झालानी ने हासिल हुए नम्बर पर कॉल लगाई।
घन्टी बजने लगी।
अब वो ‘स्पेक्ट्रा’ से दर एक तनहा जगह पर था।
धीरज से वो कॉल लगने की प्रतीक्षा करता रहा।
आखिर जवाब मिला।
“हल्लो !”
“कोंपल?” – झालानी ने सावधान स्वर में पूछा। – “कोंपल मेहता?”
“हां, कौन?”
“मैं पंकज झालानी। ‘एक्सप्रैस’ का रिपोर्टर हूँ। एक केस के सिलसिले में आपसे बात करना चाहता हूँ।”
“कैसा केस? कैसा सिलसिला?”
“मिलकर बताऊंगा!”
“अभी बताओ।”
“वो क्या है कि इनवैस्टिगेट करने के लिए मेरे पास एक बड़ा केस है जिसके एक पहलू से आपका दखल ... . हो सकता है।”
“मिस्टर, डोंट वेस्ट टाइम। कम टु दि प्वॉयन्ट।”
“प्वॉयन्ट पर आने के लिए डिसकशन ज़रूरी है इसलिए मुलाकात ज़रूरी है।”
“नहीं हो सकती।”
“क्यों? मुम्बई में नहीं रहती हो?”
“नहीं। चांद पर रहती हूँ।”
“मैं पहुंच जाऊँगा।”
“मिस्टर, फोन पर जो कहना है, कहो, वर्ना बन्द करती हूँ।”
“लम्बी बात है एक छोटी-सी मुलाकात हो जाती तो ....”
“गो टु हैल।”
लाइन कट गई।
झालानी ने फिर फोन बजाया।
“अब क्या है!” – वो गुस्से से बोली।
“सिर्फ एक मिनट मेरी बात सुनो।”
“एक मिनट?”
“सिर्फ।”
“ओके। युअर टाइम स्टार्ट्स नाओ।”
“आशीश पारेख को जानती हो न! ‘स्पैक्ट्रा’ का मैनेजर। ‘स्पैक्ट्रा’, जो पोर्ट ऐरिया में डिमेलो रोड पर बार है...”
“आगे। आगे।”
“पारेख से, आपके गुजराती भाई से, मुझे आपका मोबाइल नम्बर हासिल हुआ था। उसने बोला था कि मैं उसके हवाले से आपको फोन करूँगा तो आपको मेरे से बात करने से ऐतराज़ नहीं होगा।”
“नहीं है न! कर तो रही हूँ बात! पारेख साहब का मान रखा न मैंने! करो बात!”
“मेरी बात ऐसी नहीं है जो फोन पर कही जा सके। उसके लिए रूबरू मुलाकात जरूरी है।”
“नहीं हो सकती।”
“वजह?”
“न तुम्हें बताने लायक है, न तुम्हारी समझ में आने लायक है। फिर भी मुलाकात चाहते हो तो पारेख साहब के साथ आना। युअर टाइम इज़ अप। भलेमानस हो तो फिर फोन न करना।”
लाइन कट गई।
उसने फिर फोन बजाया।
जवाब न मिला।
उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और अपना अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश करने लगा। सिगरेट तीन चौथाई खत्म हो गया तो उसने एसीपी तुषार कुलकर्णी को फोन लगाने का फैसला किया।
एसीपी ने तत्काल उसकी कॉल रिसीव की।
“झालानी बोल रहा हूँ।” – वो अदब से बोला – “दो मिनट बात करने के लिए फ्री हैं?”
“हां। करो।”
“ऑफिस में हैं?”
“हां।”
“पास कोई है!”
“नहीं। स्पीक फ्रीली।”
“आपसे मुझे अभयदान मिला था, मौजूदा केस में खुफिया सपोर्ट का आश्वासन मिला था, इसलिए कॉल लगाने की जुर्रत की।”
“अच्छा किया। बोलो, क्या बात है?”
संक्षेप में झालानी ने उसे कोंपल मेहता के बारे में बताया।
“दो हफ्ते से ये कोंपल मेहता बन्दरगाह के इलाके से गायब है।” — फिर बोला – “अब स्थापित हो चुका है कि कोंपल मेहता वही औरत है, दो हफ्ते पहले तारदेव थाने में एसएचओ भारकर के सामने जिसकी पेशी हुई थी। कहने वाले कहते हैं कि ड्रग्स के साथ पकड़ी गई थी लेकिन फिर छोड़ भी दी गई थी। न कोई केस दर्ज हुआ था, न कहीं पकड़े गए ड्रग्स का हवाला बना था। फिर भी थाने से निजात पाते ही साउथएण्ड से गायब हो गई थी। ‘स्पैक्ट्रा’ बार का मैनेजर आशीश पारेख, जो कि उसका फ्रेंड है, वैलविशर है, फैलो गुजराती है, भी उसके किसी मौजूदा पते ठिकाने के बारे में कुछ नहीं जानता, उसका मोबाइल नम्बर जानता था जो जैसे-तैसे मैंने उससे हासिल किया। उस पर बात भी की इस कोंपल मेहता से लेकिन वो रूबरू मुलाकात के लिए किसी भी सूरत में तैयार न हुई। यानी किसी भी सूरत में अपना मौजूदा पता बताने को तैयार न हुई, मैंने ये तक कहा कि अगर प्यासा कुएं के पास नहीं आ सकता था तो कुंआ प्यासे के पास आने को तैयार था।”
“अब प्रॉब्लम क्या है?”
“मेरे लिए उससे मिलकर बात करना ज़रूरी है इसलिए उसका मौजूदा पता जानना ज़रूरी है। वो आजकल कहां पाई जाती है, ये उसके मोबाइल नम्बर के ज़रिए जाना जा सकता है जो कि अब मुझे मालूम है। मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग के ज़रिए इस बाबत बहुत कुछ जाना जा सकता है लेकिन मीडिया को वो सुविधा उपलब्ध नहीं। हम सर्विस प्रोवाइडर को मजबूर नहीं कर सकते कि वो अपनी क्लासीफाइड जानकारी हमारे साथ शेयर करे लेकिन पुलिस कर सकती है, किसी वारदात की तफ्तीश के दौरान आजकल आम करती है। हाल में मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग के ज़रिए पुलिस ने कई केस हल किए हैं।”
“तम चाहते हो कि उस औरत कोंपल मेहता का मोबाइल ट्रैक किया जाए?”
“जी हां। आप असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ पुलिस हैं, इस बारे में कुछ कर दिखाना आप के बाएं हाथ का काम होगा। जबकि सर्विस प्रोवाइडर मेरे को अपने क्लासीफाइड रिकॉर्ड के पास भी नहीं फटकने देगा।”
“आई हैव फॉलोड यू लाउड एण्ड क्लियर। वेट फॉर रिक्वायर्ड इनफर्मेशन।”
“बैंक्यू, सर।”
शाम के छ: बजे थे जब कि एसआई कदम ने थानाध्यक्ष भारकर के ऑफिस में कदम रखा और तपाक से भारकर को सैल्यूट मारा।
“क्या बात है” – भारकर बोला – “दमक रहा है!”
“सर, कामयाबी सूरत पर झलक ही आती है।”
“कामयाब हो के आया?”
“हां।”
“उस मिस्टीरियस कॉलर का पता निकाल के आया?”
“हां।”
“इतनी जल्दी?”
“सर, मेहनत की न! आपने बोला था न, कि काम वॉर फुटिंग पर करने का था!”
“बैठ पहले।”
“बैंक्यू, सर।”
“अब बोल क्या हुआ?”
“उस औरत का पता लगा कल जिसने मर्द की आवाज़ निकाल कर आपसे बात की थी। उसकी बाबत आपकी तमाम आब्जर्वेशन्स सही थीं लेकिन सब से ज़्यादा उसका मतलब कि’ का उच्चारण काम आया जिसे कि वो ‘मल्लबकि’ बोलती थी। आपकी नोट की बाकी बातें भी उसपर ऐन फिट बैठती थीं।”
“कौन थी?”
“नाम जसमिन गिल। लेमिंगन रोड पर ‘ब्लैक ट्यूलिप’ करके बार है जिसमें स्टीवार्डेस है।”
“स्टीवार्डेस बोले तो?”
“सर, हाईएण्ड बार्स में, रेस्टोबार्स में जो काले सूट वाले कस्टमर्स को रिसीव करते हैं, उन्हें स्टीवार्ड बोलते हैं न!”
“हां, बोलते हैं।”
“वैसी ड्यूटी पर औरत हो तो वो स्टीवार्डेस कहलाती है।”
“जैसे मर्द स्टीवार्ड, जैसे औरत स्टीवार्डेस!”
“यही बोला मैं।”
“ ‘ब्लैक टयूलिप’ में तो गोरे का भी आना जाना था!”
“सर, तसदीक हुई है कि वहीं से गोरे की इस जसमिन गिल नाम की औरत से यारी लगी थी। मालूम हुआ है कि बार का मालिक फतह सिंह नाम का एक सिख है जो इस मामले में गोरे को बाकायदा शह देता था।”
“बोले तो?”
“जसमिन से ताल्लुकात के लिए एनकरेज करता था, उकसाता था।”
“आवाज भारी?”
“हां। मैंने ख़ुद सुनी।”
“रहती कहां है?”
“वो मैं अभी नहीं जान सका लेकिन मेरा अन्दाज़ा यही कहता है कि वर्क प्लेस से ज्यादा दूर नहीं रहती होगी।”
“बार के मालिक से ही मालूम करना था!”
“पकड़ में न आया। कहीं निकला हुआ था। कल मिलूँगा उससे।”
“वो औरत पंजाबी?”
“सर, गिल पंजाबी ही होते हैं।”
“मालिक सिख। पक्का पंजाबी। इसीलिए पंजाबी स्टीवार्डेस को स्पैशल ट्रीटमेंट।”
“क्या बड़ी बात है!”
“उसको शक तो नहीं हुआ कि तू उसकी पड़ताल करता था?”
“सर, भनक तक न लगने दी। जो कुछ किया, ऐन खुफिया तौर पर किया।”
“बार की ड्यूटी कब तक करती है?”
“क्लोजिंग टाइम तक। इसी वजह से लेट आती है। सुना है शाम पांच बजे।”
“रोज़ आती है?”
“जी हां।”
“अब तो आती ही होगी। गोरे का बुलावा आने का तो अब कोई मतलब ही नहीं।”
“वही तो!”
“उन्नीस तारीख सोमवार को यानी कि परसों ये औरत गोरे की सोहबत में थी, इस बात की तसदीक उसकी वर्क प्लेस ब्लैक ट्यूलिप बार से भी हो सकती है। उस रात वो गोरे के साथ थी तो बार में नहीं हो सकती थी।”
“बरोबर बोला, सर। कोई जना एक वक्त में दो जगह नहीं हो सकता इसलिए मैंने उसकी उस तारीख की जाहिरी के बारे में बार से भी पूछताछ की थी। मालूम पड़ा था कि वो अपने फिक्स्ड टाइम पर आई तो थी लेकिन दो घन्टे बाद ही बार से निकल ली थी और लौट कर नहीं आई थी।”
“तूने कमाल किया, कदम। अब मेरे को तेरे लिए कोई ऐसी शाबाशी सोचनी पड़ेगी जो तेरी उम्मीद से बढ़ कर हो।”
“सर, आप राज़ी तो समझिए शाबाशी मुझे मिल गई।”
“जसमिन गिल! ‘ब्लैक ट्यूलिप’! लेमिंगटन रोड!”
“यस, सर।”
“अभी शुक्रिया कबूल कर और निकल ले, शाबाशी के बारे में फुरसत में मिल कर सोचेंगे।”
कदम ने उठकर अपने आला अफसर को सैल्यूट मारा और चेहरे पर परम सन्तुष्टि के भाव लिए वहां से रुख़सत हो गया।
रात नौ बजे सादे लिबास में उत्तमराव भारकर लेमिंगटन रोड और आगे ‘ब्लैक ट्यूलिप’ पहुंचा।
बार की रौनक उस घड़ी अपने पूरे जलाल पर थी।
भारकर बार पर पहुंचा और एक ड्रिंक हासिल कर के एक बार स्टूल पर बैठ गया। उसकी निगाह पैन होती सारे बार में, फिरी। उसने नोट किया कि बार में वेटरों के अलावा वेट्रेसिज़ भी थीं और मेल काले सूटों के अलावा फीमेल काले सूट भी थे जो मशीनी मुस्कराहट और वैसी ही तत्परता से कस्टमर्स को रिसीव कर रहे थे।
उसने एक वेटर को इशारा किया।
वेटर तत्काल उसके करीब पहुंचा।
“मेरे को ऑर्डर देने का।” – भारकर रौब से बोला – “किसी स्टीवार्डेस को बोल आके ऑर्डर ले।”
“कैसा ऑर्डर, सर?” – वेटर अदब से बोला।
“भूख लगी है, कुछ खाने का। ऐसा ऑर्डर।”
“सर, फूड बार पर सर्व नहीं होता, टेबल पर सर्व होता है। टेबल पर जा के बिराजिए, स्टीवार्ड ख़ुद ही हाज़िर हो जाएगा।”
“ले के चल।”
“आइए!”
