8 दिसम्बर: रविवार
सुबह के पांच बजने को थे।
विमल बैडरूम में था, लेटा हुआ था, पर जाग रहा था। बत्ती जल रही थी।
पुलिस दो बजे गयी थी।
कोई पांच घन्टे उनकी कार्यवाही चली थी जिसमें वहां पुलिस के टैक्नीकल एक्सपर्ट्स – फिंगरप्रिंट्स टैक्नीशियंस, फोटोग्राफ़र, वग़ैरह – व्यस्त रहे थे और लाश को उठवा कर पोस्टमार्टम के लिये भिजवाया गया था।
लाश की सुपुर्दगी शाम तक होने की उम्मीद थी।
इन्स्पेक्टर अजीत लूथरा ने सब कुछ उसके मनमािफ़क सम्भाला था। उसे चोरी की वारदात करार दिया था जिसमें ख़ामख़ाह कत्ल की सूरत में फच्चर पड़ गया था।
उसके जेहन पर चण्डीगढ़ में हुई नीलम से अपनी पहली मुलाकात का अक्स उबरा जबकि वो मायाराम बाबा का कोई अता पता जानने के लिए ‘सोना चान्दी’ में लंच पर उससे मिला था:
‘‘यानी तुम्हें उसका अता पता नहीं मालूम! अगर तुम इतनी खूबसूरत न होतीं तो मैं तुम्हारी गर्दन मरोड़ देता।’’
‘‘मरोड़ दो।’’
‘‘मेरे से लंच हथियाने के लिये तुमने मुझे इतना लटकाया!’’
‘‘जितनी कमीनी बात कह रहे हो, उसने कमीने सूरत से तो नहीं मालूम होते हो! बिल मैं अदा करूंगी। मैं कोई भिखारिन नहीं हूं, हातिमताई की कब्र पर लात मार कर जिसकी झोली में तुमने एक रोटी डाल दी हो। देखो!’’
सौ सौ के नोटों से भरा हैण्डबैग उसने विमल को दिखाया था।
‘‘सा’ब!’’
विमल ने चौंक कर सिर उठाया।
चौखट पर मेड खड़ी थी।
‘‘यस, फ्रान?’’
‘‘सा’ब, पांच बज गया। अभी भी जागता है। आपको रैस्ट की जरूरत है। आपको सोना चाहिये। मैं लाइट ऑफ करता है।’’
‘‘नहीं। नहीं।’’
‘‘बट . . .’’
‘‘अन्धेरे में मुझ को डर लगता है। लगता है नीलम मेरे पहलू में है।’’
‘‘सा’ब, आप दूसरा बैडरूम में . . .’’
‘‘नहीं। इधर ठीक है। लाइट ऑन ठीक है। और थोड़ी देर में सवेरा हो जायेगा, फिर लाइट ऑफ कर दूंगा मैं।’’
‘‘मैं चाय बनाये?’’
‘‘चाय!’’
‘‘कल रात से आपने कुछ नहीं खाया . . .’’
‘‘जरूरत नहीं।’’
‘‘सा’ब प्लीज!’’ – मेड आद्र स्वर में बोली।
‘‘ओके।’’
‘‘विद ऑमलेट!’’
‘‘नहीं।’’
‘‘मेबी सम बटर टोस्ट!’’
‘‘नो। जस्ट टी।’’
‘‘ओके!’’
पांच मिनट में वो चाय बना लायी। साथ में एक प्लेट में रखे चार बिस्कुट लायी।
विमल की भवें उठीं।
‘‘सा’ब, प्लीज!’’
‘‘ओके! रख दे।’’
वो चाय और बिस्कुट उसके करीब साइड टेबल पर रख कर चली गयी।
चाय की तरफ तवज्जो देने की जगह नींद से रीती विमल की आंखें छत पर कहीं टिक गयीं।
फ्लैशबैक उसे वैष्णोदेवी ले गया जहाँ उसने नीलम से शादी की थी और अग्नि को साक्षी मान कर, सात फेरे लेकर विधिवत् उसे अपनी धर्मपत्नी बनाया था। जहां तुकाराम ने कन्यादान किया था और वागले इकलौता बाराती था:
‘‘आये नी मांयें तेरे बाल, खोल बुए मन्दरां दे।’’
‘‘जयकारा शेरांवाली दा!’’
