रूपा ने एक शानदार होटल के बाहर ही फुटपाथ पर कार खड़ी की और होटल में प्रवेश कर गयी। कुछ आगे जाने पर उसे पैंतालीस बरस का एक व्यक्ति खड़ा मिला, जिसने कीमती कपड़े पहन रखे थे। वह तुरंत रूपा के पास आया।
"नमस्कार रानी साहिबा!"
"कैसे हो वासु?"
"आपकी दया से ठीक हूँ रानी साहिबा।"
"पैसे लाये हो?"
"जी!"
"ठीक है। चलो, अब हम वापस चलेंगे। परन्तु रास्ते में थोड़ा सा काम है, इधर ही मुम्बई में।"
"जो हुक्म!"
"30-30 लाख दो जगह अलग निकाल लो। देना है किसी को।"
"जी! होटल के भीतर नहीं चलेंगी? चाय-कॉफ़ी या कोल्ड ड्रिंक के लिए?" वासु ने पूछा।
"मैं वक़्त बर्बाद करना नहीं चाहती।"
उसके बाद रूपा को वहाँ से चलने में सिर्फ पंद्रह मिनट लगे। लम्बी कार थी वह। वर्दीधारी ड्राइवर चला रहा था। वासु आगे वाली सीट पर ही, ड्राइवर के बगल में बैठा था। पीछे वाली सीट पर रूपा मौजूद थी। थोड़ा-बहुत सामान भी था कार में।
वासु ने गर्दन घुमाकर पीछे बैठी रूपा को देखते हुए कहा-
"सीट पर 30-30 लाख के दो लिफाफे रखे हैं।"
रूपा ने फोन निकाला और महेश से बात की।
"कहाँ हो तुम दोनों?" रूपा ने पूछा।
"होटल में।" महेश की आवाज रूपा के कानों में पड़ी।
"होटल का नाम और कमरा नम्बर बताओ?"
उधर से महेश ने बताया तो रूपा ने कहा-
"मैं कुछ ही देर में तुम दोनों के पास पहुँच रही हूँ।" कहकर रूपा ने फोन बंद किया। फिर रूपा ने वासु को बताया कि उसे कहाँ पर जाना है।
■■■
रूपा ने लिफाफा थामे कमरे में प्रवेश किया तो महेश और रंजन वहाँ पहले से ही मौजूद थे।
"दीपक की कोई खबर?"
"नहीं!" रंजन ने इंकार में सिर हिलाया।
"इन लिफाफों में तीस-तीस लाख रुपया है। बीस-बीस तुम लोगों को पहले ही मिल चुके हैं। मैंने हर एक को 50-50 लाख देने का वादा किया था और मैंने अपना वादा पूरा किया।"
दोनों ने एक-एक लिफाफा थाम लिया। रंजन बोला-
"दीपक का क्या होगा?"
"वह नहीं मिल रहा तो मैं उसके बारे में कुछ नहीं कर सकती। एक बार फिर उसके घर पर फोन करके देख लेती हूँ।"
रूपा ने दीपक के घर फोन किया। परन्तु उसकी माँ ने ही फोन उठाया। यही जवाब मिला कि दीपक का न ही फोन आया और न ही वह खुद।
"काम खत्म। अब तुम लोग आजाद हो।" रूपा ने कहा, "आज के बाद कभी अपनी सोचों में भी मत लाना कि तुम लोगों ने मेरे लिए कोई काम किया है। मेरा चेहरा भी भूल जाना। आपस में कभी मिलना मत। सामने पड़ो तो एक-दूसरे को पहचानना मत। यही भले की बात है।"
दोनों ने सहमति से सिर हिलाया।
"वे नेगेटिव मेरे हवाले करो।" रूपा ने कहा।
रंजन ने एक छोटा सा लिफाफा निकालकर रूपा की तरफ बढ़ा दिया। रूपा ने नेगेटिव चेक किये। सब ठीक पाकर वह होटल से बाहर निकल आयी।
बाहर खड़ी कार में बैठी और बोली-
"चलो वासु!"
ड्राइवर ने उसी पल कार आगे बढ़ा दी।
"यह लिफाफा सम्भाल कर रखो।" रूपा वासु को नेगेटिव वाला लिफाफा देते हुए कह उठी।
वासु ने लिफाफा थामा और पाँवों के पास पड़े बैग में रख दिया।
"कोई और काम रानी साहिबा?" वासु ने पूछा।
"नहीं!"
"तो वापस चले?"
"हाँ!" रूपा ने आँखें बंद कर लीं।
कार तेजी से आगे बढ़ गयी।
सवा घण्टे बाद ही कार मुम्बई से आगे निकल रही थी। कार एक पुल से निकली। नीचे पानी था। रूपा ने पास पड़ा मोबाइल फोन उठाया और खिड़की का शीशा नीचे करते हुए पानी में फेंक दिया और फिर शीशा चढ़ा लिया।
"मेरा बैग दो।"
वासु ने छोटा सा लेडीज बैग फौरन रूपा को दिया।
"रानी साहिबा!" वासु बोला, "आपने बहुत साधारण कपड़े पहन रखे हैं। इन्हें पहनकर आपका वहाँ पहुँचना ठीक नहीं होगा।"
"रास्ते में किसी होटल में चेंज कर लूँगी।"
"जी! यह ठीक रहेगा।"
कार तेजी से दौड़ी जा रही थी। रूपा शीशे से बाहर देखने लगी थी। चेहरे पर सोच के गंभीर भाव थे।
यह किसी को पता नहीं था कि पीछे कार में देवली और जगत पाल, उनकी कार के पीछे लगे हुए हैं।
"रानी साहिबा!" वासु बोला, "वहाँ की खबरें बताऊँ कि वहाँ क्या-क्या हो रहा है?"
"अभी मुझे आराम करने दो।" रूपा ने शांत स्वर में कहा।
■■■
रूपा को गए कई घण्टे बीत चुके थे।
अब शाम के सात बज रहे थे। कमरे में अंधेरा हो चुका था। मुरली ने आकर लाइट ऑन की।
"मालिक, आपको क्या हो गया है?" मुरली दुखी स्वर में बोला, "कुछ दिन से आप...।"
"एक पैग बना ला मुरली!" वालिया एकाएक उठता है बोला।
मुरली खामोशी से बाहर निकल गया। वालिया उस टेबल के पास पहुँचा जिसके दराज में तस्वीरें रखी थीं, जो कि उसे फँसा सकती थीं। उन तस्वीरों को निकालकर उन्हें जर्रा-जर्रा करके फाड़ना शुरू किया। तस्वीरों को अपने पास रखने में खतरा था। तस्वीरें फाड़ते समय उसकी आँखों के सामने रूपा का चेहरा नाच रहा था। उसका खून खौल रहा था कि उसके साथ इतना कुछ करके रूपा बच निकली। वह कभी उसके हाथों से न बचती, अगर जगन्नाथ सेठी की हत्या वाली तस्वीरों ने उसे बेबस न कर दिया होता।
क्या बहुत सधा हुआ खेल खेला था। उसे इस तरह घेरा कि वह कुछ भी न कर सका था। वह जमीनें भी रूपा ने दान में दिलवा दी थी। उसका कहा मानना पड़ा। वरना वह तस्वीरें पुलिस को देकर, उसे कानून के हाथों में फँसा सकती थी। लेकिन उन जमीनों पर आधा हक देवराज चौहान का था।
अब देवराज चौहान को क्या जवाब देगा? देवराज चौहान और जगमोहन उसे छोड़ेंगे नहीं।
मुरली पैग तैयार करके वहाँ रख गया था। वालिया ने एक ही बार में सारा गिलास खाली कर दिया। मन के भीतर बेचैनी थी जो कि उसे और उसकी विचारधारा को कहीं भी टिकने न दे रही थी।कल अखबारों में उसकी जमीनों के बारे में छपेगा तो देवराज चौहान और जगमोहन को पता चल जाएगा। इससे पहले कि वह फोन करें, उसे ही सारी बात बता देनी चाहिए और इस मामले में उनसे सहायता भी माँगेगा कि रूपा से उसकी बर्बादी का बदला लें।
सबसे ज्यादा तो इस बात को लेकर परेशान था कि आखिर रूपा ने उससे किस बात का बदला लिया है। कई बार पूछने पर भी रूपा ने उसे नहीं बताया था। यह कैसी सजा थी कि उसे उसका जुर्म भी नहीं बताया गया था।
वालिया ने देवराज चौहान को फोन लगाया। जगमोहन से बात हो गयी।
"कहो वालिया!" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।
"मैं... मैं देवराज चौहान से मिलना चाहता हूँ।" वालिया ने थके स्वर में कहा।
"क्या बात है?"
"बहुत ही खास बात है। फोन पर नहीं हो सकती।"
"होल्ड करो।"
कुछ देर लाइन पर चुप्पी रही फिर जगमोहन का स्वर कानों में पड़ा-
"देवराज चौहान का कहना है कि वहीं पर मिलो, जहाँ पिछली बार मिले थे।"
"कितने बजे?"
"आठ से साढ़े आठ के बीच।"
"ठीक है!" वालिया ने गहरी साँस ली और फोन बंद कर दिया।
■■■
वालिया उसी रेस्टोरेंट में देवराज चौहान और जगमोहन से मिला। उन्हें सारी बात बताई। सुनते ही जगमोहन हत्थे से उखड़ गया।
"तुम्हारी हिम्मत कैसी हुई, उन जमीनों को दान देने की। उनमें आधा हिस्सा हमारा था।"
"मैंने बताया है कि यह सब किस स्थिति में मुझे करना पड़ा।" वालिया मरे हुए स्वर में बोला।
"वे जमीनें 200 सौ करोड़ से ज्यादा की थीं।"
"यह क्यों भूलते हो कि वे मेरा आखिरी सहारा थीं। मैं तो पूरी तरह बर्बाद हो गया।" वालिया की आँखों में आँसू भर आये।
"एक तो तुम हमारा नुकसान पर नुकसान किये जा रहे हो, ऊपर से आँसू बहाने लगे।" जगमोहन ने गुस्से में कहा।
"रूपा ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।" वालिया रो पड़ा।
"तुम रेस्टोरेंट में बैठे हो।" देवराज चौहान बोला, "अपने पर काबू रखो।"
वालिया ने रुमाल निकालकर आँसुओं से भरा चेहरा साफ किया।
"तो रूपा ने तुम्हें यह नहीं बताया कि उसने किस बात का बदला तुमसे लिया?" देवराज चौहान बोला।
"नहीं बताया। मैंने बहुत पूछा, परन्तु नहीं बताया।"
"तो तुमने सोचा होगा कि जिंदगी में तुमने किसका बुरा किया?"
"सोच चुका हूँ। बहुत सोचा, परन्तु मुझे नहीं लगता कि मैंने किसी का बुरा किया हो।"
"तो तुम्हारा ख्याल है कि रूपा ने जानबूझकर, यूँ ही तुम्हें बर्बाद किया?"
वालिया के होंठ भिंच गए।
"जवाब दो।"
"सच बात तो यह है कि रूपा ने जो किया, उसकी उसके पास ठोस वजह अवश्य होगी। परन्तु उसे बताना चाहिए था कि आखिर मैंने जिंदगी में कहाँ पर गलती की। परन्तु उसका कहना था कि मैं इस बारे में सोचता रहूँ। यही मेरी सजा है।"
"बहुत खतरनाक औरत रही रूपा।" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
"वह चली गयी?"
"हाँ!" वालिया ने थके अंदाज में सिर हिलाया।
"अब तुम क्या चाहते हो?"