भारकर ने एक ड्रिंक का बिल अदा किया और वेटर के साथ हो लिया।
“सर, कम्पनी एक्सपैक्ट कर रहे हैं?” – रास्ते में वेटर बोला।
“नहीं। क्यों?”
“और लोग आने वाले हैं तो मैं आपको बड़ी टेबल पर ले के जाए, वर्ना....”
“कोई नहीं आने वाला। मैं अकेला हूँ।”
“तो छोटी टेबल पर ले के जाता है न, जोकि दो जनों के लिए होती है।”
“ठीक है।”
वेटर ने उसे बड़ी टेबल्स से परे कोने की एक टेबल पर पहुंचाया।
“मैं ऑर्डर को आगे बोलता हूँ।” - वेटर बोला।
“बोलना। लेकिन पहले मेरी बात सुन।”
“यस, सर।”
“बोले तो मेरे को अगर किसी ख़ास स्टीवार्डस की सर्विस मांगता हो तो अरेंज कर सकता है?”
वेटर के चेहरे पर अनिश्चय के भाव आए।
“ख़ास कौन?” – वेटर ने तनिक सन्दिग्ध भाव से पूछा।
“जसमिन।”
“गिल मैडम?”
“हां। लास्ट टाइम वो मेरे को बहुत अच्छा ट्रीट किया, इस वास्ते।”
“आप पहले भी इधर आए हैं?”
“हां”
“फिर भी आपको मालूम नहीं कि फूड बार पर सर्व नहीं होता!”
“क्यों भई, इम्तहान ले रहा है मेरा?”
“सर, किसी को भी ऑर्डर कीजिए, कोई भी आपको ....”
“कोई नहीं मांगता मेरे को। जसमिन का सर्विस मांगता है।”
“सर, मैं मैनेजर को बोलता हँ...”
“बोल नहीं” – भारकर ने खून का चूंट पीते उसे एक दो सौ का नोट थमाया – “कर। ओके?”
वेटर ने सहमति में सिर हिलाया।
“अभी सुन।” – वो जाने के लिए मुड़ा तो भारकर जल्दी से बोला – “पहले मेरे वास्ते एक ड्रिंक ले के आ। क्या!”
“अभी, सर।” – वेटर तत्पर स्वर में बोला – “क्या पी रहे थे आप?”
“ब्लैक डॉग। लार्ज।”
“विद सोडा ऑर वॉटर, सर?”
“विद वॉटर एण्ड आइस।”
“वन ब्लैक डॉग लार्ज कमिंग अप राइट अवे, सर।”
वेटर चला गया।
‘साला पुलिस वाला!’ – पीछे भारकर मन ही मन भुनभुनाया – ‘वो भी अफसर, टिप देता है क्या!’ साला बिल नहीं देता, टिप क्या देगा!’
तत्काल उसे ड्रिंक सर्व हुआ।
सब्र से व्हिस्की चसकता वो प्रतीक्षा करता रहा।
आखिर वो उसकी टेबल पर पहुंची।
“हल्लो!” – वो मिश्री घुले स्वर में बोली – “मैं जसमिन!”
तो ये होती थी जसमिन!
जो गोरे की माशूक थी, परसों रात उसके साथ उसके फ्लैट पर थी और जिसने फ्लैट में कहीं छुप कर उसकी हौलनाक करतूत को अपने मोबाइल के कैमरे से शूट करने की जुर्रत की थी। यही नहीं, भारकर को वो वीडियो क्लिप भेज कर उसके होश उड़ाए थे।
“मे आई हैव युअर ऑर्डर, सर!”
भारकर ने सिर उठाया। दोनों की निगाह मिली तो जसमिन के प्राण कांप गए।
वाहे गुरु! वाहे गुरु सच्चे पातशाह!
ये वो क्या देख रही थी?
गोरे का बॉस, तारदेव थाने का थानाध्यक्ष, साक्षात उसके सामने बैठा था।
इत्तफाक! इत्तफाक था। – उसने खुद को तसल्ली दी – इत्तफाक था कि उस रात ड्रिंक डिनर के लिए कहीं और जाने की जगह वो ‘ब्लैक ट्यूलिप’ में आया था। ज़रूर यही बात थी, क्योंकि वो उसे पहचानती थी, भारकर तो उसे नहीं पहचानता था! वो तो उसके वजूद से भी वाकिफ नहीं था। अपनी असली आवाज़ छुपा कर, मर्दाना आवाज़ निकाल कर उसने फोन पर भारकर से बात की थी तो ऐसे फोन से की थी जिसको उसने सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल करके समुद्र के हवाले कर दिया था। इतने से वो हरगिज़ भी उसका पता नहीं निकाल सकता था, भले ही पुलिस वाला था।
उसको कदरन राहत महसूस हुई।
उस घड़ी उसकी इस बात की तरफ तवज्जो नहीं गई थी कि, बकौल वेटर, कस्टमर ने उसे बाई नेम पूछा था और तलब किया था।
भारकर ने अपलक उसे देखा।
आवाज़ मोटी थी, आम ज़नाना आवाज से जुदा थी, भले ही एक ही फिकरा बोली थी, आवाज़ की वो ख़ासियत साफ पकड़ में आती थी।
सो फार सो गुड!
“सर, मे आई हैव युअर डिनर ऑर्डर” – अपने भीतर उमड़ते ज्वार को जबरन दबाती वो व्यवसायसुलभ मधुर स्वर में बोली – “ऑर यू वुड लाइक टु हैव अनदर ड्रिंक?”
“जसमिन हो?” – भारकर मुस्कराता हुआ बोला – “जसमिन गिल?”
“कैसे जाना?”
“वेटर बोला। तुम्हारी तारीफ करता बोला। इस वास्ते मैंने भी बोल दिया कि ऑर्डर प्लेस करने के वास्ते मेरे को जसमिन ही मांगता था।”
“बैंक्यू, सर। आई एम हेयर, सर, ऐट युअर सर्विस।”
“मेरा भी थैक्यू।”
“सर, ड्रिंक ऑर डिनर?”
“अभी दोनों नहीं। पहले मेरे को दो मिनट तुम्हारे से बात करने का। बैठो।”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“सर, स्टाफ इज़ नॉट सपोज्ड टु सिट विद कस्टमर्स!”
“तुम स्टाफ थोड़े ही हो! तुम तो स्टीवार्डेस हो, अफसर हो!”
“सर, ईवन मैनेजर वोट डू दैट।”
“ऐसा?”
“जी हां।”
“फिर बात कैसे होगी?”
“आप क्या बात करना चाहते हैं?”
“भई, तुमने कल फोन करने को कहा था – या परसों या अगले दिन फोन करने को कहा था – कल तो फोन आया नहीं तुम्हारा, और आगे मेरे से इन्तज़ार करते न बना, इसलिए सोचा, मैं ही चलता हूँ तुम्हारे ठीये-ठिकाने।”
जसमिन सिर से पांव तक कांप गई।
“मर्दाना आवाज़ बहुत बढ़िया निकाल लेती हो! बहुत टेलेंट वाला काम है। बधाई। वैसे पहले कभी मिमिकरी आर्टिस्ट तो नहीं थीं?” ।
उसने जवाब न दिया, सारी हिम्मत मन के भाव छुपाने में जो सर्फ हो रही थी!
“अभी ‘मल्लबकि’ नहीं बोला? शायद इसलिए कि कोई लम्बा डायलॉग नहीं हुआ था!”
दाता! कैसा कम्बख्त, कैसी शातिर पुलिसिया था! अभी एक दिन गुज़रा था और इतनी बातें भांप भी चुका था।
“सर” – प्रत्यक्षतः वो हिम्मत करके बोली – “आप क्या कह रहे हैं, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा।”
“सब समझ में आ रहा है।” – भारकर बोला, उसने अपने स्वर की स्वाभाविकता में कमी न आने दी – “वो वीडियो क्लिप किसलिए भेजी? आइन्दा बड़े ऑफेंसिव की बुनियाद बनाने के लिए? बाजरिया टेलीफोन बना लेतीं वो? नहीं हो पाता। देर सवेर तुम्हारा रूबरू होना ज़रूरी था। तुम ये भी नहीं कह सकतीं, कि तुम्हारा कोई जोड़ीदार था जो तुम्हारी जगह रूबरू होता क्योंकि फोन तुमने किया था, यकीनी तौर पर तुमने किया था। कोई जोड़ीदार होता तो फोन तुमने उससे करवाया होता। फिर बात को कल, परसों या और आगे टालने की ज़रूरत ही न रही होती। क्या!”
“सर, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा।”
“आ जाएगा। जो बात तुमने टाइम लगा कर करनी थी, वो मैं अभी करना चाहता हूँ। किसी ऐसी जगह ले के चलो मेरे को जहां बात हो सकती हो। अभी।”
“सर, मैं जाती हूँ और मैनेजर को भेजती हूँ।”
“क्या फायदा! टालने से हर बात नहीं टलती। इतना मैं वीडियो क्लिप के सामने आते ही समझ गया था कि क्लिप की वजह से तुम्हारे जेहन में कोई सौदा था जिसे ब्यान करना तुम्हें हिम्मत का काम जान पड़ता था और हिम्मत जुटाने के लिए वक्त दरकार था। हिम्मत रेडीमेड अवेलेबल होती तो जो कहना था, बिना किसी आडम्बर के ख़ुद कहतीं, गोल-मोल बातें करते टाइम ज़ाया न करतीं। मैं टाइम ज़ाया नहीं करना चाहता, मैं लम्बा सस्पेंस बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए जो कहना है, अभी बोलो। जो बात करनी है, अभी करो।”
उसने बेचैनी से पहल से बदला।
“तुमने पुलिस से पंगा लिया है तो भुगतना तो पड़ेगा! शेर की मूंछ का बाल उखाड़ने पर तुली हो तो अंजाम को नज़रअंदाज़ तो न कर सकोगी! शेर ये तो नहीं कहेगा-3क्यू, मैडम, ये बाल मैंने वैसे भी उखड़वाना ही था, अच्छा किया तुमने उखाड़ दिया ...”
“सर, स्टीवार्डस ऑर्डर के लिए इतनी देर कस्टमर के पास नहीं ठहरती। लोग इस बाबत कांशस हो रहे हैं, छुपी निगाह से नोट कर रहे हैं।”
“वो तुम्हारी प्रॉब्लम है। बेशक बोल देना सबको कि कस्टमर क्या कह रहा था।”
वो ख़ामोश रही।
“फिर ये भी बोलना कि परसों रात गोरे के फ्लैट में उसके साथ जो बीती थी, तुम उसकी चश्मदीद गवाह थीं। किस बात की चश्मदीद गवाह थीं? गोरे के फांसी पर झूलने की चश्मदीद गवाह थीं। एक आदमी तुम्हारी आंखों के सामने जान से गया, तुमने ज़ुबान न खोली। तुम कहोगी कि ज़ुबान खोलतीं तो खुद भी जान से जातीं। कुबूल। बाद में क्या वान्दा था? बाद में क्यों कुछ न बोलीं? खुलकर, सामने आ कर न बोलीं तो वैसी गुमनाम कॉल तो पुलिस को कर ही सकती थीं जैसी कल मेरे को की!”
वो ख़ामोश रही।
“गौर करो कि एक दिन में, खाली एक दिन में, मैंने तुम्हारी बाबत कितना कुछ जान लिया! फिर जब तुम्हें जान लिया” – भारकर का स्वर धीमा हुआ- “कत्ल के चश्मदीद गवाह को जान लिया तो अब डैमेज कन्ट्रोल क्या बहुत बड़ा काम होगा पुलिस की ऐण्डलैस सलाहियात के मद्देनज़र! . . . अभी जो तुम कहना चाहती हो, वो तुम्हारे मुंह पर लिखा है। वीडियो क्लिप के होते मैं तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। चलो, ठीक है तुम्हारी सोच, तुम अपने पांव बहुत मज़बूत ज़मीन पर टिके पाती हो। मौजूदा हालात में मैं तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं मानता हूँ तुम्हारी बात में दम है इसलिए मैं तुम्हारे सामने मजबूर हूँ, उस बाजी में जिच हूँ जो तुमने मेरे लिए लगाई है। माना न सब मैंने! माना, इसीलिए तो डायलॉग के ज़रिए सुलह की कोई सूरत निकालने के लिए मैं तुम्हारे सामने मौजूद हूँ। मैं नहीं समझता कि बात करने में भी तुम्हारा कोई हर्जा हो जाएगा। हर्जा होता लगे तो किनारा करना बातचीत से। क्या प्रॉब्लम है?”
