शुक्रवार : छब्बीस मई : दिल्ली मुम्बई विंस्टन प्वायंट
झामनानी का खुफिया ठिकाना सोनीपत के करीब का एक फार्म था जो कि उन दिनों इसलिये उजाड़ पड़ा था क्योंकि उसका मालिक एक लम्बे अरसे के लिये सपरिवार जर्मनी गया हुआ था और फार्म को उसकी गैरहाजिरी में ध्यान रखने के लिये उसे झामनानी के हवाले कर गया था । वहां केवल एक बूढा चौकीदार और उसकी उतनी ही बूढी बीवी थी जो कि फाटक के पास एक कॉटेज में रहते थे और कभी बिना बुलाये भीतर फार्म हाउस में नहीं आते थे जो कि फार्म के मध्य में जमीन से आठ फुट की ऊंचाई पर बना, पिलर्स पर खड़ा खूबसरत बंगला था । फार्म की देखभाल, सारा स्टाफ निकाल दिया गया होने की वजह से, एक लम्बे अरसे से बन्द थी जिसकी वजह से वो उजड़ा चमन ही जान पड़ता था ।
झामनानी की जाती जरूरियात पूरी करने के लिये उसका वफादार ड्राइवर भागचन्द उन दिनों वहां उसके साथ ही रह रहा था । झामनानी की मर्जी होती थी तो वो वहीं उसे खाना पका देता था या वो कार लेकर वहां से कोई नौ कलोमीटर दूर सोनीपत जाता था और वहां के किसी फैंसी रेस्टोरेंट से खाना पैक करा के लाता था ।
मंगलवार से - जब से कि उसे बजाज से मुम्बई में पवित्तर सिंह के कत्ल की खबर लगी थी - उसने सुबह सवेरे भागचन्द को भेज कर अखबार मंगाना शुरू कर दिया था । लिहाजा उस रोज सुबह जब भागचन्द उसके लिये चाय की ट्रे लाया तो ट्रे में उस रोज का अखबार भी मौजूद था ।
भागचन्द उसके लिये चाय बना कर चला गया ।
झामनानी ने एक हाथ से चाय का कप उठाया और दूसरे से अखबार थामा । अखबार को बिना खोले ही उसके ऊपरले दायें कोने में जो सुर्खी उसे दिखाई दी, वो भोगीलाल के कत्ल की बाबत थी ।
उसका दिल धक्क से रह गया ।
चाय का कप उसके हाथ से छूटता छूटता बचा ।
कत्ल !
भरे पूरे होटल में !
दिनदहाड़े !
झूलेलाल ! झूलेलाल !
वो अखबार को मेज पर डालने ही लगा था कि एक और सुर्खी पर उसकी निगाह पड़ी:
पुलिस इन्स्पेक्टर की दिनदहाड़े हत्या
लाश चोरी की कार में से बरामद
आननफानन उसने सुर्खी के नीचे की इबारत पर निगाह दौड़ाई तो पता लगा कि हत्प्राण इन्स्पेक्टर का नाम नसीबसिंह था जो कि पहाड़गंज थाने का सस्पेंशन में चल रहा एस.एच.ओ. था ।
उस खबर ने तो जैसे झामनानी के प्राण ही निकाल दिये ।
खबर में कातिल की शिनाख्त की बाबत कोई इशारा तक नहीं था लेकिन वो खूब जानता था कि वो कारनामा सोहल के अलावा किसी का नहीं हो सकता था ।
तब पहली बार झामनानी आतंकित हुआ । पहली बार उसे अहसास हुआ कि उसकी मौत उसके कितने करीब सरकती आ रही थी !
कितना ताकतवर समझता था वो बिरादरी को एक आदमी के खिलाफ ! ‘भाई’ की शह पाकर अपनी ताकत को कितनी और बढ गयी महसूस करता था । कहां गयी बिरादरी । कहां गयी ताकत ! वो तो अकेला रह गया था ।
बिरादरीभाइयों के अन्डरग्राउन्ड हो जाने के फैसले को उसने गम्भीरता से नहीं लिया था । उसकी निगाह में वो महज अतिरिक्त सावधानी थी जो वो सोहल के खिलाफ बरत सकता था ।
वो ही अतिरिक्त सावधानी बाकी बिरादरीभाइयों ने भी बरती थी लेकिन फिर भी मारे गये ! कैसे भी मारे गये, मारे गये ।
अब ऐसे ही क्या हालात उसके बरखिलाफ जाने वाले थे और उसकी कजा आने वाली थी ।
उसके शरीर ने जोर से झुरझुरी ली ।
सोहल का खौफ तो उसे था ही था, पुलिस भी उसका पीछा छोड़ती जान नहीं पड़ती थी । डी.सी.पी. मनोहरलाल से बात करने के लिये किसी भरोसे के बिचौलिये की उसे अभी भी तलाश थी लेकिन बाजरिया फोन वो काम होता नहीं लग रहा था । वो फोन पर इस बाबत आगे किसी को - मसलन अपने भरोसे के वकील को - कहता था तो वो आगे किसी और को कह देता था और पूछे जाने पर बोलता था कि जवाब का इन्तजार था, मुनासिब कान्टैक्ट बनने का इन्तजार था ।
आप मरे बिना कहीं स्वर्ग मिलता था ।
तो क्या करे वो ?
अज्ञातवास त्याग कर दिल्ली पहुंच जाये और खुद डी.सी.पी. की खबर ले ।
चान्दी का जूता खा कर पीछा छोड़ देता तो बढिया वरना सुपारी । भले ही सुपारी किलर ‘भाई’ को बोल कर मुम्बई से बुलवाना पड़े ।
अब उसके सामने लाख रुपये का सवाल ये था कि क्या सोहल उस तक पहुंच सकता था ? उस फार्म में भी उसकी कजा बन कर एकाएक उसके सिर पर आन खड़ा हो सकता था ?
आज से पहले उसका जवाब यही होता कि ऐसा नहीं हो सकता था । लेकिन अब उसके दिल से यही आवाज निकली कि ऐसा बराबर हो सकता था ।
वो तो कोई प्रेत था जो पता नहीं कब, कैसे, कहां प्रकट हो जाता था ।
पवित्तर सिंह सच कहता था ।
ऐसे शख्स को तो काबू में आते ही मार गिराया जाना चाहिये था ।
कितनी बड़ी चूक हो गयी ।
तभी मोबाइल की घन्टी बजी ।
उसने मोबाइल उठा कर स्क्रीन पर निगाह डाली तो पाया कि बजाज का फोन था ।
जरूर उसे भोगीलाल के कत्ल की खबर करना चाहता था ।
नसीबसिंह के भी ।
और भला किस लिये वो सुबर सवेरे फोन करता !
उसने मोबाइल ऑफ कर दिया ।
चाय की प्याली तब भी उसके हाथ में थी लेकिन उसको पीने में उसकी कोई रुचि बाकी नहीं रही थी ।
आंखों के आगे मौत नाचती दिखाई देती हो तो कहीं चाय पी जाती थी !
उसने चाय वापिस ट्रे में रख दी और माथा थाम लिया ।
क्या होने वाला था ?
दोपरबाद का वक्त था ।
***
बोरीवली के सेंट थामस चर्च में सन्नाटा था । चर्च से सम्बद्ध ऑफिसनुमा कमरे में एक ईजी चेयर पर अधलेटा चर्च का नया पादरी फादर मैथ्यू सुस्ता रहा था जबिक कनफैशनल बाक्स की घन्टी बजी ।
वो सकपकाया ।
दोपरबाद की उस घड़ी कोई अपने गुनाह बख्शवाने आया था ।
वो उठ कर खड़ा हुआ, कमरे से निकल कर उसने चर्च के हॉल में कदम रखा जिसकी जर्जर होती जा रही छत के नीचे एक कोने में कनफैशनल बाक्स स्थापित था ।
उसने उसके अपने हिस्से में कदम रखा और वहां पड़ी कुर्सी पर बैठा गया ।
जैसे केबिन में वो बैठा हुआ था, वैसा ही केबिन स्क्रीन से पार दूसरी तरफ भी था जहां पड़ी वैसी ही कुर्सी पर वो आगन्तुक बैठा हुआ था जिसने कि घन्टी बजाई थी । दोनों के बीच में स्क्रीन इस प्रकार थी कि उसे आगन्तुक की वहां उपस्थिति का ही आभास हो पाता था, उसकी सूरत वो नहीं देख सकता था ।
“आई एम हेयर, माई सन ।” - वो मीठे स्वर में बोला - “यू वांट टु मेक ए कनफैशन ?”
“यस, फादर ।” - दूसरी तरफ से संजीदा आवाज आयी ।
“टु ए सिन ?”
“यस, फादर ।”
“क्या पाप किया ?”
“जानबूझ कर नहीं किया लेकिन हो गया ।”
“क्या ?”
“फादर वुड्स की मौत में निमित्त बना ।”
“क्या ! संडे मार्निंग उधर चैम्बूर में वो बम ! फादर वुड्स की टैक्सी में तुमने लगाया ?”
“नो फादर ।”
“तुम्हारे कहने पर किसी ने लगाया था ?”
“नो, फादर ।”
“तो फिर तुम फादर वुड्स की मौत के लिये जिम्मेदार क्योंकर हुए ?”
“फादर, आई एम मैसेंजर ऑफ डैथ । मैं मौत का हरकारा हूं । मैं जहां भी जाता हूं, मौत मेरे साथ जाती है । मेरी सोहबत करना और मौत की सोहबत करना एक ही बात है ।”
“फादर वुड्स ने तुम्हारी सोहबत की थी ?”
“यस, फादर ।”
“कब ?”
“अपनी मौत से जरा पहले ।”
“चैम्बूर में ?”
“यस, फादर ।”
“कहीं तुम वो शख्स तो नहीं जिसके पास फादर वुड्स डोनेशन हासिल करने के लिये गये थे ?”
“वहीं हूं मैं ।”
“फिर तुम मौत का हरकारा कैसे हो सकते हो ? कोई दानी पुरुष मौत का हरकारा कैसे हो सकता है ? दान से जीवनरक्षा होती है, जीवनहनन नहीं होता ।”
“फादर वुड्स मेरे पास न आये होते तो उनकी जान न गयी होती ।”
“तुम्हारा ऐसा सोचना गलत है । ये यूं कहने के समान है कि हवाई जहाज का आविष्कार न होता तो मेरे पिता एयरक्रैश में न मरे होते । फादर वुड्स की मौत को लेकर तुम्हारे मन में कोई पश्चाताप की भावना है तो उसे त्याग दो । पापी होने में और मन में पाप की भावना होने में, पाप किया होने का अन्देशा होने में, फर्क होता है । फिर भी चैन महसूस करना चाहते हो तो निर्मल मन से हेल मेरी दोहराओ... तुम क्रिश्चियन तो हो न ?”
“नहीं । सिख हूं ।”
“फिर हेल मेरी प्रेयर को तुम कहां जानते होगे ?”
“मैं जानता हूं । मैं दोहराता हूं । हेल मेरी, फुल ऑफ ग्रेस, दि लॉर्ड इज विद दी, ब्लैस्ड आर्ट दाउ अमंग वुमेन एण्ड ब्लैस्ड इज दि फ्रूट ऑफ दाई बूम्ब जीसस ।”
“गॉड ब्लैस यू, माई चाइल्ड । यूं आर एबजाल्वड ऑफ आल सिंस ।”
जवाब में आगन्तुक कुछ न बोला ।
“हल्लो ! आर यू देयर, माई चाइल्ड ?”
जवाब नदारद ।
पादरी अपने स्थान से उठा । वो बाक्स के अपने हिस्से में से निकला और परली तरफ पहुंचा । वो एक क्षण उधर पड़े पर्दे के आगे ठिठका रहा, फिर झिझकते हुए उसने पर्दा उठा कर भीतर झांका ।
भीतर कोई नहीं था ।
लेकिन कुर्सी पर एक बड़ा सा ब्रीफकेस पड़ा था ।
उसने ब्रीफकेस उठाया और उसके ताले ट्राई किये । दोनों ताले खटाक की आवाज के साथ खुल गये । उसने ढक्कन उठा कर भीतर झांका ।
ब्रीफकेस नोटों से भरा हुआ था ।
***
शाम आठ बजे मुकेश बजाज डिफेंस कालोनी पहुंचा जहां कि मदाम स्वेतलाना का हाईली सोफिस्टीकेटिड, वैरी वैल-प्रोटेक्टिड ब्राथल था ।
सीढियां चढ कर वो पहली मंजिल पर पहुंचा ।
मदाम स्वेतलाना ने खुद उसका स्वागत किया ।
“वैलकम ! वैलकम !” - वो मुस्कराती हुई बोली - “दि यूजुअल ?”
“यस ।” - बजाज बोला - “दि यूजुअल ।”
“तुम ब्लू रूम में पहुंचो, मैं अभी रीनी बेबी को उधर भेजता है ।”
“ओके ।”
उसकी वहां विजिट हमेशा ब्लू रूम में ही होती थी और उसे वहां हमेशा रीनी बेबी ही सर्व करती थी । रीनी के अलावा उसे मदाम स्वेतलाना की कोई बेबी मंजूर नहीं थी ।
ब्लू रूम फ्लोर के पिछवाड़े में था ।
पिछवाड़े में वैसे चार कमरे थे और उन चारों की पीछे एक कॉमन बाल्कनी थी । बजाज को बाल्कनी की खबर थी लेकिन क्योंकि वो कॉमन थी इसलिये उसने ब्लू रूम का बाल्कनी की ओर खुलने वाला दरवाजा न कभी खोला था और न भविष्य में खोलने का कोई इरादा था ।
वो ब्लू रूम के दरवजे पर पहुंचा और उसे खोल कर भीतर दाखिल हो गया । अपने पीछे उसने दरवाजा बन्द कर लिया ।
दरवाजा बन्द होते ही मदाम लपक कर अपने ऑफिस में पहुंची, उसने फोन उठा कर उस पर लगा बजर दबाया, एक क्षण प्रतीक्षा की और फिर माउथपीस में बोली - “ही हैज अराइव्ड ।”
तत्काल उसने फोन वापिस रख दिया और वहां से बाहर निकल आयी ।
फोन के दूसरे सिरे पर मौजूद अली ने भी रिसीवर वापिस रखा और वली से बोला - “आ गया हमारा जमूरा आखिरकार ।”
“बढिया ।” - वली बोला - “जान छूटी । मैं तो रोजाना के इन्तजार से आजिज आ गया था ।”
“चल ।”
दोनों नीचे पहली मंजिल को जाती सीढियों की ओर बढे ।
बजाज ने जिस विशाल बैडरूम में कदम रखा था, उसको कोई भी देखता तो यही कहता था कि ब्लू रूम ही उसके लिये मुनासिब नाम था । उसके फर्श पर‍ बिछा कालीन नीला था, दीवारें नीलीं थीं, छत नीली थी, पर्दे नीले थे, डबल बैड की चादरें और तकियों के गिलाफ नीले थे, सोफा नीला था, गोल मेज नीली थी, यहां तक कि मेज पर रखी क्राकरी की आइटमें भी नीले कांच की थीं । कमरे में खूब रोशनी थी लेकिन रोशनी का कोई साधन नुमायां नहीं था ।
वहां की विजिट का रेट तीन हजार रुपये प्रति घन्टा था जो कि बजाज बाखूबी भर सकता था । झामनानी के सदके रुपये पैसे का उसे कभी तोड़ा नहीं रहा था ।
बजाज सोफे पर बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा ।
दरवाजा खुला और रीनी ने भीतर कदम रखा ।
वो लगभग बाईस साल की, गोरी, निहायत खूबसूरत नयन नक्श वाली, साढे पांच फुट कद वाली फैशन माडल्स जैसी बनी हुई लड़की थी और सैडो-मैसोकिज्म उसकी स्पैशलिटी थी । उस घड़ी वो एक झीना, परदर्शक गाउन पहने थी जिसके नीचे से उसकी काली अंगिया और पैंटी दिखाई दे रही थी । वो छ: इंच ऊंची स्टिलेटो हील्ज वाली सैंडल पहने थी जिसकी वजह से उसके नितम्ब ज्यादा उभरे हुए और छाती ज्यादा तनी हुई लग रही थी ।
बजाज उसे देखकर मुस्कराया ।
रीनी ने मुस्कराहट का जवाब मुस्कराहट से न दिया, उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द किया, अपना गाउन उतार कर एक तरफ डाला और बजाज के सामने आ खड़ी हुई । उसने अपनी टांगे फैला लीं, कूल्हों पर हाथ टिका लिये और अपलक बजाज की ओर देखा ।
“हल्लो !” - बजाज बोला ।
“हल्लो, यू रॉटन स्टूडेंट ।” - रीनी तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली ।
“क्या हुआ ?”
“अपनी मिस्ट्रेस का इस्तकबाल ऐसे करते हैं ? उसके सामने बैठे रह कर ?”
“ओह !” - बजाज तत्काल उछल कर खड़ा हुआ - “सॉरी, मिस्ट्रेस ।”
“सजा मिलेगी ।”
“मेरी खुशकिस्मती ।”
“अब बोलो, मैं कौन ?”
“मलिका ।”
“तुम कौन ?”
“गुलाम ।”
“गुड । गुलाम, कपड़े उतारो ।”
बजाज एक एक करके अपने जिस्म से कपडे़ उतारने लगा और उन्हें पीछे सोफे पर डालने लगा ।
रीनी को मालूम था कि वो शहर के बहुत बड़े गैंगस्टर का खास आदमी था और खुद भी गैंगस्टर था ।
ताकतवाला ! हिम्मतवाला ! हैसियतवाला !
उसे हमेशा हैरानी होती थी कि ऐसा आदमी उसके हाथों अपनी दुर्गति करा खुश होता था, सुख पाता था ।
सम्पूर्ण नग्नावस्था में पहुंच कर उसने रीनी की तरफ देखा ।
“अपनी मलिका से आंख मिलाते हो ?” - रीनी ने झिड़का - “नीची करो आंखें ।”
तत्काल बजाज नीचे देखने लगा ।
“अब मलिका को झुक कर सलाम करो ।”
उसने किया ।
“और नीचे झुक के । घुटनों के बल ।”
उसने वो भी किया ।
“हाथ भी नीचे । ऑन आल फोर्स । पालतू कुत्ते की तरह ।”
बजाज चौपाया बन गया तो रीनी सोफे पर बैठ गयी । उसने अपने एक पांव को सामने फैला कर उसकी ठोड़ी को छुआ ।
बजाज ने दोनों हाथों से वो पांव पकड़ लिया, उसकी सैंडल उतारी और अंगूठा चूसने लगा ।
“ऐनफ ।” - थोड़ी देर बाद रीनी बोली, उसने दूसरे पांव की ठोकर से उसे धक्का दे दिया । उसने दूसरी सैंडल खुद उतारी और उठ कर खड़ी हो गयी ।
बजाज भी उठा ।
“गुलाम ! मलिका ने तुम्हें उठने की इजाजत कब दी ?”
“सॉरी । गुलाम को माफ कर दिया जाये ।”
“माफी नहीं मिलेगी । सजा मिलेगी ।”
“मुझे सजा मंजूर है ।”
“पलंग पर चलो । वाक करके नहीं । आन आल फोर्स ।”
चोपाये की तरह चलता बजाज पलंग पर पहुंच गया और उस पर चित्त लेट गया ।
रीनी ने साइड टेबल पर से एक लचकीली बैंत उठाई और उसके करीब पहुंची । उसने बैंत की नोक से बजाज की खुली टांगों के बीच टहोका और बोली - “अटेंशन !”
बजाज का अंग अंग फड़कने लगा, उसकी आंखें प्रत्याशा में चमकने लगीं ।
रीनी ने साइड टेबल पर पड़ा चमड़े का मास्क बैंत के सिरे से अटकाया और उसे बजाज की आंखों के आगे लहराया ।
वो मास्क ऐसा था जो सिर से ठोढी तक आता था । बजाज ने वो मास्क पहन लिया और उसका फीता कानों के पीछे कस लिया ।
“मलिका” - वो हांफता सा बोला - “अब जल्दी सजा दो ।”
“शटअप !”
पलंग के चारों कोनों में हथकड़ियों जैसे शिकंजे पैवस्त थे । रीनी ने बारी बारी उन चारों में उसके हाथ पांव पिरो दिये तो वो विशाल पलंग पर बना विशाल क्रास लगने लगा ।
उसने अपनी ब्रा और पैंटी उतारी और पलंग पर चढ गयी । कनखी आंखों से उसने बाल्कनी के दरवाजे के करीब की खिड़की के पर्दे की तरफ देखा जो अपनी जगह से थोड़ा सरका हुआ था और उसमें से कैमरे का वो लैंस झांक रहा था जो तीन सौ गज दूर तक वीडियो सिग्नल भेज सकता था ।
जबकि अली वली तो रिकार्डिंग इक्विपमेंट के साथ बाल्कनी में ही मौजूद थे ।
“जल्दी करो ।” - बजाज बोला ।
रीनी उसके ऊपर ढेर हो गयी ।
पांच मिनट वो सिलसिला चला ।
फिर रीनी ने उसे बंधनमुक्त कर दिया ।
तत्काल बजाज चाबी लगे खिलौने की तरह उछला और उलटकर रीनी पर सवार हो गया ।
रीनी ने जोर से उसके नितम्बों पर बैंत के लगातार तीन चार प्रहार किये ।
बजाज के मुंह से खुशी की किलकारी निकली ।
“शाबाश !” - वो बोला - “जोर से !”
