दूसरी सुबह कैप्टन फ़ैयाज़ के लिए एक नया सिरदर्द ले कर आयी। हालात ही ऐसे थे कि सीधे-सीधे उसे ही इस मामले में उलझना पड़ा, वरना पहले तो मामला सिविल पुलिस के हाथ में जाता। बात यह है कि इस ख़ौफ़नाक इमारत से तक़रीबन एक या डेढ़ फ़रलाँग के फ़ासले पर एक नौजवान की लाश पायी गयी जिसके जिस्म पर कत्थई पतलून और चमड़े की जैकेट थी। कैप्टन फ़ैयाज़ ने इमरान की हिदायत के मुताबिक़ पिछली रात को फिर इमारत की निगरानी के लिए कॉन्स्टेबलों का एक दस्ता तैनात करा दिया था। उनकी रिपोर्ट थी कि रात को कोई इमारत के क़रीब नहीं आया और न उन्होंने आस-पास में किसी क़िस्म की कोई आवाज़ ही सुनी, लेकिन फिर इमारत से थोड़े फ़ासले पर सुबह को एक लाश पायी गयी।
जब कैप्टन फ़ैयाज़ को लाश की ख़बर मिली तो उसने सोचना शुरू किया कि इमरान ने इमारत के गिर्द हथियार सहित पहरा बिठाने का प्रस्ताव क्यों पेश किया था?
उसने वहाँ पहुँच कर लाश का मुआयना किया। किसी ने मक़तूल की दाहनी कनपटी पर गोली मारी थी। कॉन्स्टेबलों ने बताया कि उन्होंने पिछली रात फ़ायर की आवाज़ भी नहीं सुनी थी।
कैप्टन फ़ैयाज़ वहाँ से बौखलाया हुआ इमरान की तरफ़ चल दिया। उसकी तबीयत बुरी तरह झल्लायी हुई थी। वह सोच रहा था कि इमरान ने कोई ढंग की बात बताने की बजाय मीर और ग़ालिब के ऊट-पटाँग शेर सुनाने शुरू कर दिये तो क्या होगा। कभी-कभी उसकी बेतुकी बातों पर उसका दिल चाहता था कि उसे गोली मार दे, मगर फिर शोहरत का क्या होता। उसकी सारी शोहरत इमरान के दम से थी। वह उसके लिए अब तक कई पेचीदा मसले सुलझा चुका था। बहरहाल, काम इमरान करता था और अख़बारों में नाम फ़ैयाज़ का छपता था। यही वजह थी कि उसे इमरान का सब कुछ बर्दाश्त करना पड़ता था।
इमरान उसे घर ही पर मिल गया, लेकिन अजीब हालत में। वह अपने नौकर सुलेमान के सर में कंघा कर रहा था और साथ-ही-साथ किसी दूरदर्शी माँ के अन्दाज़ में उसे नसीहतें भी किये जा रहा था। जैसे ही फ़ैयाज़ कमरे में दाख़िल हुआ, इमरान ने सुलेमान की पीठ पर घूँसा जड़ कर कहा, ‘अबे, तूने बताया नहीं कि सुबह हो गयी।’
सुलेमान हँसता हुआ भाग गया।
‘इमरान, तुम आदमी कब बनोगे?’ फ़ैयाज़ एक सोफ़े में गिरता हुआ बोला।
‘आदमी बनने में मुझे कोई फ़ायदा नज़र नहीं आता...अलबत्ता मैं थानेदार बनना ज़रूर पसन्द करूँगा।’
‘तुम मेरी तरफ़ से जहन्नुम में जाना पसन्द करो, लेकिन यह बताओ कि तुमने पिछली रात उस इमारत पर पहरा क्यों लगवाया था।’
‘मुझे कुछ याद नहीं।’ इमरान मायूसी से सिर हिला कर बोला। ‘क्या वाक़ई मैंने कोई ऐसी हरकत की थी?’