‘‘बोल सांचे दरबार की जय!’’
वो प्रांगण में चौथी लाइन में बैठी गुफा में जा के माता के दर्शन पाने के लिए अपनी बारी आने का इन्तजार कर रही थी।
‘‘कहां गायब हो गये थे? क्यों इतनी देर की लौटने में? हफ्ते में आने को कहा, चार महीने लगा दिये। एक-एक रात मैंने आंखों में काटी तुम्हारे इन्तजार में। हर घड़ी तुम्हारे अनिष्ट की आशंका सताती थी। जी चाहता था उड़ कर तुम्हारे पास पहुंच जाऊं। क्यों सताया इतना? क्यों लगाई इतनी देर?’’
नीलम! नीलम!
उसके आंसू बहने लगे। उसने अपने पहलू में बैड को उस जगह छुआ जहां नीलम होती थी लेकिन नहीं थी, नहीं हो सकती थी, कभी नहीं हो सकती थी!
‘‘अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी। एक क्षण के लिये भी मैं तुम्हें अपनी निगाह से ओझल नहीं होने दूंगी। तुम्हें कजरा बना के आंखों में लगा लूंगी, गजरा बना के जूड़े में गूंथ लूंगी, नगीना बना कर अंगूठी में जड़ लूंगी, महंदी बना के हाथों में रचा लूंगी, लेकिन जाने नहीं दूंगी। कहीं जाने नहीं दूंगी।’’ . . . मैं यहां ये मन्नत मांगने आयी थी कि हे माता भगवती भवानी, मुझे विमल की सूरत दिखा। हे दाती, मेरा बिछुड़ा यार मिला। देखो! दाती के अभी दर्शन नहीं हुए और मुराद पूरी हो भी गयी।’’
जिसने रोकना था, कहीं जाने नहीं देना था, वो ख़ुद चली गयी। हमेशा के लिये!
नीलम! तूने मुराद मांगी, पूरी हो गयी। मेरी मुराद तो पूरी होने लायक ही नहीं। मैं क्या करूं? मैं कहा जाऊं?
वाहे गुरु सच्चे पातशाह! मैं मतिमन्द चरण सरणागति, कर गह लेहु उबारी।
बाहर पौ फट रही थी जबकि मेड फिर चौखट पर प्रकट हुई।
चाय और बिस्कुट अनछुये पड़े थे।
सा’ब की आंखें बन्द थीं लेकिन वो जानती थी कि सा’ब सोया नहीं पड़ा था।
उसने असहाय भाव से गर्दन हिलायी, आगे बढ़ी और बर्फ-सी ठण्डी हो चुकी चाय और बिस्कुट उठा कर ले गयी।
आठ बजे मुबारक अली आया।
अशरफ, हाशमी और अल्तमश के साथ।
‘‘ये क्या गजब हुआ, बाप?’’ – मुबारक अली भर्राये कण्ठ से बोला – ‘‘हाशमी ने, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, छापे में पढ़ा तो मालूम हुआ। दौड़ा आया।’’
विमल ने हाशमी की तरफ देखा।
‘‘पेपर में’’ – पढ़ा-लिखा संजीदासूरत हाशमी दबे स्वर में बोला – ‘‘ख़बर के साथ कोई नाम नहीं छपा था लेकिन मॉडल टाउन छपा था, डी ब्लॉक छपा था। मामू ने आपका मोबाइल बजाया तो वो न बजा . . .’’
‘‘सुबह बैटरी जीरो हो गयी थी।’’
‘‘... फिर मैंने लैंडलाइन बजाई तो मेड ने जवाब दिया, तो पता लगा कि जो बीती थी, यहां . . . यहां . . .’’
‘‘जिस हाल में थे, दौड़े चले आये।’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘एक सैकंड न रुका गया।’’
‘‘शुक्रिया!’’ – विमल होंठों में बुदबुदाया।
‘‘कैसा शुक्रिया! अरे, तेरे पर अल्लाह का इतना बड़ा कहर टूटा और मेरे को ख़बर ही नहीं।’’
‘‘होती तो क्या कर लेता?’’
मुबारक अली हड़बड़ाया।
‘‘ये भी ठीक है।’’ – फिर बोला – ‘‘जो हुआ, उसकी बाबत अशरफ कुछ कहता है . . .’’
