मेरे पास है।” मुखिया के होठों से निकला ।
“तो फिर देर किस बात की ? रोनिका को मेरे हवाले करो और हीरे लो।”
“फोन पर ही रहना। घंटे भर में बात करके, मामला निपटाते हैं।” कहने के साथ ही मुखिया ने रिसीवर रखा।
“जीवन पाल का भेजा आदमी होटल में ही है ? ” केदार बोला।
होंठ भींचें मुखिया ने सिर हिलाया।
“इसका मतलब रोनिका उसे नहीं मिली ।”
“शायद नहीं मिली। वो अभी भी कह रहा है कि रोनिका उसके हवाले करूं और हीरे ले लूं।”
मुखिया और केदार एक-दूसरे को देखते रहे ।
“रोनिका हमारे पास है नहीं।” मुखिया बोला-“संतसिंह ने मरने से पहले कहा था कि वो उसके घर पर है। इसका मतलब रोनिका अपने साथी जुगल किशोर के साथ वहां से निकल भागी है।”
केदार, मुखिया को देखता रहा।
“रोनिका के बिना, वो हीरे देगा नही और मैं छः करोड़ के हीरे पा लेना चाहता हूं। रोनिका जाने कहां होगी। उसे ढूंढना आसान नहीं। देर हो गई तो तब तक वो हीरे लेकर वापस चला जाएगा।”
केदार का चेहरा कठोर हो गया।
“कोई बात नहीं मुखिया जी। परेशान होने की क्या बात है। उससे हीरे वैसे ही ले लेते हैं।” केदार की आवाज में दरिंदगी भर आई थी-“मामूली सी बात है।”
“हीरे उस आदमी ने अपने पास ही रखें। सावधानी से काम ले रहा है वो। मुखिया दांत पीसते हुए उठा-“हीरे उसके किसी साथी के पास है। रथपुर में कहीं है। परंतु मालूम नहीं कहां है।”
“उसकी गर्दन पकड़ कर पूछ लेते हैं कि हीरों के साथ उसका साथी कहां है। दिक्कत क्या है ?”
“आसान होगा केदार, उसका मुंह खुलवाना ?” मुखिया ने उसकी आंखों में झांका।
“कुछ भी कठिन काम नहीं है मुखिया जी। सब काम हो जाते हैं।” केदार वहशी स्वर में बोला-“मैं देख लेता हूं, जीवन पाल के भेजे आदमी को। ले आता हूं उसे यहां। आप कुछ को रोनिका की तलाश में लगा दीजिए। शायद वो मिल जाए। दोनों तरफ हमारा काम चालू रहेगा।”
■■
देवराज चौहान बाथरूम से निकला की ठिठक गया ।
अच्छे कपड़े पहने दो व्यक्ति जो कि दादा टाइप नजर आ रहे थे। वो कमरे में कुर्सियों पर बैठे थे। जब कि देवराज चौहान को अच्छी तरह पता था कि उसने दरवाजे पर चाबी घुमा रखी थी। वो समझ गया कि रोनिका को कैद में रखने वाले धीरे-धीरे उसके खाते जा रहे थे ।
“भीतर कैसे आए ?” देवराज चौहान शीशे के सामने खड़े होकर, बालों को संभालता लापरवाही से बोला।
“मामूली ताला है, खोल कर आ गए ।” एक ने ढीठता से कहा ।
“किसके भेजे हो ?”
“मुखिया के।”
“कुछ देर पहले मुखिया से बात हुई थी मेरी। तब तो ऐसा नहीं लगा कि इस तरह वो मेरे पास किसी को भेजेगा।”
“हमें उसके पास से निकले देर हो चुकी है ।” दूसरे ने तीखे स्वर में कहा ।
देवराज चौहान शीशे के सामने से हटा और दोनों को देखा ।
“तुम्हें लेने आए हैं।” पहले वाले ने कहा।
“मुझे ।" देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े।
“हां, मुखिया बोला कि तुम्हें लेकर आना है।”
“क्यों ?”
“मुखिया बताएगा। चल…।”
“मेरी इच्छा नहीं है जाने की।” देवराज चौहान का स्वर एकाएक सख्त हो गया- “मुखिया को भेजना मेरे पास। कहना उसे मामला खत्म करे। ज्यादा इंतजार नहीं होगा, मेरे से।”
तभी दूसरे के हाथ में रिवॉल्वर नजर आने लगी ।
“चलना तो पड़ेगा तेरे को। बोल, वो दरिंदगी से कह उठा ।
देवराज चौहान की आंखों में खतरनाक चमक नाची ।
“कोई फायदा नहीं।” देवराज चौहान ने दोनों की आंखों मे झांका-“चल पड़ूंगा तुम्हारे साथ। यहां से दूर जाने पर तुम लोगों के हाथों से निकल जाऊंगा।”
“तोप समझता है क्या अपने को।”
“बातें तो तोप से निकली गोली की तरह ही कर रहा है। ”
देवराज चौहान ने सर्द-तीखी निगाहों से दोनों को देखा।
“चलता है या…?”
“चलो ।”
दोनों ने अर्थ भरी निगाहों से दोनों को देखा। वे खड़े हो गए ।
“संभल कर रहना।” एक ने कहा- “साला रास्ते में कोई हरामीपन दिखाएगा।”
“ऐसा कुछ हुआ तो मैं उसी वक्त गोली मार दूंगा।” दरिंदगी से कह उठा।
“मुखिया ने कहा था उसे जिंदा लाना है।”
“जिंदा तो तभी लाएंगे, जब ये जिंदा रहना चाहेगा। आत्महत्या कर ले तो क्या हम जिम्मेवार हैं।”
देवराज चौहान खामोशी से उन दोनों के साथ, कमरे से बाहर निकला।
“वो काले रंग की कार है। बैठ।”
दोनों देवराज चौहान के दाएं-बाएं मौजूद थे। दोनों के हाथ ही जेबों में मौजूद रिवॉल्वर पर थे । उनके बीच देवराज चौहान शांत सा चल रहा था। होटल की पार्किंग में खड़ी कारों में वो पुरानी काले रंग की कार खड़ी थी। तीनों कार के पास पहुंच कर ठिठके।
एक पहले से ही ड्राइविंग सीट पर बैठा था। उसने कोई कार स्टार्ट कर ली थी ।
“बैठ ।” एक ने दरवाजा खोलते हुए शब्दों को चबाकर कहा ।
देवराज चौहान के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभर आई।
“अभी मेरी बात मान लो।” देवराज चौहान बोला- “नहीं ले जा सकोगे इस तरह मुझे ?”
“सुना तूने।” दरवाजा खोलने वाले ने अपने साथी को कड़वी निगाहों से देखा ।
“इसके बाल हमारी मुट्ठी में है तो तड़प कर कुछ तो कहेगा ही। परवाह मत कर।” कहने के साथ ही उसने देवराज चौहान को खुले दरवाजे के भीतर धकेला ।
देवराज चौहान खामोशी से भीतर बैठ गया।
दोनों पीछे वाली सीट पर ही कार के भीतर इधर-उधर बैठ गए उसे दबाकर । स्टेयरिंग सीट पर बैठे व्यक्ति ने कार को पार्किंग से निकाला और सड़क पर पहुंचते ही रफ्तार बढ़ा दी ।
“कहां ले जा रहे हो ?” देवराज चौहान ने शांत स्वर में पूछा ।
“चुपचाप बैठ ।”
“मैंने इसलिए पूछा है कि तुम लोग मुझे ज्यादा दूर तक नहीं ले जा सकोगे । रास्ते में ही हमारा साथ छूट जाएगा।” देवराज चौहान ने कहा-“पता मालूम होगा तो बाद में आ जाऊंगा। ”
“ये पागल ही है।”
“या फिर नम्बरी हरामी।” दूसरे ने शब्दों को चबाकर कहा- “जो भी हो साला अपनी मनमानी नहीं कर पाएगा।”
देवराज चौहान ने सिगरेट निकाली। तभी एक ने टोका।
“आराम से बैठा रह। सिगरेट सुलगाने की जरूरत नहीं ।”
देवराज चौहान ने सिगरेट होंठों से लगाई।
“सुना नही तूने। गोली खानी है क्या ?” दूसरा दांत पीसते गुर्रा उठा।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली। कश लिया।
दोनों के चेहरे क्रोध से धधक उठे । एकाएक कुछ कह ना पाए ।
“गोली नहीं मारी।” बोला देवराज चौहान ।
“तेरी ये तमन्ना बहुत जल्दी पूरी करेंगे ।” वो मौत भरे स्वर में कह उठा।
“वो ही बात कहते हैं, जो पूरी करनी हो।” देवराज चौहान शांत स्वर में बोला- “गोली मारने को कहा था तो सिगरेट के सुलगाते लगते ही देना चाहिए था।”
“ये साला हमसे कुछ करवा कर ही रहेगा।” पहले वाला सर्द आवाज में कह उठा ।
कार भीड़ वाली सड़क पर दौड़ रही थी ।
देवराज चौहान ने बाहर देखते हुए कश लिया और सुलगती सिगरेट कार ड्राइव करने वाले की गर्दन पर लगा दी। वो एकाएक चीखा। स्टेरिंग पर से दोनों हाथ हटे और उस जगह पर जा टिके जहाँ देवराज चौहान ने सुलगती सिगरेट लगाई थी ।
इस वक्त ही बहुत था उस भीड़ वाली सड़क पर ।
