रविवार : 24 मई

रविवार सुबह ग्यारह बजे पुलिस ने सुष्मिता को गिरफ्तार कर लिया।
चार्ज : कत्ल की साजिश में शरीक। दफा 120-बी के तहत गिरफ्तारी।
कोएक्यूज्ड : जीतसिंह
कैसी विडम्बना थी!
क्या खूब इंसाफ था कानून के रखवालों का!
आखिर एफआईआर दर्ज हुई तो जिन के खिलाफ शिकायत थी, उन को गिरफ्तार न किया गया, शिकायतकर्ता को गिरफ्तार किया गया।
जीतसिंह को वैसी तुर्ती फुर्ती से गिरफ्तार न किया जा सका जैसे कि उन्होंने सुष्मिता को किया था। वजह ये थी कि उसके जिन ठिकानों की—जैसे क्राफोर्ड मार्केट,चिंचपोकली—पुलिस के पास जानकारी थी, वहाँ वो नहीं पाया गया था।
सुष्मिता बड़ी मुश्किल से अपने वकील को—गुंजन शाह को—गिरफ्तारी की बाबत फोन लगा पायी थी, शाह ने उस बाबत नवलानी को बताया था और नवलानी ने आगे जीतसिंह को खबर की थी—खबरदार किया था।
प्रत्यक्ष था कि पुलिस को जीतसिंह के विट्ठलवाडी कालबा देवी वाले नये ठिकाने की खबर नहीं थी लेकिन खबर लग जाना महज वक्त की बात होती।
लिहाजा जीतसिंह के सामने अब एक नयी समस्या तैयार थी। अगर उसने गिरफ्तारी से बचना था तो किसी नये, सेफ ठिकाने का जुगाड़ करना था। वो गाइलो, डेविड परदेसी जैसे किसी दोस्त की शरण में नहीं जा सकता था क्योंकि पिछले वाकये के बाद से वो लोग—उन जैसे और भी कुछ लोग—पुलिस की जानकारी में थे।
सुबह उसने उस रोज का अखबार देखा था लेकिन जैसी कि उसे उम्मीद थी, उसमें अनिल घुमरे या जमाल हैदरी का कोई जिक्र नहीं था।
जो कि उसके लिये हैरानी की बात थी।
नवलानी की काल सुनकर उसने फोन को करीबी टेबल पर रखा ही था कि घण्टी फिर बजी।
उसने काल रिसीव की।
‘‘बद्री!’’—आवाज आई।
‘‘बोलता है। कौन?’’
‘‘मै राजाराम लोखण्डे ।’’
‘‘जल्दी फोन लगाया, बाप! मेरे को तो शाम को फोन की उम्मीद थी जैसा कि तुम बोला था। अभी मार्निंग में फोन लगाया तो बोले तो मेरे वास्ते गुड न्यूज। एडवांस मंजूर!’’
‘‘बैड न्यूज, बद्री, बैड न्यूज!’’
‘‘बाप, तुम तो मेरा दिल बैठाता है!’’
‘‘तेरा तो अभी बैठेगा, मेरा तो बैठ चुका ।’’
‘‘खाली इतने से कि तुम एडवांस का इन्तजाम नहीं कर सका?’’
‘‘अरे, एडवांस की बात नहीं है। कोई और ही पंगा खड़ा हो गया है ।’’
‘‘बाप, तुम तो डराता है! और क्या पंगा? किधर पड़ा?’’
‘‘मेरी स्कीम में पड़ा। गोवा के रास्ते में रोकड़े पर घात वाली जिस स्कीम का खाका मैंने परसों तेरे सामने खींचा था, उसमें पड़ा ।’’
‘‘पड़ भी गया!’’
‘‘हाँ। ऐसा कि समझ कि अब उस स्कीम का, उस प्रोजेक्ट का वजूद ही फिनिश है ।’’
‘‘देवा! क्या हुआ?’’
‘‘फोन पर करने की बात नहीं। मेरे को मिल कहीं फौरन ।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘जरूरी है ।’’
‘‘बैड न्यूज को डिटेल में सरकाने का, इस वास्ते जरूरी है?’’
‘‘अरे, नहीं, भई। एक बैड न्यूज है तो क्या दुनिया खत्म है! एक सैट बैक हमेशा के लिये मेरा हौसला नहीं तोड़ सकता। एक लड़ाई हार जाने से कोई जंग नहीं हार जाता ।’’
‘‘फैंसी बातें है बाप, पण मैं कुछ समझा तो ये समझा कि अभी कुछ और है मगज में?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘जो डिसकस करने का?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘मेरे से? इस्पेशल कर के?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘क्यों कि जो और मगज में है, उस में भी मेरा रोल है?’’
‘‘बराबर ।’’
‘‘इस वास्ते मिलना माँगता है?’’
‘‘इमीजियेट कर के ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘तू बोल। परसों वाली जगह में ही क्या वान्दा है!’’
‘‘पैरामाउन्ट बार खुल तो जाता है ये टेम तक। टेम बोलो!’’
‘‘तू बोल!’’
‘‘आज मैं लेट जागा। मेरे को अभी रेडी होने का। बोले तो बारह ।’’
‘‘ठीक है ।’’
‘‘वही केबिन?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘आता है ।’’
जीतसिंह ने ‘पैरामाउन्ट’ में कदम रखा।
बार उस वक्त खाली जैसा था। बार काउन्टर के पीछे भी किरपेकर की जगह कोई और ऊंघता सा भीड़ू मौजूद था।
वो पिछली बार वाले कोने के केबिन पर पहँुचा।
वहाँ राजाराम लोखण्डे मौजूद था और पिछली बार की ही तरह फिर इसके साथ एक दूसरा भीड़ू मौजूद था। लेकिन इस बार जीतसिंह को उसकी बाबत सवाल न करना पड़ा। उस पर निगाह पड़ने ही राजाराम ने उस को कोई गुप्त इशारा किया जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप वो खामोशी से, फौरन, वहाँ से उठ कर चला गया।
जीतसिंह राजाराम के सामने बैठ गया, दोनों में अभिवादनों का आदान-प्रदान हुआ।
‘‘कौन था!’’—जीतसिंह ने सहज भाव से पूछा।
‘‘मालूम है तेरे को कौन था ।’’—राजाराम भुनभुनाता सा बोला।
‘‘बॉडीगार्ड!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘परसों वाला किधर गया?’’
‘‘मालूम नहीं। साला कल से गायब है। फोन बोलता नहीं ।’’
‘‘नौकरी पसन्द नहीं आई होगी! लम्बी ड्यूटी भारी पड़ी होगी!’’
‘‘हो सकता है। साला खड़े पैर नये का इन्तजाम करना पड़ा ।’’
‘‘ये टिकेगा?’’
‘‘देखेंगे ।’’
तभी वेटर वहाँ पहँुचा।
राजाराम ने बीयर का आर्डर दिया जिसकी सर्विस तक दोनों खामोश रहे।
दोनों ने—दोनों ने ही—बेमन से चियर्स बोला।
‘‘बाप’’—फिर जीतसिंह बोला—‘‘तुम्हेरे को बॉडीगार्ड माँगता किस वास्ते है? ‘भाई’ है क्या तुम?’’
‘‘यार, फालतू की बातें छोड़। मेरे को अभी सीरियस करके डायलॉग करने का ।’’
‘‘मैं हाजिर है न बरोबर उस वास्ते!’’
‘‘थैंक्यू ।’’
‘‘अब बोलो क्या पंगा पड़ा जो तुम बोलता है तुम्हेरी स्कीम ही फिनिश है?’’
‘‘सुन। हमारे सब्जेक्ट को, जिस का माल हमने नक्की करना था—बहरामजी कान्ट्रैक्टर को—मेरी स्कीम की सब खबर लग गयी ।’’
‘‘अरे! कैसे? तुम्हेरा कोई भीड़ू मुखबिरी किया?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तो?’’
‘‘जो किया नेताजी के पोलिटिकल राइवल्स ने, सियासी दुश्मनों ने, किया। उनको किसी तरह से आइन्दा होने वाली मराठा मंच पार्टी की करेंसी की मूवमेंट की खबर लग गयी और वो खबर उन्होंने आगे इलैक्शन कमीशन को लीक कर दी ।’’
‘‘लीक करने को खबर बाहर कैसे आयी?’’