‘‘ठीक कहता है।’’
‘‘अरे, सुन तो ले क्या कहता है!’’
‘‘मालूम है। ठीक कहता है।’’
‘‘पलटवार हुआ?’’
‘‘हां।’’
‘‘तेरे से खुन्नस निकालने के लिये तेरी बेगम को जरिया बनाया?’’
‘‘मुझे तड़पता देखने के लिये।’’
‘‘क्या करेगा?’’
‘‘मालूम नहीं।’’
‘‘मुमकिन है। लेकिन एक बात सुन ले। जो करेगा अकेला नहीं करेगा। मुबारक अली को हमेशा अपने साथ पायेगा। वैसे तो तू अकेला ही सवा लाख है लेकिन जो हुआ, उसमें मुबारक अली, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तमाशाई बना नहीं रह सकता। मैं तेरे साथ, बिरादर।’’
‘‘शुक्रिया।’’
‘‘मेरे चौदह भांजे तेरे साथ।’’
‘‘शुक्रिया।’’
‘‘मिट्टी ठिकाने कब?’’
‘‘लाश को सुपुर्दगी पर मुनहसर है। शायद शाम को।’’
‘‘हम रुकते हैं।’’
‘‘नहीं।’’
‘‘लेकिन . . .’’
‘‘कोई जरूरत नहीं, मियां। मैं ख़बर करूंगा न! तब श्मशान घाट पहुंचना। हो सकता है अन्तिम संस्कार कल हो।’’
‘‘क्यों? जब तू कहता है आज शाम को . . .’’
‘‘उम्मीद करता हूं। आज इतवार है। शायद इतवार को पोस्टमार्टम वाला डाक्टर छुट्टी पर रहता हो। शायद पोस्टमार्टम कल हो।’’
‘‘ओह! लेकिन तू अकेला . . .’’
‘‘ख़ामख़ाह! अभी ख़ुद बोला न, मैं अकेला ही सवा लाख!’’
‘‘अच्छा! मन तो नहीं मानता लेकिन तू कहता है तो . . .’’
‘‘मैं कहता हूं।’’
‘‘ठीक है। तेरा हुक्म सिर माथे। लेकिन एक बात, बल्कि जिद, मेरी भी कुबूल कर।’’
‘‘बोलो।’’
‘‘अशरफ को यहां रुकने दे।’’
‘‘ठीक है।’’
‘‘दो जहां के मालिक ने तेरा बड़ा इम्तहान लिया है, बिरादर। दिल रोता है तेरी बेगम के अंजाम पर।’’ – मुबारक अली की आवाज भर्रा गयी – ‘‘लेकिन ख़ुदावन्द करीम इंसाफ करेगा। जिनकी ये करतूत है, वो सब कुत्ते की मौत मरेंगे। ये मुबारक अली का वादा है उन बद्बख़्तों से।’’
‘‘पर मैं पापी . . .’’
‘‘तू अपने करमों की तरफ न देख, ऊपर वाले की रहमतों की तरफ
देख। जिसके इशारे पर ये जहान चलता है, वो जानता है कि कौन गुनहगार माफ किये जाने के काबिल है और कौन नाहंजार सख़्त सजा का मुश्तहक है। गुनाह का अहसास होना भी, गुनाह का पछतावा होना भी गुनाह की तलाफ़ी होता है।’’
‘‘ये . . . मुबारक अली बोल रहा है?’’
‘‘चलता हूं, बिरादर, तेरा हुक्म है इसलिये चलता हूं।’’
अशरफ को पीछे छोड़ कर बाकी तीन जने चले गये।
तभी भीतर कहीं मोबाइल की घन्टी बजी।
मेड बजते मोबाइल के साथ लपकती उसके करीब पहुंची।
उसने स्क्रीन पर निगाह डाली तो पाया गैलेक्सी के मैनेजर चान्दवानी का फोन था।
उसने कॉल रिसीव की।
‘‘कौल!’’ – आवाज आयी – ‘जस्ट रैड ए हारीबल न्यूज इन पेपर’ सम पैदी थीव्स मर्डर्ड ए हाउसवाइफ इन मॉडल टाउन। डी-ब्लॉक भी लिखा था। नम्बर मेंशंड नहीं था। सस्पेंस हुआ। ऑल वैल एट युअर एण्ड बाई दि ग्रेस आफ गॉड?’’