रीनी ने उसकी पीठ पर बैंत जमाई ।
जितनी जोर से बैंत उसके जिस्म से टकराती थी, उतनी ही जोर से पछाड़ खाकर वो रीनी के ऊपर गिरता था ।
“और ! और ! और सजा दो मुझे !”
रीनी का बैंत वाला हाथ फिर चला ।
एकाएक बजाज ने चेहरे से मास्क उतार फेंका और अपना मुंह उसकी छातियों में धंसा दिया ।
“गुलाम !” - रीनी चिल्लाई - “अभिसार के दौरान मलिका की सूरत देखना जुर्म है ।”
“उसकी भी सजा दो ।”
आधा घन्टा और वो सिलसिला चला ।
आखिरकार जब वो रीनी पर से उठा तो बैंत की मार खा खाकर उसकी सारी पीठ और नितम्ब यूं लाल सुर्ख हो चुके थे कि बस खुन चुहचुहा आने की कसर बाकी रह गयी थी ।
वो हांफता हुआ पलंग पर टांगे नीचे लटका कर बैठ गया और फिर पहली बार अपनी स्वाभाविक आवाज में बोला - “मजा आ गया । थैंक्यू, हनी । थैंक्यू वैरी मच ।”
“यू आर वैलकम, डार्लिंग ।” - जवाब में रीनी भी मलिका का रोल त्याग कर नार्मल आवाज में बोली ।
“थैंक्यू बोथ ऑफ यू ।” - एक दूसरे को टहोकते बाहर बाल्कनी में अली वली बोले ।
***
विमल, शोहाब, इरफान और परचुरे विंस्टन प्वायंट के पिछवाड़े के, सपाट दीवार की तरह आसमान की तरफ मुंह उठाये खड़े, पहलू की जड़ में मौजूद थे ।
चारों ने टाइट काली पोशाकें और रबड़ सोल के जूते पहने हुए थे ।
उनके सिर के ऐन ऊपर बंगले की बन्द खिड़की थी जिसका फासला - विमल के अन्दाजे से - डेढ-पौने सौ फुट से किसी कदर कम नहीं था ।
अब उन्हें खिड़की से नीचे रस्सी लटकाये जाने का इन्तजार था ।
आसमान में काले बादल छाये हुए थे जिनकी वजह से वातावरण में घुप्प अन्धेरा था ।
जो कि उनके लिये अच्छी बात थी ।
एकाएक बिजली चमकी ।
“बारिश होगी ।” - इरफान धीरे से बोला ।
“मौसम तो नहीं है ।” - विमल बोला ।
“प्री मानसून मौसम है ।” - शोहाब बोला - “असल में मौसम शुरू होने से पहले दो तीन भारी प्री मानसून बौछारें इन्हीं दिनों हमेशा पड़ती हैं ।”
“आई सी ।”
“बादल तो ठीक हैं लेकिन बारिश तो न ही हो तो अच्छा है ।”
“क्यों ?”
“दीवार गीली, रस्सी गीली, फिसलने का अन्देशा होगा ।”
“देखा जायेगा ।”
“खिड़की खुलेगी ?” - इरफान बोला ।
“क्यों नहीं खुलेगी ? जब परदेसी ने बोला है तो....”
“ऐन वक्त पर सौ अड़ंगें खड़े हो जाते हैं ।”
“जो होना होगा, सामने आ जायेगा ।”
शोहाब ने अपनी रेडियम डायल वाली कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
“अभी टाइम है ।” - वो बोला - “ग्यारह नहीं बजे अभी । दो मिनट बाकी हैं ।”
“सुना ?” - विमल बोला ।
इरफान खामोश रहा ।
सस्पेंस सब पर हावी था लेकिन सबसे ज्यादा सस्पेंस का अनुभव उसे ही हो रहा था ।
उनके साथ विक्टर, मतकरी, पिचड़ और बुझेकर भी पहुंचे थे लेकिन वो पगडण्डी के दूसरे सिरे पर खड़ी मिनी बस में मौजूद थे और उधर से कोई खतरा महसूस होने पर उन्हें खबरदार कर सकते थे ।
परदेसी उन्हें पहले ही खबर कर चुका था कि वो बन्द खिड़की एक बाथरूम की थी जो ‘भाई’ के बैडरूम के पहलू में था । बंगला बहुत पुराने जमाने का बना हुआ था इसलिये बैडरूम और बाथरूम को आपस में जोड़ने वाला कोई दरवाजा उनके बीच में नहीं था, बैडरूम से बाथरूम में पहुंचने के लिये बाहर राहदारी में कदम रखना पड़ता था ।
खिड़की खुली ।
तभी बिजली चमकी ।
एक क्षण को उन्हें खिड़की से बाहर झांकता परदेसी का चेहरा दिखाई दिया और फिर पूर्ववत् अन्धकार छा गया ।
सब की आशापूर्ण निगाहें ऊपर अन्धेरे में टिकी रहीं ।
दीवार के साथ कोई चीज घिसट रही थी ।
रस्सी !
वे सांस रोके प्रतीक्षा करते रहे ।
रस्सी का एक सिर ऐन उनकी आंखों के सामने लहराया ।
विमल ने रस्सी थाम ली और उसको झटके देकर उसकी मजबूती की तसदीक की ।
“बाप, मेरे को फिक्र ।” - इरफान फुसफुसाया ।
“किस बात की ?” - विमल बोला ।
“धोखा हो सकता है ।”
“किससे ?”
“परदेसी से और किससे ?”
“क्या करेगा वो ?”
“तू आधे रास्ते में होगा, तीन चौथाई रास्ते में होगा, वो रस्सी खोल देगा । फिर सोच क्या होगा !”
“वो ऐसा क्यों करेगा ?”
“क्योंकि वो ‘भाई’ के कैम्प का आदमी है ।”
“गलत । अब वो हमारे कैम्प का आदमी है ।”
“दुश्मन के मिजाज का क्या पता चलता है, बाप ! क्या पता वो भी कोई चाल...”
“इरफान, ये कोई टाइम है ऐसी बातें कहने का ?”
“पण...”
“होते काम में न वहम डालना चाहिये, न विघ्न डालना चाहिये ।”
“बाप जो मेरे में था मैं बोल दिया ।”
“अच्छा किया । अब चुप कर ।”
“रस्सी मुझे चढने दे ।”
“क्या ?”
“जो काम तू कर सकता है, वो मैं भी तो कर सकता हूं ।”
“जरूर कर सकता है, मेरे से बेहतर कर सकता है, लेकिन ये काम मैंने करना है ।”
“मेरे करने में क्या वान्दा है ?”
“वान्दा तेरे को मालूम है । अब तो और भी वान्दा है ।”
“क्या बोला ?”
“तूने मुझे वहम में डाल दिया है कि परदेसी धोखा दे सकता है । अब जरूरी है कि उसके धोखे की वजह से जो होना है, मेरे साथ हो ।”
“क्यों तेरे साथ हो ? मैं किसलिये है ?”
“शोहाब, इसे चुप करा ।”
“कह तो ये ठीक रहा है लेकिन... इरफान चुप कर ।”
इरफान ने होंठ भींच लिये ।
विमल ने रस्सी को एक बार फिर आजमाया ।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह ! तू मेरा राखा सबनी थांही ।
वो फुर्ती से रस्सी चढने लगा ।
वो आधे रास्ते में था कि बून्दाबान्दी होने लगी ।
दशमेश पिता ! अंग संग रहना ।
वो चौखट तक पहुंचा ।
उसने देखा कि चौखट में एक मजबूत हुक ठुका हुआ था जिसके साथ कि रस्सी बन्धी हुई थी ।
पता नहीं वो हुक पहले से चौखट में मौजूद था या परदेसी ने खास रस्सी बांधने के लिये ठोका था ।
भीतर हल्की सी रोशनी थी जिसमें एक साये ने खिड़की के करीब पहुंच कर बाहर झांका ।
विमल की परदेसी से निगाह मिली ।
उसने रस्सी पर से एक हाथ हटाया और उसे चौखट की तरफ बढाया ।
तभी एकाएक परदेसी पीछे हटा और उसने खिड़की बन्द कर दी ।
दाता ! क्या इरफान की ही बात सच होने वाली थी ! क्या परदेसी अपने कुनबे की परवाह छोड़ कर दगा करने जा रहा था !
क्या करे वो ?
जैसी फुर्ती से ऊपर चढा था, वैसी ही फुर्ती से नीचे उतर चले ?
कुछ तो करना जरूरी था । अपनी मौजूदा हालत को ज्यादा देर तो बरकरार वो रख नहीं सकता था । ऊपर से बून्दाबान्दी अब बारिश में तब्दील होती जा रही थी ।
“इधर क्या कर रहा है, परदेसी ?” - उसे एक मद्धम सी आवाज सुनायी दी ।
“कुछ नहीं ।” - परदेसी की वैसी ही मद्धम आवाज आयी - “धार मारने आया था । कश लगाने रुक गया । ले, सिगरेट पी ।”
“ला ।”
खामोशी छा गयी ।
रस्सी पर लटके विमल की हालत खस्ता होने लगी ।
क्या करे वो ?
नीचे उतर चले ?
नहीं । बारिश में दोबारा इतना फासला चढना मुहाल था ।
दाता !
खिड़की थोड़ी सी खुली ।
फिर एक दरवाजा बन्द होने की आवाज आयी ।
विमल ने हाथ बढा कर खिड़की के एक पल्ले को धक्का दिया तो वो निशब्द खुल गया । उसने सावधानी से भीतर झांका ।
वो एक आम कमरे के साइज का बाथरूम था जो कि उस घड़ी खाली था । उसमें एक ओर शावर बाथ था जिसके आगे प्लास्टिक का मोटा पर्दा लटका हुआ था, दूसरी ओर कमोड और वाशबेसिन था । वाशबेसिन के करीब एक कैबिनेट थी जिसका दरवाजा बन्द था ।
वो खिड़की की चौखट पर चढ़ गया और निशब्द भीतर कूद गया । अपने पीछे उसने खिड़की को बन्द कर दिया ।
पानी की बौछार का भीतर बाथरूम में पड़ना मुनासिब नहीं था । वो बौछार ही खिड़की खोली गयी होने की चुगली कर सकती थी ।
वो दरवाजे पर पहुंचा, उसने उसके हैंडल को खींचा तो पाया कि वो बाहर से बन्द था ।
दरवाजे पर ठिठका खड़ा वो प्रतीक्षा करने लगा ।
कोई पन्द्रह मिनट बाद बाहर करीब आते कदमों की आहट हुई ।
वो तत्काल दरवाजे पर से हटा और शावर के पर्दे के पीछे जा छुपा । रिवॉल्वर निकाल कर उसने अपने हाथ में ले ली और सांस रोके प्रतीक्षा करने लगा ।
दरवाजा खुला । किसी ने भीतर कदम रखा ।
विमल ने पर्दे में एक झिरी बना कर सावधानी से बाहर झांका ।
बाहर परदेसी खड़ा था और उधर ही बढ रहा था ।
दोनों की निगाहें मिलीं ।
परदेसी पर्दे के करीब आकर ठिठका ।
“पंगा पड़ गया है ?” - वो दबे स्वर में बोला ।
“क्या ?” - विमल ने सशंक भाव से पूछा ।
“आज वो ड्राईंगरूम से हिलता नहीं जान पड़ रहा । बरसात ने मूड रंगीन कर दिया है उसका । उधर ही बोतल खोल के बैठ गया । अब विडियो देख रहा है और घूंट लगा रहा है । पता नहीं कब वहां से उठेगा और बैडरूम में जायेगा ।”
“बैडरूम में जाये बिना इधर नहीं आयेगा ?”
“कैसे आयेगा ?”
“हाजत लगेगी तो कहां जायेगा ?”
“उधर ड्राईंगरूम के बाजू में भी एक बाथरूम है ।”
“ड्राईंगरूम में जाने में क्या वान्दा है ?”
“बहुत वान्दा है । ड्राईंगरूम दूर है यहां से और चार गार्ड हैं रास्ते में । अभी जब मैंने तुम्हारे मुंह पर खिड़की बन्द की थी तो एक इधर आ गया था । शुक्र है खुदा का कि उसके भीतर कदम रखने से पहले मैं खिड़की बन्द कर चुका था ।”
“फिर कैसे बीतेगी ?”
“यही सोच रहा हूं ।”
“मैंने इधर ज्यादा देर लगायी तो मेरे साथी सोच बैठेंगे कि मैं पकड़ा गया । फिर मुझे छुड़ाने के लिये जरूर वो कोई खुदकुशी जैसा कदम उठा बैठेंगे ।”
“ऐसा तो नहीं होना चाहिये ।”
“हरगिज नहीं होना चाहिये ।”
“कोई जुगत करनी होगी ।”
“क्या ?”
“ऐसा कुछ करना होगा कि वो बैडरूम में आये ।”
“क्या ?”
“मोबाइल है ?”
“हां ।”
“इंटरनेशनल सिम कार्ड वाला ?”
“हां ।”
“बैडरूम में फोन है । नम्बर याद कर लो ।”
विमल ने किया ।
“मेरे जाने के दो मिनट बाद उस पर घन्टी बजाना ।”
“तो क्या होगा ?”
“वो उठ कर फोन सुनने आयेगा ।”
“न आया तो ?”
“तो मुझे भेजेगा ।”
“तुझे क्यों ?”
“क्योंकि उस वक्त उसके करीब मैं ही होऊंगा । जिसे सामने पायेगा, उसी को तो हुक्म देगा कि जा के फोन सुन के आये ।”
“ठीक । तू ड्राईंगरूम को बैडरूम से बहुत दूर बता रहा है, वहां तक बजते फोन की घन्टी की आवाज पहुंच जायेगी ?”
“उम्मीद है कि रात की खामोशी में पहुंच जायेगी ।”
“बिजली कड़क रही है । बादल गरज रहे हैं ।”
“घन्टी लगातार बज रही होगी । बिजली लगातार नहीं कड़कती । बादल लगातार नहीं गरजते ।”
“ठीक ।”
“फिर भी ड्राईंगरूम तक आवाज नहीं पहुंचेगी तो कारीडोर में गार्ड हैं, कोई तो सुनेगा । वो आ के बोल देगा कि बैडरूम में फोन की घन्टी बज रही थी ।”
“खुद ही नहीं उठा लेगा ?”
“उसकी मजाल नहीं हो सकती ‘भाई’ के बैडरूम में दाखिल होने की ।”
“ओह !”
“बहरहाल मैं कह रहा था कि फोन सुनने के लिये खुद उठ कर आने का उसका मूड न हुआ तो मुझे भेजेगा तो मैं जा के बोल दूंगा कि सिंगापुर से फोन था ।”
“किसका ?”
“रीकियो फिगुएरा का ।”
“तू तो बहुत कुछ जानता है !”
“वो दौड़ा आयेगा ।”
“फिर ?”
“वो आकर फोन उठायेगा, तुम खामोश रहोगे । वो प्लंजर बजायेगा तो डायल टोन नहीं आयेगी । वो यही समझेगा कि बरसात की वजह से लाइन खराब हो गयी थी । ऐसा इधर अक्सर हो जाता है ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? वो लाइन ठीक होने पर उसी फोन के फिर बजने का या मोबाइल बजने का इन्तजार करेगा ।”
“वो ये नहीं सोचेगा कि कॉल पहले ही मोबाइल पर क्यों न आयी ?”
“‘भाई’ मोबाइल आन रखना आम भूल जाता है । सब को मालूम है । वो यही समझेगा कि मोबाइल अनजाने में ऑफ हो गया था ।”
“लाइन कटने पर वो खुद भी तो फिगुएरा को फोन लगा सकता है ?”
“बाप, दो बातों को घिच पिच कर रहे हो । वो खुद आ कर उठायेगा तो उसे नहीं मालूम होगा कि फोन करने वाला कौन था ? मेरे को भेजेगा तो मैं जाकर उसे बोलूंगा कि फोन फिगुएरा का था । तुम दुआ करो कि फोन उठाने वो खुद आये ।”
“करूंगा ।”
“फोन मुझे सुनना पड़ा तो भी मुझे उम्मीद नहीं कि बात न होने पर वो वापिस फिगुएरा को फोन लगा देगा । आधी रात होने को है, मुझे उम्मीद नहीं इस वक्त फिगुएरा का मोबाइल बजाने की उसकी मजाल होगी । वो यकीनन दूसरी ओर से ही कॉल दोबारा आने का इन्तजार करेगा ।”
“हूं ! लेकिन बात क्या बनी ? तू बाहर चार गार्ड बताता है, यहां से निकल कर ‘भाई’ के बैडरूम के दरवाजे पर पहुंचने में तो मेरा काम हो जायेगा ।”
“वो यहां पहुंचेगा ।”
“अच्छा !”
“हां । ‘भाई’ के गुर्दे कमजोर जान पड़ते हैं, विस्की पीने बैठता है तो टायलेट बहुत जाता है । वो बगल में बैडरूम में आयेगा तो इस बात पूरी पूरी उम्मीद है कि वो यहां आकर ही वापिस ड्राईंगरूम में जायेगा ।”
“अकेला ?”
“और क्या गार्ड को साथ लायेगा जिप खींचने के लिये ?”
“हूं ।”
“ये उसका बहुत सेफ ठीया है, बाप । यहां किसी गैर आदमी की मौजूदगी की वो सपने में उम्मीद नहीं कर सकता ।”
“हूं । ठीक है, आजमाते हैं ।”
वो चला गया ।
दरवाजा फिर बाहर से बन्द हो गया ।
दो मिनट बाद विमल ने मोबाइल पर बताया गया नम्बर लगाया ।
कुछ क्षण बाद बाहर एक जोड़ी कदमों की आवाज हुई ।
विमल मोबाइल कान से लगाये स्तब्ध खड़ा रहा ।
“हल्लो !” - उसके कान में ‘भाई’ की आवाज पड़ी ।
विमल ने सांस रोक ली ।
दो तीन बार और ‘हल्लो हल्लो’ हुई फिर रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखे जाने की आवाज हुई ।
विमल मोबाइल फिर भी कान से लगाये रहा ।
कहीं एक दरवाजा चौखट से टकराया ।
हौले से बादल गरजे ।
कोई बाथरूम के दरवाजे के बाहर पहुंचा ।
विमल ने मोबाइल जेब के हवाले किया और रिवॉल्वर पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली ।
दरवाजा खुला ।
‘भाई’ ने भीतर कदम रखा । वो कमोड के पास पहुंचा और उसका ढक्कन उठा कर उसमें पेशाब करने लगा ।
विमल ने निशब्द पर्दे के पीछे से बाहर कदम रखा और उसकी पीठ पीछे दरवाजे पर पहुंचा । तब तक ‘भाई’ को अपने पीछे किसी की मौजूदगी का आभास नहीं हुआ था लेकिन जब उसने दरवाजे की चिटकनी चढाई तो उसने घूम कर पीछे देखा ।
विमल ने उसकी तरफ रिवॉल्वर तान दी ।
“आवाज न निकाले ।” - वो दबे स्वर में बोला ।
“क... कौन ?”
“फैंटम । दि घोस्ट हू वाक्स ।”
“सोहल !”
“कारोबार से निपट चुका हो तो जिप बन्द कर और अबाउट टर्न कर ।”
उसने आदेश का पालन किया ।
“भाई !” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “दुबई का भाई !”
“य... यहां... यहां कैसे पहुंच गया ?”
बाहर बादल गरजे ।
“भाई दोतरफा रिश्ता होता है । तू किसी का भाई है तो कोई तेरा भाई होगा । अब बुला किसी भाई को जो तुझे आ के बचाये ।”
वो खामोश रहा ।
“कनपटी ठीक हो गयी ?”
‘भाई’ का हाथ अपने आप अपनी दायीं कनपटी पर पहुंचा जहां कि दिल्ली में उसने गम्भीर चोट खायी थी ।
“लगता है मुकम्मल तौर से न हुई वरना सहला न रहा होता । मैं अभी मुकम्मल तौर से ठीक करता हूं ।”
“क... क्या ?”
“अभी तेरे तमाम दुख तकलीफ दूर होते हैं भाई ।”
विमल ने नाल उसकी खोपड़ी की तरफ तानी ।
‘भाई’ एकाएक गला फाड़ कर चिल्लाया ।
एक फायर हुआ ।
जोर से बिजली कड़की ।
सब कुछ यूं पलक झपकते हुआ कि तीनों आवाजें आपस में गड्डमड्ड हो के रह गयीं ।
“ये कैसी आवाज थी ?” - कोई बाहर गलियारे में बोला ।
“बिजली कड़की थी ।” - परदेसी की आवाज आयी ।
“मुझे तो ऐसे लगा था जैसे कोई जोर से चिल्लाया हो ।”
“तुम्हारे कान बजे होंगे ।”
“मुझे कोई चिल्लाया साफ सुनायी दिया था ।”
“कहां ?”
“बाथरूम में । वहां... बॉस है ।”
“मेरे को मालूम है । बॉस भला क्यों चिल्लायेगा ! तुम तो खामखाह....”