‘इमरान,’ फ़ैयाज़ ने बिगड़ कर कहा, ‘अगर मैं आइन्दा तुमसे कोई मदद लूँ तो मुझ पर हज़ार बार लानत।’
‘हज़ार कम है,’ इमरान संजीदगी से बोला, ‘कुछ और बढ़ो तो मैं ग़ौर करने की कोशिश करूँगा।’
फ़ैयाज़ की बर्दाश्त करने की ताक़त जवाब दे गयी। वह गरज कर बोला-‘जानते हो, आज सुबह वहाँ से एक फ़रलाँग के फ़ासले पर एक लाश और मिली है।’
‘अरे तौबा।’ इमरान अपना मुँह पीटने लगा।
कैप्टन फ़ैयाज़ कहता रहा। ‘तुम मुझे अँधेरे में रख कर न जाने क्या करना चाहते हो। हालात अगर और बिगड़े तो मुझे ही सँभालने पड़ेंगे, लेकिन कितनी परेशानी होगी। किसी ने उसकी दाहिनी कनपटी पर गोली मारी है। मैं नहीं समझ सकता कि यह हरकत किसकी है।’
‘इमरान के अलावा और किस की हो सकती है?’ इमरान बड़बड़ाया फिर संजीदगी से पूछा, ‘पहरा था वहाँ?’
‘था...मैंने रात ही यह काम किया था!’
‘पहरे वालों की रिपोर्ट?’
‘कुछ भी नहीं। उन्होंने फ़ायर की आवाज़ भी नहीं सुनी।’
‘मैं यह नहीं पूछ रहा...क्या कल भी किसी ने इमारत में दाख़िल होने की कोशिश की थी?’
‘नहीं....लेकिन मैं उसकी लाश की बात कर रहा था।’
‘किये जाओ...मैं तुम्हें नहीं रोकता, लेकिन मेरे सवालों के जवाब भी दिये जाओ। क़ब्र के मुजाविर की क्या ख़बर है?....वह अब भी वहीं मौजूद है या ग़ायब हो गया?’
‘इमरान, ख़ुदा के लिए तंग मत करो।’
‘अच्छा तो अली इमरान एम.एस.सी., पी.एच.,डी. कोई गुफ़्तगू नहीं करना चाहता।’
‘तुम आख़िर उस ख़ब्ती के पीछे क्यों पड़ गये हो?’
‘ख़ैर जाने दो! अब मुझे उसके बारे में कुछ और बताओ।’
‘क्या बताऊँ!...बता तो चुका...सूरत से बुरा आदमी नहीं मालूम होता। ख़ूबसूरत और जवान, जिस्म पर चमड़े की जैकेट और कत्थई रंग की पतलून!’
‘क्या?’ इमरान चौंक पड़ा! और चन्द लम्हे अपने होंट सीटी बजाने वाले अन्दाज़ में सिकोड़े, फ़ैयाज़ की तरफ़ देखता रहा। फिर एक ठण्डी साँस ले कर कहा-
बेख़तर कूद पड़ा आतिशे नमरूद में इश्क़
ना कोई बन्दा रहा ना कोई बन्दा नवाज़
‘क्या बकवास है!’ फ़ैयाज़ झुँझला कर बोला–‘अव्वल तो तुम्हें शेर ठीक याद नहीं, फिर यहाँ उसका मौक़ा कब था...इमरान, मेरा बस चले तो तुम्हें गोली मार दूँ।’
‘क्यों, शेर में क्या ग़लती है?’
‘मुझे शाइरी से दिलचस्पी नहीं, लेकिन मुझे दोनों मिसरे बे-रब्त मालूम होते हैं...’ लाहौल विला क़ूवत मैं भी उन्हीं बेकार बातों में उलझ गया। ख़ुदा के लिए काम की बातें करो। तुम न जाने क्या कर रहे हो!’
‘मंै आज रात को काम की बात करूँगा और तुम मेरे साथ होगे, लेकिन एक सेकेड के लिए भी वहाँ से पहरा न हटाया जाये...तुम्हारे एक आदमी को हर वक़्त मुजाविर के कमरे में मौजूद रहना चाहिए! बस, अब जाओ...मैं चाय पी चुका हूँ, वरना तुम्हारी कॉफी ख़ातिर करता। हाँ, एक आँख वाली महबूबा को मेरा पैग़ाम पहुँचा देना कि काले मुँह वाले दुश्मन का सफ़ाया हो गया! बाक़ी सब खैरियत है।’
‘इमरान, मैं आसानी से पीछा नहीं छोड़ूँगा! तुम्हें अभी और इसी वक़्त सब कुछ बताना पड़ेगा।’
‘अच्छा तो सुनो! लेडी जहाँगीर बेवा होने वाली है...उसके बाद तुम कोशिश करोगे कि मेरी शादी उसके साथ हो जाये...क्या समझे?’