‘‘नहीं, चान्दवानी साहब।’’
‘‘तो . . . तो . . . वो वारदात . . .’’
‘‘यहां हुई। डी-नाइन में।’’
‘‘विक्टिम . . . विक्टिम . . .’’
‘‘मेरी बीवी।’’
‘‘गुड गॉड, मैन, ख़बर तो करना था!’’
विमल ख़ामोश रहा।
‘‘आता हूं।’’
‘‘नहीं।’’ – विमल जल्दी से बोला – ‘‘औरों को भी आने को रोकना – ख़ास तौर से बॉस मैडम को।’’
‘‘बट, कौल . . .’’
‘‘मैं बोलूंगा कब आना ठीक होगा। मेरा सारा दिन मोर्ग में लग सकता है। पता नहीं कब पोस्टमार्टम होगा, कब लाश की सुपुर्दगी होगी। जब मैं ही यहां नहीं होऊंगा तो क्या करेंगे आप यहां आके?’’
‘‘ओह! ओके, कौल, कीप मी इंफॉर्म्ड।’’
‘‘यस, सर।’’
‘‘एण्ड असैप्ट माई हार्टफैल्ट कन्डोलेंसिज। वुई आर ऑल विद यू एट दि टाइम ऑफ दि ट्रेजेडी दैट यू आर फेसिंग।’’
‘‘आई एम ग्रेटफुल, सर।’’
सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
दो डी ब्लॉक निवासी पहुंचे जिन्हें विमल सिर्फ सूरत से पहचानता था, नाम तक नहीं जानता था। दोनों की सूरतों पर सम्वेदना के फर्जी भाव थे। लगता था सम्वेदना प्रकट करने नहीं आये थे, तमाशा देखने आये थे कि मरने वाली का खाविंद कितना ग़मग़ीन था – ग़मग़ीन था भी या नहीं था – आख़िर बीवी ही तो मरी थी, चार दिन कलप कर दिखायेगा फिर नयी ले आयेगा।
‘‘मिस्टर कौल’’ – एक अपने लहजे को ग़मग़ीन बनाने की कोशिश करता बोला – ‘‘आप की मिसेज के साथ जो बीती, उसका बहुत अफसोस हुआ।’’
‘‘क्या बीती?’’ – विमल सहज भाव से बोला – ‘‘किसका अफसोस हुआ?’’
‘‘वो . . . वो गुजर गयीं न!’’
‘‘किधर से गुजर गयीं?’’
दोनों ने एक दूसरे का मुंह देखा।
‘‘उनके दिन पूरे हो गये न!’’ – दूसरा बोला – ‘‘स्वर्गवासी हो गयीं न!’’
‘‘नहीं, जनाब। मेरी बीवी तो मायके गयी है!’’
‘‘जी!’’
‘‘लौट आयेगी।’’
‘‘लौट आयेगी?’’
‘‘जी हां। ख़बर करूंगा आप लोगों को।’’
‘‘ख़बर करेंगे! कमाल है!’’
‘‘रात इधर पुलिस आयी थी।’’
‘‘आपको मुग़ालता लगा। आसपास कहीं आयी होगी।’’
‘‘अच्छा! फिर तो चलते हैं!’’
‘‘ओके! थैंक्स फॉर कमिंग।’’
वो लौट पड़े।
विमल ने एक को साफ कहते सुना – ‘‘सदमे में पागल हो गया बेचारा! बहकी-बहकी बातें करता है!’’
विमल यही चाहता था। यूं दुश्मनों को ग़लत सिग्नल पहुंचता कि उस हादसे ने उसे इतना तोड़ दिया था कि वो किसी प्रतिशोध के काबिल नहीं रहा था।
फिर वही पहुंच गया जिसको सिग्नल पहुंचना था।
चिन्तामणि त्रिपाठी अपने पुत्र अरमान के साथ आया।
दोनों के चेहरों पर से धूर्तता छुपाये नहीं छुपती थी।
‘‘बहुत अफसोस हुआ।’’ – चिन्तामणि हमदर्दीभरे लहजे से बोला।
‘‘बड़ी विपत्ति टूटी आप पर।’’ – अरमान ने तरह दी।
‘‘इस इलाके में ऐसा वाकया पहले कभी नहीं हुआ।’’
‘‘मर्डर तो दूर की बात है, चोरी चकारी का भी नहीं हुआ।’’
‘‘मेरा भाई इस इलाके का काउन्सलर है। वो पुलिस की अच्छी ख़बर लेगा।’’
‘‘मुजरिम जरूर पकड़े जायेंगे।’’
विमल धीरज से सब सुनता रहा।
‘‘सारे ब्लॉक को’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘आप अपने ग़म में शरीक समझिये।’’
‘‘ग़म!’’ – विमल सहज भाव से बोला – ‘‘मुझे तो कोई ग़म नहीं।’’
‘‘आप को कोई ग़म नहीं?’’