वो तब भी ख़ामोश रही। तब तक बड़ी मुश्किल से वो मुंह से ‘मल्लबकि’ निकलने देने से परहेज़ करती रही थी।
“कोई प्रॉब्लम है तो बस ये है कि हकीकत की हामी भरनी पड़ेगी। कबूल करना पड़ेगा कि मर्दाना आवाज़ बना कर कल तुमने मेरे से बात की थी, वीडियो क्लिप तुमने मुझे फॉरवर्ड की थी। और अब मुझे मालूम है कि जिसने ये सब किया था वो कौन थी!”
उसकी ख़ामोश सूरत से साफ लगा कि वो कोई फौरी फैसला करने की कोशिश कर रही थी।
“श्याने कहते हैं कि हाकिम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से बचना चाहिए। हाकिम का तो ऐसा रौब न खाया तुमने! उसकी अगाड़ी तो तुम्हारे लिए कोई परेशानी न बनी! फिर डर किस बात का है तुम्हें?”
“किसी बात का नहीं।” – एकाएक उसके लहजे में मज़बूती आई।
“तो?”
“आती हूँ। तब तक वेटर और ड्रिंक लाता है वर्ना स्टीवार्डस की पैट्रन के पास इतनी लम्बी हाजिरी देखने वालों को चुभेगी।”
भारकर ने सहमति में सिर हिलाया।
वो घूमी और लम्बे डग भरती वहां से रुख़सत हुई।
वेटर जैसे जादू के ज़ोर से उसके लिए नया ड्रिंक लाया।
वक्तगुज़ारी के तौर पर भारकर नया ड्रिंक चुसकने लगा।
दस मिनट गुज़र गए।
‘साली का जरूर कोई जोड़ीदार है’ – नाहक भारकर मन ही मन कलपने लगा – “जिससे मशवरा कर रही है इतनी देर से। जोड़ीदार की बाबत मेरे को फिर सोचना पड़ेगा।’
या जोड़ीदार से कान्टैक्ट नहीं हो रहा होगा!
कहीं खिसक तो नहीं गई!
कहां जाएगी खिसककर?
फिर जिस फिराक में वो ज़ाहिर कर चुकी थी वो थी, उसमें उसका खिसक जाना तो नहीं बनता था!
तभी एक वेटर उसके करीब पहुंचा।
“सर, आपको जसमिन मैडम बुलाती है।”
“कहां?” – भारकर ने पूछा।
“मेरे साथ आइए।”
“पहले बिल चुकता करना होगा?”
“बाद में हो जाएगा, सर। आइए।”
वेटर घूम कर आगे बढ़ा तो भारकर उसके पीछे चलने लगा।
वो दोनों हॉल से निकले, पिछवाड़े के एक लम्बे, ख़ामोश गलियारे से गुज़रे तो वेटर एक बन्द दरवाज़े पर ठिठका। उसने दरवाज़े की तरफ भारकर की तवज्जो दिलाई और ख़ुद फौरन वहां से लौट गया।
वेटर के निगाह से ओझल होते ही भारकर ने बन्द दरवाज़े के एक पल्ले को धक्का देकर पूरा खोला।
भीतर रौशनी थी जिससे उसको अहसास हुआ कि वो स्टोर था। तीन चौथाई स्टोर में ऊपर तक लिकर के क्रेट थे और रसद के और रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाले सामान के बक्से, बोरे वगैरह थे। एक चौथाई में दो विज़िटर्स चेयर्स के बीच एक ऑफिस टेबल लगी हुई थी और टेबल के पीछे की कुर्सी पर संजीदासूरत जसमिन बैठी हुई थी। साफ लगता था कि दिन में वहां कोई कर्मचारी बैठता था, ऑफिस आवर्स के बाद जिसका वहां कोई काम नहीं होता था।
जसमिन के इशारे पर वो भीतर दाखिल हुआ और एक विज़िटर्स चेयर पर बैठा।
“मेरे को पुलिस इन्स्पेक्टर होने की हूल न देना।” – एकाएक वो फट-सी पड़ी।
“दिलेरी आ गई यकायक!” – भारकर के स्वर में व्यंग्य का पुट आया - “हौसले बुलन्दियों पर पहुंच गए! ऐसा था तो पहले ही सीधे डायलॉग करना था, गोल-मोल रास्ता क्यों अपनाया बात करने का!”
“कोई दिलेरी नहीं आ गई। सच्ची बात यही है कि एकाएक तुम्हें सामने देख कर मेरा हाल बेहाल हो गया था। लेकिन” – उसका लहजा फिर सख़्त हुआ - “फिर कहती हूँ, मेरे को हाकिम होने की हूल न देना। ये न समझना तुम्हें सामने देखकर मैं थर-थर कांपने लगूंगी या बेहोश होकर गिर पड़ेंगी।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा। जब पहले नहीं हुआ जब मेरे को हॉल में अपने सामने बैठे देखा था तो अब कैसे होगा?”
“मल्लबकि धौंसपट्टी नहीं चलेगी।”
“मैं बोला कुछ?”
“बोलोगे न! बोलने के लिए ही तो यहां हो!”
“वो तो है!”
“तो टाइम ज़ाया करने का क्या फायदा?”
“कोई फायदा नहीं। अभी सुनो। जो बात हम दोनों के बीच होनी है, वो ये कुबूल किए बिना आगे नहीं बढ़ सकती कि परसों, सोमवार रात गोरे के फ्लैट में उसको ड्रिंक्स में कम्पनी देती तुम थीं।”
“कैसे जाना?”
“जाना किसी तरह से।”
“ये तो चलो, जाना कि तब गोरे के साथ कोई लड़की थी लेकिन ये कैसे जाना कि वो लड़की मैं थी!”
“अरे, मैं पुलिस ऑफिसर हूँ, थाना प्रभारी हूँ। मेरे से ऐसी बातें छुपने लगें तो काहे का मैं पुलिस ऑफिसर, काहे का थाना प्रभारी!”
“ठीक है, माना कि वो लड़की मैं थी।”
“वो . . . वीडियो फिल्म तुमने बनाई थी?”
“हां।”
“क्यों?”
“कोई ख़ास वजह नहीं। उस घड़ी, उस हौलनाक, होश उड़ा देने वाली घड़ी में जो मुझे सूझा, मैंने किया।”
“अपना कोई नफा-नुकसान सोचकर न किया?”
“ख़याल तक न आया।”
“बाद में आया? उस वीडियो क्लिप को कैश करने का ख़याल बाद में आया?”
“यही समझ लो।”
“क्या ख़याल आया? ब्लैकमेल?”
उसने तमक कर सिर उठाया।
“और किसी को भी नहीं, थानेदार को! हाकिम को!”
“ब्लैकमेल नैस्टी वर्ड है, मैं नहीं सुनना चाहती।”
“तो? ब्लैकमेल नहीं तो और क्या सूझा?”
“सौदा। इस हाथ ले, उस हाथ दे जैसा सौदा।”
“देतीं तो वीडियो क्लिप – जो मेरी जान सूली पर टांग सकती थी – के खाते क्या सोचा था मन में?”
“पैसा।” – उसके स्वर में निडरता का पुट आया – “वो शै जिसके सदके तुम्हारी जान सूली पर टंगने से बच सकती थी।”
“हूँ। कितना? कोई फिगर थी दिमाग में?”
“हां।”
“क्या? बोलो!”
“पहले तुम बोलो। मैं कैसी लगी?”
“बढ़िया। हसीन! हसीनतरीन! तभी तो गोरे लट्ट था।”
“मेरा मुंह?”
“भाई, हसीन कहलाने की दावेदार वही होती है जो नख से शिख तक हसीन हो। मुंह भी तो हसीन ही होगा! क्यों पूछती हो?”
“ऐसा मुंह तो मोतियों से भरा जाना चाहिए!”
“तुम . . . तुम क्या कहना चाहती हो?”
जसमिन ने पंजा खोल कर उसे दिखाया।
“पांच लाख! भई, मैं इन्स्पेक्टर हूँ, कमिश्नर नहीं।”
“वाह, मेरे भोले कदम!”
“कुछ गलत समझा मैंने?”
“हां। और जो समझा, जानबूझ कर समझा।”
“ऐसा किया तो नहीं मैंने लेकिन . . . तुम्हारे मगज में क्या है?”
“तुम्हें मालूम है। मसखरी छोड़ोगे तो ख़ुद बोलोगे।”
“क्या?”
“मेरे से ही कहलवाओगे! पचास।”
“लाख?”
“नहीं, हजार”
“पचास लाख! बहुत ज़्यादा हैं। एक मामूली पुलिस इन्स्पेक्टर के पास इतनी बड़ी रकम कहां से आएगी!”
“मामूली नहीं, थाना प्रभारी। एसएचओ। एक बड़े इलाके का। शहर की पांच लाख की आबादी वाले बड़े इलाके का मालिक।”
“फिर भी...”
“नो फिर भी। पैसा कहां से आएगा तुम्हारे पास, ये सोचना तुम्हारा काम है। दैट्स योर प्रॉब्लम। मेरे को पचास लाख मांगता है और इमीजियेट करके मांगता है।”
“इ-इमिजियेट करके!”
“और क्या अगले महीने! अगले साल!”
“अरे, इतनी बड़ी रकम एकाएक मेरे जैसी हैसियत वाले किसी के पास नहीं होती!”
“तो?”
“मांग कम करो। उसे किसी रीज़नेबल लैवल पर लाओ।”
“नहीं हो सकता। ये रीज़नेबल मांग है और वन टाइम मांग है। मल्लबकि आइन्दा फिर कभी ऐसी मांग नहीं होगी। ये न भूलो कि मैं चाहूँ तो उम्र भर तुम्हारा खून चूसती रह सकती हूं।”
उम्र भर! साली कुत्ती! यही हफ्ता काट जाए तो जानूं।
“मैं तुम्हारी मांग पूरी कर दूंगा” – प्रत्यक्षतः वो बोला – “नाजायज़ है, प्रैक्टीकल भी नहीं है लेकिन फिर भी पूरी कर दूंगा। कुछ पैसा मैं तुम्हें अभी देने को तैयार हूँ, बाकी धीरे-धीरे पहुंचा दूंगा।”
उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव आए।
“वीडियो क्लिप फाइनल पेमेंट के बाद ही मिलेगी।” – फिर आगाह करने के अन्दाज़ से बोली।
“मेरे को मंजूर। लेकिन उस की सेफकीपिंग की गारन्टी करनी होगी। ये भी गारन्टी करनी होगी कि क्लिप तुम किसी से शेयर नहीं करोगी।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा। इस डील में किसी तीसरे को इनवॉल्व करने की मेरी कोई मर्जी नहीं, मल्लबकि हासिल रकम का कोई शेयरहोल्डर खड़ा करने की मेरी कोई मर्जी नहीं।”
“श्योर?”
“डैड श्योर!”
‘डेड’ तक ही रह येडी!
“तुमने बोला” – वो आगे बढ़ी – “कुछ पैसा तुम मेरे को अभी देने को तैयार हो।”
“हां!”
“कितना?”
“पचास . . . एक लाख।”
“मैं मूंगफली नहीं खाती।”
“तो?”
“बीस लाख।”
“क्या!”
“अभी बोहनी के तौर पर।”
“बोहनी के तौर पर! मैंने पहले भी बोला मैं इन्स्पेक्टर हूँ, कमिश्नर नहीं हूँ मुम्बई पुलिस का।”
“मालूम। कमिश्नर होते तो वो हरकत न की होती जो कि की।”
“अब उपदेश तो तू रहने ही दे!”
वो ख़ामोश रही।
“देख, कोई छोटी-मोटी रकम पहले चाहती है तो समझ तेरे हुस्न पर न्योछावर की, तेरे सिर से वार दी ....”
“वो सब मैं खुद कर लूंगी। अभी बोले तो बीस की बोहनी। इमीजियेट!”
भारकर ने खुद पर बहुत काबू किया था, तब उसका धीरज छूट गया।
“तू अपनी मौत बुला रही है।” – वो फुफकारा।
“मैं नहीं, तुम।” – जसमिन शान्ति से बोली – “शायद तुम्हें अहसास नहीं कि तुम्हारी हैसियत उस दानव जैसी है जिसकी जान लोककथाओं में मशहूर तोते में है और वो तोता मेरे कब्जे में है। मैं तोते की टांग तोडूंगी, दानव लंगड़ा हो जाएगा। मैं तोते की दूसरी टांग तोडूंगी, दानव लूला हो जाएगा। मैं तोते की गर्दन मरोडूंगी, दानव अपने अन्तिम संस्कार में पुलिस के गार्ड्स की सलामी ले रहा होगा। वो लोक कथाओं वाला तोता वो वीडियो क्लिप है जिसमें बतौर कातिल तुम्हारी हाजिरी दर्ज है और वो दानव तुम हो। मेरे मुंह खोलने की देर होगी कि तुम अपने ही मातहत पुलिस ऑफिसर के कत्ल के इलज़ाम में झूला झूल रहे होंगे।”
“ठहर जा, साली!” – वो पूर्ववत् फुफकारता, दान्त पीसता बोला – “पुलिस वाले को हूल देती है!”
