शनिवार रात।

ठीक नौ बजे कर्मचंद और गुरांदित्ता ने अपना काम समाप्त कर दिया। अंडरग्राउंड केबल में से पुलिस स्टेशन पर बजने वाली घंटी की तार छांट कर काटी जा चुकी थी और केबल को यथापूर्व स्थिति में दफनाया जा चुका था। फिर उन्होंने तम्बू वगैरह समेट कर समीप ही खड़ी वैन में लादा और उस पर सवार हो गए। उस वैन के कैनवस पर ‘डाक तार विभाग, अमृतसरʼ लिखा हुआ था।

वैन की ड्राइविंग सीट पर लाभसिंह बैठा था। उसने कोई पचास गज दूर खड़ी एक काली फिएट की ओर देखा। उसने वैन की हैडलाइट ऑन की और डिपर मारा। तुरंत धीरे धीरे खरखराता हुआ कार का इंजन भी चालू हुआ। उस कार की ड्राइविंग सीट पर मायाराम बैठा था और उसकी बगल में विमल मौजूद था।

मायाराम ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टिपात किया और विमल की ओर देख कर सिर हिलाया। उसने कार को आगे बढ़ाया और थोड़ा आगे ले जाकर दाईं ओर मोड़ दिया। वह ट्रांसपोर्ट कम्पनी की इमारत की साइड वाले दरवाजे पर पिछवाड़े से पहुंचना चाहता था।

लाभसिंह ने वैन को गियर में डाला और कार के पीछे लगा दिया।

मायाराम ने कार पिछली सड़क पर एक स्थान पर रोकी। वह और विमल कार से बाहर निकल आए।

लाभसिंह ने वैन उनके समीप ला कर रोकी। दोनों वैन में सवार हो गए। वैन आगे बढ़ी।

लाभसिंह ने वैन को ट्रांसपोर्ट कंपनी के साइड के दरवाजे वाली गली में दाखिल करा दिया।

वह गली उस समय सुनसान थी।

लाभसिंह ने वैन को ऐन दरवाजे के सामने ला कर रोका।

मायाराम फौरन वैन से बाहर कूदा। वह दबे पांव आगे को लपका और दरवाजे पर पहुंचा।

अपनी बनाई हुई दोनों चाबियां लगा कर दस सेकंड में उसने दरवाजे के दोनों ताले खोल लिए। फिर एक के पीछे एक गुरांदित्ता, कर्मचंद और विमल भी वैन से निकल आए। लाभसिंह वैन को फौरन आगे बढ़ा ले गया।

वे चारों भूतों की तरह भीतर दाखिल हो गए। मायाराम ने दोनों चाबियां खुले तालों में ही रहने दी थी। उसने दरवाजे को भीतर से बंद किया और दरवाजे के साथ बनी एक राहदारी में आगे बढ़ा।

उसके सिरे पर एक और दरवाजा था। वह भी गली में खुलता था लेकिन यह भीतर से बंद रहता था। मायाराम ने बोल्ट और दरवाजे के आगे लगी लोहे की छड़ हटा कर दरवाजा खोला।

तब तक लाभसिंह वैन कहीं परे खड़ी कर आया था और पैदल चलता चुपचाप गली में दाखिल हो गया था। वह तालों वाले दरवाजे के पास पहुंचा। उसने दोनों ताले बाहर से बंद कर दिए और लम्बे डग भरता अगले दरवाजे की ओर बढ़ा। उसके कदमों की आहट नहीं हो रही थी। बड़ी मुश्किल से सब लोग उसे अपना चमरौंधा उतार कर कैनवस के जूते पहनने पर राजी कर पाए थे लेकिन तहमद उतारने के लिए वह तैयार नहीं हुआ था। पतलून का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था, वह तंग पाहुंचे का पाजामा पहनने तक के लिए तैयार नहीं हुआ था।

दूसरे दरवाजे से वह भीतर दाखिल हुआ तो मायाराम ने दरवाजा बंद करके चिटखनी चढ़ा दी। आगे उसने लोहे की छड़ नहीं लगाई। मुश्किल से दो मिनट के समय में पांचों आदमी ट्रांसपोर्ट कम्पनी की इमारत के भीतर थे।

वे सीढ़‍ियों की ओर बढ़े। इमारत में लिफ्ट भी थी लेकिन गोदाम बंद हो जाने पर बिजली बंद कर दी जाती थी इसलिए लिफ्ट भी बंद हो जाती थी।

मायाराम को रास्ते की जानकारी थी इसलिए वह सबसे आगे चल रहा था। उसके पीछे गुरांदित्ता और कर्मचंद थे और सबसे पीछे लाभसिंह के साथ विमल चल रहा था।

एकाएक लाभसिंह ने धीरे से डकार मारा।

विस्की की गंध विमल के नथुनों में घुसी।

“वड्डे भापाजी” — विमल शिकायतभरे स्वर में धीरे से बोला — “बाज नहीं आए न!”

“ओये, कुछ नहीं होया, पुत्तरा।” — लाभसिंह बड़े इत्मीनान से बोला — “यह कल की मुश्क है। अज नहीं पीत्ती।”

लाभसिंह झूठ बोल रहा था — विमल ने वितृष्णापूर्ण भाव से सोचा — चाहे वह नशे में नहीं था लेकिन पी उसने आज ही थी।

एक बार अंधेरे में वह उसके साथ टकराया तो उसने अनुभव किया कि वह अपनी तहमद में भी कुछ दबाए हुए था।

वे चौथी मंजिल पर पहुंचे।

गुरांदित्ता ने एक छोटी-सी टार्च निकाली और उसकी रोशनी में बुक हुए माल के अम्बार में वे पेटियां तलाश करने लगा जो उसने एन सुब्रामनियम के नाम मद्रास के लिए बुक करवाई थीं। जल्दी ही वे तमाम पेटियां मिल गईं और उन्हें बाकी सामान से अलग हाल के मध्य में घसीट लिया गया। गुरांदित्ता पेटियां खोलने का सामान साथ लाया था। मशीन की-सी फुर्ती से पेटियां खोली जाने लगीं। सारी पेटियां खोल कर सामान निकालने में मुश्किल से दस मिनट लगे।

गुरांदित्ता और लाभसिंह नट बोल्ट द्वारा एल्यूमीनियम की कई भागों में विभक्त सीढ़ी को एक दूसरे से जोड़ने में जुट गए।