"यह क्या चाहेगा?" जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा, "इसने हमारा 482 करोड़ पहले डुबो दिया। अब बची-खुची जमीनें दान में...।"
"तुम चुप रहो। मुझे बात करने दो।"
जगमोहन ने होंठ भींचकर मुँह घुमा लिया।
"देवराज चौहान!" वालिया ने टूटे स्वर में कहा, "मैं नहीं जानता कि रूपा कौन है और कहाँ रहती है। शायद आसानी से उसे तलाश भी न कर सकूँ। तलाश कर लिया तो उसके पास इस बात के सबूत हैं कि मैंने दिल्ली में जगन्नाथ सेठी की हत्या की। यानी कि अगर मैं उसके खिलाफ कुछ करना चाहूँ, तो वो सबूत पुलिस को देकर मुझे फँसा देगी।"
देवराज चौहान की निगाह वालिया पर थी।
"मैं उससे अपनी बर्बादी का बदला नहीं ले सकता।"
"तो?"
"मैं चाहता हूँ कि मेरे लिए यह काम तुम करो। तुम रूपा को ऐसा सबक सिखाओ कि...।"
"वालिया!" देवराज चौहान गंभीर स्वर में कह उठा, "यह काम मुझे करना है या नहीं, उस स्थिति में मुझे फैसला लेने में आसानी होती, अगर मुझे पता होता कि रूपा ने तुम्हें क्यों बर्बाद किया है।"
"क्या मतलब?"
"क्या पता, रूपा ने जो किया हो वह ठीक हो। तुम इसी के हकदार रहे हो।"
"यह क्या कह रहे हो?" वालिया हक्का-बक्का रह गया।
"मैं ठीक कह रहा हूँ। जब तक मामले को मैं पूरा न जान लूँ, मेरा दखल देना ठीक नहीं।"
"तुम्हें मेरी बुरी हालत पर तरस खाकर, मेरा साथ देना चाहिए।"
"तो मुझे बताओ कि रूपा ने तुम्हें बर्बाद क्यों किया?" क्या वजह है इसके पीछे?" देवराज चौहान बोला।
"मैं नहीं जानता। रूपा ने मुझे बताया नहीं।"
"तो जो बातें मेरे सामने स्पष्ट न हो, उस मामले में मैं तुम्हारा साथ कैसे दे सकता हूँ?"
"मैं तुम्हारा पार्टनर रहा हूँ देवराज चौहान, तुम्हें कुछ तो मेरा लिहाज करना चाहिए।"
"वह तुम्हारा बिज़नेस था, यह मेरा बिज़नेस है। जब तक मेरे सामने स्थिति स्पष्ट न हो, मैं काम में हाथ नहीं डालता।"
"कुछ तो ख्याल करो। तुम मेरे पापा के वक़्त से वालिया कंस्ट्रक्शन के हिस्सेदार हो। तुम्हें मेरे काम आना चाहिए।"
"उसके लिए तुम्हें बताना होगा कि रूपा ने तुम्हें बर्बाद क्यों किया?"
"तुम क्या सोचते हो कि मुझे पता है और मैं तुम्हें नहीं बता रहा हूँ।" वालिया का स्वर तेज हो गया।
"मैं यह नहीं सोचता। यह सोचता हूँ कि मुझे मामले की पूरी जानकारी होनी चाहिए। उसके बाद ही मैं इस बात का फैसला कर सकूँगा कि मुझे तुम्हारा कहा काम, करना है या नहीं।"
"तुम, तुम मतलबी हो देवराज चौहान।"
"साले मुँह तोड़ दूँगा।" जगमोहन ने गुस्से से कहा।
"शांत रहो जगमोहन!" देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा।
"ये तुम्हारे बारे में...।"
"कहने दो। मेरे ख्याल में यह अजीबोगरीब स्थिति में फँसा पड़ा है। रूपा ने इसे तबाह कर दिया। पैसे-पैसे का मोहताज कर दिया; और तकलीफ वाली बात इसके लिए यह है कि रूपा ने ऐसा क्यों किया, इसे बताया भी नहीं।"
वालिया ने टूटे अंदाज में साँस ली।
"आज के वक़्त में दौलत पास न होना, किसी गुनाह जैसा होता है। दुनिया की असली तस्वीर तब नजर आती है, जब पास की दौलत खत्म हो जाये। दुनिया के असली रंग मैं अब देख रहा हूँ देवराज चौहान।"
"दोष तुम्हारा नहीं है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा, "इस वक़्त तुम ऐसे हालातों में फँसें हो कि तुम्हें हर बात उल्टी ही महसूस होगी। धोखा खाये इंसान को हर तरफ दुश्मन नजर आते हैं।"
"तो यह पक्का है कि तुम मेरे काम नहीं आओगे।"
"तुम चाहते हो कि रूपा से तुम्हारा बदला लूँ। मैं चाहता हूँ कि हालातों की जानकारी दो कि रूपा ने तुम्हें क्यों बर्बाद किया। इस बात का जवाब तुम्हारे पास नहीं है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी बात मानकर मैं रूपा के पीछे पड़ जाऊँ और बाद में मुझे पता चले कि रूपा ने जो किया, ठीक किया था। तुम इसी के हकदार थे। इसलिए मैं जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहता।"
वालिया के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान उभरी।
"ठीक है देवराज चौहान।" वालिया उठ खड़ा हुआ, "यह हमारी आखिरी मुलाकात थी। अब हम नहीं मिलेंगे।"
"मैं रुपये-पैसे के मामले में तुम्हारी सहायता करना चाहता हूँ।" देवराज चौहान बोला।
"क्या कह रहे हो?" जगमोहन हड़बड़ाकर बोला।
"मैंने कभी किसी से दान खाते में पैसा नहीं लिया देवराज चौहान।" वालिया गंभीर स्वर में बोला।
"बाद में लौटा देना।"
"नहीं! मुझे तुमसे कुछ भी नहीं लेना है।" वालिया ने कहा और पलटकर रेस्टोरेंट से बाहर निकल गया।
दोनों में कई पलों तक खामोशी रही।
"इस तरह तो यह पागल हो जाएगा।" जगमोहन ने कहा।
"हम कुछ नहीं कर सकते।" देवराज चौहान बोला, "बहुत बुरे हालातों में फँस चुका है यह। यह ये भी नहीं जानता कि रूपा ने इसे क्यों सजा दी।"
■■■
अगले दिन वालिया के पास दीपचंद आ पहुँचा। मुरली से दीपचंद के आने की खबर मिली तो वालिया ड्राइंगहाल में पहुँचा।
"कैसे हो वालिया?" पचपन बरस का दीपचंद उसे देखकर हँसा, "तुम्हारा बंगला तो बहुत शानदार है।"
वालिया गंभीर निगाहों से उसे देखता रहा। दोनों बैठे।
"तुम तो बहुत बड़े दानी निकले। आज अखबार में पढ़ा कि तुमने अपनी सारी जमीनें दान कर दी हैं।" दीपचंद कह उठा।
अजीब सी मुस्कान वालिया के होंठों पर तैरी और लुप्त हो गयी।
"मेरे पचास करोड़ कब दे रहे हो?" दीपचंद ने पूछा।
"पैसा नहीं है मेरे पास।"
"तो जमीनें तुमने यूँ ही दान कर दीं। कोई समस्या थी तो मेरे से बात कर ली होती।" दीपचंद ने कहा।
"तुम यह बंगला ले सकते हो।" वालिया बोला।
"ठीक है। मैं इसी से काम चला लूँगा। मेरी पत्नी कह भी रही थी बड़ा बंगला लेने को। कब खाली कर रहे हो?"
"खाली ही है। बस मुझे ही जाना है यहाँ से, अपने चंद कपड़े लेकर।"
दीपचंद ने गहरी नजरों से वालिया को देखा।
"तुम्हारा जमीनों को दान करना मेरी समझ से बाहर है। उन जमीनों के दम पर तुम खुद को फिर से खड़ा कर सकते थे।"
"इन बातों को छोड़ो दीपचंद। मैं दो-तीन दिन में बंगले से चला जाऊँगा। जाते वक्त तुम्हें फोन कर दूँगा।"
"दो-तीन दिन में, पक्का?"
"हाँ!"
"फिर तो तुम्हें बंगला मेरे नाम करना होगा।"
"कागज तैयार करा लो। मुझे फोन कर देना कि कोर्ट कब पहुँचना है।"
"ठीक है। लेकिन अब तुम करोगे क्या?"
"मालूम नहीं। तुम फोन करना मुझे।"
दीपचंद चला गया। वालिया सोफे पर बैठा गहरी सोच में डूबा रहा। तभी मुरली पास पहुँचा।
"मालिक...।"
"वालिया ने सिर उठाकर उसे देखा और शांत स्वर में बोला-
"तुम दूसरी नौकरी ढूँढ़ लो मुरली।"
मुरली की आँखें भर आईं।
"यह सब क्या हो गया मालिक?"
"जो हुआ है, उसका विश्वास तो अभी तक मुझे नहीं आ रहा है, तुम कैसे कुछ समझ पाओगे।"
"मालकिन भी कल से नहीं है।"
"वह गयी मुरली। हमेशा-हमेशा के लिए गयी। मुझे बर्बाद करने आयी थी और कर गयी। मैं नहीं जानता कि वह कौन थी उसका घर-बार क्या है। वह कहाँ से आयी थी। क्यों आयी थी। बस इतना जानता हूँ कि वह आँधी की तरह आयी और मुझे बर्बाद करके तूफान की तरह चली गयी।"
"मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा मालिक।"
"मैं समझा भी नहीं सकता। किसी को अपनी बर्बादी के बारे में बताने का मतलब है कि अपने को मुसीबत में डाल लेना।" वालिया ने थके हुए गंभीर स्वर में।कहा, "बाकी नौकरों से भी जाने को कह दो। जिसका जो भी पैसा बनता हो, वह लेता जाए।"
■■■
अगले दिन दीपचंद ने उसे कोर्ट बुलाकर, बंगला अपने नाम करा लिया था।
सब कुछ खत्म हो चुका था वालिया का।
वालिया ने अपने फोन से रूपा को कॉल करने की कई बार कोशिश की। परन्तु हर बार स्विच ऑफ ही आया। वह रूपा से बात करके उससे एक बार फिर पूछना चाहता था कि उसने ऐसा क्यों किया।
लेकिन बात नहीं हो पाई। उसका फोन ही नहीं मिल पा रहा था।
रूपा को गए हुए आज छः दिन हो चुके थे। वालिया बंगले पर ही रहा। वह इस बात की चेष्टा कर रहा था कि जिंदगी में किया गलत काम उसे याद आ जाये। परन्तु हर बार यही लगता कि उसने कभी किसी का बुरा नहीं किया।
दीपचंद का फोन आ चुका था कि बंगला खाली करा दे।
मुरली के अलावा बाकी सब नौकर जा चुके थे। वालिया ने आज बंगला छोड़ देने की सोची। बैंक में 10-15 लाख रुपया पड़ा था। यही उसकी जमा-पूँजी बची थी। उसने छोटे से सूटकेस में कुछ जोड़े कपड़े के डाले। चेहरा उतरा हुआ था। इस बंगले के साथ उसकी पुरानी यादें थीं। यहीं पैदा हुआ था। यहीं पला-बड़ा था।
तभी मुरली ने कमरे में प्रवेश किया। उसकी आँखें गीली थीं।
"मालिक!" मुरली बोला, "कोई मैडम आपसे मिलने आए हैं।"
"रूपा!" वालिया के होंठों से निकला।
"नहीं! वह अपना नाम देवली बता रही है। ड्राइंग रूम में है वह।"
"देवली! ओह!"
वालिया बंगले के ड्राइंग रूम में पहुँचा। वहाँ देवली को पाकर ठिठक गया। देवली उसे देखकर मुस्कुरायी।
"कैसे हो अजय?"
