तब रात का क्या वक्त हुआ था। नहीं मालूम।
मोमबत्ती कब की बंद हो चुकी थी। बेदी, शुक्रा और आस्था नींद में थे। भीतर से बंद दरवाजा कब और कैसे खुला। उन्हें नहीं पता चला। एक के बाद एक चार आदमियों ने भीतर प्रवेश किया और उन्हें सोये-सोये घेर लिया। दो के हाथों में तेज रोशनी वाली टॉरचें थीं। वह दोनों, आने वालों के चेहरे भी नहीं देख सके।
सिर्फ दो मिनट लगे।
वहीं पड़ी रस्सी से उन्होंने बेदी और शुक्रा को बांध कर एक तरफ लुढ़का दिया ।
उसके बाद वे आस्था को जबरदस्ती अपने साथ ले गये।
"शुक्रा।" बेदी का स्वर घबराया हुआ था--- "कौन थे ये लोग। वधावन की लड़की को क्यों ले गये?"
शुक्रा की तरफ से कोई आवाज नहीं आई।.
घुप्प अंधेरे में कुछ भी नजर नहीं आ रहा था।
"तू चुप क्यों है शुक्रा, शुक्रा तू ठीक तो है।"
"हां।" शुक्रा का शांत स्वर उसके कानों में पड़ा ।
"कोई आस्था को ले गया। मेरा ऑपरेशन कैसे होगा। मैं-मैं तो अब जिन्दा नहीं रह सकूंगा।" बेदी के स्वर में तड़प थी।
शुक्रा की तरफ से फिर कोई जवाब नहीं आया।
“तू बोलता क्यों नहीं ?”
"मैं बंधनों को खोलने की कोशिश कर रहा हूं।"
बेदी ने भी कोशिश की, अपने बंधनों को खोलने की। परन्तु वे इतने टाइट थे कि नहीं खुले।
शुक्रा भी थक-हार कर बैठ गया था कि इन बंधनों को तो सुबह उदय ही आकर खोलेगा ।
"नहीं खुल रहे?" शुक्रा ने पूछा।
"नहीं, बहुत सख्ती से बांधे हैं।" बेदी बोला--- “ऊपर से अंधेरा है। कुछ नजर नहीं आ रहा।"
"दरवाजा भीतर से बंद था।" शुक्रा ने कहा--- "वो लोग भीतर आ गये और हमें पता भी नहीं चला।"
"इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले अपने काम में एक्सपर्ट थे। वो लोग भीतर कैसे आये यह तो सुबह ही मालूम हो पायेगा।" बेदी ने व्याकुल स्वर में कहा--- "लेकिन वो लोग आस्था को ले गये। कौन होंगे वह लोग ?"
"मेरे पास ऐसा कोई आधार नहीं है कि कह सकूं।” शुक्रा ने गंम्भीर स्वरें में कहा--- “लेकिन इस बात का मुझे पूरा विश्वास है कि आस्था को शांता बहन के आदमी ले गये।"
“शांता?" बेदी के होंठों से निकला।
"हां।"
"यह बात तुमने किसी आधार पर तो कही होगी।"
"वो तुमसे शादी करना चाहती है। तुम्हारा ऑपरेशन भी कराने को कहा।"
"हां।"
"तुमने मना कर दिया।"
"हां।"
"क्योंकि आस्था के पास होते तुम्हें विश्वास था कि वधावन अपनी बेटी को पाने के लिये ऑपरेशन करके तुम्हारे दिमाग में से गोली निकाल देगा । आस्था का तुम्हें सहारा था। इसलिये शांता बहन ने तुम्हारा वह सहारा छीन लिया, ताकि तुम उसका सहारा लो। वह तुम्हें मजबूर करेगी कि तुम उसके पास जाओ।"
"ओह ।" बेदी के होंठों से निकला।
"तुम उससे नहीं जीत सकते विजय ।"
"क्या मालूम यह काम शांता का न हो और...।"
"अपने दिल की तसल्ली के लिये तुम यह भी कह सकते हो कि अभी आस्था आ जायेगी। लेकिन आधे से ज्यादा सच वही हैं, जो मैंने तुम्हें बताया है।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा।
बेदी की आवाज नहीं आई।
"वो शांता बहन है। बहुत खतरनाक है। जो कर जाये वही कम है।" शुक्रा पुनः बोला ।
“बहुत बुरा हुआ शुक्रा ।" बेदी की आवाज में दुख था--- "मेरा ऑपरेशन नहीं हो पायेगा।"
"भगवान ही जाने किस्मत में क्या लिखा है।" शुक्रा बेचैनी से बोला--- “लेकिन ऑपरेशन तो वक्त रहते ही होगा।"
"यह बात तू कैसे कहता है कि...।"
"मैं तेरे को मरने नहीं दूंगा।" शुक्रा ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- "मेरे होते हुए, मेरा यार दुनिया से चला जाये, ऐसा नहीं होने दूंगा।"
"मेरा दिल कहता है कि ऐसे ही होगा।" बेदी भारी स्वर में कह उठा--- "पहले अंजना की वजह से काम बिगड़ा। अब शांता की वजह से बिगड़ रहा है। लगता है औरतें मेरी जिन्दगी में जहर घोलने के वास्ते हैं। मुझे इनसे दूर रहना चाहिये।”
"वहम मत पाल ।"
बेदी ने नहीं कहा, आंखें बंद कर लीं। अब उसे यही लग रहा था कि वह नहीं बच सकेगा। वधावन जानता था कि आस्था उसके पास है। वह उसी से आस्था मांगेगा और वह दे नहीं पायेगा। जो भी हो, ऐसे में कम-से-कम वधावन उसका ऑपरेशन तो नहीं करेगा। मतलब कि बात खत्म। उसकी जिन्दगी खत्म । जान उसे प्यारी थी। उतनी ही वह उससे दूर होती जा रही थी। जितना वह जीना चाहता था, उतना ही मौत के करीब पहुंच रहा था।
■■■
शांता नशे में धुत थी। नशे के समन्दर में डूबी थी वह। सोफे पर पसरी हुई थी। पास ही खाली बोतल लुढ़की हुई थी। हाथ में खाली हो रहा गिलास था। रह-रहकर आँखें बंद हो रही थी। लेकिन किसी तरह अपने होश कायम रखे थी। एक ही बार में बची व्हिस्की का गिलास खाली किया और पास ही सोफे पर लुढ़का दिया।
बंद हो रही आंखों को जैसे तैसे पूरी खोलकर दीवार पर लगी घड़ी में देखा। रात में ढाई बज रहे थे।
तभी पास पड़ा फोन बज उठा ।
शांता का नशे में कांपता हाथ फोन तक पहुंचा, उठाया, ऑन किया, बात की।
"हां।" शांता की आवाज नशें में भरभरा रही थी।
“शांता बहन। मैं छोटे लाल बोल रहा हूं। काम हो गया। वो लड़की वहां से उठा ली गई।"
"हूं।" शांता ने सिर हिलाया--- "लड़की के पास कितने लोग थे?"
"दो, उन्हें बांधकर वहीं डाल दिया।"
"मारा-पीटा तो नहीं ?"
"नहीं, हमने एकदम उन पर काबू पा लिया।"
"ठीक किया, छोकरी किधर है?"
"मेरे पास, हिफाजत से है।"
“उसे कोई भी किसी तरह की भी तकलीफ न हो, ध्यान रखना उसका।"
"ऐसा ही होगा शांता बहन ।"
“बात खुले भी नहीं कि छोकरी, कोई छोकरी तेरे पास है।"
"नहीं होगा।"
“तूने इनाम वाला काम किया है। मिलेगा तेरे को इनाम । बंद करती हूं।" शांता ने कहने के साथ ही फोन बंद किया और उसे पास ही रख दिया फिर बोली--- “खाना दे मां।"
कई पलों तक खामोशी रही।
शांता ने आंखें मिचमिचाकर खोली आस-पास देखा। फिर बड़बड़ा उठी।
"ना मां, ना खाना, कुछ भी नहीं।" इसके साथ ही वह सोफे पर लुढ़क गई। जहां खाली गिलास पड़ा था। फोन पड़ा था। दो पलों में ही वह नशे से भरी गहरी नींद में डूब चुकी थी।
■■■
सुबह नौ बजे शांता की आंख खुली।
आंखें नशे की वजह से बंद हो रही थीं। चेहरा भी सूजा-सूजा सा लग रहा था। सिर फट रहा था, किसी तरह खुद पर काबू पाकर सोफे पर बैठी और दोनों हाथों से सिर को दबाया। नीचे पड़ी खाली बोतल पर नजर पड़ी। शाम से बैठे-बैठे उसे ध्यान आया, कि धीरे-धीरे पूरी बोतल ही खत्म कर दी। बहुत ज्यादा पी ली थी और बिना कुछ खाये ही सो गई थी। शांता ने अपनी बिगड़ी हालत पर काबू पाया और पास ही पड़े पैकिट में से सिगरेट निकालकर सुलगा ली। इतना उसे याद था कि छोटे लाल ने फोन पर कहा था कि वो छोकरी को उठा लाया है।
शांता उठ खड़ी हुई और बाथरूम की तरफ बढ़ गई।
आधे घंटे में वह नहा-धोकर तैयार थी। सूट बदल लिया था। गीले बाल कुल्हों तक पहुंच रहे थे। वह किचन में पहुंची और नाश्ता तैयार करने लगी ।
दस बजे तक उसने नाश्ता भी कर लिया। इस बीच वह सोचती रही थी। विजय बेदी के बारे में। आस्था के बारे में। डॉक्टर के बारे में। बिखर चुके अपने परिवार के बारे में और अपने भविष्य के बारे में।
नाश्ते के बाद उसने डॉक्टर वधावन का फोन नम्बर फोन बुक में से लिया और फोन किया। वहां से जिसने भी फोन उठाया। उसने दूसरा नम्बर दिया कि डॉक्टर साहब इस नम्बर पर मौजूद हैं ।
शांता ने दिए नम्बर पर फोन किया। वधावन से बात हुई।
"हैलो ।”
“तू वधावन है। डाक्टर वधावन ?” शांता बोली।
"हां।" वधावन की आवाज में उलझन थी--- "तुम कौन हो ?"