कर्मचंद वायरलैस सेट को चैक करने में जुट गया कि कहीं पेटियों की उठा-पटक में उसे कोई नुकसान तो नहीं हो गया था। मायाराम और विमल गैस के सिलेंडर वगैरह उठा उठा कर उस खिड़की के समीप जमा करने लगे जिसका रुख मेहता हाउस की ओर था और थोड़ी देर में जो खोली जाने वाली थी।

पौने दस बजे तक सीढ़ी तैयार हो गयी। वह हाल बहुत बड़ा था लेकिन फिर भी इतना बड़ा नहीं था कि पचास फुट लम्बी सीढ़ी उसमें समा सकती। इसलिए खिड़की से विपरीत दिशा की दीवार में बना एक दरवाजा खोल कर सीढ़ी का एक सिरा काफी सारा बाहर निकालना पड़ा।

गश्त का टाइमटेबल मायाराम ने हिसाब लगा कर जुबानी याद किया हुआ था। उसके हिसाब से अगली गश्त नौ पचास पर होने वाली थी। उसने सावधानी से खिड़की खोली और उसके एक पल्ले की ओट में खड़ा होकर नीचे सड़क पर झांकने लगा। बाकी सब लोग उसके पीछे स्तब्ध खड़े थे।

थोड़ी देर बाद नीचे से भारी बूट जमीन पर पड़ने की आवाज आयी। मायाराम ने सावधानी से बाहर झांका। प्रकाश के इकलौते साधन शेड वाले बल्ब की रोशनी में उसने देखा कि नीचे चार वर्दीधारी गार्ड धीरे धीरे बातें करते हुए आगे बढ़ रहे थे। उनके देखते देखते ही वे मोड़ काट कर दृष्टि से ओझल हो गए।

“लाभसिंह” — मायाराम खिड़की से परे हट कर धीरे से बोला — “अब गली के बल्ब का इंतजाम कर।”

लाभसिंह बिना कुछ बोले खिड़की के पास पहुंचा। उसने अपने कुर्ते की जेब से एक गुलेल और एक छोटा-सा पत्थर निकाला।

“लाभसिंह गुलेल से निशाना लगाने में उस्ताद है।” — मायाराम विमल के कान के पास मुंह ले जाकर धीरे से बोला — “शेड की वजह से बल्ब पूरा दिखायी भी नहीं दे रहा है लेकिन फिर भी देख लेना, गुलेल दोबारा चलाने की नौबत नहीं आएगी।”

विमल प्रत्यक्षत: चुप रहा, लेकिन मन ही मन वह सोच रहा था कि अगर वह अपने होशहवास काबू रखेगा, तभी तो कोई नतीजा हासिल होगा।

“यूं एकाएक बत्ती बंद हो जाने से कोई शक नहीं करेगा?” — उसने पूछा।

“नहीं। सर्दियों में बल्ब अक्सर चटक जाते हैं।” — मायाराम बोला — “और फिर यह बल्ब कोई उनकी सिक्योरिटी का हिस्सा थोड़े ही है! इसके जलने न जलने से उनके सख्त इंतजाम पर क्या फर्क पड़ता है!”

विमल चुप हो गया।

लाभसिंह ने निशाना लगाया। बल्ब हल्की सी चटाक की आवाज के साथ टूट गया। गली में अंधेरा छा गया।

मायाराम ने घड़ी देखी — नौ पचपन हो गए थे। उसने तत्काल वायरलैस सेट अपने गले में लटका लिया और सामान का एक झोला संभाल लिया।

“सीढ़ी!” — वह बोला।

लाभसिंह, गुरांदित्ता तथा विमल ने बड़ी फुर्ती से सीढ़ी खिड़की से बाहर निकालनी आरम्भ कर दी।

कर्मचंद ने भी कुछ सामान संभाला।

सीढ़ी का दूसरा सिरा मेहता हाउस की छत पर जाकर टिक गया। लाभसिंह ने सीढ़ी को झटके देकर अच्छी तरह तसल्ली कर ली कि सीढ़ी वहां से फिसलने वाली नहीं थी। फिर उसने मायाराम को संकेत किया। मायाराम खिड़की की चौखट पर चढ़ गया। उसने सीढ़ी का खिड़की से थोड़ा आगे का एक डंडा थामा, पीछे एक डंडे पर अपने पांव जमाए और एक चौपाए की तरह सीढ़ी पर आगे बढ़ने लगा। सीढ़ी उसके वजन से बुरी तरह लचक रही थी लेकिन उसे विश्वास था कि वह मजबूत थी, उसके वजन से टूटने वाली नहीं थी।

वह सुरक्षित बैंक की ढलुवां छत पर पहुंच गया।

उसके सीढ़ी से पार होते ही कर्मचंद भी उसी प्रकार आगे बढ़ा।

कुछ क्षण बाद वह भी मायाराम के पास बैंक की छत पर था।

कर्मचंद के सीढ़ी से अलग होते ही बाकी तीनों आदमियों ने सीढ़ी वापस खींच ली और खिड़की को थोड़ा-सा भिड़का दिया।

तभी दस तेरह की गश्त पर आए गार्ड नीचे से गुजरे।

मायाराम और कर्मचंद सांस रोके नीचे सड़क पर चलते उनके सायों को देखते रहे। गली में अंधेरा पाकर वे ठिठके तक नहीं। शायद इस प्रकार बल्ब फ्यूज हो जाना या बत्ती बंद हो जाना उनकी निगाह में कोई खास महत्वपूर्ण बात नहीं थी। केवल एक गार्ड ने टार्च जला ली और उसका प्रकाश अपने और अपने साथियों के आगे आगे डालता चलने लगा। वे मोड़ काट कर दृष्टि से ओझल हो गए। सड़क फिर खाली हो गयी।

“साले मशीन की तरह काम करते हैं।” — मायाराम बुदबुदाया — “मजाल है वक्त में एक सेकंड की भी गड़बड़ हो जाये!”