स्टेयरिंग से हाथ हटते ही,स्टेयरिंग घूमा। पाहिए मुड़े और बगल से गुजरती दूसरी कार से तेज आवाज के साथ कार जा टकराई। ऐसे होते ही कार इस तरह हिली जैसे गुल्लक को हाथ में पकड़ कर हिलाया जाता है। तभी पीछे से आती कार ने टक्कर मार दी। वो कार आगे वाली कार से जा भिड़ी। ये सब कुछ महज कुछ पलों में हो गया।
देवराज चौहान को दबाए बैठे बदमाश कुछ भी समझ ना पाए। जबकि उन्होंने देवराज चौहान को कर चलाने वाले की गर्दन पर सुलगती सिगरेट लगाते देख लिया था। अंत में जब का रुकी तो एक बदमाश के होठों से गुर्राहट निकली। उसने तुरंत रिवॉल्वर निकाली ।
देवराज चौहान ने एक हाथ में से उसकी रिवॉल्वर पर झपट्टा मारा और दूसरा हाथ से कार का दरवाजा खोला फिर उसे साथ लिएए कार के बाहर, सड़क पर लुढकता चला गया । अब तक सड़क पर जाता ट्रैफिक रुकना शुरू हो गया था अन्य कारों के शुरू हो गया था। अन्य कारों के आपस में टकराने की आवाज उभरी।
बदमाश कि रिवॉल्वर देवराज चौहान के हाथों में आ चुकी थी। बिना देर लगाए वो सभला और खड़ी कारों के बीच में से निकलता एक कार की ओट में हो गया ।
तभी गोली चली। उस कार की बॉडी में जा लगी। जिसके पीछे वो छिपा था ।
फायर की आवाज के साथ ही कुछ लोगों की भयपूर्ण चीख उभरी। कारों में मौजूद लोग अपनी ही कारों में दुबकने लगे की गोली उन्हें न लग जाए।
देवराज चौहान के दांत भींचे, रिवॉल्वर थामे,कार की ओट में था और बदमाशों की आहट से लगा। परंतु सड़क पर हो आहटों की वजह से, बदमाशों की हरकतों को ठीक से महसूस नहीं कर पा रहा था। देवराज चौहान को यहां मौजूद लोगों का भी एहसास था कि उनकी लड़ाई में किसी बेगुनाह को भी गोली लग सकती है। देवराज चौहान ने सावधानी से आस-पास देखा फिर झुके ही कारों को पार करता हुआ फुटपाथ की तरह दौड़ा ।
फुटपाथ तक पहुंचा ही था कि फायर हुआ।
गोली उसे नहीं लगी ।
देवराज चौहान फुटपाथ पर खड़े पेड़ के तने की ओट में छिपा ।एक गोली और आई। वो पेड़ के तने में जा धंसी। देवराज चौहान ने सेकेण्डों के लिए तने से सिर निकालकर उस तरह झांका फिर तुरंत ही फिर वापस खींच लिया था। इतने में एक ही उसने तीनों बदमाशों को सावधानी से इस तरह बढ़ते देख लिया था। दो के हाथ में रिवॉल्वर भी दिखी। जिससे उसने रिवॉल्वर छीनी थी, उसने चाकू थाम रखा था।
देवराज चौहान गोली नहीं चलाना चाहता था। बदमाशों के आस-पास कारें थी। उसकी चलाई गोली दूसरे को लग सकती थी। पेड़ के तने की ओट में वो ज्यादा देर सुरक्षित नहीं रह सकता थी। वो तीन थे और सावधानी से उसकी तरफ बढ़ रहे थे। दांत भींचे देवराज चौहान ने आसपास देखा।
बीस-पच्चीस कदमों की दूरी पर पुलिस बॉक्स था। वहां से एक पुलिस वाला झांकता भी दिखा। दूसरी तरफ दुकानें थी। मोड़ था। परंतु वो इतना दूर था कि उधर जाता तो तब तक बदमाश आसानी से उसका निशाना ले सकते थे। उधर जाना खतरनाक था।
देवराज चौहान ने यूं ही बदमाशों की तरफ, सड़क पर गोली चलाई और पलट कर पुलिस बूथ की तरफ दौड़ा। दुकानों की तरफ खड़े लोग माजरा समझने की चेष्टा कर रहे थे। वो पुलिस बुत के पास जा पहुंचा ही था कि एक के बाद एक, दो फायर हुए। एक गोली बुत की लकड़ी में लगी। दूसरी खाली गई ।देवराज चौहान सुरक्षित बुत की ओट में पहुंच चुका था। भिंचे दांत। चेहरे पर सिमटे खतरनाक भाव । अब सड़क पर ही दूर हो चुका था । उसका निशाना लेने के लिए बदमाशों को इस तरफ आना पड़ेगा और वो भी उसका निशाना ले सकेगा । यहां किसी राह चलते को गोली लगने की चनसिंस कम थे ।
“भाई मेरे।”
फुसफुसाता स्वर देवराज चौहान के कानों में पड़ा तो उसने फौरन सिर को घुमाया ।
पुलिस बॉक्स की छोटी-सी खिड़की से कॉन्स्टेबल का चेहरा झांक रहा था ।
“नमस्कार ।” देवराज चौहान को अपनी तरफ देखते पाकर जल्दी से बोला-“मैं कॉन्स्टेबल रामवीर। मेरे को मेरे से डरना नहीं। वर्दी मैंने अवश्य पहनी है, लेकिन मैं तेरे से डर रहा हूं। नाम क्या है तेरा ? ”
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा ।
“मत बता। वैसे है तू बहादुर। तीन-तीन है पीछे लेकिन डर नहीं तेरे को। अपना अता-पता बता दे। किसी काम के लिए किसी को जरूरत पड़ जाती है, तुम्हें उससे मिला दूंगा। दो पैसे मेरे भी बन जाएंगे। ”
“उधर देख।” देवराज चौहान ने मौज भरे स्वर में कहा-“वो कहां बतक आ पहुंचे हैं।”
छोटी-सी खिड़की से झांकता उसका सिर गायब हो गया ।
देवराज चौहान ने दांत भींचे आस-पास देखा ।
तभी कांस्टेबल का चेहरा खिड़की पर दिखा ।
“अभी वो पीछे हैं। सावधानी से काम ले रहे हैं । शायद तेल की धार को पहचान रहे हैं कि उसका किधर को रुख है। अब जल्दी से बता कि तेरा पता-ठिकाना किधर है।”
“चुपकर।”
“ठीक है । मेरा पता सुन ले। फुर्सत मिले तो मुलाकात करना। हम पुलिस वालों को मालूम रहता है कि किसी काम के बंदे की जरूरत है। मैं तेरे को कई पार्टियां दिलवा दूंगा।” इसके साथ ही उसने अपना पता बताया ।
देवराज चौहान आहट लेने की कोशिश में था कि कोई बदमाश अचानक सिर पर ना पहुंचे।
“गन दूँ।” एकाएक कॉन्स्टेबल बोला।
“गन ?” देवराज चौहान ने उसे देखा ।
“हां, सरकारी गन है। ड्यूटी इशू होती है, उसके बाद माल खाने में जमा करा देता हूं । तू गन लेकर उन्हें शूट कर दे। मैं कह दूंगा कि तुमने रिवॉल्वर मेरे सिर पर रखकर छीन ली थी। इस वक्त तेरी सहायता करना चाहता हूं मैं। आने वाले वक्त में हम मिलकर काम करेंगे। मैं तेरे को पार्टियां दिलवाऊंगा। खूब नोट पीटेंगे।”
देवराज चौहान के होठों पर छोटी सी मुस्कान उभरी ।
“तू क्यों नहीं मार देता उन्हें गन से ।”
“समझदारी वाली बात कर। पुलिस वालों के लिए ये काम कठिन हो जाता है। हम भी घर-परिवार वाले हैं। बीवी है, बच्चे हैं। इन्हें मारा तो इनके साथी मेरे घर वालों को मार देंगे। हर तरफ देखभाल के चलना पड़ता है। पुलिस वर्दी से ये बदमाश लोग नहीं डरते। पक्के ढीठ होते हैं।”
“उधर देख। वो पास तो नहीं आ रहे।”
“वो छोटी सी खिड़की से गायब हुआ फिर पुनः दिखा।
“अभी तो नहीं, लेकिन उनका इरादा इधर आने का लग रहा है। तीनों घेराबंदी वाले ढंग से अलग-अलग दिशाओं की तरह फैल रहे है। एक-एक करके तेरे पे झपटेगे। गन ले ले मेरी।”
“जरूरत नहीं। रिवॉल्वर से ही उन्हें संभाल लूंगा। तू बॉक्स से नीचे लेट जा। देवराज चौहान बोला।
“क्यों ?”
“गोलियां चली तो तेरे को भी लग जाएंगी।”
“ठीक बोला।” कह कर वो हटने ही वाला था कि एकाएक दो फायर एक साथ हुए।
देवराज चौहान की आंखें सुकड़ी ।
कोई भी गोली इस तरफ नहीं आई थी ।
“तेरे साथी ने उन पर फायर किए होंगे।” कांस्टेबल बोला ।
“मेरा कोई साथी नहीं।” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा ।
“सच में ?”
देवराज चौहान ने दूसरी तरफ देखा । बुथ की ओट की ओट से थोड़ा सा सिर बाहर निकाल कर देखा ।
छोटी-सी खिड़की से कॉन्स्टेबल का सिर हट गया था। वो पुनः दिखा।
“भाई जी ।”
कॉन्स्टेबल की आवाज सुनकर, देवराज चौहान ने पीछे देखा ।
“एक तो गया ।”
“क्या ?”