“बाजू हटो ।”
दरवाजा बाहर से भड़भड़ाया जाने लगा ।
विमल ने तसदीक की कि ‘भाई’ मर चुका था, फिर उसने रिवॉल्वर वापिस जेब में रखी, खिड़की खोली और चौखट पर चढ गया ।
दरवाजा बदस्तूर भड़भड़ाया जा रहा था ।
उसने रस्सी थामी और बाहर लटक गया ।
तेज बारिश की बौछार उसके जिस्म से टकराई ।
मजबूती से रस्सी थामे वो नीचे उतरने लगा ।
बिजली चमकी ।
क्षण भर को सारी सपाट दीवार रोशनी में नहा गयी और फिर पूर्ववत् अन्धेरा छा गया ।
गीली रस्सी पर से उसके हाथ फिसल फिसल जा रहे थे इसलिये वो चढने की रफ्तार से ज्यादा धीमी रफ्तार से नीचे उतर रहा था
अभी उसने आधा रास्ता ही पार किया था कि ऊपर दरवाजा टूट कर गिरने की भीषण आवाज हुई ।
गिरने की परवाह किये बिना वो तेजी से नीचे सरकने लगा ।
ऊपर खिड़की पर एक साया प्रकट हुआ ।
टार्च की रोशनी चमकी जिसका गोल दायरा ऐन उसके ऊपर पड़ा ।
दाता ! दाता !
वो और तेजी से नीचे सरकने लगा ।
एक फायर हुआ ।
गोली उसके करीब से गुजरी ।
किसी ने ऊपर रस्सी को पकड़ कर जोर से झिंझोड़ा ।
रस्सी उसकी गिरफ्त से निकलते निकलते बची ।
कोई रस्सी को वापिस खींचने लगा ।
वो और... और तेजी से नीचे सरकने लगा । फिर उसके वजन से तनी हुई रस्सी एकाएक ढीली पड़ गयी ।
किसी ने रस्सी काट दी थी या उसे हुक पर से खोल दिया था ।
वो वेग से नीचे को गिरा ।
और तीन जोड़ी लपकने को तैयार हाथों में जाकर गिरा ।
***
परदेसी खामोशी से बंगले के सामने खड़ी उस कार में सवार हुआ जिसे ड्राईव करता वो मुम्बई से वहां पहुंचा था । उसने कार की हैंडब्रेक हटाई तो ढलान पर खड़ी होने की वजह से वो अपने आप ही आगे लुढकने लगी । उसने कार का रुख वहां से लौटने वाली सड़क पर डालने की जगह उस सड़क की तरफ कर दिया जो कि वहां पहुंचने के लिये प्रयुक्त होती थी ।
कार काफी आगे निकल आयी तो उसने उसका इग्नीशन आन किया और उसे गियर में डाला । फिर उसने अन्धाधुन्ध कार आगे दौड़ाई ।
उस घड़ी दूसरी तरफ से कोई कार आती नहीं हो सकती थी इसलिये उसे एक्सीडेंट का अन्देशा नहीं था ।
पहाड़ी से नीचे पहुंच कर उसने कार को वाच बॉक्स के करीब रोका और हौले से हॉर्न बजाया ।
चिरकुट वाच बॉक्स से बाहर निकला और कार के करीब पहुंचा ।
कार में परदेसी को सवार देख कर उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये ।
परदेसी ने उसकी पीठ पीछे वाच बॉक्स के भीतर निगाह डाली ।
भीतर खिड़की के सामने की कुर्सी पर उसे गार्ड दिखाई दिया लेकिन वो मेज पर सिर डाले सोया पड़ा था ।
“क्या बात है ?” - चिरकुट बोला - “इतनी रात गये कहां...”
“‘भाई’ का कत्ल हो गया है ।” - परदेसी उसकी बात काट कर दबे स्वर में बोला ।
“क्या ?” - चिरकुट बुरी तरह से चौंका ।
“धीरे । धीरे । गार्ड जाग जायेगा ।”
“कैसे हुआ ? किसने किया ?”
“लम्बी कहानी है ।”
“इतना तो बता कि कातिल अपनों में ही था या...”
“बाहर से आया ।”
“कैसे ? उड़ कर ?”
“बोला न, लम्बी कहानी है ।”
“कब हुआ ?”
“अभी दस मिनट पहले ।”
“कत्ल ही हुआ न ? हार्ट अटैक तो.....”
“माथे में गोली लगने से हार्ट अटैक होता है ?”
“ओह ! अब तू.....”
“मैं फूट रहा हूं ।”
“क्यों ?”
“एक गार्ड ने दफेदार को फोन कर दिया है । वो आता ही होगा । आकर बहुत कहर ढायेगा ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि कत्ल कातिल से किसी अन्दर वाले की मिलीभगत का नतीजा जान पड़ता है ।”
“कोई अन्दर वाला ?”
“कोई गार्ड । कोई नौकर चाकर । कोई भी ।”
“तू तो नहीं, परदेसी ?”
“पागल हुआ है ।”
“तो फिर भागा क्यों जा रहा है ?”
“कत्ल का मामला है । पुलिस आयेगी । कातिल बाहर से आया, इस बात पर उन्हें यकीन न आया तो सब गिरफ्तार हो जायेंगे ।”
“दफेदार ऐसा होने देगा ?”
“मैं सब बोला ।”
“ओह ! ओह !”
“अब तू बोल । यहीं रुकेगा या मेरे साथ चलेगा ?”
“साथ चलूंगा ।” - वो निस्संकोच बोला - “‘भाई’ मर गया तो अब इधर क्या रखा है ?”
“दीमाक से सोचा । पुलिस का पंगा । दफेदार का पंगा । कौन मांगता है ?”
“ठीक ।”
“फाटक खोल ।”
चिरकुट वापिस वाच बॉक्स में घुस गया और फाटक के ताले की चाबी के साथ वापिस लौटा । उसने खामोशी से ताला खोला और चाबी उसी में लगी रहने दी । उसने फाटक को धकेल कर खोला ।
परदेसी ने कार फाटक से पार निकाल कर खड़ी की ।
“चिरकुट ! किधर जाता है ?”
“जल्दी ।” - परदेसी फुसफुसाया - “गार्ड जाग गया ।”
चिरकुट कार की पैसेंजर सीट पर सवार हो गया ।
गार्ड वाच बॉक्स से बाहर निकला ।
“गाड़ी में कौन है ?” - वो चिल्लाया ।
परदेसी ने कार को गियर में डाला और एक्सीलेटर दिया ।
“रुको ! वरना गोली चलाता है ।”
कार तोप से छूटे गोले की तरह मेन रोड पर भागी ।
***
शनिवार : सत्ताईस मई : दिल्ली मुम्बई
सुबह सवेरे झामनरनी ने ‘भाई’ के मोबाइल पर फोन लगाया ।
पिछला दिन और रात उसने भारी सस्पेंस में काटा था । हर घड़ी उसे एक अनजाना, अनचाहा भय सताता रहा था । हर घड़ी उसे लगता रहा था कि झूलेलाल की मेहर की छतरी उसके सिर पर से कब की हट चुकी थी । हर घड़ी उसे लगता रहा था कि वहां सुरक्षित नहीं था ।
वहां क्या, जब तक सोहल जिन्दा था, वो कहीं सुरक्षित नहीं था ।
सोहल की बाबत ‘भाई’ से कोई तसल्ली हासिल करने के लिये ही उसने सुबह सवेरे ‘भाई’ को फोन लगाया था ।
क्या पता उसे ये गुड न्यूज सुनने को मिलती कि सोहल की लाश गिराई जा चुकी थी ।
दूसरी ओर से जवाब मिला ।
अजनबी आवाज में ।
“कौन बोलता है ?” - कोई कर्कश स्वर में बोला ।
“वडी मैं झामनानी बोलता हूं नी दिल्ली से ।” - वो बोला - “‘भाई’ के मोबाइल पर तू कौन बोलता है नी ?”
“इनायत दफेदार ।”
“‘भाई’ का खास ही होगा नी जो उसका फोन तेरे कब्जे में है ।”
“खास ही हूं ।”
“अब ‘भाई’ से बात करा ।”
“‘भाई’ अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“वडी क्या बोला नी ?”
“‘भाई’ का कल रात कत्ल हो गय है ।”
झामनानी के हाथ से मोबाइल छूटते छूटते बचा ।
“‘भाई’ का !” - वो हौलनाक लहजे में बोला - “वडी झूठ तो नहीं बोल रहा नी ?”
“नहीं ।”
“कैसे हुआ ? किसने किया ?”
“सोहल का ही कारनामा जान पड़ता है ।”
झामनानी को अपने दिल की धड़कन रुकती महसूस हुई ।
‘भाई’ का कत्ल हो गया था और वो सोहल का कारनामा जान पड़ता था ।
“हल्लो !”
झामनानी ने हौले से फोन बन्द कर दिया ।
कितनी ही देर वो मुंह बाये शून्य में झांकता रहा ।
‘भाई’ का कत्ल !
सोहल का कारनामा !
वही चन्द अलफाज उसके खून के साथ उसकी कनपटियों में बजते रहे, उसके सुन्न होते जा रहे जेहन पर दस्तक देते रहे ।
जिस कर्मांमारे ने ‘भाई’ की लाश गिराने करतब कर दिखाया, उसके सामने वो किधर से सेफ था !
नहीं सेफ था ।
अब सोहल से ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाने में ही उसकी भलाई थी ।
वहां से कार से चण्डीगढ, चण्डीगढ से प्लेन से पटना, वहां से काठमाण्डू - या ऐसी कोई फ्लाइट हो तो चण्डीगढ से सीधे काठमाण्डू । फिर वहां से लन्दन जहां का उसका वीसा पहले से लगा हुआ था ।
शाम को उसकी दिल्ली में एक स्पेशल अप्वायन्टमेंट थी जिससे निपट कर वो वहीं से फौरन चण्डीगढ के लिये रवाना हो सकता था ।
उस बीच वो अपना पासपोर्ट और जरूरी साजोसामान कलैक्ट कर सकता था । भागचन्द उस काम में उसकी बाखूबी मदद कर सकता था ।
अब वो उस घड़ी का मातम मना रहा था जबकि लाचार, निहत्था सोहल फार्म में उनके सामने खड़ा था और वो उसकी इज्जत को धूल में मिला कर सुख पा रहा था ।
सरदार साईं ठीक कहता था, देखते ही गोली मार देनी चाहिये थी ।
वाकई वो काल पर फतह पाया मानस था ।
हर जाल तोड़ लेता था ।
हर बाधा पार कर लेता था ।
मौत उसकी तरफ बढती थी तो रास्ता बदल लेती थी ।
ऐसे साईं की पगड़ी उतार कर उसने अपने पैरों तले रौंदी ।
झूलेलाल !
कितना बड़ा पंगा ले बैठा वो अनजाने में !
दो बार माफी पायी फिर भी अक्ल न की । चड़या ही रहा ।
अब और माफी नहीं मिलने वाली थी ।
अब एक ही रास्ता था उसके सामने ।
वो रास्ता, उसी शाम को जिस पर कदम रखने का अब उसका दृढ निश्चय था ।
सोहल से उसे ज्यादा से ज्यादा दूर ले जाने वाला रास्ता ।
***
सुबह सवेरे ही परदेसी विमल के सामने पेश हुआ ।
“भाग क्यों आया ?” - विमल हैरानी से बोला ।
परदेसी ने वजह बताई ।
“तू मूर्ख है ।” - विमल अप्रसन्न भाव से बोला - “गार्डों को मिला कर दर्जन से ज्यादा लोग तू उधर मौजूद बताता है । कातिल का मददगार होने का शक खास तेरे पर ही क्यों किया जाता ।”
“उधर सब ‘भाई’ के भरोसे के आदमी हैं ।”
“तो क्या हुआ ? तू भी तो ‘भाई’ के भरोसे का आदमी है । तभी तो उसने खास तुझे उधर तलब किया था ।”
“लेकिन मैं तभी वहां पहुंचा था । बाकी सब पहले से उधर थे । ऊपर से मेरी उम्मीद के खिलाफ दफेदार फौरन उधर पहुंच रहा था, वो मेरे पर ही शक करता ।”
“खामखयाली है तेरी । वो सब पर शक करता ।”
“बाप, इधर सब के तार तो नहीं जुड़े हुए । इधर तो सिर्फ मेरे तार जुड़े हुए हैं ।”
“क्या मतलब ?”
“हैदर अभी भी इधर है । तुम्हेरे कब्जे में ।”
“किसी को कभी पता नहीं चल सकता था कि हमारे बीच क्या खिचड़ी पकी थी !”
“क्या पता चलता है, बाप !”
“फिर भी तूने जल्दबाजी से काम लिया । तू दफेदार का खास है जैसे दफेदार ‘भाई’ का खास था । दफेदार तेरे पर कभी शक न करता ।”
“बोला न, बाप । क्या पता चलता है !”
“खैर, जो हुआ सो हुआ । उधर सब की समझ में आ गया था कि कातिल को भीतर से मदद हासिल हुई थी ?”
“उसमें क्या वान्दा था ? अन्धे को दिखाई देता था कि कोई खिड़की भीतर से खोला । कोई चौखट में हुक ठोका । कोई हुक में रस्सी बांध के नीचे लटकाया ।”
“हूं ।”
“सब बखेड़ा गार्डों के उतावले हो उठने की वजह से हुआ । मुझे दो मिनट का भी टेम मिल जाता तो मैं रस्सी खोल देता, हुक निकाल देता और खिड़की को मजबूती से भीतर से बन्द कर देता । उधर से तुम्हेरे ऊपर चढने के या और लोगों के नीचे मौजूद होने के निशान तो कल की तेज बारिश ने धो ही डाले थे । कभी पता न चलता कि कातिल किधर से पहुंचा था । तब यहीच जान पड़ता कि बंगले के स्टाफ में से ही कोई कातिल था । तब मेरे पर भी शक किये जाने का मुझे कोई अन्देशा न होता । तब तो स्टाफ में से कातिल छांटने में मैं दफेदार का लेफ्टीनेंट और मददगार बना हुआ होता ।”
“मेरा अभी भी खयाल है कि उधर से निकल आने में तूने जल्दबाजी से काम लिया । तू वहीं मौजूद रहता तो हमें दफेदार का रवैया मालूम हो पाता जो कि तेरे लिये भी मुफीद होता ।”
“वो कैसे ?”
“मैं नहीं जानता कि दफेदार कितना कड़क मवाली है । मैं नहीं जानता कि उसमें ‘भाई’ की जगह लेने की खूबियां हैं या नहीं । ‘भाई’ के कत्ल के बाद वो झाग की तरह बैठ जाता है, तब तो कोई बात ही नहीं है लेकिन अगर वो ‘भाई’ की जगह लेने की या कम से कम ‘भाई’ जैसा बनने की कोशिश करता है तो, परदेसी, तेरी खैर नहीं ।”
परदेसी हकबकाया ।
“तेरी खैर नहीं क्योंकि तू ही वहां से फरार हुआ । अब दफेदार को किसी से ये पूछने जाने की जरूरत नहीं है कि कौन कातिल का अन्दरूनी मददगार था ।”
“मेरे उधर से चले आने की और भी तो वजह है ?”
“और क्या वजह है ?”
“उधर पुलिस पहुंची होगी तो पंगा नहीं हुआ होगा ?”
“इसके दो जवाब हैं । एक ये कि पंगा क्या तेरे अकेले के लिये होता ? पुलिस तेरे साथ वो ही सलूक तो करती जो बाकी लोगों के साथ करती ? उन्हें तेरे बारे में कुछ अलग से, कुछ स्पैशल तो न मालूम होता ?”
परदेसी ने जोर से थूक निगली और अपने होंठों पर जुबान फेरी ।
“दूसरा जवाब ?” - वो बोला ।
“उधर पुलिस पहुंची होने की क्या गारन्टी है ?”
“क्या बोला, बाप ?”
“समझ । दफेदार क्या ‘भाई’ के कत्ल की एफ.आई.आर. दर्ज कराता ? वो मेरे से कहीं ज्यादा खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम है जिसके बारे में पुलिस को एतबार है कि वो दुबई या कराची में बसा हुआ है । ऐसे शख्स की विंस्टन प्वायंट पर मौजूदगी की, लगातार मौजूदगी की, खबर पुलिस को लगना दफेदार क्यों कर अफोर्ड कर सकता है ? फिर भी करता तो कातिल होने के शक में या कातिल का मददगार होने के शक में तो कोई गिरफ्तार होता या न होता, एक खतरनाक क्रिमिनल को छुपा कर रखने के, पनाह देने के, इलजाम में सब के सब गिरफ्तार होते । दफेदार भी । कहने का मतलब ये है कि अगर दफेदार को अक्ल होगी तो वो ‘भाई’ के कत्ल की - और यूं हिन्दोस्तान में उसकी मौजूदगी की - पुलिस को भनक नहीं लगने देगा ।”
“लाश ! लाश का क्या होगा ?”
“कहीं चुपचाप दफना दी जायेगी । रोज इतने लोग मरते हैं और दफनाये जाते हैं, एक और सही ।”
“ओह !”
“दफेदार आगे चाहे कड़क रुख अपनाये, चाहे झाग बन के बैठ जाये, तेरी भलाई अब इसी में है कि आइन्दा कुछ अरसा तू किसी को ढूंढे न मिले ।”
“हैदर ?”
“हैदर को तेरे वाले खतरे के अन्देशे नहीं है । ‘भाई’ का काम हो गया इसलिये अब उसको थामे रखना हमारे लिये जरूरी नहीं । वो तो आजाद होकर शाबाशी और ईनाम का तमन्नाई बना दफेदार के पास पहुंच सकता है । उसने अपने हिस्से का काम बाखूबी किया है, दफेदार को - या ‘भाई’ जिन्दा होता तो उसको - उससे कोई शिकायत होने की कोई वजह नहीं ।”
“हूं ।”
“वैसे भी उसका दफेदार से जुड़ा रहना तेरे लिये मुफीद होगा । तुझे खबर लगती रहेगी कि दफेदार का तेरी बाबत क्या रवैया है ।”
“उसे पता लग गया कि हैदर मेरा भाई है तो ?”
“अभी पता नहीं है ?”
“नहीं ।”
“तो अब कैसे पता लग जायेगा ? इधर से तो पता लगने से रहा ।”
“मैं यहीच सुनना चाहता था, बाप ।”
“सुन लिया न ! अब तू चल क्योंकि मुझे दिल्ली का प्लेन पकड़ना है ।”
“अभी । बाप, अभी मैं गायब होता है पण जब लौटना मुमकिन होगा तो मैं तुम्हेरे साथ ।”
“मेरे साथ ?”
“तुम्हेरे जेरेसाया । तुम्हेरे कदमों में ।”
“देखेंगे । अभी फूट ।”
विक्टर ने टैक्सी एयरपोर्ट के डोमेस्टिक टर्मिनल के सामने ले जाकर खड़ी की ।
अपना अपना बैग सम्भाले विमल और इरफान टैक्सी से बाहर निकले ।
“मेरे को दे ।” - इरफान विमल के बैग की ओर हाथ बढाता बोला ।
“ठीक है ।” - विमल अनमने भाव से बोला ।
“अरे, दे न !”
तभी एक टैक्सी विक्टर की टैक्सी के पीछे आकर खड़ी हुई ।
अनायास ही विमल की निगाह टैक्सी की तरफ उठ गयी ।
विंड स्क्रीन से झांकती ड्राइवर की सूरत उसे दिखाई दी ।
उसके नेत्र फैले, उसने अपना बैग इरफान की तरफ उछाला और फिर लपक कर पिछली टैक्सी के करीब पहुंचा ।
तब तक उसका पैसेंजर उतर चुका था ।
विमल ने आगे का दरवाजा खोला और टैक्सी में दाखिल हो गया ।
“पीछे बैठो, बाप ।” - ड्राइवर बोला - “और बोलो किधर जाने का है ।”
“इधर मेरी तरफ देख ।” - विमल कहरभरे स्वर में बोला ।
ड्राइवर ने विमल की तरफ देखा तो उसके होश उड़ गये । तत्काल उसने टैक्सी से निकलने का उपक्रम किया ।
विमल ने उसे बांह पकड़ कर वापिस घसीट लिया ।
“दरवाजा बन्द कर ।”
कांपते हुए ड्राइवर ने दरवाजा बन्द किया ।
“तेरा नाम भाटे है न ? गोविन्द भाटे ?”
भयभीत भाव से ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया ।
“इरफान को बुला ।”
उसने आदेश का पालन किया ।
इरफान करीब पहुंचा । उसने विमल की तरफ देखा ।
“मेरी तरफ नहीं, इसकी तरफ देख ।” - विमल कर्कश स्वर में बोला - “कौन है ये ?”
“कौन है ?”
“तेरे को नहीं मालूम ?”
इरफान खामोश रहा ।
“फ्लाइट का वक्त हो रहा है इसलिये मैं यहां क्विज प्रोग्राम नहीं चालू करना चाहता । ये सी-व्यू का वो वेटर है जिसका तूने नीलम के अगवा में हाथ पाया था, बकौल तेरे जो ‘कम्पनी’ का प्यादा निकला था, जो बाजरिया जेकब परदेसी दफेदार के हाथों बिका था, ये सब जानकारी निकलवा लेने के बाद जिसे तूने खलास कर दिया था । ठीक ?”
इरफान का सिर हौले से सहमति में हिला ।
“अब मुझे क्या इसका प्रेत दिखाई दे रहा है ?”
“प्रेत किधर से आयेंगा, बाप ? भाटे ही है ये ।”
“जिसे तूने बख्श दिया ?”
“बकश नहीं दिया बाप, निगाहों से दूर कर दिया । बकशने लायक तो इसने कुछ किया ही नहीं था ।”
“क्या बोला ?”
“वही जो तू सुना ।”
“ये नीलम के अगवा में शरीक नहीं था ?”
“नहीं ।”
“ये ‘कम्पनी’ का प्यादा नहीं ? दफेदार का आदमी नहीं ?”
“नहीं ।”
“पिछले बुधवार इसने....”