“यह छजली तो बहुत कम चौड़ी है, उस्तादजी।” — कर्मचंद शिकायत कर रहा था।

मायाराम ने अपने झोले से एक नायलोन की लम्बी, मजबूत रस्सी निकाली। उस रस्सी के एक सिरे पर उसने एक फंदा-सा बना दिया। कर्मचंद ने पुल्लियों का सेट, उनको कसने वाले क्लैंप, पेचकस, कटिंग प्लायर जैसे कुछ औजार निकाले।

दोनों संकरी छजली पर चलते हुए छत के किनारे पर पहुंचे।

वहां उन्होंने बड़ी दक्षता से पुल्लियों को छजली के साथ कस दिया और उन पर से रस्सी गुजार दी। छजली आर.सी.सी. की थी इसलिए उसके टूटने का खतरा नहीं था। उन्होंने पुल्ली और रस्सी की मजबूती को खूब अच्छी तरह चैक कर लिया।

वे प्रतीक्षा करने लगे।

दस सैंतीस पर गार्ड फिर गली से गुजरे।

उसके बाद वे तिरेपन मिनट बाद वहां प्रकट होने वाले थे। बहुत वक्त था। लेकिन काम भी बहुत जानलेवा था।

कर्मचंद ने पुल्ली से नीचे लटकी रस्सी के सिरे के फंदे में पांव फंसाया और बड़ी दक्षता से इमारत की साइड के साथ नीचे लटक गया।

मायाराम धीरे धीरे रस्सी छोड़ने लगा। रस्सी कर्मचंद के वजन से पुल्लियों के बीच में से होती हुई धीरे धीरे नीचे सरक रही थी।

मायाराम ने पहले ही पच्चीस फुट की लम्बाई पर निशान लगाया हुआ था। वह निशान आया तो उसने अपना हाथ रोक दिया। अब यह उसकी जिम्मेदारी थी कि वह रस्सी को सरकने न दे। उसने बड़ी मजबूती से रस्सी को थाम लिया।

कर्मचंद ने टटोल कर कन्ड्यूट पाइप से बाहर आती वह तार तलाश की जो अलार्म की घंटी तक जाती थी। उसने वह तार काट दी। तार में करंट था। कटर से करंट वाली तार टकराने पर एक क्षण के लिए एक शरारा-सा फूटा और फिर शांत हो गया। कटर के हैंडल पर इंसुलेशन चढ़ा हुआ था, इसलिए वह करंट कर्मचंद के शरीर तक न पहुंच सका। फिर उसने रस्सी को एक पूर्वनिर्धारित ढंग से झटका दिया।

मायाराम ने धीरे-धीरे रस्सी खींचनी आरम्भ कर दी। कर्मचंद का शरीर ऊपर उठने लगा। जब तक कर्मचंद वापिस छजली पर पहुंचा, तब तक दोनों हांफने लगे थे।

एक अलार्म बहुत सफलतापूर्वक काटा जा चुका था।

दोनों ने अपनी उखड़ी सांसों की परवाह किए बिना स्पैनर और पेचकस की सहायता से पुल्लियां खोलनी आरम्भ कर दीं। फिर अपना सारा सामान समेट कर वे दूसरे कोने की ओर बढ़े। वह बड़ा नाजुक काम था और उसमें बेहद सब्र की जरूरत थी, लेकिन फिर भी वे उसे जल्दी करना चाहते थे क्योंकि वहां ज्यादा वक्त लग जाने पर अगर वाल्ट खोलते वक्त समय की कमी पड़ जाती तो सारे किए धरे पर पानी फिर जाता।

यह उनके लिए भारी उपलब्धि की बात थी कि सवा ग्यारह बजे तक उन्होंने इमारत के चारों कोनों पर लगी अलार्म की चारों घंटियां काट दी थीं और वे वापिस ट्रांसपोर्ट कम्पनी के सामने वाले भाग पर लौट आए थे।

अगली गश्त शुरू होने में अभी पंद्रह मिनट बाकी थे।

उन्होंने पुल्लियों का सेट ट्रांसपोर्ट कम्पनी की खिड़की के एकदम सामने छजली पर फिट किया। इस बार कर्मचंद को ज्यादा नीचे नहीं उतरना पड़ा था। उस स्थान से केवल आठ फुट नीचे एक खिड़की थी। कर्मचंद रस्सी के सहारे लटक कर उस खिड़की तक पहुंचा। खिड़की शीशे के पल्लों वाली थी और भीतर से बंद थी। उसमें अलार्म लगा होने की वजह से शीशे के पल्लों के बावजूद किसी ने उसे सुरक्षा के लिए खतरा नहीं समझा था। वैसे भी वह खिड़की सड़क से बयालीस फुट ऊंची थी।

कर्मचंद ने हीरे की कलम खिड़की के शीशे पर एक दायरे की सूरत में फिराई। हीरे की नोक शीशे पर फिरने से हल्की-सी चर्राहट की आवाज हुई जो उसके कानों से दूर जाने योग्य ऊंची नहीं थी। उसने धीरे से हीरे की कलम फिरे वृत्त के बीच में दस्तक दी तो शीशे का वृत उखड़ कर उसके हाथ में आ गया। उसने टूटे शीशे के भीतर हाथ डाला। चिटखनी को छूने से पहले वह ठिठका। उसका सारा शरीर टेंशन से भर उठा। वह इम्तहान की घड़ी थी। पता नहीं अब तक की मेहनत सफल हुई थी या असफल! पता नहीं सारे अलार्म कट पाए थे या नहीं!

उसने चिटकनी को छुआ।

कुछ भी न हुआ।

उसने एक चैन की सांस ली और चिटखनी खोल दी। चिटखनी बड़ी आसानी से खुल गयी। उसने दोनों पल्लों को धक्का देकर खोला और फिर चौखट पर चढ़ कर भीतर कूद गया। उसने रस्सी को हल्का-सा झटका दिया।

मायाराम ने रस्सी वापिस खींच ली। उसने मशीन की सी तेजी से छजली से पुल्लियों का सैट खोलना आरम्भ कर दिया। उसने पुल्लियों, रस्सी और औजारों को झोले में भर लिया। उसने वायरलैस का चोगा सिर पर चढ़ाया और उसे चालू किया।

“हल्लो!” — दूसरी ओर से विमल की आवाज आयी।

“सीढ़ी!” — मायाराम ने केवल एक शब्द कहा और वायरलैस बंद करके चोगा सिर से उतार दिया। उसने सैट को पहले की तरह गले में लटका लिया।