“देती हूँ न!”
“साली, प्रॉस्टीच्यूशन में गिरफ्तार करूँगा।”
“क्या?”
“प्रॉस्टीच्यूशन नहीं समझती? जिस्मफरोशी! रण्डीबाजी! साली, मैं क्या जानता नहीं कि इस इमारत के टॉप फ्लोर पर एक रण्डीखाना चलता है जिसकी रण्डियों में तेरी भी शुमार है!”
“अरे, शक्ल अच्छी नहीं तो बात तो अच्छी करना सीखा होता!”
“साली, गिरफ्तार कर के ऐसा जलूस निकालूँगा कि जीते जी मर जाएगी।”
“फिर तेरा क्या होगा रे, कालिया!”
उसके जोश को ब्रेक लगी।
“करना ऐसा कुछ! फिर मार के मरूंगी। बच के दिखाना कत्ल के ओपन एण्ड शट केस में शिरकत से। अपने ही साथी पुलिस ऑफिसर को न बख़्शा। कम्बख़्त डायन भी सात घर छोड़ देती है।”
भारकर विचलित दिखाई देने लगा।
“ये छ:मंजिला इमारत है जिसके ग्राउन्ड फ्लोर पर ‘ब्लैक ट्यूलिप’ है, मैंने आज तक जिसकी पहली मंजिल की सीढ़ियां नहीं चढ़ीं। मेरे को क्या सपना आना था कि छठी मंजिल पर क्या था! तुम्हें मालूम है वहां ब्रॉथल है तो अभी तक क्या उसमें पार्टनरशिप का सुख पा रहे थे! बन्द क्यों न कराया उसे? क्यों कि रेगुलर हफ्ता पहंचता था?”
भारकर ने जवाब न दिया।
“करना, जो तुम्हारे बस का है। निकालना गिरफ्तार कर के मेरा जलूस। गरज के बहुत दिखाया, अब बरस कर भी दिखाना। जो होता हो, करना। मेरी तरफ से खुली छूट है तुम्हें!”
“बहुत दिलेरी आ गई यकायक!” – कदरन ख़ामोश हुआ भारकर फिर एकाएक भड़कने को हुआ – “पहले सीधे मेरे से बात करने का हौसला नहीं होता था, अब बढ़-बढ़ के बोल रही है!”
“हौसला बना दिया न! तुम्हारे एकाएक यहां पहुंच जाने ने और ताकत दिखाने लगने ने! जब पगलाया हुआ सरकारी सांड हमलावर बनके चढ़ दौड़े तो उसे सींगों से थामना ही पड़ता है।”
“मेरे को सांड कहती है!”
“सरकारी।”
“साली श्यानी! डेढ़ दीमाक! जानती नहीं किस से पंगा ले रही है! मैं नाग हूं। काला नाग। जिसका काटा पानी नहीं मांगता, साली, पोटला बना दूँगा।”
“वो कैसे बनता है?”
“मालूम पड़ेगा न!”
“मैं डर गई। डर से थर-थर कांप गई। लेकिन पहले फैसला कर लो कि मेरे को रण्डीबाज़ी में गिरफ्तार करना है या पोटला बनाना है!”
एकाएक वो उठ खड़ी हुई।
भारकर की भवें उठीं।
“कल।” – जसमिन सर्द, निडर लहजे से बोली।
“क्या कल?”
“बीस लाख। पहली पेमेंट बोहनी के तौर पर। मीटिंग खत्म हुई।”
“अरे, नहीं! रुक! रुक!”
“अब क्या हुआ?
“रूक न, प्लीज़ा”
“क्यों? दो में से कोई प्रोग्राम चेंज हो गया?”
“अरे, रुक! रुक! बात सुन मेरी!”
“सुनाओ।”
“बोहनी कम कर। उसे किसी रीज़नेबल, नेगोशियेबल लैवल पर ला।”
“हेकड़ी निकल गई?”
“तू बात को समझ। मैं खड़े पैर बीस लाख का इन्तज़ाम नहीं कर सकता - किसी का गला काट के भी नहीं कर सकता – मेरे को टाइम दरकार होगा।”
“कितना?”
“एक हफ्ता।”
“नो।”
“तू मेरी बात समझ। मेरी मजबूरी समझ।”
“क्यों मैं उस शख़्स की मजबूरी समझं जो मुझे रण्डी करार देता है! जो मेरा पोटला – जो कुछ भी वो होता है - बनाना मांगता है?”
“अरे, बस कर न! जोश में किसी के मुंह से भी कुछ भी निकल जाता है। मैं सॉरी बोलता हूँ। अब राज़ी?”
“ओके। लेकिन हफ्ता मंजूर नहीं। एण्ड दैट्स फाइनल।”
“तो अपनी मांग कम कर।”
“कितनी कम?”
“वही, जो मैं पहले बोला।”
“नहीं हो सकता।”
“तो तू बोल। तू ही कोई आखिरी फैसला कर – ऐसा फैसला जो तेरे को भी मंजूर हो और मेरे को भी माफिक आए।”
“ओके! पहली पेमेंट दस लाख। टाइम दो दिन का। गुरु और शुक्र दो दिन हैं तुम्हारे पास। परसों शाम तक मुझे बोहनी की सूरत न दिखाई दी तो वीडियो क्लिप वायरल और मुम्बई पुलिस कमिश्नर स्पैशल रेसीपेंट। दि मीटिंग इज़ ओवर। गुड नाइट!”
□□□
सुबह साढ़े दस बजे झालानी एसीपी के ऑफिस में उसकी हाजिरी भर रहा था।
“ओह! वैलकम!” – एसीपी कुलकर्णी बोला – “तुम्हारे फोन का इन्तज़ार कर रहा था, फिर सोचा ख़ुद फोन लगाऊं, फिर तुम्ही आ गए।”
“क्योंकि थाने में भारकर से भी माथा फोड़ने का इरादा था। पहले आपके पास हाज़िर हुआ।”
“कोई ख़ास वजह?”
“है तो सही!”
“पहले वो ही बोल।”
“पहले मैं विनायक घटके नाम के एक भीड़ का ज़िक्र करना चाहता हूँ जो कि टोपाज़ क्लब के संचालक रेमंड परेरा का ख़ास बताया जाता है. . .”
“उसका ज़िक्र परसों मैं एसएचओ भारकर की जुबानी सुना चुका हूँ। तू आगे बोल।”
“अपनी तफ्तीश के सिलसिले में मुझे उसकी तस्वीर चाहिए।”
“यहां से?”
“जहां से भी हासिल हो?”
“भारकर ने अपने केस के सिलसिले में ही उसका ज़िक्र किया था, कोई व्यापक ज़िक्र उसका तब नहीं आया था। तेरे को उसकी तस्वीर चाहिए तो तू भी उसकी बाबत कुछ न कुछ तो जानता ही होगा! नो?”
“यस।”
“प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर है?”
“है तो सही! रेप के मामले में दो बार पकड़ में आया बताया जाता है।”
“सज़ा हुई?”
“नहीं। दोनों बार लैक ऑफ ईवीडेंस की बिना पर छूट गया।”
“कोई एलियास?”
“मालूम नहीं।”
“यही उसका असली नाम?”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“वेट।”
एसीपी कम्प्यूटर के हवाले हुआ। पांच मिनट पूरी तन्मयता से वो उस पर काम करता रहा। आखिर में उसकी कमांड से प्रिंटर से जो प्रिंटआउट निकला उस पर पांच गुणा सात साइज़ की एक तस्वीर अंकित थी जो उसने झालानी के सामने रखी।
“तेरा विनायक घटके।” – वो बोला।
“कमाल है!” – झालानी मन्त्रमुग्ध भाव से बोला – “गंगा घर में ही बह रही थी और मैं आजू-बाजू भटक रहा था।”
“आजकल तमाम क्रिमिनल रिकॉर्ड्स कम्प्यूटराइज्ड है, सब अधिकारियों को ईक्वली असैसिबल हैं। भारकर को बोलना था!”
“नो, सर। उसको नहीं।”
“ख़ुद क्या करते?”
“एक्सप्रेस’ के स्टाफ फोटोग्राफर को पकड़ता, घटके को ट्रेस करता, फोटोग्राफर को उसकी शक्ल दिखाता, फिर टेलीलेंस वाले कैमरे से फोटो खिंचने और प्रिंट मेरे हाथ में आने का इन्तज़ार करता।”
“यानी उंगली से अंगूठे तक पहुंचने के लिए कोहनी तक का सफर करते!” झालानी निर्दोष भाव से हंसा।
“अब बोल, क्यों चाहिए थी तस्वीर?”
“बोलूँगा। गोरे वाले केस में थोड़ी हिलडुल होने की उम्मीद है, वो हो जाए तो बोलूँगा।”
“तेरी मर्जी।”
“सर, कल वाले मोबाइल से कुछ पता लगा?”
“लगा न! तभी तो तुम्हारी आमद को वैलकम बोला वर्ना तुम जाकर भारकर के पास बैठते।”
“क्या पता लगा?”
“वो मोबाइल नम्बर बहुत पुराना है, तबका है जबकि प्रीपेड मोबाइल की सुविधा नहीं होती थी। सबको अर्जी दाखिल करके, सिक्योरिटी जमा कराके नम्बर लेना पड़ता था जिसका कि माहाना बिल आता था। वो नम्बर पहले डाक से सबस्क्राइबर के पते पर आता था लेकिन अब बाई मेल हासिल होता है जिसको सबस्क्राइबर ज़रूरत समझे तो डाउनलोड करता है वर्ना वो पेयेबल अमाउन्ट मालूम करता है और बिल पे कर देता है। फॉलोड?”
“यस, सर।”
“कनैक्शन क्योंकि पोस्टपेड होता है इसलिए पेयेबल बिल पर सबस्क्राइबर का पूरा पता होता है।”
“ओह! सबस्क्राइबर का पूरा पता होता है! अब ज़्यादा फॉलोड।”
एसीपी हंसा।
“सबस्क्राइबर कोंपल मेहता?”
“और कौन?”
“पता?”
“खत्रीवाडी, ठाकुरद्वार का। लेकिन अब वो वहां रहती नहीं। उसका वो पता ख़ाली बिल में दर्ज है जो कि उसने कभी चेंज नहीं करवाया।”
“अब कहां रहती है?”
“मालूम नहीं। पहले उस पते से बिल कलैक्ट करने का उसने इन्तज़ाम किया हुआ था लेकिन बिल ऑनलाइन मिलने लगा तो इन्तज़ाम की ज़रूरत न रही।”
“रहती कहीं और है, बिल पर पता ठाकुरद्वार का?”
“हां।”
“बिल किसलिए? पता किसलिए? पोस्टपेड कनैक्शन को प्रीपेड भी तो कराया जा सकता था!”
“हां, पर उसने न कराया। क्यों न कराया, वो ही जाने!”
“कनैक्शन पोस्टपेड हो या प्रीपेड, सबस्क्राइबर का पता तो सर्विस प्रोवाइडर के रिकॉर्ड में होना फिर भी लाज़मी है।”
“है न! खत्रीवाडी, ठाकुरद्वार का पता है न! कभी पूछ होगी तो कह देगी वहां रहती थी। फिर पूछ होगी क्यों? जब बिल रेगुलर पे हो रहा है, टाइम पर पे हो रहा है तो क्यों होगी पूछ?”
“कमाल है!”
“कोई कमाल नहीं है। ऐसी बातों में लोग अलगर्जी भी तो दिखाते हैं! मसलन सेकण्डहैण्ड दोपहिया या चारपहिया व्हीकल खरीदते हैं, सालों रजिस्ट्रेशन अपने नाम ट्रांसफर नहीं कराते। कोई एक्सीडेंट की वारदात हो जाए तो तभी ओरिजिनल ओनर का पता लगता है - जिसको कि उसने व्हीकल बेचा था, उसकी आरसी अपने नाम ट्रांसफर नहीं कराई थी...”
“सर, आपको टोक रहा हूँ, उसकी माफी, लेकिन मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग की सुविधा, अपनी तफ्तीश में जिसे आपकी पुलिस खुल्ला इस्तेमाल करती है, मेरे किस काम आई? मेरे लिए उससे बात करना ज़रूरी था इसलिए आपसे मदद की गुहार लगाई थी लेकिन ...”
