बंसल ने वागले रमाकांत को फोन किया।
"वागली साहब! मैं देवराज चौहान पर नजर रखे हुए हूं और वो कॉटेज से सीधा मलाड के फ्लैट पर गया, तभी फ्लैट से एक लड़की निकली तो वो उसके पीछे लग गया और...।"
"ये सारी रिपोर्ट लोहरा को दे दो। ये मामला लोहरा देख रहा है।" वागले रमाकांत ने कहा।
तब बंसल ने उदय लोहरा को फोन करके सारी रिपोर्ट दी।
"अब देवराज चौहान उसी फ्लैट पर नजर रखे, अपनी कार में बैठा है।" बंसल ने बताया।
"इस मामले से उस लड़की का क्या मतलब?" उधर से लोहरा ने पूछा।
"क्या पता?"
"तुम देवराज चौहान पर नजर रखे हुए हो?"
"हां। वागले रमाकांत ने ये काम करने को कहा था।" बंसल बोला।
"ठीक है। देवराज चौहान की हरकतों की खबर मुझे देते रहना।" लोहारा की आवाज आई।
"अच्छा...।"
"फ्लैट के पीछे से भी निकलने का रास्ता हो सकता है बंसल?"
"फर्स्ट फ्लोर का फ्लैट है। पीछे कोई रास्ता नहीं। मैं देख चुका हूं।"
"उस रेस्टोरेंट में लड़की जिस लड़के से मिली, उसे जानते हो?"
"मैंने उस लड़के को पहले कभी नहीं देखा।"
"देवराज चौहान पर नजर रखते रहो।"
■■■
जगदीप भंडारे ने मोबाइल जेब में रखा और पहली मंजिल के कमरे से बाहर निकलकर खड़ा हो गया। चेहरे पर गंभीरता थी। ये उस गैराज के भीतर का ही हिस्सा था। आठ हजार स्क्वेयर फीट में गैराज बना था। उसका बाप कभी गैराज चलाया करता था। ये बीस साल पहले की बात थी। फिर अचानक ही दिल का दौरा पड़ने से उसकी मौत हो गई। भंडारे ने गैराज पर ताला लगा दिया। उस वक्त उसने अंडरवर्ल्ड की दुनिया में कदम रख दिया था। उसने कभी सोचा नहीं था कि इस गैराज का इस्तेमाल करेगा। पर अब ये बहुत काम आ रहा था।
गैराज में कारों के नाम पर कबाड़ भरा पड़ा था। फिर भी काफी जगह खाली थी। उस रात रत्ना के साथ मिलकर गैराज की काफी सफाई कर दी थी। गैराज के एक कोने से ऊपर को सीढ़ियां जा रही थीं और वहां रहने को दो कमरे बना रखे थे। उसका बाप इन्हीं दो कमरों में रहा करता था। भंडारे उन्हीं कमरों में टिका हुआ था। यहां भरपूर शांति थी। गैराज का सामने का फाटक हमेशा की तरह बंद था। बाहर का शोर कभी-कभार ही कानों में पड़ता था।
यहां भंडारे खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा था क्योंकि उसकी कोई पहचान वाला इस जगह को नहीं जानता था। यहां किसी के भी पहुंचने का खतरा नहीं था, बेशक साल भर ही यहां क्यों ना टिका रहे। खाने का सामान कई दिन का भर रखा था उसने कि बाहर निकलने की ज्यादा जरूरत ना पड़े।
वो हर तरफ से निश्चिंत होकर यहां रह रहा था कि रत्ना के फोन ने उसके दिमाग में हलचल मचा दी थी।
देवराज चौहान ने बाबू भाई को ढूंढ निकाला था, इस बात से वो पहले से ही व्याकुल था कि अब पता चला देवराज चौहान रत्ना के पास भी पहुंच गया था। बाबू भाई ने रत्ना के बारे में देवराज चौहान के सामने मुंह खोल दिया था। बाबू भाई से उसे ऐसी आशा नहीं थी। इससे भी बड़ी गड़बड़ ये हो गई थी कि देवराज चौहान और वागले रमाकांत में बन गई थी, जबकि उसके ख्याल से तो वागले रमाकांत देवराज चौहान को खत्म कर देता।
अब उसके लिए सबसे बड़ी परेशानी ये थी कि रत्ना इस जगह के बारे में जानती थी और देवराज चौहान रत्ना तक पहुंच गया था। उसके ख्याल से अब रत्ना पर नजर रखी जा रही होगी। देवराज चौहान नजर रख रहा था, या उसका कोई आदमी नजर रख रहा होगा। ये गलत था।
अगर वो रत्ना को उसके हाल पर छोड़ देता है तो रत्ना यहां का पता बता सकती थी। वैसे भी रत्ना को छोड़ने का भंडारे का कोई इरादा नहीं था। वो रत्ना के साथ ही जिंदगी बिताना चाहता था। ऐसे में रत्ना को यहां लाने के लिए कुछ करना होगा। फौरन करना होगा। ज्यादा वक्त बीता तो गड़बड़ हो सकती है।
ऊपर की बालकनी में खड़े भंडारे ने नीचे गैराज के काफी बड़े हॉल में नजर मारी। पुरानी, बेकार कारों की बॉडियों का ढेर लगा हुआ था। बीच में वो एंबूलेंस खड़ी थी। भंडारे कई पलों तक एंबूलेंस को देखता रहा फिर जेब में मोबाइल निकालकर नंबर मिलाने लगा। वो गम्भीर नजर आ रहा था। फोन कान से लगाया।
"हैलो...।" उसके कानों में आवाज पड़ी।
"शिंदे।" भंडारे धीमे स्वर में बोला--- "काम हुआ?"