“जो किया, मेरी हिदायत पर किया ।”
“नीलम का अगवा....”
“नहीं हुआ । तेरे को मालूम है नहीं हुआ ।”
“मेरे को मालूम है ?”
“हां । आज उस वारदात को हुए नौ दिन हो गये, फिर भी खामोश बैठेला है । खामोश बैठेला है, अक्खी मुम्बई फूंक कर नहीं रख दी । जिस बेगम की फ्रिक करता अकेला, निहत्था दिल्ली पहुंच गया जौहर ज्वाला में छलांग लगाने, उसी के लिये इधर उंगली भी न हिलाई । न मां के लिये, न बेटे के लिये । बड़ी हद कुछ किया तो खाली याद किया । ऐसा क्यों ? क्योंकि तेरे को मालूम कि नीलम का अगवा नहीं हुआ था ।”
विमल मुंह बाये उसे देखता रहा ।
“ऐसे क्या देखता है ? सब तेरी सोहबत का असर है । तेरी सोहबत में बहुत कुछ सीखा मैं, बाप । खासतौर से आंखें खुली रखना । पिछले नौ दिनों में मुझे एक बार भी बीवी के वियोग में बन बन भटकते, आंसू बहाते राजा रामचन्द्र के दर्शन नहीं हुए लंका फूंक कर सिया लौटा लाने का संकल्प सुनाई न दिया ।”
“कमाल है !”
“भाटे तेरे खौफ में अधमरा हुआ जा रहा है । इसको शाबाशी दे और चल वरना फ्लाइट छूट जायेगी ।”
“लेकिन...”
“बाकी बातें रास्ते में । बहुत टेम है हमारे पास ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । उसने भाटे की तरफ देखा ।
भाटे बड़े संकोचपूर्ण ढंग से जबरन मुस्कराया ।
फिर विमल भी मुस्कराया, उसने आश्वासनपूर्ण भाव से उसका कन्धा थपथपाया और टैक्सी बाहर निकल आया ।
***
मालवानी ने डी.सी.पी. मनोहरलाल के ऑफिस का नम्बर डायल किया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“डी.सी.पी. साहब से बात कराइये ।” - वो बोला ।
“आप कौन ?”
“साधूराम मालवानी ।”
“कहां से ?”
“विवेक विहार से ।”
“क्या काम है ?”
“उन्हीं से काम है ।”
“पर्सनल या आफिशियल ?”
“सीक्रेट । सीक्रेट एण्ड अर्जेंट । वैरी अर्जेंट । इतना अर्जेंट कि तुम्हारे साहब को डिले नागवार गुजरेगी ।”
“साहब इस वक्त ऑफिस में नहीं हैं । मोबाइल पर फोन लगाइये ।”
“लगाया था । नहीं बोलता ।”
“कहीं बेसमेंट में होंगे या मोबाइल की रेंज से दूर होंगे । कोशिश जारी रखिये ।”
“वो तो मैं करूंगा ही लेकिन तुम किसी तरीके से उन तक ये मैसेज पहुंचाने की कोशिश करो कि वो फौरन मालवानी से सम्पर्क करें ।”
“आपका टेलीफोन नम्बर ?”
“उन्हें मालूम है । फिर भी नोट कर लो ।”
“बोलिये ।”
मालवानी ने उसे लैंड और मोबाइल दोनों नम्बर लिखवाये और बोला - “डी.सी.पी. साहब को ये बात खासतौर से बोलना कि बात उस शख्स के बारे में है जो गायब है लेकिन एक तरीके से अब जिसकी तलाश मुमकिन है ।”
***
प्लेन दिल्ली की ओर उड़ जा रहा था ।
“अब बोल” - विमल बगल की सीट पर बैठे इरफान से बोला - “क्या किस्सा है ?”
“बाप, तू बहुत खुशकिस्मत है ।” - इरफान बोला - “जितनी तेरे को अपनी बेगम से मुहब्बत है, उससे कहीं ज्यादा तेरी बेगम को तेरे से मुहब्बत है । अपने खाविन्द की सलामती के लिये हमेशा फिक्रमन्द । उसके सुख चैन सकून के लिये कुछ भी करने को हमेशा तैयार ।”
“मतलब क्या हुआ इसका ?”
“बाप, जरा पिछले मंगलवार पर लौट, सोलह तारीख के उस दिन को याद कर जब तू दिल्ली से वापिस लौटा था और तूने मेरे और शोहाब के सामने अपनी बेगम और लख्तेजिगर की सौ तरह की फिक्र जाहिर की थी । अन्त पन्त सोहल का वाटरलू उसका बच्चा ही बनेगा । सोहल की नाक मोरी में रगड़नी हो तो उसकी बीवी को थाम लो । उसके बच्चे को थाम लो । मां बेटा सोहल की ऐसी दुखती रग थे जिनको छेड़े जाने से सोहल तड़पता था । याद आया ?”
“हां ।”
“इस पिराबलम का हल तुझे ये लगता था कि तेरी बेगम तेरे साथ न रहे, उसे किसी दूरदराज जगह पर जाकर रहना चाहिये था जहां कि किसी को उसकी भनक न लगे लेकिन उसे ये मंजूर न था ?”
“हां ।”
“बाप, तेरी वो तमाम बातें तेरी बेगम ने सुनी थीं ।”
“ऑफिस के बन्द दरवाजे के बाहर खड़ी होकर ?”
“हां ।”
“मेरा भी ऐसा ही खयाल था । मैंने इस बाबत उससे सवाल भी किया था लेकिन वो मुकर गयी थी ।”
“बाप, तब उसने बहुत शिद्दत से महसूस किया था कि वो तेरे पांव की बेड़ी बनी हुई थी, उसका तेरी परछाईं बन कर तेरे साथ रहना तेरे लिये पिराबलम बना हुआ था । तब उस फरिश्ताजात औरत ने खुद ही तुझे छोड़ कर कहीं चले जाने का फैसला किया था लेकिन होटल के टॉप फ्लोर की जैसी सिक्योरिटी में वो रह रही थी उसमें उसका ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं था । वो चुपचाप होटल से नहीं खिसक सकती थी । तब उसने अपनी मंशा मेरे पर जाहिर की । मुझे उसका फैसला निहायत मुनासिब लगा । कम से कम ‘भाई’ के खत्म होने तक उसके कहीं चले जाने में मुझे कोई हर्ज न लगा । वो उठती और चल देती, ये मुमकिन नहीं था इसलिये अगवा का ड्रामा किया ।”
“जिनमें वेटर भाटे, सिक्योरिटी गार्ड और हाउस डिटेक्टिव शामिल थे ?”
“उनमें से सिर्फ भाटे, जो कि मेरा भरोसे का आदमी है । और एक हाउसकीपिंग स्टाफ का छोकरा जो कि लिनन की ट्राली लेकर ऊपर तेरी बेगम के सुईट में गया था ।”
“सिक्योरिटी गार्ड और हाउस डिटेक्टिव को कोई खबर न लगी ?”
“न ।”
“ऐसा क्योंकर हुआ ?”
“बेगम और बच्चा लिनन की ट्राली में वहां से ले जाये गये थे ।”
“सिक्योरिटी गार्ड ने और हाउस डिटेक्टिव ने ट्राली चैक करने की कोशिश न की ?”
“करते, अगरचे कि ये काम उनके सामने खुद मैंने न कर दिया होता ।”
“ओह ! यानी की भाटे की सुनायी कार्पेट वाली कहानी फर्जी थी ?”
“कहानी फर्जी नहीं थी । कार्पेट वाकई तब्दील हुआ था लेकिन बेगम और बच्चा पुराने कार्पेट में लपेट कर नहीं ले जाये गये थे । वो तो पहले ही ट्राली में छुपा कर वहां से निकाले जा चुके थे ।”
“कहानी फर्जी नहीं थी तो फिर कार्पेट वाले भी फर्जी नहीं होंगे ।”
“नहीं थे ।”
“तो फिर हाउसकीपर ने ये क्यों कहा कि कार्पेट तब्दील करने के लिये कोई टेलीफोन कॉल उसके पास नहीं आयी थी, उसने कोई नया कार्पेट नहीं भेजा था ।”
“हाउसकीपर ने ये कहा था, ऐसा कौन बोला था ?”
“शोहाब, जिसने तेरे कहने पर हाउसकीपर को इस बाबत फोन लगाया था ।”
“नहीं लगाया था । महज ड्रामा किया था हाउसकीपर को फोन लगाने का ।”
“यानी कि हाउसकीपर ने ऐसा कुछ नहीं कहा था ? हाउसकीपर का कहा उसने खुद ही गढ लिया था ?”
“हां ।”
“क्यों ? जरूरत क्या थी ?”
“और क्योंकर पुख्ता होता अगवा का ड्रामा ! वो बात सुन कर ही तो मैंने भाटे की खबर ली थी और उससे कहलवाया था कि उसे वो सब करने के लिये मजबूर किया गया था ।”
“जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ था ?”
“न ।”
“बेसमेंट में ले जाकर भाटे की खातिर करके उससे दफेदार का नाम कुबूलवाने की बात झूठी थी ?”
“सरासर ।”
“बढिया ड्रामा रचा । ये क्यों कहा कि भाटे को खलास कर दिया ?”
“गद्दार को सख्त सजा तो मिलनी ही होती है न ! जब भाटे से गद्दार का रोल करवाया तो गद्दारी की सजा उसे मिली तो बोलना ही था न !”
“ओह !”
“सब ठीक हुआ । सब ऐन वैसीच हुआ जैसा होने का इंतजाम किया था पण तेरी बेगम की चिट्ठी ने काम बिगाड़ दिया । जज्बाती होकर पीछे तेरे नाम चिट्ठी छोड़ गयी जिसकी हमें खबर न लगी । चिट्ठी भी ऐसी कि साफ लगता था कि वो अपनी मर्जी से कहीं चल दी । मैंने जी जान से कोशिश की उस चिट्ठी को फर्जी साबित करने की, बहुत बहस की तेरे से उसे बाबत पण तभी लग रहा था कि चिट्ठी के फर्जी होने की बाबत मैं तुझे मुतमइन नहीं कर सका था ।”
“हां ।”
“और कैसे जाना ?”
“अगवा की स्टोरी से ही जाना जिसमें और भी कई खटकने वाली बातें थीं ।”
“मसलन क्या ?”
“सुन । दुश्मन के खिलाफ एक से ज्यादा चाल सोचने पर कोई पाबन्दी नहीं होती । कोई दो स्कीम गढ सकता है, दस स्कीम गढ सकता है और भी ज्यादा स्कीम गढ सकता है लेकिन कारआमद तो एक ही ने होना होता है । जब एक स्कीम कारआमद हो जाती है तो बाकी स्कीमों की कोई अहमियत नहीं रह जाती । इसलिये ये बात हज्म होने वाली नहीं थी कि दुश्मन ने हमारे खिलाफ दो चाल इकट्ठी चलीं, नीचे बम लगाने के लिये बिलाल को भी भेज दिया और ऊपर नीलम और सूरज के अगवा का भी सामान कर दिया ।”
“और ?”
“और तेरी ढेर वकालत कि अगवा हुआ था । क्यों तू अगवा की जिद ठाने था, क्यों तू इस बात को खातिर में नहीं लाना चाहता था कि नीलम - जैसा कि उसने चिट्ठी में लिखा था खुद कहीं चली गयी हो सकती थी !”
“उसकी वजह थी ।”
“क्या ?”
“हम तुझे भड़का हुआ देखना चाहते थे । तू भड़का हुआ था, इसीलिये तूने कम अरसे में इतने करतब कर डाले, ‘भाई’ तक को लुढका दिया, तू ये बात पकड़ के बैठ जाता कि नीलम तुझे खुद छोड़ के चली गयी तो तू आहें कराहें भरने वाला सोहल बन जाता जबकि ‘भाई’ का मुकाबला करने के लिये जरूरत उस सोहल की थी जो कि आग का गोला बना होता ।”
“आई सी ।”
“अब और बोल ।”
“और खामियां तो चिट्ठी में ही थीं । मसलन शुरुआत में ही उसने मेरी एक चिट्ठी का हवाला दिया था और लिखा था कि मैं मां बेटे को सोया छोड़ के उनके पहलू से उठ कर चला आया था । ये बात नीलम के अलावा किसी को मालूम नहीं हो सकती थी । ये एक जज्बाती बात थी जो, चिट्ठी फर्जी होती तो, मालूम होने पर भी फर्जी चिट्ठी बनाने वाले को उसे दर्ज करना न सूझा होता । दूसरे, उसने चिट्ठी में कई ऐसी जगहों का जिक्र किया था जहां कि वो जा सकती थी लेकिन नहीं जा रही थी । फर्जी चिट्ठी बनाने वाले को ये नहीं मालूम हो सकता था कि नीलम हिमाचल की रहने वाली थी, मुबारक अली आजकल दिल्ली में अपने भांजों के साथ रह रहा था या योगेश पाण्डेय बैंगलौर में था । तीसरे, उसमें नीलम का खास तकिया कलाम ‘तुम्हारी जान मेरी जान है’ दर्ज था । चौथे, ये किसी को मालूम नहीं हो सकता था कि कभी मैंने उसे कहा था कि वो तो जोंक की तरह मेरी पीठ पर ऐसी चिपकी हुई थी कि तत्ता चिमटा लगाने पर भी नहीं हटने वाली थी । पांचवें, चिट्ठी में हवाला था कि जब मैं उसे छोड़ के गया था तो उसे मालूम था कि मैं कहां जा रहा था । क्योंकि मैंने खुद अपनी चिट्ठी में लिखा था कि मैं अपने फर्ज की पुकार पर तुकाराम के पास मुम्बई जा रहा था । ये बात भी नीलम के सिवाय किसी को मालूम नहीं हो सकती थी । और सौ बातों की एक बात, जो साबित करती थी कि चिट्ठी फर्जी नहीं थी, उसने चिट्ठी के आखिर में लिखी थी ।”
“क्या ?”
“तुम्हारी ‘मिडल फेल’ नीलम । ये बहुत व्यक्तिगत, बहुत अन्दरूनी बात थी । मैं उसे अक्सर ‘साली मिडल फेल’ कह कर चिढाता था जिसका वो हमेशा ये कह कर विरोध करती थी कि वो मिडल पास थी । चिट्ठी के समापन पर ऐसी बात कोई अतिभावुकता में ही लिख सकता है वरना ऐसी किसी बात का हवाला देने की क्या जरूरत होती है ?”
“ठीक । चिट्ठी जबरन लिखाई गयी होती तो आखिर में बड़ी हद तुम्हारी नीलम, मुखालिस नीलम या सिर्फ नीलम लिखा होता ।”
“एक ये भी बात शक से खाली नहीं थी कि परदेसी और दफेदार के नाम बिलकुल ताजा वजूद में आये थे । बिलाल के सन्दर्भ में । उस सुबह से पहले वो नाम हमने कभी नहीं सुने थे । लेकिन अपनी अगवा की कहानी को सजाने के लिये तूने वही नाम उसमें जड़ दिये । अगवा की कोशिश को भी उन्हीं दोनों पर थोप दिया जबकि तर्क की कसौटी पर ये बात खरी नहीं उतरती थी ।”
“हूं । बहरहाल तेरे को गारन्टी नहीं तो इमकान पूरा पूरा था कि अगवा नहीं हुआ था ।”
“गारन्टी नहीं थी, हो भी नहीं सकती थी । मेरी तो मुकम्मल लाइफ स्टोरी ही ऐसी है कि उसमें वो ही वाकयात होते हैं, हो के रहते हैं, जिनकी बाबत अक्ल कहती है कि नहीं हो सकते । सीधा सीधा कभी कुछ नहीं होता सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल की जिन्दगी में । हमेशा कहीं न कहीं कोई न कोई पेच पड़ा होता है । तभी तो दिल से उठती एक आवाज, तर्क को तरह देती, कहती थी कि अगवा नहीं हुआ था और दूसरी, सोहल की किस्मत को कोसती, कहती थी कि शायद हुआ हो । ऐसा दिमाग भन्नाया इस जद्दोजहद में कि घबरा गया, चैन की तलाश में मलाड पहुंच गया । पंडित भोजराज शास्त्री की शरण में ।”
“इसलिये गया था वहां ?”
“हां । वहां से लौटने के बाद ही मेरे मन में ये एक राय बन पायी थी कि अगवा नहीं हुआ था और ये भी नहीं हुआ था कि उसने बच्चा सम्भाला हो और खुद ही उठ के चल दी हो ।”
“क्या बोला, बाप ?”
“मुमकिन नहीं था उसका यूं चल देना इसलिये जो हुआ आलाहजरत जनाब इरफान अली खान साहब की सदारत में हुआ ।”
इरफान हंसा ।
“क्या दीमाक पाया है, बाप !”
“अब ये तो बता मां बेटा हैं कहां ?”
“सुनेगा तो हैरान हो जायेगा । तेरे को कोमल की याद है ?”
“कोमल !”
“शिन्दे की सहेली । बाई । जो अपनी तृष्णा और लालिमा नाम की दो सहेलियों के साथ चौदह फरवरी को गजविलास फोर्ट की डकैती में हमारे साथ शामिल थीं । मुम्बई वापिस भेजते वक्त जिसे तूने एक लाख डॉलर दिये थे और धन्धा छोड़ देने के लिये मनुहार की थी, जाने से पहले जिसने तेरे को बोला था कि वो तेरे किसी काम आये, ये उसकी दिली ख्वाहिश थी ।”
“तेरे को कैसे मालूम उसने ऐसा बोला था ?”
“कोमल ने खुद बताया न ।”
“कब ?”
“जब मैं उससे मिला । बाप, उसने मुम्बई लौटते ही धन्धे से किनारा कर लिया था ।”
“दैट्स गुड न्यूज ।”
“तू तो पारस पत्थर है जिसके साथ लोहा भी छूता है तो सोना बन जाता है ।”
“अब क्या करती है वो ?”
“विखरोली में जनाना रेडीमेड कपड़ों की दुकान चलाती है । बढिया नावां कमा रही है ।”
“वैरी गुड ।”
“सब तेरी वजह से हुआ । उसने तो खाली ये किया कि तेरे से मिला एकमुश्त पैसा सोच समझ कर खर्च किया । धन्धा छोड़ कर कारोबार कर लिया, ईमान की रोटी खाने कमाने लगी ।”
“उसका जिक्र किस लिये ?”
“तेरा साहबजादा उसके पास है ।”
“क्या !”
“सुन कर खुश हो गयी कि तेरा बेटा था । जान कर जज्बाती हो गयी कि मैं सूरज को उसकी हिफाजत में छोड़ने आया था । रोने लग गयी । चुप कराये से चुप नहीं होती थी । यकीन नहीं कर पा रही थी कि तूने उसे इस इज्जत के काबिल समझा था ।”
“मैंने ! जिसे अब खबर लग रही है कि सूरज उसके पास है !”
“उसका सपना था तेरे किसी काम आना । सच हो गया । बोली, जिन्दगी की सबसे बड़ी अभिलाषा पूरी हो गयी । क्या जादू करता है, बाप ?”
“सूरज उसके पास है ?”
“जान से ज्यादा हिफाजत के साथ ।”
“कोई पूछेगा तो क्या बोलेगी सवा चार महीने के बच्चे की बाबत ?”
“बहन का बच्चा गोद लिया । बहन अपने खाविन्द समेत एक सड़क हादसे में मर गयी । बच्चा लावारिस । कोई सम्भालने वाला नहीं । उसने गोद लिया वरना बच्चा यतीमखाने में होता ।”
विमल का सिर स्वयंमेव सहमति में हिला ।
“और नीलम !” - फिर उसने पूछा - “नीलम कहां है ?”
“कोल्हापुर में । मेरी बहन के घर ।”
“मां बेटा एक जगह क्यों नहीं ?”
“इसीलिये कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाये ।”
“जो कि सोहल के साथ जरूर होती है ।”
“वहीच खयाल मेरे मन में आया । तब तेरे दीमाक से सोचा तो यहीच मुनासिब लगा कि मां बेटा एक ही जगह नहीं होने चाहियें ।”
“कुबूल हो गया नीलम को ये फैसला ?”
“हो ही गया ।”
“हैरानी है ।”
“खामखाह ! चिट्ठी में साफ तो लिखा तेरी बेगम ने कि सूरज उसकी शिनाख्त का जरिया बन सकता था ।”
“इसलिये वो उससे किनारा कर लेगी ! अपने कलेजे के टुकेड़े को कलेजे से नोच कर अलग कर देगी !”
“यहीच लिखा । यहीच किया ।”
“जो तुध भावे नानका सोई भली कार ।”
प्लेन दिल्ली पहुंचा ।
उस बार विमल और इरफान ने ‘मौर्य’ में ठिकाना किया जहां कि मुबारक अली, इकबाल, अली, वली और हाशमी के साथ पहुंचा ।
अली, वली और इकबाल को कार में ही छोड़ कर वो विमल के सुइट में पहुंचे जहां मुकेश बजाज की वीडियो फिल्म केवल विमल और इरफान ने देखी । उस दौरान मुबारक अली और हाशमी सुइट के बाहरले कमरे में बैठे रहे ।
आखिरकार फिल्म खत्म हुई और फिर वे भी उठ कर बाहर पहुंचे ।
“क्या देखा ?” - मामू से निगाह चुराता हाशमी धूर्त भाव से बोला ।
“शैतान का खेल देखा ।” - विमल बोला - “प्राण कांप गये ।”
“अब उसके भी कांपें तो बात बने ।” - इरफान बोला ।
“जरूर कांपेंगे ।” - हाशमी बोला - “ये उसकी बहुत बड़ी पोल है जिसका खुलना वो अफोर्ड नहीं कर सकेगा । मालिक से वफादारी साबित करने के लिये दिलेरी दिखाना और कोई जोर जुल्म झेल जाना जुदा बात है, ऐसी घिनौनी करतूत को आम होने देना जुदा बात है ।”
“यानी कि उम्मीद है ?” - विमल बोला ।
“पूरी पूरी ।”
“मिलेगा कहां ?”