‘‘पता नहीं कैसे आई! लेकिन मेरे को ये उसी भेदिये का काम मालूम होता है जिसने कॉनवॉय की खबर मेरे को लीक की थी। जैसे यूँ मेरे से रोकड़ा कमाया, लालच के हवाले हो कर वैसे अब नेताजी के सियासी दुश्मनों से कमाया। फौरन मगज में आने वाली बात तो यही है वर्ना कुछ भी हुआ हो सकता है ।’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘बहरहाल अब बहरामजी कान्ट्रैक्टर की नेतागिरी के बावजूद महाराष्ट्र-गोवा बार्डर पर उसके कॉनवॉय की भरपूर तलाशी होगी। नेताजी का रुतबा, रसूख, जलाल उस तलाशी को नहीं रोक पायेगा। उस की मंशा के मुताबिक कारवाँ चला तो रकम यकीनन पकड़ी जायेगी। नेता जी इतना नादान नहीं कि जानबूझ के मक्खी निगले, इस वास्ते उस ने रकम को वैसे गोवा पहँुचाने के प्रोग्राम को फैसला कर दिया है और उस रूट पर ऑपरेट करने वाले एक बड़े स्मगलर को पकड़ा है जो कि उसके लिये कोई प्राब्लम नहीं थी क्योंकि सब जानते हैं कि नेतागिरी में कदम रखने से पहले वो खुद स्मगलर था। उस स्मगलर ने रकम को आठ किस्तों में गोवा पहँुचाने की जिम्मेदारी ली है। कॉनवॉय की सूरत में ढोने के लिये जो रुपया जमा किया गया था, उसको आठ हिस्सों में बाँट भी दिया गया है और जुदा जुदा तरीकों से, जरियों से आगे मूव करने के लिये जुदा-जुदा ठिकानों पर महफूज कर भी दिया गया है...’’
‘‘खुफिया जानकारी निकालने में ऐन पर्फेक्ट है, बाप!’’
‘‘जब निगाह बड़े माल पर हो तो बड़ी मशक्कत, बड़ी जांमारी के बिना कुछ होता है!’’
‘‘बरोबर बोला, बाप ।’’
‘‘अब मैं आगे बढ़ूँ?’’
‘‘आगे! ओ, हाँ। सॉरी बोलता है, बाप। सुनता है मैं ।’’
‘‘आगे एटीएम भरने की प्रोसेस को रिवर्स में इस्तेमाल किया जायेगा। जैसे इधर बैंकों के लिये बड़ी रकम से एटीएम भरे जाते हैं, वैसे अब गोवा में छोटी छोटी रकमों को एक फोकल प्वायन्ट पर एक बड़ी रकम में तब्दील किया जायेगा ।’’
‘‘इसमें सिक्योरिटी सर्विस का रोल?’’
‘‘जीरो। क्योंकि सुनने में आया है कि बजातेखुद नेताजी को शक है कि इतनी सीक्रेट जानकारी सिक्योरिटी सर्विस के आफिस से लीक हुई थी ।’’
‘‘इसके लिये तो सिक्योरिटी सर्विस को मालूम होना होयेंगा कि उन की बख्तरबन्द गाड़ी में नोट ढोये जाने थे!’’
‘‘मालूम ही होगा वर्ना जानकारी उस सोर्स से लीक हुई होने का क्या मतलब?’’
‘‘बरोबर बोला, बाप ।’’
‘‘वैसे भी अनजाने में वो लोगों का करोड़ों की रकम ढोने जितना बड़ा रिस्क क्यों लेंगे? रकम किसी भी वजह से पकड़ी जाये, जिम्मेदार तो वो भी होंगे बराबर! उनकी गाड़ी पकड़ी जाने पर कैसे क्लेम करेंगे कि सैट अप उनका, फिर भी बतौर कनसाइनमेंट क्या लोड किया गया, इसकी उन्हें कोई खबर नहीं थी!’’
‘‘वो फिर भी ये काम करने को तैयार थे तो—तुम्हेरा मुहावरा चुरा के बोलता है, बाप—ये तो आँखों देखी मक्खी निगलने जैसा हुआ!’’
‘‘मेरे खयाल से मक्खी निगलना उन्हें दो वजह से कबूल हुआ हो सकता है। एक तो बड़े नेता की धौंस पट्टी कि उस के होते कोई चैकिंग नहीं होने वाली थी, होगी तो सिक्योरिटी कम्पनी को वो बचा लेगा। जमा, ये नहीं भूलने का कि नेता जी अपनी गुजरी जिन्दगी में बड़ा मवाली रह चुका है, ‘भाई’ रह चुका है, कोई बड़ी बात नहीं कि सिक्योरिटी सर्विस को साफ ही धमका दिया हो कि वो लोग उसकी मर्जी के मुताबिक काम को हैंडल करने से इंकार करेंगे तो नेताजी बर्बाद कर देगा। धमकी में सिक्योरिटी कम्पनी के मालिक की सुपारी भी शामिल हो तो कोई बड़ी बात नहीं ।’’
‘‘दूसरी वजह बोले तो?’’
‘‘दूसरी वजह मोटी फीस का लालच। खास, गैरमामूली मोटी फीस का लालच! साथ में नेताजी की कुछ न होने देने की गारन्टी ।’’
‘‘नेताजी अपने दबदबे से ऐसी गारन्टी जारी कर सकता है तो रेड को अब नहीं रुकवा सकता?’’
‘‘नहीं रुकवा सकता। कार्यवाही ऐन टॉप से होनी है, खुद चीफ इलैक्शन कमिश्नर के आफिस से होनी है और एनफोर्समेंट डायरेक्ट्रेट के दखल से होनी है। इतना ऊपर तक अपना सियासी रसूख आजमाने की औकात चार रोज के नेता, एक्स स्मगलर और काला बाजारिया बहरामजी कान्ट्रैक्टर की अभी नहीं बनी है ।’’
‘‘इस वास्ते वो प्रोजेक्ट ड्रॉप!’’
‘‘और साथ में मेरा वो रोकड़ा बर्बाद जो मैं अब तक खर्च किया। लेकिन बद्री, भागते भूत की लंगोटी हाथ आ जाने की गुंजायश अभी है ।’’
‘‘क्या? कैसे?’’
‘‘बड़ी, मुक्कमल रकम को जिन आठ जुदा-जुदा ठिकानों पर डिस्ट्रीब्यूट किया गया है, उन में से एक की खबर मुझे है। कैसे है, ये पूछना एक लम्बी कथा करना होगा लेकिन है ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘नेताजी के अपने खुद के बंगले पर जो कि खण्डाला में है। वहाँ मुम्बई पूना रोड पर ड्यूक्स रिट्रीट करके एक होटल है जिससे कोई आधा किलोमीटर पर उनका वो बंगला है। खण्डाला, तेरे को मालूम ही होगा, इधर से कोई सवा सौ किलोमीटर के फासले पर है, बहुत बढ़िया हिल स्टेशन है ।’’
‘‘वो तो मेरे को मालूम पण मैं तो सुना नेताजी कोलाबा में रहता है ।’’
‘‘कोलाबा में भी रहता है लेकिन मई के आजकल के गर्म मौसम में खण्डाला में रहना पसन्द करता है। नेतागिरी के चक्कर में आजकल इधर तकरीबन रोजफेरा लगाता है लेकिन रात को पक्की करके वापिस खण्डाला पहँुच जाता है ।’’
‘‘गोवा जाने का हो तो?’’
‘‘तो अपने हैलीकाप्टर पर जाता है, रात को फिर भी खण्डाला में होता है, भले ही अगले रोज फिर गोवा जाना हो ।’’
‘‘कमाल है! तो बड़ी रकम का, जो कि गोवा पहँुचाई जानी थी, एक एक-बटा-आठ हिस्सा उधर उस बंगले में मौजूद है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘तगड़ी सिक्योरिटी होगी!’’
‘‘सिक्योरिटी तो है—नेताजी जो ठहरा—लेकिन तगड़ी नहीं है, रकम की वजह से तो बिल्कुल नहीं है क्योंकि दो-पौने दो करोड़ नेताजी की औकात के लिहाज से कोई बड़ी रकम नहीं। सिक्योरिटी आजकल नेता लोगों की रौनक बन गयी है, सजावट बन गयी है, ऊपर से वो पुराना मवाली है, सिक्योरिटी तो उसको बराबर माँगता है...’’
‘‘बाप, बुरा न मानना, उसके मुकाबले में तुम कुछ भी नहीं है, फिर भी जब तुम्हेरे को माँगता है तो उसको तो साला टैन टाइम्स ज्यादस्ती माँगता होयेंगा ।’’
‘‘इतना नहीं, इतना नहीं। वहाँ सिक्योरिटी का भार मोटे तौर पर शिकारी कुत्तों पर है जो कि वहाँ चार हैं ।’’
‘‘रकम की वजह से नहीं? हमेशा होते हैं?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘रोकड़ा उधर किधर है, मालूम?’’
‘‘मालूम। नहीं मालूम तो इस मीटिंग का मतलब क्या हुआ?’’