“एसीपी ने मदद न की, या वक्त रहतेन की, हाथ खड़े करके दिखा दिए! ओके?”
“सॉरी, सर। लगता है कुछ किया।”
“जो हो सकता था, सब किया”
“दैट्स ग्रेट। आईएम ऑल इयर्स, सर।”
“देखो, मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग से मोबाइल की किसी ख़ास वक्त की लोकेशन ही ट्रैक की जा सकती है, यही जाना जा सकता है कि किस कॉल के वक्त कॉल रिसीव करने वाला कहां था, ये कतई ज़रूरी नहीं कि जहां वो था, वो उसका आवास था। आई बात समझ में?”
“आई। लेकिन हो तो सकता है न, कि जहां उसने कल मेरी कॉल रिसीव की और मेरे से रूबरू मिलने से साफ मना किया, वही उसका आवास हो!”
“हां, हो तो सकता है!”
“इसलिए भी हो सकता है, क्योंकि उसे नहीं पता हो सकता था कि कॉल रिसीव करते वक्त उसने कहां नहीं होना था?”
“ठीक!”
“आप मुझे वो पता दीजिए, शायद मेरी किस्मत काम कर जाए और जहां उसने मेरी कॉल रिसीव की थी, वो उसके मौजूदा आवास का ही पता निकले।” एसीपी ने उसे बोरीवली वैस्ट का एक पता लिख कर दिया।
रेज़ीडेंशल!
ग़नीमत थी कि कॉल रिसीव करते वक्त वो किसी पब्लिक प्लेस पर नहीं थी।
झालानी भारकर के ऑफिस में पहुंचा।
“नमस्ते, एसएचओ साहब।” – वो मधुर स्वर में बोला।
भारकर ने फाइल पर से सिर उठाया।
“झालानी!” – वो बोला – “अरे भई, कैसे आया सुबह सवेरे?”
“अपनी नौकरी करने आया। आपकी हाजिरी भरने आया।”
“हाजिरी भरने?”
“और दर्शन पाने।”
“पा।”
“हा हा हा। कहते हैं पा। वैसे आज तो बहुत बिज़ी लग रहे हैं!”
“हां, यार। बहुत फाइल वर्क है।”
“ऐसा क्यों?”
“एसीपी ने वाट लगाई हुई है। जो फाइलें ख़ास उसके एक्शन के लिए होती हैं, वो भी मेरे को ठोक देता है।”
“आप ऐतराज़ नहीं करते?”
“अभी तक तो नहीं किया। बाज़ नहीं आएगा तो करना पड़ेगा।”
“क्या करेंगे?”
“सोच। इस बात को याद रखके सोच कि मैं डीसीपी का ख़ास हूँ।”
“ओह!”
“अब खाली कर्टसी कॉल पर ही है तो मेरे को काम करने दे।”
“हूँ तो कर्टसी कॉल पर ही लेकिन एक पर्सनल प्रॉब्लम है, सोचा, आपसे शेयर करूँ।
“कैसी प्रॉब्लम?”
“आप हंसेंगे।”
“हंसा।”
“वो क्या है कि घर से निकलने के बाद और दोपहर होने से पहले अगर मेरे को चाय नसीब न हो तो मेरे को ऊंघ आने लगती है।”
भारकर ने अपलक उसकी तरफ देखा।
“ऑनेस्ट!” – झालानी ने बड़े नाटकीय अन्दाज़ से अपने गले की घंटी को छुआ।
भारकर ने एक आह-सी भरी फिर बोला – “बैठा।”
“थै क्यू”
“अभी तेरी ऊंघ दूर होती है।”
“डबल बैंक्यू।”
भारकर ने दोनों के लिए चाय मंगवाई।
झालानी ने चाय चुसकी और एक फरमायशी, तृप्तिभरा चटकारा भरा।
“झालानी, मैं तेरे से पुराना वाकिफ हूँ।” – भारकर बोला – “ऐसे तू यहां नहीं आने वाला। ख़ासतौर से चाय की तलब के हवाले। क्या!”
झालानी निर्दोष भाव से मुस्कुराया।
“क्या है तेरे मगज में?”
“है तो सही कुछ!”
“क्या?’
“अपनी खोजी फितरत के तहत एक बात जानकारी में आई; सोचा, उसका आपसे ज़िक्र करूँ।
“क्या बात?”
“ख़ास बात।”
“झालानी, सता नहीं। मेरे को बहुत काम है। क्या ख़ास बात?”
“एक गवाह सामने आया है जो कहता है सोमवार रात को उसने आपको पुलिस कालोनी में देखा था।”
“क्या बड़ी बात है! एसआई गोरे की खुदकुशी की ख़बर आम होने के बाद मैं गया था न मौका-ए-वारदात पर!”
“आप लेट नाइट में गए थे। ग्यारह बजे के बाद। तब तक तो गवाह घोड़े बेच कर सोया हुआ था। आपकी तब की आमद की तो उसे भनक भी नहीं लगी थी। गोरे के साथ जो बीती थी, उसकी भी उसे अगली सुबह ख़बर लगी थी।”
“ऐसा क्यों?”
“अफ़ीम खाता है। रात को पिनक में रहता है। अंटा चढ़ाया हुआ हो तो जल्दी सो जाता है।”
“कितना जल्दी?”
“नौ, साढ़े नौ बजे। दस से पहले हर हाल में।”
“तो मेरे को कब देखा उसने?”
“पहले। अपने सोने के वक्त से पहले।”
“अरे, भई, वक्त बोल, कब देखा!”
“कहता है वक्त का उसे कोई अन्दाज़ा नहीं।”
“कोई तो अन्दाज़ा होगा! जब कहता है कि दस बजे से पहले यकीनी तौर पर सो जाता था तो इससे पहले ही किसी वक्त मेरे को देखा होगा न?”
“वो तो है!”
“कब! किस वक्त! अन्दाज़ा ही बोल अपना।”
“सर, मैंने बोला न, अफ़ीम खाता है, पिनक में रहता है।”
“पिनक में ये याद रहा बराबर कि मेरे को देखा था, ये याद न रहा, कि कब देखा था?”
“अब ... . बोलता तो यही है!”
“कहां देखा?”
“कॉलोनी की ऐंट्रेंस पर। मेन गेट पर।”
“वो वहां क्या कर रहा था?”
“बीड़ी ख़त्म हो गई थी, लेने जा रहा था।”
“यही बोलता कि बीड़ी लेने कब गया था!”
“कहता है ध्यान नहीं।”
“क्या ध्यान था? वो जा रहा था तो मैं आ रहा था?”
“हां।”
“या वो लौट रहा था तो मैं जा रहा था?”
“बोलता है, वो जा रहा था तो आप आ रहे थे।”
“लेकिन टाइम का कोई अन्दाज़ा नहीं!”
“यही बोलता है। बहुत इसरार किया तो नौ के करीब का बोला लेकिन जो बोला, हाथ के हाथ ही उससे फिर गया और फिर यही रट पकड़ ली कि टाइम का उसे कोई अन्दाज़ा नहीं था। सीसीटीवी स्कैन की सुविधा वहां थी नहीं।” – झालानी एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “क्यों नहीं थी?”
“क्यों नहीं थी!” – भारकर तनिक हड़बड़ाया – “क्योंकि पुलिस कॉलोनी थी।”
“ये तो कोई वजह न हुई!”
“तो कोई और वजह होगी! मालूम कर।”
“मैं करूं?”
“क्यों नहीं। आखिर खोजी पत्रकार है! बोले तो इनवैस्टिगेटिव जर्नलिस्ट।”
“सर, यूडू नो हाउ टु पास दि बका”
“छोड़! अपने गवाह की बात कर। है कौन वो?”
“किसी का ड्राइवर है जिसने उसे गैराज में रहने की जगह दी हुई है।”
“नाम बोल! मैं यहां तलब करता हूँ।”
झालानी ने इंकार में सिर हिलाया।
“अब क्या हुआ?”
“डरपोक आदमी है। गुमनाम रहना चाहता है।”
“प्रेस के सामने मुंह खोल सकता है, पुलिस के सामने नहीं!”
“प्रैस अपना सोर्स ऑफ इनफर्मेशन प्रोटेक्ट करती है, पुलिस ऐसा नहीं करती।”
“हम भी प्रोटेक्ट करते हैं।”
“हमेशा नहीं।”
“हूँ। मेरे को पहचानता था?”
“जी हां। तभी तो आपका ज़िक्र किया। किसी अंजान शख़्स की बात होती तो उसमें ज़िक्र के काबिल क्या बात थी!”
“कैसे पहचानता था मेरे को?”
“मैंने सवाल किया था। बोला, याद नहीं।”
“लेकिन पहचानता बराबर था?”
“जी हां।”
“तो भी इसमें ज़िक्र के काबिल क्या था?”
“उसी रोज़ रात की किसी घड़ी वहां वो बड़ा वाकया हुआ न! शायद उसकी वजह से आपकी आमद उसे याद रही।”
“हूँ।”
“सर, वो जो कहता है सो कहता है, आप भी तो सस्पेंस दूर कर सकते हैं? ऐसी तसदीक दोतरफा होती है .....”
“नहीं होती। ए ने बी को देखा, बी ने ए को न देखा तो नहीं होती।”
“सर, यू आर स्प्लिटिंग हेयर।”
“क्या बोला?”
“बाल की खाल निकाल रहे हैं। आप बताइए न, कि सोमवार रात को किसी टाइम आपका पुलिस कॉलोनी जाने का इत्तफाक हआ था या नहीं?”
“हां, हुआ था। और ये भी बोला था कि क्यों हुआ था! क्योंकि वहां हुई वारदात की ख़बर लगने के बाद ड्यूटीबाउन्ड मैं वहां पहुंचा था।”
“सर, उससे पहले।”
“क्या मतलब है, भई, तेरा? मै दो बार वहां गया?”
“आप बताइए।”
“सब कुछ मेरे को ही बताने का?”
“सर, प्लीज़!”
“क्या प्लीज़, तेरा मतलब है सोमवार शाम मैं वहां दो बार गया?”
“सर, प्लीज़, आप बताइए। हां या न कुछ भी बोलिए और सस्पेंस ख़त्म कीजिए।”
“फर्जी सस्पेंस को कैसे ख़त्म करूँ? जिस बात का कोई वजूद ही नहीं, उस पर क्या बोलूं?”
“सर, वो क्या है कि ...”
“अच्छा चल, फर्ज़ कर कि मैं वहां दो बार गया था, दो बार ही गया था। एक बार तो इसलिए गया कि वहां मेरे अपने मातहत के साथ बड़ी वारदात हो गई थी, इसलिए मेरा जाना बनता था। मेरी ड्यूटी, मेरा फर्ज़ मुझे वहां ले कर गया। दूसरी बार क्यों गया मैं?”
“आप बताइए।”
“पहले तू अन्दाज़ा बता कोई अपना।”
“मैं बताऊं?”
“हां, क्यों नहीं! बड़ा जर्नलिस्ट है। आला दिमाग पाया है तूने। गिव मी युअर वाइल्ड गैस।”
“आप ख़फा हो जाएंगे।”
“बिल्कुल नहीं। कुछ भी बोल। समझ, अभयदान है तेरे को।”
“शायद इत्तफाकन आप इलाके में कहीं थे। पुलिस कॉलोनी से गुज़रे तो गोरे का ख़याल आया और ये ख़याल आया कि उस रोज़ उसका ऑफ था। फिर ये भी याद आया कि उसकी बीवी बच्चों के साथ मायके में थी और यूं जब वो घर पर अकेला होता था तो शाम को घुट लगाता था जो कि तनहा लोगों का आम शगल होता है। आप शायद ये सोच कर उसके फ्लैट पर पहुंचे कि वो आप को घंट लगाता मिलेगा और कर्टसी सेक आपको भी ड्रिंक ऑफर करेगा।”
“किया?”
“मेरे ख़याल से नौबत न आई।”
“क्यों?”
“शायद घर पर नहीं था। अकेला आदमी कहीं चल दे तो फ्लैट को लॉक करके ही जाता है इसलिए आपकी बजाई घन्टी का जवाब देने के लिए वहां कोई नहीं था।”
“कहां चला गया?”
“शायद डिनर करने। बीवी की गैरहाज़िरी में खाना ख़ुद तो न बनाता होगा!”
“कर्टसी होम डिलीवरी, खाना घर आम मंगाया जा सकता है!”
“जहां वो खाना पसन्द करता था, वो जगह होम डिलीवरी के सर्कट पर नहीं होगी उसे लगता होगा कि ख़ुद जाकर खा आने से टाइम बचेगा।”
“या घर से निकलने की कोई और वजह होगी?”