"कैसा हो सकता हूँ?" अजय के चेहरे पर फीकी सी मुस्कान उभरी, "मुझे आशा नहीं थी कि तुम आओगी।"
"मैंने तुम्हें कहा था कि तुम मुझे अच्छे लगते हो। मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ।"
"प्यार?" वालिया के चेहरे पर कड़वाहट आ ठहरी, "सब बकवास है।"
"नहीं अजय, ऐसा मत कहो। मेरा प्यार रूपा की तरह नहीं, देवली की तरह है। तुम्हें मुझपर भरोसा करना चाहिए।"
"सब पर से भरोसा उठ गया।" वालिया ने तीखे स्वर में कहा।
"लेकिन देर-सवेर में मुझ पर तुम्हारा भरोसा जम जाएगा।" देवली मुस्कुरायी, "मैं तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ।"
वालिया ने देवली को देखा। देवली ने लिफाफा उसके सामने किया।
"इसमें तुम्हारी तस्वीरें हैं, जब तुम जगन्नाथ सेठी की हत्या कर रहे थे। साथ में नेगेटिव भी हैं।" देवली बोली।
"नेगेटिव?" वालिया की आवाज काँप उठी। जिस्म में ठंडी सिरहन दौड़ती चली गयी।
"देख लो विश्वास आ जायेगा।"
वालिया ने झटककर देवली से लिफाफा लिया और उसके बीच हाथ डालकर भीतर का सामान निकाला।
तस्वीरों के साथ नेगेटिव भी बाहर आ गए।
तस्वीरें वही थी जो उसके पास थीं, जिन्हें उसने जर्रा-जर्रा करके फाड़ दिया था।
वालिया ने जल्दी से नेगेटिव देखा। वह उन्हीं तस्वीरों के नेगेटिव थे।
वालिया ने हक्की-बक्की निगाहों से देवली को देखा।
"मैंने कहा था न कि मैं बहुत कुछ कर सकती हूँ अजय।"
"लेकिन, लेकिन यह...।"
"बताऊँगी! सब कुछ बताऊँगी। अभी तो तुम मेरी बात सुनकर और भी खुश हो जाओगे अजय। लेकिन पहले ये नेगेटिव और तस्वीरें बेकार कर दो अजय। अपना हत्यारा होने का सबूत मिटा दो। उसके बाद बाकी बातें करते हैं।"
वालिया ने ऐसा ही किया।
कँपकँपाते हाथों से उसने तस्वीरों और नेगेटिव को बेकार कर दिया। नेगेटिव को उसने किचन में ले जाकर जला दिया। देवली ने इस काम में उसकी पूरी सहायता की।
"यह काम मैं भी कर सकती थी। लेकिन मैं चाहती थी कि तुम यह काम अपने हाथों से करो। इसमें तुम्हें खुशी मिलेगी।"
वालिया ने अपना चेहरा देवली की तरफ घुमाया तो देवली पल भर के लिए ठिठकी।
वालिया का चेहरा धधक रहा था।
"क्या हुआ अजय?" देवली ने उसका हाथ थाम लिया।
"मैं अब रूपा को नहीं छोड़ूँगा। उससे गिन-गिन कर बदल लूँगा। मार दूँगा उसे। उसने मुझे बर्बाद कर दिया है।" अजय दाँत पीसते हुए गुर्रा उठा, "वह जहाँ भी है, मैं उसे ढूँढ़ लूँगा। बेशक इस काम में मेरी जिंदगी ही क्यों न बीत जाए। मैं उस हरामजादी को नहीं छोड़ूँगा।"
"मैं तुम्हारे साथ हूँ अजय।" देवली ने प्यार से कहा।
वालिया ने देवली को देखा।
"मुझसे प्यार करते हो अजय?" देवली मुस्कुरायी, "नहीं करते तो करने लग जाना। मैं तुमसे प्यार करती हूँ। अब तो तुम्हारे पास दौलत भी नहीं है कि तुम यह सोचो कि मैं तुम्हारी दौलत के लिए तुमसे प्यार कर रही हूँ।"
देवली को देखता रहा वालिया, पर कुछ बोला नहीं।
"मैं देख आयी हूँ रूपा कहाँ रहती है।" देवली ने कहा।
"क्या?" वालिया के शरीर में जोरो का कंपन उठा, "तुम्हें पता है रूपा कहाँ है?"
"सब कुछ पता है।"
"मुझे बताओ देवली, वह कहाँ है? तुम... तुम्हें नेगेटिव कहाँ से मिला और...।"
"सब कुछ बताऊँगी। तुम अपनी कहो, मुरली ने बताया कि तुम बंगले से जा रहे हैं।"
"हाँ! यह बंगला अब दीपचंद का है। वह मुझे जाने को कह चुका है।" वालिया तड़प भरे स्वर में बोला।
"दुख तो बहुत हो रहा होगा बंगला छोड़ने का।"
"बहुत!" वालिया ने लम्बी साँस ली।
"मेरे साथ चलो अजय। अपने ही फ्लैट पर, जो तुमने मुझे लेकर दिया है। बाकी बातें वहीं करेंगे।"
"ठीक है।"
"मैं बाहर हूँ, आ जाना।"
देवली बाहर पहुँची। बंगले से कुछ हटकर खड़ी कार में जगत पाल बैठा था।
"उसे बता आयी सब कुछ?" जगत पाल ने उसके पास पहुँचते ही कहा।
"अभी नहीं!"
"नेगेटिव देकर उसे खुश भी नहीं किया?" जगत पाल मुस्कुराया।
"कर दिया।"
"वाह मेरी जान! मेहनत मेरी और बल्ले-बल्ले तेरी।"
"अजय बाहर आने वाला है। तू जा जगत पाल।"
"किधर जाऊँ?"
"अजय मेरे साथ है। उस फ्लैट में रहेगा, जहाँ मैं रहती हूँ। तेरे को अभी...।"
"तो मैं भी वहीं...।" जगत पाल ने कहना चाहा।
"पापा को बेटी से दूर रहना चाहिए।"
जगत पाल के चेहरे पर कड़वे भाव उभरे।
"साली, इन बातों को छोड़ और मेरे साथ कानपुर चल।"
"जरूर चलूँगी। लेकिन अभी यहाँ काफी काम बाकी है।" देवली ने शांत स्वर में कहा।
"कैसा काम?"
"यह तो अभी अजय बतायेगा। हम फोन पर बात करेंगे। इस वक़्त तू निकल ले।"
जगत पाल ने देवली को घूरा।
"क्या देखता है?"
"इस वक़्त तू वालिया पर जरूरत से ज्यादा मेहरबान हो रही है।" उसके स्वर में तीखापन था।
"तेरा क्या जाता है।"
"दिल का मामला तो नहीं है तेरा वालिया के साथ?"
"तू पागल है जगत! कहाँ अजय वालिया और कहाँ मैं।" देवली मुस्कुरायी, "वह मुझे अच्छा लगता है इसलिए मैं उसकी सहायता कर रही हूँ।"
"और कितनी सहायता करेगी? हमें अपना काम भी तो देखना है।"
"सब्र रख जगतू। मैं अजय की पूरी तसल्ली कराके ही कानपुर जाना चाहता हूँ। उसने साल भर मेरा बहुत ख्याल रखा था।"
जगत पाल ने बुरा सा मुँह बनाया।
"तू जा। हम फोन पर बात करेंगे।" देवली ने कहा और बंगले की तरफ बढ़ गयी।
जगत पाल ने होंठ सिकोड़े। वह देवली को जाता देखता रहा, फिर बड़बड़ा उठा-
"साली, मुझ पर हुकुम चलाने लगी है। थोड़ा-थोड़ा उड़ने भी लगी है। कानपुर पहुँचकर इसके पंख काटूँगा।" जगत पाल ने कार स्टार्ट की, "औरत किसी का ख्याल तभी इतना रखती है जब उसे दिल दे बैठी हो। प्रताप पर भी पूरी फिदा थी, तभी तो प्रताप को साफ किया था मैंने। अब कहीं वालिया को साफ करने की जरूरत न पड़ जाए। जो भी करना पड़े, करूँगा। तुझे वापस कानपुर लेकर ही जाऊँगा।"
■■■
अजय वालिया ने व्हिस्की का घूँट भरा और देवली को देखा। देवली भी अपना गिलास थामें सामने आ बैठी थी। दोनों देवली के फ्लैट पर थे। शाम हो चुकी थी। देवली ने नहा-धोकर कपड़े बदल लिए थे। घुटने तक आता नीले आसमानी रंग का गाउन पहन रखा था उसने। गीले बाल बिखरे-बिखरे से पीछे को जा रहे थे। गीली मोटी लटें माथे पर आती झूल रहीं थीं।
वह इस वक़्त बहुत खूबसूरत लग रही थी। परन्तु वालिया का ध्यान उसकी खूबसूरती पर न होकर, अपनी बर्बादी पर था। रूपा पर था, जिसे वह पूरा बर्बाद कर देने का सपना मन में बसा चुका था।
"जब तुमसे बातें करके मुझे पता चला कि रूपा अब तुम्हारे पास से कभी भी जा सकती है, तो मैंने तुम्हारे बंगले पर नजर रखनी शुरू कर दी। रूपा के बाहर आने का इंतजार था मुझे। फिर वह बाहर आई तो मैं उसके पीछे लग गयी। मैं देखना चाहती थी कि वह कहाँ जाती है। उसका इंतजार होटल में कोई कर रहा था, साथ में लम्बी कार और वर्दीधारी ड्राइवर था। मैं तुम्हें यह बता दूँ कि उसका इंतजार करने वाले व्यक्ति का नाम वासु था और वह रूपा का नौकर है। जबकि उसने सेठों जैसे कपड़े पहन रखे थे। इससे तुम रूपा के हैसियत का अंदाजा लगा सकते हो।"
वालिया ने दूसरा घूँट भरा। नजरें देवली पर थीं।
"उनकी कार मुम्बई से बाहर निकल गयी। मैं उसका पीछा कर रही थी। रूपा पीछे वाली सीट पर अकेली बैठी थी। वासु ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठा था। मैं उनका पीछा करती रही। रास्ते में उनकी कार कहीं न रुकी। अंधेरा हो गया। पूरा गुजरात आधी रात तक पार करके 'वेव' नाम की गुजरात की आखिरी जगह को पार करके राजस्थान में प्रवेश किया, जहाँ का पहला छोटा शहर 'गुरहा' आया। वहाँ उनकी कार रात के साढ़े तीन बजे छोटे से होटल में जाकर रुकी। रूपा होटल में चली गयी। वासु छोटा सा सूटकेस थामे उसके पीछे-पीछे होटल में गया। उधर ड्राइवर भी कार को लॉक करके इधर-उधर अपने काम के लिए निकल गया। तब मैंने कार का लॉक खोला और भीतर की लाइट जलाकर तलाशी लेने लगी।
"तुमने कार का लॉक कैसे खोला?" वालिया ने पूछा। उसके चेहरे पर गंभीरता थी।
पल भर की खामोशी के बाद देवली ने कहा-
"मेरे पास अपनी कार की चाबियाँ थीं। उसमें से एक चाबी पीछे वाले दरवाजे पर लग गयी।" देवली बोली, "मैं जानती थी कि जगन्नाथ सेठी की हत्या का सबूत वह अपने साथ ही ले जा रही होगी। परन्तु कार की तलाशी लेते वक्त, मुझे इस बात का शक था कि वासु जो सूटकेस होटल के भीतर ले गया है, कहीं नेगेटिव उसके भीतर न हो। परन्तु तब मेरी जान में जान आयी, जब वासु के सीट के आगे नीचे रखे बैग में मुझे तस्वीरें और नेगेटिव मिल गए।" देवली मुस्कुरा पड़ी।
वालिया भी मुस्कुराया।
"मैं उन नेगेटिव के मिलते ही कुछ दूर खड़ी अपनी कार में आ बैठी। आधे घण्टे बाद ड्राइवर भी आ गया था। फिर कुछ देर बाद रूपा होटल से बाहर निकली। वासु सूटकेस थामे साथ था। रूपा ने कपड़े बदले थे होटल में। वह कीमती साड़ी पहनकर और मेकअप करके होटल से बाहर निकली थी। फिर वे लोग कार में बैठे और कार चल पड़ी। मैं फिर उनका पीछा करने लगी।"
"बहुत मेहनत की तुमने।"
"सच में।"
"मैं तुम्हारा अहसान कभी नहीं भूलूँगा।"
"मैंने कोई अहसान नहीं किया। जो मुझे अच्छा लगा वही किया मैंने। गुरहा से बारमर, भाखड़ा, शिव, देवीकोट होते हुए सुबह के साढ़े सात बजे वे जैसलमेर पहुँच गए।"
"जैसलमेर?"