‘‘बढ़िया ।’’
‘‘रोकड़ा एक वाल्ट जैसी सेफ में होगा जो नहीं खुल सकती ।’’
‘‘हर कोई साला यहीच दावा ठोकता है ।’’
‘‘ठीक ठोकता है। क्योंकि उसे बद्रीनाथ नाम के वाल्टबस्टर के रेयर टेलेंट की खबर नहीं होती ।’’
‘‘बोले तो उधर भी मेरा यहीच काम! वाल्ट बस्ट करने का!’’
‘‘ये भी कोई पूछने की बात है!’’
‘‘चार कुत्ते बोला। जब कि मेरे को फाड़ खाने के वास्ते एकीच काफी ।’’
‘‘वो तो है बराबर। जर्मन शेपर्ड नस्ल के कुत्ते बताये जाते हैं। राटवीलर। शेर जैसे कद्दावर, खतरनाक, खूँखार!’’
‘‘बढ़िया। बोले तो खुदकुशी का ये भी एक तरीका ।’’
‘‘लेकिन उन से डरने की कोई बात नहीं ।’’
‘‘क्योंकि तालातोड़ों के कद्रदान हैं! उन पर नहीं झपटते!’’
‘‘मजाक छोड़, यार। मैं सीरियस बात करने की कोशिश कर रहा हूँ ।’’
‘‘तो पहले पहली बात करो न, बाप! तुम्हेरा मेरे को उस बंगले में घुसाने का इरादा है?’’
‘‘अकेले तेरे को नहीं। मेरे को साथ होने का। मेरे बिना तू भीतर दाखिल नहीं हो सकता। उड़ कर भी नहीं ।’’
‘‘तुम क्या करेगा?’’
‘‘मेरा सब से बड़ा काम तो कुत्तों को इनएक्टिव करने का होगा ।’’
‘‘इनएक्टिव बोले तो!’’
‘‘उन्हें रास्ते से हटाना होगा। किसी काम का न छोड़ना होगा ।’’
‘‘कैसे करेंगा, बाप?’’
‘‘अन्दर का एक भीड़ू फोड़ा न!’’
‘‘फोड़ भी लिया!’’
‘‘मैं बाई हैबिट फास्ट वर्कर है ।’’
‘‘और अन्दर के भीड़ू फोड़ने में माहिर है ।’’
‘‘उधर ऐसे पाँच भीड़ू हैं जो रात को भी उधरीच होते हैं। दो बॉडीगार्ड, एक डॉग ट्रेनर, एक ड्राइवर और एक खानसामा। दो मेड भी हैं लेकिन वो रात को वहाँ नहीं ठहरतीं ।’’
‘‘तो भी चार कुत्तों को मिला कर नौ नग हुए न जिनसे कि अपुन को निपटना होयेंगा!’’
‘‘थ्योरी के तौर पर। असल में सुन क्या होगा! वो क्या है कि रात को बंगले के भीतर खाली खानसामा सोता है ताकि नेताजी को कोई रात के मिडल में जरूरत पड़े तो वो उसे पूरी कर सके। वो बंगला चारों तरफ से खुले एक बहुत बड़े कम्पाउन्ड में है जिसके पिछवाड़े में एक छोटा सा कॉटेज है। बद्री, डॉग ट्रेनर, ड्राइवर और दोनों बॉडीगार्ड रात को वहाँ उस काटेज में सोते हैं ।’’
‘‘बंगले के बाहर से भीतर मौजूद बॉडी को गार्ड करते हैं!’’
‘‘मैं पहले ही बोला वो सजावट हैं नेताजी की। चार खूँखार कुत्तों के होते रात को बंगले के भीतर उन की कोई जरूरत महसूस नहीं की जाती। उन का रोल तब खड़ा होता है जब रात की किसी घड़ी कुत्ते एकाएक भौंकने लगें। तब दोनों गार्डों का काम जाके विघ्न की पड़ताल करना होता है और ट्रेनर का काम उन को कन्ट्रोल करना, चुप कराना होता है ।’’
‘‘ड्राइवर!’’
‘‘वो मेरे को बरोबर मालूम नहीं ऐसी नौबत आने पर क्या करता है! लेकिन बहरामजी कान्ट्रैक्टर का ड्राइवर है, खाली गाड़ी चलाने के वास्ते तो न रखा होगा! बोले तो कम तो वो भी न होगा!’’
‘‘साथ देता होगा बाकी तीन भीड़ूओं का?’’
‘‘हो सकता है ।’’
‘‘वो जो विघ्न कर के तुम बोला, वो न आये तो?’’
‘‘तो जाहिर है कि सब कॉटेज में घोड़े बेच के सोते होंगे ।’’
‘‘ठीक!’’
‘‘बोले तो उधर रखवाली का, हिफाजत का असल जिम्मा कुत्तों पर है जो कि रात को बंगले के कम्पाउण्ड में खुले छोड़ दिये जाते हैं ।’’
‘‘ठीक!’’
‘‘कम्पाउण्ड की चारदीवारी बहुत ऊँची है—उतना ही ऊँचा उस में फिट फाटक है—जिस को थोड़े किये फान्दा नहीं जा सकता। रात को कोई अनजाना अजनबी फाटक या चारदीवारी के पास भी फटके तो कुत्तों के कान खड़े हो जाते हैं। किसी की फिर भी फाटक लांघने की या चारदीवारी फांदने की जिद हो तो तू सोच ही सकता है उसका क्या हाल होता होगा!’’
‘‘हाँ ।’’—जीतसिंह के शरीर ने झुरझुरी ली—‘‘बरोबर ।’’
‘‘वो ट्रेंड शिकारी कुत्ते थोड़े किये नहीं भौंकते, वो कान खड़े कर के सुनते हैं, घात लगाये तैयार रहते हैं और सही मौका आते ही बिजली की तरह झपटते हैं। फिर किसी की तवज्जो उस तरफ जायगी तो घुसपैठिये की हौलनाक चीख पुकार की वजह से जायेगी, न कि कुत्तों के भौंकने की वजह से ।’’
‘‘भौंकते हैंइच नहीं?’’
‘‘भौंकते हैं। तब भौंकते है जब खतरा सूंघ रहे हों लेकिन बन्धे हों। तब उनका भौंकना एक तरह से उन की डिमांड होता है कि एक्शन में आने के लिये उन्हें आजाद किया जाये ।’’
‘‘बढ़िया नक्शा खींचा, बाप। खयाल से रूह काँपती है ।’’
‘‘अरे मैंने बोला न, उन से डरने की कोई बात नहीं ।’’
‘‘क्यों बात नहीं?’’
‘‘अन्दर का एक भीड़ू फोड़ा न! पहले भी बोला ।’’
‘‘कौन भीड़ू?’’
‘‘खानसामा। फ़जल हक नाम है। बोले तो अन्दर की पूरी जानकारी, काम की हर जानकारी, उसी से हासिल हुई। मेरे साथ फुल सैट है। नौबत आने पर वो ही हमें अन्दर से हर जरूरी मदद पहँुचायेगा ।’’
‘‘बढ़िया ।’’
‘‘मेरा भीतर साथ होना उसकी वजह से भी जरूरी है। उसको मेरे सिवाय किसी से डील करना मंजूर नहीं होगा ।’’
‘‘मदद के खाते में खानसामा क्या करेगा?’’
‘‘रात को सब के सो चुकने के बाद वो कुत्तों को गोश्त के लोथड़े डालेगा जिन पर बेहोशी की दवा लगी हुई होगी जिस की वजह से कम से कम दो घण्टे चारों कुत्ते मुर्दों की तरह बेहोश पड़े रहेंगे ।’’
‘‘बढ़िया। खानसामा ही फिर दाखिले के लिये फाटक खोल देगा, बंगले का मेन डोर खोल देगा ।’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तो?’’
‘‘पहली मंजिल की एक खिड़की खुली छोड़ देगा ।’’
‘‘पहली मंजिल! बाप मैं ज्यादस्ती पढ़ा लिखा नहीं पण मैं तो सुना कि बंगले में पहली मंजिल होती हैइच नहीं। बंगले की तो एक ही मंजिल होती है!’’
‘‘तूने ठीक सुना। बंगला उसी इमारत को कहते हैं जिसकी कोई ऊपरी मंजिल नहीं होती लेकिन कोई दूसरी मंजिल बना ले, तीसरी मंजिल बना ले, फिर भी उसे बंगला कहे तो कौन उसका मँुह पकड़ेगा!’’
‘‘बरोबर बोला, बाप। तो उस बंगले में पहली मंजिल है जिसके किसी कमरे की कोई खिड़की खानसामा—तुम्हेरे से सैट भीड़ू—खुली छोड़ देगा!’’