“करोलबाग । अमूमन वहां झामनानी के ऑफिस में ही होता है ।”
“पकड़ मंगवाते हैं ।” - मुबारक अली बोला ।
“यहां नहीं ।” - विमल बोला ।
“तिराहा बैरम खान ?”
“करोलबाग चलने में क्या हर्ज है ?”
“क्या हर्ज है ?” - मुबारक अली ने आगे हाशमी से पूछा ।
“झामनानी की तलाश में वो जगह पुलिस की निगरानी में हो सकती है ।” - हाशमी बोला ।
“तो फिर ?”
“वहां चलते हैं । जैसा माहौल देखेंगे, उस पर अमल करेंगे ।”
“इधरीच ठीक है ।” - इरफान बोला ।
“वहां माहौल न बना तो इधर ।”
“उधर टी.वी. वी.सी.आर. न हुआ तो ?”
“तो ?” - विमल ने भी पूछा ।
“इन्तजाम हो जायेगा ।” - हाशमी बोला ।
“खड़े पैर ?”
“हां ।”
“फिर क्या बात है !”
एक टैक्सी और एक उनके साथ आयी गाड़ी में सवार होकर सब करोलबाग पहुंचे ।
झामनानी के ऑफिस के करीब हाशमी और अली वली टैक्सी में से निकले ।
“देखते हैं ।” - हाशमी बोला ।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
पांच मिनट बाद वो वापिस लौटे ।
“पुलिस नहीं है ।” - हाशमी बोला - “कैसी भी निगाहबीनी नहीं है ।”
“ठीक से देखा ?” - मुबारक अली सख्ती से बोला ।
“हां, मामू ।”
“कोई पंगा पड़ा तो दुम ठुक जायेगी ।”
“नहीं पड़ेगा ।”
“तीनों की ।”
“मालूम ।”
“अकेला है वो उधर ?”
“अकेला ही समझो । चपरासीगिरी करता एक छोकरा है बस और ।”
मुबारक अली ने विमल की ओर देखा ।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
वे कार से बाहर निकले और फिर सब झामनानी के ऑफिस के करीब पहुंचे । वहां मुबारक अली, इकबाल, अली, वली और इरफान बाहर ठिठक गये और विमल हाशमी के साथ भीतर दाखिल हुआ ।
“किससे मिलना है ?” - बाहरी ऑफिस में बैठा छोकरा बोला ।
“चुपचाप बैठा रह ।” - हाशमी घुड़क कर बोला ।
“लेकिन आप लोग....”
हाशमी ने उसे गले से पकड़ा और दरवाजा खोल कर बाहर अली वली की बांहों में धकेल दिया ।
बजाज उन्हें झामनानी के प्राइवेट ऑफिस में मिला ।
उसकी एग्जीक्यूटिव चेयर पर अधलेटा सा बैठा सामने रखे टी.वी. पर वी.सी.आर. के जरिये फिल्म देखता ।
उनके आगमन पर वो सकपकाया ।
“क्या है ?” - वो कर्कश स्वर में बोला । - “कौन हो तुम लोग ?”
“हौसला रख ।” - हाशमी सहज भाव से बोला - “दो मिनट बात करनी है । तेरे ही भले की ।”
“फिर भी यूं घुसे चले आने का क्या मतलब हुआ ?”
“ये मतलब हुआ ।” - हाशमी ने उसे रिवॉल्वर दिखाई ।
“ओह ! तो ये बात है ।”
“नहीं, ये बात नहीं है । तू गलत समझ रहा है ।”
“तो क्या बात है ?”
“तू कुछ कहने दे तो बोलें न !”
“कहो, क्या कहना चाहते हो ?”
“पहले बैठ जायें ?”
“हां, हां । बैठो ।”
दोनों दो विजिटिंग चेयर्स पर ढेर हुए ।
“थैंक्यू ।” - हाशमी बोला - “अब जरा टी.वी. बन्द कर ।”
“तुम्हारी सूरत मुझे जानी पहचानी लग रही है ।” - बजाज उसे घूरत हुआ बोला - “मैंने पहले तुम्हें कहीं देखा है ।”
“गलत । नहीं देखा । वहम हो रहा है ।”
“लेकिन....”
“और मेरी ?” - विमल बोला - “मेरी नहीं लग रही जानी पहचानी ?”
हाशमी से निगाह हटा कर बजाज ने विमल की ओर देखा ।
“कुएं में से कैसे निकला था मंगलवार सोलह तारीख को ?”
बजाज के नेत्र फैले । वो उछल कर कुर्सी पर से खड़ा हुआ ।
“बैठ जा ।” - हाशमी बोला । उसने फिर उसे रिवॉल्वर दिखाई ।
बजाज बेजान वजन की तरह पीछे कुर्सी पर ढेर हुआ ।
“मुझे खुशी है कि तूने मुझे पहचाना है ।” - विमल बोला ।
“यहां । यहां पहुंच गया ?”
“खास तेरे से बात करने के लिये । दो मिनट में नहीं, जैसे कि मेरा जोड़ीदार बोला, लेकिन हमारी पेशकश तुझे कुबूल न हुई तो दो ही मिनट । बड़ी हद तीन मिनट । पांच से ज्यादा तो हरगिज नहीं ।”
“कैसी पेशकश ?”
“बता, भाई ।”
हाशमी ने सहमति में सिर हिलाया और उठ कर वी.सी.आर. के पास पहुंचा । उसने उसमें से कैसेट निकाल कर अपनी कैसेट लगायी, वी.सी.आर. आन किया और वापिस अपनी जगह आ बैठा ।
“देख ।” - वो बोला ।
उलझनपूर्ण भाव से वो टी.वी. की तरफ देखने लगा ।
स्क्रीन पर अपनी सूरत दिखाई देते ही वो चौंका ।
उसने जगह पहचानी तो उसके छक्के छूट गये ।
स्क्रीन पर लड़की भी दिखाई देने लगी तो उसके प्राण कांप गये ।
“ये... ये” - बड़ी मुश्किल से उसके मुंह से आवाज निकली - “क... क्या है ?”
“फिल्म है ।” - हाशमी इत्मीनान से बोला - “जिसमें तेरा फीचर रोल है ।”
“क... कैसे... कैसे...”
“अभी और देख ।”
“नहीं ।” - उसने सामने पड़े टी.वी. और वी.सी.आर. के रिमोट्स की तरफ हाथ बढाया तो हाशमी ने उन्हें पहले उठा कर अपने काबू में कर लिया ।
“आखिर तक है ?” - वो फुसफुसाया ।
“हां ।”
“बन्द करो ।”
“क्यों ? जो हरकतें कर सकता है, उन्हें देख नहीं सकता ।”
“बन्द करो । प्लीज ।”
“प्लीज कहता है तो ।” - हाशमी ने फिल्म बन्द की - “कैसेट यहीं छोड़ जायेंगे, आराम से देखना ।”
“यहीं छोड़ जाओगे ?”
“हमारे पास और है ।”
“ओह ! क्या चाहते हो ?”
“जो चाहता हूं, मैं चाहता हूं ।” - विमल बोला - “लेकिन पहले मैं तुझे ये बताना चाहता हूं कि मेरी तेरे से कोई अदावत नहीं ।”
“तो... तो किससे अदावत है ?”
“तुझे मालूम है ।”
“झामनानी से ?”
“हां । क्यों अदावत है, ये भी तुझे मालूम है । भोगीलाल, पवित्तर सिंह और ब्रजवासी का अंजाम जान चुका है तो बिलकुल ही मालूम है ।”
“तु... तुम उसका कत्ल करना चाहते हो ?”
“बिरादरीभाई मेरा क्या करना चाहते थे ?”
“मेरे से क्या चाहते हो ?”
“पता ! पता चाहता हूं उसका । मौजूदा पता, जहां कि वो छुपा हुआ है ।”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“हो सकता है लेकिन कोई जरिया जरूर मालूम होगा उस तक पहुंचने का । आखिर उसका खास बताया जाता है ।”
“नहीं मालूम ।”
“खामखाह मुंह मत फाड़ ।” - हाशमी बोला - “सोच समझ के जवाब दे । सूरतअहवाल की नजाकत को समझ कर जवाब दे ।”
“मैं दगाबाज नहीं ।”
“मैं ऐसे जज्बात की कद्र करता हूं ।” - विमल बोला - “लेकिन जब उनकी कोई कीमत न रहे, उनका कोई हासिल न रहे तो ऐसे जज्बात का क्या फायदा ?”
“मुझे नहीं पता फायदा नुकसान । मैं अपने मालिक के साथ दगा नहीं कर सकता, भले ही तुम मेरे साथ जितनी मर्जी जोर जबरदस्ती कर लो ।”
“जोर जबरदस्ती का नाम किसने लिया ?”
“राजी से तो मैं झामनानी के खिलाफ जुबान खोलने से रहा ।”
“राजी से ही खोलेगा तो खोलेगा वरना नहीं खोलेगा ।”
“नहीं खोलूंगा ।”
“टेप को दरकिनार करके जवाब दे रहा है ।” - हाशमी बोला - “पांच मिनट का शो भेजे में रजिस्टर नहीं हुआ । मैं पूरी फिल्म चलाता हूं, तब शायद बेहतर असर हो ।”
“कोई जरूरत नहीं ।”
“तो फिर ट्यून बदल ।”
वो बेचैनी से पहलू बदलने लगा ।
“तेरी मेडन परफारमेंस वाली फिल्म है इसलिये तेरे तमाम रिश्तेदारों को, तमाम वाकिफकारों को इसकी एक एक कैसेट अरसाल की जायेगी । और जहां तू रहता है, वहां ग्रुप शो आर्गेनाइज किये जायेंगे । नून, मैटिनी, ईवनिंग, नाइट । बड़े पर्दे पर, बाजरिया प्रोजेक्शन टी.वी. । बिहारी कालोनी में रहता है न ?”
उसने जोर से थूक निगली ।
“इधर मेरी तरफ देख ।” - विमल बोला ।
बजाज ने देखा ।
“पढा लिखा समझदार आदमी जान पड़ता है इसलिये कहता हूं, डूबते जहाज के साथ डूबना दानिशमन्दी नहीं होती । तेरे को मालूम हो जहां तू खड़ा है, वहां बिजली गिरेगी या वहां की जमीन धसक जायेगी तो फिर भी क्या तेरी यही जिद होगी कि तू वहीं खड़ा होगा ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“बिरादरी खत्म, बिरादरीभाई खत्म, एक झामनानी बचा है जिसे कभी न कभी तो मैं ढूंढ ही लूंगा । ऐसे शख्स के साथ जुड़ा रह कर तू अब क्या तो उसका भला करेगा और क्या अपना भला करेगा ? तुझे मेरी बात से इत्तफाक हो तो बोल, नहीं तो हम चलते हैं । खामखाह वक्त जाया करने का क्या फायदा ?”
“टेप” - वो कम्पित स्वर में बोला - “वाकेई कई हैं ?”
“अभी तो दो ही हैं ।” - हाशमी बोला - “लेकिन दो से बीस और बीस से दो सौ बनने में क्या वक्त लगा है ?”
“मुझे नहीं मालूम झामनानी कहां है ?”
“मैंने पहले ही कहा है कि ऐसा हो सकता है ।” - विमल बोला - “लेकिन ये नहीं हो सकता कि तुझे कोई जरिया मालूम न हो उस तक पहुंचने का ।”
“है तो सही मालूम ।”
“फिर क्या बात है !”
“वो मैं बयान करूं तो तुम गारन्टी करते हो दूसरा टेप भी मुझे सौंपन की और कोई कापी पास न रखने की ?”
“हां, करता हूं ।”
“वादा करते हो ?”
“हां ।”
“वादे से फिर तो नहीं जाओगे ?”
“हरगिज नहीं । मैं खालसा हूं । खालसा खालिस आदमी को कहते हैं । खालिस आदमी वादाखिलाफी नहीं करता । मैं अपने वादे से फिरूं तो ताजिन्दगी मुझे हरमन्दिर साहब की देहरी पर मत्था टेकना नसीब न हो ।”
बजाज कुछ न बोला ।
विमल भी खामोश हो गया ।
हाशमी ने कुछ बोलने के लिये मुंह खोला तो विमल ने उसे इशारे से चुप करा दिया ।
“झामनानी रीनल फेलियर का शिकार है ।” - आखिरकार बजाज धीरे से बोला ।
“अच्छा !” - सचेत होता विमल बोला ।
“दोनों गुर्दे खराब हैं उसके । डायलेसिस पर जिन्दा है ।”
“हालिया बात है ये ?”
“नहीं । काफी अरसे से ऐसा ही है । दो साल की तो मुझे खबर है ।”
“आजकल तो किडनी ट्रांसप्लांट आम बात है । वो क्यों नहीं...”
“आपरेशन से डरता है । आपरेशन का बहुत खौफ है उसे । कहता है कि एक बार आपरेशन टेबल पर जा कर पड़ा तो उठ कर खड़ा नहीं होगा ।”
“नानसेंस ।”
“बाज लोगों पर” - हाशमी बोला - “सर्जरी के मामले में ऐसा साइकालोजिकल दबाव होता है, हर हाल में सर्जरी से बचना चाहते हैं ।”
“झामनानी भी ऐसे ही मिजाज का मालिक है ।” - बजाज बोला - “हर पन्द्रह दिन बाद उसे हीमो-डायलेसिस कराना पड़ता है, उसे वो कुबूल है लेकिन गुर्दे का प्रत्यारोपण कुबूल नहीं ।”
“डायलेसिस का जिक्र किस लिये ?”
“उसके डायलेसिस के लिये हर महीने का दूसरा और आखिरी शनिवार मुकर्रर है । आज महीने का आखिरी शनिवार है । वो जहां कहीं भी होगा डायलेसिस के लिये जरूर आयेगा ।”
“कहां ?” - विमल आशापूर्ण स्वर में बोला - “कहां आयेगा ?”
“एक प्राइवेट नर्सिंग होम में । नवजीवन नाम है । मेन मथुरा रोड पर बदरपुर से पहले सरिता विहार के करीब है ।”
“क्या पता” - हाशमी घड़ी देखता हुआ बोला - “वो आ के जा भी चुका हो !”
“चार बजे का टाइम मुकर्रर है उसके लिये ।”
“वो भी तो बजा ही चाहते हैं । सिर्फ पांच मिनट बाकी हैं ।”
“डायलेसिस में चार-साढे चार घन्टे लगते हैं ।”
“ओह ! चार-साढे चार घन्टे लगते हैं ।” - हाशमी उछल कर खड़ा हो गया - “चलिये, जनाब ।”
विमल उठ खड़ा हुआ ।
“बिरादर” - हाशमी बजाज से बोला - “तू भी हमारे साथ चल रहा है ।”
“क्या !”
“जरूरी है ।”
“मैं झामनानी को मुंह नहीं दिखा सकता ।”
“नहीं दिखाना पड़ेगा ।”
“तुम्हें मेरे पर एतबार नहीं ? तुम्हें अन्देशा है मैं झामनानी को खबरदार कर दूंगा ?”
“अरे, हिल मेरे भाई, मंजिल खोटी हो रही है ।”
चेहरे पर तीव्र अनिच्छा के भाव लिये बजाज उठा ।
पूर्ववत् एक कार और टैक्सी में सवार होकर सब जने नवजीवन नर्सिंग होम पहुंचे ।
टैक्सी को वहां भी फौरन रुख्सत कर दिया गया ।
“पता करते हैं ।” - हाशमी बोला ।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
अली वली और इकबाल को साथ लेकर हाशमी वहां से चला गया ।
कार नर्सिंग होम के आयरन गेट से परे एक पेड़ की छांव में खड़ी रही । उसमें पीछे मुबारक अली के साथ विमल बैठा रहा और इरफान के इशारे पर बजाज आगे उसके साथ बैठ गया ।
“अपना भीड़ू इधर न हुआ तो ?” - बजाज को घूरता इरफान बोला ।
बजाज ने उत्तर न दिया, उसने सिर घुमा कर शिकायतभरी निगाहों से विमल की तरफ देखा ।
“नक्की कर ।” - विमल बोला ।
इरफान ने अपलक विमल की तरफ देखा ।
“जब ये कहता है कि वो इधर है तो इधर है वो ।”
इरफान ने प्रतिवाद के लिये मुंह खोला लेकिन फिर कुछ सोच कर होंठ भींच लिये ।
विमल ने अपनी जेब से अपना पाइप बरामद किया और उसे सुलगाने में मशगूल हो गया ।
दस मिनट यूं ही गुजरे ।
फिर संजीदासूरत हाशमी अकेला वापिस लौटा ।
विमल ने कार की पिछली सीट पर उसके लिये जगह बनायी ।
“है ।” - भीतर बैठता हाशमी संजीदगी से बोला - “पिछवाड़े की गली में उसकी शेवरलेट भी खड़ी है ।”
“शेवरलेट पहचानता है ?” - विमल बोला ।
“इकबाल” - हाशमी बोला - “इकबाल पहचानता है ।”
“आई सी ।”
“उसके ड्राइवर भागचन्द को भी जो कि शेवरलेट में बैठा है ।”
“गुड ।” - विमल बोला ।
“लेकिन पंगा है ।”
“क्या ?”
“पुलिस पहुंची हुई है ।”
“पुलिस पहुंची हुई है !” - विमल सकपकाया सा बोला ।
“हां ।”
“भांजे” - मुबारक अली बोला - “जरूरी थोड़े ही है पुलिस उसी की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फिराक में हो ?”
“उसी की फिराक में है । तसदीक की है ।”
“क्या किस्सा है ?” - विमल उतावले स्वर में बोला ।
“नर्सिंग होम की पहली मंजिल पर झामनानी का डायलेसिस जारी है ।” - हाशमी बोला - “उसके डायलेसिस से फारिग होने के इन्तजार में बाहर दो हवलदार मौजूद हैं । झामनानी के वहां से बाहर कदम रखते ही उसे गिरफ्तार कर लिया जायेगा ।”
“ओह !”
“नीचे मैडिकल सुपरिन्टेन्डेन्ट के ऑफिस में पुलिस वालों के साथ आया एक डी.सी.पी. मौजूद है । डी.सी.पी. का नाम मनोहरलाल है और वो वही डी.सी.पी. है जिसने नसीबसिंह को सस्पेंड किया था । अपने मातहत पुलिसियों के साथ उसका खुद यहां मौजूद होना ही ये साबित करने के लिये काफी है कि उनकी निगाह में झामनानी की गिरफ्तारी एक मेजर ईवेंट है ।”
“पुलिस को उसकी यहां मौजूदगी की खबर कैसे लगी ?”
“उम्दा सवाल है ।”
“क्यों, भई ?” - विमल ने बजाज की पीठ टहोकी - “इतना अहसान करके जो खास जानकारी तुमने हमें मुहैया कराई है, अगर वो इतनी ही आम है तो खास क्योंकर हुई ?”
“आम नहीं है ।” - बजाज दबे स्वर में बोला ।
“तो पुलिस को कैसे खबर है ?”
“कोई भेद है ।”
“क्या भेद है ?”
“झामनानी को गिरफ्तारी का अन्देशा था । अगर उसे जरा भी इमकान होता कि पुलिस यहां पहुंच सकती थी तो वो हरगिज भी यहां न आया होता ।”
“लेकिन वो यहां आया है ! और पुलिस भी यहां मौजूद है !”
“हैरानी है ।”
“कहीं तू” - मुबारक अली कर्कश स्वर में बोला - “पुलिस का भी तो खबरी नहीं है ?”
“नहीं ।” - जवाब विमल ने दिया - “ये पुलिस का खबरी नहीं हो सकता । होता तो छुट्टा न घूम रहा होता । तो ये करोलबाग में झामनानी के ऑफिस में बैठा होने की जगह यहां पुलिस के साथ मौजूद होता ताकि ये जान पड़ता कि पहले ये गिरफ्तार हुआ था और फिर पुलिस ने झामनानी की बाबत जानकारी इससे जबरन कुबुलवाई थी ।”
“कोई जोर जबरदस्ती मुझे अपने मालिक के खिलाफ जाने के लिये मजबूर नहीं कर सकती थी ।” - बजाज रुंआसे स्वर में बोला - “वीडियो कैसेट की सूरत में मेरी करतूत का जो हथौड़ा आपने मुझ पर ताना हुआ है, उसे मेरे सिर से हटाइये और फिर खुद कोशिश करके देखिये मुझे झामनानी साहब के खिलाफ तोड़ने की ।”
“अब तोड़ने को क्या रखा है ?” - हाशमी बोला ।
“बात ये ठीक कह रहा है ।” - विमल बोला - “मुझे इसकी बात पर एतबार है । इसने पुलिस को कुछ नहीं बताया । बताया होता तो ये झामनानी के ही ऑफिस में पूरी निश्चिन्तता से बैठा फिल्म न देख रहा होता । ऐसी दीदादिलेरी की - वो भी तब जबकि झामनानी अभी गिरफ्तार हुआ भी नहीं है - मैं इससे उम्मीद नहीं करता । झामनानी की बाबत पुलिस की जानकारी का जरिया कोई और है । जरूर झामनानी का कोई और भी खासुलखास है जो झामनानी के डायलेसिस शिड्यूल की बाबत जानता है और जो पुलिस की जानकारी और दबाव में है । बहरहाल इस वक्त ये बात अहम नहीं है कि पुलिस को झामनानी की यहां मौजूदगी की खबर कैसे लगी ? अहम बात ये है कि मौजूदा हालात में हम क्या करें ? पुलिस और हमारे बीच जो जानकारी अब सांझी है उसे हम पुलिस से पहले कैसे कैश करें ? उसे पुलिस पकड़ कर ले गयी तो बिरादरी के इस आखिरी भाई के खिलाफ हम कोई कदम नहीं उठा सकेंगे ।”
“छुड़ा सकते हैं ।” - इरफान बोला ।
“पुलिस पार्टी पर हमला करके ?”