“वो भी।”
“व्हिस्की शॉर्ट पड़ गई होगी?”
“सर, आप घिस रहे हैं मेरे को!”
“उसका मोबाइल बजाना तो सूझा न मेरे को! इतना पेचीदा काम कहां मगज में आसानी से आता है!”
“सर, क्या कह रहे हैं?”
“इतना तो मानते हो न, कि रात की उस घड़ी वो घर से दूर कहीं नहीं गया होगा? खाना खाने बान्द्रा तो नहीं निकल गया होगा! अन्धेरी तो नहीं गया होगा! हो सकता था वो बहुत शार्ट ड्यूरेशन के लिए पास ही कहीं गया होता – पास भी क्या, कॉलोनी में ही कहीं गया होता – मोबाइल बजा के पता करने में क्या वान्दा था? मेज़बान घर न हो तो मेहमान ऐसी कोशिश करता ही है!”
“अब मेरे को क्या मालूम क्यों आपने मोबाइल न बजाया! शायद उस घड़ी खयाल न आया।”
“या शायद मेरे को इलहाम हो गया कि वो भीतर मरा पड़ा था! फांसी लगा हुआ था! नहीं?”
झालानी ने जवाब न दिया।
“अगर ऐसा था तो कैसा पुलिसवाला था मैं, कैसा थाना प्रभारी था मैं जिसे अपने करीब एक अननेचुरल डैथ की ख़बर लगी - अपने मेज़बान की डैथ की ख़बर लगी – और उसने कोई ऐक्शन न लिया। ऐक्शन लेने की जगह चुपचाप वहां से खिसक गया और तब लौटकर आया जब उसे अपने मातहत सबइन्स्पेक्टर के अंजाम की ऑफिशियल ख़बर लगी। ओके?”
“सर, आप मुझे कनफ्यूज़ कर रहे हैं।”
“एक बात बता। अंटा त भी तो नहीं चढ़ाने लग गया?”
“क्या बात करते हैं!”
“कनफ्यूज़न में नहीं, पिनक में बोलता जान पड़ रहा है इसलिए पूछा।”
“मैं! मैं पिनक में बोलता जान पड़ रहा हूँ?” ।
“हां। और वजह सुन। सोमवार रात को मैंने एसआई कदम को दो सिपाहियों के साथ धोबी तलाव भेजा था गोरे को थाने लेकर आने के लिए। और अगर वो आने से इंकार करे तो उसको हिरासत में लेकर थाने लाने के लिए क्योंकि एक बड़े मामले की, एक डबल मर्डर के मामले की जवाबदारी उस पर आयद होती थी। मालूम?”
“मालूम।”
“मैं उसको थाने तलब करके उससे वो जवाबदारी करना चाहता था। ओके?”
“हां, जी।”
“अब तू मेरे को ये बता कि जब मैंने उसे थाने तलब किया तो मैं उसके घर क्यों पहुंच गया? उसको थाने तलब करके उसका इन्तज़ार करने की जगह थाने से बाहर क्यों भटक रहा था? जवाब ये सोच के देना कि तू समझता है, अपने अफीमची गवाह के समझाए समझता है कि पुलिस कॉलोनी मैं दो बार गया था!”
झालानी ने जवाब देने न बना।
“तू कहता है मैं वहां गया तो वो घर पर नहीं था। फर्ज कर ऐसा नहीं था। मेरी उम्मीद के मुताबिक वो घर पर था तो जो पूछताछ मैंने उसे थाने बुलाकर करनी थी, वो वहीं क्यों न कर ली? जिस शख़्स को मैं मुजरिम मान के चल रहा था, उसके फ्लैट में बैठकर मैं उसके साथ ड्रिंक शेयर करता!”
लाजवाब झालानी ने बेचैनी से पहलू बदला।
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“तो” – फिर वो दबे स्वर में बोला – “असल में क्या हुआ होगा?”
“ये भी कोई पूछने की बात है? सिवाय इसके और क्या हुआ हो सकता है कि तेरे गवाह ने मेरी गलत शिनाख़त की। ही वॉज नॉट ए कम्पीटेंट विटनेस। अफीमची था जो पिनक में कोई बात तरीके से याद नहीं रख सकता था। उसने रात के नीम-अन्धेरे में कद-काठ में मेरे से मिलते किसी शख़्स को देखा और कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गया कि वो मैं था। ऐसे शख़्स को, ऐसे नशेबाज़ शख्स को, रिलाएबल विटनेस करार दिया जा सकता है?”
झालानी ने हिचकिचाते हुए इंकार में सिर हिलाया।
“अंटा वो रात को चढ़ाता है न! दिन में उसे मेरे पास ले के आ और बोल कि मेरी शिनाख़्त उस शख्स के तौर पर करे जिसको उसने सोमवार रात को पुलिस कॉलोनी के गेट से दाखिल होते देखा था। बुला उसे यहां। या मेरे को बोल वो कौन है, मैं बुलाता हूँ उसे।”
“जाने दीजिए।”
“क्यों भला?”
“गरीबमार होगी। आपने सही कहा कि किसी अफीमची को रिलाएबल, कम्पीटेंट विटनेस नहीं माना जा सकता।”
“ऐसी गैरज़िम्मेदार बातें करने वाले शख्स को कोई सबक मिलना चाहिए।”
“मिल जाएगा। मैं दूंगा न!”
“तू देगा?”
“आपके हवाले से। सुनेगा तो पतलून गीली करेगा, खजूर।”
“हूँ।”
“लगता है घटके अब पुलिस के राडार पर नहीं है!”
भारकर की भवें उठीं।
“बड़े मवाली रेमण्ड परेरा का ख़ास! जो उसके हवाले से ऑलिव बार में उसके एक पाटर्नर के लिए धमकी छोड़ कर गया था?”
“तेरे को क्या पता!”
“सर, ‘एक्सप्रैस’ की तरफ से क्राइम बीट कवर करता हूँ, पता लग ही जाता है।”
“हूँ।”
“फिर दूसरे पाटर्नर का कत्ल हो गया तो धमकी के जेरेसाया पुलिस की तवज्जो घटके की तरफ गई तो होगी!”
“गई थी। केस के हर पहलू की पड़ताल करना विवेचन अधिकारी का फर्ज़ होता है इसलिए गई थी। लेकिन उसकी आइन्दा पड़ताल की नौबत ही नहीं आई थी। पहले ही केस हल हो गया था।”
“कातिल एसआई अनिल गोरे?”
“और क्या! इतने सुबूत थे उसके खिलाफ, गिरफ्तारी की नौबत आती देखी तो बौखला कर खुदकुशी कर ली।”
“घटके का उस डबल मर्डर में कोई रोल नहीं था?”
“न!”
“बैड कैरेक्टर था। सुना है दो बार रेप के बड़े केस में फंसा था लेकिन सुबूतों के अभाव में कोर्ट से सन्देहलाभ पाकर छूट गया था।”
“झालानी, इतना काबिल, इतना आलादिमाग, इतना मैन ऑफ दि वर्ल्ड आदमी है तू, क्या नहीं जानता – या भूल गया – कि एक मैन इज़ इनोसेंट अनटिल ही इज़ वन गिल्टी!”
“किसी गम्भीर केस में सन्देहलाभ पाकर छूटे सन्दिग्ध व्यक्ति की इनोसेंस पर हमेशा सवालिया निशान होता है।”
“बहस का मुद्दा है इसलिए नक्की कर।”
“आप का हुक्म सिर माथे लेकिन उस डबल मर्डर की वारदात के बाद इतना आम सुनने में आया था कि ऑलिव बार के पाटर्नर सुबोध नायक का कत्ल अपने बॉस रेमण्ड परेरा के इशारे पर घटके ने किया था!”
“जा के बोल परेरा को ऐसा।”
“मैं बोलू?”
“क्यों नहीं? तू खोजी पत्रकार है, कोई शंका तेरे मगज में आए तो उसका निवारण तो तेरे को करना चाहिए!”
“आप मेरी खुश्की उड़ा रहे हैं।”
भारकर हंसा।
“एक सन्दिग्ध चरित्र व्यक्ति के तरफ़दार बन रहे हैं।”
भारकर तत्काल संजीदा हुआ।
“जोश में न बोल, झालानी” – वो शुष्क स्वर में बोला – “होश में बोल। मैं भला उस घटिया आदमी का तरफ़दार क्यों बनूंगा?”
“मेरे को ऐसा लगा।”
“गलत लगा।”
“मेरे को पता लगा है वो शख़्स हैबिचुअल सैक्स ऑफेंडर था!”
“कैसे पता लगा है? क्योंकि जब भी सैक्स ऑफेंस में मशगूल होता था, तेरे को सिरहाने खड़ा पाता था?”
“आप घटके की बाबत बात करने के मूड में नहीं हैं।” – झालानी उठ खड़ा हुआ – “बहरहाल मेरे को टाइम देने का शुक्रिया। चाय का भी। अभी इजाज़त दीजिए, फिर हाज़िर होऊंगा।”
“चाय पीने?”
“अरे, नहीं जनाब, आपकी सोहबत का लुत्फ़ उठाने। नमस्ते।”
सहमति में सिर हिलाते भारकर ने नमस्ते कुबूल की।
झालानी बोरीवली वैस्ट पहुंचा।
आगे उसकी मंज़िल द्वारका अपार्टमेंट्स, महावीर नगर था।
उसने ग्राउन्डफ्लोर के एक फ्लैट की कॉलबैल बजाई।
दरवाज़ा खुलने में थोड़ी देर लगी- शायद पीपहोल से आगन्तुक को परखा जा रहा था – फिर चौखट पर एक जींस-स्कीवीधारी महिला प्रकट हुई।
“यस?” — वो सहज भाव से बोली। “कोंपल!” – झालानी मधुर स्वर में बोला – “कोंपल मेहता?”
“हू इज़ आस्किंग?”
“मैं पंकज झालानी। ‘एक्सप्रेस’ का रिपोर्टर। कल आपसे फोन पर बात हुई थी?”
“मुझे नहीं मालूम कौन हो!”
“बताया तो है कौन हूँ! सूरत से नहीं पहचानता लेकिन अभी आवाज़ तो बराबर पहचानी न मैंने!”
“तो?”
“कहती थीं चान्द पर रहती हूँ। इत्तफाक से आपका मुम्बई आना हो गया इसलिए जहां आप थीं, वहां पहुंच गया; चान्द पर होती तो चान्द पर भी पहुंचता यकीनन।”
“पीछा छोड़ना नहीं सीखे?”
“नहीं। ये करतब सीखा होता तो किसी और कारोबार में होता।”
“यहां पहुंच गए!”
“मॉडर्न टैक्नालोजी ने दुनिया बहुत छोटी कर दी है।”
“कैसे पहुंच गए?”
“मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग से आसरा मिला न!”
“उससे ये पता लग गया कि कोंपल मेहता कहां रहती थी?”
“उससे ये पता लग गया कि जब मैंने कोंपल मेहता से मोबाइल पर बात की थी तो वो कहां थी!”
“अब टलने का क्या लोगे?”
“टल तो मैं फ्री में जाऊँगा लेकिन दो मिनट बात हो जाती तो अहसान होता।”
“यानी दो मिनट बाद टलोगे?”
“आपका हुक्म होगा तो।”
“ओके। करो बात।”
“दो मिनट बैठ जाते तो ....”
“मैंने तुमसे बात करना कुबूल किया है, सिर पर बिठाना कुबूल नहीं किया। ऐसे ही बोलो।”
“हुक्म सिर माथे। सुनिए। दो हफ्ते पहले तारदेव थाने का कदम नाम का एक सब-इन्स्पेक्टर आपको बन्दरगाह के इलाके से पकड़ कर अपने थाने लेकर आया था और आपको वहां एसएचओ उत्तमराव भारकर के हवाले किया था। याद आया?”
“आगे बढ़ो।”
“कहने वाले कहते हैं कि आप ड्रग्स के साथ पकड़ी गई थीं, थाने में आपकी बाकायदा जामातलाशी हुई थी और तलाशी में आपके पास से एस्टेसी नाम के पार्टी ड्रग की गोलियाँ बरामद हुई थीं। आप रंगे हाथों पकड़ी गई थीं, बावजूद इसके न कोई केस दर्ज हुआ था, न कहीं बरामदी दर्ज हुई थी और आपको वहां से चला जाने दिया गया था। ऐसा क्योंकर हो पाया?”
“कौन हैं वो कहने वाले जो कहते हैं?”
“हैं ही कोई।”
“नाम लो उनका।”
“हैं ही कोई। ख़ामख़ाह तो कुछ नहीं होता! बेबुनियाद तो कुछ नहीं होता! कहीं धुआं उठता है तो वहां आग भी होती ही है!”
“कहां देखा धुंआ? कैसे देखा? कब देखा?”