"हाँ! वह वहाँ की जानी-मानी हस्ती है। उसका नाम शनिका है।"
"शनिका?" वालिया के होंठों से निकला। उसके दाँत भिंच गए।
"हाँ!" सहमति से सिर हिलाते देवली ने घूँट भरा, "जैसलमेर में महल जैसा बंगला है उसका। पाँच साल पहले उसने प्रेम नामक युवक से लव मैरिज की थी। प्रेम खानदानी आदमी है। किसी नवाब के वंश का है वह। दौलत पानी की तरह बहती है उसके खानदान में। रूपा यानी शनिका ही वहाँ सब कुछ सम्भालती है। उसकी ही चलती है। ज़्यादा मालूम नहीं कर पाई मैं। क्योंकि मुझे वापस तुम्हारे पास आने की जल्दी थी। जैसलमेर में 'प्रेम पैलेस' नाम का फाइव स्टार होटल शनिका कंट्रोल करती है। इस खानदान के और भी कई काम हैं, जो जैसलमेर के बाहर लत्थी और रामगढ़ तक फैले हैं। दीची में इनके रेस्टोरेंट है और जोधपुर में फाइव स्टार होटल है। इस खानदान के नाम का डंका राजस्थान में हर तरफ है। पंद्रह दिन बाद राजस्थान में चुनाव होने जा रहे हैं और शनिका चुनाव में खड़ी है। उसकी तस्वीरों के साथ पोस्टरों से पूरा जैसलमेर भरा पड़ा है। यूँ शनिका को जैसलमेर में रानी साहिबा कह कर पुकारा जाता है। इसी से उसके रुतबे का अंदाजा लगा सकते हो।"
वालिया ने गिलास खाली कर दिया।
"मैं इस रानी साहिबा को बर्बाद कर दूँगा।" वालिया गुर्राया, "मार दूँगा इसे।"
"जरूर! तुम जो चाहोगे, वही होगा।" देवली ने गंभीर स्वर में कहा, "लेकिन इस तरह नहीं। इस काम में होश बिल्कुल भी नहीं गँवाने हैं। उदाहरण के तौर पर शनिका को लो। वह पूरी प्लानिंग करके तुम्हारे पास आई। अपनी हर चाल को उसने पहले ही सोच रखा था। तभी तो अपने खेल में कामयाब रही। हमें भी इस तरह का कामयाब खेल खेलना होगा।"
वालिया, देवली को देखने लगा। उसके होंठ भिंचे हुए थे।
"मैं तुम्हारे साथ हूँ अजय। तुम अकेले नहीं हो। तुम नहीं जानते, मैं बहुत कुछ कर सकने का दम रखती हूँ। हम दोनों एक साथ इन काम को करेंगे। शनिका ने तुम्हें बर्बाद किया है, हम शनिका को बर्बाद कर देंगे। लेकिन ठंडे और शांत दिमाग से।"
"इस काम में मैं तुम्हें साथ नहीं रखना चाहता।" वालिया ने तेज स्वर में कहा।
"क्यों?"
"क्योंकि यह खतरनाक काम है और तुम्हें...।"
"अजय!" देवली मुस्कुरा पड़ी, "क्या पता मैं सबसे खतरनाक होऊँ।"
वालिया, देवली को देखने लगा।
"शनिका मुझे नहीं पहचानती कि मैं वही देवली हूँ, तुम्हारी वाली। जबकि वह मेरा नाम अवश्य जानती है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं तुम्हारे बहुत काम आऊँगी। तुम्हारा दिया पंद्रह-बीस लाख रुपया मेरे पास है। वो ले चलेंगे साथ में।"
"इतना ही मेरे पास भी है।" वालिया बोला, "कल बैंक से निकाल लूँगा। कुछ पैसे का मैं और भी इंतजाम कर सकता हूँ। खर्चे के लिए पैसे की कोई तंगी नहीं होगी। लेकिन मैं शनिका को बर्बाद कर देना चाहता हूँ।"
"वह बर्बाद होगी। मुझ पर विश्वास करो अजय, वह अब कहीं की नहीं रहेगी।" देवली का चेहरा क्रोध से तप उठा था।
■■■
मौका मिलते ही देवली ने जगत पाल को फोन किया।
"बोल मेरी जान!" जगत पाल का स्वर उसके कानों में पड़ा, "कब चलना है वापस कानपुर?"
"जल्दी ही। लेकिन पहले जैसलमेर पहुँच। मैं अजय के साथ कल दोपहर बाद जैसलमेर के लिए निकल रही हूँ।"
"जैसलमेर! इतना लम्बा रास्ता फिर से?"
"तू तो मेरी खातिर कुएँ में भी कूदने को तैयार है, फिर घबराता क्यों है?"
"जैसलमेर में तेरा क्या काम?"
"उस रानी साहिबा को बर्बाद जो करना है।"
"वालिया की व्यक्तिगत बातों से तेरा क्या मतलब? तू क्यों इस काम में...।"
"यह काम मैं वालिया के लिए नहीं कर रही। अपने लिए कर रही हूँ जगतू।"
"तू मेरे को उल्लू बनाती है।"
"नहीं! मैं सच कह रही हूँ तेरे से। शनिका को मैं पहले न पहचान सकी। रूपा जो बनी हुई थी पहले वो। रूपा के रूप में जब उसे देखा तो मुझे लगा जैसे इसे पहले भी कहीं देखा है।फिर जब हम उसके पीछे जैसलमेर पहुँचे तो शनिका की सारी जन्मपत्री मेरे सामने खुलती चली गयी। इस हरामजादी की सारी करतूत मेरे सामने आ गयी।"
"मैं समझा नहीं।"
"जैसलमेर में समझाऊँगी। वहाँ पहुँच, वहीं मिलूँगी।" देवली दबे स्वर में गुर्रा उठी।
"लेकिन कुछ तो बता।"
"तू ही तो है मेरा। तुझे ही तो सब बताना है। परन्तु जैसलमेर में।"
"तो वालिया को क्यों साथ रखा है तूने? पल्ला झाड़ उससे।"
"साथ में एक बलि का बकरा भी तो चाहिए।" देवली ने कड़वे स्वर में कहा।
"बलि का बकरा। बहुत हरामी हो गयी है तू लगता है। बता तेरी गेम क्या है?"
"जैसलमेर में बताऊँगी। वहाँ उसी होटल में ठहरना, जिस में हम कुछ दिन पहले ठहरे थे। तेरे को वालिया पहचाने नहीं, इसके लिए चेहरे पर दाढ़ी-मूँछे लगा लेना। वहाँ मैं तेरा इम्तिहान लूँगी कि तू मुझे कितना चाहता है।"
"अगर तेरे मन में कुछ था तो तूने जैसलमेर से वापसी के साथ यह बातें क्यों नहीं बताई मुझे?"
"वापसी पर मेरे पास सोचने को बहुत कुछ था जगतू। क्योंकि मैं उन बातों को हजम करने की कोशिश कर रही थी, जिनका मुझे जैसलमेर पहुँचने पर अहसास हुआ। काश, यह सब मुझे पहले पता चल गया होता।"
"तेरी बातें मुझे पागल कर देंगी।"
"जैसलमेर पहुँच। उसी होटल में। मैं और वालिया भी वहीं ठहरेंगे, वहीं मिलूँगी तेरे से।" देवली ने दाँत भींचकर कहा और फोन बंद कर दिया।
■■■
जैसलमेर।
वह होटल जैसा महल था। पुराना बंगला। उसकी चारदीवारी बंगले से बहुत दूर थी। चारदीवारी में गेट लगा था। वहाँ से दो सड़कें बंगले के पोर्च तक जा रही थीं। एक दायें से घूमती हुई जा रही थी, दूसरी बायें से। बीच में रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियाँ थीं। बाकी खाली जगहों पर पार्क बना हुआ था। झूले लगे थे, पेड़ लगे थे। यहाँ का खूबसूरत माहौल देखते ही बनता था।
सुबह के आठ बजे कार ने भीतर प्रवेश किया था। दरबान ने उस कार को आता पाकर पहले से ही गेट खोल दिया था।
कार भीतर प्रवेश करती चली गयी। पीछे वाली सीट पर मौजूद रूपा उर्फ शनिका की निगाह हर तरफ घुमने लगी। फूलों की क्यारियों में दो माली व्यस्त दिखे। दूसरी तरफ पार्क में तीन आदमी पानी दे रहे थे। लम्बी सड़क तय करके कार बंगले के पोर्च में जा रुकी, जहाँ चार कीमती कारें पहले से ही खड़ी थीं। वहाँ दो वर्दीधारी ड्राइवर मौजूद थे, जो कि कारों में ही व्यस्त थे।
कार रुकते ही वासु जल्दी से बाहर निकला और पिछला दरवाजा खोलकर बोला-
"हम पहुँच गए रानी साहिबा!"
शनिका बाहर निकली। साड़ी ठीक की और गर्व भरी चाल से मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गयी।
वहाँ मौजूद दोनों ड्राइवरों ने फौरन शनिका को सलाम मारा। परन्तु शनिका ने उन्हें देखा भी नहीं।
शनिका बंगले में प्रवेश कर गयी।
सामने ही मैदान जैसा खुला ड्राइंग रूम था। तीन-चार नौकर वहाँ काम करते दिखे। शनिका को देखते ही वह अदब से झुकने की मुद्रा में आ गए।
"कैसे हो हरिया?" शनिका ने कहा।
साठ बरस का नौकर हरिया तुरंत शनिका के पास पहुँचा।
"आपकी दया है रानी साहिबा।"
"सब ठीक है?" शनिका ने पूछा।
"जी, मालिक आपके जाने से बहुत नाराज हो रहे हैं!"
"कोई और बात?"
"बाकी सब ठीक है रानी साहिबा!"
शनिका एक तरफ बनी सीढ़ियों की तरफ बढ़ गयी, जो कि बारह फिट चौड़ी थी और उस पर लाल रंग का कारपेट बिछा हुआ था। सीढ़ियाँ उस बंगले की पहली मंजिल पर जा रही थीं। जहाँ की बालकनी और रैलिंग इसी हाल की तरफ खुलती थी। वहाँ एकदम शांति थी।
शनिका पहली मंजिल पर पहुँची।
वह जगह घूमती हुई गोली सी आगे बढ़ रही थी। जाहिर था जिस किसी ने भी यह बंगला बनवाया होगा, दिल से बनवाया होगा। उस चौड़े रास्ते के एक तरफ कमरों को कतारें थीं तो दूसरी तरफ ड्राइंग हाल में खुलती बालकनी।
कुछ आगे जाकर शनिका एक खुले कमरे में प्रवेश कर गयी। बहुत बड़ा खुला कमरा था। एक तरफ बेड था, कुर्सी-टेबल थी, आलमारी था। एक तरफ व्हील चेयर पड़ी थी। कमरे में पीछे की दो खिड़कियाँ खुली हुई थी। वहाँ से बाहर का दूर-दूर का नजारा स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
शनिका की निगाह बेड पर लेटे उस व्यक्ति पर जा टिकी। वह प्रेम था। शनिका का पति।
उम्र तीस बरस। साँवला आकर्षक चेहरा। परन्तु टाँगें घुटनों के नीचे से कटी हुई। तीन साल पहले कुछ लोगों ने उसे उठा लिया था और टाँगें काटकर अस्पताल के बाहर छोड़ दिया था। यह किसने किया, यह तो पता नहीं चला परन्तु प्रेम की जिंदगी नरक बन गयी थी। वह अपाहिज हो गया था। व्हील चेयर पर बिठा कर नौकर उसे बाहर घुमा लाते थे। इस हादसे के बाद प्रेम बहुत चिड़चिड़ा हो गया था उसकी जिंदगी रुक गयी थी। वरना वह तो हँसमुख और रंगीन मिजाज था। उसके बाद प्रेम के सारे काम, सारे बिज़नेस शनिका ने सम्भाल लिए थे। प्रेम की हुकूमत खत्म हो गयी और शनिका कि शुरू हो गयी थी।
शनिका को देखते ही प्रेम का चेहरा गुस्से से भर उठा।
"आ गयी हरामजादी अमेरिका से।" प्रेम गुस्से से दहाड़ उठा।
शनिका मुस्कराई और आगे बढ़कर उसके होंठ पर होंठ रख दिये। प्रेम ने गुस्से से अपना मुँह पीछे किया और गुर्राया।
"मैं तेरी इन बातों में फँसने वाला नहीं।"
"हैरानी है कि मेरे प्यार ने भी तुम्हारा गुस्सा ठंडा नहीं किया प्रेम।" शनिका हँस पड़ी।
"कहाँ गयी थी तू?"
