कबीर के अगले कुछ दिन बेहद बेचैनी में बीते। जो हुआ, वह अचरज भरा था; जो हो सकता था वह कल्पनातीत था। कबीर ने सेक्स के बारे में पढ़ा था; का़फी कुछ सुन भी रखा था, फिर भी जो कुछ भी हुआ वह उसे बेहद बेचैनी दे रहा था। जिस समाज से वह आया था, वहाँ सेक्स, टैबू था; जिस परिवेश में वह रह रहा था, वहाँ भी सेक्स टैबू ही था। सेक्स के बारे में वह सि़र्फ समीर से बात कर सकता था; मगर वह समीर से बात करने से भी घबरा रहा था। उसे घबराहट थी कि कहीं समीर के सामने वह टीना के साथ हुई घटना का ज़िक्र न कर बैठे; इसलिए अगले कुछ दिन वह समीर से भी किनारा करता रहा। जब सेक्स, जीवन में न हो तो वह ख़्वाबों में पुऱजोर होता है। कबीर के ख़याल भी सेक्सुअल फैंटेसियों से लबरे़ज हो गए। पैंâटेसी में पलता प्रेम और सेक्स हक़ीक़त में हुए प्रेम और सेक्स से कहीं अधिक दिलचस्प होता है। फैंटेसियों को ख़ुराक भी हक़ीक़त की दुनिया से कहीं ज़्यादा, किस्सों और अ़फसानों की दुनिया से मिलती है। कबीर की फैंटेसियाँ भी फिल्मों, इन्टरनेट और किताबों की दुनिया से ख़ुराक पाने लगीं। पर्दों और पन्नों पर रचा सेक्स, चादरों पर हुए सेक्स से कहीं अधिक रोमांच देता है। कबीर को भी इस रोमांच की लत लगने लगी।

फिर आई नवरात्रि। नवरात्रि की जैसी धूम वड़ोदरा में होती है, उसकी लंदन में कल्पना भी नहीं की जा सकती; मगर लंदन में भी कुछ जगहों पर गरबा और डाँडिया नृत्य के प्रोग्राम होते हैं, और कबीर को उनमें जाने की गहरी उत्सुकता थी। अपनी जड़ों से ह़जारों मील दूर, पराई मिट्टी पर उसकी अपनी संस्कृति कैसे थिरकती है, इसे जानने की इच्छा किसे नहीं होगी। अगली रात कबीर, समीर के साथ गरबा/डाँडिया करने गया। अंदर, डांस हॉल में जाते ही कबीर ने समीर के कुछ उन साथियों को देखा, जो उस दिन उसकी पार्टी में भी आए थे। समीर के साथियों से हाय-हेलो करते हुए ही अचानक कबीर की ऩजर मिली टीना से। टीना से ऩजरें मिलते ही कबीर का दिल इतनी ज़ोरों से धड़का, कि अगर डांस हॉल में तबले और ढोल के बीट्स गूँज न रहे होते, तो उसके दिल की धड़कनें ज़रूर टीना के कानों तक पहुँच जातीं।

‘‘हेलो कबीर!’’ टीना ने सहजता से मुस्कुराकर अपना हाथ कबीर की ओर बढ़ाया।

मगर कबीर की टीना से न तो हाथ मिलाने की हिम्मत हुई, और न ही ऩजरें। ऩजरें नीची किए हुए उसने बड़ी मुश्किल से हेलो कहा, और ते़जी से वहाँ से खिसककर डांस करते लड़कों की टोली में घुस गया।