‘‘कोई खिड़की नहीं, एक खास खिड़की। उधर एकीच ऐसी खिड़की है जिस के बाहर इमारत से बहुत ऊँचा जाता एक पेड़ है जिस की एक मोटी, मजबूत डाल खिड़की के ऐन सामने तक पहँुचती है। उस पेड़ पर चढ़ कर उस खिड़की तक पहँुचा जा सकता है और भीतर दाखिल हुआ जा सकता है ।’’
‘बढ़िया। अभी कम्पाउण्ड की दीवार की बोलो, बाप, जिसे तुमने बहुत ऊँची बोला?’’
‘‘दीवार आठ साढ़े आठ फुट ऊँची है, उसको फांदना बड़ा कारनामा नहीं साबित होने वाला। बाहर से मैं तेरे को उस पर चढ़ा सकता हूँ, दीवार पर से तू मेरे को ऊपर खींच सकता है। फिर वहाँ से भीतर कूद जाना कोई बड़ी बात नहीं होगी। बोले तो चढ़ने में छोटी मोटी दिक्कत पेश आ सकती है, उतरना मामूली काम है ।’’
‘‘दीवार के टॉप पर सीमेंट में शीशे की किर्चें तो नहीं जड़ी हुर्इं! कोई कंटीले तारों की बाड़ तो नहीं!’’
‘‘बाड़ है लेकिन उसे काटा जा सकता है। तू मेरे कन्धे पर खड़ा होकर पहले बाड़ काटेगा, ऊपर चढ़ेगा और फिर दीवार पर लेट कर—काफी चौड़ी है वो इस काम के लिये—मुझे ऊपर खींच लेगा ।’’
‘‘बाड़ में करंट हो सकता है!’’
‘‘हो सकता है लेकिन नहीं है ।’’
‘‘पक्की बात!’’
‘‘हाँ। ऐसी फौजदारी के लिये इजाजत लेनी पड़ती है और प्रापर्टी पर बाकायदा वार्निंग का साइन बोर्ड लगाना पड़ता है। क्यों वो ऐसा इश्तिहारी काम करेगा!’’
‘‘नेता है, इजाजत के बिना भी कर सकता है ।’’
‘‘ठीक है, कर सकता है क्योंकि कायदा कानून नेता लोगों के लिये नहीं बना, लेकिन करंट वाली बात नहीं है, होती तो खानसामे फ़जल हक से हुए डील में करन्ट बन्द करना भी शामिल होता ।’’
‘‘उसको क्या दिया?’’
‘‘कुछ नहीं लेकिन जो हाथ आयेगा, उसका एक तिहाई क्लेम करेगा ।’’
‘‘इतना ज्यादा!’’
‘‘कम है। आधा माँगता था ।’’
‘‘क्या कहने!’’
‘‘क्योंकि जानता है भीतर से हासिल मदद के बिना कुछ नहीं हो सकता ।’’
‘‘तो उसकी फीस कुत्तों को आउट आफ एक्शन करने के लिये और एक खिड़की भीतर से खोलने के लिये है?’’
‘‘और भी छोटे मोटे काम वो हमारे लिये करेगा लेकिन एक मेजर काम और भी है ।’’
‘‘वो क्या?’’
‘‘सेफ की लोकेशन बतायेगा ।’’
‘‘बोले तो लोकेशन में भी कोई भेद है?’’
‘‘हाँ। मास्टर बैडरूम में एक सेफ है जो कि कोई चोर भीतर घुस आने का असम्भव काम कर ही दिखाये तो उसको गुमराह करने के लिये है। चोर को सेफ मिल गयी यानी उस की तलाश खत्म, क्यों कि वाल्ट जैसी मजबूत और माडर्न सेफ घर में कोई दो नहीं रखता ।’’
‘‘माल ज्यास्ती हो तो?’’
‘‘तो बड़ी सेफ खरीदता है ।’’
‘‘ठीक! उस सेफ में क्या है? खाली तो नहीं होगी क्योंकि वो शक पैदा करने वाली बात होगी!’’
‘‘खाली नहीं है। कागजात हैं। सिर्फ। ढ़ेरों। इम्पार्टेंट लगने वाले लेकिन बेकार। डमी। कोई शातिर चोर मेहनत कर के उस सेफ को खोल लेने का नाममुकिन करतब कर भी लेगा तो उसके लिये ये बड़ा एण्टीक्लाइमैक्स होगा कि सेफ को डाकूमेंट्स स्टोरेज के लिये इस्तेमाल किया जाता था। बद्री, रिकार्ड टाइम में सेफ तू ही खोल सकता है। किसी दूसरे भीड़ू से पहले तो सेफ खुलेगी नहीं, खुल जायेगी तो उसके पास अभी इतना टाइम नहीं होगा कि वो नये सिरे से बंगले को खंगालना शुरू कर दे ।’’
‘‘बरोबर बोला, बाप। असल आइटम उधर किधर है?’’
‘‘नेताजी की स्टडी में। वहाँ एक बुक शैल्फ है—मिडल क्लास ड्रॉप आउट नेताजी की स्टडी है, बुक शैल्फ है—मैंने एक का जिक्र किया क्यों कि हमारा मतलब खाली एक से है, असल में सुना है कई हैं। वो एक—खास—बुक शैल्फ एक खुफिया बटन के दबाने पर एक बाजू हट जाता है और पीछे छुपी सेफ निगाह के सामने आ जाती है। बद्री, उसे खोल लेना जुदा मसला है, वो सेफ थोड़े किये तो ढूँढी ही नहीं जा सकती। इसलिये फ़जल हक की इस मदद को हम कम कर करके नहीं आंक सकते ।’’
‘‘ठीक। सेफ कैसी है?’’
‘‘कैसी है क्या मतलब?’’
‘‘इलैक्ट्रॉनिक है, डायल वाली है या चाबी वाली है?’’
‘‘अच्छा, वो!’’
‘‘हाँ, वो ।’’
‘‘शुकर है, जवाब मेरे को मालूम है, खानसामे से इस बाबत दरयाफ्त करना मेरे को याद रहा, वर्ना तू साला सख्त हाकिम इसी बात पर मेरी वाट लगा देता कि क्यों मुझे सेफ की मुनासिब, मुकम्मल जानकारी नहीं थी!’’
‘‘जवाब दो ।’’
‘‘चाबी वाली ।’’
‘‘कितनी चाबियाँ?’’
‘‘भई, ट्रिपल लॉक सेफ है इसलिये जाहिर है कि तीन चाबियाँ होंगी!’’
‘‘नहीं जाहिर है ।’’
‘‘बोले तो!’’
‘‘ट्रिपल लॉक दो तरह का होता है। एक, जो तीन अलग-अलग चाबियों से, चाबियों के नम्बर के हिसाब से एक दो तीन कर के खुलता बन्द होता है और दूसरा, जिसमें चाबी एक ही होती है लेकिन वो तीन चाबियों का काम करती है ।’’
‘‘एक चाबी तीन चाबियों का काम करती है, वो कैसे?’’
‘‘पहले चाबी ताले के छेद में एक निश्चित, पहले से तयशुदा फासले तक दाखिल होती है और घुमाये जाने पर समझ लो कि एक ताला खोलती है। वो पहला ताला खुलने के बार चाबी और भीतर सरक जाती है और फिर दूसरा ताला खोलती है फिर चाबी ऐन भीतर आखिर तक सरक जाती है और तीसरा ताला खोलती है। अब बोलो उधर सेफ पर कौन सा ड्रिपल लॉक है? तीन जुदा चाबियों वाला या थ्री-इन-वन एक चाबी वाला?’’
‘‘ये तो’’—राजाराम के मँुह से निकला—‘‘मेरे को मालूम नहीं!’’
‘‘कोई बात तो है’’—जीतसिंह के स्वर में व्यंग्य का पुट आया—‘‘जो तुम्हेरे को मालूम नहीं!’’
‘‘फर्क क्या पड़ता है! तू तो कैसा भी ताला खोल सकता है!’’
‘‘किस्म मालूम हो, मार्का मालूम हो तो काम आसान होता है। तीन चाबियों वाला ताला खोलना कदरन आसान होता है, थ्री-इन-वन मार्का ताला खोलना दिक्कत पेश करता है ।’’
‘‘खोल तो लेगा न!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘फिर क्या बात है! वैसे मैं वक्त रहते मालूम कर लूँगा खानसामे से कि वहाँ ताला कैसा है—तीन चाबियों वाला या थ्री-इन-वन एक चाबी वाला ।’’
‘‘बढ़िया। बहरहाल ये है तुम्हारा नया प्रोजेक्ट!’’
‘‘हाँ। कोई सवाल है, कोई ऐतराज है, कोई वहम है तो बोल!’’
‘‘बोलता है। अभी बोले तो हम दीवार फान्द कर भीतर कम्पाउण्ड में पहँुच गये और कुत्ते हमें, वो क्या बोला तुम, मुर्दों की तरह बेहोश पड़े न मिले तो...तो क्या होगा? फाड़ खायेंगे?’’