‘इमरान!’ फ़ैयाज़ यकायक मार बैठने की हद तक संजीदा हो गया।
‘यस बॉस।’
‘बकवास बन्द करो। मैं अब तुम्हारी ज़िन्दगी हराम कर दूँगा।’
‘भला वह किस तरह सुपर फ़ैयाज़।’
‘निहायत आसानी से!’ फ़ैयाज़ सिगरेट सुलगा कर बोला। ‘तुम्हारे घर वालों को शक है कि तुम अपना वक़्त आवारगी और अय्याशी में गुज़ारते हो, लेकिन किसी के पास उसका ठोस सबूत नहीं...मैं सबूत मुहैया कर दूँगा। एक ऐसी औरत का इन्तज़ाम कर लेना मेरे लिए मुश्किल न होगा जो सीधे तुम्हारी अम्माँ बी के पास पहुँच कर अपने लुटने की दास्तान बयान कर दे।’
‘ओह!’ इमरान ने दुख के अन्दाज़ में अपने होंट सिकोड़ लिए, फिर आहिस्ता से बोला-
‘अम्माँ बी की जूतियाँ ऑल प्रूफ़ है। ख़ैर, सुपर फ़ैयाज़, यह भी करके देख लो, तुम मुझे सब्र और शुक्र करने वाला बेटा पाओगे...लो, च्यूइंगम शौक़ करो।’
‘इस घर में ठिकाना नहीं होगा तुम्हारा...’ फ़ैयाज़ बोला।
‘तुम्हारा घर तो मौजूद ही है।’ इमरान ने कहा।
‘तो तुम नहीं बताओगे?’
‘ज़ाहिर है।’
‘अच्छा तो अब तुम इन मामलों में दख़ल नहीं दोगे। मैं ख़ुद ही देख लूँगा।’ फ़ैयाज़ उठता हुआ ख़ुश्क लहजे में बोला– ‘और अगर तुम उसके बाद भी अपनी टाँग अड़ाते रहे तो मैं तुम्हें क़ानूनी गिरफ़्त में ले लूँगा।’
‘ये गिरफ़्त टाँगों में होगी या गर्दन में?’ इमरान ने संजीदगी से पूछा। चन्द लम्हे फ़ैयाज़ को घूरता रहा फिर बोला–‘ठहरो!’ फ़ैयाज़ रुक कर उसे बेबसी से देखने लगा। इमरान ने अलमारी खोल कर चमड़े का वही बैग निकाला जिसे वह कुछ अजनबी लोगों के बीच से पिछली रात को उड़ा लाया था। उसने हैंड बैग खोल कर चन्द काग़ज़ात निकाले और फ़ैयाज़ की तरफ़ बढ़ा दिए। फ़ैयाज़ ने जैसे ही एक काग़ज़ की तह खोली, वह एकदम उछल पड़ा। अब वह तेज़ी से दूसरे काग़ज़ात पर भी नज़रें दौड़ा रहा था।
‘ये तुम्हें कहाँ से मिले?’ फ़ैयाज़ लगभग हाँफ़ता हुआ बोला। उत्साह से उसके हाथ काँप रहे थे।
‘एक रद्दी बेचने वाले की दुकान पर...बड़ी मुश्किल से मिले हैं। दो आना सेर के हिसाब से।’
‘इमरान!...ख़ुदा के लिए।’ फ़ैयाज़ थूक निगल कर बोला।
‘क्या कर सकता है बेचारा इमरान!’ इमरान ने ख़ुश्क लहजे में कहा, ‘वह अपनी टाँगें अड़ाने लगा तो तुम उसे क़ानूनी गिरफ़्त में ले लोगे।’
‘प्यारे इमरान! ख़ुदा के लिए संजीदा हो जाओ।’
‘इतना संजीदा हूँ कि तुम मुझे बी. पी. की टाफ़ियाँ खिला सकते हो।’
‘ये काग़ज़ात तुम्हें कहाँ से मिले हैं?’