“एक नीचे पड़ा है। पक्का मर गया वो। दूसरा उधर भागा है। जिसने गोली मारी वो दूसरे के पीछे।”
तभी फायर की आवाज उसके कानों में पड़ी ।
“लो । दूसरा भी गया।” कॉन्स्टेबल के होंठो से निकला।
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।
तभी देवराज चौहान को अपनी कमर पर रिवॉल्वर की नाल के दबाव का एहसास हुआ ।
उसने पलटना चाहा।
“हिलना मत।” खतरनाक आवाज कानों में पड़ी।
यह नई आवाज थी। देवराज चौहान को समझते देर न लगी कि उसके पीछे कार चलाने वाला व्यक्ति मौजूद है। जिसकी गर्दन पर उसने सुलगती सिगरेट लगाई थी ।
“ये तुम लोग क्या कर रहे हो। कानून व्यवस्था भी कुछ है कि नहीं। कांस्टेबल हड़बड़ा कर कह उठा– “ये सब तो होता ही रहता है।” लेकिन पुलिस की बगल में तो ना करो । चलो, दूर हट जाओ।”
उसकी बात सुनने की फुर्सत किसे थी।
“यहां पर ड्यूटी के लिए थाने वालों ने मुझे गन दी हुई है। झूठ मान लेते हो तो दिखाऊँ क्या ?” वो वह पुनः बोला।
देवराज चौहान की कमर में रिवॉल्वर लगाने वाले ने लाल-लाल आंखों से उसे देखा।
“ठीक है भाई। समझाना मेरा फर्ज था। आगे तुम्हारी मर्जी। ”कहने के साथ ही कांस्टेबल ने तुरंत अपना सिर खिड़की से भीतर खींच लिया। उसे डर था कि लाल आंखों वाला बदमाश उसे गोली ना मार दे।
“कितने साथी है तुम्हारे यहां ?” उसने भिंचे स्वर में देवराज चौहान से पूछा।
देवराज चौहान रिवॉल्वर थामे सतर्क खड़ा था। सख्ती से बंद होठों को नहीं खोला।”
“बता, वरना अभी गोली…।”
“मेरा कोई साथी नहीं।” देवराज चौहान ने खतरनाक स्वर में कहा ।
“झूठ बोलता है। तेरा साथी है वो, तभी तो हम लोगों का निशाना ले रहा है।” उसने मौत भरे स्वर में कहा।
“अकेला है ?”
“हां ।” उसके होठों से निकला- “तू तो ऐसे पूछता है जैसे मालूम नहीं। मुखिया से झगड़ा लेता है। जानता नहीं तू मुखिया को। उधेड़ देगा तेरे को। खुद को बचा और मुझे उससे, जो हम पर गोलियां चला रहा है । रोक उसे और चल मुखिया के पास। वरना…।”
वो चुप हो गया। गर्दन पर गर्म लोहे का एहसास हुआ ।
“कौन है ।” उसने पलट कर देखा।
एक कदम पर लेखा खड़ा था। आंखों में मौत से भरी सर्द चमक। उस व्यक्ति के घूमते ही गर्दन पर लगी रिवॉल्वर की नाल उसकी छाती पर आ लगी थी।
देवराज चौहान भी पलटा।
तभी फायर का तेज स्वर उसके कानों में पड़ा। लाल आंखों वाले बदमाश की छाती का हिस्सा उधड़ गया। वो इस तरह उछलकर गिरा, जैसे किसी ने उसे धक्का दिया हो ।
देवराज चौहान और लेखा की नजरें मिली ।
“तीन तुम्हारे पीछे थे।” लेखा ने सर्द स्वर में कहा- “तीनों मर गए।”
“कौन हो तुम ?” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा ।
“मेरे बारे में तेरे को जानने की जरूरत नहीं देवराज चौहान ?” लेखा सर्द स्वर मैं बोला ।
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।
“तेरे को भी हीरे चाहिए।” शब्दों को चबाकर पूछा देवराज चौहान ने।
“नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। ” यहां रुकना हम दोनों के लिए ठीक नहीं। पुलिस कभी भी यहां पहुंच जाएगी। इनसे तो निपट लिया। पुलिस से निपटना भारी पड़ जाएगा।” लेखा ने कहा।
“मैं तो पुलिस हूं।” खिड़की से बाहर निकालकर कांस्टेबल कह उठा ।
दोनों में से किसी ने उसे नहीं देखा।
“मेरे मामले में क्यों आए ?”
“इसलिए नहीं आया कि मुझे शक हो कि तुम इन बदमाशों का मुकाबला नहीं कर पाओगे। मैं जानता हूं इनसे तुम निपट लेते।” लेखा ने शांत स्वर में कहते हुए अपनी रिवॉल्वर जेब में डाल दी-“लेकिन मैं नहीं चाहता था कि मामला लंबा हो।”
देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांका ।
“अपना ध्यान रोनिका पर लगाओ। तुम उसे लेने आए हो।
ऐसे लोगों को मैं संभाल लूंगा। ” लेखा ने आसपास देखते हुए कहा-“”निकल जाओ। हम वक्त बर्बाद कर रहे हैं। मैं जानता हूं तुम मेरे बारे में जानना चाहते हो। अभी हमारी फिर मुलाकात होगी। तब मेरे से पूछताछ कर लेना।”
उसी पल उसके कानों में दूर से आती पुलिस सायरन की आवाज पड़ी।
दोनों ने उधर देखा। पर नजरें मिली।
देखा के प्रति देवराज चौहान के मन में उत्सुकता थी कि वो कौन है । उसकी सहायता क्यों कि परंतु पुलिस सायरन की आवाज कह रही थी कि यहां से इसी पर निकल चलो।
तभी लेखा पलटा और तेजी से एक तरफ भागता चला गया।
देवराज चौहान रिवॉल्वर जेब में डालते हुए दूसरी तरफ भाग खड़ा हुआ ।
पीछे से कांस्टेबल की आवाज कानों में पड़ी ।
“मेरा पता याद रखना। जल्दी मिलना। काम दिलाऊंगा तुम्हें। मोटे नोट पीटेंगे।
■■
देवराज चौहान जब वहां से बहुत दूर निकल आया। खुद को सुरक्षित समझा। जगमोहन को फोन किया ।
“तुम ठीक हो।” बात होते ही देवराज चौहान ने पूछा ।
“हां, लेकिन हुआ क्या ?”
देवराज चौहान ने कम शब्दों में बताया ।
“हैरानी की बात है कि वो तुम्हारे मामले में क्यों आया । क्यों उसने तीनों को मारा ?”
“उसका कहना है कि अभी मुलाकात होगी।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा-“वो कहता है इन लोगों को वो संभाल लेगा। मैं अपना ध्यान रोनिका को लेने पर लगाऊं।”
“ओह।” जगमोहन का सोच भरा स्वर कानों में पड़ा- “मतलब कि वो अवश्य कुछ चाहता है।”
“हां, बिना वजह तो इस मामले में आने से रहा।” देवराज चौहान की आवाज में गंभीरता थी-“उस वक्त हालात और वक्त ऐसा नहीं था कि उससे ज्यादा बात कर पाता।”
“लेकिन मुखिया ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती क्यों की। ये सोचने वाली बात है। तुम हीरे देकर रोनिका को लेने को तैयार हो तो, मुखिया ने ये सब क्यों किया ?”
“मालूम हो जाएगा। कहीं-न-कहीं तो मामला गड़बड़ है ही । तुम सतर्क रहना। मुखिया को इस बात का पूरी तरह एहसास है कि मेरे साथ कोई है जो रथपुर में हीरो के साथ मौजूद है। यानी कि वो इस कोशिश में भी हो सकता है कि तुम्हें ढूंढ निकाले।” देवराज चौहान ने कहा ।
“मैं अब और भी सतर्कता इस्तेमाल करूंगा।” जगमोहन का कठोर स्वर कानों में पड़ा।
“मेरे ख्याल में उस होटल को छोड़ देना बेहतर होगा। किसी दूसरी जगह पर रह लो।मुखिया एक बार सफल नहीं हो सका तो ऐसी कोशिश दूसरी बार अवश्य करेगा ।”
“उसकी दूसरी कोशिश का ही तो मुझे इंतजार करना है।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद किया और सोचो में डूबे सिगरेट सुलगाई। इधर-उधर देखा।
उसके बाद जीवन पाल का नंबर मिलाया ।
बात हुई।
“रोनिका मिली ?” उसकी आवाज पहचानते ही जीवन पाल का व्याकुल स्वर कानों में पड़ा।
“तुमने कहा था कि तुम्हारी बेटी मुखिया नाम के आदमी के पास है।”
“हां ।”
“लेकिन मेरे को मुखिया के साथ-साथ किसी दूसरे आदमी का भी फोन आया है कि रोनिका उसके पास है। यानी कि रोनिका दो के पास है और दोनों रोनिका को देकर छः करोड़ के हीरे लेना चाहते हैं।”
“ये कैसे हो सकता है। मेरी बेटी एक साथ दो के पास कैसे हो सकती है।” जीवन पाल का उलझन भरा स्वर सुनाई दिया-“मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा।”
“सीधी-सी बात है जीवन पाल की तुम्हारी बेटी मुसीबत में है। खतरे में है। वो दोनों में से जाने किसके पास है, या फिर किसी के पास भी नहीं। क्योंकि कुछ देर पहले ही मुखिया के आदमियों ने मेरा अपहरण करने की कोशिश की। जाहिर है कि वो मुझसे छः करोड़ के हीरे चाहता है।”
“इसका मतलब रोनिका मुखिया के पास नहीं है।”
देवराज चौहान के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
“ठीक सोचा। अगर रोनिका उसके पास होती तो रोनिका को मेरे हवाले करके हीरे ले लेता। रोनिका शायद उसके हाथ से निकल गई। ऐसे में वो हीरे मेरे से छीन लेना चाहता है।”
“हीरे तुम्हारे पास सुरक्षित है ?”