लंदन का डाँडिया लगभग वैसा ही था, जैसा कि वड़ोदरा का होता था। अधिकांश लोग पारंपरिक भारतीय/गुजराती वेशभूषा में ही थे। संगीत भी परंपरागत, आंचलिक और बॉलीवुड का मिला-जुला था। कबीर को यह देखकर भी सुखद आश्चर्य हुआ, कि ब्रिटेन में पैदा हुए और पले-बढ़े युवक-युवतियाँ भी संगीत और नृत्य की बारीकियों को समझते हुए, सधे और मँझे हुए स्टेप्स कर रहे थे। उस दिन की, समीर और उसके साथियों की पार्टी के म्यू़िजक और डांस, और आज के नृत्य-संगीत की कोई तुलना ही नहीं थी। कहाँ, शराब के नशे में कानफाड़ू संगीत पर बेहूदगी से मटकते अद्र्धनग्न जिस्म, और कहाँ भक्ति-रस में डूबे संगीत पर सभ्यता से थिरकती देहें। वातावरण और परिवेश, इंसान में कितना फर्क ले आते हैं।

मगर उस रात की पार्टी की तरह ही टीना और समीर एक जोड़ी में ही डांस करते रहे। कबीर की ऩजर बार-बार उन पर जाती रही, और टीना की ऩजरों से चोट खाकर पलटती रही। उस वक्त कबीर को जो बात सबसे ज़्यादा खल रही थी, वह थी टीना की मुस्कान। पता नहीं वह टीना की बेपरवाही थी या बेशर्मी; मगर कबीर उससे वैसी सहज मुस्कान की अपेक्षा नहीं कर रहा था, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो; जैसे, टीना को उस रात की गई अपनी बेशर्मी का कोई अहसास ही न हो। जो भी हो, वह उसके बड़े भाई की गर्लफ्रेंड थी; वह उसके साथ वैसी बेशर्मी कैसे कर सकती थी? शायद वैसा शराब के नशे की वजह से हुआ हो, मगर फिर भी उसे उसका कुछ पछतावा तो होना चाहिए। क्या टीना को अपने किए का कोई अहसास या पछतावा नहीं है? क्या वह ख़ुद ही बेकार अपने मन पर बोझ डाल रहा है? क्या होता यदि वह वहाँ से भाग खड़ा न होता? कम से कम आज टीना से ऩजरें मिलाने लायक तो होता। कबीर को ये सारे ख़याल परेशान करते रहे; कुछ इस कदर, कि उससे वहाँ और नहीं रहा गया; समीर को बिना बताए वह घर लौट आया।

अगली सुबह कबीर बेचैन सा रहा। बड़े बेमन से स्कूल गया। क्लास में मन लगाना कठिन था। कभी पिछली रात की टीना की मुस्कान तंग करती तो कभी टीना के साथ हुई घटना की यादें। लंचटाइम में भी कबीर यूँ ही बेचैन सा अकेला बैठा था। खाने का भी कुछ ख़ास मन न था, कि अचानक उसके चेहरे पर ख़ुशी तैर आई। ख़ुशी की लहर लाने वाली थी हिकमा, जो उसके सामने खड़ी थी।

‘‘हाय कबीर! कैन आई ज्वाइन यू?’’ हिकमा ने कबीर से कहा।

‘‘ओह या..श्योर।’’

‘‘लुकिंग अपसेट!’’ टेबल पर अपने खाने की प्लेट रखकर, कबीर के सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए हिकमा ने पूछा।

‘‘नो, जस्ट टायर्ड।’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘नवरात्रि है न, कल देर रात तक डांस किया था।’’ कबीर ने झूठ बोला।

‘‘ओह डाँडिया डांस! इट्स फन, इ़जंट इट?’’

‘‘चलोगी डाँडिया करने?’’ कबीर अनायास ही पूछ बैठा।

‘‘कब?’’