‘सड़क पर पड़े हुए मिले थे। और अब मैंने इन्हें क़ानून के हाथों में पहुँचा दिया। अब क़ानून का काम है कि वह ऐसे हाथ तलाश करे जिनमें हथकड़ियाँ लगा सके...इमरान ने अपनी टाँग हटा ली।’
फ़ैयाज़ बेबसी से उसकी तरफ़ देखता रहा।
‘लेकिन इसे सुन लो।’ इमरान क़हक़हा लगा कर बोला। ‘क़ानून के फ़रिश्ते भी उन लोगों तक नहीं पहुँच सकते!’
‘अच्छा तो यही बता दो कि इन मामलों से इन काग़ज़ात का क्या ताल्लुक़!’ फ़ैयाज़ ने पूछा।
‘यह तुम्हें मालूम होना चाहिए।’ इमरान अचानक संजीदा हो गया। ‘इतना मैं जानता हूँ कि यह काग़ज़ात फ़ॉरेन ऑफ़िस से ताल्लुक़ रखते हैं, लेकिन उनका इन बदमाशों के पास होना क्या मानी रखता है।’
‘किन बदमाशो के पास?’ फ़ैयाज़ चौंक कर बोला।
‘वहीं! उस इमारत में...!’
‘मेरे ख़ुदा!’...फ़ैयाज़ बेचैनी वाले अन्दाज़ में बड़बड़ाया। ‘लेकिन तुम्हारे हाथ किस तरह लगे?’
इमरान ने पिछली रात की घटना सुना दी। फ़ैयाज़ बेचैनी से टहलता रहा। कभी-कभी वह रुक कर इमरान को घूरने लगता। इमरान अपनी बात ख़त्म कर चुका तो उसने कहा-
‘अफ़सोस! तुमने बहुत बुरा किया...तुमने मुझे कल यह इत्तला क्यों नहीं दी?’
‘तो अब दे रहा हूँ इत्तला। उस मकान का पता भी बता दिया जो कुछ बन पड़े कर लो।’ इमरान ने कहा।
‘अब क्या वहाँ ख़ाक फाँकने जाऊँ?’
‘हाँ-हाँ, क्या हर्ज है।’
‘जानते हो यह काग़ज़ात कैसे हैं?’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘अच्छे-ख़ासे हैं! रद्दी के भाव बिक सकते हैं।’
‘अच्छा तो मैं चला!’ फ़ैयाज़ काग़ज़ समेट कर चमड़े के बैग में रखता हुआ बोला।
‘क्या इन्हें इसी तरह ले जाओगे?’ इमरान ने कहा, ‘नहीं ऐसा न करो। मुझे तुम्हारे क़ातिलों का भी सुराग़ लगाना पड़ेगा।’
‘क्यों?’
‘फ़ोन करके पुलिस की गाड़ी मँगवाओ।’ इमरान हँस कर बोला, ‘कल रात से वे लोग मेरी तलाश में हैं। मैं रात भर घर से बाहर ही रहा था। मेरा ख़याल है कि इस वक़्त मकान की निगरानी ज़रूर हो रही होगी। ख़ैर, अब तुम मुझे बता सकते हो कि काग़ज़ात कैसे हैं।’
फ़ैयाज़ फिर बैठ गया। वह अपनी पेशानी से पसीना पोंछ रहा था। थोड़ी देर बाद उसने कहा-
‘सात साल पहले इन काग़ज़ात पर डाका पड़ा था? लेकिन इनमें सब नहीं हैं। फ़ॉरेन ऑफ़िस का एक ज़िम्मेदार ऑफ़िसर उन्हें ले कर सफ़र कर रहा था। यह नहीं बता सकता कि वह कहाँ और किस मक़सद से जा रहा था, क्योंकि यह हुक़ूमत का राज़ है। आफ़िसर ख़त्म कर दिया गया था। उसकी लाश मिल गयी थी। लेकिन उसके साथ सीक्रेट सर्विस का एक आदमी भी था। उसके बारे में आज तक न मालूम हो सका। शायद वह भी मार डाला गया हो, लेकिन उसकी लाश नहीं मिली।’
‘आहा...तब तो यह बहुत बड़ा खेल है।’ इमरान कुछ सोचता हुआ बोला, ‘लेकिन मैं जल्द ही उसे ख़त्म करने की कोशिश करूँगा।’
‘तुम अब क्या करोगे?’