उसने घड़ी देखी।

अगली गश्त में केवल चार मिनट बाकी थे।

सामने की खिड़की खुली। उसमें सीढ़ी का एक सिरा प्रकट हुआ। सीढ़ी तेजी से उसकी ओर बढ़ने लगी। वह उस तक पहुंची तो उसने सिरे को मजबूती से छत पर टिकाया और फिर एक बंदर की सी फुर्ती से उस पर चलता हुआ वापिस ट्रांसपोर्ट कम्पनी के आफिस में पहुंच गया।

सीढ़ी आनन फानन वापिस खींची जाने लगी।

अभी सीढ़ी के दो तीन डंडे खिड़की से बाहर ही थे जब कि गार्डों के झुंड ने नीचे गली में कदम रखा। सीढ़ी पूरी भीतर करके खिड़की के पल्ले भिड़का दिए गए।

वह गश्त भी सम्पन्न हुई। अब अगली गश्त में बहुत वक्त बाकी था — पूरे एक घंटे और तेईस मिनट का।

मायाराम खुश था। अब तक सब कुछ बड़ी मुस्तैदी से हुआ था। अभेद्य मेहता हाउस को भेदा जा चुका था। उनका एक साथी पहले ही बैंक की इमारत के भीतर मौजूद था।

खिड़की फिर खोली गयी और सीढ़ी को धीरे धीरे बाहर निकाला गया। इस बार सीढ़ी का सिरा बैंक की छत के साथ नहीं, उस खुली खिड़की के साथ जाकर टिका, जिसके भीतर कर्मचंद मौजूद था। कर्मचंद ने एक तार के टुकड़े से सीढ़ी के एक डंडे के साथ खिड़की के एक पल्ले को बांध दिया। अब सीढ़ी ढलान पर थी इसलिए फिसल सकती थी। उसे बांध देने से यह खतरा खत्म हो गया था।

फिर उसने आइन्दा इस्तेमाल के लिये नायलोन की लम्बी रस्सी के एक सिरे को सीढ़ी के उसी डंडे के साथ मजबूती से बान्धा।

सबसे पहले गैस के एक सिलेंडर के साथ मायाराम खिड़की से बाहर निकला।

फिर विमल।

फिर गुरांदित्ता।

लाभसिंह दूसरे सिरे पर सीढ़ी पकड़े था।

उन तीनों आदमियों ने दो दो चक्कर और लगाए तो जरूरत का सारा सामान बैंक में पहुंच गया। सब कुछ ऐसी फुर्ती से और इतना चुपचाप हो रहा था जैसे हर हरकत का कई कई बार रिहर्सल किया जा चुका था। विमल को हर कोई बड़ा जिम्मेदार और मुस्तैद लग रहा था। लाभसिंह भी। केवल उसकी पीने की आदत से वह चिंतित था। कंधे पर भारी सिलेंडर लाद कर उस सीढ़ी पर निशब्द चलना कोई मामूली काम नहीं था लेकिन हर किसी ने बड़ी खूबसूरती से उस काम को अंजाम दिया था।

अंत में कर्मचंद वापिस चला गया और लाभसिंह भी बैंक में आ गया। उसने तहमद को उतार कर गले में तो नहीं डाला था लेकिन उसके नीचे के सिरे पकड़ कर उन्हें कमर में खोंस लिया था, जिसकी वजह से तहमद घुटनों से ऊंची हो गयी थी। फिर बैंक की ओर से हासिल मदद के सदके कर्मचंद ने सीढ़ी वापिस खींच ली और खिड़की को भिड़का दिया। मायाराम ने बैंक वाली खिड़की बंद कर दी।

अब नायलोन की रस्सी दोनों इमारतों के बीच तनी हुई थी।

“अब यह सारा सामान ग्राउंड फ्लोर के हाल में पहुंचाना है।” — मायाराम बोला।

सबने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और जो कोई जितना अधिकतम सामान उठा सकता था, उसने उठाया।

एक ही फेरे में सारा सामान ग्राउंड फ्लोर के प्रकाशित हाल में पहुंच गया। हाल के प्रकाश का सब पर बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा। सब बड़े उद्विग्न दिखायी देने लगे। गुरांदित्ता तो साफ-साफ भयभीत लग रहा था।

मायाराम ने घड़ी देखी। बारह बजने को थे।

गश्त के प्रोग्राम के अनुसार आगे आधे घंटे का अंतराल था और फिर तिरेपन मिनट बाद अगली गश्त की बारी थी। इसका मतलब था कि निकट भविष्य में दरवाजे की ऑब्जरवेशन विंडो से भीतर कोई नहीं झांकने वाला था लेकिन न जाने क्यों मायाराम का मन कह रहा था कि वास्तव में उससे ज्यादा ठोस आश्वासन की जरूरत थी। क्या पता कम्पाउण्ड में मौजूद कोई गार्ड खामखाह ही छेद से भीतर झांक ले और अब तक के किए धरे पर पानी फिर जाये।

उस क्षण वायरलैस सेट साथ लाने की समझदारी करने के लिए उसने अपने आप को शाबाशी दी। उसने हैडफोन सिर पर चढ़ाया, एक बटन दबाया, हैंडल घुमाया और दूसरी ओर से कर्मचंद की आवाज आने पर वह बोला — “कर्मचंद, तुम्हें अपनी जगह से बैंक का मुख्य द्वार दिखायी देता है?”

“नहीं।” — कर्मचंद की आवाज आयी — “कम्पाउण्ड दिखायी देता है लेकिन दरवाजा नहीं।”

“तो फिर इसी मंजिल पर या किसी और मंजिल पर कोई ऐसी खिड़की तलाश करो जहां से दरवाजा दिखायी देता हो। यह काम हो जाने के बाद मुझे सूचित करना।”

“ठीक है।”

मायाराम चुप हो गया। उसने वायरलैस सेट चालू रखा और अपने सिर से हैडफोन न उतारा।

थोड़ी देर बाद उसे कर्मचंद की आवाज सुनाई दी — “उस्तादजी, अब मुझे मुख्य द्वार दिखायी दे रहा है।”

“उसके पास कोई गार्ड मौजूद है?” — मायाराम ने पूछा।

“एकदम पास नहीं लेकिन कम्पाउण्ड के गेट के पास दो गार्ड मौजूद हैं।”