“फिक्र मत करो। हीरे मेरे पास ही रहेंगे।”
दो पलों की चुप्पी रही फिर जीवन पाल का बेसब्री से भरा स्वर कानों में पड़ा ।
“रोनिका की कोई खबर नहीं कि वो किधर है।”
“नहीं।” अभी तो हर कोई छः करोड़ के हीरे ले लेना चाहता है । तुम्हें फोन तो नहीं आया मुखिया या किसी का ?”
“नहीं ।” जीवन पाल की आवाज में कठोरता आ गई थी-“लेकिन तुम्हारी बात सुनकर लगता है कि हालात बहुत खराब है। रोनिका खतरे में है। रोनिका को कुछ हो गया तो…।”
“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।”
“मैं तुम्हें पचास लाख के बदले एक करोड़ दूंगा। तुम किसी तरह मेरी बेटी को मुझ तक पहुंचा दो।”
“पचास लाख का तय हुआ है, पचास ही लूंगा। पूरी कोशिश करूंगा कि रोनिका को तुम तक पहुंचा दूँ। अगर तुम्हारे पास रोनिका को लेकर रथपुर से कोई फोन आए तो तुमने उसे यही कहना है कि रथपुर में मुझसे बात करें । तुम खुद को इस मामले से दूर कर लेना है।” देवराज चौहान ने कहा ।
“ऐसा ही करूंगा ।”
देवराज चौहान ने मोबाइल फोन बंद किया। जेब मे डाला और आगे बढ़ गया ।
■■
जीवन पाल ने रिसीवर रखा और परेशानी भरी निगाहों से आशाराम और प्रमोद सिंह को देखा। उसकी आंखों में खतरनाक भावा आ ठहरे थे।
तभी फोन बजा । जीवन पाल ने फौरन रिसीवर उठाया। कुछ देर बात करता रहा फिर रिसीवर रखकर, कमर पर हाथ बांधे कुछ टहला फिर दोनों को देखकर बोला।
“रथपुर से उसका फोन है जिसे मैंने देवराज चौहान पर नजर रखने के लिए, देवराज चौहान के पीछे लगाया था। उससे पहले देवराज चौहान ने जो कहा, लगभग वो ही बातें कह रहा है। सब कुछ सुनने के बाद मुझे लग रहा है कि रोनिका की जान खतरे में है । मुझे अपनी बेटी की खातिर शराफत का चोला उतार कर रथपुर जाना पड़ेगा।” जीवन की आंखों में दरीदगी आ ठहरी थी।
आसाराम और प्रमोद सिंह की नजरें मिली।
“रोनिका कहां है। कोई खबर नहीं।” जीवन पर दांत भींचकर बोला-“उन लोगों की नजर हीरो पर है। ऐसा तभी हो सकता है, जब रोनिका के साथ कुछ बुरा हो गया हो। वरना अब तक तो छः करोड़ के हीरो की अदला-बदली हो गई होती। जिसके पास मेरी बेटी है, उसने हीरे लेकर मामला…।”
“आपका मतलब कि रोनिका बेटी जिंदा नहीं रही। ” आशाराम ने शब्दों को चबाकर कहा।
“हालात तो यही इशारा करते हैं। ” दिल पर पत्थर रख कर बोलो जीवन पाल-“वरना रोनिका की अब तक कोई खबर तो मिली होती। सारा काम खत्म हो गया होता।”
“पाल साहब ।” प्रमोद सिंह अपना कान मसल कर बोला-“रथपुर में, रोनिका बेटी को लेकर एक से ज्यादा लोग, इस मामले में है। छः करोड़ के हीरे कम नहीं होते।”
जीवन पाल ने क्रूरता भरी निगाहों से दोनों को देखा ।
“चुपचाप रहो चलने की तैयारी करो। किसी को नहीं मालूम हो कि हम वहां जा रहे हैं। मुखिया केके आदमी यहां भी होंगे। मैं नहीं चाहता कि किसी को मालूम हो कि हम रथपुर जा रहे हैं।”
दोनों ने सहमति से सिर हिलाया।
“चलने में ज्यादा देर नहीं लगनी चाहिए । एक घंटे में यहां से निकल चलो।” जीवन पाल के होंठ भिंचते गए-“लेखा ऐसे मौके पर साथ होता तो ठीक रहता ।”
“उसे बुला लीजिए…वो।”
“मालूम नहीं वो कहां है। उसने छुट्टी मांगी। हमेशा की तरह कुछ पूछे बिना मैंने दे दी।”
“किसी और को भी साथ लेना है।”
“जरूरत नहीं। तुम दोनों हो ।उधर देवराज चौहान और उसका साथी है।” जीवन पाल ने खतरनाक स्वर में कहा-“वहां मेरी पहचान वाले ऐसे हैं कि वक्त आने पर वो मेरे लिए आदमियों को बुला लेंगे।”
आशाराम और प्रमोदसिंह दृढ़ता भरी,सख्त नजरें मिली।
“हम एक घंटे में चलने की तैयारी कर लेते हैं।” प्रमोद सिंह ने कहा और दोनों बाहर निकल गए ।
“सेठी। मेरे ख्याल में जीवन, केशोपुर से बाहर गया है।” मीरा पाल फोन पर थी।
केशोपुर से बाहर ?” सुदर्शन सेठी की आवाज कानों में पड़ी- “कहाँ ?"
“रथपुर जा सकता है वो। आसाराम और प्रमोद सिंह उसके साथ हैं। वो तीनों कार में बैठे तो, मैंने खिड़की से देखा। उनके पास पास एक बैग भी था । बैग ले जाने का मतलब है, वो केशोपुर के से बाहर जा रहे हैं।” मीरा पाल ने गंभीर स्वर में कहा- “कहीं लेखा ने रोनिका को खत्म तो नहीं कर दिया। उसकी खबर मिली हो तो वो रथपुर के लिए दौड़ पड़ा हो।”
“ऐसा कुछ हुआ तो रोनिका की मौत की खबर मुझे अवश्य मिलती। मेरे अखबार के आदमी रथपुर में है। वो खबर कर देते। ”सेठी का सोच भरा स्वर, कानों में पड़ा ।
“यूं ही तो जीवन कहीं जाने से रहा और इन हालातों में रथपुर के अलावा कहीं नहीं जाएगा। जाते वक्त मुझे ये भी नहीं बताया कि केशोपुर से बाहर जा रहा है।" सावधानी बरती उसने ।
“हो सकता है केशोपुर में ही कहीं गया हो।”
“उस बैग को लेकर वो शहर से बाहर ही जाता है।”
“बैग में क्या खासियत है ?”
“उसमें हथियार रखता है। उसका वो बैग हथियारों के साथ हमेशा तैयार रहता है।”
“ओह।”
“सेठी, मुझे सोचना है कि मैं क्या करूं। तुम भी अपने लिए सोचो। हमारे लिए कोई मुसीबत खड़ी हो गई तो…।”
“वहम मत पड़ो। कुछ नहीं होगा-“सुदर्शन सेठी का तसल्ली भरा स्वर उसके कानों में पड़ा-“तुम अपनी सोचों को लेकर खामखाह मरी जा रही हो। सब ठीक है ।जीवन किसी काम के लिए गया होगा । आ जाएगा ।”
मीरा पाल ने रिसीवर रखा और कुर्सी पर आ बैठी । उसकी सोचों ने दौड़ लगाई ।
लेखा गया है। उसे पूरा भरोसा था कि लेखा कुछ कर गुजर कर ही लौटेगा। वो कितना खतरनाक है। इस बात का एहसास था उसे। उधर(जुगल किशोर।) उससे बात हो गई है, जो रोनिका को भी कत्ल करेगा और उसके पास मौजूद लिफाफे को भी लेकर आएगा। हो सकता है, उसने रोनिका की हत्या कर हो। खबर मिलते ही गुस्से से भरा जीवन भाग खड़ा हुआ हो रथपुर को।
जो होगा उसके हक में ही होगा ।
फिर भी सावधान रहने की जरूरत थी रथपुर के हालातों पर नजर रखना जरूरी था ।
■■
“शुक्र है।” रोनिका ने गहरी सांस लेकर कहा- “ये होटल मुंबई वाले होटल जैसा नहीं है।”
“तब वहां ठहरना मेरी मजबूरी थी।” जुगल किशोर ने गहरी सांस ली-“जेब में पैसा नहीं था।”
“और अब मेरी पांच सौ की गड्डी खाली कर रही हो। रोनिका ने मुंह बनाया ।
“तुम्हारी गड्डी तो संत सिंह ने खाली की है। मना करता रहा कि मत दो उसे पैसे। लेकिन तुम मेरी मानो…।”
“तुम्हारी फटी कार के चार हजार रुपए भी दिए हैं ।”
“उसी फटी कार में बैठकर मुंबई से रथपुर तक आई हो।” जुगल किशोर ने तीखे स्वर में कहा ।
“समझो किराया चुकता कर दिया ।
“गड्डी खत्म होने वाली है। ज्यादा दिन नहीं चलेगी।” कहने के साथ ही जुगल किशोर कमीज खोलने लगा ।
“ये क्या कर रहे हो ?”