“मैडम, मीडिया को बहुत जानकारी है जो गुमनामी की शर्त पर हासिल होती है। ज़िम्मेदार, कमिटिड मीडिया पर्सन कभी जानकारी का अपना ज़रिया उजागर नहीं करता। ए न्यूज़पेपर मैन नैवर रिवील्ज़ हिज़ सोर्स ऑफ इन्फो। यकीन जानिए मैंने कोई बात हवाबाज़ी में नहीं कही है। कोई तीर अन्धेरे में नहीं छोड़ा है।”
“बात खत्म हो गई?”
“नहीं, अभी बाकी है। आपका हिन्ट पकड़ा मैंने। बोलता हूँ आगे। बकौल आशीश पारेख, मैनेजर ‘स्पैक्ट्रा’ बार, बन्दरगाह का इलाका एक अरसे से आपका कार्यक्षेत्र था, एक अरसे से आप वहां से ऑपरेट कर रही थीं फिर भी थाने से निजात पाते ही आप वहां से गायब हो गई , साउथएण्ड से ही गायब हो गईं। गायब भी ऐसी हुई कि अपने मौजूदा मुकाम के बारे में आप किसी को कोई हिन्ट तक देने को तैयार नहीं थीं, आशीश पारेख को भी नहीं, जो कि फैलो गुजराती होने के नाते आपका फ्रेंड था, वैलविशर था। आप इस बात को भी खातिर में न लाई कि एक अरसे से आप पोर्ट एरिया में सैट थीं और वहां से अपना धन्धा कन्डक्ट कर रही थीं जबकि थोड़े किए यं जमा जमाया धन्धा छोड़ के – खड़े पैर छोड़ के - कोई नहीं जाता।”
“वो मेरा नुकसान है। तुम्हें क्या प्रॉब्लम है?”
“नुकसान से कोई प्रॉब्लम नहीं – नफा नुकसान आपका है, उसकी आपको बेहतर समझ है – लेकिन साउथएण्ड से आपके एकाएक ग़ायब हो जाने से प्रॉब्लम है। हर बात की कोई वजह होती है, वो वजह मेरे को मालूम होनी चाहिए।”
“क्यों मालूम होनी चाहिए?”
“क्योंकि मैं पत्रकार हूँ, ख़बरची हूँ और ख़बरें सूंघना मेरा कारोबार है। क्यों एक थाने के थानेदार ने आपको ड्रग्स के साथ पकड़ा होने के बावजूद छोड़ दिया, बिना ड्रग्स की वसूली रिकॉर्ड किए, बिना कोई केस दर्ज किए छोड़ दिया? क्यों छूटते ही आपने यूं पोर्ट एरिया से किनारा किया जैसे पीछे प्रेत लगे हों। हालात से साफ ज़ाहिर हो रहा है कि जो आपने आनन-फानन किया, वो किसी दबाव के तहत किया। वाणी को और मुखर करूँ तो तारदेव थाने के एसएचओ उत्तमराव भारकर के दबाव में किया। अन्धे को भी दिखाई दे रहा है कि आपको मजबूर किया गया साउथएण्ड छोड़ने के लिए और - बिज़नेस ऑर नो बिज़नेस - इस हिदायत के साथ कहीं दूर निकल जाने के लिए कि आइन्दा कभी आप साउथएण्ड के करीब न फटकें। कोंपल जी, वो क्या मजबूरी थी जिसने आपको खड़े पैर दरबदर किया? आप पर क्या दबाव है जिसके तहत तारदेव थाने में आपके साथ जो बीती, उसे आप ज़ुबान पर नहीं लाना चाहतीं?”
“मैं नहीं बता सकती।” – उसके स्वर में दृढ़ता का पुट आया।
“क्यों नहीं बना सकतीं? कौन रोकेगा आपको उस बाबत जुबान खोलने से? फिर भी आप ज़ुबान खोलेंगी तो वो आपका क्या बिगाड़ लेगा?”
“मैं नहीं बता सकती। पीछा नहीं छोड़ रहे हो, इसलिए बस इतना कह सकती हूँ कि मेरी ज़ुबान को हमेशा के लिए ताला ही मेरी सलामती की गारन्टी हो सकता है . . . अभी सुनते रहो, बीच में न टोको, टोकोगे तो जो सुन रहे हो वो भी नहीं सुन पाओगे . . . तुम बात को यूं समझो कि मैं अकेली औरत, मजबूर औरत जो भारी जद्दोजहद से चार पैसे कमा पाती है ताकि उसे भूखी न सोना पड़े, किसी से बैर मौल लेना अफोर्ड नहीं कर सकती। और कोई भी कौन? हाकिम! पुलिस का बड़ा, ताकतवर हाकिम! एक थाने का थानेदार!”
“वो चाहता है कि आप किसी मामले में अपनी जुबान बन्द रखें?”
“हां।”
“नहीं रखेंगी तो क्या होगा? फिर गिरफ्तार कर ली जाएंगी?”
“जान से जाऊँगी। यकीनी तौर पर।”
“समाज में इतना अन्धेर नहीं है अभी।”
“इतना ही अन्धेर है। इससे ज़्यादा है। जाबर की मुखालफत करके उसके क़हर से कोई नहीं बच सकता।”
“जाबर एक पुलिस ऑफिसर! एक थाने का थाना प्रभारी!”
“कोई भी। मिस्टर रिपोर्टर, मेरी जुबान बन्द है, फिर भी मेरी जान को खतरा है, जुबान खोलकर कैसे मैं ज़िन्दा कर पाऊंगी?”
झालानी अवाक् उसका मुंह देखने लगा।
“अब मेरे पर रहम खाओ और मेरी जान छोड़ो। मैं तुम्हें कुछ नहीं बता सकती। मजबूर करोगे तो . . . हाकिम से ज़्यादा ज़ुल्म करोगे। इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं कहना।”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“एक बात और।” – फिर वो यूं बोली जैसे कोई भूली बात याद आ गई हो - “मेरे लिए हैरानी की बात है कि तुम यहां पहुंच गए और मेरे सामने आ खड़े हुए। ताकीद है कि आइन्दा तुम मुझे यहां नहीं पाओगे। तुम्हारे मुंह फेरते ही मैं यहां से चली जाऊँगा, फिर टैक्नॉलोजी मॉडर्न हो या अल्ट्रा मॉडर्न हो, मेरी हवा नहीं पा सकोगे। इस सिलसिले में अपनी नादानी से मैं एक बार चूक गई, दोबारा मेरे को ऐसी गलती करते नहीं पाओगे। मैं नहीं मिलूंगी, भले ही करतबी मोबाइल लोकेशन ट्रैकिंग पर तुम्हारा कितना भी फेथ हो। समझ गए?”
“समझ तो गया लेकिन . . .”
“ये फ्लैट मेरी एक फ्रेंड का है जो यहां अकेली रहती है इसलिए कुछ दिन के लिए उसने मुझे यहां शरण देना कुबूल किया था। अब मुझे कोई और आसरा तलाश करना होगा, दिक्कत होगी लेकिन करूँगी।”
“आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं होगी।” – झालानी निर्णायक भाव से बोला – “आप शौक से यहीं रहें, फिर कभी आपको मेरी शक्ल नहीं दिखाई देगी। मेरा काम जानकारी हासिल करना है, इस सिलसिले में किसी के गले पड़ना नहीं है क्योंकि मैं स्क्राइब हूँ, पुलिस नहीं हूँ। मैं दरख्वास्त कर सकता हूँ, इसरार कर सकता हूँ, जानकारी हासिल करने के लिए ज़बरदस्ती नहीं कर सकता। जबरदस्ती गुंडे बदमाशों का काम है या . . . पुलिस का। मैं तो सिर्फ आप सरीखे शहरी की कॉशंस को कचोट सकता हूँ। बहरहाल, आप यहीं रहिए, मेरी वजह से आपको कोई परेशानी नहीं होगी। आपकी इजाज़त के बिना मैं आपके करीब भी नहीं फटकूगा। ये पंकज झालानी का वादा है। ये ‘एक्सप्रैस’ का आश्वासन है।”
वो आश्वस्त दिखाई देने लगी।
“ये मेरा विज़िटिंग कार्ड है, इस पर मोबाइल समेत मेरे कई नम्बर दर्ज हैं। कभी ख़याल बदल जाए जो फोन लगाइएगा।”
वो पहले ही इंकार में सिर हिलाने लगी। “हालात बदले पाएं तो कम से कम तब तो फोन कीजिएगा!”
“हालात कैसे बदल जाएंगे?”
“इस बाबत मैं कुछ नहीं कहना चाहता, सिवाय इसके कि जाबर ने भी अमृत नहीं पिया होता। कुछ फैसले इंसान के हाथ में होते हैं तो कुछ फैसले भगवान के हाथ में भी होते हैं। भगवान का फैसला कभी आपको अपने हक में होता लगे तो फोन कीजिएगा।” – उसने अपलक कोंपल की तरफ देखा – “करेंगी?”
कोंपल ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“गॉड ब्लैस यू, मैमा”
सर्वेश सावंत पशेमान था।
सात दिन पहले की खूनी वारदात ने उसे अन्दर तक हिला दिया था। उसके पार्टनर के साथ जो डबल ट्रेजेडी हुई थी, उसने पुणे से आए उसके मां बाप का ये हाल कर दिया था जैसे कि अभी मरे कि मरे। दिन में रोज़ वो उनका हालचाल पूछने, उन को सांत्वना देने तुलसीवाडी जाता था। कभी नहीं जा पाता था तो बार के क्लोजिंग टाइम से दो घन्टे पहले उठकर जाता था और फिर बार में वापिस नहीं लौटता था, सीधा घर जाता था।
आज ऐसा ही दिन था।
वो अपनी कार ड्राइव कर रहा था जबकि उसे अहसास हुआ कि पीछे कोई था। तत्काल उसने कार को साइड में रोका और डोम लाइट जलाई।
पिछली सीट पर विनायक घटके मौजूद था।
“हल्लो बोलता है बाप, अंग्रेज का माफिक।”– वो सहज भाव से बोला।
“त!” – सावंत भौंचक्का सा बोला – “यहां!”
“अभी है न! और बाप, रिस्पैक्ट से बोलने का। मैं बोला न, रिस्पैक्ट से!”
“तू साला टपोरी!”
“पहले परेरा बॉस का इम्पॉर्टेट कर के भीड़। भूल गया तो याद दिलाता है।”
“भीतर कैसे घुसा?”
“मामूली लॉक! मामूली काम? ऐसे घुसा।”
“वजह?”
“तुम साला अपने बार में सी सी करके टीवी फिक्स करके रखा। अपुन को साला मालूम थाइच नहीं। साला कैमरा में मेरा विजिट रिकॉर्ड हुआ, मेरे को पिराब्लम। इस वास्ते इधर।”
“क्यों?”
“बात करना मांगता है न!”
“तू क्या बात करना मांगता है?”
“बोले तो अपना बात कोई नहीं। परेरा बॉस का बात करना मांगता है न, जो एक टेम पहले भी किया पण वो टेम साला कान से मक्खी उड़ाया। नतीजा देखा न!”
“तूने मेरे पार्टनर का और उसकी बीवी का खून किया। साले, तू नहीं बच सकता।
“काहे बोम मारता है, बाप! वो काम तो वो पुलिसवाला किया जो टंग गया खुदीच। अभी पूछो वो क्यों किया?”
“क-क्यों किया?”
“क्योंकि मेरा माफिक वो भी परेरा बॉस का ख़ास।”
“नॉनसेंस! गैट आउट।”
“क्या बोला, बाप?”
“बाहर निकला”
“अभी बात करता है, न!”
“बाहर निकल।”
“अभी। अभी पहले तुम्हेरे को याद दिलाना मांगता है, बाप, कि परेरा बॉस जो मांगता है, वो मांगता है। परेरा बॉस की पीठ पर कराची वाले ‘भाई’ का हाथ है, इस वास्ते जो वो मांगता है, हासिल करके रहता है। एक बार तुम उसकी मांग को नक्की बोला तो नतीजा देख लिया?”
“क्या करेगा? मेरे को भी मार देगा?”
“नहीं। परेरा बॉस को दूसरा पार्टनर – जो अभी जिन्दा है, जो कि सर्वेश सावन्त है, जो कि तुम है – जिन्दा मांगता है, कोऑपरेटिव करके माईंड का जो फ्रेम होता है, उसमें जिन्दा मांगता है। परेरा बॉस को ऑलिव बार में पाटर्नरशिप मांगता है, साला एक पार्टनर भी पीछू सलामत नहीं होगा तो पार्टनरशिप साला किससे करेगा?”