‘‘तू ट्रेंड शिकारी कुत्तों की एक खासियत से वाकिफ नहीं है। ऐसे कुत्तों के कान इंसानी कानों से कई गुणा ज्यादा तीखे होते हैं—सभी कुत्तों के होते हैं लेकिन ऐसों के ज्यादा होते हैं। ऐसे कुत्तों की सुनने की ताकत ऐसी होती है कि जो आवाज इंसानी कान सुन ही नहीं पाते, उन कुत्तों को वो भी बड़ी आसानी से सुनाई देती है। अगर वो बेहोशी की हालत में न हुए तो दूर चारदीवारी पर कहीं कंटीले तार काटे जाने की आवाज उन्हें ऐन बढ़िया सुनाई देगी, फिर नीचे कहीं वो दीवार फांदने वाले भीड़ू पर जुस्त लगाने को तैयार मिलेंगे ।’’
‘‘देवा!’’
‘‘ऐसा कोई पंगा हमारे को ताड़ के रखना होगा, हुआ तो हम पलक झपकते सड़क पर होंगे ।’’
‘‘कुत्ते दीवार नहीं फांद सकते?’’
‘‘हो सकता है फांद सकते हों लेकिन मेरे को पूरा यकीन है कि उन को ये भी ट्रेनिंग होगी कि उन्होंने दीवार नहीं फांदनी, बंगले की चारदीवारी के भीतर ही रहना है। वैसा एक जवान, ट्रेंड कुत्ता एक लाख रुपये से ज्यादा का आता है, दीवार फांद कर निकल लिया तो बतौर वाच डॉग किस काम का हुआ!’’
‘‘खिड़की! खुली न मिली?’’
‘‘तो भी पहली ही बात लागू है। ठण्डे-ठण्डे लौट आयेंगे क्यों कि भीतरी मदद के बिना भीतर दाखिल हो पाना मुमकिन नहीं हो पाने वाला ।’’
‘‘मैं सेफ खोल सकता है, खिड़की नहीं खोल सकता?’’
‘‘तू कुछ भी कर सकता है। बद्री, जिस कारोबार का तू टॉप का स्पैशलिस्ट है, उस में जो खोला जाना होता है, वो तेरे सामने होता है, लॉक तेरे को सामने दिखाई देता है तो तू उस पर अपना जोर आजमाता है। खिड़की भीतर से बन्द होगी और तू पेड़ की डाल पर होगा जहाँ तो ज्यादा देर अपना बैलेन्स बनाये रखना ही मुश्किल काम होगा। कैसे करेगा?’’
‘‘हूँ ।’’
‘‘माडर्न डबल विंडोज हैं, भीतर जाली है, बाहर अनब्रेकेबल ग्लास है ।’’
‘‘ग्रिल!’’
‘‘शुक्र है कि नहीं हैं ।’’
‘‘हम सेफ न ढूँढ़ पाये तो?’’
‘‘यार, बाज आ जा ।’’
‘‘मैं खोल न पाया तो?’’
‘‘तो अपने मौजूदा धन्धे से किनारा करना और चौपाटी पर वड़ा-पाव बेचना ।’’
जीतसिंह हँसा।
‘‘मेरा मतलब था’’—फिर संजीदगी से बोला—‘‘मेहनत तो मैं पूरी करूँगा, रिस्क तो मैं पूरा पूरा लूँगा, तो नाकामी की सूरत में भी कोई शाबाशी, कोई शुकराना मिलना चाहिये न!’’
‘‘कहाँ से! जब हासिल जीरो होगा तो जीरो में से कैसे हिस्सा बंटायेगा!’’
‘‘वो बात अब छोड़ो और बोलो हम कामयाब हुए तो मेरे को क्या मिलेगा? जवाब ध्यान से देना, बाप, सोच समझ के देना, ये खयाल करके देना कि मेरी औकात खानसामे फ़जल हक से भी कम कर के आँकी तो...’’
‘‘तो क्या?’’
‘‘बाकी काम भी खानसामा ही करेगा ।’’
‘‘तू क्या चाहता है?’’
‘‘कप्तान तुम हो, कोई इज्जतदार फीस मुकरर्र करो ।’’
‘‘खुद ही कर। मैं करूँगा तो तू उसमें नुक्स निकालने लगेगा, अन्दर से राजी भी होगा तो भी नुक्स निकालने लगेगा ।’’
‘‘खानसामे की उजरत निकल के आधोआध ।’’
‘‘यार...’’
‘‘यार कौन! इस प्रोजेक्ट के बाद हमारा रिश्ता ‘तू कौन मैं कौन’ का होगा। एक रात के राही कहीं यार बन जाते हैं!’’
‘‘बहुत कड़क बोलता है!’’
‘‘सच्ची करके बोलता है, क्योंकि...’’
‘‘अभी चुप कर जरा। सोचने दे मेरे को ।’’
जीतसिंह खामोश हो गया।
कई क्षण राजाराम भी खामोश रहा।
‘‘बाप’’—जीतसिंह तनिक उतावले स्वर में बोला—‘‘लम्बी सोच है तो उसमें ये भी शामिल कर लेना कि खानसामा अपनी आधे हिस्से वाली जिद पर अड़ा रहता तो तुम्हारे पास उसकी वो—नाजायज—जिद कबूल करने के अलावा कोई चारा न होता ।’’
‘‘हूँ ।’’—राजाराम ने लम्बी हुंकार भरी।
‘‘जबाव ये सोच के भी देना कि तुम्हेरे पहले प्रोजेक्ट के मुकाबले में अब रकम बहुत छोटी होगी, और छोटी रकम का हिस्सा भी छोटा होता है। मैं एडवांस की जिद छोड़ता तो पहले तुम मेरे को एक करोड़ देने को तैयार थे जबकि मौजूदा सैट अप में इतने की उम्मीद नहीं है। उम्मीद कम और काम ज्यादा ।’’
उसकी भवें उठीं।
‘‘पहले मेरे को दीवारें नहीं फांदने का था, पेड़ों पर नहीं फुदकने का था, फाड़ खाने वाले कुत्तों का खतरा नहीं उठाने का था, गोली नहीं खा जाने का था। क्या!’’
वो खामोश रहा।
‘‘तुमने खुद रकम का अन्दाजा दो-पौने दो करोड़ का बताया जो कि कम भी हो सकती है ।’’
‘‘ज्यादा भी हो सकती है ।’’
‘‘ज्यादा कैसे हो सकती है! जब पहले प्रोजेक्ट की रकम तुमने पन्द्रह बताई...’’
‘‘पन्द्रह से बीस तक बताई। पन्द्रह का एक बटा आठ दो से कम होता है...’’
‘‘साढ़े बारह लाख कम ।’’
‘‘बीस का एक बटा आठ दो से ज्यादा होता है ।’’
‘‘पचास लाख ज्यादा ।’’
‘‘हिसाब में करारा है!’’
‘‘बस, इसी काम में। क्योंकि जरूरतमन्द हूँ। आजकल हिसाब ही तो लगाता रहता हूँ हर वक्त ।’’
‘‘क्या कहने!’’
‘‘बाप, मैं बोले तो हिसाब के लिये पन्द्रह का एक बटा आठ मान के चलो। उसमें से खानसामे का हिस्सा नक्की करने पर बाकी सवा करोड़। सवा करोड़ का फिफ्टी-फिफ्टी साढ़े बासठ लाख—जो कि एडवांस की शर्त वाली रकम से थोड़ा ही ज्यास्ती है ।’’
‘‘बद्री,’’—राजाराम एकाएक निर्णायक भाव से बोला—‘‘साठ लाख फाइनल कर और ये शर्त मंजूर कर कि रकम कितनी भी हाथ लगे, तेरे को साठ लाख ही मिलेंगे ।’’
‘‘रकम दो करोड़ हुई तो मेरा हिस्सा खानसामे से भी कम होगा पण मंजूर मेरे को। अभी राजी?’’
‘‘हाँ ।’’—राजाराम ने बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया और उपेक्षा से फ्लैट होती जा रही बीयर के साथ फिर चियर्स बोला।
‘‘काम कब करने का?’’—जीतसिंह ने पूछा।
‘‘कोई दिन अभी मुकरर्र नहीं ।’’—जवाब मिला।
‘‘ऐसा?’’—जीतसिंह सकपकाया—‘‘काहे को?’’
‘‘खानसामे ने ही ये खास जानकारी सरकाई है कि रात को भी उधर मेहमान आ जाता है, या नेताजी साथ लेकर आता है, तो बंगले में देर रात तक हलचल रहती है, जाग रहती है। नेताजी दारूबाज है, पार्टीबाज है, छोकरीबाज है। कम्पनी में बाटली मारने बैठे तो आधी रात का, या उससे ऊपर का भी, टाइम हो जाना मामूली बात बताई जाती है। कोई छोकरी साथ हो तो तफरीह और भी लम्बी चलने का अन्देशा होता है। तब खानसामा बोलता है उसे भी बाहर कर दिया जाता है ।’’
‘‘नेता जी का रात के मिडल का कोई खास काम, जरूरी काम...’’