“नहाने जा रहा हूं । ” जुगल किशोर ने तीखे स्वर मैं कहा।
“मैंने समझा जवानी जोर मारने लगी है।”
“तुम पर जवानी ने जोर मारना होता तो कब का मर चुकी होती। ” जुगल किशोर मुस्कुरा पड़ा।
रोनिका ने उसे घूरा।
“सच बात ये है कि दौलत पाने के फेर में तेरे को ठीक से सिर से पांव तक देख नहीं पाया।”
रोनिका उसे घूरती रही।
“क्या देख रही हो ?”
“तुम में चांद-सितारे नहीं जड़े जो देखूं। सोच रही हूं संत सिंह हमें यहां ढूंढ सकता है। हमे गयाब पाकर वो सबसे पहले रथपुर के होटलों को चैक करेगा।” रोनिका बोली।
“हां। ” जुगल किशोर के होंठो से निकला-“ठीक कहा। परन्तु रथपुर में हमारी पहचान भी नही की कही ठहर सकें। ले-देकर होटल ही जगह है, जहां हम रुक सकते हैं।”
रोनिका के होंठ सिकोड़कर सिर हिलाया।
“समझा नही।”
“इन हालातों में कोई भी नही सोच सकता कि मैं केशोपुर जा सकती हूं।”
जुगल किशोर देखता रह गया रोनिका को ठीक कहा उसने की अगर वो केशोपुर पहुंच जाए आसानी से अपने पपा के पास पहुंच जाएगी और उसके पच्चीस लाख खरे।
“तुम्हारा ठीक हो सकता है। लेकिन सोचने वाले भी सोच सकते हैं कि तुम केशोपुर जा सकती हो। जो कि नहीं चाहते कि तुम अपने पापा तक पहुंच सको। जैसी तुम्हारी सौतेली माँ। वो अकेली तुम्हें खत्म करने की सोच नहीं सकती। उसके हवा देने वाले भी उसके पास ही होंगे। उन्होंने अवश्य इंतजाम कर रखा होगा कि। तुम केशोपुर पहुँचो तो, तुम्हारे गले मिल जाएं।
“तुम पच्चीस लाख किस बात के लिए रहे हो ?”
“क्या मतलब ?”
“दुश्मनों से मुझे बचा रखने के पच्चीस लाख ले रहे हो। केशोपुर में कोई खतरा आया तो तुम संभालना ।”
साली मुझे मरवाने का पक्का इंतजाम कर रही है ।
“मैं तो संभाल लूंगा। परंतु जल्दबाजी करना ठीक नहीं ?”
“वो कैसे ?”
“एक-दो दिन उसे ढूंढने की कोशिश करते हैं, जिसे तुम्हारे पापा ने भेजा है, तुम्हें लेने के लिए। उसके पास पहुंच गए तो सारी मुसीबतें ही खत्म हो जाएगीं। तब सारा मामला वो संभाल लेगा। मैं उसका साथ दूंगा।”
“वो न मिला तो ?”
“तब केशोपुर चल पड़ेगे।”
उससे पहले संतसिह ने हमें ढूंढ निकाला तो ?”
“उस साले की तो गर्दन तोड़ डालूंगा।” जुगल किशोर का स्वर कड़वा हो गया ।
रोनिका ने गहरी सांस लेकर रह गई।
“क्या हुआ ?”
“संतसिह का ध्यान आ गया। कितना विश्वास किया उस पर और वो कैसा घटिया इंसान निकला कि…।”
“छोड़ो । वो सच में बेकार बंदा है। ”
“तुम्हारा अपने बारे में क्या ख्याल है ?” व्यंग से बोली रोनिका।
संतसिंह से बहुत शरीफ हूं । तुम्हारी गर्दन काट कर पचहत्तर लाख कमा सकता था। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।”
“तुम सब कमीनी हो ?”
“जो भी कह लो। मैं अपनी शराफत का ढोल पीटने की जरूरत नहीं समझता।”
“अगर तुम शरीफ हो तो फिर बदमाश लोग कैसे होंगे ?”
इसकी गर्दन काट देता तो ठीक रहता। जुबान तो सुनने को नहीं मिलती इतनी ।
“नहा धोकर मैं बाहर जाऊंगा । जैसे-तैसे उस बंदे की तलाश करने की कोशिश करूंगा, जिसे तुम्हारे पापा ने भेजा है।”
“ये बात कैसे मालूम करोगे ?”
“मालूम नहीं।” जुगल किशोर ने गंभीर स्वर में कहा–“यहां से बाहर निकल कर सोचूंगा।”
“ मैं भी साथ चलूं तुम्हारे?”
“क्यों परेशानियां खड़ी करती हो। तुम्हारा खुले में जाना ठीक नहीं ?”
जुगल किशोर कमरे से बाहर निकला और गैलरी में आगे बढ़ गया। बदन पर मैली हो रही जीन्स की पैंट और बुरे हाल की तरफ इशारा कर रही थी शर्ट। परंतु उसका मस्तिष्क तो पच्चीस लाख की तरफ जा रहा था कि, रोनिका अपने बाप के पास पहुंचे और उसे पच्चीस लाख मिले ।
तब वो नीचे जाने के लिए सीढ़ियां उत्तर रहा था कि ठिठक गया। चेहरे पर उभरे हड़बड़ाहट के भावों पर उसने फौरन काबू पाया वही खड़ा रहा था वो।
सामने से देवराज चौहान सीढ़ियां चढ़ता आ रहा था। उसे देख ही देवराज चौहान ठिठका ।
“तुम्हें यहां देख कर मुझे हैरानी हो रही है।” जुगल किशोर जल्दी से कह उठा ।
देवराज चौहान ने गहरी निगाहों से उसे देखा ।
“तुम्हें देखकर मुझे भी अजीब-सा लगा। क्या कर रहे हो ? ” देवराज चौहान बोला ।
“काम ?”
“कौन-सा काम ?”
“इतना तो तुम समझते हो कि मेरे काम बताने वाले नहीं होते।” जुगल किशोर मुस्कुरा कर कह उठा-“परंतु यकीन मानो, मैं तुम्हारे किसी काम में दखल नहीं दे रहा। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताओ।”
“कब से हो इस होटल में ?”
“अभी से। आज से ही । दो घंटे पहले ही आया हूं। हम इकठ्ठे बैठते। बातचीत करते। चाय भी पीते, परंतु जरूरी काम से कहीं जा रहा हूं फिर मिले तो दो बातें अवश्य करेंगे। चलता हूं।” कहने के साथ ही जुगल किशोर तेजी से सीढ़ियां उतरता चला गया। देवराज चौहान को होटल में पाकर सच में हड़बड़ा-सा उठा था। बरहाल उसे विश्वास था कि रोनिका वाले मामले से देवराज देवराज चौहान का दूर-दूर तक वास्ता नहीं है।
देवराज चौहान सीढ़ियां तय करके गैलरी में पहुंचा कि मोबाइल फोन की बेल बजी । दूसरी तरफ जगमोहन था। दोनों से बात हुई।
“मुझे तुम्हारी चिंता है । ठीक हो ?”
“हां, होटल आ गया हूं।”
“ध्यान रखना मुखिया जल्दी ही कुछ करेगा।” जगमोहन का व्याकुल स्वर कानों में पड़ा ।
“मालूम है।”
“कहो तो मैं आ जाऊं ?”
“ये गलती मत करना ।”
“मेरे आ जाने में गलत ही क्या है। मैं…।”
“जगमोहन।” देवराज चौहान ने टोका-“इस सारे मामले में ही छः करोड़ के हीरे बहुत महत्व रखते हैं। रोनिका से जुड़ा हर कोई हीरो पा लेना चाहता है लेकिन रोनिका कहां है ये बताने को कोई तैयार नहीं। हीरे तुम्हारे पास है। तभी तो तुम्हें इस सारे मामले से अलग करके, रखा हुआ है।”
“मैं समझ रहा हूं तुम्हारी बात।लेकिन तुम्हें कुछ हो गया तो…।”
“कुछ नहीं होगा। जब तक हीरे किसी को नहीं मिलते। कोई मुझे कुछ नहीं करेगा।
“तुम अकेले हो।”
“ये बात तुम कह रहे हो।” देवराज चौहान के होठों पर मुस्कान उभरी।
जगमोहन की तरफ से आवाज नहीं आई ।
“मेरी तरफ से निश्चिंत रहो ।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद किया और गैलरी में आगे बढ़ गया ।
■■
मुखिया ने केदार को देखा फिर शांत भाव में सिगरेट सुलगाई।
“तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि तुम मेरी पसंद की कोई खबर लेकर नहीं आए।” मुखिया बोला।
“ठीक समझे मुखिया जी।” केदार बैठता हुआ कह उठा-“संतसिंह के घर की पूरी तलाशी ली। वहां से हीरे तो क्या कोई चमकता टुकड़ा भी नहीं मिला।”
मुखिया का चेहरा सख्त हो उठा।
“छः करोड़ के हीरों का सवाल है। समझदारी से काम लो केदार।”
“आप ही बताइए क्या करें। मैंने संत सिंह के दोस्त कल्लू को पकड़ा।”
“जिसके साथ मिलकर, उसने सोनू भाटिया को मारा था।”
“वो ही एक कल्लू। उसका कहना है कि उसे नहीं मालूम कि संतसिंह ने कोई सौदा पटा लिया है। रोनिका को वो छः करोड़ के हीरों के बदले वापस देना चाहता था।” केदार ने कड़वे स्वर में कहा- “संतसिह शुरू से ही आपको धोखा दे रहा था। कल्लू नहीं जानता कि रोनिका का संतसिंह ने क्या किया ?”
“रोनिका के साथ कोई लड़का भी तो था।”
“हां, कल्लू से उसके बारे में बात की। मालूम नहीं वो कौन है। उसने, उसका नाम जुगल किशोर बताया ।”
“जुगल किशोर ?”