सावन्त के चेहरे पर असमंजस के भाव आए।
“परेरा बॉस बहुत इस्ट्रेट कर के भीड़ है, खाली-पीली में पिराब्लम नहीं मांगता, गलाटा नहीं मांगता, पंगा नहीं मांगता, इस वास्ते उसको पक्की कि जब पिछले हफ्ते का तुलसीवाडी का गलाटा फिनिश हो जाएगा तो तुम ख़ुद ही परेरा बॉस को अप्रोच करेगा और सुलह की कोई सूरत निकालेगा। नहीं निकालेगा तो वो बोलेगा कि तुम पंगा लेता है। अभी पंगे का जवाब तो कड़क कर देने का न परेरा बॉस को!”
“क्या करेगा? मेरे पार्टनर की तरह मेरे को मार नहीं देगा तो क्या करेगा?”
“मालूम पड़ेगा न! पहले भी जो हुआ, हो चुकने के बाद ही मालूम पड़ा न!”
“फिर भी बोल, क्या करेगा?”
“क्या बोलेगा, बाप। अभी जो मैं बोले, वो पक्की करने का।”
“क्या?”
“खार में रहता है न! फैंसी फिलेट में?”
“तो?”
“विधवा मां! बीवी! तीन बच्चे! तीनों लड़कियां! क्या?”
सावंत का दिल ज़ोर से धड़का।
“बाप, किस को पहले कमती देखना पसन्द करेगा?”
सावन्त को अपना कलेजा उछल कर मुंह को आता लगा।
“तेरा बॉस इतना जुल्म करेगा? एक मासूम बच्ची को ...”
“ऐसे मौके पर बॉस बोलता है कुछ।”
“क्या?”
“पर्सनल कर के कुछ नहीं। खाली बिजनेस।”
“मैं . . . मैं पुलिस प्रोटेक्शन हासिल करूँगा।”
“करना। फिर देखना कब तक पुलिस प्रोटेक्ट करती है!”
सावंत ने ज़ोर से थूक निगली।
“पुलिस किसी को हमेशा प्रोटेक्शन देती नहीं रह सकती। कोई बड़ा नेता हो तो बात दूसरा है। पण तुम तो बड़ा नेता है नहीं। बॉस वेट करेगा, टेम आएगा तो एक्ट करेगा। तुम टिराई करना पुलिस प्रोटेक्शन।”
“मैं तेरे बॉस के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराऊंगा।”
“कराना। साला कुछ हाथ नहीं आएगा। पुलिस पहले तो रपट दर्ज ही नहीं करेगी, करेगी तो कुछ साबित नहीं कर पाएगी।”
सावंत के चेहरे पर चिन्ता के भाव गहन हो गए।
“अभी मेरे को, बोले तो परेरा बॉस को, फाइनल कर के जवाब मांगता
सावंत ख़ामोश रहा।
“बोले तो जवाब न देना भी जवाब! जाता है, बाप, गुड नाइट बोल के।”
घटके ने डोर हैंडल की तरफ हाथ बढ़ाया।
“ठहर!” – सावंत एकाएक व्यग्र भाव से बोला – “ठहर जरा।”
घटके के हैंडल से हाथ वापिस खींच लिया और घूमकर सावंत पर सवालिया निगाह डाली।
“टाइम!” – सावंत दबे स्वर में बोला – “टाइम मांगता है मेरे को।”
“किस वास्ते? बॉस के आफर पर सोचने का वास्ते ....”
“सोच तो मैं चुका।”
“. . . या उसपर एक्ट करने का वास्ते?”
“एक्ट करने के वास्ते।”
“बोले तो बढ़िया। गुड न्यूज। बॉस खुश होगा।”
“मेरे को टाइम चाहिए।”
“काहे?”
“अरे, ऑलिव बार पार्टनरशिप बिजनेस है। अभी एक पार्टनर मर गया तो उसकी फैमिली के साथ ...”
“फैमिली भी किधर? बीवी भी मर गई। बच्चे थे नहीं!”
“मां बाप तो हैं! वो पहले ही सवाल कर रहे हैं कि पार्टनरशिप कैसे सैटल होगी!”
“कैसे होगी?”
“दो तरीके हैं। या तो वो अपना हिस्सा एकमुश्त कबूल कर लेंगे या नायक की जगह वो पार्टनर बने रहेंगे।”
“वान्दा किधर?”
“वान्दा पहली आप्शन में है। अगर उन्होंने एकमुश्त हिस्से की मांग की तो इतनी बड़ी रकम मैं खड़े पैर अदा नहीं कर पाऊंगा।”
“इस वास्ते टेम मांगता है?”
“हां।”
“कितना?”
“पन्द्रह दिन।”
“नक्को।” – घटके ने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।
“वॉट नक्को! ये फैसला तूने करना है या तेरे बॉस ने करना है?”
“मेरे को करने का। ये टेम बॉस मेरे को फुल पावर दिया।”
“ओह! तो एक हफ्ता!”
“तीन दिन।”
“क्या! अरे, इतने कम टेम में ...”
“बाप, उन लोगों को दूसरा, जो तू ऑप्शन करके बोला, कुबूल तो काहे वास्ते तुम्हेरे को ज्यास्ती टेम मांगना होएंगा?”
“अगर पहला ऑप्शन .....”
“तो बॉस को कान्टैक्ट करना। अभी तीन दिन फाइनल। क्या!”
सावंत ने अवसादपूर्ण भाव से सहमति में सिर हिलाया।
रात को डेढ़ बजा था जबकि जसमिन अपने फ्लैट पर पहुंची।
उसका फ्लैट बधवार पार्क कोलाबा के रेलवे क्वार्टर्स में था। क्वार्टर सरकारी थे लेकिन जिनको अलॉट होते थे, वो उनको आम सबलेट करते थे और किराया बिना रसीद जारी किए नकद पाते थे।
ऐसा ही एक क्वार्टर जसमिन के कब्जे में था।
वो क्वार्टर अंग्रेज़ के टाइम के बने हुए थे इसलिए उनके निर्माण में आज के बेतहाशा महंगाई के टाइम की किफायत नहीं बरती गई थीं। छतें नार्मल से कहीं ऊंची थीं और बाहरी खिड़कियों दरवाज़ों के ऊपर छत के साथ लगे रौशनदान थे जो आज के वक्त में शायद ही कभी खोले जाते थे। यही हाल बैठक में मौजूद आतिशदान का था जिसमें कभी आग नहीं जलाई जाती थी – अब मुम्बई में इतनी ठण्ड पड़ती ही नहीं थी कि आतिशदान में आग जलाने की नौबत आती। किचन और बाथरूम फ्लैट के इकलौते बैडरूम से बस ज़रा ही छोटे थे। बाथरूम में अंग्रेज़ों की निशानी, एक बाथ टब था जो कि बतौर बाथ टब कभी इस्तेमाल नहीं होता था, ख़ाली मैले कपड़े डम्प करने के काम आता था।
उसका फ्लैट दूसरी मंज़िल पर था। उसने मेन डोर का ताला खोला और दरवाज़े को भीतर की तरफ धक्का दिया।
रात डेढ़-दो बजे ‘ब्लैक ट्यूलिप’ से उसकी वापिसी उसके लिए आम बात थी। वो बार से डिनर करके आती थी, वहां पहुंचते ही सो जाती थी और अक्सर दोपहर से पहले नहीं उठती थी।
उसने फ्लैट के भीतर कदम रखा तो अनायास उसे अहसास हुआ कि भीतर कोई था।
फिर ख़ुद ही उसे अपनी बात बेबुनियाद लगने लगी।
फ्लैट से आवाजाही का एक ही रास्ता था जिसका ताला खोलकर वो भीतर दाखिल हुई थी। कैसे कोई भीतर हो सकता था? था तो उसकी आमद पर भी ख़ामोश क्यों था?
नॉनसेंस!
सब उसके थके हुए दिमाग का फितूर था।
उसने मेनडोर को भीतर से बन्द किया और बिजली का स्विच आन किया।
एक सोफाचेयर पर दरवाज़े की ओर मुंह किए उत्तमराव भारकर बैठा था।
उसके प्राण कांप गए। दिल इतनी जोर से उछला कि मुंह को आता लगा। चेहरे से यूं खून निचुड़ा जैसे बेहोश होने लगी हो।
“हल्लो!” – वो सहज भाव से मुस्कराता बोला – “वैलकम होम!”
“तु-तुम!”
“और कौन!”
“भीतर कैसे आए!”
“मैं हवा हूँ, मुझे कहीं आने से कौन रोक सकता है!”
“मज़ाक न करो।”
“भई, मैं थानेदार हूँ, थाने के मालखाने में ऐसा पकड़ा गया बहुत माल होता है जो थाना प्रभारी के कन्ट्रोल में होता है। हाल में एक लॉकबस्टर पकड़ा गया था जिसकी प्रोफेशनल टूल किट, की-ब्लैंक्स, मास्टर-कीज़ जैसा सब साजोसामान मालखाने में जमा था। काम आया न आज!”
“मतलब जान सकती हूँ मैं इस हरकत का?”
“मतलब से तू नावाकिफ नहीं है, खाली ये बात तेरे को परेशान कर रही है कि रात की इस घड़ी मैं तेरे लाक्ड फ्लैट के भीतर मौजूद हूँ।”
“क्यों मौजूद हो? क्या साबित करना चाहते हो इस बेहूदा, गैरकानूनी हरकत से? कैसे पुलिस वाले हो तुम?”
“सच पूछे तो मैं तेरे को यही समझाने आया हूँ कि कैसा पुलिस वाला हूँ मैं।”
“कैसे पुलिस वाले हो?”
“उस काले नाग जैसा पुलिस वाला हूँ जिसका काटा पानी नहीं मांगता।”
“यूं अभी कितनी बार डराओगे?”
भारकर दान्त किटकिटाने लगा।
“पता नहीं कब से यहां हो! अब तक फ्लैट की कोई जगह छोड़ी तो नहीं होगी वीडियो क्लिप की तलाश में! या मैं जल्दी आ गई और इस वजह से तलाशी मुकम्मल न हो पाई, कुछ जगह रह गईं पड़ताल से!”
भारकर ने उत्तर न दिया।
“तुम एक बात भूल रहे हो। वो वीडियो क्लिप रहे या न रहे, तुम्हारी वहशी करतूत की चश्मदीद गवाह मैं फिर भी हूँ। कैसे मेरी आंखों के सामने तुमने अनिल गोरे को, अपने मातहत को, उसके घर में सूली पर लटकाया था, ये मैं भूल नहीं गई हूँ!”
“तू मेरे खिलाफ गवाही देगी?”
“कल के कौल-करार से मुकरोगे तो कुछ तो करूँगी! मुझे तुम्हारी नीयत बद् होती जान पड़ती है। लेकिन जितना मर्जी जोर लगा लेना,मेरी मांग पर खरा उतर कर दिखाए बिना जिस शिकंजे में तुम जकड़े गए हो, उसससे नहीं निकल पाओगे। कोशिश करके देख लेना, कल का वक्त अभी है तुम्हारे पास।”
“तेरे पास भी है।”
“क्या बोला?”
“जोड़ीदार से मशवरा करना होगा न! आगे की कोई स्ट्रेटेजी सैट करनी होगी न!”
“जोड़ीदार से?”
“हां। है न?”
“है। उसी से तो परसों तुम्हें फोन कराया था।”
“एक ही है?”
“कई हैं। बारी-बारी पेश होंगे न!”
“उसकी बोल जिससे कहती है कि फोन कराया था। वो तो ज़रूर ख़ास होगा!”
“दिमाग तीखा पाया है। हर बात झट भांप जाते हो। बधाई। अब गुडनाइट बोलो और मेरे को सोने दो।”
भारकर उठ खड़ा हुआ और बोला – “मैं तेरे को लोरी दे के सुलाता हूँ न!”
“क्या बोला?”
“बोला नहीं, किया।”
“क्या?”
“ये।”
भारकर के हाथ में रेत से टुंसी एक जुराब प्रकट हुई जिसके खुले सिरे को गांठ लगी हुई थी। रेत भरी जुराब का भरपूर वार उसने जसमिन की खोपड़ी पर किया।
जसमिन के मुंह से कराह भी न निकली, उसकी आंखें मुंदने लगीं, शरीर लहराने लगा लेकिन इससे पहले कि वो बैठक के फर्श पर ढेर होती, भारकर ने उसे अपनी बांहों में थाम लिया।
जैसा वार उसने जसमिन पर किया था, वैसा रेतभरी थैली से किया जाने पर चमड़ी नहीं फटती थी, गूमड़ नहीं निकलता था। वो रेतभरी थैली भी उसे मालखाने में तभी दिखाई दी थी जबकि वो मालखाने में जेबकतरे की टूल किट और चाबियां कब्ज़ा रहा था।
उसकी बांहों में ही जसमिन की चेतना लुप्त हो गई।
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