‘अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी।’ इमरान ने कहा, ‘और सुनो, इन काग़ज़ात को अभी अपने पास ही दबाये रहो और हैंड बैग मेरे पास रहने दो। मगर नहीं, उसे भी ले जाओ। मेरे ज़ेहन में कई तदबीरें हैं! और हाँ...इस इमारत के गिर्द दिन-रात पहरा रहना चाहिए!’
‘आख़िर क्यों?’
‘वहाँ मैं तुम्हारा मक़बरा बनवाऊँगा।’ इमरान झुँझला कर बोला।
फ़ैयाज़ उठ कर पुलिस की कार मँगवाने के लिए फ़ोन करने लगा।
***
उसी रात को इमरान बौखलाया हुआ फ़ैयाज़ के घर पहुँचा। फ़ैयाज़ सोने की तैयारी कर रहा था। ऐसे मौक़े पर अगर इमरान की बजाये कोई और होता तो वह बड़ी बदतमीज़ी से पेश आता। मगर इमरान का मामला ही कुछ और था। उसकी बदौलत आज उसके हाथ ऐसे काग़ज़ात लगे थे जिन की तलाश में गुप्तचर विभाग एक अरसे से सिर मार रहा था। फ़ैयाज़ ने उसे अपने सोने के कमरे में बुलवा लिया।
‘मैं सिर्फ़ एक बात पूछने के लिए आया हूँ!’ इमरान ने कहा।
‘क्या बात है...कहो!’
इमरान ठण्डी साँस ले कर बोला। ‘क्या तुम कभी-कभी मेरी क़ब्र पर आया करोगे?’
फ़ैयाज़ का दिल चाहा कि उसका सिर दीवार से टकरा कर सचमुच उस को क़ब्र तक जाने का मौक़ा मुहैया करे। वह कुछ कहने की बजाय इमरान को घूरता रहा।
‘आह! तुम ख़ामोश हो!’ इमरान किसी नाकाम आशिक़ की तरह बोला, ‘मैं समझा! तुम्हें शायद किसी और से प्रेम हो गया है।’
‘इमरान के बच्चे...!’
‘रहमान के बच्चे!’ इमरान ने जल्दी से ग़लती सुधारी।
‘तुम क्यों मेरी ज़िन्दगी तल्ख़ किये हुए हो?’
‘ओहो! क्या तुम्हारी मादा दूसरे कमरे में सोयी है?’ इमरान चारों तरफ़ देखता हुआ बोला।
‘बकवास मत करो!...इस वक़्त क्यों आये हो?’
‘एक इश्क़िया ख़त दिखाने के लिए।’ इमरान जेब से लिफ़ाफ़ा निकालता हुआ बोला, ‘उसके शौहर नहीं है, सिर्फ़ बाप है।’
फ़ैयाज़ ने उसके हाथ से लिफ़ाफ़ा ले कर झल्लाहट में फाड़ना चाहा।
‘हाँ हाँ!’ इमरान ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा। ‘अरे पहले पढ़ो तो मेरी जान मज़ा न आये तो डाक ख़र्च ख़रीदार के ज़िम्मे?’
फ़ैयाज़ ने बेदिली से ख़त निकाला...और फिर जैसे ही उसकी नज़रें उस पर पड़ीं। खिन्नता के सारे भाव चेहरे से ग़ायब हो गयी और उसकी जगह अचरज ने ले ली। ख़त टाइप किया हुआ था।
‘इमरान! अगर वह चमड़े का हैंड बैग या उसके अन्दर की कोई चीज़ पुलिस तक पहुँची तो तुम्हारी शामत आ जायेगी। उसे वापस कर दो...बेहतरी इसमें है, वरना कहीं...किसी जगह मौत से मुलाक़ात ज़रूर होगी। आज रात को ग्यारह बजे रेस कोर्स के क़रीब मिलो। हैंड बैग तुम्हारे साथ होना चाहिए। अकेले ही आना। वरना अगर तुम पाँच हज़ार आदमी भी साथ लाओगे तब भी गोली तुम्हारे ही सीने पर पड़ेगी।’
फ़ैयाज़ ख़त पढ़ चुकने के बाद इमरान की तरफ़ देखने लगा।
‘लाओ...इसे वापस कर आऊँ!’ इमरान ने कहा।
‘पागल हो गये हो?’