“क्या वान्दा है ?”
“वान्दा ही वान्दा है । ऐसा कदम न मुनासिब होगा न प्रैक्टीकल । ऊपर से ये हमारी हालत आ बैल मुझे मार जैसी कर देगा ।”
इरफान खामोश रहा ।
“ये जुगत से होने वाला काम है और जुगत भी ऐसी जो झामनानी तक मेरी पहुंच बना दे ।”
“मुझे एक तरकीब सूझी है ।” - हाशमी बोला ।
“क्या ?”
“झामनानी, अगर बजाज ठीक कहता है तो, आठ बजे से पहले डायलेसिस से फारिग नहीं होने वाला । अभी सवा पांच ही बजे हैं । लिहाजा उसके पुलिस के हाथों में पड़ने में अभी कम से कम पौने तीन घन्टे बाकी हैं । इतने में हम बहुत कुछ कर सकते हैं ।”
“मसलन क्या ?”
हाशमी ने बताया ।
***
एक मैटाडोर वैन नवजीवन नर्सिंग होम की मारकी में आकर रुकी ।
वैन के आगे पीछे प्रैस के स्टिकर लगे हुए थे । छत पर एक डिश एंटिना लगा हुआ था जिसकी वजह से वो टी.वी. वालों की उस वैन जैसी लगती थी जो फील्ड से लाइव टेलीकास्ट करने में काम आती थी जबकि हकीकतन भीतर ऐसा कोई साजोसामान नहीं था ।
वैन की ड्राइविंग सीट पर मुबारक अली मौजूद था और उसकी बगल में वली बैठा हुआ था । उसके गतिशून्य होते ही उसका पीछे का दरवाजा खुला और विमल, इरफान, इकबाल, अली और हाशमी ने बाहर कदम रखा । विमल वीडियो कैमरा सम्भाले था, इरफान हैंडल वाली आर्क लाइट थामे था और उसके साथ जुड़ी लम्बी केबल थामे था, अली के गले में फ्लैश लाइट समेत निकोन का वैसा कैमरा लटक रहा था जैसा कि प्रैस फोटोग्राफर इस्तेमाल करते थे और उन सबकी अगुआई करता हाशमी एक स्क्रैच पैड और एक बालपैन थामे था ।
केवल इकबाल उस ढोंग में शामिल नहीं था जिसे झामनानी के ड्राइवर और शेवरलेट की निगरानी करने के लिये पिछवाड़े की गली की तरफ भेज दिया गया ।
वो तमाम इन्तजाम करने में उन्हें दो घन्टे से ऊपर का वक्त लग गया था । इन्तजाम में चारों के लिये नकली आइडेन्टिटी कार्ड भी शामिल थे जो उन्हें ‘इन्डिया टुडे’ और ‘आजतक’ की टीम बताते थे ।
वे नर्सिंग होम के शीशे के प्रवेश द्वार पर पहुंचे ।
डोरमैन ने उनका रास्ता रोका ।
“हम मीडिया के लोग हैं ।” - हाशमी अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “किसी जिम्मेदार व्यक्ति को हमारे आने की खबर करो ।”
“रिसैप्शन पर जाइये ।” - डोरमैन एक तरफ हटता बोला ।
वे रिसैप्शन पर पहुंचे जहां एक युवक और युवती मौजूद थे, दोनों सफेद कोट पहने थे, जिन पर ‘नवजीवन’ लिखा था ।
“वुई आर मीडिया पर्संस ।” - हाशमी वहां भी पूर्ववत् अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या चाहते हैं ?” - युवक ने पूछा ।
“मिस्टर झामनानी का इन्टरव्यू लेना चाहते हैं ।”
“झामनानी ?”
“लेखूमल झामनानी । जो कि....”
“जस्ट ए मिनट, सर ।”
युवक ने करीब पड़े कम्प्यूटर की कुछ कीज दबाई और फिर स्क्रीन पर झांका ।
“मिस्टर झामनानी इज अन्डर डायलेसिस ।” - फिर वो बोला - “आप इस वक्त उनसे नहीं मिल सकते ।”
“हमारा उनसे अभी मिलना जरूरी है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि इस वक्त वो मेजर न्यूज हैं ।”
“कैसी मेजर न्यूज ?”
“टी.वी. देखोगे तो जान जाओगे ।” - विमल बोला ।
“अखबार पढोगे तो जान जाओगे ।” - अली बोला ।
“लेकिन” - युवक बोला - “डायलेसिस के दौरान....”
“हमें मालूम है डायलेसिस क्या होता है और कैसे होता है ।” - हाशमी बोला - “डायलेसिस सर्जरी नहीं होती जिसमें कि मरीज बेहोश पड़ा होता है । दूसरे, हमें यकीन है कि मिस्टर झामनानी को अपनी मौजूदा हालत में भी हमें इन्टरव्यू देने से कोई एतराज नहीं होगा । इसलिये बरायमेहरबानी....”
“मैं एम.एस. को खबर करता हूं ।”
“एम.एस. क्या ?”
“मैडीकल सुपरिटेन्डेन्ट ।”
“ठीक है । लेकिन जो करना है, जल्दी करो ।”
युवक ने फोन का रिसीवर उठा कर एक नम्बर डायल किया और फिर माउथपीस में खुसरपुसर की । फिर उसने फोन रखा, रिसैप्शन काउन्टर के पीछे से बाहर निकला और बोला - “आइये ।”
सब उसके पीछे हो लिये ।
विशाल रिसैप्शन एरिया के परले सिरे पर एक बन्द दरवाजा था जिस पर ‘मैडीकल सुपरिटेन्डेन्ट’ लिखा था । उसके पहलू में विजिटर्स के लिये कुर्सियां पड़ी थीं जिस पर एक इन्स्पेक्टर, एक हवलदार और दो सिपाही बैठे हुए थे । सब की सवालिया निगाहें उनकी तरफ उठीं लेकिन किसी ने अपने स्थान से उठने की या कुछ कहने की कोशिश न की ।
युवक ने बन्द दरवाजे को धक्का देकर खोला और फिर एक तरफ हट गया ।
चारों ने भीतर कदम रखा ।
उनके पीछे दरवाजा बन्द हो गया ।
वो एक विशाल ऑफिसनुमा कमरा था जिसमें लगी ऑफिस टेबल के पीछे एक खलवाट खोपड़ी वाला व्यक्ति बैठा था जिसके सफेद कोट की दायीं जेब के ऊपर ‘डॉक्टर वी.के. सक्सेना’ अंकित प्लास्टिक की नेम प्लेट लगी हुई थी ।
मेज के सामने बिछी विजिटर्स चेयर्स में से एक पर बावर्दी डी.सी.पी. मनोहरलाल बैठा था, मीडिया के एकाएक आ टपकने पर जिसकी हैरानी छुपाये नहीं छुप रही थी ।
“डी.सी.पी. साहब” - हाशमी बड़े अदब से उससे सम्बोधित हुआ - “हम लोग....”
“हां, भई” - मनोहरलाल भुनभुनाता सा बोला - “मुझे दिखाई दे रहा है कि कौन हो तुम लोग और क्यों यहां आये हो ! लेकिन पहले मेरा एक सवाल । कैसे खबर लगी झामनानी की यहां मौजूदगी की ?”
“खबर हासिल करने के हमारे अपने सोर्स होते हैं, जनाब” - हाशमी बोला - “जिनको उजागर नहीं किया जा सकता ।”
“हमेशा एक ही बात कहते हो तुम लोग । इसीलिये मैं पोटो का तरफदार हूं । वो कानून पास हो जाये फिर तुम प्रैस वालों को कठघरे में खड़ा करने की हम पुलिस वालों को खुली छूट होगी ।”
“वो एक जुदा मसला है, सर, जिसका मौजूदा हालात में जिक्र बेमानी है ।”
“जरूर हस्पताल के स्टाफ में से किसी ने तुम लोगों को फोन किया । से यस आर नो ।”
“मे बी ।”
“अब बोलो क्या चाहते हो ?”
“झामनानी अगर गिरफ्तार है तो हम उसका फौरन इन्टरव्यू चाहते हैं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो बड़ा आदमी है ? बड़े आदमी की गिरफ्तारी न्यूज होती है ।”
“किधर का बड़ा आदमी है ? कोई नेता है वो ? इन्डस्ट्रियलिस्ट है ? फिल्म स्टार है ?”
“वो जो कुछ भी है, बड़ा तो....”
“गैंगस्टर है वो । स्मगलर है । मौत का सौदागर है ।”
“ये तो और भी अच्छा है । ऐसे लोग नेताओं और अभिनेताओं से ज्यादा न्यूजवर्दी होते हैं ।”
“अगर मैं मुलाकात की इजाजत न दूं तो ?”
“आपको अख्तियार है ऐसा करने का लेकिन मुझे यकीन है कि आप ऐसा करेंगे नहीं ।”
“क्यों ? क्यों नहीं करूंगा ?”
“क्योंकि आप पुलिस के आला अफसर हैं । डी.सी.पी. हैं । हमें यकीन है कि आप मीडिया से असहयोग नहीं करना चाहेंगे ।”
“वो डायलेसिस पर है ।”
“सर, इन्टरव्यू देने के लिये वो कोई बड़ी असुविधा नहीं है ।”
“झामनानी इसे बड़ी असुविधा समझ सकता है ।”
“तो फैसला उसी को करने दीजिये । सर, सहयोग की हमारी अपेक्षा आप से है, उससे नहीं है । हो भी नहीं सकती । अगर वो इन्टरव्यू से इनकार करेगा तो हम मजबूर होंगे ठण्डे ठण्डे यहां से लौट जाने को ।”
मनोहरलाल एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “ओके । मैं पुछवाता हूं झामनानी से ।”
“आप नहीं, सर, आप नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“ये भी आप हमें पूछने दीजिये ।”
“क्यों ? तुम समझते हो कि मैं इस बाबत झूठ बोल दूंगा ?”
“सर, जो हमारा काम है, वो प्लीज, हमें ही करने दीजिये । हमें उसके रूबरू होने की इजाजत जरूर दीजिये भले ही वो एक सैकेंड में हमें गैट आउट बोल दे ।”
मनोहरलाल फिर सोचने लगा ।
“सर” - अली ने याचना की - “जो फैसला करना है, जल्दी कीजिये ।”
“क्यों ?” - मनोहरलाल के माथे पर बल पड़े - “जल्दी क्या है ?”
“और अखबार वाले पहुंच जायेंगे । और टी.वी. चैनल वाले पहुंच जायेंगे ।”
“अभी ये हमारी एक्सक्लूसिव स्टोरी है ।” - हाशमी बोला - “हमारे और भाई लोग आ गये तो एक खास टिप पर हमारा आननफानन यहां पहुंचा होना किसी काम का नहीं रहेगा ।”
“हूं ।”
“सर, प्लीज ।”
“ठीक है । एक जना जा सकते हो ।”
“जी !”
“एक जना जा सकते हो ।”
“लेकिन....”
“नो लेकिन ।”
“लेकिन सर, हम सब एक टीम हैं ।”
“दिस इज दि बैस्ट आई कैन डू । वन ऑफ यू कैन गो । तुम सबसे ज्यादा बोल रहे हो, तुम जा सकते हो ।”
“लेकिन सर, कैमरा...”
“फोटो तुम निकाल सकते हो ।”
“लेकिन वीडियो कैमरा....”
“नहीं चलेगा । वो बहुत डिस्टर्बेंस का काम है । स्टिल फोटोग्राफ निकालने की इजाजत मिल सकती है, वो भी तब जब ये कैमरे वाला ही इन्टरव्यू ले या तुम ही फोटो निकालो ।”
हाशमी ने एक गुप्त निगाह वीडियो कैमरा सम्भाले विमल पर डाली ।
विमल ने हौले से इनकार में सिर हिलाया ।
“अब जल्दी फैसला करो ।” - मनोहरलाल बोला ।
“हमें ये अरेंजमेंट मंजूर नहीं ।” - हाशमी बोला ।
“तो फिर चलते फिरते नजर आओ ।”
“हम पुलिस कमिश्नर से बात करेंगे ।”
“मुझे कोई एतराज नहीं । अब तशरीफ ले जाओ ।”
“जाते हैं लेकिन हम लौट के आयेंगे । हम कमिश्नर की इजाजत के साथ उलटे पांव लौट के आयेंगे ।”
“जाओगे तो लौटोगे न !”
“ठीक है ।”
चारों बाहर निकल आये और इमारत से निकल कर वापिस वैन में जाकर सवार हुए ।
“क्या हुआ ?” - मुबारक अली ने पूछा ।
“यहां से निकलो, मामू ।” - हाशमी बोला - “बताते हैं ।”
सहमति में सिर हिलाते मुबारक अली ने वैन को आगे बढाया । वो उसे नर्सिंग होम के कम्पाउन्ड से निकाल कर मेन रोड पर ले आया, फिर उसे एक साइड रोड पर ले जाकर रोका ।
“अब बोल” - मुबारक अली बोला - “क्या हुआ ?”
हाशमी ने बताया ।
“तौबा !” - वो खामोश हुआ तो मुबारक अली विमल से बोला - “अरे, जाने देता इसे ।”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या वान्दा था ?”
“तुम्हें मालूम है क्या वान्दा था ! ये मेरा काम है, मैंने ही करना है ।”
“अब तेरी जिद तो....”
“ये जिद से ज्यादा दस्तूर की बात है । वो मेरा मुजरिम है इसलिये जरूरी है कि उसे सजा भी मेरे हाथों मिले ।”
“लेकिन जब हालात....”
“हालात हाशमी को सुइसाइड मिशन पर भेजने जैसे थे ।”
“क्या बोला ?”
“इसका अकेले जाना खुदकुशी करने जाने जैसा होता ।”
“तेरा जाना ऐसा न होता ?”
“होता लेकिन मेरे में और हाशमी में फर्क है ।”
“क्या फर्क है ?”
“मैं उधार की जिन्दगी जीता शख्स हूं । मेरा होना क्या, न होना क्या ?”
“सरदार, तेरे मुंह में खाक ।”
“हाशमी ने जो प्लान सैट किया था, उसमें हम जो करते, चारों करते । लिहाजा वारदात के बाद हमारा सेफ निकल आना मुमकिन होता । लेकिन बद्किस्मती से वैसी नौबत न आयी । उस डी.सी.पी. को हम सब का झामनानी के रूबरू होना कुबूल न हुआ इसलिये....”
“इसलिये अब हम क्या हुआ और क्या न हुआ पर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तबसरा करके वक्त जाया कर रहे हैं । ठीक ?”
“आठ बजने में” - वली धीरे से बोला - “सिर्फ दस मिनट बाकी हैं ।”
“एक बार वो” - अली बोला - “पुलिस की गिरफ्त में पहुंच गया तो कब छूटेगा ?”
“या छूटेगा भी या नहीं ।” - हाशमी बड़बड़ाया ।
“खामोश हो जाओ सब लोग ।” - विमल बोला ।
सब ने होंठ भींच लिये ।
“झामनानी के पास मोबाइल है ?”
सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे ।
“तू जवाब दे, भई ।” - विमल बजाज से बोला ।
बजाज हड़बड़ाया ।
“आजकल तो हर कोई मोबाइल रखता है । उसके पास भी जरूर होगा । नहीं ?”
“हां ।” - बजाज फंसे कंठ से बोला ।
“क्या हां ?”
“मोबाइल है उसके पास ।”
“गुड । नम्बर बोल ।”
बजाज हिचकिचाया ।
“टेम खोटी नहीं कर ।” - इरफान हिंसक भाव से बोला - “और ये भी नहीं बोलने का है कि तेरे कू नम्बर नहीं मालूम क्या ?”
“क... क्या ?”
“नम्बर बोल और क्या ?”
बजाज ने बोला ।
“गुड ।” - विमल बोला - “अब सब जने दुआ करो कि मोबाइल उसके पास हो, वो ऑन हो और वो उसे अटेण्ड करने की हालत में हो ।”
कोई कुछ न बोला ।
विमल ने अपना मोबाइल निकाला और उस पर झामनानी के लिये मैसेज पंच किया:
यू आर अबाउट टु बी अरैस्टिड । इमीनेंट दैट यू स्टाल दि अरैस्ट । यू विल भी रेस्क्यूड फ्राम वेयरएवर यू लैंड अदर दैन पोलीस लॉकअप । रैस्ट लेटर । इरेज दि मैसेज इमीजियेटली ।
डायलेसिस की टेबल पर लेटे झामनानी को अपने मोबाइल पर मैसेज रिसीव्ड की बीप सुनाई दी । पहले तो उसने मैसेज को नजरअन्दाज करने का फैसला किया लेकिन फिर कुछ सोच कर उसने ‘इनबॉक्स’ खोला ।
अपने कमरे के बाहर पुलिस की मौजूदगी की उसे खबर थी और उससे ये भी नहीं छुपाया गया था कि उसकी गिरफ्तारी के लिये वहां पुलिस लेकर आने वाला शख्स डी.सी.पी. मनोहरलाल था जो कि नसीबसिंह की जिन्दगी में उसका बॉस था । वो जानता था कि एक बार पुलिस की गिरफ्त में पहुंच जाने के बाद भगवान ही उसका मालिक था । दिल्ली से हमेशा के लिये कूच कर जाने के उसके फैसले में आखिरी क्षण में पंगा पड़ गया था जिसका कि उसे सख्त अफसोस था । साथ ही वो हैरान था कि पुलिस को उसकी वहां मौजूदगी की खबर कैसे लग गयी थी ? किस किस को खबर थी वहां उस नर्सिंग होम में उसके फिक्स्ड डायलेसिस शिड्यूल की ?
बिरादरीभाइयों को ?
लेकिन वो सब तो मर चुके थे ।
क्या मरने से पहले कोई कुछ बक गया था ?
खामखाह !
बजाज ?
नहीं, वो बहुत वफादार कुत्ता था, वो उसके साथ दगा नहीं कर सकता था ।
तो फिर कौन ?
अपनी उस दुश्वारी की घड़ी में उसे साधूराम मालवानी की याद न आयी जबकि दो साल पहले उसके उस सिन्धी भाई ने ही डायलेसिस के लिये उस नर्सिंग होम को उसे रिकमैंड किया था ।
मोबाइल की स्क्रीन पर अंकित मैसेज उसने पढा । पढा और समझा । जो समझा, वो इस प्रकार था:
तुम गिरफ्तार होने वाले हो । हर हाल में गिरफ्तारी को टालो । हवालात के अलावा कहीं भी पहुंचोगे, रिहा करा लिये जाओगे । बाकी बाद में । पढते ही मैसेज मिटा दो ।
वो भौचक्का सा स्क्रीन को देखता रहा ।
कौन था वो मैसेज भेजने वाला ?
भेजने वाले की जगह स्क्रीन पर जो मोबाइल नम्बर आया था, वो उसका जाना पहचाना नहीं था ।
कौन ?
भाई जिन्दा होता तो वो उसे उसी का कोई करतब मान लेता । लेकिन वो मर चुका था । तमाम बिरादरीभाई मर चुके थे । तो और कौन निकल आया था उस घड़ी में उसका खैरख्वाह ?
बजाज !
उसे और चन्द मिनटों में होने वाली उसकी गिरफ्तारी की खबर कैसे हो सकती थी ?
किसी को भी वो खबर कैसे हो सकती थी ?
क्या माजरा था ?
उसने मैसेज के साथ दर्ज मोबाइल नम्बर पर कॉल लगाई ।
कोई जवाब न मिला ।
किसी और के कुछ सुन लेने के अन्देशे की वजह से जरूर मैसेज भेजने वाला मोबाइल पर बात नहीं करना चाहता था । जरूर यही बात थी वरना उसी ने उसे मैसेज भेजने की जगह कॉल लगाई होती ।
“उठ जाइये, सर ।” - उसे नर्स का मधुर स्वर सुनाई दिया ।
वो हड़बड़ाया, फिर निर्देशानुसार पहले उसने मैसेज को मिटाया, फिर वो उठा, उसने अपने शरीर पर अपने कपड़े व्यवस्थित किये और जूते पहने ।
एक ही सवाल उसके जेहन में धाड़ धाड़ बज रहा था:
कैसे ? कैसे वो गिरफ्तारी को टाल सकता था ?
कैसे ? कैसे ?
नर्स ने आगे बढ कर कमरे का दरवाजा खोला ।
तत्काल उसकी रखवाली की ड्यूटी पर तैनात दोनों हवलदार चौखट पर प्रकट हुए । उनकी निगाह झामनानी पर पड़ी और फिर जाकर डॉक्टर से मिली ।
डॉक्टर ने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर एक हवलदार उलटे पांव कमरे से बाहर निकल गया ।
दूसरा वहीं ठिठका खड़ा रहा ।
“वडी क्या है नी ?” - जानबूझ कर अनजान बनता झामनानी झल्लाया - “क्यों सिर पर खड़ा है नी ?”