"तेरे को बता कर तो गयी थी।" शनिका कुर्सी पास में खींच कर बैठती कह उठी।
"अमेरिका गयी थी। अपनी बहन से मिलने?"
"हाँ तो!"
"बकवास! मैंने कभी सुना नहीं, देखा नहीं कि तुम्हारी बहन भी है। अचानक ही तुम्हारी बहन पैदा हो गयी और अमेरिका चली गयी।"
"मैंने पहले कभी तुम्हें अपनी बहन के बारे में बताया नहीं था।"
"तो अब अचानक तुम उससे मिलने चल दी।" प्रेम ने खा जाने वाले स्वर में कहा।
"जाना पड़ा।" शनिका ने गहरी साँस ली, "वह मर गयी प्रेम।"
"मर गयी?"
"हाँ! उसकव कैंसर था और वह मरने वाली थी। खबर मिलते ही मैं फौरन चली गयी। तब तुमसे ज्यादा बात नहीं कर पाई थी, क्योंकि मुझे पता चला था कि वह मरने वाली है। उसके पास पहुँचना जरूरी था।"
प्रेम, शनिका को देखता रहा।
"वह मरने से पहले मुझसे मिलना चाहती थी। मैं उसके पास पहुँची।" शनिका ने गंभीर स्वर में कहा, "तो उसने मुझे वापस नहीं आने दिया। जब भी मैं वापस आने को कहती, तो वह रोने लगती। इसलिए उसकी मौत तक मुझे वहाँ रुकना पड़ा।"
"सुनकर दुख हुआ।" प्रेम ने बेमन से कहा, "तुम मुझे वहाँ से फोन तो कर सकती थी।"
"वक़्त ही नहीं मिला। जब भी फोन करने को सोचती तभी कुछ न कुछ अड़चन आ जाती। तीन बार तो उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। इसी तरह वक़्त बीत गया।" शनिका ने गहरी साँस ली।
"अब वह नहीं रही। अब तो अमेरिका नहीं जाना दोबारा?" प्रेम बोला।
"नहीं जाना। कब क्या करने जाऊँगी।"
प्रेम खामोश रहा।
"गुस्सा उतर गया?" शनिका मुस्कुरा पड़ी।
प्रेम ने आँखें बंद कर लीं। शनिका उठी और प्रेम के होंठों पर किस किया।
जब वह हटी तो प्रेम मुस्कुरा कर बोला-
"तुम पास नहीं होती तो सब कुछ सूना-सूना लगता है।"
"अब तो मैं पास हूँ।" शनिका ने मुस्कुरा कर कहा।
"वक़्त निकालकर मेरे पास आना। मैं तड़प रहा हूँ।" प्रेम ने कहा।
"अभी तो मेरे पास जरा भी फुर्सत नहीं है।"
"क्यों?"
"दो महीने बाद लौटी हूँ। बहुत काम देखने हैं। चुनाव का हाल भी जानना है। वासु से जानना है अभी मेरे लिए क्या-क्या काम है।"
"तो क्या हुआ? इन कामों के बीच से वक़्त निकाल कर तुम मेरे पास आ सकती हो।"
"देखूँगी। अभी तो मुझे सिर्फ काम ही नजर आ रहे हैं।"
"चुनाव में खड़े होने की क्या जरूरत थी।"
"पास में पैसा हो तो मशहूर होने के रास्ते खुद ही नजर आने लगते हैं। मशहूर कौन नहीं होना चाहता।"
"तुम्हें मेरा ध्यान रखना चाहिए। मेरे पास रहना चाहिए।"
"मैं तुम्हारे साथ बिस्तर से बंधी नहीं रह सकती। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारा सब कुछ खत्म हो जाये? इतना बड़ा बिज़नेस है तुम्हारा, जो मैं सम्भाल रही हूँ। तुम्हारी टाँगे ठीक होती तो मैं भी कुछ आराम करती।"
"कल डॉक्टर रोडे आया था। उसने नकली टाँगे लगाने की सलाह दी है।" प्रेम ने कहा।
"यह तो अच्छी बात है। लगवा लो।"
"हाँ कह दी है मैंने उसे। वह कहता है कि उन टाँगों में मैं आसानी से चल सकूँगा और कार भी चला सकूँगा।"
"बढ़िया है। तुम अपने काम खुद कर लिया करोगे।" शनिका मुस्कुरायी।
"हाँ! तब मैं बिज़नेस देखने, होटल भी जाया करूँगा।"
शनिका की निगाह प्रेम पर जा टिकीं।
"क्या देख रही हो शनिका?"
"तुम्हारा बिज़नेस मैं देख रही हूँ। उसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं।"
"मेरा मन बहल जाएगा। वक़्त कट जाएगा इस तरह।"
"तुम्हारी मर्जी।"
"डॉक्टर रोडे नाप ले गया है। वह दो हफ्ते में टाँगे तैयार करवा लाएगा।"
"तुम्हें फिर से चलता देखकर मुझे खुशी होगी।"
प्रेम की नजरें शनिका के चेहरे पर घूमने लगीं।
"क्या हुआ?"
"सोच रहा हूँ कि वामा के बदले तुम्हें चुनकर अच्छा किया या बुरा?"
"अब इन बातों को सोचने का वक़्त निकल गया है। साढ़े पाँच साल से मैं तुम्हारी पत्नी हूँ।" शनिका ने चुभते स्वर में कहा।
"उससे पहले वह मेरी पत्नी थी। कभी-कभी मन में ख्याल आता है कि हमने उसके साथ अच्छा नहीं किया।"
"पागल होते जा रहे हो तुम।" शनिका तेज स्वर में बोली, "वामा को भूल जाओ। ऐसी बातें करके तुम भी फँसोगे और मुझे भी फँसवाओगे। उसे याद मत किया करो।"
"मैंने उसके साथ ठीक नहीं किया। उसी का फल मिला मुझे कि मेरी टाँगें काट दी किसी ने।"
"मैं भी तो तुम्हारे साथ थी।" शनिका ने कड़वे स्वर में कहा, "जितने तुम दोषी हो, उतनी ही मैं भी हूँ। पर मुझे तो कोई फल नहीं मिला।"
"तुम किस्मत वाली निकली, परन्तु मैं अपाहिज हूँ।"
"वामा की बात दोबारा अपने होंठों पर भी मत लाना। वह तुम्हारी पत्नी थी और रेगिस्तान में उसकी लाश मिली। दो दिन पुरानी लाश। उसके शरीर के आधे से ज्यादा हिस्से को चील-गिद्धों ने खा लिया था। शुक्र है कि उसका चेहरा सलामत रहा, जिससे कि वह पहचानी जा सकी।" शनिका ने शांत स्वर में कहा।
"तुम बहुत कठोर हो।"
"मैं वक़्त के साथ चलती हूँ प्रेम। बीती बातें भूल जाती हूँ जो मेरे काम की न रहें।"
"मैं वामा को नहीं भूल सकता।"
"क्यों?"
"शायद वह तुमसे बेहतर पत्नी थी। मैंने उसे पहचाना नहीं तब।" प्रेम गंभीर था।
शनिका कड़वी नजरों से प्रेम को देखने लगी। प्रेम ने मुँह फेर लिया और कहा-
"वामा भी खूबसूरत थी। परन्तु तुमसे कम। तुमने मुझ पर जाने क्या जादू किया कि मैं तुम्हारा दीवाना हो गया। तुम्हारे कहने पर वामा को तुम्हारे साथ मिलकर मार दिया और कुछ महीनों बाद तुमसे शादी कर ली।"
शनिका के चेहरे पर जहरीली मुस्कान थिरक उठी।
"मैं जानती हूँ कि मैं खूबसूरत हूँ और मेरी खूबसूरती बहुत कुछ करा देती है। मर्दों को पागल बना देती है।"
प्रेम की आँखों में नफरत के भाव दिखे और लुफ्त हो गए।
"तुम्हारी नजर मेरी दौलत और शोहरत पर थी। मुझसे शादी करके वह तुमने हासिल कर ली। उसके बाद तुमने कभी भी मेरी परवाह नहीं की। क्योंकि तुम्हें जो चाहिए था, वह मिल गया।"
"फिर भी मैं तुम्हें खुश रखने की पूरी चेष्टा करता हूँ।"
"मेरा दिल बहलाती हो तुम मुझे किश करके यक फिर अपने हाथों से मुझे शांत करके। अपनी मौजूदगी का अहसास कराकर, दूर चली जाती हो। तुम कभी दिल से मेरे पास नहीं आयी।"
"जब तुम्हारी टाँगें थी तब तुम क्या किया करते थे?" शनिका का स्वर जहरीला हो गया, "घर में मेरी जैसी खूबसूरत बीवी के होते हुए तुम होटल में दूसरी औरतों के साथ रातें बिताते थे। जब मैं टोकती तो तुम हँसा करते थे। कहते थे यह तो मेरा हक है। जब तुम्हारी टाँगें कटी तब मुझे लगा कि ऊपर वाले ने तुम्हें सही सजा दी है।"
प्रेम ने होंठ भिंच लिए। मुँह फेर लिया।
"हमें मिलकर रहना चाहिए। क्योंकि हम दोनों ने मिलकर वामा की हत्या की थी। यह बात ही अब तक हमें इकट्ठा रखे हुए है।"
"नहीं तो तुम क्या करती?" प्रेम ने माथे पर बल डालकर, शनिका को देखा।
"पता नहीं, कभी सोचा नहीं।" एकाएक शनिका मुस्कुरा कर आगे बढ़ी और प्रेम का गाल थपथपाया, मैं चलती हूँ। रात भर सफर में रही। थोड़ा आराम कर लेना चाहता हूँ।"
शनिका कमरे से बाहर निकली और तीन कमरे छोड़कर एक कमरे में प्रवेश कर गयी।
यह उसका बेडरूम था। शानदार, हर तरफ से सजा हुआ।
शनिका ने साड़ी उतारकर एक तरफ रखी और फोन उठाकर नम्बर मिलाने लगी।
बात हो गयी।
"डॉक्टर रोडे!"
"ओह, रानी साहिबा!" डॉक्टर रोडे का स्वर कानों में पड़ा, "आप कब आयीं?"
"मुझे पता चला है कि आप कल आये थे। प्रेम की नकली टाँगें बनवाने जा रहे हैं।"
"हाँ! प्रेम साहब ने कहा कि...।"
"प्रेम को टाँगों की जरूरत नहीं है। यह बात आप उसे अपने ढंग आए समझा दीजिए।"
"जी समझ गया।"
"दोबारा कभी ऐसा फैसला लेना हो तो मुझसे बात अवश्य कर लें।"
"जी रानी साहिबा।"
शनिका ने रिसीवर रखा और पास रखे इंटर कॉम का बटन दबाकर रिसीवर उठाया।
"रेखा को भेजो।" कहकर रिसीवर रखा। फिर कुर्सी पर आ बैठी और आँखें बंद कर ली।
पाँच मिनट बाद ही पच्चीस बरस की युवती रेखा ने भीतर प्रवेश किया।
"नमस्कार रानी साहिबा। मैं आपके पास आने ही वाली थी।" कहने के साथ ही वह एक तरफ रखी साड़ी को तह लगाने लगी।
शनिका उसी तरह कुर्सी पर बैठी रही। आँखें बंद ही रखी।
"रानी साहिबा, भँवरा आपको कई बार पूछ चुका है।" अपने काम में व्यस्त रेखा ने कहा।
रानी साहिबा ने आँखें खोली।
"कहाँ है वह? यहाँ आया था?"