"शांता, शांता बहन कहते हैं लोग मुझे।" शांता का स्वर शांत था।
"शांता बहन? मैं समझा नहीं, कौन ?”
"बाद में मालूम करना, अभी बात कर, मेरे से।"
"क्या बात ?"
"तेरी छोकरी मेरे कब्जे में हैं। बोल, क्या देता है?"
"छो... क्या आस्था की बात कर रही हो तुम?" वधावन का चौकाहट से भरा स्वर उसके कानों में पड़ा।
"हां, वो ही तेरी बेटी है ना?"
"हां-हां। लेकिन वो तो-वो तो...।"
"वो विजय बेदी के कब्जे में थी। ये ही बोलना चाहता है ना तू?"
"ह-हां-हां।"
"अब वो मेरे कब्जे में है। शांता बहन से, छोकरी वापस चाहिये तेरे को या लाश भिजवाऊं?"
"नहीं, नहीं, उसे कुछ मत कहना।" वधावन का तेज स्वर उसके कानों में पड़ा।
"बोल, कितनी रकम देता है?"
"रकम ?"
"औलाद को वापस पाने के लिये, रकम नहीं देगा क्या? मुफ्त में मिल जायेगी छोकरी तेरे को। उसको जब तेरी बीवी ने जना था तो तब हस्पताल वालों ने, पैसा नहीं लिया था। मुफ्त में सारा काम कर दिया था क्या?"
वधावन की तरफ से कोई आवाज नहीं आई।
"डॉक्टर ।"
"हां।"
"अभी फोन बंद करती हूं। तू दो काम कर।" शांता ने सपाट स्वर में कहा।
"क्या?"
“पहला काम शांता बहन के बारे में मालूम करने का करना, उसके बिना तेरे भेजे में मेरी बात नेई आयेगी।"
वधावन की तरफ से कोई आवाज नहीं आई।
"सुना है मेरे को या नेई ?"
"सु-सुन रहा हूं।"
"हाँ बोला कर ।" शांता के स्वर में कोई भाव नहीं था--- “दूसरी बात यह सोचना कि अपनी छोकरी को जिन्दा चाहिये तो मेरे को कितनी बड़ी रकम देगा। मेरे को बड़े से बड़ी रकम चाहिये। नहीं मिली तो तेरे को छोकरी की लाश मिल जायेगी।" कहने के साथ ही शांता ने फोन बंद कर दिया।
फोन रखने के बाद शांता ने सिगरेट सुलगाई और शीशे के पास जा पहुंची। जाने कितनी देर वह खुद को शीशे में सिर से पांव तक देखती रही फिर शीशे के सामने ही स्टूल पर बैठ गई और गीले बालों को संवारने लगी।
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सब-इंस्पेक्टर जय नारायण के चेहरे के भाव बता रहे थे कि रात को देर से सोया और सुबह जल्दी उठ गया था। कई काम उसके सिर पर थे। जिनमें से सबसे अहम काम डॉक्टर वधावन की बेटी को ढूंढ निकालना था।
इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव कई बार उसे तीखी झाड़ लगा चुका था।
उस वक्त साढ़े दस बज रहे थे, जब वह थाने पहुंचा तो दो मैसेज मिले। पहला तो डॉक्टर वधावन की तरफ से था। उसका हर दस मिनट बाद फोन आ रहा था। उससे बात करने के लिये। दूसरा मैसेज फोन एक्सचेंज वालों की तरफ से था। जय नारायण को समझते देर न लगी कि विजय बेदी का फोन आया होगा। सब-इंस्पेक्टर जय नारायण ने पहले वधावन को फोन करके उससे बात की।
वधावन ने छूटते ही पूछा।
"शांता कौन है?" उसके स्वर में उखड़ापन था।
"शांता?" जय नारायण कुछ नहीं समझा।
"हां शांता-शांता बहन कह रही थी वह खुद को।"
जय नारायण के मस्तिष्क में धमाके फूटने लगे।
"आपका शांता बहन से क्या मतलब?" उसके होंठों से निकला।
"मैंने तुमसे पूछा है कि शांता बहन कौन है?" वधावन का भिंचा स्वर कानों में पड़ा।
“शांता बहन के नाम से जानी जाने वाली युवती खतरनाक गैंगस्टर है। उसका गैंग है। लेकिन आपका उससे क्या मतलब ?"
"उसका फोन आया था। वह कह रही थी कि मेरी बेटी आस्था उसके पास है। उसे छोड़ने के लिये रकम मांग रही थी।"
जय नारायण हैरानी से उछल पड़ा।
“आपकी बेटी उसके, शांता बहन के पास ? " वह हक्का-बक्का रह गया।
"हां।"
"लेकिन वह तो विजय बेदी के पास थी ?"
"वह कहती है, अब आस्था उसके कब्जे में है।" डॉक्टर वधावन का गुस्से से भरा स्वर उसके कानों में पड़ा--- "यह सब तुम्हारी वजह से हुआ। अगर मैं तुम पर विश्वास करके न चलता । विजय बेदी का ऑपरेशन कर देता तो मेरी बेटी इस वक्त मेरे पास होती। अब वह और बड़े खतरे में पड़ गई है।"
जय नारायण के होंठ भिंच गये।
"शांता बहन ने कितनी रकम मांगी?"
“रकम नहीं बोली। लेकिन उसने कहा है मेरी बेटी को वापस देने के बदले ज्यादा-से-ज्यादा रकम उसे चाहिये। उसने कहा कि मैं सोच लूं। वह बाद में फोन करेगी।" वधावन की आवाज में अभी भी क्रोध था।
जय नारायण का दिमाग तेजी से चल रहा था।
"तुम एक मामूली आदमी विजय बेदी को नहीं पकड़ पाये तो शांता बहन जैसी खतरनाक गैंगस्टर से मेरी बेटी को कैसे बचाओगे। तुम्हारी बातों में फंसकर मैंने अपनी बेटी...।"
"डॉक्टर ।" जय नारायण ने कहा--- "मैं आज आपसे मिलूंगा।"
"क्या करोगे मिलकर, तुम कुछ नहीं कर...।"
जय नारायण ने रिसीवर रखा और इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव के ऑफिस में पहुंचा। मालूम करने पर पता चला कि वो किसी केस पर गये हैं। जय नारायण एक्सचेंज पहुंचा तो उसे एक टेप दी गई। जिसमें शांता बहन और वधावन में हुई बातें दर्ज थीं। वहां से वह सीधा अपने घर पहुंचा और टेप रिकार्ड पर पर कैसेट लगाकर गम्भीरता से दोनों में हुई बातों को सुना। कई बार सुना, फिर कैसेट निकालकर जेब में डाल ली।
शांता बहन की बातों से कोई शक नहीं बचा था कि आस्था उसके पास नहीं है। उसके पास ही है। लेकिन यह बात उसकी समझ से बाहर थी कि आस्था, विजय बेदी के पास से शांता बहन के पास कैसे पहुंच गई? उसे पूरा विश्वास था कि विजय बेदी को देर-सबेर में घेरकर आस्था को उसकी कैद से निकाल लेगा और उसे भी गिरफ्तार कर लेगा, लेकिन अब मामला गम्भीर हो गया था। शांता बहन बीच में आ गई थी।
जय नारायण वापस थाने पहुंचा। इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव अभी तक नहीं लौटा था। महेन्द्र यादव से बात किए बिना वह अब इस मामले में कोई कदम नहीं उठाना चाहता था क्योंकि उसके किसी कदम से आस्था की जान को खतरा पैदा हो सकता था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। जो उसके हिस्से का जरूरी काम था। वह उसने साथी पुलिस वालों को करने को कह दिया था।
दोपहर को दो बजे इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव लौटा। उसके चेहरे पर थकान स्पष्ट नजर आ रही थी।
उसके आने के करीब दस मिनट बाद जय नारायण उसके पास पहुंचा।
"सर, जरूरी बात करनी है।" जय नारायण ने कहा।
इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव ने उसके चेहरे को देखा फिर बोला ।
"बैठो।”
जय नारायण बैठा तो महेन्द्र यादव कह उठा।
"तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि कोई नया गुल खिल गया है। डॉक्टर की लड़की तो ठीक है?"
“अभी तक तो ठीक है।" जय नारायण ने गम्भीर स्वर में कहा।
"अभी तक से तुम्हारा क्या मतलब?"
"सर, वो विजय बेदी के कब्जे में थी, सब ठीक था। मुझे विश्वास था कि वो लड़की को कोई नुकसान नहीं पहुंचायेगा। लेकिन जाने कैसे लड़की उसके हाथों से शांता बहन के हाथों में पहुंच गई और...।"
"शांता बहन।" इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव चौंका--- "वो गैंगस्टर... ?”
"हां, मैं उसी की बात...।”
“शांता इस मामले में कैसे आ गई?"