‘‘हां।’’
‘‘वो . . . आप की पत्नी . . .’’
‘‘मायके गयी है।’’
‘‘ओह! फिर तो . . . चलते हैं।’’
विमल ने सहमति से सिर हिलाया।
‘‘पागल हो गया, साला।’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘भेजा हिल गया।’’
‘‘कहता था’’ – अरमान हंसा – ‘‘बीवी मायके गयी! देखो तो!’’
‘‘अच्छा है, अच्छा है हमारे लिये। इसी हाल में चल-चल हो जायेगी हरामजादे की।’’
‘‘ऐसा ही होता जान पड़ता है। मैं नहीं कहता था कि आत्मरक्षा की एक ही रणनीति होती है।’’
‘‘हमला!’’
‘‘जो कि हमने किया।’’
‘‘अरे, लड़के कहां हमला करना सब से ज्यादा कारगर होगा, ये तेरे को कहां मालूम था! ये तेरे को कहां मालूम था – मालूम था तो कहां याद आया था – कि ताकतवर की भी कोई कमजोरी होती थी जिस पर हुआ वार वो नहीं झेल सकता था, कोई दुखती रग होती थी जिस को छुआ जाये तो वो तड़पता था!’’
‘‘ये बात तो ठीक है, पापा। ये बात आपको सूझी क्योंकि जिन्दगी के आपके तजुर्बात मेरे से कहीं ज्यादा हैं।’’
‘‘हां। तभी तो तेरी रणनीति के खिलाफ मैंने अपनी रणनीति तेरे को बतायी।’’
‘‘कि औरत मर्द की कमजोरी होती!’’
‘‘हां। और दुश्मन के कमजोर अंग पर वार करना युद्ध की रणनीति होता है। अब देख, उसका क्या हाल है!’’
‘‘हां! पागल हो भी गया है साला। कहता है बीवी मायके गयी है। लेकिन ऐसा रह तो नहीं सकता?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘पोस्टमार्टम के बाद जब भी की जायेगी, लाश तो उसी के सुपुर्द की जायेगी! तब क्या वो लाश को लेने से इंकार कर देगा? बोलेगा उसकी बीवी तो मायके गयी हुई है?’’
‘‘ऐसा तो नहीं हो सकता! अव्वल तो पुलिस नहीं होने देगी – जब लाश उसके घर से उठाई गयी तो कैसे होने देगी – फिर भी उसको रट के तहत कि उसकी बीवी मायके गयी हुई है, लाश को लावारिस करार दिया जायेगा और फिर उसको फूंकने का इन्तजाम पुलिस करेगी। लाश की ऐसी दुरगत उसे क्योंकर कबूल होगी! ऐसा पत्थर का कलेजा कैसे बनायेगा वो अपना कि अपनी ब्याहता बीवी को, अपने बच्चे की मां की वो मुखाग्नि भी न दे। नहीं, नहीं, उसे ‘बीवी मायके गयी है’ वाली अपनी रट छोड़नी पड़ेगी।’’
‘‘फिर पागल तो न हुआ वो! दिमाग तो न हिला हुआ हुआ उसका!’’
चिन्तामणि ने उस बात पर विचार किया।
‘‘इन्तजार।’’ – फिर बोला – ‘‘इन्तजार कर, लड़के। आज नहीं तो कल सामने आ ही जायेगा कि वो क्या करता है!’’
‘‘ठीक!’’