"यहाँ तो नहीं आया, परन्तु फोन पर उसने दो-तीन बार पूछा कि आप कब आएँगी।"
"मुझे काफी ला दो।"
■■■
शाम के आठ बज रहे थे। बंगले के कमरे में कुर्सियाँ लगी हुई थीं। वहाँ शनिका के अलावा वासु, भँवरा, ओमी और रामसिंह मौजूद थे। यह चारों शनिका के खास मुँह लगे थे।
"बोलो!" शनिका ने कहा, "अब मुझे क्या-क्या काम करने हैं?"
"चुनाव में जीतने की खातिर आपको जनता के बीच जाना होगा।" भँवरा ने कहा।
"इतनी गर्मी में?" शनिका ने मुँह बनाया।
"चुनाव जीतना है तो ऐसा करना जरूरी है रानी साहिबा।" ओमी बोला, "सुबह से शाम तक आपको, अगले कुछ दिनों तक धूप में, गर्मी में जनता के बीच घूमते रहना होगा। हर कोई रानी साहिबा को करीब से देखना चाहता है। आपसे बात करना चाहता है। आपको जनता को अपनापन दिखाना होगा, ताकि वे आपको वोट दें। यह काम कल से ही शुरू करना होगा। जनता आपको पूछ रही है। आपके पोस्टर जगह-जगह लग चुके हैं। आपकी झलक पाने को बेताब है जनता।"
"ठीक है! तुम सब लोगों को ऐसा लगता है तो यही सही।"
"और भी बहुत कुछ करना होगा।" रामसिंह ने कहा, "कल से बंगले के गेट के भीतर जनता और गरीबों के लिए लंगर शुरू हो जाएगा। खाना-पीना, लस्सी-पानी जनता को दिया जाएगा और इस काम में आप भी शामिल होंगी रानी साहिबा।"
"मैं कैसे?"
"उनके थालों में आपने ही रोटी-सब्जी डालने का काम करना है।"
"यह क्या बकवास है!" शनिका तीखे स्वर में कह उठी, "मैं यह...।"
"रानी साहिबा!" वासु जल्दी से बोला, "यह सब ड्रामा होगा। चुनाव जीतने के लिए यह सब करना जरूरी है।"
शनिका ने वासु को घूरा।
"आपके ऐसा करने से जनता को खुशी होगी। वह आपको हमदर्द समझेगी।" वासु पुनः कह उठा, "कुछ दिन की ही तो बात है। जरूरी नहीं कि यह काम आप रोज करें। बीच-बीच में दो-तीन दिन भी कर दिया तो इस बात की हवा फैल जाएगी कि रानी साहिबा के बंगले पर खाने जाओ तो वह खुद खिलाती हैं। इस बात का बड़ा असर होगा। जादू की तरह लोग आपके पास खिंचे चले आयेंगे। जो एक बार आ गया, उसका तो वोट पक्का ही समझो।"
शनिका ने खामोशी से सिर हिला दिया।
"कल हमारा छः-सात गाड़ियों का काफिला सुबह आठ बजे यहाँ से चलेगा। काफिला कहाँ-कहाँ रुकेगा, इस बात का मैं इंतजाम कर दूँगा।" भँवरा बोला, "अपने समर्थन को भीड़ जुटाने के लिए कह देता हूँ। हर तरफ रानी साहिबा के नाम के ही नारे लगेंगे। परन्तु दो बजे तक आपको यहाँ लौटना होगा। ताकि यहाँ बैठे लोगों को आप खाना, उनके बर्तनों में डालें। इस काम में सिर्फ आधा घण्टा लगाना है। उसके बाद हम फिर चलेंगे और कई इलाकों में आपको पैदल घूमना होगा। गली-मोहल्लों के बीच।"
"वहाँ गंदगी बहुत होती है।" शनिका मुस्कुरायी।
"आप नीचे मत देखे रानी साहिबा! ऊपर ही देखें। साथ में आपके समर्थकों की भीड़ होगी। आपके कुछ दिन तो ऐसे ही तकलीफों में बीतेंगे। उसके बाद जनता का काम खत्म और आपका शुरू। चुनाव आपको ही जीतना है।"
"लोगों को मुख्य गेट के भीतर लाकर खाना खिलाना जरूरी है क्या? यह काम तो बाहर भी सड़क के किनारे बिठा कर हो सकता है।" शनिका ने उन्हें देखते हुए कहा।
"भीतर ही जरूरी है। वह गर्व महसूस करेंगे कि आपके महल जैसे बंगले के करीब जाने का उन्हें मौका मिला।"
"भीतर गंदगी बहुत फैल जाएगी। लॉन खराब हो जाएगा। फूलों के पौधे और...।"
"चुनाव जीतने के बाद सब कुछ और भी बढ़िया बन जायेगा। आप जरा-जरा सी बातों की फिक्र न करें।"
"ठीक है! जैसा तुम लोग ठुक समझो।"
तभी वासु कह उठा-
"रानी साहिबा, थोड़ी सी समस्या है।"
"कहो?" शनिका ने वासु को देखा, "किससे समस्या आ गयी तुम्हें?"
"सूरज पाल सिंह से।"
"ओह! वह भी तो इन चुनाव में खड़ा है। उसे भी टिकट मिला है।" शनिका ने उसे देखा।
"जी हाँ! उसका खड़े रहने का मतलब है कि आपके वोट कटना।"
"कैसे?"
"वह अगर चुनाव नहीं लड़ता तो उसे मिलने वाले सारे वोट आपको मिलेंगे। वह विशेष जाति से सम्बन्ध रखता है। वह जाति चूड़ा सिंह को वोट नहीं देगी। आपको ही वोट देगी। सूरज सिंह का चुनाव न लड़ना, आपके हित में होगा।"
"समझी। उससे बात करो। उसे समझाओ कि वह चुनाव न लड़े।"
"जी! मैं कल ही किसी को भेजूँगा उसके पास।"
"तो रानी साहिबा, कल के लिए तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।" भँवरा उठते हुए बोला, "चल ओमी, रामसिंह तुम भी चलो।
"ओमी तुम रुको। तुमसे बात करनी है। भँवरा, तुम राम सिंह को ले जाओ।"
भँवरा और राम सिंह वहाँ से चले गए। शनिका ने वासु को देखकर पूछा-
"कोई और बात वासु?"
"नहीं रानी साहिबा! आप हुक्म दीजिए!
"जाओ, कल के कामों की तैयारी शुरू करो।"
वासु बाहर निकल गया। शनिका ने ओमी को देखा तो ओमी अंदाज में मुस्कुराया। शनिका भी मुस्कुरायी।
"रात 11 बजे नीचे वाल्व कमरे में आ जाना।"
ओमी ने सिर हिलाया और बाहर निकल गया।
■■■
शनिका का सख्त आदेश था कि सारे नौकर साढ़े नौ बजे तक खाना खाकर, दस बजे तक अपने-अपने कमरों में सोने चले जायें। उसके बाद बहुत जरूरी काम हो तो बाहर निकले वरना नहीं।
और यही सिस्टम बन चुका था।
रात दस बजे के बाद बंगले में गहरी शांति छा जाती थी। बाहरी गेट पर दो हथियारबंद पहरेदार अंधेरा होते ही खड़े हो जाते थे। बंगले के चारों तरफ खुले हिस्से में आठ हथियारबंद रात भर पहरा देते टहलते थे। यानी कि बाहर से किसी अनजान आदमी का भीतर प्रवेश कर आना आसान नहीं था। यहाँ की पहरेदारी का काम ओमी के हवाले था।
शनिका ने खुद को शीशे में निहारा। शरीर पर घुटने तक जाती नाइटी पहन रखी थी। बाल पीछे करके बाँध रखे थे। पाँव में गद्देदार स्लीपर थे। इस वक़्त वह बला की हसीन लग रही थी। वह शीशे के सामने से हटी और कमरे से बाहर निकलती चली गयी। हर तरफ गहरी खामोशी ठहरी थी। रात के 11.30 हो रहे थे। सीढ़ियाँ तय करके वह नीचे पहुँची और ड्राइंग हाल के एक हिस्से की तरफ बढ़ती चली गयी।
फिर एक दरवाजे के पास पहुँचकर ठिठकी और दरवाजा खोल कर भीतर प्रवेश कर गयी। दरवाजा बंद कर दिया। यह छोटा सा कमरा था। एक तरफ डबल बेड लगा हुआ था। सामने ही कुर्सी पर ओमी मौजूद था जो कि उसे भीतर आते देख खड़ा हो गया था। आँखों में खास तरह की चमक लहरा उठी थी। इस कमरे में बाहर की तरफ खुलने वाला दूसरा दरवाजा भी था। यह कमरा ओमी का था ताकि यहाँ की पहरेदारी को हर वक़्त ठीक रख सके।
शनिका ने बाँहें उठाकर अंगड़ाई ली और ओमी को देखकर मुस्कुरायी।
"दो महीने में तुम हर रात मुझे याद आते रहे ओमी।"
"सच रानी साहिबा?"
"तुमसे क्या झूठ बोलना।" शनिका ने कहा और सहज भाव में अपनी नाइटी उतारी और एक तरफ उछाल दी।
शनिका का संगमरमरी जिस्म, ब्रा और पैंटी में फँसा दिखा। ओमी की निगाह उसके शरीर पर फिसलने लगी।
"मैं बहुत थक गई हूँ ओमी। कल काम भी बहुत करने हैं। तुम मेरी थकान उतार दो। एकदम चुस्त कर दो मुझे।"
ओमी आगे बढ़ा और शनिका क जिस्म को सिर से पाँव तक चूमने-चाटने लगा। रौंदने लगा, मसलने लगा। वह सब कुछ करने लगा, जिससे शनिका की थकान गायब हो जाती थी। ओमी जानता था कि शनिका को क्या चाहिए।
■■■
अगले दिन सुबह साढ़े छः बजे शनिका कॉफ़ी के मग थामें प्रेम के कमरे में पहुँची। शनिका की आँखों में मस्ती के लाल डोरे नाच रहे थे। उसकी नींद पूरी नहीं हुई थी, लेकिन वह खुद को हल्का महसूस कर रही थी। ओमी ने रात उसकी थकावट उतार दी थी। आज वह भाग-दौड़ के लिए तैयार थी।
प्रेम व्हील चेयर पर बैठा, खिड़की के पास मौजूद बाहर देख रहा था।
बाहर चारदीवारी के भीतर काफी बड़ी तादाद में शामियाने लगाए जा रहे थे। मजदूरों के बातें करने का शोर यहाँ तक आ रहा था। वासु उनके बीच मौजूद था। शनिका ने घूँट भरा और हाथ प्रेम के सिर पर फेरा। प्रेम ने गर्दन घुमाकर उसे देखा फिर व्हील चेयर माड़ता कह उठा-
"यह सब क्या हो रहा है बाहर?"