“हम लोग बेसमेंट की ओर बढ़ने लगे हैं, अगर कोई गार्ड दरवाजे की ओर कदम बढ़ाये तो मुझे फौरन खबर करना।”

“चंगा।”

मायाराम ने बाकी लोगों को संकेत किया। गुरांदित्ता और विमल ने गैस का एक एक और लाभसिंह ने दो सिलेंडर उठाए और दबे पांव हाल में आगे बढ़े। हाल पार करके वे बेसमेंट की सीढ़‍ियों के दहाने पर पहुंचे और एक दूसरे के पीछे नीचे उतर गए।

दो मिनट बाद वे खाली हाथ सीढ़‍ियों के दहाने पर प्रकट हुए। गुरांदित्ता सबसे आगे था। मायाराम ने संकेत किया तो वे दबे पांव वापस उसके समीप लौट आए।

दो और फेरों में सारा सामान और वे तीनों भी नीचे पहुंच गए।

मायाराम ने वायरलेस ऑन किया और माउथपीस में बोला — “कर्मचंद, बाहर का क्या हाल है?”

“सब ठीक है, उस्तादजी।” — कर्मचंद की आवाज आयी।

“मैं नीचे जा रहा हूं। तुम सावधान रहना। कोई भी असाधारण बात नोट करो तो फौरन सूचित करना।”

“अच्छा।”

उसने कानों पर से हैडफोन उतार दिया और वायरलैस बंद कर दिया। फिर वह दबे पांव हाल में चलता सीढ़‍ियों की ओर लपका। उस समय उसे ऐसा लग रहा था जैसे अभी पीछे से कोई गोली चलेगी और वह कटे वृक्ष की तरह फर्श पर गिरा पड़ा होगा।

वह सीढ़‍ियां उतर कर बेसमेंट में पहुंच गया तो उसकी जान में जान आयी। नीचे उसके तीनों साथी व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

नीचे अंधेरा था।

मायाराम ने टार्च जलाई और उसके प्रकाश में स्विचबोर्ड तलाश किया। उसने दो तीन स्विच ऑन किए। बेसमेंट में प्रकाश हो गया। गलियारे के सिरे पर वाल्ट का दानवाकार दरवाजा दिखायी दे रहा था।

“दाता!” — गुरांदित्ता मंत्रमुग्ध स्वर में बोला।

मायाराम ने एग्जास्ट फैन की तरफ तवज्जो दी। वह एक क्षण हिचकिचाया फिर उसने उन दोनों के स्विच तलाश करके उन्हें चालू कर दिया। दोनों फैन निशब्द चलने लगे। दोनों पंखे इतने शक्तिशाली थे कि उनके सिर के बाल उड़ने लगे और उन्हें ठंडक महसूस होने लगी। वे तीनों गैस के सिलेंडर को वैल्डिंग की टार्च के साथ जोड़ने लगे।

मायाराम ने अपनी जेब से एक चाक और एक नुकीली कील निकाली और साथ लाए सामान में से एक फुटा उठा लिया। वह वाल्ट के दरवाजे पर कुछ फासले नाप नाप कर चाक से निशान लगाता रहा, फिर थोड़ी देर बाद उसने नुकीली कील से डायल के ऐन नीचे कोई दो फुट व्यास का एक दायरा खींचा। उस दायरे के भीतर उसने एक और दायरा खरोंचकर बनाया और अंत में उसके भीतर एक क्रॉस का निशान बना दिया। वह वह स्थान था जहां से दरवाजा गलाया जाना शुरू किया जाने वाला था।

तब तक वैल्डिंग की टार्च तैयार की जा चुकी थी।

मायाराम ने अपनी कमीज के दो बटन खोले और गर्दन के गिर्द एक तौलिया लपेट लिया। उसने दस्ताने पहने और अपनी आंखों पर वैल्डिंग का काम करने वालों द्वारा प्रयुक्त होने वाला विशेष चश्मा चढ़ाया। गुरांदित्ता ने उसे जलती टार्च थमा दी। मायाराम टार्च को हाथ में लिए कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला — “ऊंहू। नहीं चलेगा। एक कुर्सी लाओ।”

सीढ़‍ियों के पास तीन चार कुर्सियां पड़ी थीं। विमल उनमें से एक उठा लाया। मायाराम कुर्सी पर बैठ गया। उसने अपनी कोहनियां अपने घुटनों पर टिका लीं और फिर टार्च की लपट को स्थिर करके दरवाजे पर लगाए क्रॉस के निशान को उसका निशान बनाया। दरवाजे पर लगे हुए एल्यूमीनियम पेंट की परत जली तो एकदम एक जोर की शू की आवाज हुई, वातावरण में धुआं लहराया और फिर लोहा गलने लगा। लपट के आसपास चिंगारियां उड़ने लगीं। पांच ही मिनट में वहां इतनी गर्मी हो गयी कि सबके चेहरों पर पसीना बहने लगा। लाभसिंह, गुरांदित्ता और विमल मायाराम के पास से पीछे हट गए।

पसीना बह बह कर मायाराम की आंखों में घुसने लगा। उसे आंखें खुली रखने में दिक्कत महसूस होने लगी। वह दांत भींचे टार्च को सही स्थान पर केंद्रित किए रहने की पूरी कोशिश कर रहा था। पिघला हुआ लोहा मोम की तरह दरवाजे पर नीचे को बह रहा था। दरवाजा गल रहा था, उसे गलाया जा सकता था, उसमें असम्भव कुछ नहीं था लेकिन पक्के लोहे का वह दरवाजा बहुत धीमी रफ्तार से गल रहा था। वह भारी सब्र का और वक्त खाने वाला काम था। गैस खत्म न हो, वक्त काफी हो, धीरज साथ न छोड़े तो उससे भी ज्यादा मजबूत दरवाजा भेदा जा सकता था।

लेकिन क्या उसका मूल अनुमान खरा साबित हो पाएगा? — मायाराम बड़े चिंतापूर्ण भाव से मन ही मन सोच रहा था — क्या पांच घंटे में वे लोग उस दरवाजे को भेद पाएंगे?