"मालूम नहीं सर, मैं खुद हैरान हूं कि.... ।”
"तुम हैरान ही होते रहोगे, पूरी बात बताओ।"
जय नारायण ने कैसेट में सुनी वधावन और शांता की सारी बात बता दी ।
"अगर काल टेप न की जा रही होती तो शायद इतना खुलकर मामला हमारे सामने नहीं होता।" जय नारायण बोला।
इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव की आंखें सिकुड़ीं रही, वह सोचता रहा।
"सर।"
महेन्द्र यादव ने जय नारायण को देखा।
"मैं शांता बहन के बारे में कुछ कहना चाहता हूं।"
"क्या?"
“शांता बहन की सारी बातचीत की टेप हमारे पास है। एक्सचेंज वाले गवाह हैं कि उन्होंने यह बातें टेप की हैं। इस बिनाह पर हम शांता बहन को गिरफ्तार कर सकते हैं और उससे डॉक्टर की बेटी को वापस...।"
"बच्चों जैसी बातें मत करो।" महेन्द्र यादव ने झाड़ने वाले ढंग में कहा--- "तुम एक ही डण्डे से सबको हांकने की कोशिश में लगे हो। शांता और आम नागरिक में बहुत फर्क है। तुम्हारा यह कदम शांता का तो कुछ भी नहीं बिगाड़ पायेगा। अलबत्ता उस लड़की की जान अवश्य चली जायेगी, जो उसके कब्जे में है।"
"लेकिन सर हमारे पास सबूत है कि शांता के पास, डॉक्टर की बेटी आस्था कैद है।"
"सबूत, यह टेप ?"
"यस सर ।"
"अगर शांता कहे कि यह उसकी आवाज नहीं है। किसी और ने उसकी आवाज बनाकर, डॉक्टर से बात की है तो तुम अदालत में साबित कर सकोगे कि टेप में शांता की ही आवाज है।" महेन्द्र यादव ने जय नारायण को देखा ।
जय नारायण खींझ कर रह गया।
"तुम पुराने पुलिस वाले हो। अच्छी तरह जानते हो कि शांता जैसी गैंगस्टर पर हाथ डालने का क्या मतलब है। दो-तीन पुलिस वालों ने उसके खिलाफ सबूत इकट्ठे करके उसे गिरफ्तार करने की सोची थी, वह मारे गये। इसलिये समझा रहा हूं कि शांता जैसी युवती पर हाथ डालने की तो सोचना भी नहीं। सिर्फ उसके कब्जे से डॉक्टर की बेटी को निकालने की कोशिश करो।" इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव ने गम्भीर स्वर में कहा।
"आप ठीक कहते हैं। किसी तरह मालूम करता हूं कि शांता बहन ने आस्था को कहां रखा है।"
"आस्था को उसने अपने पास न रखकर कहीं और रखा होगा। आने-जाने वालों पर निगाह रखो और जब मालूम हो जाये कि उसे कहां कैद रखा है तो सीधा मुझे खबर करो। उस जगह को घेरकर, डॉक्टर की लड़की को बरामद कर लेंगे।"
"राइट सर ।" जय नारायण ने परेशान स्वर में कहा--- "समझ में नहीं आता कि विजय बेदी के कब्जे से आस्था शांता बहन के पास कैसे पहुंच गई?"
“कुछ तो ऐसा हुआ ही होगा। मालूम हो जायेगा, क्या मामला रहा। तुम्हें जो कहा है, वही करो।"
"यस सर।" जय नारायण उठ खड़ा हुआ।
"एक बार फिर समझा रहा हूं, शांता के सामने पड़ने की कोशिश मत करना। तुम ऐसी बेवकूफियां कर जाते हो। कभी कोई भारी पड़ गया तो जान बचानी भी कठिन हो जायेगी। काम के वक्त साथ में एक-दो पुलिस वाले रखा करो।"
"यस सर।"
"जाओ, फौरन काम पर लग जाओ। वह डॉक्टर रसूख वाला है। उसकी बेटी को कुछ हो गया तो खामखाह मुसीबत खड़ी हो जायेगी। इस केस को जल्दी निपटाओ।" महेन्द्र यादव ने गम्भीर स्वर में कहा।
■■■
उदयवीर फ्लैट पर पहुंचा तो दोनों को बंधा पाकर, उसे हैरानी से भरा झटका लगा। जल्दी से वह बेदी और शुक्रा के बंधन खोलने लगा। आस्था को वहां न पाकर, वह हड़बड़ा उठा था।
"यह सब कैसे हुआ? डॉक्टर की बेटी कहां है?" उदयवीर के होंठों से निकला।
बंधन खुलते ही दोनों हाथ-पैर हिलाने लगे। जिस्म अकड़ रहे थे।
"हुआ क्या?" उदयवीर कुछ भी समझ नहीं पा रहा था।
बेदी की निगाह दरवाजे की तरफ गई। रात को भीतर आने वालों ने सिटकनी का हिस्सा ही काट डाला था। दरवाजे के आधे कटे पल्ले झूल रहे थे।
"रात को कुछ लोग आये और हमें बांधकर, आस्था को उठाकर ले गये।" बेदी बोला।
"किसी को कैसे पता चला कि डॉक्टर की लड़की या हम यहां हैं?" उदयवीर के होंठों से निकला।
बेदी ने शुक्रा को देखा।
"मेरे ख्याल में शांता बहन ने या उसके किसी आदमी ने हमारा पीछा करके यहां के बारे में जान लिया होगा।"
"शांता बहन ने ?" उदयवीर के होंठों से निकला, निगाह शुक्रा पर जा टिकीं।
"हां, हम उससे दो बार मिले, वापसी में किसी ने हमारा पीछा किया होगा।" शुक्रा ने कहा ।
“लेकिन शांता बहन ने ऐसा क्यों किया?"
"उदय वो विजय को पाना चाहती है। विजय इन्कार कर चुका है। वो जानती है कि विजय दिमाग से गोली निकलवाने के लिये उतावला हो रहा । ऑपरेशन के वास्ते ही इसने डॉक्टर की लड़की को उठाया। लड़की को अपने पास रखकर शांता बहन विजय को मजबूर करेगी कि यह उससे शादी कर ले। जैसे भी हो वो विजय को पाना चाहती है।"
"यह जरूरी तो नहीं कि आस्था को शांता के आदमी उठा ले गये हों?" बेदी ने कहा।
“शांता के आदमी न होते तो बांधने से पहले हमें दो-चार बार तो ठोकते, लेकिन उन्होंने फौरन हम पर काबू पाकर बांध दिया। शांता बहन ने ही कहा होगा कि हमें मारा-पीटा न जाये।"
बेदी कुछ न बोला
उदयवीर परेशान-सा बैठ गया।
“माना कि शांता के आदमी आस्था को उठा ले गये हैं। लेकिन अब क्या होगा। हम तो वधावन से ऑपरेशन करवाना चाहते थे। उसकी बेटी हमारे पास नहीं तो वह ऑपरेशन नहीं करेगा। आस्था उसे वापस न मिली तो वो पुलिस को भी बता देगा कि विजय ने आस्था का अपहरण किया, लेकिन उसे लौटाया नहीं ।"
बेदी ने व्याकुल निगाहों से शुक्रा को देखा।
“शुक्रा, वधावन को उसकी बेटी न मिली तो गलत इल्जाम मेरे सिर पर आ जायेगा।"
"हां, पुलिस पहले ही तेरे पीछे है। इस बात के बाद तो अखबार में भी तेरी तस्वीर दे देगी।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा।
बेदी के चेहरे पर उदासी के भाव आ गये।
"मैं वहीं का वहीं रहा और खामखाह कानून की निगाहों में मुजरिम बनता जा रहा हूं।"
"वक्त का फेर है।" शुक्रा बोला--- "खामखाह ही उस दिन तू बैंक में न जाता, न ही गोली लगती, न ही मुसीबतों में फंसता । वधावन ऑपरेशन कर देगा। यह सोच पहले जितनी आसान लग रही थी। अब उतनी ही असम्भव लग रही है। क्योंकि उसकी बेटी अब हमारे पास नहीं।"
बेदी एकाएक थका-सा नजर आने लगा।
"अभी भी मान जा विजय।"
"क्या?" बेदी ने शुक्रा को देखा।
"शांता से शादी कर ले।"
बेदी कई पलों तक शुक्रा को देखता रहा।
"इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं।" शुक्रा का स्वर गम्भीर था--- "इस वक्त तेरे पास बारह लाख भी हो तो भी डॉक्टर वधावन तेरा ऑपरेशन नहीं करेगा। क्योंकि उसकी बेटी का अपहरण हमने किया और वो उस तक वापस नहीं पहुंची।"
बेदी दांतों से अपना होंठ काटने लगा।
"शांता से शादी करेगा तो वधावन की लड़की भी वापस ठीक-ठाक अपने घर पहुंच जायेगी। वधावन शांता बहन के कहने पर तेरा ऑपरेशन भी कर देगा। तेरे सिर से सारे इल्जाम भी हट जायेंगे। पैसे की भी तेरे को कमी नहीं होगी। शांता जैसे लोग कभी किसी से प्यार नहीं करते। करते हैं तो फिर पीछे नहीं हटते। वो तेरे को बहुत प्यार देगी। तेरे इन्कार की वजह मेरे को समझ नहीं आती, मान जा।"
“दिल हां नहीं करता।" बेदी ने धीमें स्वर में कहा।
“दिल से नहीं, दिमाग से काम ले।"
"दिमाग भी नहीं मानता ।"
शुक्रा ने गहरी सांस लेकर मुंह फेर लिया।
उनके बीच कई पलों तक चुप्पी रही।
"विजय।" उदयवीर ने सोच भरे स्वर में कहा--- "तू डॉक्टर वधावन का पीछा छोड़ दे ।"
"क्या मतलब?"