"चुनाव की तैयारियाँ।" शनिका मुस्कुरायी, "वासु, भँवरा और रामसिंह का कहना है कि मुझे जनता के लिए लंगर खोल देना चाहिए। इसमें जनता मुझे अपने पास महसूस करेगी और मुझे वोट देगी। इस दौरान उनके बर्तनों में खाना डालने मुझे उनके पास भी जाना होगा। यानी कि थोड़ा सा ड्रामा करना जरूरी है।"
"बकवास! तुम इतने खूबसूरत लॉन को बर्बाद कर रही हो।मैंने विदेशों से घास मँगवा कर लॉन बनाया था।"
"मैं घास फिर मँगवा लूँगी।" शनिका ने कहा और कॉफ़ी का घूँट भरा। प्रेम शनिका को देखने लगा, फिर बोला-
"तुम रात को मेरे पास नहीं आयी। मैं इंतज़ार करता रहा।"
"मैं थकी हुई थी प्रेम डार्लिंग...।"
"तुम्हें मेरी इच्छाओं का ध्यान रखना चाहिए। दो महीने हो गए और तुम...।"
"अभी तो महीना भर मैं और व्यस्त हूँ।" शनिका मुस्कुरायी।
"क्या मतलब?"
"चुनाव में व्यस्त होने जा रही हूँ आज से। एक पल की भी फुर्सत नहीं मिलेगी। पंद्रह दिन बाद चुनाव होने हैं। उसके बाद जीत का जश्न होगा। बाकी कई काम होंगे। एक महीना तो मुझे वक़्त ही नहीं मिलेगा।"
"मेरे पास, मेरा काम करने में तुम्हें वक़्त ही क्या लगता है।" प्रेम ने तीखे स्वर में कहा।
"तुम अपने हाथों को खुद ही तकलीफ क्यों नहीं देते।"
"तुम किसलिए हो?"
"मैं तुम्हारे बाकी कामों को संभाल रही हूँ डिअर।"
प्रेम के दाँत भिंच गए। वह गुस्से में कह उठा-
"मैंने बहुत बड़ी गलती की तुम्हें चुनकर। वामा तुमसे बहुत अच्छी थी।"
■■■
पाँच दिन बाद-
जगत पाल जैसलमेर के एक साधारण से होटल में आ ठहरा। चेहरे पर दाढ़ी-मूँछें थीं।
रात हो रही थी। उसने तीन पैग मारे और खाना खाकर गहरी नींद में सो गया। अगले दिन सुबह सात बजे उठा। नहा-धोकर कपड़े पहने। उसे पूरा विश्वास था कि देवली, वालिया के साथ वहाँ पहुँच गयी थी। उसने दाढ़ी-मूँछें लगाई और रिसेप्शन पर पहुँचा। वहाँ पर उस वक़्त कोई नहीं था। जगत पाल ने वहाँ रखे रजिस्टर को चेक किया तो पता चला कि वालिया और देवली रात बारह बजे होटल में पहुँचे हैं और उससे दो कमरे छोड़कर एक कमरे में ठहरे हैं।
जगत पाल वापस कमरे में आ गया। वह जानता था कि देवली खुद ही उसके बारे में पता करके आ जायेगी उसके पास।
हुआ भी ऐसा ही। बारह बजे के करीब देवली उसके पास कमरे में आ गयी।
"आ मेरी जान!" जगत पाल मुस्कुराया, "मैं कब से तेरा इंतजार कर रहा हूँ।"
देवली गंभीर थी। उसके हाथ में एक लिफाफा था। जगत पाल ने उसकी गंभीरता पहचान कर कहा-
"क्या बात है अब बता? उस दिन फोन पर तू कई बातें कह रही थी। तूने कहा कि पहले तू रूपा को पहचान नहीं...।"
"हाँ जगतू! मुझे पहले से ही पता था कि बेबी की मौत में कुछ गड़बड़ है।"
"बेबी!" जगत पाल चौंका।
देवली के होंठ भिंच गए, बोली-
"याद है बेबी या भूल गए?"
"उसे कैसे भूल सकता हूँ। वह तेरी बहन थी। तुझसे ढेड़ साल छोटी। तू उस पर जान छिड़कती थी।"
"हाँ, वह मेरी सब कुछ थी! मैं उसे अच्छा जीवन देना चाहती थी। तभी दसवीं के बाद मैंने उसे अच्छे स्कूल में, हॉस्टल में भर्ती कराया दिया था और उसे कभी दिल्ली न आने दिया। मैं खुद ही मिल आती थी उससे। मैं नहीं चाहती थी कि उस पर मेरी छाया पड़े। वह मेरे से दूर रहे और फले-फूले। किसी अच्छे घर की बहू बनते उसे देखना चाहती थी।"
"सब याद है मुझे। जो भी पैसा तेरे को मिलता है, थोड़ा सा अपने पास रखकर, बाकी सारा बेबी को भेज देती थी। तेरी तो जान थी वह।" जगत पाल ने कहा, "लेकिन, लेकिन बहुत बुरा उसके साथ। जब कॉलेज खत्म किया तो उसने तेरे को बताया कि उसे प्रेम नाम के लड़के से प्रेम हो गया है। उससे वह शादी करने जा रही है।"
"हाँ!"
"लेकिन यह बात तूने कभी नहीं बताई कि उसने किससे शादी की थी। तूने मेरे से छिपाकर रखा।"
"इसलिए कि तेरे जैसा हरामी, प्रेम को यह न बता दे कि बेबी मेरी बहन है और मैं गैरकानूनी काम करती हूँ। इसलिए तेरे को कभी नहीं बताया था। अब सुन बेबी ने जिस प्रेम से शादी की थी, वह प्रेम जैसलमेर का ही था।"
"जैसलमेर? यानी कि यहीं का?" जगत पाल चौंका।
"हाँ!" देवली ने गंभीर स्वर में कहा, "जिस वक्त बेबी ने प्रेम से शादी की, उसके एक सप्ताह पहले ही मैं छीना-झपटी के मामले में जेल पहुँच गयी थी। उसकी शादी में न जा सकी थी।"
"मुझे याद है। तूने मुझे यह बात बताई थी।"
"और अभी जेल में ही थी कि पाँचवें महीने बेबी के मरने और लाश मिलने की खबर मुझे मिली। यहीं जैसलमेर के रेगिस्तान में दो किलोमीटर दूर उसकी लाश मिली थी। बाज-चीलों ने उसका शरीर खाया हुआ था। परन्तु चेहरा एकदम सलामत था कि वह पहचानी जा सकी। बेबी मर गयी। मेरी बहन मर गयी। पुलिस ने ही कहा था कि वह रेगिस्तान में रास्ता भटक कर भूख-प्यास से बेहोश हो गयी और चील-बाजों ने उसका शरीर नोच कर खा लिया। जिस ऊँट पर सवार होकर वह रेगिस्तान घूमने के लिए निकली थी, वह ऊँट भी लाश के पास ही भटकता मिला था।"
जगत पाल देवली को देखे जा रहा था। तस्वीर में बेबी के साथ एक और युवती थी।
"यह तस्वीर बेबी ने मुझे भेजी थी और लिखा था कि यह उसकी सबसे अच्छी सहेली है।"
"तो?" जगत पाल ने सिर हिलाया और तस्वीर से नजर हटाकर देवली को देखा।
"खा गया धोखा। तस्वीर ध्यान से देख।"
जगत पाल ने पुनः तस्वीर देखी। बहुत ध्यान से देखी। अगले ही पल जगत पाल की आँखें हैरानी से चौड़ी होती चली गयी।
"यह... यह साथ वाली युवती तो शनिका है। वह... वही...।"
"हाँ! यानी कि शनिका, बेबी की खास सहेली थी। बेबी और प्रेम के साथ ही कॉलेज में पढ़ती थी। बेबी का मारा जाना और शनिका का प्रेम की पत्नी बन जाना महज संयोग नहीं हो सकता। शनिका शातिर है। चालें चलने में माहिर है, यह तुम भी देख चुके हो और मैं भी। प्रेम के पास बेहिसाब दौलत है। यह मैं जानती हूँ। उसी दौलत के खातिर शनिका ने चाल चली होगी बेबी की जगह लेने की।"
"यह महज इत्तेफाक भी हो सकता है।"
"मैं नहीं मानती।"
"तुम्हें इस पर भी सोचना चाहिए कि शनिका पहले से ही प्रेम को जानती थी। बेबी की मौत के बाद शनिका ने प्रेम से शादी कर ली हो। मेरे ख्याल से इत्तेफाक ही है।"
"मैं भी इसे इत्तेफाक ही मानती तुम्हारी तरह। अगर शनिका को ठीक से न जानती होती। उसने वालिया के साथ जो किया वह हर कोई नहीं कर सकता। कोई हरामी औरत ही ऐसा कर सकती है। मुझे पूरा यकीन है कि बेबी को शनिका ने अपने रास्ते से हटा कर प्रेम से शादी कर ली। वह खूबसूरत है और मर्द उसकी तरफ खींचे चले आते हैं।"
जगत पाल गंभीर नजर आने लगा। देवली का चेहरा क्रोध से तप रहा था।
"हो सकता है कि तेरी बात सही हो।" जगत पाल बोला, "लेकिन इतनी बड़ी बात को आसानी से नहीं माना जा सकता।"
"यह इत्तेफाक नहीं है, बेबी का मर जाना और शनिका का उसकी जगह ले लेना।"
"अब क्या करना चाहती हो तुम। शनिका को मार देना चाहती हो?"
"इस तरह नहीं?
"तो?"
"पहले सच का पता लगाऊँगी। मेरा दावा है कि शनिका ने ही बेबी को मारा है।"
"यह लम्बा काम है।"
मेरी खातिर, तेरे को मेरा साथ देना होगा।"
"जरूर दूँगा, मैंने मना तो किया नहीं। लेकिन वालिया को तू साथ ले आयी, उसका क्या करेगी?"
"वह बलि का बकरा बनेगा। वालिया को शनिका से उलझा दूँगी, इधर मैं अपना काम करती रहूँगी।"
"मुझे नहीं पता कि तेरे दिमाग में क्या है?" जगत पाल गंभीर था।
"सब समझा दूँगी तुझे।" देवली उससे तस्वीर लेकर लिफाफे में डालती हुई कह उठी, "पहले वालिया को अपने हिसाब से काम पर लगा दूँगी। मैं इस तरह काम करूँगी कि शनिका यही समझे कि सब कुछ वालिया कर रहा है। शनिका का ध्यान वालिया पर रहेगा और मैं बेबी के मौत के बारे में पता लगाऊँगी।" देवली उठ खड़ी हुई।
"मुझसे सलाह ले लेना। जल्दी में कोई गड़बड़ मत कर बैठना।" जगत पाल उसे देखता कह उठा।
"तो सुन मेरा प्लान क्या है।" इसके साथ ही देवली जगत पाल को सब कुछ बताने लगी।
■■■
"मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूँ अजय।" देवली ने गंभीर स्वर में कहा, "यह बात मुझे भी आज सुबह ही पता चली।"
"क्या देवली?"
"मेरी एक बहन थी- बेबी। वामा नाम था उसका। ढेड़ साल छोटी थी मुझसे। मैं उससे बहुत प्यार करती थी। जब वह पंद्रह साल की थी तो मैंने उसे हॉस्टल में पढ़ने भेज दिया। मैं उसे बहुत बड़ा बनते देखना चाहती थी। माता-पिता तो बचपन में ही नहीं रहे थे। सो बेबी की पढ़ाई में घर का सामान तक बिक गया। पापा का जो पैसा था, वह भी खत्म हो गया। बेबी के कॉलेज में आते-आते तब मैं नौकरी करनी शुरू कर दी और बेबी की पढ़ाई बराबर जारी रखी।"
वालिया की नजरें देवली पर थी।
"मैंने बेबी को पढ़ाया, कॉलेज कराया। एक बार उसने बताया कि वह प्रेम नाम के लड़के से प्रेम करती है और उससे शादी करना चाहती है। मुझे क्या एतराज हो सकता था। जब शादी का वक़्त आया तो मेरा एक्सीडेंट हो गया। मैं शादी में शामिल न हो सकी। पैसे बेबी को भिजवा दिए कि वह शादी की तैयारी करी और शादी कर ले। इस तरह प्रेम के साथ बेबी की शादी हो गयी और पाँचवे महीने ही बेबी की लाश मिली। इधर ही रेगिस्तान में।
"ओह!" वालिया चौंका, "बुरा हुआ।"
"पुलिस ने बताया कि बेबी रेगिस्तान में ऊँट पर घूमने निकल गयी थी, परन्तु रास्ता भटक जाने और भूख-प्यास की वजह से रेगिस्तान में बेहोश हो गयी और चील-बाजों ने उसका माँस नोच खाया।"
वालिया ने गहरी साँस ली।
"अब मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि प्रेम ने साल भर बाद दोबारा शादी कर ली। पूछो किससे?"