उस रोज पोस्टमार्टम न हो सका।
वजह इतवार की छुट्टी के दिन पोस्टमार्टम वाले डाक्टर की अनुपलब्धता ही बनी।
रात फिर विमल पर भारी थी।
सारी रात उसने आंखों में काटी।
सारी रात कभी जेहन पर नीलम का अक्स उबरा, कभी कानों में नीलम की आवाज गूंजी।
‘‘लड़का हुआ तो मैं उस का नाम सूरज रखूंगी। तुम कहते हो इस हालत भी मेरा चेहरा सूरज की तरह चमकता है तो लड़का ही होगा और नाम उसका सूरज ही होगा, सिर्फ सूरज। फिर जब वो बड़ा हो जायेगा, जब सोहल की खूनी दास्तान पुरानी पड़ चुकी होगी। तो मैं उसका नाम सूरज सिंह सोहल रखूंगी। सरदार सूरज सिंह सोहल, सन ऑफ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल।’’
सच्चे पातशाह! जिस्म से रूह अलग कर दी तो जिस्म क्यों जिन्दा है? अभी कौन सी सजा बाकी है? किसका इन्तकाम बाकी है?
‘‘पिल्ला अभी बाकी है। ढूंढ़ लेंगे।’’
वो यूं चिहुंक कर उठ बैठा जैसे बैड में कांटे निकल आये हों। दिसम्बर की ठण्ड में भी उसने महसूस किया कि उसका जिस्म पसीने से नहाया हुआ था।
पता नहीं कितना अरसा वो बैठा रहा फिर थक कर वापिस लेट गया।
क्यों? क्यों सारे दारुण दुखों का पहाड़ नीलम पर ही टूटता था? सारे खूंखार भेड़ियों का शिकार नीलम ही क्यों? क्या इस गुनाह की सजा के तौर पर कि वो सोहल की बीवी थी? कभी मुहम्मद सुलेमान, कभी राजबहादुर बखिया, कभी इनायत दफेदार!
और अब?
अब कौन?
कौन?
जवाब इतना मुश्किल तो न था!
‘‘खालसा अकेला भी सवा लाख होता है।’’
‘‘ये तुम नहीं, तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। मुम्बई में बखिया के खिलाफ जो कामयाबियां तुम्हें हासिल हुईं, उन्होंने तुम्हारा सिर घुमा दिया है। तुम पता नहीं क्या समझने लगे हो अपने आप को! तुम कोई पीर पैगम्बर हो, देवता या अवतार हो, जिसकी भृकुटि तनेगी तो पापियों का सर्वनाश हो जायेगा? तुम सवा लाख ही सही लेकिन क्या सवा लाख जने भी सृष्टि से मुकम्मल जुल्मों का और तमाम जालिमों का सफाया कर सकते हैं?’’
हे देशमेश पिता, क्या हूं मैं? एक रास्ता भटके, अन्धेरे में ठोकरे खाते फिरते प्राणी के अलावा क्या हूं मैं! क्या हूं मैं?
‘‘सूरा सो पहचानिये जो लरे दीन के हेत।’’
‘‘बहुत जरूरी था अपने आप को सूरमा साबित करना! किया तो ऐसा करते वक्त एक दीन जो तुम्हारे अपने घर में मौजूद था, उसकी तो सुध आयी नहीं होगी! ये तो नहीं सोचा होगा कि सूरमाई की तरफ उठता तुम्हारा कदम तुम्हारी बीवी को विधवा बना सकता था?’’
हे, मेरे पालनहार, मेरी बांह पकड़। मेरे साथ चल। मेरे पर घोर विपत्ति का पहाड़ टूटा है, मेरे आगे निपट अन्धियारा है जिसमें मैं अकेला नहीं चल सकता। मुझे ठोकरें खाने को न छोड़। मेरी बांह पकड़, मेरे साथ चल . . .