"यह ऑपरेशन दूसरे डॉक्टर भी कर सकते हैं। हम कोई बढ़िया डॉक्टर तलाश करके...।"
"नहीं।" बेदी बात काटकर दृढ़ स्वर में कह उठा--- "मैं वधावन से ही ऑपरेशन कराऊंगा।"
“क्यों?” उदयवीर का स्वर उखड़ गया--- “क्या दूसरे डॉक्टर, डॉक्टर नहीं। हिन्दुस्तान में एक डॉक्टर वधावन ही रह गया है जो तेरे दिमाग का ऑपरेशन करके गोली निकाल सकता है। दिमाग के दसियों ऑपरेशन रोज होते हैं। वो लोग क्या मर जाते । सब ठीक रहते हैं। जिसका वक्त आया हो उसकी बात अलग है। वह तो वधावन के ऑपरेशन के दौरान भी मरेगा।"
"मैं वधावन से ही ऑपरेशन कराऊंगा।" बेदी अपनी बात पर अड़ा रहा--- "उस पर मुझे विश्वास है।"
"वहम में फंस चुका है तू ।" उदयवीर दांत भींचकर बोला।
"वहम ही सही। मैं वधावन से ही ऑपरेशन कराऊंगा ।"
"उसके लिए तेरे को शांता से शादी करनी होगी।" शुक्रा ने उसे देखा ।
बेदी की निगाह भी शुक्रा पर गई।
"इसके बिना भी शायद काम चल सकता है।"
"कैसे?"
“शांता ने बताया था कि उसका परिवार टूट गया है। उसने सारा काम छोड़ दिया है। ऐसे में अब उसके पास वो ताकत नहीं रही होगी, जो पहले होती थी। न के बराबर लोग अब उसके साथ होंगे कोशिश करके मालूम किया जा सकता है कि उसने आस्था को कहां रखा है। फिर... ।"
"विजय ।" शुक्रा ने दृढ़ स्वर में कहा--- “वो अकेली भी हो, तब भी हम उसका मुकाबला नहीं कर सकते।"
“मुकाबला करने को कौन कह रहा है। उसके बिना भी हम उसके हाथों से आस्था को निकाल सकते... ।"
"उदय!" शुक्रा ने गुस्से से उसे देखा--- “विजय का दिमाग खराब हो गया है जो शांता के मुकाबले में आने की सोच...।"
"शांता पर, उसके पास आने-जाने वालों पर नजर रखकर आस्था तक पहुंचा जा सकता है।" बेदी ने समझाने वाले ढंग से कहा— “इसमें लड़ाई-झगड़ा कहां आ गया। जैसे शांता के आदमी खामोशी से आस्था को हमारे पास से ले गये हैं उसी तरह कोशिश करके हम भी आस्था को शांता की कैद से ला सकते हैं।"
"तू शांता के साथ शादी क्यों नहीं कर लेता, क्या बुरा है?" शुक्रा गुस्से से चीख उठा।
बेदी ने शुक्रा को देखा।
“शुक्रा !” उदयवीर बोला--- “गुस्सा क्यों करता है। विजय का कहना भी गलत नहीं, कोशिश तो की जा सकती है।"
“शुक्रा।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा--- “मैं जानता हूं तू मेरी वजह से परेशान हो रहा है। तेरी जगह मैं भी होता तो मुझे भी गुस्सा ही आता। शांता जैसी खतरनाक लड़की से मैं शादी नहीं कर सकता। उससे शादी करना मुझे अच्छा नहीं लगता। तू आराम कर। मैं वधावन की बेटी को तलाश करूंगा कि उसे कहां कैद कर रखा है।"
"मैं आराम करने को नहीं कह रहा।" शुक्रा ने खा जाने वाली निगाहों ने उसे देखा--- "तेरा साथ देकर मुझे कोई परेशानी नहीं हो रही। मुझे तेरी चिन्ता हो रही है। मैं तेरे भले के लिये कह रहा हूं कि...।"
"तेरी बात ठीक है।” बेदी संयत था--- "लेकिन तेरे से ज्यादा अच्छी तरह मैं जानता हूं कि मेरा भला कहां है। कम-से-कम शांता जैसी लड़की के साथ शादी करने में मेरा भला नहीं है। तू उसे नहीं जानता, वो हर बात पर हुक्म देती है। प्यार करना हो तो हुक्म । शादी करनी हो तो हुक्म। मानता हूं वो खूबसूरत है। लड़की है। लेकिन किसी की बीवी बनने के गुण उसमें नहीं हैं। उसकी दुनिया से बहुत दूर, मेरी दुनिया है। जिस तरह मैं उसकी दुनिया में खुद को दाखिल नहीं करा सकता। उसी तरह वो भी मजबूर है कि मेरी दुनिया में दाखिल होकर खुद को एडजैस्ट नहीं कर सकती ।"
शुक्रा गहरी सांस लेकर सिर हिलाकर रह गया।
"विजय ठीक कहता है शुक्रा, शांता बहन भला हम लोगों की दुनिया में कैसे एडजेस्ट हो सकती है।"
"हां, यह बात तो मानता हूं।" शुक्रा ने कहा और बेदी को देखा--- "चल उठ ।"
"कहां ?"
"देखते हैं, मालूम करने की कोशिश करते हैं कि शांता बहन ने डॉक्टर की बेटी को कहां रखा है? शायद बाजी हमारे हाथ ही रहे।"
बेदी मुस्करा उठा।
■■■
"ले ।” शांता ने टेबल पर सौ-सौ की दस गड्डियां रखीं--- “तूने अच्छा काम किया है। ये तेरे इनाम की पहली किश्त है। उठा ले। छोकरी का ध्यान रखना। उड़ न जाये। ये खर्चा पानी है। बाद में तेरे को और मिलेगा ।"
"इसकी क्या जरूरत थी शांता बहन ।" छोटे लाल कह उठा।
"बोत जरूरत थी, उठा ले।"
छोटे लाल ने टेबल पर से गड्डियां समेट कर इकट्ठी की।
"छोकरी ठीक से है ना?"
"हां, तंग करती जाने के वास्ते। उसके हाथ-पांव बांधने पड़ते हैं। चाय में नींद की गोली देनी पड़ती है।"
"इतना तो तंग करेगी, संभाल कर रखना उसे।" कहने के साथ ही शांता ने पास पड़ा पैग उठाया और एक साथ दो घूंट भरे। आज शांता ने पहली बार दिन में बोतल पकड़ी थी।
"कब तक रखना पड़ेगा उसे?"
"ज्यादा देर नहीं। दो-चार दिन में निपटारा हो जायेगा।" शांता ने शांत स्वर में कहा--- “अब तू मेरे पास मत आना। फोन पर ही बात कर लेना, ये ज्यादा ठीक रहेगा।"
"ठीक है शांता बहन।"
"जा अब तू ।" कहने के साथ ही शांता ने गिलास खाली कर दिया।
छोटे लाल ने पैंट के भीतर ठूंस रखी कमीज बाहर निकाली और गड्डियों को कमर के साथ पैंट में फंसा लिया। ऊपर कमीज होने के कारण गड्डियां नजर नहीं आ रही थीं।
“फिर बोला मैंने, सुन ले । छोकरी तेरे पास है। किसी को हवा न लगे।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा, शांता बहन ।"
"छोकरी दिखने में, कैसी है?"
"अच्छी है।"
“तभी विष्णु छोकरी पर मर मिटा था।" शांता बड़बड़ा उठी।
"चलता हूँ शांता बहन ।"
"जा।"
छोटे लाल के जाने के बाद, शांता ने ग्रिल को बंद करके भीतर से लॉक लगा लिया।
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"इंस्पेक्टर।" वधावन ने कठोर स्वर में कहा--- "तुम पर विश्वास करके मैंने अपनी बेटी पर जुल्म...।"
"ऐसा मत कहिये डॉक्टर साहब।" जय नारायण ने गम्भीर स्वर में कहा--- “पुलिस वाले भी इन्सान होते हैं। कभी किसी काम में देरी हो जाती है। अब आपकी बेटी जल्दी आपको मिल जायेगी।" वह पुलिस की वर्दी में न होकर, सादे कपड़ों में था।
“जल्दी मिल जायेगी।" वधावन ने उसे घूरा--- “पहले वह एक शरीफ इन्सान की कैद में थी। तब तुम उसे न तलाश कर पाये। अब तुम ही कहते हो कि शांता बहन खतरनाक गैंगस्टर है। उसके कब्जे से मेरी बेटी को ले आओगे ?"
"विजय बेदी के ठिकाने का कुछ पता नहीं चल रहा था। जबकि शांता तो सामने है। इसलिये इस बात की आशा है कि आपकी बेटी जल्दी...।"
"इंस्पेक्टर ।" वधावन ने सख्त स्वर में कहा--- “तुम पर अब मुझे विश्वास नहीं रहा।"
जय नारायण के दांत भिंच गये।
"मैं अब सोच रहा हूं कि बेटी को वापस पाने के लिये उसे रकम दे दूं।"
"नहीं, ऐसा मत करना डॉक्टर ।"
"क्यों ?"