“हां ।”
“कौन है ये ? पहले नाम नहीं सुना।”
“मैंने भी नहीं सुना नाम। इस मामले में है तो खेला-खाया ही होगा वो।”
“ऐसा तो नहीं कि संतसिंह ने सौदा पटा लिया हो। रोनिका को, जीवन पाल के भेजे आदमी के हवाले करके हीरे ले लिए हो।” मुखिया के माथे पर बल नजर आ रहे थे- “उसके बाद मौका पाकर, वो ही जुगल किशोर संतसिंह के हीरे लेकर खिसक गया हो।”
“ऐसा भी हो सकता है।” सोच भरे स्वर में केदार बोला ।
“जुगल किशोर को ढूंढो केदार।”
“मैं उसे पहचानता नहीं।” केदार ने मुखिया को देखा ।
“कल्लू ने उसे देखा है ?”
“हां ।” केदार बोलो- “कल्लू को साथ रख लेता हूं। वो जुगल किशोर को पहचान लेगा। लेकिन ये भी हो सकता है कि हीरे हाथ लगते ही जुगल किशोर रथपुर से खिसक गया हो।”
“कुछ भी हो सकता है। जुगल किशोर को पहले रथपुर में ढूंढो। सारे होतलो को चैक करो।अगर वो रथपुर निकल गया हो तो मालूम करो वो कौन है। उसका पता ठिकाना। छः करोड़ के हीरे कम नहीं होते ।
“अपने आदमियों को कल्लू के साथ लगा देता हूं। वे होटलों को चैक…।”
“जल्दी कर ले ये काम। जितना वक्त निकलेगा। हीरे हमसे उतने ही दूर हो जाएंगे। संतसिंह गड़बड़ कर गया। दिमाग खराब हो गया था उसका । वरना अब तक हीरे आ गए होते। तीन करोड़ के वो ले लेता, तीन करोड़ हम।”
तभी फोन की घंटी बजी ।
“हैल्लो।” मुखिया ने रिसीवर उठाया ।
“मुखिया जी गजब हो गया।”
“तुने कभी गजब से बात कम बात की है।” मुखिया के होठों से तीखा स्वर निकला-“फूट मुहं से।”
“हमारे तीन आदमी, जीवन पाल के आदमी को लेने होटल गए थे। वो लेकर आ रहे थे कि रास्ते में उसने तीनों को मार दिया। गजब हो गया मुखिया जी।”उधर से आवाज आई।
मुखिया से कुछ कहते न बना ।
“मुखिया जी।”
“सुना, तूने जो बोला। ये कब की बात है ?” मुखिया ने शब्दों को चबाकर पूछा।
“डेढ़ दो घंटे हो गए। मुझे अभी खबर मिली तो सोचा गजब की बात आपसे कह दूं।”
मुखिया ने दांत भींचे रिसीवर रख दिया ।
“क्या हुआ ?” केदार ने पूछा ।
मुखिया ने बताया ।
केदार की आंखें सिकुड़ गई ।
“अगर यही सब होता रहा तो रथपुर में आपका नाम मिट्टी में मिल जाएगा।” केदार खतरनाक स्वर में बोला ।
“ठीक कहता है तू।” सुलग उठा मुखिया- “जीवन पाल के इस आदमी को तू संभाल ले केदार।”
“क्या करूं ?”
“हरामी को मेरे पास ले आ। ये बताएगा रोनिका और हीरों के बारे में। हमें इस बारे में स्पष्ट स्थिति का है एहसास नहीं ।मुकाबला करने की कोशिश करें तो दिल पर पत्थर रखकर, गोली मार देना।”
केदार ने फौरन सिर हिलाया।
“एक बात खटक रही है।”
“क्या ?”
“रोनिका अगर उसे मिल गई तो वो अभी तक रथपुर में क्यों जमा पड़ा है।” मुखिया भिंचा सा कह उठा ।
“हां । उसे तो फौरन निकल जाना चाहिए।” केदार के होठों से निकला।
दोनों की नजरें मिली ।
“ये भी हो सकता है कि हीरे उसके पास हो। रोनिका उसे ना मिली हो।” मुखिया बोला।
“तो रोनिका कहां है ? हीरे कहां है ? ”
“ये तो उलझन वाली बात हो गई केदार ।सिर फिर गया मेरा, इस मामले में।”
केदार सोच भरी निगाहों से मुखिया को देखता रहा ।
“केदार ।” आखिरकार मुखिया हाथ की मुट्ठी को हथेली पर मार कर उठा-“ये भी तो हो सकता है कि संतसिह ने रोनिका के साथ रहने वाले जुगल किशोर को छः करोड़ के मामले में अपने साथ मिला लिया हो पचास-सत्तर लाख का लालच देकर। मेरे से खतरा न हो, इसलिए संतसिह ने रोनिका को जुगल किशोर के साथ कही और भेज दिया हो।”
“ओह। ये तो मैंने सोचा ही नहीं था ।”
“जुगल की तलाश करवा। साली रोनिका उसके साथ ही कहीं छिपी होगी। होटल के साथ-साथ संतसिह का अन्य कोई ठिकाना भी हो तो, वो भी देख।” मुखिया का चेहरा दरिंदगी से भरा उठा ।
फोन की बेल बजी।
“बोल ।” मुखिया ने रिसीवर उठाया।
“मुखिया जी। जीवन पाल का आदमी वापस होटल आ पहुंचा है। उसे तो आपके पास ले…।”
“कब आया वो ?”
“अभी ।”
“अकेला है ?”
“जी हां। वो आपके पास नहीं पहुंचा क्या ?”
“उस पर नजर रख। कहीं जाए तो, तू उसके पीछे रहना। मुझे खबर करना।” मुखिया ने रिसीवर रखा और केदार से कहा- “जीवन पाल का भेजा आदमी, मेरे तीन आदमियों को मार कर वापस होटल आ गया है। अकेला है।”
केदार आंखों सिकोड़े, मुखिया को देखने लगा ।
“मुझे तो वो कोई खतरनाक बंदा लगता है।” मुखिया ने शब्दों को चबाकर कहा-“वरना इस तरह बे-खोफ़ वो वापस होटल नही आता। कही छिपने की कोशिश करता। शातिर लगता है वो।”
“सच में । वरना वो वापस न आता। मैं साले को तगड़ा घेरुगा मैं कि बच न सके।”
“मैं भी तेरे साथ चलूंगा। मुझे नहीं लगता कि वो तेरे बस में आएगा।” मुखिया दरिन्दगी से कह उठा ।
■■
शाम के पांच बजे रहे थे जब वेटर ने दरवाजा थपथपाया।
देवराज चौहान ने दरवाजा खोला। वेटर थाम रखी चाय की ट्रे कमरे में मौजूद टेबल पर रख कर चला गया । देवराज चौहान ने सिगरेट ऐश-ट्रे में डाली और प्याले में चाय डालकर पीने लगा। शांत सोच के भाव चेहरे पर थे। कुछ घंटो पहले की बात को वो सोच रहा था। मुखिया के आदमी उसे जबरदस्ती यहां से ले जा रहे थे जबकि मामला आराम से निपटाने के था। रोनिका को उसके हवाले करना और हीरे ले लेने थे। परन्तु मुखिया की इस हरकत से स्प्ष्ट था कि रोनिका उसके पास है ही नही।पहले उसके पास रही हो तो बात जुदा है अब या तो रोनिका जिंदा ही नहीं है या मुखिया के हाथों से दूर हो चुकी है ।
तभी खुले दरवाजे पर थपथपाहट हुई।वेटर के जाने के बाद, दरवाजा बंद करने का ध्यान नहीं रहा था। उसने सिर उठाकर देखा। एक चेहरा भीतर झांकता नजर आया ।
“नमस्कार।” उस चेहरे पर मुस्कुराहट उभरी- “जीवन पाल ने आपको ही भेजा है क्या ? कहीं हम गलत कमरे में तो दस्तक नहीं दे बैठे। वापस जाएं या भीतर आ जाएं ?”
देवराज चौहान की आंखे सिकुड़ी। वो वहीं बैठा उसे देखता रहा ।
तभी दरवाजा खुला। वो भीतर आ गया। मुखिया था वो उसकी आवाज से देवराज चौहान उसे पहचान चुका था। मुखिया के के बाद केदार ने भीतर प्रवेश किया। दो आदमी दरवाजे पर ही खड़े रह गए।
“मुखिया हूं मैं। पहली बकर मिले है हम।” वो कुर्सी पर आ बैठा था।
“आवाज से पहचान चुका हूं तुम्हें ।” देवराज चौहान मुस्कुराया
“समझदार हो। बढ़िया पटेगी हमारी ।” मुखिया ने उसे घूरा-“तुमने मेरे तीन आदमियों को आज मारा।”
“मुझे पसंद नहीं कि कोई मुझे जबरदस्ती कहीं ले जाए। समझाने पर भी वे नहीं माने।”
“वो तुम्हें मेरे पास ला रहे थे।”
“मेरा मन नहीं था, तुम्हारे पास आने को। जरूरत भी नहीं थी।”
“अब मैं आया हूं तेरे को लेने। चलेगा क्या ?”
“क्या जरूरत है।” देवराज चौहान ने उसकी आंखों में देखा- “रोनिका दे, हीरे ले। तेरे मेरे बीच दूसरा मामला नहीं।”
“जब तक तू मुझे हीरे नहीं दिखाएगा, रोनिका तेरे हवाले नहीं करूंगा। ” मुखिया ने शांत स्वर में कहा- “मेरे को नहीं लगता कि हीरे तेरे पास है। तू चालकी से खाली-खाली रोनिका को ले जाना चाहता है।”
देवराज चौहान ने चाय का प्याला रखा और सिगरेट सुलगा ली।
“फालतू की बात नहीं । रोनिका को जहां पर मेरे सामने कहेगा। हीरे वहीं पहुंच जाएंगे।”
“चल मेरे साथ।” मुखिया की आवाज में खतरनाक भाव उभरे।
“क्यों ?”
