“करेक्ट। एक तो मुझे ही को बुलाया था इन्होंने। साथ ही यह भी कहा था- तुम लोगों को पता न लगे। मुमकिन है ऐसा ही किसी और से भी कहा हो ।”
“तो क्या इन्होंने तुम्हें अपने साथ पीने के लिए बुलाया था ?” “कहा तो नहीं था ऐसा लेकिन संभव है मुझे और किसी एक और को बुलाते वक्त यही सोचा हो- 'मुझे उनसे जो बातें करनी हैं, जाम से जाम टकराते हुए करूंगा।'
“ऐसी क्या बातें करनी चाहते थे ये?"
"इनकी मौत के बाद अब शायद भगवान ही जानता होगा।"
“आने वाला वह दूसरा आदमी कौन था? आया क्यों नहीं?"
“कौन जानता है आया या नहीं?"
“मतलब?”
“मुमकिन है आया हो और वह वही हो जो इनका राम नाम सत्य कर गया ।”
“कैसे बातें कर रहे हो इंस्पैक्टर ? भला कोई ऐसा शख्स इनकी हत्या क्यों करेगा जिसे इन्होंने खुद बुलाया हो ।” “ऐसे काम अक्सर वही करते हैं जिन पर हमें सबसे ज्यादा विश्वास होता है और यहां तो लाश की पोजीशन भी यही बता रही है, हत्यारा राजदान साहब का विश्वासपात्र होना चाहिए। बहरहाल, राजदान साहब ने बगैर किसी हील- हुज्जत के अपना मुंह खोल दिया, हत्यारे को पूरा मौका दिया वह रिवाल्वर की नाल इनके मुंह में डालकर गोली चला सकें।
“तुम्हारी यह अजीब बात किसी भी तरह मेरे हलक से नीचे नहीं उतर रही ।” देवांश बोला- “भैया की छोड़ो-भला कोई भी शख्स खुद हत्यारे को ऐसा मौका कैसे दे सकता है ?” -
“इतना तो मानते हो न, गोली इनके मुंह में रिवाल्वर की नाल डालकर चलाई गई है?”
“वो तो लाश ही बता रही है।"
“यही लाश यह भी बता रही है कि मरने से पूर्व राजदान साहब ने कोई संषर्ष नहीं किया। हत्यारे ने जबरदस्ती इनके मुंह में नाल घुसेड़ी होती तो संघर्ष का कोई न कोई चिन्ह जरूर होता। उस चिन्ह का न होना क्या मुझे वही करने पर मजबूर नहीं कर रहा जो तुम्हारे हलक से नीचे नहीं उतर रहा?”
“समझ में नहीं आ रही बात। ऐसा हो कैसे सकता है कि....
दिव्या देवांश का वाक्य पूरा होने से पहले बोली- “हत्यारा अपनी चालाकी से कर सकता है ऐसा "
“मतलब?”
“मुमकिन है उसने किसी और बहाने से इनका मुंह खुलवाया हो । इससे पहले कि ये कुछ समझ पाये हो, उसने जेब से रिवाल्वर निकालकर....
“करेक्ट! सोलह आने करेक्ट ।” ठकरियाल ने कहा- “यही हुआ होगा।”
दिव्या अंदर ही अंदर यह सोचकर खुश थी कि वह ठकरियाल को एक 'लाइन' देने में कामयाब हो गई थी। उस ठकरियाल को जो महज इसी प्वाइंट के कारण मौजूदा घटना को 'आत्माहत्या' के एंगिल से देख रहा था - दरअसल घटना का आत्महत्या साबित होना हो तो उनकी बर्बादी था। उनका काम था-ठकरियाल की सोचो को खींचकर इस एंगिल से दूर ले जाना । वही किया था दिव्या ने-जिस ठकरियाल को इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा था कि राजदान ने हत्यारे को सुविधा हेतु अपना मुंह क्यों खोला उस ठकरियाल को वह यह समझाने में कामयाब थी कि मुंह हत्यारे ने चालाकी से खुलवाया।" ठकरियाल कहता चला गया- “यकीनन हत्यारे ने राजदान का मुंह चालाकी से खुलवाया और धोखे से नाल मुंह में डालकर गोली चला दी। एक बात और साबित होती है इस बात से।”
“वह क्या?"