‘‘छोकरी करती है न! सबसे खास काम के साथ ऐसा भी कोई काम हो तो करती है बराबर ।’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘खानसामा बोलता है उस का जाती तजुर्बा है, बंगले में ऐसा कोई माहौल बनना हो तो आठ साढ़े आठ तक बन जाता है। जिस रोज ऐसा कुछ नहीं होगा, वो मेरे को खबर करेगा ।’’
‘‘इधर मुम्बई में?’’
‘‘और कहाँ!’’
‘‘तब अभी रवाना होने का!’’
‘‘खबर नौ साढ़े नौ तक आ जायेगी। दो घण्टे की ड्राइव है। रात के टाइम ढ़ाई लग जायेंगे, तीन लग जायेंगे, फिर भी बहुत टाइम होगा। हमारे काम के लिये बैस्ट टाइम एक और तीन के बीच का है। बहुत टाइम होगा ।’’
‘‘खबर आने के बाद उधर कोई मेहमान पहँुच गया तो?’’
‘‘तू वहमी बहुत है। नेताजी फूं फां वाला भीड़ू है, खण्डाला में उसके यहाँ यूँ किसी का पहँुचना मना है ।’’
‘‘फिर भी?’’
‘‘फिर भी खानसामा फिर खबर करेगा—खबरदार करेगा। हम नहीं जायेंगे। रास्ते में होंगे तो लौट जायेंगे ।’’
‘‘बोले तो खानसामे की काल का रोज इन्तजार करना होगा, रोज तैयार रहना होगा!’’
‘‘हाँ। आने को काल आज ही आ सकती है लेकिन टाइम भी लग सकता है ।’’
‘‘जल्दी ही आना ठीक होगा ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘है कोई मेरी अपनी पर्सनल करके पिराब्लम!’’—सिर पर लटकी गिरफ्तारी की तलवार को याद करता जीतसिंह बोला, फिर उठ खड़ा हुआ—‘‘अभी जाता है। जैसा प्रोग्राम बने, बोलना ।’’
राजाराम ने सहमति में सिर हिलाया।
जीतसिंह उससे पहले वहाँ से रुखसत हो गया।
बार के पीछे किरपेकर तब भी नहीं था।
दोपहरबाद प्रकाशित होने वाले अखबार ‘डेली’ में जीतसिंह को वो न्यूज दिखाई दी जिसकी वो सुबह के अखबार में होने की अपेक्षा कर रहा था।
अनिल घुमरे और जमाल हैदरी की गोलियों से पिरोई लाशें वरली-बान्द्रा सी-लिंक के एक पिलर के साथ अटकी पानी में तैरती पायी गयी थीं।
लाशें भोर भये बरामद हुई थीं इसलिये उन की बाबत उस रोज के नेशनल डेलीज में खबर जाना मुमकिन नहीं था।
उस वारदात को, जाहिर था कि, बड़ा बाप महबूब फिरंगी की अंडरवल्र्ड में नाक ऊँची रखने के लिये अंजाम दिया गया था, भाई लोगों को और आम टपोरियों को सबक देने के लिये अंजाम दिया गया था कि बिग बॉस के माल की तरफ, उसके किसी सैट अप की तरफ, निगाह टेढ़ी करने की जुर्रत किसी की न हो।
शाम चार बजे एडवोकेट गुंजन शाह के आफिस में मीटिंग का माहौल था जिसमें शाह के अलावा जीतसिंह, पीडी शेखर नवलानी और पंकज झालानी शामिल थे। झालानी—जैसा कि उपनाम से लगता था—सिन्धी नहीं, राजस्थानी था, ‘एक्सप्रेस’ का मकबूल रिपोर्टर था, नाक पर मोटे फ्रेम वाला चश्मा और कुर्ता, जींस, कोल्हापुरी चप्पल उसका हमेशा का पहनावा था जो कि उसकी खास शिनाख्त था।
नवलानी वहाँ इसलिये मौजूद था क्योंकि पंकज झालानी को वो वहाँ लाया था। एडवोकेट साहब ने इस बात की जरूरत महसूस की थी कि क्योंकि वो एक ऐसी साजिश के मुकाबिल थे जिसमें पुलिस भी सक्रिय रूप से शामिल थी इसलिये मीडिया की सपोर्ट उन के बहुत काम आ सकती थी। अपनी नामी वकील की हैसियत में खुद शाह भी बहुत प्रेस रिपोर्टरों से वाकिफ था लेकिन नवलानी ने ही उसे समझाया था कि ‘एक्सप्रेस’ की, उसके एस रिपोर्टर पंकज झालानी की, बात ही कुछ और थी, नवलानी और झालानी की जुगलबन्दी की बात ही कुछ और थी।
झालानी जीतसिंह से वाकिफ था, उतना ही वाकिफ था जितना कि नवलानी जीतसिंह से वाकिफ था। जीतसिंह की खुशकिस्मती थी कि दोनों उसके हमदर्द थे, खैरख्वाह थे।
झालानी को मोटे तौर पर सुष्मिता की बाबत, उसकी शादी की बाद और हालिया दुश्वारी की बावत बताया जा चुका था।
‘‘जीतसिंह से तुम वाकिफ हो’’—नवलानी झालानी से मुखातिब हुआ—‘‘लेकिन सुष्मिता के सन्दर्भ में तुम्हारे सामने उसका जिक्र शायद कभी न आया हो। ये सुष्मिता का उसकी शादी से पहले का पड़ोसी, फैमिली फ्रेंड और खैरख्वाह है। सुष्मिता वो महिला है—जैसा कि पहले हिंट दिया—जिसके साथ हो रहे जुल्म की दास्तान से तफसील से वाकिफ होने के लिये तुम यहाँ हो। वो दस्तान तुम सुष्मिता की—भुक्तभोगी की—जुबानी सुनते तो बेहतर होता लेकिन अफसोस है कि ऐसा मुमकिन नहीं ।’’
‘‘क्यों?’’—झालानी की भवें उठीं।
‘गिरफ्तार है ।’’
‘‘अच्छा! कब से?’’
‘‘आज सुबह थामा पुलिस ने ।’’
‘‘दफा 120-बी के तहत ।’’—वकील बोला—‘‘जो कि कत्ल की साजिश में शरीक मुलजिमों पर लगती है ।’’
‘‘शरीक कौन?’’
‘‘ये’’—नवलानी बोला—‘‘जीतसिंह। इसीलिए इसके सिर पर भी गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है ।’’
‘‘किस्सा क्या है?’’
‘‘यही बयान करेगा तफसील से। क्योंकि सुष्मिता ने तफसील से इसको बयान किया। शुरू कर, जीते ।’’
झिझकते हुये जीतसिंह ने शुरू किया, जल्दी ही लय में आ गया, उसने वो सब बयान किया जो उसे मंगलवार उन्नीस तारीख को चिंचपोकली में सुष्मिता से सुनने को मिला था।
तदोपरान्त उस सिलसिले में जो कुछ हुआ था, वो खुद गुंजन शाह ने बयान किया।
वो खामोश हुआ तो झालानी हैरानी से कभी जीतसिंह का तो कभी गुंजन शाह का मँुह देखने लगा।
‘‘इतना कुछ हो गया’’—वो बोला—‘‘मीडिया को खबर न लगी! सर, आपने भी मीडिया को कंफीडेंस में न लिया!’’
‘‘अब लिया न!’’—शाह तनिक विनोदपूर्ण स्वर में बोला—‘‘बैठा है न ‘एक्सप्रेस’ का जवान मेरे क्लायन्ट के खास वैलविशर के साथ! पुलिस की जुबान में अकम्पलिस के साथ!’’
‘‘वो तो है लेकिन...’’