‘‘आज रात को।’’

‘‘ओह नो, इट्स लेट इन नाइट, आई कांट गो।’’

‘‘चलो न, म़जा आएगा; वहाँ बटाटा वड़ा भी मिलता है।’’

बटाटा वड़ा सुनकर हिकमा के चेहरे पर हँसी आ गई।

‘‘ठीक है मैं घर में पूछती हूँ, कांट प्रॉमिस।’’

‘‘एंड आई कांट वेट।’’ कबीर ने मुस्कुराते हुए कहा।

उस शाम हिकमा आई। उसने गहरे जामुनी रंग की सलवार कमी़ज पहनी हुई थी जो उसके गोरे बदन पर बहुत खूबसूरत लग रही थी। सिर पर खूबसूरत सा रंग-बिरंगा स्कार्फ बाँधा हुआ था। हिकमा का आना कबीर के लिए ख़ास था। उसके आने का मतलब था कि उसे कबीर की परवाह थी। उसके आने का मतलब यह भी था कि उस शाम कबीर ख़ुद को अकेला या उपेक्षित महसूस करने वाला नहीं था।

हिकमा को डाँडिया नृत्य कुछ ख़ास नहीं आता था। कबीर को उसके साथ ताल-मेल बिठाने में मुश्किल हो रही थी। दूसरी ओर समीर और टीना की जोड़ी मँझी हुई जोड़ी थी। हिकमा के साथ डांस करते हुए भी कबीर की ऩजर रह-रह कर टीना की ओर जाती और उसकी बेपरवाह मुस्कान से टकराकर वापस लौट आती। मगर आज कबीर भी इरादा करके आया था कि वह उस बेपरवाही का जवाब बेपरवाही से ही देगा। और फिर आज उसका सहारा थी हिकमा। मगर चाहते हुए भी कबीर वैसा बेपरवाह नहीं हो पा रहा था, और अपनी बेपरवाही जताने के लिए उसे बार-बार हिकमा के और भी करीब जाना पड़ रहा था। हिकमा को कबीर का करीब आना शायद अच्छा लगता, अगर उसमें कोई सहजता होती; मगर उसे लगातार यह अहसास हो रहा था कि कबीर सहज नहीं था। टीना की ओर उठती उसकी ऩजरों का भी उसे अहसास था।

कुछ देर बाद ब्रेक हुआ। हिकमा को थोड़ी राहत महसूस हुई। एक तो उसे डाँडिया नृत्य अच्छी तरह नहीं आता था; उस पर कबीर की बेचैनी। तभी उसने टीना को उनकी ओर आता देखा। हिकमा को अहसास था कि टीना ही वह लड़की थी, जिसकी ओर कबीर की ऩजरें रह-रहकर जा रही थीं।

टीना के करीब आते ही कबीर का दिल ज़ोरों से धड़का, जिसकी आवा़ज शायद हिकमा को भी सुनाई दी हो; और यदि न भी सुनाई दी हो, तो भी उसे कबीर के माथे पर उभर आर्इं पसीने की बूंदें ज़रूर दिखाई दी होंगी।

‘‘हेलो कबीर!’’ टीना ने मुस्कुराकर कबीर से कहा। कबीर को फिर उसकी मुस्कुराहट खली... वही बेपरवाह मुस्कान।

‘हेलो!’ कबीर ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा।

‘‘दिस इ़ज हिकमा।’’ फिर उसी बेबस सी मुस्कान से उसने हिकमा का परिचय कराया।

‘हाय!’ हिकमा ने भी मुस्कुराकर टीना से कहा।

‘‘हाय, आई एम टीना!’’ टीना ने उसी सहज मुस्कान से कहा, ‘‘यू हैव ए वेरी प्रिटी गर्लफ्रेंड कबीर।’’

‘गर्लफ्रेंड’ शब्द हिकमा के लिए चौंकाने वाला था। तब तक उसने कबीर के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं सोचा था; और यदि सोचा भी हो, तो भी वह सोच किसी सम्बन्ध में तब तक नहीं ढल पाई थी।

कबीर के चेहरे पर बेबसी के भाव थे। उससे कुछ भी कहते न बना; बस मुस्कुराकर रह गया।

‘‘कबीर, आई हैव टू गो; इट्स गेटिंग लेट नाउ।’’ हिकमा ने कहा।

कबीर उससे रुकने के लिए भी न कह पाया। बस उसी बेबस मुस्कान से उसने मुस्कुराकर हिकमा को बाय कहा, और ख़ुद भी घर लौट आया।