“हत्यारा जो भी हो, है राजदान साहब का परिचित "
“केवल परिचित नहीं, मेरे ख्याल से तो यह भैया का विश्वासपात्र होना चाहिए।" देवांश कहता चला गया -“तभी तो भैया ने उसके कहने पर मुंह खोला होगा?”
“बात में कई किलो वजन है, मगर... अपना वाक्य स्वयं ही अधूरा छोड़ दिया ठकरियाल ने उस अधूरे वाक्य के कारण दिव्या और दिवांश की धड़कने फिर असामान्य हो गई। नजरे मिली। दोनों के दिमागों में एक ही सवाल था - 'अब कहां अटक रहा है ये खुर्रांट पुलिसिया?’ देवांश ने पूछा- “मगर क्या?”
“हत्यारे ने इनकी ईहलीला नाल मुंह में डालकर ही क्यों खत्म की ?
झुंझला सा उठा देवांश-“यह भी कोई सवाल हुआ? हत्यारे को इन्हें मारना था सो जैसे उसे सुविधा हुई मार दिया। गोली इनके सीने में लगी होती तो क्या तुम इस बात पर सिर खपाई करने लगते कि सिर ही में क्यों मारी गई? पेट में क्यों नहीं मारी?”
“हां! सोचता तो मैं जरूर इस बात को ।”
“तुम्हारे बारे में ठीक ही कहते थे भैया । तुम काम की बातों में कम, बेकार की बातों में ज्यादा दिमाग खपाते हो। यह सोचने की जगह कि हत्यारा कौन हो सकता है यह सोच रहे हो उसने गोली मुंह के अंदर ही क्यों मारी? कहीं और क्यों नहीं मारी? भला ये भी कोई बात है।
“जासूसी करने का तरीका है अपना-अपना ।” अदरख की गांठ जैसे शख्स के होठों पर उसे झुंझलाता देखकर अजीब सी मुस्कान थी- “जब किसी के सीने में बायीं तरफ गोली लगी हो तो मैं फट से इस नतीजे पर पहुंच जाता हूं, हमलावर ने अपने शिकार को हन्डरेड परसेन्ट मार डालने के इरादे से गोली चलाई थी। गोली पेट में लगी हो तो हत्यारे ने सोचा था - मरना हो तो मरे, बचता हो तो बचे । मेरा उल्लू सीधा होना चाहिए। गोली अगर टांगों में लगी हो तो मैं सोचूंगा शिकार मर भले ही गया हो परन्तु हमलावर का इरादा उसे मारने का नहीं था।"
“तो मुंह खुलवाकर गोली चलाने से किस नतीजे पर पहुंचे?" देवांश भुनभुना रहा था।
“शायद इस हत्या को आत्महत्या साबित करना चाहता था हत्यारा।"
“मतलब?”
“नाल मुंह में डालकर लोग आत्महत्या करते हैं। जानते हो क्यों?”
“ताकि बचने की कोई गुंजाईश न रहे। हन्डरेड परसेन्ट मर जाये ओर तड़पने की पीड़ा से बच सके।"
“मतलब क्या हुआ इस बकवास का
“सोचने वाली बात है - क्या हत्यारा ऐसा चाहता था?"
दोनों में से किसी को कहने के लिए कुछ नहीं सूझा ।
“अगर 'हां' तो ऐसा क्यों चाहता था वह ?” अपनी ही धुन में ठकरियाल कहता चला गया - “हत्यारे की मंशा यह तो हो सकती है उसका शिकार हन्डरेड परसेन्ट मर जाये परन्तु उसे तड़पन की पीड़ा से बचाने में कोई इन्ट्रेस्ट नहीं हो सकता उसे फिर उसने ऐसा क्यों किया? अगर उसकी मंशा राजदान साहब को हन्डरेड परसेन्ट मार डालना ही था तो इसके लिए वह इसके दिल पर गोली मार सकता था । सिर का ‘भिन्यास’ उड़ा सकता था। मुंह खुलवाने की तकलीफ क्यों फरमाई उसने। बहरहाल, अपने शिकार का मुंह खुलवाना, हत्या करते वक्त हत्यारे के लिए एक एक्सट्रा काम हुआ। क्यों किया उसने यह एक्स्ट्रा काम ?”
देवांश का धैर्य जवाब देने लगा था। फिर भी, खुद को काफी हद तक संयत रखे उसने पूछा"इस सब पर इस ढंग से विचार करके तुम पहुंचना किस नतीजे पर चाहते हो?”