‘‘क्या लेकिन? परसों शाम ही तो ये केस आया मेरे पास! आज मीडिया की भीड़ करने की जगह मैंने मीडिया की नाक को बुला लिया ब्रीफ करने के लिये ।’’
‘‘वो तो आपकी जर्रानवाजी है, सर। मैं मशकूर हूँ, ‘एक्सप्रेस’ मशकूर है ।’’
‘‘झालानी’’—नवलानी बोला—‘‘इस केस में मेरा प्रोफेशनल इन्टरेस्ट तो है ही—क्योंकि बतौर पीडी मेरे को बकायदा रिटेन किया गया है—पर्सनल इन्टरेस्ट भी है। इसीलिये वकील साहब के सामने मैंने तुम्हारे साथ दोस्ती की डींग हाँकी और इन के अनुरोध पर तुम्हें यहाँ साथ लेकर आया। अब तुमने ये मान के चलना है कि जिसकी व्यथाकथा सुनी, उसके साथ भारी जुल्म हो रहा है जिसमें चंगुलानी परिवार के साथ पुलिस वाले भी सक्रिय रूप से शामिल हैं और तुमने इस केस को ‘एक्सप्रेस’ में ऑन प्रायर्टी हाईलाइट करना है ।’’
‘‘और’’—शाह बोला—‘‘बतौर एडवोकेट मैं तुम्हें आश्वासन देता हूँ कि फर्जी कुछ नहीं करना है ।’’
‘‘आई सी ।’’
‘‘कितना अन्धेर है कि एक औरत पर पहले इतना बड़ा कहर टूटता है कि वो किसी कातिल की करतूत से शादी के महज सात महीनों बाद विधवा हो जाती है और फैमिली उसके साथ हमदर्दी जताने की जगह, उसके गम में शरीक होने की जगह उसे दुत्कार के, बेइज्जत कर के, ये लांछन लगा के निकाल बाहर करती है कि वो बीवी है ही नहीं, कभी थी ही नहीं, वो तो लिव-इन कम्पैनियन थी जिसका अब उस हाउसहोल्ड में कोई रोल नहीं था, कोई मुकाम नहीं था। फरियाद लेकर पुलिस के पास जाती है तो वहाँ से भी उसे इंसाफ की जगह फटकार हासिल होती है, बाकायदा धमका के भगा दिया जाता है कि वो खामोश नहीं बैठगी तो उसे कत्ल के इलजाम में—जिसे कि उसके पुराने आशिक जीतसिंह ने उसकी खातिर अंजाम दिया—गिरफ्तार कर लिया जायेगा। कल शाम मैं डिस्ट्रिक्ट के डीसीपी से मिला और सुष्मिता के साथ हुई फौजदारी के तहत आखिर एफआईआर दर्ज कराने में कामयाब हुआ तो आज सुबह ही कोलाबा थाने के थानेदार ने अपनी धमकी पर खरा उतर कर दिखा दिया, सुष्मिता को दफा 120-बी में गिरफ्तार कर लिया। रिपोर्टर साहब, देखो, गौर करो, नोट करो, कैसा जुल्म है, कैसा इंसाफ है कानून के रखवालों का! पहले मजलूम की एफआईआर दर्ज किया जाना कबूल ही न हुआ, आखिर एफआईआर दर्ज हुई तो जिन को उस में नामजद किया गया था, उनको गिरफ्तार न किया गया; मजलूम को, शिकायतकर्ता को, एफआईआर दर्ज कराने वाले को गिरफ्तार किया गया ।’’
‘‘सर’’—नवलानी दबे स्वर में बोला—‘‘मेरे को मालूम पड़ा है कि फैमिली ने एक काउन्टर एफआईआर दर्ज कराई है ।’’
‘‘ये कहती कि वाइफ अपने हसबैंड के कत्ल के लिये जिम्मेदार है?’’
‘‘लिव-इन कम्पैनियन कम्पैनियन के कत्ल के लिये जिम्मेदार है ।’’
‘‘इसलिये फैमिली की एफआईआर पर गोली की तरह एक्शन हुआ और मजलूम की एफआईआर को नजरअन्दाज कर दिया गया ।’’
‘‘उसे फर्जी, शरारती, बोले तो मोटिवेटिड करार दिया गया और खारिज कर दिया गया ।’’
‘‘लिहाजा सुष्मिता कातिल!’’
‘‘कत्ल में शरीक ।’’
‘‘एक ही बात है। कानून की निगाह में कत्ल कराना या खुद करना एक ही जैसे गम्भीर अपराध हैं ।’’
‘‘यू आर राइट, सर ।’’
‘‘अन्धे को दिखाई देता है कि उस औरत को सताया जा रहा है, बलि का बकरा बनाया जा रहा है, महज इसलिये कि वो मकतूल के वारिस का दर्जा अख्तियार न कर सके ।’’
‘‘सर’’—झालानी बोला—‘‘ये बातें कोर्ट में उठाने लायक हैं ।’’
‘‘मैं जानता हूँ और मैं ऐन यही करूँगा लेकिन मैं फौरन, वक्त आने से पहले कुछ नहीं कर सकता। कानून ने मेरे हाथ बान्धे हुए हैं। फौजदारी का केस है, उसमें जो होना है, प्रोसीजर से ही होना है। जब तक मुलजिम को कोर्ट में पेश नहीं किया जाता, मैं उसके हक में कोई जिरह नहीं कर सकता। ऐसे मामलों में पुलिस के पास डिले के अपने तरीके होते हैं। आज गिरफ्तार किया, रोजनामचे में दिखायेंगे, परसों किया या तरसों किया। मैं बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका लगाऊँगा तो परसों सोमवार को उस पर सुनवाई होगी, जज बहुत सख्ती दिखायेगा तो मंगलवार को मुलजिम को कोर्ट में पेश किया जायेगा और कत्ल का केस बोल कर लम्बे रिमाण्ड की माँग की जायेगी। यहाँ ‘एक्सप्रेस’ का जो रोल मेरी नजर में है वो ये है कि अक्यूज्ड की सैड स्टोरी सिम्पथैटिक हैंडिंलग के साथ कल के ही ‘एक्सप्रेस’ में बतौर लीड स्टोरी छपे जिस को कल सुबह पुलिस का अमला भी पढ़ेगा और कानून के रखवाले भी पढ़ेंगे। स्टोरी में मुलजिम की आज सुबह गिरफ्तारी का पुरजोर जिक्र होगा तो पुलिस वाले गिरफ्तारी को छुपाये नहीं रख पायेंगे और गिरफ्तारी के चौबीस घण्टे के भीतर मुलजिम को कोर्ट में पेश किये जाने के नियम के तहत कल, चाहें या न चाहें, उसे कोर्ट में पेश करने को मजबूर होंगे। इस बैकग्राउण्ड में जब मैं केस पर कोर्ट में जिरह करूँगा तो मेरी तभी ये पुरजोर दुहाई होगी कि मेरे मुवक्किल के खिलाफ फर्जी केस खड़ा किया जा रहा था और ये कि कत्ल अगर इन साइड जॉब था तो उसको अंजाम देने वाला फैमिली में से भी कोई हो सकता था। मेरे पास सबूत है कि कत्ल के रोज और उससे पहले फैमिली के मेम्बरान—दो बेटे, जो कहते हैं कि इंगलैंण्ड में थे, और दामाद जो कहता है कोलकाता में था—मुम्बई में मौजूद थे। तीनों के पास मकतूल के फ्लैट की चाबी उपलब्ध थी जिसके सदके आलायकत्ल तक उनकी पहँुच थी। तीनों के पास नहीं तो दो के पास यकीनन कत्ल का उद्देश्य था कि वो फाइनांशल प्रैशर में थे और उन को उस प्रेशर से मरने वाले के विरसे में हिस्सेदारी ही बचा सकती थी। जमा, मेरे पास सुष्मिता की दस्तखतशुदा तहरीर है जो कि कत्ल से पहले के एक दिन मकतूल की उन तीनों में से किसी एक के साथ हुई गम्भीर तकरार को हाईलाइट करती है और आइन्दा होने जा रहे कत्ल की ओर मजबूत इशारा करती है ।’’
झालानी प्रभावित दिखाई देने लगा।
‘‘इस बातों का मतलब ये नहीं है’’—शाह आगे बढ़ा—‘‘कि जज इन से प्रभावित हो कर मेरे क्लायन्ट को रिहा कर देगा। ऐसा कोई फैसला उस वक्त, उस पहली, रिमाण्ड के लिये होने वाली, पेशी में सुनाना उसका काम नहीं। उस घड़ी उसने खाली पुलिस की रिमाण्ड की अर्जी पर विचार करना होगा जो कि पुलिस को अमूमन बिना हुज्जत के हासिल हो जाता है और वो दस से पन्द्रह दिन तक का हो सकता है। मीडिया के जरिये मेरी तमाम ड्रिल का मकसद ये है कि रिमाण्ड कम से कम वक्त का हो, वो एक्सटेंड न किया जाये और केस ट्रायल कोर्ट में जल्द से जल्द लगे। रिपोर्टर साहब, अब बोलो, क्या कहते हो?’’