अंत में जब उसे लपट को निर्धारित स्थान पर केंद्रित किए रह पाना असम्भव लगने लगा तो वह बोला — “लाभसिंहां, आ जा।”

“अभी गुरांदित्ता को दो, उस्तादजी।” — लाभसिंह हड़बड़ा कर बोला — “मैं जरा पेशाब कर आवां।”

“माईंयवीं शिकार वेले कुति‍या हगाई।” — मायाराम चिढ़ कर बोला — “ऊपर नहीं जाना, लाभसिंह। यही कहीं धार मार ले।”

“हला।” — लाभसिंह बोला और घूम कर गलियारे में आगे बढ़ गया।

गुरांदित्ता ने आंखों पर चश्मा चढ़ाया और मायाराम के हाथ से टार्च थाम ली। मायाराम कुर्सी से परे हटा तो गुरांदित्ता उसके स्थान पर बैठ गया।

पसीने से नहाया हुआ मायाराम परे हो गया। उसने अपना चश्मा उतार फेंका और तौलिए से पसीना पोंछने लगा।

“कोट उतार लो, उस्तादजी।” — विमल ने राय दी।

“ठीक है।” — मायाराम लापरवाही से बोला — “कितना फर्क पड़ जायेगा!”

विमल चुप हो गया। उसने एक सिगरेट सुलगा लिया।

“मुझे भी देना।” — मायाराम बोला।

विमल ने पैकेट और माचिस उसे थमा दी।

एकाएक उसे एक खयाल आया। वह चुपचाप गलियारे में आगे बढ़ा।

मायाराम ने उसकी ओर ध्यान न दिया।

सीढ़‍ियों के पास पहुंच कर विमल ने देखा लाभसिंह सीढ़‍ियों के नीचे उसकी ओर पीठ किए खड़ा था। वह एक हाथ से धार मार रहा था और दूसरे हाथ से विस्की के अद्धे का मुंह अपने मुंह से जोड़े था।

विमल धीरे से खांसा।

लाभसिंह ने चौंक कर पीछे देखा। उसने जल्दी से तहमद गिरा दी और खिसियाए भाव से हंसने लगा।

“मटर पनीर लाऊं?” — विमल बोला।

“हीं हीं हीं।” — लाभसिंह और खिसिया गया।

विमल वापिस लौट चला।

लाभसिंह ने खाली अद्धा वहीं सीढ़‍ियों के नीचे फेंका और विमल के पीछे चल दिया।

लौट कर विमल ने देखा कि गलियारे में लगे अग्निशामक यंत्रों के समीप लटकी रेत और पानी की चार बाल्टियों में से एक बाल्टी उतार कर मायाराम ने फर्श पर रख ली थी और उस समय उसने उसमें अपना सिर डुबोया हुआ था। उसने पानी में से सिर निकाला और खुली कमीज के रास्ते अपनी छाती पर पानी के छींटे मारे।

उसके चेहरे की खाल एकदम खुश्क और लाल लग रही थी। उसने एक नमक की डली मुंह में रखी, एक ग्लूकोज का पैकेट खोल कर ढेर सारा ग्लूकोज अपने मुंह में उंडेला और ऊपर से थर्मस में मौजूद कॉफी के दो तीन घूंट पी लिए।

विमल ने घड़ी देख कर हिसाब लगाया। मायाराम ने केवल बीस मिनट टार्च संभाली थी और उतने में ही उसकी हालत यह हो गयी थी कि जैसे वह घंटों रेगिस्तान की तपती रेत में झुलसता पड़ा रहा था।

विमल ने देखा लाभसिंह वाल्ट के दरवाजे से दस फुट दूर खड़ा होने के बावजूद पसीने पसीने हुआ हुआ था। एक तो वह मोटा ज्यादा था, ऊपर से विस्की की गर्मी, नतीजा यह था कि वह टार्च के पास भी नहीं फटका था तो भी उसकी हालत मायाराम जैसी ही लग रही थी। केवल उसकी सांस अव्यवस्थित नहीं थी।

“अब मैं ट्राई करूं?” — थोड़ी देर बाद विमल बोला।

“नहीं।” — मायाराम बोला — “यह तुम्हारे बस का काम नहीं। चल ओये, लाभसिंहां!”

लाभसिंह गुरांदित्ता के पास पहुंच गया।

“इस काम के लिए वैल्डिंग के कार्य का पूर्ण ज्ञान होना जरूरी है। ऊपर से लपट को एक स्थान पर केंद्रित करके रखना होता है।”

“कमाल है!” — विमल हैरानी से बोला — “तो फिर मेरे यहां आने की क्या जरूरत थी? अगर तुम्हें सामान ढोने के लिए कुली ही चाहिए था तो...”

“इतने भोले मत बनो, सरदारजी! तुम खूब समझते हो कि तुम्हें यहां साथ लाना क्यों जरूरी था! इतनी नाजुक घड़ी में मैं तुम्हें अपनी निगाहों से कैसे ओझल होने दे सकता था? तुम तो बड़ी आसानी से हम चारों का ही बोलो राम करवा सकते थे! अगर पुलिस को हमारी नीयत की खबर वैसे ही तुमसे लग जाती तो हमारी इतनी तैयारी, इतनी मेहनत किस काम आती?”

“बड़े शक्की मिजाज के आदमी हो!” — विमल बुरा मान कर बोला।

“मैं माफी चाहता हूं लेकिन मुझे अपनी भलाई इसी में लगी थी कि कम से कम आज की रात मैं तुम्हें अपनी आंखों के सामने रखूं।”

“इसी वजह से तुम्हें मेरा गोदाम की इमारत में कर्मचन्द के साथ होना मंजूर नहीं था?”

“अब क्या बोलूं!”

विमल चुप हो गया।

गुरांदित्ता के स्थान पर लाभसिंह जा बैठा।

हांफते हुए गुरांदित्ता ने उठते ही सबसे पहले अपने जिस्म से सारे कपड़े नोच कर अलग किए। केवल अंडरवियर पहने वह फर्श पर बैठ गया और तौलिए से अपना जिस्म पोंछने लगा।

“तौबा!” — वह बुदबुदाया — “कोई हाल है गर्मी दा! दरवाजा तो पिघले न पिघले, बंदा जरूर पिघल जायेगा।”

“तीन हज़ार डिग्री टेम्परेचर है, कोई मजाक थोड़े ही है!” — मायाराम ने ग्लूकोज का डिब्बा और फ्लास्क उसकी ओर सरकाई और उसे एक नमक की डली दी।

“साक्षात नर्क!”