“चलेगा तो पता चल जाएगा।” मुखिया खड़ा हो गया-“तेरे से बात करनी है। वो बात यहां नहीं हो सकती। शोर हो गया तो पुलिस आ जाएगी और सब जानते हैं कि मुखिया को पुलिस से बहुत डर लगता है।”
देवराज चौहान ने केदार को देखा। दरवाजे पर खड़े दोनों बदमाशों को देखा।
“जरूरी है मुझे ले चलना ? ”
मुखिया ने अपना कठोर चेहरा हिलाया ।
“मैं नहीं जाना चाहता।” देवराज चौहान ने सर्द लहजे में कहा- “तू जबरदस्ती ले जा रहा है मुझे।”
“केदार…।”
केदार फौरन आगे आया ।
मुखिया के हाथ में रिवॉल्वर आ गई ।
“तलाशी ले हरामी की। रिवॉल्वर वगैरह निकाल ले। ऐंठन भी निकालनी है इसकी।”
■■
वो बंद वैन थी जिसमें देवराज चौहान सीट पर बैठा था। साथ में तीन बदमाशों के हाथों में रिवॉल्वर थाम रखी थी। देवराज चौहान के सामने ही मुखिया ने सख्त स्वर में कहा था कि अगर वो किसी भी तरह की गड़बड़ करे तो बेशक गोली मार दी जाए।
मुखिया पीछे आती कार में था ।
केदार वैन के ड्राइवर की बगल में बैठा था ।
करीब एक घंटे बाद वो वैन और कार रुकी। कार में मुखिया के साथ तीन आदमी थे। यानी मुखिया और केदार को मिलाकर कुल नो आदमी ।
वैन और कार जहां रुकी थी, वो पुरानी सी इमारत की चारदीवारी का भीतरी हिस्सा था। दो मिन्नी ट्रक वहां पहले से ही मौजूद थे। दो आदमी एक ट्रक से माल उतार रहे थे। मुखिया का से निकलते ही भीतर प्रवेश कर गया था। देवराज चौहान को केदार और अन्य आदमी रिवॉल्वरों के दम पर घेरकर भीतर ले गए और कई तरह के रास्तों से गुजर कर उसे ऐसी कोठरी में ले जाकर बंद किया गया, जिसका दरवाजा सलाखों जैसा था। बाहर मोटा सा ताला लगा दिया गया। सामने दाएं से बाएं जाती गैलरी थी और उसके पार दीवार।
देवराज चौहान शराफत से उनकी बात मानता चला गया था। वो जानता था कि इतने आदमियों की मौजूदगी में अपनी मनमानी करने की कोशिश की तो, नुकसान के अलावा कुछ हाथ नहीं आएगा। देवराज चौहान जानता था कि इस तरह उसे बंद रखकर, मुखिया देर तक चुप नहीं बैठेगा। जल्दी ही उससे बात करने आएगा। ऐसा ही हुआ। मात्र आधा घंटा बीता होगा तब।
मुखिया और केदार वहां पहुंचे।
केदार ने कुर्सी उठा कर रखी थी। मुखिया बैठते हुए बोला ।
“सबसे पहले तू अपना नाम बता।”
“देवराज चौहान ।”
“हूं।” मुखिया ने उसे घूरते हुए कहा-“देवराज चौहान नाम है तेरा।”
“मुखिया जी।” केदार ने फौरन टोका-“एक देवराज चौहान का नाम तो सुन रखा है। बहुत भारी डकैत है। उसके कारनामे सुनकर दिल खुश हो जाता है।”
“देवराज चौहान क्या एक वो ही है दुनिया में।” मुखिया ने तीखे स्वर में कहा-“आंखें फाड़ कर देख। क्या ये तेरे को किसी तरह से डकैत लगता है।”
“मेरा कहने का मतलब नहीं था। मैं तो…।”
“चुपकर। बात करने दे।” मुखिया की नजरें देवराज चौहान पर जा टिकी-“तू सीधे-सीधे सुन ले कि मेरे को छः करोड़ के हीरे चाहिए जो कि तेरे पास है। जीवन पाल के जो हीरे देकर तेरे को भेजा।”
“मैं वो भी हीरे दे देना चाहता हूं।”
“बढ़िया कहा। अपने साथी को बुला जो हीरे लेकर कहीं छिपा बैठा है। मामला खत्म कर।”
“रोनिका को मेरे हवाले कर दे। हीरे ले ले।”
“सीधी सी बात है देवराज चौहान। पहले तो रोनिका मेरी हद में थी । तब उसे तुम्हारे हवाले कर देता। लेकिन अब नहीं जानता कि वो कहां है। वो तो बीती बात हो गई। हीरों की बात कर । मुझे हीरे चाहिए।
“रोनिका को नहीं देगा तो हीरे नहीं मिलेंगे।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा-“जो भी रोनिका को मेरे हवाले करेगा . छः करोड़ के हीरे में उसे ही दूंगा। तेरे को हीरे चाहिए तो रोनिका को ढूंढ के ला।”
मुखिया के माथे पर बल दिखाई देने लगे।
“केदार। ये तो मरने का प्रोग्राम बनाए हुए है। मुखिया की आवाज में सर्द भाव आ गए थे ।
“मुझे लगता है, अब इसने इनकार किया तो मरेगा।”
“आखिरी बार बात कर ले इससे कि…।”
देवराज चौहान के चेहरे पर व्यंग भरी मुस्कान उभरी ।
“फालतू की बात छोड़ो।” देवराज चौहान की आवाज में सख्ती थी-“जब तक हीरे तेरे पास है, तुम लोग मुझे मरने नहीं दोगे। मेरी जान लेना तो दूर रहा।”
“बात तो ये ठीक कहता है केदार। मतलब की सीधे-सीधे हीरे हमारे हवाले नहीं करेगा।”
“इसका चेहरा तो यही बता रहा है।”
“इंतजाम कर दे इसका।” मुखिया खतरनाक स्वर में कह उठा-“दो-चार को और बुला ले। इसके शरीर पर जगह-जगह जख्म बना। उस पर नमक-मिर्च तरह लगा। इस तरह ये मरेगा तो नहीं ? ”
“नहीं मुखिया जी।”
“जब ये हीरे हवाले करने को तैयार हो जाए तो इसे हल्दी वाला दूध पिला देना। भैंस का ताजा दूध निकलवा कर पिलाना । जल्दी ठीक हो जाएगा।” मुखिया की आवाज में जहर था ।
“ये काम अभी शुरू कर देता हूं।”
मुखिया कुर्सी से उठता हुआ तीखे स्वर में देवराज चौहान से बोला ।
“अगर तू मेरे को छः करोड़ के हीरे देता है तो एक करोड़ के हीरे तेरे को दे दूंगा।”
“एक के ? ” देवराज चौहान मुस्कुराया-“छः करोड़ के हीरे में मुफ्त को तेरे को दूं। उसमें से तू एक करोड़ के मेरे को देगा। मैं छः के छः ही क्यों ना रख लूं। तेरे को क्यों दूं।”
“सुना मुखिया जी।” केदार शब्दों को चबाकर कह उठा ।
“समझा नहीं तू केदार । हल्दी वाला दूध पीकर इसे अकल आएगी। उधेड़ साले के शरीर को । इसे…।”
तभी गोली चलने की आवाज उनके कानों में पड़ी ।
दोनों चौंके ।
“हमारी जगह पर गोली चल गई मुखिया जी।” केदार हड़बड़ा कर कह उठा ।
“ससुरा कौन है, देख तो। मार दे उसे।”
केदार जल्दी से वहां से भागा ।
मुखिया ने खा जाने वाली निगाहों से देवराज चौहान को देखा ।
“सोच ले। अपने शरीर की हालत तुड़वानी है या सीधे हाथ से हीरे देने हैं।”
तभी दूसरे फायर की आवाज कानों में पड़ी ।
“कौन है हरामजादा, जो गोलियां चलाए जा रहा है। ” कहने के साथ ही मुखिया वहां से वापस बढ़ गया ।
■■
वो लेखा था ।
तब से उनके पीछे था, जब वो देवराज चौहान को इमारत के भीतर ले आए थे। उसके बाद लेखा ने इमारत के बाहर का फेरा लगाया। उसकी दोनों तरफ जुड़ी अन्य इमारतें थी। वो फैक्ट्रियों की जगह थी। ज्यादा चहल-पहल वहां नहीं थी। जो लोग थे, वो अपने कामों में व्यस्त थे। शाम का वक्त होने की वजह से फैक्ट्रियों में काम करने वाले छुट्टी करके जाते दिखाई दे रहे थे।
लेखा बगल वाली इमारत में प्रविष्ट हुआ। जलने की स्मेल वहां फैली हुई थी । जाने कैसा सामान बनाने की फैक्ट्री थी। सब अपने कामों में व्यस्त थे। लेखा की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। उसने छत पर जाने के लिए सीढ़ियां तलाश की और छत पर पहुंचकर, बगल वाली छत पर पहुंच गया जो की मुखिया वाली इमारत थी। फिर एक तरफ नजर आ रही सीढ़ियों पर पांव रखा और नीचे उतरने लगा । उसके हाव-भाव में लापरवाही भरी पड़ी थी । ये दो मंजिला इमारत थी। एक मंजिल नीचे उतरा तो मध्यम सी आवाजों कानों में पड़ने लगी।
उस मंजिल पर कुछ आदमी छोटी-छोटी थैलियों में कुछ पैक कर रहे थे। सफेद रंग का पाउडर यकीनन वो नशे का सामान होगा।
लेखा आराम से वहां घूमता देखने लगा कि देवराज चौहान को कहां रखा गया है । जहां वो आदमी पैकिंग कर रहे थे। लेखा ने सावधानी से उस कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया था। एक मोड़ पर वो ठिठका । उसके देखते ही देखते एक आदमी वहां दिखा।
लेखा को देखकर वो ठिठका। चेहरे पर उलझन उभरी।
“कौन हो तुम ? ” उसके होठों से निकला ।
“नहीं पहचाना ? ” लेखा ने सपाट स्वर में कहा ।
“नहीं। तुम्हें तो पहले कभी देखा भी नहीं की…।”
“तभी तो बचा हुआ है, जो अभी तक मुझे देखा नहीं।” लेखा ने मौत भरे स्वर में कहा और फुर्ती से हाथ बढ़ाकर उसका सिर दीवार से टकरा दिया।
उसके होठों से पीड़ा भरी कराह निकली और वो बेहोश होकर नीचे गिरता चला गया। दीवार पर जहां उसका सिर टकराया था, वहां खून का धब्बा नजर आने लगा था ।
लेखा आगे बढ़ गया ।
उस मंजिल पर ना तो कोई और मिला और ना ही देवराज चौहान।
वो पुनः सीढ़ियां उतरने लगा और नीचे वाली मंजिल पर पहुंचा। ये इत्तेफाक ही था कि मुखिया के आने के बीस मिनट बाद छोटे ट्रक में कई आदमी, किसी खास काम के लिए गए थे। ऐसे में इस वक्त वहां आठ-दस आदमियों में से ज्यादा नहीं थे।
नीचे वाली मंजिल तक पहुंचते ही तीन आदमी मिले । जो की राहदारी में फर्श पर ही बैठे बोतल खाली करने में व्यस्त थे। उसे देखकर तीनों चोकें।
“कौन है ये ?”