‘‘ ‘एक्सप्रेस’ हमेशा से जुल्म के खिलाफ है’’—झालानी जोश से बोला—‘‘मजलूम का तरफदार है, पुलिस की ज्यादातियों को हाईलाइट करने में सबसे आगे हैं और कोई भी सरकारी लाइन टो न करने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ है। लिहाजा आप जैसा चाहते हैं, ऐन वैसा ही होगा। अपने इस केस को जैसे फोकस में देखना चाहते हैं, कल के ‘एक्सप्रेस’ में वैसा ही देखेंगे ।’’
‘‘झालानी’’—नवलानी भावुक स्वर में बोला—‘‘ये तेरा मेरे पर पर्सनल अहसान होगा ।’’
‘‘एक निष्ठावान पत्रकार को अपनी निष्ठा पर खरा उतर कर दिखाने के लिये किसी के अहसान की, किसी कैटेलिस्ट की जरूरत नहीं होती, मेरे दोस्त ।’’
‘‘माई सैल्यूटेशन टु ‘एक्सप्रेस’!’’—खामोश ताली बजाता गुंजन शाह बोला।
मीटिंग वही बर्खास्त हो गयी।
रात हुई तो जीतसिंह को अपने सामने रातगुजारी की समस्या मँुह बाये खड़ी दिखाई दी। चिंचपोकली जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। उसके उस ठीये से तो पुलिस क्या, लगता था अक्खी मुम्बई वाकिफ थी। कालबा देवी वाले उसके नये ठीये से पुलिस वाकिफ नहीं थी तो वाकिफ हो सकती थी—आखिर पुलिस थी, अपना मतलब हल करने के लिये किसी की भी डण्डा परेड कर सकती थी।
उसे डिम्पल मोदी का खयाल आया जो कि परेल में म्यूनीसिपल मार्केट के पास संगम अपार्टमेंट्स में रहती थी, ढंकी छुपी काल गर्ल थी, जीतसिंह उससे बहुत पहले से वाकिफ था जब कि दहिशर की एक पार्टी में उसे बुला कर बड़ा बटाटा ने उसे उस पर जबरन थोपा था लेकिन वो वन-गो-स्टैण्ड हाल ही में बिग डैडी एडुआर्डो की खातिर मिडनाइट क्लब्स में उसके दखल के दौरान दोस्ती में तब्दील हो गया था। डिम्पल मोदी से उसके नये बने ताल्लुकात हालिया बात थी इसलिये और नहीं तो पैरामाउण्ट बार से पुलिस को उसकी, उस के जीते से नये गंठजोड़ की खबर लग सकती थी और आगे वो लोग उसके घर तक पहँुच सकते थे।
दूसरे, उसकी एक उँगली टूट के हटी थी, उसको सैट करने के लिये उसकी सर्जरी हो के हटी थी, पता नहीं वो जीतसिंह की सूरत में जबरदस्ती के गैस्ट को रिसीव करने की स्थिति में थी या नहीं थी।
रोमेला जठार!
जो गणेश महाडिक की जिन्दगी में उसकी कीप थी और उस से निजात पाने के सिलसिले में जीतसिंह की अहसानमन्द थी, महाडिक की मौत के साथ उसके सिर पर मंडराते तमाम खतरे टल गये थे और वो वापिस अपने भायखला वाले उस फ्लैट में जा कर बस गयी थी जो कि असल में महाडिक का था लेकिन जिससे अब उसे कोई बेदखल नहीं कर सकता था क्योंकि बेदखल करने वाला, उसकी मिल्कियत को चैलेंज करने वाला, मर चुका था।
जीतसिंह के लिये यकीनन वो सेफ ठीया था लेकिन उसमें फच्चर ये था कि रोमेला जठार पक्की—पक्की और गैरजिम्मेदार—बेबड़ी थी; ऐसी औरत कभी भी, कहीं भी, कैसा भी मँुह फाड़ सकती थी।
तो!
तब उसे मिश्री का खयाल आया।
मिश्री कोई तीसेक साल की अच्छी शक्ल सूरत वाली, भारी कूल्हों और भरी-भरी छातियों वाली एक राइड का दो हजार रुपया चार्ज करने वाली बाई थी जो कि कुछ महीने पहले हालात कुछ ऐसे बने थे कि जीतसिंह की दोस्त और हमदर्द बन गयी थी। जीतसिंह एक बार पहले भी उसके पास पनाह पा चुका था इसलिये अपनी उस दुश्वारी की घड़ी में भी उसे वहीं जाना मुनासिब लगा।
वो कमाठीपुरा पहँुचा।
वहाँ की एक चारमंजिला इमारत के टॉप फ्लोर पर मिश्री का आवास था।
सीढ़ियां चढ़ कर वो ऊपर पहँुचा। उसने मिश्री के बन्द दरवाजे पर दस्तक दी।
‘‘कौन?’’—भीतर से आवाज आयी।
‘‘मैं ।’’—वो बोला—‘‘जीतसिंह!’’
तत्काल दरवाजा खुला।
चौखट पर मिश्री प्रकट हुई।
‘‘नमस्ते ।’’—मुस्कराता जीतसिंह मधुर स्वर में बोला।
उस पर निगाह पड़ते ही मिश्री के चेहरे पर हर्ष के भाव आये।
जीतसिंह ने चैन की साँस ली। ऐसे ही स्वागत की उम्मीद लेकर वो वहाँ आया था।
‘‘फिर आ गया अन्दर बाहर से जला फूँका आशिक!’’—वो हँसती हुई बोली।
जीतसिंह भी शिष्ट भाव से हँसा।
‘‘भीतर कोई है?’’—फिर उसने दबे स्वर में पूछा।
‘‘था। अभी गया। मेरे को मालूम पड़ गया न कि तू आने वाला था!’’
जीतसिंह फिर हँसा।
‘‘आ ।’’—वो एक तरफ हटती हुई बोली।
जीतसिंह भीतर दाखिल हुआ, मिश्री ने उसके पीछे दरवाजा बन्द किया।
‘‘बैठ ।’’
जीतसिंह सोफे पर बैठा तो वो करीब आ कर बड़ी आत्मीयता से उसके साथ सट कर बैठी।
‘‘कैसे आया?’’—फिर बोली।
‘‘सोच!’’
‘‘पुलिस पीछे है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘फिर कोई पंगा किया?’’
‘‘नया कुछ नहीं किया। पुराना ही सिर उठा के खड़ा हो गया ।’’
‘‘पंगों के बिना तेरी जिन्दगी नहीं चलती ।’’
‘‘मेरे बिना पंगों की जिन्दगी नहीं चलती ।’’
‘‘अभी जिस्म कैसा है? जले हुए हिस्से तंग करते हैं?’’
‘‘अब नहीं करते ।’’
‘‘बढ़िया। अभी बोल, चाहता क्या है?’’
‘‘पनाह चाहता हूँ ।’’
‘‘यही लग रहा था मेरे को। बस, खाली ये रात?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तो?’’
‘‘जब तक पीछे पड़ा पंगा पीछा न छोड़ दे ।’’
‘‘यानी इधर का लम्बा प्रोग्राम है तेरा!’’
‘‘है तो ऐसीच पण खाली रातगुजारी को मेरे को इधर आने का ।’’
‘‘बाकी टेम?’’
‘‘देखा जायेगा ।’’
‘‘ऐसा क्यों?’’
‘‘मेरे को तेरा धन्धा नहीं बिगाड़ने का ।’’
‘‘आया बड़ा हमदर्द मेरा। अभी सुन ।’’
‘‘बोल!’’
‘‘तेरी खातिर मेरे को धन्धे की परवाह नहीं ।’’
‘‘मिश्री, मेरे को ज्यास्ती भाव देगी तो धन्धा ही चौपट नहीं होगा, तू भी चौपट हो जायेगी ।’’
‘‘तू मेरी परवाह न कर, तेरे को जो जंचता है, वो मेरे को मंजूर ।’’
‘‘अगर मैं इधर गिरफ्तार हुआ तो...’’
‘‘मैं नहीं जानती तू कौन है। बाई का काम कस्टमर से उसका बायोडेटा जानना नहीं होता ।’’
‘‘रात में कस्टमर...’’
‘‘होता है। आता है। अक्खी नाइट का रेट देता है तो रात ठहरता है। तू भी ऐसीच कस्टमर ।’’
‘‘बोले तो मेरे इधर ठहरने से तेरे को कोई पिराब्लम नहीं!’’
‘‘हो। मैं भुगतेगी न तेरी खातिर!’’
‘‘मै तेरे अहसान का बदला कैसे चुकाऊँगा?’’
‘‘किसी की खातिर जैसे जिस्म जलाया, वैसे दिल जलाना छोड़, समझना मेरे अहसान का बदला—मैं तो अहसान नहीं मानती, तू मानता है तो—चुक गया। अभी बोल विस्की पियेगा? है इधर ।’’
‘‘पिऊँगा ।’’
‘‘और क्या करेगा?’’—उसके लहजे में रंगीनी आई।
‘‘और जो तू हुक्म करेगी ।’’
‘‘बातें बढ़िया करता है। दिलदारी से। पसन्द आया तू मेरे को। पहले भी बोला। लाती हूँ ।’’
वो उठ कर पीछे बैडरूम में चली गयी।