“उस्तादजी, गैस खत्म।” — एकाएक लाभसिंह बोला।

मायाराम ने देखा कि टार्च की लपट मद्धिम हो गयी थी। उसके संकेत पर विमल एक नया सिलेंडर लुढ़का लाया। मायाराम ने खाली सिलेंडर को हटा कर उसके स्थान पर नया सिलेंडर लगा दिया। लपट फिर भड़क उठी।

लाभसिंह उसे दरवाजे के पहले से गल चुके भाग पर केंद्रित करने लगा।

मायाराम कुछ क्षण उसे देखता रहा, फिर एकाएक क्रोधित स्वर में बोला — “लाभसिंहां माईंयवया, हथ सम्भाल!”

“घबराओ नहीं, उस्तादजी।” — लाभसिंह आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला।

“घबराऊं क्यों नहीं?” — मायाराम बोला — “तेरा हाथ तो टिक ही नहीं रहा!”

“जरा-सा भटक गया था। अब कुछ नहीं होगा।”

लाभसिंह का हाथ सचमुच स्थिर हो गया। लेकिन दो मिनट बाद लपट फिर भटकने लगी।

“ओये, सिक्खा!” — मायाराम कहरभरे स्वर में बोला।

लाभसिंह के मुंह से एक अजीब-सी आवाज निकली। लपट स्थिर हुई, भटकी, फिर स्थिर हुई और फिर भटक गयी।

मायाराम दांत पीसने लगा। उसने असहाय भाव से गुरांदित्ता की ओर देखा।

“यह नशे में है।” — विमल धीरे से बोला।

“तुम्हें कैसे मालूम?” — मायाराम उसकी ओर घूमा।

“यह घर से भी पीकर आया था और अभी फिर पी है इसने। जब यह पेशाब करने का बहाना करके गया था, तब।”

“तुमने मुझे बताया क्यों नहीं?”

“क्या जरूरत थी? शराब पीकर होश तो मेरे जैसे कुक्कड़ खोते हैं! यह तो शराब पीकर ज्यादा चौकन्ना और ज्यादा होशियार हो जाता है!”

मायाराम ने फिर लाभसिंह की ओर देखा। उसके चेहरे पर क्रोध के स्थान पर बड़े दयनीय भाव उभरे। अपना सारा सपना उसे अपनी आंखों के सामने चकनाचूर होता मालूम हो रहा था।

“देख लेना” — विमल बोला — “यह वापसी में सीढ़ी से भी गिरेगा।”

“चुप रहो।” — वह क्रोधित भाव से बोला।

उसने दस्ताने पहने और आंखों पर बैल के खोपों जैसा चश्मा चढ़ाया। वह लाभसिंह के पास पहुंचा। उसने उसके हाथ से टार्च छीन ली।

“की होया?” — लाभसिंह हड़बड़ा कर बोला।

“माईंयवया! तैनूं गोला वज्जे। तैनूं सप्प लड़ जावे।” — मायाराम गालियां बकता बोला — “उठ यहां से।”

लाभसिंह उठा। मायाराम ने उसे परे धक्का दिया और स्वयं कुर्सी पर बैठ गया।

लपट फिर निर्धारित स्थान पर केंद्रित हो गयी।

इस बार मायाराम पूरे आधे घंटे बाद कुर्सी से उठा।

गुरांदित्ता ने उसकी जगह ले ली।

मायाराम इतना निढाल हुआ हुआ था कि वह अपने पैरों पर खड़ा न रह सका। कुर्सी से हटते ही वह फर्श पर लोट गया।

“ऑक्सीजन।” — मायाराम विमल से बोला।

विमल लपक कर ऑक्सीजन का सिलेंडर उठा लाया। उसने मायाराम का चश्मा उतार दिया और सिलेंडर से सम्बद्ध गैस मास्क उसके मुंह पर लगा दिया। मायाराम ने उसमें नौ दस लम्बी सांसें लीं तो उसकी हालत सुधर गयी। उसने गैस मास्क परे धकेल दिया।

लाभसिंह दीवार के साथ पीठ लगाए फर्श पर बैठा था और उल्लुओं की तरह पलकें झपकाता कभी इधर, कभी उधर देख रहा था।

विमल ने मायाराम को कॉफी और ग्लूकोज दिया।

पांच मिनट बाद उसकी जान में जान आयी।

“कोट-वोट उतार दो, उस्तादजी।” — विमल बोला।

“कोई बात नहीं।” — मायाराम बोला — “कोई फर्क...”

“उस्तादजी” — विमल धीरे से बोला — “अगर कोट इसलिए नहीं उतार रहे हो कि तुम्हारे शोल्डर होलस्टर में मौजूद रिवाल्वर की मुझे खबर लग जायेगी तो खामखाह अपने आप को तकलीफ दे रहे हो।”

मायाराम ने विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखा।

“तुम तो औरों को नसीहत कर रहे थे कि कोई रिवाल्वर न रखे?” — विमल बोला।

“मेरा रिवाल्वर लाने का कोई इरादा नहीं था। न ही यह किसी काम आने वाली है।” — मायाराम खेदपूर्ण स्वर में बोला — “लेकिन आज आने से पहले पता नहीं मेरे मन में क्या आया कि मैं बिना सोचे समझे रिवाल्वर उठा लाया।”

विमल चुप रहा।

मायाराम ने अपने कपड़े उतार फेंके।

“अब तक हम दस इंच गहरे पैठ चुके हैं।” — उसने बताया।

“हूं।”

“लाभसिंह के बच्चे ने समस्या खड़ी कर दी है। यहां मेरी कल्पना से ज्यादा गर्मी है। इस बार जो मेरी हालत हुई है, उससे लगता है कि हम दोनों के लिए ही यह काम करते रह पाना असम्भव है।”

“तुम मुझे आजमा कर देखो।” — विमल बोला — “यह काम मुझे उतना मुश्किल नहीं लग रहा जितना तुम इसे साबित करने की कोशिश कर रहे हो।”

मायाराम ने चिंतापूर्ण भाव से लाभसिंह की ओर देखा।

“इसने कितनी पी है?” — उसने पूछा।

“अद्धा मेरे सामने पिया है।” — विमल ने बताया — “घर से कितनी पीकर आया था, भगवान जाने!”