"किस से?"
"शनिका से।"
वालिया के मस्तिष्क में तीव्र झटका लगा।
"शनिका! तुम्हारा मतलब रूपा से?" वालिया के होंठों से निकला।
"हाँ! यह बात मुझे भी आज ही पता चली। पहले मैं शनिका को पहचान नहीं पाई थी।" देवली ने लिफाफा खोलकर तस्वीर बाहर निकालकर उसे दिखाई, "इसमें मेरी बहन बेबी है। शनिका के पहले की तस्वीर है। यह तस्वीर बेबी ने मुझे भेजी थी कि शनिका उसकी सबसे खास सहेली है"
वालिया ने तस्वीर देखी। उसके चेहरे पर कठोरता आ गयी।
"यह कब की बात है?"
"पाँच-छः साल पहले की।"
वालिया ने तस्वीर से नजरें हटाकर देवली के चेहरे को देखा।
"तुम कहना क्या चाहती हो? वैसे तुम्हारी बहन के बारे में सुनकर दुख हुआ।"
"शनिका को पहले नहीं जानती थी कि वह कैसी है। यह तो इत्तेफाक से शनिका को समझ पायी कि वह कैसी खतरनाक औरत है।
उसने जो तुम्हारे साथ किया, वह करने का हौसला हर कोई नहीं रखता। वह कुछ भी कर सकती है।"
वालिया, देवली को देख रहा था। देवली का चेहरा कठोर हो चुका था।
"प्रेम के पास बे-हिसाब दौलत है। वह खानदानी आदमी है। मुझे शक है कि शनिका ने बेबी को रास्ते से हटाकर, प्रेम से शादी की। बेबी की मौत सामान्य नहीं थी। उसे मारा गया था।"
"वह औरत कुछ भी कर सकती है देवली।" वालिया के दाँत भिंच गए।
"मैं अपने इस शक को यकीन में बदलने के लिए, अपनी बहन की मौत के बारे में जानकारी हासिल करना चाहूँगी। परन्तु इसके लिए मुझे तुम्हारी सहायता की जरूरत है। मैं चाहती हूँ कि तुम शनिका को अपने में उलझा लो और मैं अपना काम करती रहूँ।"
"मैं तुम्हारे लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ देवली।"
"मैं जानती हूँ कि तुम मेरी बात को टालोगे नहीं। मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ अजय।"
"मैं यहाँ शनिका से अपनी बर्बादी का बदला लेने आया हूँ। उसे तबाह करने...।"
"हम दोनों मिलकर यह काम करेंगे। तुम मेरा साथ दो और मैं तुम्हारा। तुम्हारे साथ-साथ मैं अपनी बहन बेबी की मौत का बदला भी लूँगी।" देवली गुर्रा उठी, "बहुत बुरी मौत मारूँगी, बस एक बार मेरी सोचों को यकीन मिल जाये कि मेरा जो ख्याल है, वह ठीक है। फिर देखना मैं शनिका का क्या हाल करती हूँ।"
वालिया की निगाहें देवली के चेहरे पर टिकी रही।
"क्या हुआ?"
"कभी-कभी तुम मुझे भी, शनिका की तरह ही खतरनाक लगती हो।" वालिया मुस्कुरा पड़ा।
"उसने मुझे बर्बाद किया, मेरी बहन को भी शायद मारा। वह बुरा भुगतेगी।"
"तुम मुझसे क्या चाहती हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ? अब तुम क्या करना चाहती हो?"
हमारी मंजिल एक ही है। और वह है शनिका।"
"जानता हूँ।"
उसके बाद देवली, वालिया को बताने लगी कि उसे क्या करना है। कैसे शनिका को उलझाना है।
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शनिका की खास सेविका रेखा, कार में बैठ कर मार्किट आयी थी। उसे अपने लिए सामान लेना था। कार को ड्राइवर चला रहा था। उसकी कार महल जैसे बंगले से बाहर निकली तो जगत पाल ने अपनी कार उसके पीछे दौड़ा ली। बगल में देवली बैठी थी। जगत पाल कह उठा -
"इसको बहुत ढंग से सम्भालना होगा।"
"मालूम है।"
"अगर इसे न सम्भाल पायी तो तुझे अपनी सारी योजना बदलनी होगी।"
"सम्भाल लूँगी। विश्वास तो है।" देवली ने कहा।
आगे वाली कार भरे-पूरे बाजार की पार्किंग में जा रुकी। जगत पाल ने भी एक तरफ कार रोक दी। देवली कार से बाहर आ गयी।
रेखा ड्राइवर से बोली -
"मुझे दो-तीन घण्टे लगेंगे। तुम्हें कहीं जाना हो तो चलो जाओ। फिर यहाँ वक़्त पर आ जाना।"
"ठीक है।" ड्राइवर कार लेकर चला गया।
उसके जाते ही रेखा एक तरफ खड़े युवक की तरफ बढ़ी और उसका हाथ थाम लिया। यह देखकर देवली के होंठ सिकुड़े।
रेखा और वह युवक बाजार में आगे जाकर एक रेस्टोरेंट में प्रवेश कर गए।
देवली ने उनके पीछे-पीछे भीतर प्रवेश किया। वे दोनों एक टेबल के पास कुर्सियों पर बैठे थे। देवली खामोशी से उनकी बगल वाली सीट पर जा बैठी।
रेखा की धीमी आवाज उसके कानों में पड़ी -
"तुम समझते क्यों नहीं राणा! मैं इस तरह नौकरी छोड़कर तुम्हारे साथ नहीं चल सकती। तुम्हारा काम भी पक्का नहीं है कि हमारा गुजारा कर सके। हम दोनों भाग गए तो कहाँ रहेंगे? क्या खायेंगे?"
"कुछ काम कर लेंगे।" राणा ने कहा।
"यह बेकार बात है। कम से कम तुम्हारे पास दो-चार लाख रुपया होना चाहिए कि मैं सोचूँ कि तुम कोई छोटा-मोटा काम कर लोगे। हमारी गृहस्थी ठीक से चल पड़ेगी।" रेखा ने परेशानी भरे स्वर में कहा।
"तुम्हारे पास पैसा नहीं है?"
"नहीं! मुझे तो तनख्वाह देखना भी नसीब नहीं होता। सारा पैसा तो रानी साहिबा से मामा ले जाता है।"
"मामा तुम्हें नहीं देता?"
"वह कमीना ऐश करता है, मेरे दम पर। जब तेरे साथ भागूँगी तो उसके होश ठिकाने पर आ जायेंगे।" रेखा ने कड़वे स्वर में कहा।
तभी वेटर उनके टेबल पर दो डोसे और सांभर रख गया। देवली ने भी खाने को डोसा ही बोला था। वह उन दोनों की बातें सुन रही थी और उसके मस्तिष्क में अगली योजना जन्म ले चुकी थी। तभी रेखा को पुनः कहते सुना -
"राणा, मैं तेरे साथ गृहस्थी बिताना चाहती हूँ। अब यहाँ पर मेरा दिल नहीं लगता। तू कहीं से पैसे का इंतजाम कर और मेरे को साथ लेकर कहीं दूर निकल ले। आखिर कब तक रानी साहिबा के काम करती रहूँगी।"
"कोशिश करूँगा पैसा इकट्ठा करने की।"
"दो साल से तेरी यही बातें सुनती आ रही हूँ। तू कुछ करता तो है नहीं।"
"जो करने को कहता हूँ, वह तू मानती नहीं।" राणा ने शराफत भरे स्वर में कहा।
"वह नहीं, वह शादी के बाद। मेरा स्वाद तुझे पहले मिल गया और मन भर गया तो तू मुझे छोड़ देगा।"
"तेरे को मेरे पर भरोसा नहीं।"
"है, तभी तो तेरे साथ भागने को तैयार हूँ। तू पैसे का इंतजाम कर। उसी वक़्त चल दूँगी तेरे साथ।"
"पैसे का ही तो इंतजाम नहीं होता रेखा। मैं तो...।"
तभी देवली अपनी कुर्सी से उठी और उनके पास कुर्सी पर जा बैठी।
दोनों ने उसे देखा। देवली मुस्कुरायी और बोली -
"मैं तुम दोनों को पैसा दे सकती हूँ।"
"तुम...?" रेखा कह उठी, "तुम क्यों दोगी पैसा?"
राणा के माथे पर बल पड़े।
"मेरे पास पाँच लाख रुपया है और मैं जैसलमेर में रहना चाहती हूँ। यह जगह मुझे अच्छी लगी। मैं जानती हूँ कि तुम रानी साहिबा कि यहाँ नौकरी करती हो। अगर मुझे वहाँ नौकरी लगवा दो तो मैं तुम्हें पाँच लाख दूँगी।"
"वहाँ नौकरी ऐसे नहीं लगती।" रेखा ने मुँह बनाकर कहा, "रानी साहिबा मेरे मामा को जानती हैं। उन्हीं ने मेरी नौकरी यहाँ लगवाई है। रानी साहिबा हर किसी को नौकरी पर नहीं रखती।"
"रानी साहिबा तुम पर विश्वास करती हैं?" देवली ने पूछा।
"क्यों नहीं?"
"तो तुम उन्हें कहना कि मैं तुम्हारी सहेली हूँ। अपनी गारंटी दो तो वह मुझे तुम्हारी जगह ही रख लेंगी। तुम तो इसके साथ भाग जाना चाहती हो जैसलमेर से। मैं तुम्हें पाँच लाख दूँगा कि तुम लोग कहीं जाकर आराम से रह सको।"
रेखा कुछ कहने लगी कि राणा ने टोका।
"एक मिनट रेखा, तुम जरा इधर आकर मेरी बात सुनो।" वह उठ खड़ा हुआ।
"लेकिन...।"
"सुनो तो।"
राणा, रेखा का हाथ पकड़कर एक तरफ ले गया। दो-तीन मिनट वे बात करते रहे। देवली देख रही थी कि रेखा, राणा की बात से असहमत है। परन्तु राणा उसे राजी कर रहा था। फिर वे दोनों पास आकर कुर्सियों पर बैठे और राणा ने बात की -
"पाँच लाख है तुम्हारे पास?"
"हाँ!"
दिखाओ!"
"दिखाने क्या है? पचास हजार तुम्हें अभी देती हूँ। बाकी साढ़े चार लाख नौकरी लगवा देने के बाद।"
"तुम रानी साहिबा का ठीक से ध्यान तो रखोगी?" रेखा ने बेचैनी से पूछा।
"हाँ!" देवली मुस्कुरायी, "बहुत ध्यान रखूँगी। मुझे उस महल जैसे बंगले में रहना अच्छा लगेगा।"
"अगर तुमने ठीक से काम नहीं किया तो रानी साहिबा तुम्हें नौकरी से बाहर कर देंगी। फिर मुझसे पाँच लाख वापस मत माँगना।" रेखा बोली।
"ऐसा कुछ होगा तो गलती मेरी होगी, तुम्हारी नहीं।"
"तुम किसी को यह नहीं बताओगी कि मैंने तुमसे पाँच लाख रुपये लिए हैं और मैं राणा के साथ भाग गई हूँ।"
"नहीं बताऊँगी।"
रेखा ने राणा को देखा।
"अब पैसे की बात करो।" राणा बोला, "तुम पचास हजार पहले और बाकी का साढ़े चार लाख बाद में देने को कह रही थी।"
"पैसा तो मेरे पास पूरा रखा है। बेशक अभी ले लो। मेरा काम हो जाना चाहिए।" देवली के चेहरे पर मुस्कान फैलती चली गयी।
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