"मैं आपकी बेटी वापस... ।"
"इंस्पेक्टर, आज पांच-छः दिन हो गये। मेरी बेटी मेरे पास नहीं है। तुम्हारी बेटी को कोई उठा ले जाता और पांच-छः दिन बीत जाते तो क्या तुम चैन की नींद ले पाते।" वधावन ने शब्दों को चबाकर कहा--- "पहले तो कुछ हद तक मैं निश्चिंत था कि मेरी बेटी विजय बेदी के पास है। जो मेरे से ऑपरेशन करवाना चाहता है। जाहिर है वह उसे नुकसान नहीं पहुंचायेगा। लेकिन अब तो गैंगस्टर के कब्जे में है। उसके साथ कुछ भी बुरा हो सकता है ।"
"आपका कहना ठीक है।" जय नारायण को लग रहा था कि आस्था को वापस पाने में वास्तव में देरी हो रही है--- "फिर भी मैं कहूंगा कि रकम अदा करने में जल्दबाजी मत कीजियेगा । एक-दो दिन...।"
"तुम्हें जो करना है इंस्पेक्टर वो तुम करो।" वधावन ने बात खत्म करने वाले ढंग में कहा— “और मैंने जो करना है, वो मैं करूंगा।"
जय नारायण ने वधावन को देखा। फिर होंठ भींचे सिर हिलाता उठ खड़ा हुआ।
■■■
दोपहर को बेदी और शुक्रा, शांता बहन के घर के बाहर पहुंच गये। जो शहर की बहुत बड़ी थोक मार्किट के ऊपर था। जहां सुबह आठ बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक चहल-पहल रहती थी। नीचे बड़ी-बड़ी थोक की दुकानें थीं, जहां से लगभग सारे शहर को किरयाने का माल सप्लाई होता था।
बेदी और शुक्रा एक बंद दुकान के आगे मौजूद फट्टे पर बैठ गये।
"वो सामने देखता है। जरा सा बाईं तरफ, छोटी-सी सीढ़ियां ऊपर जा रही हैं।" शुक्रा बोला।
"किधर-उधर... ।”
“वो जहां बनवारी लाल-लक्ष्मण दास लिखा है। उस दुकान की गद्दी के पास से ही सीढ़ियां ऊपर को....।"
"हां, जहां नीली सफेदी हुई पड़ी है।"
"हां, वही।" शुक्रा ने कहा--- "वो सीढ़ियां चढ़कर पहली मंजिल पर पहुंचो तो वहां शांता रहती है।"
"यहां रहती है वो, ऐसी जगह पर?"
“हां, बहुत बड़े-बड़े मकान हैं। सुना है वो यहीं पैदा हुई थी, इस वक्त भी ऊपर ही होगी।"
"बेदी की निगाह ऊपर पहली मंजिल पर गई। जहां बंद खिड़कियों के अलावा कुछ नजर नहीं आया।
"पहली मंजिल के ऊपर और मंजिलें भी हैं। वहां दो-तीन परिवार रहते हैं। लोग ऊपर भी जाते हैं और नीचे भी आते हैं। देखना और पहचानना तो यह है कि कौन शांता बहन के पास गया होगा। उसका पीछा करके फिर यह देखेंगे कि डॉक्टर की लड़की उसके पास तो नहीं। अंधेरे में तीर चलाने वाली बात है। चल गया तो ठीक।" कहकर शुक्रा ने गहरी सांस ली।
“शांता बाहर गई तो उसके पीछे जाकर भी देखना पड़ेगा कि वह कहां जाती है?" बेदी ने कहा।
"हां।"
"शुक्रा, यह नहीं हो सकता कि आस्था को शांता ने अपने पास ऊपर ही रखा हो?" एकाएक बेदी बोला।
"अगर शांता बेवकूफ है तो वो ऐसा ही करेगी। लेकिन वह बेवकूफ नहीं। किसी का अपहरण करके शांता जैसी हस्ती उसे पास नहीं रखेगी। उसके पास पचासों ठिकाने होंगे।" शुक्रा ने विश्वास भरे स्वर में कहा।
बेदी सिर हिलाकर रह गया।
दोनों शांता के घर की सीढ़ियों की निगरानी करने लगे कि कौन ऊपर जाता है, कौन नीचे आता है ?
■■■
उस वक्त लंच के आस-पास का वक्त होगा, जब जय नारायण सादे कपड़ों में उस बाजार में पहुंचा। शांता के घर से जरा-सा हटकर उसने ऐसी दुकान का चुनाव किया जहां से शांता का घर स्पष्ट नजर आता था। चूंकि यह इलाका उसके थाने में नहीं आता था, इसलिये उसके पहचाने जाने का चांस न के बराबर था।
जय नारायण ने दुकानदार को अपना कार्ड दिखाया और सिर्फ इतना कहा कि वह किसी वजह से दिन भर दुकान पर रहना चाहता है। दुकानदार ने कोई एतराज नहीं किया। जय नारायण के कहने पर, दुकानदार ने, दुकान के बाहर छाया में कुर्सी रख दी। जय नारायण वहीं बैठ गया। निगाहें ढकी-छिपी शांता के मकान पर थीं। भीड़ भरा इलाका होने की वजह से लोगों का आना-जाना वहां इतना था कि कोई उसके निगाह रखने पर शक नहीं कर सकता था।
न तो वह जानता था कि चार दुकानें छोड़कर बंद दुकान के बाहर फट्टे पर विजय बेदी और शुक्रा बैठे हैं। न ही बेदी-शुक्रा जानते थे कि चार दुकानें छोड़कर यहां सब-इंस्पेक्टर जय नारायण मौजूद था।
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दोपहर तक शांता आधी बोतल खत्म कर चुकी थी। लंच में खाने में घर में न तो कुछ था और ना ही उसने कुछ बनाया था। किचन में दो दिन पुरानी ब्रेड पड़ी थी। उस पर ही मक्खन लगाकर काम चला लिया था।
तब तीन बजे थे। जब कालबैल बजी।
शांता ने हाथ में थाम रखे गिलास से घूंट भरा और उठकर नशे से भरी चाल से ग्रिल की तरफ बढ़ी। बाहर मीना थी। शांता ने ताला खोल दिया और वापस पलट आई। सोफे पर बैठी गिलास उठाकर घूंट भरा, मीना को देखा।
सजी-संवरी मीना दुल्हन के रूप में बहुत अच्छी लग रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे दो दिन में ही उसकी खूबसूरती को चार चांद लग गये हों। कलाइयों में चूड़ा, मांग में सिन्दूर।
“अब तो तू पूरी औरत लग रही है।" शांता ने शांत स्वर में कहा।
मीना की गहरी निगाह शांता पर थी। रात की खाली बोतल भी वहीं लुढ़की पड़ी थी। दूसरी खुली आधी बोतल पास ही थी। हाथ में गिलास । शांता का चेहरा बता रहा था कि जैसे वह सुबह से पी रही हो।
"शांता ।” मीना की निगाह, उसके चेहरे पर जा टिकी--- "मुझे लगता है, तेरे पास पीने के अलावा और कोई काम नहीं।"
“हां।” शांता ने घूंट भरा— “अब तो पूरी तरह फुर्सत में हूं। छुट्टी मिल चुकी है मुझे। बैठ जा।"
"ऐसे पी कर अपने को बरबाद मत कर। तुम... ।”
"मेरे को समझायेगी तू । हैं, मेरे को ठीक-गलत बतायेगी ।" शांता ने उसे देखा--- "तूने अपना रास्ता ढूंढ लिया है। मैं कुछ बोली, मुझे भी अपनी जिन्दगी तय करने दे । आई है तो बैठ, सलाह मत बोल ।"
मीना ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला कि फोन की बैल बजी। शांता ने फोन उठाया।
"हां ।"
"शांता बहन।" खान की आवाज आई--- “तुमने तो बोला था कि तुमने अपना धंधा छोड़ दिया है।"
"काम की बात बोल, सवाल या पूछताछ मत कर।"
"मुझे मालूम हुआ है कि तुमने किसी का अपहरण किया है। तगड़ी फिरौती लेने की फिराक में हो।"
"तेरे में इतनी हिम्मत आ गई कि तू मेरी जन्मपत्री खोले।" शांता की आवाज में कठोरता आ गई।
"शांता बहन ।" खान की आवाज में मुस्कान थी--- "गुस्सा नहीं करते। सारे हालात तुम्हारे सामने हैं। तुम्हारा परिवार टूट गया है। दामोदर, केदारनाथ, तेरी मां, विष्णु, मीना कोई भी तेरे पास नहीं। ऐसे में बाहर वाले भी तेरा साथ कम ही देंगे। तुम...।"
"अभी मुझमें इतनी ताकत है कि तेरे जैसे दस खान को साफ कर सकूं।” शांता ने दांत भींचकर कहा--- "अकेला मत समझ मुझे, तेरे में इतनी ताकत नहीं है, जितनी कि अभी भी मेरे में है ।"
"गलतफहमी में हो।"
"अपनी इस गलतफहमी को कभी भी आजमा लेना ।" शांता का स्वर खतरनाक हो उठा।
"शांता बहन। मेरी बात मान लो । अब तेरे बस का कुछ नहीं रहा। जिस लड़की को उठाया है वो मेरे को दे दे। उसकी फिरौती मैं लूंगा। बात नहीं मानी तो तेरे को भारी पड़ेगी।”
“खान।” शांता के दांत भिंच गये--- “तेरे को आराम से, प्यार से होटल मून लाइट क्या दे दिया तू मेरे सिर पर सवार होता है। सुन, वो होटल खाली कर दे। अब वो तेरा नहीं, समझ ले वो मैंने दहेज में मीना को दे दिया।"
"वो होटल अब तेरे को नहीं मिलेगा ।" खान का खतरनाक स्वर कानों में पड़ा ।
“वो होटल कानूनी तौर पर भी मेरा है और दूसरे तौर पर भी, बोल कैसे देगा?"