“अब तक तुम मुझे आधा पागल समझ रहे होंगे।" ठकरियाल की मुस्कान गहरी हो गई - “अगर वह बता दिया जो मैं सोच रहा हूं जो शायद पूरा ही पागल समझने लगे।”
“क्या सोच रहे हो ?”
“यह हत्या नहीं, आत्महत्या है।"
धाड़ ! धाड़ ! धाड़ की आवाजों के साथ ठकरियाल के शब्द हथोड़े बनकर दिव्या और देवांश के दिमागो से टकराये । वह वही कह रहा था जिससे वे उसे दूर खींच ले जाना चाहते थे। अपने सारे सपने, सारे इरादे उन्हें उन्हें उसी तरह बिखेरते नजर आये जैसे विस्फोट के बाद बारूद बिखर जाता है।
चेहरे फीके पड़ गये थे। लाश के चेहरे से निस्तेज
एक पल-सिर्फ एक पल के लिए उन्होंने सूनी-सूनी आंखों से एक-दूसरे की तरफ देखा । कोशिश के बावजूद दोनों में से किसी के मुंह से बोला न फूट सका। और उस वक्त तो उन्हें अपने पूरे प्लान का महल भरभराकर गिरता दिखाई दिया जब ठकरियाल ने कहा -“आत्महत्या भी ऐसी जिसे कोई हत्या साबित करना चाहता है। "
मूर्खो की तरह वे ठकरियाल का चेहरा देखते रह गये ।
देवांश से पहले दिव्या खुद को संभालते हुए बोली- “बड़ी अजीब बात कर रहे हो इंस्पैक्टर | लोग कानून से बचने के लिए हत्या करके उसे आत्महत्या साबित करने की कोशिश करते हैं और तुम बिल्कुल उल्टी बात कर रहे हो । भला इतना बड़ा मूर्ख दुनिया में कौन होगा जो अच्छी भली आत्महत्या को हत्या साबित करने की कोशिश करेगा।”
“ऐसा करने से भला किसी को क्या लाभ?" देवांश ने दिव्या की ताल से ताल मिलाई ।
“मुमकिन है वह शख्स किसी को राजदान की हत्या के इल्जाम में लपेटना चाहता हो ।” ऐसा कहकर ठकरियाल ने उनके रहे- सहे हौसले भी परस्त कर दिये ।
पट्ठा पूरी ही बात समझ गया था। यह भी कि वे किसी को फंसाना चाहते हैं। ठकरियाल जो सोच रहा था, उसे उसने हटाने की अंतिम कोशिश सी करते देवांश ने कहा- “मैं समझ नहीं पा रहा, यह विचित्र बात तुम किस बेस पर कह रहे हो?”
“बस स्पष्ट है देवांश बाबू ।” ठकरियाल अपनी सोचों से हटने को तैयार नहीं था- “हत्या ये इसलिए नहीं होनी चाहिए क्योंकि किसी भी हत्यारे का इन्ट्रेस्ट इस बात में बिल्कुल नहीं हो सकता कि मरते वक्त उसके शिकार को पीड़ा का एहसास न हो। हत्यारा भला क्यों अपने शिकार का मुंह खुलवाने जैसे एक्सट्रा काम करेगा? इससे ज्यादा सुविधाजनक तो उसके लिए राजदान साहब के दिल या सिर में गोली मार देना था। सुविधाजनक रास्ता छाड़कर क्यों कोई एक्स्ट्रा पंगा लेगा, इन्हीं सब कारणों से यह आत्महत्या लगती है। अगर लाश के हाथ में रिवाल्वर मौजूद होता तो अंधा भी समझ सकता था राजदान साहब ने सुसाइड कर ली है और अबें मुझे लगता है- आत्महत्या को हत्या साबित करने के लिए किसी ने केवल एक काम किया है- रिवाल्वर ले गया यहां से । इससे ज्यादा कुछ करने का शायद उसे टाइम ही नहीं मिल पाया।"
धड़कते दिल से देवांश ने पूछा- “कौन कर सकता है ऐसा ? भैया की हत्या के इल्जाम में किसे फंसाने की मंशा रही होगी उसकी ?”