“नया भरती हुआ होगा।”
“खबर तो नहीं मिली किसी नए आदमी के आने की।”
लेखा ने उनके पास से निकल जाना चाहा ।
“रुक।” एक ने उसे घूरा-“तेरे को पहले नहीं देखा।”
“नया आया हूं।” लेखा ने शांत स्वर में कहा ।
“किधर से आया है ?”
“बता दूंगा। मुखिया जी कहां है जरूरी काम है। वो मिल नहीं रहे ।”
“वो नीचे हैं बेसमेंट में । शिकार के पास । नाम क्या है तेरा ?”
“लेखा । फिर बात करेंगे। इस वक्त जल्दी में हूं।” सामान्य स्वर में कहते हुए लेखा आगे बढ़ गया।
“बंदा तो दमदार लगता है।”
“कम उम्र में तरक्की कर ली जो मुखिया जी ने अपने पास रख लिया।”
“इस शहर का नहीं है। होता तो पहले देखा होता ।”
“तू सब को जानता है क्या?”
“मुखिया जी ने इसे रखा है तो दम वाला होगा। मुखिया के पास यूं ही तो नहीं…।”
“छोड़ इन बातों को। बोतल खत्म करो। दूसरी खोलते हैं।”
लेखा सबसे नीचे वाली मंजिल पर जा पहुंचा था ।
“वो नहीं जानता था कि बेसमेंट में जाने का रास्ता किधर है ?
तभी कुर्सियों पर बैठे दो आदमी दिखे। एक हथेली में रिवॉल्वर उछाल रहा था ।
लेखा सीधा उसके पास पहुंचा ।
“बेसमेंट में जाने का रास्ता किधर से है ? ” लेखा ने उनसे पूछा ।
दोनों ने उसे देखा फिर आराम से एक-दूसरे को ।
“कौन है तू ?”
“नया हूं ।” मुखिया जी ने कहा था बेसमेंट में मिलूंगा । वहीं आ जाना।” लेखा ने शांत स्वर में कहा।
“मुखिया जी ने कहा ?” एक के होठ सिकोड़े।
“हां।”
“झूठ बोलता है।” दूसरे ने लेखा को घूरकर सख्त स्वर में कहा-“मुखिया जी तेरे को क्यों कहेंगे कि बेसमेंट में आ जाना। तू नया है वो हमें कहेंगे कि तुम्हें उसके पास ले आएं ।
कौन है तू ?”
“मेरे को झूठ कहता है।” लेखा ने सपाट स्वर में कहा ।
“हां । यहीं बैठ जा। ” मुखिया जी आएंगे तो…।”
तभी लेखा ने रिवॉल्वर निकाली और नाल उसकी तरफ करके ट्रेगर दबा दिया ।
गोली उसके माथे में लगी। वो कुर्सी से पीछे को लुढ़क गया ।
दूसरे का चेहरा फक्क पड़ गया । उसने जल्दी से रिवॉल्वर निकालनी चाही।
लेखा की रिवॉल्वर उसकी तरफ घूमी। आंखों में मौत के भाव थे ।
“नहीं। मुझे मत मारना।” उसके गले से खरखता सा स्वर निकला ।
“मैं झूठ कहता हूं।” लेखा के होठों से खतरनाक शांत स्वर निकला ।
“नहीं।”
“मुखिया जी के पास जाने का रास्ता किधर है ? ” बेसमेंट की बात कर रहा हूं।”
“उधर।” उसने इशारा करते हुए सूखे स्वर में रास्ता समझाया ।
“झूठ बोलता है। ” लेखा ने उसके सिर के बाल पकड़े ।
“सच कहता हूं।” वो ही रास्ता बेसमेंट की तरफ जाता है। उसने होंठों पर जीभ फेर कर कहा ।
लेखा की उंगली हिली। ट्रेगर दबते ही गोली निकल गर्दन में से गुजर कर पार जा गिरी। उसके शरीर को ऐसा झटका लगा जैसे हिचकी ली हो फिर गर्दन दाएं तरफ लुढ़क गई।
उसी पल दौड़ते कदमों की आवाज से आई।
लेखा के दांत भींच गए । वो फौरन एक तरफ दीवार की ओट में हो गया। दौड़ते कदमों की आवाज पास आ गई थी ।लेखा रिवॉल्वर थामे दम साधे खड़ा रहा।
“किसने मारा इन्हें ? ” एक आवाज कानों में पड़ी ।
“दोनों को बेदर्दी से गोली मारी है। आखिर कौन भीतर आ गया। किसमें इतनी हिम्मत आ…।”
“वो जो भी है,इमारत में है। इतनी जल्दी बाहर नहीं निकल सकता। वो हममें से नहीं है। बाहर का ही कोई है। ढूंढो उसे, पकड़ो। मुकाबला करें तो भून दो साले को।”
तभी दूर से आती आवाज उभरी ।
“कौन हरामी गोलियां चला रहा है। ” गुस्से से भरा स्वर मुखिया का था।
“मुखिया जी।” एक के होठों से निकला ।
तब तक मुखिया और केदार वहां आ पहुंचे थे ।
दोनों लाशों को देखते ही ठगे से रह गए ।
“क्यों मारा इन्हें ? मारना था तो शोर क्यों डाला ? गला क्यों नहीं काट दिया तलवार से ? बात क्या हुई ? ”
“मुखिया जी ।” एक ने जल्दी से कहा-“इन्हें हमने नहीं मारा।”
“क्या मतलब ?”
“यहां कोई है जो इन्हें गोली मार गया। वो…।”
“तो उल्लू के पट्ठे खड़े क्यों हो ? ढूंढो उसे-मार दो कुत्ते को। बचकर ना निकले।”
“सुनते ही वहां से भागते चले गए ।
“मुखिया जी।” केदार शब्दों को चबाकर बोला-“ये तो गिरेबान में हाथ डालने वाली बात हो गई।”
“वो तो हम कह रहे हैं। रथपुर में मेरी नाक कट गई है। ये हमें पसंद नहीं। तुम..।”
उसी पल ओट में छिपा लेखा ने रिवॉल्वर वाला हाथ आगे किया और बारी-बारी दो बार ट्रेगर दबाया। एक गोली मुखिया के सिर में दूसरी केदार के ।
दोनों का किस्सा खत्म ।
लेखा वही ओट में हो गया।
दो पल भी ना बीते होंगे कि दौड़ते कदमों की आवाजें आने लगी। देखते ही देखते वो बदमाश वापस आ पहुंचे, जो अभी यहां से गए थे। मुखिया और केदार की लाशों को देखकर हक्के बक्के रह गए। इस तरह मुखिया की लाश देखने की तो उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
वे पांच थे। चेहरे फक्क हो रहे थे उनके ।
“मुखिया जी मर गए । गोली मार दी। ” एक ने कांपते स्वर में कहा।
“वो हत्यारा पास ही है। यहीं कहीं छिपा है । मुखिया जी मर गए तो क्या यहां हमारा क्या काम ? ” दूसरा कहकर पलटा और भाग खड़ा हुआ-“तुम भी यहां से भाग जाओ।”
वे भी भाग निकले। कदमों की आहट दूर होती चली गई। लेखा ओट से बाहर निकला। आंखों में मौत के भाव ठहरे हुए थे। सामने पड़ी लाशों के जेबें टटोल कर रिवॉल्वर निकाली और उधर बढ़ गया, जिधर बेसमेंट का रास्ता बताया जा रहा था।
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