"हिम्मत है तो ले ले।" खान का वहशी स्वर शांता के कानों में पड़ा ।
शांता ने फौरन फोन बंद करके मीना को देखा।
“मुन्ना कहां है। उसे बुलाकर ला ।” शांता का चेहरा गुस्से में धधक रहा था।
“वो नीचे है। मैं इसलिये उसे ऊपर नहीं लाई कि...।"
"ऊपर ला उसे।"
मीना फौरन पलट कर बाहर निकल गई। तीसरे ही मिनट मुन्ना के साथ शांता के सामने थी।
“नमस्कार शांता बहन ।” मुन्ना ने हाथ जोड़कर कहा।
"खान को जानता है।"
“खान, वो वकील पुरा वाला ?"
"वो ही, उसी के इलाके में होटल मून लाइट मेरा है।" शांता दरिन्दगी भरे स्वर में कह रही थी— “वो होटल मैंने मीना को दहेज में दिया। बोत कमाई है उससे, जानता है तू?"
"हां।"
"खान उस पर कब्जा करने को कह रहा है। उसके हाथों से होटल ले सकता है।"
"कोशिश कर...।"
"कोशिश नहीं करनी । अपने आदमी इकट्ठे कर, ऐसे कामों के लिये आदमी कहां से मिलते हैं। मीना जानती है। जा खान से वो होटल वापस ले।" शांता ने दांत भींचकर कहा।
मुन्ना खामोश रहा।
"सोचता क्या है?"
"कुछ नहीं।"
"जा, खान को समझा दे, परिवार बिखरा है, शांता नहीं मरी ।" शांता गुर्रा उठी।
■■■
बेदी और शुक्रा ने मीना को पहले कभी नहीं देखा था। लेकिन मीना को देखते ही फौरन इस बात का एहसास हो जाता था कि वो शांता की बहन है।
"शांता ने बताया था। परसों इसने शादी की है।" बेदी बोला ।
“मिलने आई होगी। अपने आदमी को नीचे ही खड़ा कर गई । बाद में ऊपर ले गई।"
"परिवार में कोई बात होगी।"
आधे घंटे बाद मीना और उसका पति मुन्ना को उन्होंने जाते देखा ।
"आस्था इनके पास नहीं हो सकती।" बेदी ने कहा ।
"मेरा भी यही ख्याल है।"
दिन भर और कोई नहीं आया। शाम हुई। रात हो गई। बोरियत उनके मुंह पर स्पष्ट नजर आने लगी।
"अब क्या करें?" शुक्रा बोला ।
"यह तो बहुत दिक्कत वाला काम है। इस तरह बैठे-बैठे तो कई दिन बीत जायेंगे।" बेदी बोला।
"इसके सिवाय और कर भी क्या सकते हैं।"
"मैं सोचूंगा। कुछ तो करना ही पड़ेगा। तुम उदय को फोन करो। आने को कहो उसे। अभी शायद वो गैराज पर ही हो।"
"उससे क्या काम है?" शुक्रा ने पूछा।
"रात को वो शांता के घर पर नजर रखेगा। सुबह हम आ जायेंगे।" बेदी ने कहा--- "इस वक्त हमें आराम की जरूरत है, हम गैराज पर जाकर आराम कर सकते हैं।”
शुक्रा फोन करने चला गया।
दुकाने बंद होनी शुरू हो गई। कुछ ही देर में बाजार बंद हो जाना था।
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सब-इंस्पेक्टर जय नारायण को लगा जैसे सारा दिन बेकार गया। शांता के यहां ऐसी कोई हलचल नहीं हुई थी कि जो फायदेमंद लगे। शांता के सारे परिवार को उसने देख रखा था। इसलिये मीना को पहचानने में कोई अड़चन नहीं आई। मीना को दुल्हन के रूप में देखकर वह चौंका अवश्य था। उसके पति के रूप में मुन्ना को भी पहचाना।
जय नारायण ने महसूस किया कि शांता के परिवार में कुछ बदलाव आया हुआ है। यह जानना जरूरी है कि बदलाव कैसा है? रात होने पर, उसने फोन करके सादे कपड़ों में, दो सिपाहियों को बुलाया और सब कुछ समझा कर उन्हें रात भर के लिये वहाँ निगरानी के लिये लगाकर, सुबह आने को कह कर वहां से चला गया। वह शांता के परिवार के बारे में ताजा जानकारी मालूम करना चाहता था कि मीना ने शादी कैसे कर ली ?
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रात को शांता ने डॉक्टर वधावन को फोन किया। दिन भर में धीरे-धीरे एक बोतल खत्म कर चुकी थी और अब दूसरी खोल ली थी। वधावन से बात हुई।
"मेरी आवाज पहचानी ?" शांता की आवाज में नशे के भाव थे ।
"हां, शांता, शांता बहन हो तुम।" वधावन का गम्भीर स्वर आया--- "आस्था कैसी है?"
"अभी तक तो ठीक है।"
"उससे मेरी बात कराओ।"
"जब तुम्हारे पास पहुंच जाये तो जी भर कर बातें करना।" शांता ने शांत स्वर में कहा--- "मेरे बारे में मालूम कर लिया होगा?"
"हां, कर लिया।"
"क्या इरादा है?"
“तुम क्या चाहती हो?"
"वो तेरी एक ही एक औलाद है। बोल उसकी वापसी की क्या कीमत लगाता है?" शांता ने कहा।
"औलाद की कीमत नहीं लगाई जा सकती।"
"समझदारी की बात करता है। कितने का आदमी है तू, कितना है नकद और जायदाद मिलाकर ।"
"पक्का कुछ नहीं कह सकता।"
"हिसाब लगाकर पक्का बता, फिर बात करूंगी।"
"यह सब जानकर तुम क्या करोगी? मेरी बेटी को वापस करने के बदले, तुम जो कीमत चाहती हो वह बताओ। ज्यादा हुई तो कम करा लूंगा। मुझे अपनी बेटी चाहिये और तुम्हें दौलत ।"
"शांता सौदेबाजी नहीं करती। कम-ज्यादा करने की, जो बोला, वही लूंगी नहीं तो तेरी बेटी की लाश तुझे अवश्य दूंगी।"
"आखिर तुम चाहती क्या हो? कुछ तो पता चले।" वधावन का व्याकुल स्वर शांता के कानों में पड़ा।
"हिसाब लगा, कैश और जायदाद मिलाकर कितना है तेरे पास। जितना है बिना हेरा-फेरी के आधा मुझे दे दे और...।"
"आधा?" डॉक्टर वधावन का तेज स्वर शांता के कानों में पड़ा।
शांता के नशे से भरे चेहरे पर कठोरता के भाव उभरे।
"तुम्हारी बेटी की लाश भिजवाऊं क्या?"
"नहीं, नहीं ऐसा मत करना।" वधावन का तड़प से भरा स्वर कानों में पड़ा।
"तो फिर हिसाब लगा कितना है और आधा मेरे हवाले कर । अपनी बेटी को वापस ले।" शांता ने सख्त स्वर में कहा--- "कल तक तो हिसाब लगा ही लेगा कि कुल मिलाकर कितना है तेरे पास?"
"हां।" वधावन की कानों में पड़ने वाली आवाज में फीकापन आ गया था।
"हिसाब में हेराफेरी मत करना, वरना बेटी के साथ-साथ तू भी जायेगा।" कहने के साथ ही शांता ने फोन बंद कर दिया।
■■■
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण ने अगले दो घंटों में ही शांता के परिवार के बारे में मालूम कर लिया कि पूरा परिवार बिखर चुका है। अकेली शांता ही रह गई है। यह सुनकर जय नारायण को अजीब सा लगा। दिन भर का थका-हारा रात को ग्यारह बजे थाने पहुंचा और सिपाही को सामने वाले होटल से खाना लाने को कहा।
इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव बाहर जाने की तैयारी कर रहा था। जय नारायण उसके पास पहुंचा।
"आओ।" महेन्द्र यादव ने उसे देखते ही कहा--- "तुम्हारे लिये डॉक्टर वधावन का मैसेज है।"
"क्या?"
"शांता बहन ने फोन करके, उसकी बेटी को छोड़ने के बदले उससे आधी जायदाद मांगी है।" महेन्द्र यादव गम्भीर था।
"क्या?" जय नारायण चौंका--- "आधी जायदाद?"
"हां, एक्सचेंज से भी फोन आया था। तुम्हारे लिये मैसेज है। कि इस फोन काल को टेप कर लिया गया है।"
जय नारायण कुछ नहीं बोला।
"यह मामला अब आगे बढ़ गया है। शायद ये सब तुम्हारे बस का नहीं रहा।" महेन्द्र यादव पुनः बोला--- “इस मामले को अब मैं संभाल लूं, तुम्हें एतराज नहीं होना चाहिये।"
जय नारायण ने सीधी निगाहों से महेन्द्र यादव को देखा।
"सर, शांता की ताकत लगभग खत्म हो गई है।" जय नारायण ने गम्भीर स्वर में कहा।
"कैसे?"
"उसका परिवार बिखर गया है। उसकी मां सत्या और केदारनाथ साथ में विष्णु इस शहर को छोड़कर चले गये हैं। दामोदर ने ब्याह कर रखा था। कुछ दिन पहले वो बाप बना है। सबको छोड़कर वह अपनी पत्नी के पास चला गया है और मीना ने मुन्ना के साथ शादी कर ली है। यानी की शांता बिलकुल अकेली है। उसके पास कोई नहीं, जो कर रही है, अकेले ही कर रही है।"
"नई खबर है, कब हुआ यह सब ?"