“यह मुझे तुम बताओगे।”
“म-मैं?” देवांश मिमिया उठा।
“या आप।” ठकरियाल की आंखें दिव्या के फेस पर जम गई ।
हलक सूख गया दिव्या का। पलक झपकते ही उसके चेहरे पर हवाईयां उड़ती आने लगीं । बड़ी मुश्किल से कह सकी - "भ-भला मैं इस बारे में क्या कह सकती हूं।"
“नहीं कहोगी तो आप फंस जायेंगी।”
“म-मैं फंस जाऊंगी?” पसीने-पसीने हो गई दिव्या - “व- वह भला क्यों?”
“क्योंकि वह जो भी है, आपको फंसाना चाहता है।”
" देवांश को लगा - ठकरियाल वह नहीं सोच रहा जो वे समझ रहे हैं बल्केिं बल्कि वह तो फेवर में सोच रहा है उनके। यह सोच रहा है किसी ने हमें फंसाने की कोशिश की है, न कि यह कि हम किसी को फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। इस सोच ने देवांश को बल दिया। उसकी रुकी हुई सांसे पुनः सामान्य गति से चलने लगीं। थोड़ा हौंसला समेटकर कहा- “भ-भला भैया का कत्ल करके भाभी को कोई क्यों फंसाना चाहेगा।"
ठकरियाल के होठों पर मुस्कराहट उभर आई। बहुत ही गहरी नजरों से देखा उसने देवांश को । हालांकि मुंह से कुछ नहीं कहा मगर, वे नजरें- वह मुस्कराहट साफ-साफ ऐसा कुछ कह रही थी जिसने पलक झपकते ही देवांश को पहले से ही ज्यादा बौखला डाला। वह हकलाकर कह उठा-“ए-ऐसा हरगिज नहीं है इंस्पैक्टर बहुत ही वाहियात बात सोच रहे हो तुम?”
“क्या सोच रहा हूं मैं?”
“यह कि भाभी को फंसाने के लिए यह काम मैंने किया है।"
“कहा तो नहीं मैंने ऐसा।” ठकरियाल की मुस्कान और और ज्यादा रहस्यमय हो उठी।
" मुंह से भले ही न कहा हो परन्तु तुम्हारी नजरें, यह मुस्कान। सब यही कह रही हैं। यकीन मानो - भैया की हत्या के इल्जाम में भाभी को फंसाने से ‘अब’ मुझे कोई फायदा नहीं होने वाला गायद तुम जानते नहीं हो कि।
“मैं जानता हूं।” ठकरियाल ने उसकी बात काटी - “तुम्हारे बताने से पहले ही सब कुछ जानता हूं मैं। राजदान साहब की बीमारी तुम लोगों को कंगले ही नहीं, कर्जमंद बना चुकी है। फर्नीचर सहित यह विला और राजदान ऐसोसिऐट्स का आफिस तक गिरवी पड़ा है। रामभाई शाह जैसे लोगो के कर्जमंद हो सो अलग। भला ऐसी अवस्था में अपनी भाभी को फंसाकर राजदान साहब का उत्तराधिकारी बनने से तुम्हें मिलेगा क्या? और जब कुछ मिल नहीं रहा होता तो किसी को किसी का उत्तराधिकारी बनने में कोई दिलचस्पी नहीं होती। हालात अगर उल्टे होते अर्थात् दिव्या जी को फंसाकर तुम्हारे हाथ कुछ लग रहा होता तो मैं उस एंगिल से जरूर सोचता जिससे तुम्हें लगा कि मैंने सोचा। इसलिए बस इतना ही कहूंगा- मेरी नजरों और मुस्कान से तुम्हें जो लगा, गलत लगा।”
“त-तो फिर क्या मतलब था तुम्हारी उन नजरों और मुस्कान का?”
“केवल यह, तुम और दिव्या जी तुम दोनों इस वक्त एक ही नाव पर सवार हो ।"
एक बार फिर हड़बड़ा गये दोनो। दिव्या ने कहा- "इस बात का क्या मतलब?”
“वह जो भी कोई है, तुम दोनों को फंसाना चाहता है।”
“द-दोनों को!” देवांश ने चौंककर कहा - "ऐसा तुम कैसे कह सकते हो । ”
“मेरी जगह अगर कोई और पुलिस इंस्पैक्टर इस वक्त यहां खड़ा होता तो तुम दोनों के हाथों में सरकारी कंगन पहना चुका होता।"
“क-किस बेस पर?”
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