‘हाँ।’
‘तुम डर गये।’ फ़ैयाज़ हँसने लगा।
‘हार्ट फ़ेल होते-होते बचा है।’ इमरान नाक से बोला।
‘रिवॉल्वर है तुम्हारे पास?’
‘रिवॉल्वर!’ इमरान अपने कानों में उँगलियाँ ठोंसते हुए बोला, ‘अरे बाप रे।’
‘अगर नहीं है तो मैं तुम्हारे लिए लाइसेंस हासिल कर लूँगा।’
‘बस करम करो!’ इमरान बुरा-सा मुँह बना कर बोला। ‘उसमें आवाज़ भी होती है और धुआँ भी निकलता है। मेरा दिल बहुत कमज़ोर है। लाओ हैंड बैग वापस कर दो।’
‘क्या बच्चों की-सी बातें कर रहे हो!’
‘अच्छा तो तुम नहीं दोगे?’ इमरान आँखें निकाल कर बोला।
‘फ़िजूल मत बको, मुझे नींद आ रही है।’
‘अरे ओ...फ़ैयाज़ साहब! अभी मेरी शादी नहीं हुई और मैं बाप बने बग़ैर मरना पसन्द नहीं करूँगा।’
‘हैंड बैग तुम्हारे वालिद के ऑफ़िस में भेज दिया गया है।’
‘तब उन्हें अपने जवान बेटे की लाश पर आँसू बहाने पड़ेंगे! कनफ़्यूशियस ने कहा था।’
‘जाओ यार, ख़ुदा के लिए सोने दो।’
‘ग्यारह बजने में सिर्फ़ पाँच मिनट रह गये हैं।’ इमरान घड़ी की तरफ़ देखता हुआ बोला।
‘अच्छा, चलो, तुम भी यहीं सो जाओ।’ फ़ैयाज़ ने बेबसी से कहा।
कुछ देर ख़ामोशी रही। फिर इमरान ने कहा, ‘क्या उस इमारत के आस-पास भी पहरा है।’
‘हाँ!...कुछ और आदमी बढ़ा दिये गये हैं, लेकिन आख़िर तुम यह सब क्यों कर रहे हो? अफ़सर मुझ से उसका सबब पूछते हैं और मैं टालता रहता हूँ।’
‘अच्छा तो उठो! यह खेल भी इसी वक़्त ख़त्म कर दें! तीस मिनट में हम वहाँ पहुँचेंगे। बाक़ी बचे बीस मिनट! गयारह सवा ग्यारह बजे तक सब कुछ हो जाना चाहिए?’
‘क्या होना चाहिए!’
‘साढ़े ग्यारह बजे बताऊँगा...उठो...मैं इस वक़्त तसव्वुर में तुम्हारा ओहदा बढ़ता हुआ देख रहा हूँ।’
‘आख़िर क्यों! कोई ख़ास बात?’
‘अली इमरान एम.एस.सी., पी-एच.डी. कभी कोई आम बात नहीं करता, समझे! नाऊ गेटअप!’ फ़ैयाज़ ने बेमन से कपड़े बदले।
थोड़ी देर बाद उसकी मोटर साइकिल बड़ी तेज़ी से उस देहाती इलाक़े की तरफ़ जा रही थी जहाँ वह इमारत थी। इमारत के क़रीब पहुँच कर इमरान ने फ़ैयाज़ से कहा-
‘तुम्हें सिर्फ़ इतना करना है कि तुम उस वक़्त तक क़ब्र के मुजाविर को बातों में उलझाये रखो जब तक मैं वापस न आ जाऊँ! समझे! उसके कमरे में जाओ। एक सेकेड के लिए भी उसका साथ न छोड़ना!
***
0 Comments