"हाल ही में, सप्ताह भी पूरा नहीं हुआ।"
"हूं।"
"ऐसे में शांता को घेरा जाये तो ज्यादा दिक्कत नहीं आयेगी।" जय नारायण ने कहा ।
“शांता, अकेली होने पर भी दम-खम रखती है। सीधे-सीधे उस पर हाथ डालना आसान नहीं होगा !" महेन्द्र यादव ने गम्भीर स्वर में कहा--- "ऐसे लोगों से मेरा कई बार वास्ता पड़ा है। कमजोर होते हुए भी यह लोग बहुत ताकत रखते हैं।"
"मैं समझा नहीं सर ।"
“नारायण ।" महेन्द्र यादव ने सोच भरे स्वर में कहा--- “हमारे सामने एक ही अड़चन है। डॉक्टर की बेटी, जो कि शांता के कब्जे में है। वो मिल जाये तो शांता पर हाथ डाला जा सकता है।"
“सर शांता को पकड़कर...।"
"बच्चों जैसी बातें मत करो।" इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव ने मुंह बनाया--- “शांता ने डॉक्टर की बेटी को जाने कहां रखा हुआ है। इधर हमने शांता पर हाथ डाला, उधर उसके आदमी डॉक्टर की बेटी को खत्म भी कर सकते हैं। ऐसा हो गया तो ऊपर वालों को कौन जवाब देगा कि सब कुछ जानते हुए भी हमने गलत कदम क्यों उठाया, हमें सस्पेंड भी किया जा सकता है। इसलिये जल्दबाजी में उठाया गया कोई भी कदम, सारा मामला खराब कर सकता है।
"सर, अगर उस इलाके के थाने से बात की जाये तो।"
"ऐसी गलती मत कर बैठना। थाने में ऐसे कई पुलिस वाले होंगे जिनकी शांता से बातचीत होगी। यह बात तुरन्त शांता तक पहुंच जायेगी कि हम लोग उसकी गर्दन नापने के फेर में हैं। वह सतर्क हो जायेगी।" महेन्द्र यादव ने गम्भीर स्वर में कहा।
जय नारायण सिर हिलाकर रह गया।
"मैं देखता हूँ इस मामले में क्या किया जा सकता...।"
"सर।" जय नारायण कह उठा--- "मुझे दो दिन का वक्त और दीजिये।"
"क्यों?"
"मैं डॉक्टर की बेटी को ढूंढ़ निकालूंगा। मालूम कर लूंगा कि शांता ने उसे कहां रखा।"
"नारायण, तुम्हें इस बात का एहसास है कि यही दो दिन बहुत कीमती हैं। शांता, डॉक्टर से फिरौती मांग रही...।"
"मैं जानता हूं सर। सब कुछ जानता हूं। इन दो दिनों में मैं सब कुछ ठीक कर लूंगा। मेरा विश्वास कीजिये।"
“ठीक है, यह दो दिन तुम्हारे लिये आखिरी मौका है। उसके बाद सारा मामला मैं अपने हाथ में ले लूंगा।"
"राइट सर।"
■■■
सुबह आठ बजे बेदी और शुक्रा वहीं पहुंच गये, जहां रात भर से उदयवीर मौजूद था।
"रात को कोई आया-गया ?" बेदी ने पूछा।
"नहीं।"
"शांता भी बाहर नहीं निकली ?"
"नहीं।"
"ठीक है तू जा।" बेदी ने सोच भरे स्वर में कहा--- "आराम कर, जरूरत पड़ी तो गैराज पर फोन कर देंगे।"
उदयवीर चला गया।
बेदी और शुक्रा उसी बंद दुकान के बाहर फट्टे पर बैठ गये ।
बाजार की सब दुकानें अभी बंद थीं।
“शुक्रा, कल की तरह आज भी इसी तरह बैठे रहे तो आज का दिन भी गया।" बेदी ने कहा।
"हां, हो सकता है, कल का दिन भी ऐसे ही निकले।" शुक्रा ने गहरी सांस लेकर कहा।
“शांता इस बारे में सावधानी बरत रही है कि कोई आस्था तक न पहुंच सके।"
"वो कैसे?"
"न तो कोई उसके पास आता है। न ही वह कहीं जा रही है ।"
शुक्रा ने कुछ नहीं कहा।
"कहीं हम गलतफहमी में तो नहीं हैं।"
"कैसी गलतफहमी ?"
"आस्था, शांता के पास हो ही नहीं। हम भी गलत राह पर हों।" बेदी ने सोच भरे स्वर में कहा।
"अगले एक-दो दिन भी ऐसे ही बीते तो फिर ऐसा ही हो सकता है।" शुक्रा ने कहा।
"मतलब कि दो दिन अभी और खराब करने पड़ेंगे।" होंठ सिकोड़े बेदी बोला ।
"हां।"
"आस्था को ढूंढना बहुत जरूरी है। अगर उसे कुछ हो गया तो सारा इल्जाम मेरे सिर पर आयेगा। क्योंकि वधावन जानता। है कि उसे मैंने उठा रखा है।" बेदी के पूरे शरीर में बेचैनी दौड़ गई।
शुक्रा ने सोच भरे ढंग में सिर हिलाया।
एकाएक बेदी ने शुक्रा को देखा।
"मैं शांता से मिलकर आऊं ?"
"क्यों?" शुक्रा की आंखें सिकुड़ीं ।
"कम-से-कम यह तो पता लगे कि आस्था उसके पास है या नहीं?" बेदी ने कहा ।
"ऐसी गलती मत करना।" शुक्रा ने तेज स्वर में कहा।
“क्यों ?"
"आस्था अगर शांता के कब्जे में हुई तो वो सावधान हो जायेगी कि तुम आस्था को पाने की फिराक में हो, जबकि हम खामोशी से डॉक्टर की बेटी का पता लगाकर, उसे शांता के हाथों से निकाल ले जाना चाहते हैं। तब आस्था हमारे हाथ नहीं आयेगी।"
जवाब में बेदी ने होंठ भींच लिये।
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण करीब नौ बजे सादे कपड़ों में वहां पहुंचा। रात भर से मौजूद दोनों पुलिस वाले वहां थे। उनसे मालूम हुआ कि शांता के यहां रात को कोई हलचल नहीं हुई।
"तुम दोनों जाओ, हवलदार रामसिंह को सादे कपड़ों में यहां भेज देना।" जय नारायण ने कहा।
"जी साब।" वो दोनों पुलिस वाले वहां से चले गये ।
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फोन की लगातार बजने वाली बैल से शांता की आंख खुली। पास ही पड़ा फोन बज रहा था। रात भी पीते-पीते सोफे पर जाने कब नींद में डूब गई, पता ही नहीं चला। आंखें बंद ही रहीं, हाथ बढ़ाकर फोन उठाया।
"हैलो।"
“शांता बहन, मुन्ना बोल रहा हूं।"
"बोल।"
"मून लाइट होटल पर मैंने पूरी तरह कब्जा कर लिया है। पांच मरे, उनकी लाशें ठिकाने लगा दी हैं।"
"ठीक किया।" बंद आंखें ही रहीं शांता की— “खान समझ गया होगा कि शांता अभी जिन्दा है।"
"लेकिन खान यह बात समझने के लिये जिन्दा नहीं रहा।"
शांता की नशे से भरी आंखें फौरन खुल गई।
“खान भी मर गया?"
"हां, रात वो वहीं था, जब वहां हल्ला बोला। सामने पड़ा तो मैंने लगे हाथ उसे भी खत्म कर दिया।"
"उसकी लाश ?" शांता उठकर बैठ गई।
"वो रातों-रात ही उसके बंगले के भीतर फेंक दी। गोलियों का शोर सुनकर पुलिस आई। लेकिन मैंने सब ठीक कर दिया।"
"समझदार है तू, अपने को संभालना आता है तेरे को, मालूम है वो होटल तेरे को दहेज में दिया है।"
"तुमने कल कहा था।”
"आज भी कह रही हूं। संभाल ले होटल को।" कहने के साथ ही शांता ने फोन बंद किया। चेहरे पर सोच के भाव थे। आस-पास देखा। आधी भरी खुली बोतल पड़ी थी। खाली गिलास लुढ़का पड़ा था। नमकीन प्लेट से छटक कर जाने कैसे नीचे जा गिरा था। शांता ने गहरी सांस ली और उठ खड़ी हुई।
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तब दिन के बारह बज रहे थे। बाजार में पूरी चहल-पहल थी।
“शुक्रा।" एकाएक बेदी कह उठा--- "मैं शांता से मिलकर आता हूं।"
"नहीं।" शुक्रा के होंठों से निकला।
"इस तरह तो जाने कितने दिनों का इन्तजार करना पड़ेगा। हो सकता है हमें मालूम ही न हो सके कि शांता ने आस्था को कहां रखा है। या फिर शांता के पास आस्था हो ही नहीं। बीतता एक-एक दिन मुझे मौत के पास ले जा रहा है।"
“तू क्या समझता है, अगर आस्था, शांता के पास हुई तो वो आस्था को तेरे हवाले कर देगी।"
"यह बाद की बात है। पहले असल तस्वीर तो सामने हो कि...।"
"मेरी मान, मत जा, यह ठीक नहीं।"
"मैं जाऊंगा।" बेदी दृढ़ स्वर में कह उठा--- "यहां खड़े हम यूं ही अंधेरे में हाथ-पांव मार रहे हैं।"
"विजय ।" शुक्रा ने कहना चाहा।
लेकिन तब तक बेदी तेजी से आगे बढ़ता सड़क पार करने लगा था। सड़क के बीच आते-जाते लोगों और ठेले वालों से बचते हुए उसने सड़क पार की और ऊपर जाने वाली सीढ़ियों के पास पहुंचकर पल भर के लिये ठिठका। बेचैनी-सी महसूस हुई। पलटकर सड़क पार शुक्रा को देखा। भीड़ में से हल्का-सा शुका का चेहरा नजर आया। जिसके चेहरे पर ढेर सारा इन्कार था। हाथ उठाकर भी उसने बेदी को रोकने के लिये कहना चाहा। तभी बेदी ने शुक्रा पर से निगाहें हटाई और तेजी से सीढ़ियां तय करते हुए ऊपर चढ़ने लगा।
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण के चेहरे पर कई तरह के भाव आकर गुजर गये। वो पहचानने में गलती नहीं कर सकता था। उसे पक्का विश्वास था, जिसे उसने सीढ़ियां चढ़ते देखा था, वो विजय बेदी ही था। दो पलों के लिये हक्का-बक्का रह गया था कि विजय बेदी और शांता के यहां, यहां क्यों आया? विजय बेदी का शांता के साथ क्या रिश्ता है?