हवलदार ने उत्तर न दिया ।
“जा, बाहर जा के बैठ नी ।”
हवलदार अपने स्थान से न हिला ।
तभी अपने इन्स्पेक्टर के साथ डी.सी.पी. मनोहरलाल ने भीतर कदम रखा ।
उसकी पीठ पीछे झामनानी को बरामदे में और भी पुलिसिये दिखाई दिये ।
उसका दिल डूबने लगा ।
दिल !
“मिस्टर झामनानी” - मनोहरलाल कर्कश स्वर में बोला - “यू आर अन्डर अरैस्ट ।”
“वडी क्यों नी ?” - झामनानी हाथ नचाता गुस्से से बोला ।
“वजह पुलिस हैडक्वार्टर चल कर मालूम हो जायेगी ।”
“वडी इधर ही बोल नी ?”
“आप पर कई चार्ज हैं जिन्हें इस वक्त समझना आपके लिये मुश्किल होगा ।”
“वडी समझायेगा तो समझना क्यों मुश्किल होगा नी ?”
“बहस न कीजिये और....”
“मैं तुम्हारे कमिश्नर से बात करना चाहता हूं ।”
“कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि कमिश्नर साहब के हुक्म से ही आपको हिरासत में लिया जा रहा है ।”
“मैं अपने वकील से बात करना चाहता हूं ।”
“बात करा दी जायेगी । अब चलिये ।”
“मैं यहीं, अभी अपने वकील से बात करना चाहता हूं ।”
“मिस्टर झामनानी, प्लीज मूव । प्लीज डोंट मेक इट डिफीकल्ट फार यू ।”
“मैं अपने मोबाइल फोन पर वकील को फोन लगाता हूं नी ।”
झामनानी ने फोन निकाल कर हाथ में लिया ही था कि मनोहरलाल ने आगे बढ कर फोन उसके हाथ से झपट लिया और फिर कहरभरे स्वर में बोला - “अब चलते हो या घसीट कर ले जाया जाये ?”
“वडी ये कैसी धांधली है नी ? कैसी गुंडागर्दी है नी ? वडी तू पुलिस अफसर है कि जल्लाद है जो....”
“अब हिल भी चुक ।” - दान्त पीसता मनोहरलाल बोला । उसने झामनानी को बांह से पकड़ा और दरवाजे की तरफ धकेला ।
झामनानी लड़खड़ाया, सम्भला, फिर अपने दोनों हाथों से उसने अपना कलेजा थाम लिया ।
“हाय !” - उसके मुंह से निकला ।
मनोहरलाल सकपकाया, उसने सन्दिग्ध भाव से झामनानी की तरफ देखा ।
झामनानी ने एक बार फिर फरमायशी चीत्कार किया ।
“हाय !” - उसके मुंह से निकला - “हाय मेरा दिल ! हाय मैं गया । झूलेलाल, मैं गया ।”
फिर वो चकरा कर फर्श पर गिरा ।
मनोहरलाल घबरा कर एक कदम पीछे हट गया । उसने धराशायी झामनानी की शक्ल पर निगाह डाली तो उसे उसकी आंखें उलटी हुई लगीं ।
“डॉक्टर !” - वो बौखलाये स्वर में बोला - “देखो इसे क्या हुआ ?”
“दिल का दौरा पड़ गया जान पड़ता है ।” - डॉक्टर बोला ।
“खामखाह !”
“गिरफ्तारी की दहशत होती है बाज लोगों को ।”
“अरे, जुबानी जमाखर्च कर रहे हो, देखो तो सही । एग्जामिन तो करो । पहले ही क्यों फतवा दे रहे हो कि दिल का दौरा पड़ गया है ।”
“मैं दिल का डॉक्टर नहीं हूं....”
“तौबा ! अरे, डॉक्टर तो हो या वो भी नहीं हो ?”
जवाब में डॉक्टर ने स्टेथस्कोप सम्भाला और उकड़ूं बैठ कर उसका दिल टटोलने लगा ।
“मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा ।” - फिर वो बोला - “मैं इन्हें आई.सी.यू. में पहुंचाने का इन्तजाम करता हूं, वहां कार्डियोलोजिस्ट इनका मुआयना करेगा ।”
“जो करना है, जल्दी करो ।”
संयोगवश इन्टेसिव कॉरोनरी केयर यूनिट उसी फ्लोर पर था जहां कि झामनानी को पहुंचाया गया ।
उसके बाद दो घन्टे मनोहरलाल को आई.यी.सी.यू. के बाहर एड़ियां रगड़नी पड़ीं ।
आखिरकार कार्डियोलोजिस्ट डॉक्टर बाहर निकला ।
मनोहरलाल तत्काल उसके पास पहुंचा ।
“हार्ट में मामूली गड़बड़ ट्रेस की जा सकी है” - डॉक्टर बोला - “लेकिन वो जरूरी नहीं कि हालिया हो । मरीज की कोई हार्ट की केस हिस्ट्री है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“मरीज रीनल फेलियर का शिकार है । ऐसे मरीजों का हार्ट कमजोर होना कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि....”
“वजह छोड़िये । ये बातें मेरी समझ में नहीं आने वालीं । आप मेरे मतलब की बात दो टूक मुझे बताइये । क्या वो चलने फिरने की हालत में है ?”
“है लेकिन....”
“यानी कि उसे गिरफ्तार करके ले जाया जा सकता है ?”
“नहीं ।”
“वजह ?”
“मरीज को आबजर्वेशन के लिये कम से कम चौबीस घन्टे यहां रखना जरूरी है ।”
“यहां कहां ? आई.सी.सी.यू. में ?”
“नहीं । उन्हें रूम में शिफ्ट किया जा सकता है ।”
“अभी ?”
“जी हां ।”
“ठीक है । मरीज को किसी ऐसे फ्लोर पर किसी ऐसे प्राइवेट रूम में शिफ्ट कीजिये, जहां आवाजाही कम से कम हो ।”
उसके निर्देश की तामील हुई ।
झामनानी को नर्सिंग होम की चौथी मंजिल के एक कमरे में शिफ्ट कर दिया गया ।
मनोहरलाल एक हवलदार को झामनानी की निगरानी के लिये उसके कमरे के दरवाजे पर बिठा कर अपने दल बल के साथ वहां से रुख्सत हुआ ।
***
रात साढे बारह बजे के करीब चौथी मंजिल पर आकर लिफ्ट रुकी और उसके स्वचालित दरवाजे के अपनी जगह से सरकने की आवाज हुई ।
झामनानी के कमरे के बन्द दरवाजे के सामने बैठे हवलदार माधोराम ने ऊंघते आंघते लिफ्ट के दरवाजे की तरफ निगाह उठाई ।
वो अपनी ड्यूटी से बेजार था और उसे नहीं लगता था कि वो सारी रात जागा रह सकता था । न ही सारी रात जागना उसे जरूरी लग रहा था । उस कमरे से निकासी का एक ही रास्ता था जिसको उसने बाहर से कुंडी लगाई हुई थी । कैसे वो बड़ा खलीफा झामनानी वहां से खिसक सकता था ।
लिफ्ट का दरवाजा पूरा खुल गया तो उसके भीतर की रोशनी आयताकार रूप में गलियारे के नीमअन्धेरे फर्श पर पड़ी । फिर लिफ्ट के पिंजरे में से एक दैत्याकार व्यक्ति ने बाहर कदम रखा जो कि हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ा हुआ था । उसके पीछे एक पुलिस अधिकारी बाहर निकला ।
ए.सी.पी. ! - हवलदार माधोराम ने सजग होते हुए सोचा - क्या माजरा था !
दोनों अगल अगल चलते उसकी ओर बढे ।
तत्काल माधोराम उठ कर खड़ा हो गया । उसने देखा कि कैदी का आकार ही दैत्यों जैसा नहीं था, उसकी सूरत भी विकराल थी । उसके चेहरे पर घनी दाढी थी जो कि बिखरी हुई थी सिर पर उसने काला पटका लपेटा हुआ था जो कि एक कनपटी से यूं सरक गया हुआ था कि साफ जान पड़ता था कि वो सिर से एकदम गंजा था ।
उसके सारे शरीर पर फिरती उसकी निगाह उसके पैरों पर आकर अटकी ।
तौबा ! कितने बड़े पांव थे कम्बख्त के ! जरूर कम से कम बारह नम्बर का जूता पहनता होगा ।
“हवलदार ।” - उसके सामने से गुजरता ए.सी.पी. बोला - “मेरे साथ आओ ।”
माधोराम हड़बड़ाया ।
हुक्म देने वाला शख्स ए.सी.पी. था । कैसे वो, एक मामूली हवलदार, उसकी हुक्मउदूली कर सकता था ।
“साहब जी” - फिर भी वो बोला - “मैं यहां....”
“मुझे मालूम है तुम क्यों यहां हो !” - ए.सी.पी. अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“आ... आपको मालूम है ?”
“हां । कुंडी लगी तो हुई है दरवाजे को बाहर से । कहां भाग जायेगा तुम्हारा कैदी ? कैसे भाग जायेगा ?”
“साहब जी, फिर भी....”
“तुम्हारी फिर भी का भी इन्तजाम है हमारे पास ।”
“जी !”
“हटो ।”
माधोराम एक तरफ हटा तो ए.सी.पी. दरवाजे के सामने आ खड़ा हुआ । उसने जेब से एक मजबूत ताला निकाला, उसे कुण्डी में पिरो कर उसमें चाबी फिराई चाबी निकाल कर ताले को परखा और फिर चाबी माधोराम की तरफ बढा दी ।
माधोराम ने झिझकते हुए चाबी थाम ली ।
“अब ठीक है ?” - ए.सी.पी. बोला ।
“हां, साहब जी ।”
“आओ ।”
माधोराम कैदी और ए.सी.पी. के पीछे हो लिया ।
गलियारे के सिरे पर एक जनरल वार्ड था जिसका प्रवेश द्वार वार्ड के ऐन बीच में था । दरवाजे के सामने परली दीवार के करीब ड्यूटी नर्स की टेबल लगी हुई थी जिस पर वो सिर डाले सोई पड़ी थी । उसकी टेबल के दायें बायें वार्ड की दो दो कतारों में चार चार बैंड थीं जिनके बीच में मोटे पर्दों की पार्टीशन थी ।
“खाली बैड किधर है ?” - ए.सी.पी. अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“बायें विंग की सभी खाली हैं ।” - नर्स हड़बड़ाई सी बोली - “लेकिन....”
“ये पुलिस केस है । कागजी कार्यवाही अभी सरकारी डॉक्टर के यहां पहुंचने के बाद होगी । तब तक तुम्हारा कोई काम नहीं ।”
नर्स का सिर सहमति में हिला ।
“बैठो ।”
नर्स वापिस अपनी कुर्सी पर बैठ गयी ।
कैदी को सिरे की बैड तक पहुंचाया गया ।
ए.सी.पी. ने कैदी को बैड पर धकेल दिया ।
“खतरनाक टैरेरिस्ट है ।” - वो बोला - “मक्कारी कर रहा है । पेट में भयंकर दर्द बता रहा है । खुद ही बता रहा है कि अपेंडेसाइटिस का दर्द है जो फट गया तो ये मर जायेगा । स्साला ! रास्ते में तड़प कर दिखा रहा था । अब खामोश है ।”
माधोराम ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“स्टाफ का तोड़ा है । जो दो कांस्टेबल मेरे साथ थे उन्हें मैंने सरकारी डॉक्टर को लिवाने भेज दिया है । मुझे भी फौरन कहीं जाना है । तुम्हें बड़ी हद आधा घन्टा इसके सिरहाने बैठना होगा ।”
“जी !” - माधोराम चौंका ।
“उससे पहले ही मेरे कांस्टेबल यहां लौट आयेंगे ।”
“लेकिन साहब जी, मेरी ड्यूटी तो उधर बाहर है जहां....”
“आधे घन्टे में वहां कोई आफत नहीं आ जाने वाली, खासतौर से जब वहां बाहर से ताला लगा हुआ है और मरीज भीतर सोया पड़ा है ।”
“सोया पड़ा है ?”
“घोड़े बेच कर सोया पड़ा है । मैंने वहां दरवाजे में बनी आबजर्वेशन विंडो में से भीतर झांक कर देखा था ।”
“ओह !”
“वैसे भी इतनी रात गये वो सोया नहीं पड़ा होगा तो क्या डांस कर रहा होगा !”
“वो तो है, साहब जी ।”
“कोई और शिकायत ?”
“शिकायत कोई नहीं, साहब जी, लेकिन ये तो राक्षस जैसा कैदी है जिसे आप खतरनाक टैरेरिस्ट भी बता रहे हैं, ये तो पीछे मेरा मलीदा निकाल देगा ।”
“कैसे निकाल देगा ? ये हथकड़ियों बेड़ियों में जकड़ा हुआ है ।”
“साहब जी, झपट तो सकता है । ये तो मेरे ऊपर ही ढेर हो गया तो मेरा काम हो जायेगा ।”
“ये भाग नहीं सकता ।”
“मेरा काम हो गया तो ये भागा या न भागा....”
“ओके । ओके । मैं उसका भी इन्तजाम करता हूं ।”
“क्या, साहब जी ?”
ए.सी.पी. ने अपनी जेब से हथकड़ियों की चाबी बरामद की उसने उसे लगा कर उसकी दायीं कलाई की हथकड़ी खोली और उसे लोहे के पलंग की रेलिंग में पिरो कर हथकड़ी बन्द कर दी । फिर उसने जेब से हथकड़ियों का एक और जोड़ा निकाला, उसने एक हथकड़ी कैदी के एक टखने में पिरो कर बन्द की और दूसरी पलंग के पायताने की रेलिंग में डाल कर बन्द कर दी ।
“अब ठीक है ?” - फिर वो माधोराम से सम्बोधित हुआ ।
“हां, साहब जी ।” - माधोराम झिझकता हुआ बोला ।
“अब तो नहीं झपट सकता ये ?”
“नहीं, साहब जी ।”
“गुड । लो, हथकड़ियों की चाबियां भी अपने पास रखो ।”
माधोराम ने झिझकते हुए दोनों चाबियां थाम लीं । उससे ये पूछते न बना कि एक ए.सी.पी. की वर्दी की जेब में हथकड़ियों का जोड़ा क्या कर रहा था, ताला क्या कर रहा था ।
“अब यहां कुर्सी पर बैठ जाओ ।” - ए.सी.पी. बोला - “जब तक सरकारी डॉक्टर और मेरे कांस्टेबल नहीं आ जाते, तब तक थोड़ी थोड़ी देर में, समझ लो कि हर दस मिनट बाद, बाहर गलियरे का भी चक्कर लगा आना और अपने कैदी को चौकस कर आना । अब ठीक है ?”
“हां, साहब जी ।”
“कोई और बात ?”
“नहीं, साहब जी ।”
“तो मैं जाऊं ?”
“हां, साहब जी ।” - माधोराम बोला, आखिर बीच बीच में बाहर चक्कर लगा आने की बात ने उसे बहुत आश्वस्त किया था । ए.सी.पी. नौजवान था लेकिन काबिल था, हर बात का खयाल रखता था ।
ए.सी.पी. वहां से रुख्सत हुआ । नर्स पर बिना निगाह डाले वो वार्ड से बाहर निकला और निशब्द चलता हुआ झामनानी वाले कमरे के सामने पहुंचा । उसने एक बार आबजर्वेशन विंडो से भीतर झांका और फिर जेब से दूसरी चाबी निकाल कर ताले में फिराई । ताले को कुंडे से निकाल कर उसने उसे अपनी जेब में रखा और दरवाजा खोल की भीतर दाखिल हुआ ।
भीतर कमरे में नीमअन्धेरा था । उसको इकलौती खिड़की पर मोटा पर्दा पड़ा हुआ था और पलंग के करीब की एक जलती फुटलाइट वहां न होने जैसे प्रकाश का इकलौता साधन था ।
वो पलंग के करीब पहुंचा ।
झामनानी की आंखें बन्द थीं और उसकी सांस सुव्यवस्थित रूप से चल रही थी ।
ए.सी.पी. ने उसकी बांह थाम कर हौले से उसे झिंझोड़ा ।
झामनानी ने आंखें खोलीं, अपने ऊपर एक वर्दीधारी पुलिसिये को झुका पाकर उसके चेहरे पर हैरानी और अन्देशे के मिले जुले भाव आये, उसका मुंह बोलने के लिये खुला ।
“श... श ।” - ए.सी.पी. दबे स्वर में बोला - “आवाज नहीं । ऊंची आवाज नहीं ।”
“क... कौन... कौन हो ?”
“मैं ‘भाई’ का आदमी हूं ।”
“क... क्या ?”
“‘भाई’ । ‘भाई’ का आदमी हूं मैं ।”
“वडी पुलिस वाला नहीं है नी ?”
“नहीं ।”
“‘भाई’ का आदमी इधर कैसे पहुंच गया ?”
“‘भाई’ ने हुक्म दिया, पहुंच गया ।”
“‘भाई’ ने हुक्म दिया ! ‘भाई’ तो खलास है नी !”
“कौन बोला ?”
“इनायत दफेदार करके था कोई जो बोला ।”
“कब बोला ?”
“आज ही बोला नी । आज सुबह जब मैंने ‘भाई’ के मोबाइल पर कॉल लगाई तो जवाब में ‘भाई’ की जगह वो इनायत दफेदार बोला जो अपने आपको ‘भाई’ का खास करके बोला ।”
“क्या बोला ? ‘भाई’ खलास ?”
“हां । बोला पिछली रात ‘भाई’ का कत्ल हो गया था ।”
“सपना देखा होगा ।”
“वडी वो ये भी बोला नी कि वो उस कर्मांमारे सोहल का कारनामा जान पड़ता था ।”
“बंडल मारा कोई । ‘भाई’ का कत्ल करना कोई हंसी खेल है । क्या सोहल क्या काला चोर, कोई ‘भाई’ के करीब भी नहीं फटक सकता ।”
“जिन्दा है वो ?”
“हां ।”
“वडी सच बोल रहा है नी ?”
“मैं झूठ क्यों बोलूंगा ।”
“वो तो ठीक है नी लेकिन....”
“इस वक्त इस दुनिया में तुम्हें अपना कोई ऐसा हिमायती दिखाई देता है ‘भाई’ के अलावा जो तुम्हारी मौजूदा हालत से तुम्हें निजात दिलाने के लिये कोई कदम उठा सके ?”
“वडी नहीं नी लेकिन... लेकिन ‘भाई’ भी क्यों ?”
“क्योंकि ‘भाई’ को तुम्हारी जरूरत है । तुम खत्म हो गये तो दिल्ली की बिरादरी बिलकुल ही खत्म हो जायेगी । दिल्ली में हेरोइन के कारोबार की बाबत ‘भाई’ ने आगे जवाबदारी करनी है इसलिये वो तुम्हें पुलिस के हाथों पड़ा नहीं देखना चाहता । तुम एक बार अन्दर पहुंच गये तो कभी बाहर नहीं आ सकोगे इसलिये ‘भाई’ ने यही मुनासिब जाना कि तुम्हारे अन्दर पहुंचने में ही फच्चर डाला जाये ।”
“जो कि तू डाल रहा है नी ।”
“डाल चुका हूं । अब तुम्हारे में और तुम्हारी आजादी में सिर्फ चन्द कदमों की दूरी है ।”
“‘भाई’ को खबर कैसे लगी नी मेरी... मेरी हालत की ?”
“‘भाई’ के बहुत सोर्स हैं, बहुत जरिये हैं, बहुत हिमायती हैं ।”
“फिर भी....”
“इस वक्त अहम काम क्या है तुम्हारे लिये ? आम खाना या पेड़ गिनना ?”
“ओह ! ओह ! वडी ठीक बोला नी तू ।”
“बात को समझो और उस पर अमल करो ।”
“वडी क्या करूं नी ?”
“बाकी बातें बाद में भी हो सकती हैं ।”
“हो सकती हैं नी । अब बोल तो सही, क्या करूं नी ?”
“उठ के खड़े होवो, मेरी वर्दी पहनो और चुपचाप यहां से निकल जाओ । कोई तुम्हें रोकेगा नहीं, कोई तुम्हें टोकेगा नहीं ।”
“और तू ? पीछे तू क्या करेगा नी ?”
“मेरी फिक्र न करो । मेरा जुगाड़ मेरे पास है ।”
“ओह ! निकल कर कहां जाऊं ?”
“तुम्हारा ड्राइवर भागचन्द तुम्हारी शेवरलेट गाड़ी के साथ अभी भी नर्सिंग होम के पिछवाड़े की गली में वहीं मौजूद है जहां तुमने उसे छोड़ा था । जाकर उसके साथ अपनी गाड़ी में सवार हो जाओ और फिर तुम जहां चाहो जाने के लिये आजाद हो । ठीक ।”
“ठीक । पुटड़े, एक आखिरी बात... आखिरी बात और बता दे ।”
“बोलो ।”
“वडी ‘भाई’ सच में सलामत है नी ?”
“यहां से निकलो और इलाके से किनारा करो । अब से ठीक आधे घन्टे बाद ‘भाई’ तुम्हारे मोबाइल पर कॉल लगायेगा । तब तुम उसको अपनी आजादी का शुक्रिया भी अदा कर देना और अपनी तसल्ली भी कर लेना कि तुम ‘भाई’ से ही मुखातिब हो या किसी और से ।”
“मैं अभी अपनी तरफ से ‘भाई’ को फोन लगाऊं तो....”