“फिर तो यह जाग रहा है, यही गनीमत है। अभी तक तो इसे खर्राटे भरता होना चाहिए था।”

तभी वायरलैस सैट पर सिग्नल आने लगा।

मायाराम ने हैडफोन कान पर चढ़ाया, सैट ऑन किया और बोला — “कर्मचंद!”

“हां।” — दूसरी ओर से आवाज आयी — “क्या हो रहा है, उस्तादजी?”

“सब ठीक है।” — मायाराम बोला — “तुम्हारा क्या हाल है?”

“सब ठीक है।”

“अच्छा, फिर।” — उसने हैडफोन उतार दिया।

गुरांदित्ता हटा तो उसकी हालत मायाराम से भी खराब थी। तब तक गैस का सिलेंडर भी खाली हो चुका था। मायाराम ने नया सिलेंडर जोड़ा और फिर विमल से बोला — “आओ फिर। कोशिश कर देखो।”

विमल ने दस्ताने और चश्मा पहना और कुर्सी पर आ बैठा।

मायाराम ने उसे टार्च पकड़ा दी और बोला — “कोहनियां मजबूती से घुटनों पर टिकाए रहना और टार्च की लपट को यहां केंद्रित रखना। बस, बन जायेगा काम।”

विमल ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया।

“गर्मी तुम्हें दो ही मिनट बाद सताने लगेगी। उससे बचने का एक तरीका यह भी है कि अपना ध्यान किन्हीं और बातों की तरफ लगा लो। उस दौलत के सपने देखो जो हमारे हाथ आने वाली है। उन औरतों के बारे में सोचो जिनके साथ तुमने मौजमेला किया है। सुख की उन घड़ियों के बारे में सोचो जो तुम्हें दुर्लभ दिखायी देता है...”

‘या उस दौलत के सपने देखूँ जो मैंने खोई हैʼ — विमल मन ही मन बोला — ‘उन औरतों के बारे में सोचूं, अपनी बीवी के साथ ईमानदारी से पेश आने के लिए जिनकी ओर मैंने कभी आंख उठा कर नहीं देखा, दुख की उन घड़ियों के बारे में सोचूं जो अपनी बीवी की बेवफाई की वजह से मेरे पल्ले पड़ती रही हैं और पड़ती रहेंगी।ʼ

अगर और बातों की ओर ध्यान लगाने से ही गर्मी से ध्यान बंट सकता था तो ऐसी बेशुमार बातों का एक बहुत बड़ा साधन तो उसकी बीवी सुरजीत कौर ही थी।

“शाबाश!” — मायाराम प्रशंसात्मक स्वर में कह रहा था — “शाबाश!”

विमल का ध्यान फिर सुरजीत कौर की ओर भटक गया। क्या करती होगी वह आजकल? क्या अभी भी इलाहाबाद में ही रह रही होगी और अपने यार ज्ञान प्रकाश डोगरा के साथ गुलछर्रे उड़ा रही होगी? जहन्नुम में जाये वह। जो मर्जी करे। अब काहे की बीवी थी वह उसकी? अब तो...

“उठो।”

उसकी तंद्रा टूटी। मायाराम उसका कंधा थपथपा रहा था। उसने टार्च उसके हाथ में थमा दी और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। तब उसे पहली बार अनुभव हुआ कि उसका शरीर अंगारा बना पड़ा था। उसकी आंखों के सामने लाल पीले सितारे नाच रहे थे और दिमाग हवा में उड़ रहा था। वह जमीन पर लेट गया और लम्बी सांसें लेने लगा।

लाभसिंह जिस स्थिति में बैठा था, उसी में सो गया था और खर्राटे भर रहा था।

“मुंह में नमक रख लो।” — गुरांदित्ता ने राय दी।

विमल ने ऐसा ही किया। फिर उसने ग्लूकोज खाया और ऊपर से कॉफी पी। उसकी जान में जान आने लगी। ऑक्सीजन वाला मास्क उसने नहीं चढ़ाया।

उस समय तक सारी बेसमेंट ही काफी गर्म हो चुकी थी लेकिन यह गर्मी वाल्ट और टार्च के समीप बैठने जैसी गर्मी की तरह बर्दाश्त से बाहर नहीं थी।

सीढ़‍ियों के पास ऊपर से थोड़ी ठंडी हवा आ रही थी।

विमल वहां जा खड़ा हुआ।

एकाएक मायाराम के मुंह से एक चीख-सी निकली।

विमल घबरा कर वापिस भागा।

उसने देखा, मायाराम के पसीने से भीगे, गर्मी से तमतमाए, सुर्ख चेहरे पर खुशी नाच रही थी।

“मार लिया मोर्चा!” — उसने नारा-सा लगाया।

“क्या हुआ? खुल गया दरवाजा?” — विमल ने पूछा।

“दरवाजे में आर पार छेद हो गया है।” — गुरांदित्ता ने बताया।

“बस, छेद ही?”

“हां। लेकिन बड़ा काम यही था। यह छेद करना ही बड़ी समस्या थी। इस छेद को बड़ा करना आसान है।”

“ओह!”

फिर गुरांदित्ता ने टार्च सम्भाली।

मायाराम में उत्साह की नई लहर दौड़ गयी थी। अपनी मेहनत के उस फल को देख कर उसकी टूटती हुई हिम्मत फिर बंध गयी थी।

विमल से वह विशेष रूप से खुश था, क्योंकि उस संकट की घड़ी में उसकी मदद बहुत कारआमद साबित हुई थी।

सुबह साढ़े चार बजे तक अभेद्य समझे जाने वाले उस ढाई फुट मोटे दरवाजे में एक दो फुट गुणा डेढ़ फुट का झरोखा बन चुका था। उतने बड़े झरोखे से इकहरे बदन का आदमी बड़े आराम से भीतर घुस सकता था।

वह झरोखा बनाने में गैस का आखिरी सिलेंडर भी लगभग खाली हो चुका था। अगर अभी छेद छोटा रह गया होता तो अब उसे बड़ा करने के लिए न गैस बाकी थी और न ही वक्त बाकी था।

लेकिन अभी मंजिल बहुत दूर थी। अभी एक बहुत बड़ी समस्या उनके सामने मुंह बाए खड़ी थी।

दरवाजा अंगारे की तरह दहक रहा था।