शांता के पास क्या करने आया? डॉक्टर की बेटी विजय बेदी के पास थी। वो शांता के पास कैसे पहुंच गई। आस्था का शांता के पास पहुंचना, कहीं इसमें विजय बेदी की मिली-भगत तो नहीं?
जय नारायण कल वाली दुकान पर ही, कुर्सी पर बैठा था। वह तुरन्त उठा और दुकान से बाहर निकलकर हटकर मौजूद हवलदार रामसिंह के पास पहुंचा। जो सादे कपड़ों में था और जय नारायण ने निगरानी का काम उसे समझा दिया था। निगरानी के इस काम में कल उसे महसूस हो गया था कि साथी की जरूरत भी हैं।
"रामसिंह ।" जय नारायण उसके पास पहुंचा।
"साहब जी ।"
"उसे देखा, जो अभी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर गया है।"
"देखा साहब जी।"
"खास नजर रखना, जब वो नीचे उतरे। वैसे मेरी नजर भी उधर है। यहां भीड़ बहुत है। वापसी पर कहीं वह मेरी नजरों से बच न जाये। उसे पकड़ना है।" जय नारायण का स्वर गम्भीर था।
"सब समझ गया साहब जी।" हवलदार रामसिंह ने कहा।
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण उसके पास से हट गया।
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जैसे-तैसे बेदी सीढ़ियां तय करके ऊपर पहुंचा। अब उस पर घबराहट सी हावी होती जा रही थी। शुक्रा ने बताया था कि पहली मंजिल पर शांता का घर है। उससे ऊपर कोई और रहता है। ऊपर जाने के लिये भी सीढ़ियां नजर आ रही थीं और दूसरी लोहे की ग्रिल नजर आई जहां भीतरी तरफ से जंजीर लगी हुई थी। उसने ग्रिल के भीतर झांका, छोटी-सी साफ-सुथरी लॉबी नजर आई। लॉबी में दाईं तरफ को एक दरवाजा था और एक दरवाजा दाई तरफ ही लॉबी के कोने में था। पहला दरवाजा खुला हुआ था।
बेदी व्याकुल- सा वहीं खड़ा रहा। कई बार मन में आया कि वापस चला जाये। परन्तु वापस जाने के लिये दिमाग तैयार नहीं था। खड़े-खड़े दो मिनट यूं ही बीत गये।
तभी उसकी निगाह पास की दीवार पर लगे कालबैल के स्विच पर पड़ी।
वो कई पलों तक स्विच को देखता रहा, फिर बांह उठी। हाथ की उंगलियां मध्यम गति से कांप-सी रही थीं। हिम्मत करके उसने एक उंगली स्विच पर रखी और दबा दी।
भीतर बैल बजने की आवाज आई।
बेदी बेचैनी में डूबा ग्रिल के भीतर देखने लगा।
करीब आधे मिनट बाद खुले दरवाजे से शांता निकलकर वहां पहुंची। उसकी आंखों के पोपटे नशें में भारी हो रहे थे। ग्रिल के पार बेदी को खड़ा पाकर पल भर के लिये ठिठकी। दोनों की आंखें मिलीं। फिर शांता ने हौले से सिर हिलाया और चाबी निकालकर ग्रिल का ताला खोला। जंजीर हटाई, थोड़ी-सी ग्रिल हटाई।
"आ, भीतर आ।"
बेदी उसे देखता रहा।
"देखता क्या है, भीतर नहीं आयेगा क्या? बाहर का बाहर से ही लौट जायेगा।" शांता का स्वर शांत था।
बेदी का शरीर हिला, कदम उठा। ग्रिल के भीतर आ गया वह । अभी तक वह कशमकश की स्थिति में था।
“घबराता क्यों है?” शांता ग्रिल बंद करके ताला लगाते हुए बोली--- "ये शांता का ही नहीं, तेरा भी घर है। चल भीतर ।" कहने के साथ ही शांता पलटी और बेदी के आगे-आगे दरवाजे को पार करके ड्राइंगरूम में प्रवेश कर गई।
बेदी ने ड्राइंगरूम में नजरें दौड़ाई, फिर निगाह शांता पर जा टिकी।
"मैं तो तेरे आने का कब से इंतजार कर रही थी। बहुत देर लगाई तूने आने में।" कहने के साथ ही शांता आगे बढ़ी और पास पहुंचकर दोनों हाथों से बेदी का सिर थामा, पंजों के बल उठी और बेदी के होंठों पर होंठ रख दिए।
बेदी बुत की तरह खड़ा रहा। व्हिस्की की स्मैल उसकी सांसों से टकराई।
"पी रही हो।" उसके अलग होने पर बेदी अपने होंठ साफ करता हुआ बोला--- “वो भी दिन में।”
शांता पलटी, खुली बोतल के पास पहुंची और बेदी पर नजर मारकर बोतल बंद कर दी।
"ले बोतल बंद। आज दिन में नहीं पिऊंगी क्योंकि तू आया है। अगर तू रात को रहेगा तो रात को भी नहीं पिऊंगी। जिन्दगी भर के लिये आया है तो पूरी जिन्दगी नहीं पिऊंगी।" शांता का चेहरा सपाट था।
बेदी की निगाह उसके चेहरे पर टिकी रही।
"तू देखता ज्यादा है। बोलता कम है।” शांता ने कहा।
“घर में और कोई नहीं है?" बेदी के होंठ हिले ।
"शांता का घर है। घर में शांता अकेली रहती है।"
“मैं तुम्हारा घर देखना चाहता हूं।"
"देख ले, मेरा क्या, ये तो तेरा भी घर है। देख-देख ।” कहने के साथ ही शांता बैठ गई।
शांता पर से निगाह हटाकर बेदी घर के भीतरी हिस्सों की तरफ बढ़ गया।
आराम से बैठी शांता ने सिगरेट सुलगा ली।
तीन मिनट बाद बेदी उसके पास पहुंचा।
"देख लिया घर को, मेरे अलावा और कोई नहीं है ना यहां ?" शांता ने उसे देखा।
बेदी के चेहरे पर बेचैनी नजर आ रही थी। उसने तो घर इसलिये देखा था कि शायद, जरा-सा शायद आस्था को भीतर ही कहीं रख छोड़ा हो। लेकिन आस्था को घर में नहीं रखा था।
"बैठ।” शांता बोली ।
बेदी बैठा, व्याकुलता पर काबू पाते कह उठा।
"मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।"
"दो दिन पहले, जब तू मिला था तो तूने मुझे नाश्ता कराया था। याद है।" शांता बोली।
"हां।"
"उस दिन के बाद मैं कुछ भी नहीं खा सकी। लंच का वक्त हो रहा है। खाना खिलायेगा मुझे ?"
बेदी शांता को देखता रहा।
"बोल, खिलायेगा खाना, तेरे साथ बैठकर खाना खाते ऐसा लगता है जैसे मुझे सब कुछ मिल गया हो।"
बेदी के होंठों से इन्कार नहीं निकल सका।
"कहां है खाना?"
"घर में तो कुछ भी नहीं है। बाहर से ले आ। होटल से पैक करा कर ले आ। अपने लिये भी ले आ। मैं इतना खा लेना चाहती हूं कि आने वाले दो दिन मुझे भूख न लगे।"
"मैं तुमसे पूछने आया था कि वो...।"
“कुछ मत पूछ। बोत वक्त मिलेगा तेरे को पूछने के लिये। पहले मुझे खाना खिला । मेरे साथ खाना खा ।" शांता बोली।
"क्या खाना पसन्द करती हो खाने में?"
"अब मेरी पसन्द खत्म हो चुकी है। जो तेरी पसन्द, वो ही मेरी पसन्द । अपनी पसन्द का खाना लाना। मैं सब कुछ खा लूंगी। जो सब्जी कभी नहीं खाई, तू लाया तो वो सबसे पहले खाऊंगी।"
बेदी सिर हिलाकर उठा, शांता भी उठी।
"मैं खाना लेकर आता हूं।" कहने के साथ बेदी आगे बढ़ा तो शांता उठकर साथ हो गई।
"तेरे आने तक मैं बर्तन धोकर तैयार रखूंगी।" शांता का स्वर सपाट था।
दोनों ग्रिल तक पहुंचे। शांता ने लॉक खोलकर जंजीर हटाई, ग्रिल खोली। बेदी बाहर निकला तो शांता ने ग्रिल बंद करके जंजीर चढ़ाई और लॉक लगा दिया।
बेदी ने शांता को देखा।
“जल्दी आना।"
बेदी ने सिर हिलाया और सीढ़ियां उतरता चला गया।
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