“तो ‘भाई’ खफा होगा । ये कोई टाइम है ‘भाई’ को फोन लगाने का ! एक बजने को है । मालूम ?”
“वडी जब वो मुझे फोन करने के लिये....”
“मुझे नहीं लगता कि तुम आजाद होने के ख्वाहिशमन्द हो । मैं जाता हूं ।”
“वडी ऐसा न करना नी ।”
“तो बातों में वक्त जाया करना बन्द करो । जो हवलदार बाहर तुम्हारी निगरानी के लिये तैनात था उसे मैं बड़ी मुश्किल से अपनी ड्यूटी से टरका पाया हूं । वो वापिस लौट आया तो तुम्हारा तो कुछ नहीं जायेगा - क्योंकि तुम तो पहले से गिरफ्तार हो - उसके शोर मचाने पर मैं जरूर पकड़ा जाऊंगा ।”
“वडी नहीं नी ।”
“तो जल्दी करो ।”
झामनानी पलंग से उतरा, उसने आननफानन कपड़ों की अदलाबदली के अहम काम को अन्जाम दिया ।
“अब चुपचाप यहां से निकल जाओ और जैसा कहा है वैसा करो ।”
“और तू नी ?”
“हवलदार को धोखा देने के लिये मैं थोड़ी देर पलंग पर तुम्हारी जगह लूंगा और फिर मैं भी खिसक जाऊंगा । अब बातों में वक्त जाया मत करो और फूटो ।”
सहमति में सिर हिलाता, अपनी तकदीर पर बलिहार जाता, ‘भाई’ की दरियादिली और सलाहियात के कसीदे पढता, झामनानी वहां से रुख्सत हुआ ।
हवलदार माधोराम ने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
ए.सी.पी. साहब को रुख्सत हुए दस मिनट हो चुके थे ।
अब वो उस कैदी पर निगाह डालने के लिये वहां से जा सकता था जो कि सिर्फ उसकी जिम्मेदारी था ।
उसने पलंग पर पड़े खतरनाक टैरेरिस्ट पर निगाह डाली तो पाया कि उसकी आंखें बन्द थीं और सांस ऐसी सुव्यवस्थित चल रही थी जैसे सो गया हो ।
बढिया ।
वो अपने स्थान से उठा और निशब्द चलता हुआ बाहर की ओर बढा ।
ड्यूटी नर्स फिर मेज पर सिर डाले सोई पड़ी थी ।
पूर्ववत् निशब्द चलता वो गलियारे में पहुंचा और फिर झामनानी वाले कमरे के दरवाजे पर जाकर ठिठका जहां सबसे पहले उसने ताले का मुआयना किया ।
ताला पूर्ववत् मजबूती से बन्द था ।
उसने आबजर्वेशन विंडो के शीशे में से कमरे के भीतर झांका ।
अपना कैदी उसे पलंग पर मौजूद मिला । उसने अपने जिस्म को सिर से पांव तक चादर से ढंका हुआ था और लगता था जैसे वो पीठ के बल लेटा हुआ हो ।
लेकिन - उसने उलझनपूर्ण भाव से सोचा - वैसी मुद्रा में तो उसकी सांस चलती मालूम होनी चाहिये थी, पतली चादर में सांस की वजह से कोई जुम्बश पैदा होती दिखाई देनी चाहिये थी ।
हे भगवान ! - फिर उसने घबरा कर सोचा - कहीं टें तो नहीं बोल गया । दिल के मरीज का क्या पता लगता था । सांस आयी, आयी; न आयी, न आयी ।
उसने जेब से चाबी निकाल कर ताला खोला, कुंडी हटा कर दरवाजे को धक्का दिया और भीतर कदम डाला । झिझकता हुआ वो पलंग के करीब पहुंचा ।
“साहब जी !” - वो धीरे से बोला - “झामनानी साहब जी ?”
कोई जवाब न मिला ।
“सर जी !” - वो कदरन उच्च स्वर में बोला ।
जवाब नदारद ।
झिझकते हुए उसने चादर का सिर की ओर का एक कोना थामा और उसे नीचे खींचा ।
नीचे से कैदी की सूरत नमूदार न हुई ।
घबरा कर उसने एक झटके से पूरी चादर खींच ली ।
पलंग पर कैदी नहीं था । उसकी जगह पलंग पर लम्बवत् तकिये पड़े थे जिनको चादर से ढंक कर पलंग पर उसके मौजूद होने का भ्रम पैदा किया गया था ।
हे भगवान ! हे भगवान !
आगे जो कुछ उसने किया वो गैरजरूरी था, बेमानी था लेकिन फिर भी किया ।
उसने कमरे की पड़ताल की ।
खिड़की के तमाम पल्ले मजबूती से भीतर से बन्द थे ।
बाथरूम खाली था ।
वार्डरोब खाली थी ।
वो आतंकित हो उठा ।
जरूर वो किसी बहुत बड़े षड्यन्त्र का शिकार हुआ था ।
बगूले की तरह वो वहां से बाहर निकला और वार्ड में पहुंचा ।
उसके पैरों की धम्म धम्म से नर्स भी जाग गयी और हकबकाई सी उसकी तरफ देखने लगी ।
वो उग्रवादी कैदी के पलंग पर पहुंची ।
पलंग पर हथकड़ियां और बेड़ियां पड़ीं उसका मुंह चिड़ा रही थीं ।
कैदी गायब था ।
उसने माथा पीट लिया ।
***
झामनानी निर्विघ्न नर्सिंग होम से बाहर निकल आया और फिर ब्लॉक का घेरा काट कर पिछवाड़े की गली में पहुंच गया ।
शेवरलेट यथास्थान खड़ी थी ।
भागचन्द स्टियरिंग पर सिर डाले सोया पड़ा जान पड़ता था ।
झामनानी ने उसकी ओर की खुली खिड़की के करीब गाड़ी की छत को ठकठकाया और बोला - “वडी तगड़ा हो जा नी ।”
उसे हड़बड़ा कर सिर उठाता पाकर वो गाड़ी की पिछली सीट पर सवार हो गया ।
तत्काल गाड़ी वहां से चल पड़ी ।
झूलेलाल !
गली के सिरे से गाड़ी ने मोड़ काटा और फिर मेन रोड पर आ गयी ।
गाड़ी सड़क पर दौड़ने लगी ।
“भागचन्द !” - एकाएक झामनानी बोला ।
जवाब में उसने हुंकार भरी ।
“वडी नींद से जागा नहीं अभी तू । वडी ये तो पूछ नी किधर जाना है ।”
“वापिस ।”
“वडी मैं बोला वापिस जाने को ?”
जवाब में वो कुछ बोला जो झामनानी की समझ में न आया ।
“गाड़ी वापिस घुमा । बदरपुर की तरफ चल । वडी सुना नी ?”
उसने फिर हूंकार भरी ।
“वडी तेरी आवाज किधर गयी नी ? राशन में क्यों बोलता है नी ?”
उसने उत्तर न दिया । उसने गाड़ी की गति कम की और उसे यू टर्न देने लगा । तभी बाजू से आगे निकलते एक ट्रक की हाई बीम गाड़ी पर पड़ी और क्षण भर को गाड़ी रोशनी से नहा गयी । उस एक क्षण में उसकी निगाह रियरव्यू मिरर में अपने ड्राइवर से मिली ।
उसके शरीर में सिहरन दौड़ गयी ।
जो दो आंखें उससे चार हुई थीं, वो तो अंगारों की तरह दहकती जान पड़ती थीं ।
“भागचन्द !” - वो खोखले स्वर में बोला ।
कोई जवाब न मिला ।
“तू भागचन्द ही है न ?”
जवाब नदारद ।
“गाड़ी रोक ।”
तत्काल गाड़ी की रफ्तार घटी । फिर वो सड़क से नीचे उतर गयी और एक पेड़ की ओट में जाकर रुकी । कार की हैडलाइट्स ऑफ हो गयीं और उसके भीतर की लाइट जल उठी ।
ड्राइवर ने अपने सिर से पीक कैप उतार कर बगल की सीट पर डाल दी और उसकी तरफ घूमा ।
“हल्लो !” - वो मधुर स्वर में बोला ।
झामनानी के प्राण कांप गये ।
“स... स” - बड़ी मुश्किल से उसके मुंह से बोल फूटा - “सो... सोहल ।”
“वही । साक्षात । बिरादरी के आखिरी भाई को मेरा सत श्री अकाल पहुंचे ।”
“भा... भागचन्द... भागचन्द किधर है ?”
“बढिया । गोया तुम्हें अपने से ज्यादा अपने मुलाजिम की फिक्र है । उसे कुछ न हो, तुम्हें भले ही कुछ भी हो जाये । ठीक ?”
झामनानी ने जोर से थूक निगली ।
“उसे क्या हो सकता है ? हो सकता है तो मेरे किये नहीं हो सकता क्योंकि वो तो स्काच विस्की की स्मगलिंग का धन्धा नहीं करता, जुआ नहीं खिलवाता, कालगर्ल्स सप्लाई नहीं करता । या करता है वो भी ये सब ?”
झामनानी का सिर मशीन की तरह इनकार में हिला ।
“शुक्र है । शुक्र है, वरना जिसका तन मन सब काला हो, उसकी संगत में कैसे कोई उजला रह सकता है ?”
झामनानी के मुंह से बोल न फूटा ।
“अब कोई आखिरी ख्वाहिश हो तो बोला ।”
“तू... तू... तू मुझे मारना चाहता है ?”
“जरूरी नहीं ।”
“ज... जरूरी नहीं ?”
“शर्म से मर जाओ तो आरती उतारना चाहता हूं ।”
झामनानी के गले की घन्टी जोर से उछली ।
“खुदा को मानते हो ?”
“क... क्या ?”
“मैंने पूछा खुदा को मानते हो ? अपने बनाने वाले पर अकीदा है तुम्हारा ?”
“हं... हां । हां ।”
“फिर भी उसकी झूठी कसम खायीं ?”
“झ... झूठी कसम ?”
“हां, झूठी कसम । क्या बोला था नये साल की रात को गुरुबख्शलाल की कोठी पर । ‘ध्यान भी करूं ड्रग्स के धन्धे का तो झूलेलाल के कहर की बिजली मेरे सिर पर गिरे’ । यही कहा था न ? यही कह कर तब अपनी जानबख्शी कराई थी न ? अब ये सोच के अपने आपकी तसल्ली दो कि अभी, इसी घड़ी, इसी जगह झूलेलाल की कहर की बिजली ही तुम्हारे ऊपर गिरने वाली है ।”
“वडी खता माफ कर नी ।” - झामनानी गिड़गिड़ाया ।
“फिर ?”
“रहम कर नी ?”
“लगता है जो सबसे ज्यादा बेरहम होता है, वो ही सबसे ज्यादा रहम का तलबगार होता है ।”
“वडी एक मौका और दे नी ।”
“तेरे जोड़ीदार भी मौत से पहले ये ही जुबान बोलते थे । छोड़ दे, एक मौका और दे, रहम कर दे । सब सयाने हो । एक मैं ही अक्ल का अन्धा, अक्खा ईडियट बाकी बचा हूं इस दुनिया में ।”
“अरे पुटड़े, मेरे को मार के तुझे क्या मिलेगा ?”
“न मार के क्या मिलेगा ?”
“क... क... क्या ?”
“कितने खून हुए मेरे हाथों से । एक कम होने से कोई डिस्काउन्ट मिल जायेगा मुझे ? या जो तेरे से पहले गये, तेरी जान उनकी जान से ज्यादा खास है, ज्यादा कीमती है, ज्यादा अहम है ?”
झामनानी ने अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी ।
“सदा ऐश दौरां दिखाता नहीं, गया वक्त फिर लौट आता नहीं ।”
“वडी क्या बोला नी ?”
“वही जो तूने सुना नी । गया वक्त लौट के नहीं आता । हमेशा कोई चान्दी नहीं काट सकता । हमेशा किसी का साथ नहीं देती तकदीर । समझ ले तेरा रब्ब रूठा । समझ ले तेरे पापों का घड़ा भर चुका । अब उसे फूटने से कोई नहीं रोक सकता । मैं भी नहीं । इसलिये कोई आखिरी ख्वाहिश हो तो बोल ।”
“वडी आखिरी ख्वाहिश तो जानबख्शी की ही है ।”
“अगले जन्म की नहीं, इस जन्म की कोई आखिरी ख्वाहिश हो तो बोल ।”
वो न बोल पाया ।
“यानी कि कोई नहीं । तो फिर....”
विमल ने अपना एक हाथ ऊंचा किया तो झामनानी को उसमें रिवॉल्वर दिखाई दी ।
“प... पीछे” - झामनानी एकाएक यूं बोला जैसे वार्तालाप जारी रहने से उसकी मौत टल सकती हो - “नर्सिंग होम में जो हुआ, वो सब तूने कराया ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“वो इन्स्पेक्टर ? फर्जी था ? तेरा आदमी था ?”
“और तेरा जाना पहचाना था ।”
“म... मेरा जाना पहचाना ?”
“हाशमी नाम है उसका । मंगलवार सोलह मई को जो अपने मामू मुबारक अली और भाइयों के साथ मुझे छुड़ाने तेरे फार्म पर पहुंचा था । जिसने लाउडस्पीकर पर तेरे आदमियों को हथियार डालने के लिये सबसे ज्यादा मोटीवेट किया था ।”
“उधर कमरे में रोशनी नहीं थी, मैं उसकी सूरत नहीं देख सका था ।”
“उसे भी यही उम्मीद थी, तभी उसने इन्स्पेक्टर का किरदार निभाया वरना उसकी जगह कोई और होता ।”
“उसने ने क्यों न मार डाला मुझे ।”
“मुश्किल सवाल है । जवाब सोच कर चिट्ठी लिखूंगा । मार्फत ‘भाई’ ऑफ दुबई ।”
“‘भाई’ ! वाकेई मर चुका है ?”
“नहीं । वैसे ही चला गया ऊपर । तेरे लिये मेरी चिट्ठी रिसीव करने का अहम काम करने के लिये । इन्तजार करना जहन्नुम में मेरी चिट्ठी का ।”
रिवॉल्वर ने आग उगली ।
***
उपसंहार
चाण्डाल चौकड़ी आखिरकार जहन्नुमरसीद हुई ।
मुबारक अली और उसके भांजों का बार बार शुक्रगुजार होता विमल इरफान के साथ मुम्बई वापिस लौट आया ।
होटल सी-व्यू की सुरक्षा में ।
जो कि अब ‘भाई’ के मनहूस साये से मुक्त था और पूर्ण सुचारू रूप से मुनाफे पर चल रहा था, राजा गजेन्द्र सिंह और उनके योग्य और निष्ठावन एग्जीक्यूटिव्स की टीम जिसे कामयाबी की बुलन्दी तक पहुंचाने के लिये दृढप्रतिज्ञ थी ।
राजा साहब मुम्बई की हाई सोसायटी में इस हद तक स्थापित थे कि खुद वहां का पुलिस कमिश्नर उनका मित्र और प्रशंसक था, ओरियन्टल होटल और रिजॉर्ट्स के वो डायरेक्टर थे और एम.डी. बनने वाले थे । ‘भाई’ खत्म था, इनायत दफेदार की कोई खोज खबर नहीं थी, इन्टरनेशनल ड्रग लॉर्ड, माफिया डॉन रीकियो फिगुएरा पता नहीं कहां था लेकिन विमल को यकीन था कि दिल्ली में झामनानी की बिरादरी के और मुम्बई में ‘भाई’ के खत्म हो जाने के बाद उसकी इन्डिया का रुख करने की मजाल नहीं होने वाली थी ।
लिहाजा हर तरफ अमन शान्ति थी ।
नीलम और सूरज का अता पता मालूम हो चुकने के बावजूद विमल ने उनसे मिलने की कोई कोशिश न की क्योंकि अभी उसने परखना था कि वो अमन शान्ति स्थायी थी या कि किसी आने वाले तूफान से पहले की खामोशी की माफिक थी । नीलम ने खुद को और सूरज को अपनी मर्जी से उससे दूर करके जो कुर्बानी दी थी, वो बेमिसाल थी लेकिन वक्त की जरूरत यही थी कि फिलहाल यथापूर्व स्थिति को कायम रखा जाता । अमन शान्ति के अभूतपूर्व वातावरण के बावजूद विमल को अभी भी यकीन था कि आइन्दा जब भी कभी उस पर कोई करारा वार होगा, बाजरिया नीलम या सूरज ही होगा ।
जैसा कि विमल क अनुमान था, विंस्टन प्वायंट पर हुए ‘भाई’ के कत्ल की खबर आम न हुई । मुम्बई लौटने से अगले रोज विमल ने विंस्टन प्वायंट के बंगले को चैक करवाया तो पता चला कि वो यूं खाली पड़ा था जैसे वहां कभी कोई रहता ही नहीं था । इनायत दफेदार ने लाश को कैसे गायब किया, ये विमल कभी न जान सका अलबत्ता उसने उस बाबत वही दानिशमन्दी भरा कदम उठाया था जिसकी विमल को अपेक्षा थी । नतीजतन ‘भाई’ के खत्म हो जाने के बावजूद उसके दन्तकथाओं जैसे चर्चित और प्रसिद्धिप्राप्त नाम का डंका बजना खत्म न हुआ ।
सोलह से सत्ताईस मई तक के बारह दिनों में अकेले इन्स्पेक्टर नसीबसिंह की वजह से छब्बीस लोगों को मौत का मुंह देखना पड़ा अलबत्ता खुद अपने हाथों उसने तीन जनों को ही - अमरदीप, शैलजा और अपने ए.सी.पी. प्राण सक्सेना को - मारा । बाकी जिन तेईस मौतों में उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दखल था, उनमें से पहले की ही तरह सबसे ज्यादा छ: जने - डी.सी.पी. डिडलोकर, एस.आई. अठवले, पूना में यासमीन की जगह लेने वाली युवती और उसके सहयोगी ‘भाई’ के तीन आदमी - इरफान के हाथों गोली खाकर मरे । लिहाजा इरफान के न चाहते हुए भी उसका ‘कम्पनी’ के जल्लादों जैसे एक दुर्दान्त हत्यारे का इमेज पुख्ता होता जा रहा था । विमल ने ब्रजवासी, भोगीलाल, झामनानी, ‘भाई’ और इन्स्पेक्टर नसीबसिंह के खून से अपने हाथ रंगे । नसीबसिंह ने उसकी हिदायत पर अमल किया होता तो बमय उसके वो सब जिन्दा होते और मुल्क के कायदे कानून के हाथों अपना इंसाफ होने का इन्तजार कर रहे होते । जेकब परदेसी ने तीन कत्ल किये, उसने बिलाल को जंजीर से गला घोंट कर मारा और ख्वाजा और विमल की शरण पाने के तमन्नाई पवित्तर सिंह को शूट किया । शोहाब ने कोली, नानवटे और उसके गनर को शूट करके ट्रिपल मर्डर का इलजाम अपने सिर लिया । बारबोसा, बाजरिया बम, फादर वुड्स और उसके टैक्सी ड्राइवर की मौत की वजह बना । पवित्तर सिंह ने अपनी मौत से पहले पुखराज को और इनायत दफेदार ने जफर सुलतान को गोली मारी । रिश्वतखोर एस.आई. प्रभात अहिरे ने कल्याण में गवाह अरुण खोपड़े को होटल के टॉप फ्लोर से धकेल कर मारा । कोई शख्स खामखाह मरा तो वो विशाल भल्ला था जो तब अपनी कार का एक्सीडेंट कर बैठा था जबकि उसकी तमाम मुसीबत की जड़ हेरोइन की पेटी से उसका पीछा छूट भी चुका था । भाग्य की कैसी विडम्बना थी कि जिसने उस पेटी का लालच करके मुसीबत बुलाई, वो - रिमझिम पाटिल - तो जिन्दा थी और विशाल भल्ला जो पेटी को यथास्थान दफन कर देने का दानिशमन्दी भरा कदम उठा भी चुका था, जान गंवा बैठा था ।
बिरादरीभाइयों और विमल में ठनी जंग की शुरुआत - जिसमें ‘भाई’ पान में लौंग की तरह आ लगा था - वस्तुत: शुक्रवार पांच मई से हुई थी और समापन - अगर वो समापन था तो - शनिवार सत्ताईस मई को हुआ था । उन तेईस दिनों के घमासान में चौवन लोग मौत का निवाला बने जिनमें प्यादे ही नहीं, राजा और वजीर भी थे । विमल उन तेईस दिनों का पुनरावलोकन करता था तो ये बात उसके मन को बहुत सालती थी कि इतने लोग तो तब नहीं मरे थे जबकि उसने बखिया और उसके निजाम के खिलाफ जंग छेड़ी थी । वो इस बात से क्षुब्ध था कि न चाहते हुए भी उसकी रक्तपिपासा बढती जा रही थी, न चाहते हुए भी मौत के हरकारे के नामुराद रोल में वो स्थापित होता चला जा रहा था । उसकी नियति उसे घसीट कर उस रास्ते पर ले जाती थी जिस पर मौत का ताण्डव होना अवश्यम्भावी होता था और, बकौल पंडित भोजराज शास्त्री, अपनी नियति से वो नहीं बच सकता था । कोई नहीं बच सकता था ।
दि डार्क टुडे लीड्स इनटु लाइट टुमारो ।
आज अन्धेरा कल रोशनी ।
ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है ।
डूब के जाना है ।
आमीन ।
समाप्त
***