एकाएक उसके जेहन पर पंडित भोजराम शास्त्री का अक्स उबरा, उसे लगा वो अपनी धीर गम्भीर आवाज में उससे मुखातिब थे:
‘‘दुख की घड़ी का भी उतनी ही बहादुरी से मुकाबला करना चाहिये जितनी उमंग से सुख की घड़ी का भोग करते हो। जैसे कोई सुख स्थायी नहीं होता, वैसे ही कोई दुख भी स्थायी नहीं होता। . . . दि डार्क टुडे लीड्स इन टु लाइट टुमारो, देअर इज नो एंडलैस जॉय, नो ऐंडलैस सॉरो। . . . दुख पाया तो क्या सिर्फ तुमने पाया? प्रियजनों का बिछोह क्या सिर्फ तुम्हें झेलना पड़ा? . . . वेदना, वियोग, निराशा सब जीवन का अंग हैं इसलिये स्वीकार्य होने चाहियें . . . समता, विषमता प्रारब्ध की सगी बहनें हैं, एक जगह इनसे बच निकलोगे तो दूसरी जगह सामने खड़ी मिलेंगीं। सो डोंट ट्राई टु ब्रोबीट युअर फेट, विच इज युअर लाइफ बाई अनवर नेम।’ फेस इट। फेस इट विद करेज ऐंड कनविक्शन।’’
‘‘फेस इट विद करेज एण्ड कनफिक्शन।’’ – विमल होंठों में बुदबुदाया। फिर वैसे ही तुकाराम की गर्जना उसके जेहन पर गूंजी:
‘‘इंसान की पहचान इस बात से होती है कि केवल वही विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना सकता है। पशु ही परिस्थितियों के अनुकूल होते हैं, बेटा, इंसान नहीं। वक्त की मार के आगे हथियार डाल कर परिस्थितियों के अनुकूल बनते चले जाने की कोशिश न कर बल्कि परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना। हालात से जूझने की कूवत पैदा कर अपने आप में। हिम्मत न हार। दुश्वारियों के आंधी तूफानों के सामने पहाड़ की तरह तन जा। सम्भल जा, बेटा। खड़ा होजा। खड़े का खालसा बन जा। खड़े का खालसा बन जा। खड़े का खालसा बन जा . . .’’
विमल के जबड़े भिंच गये, मुट्ठियां जकड़ गयीं, सांस यूं चलने लगी जैसे लम्बी दौड़ लगा के आया हो। एकाएक वो उठ कर बैठ गया, फिर बैड से उतर कर फर्श पर खड़ा हो गया। उसके दोनों हाथ सिर से ऊपर उठे, वो घनगर्जन करती आवाज में बोला – ‘‘मैं वाहे गुरु का खालसा हूं। मैं गुरां दा सिंह हूं। मैं बादलों की तरह गरजूंगा और उतनी ही बुलन्द आवाज में अपना कहर दुश्मनों पर नाजिल करूंगा। मेरी ललकार बैरियों का वजूद थरथरा देगी। मेरी चीत्कार शोला बन कर उन्हें जला कर ख़ाक कर देगी। साधन हेति इति जिनी कारी, सीस दिया पर सी न उचारी। धर्म हेत साका जिनि किया, सीस दिया पर सिरड़ न दिया।’’
मेड दौड़ती हुई वहां पहुंची।
‘‘सा’ब! सा’ब!’’ – वो आतंकित भाव से बोली – ‘‘क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ – विमल शान्ति से बोला।
‘‘आप शाउट करता था!’’
‘‘अरे, नहीं, भई।’’
‘‘खड़े क्यों है?’’
‘‘खड़ा हूँ? ओह!’’ – वो एक कुर्सी पर ढ़ेर हुआ – ‘‘क्या टाइम हुआ है?’’
‘‘छः बज गया।’’
‘‘ओह! इतना टाइम हो गया!’’
‘‘सा’ब, मैं कुछ बोले?’’
‘‘हां, हां! क्यों नहीं? बोलो, क्या कहना चाहती हो?’’
‘‘सा’ब दो दिन से आपने खाना नहीं खाया। दो दिन से सोया नहीं। कैसे होगा? बॉडी का इंजन ईंधन बिना, रैस्ट बिना कैसे चलेगा? ईंधन होना। रैस्ट होना। तभी चलेगा। प्लीज, प्लीज, कुछ खा लीजिये।’’
‘‘खा लूं?’’
‘‘आप का वास्ते चिकन सूप बनाया। आप टच भी नहीं किया।’’
‘‘अभी है।’’
‘‘हां। माइक्रोवेव में गर्म करने में टू मिनट्स लगेगा।’’
‘‘ले के आ।’’
‘‘आप सूप पियेगा?’’
‘‘हां, भई।’’
‘‘फाइन!’’ – वो उत्साह से बोली – ‘‘जस्ट यू वेट।’’
वो यूं वहां से रुख़सत हुई जैसे पैरों में पंख लग गये हों।
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