"हो रहा है। कल से मैं दो बड़ी वैन देख चुका हूं, दोनों के इंजन में गड़बड़ थी, तो उन्हें नहीं खरीदा। आज एक दूसरी वैन देखने जा रहा हूं। अगर वो ठीक रही तो उसे खरीद लूंगा।"
"कम-से-कम बीस बंदों के बैठने की जगह हो। इतनी बड़ी वैन चाहिए।"
"चिंता मत कर। मैं सब समझता हूं।"
"मुझे जल्दी बताना, वैन जंची कि नहीं।"
"हां, फोन कर दूंगा। पांच करोड़ याद है ना। जब मैं वैन तुम्हें दूंगा, तब तुम पांच करोड़ दोगे।"
"अपना किया वादा मैं नहीं भूलता। पांच करोड़ पहले दूंगा, वैन बाद में लूंगा।"
"वैन के पसंद आते ही तुम्हें फोन करूंगा।"
भंडारे ने फोन बंद करके जेब में रखा और सामने नीचे खड़ी एंबूलेंस को देखने लगा। फिर सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। सीढ़ियां उतरकर गैराज के हॉल में पहुंचा। एंबूलेंस की तरफ उसके कदम बढ़ गए।
पास पहुंचकर एंबूलेंस का दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश कर गया।
भीतर गत्ते के बड़े डिब्बे भरे पड़े थे।
भंडारे के चेहरे पर मुस्कान ठहरी।
आगे बढ़कर उसने एक डिब्बा खोला और भीतर देखा। हजार-हजार के नोटों की गड्डियां ऊपर तक भरी पड़ी थीं। ऐसे नौ डिब्बे थे वहां। भंडारे ने इसी प्रकार दूसरे डिब्बे को खोलकर देखा।
"इतना बड़ा हाथ मारकर तूने तो कमाल कर दिया भंडारे...।" भंडारे बड़बड़ा उठा।
फिर वो एंबूलेंस से बाहर निकला और दरवाजा बंद कर दिया।
शांत गैराज पर भरपूर नजर मारकर पुनः बड़बड़ा उठा।
"मेरे बाप ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इतनी बड़ी दौलत इस गैराज में आएगी और उसका बेटा उसका मालिक होगा। कारें ठीक करता-करता ही मर गया साला।"
फिर भंडारे सीढ़ियां तय करके ऊपर के कमरे में पहुंचा।
कमरे में बैड बिछा था। गद्दे पड़े थे। परन्तु उस पर चादर नहीं थी।
पुरानी-सी कुर्सी पर बैठकर भंडारे ने सिगरेट सुलगाई।
"मुझे कुछ करना होगा कि रत्ना को चुपके से यहां से ले आऊं...।" भंडारे जैसे अपने से बोला--- "अगर देवराज चौहान ने रत्ना का मुंह खुलवा लिया तो सारा खेल खत्म हो जाएगा।"
भंडारे ने मोबाइल निकाला और रत्ना के नंबर मिलाने लगा।
"बोल हीरो...!" रत्ना से बात हो गई।
"सब ठीक है?"
"हां, ठीक है।"
"तू मस्त रह। मैं शाम तक तेरे को वहां से निकालने का इंतजाम करता हूं।"
"शाम तो होने को है, तू क्या करने वाला है?"
"तेरे को फोन करूंगा। एकदम तैयार रहना और मेरे फोन का इंतजार करना।"
"जो भी करना सोच समझकर करना। अपने लिए मुसीबत खड़ी मत करना।"
"भंडारे पर भरोसा रख। किस्मत भंडारे के साथ है। कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।" कहने के साथ ही भंडारे ने फोन बंद करके जेब में रखा और रिवाल्वर उठाकर मैग्जीन चैक की। वो भरी हुई थी।
रिवाल्वर को जेब में रखा और दूसरे कमरे से निकलकर गैराज के नीचे वाले हिस्से में आ पहुंचा। एंबूलेंस के पास से होता हुआ वो बड़े फाटक के पास बने छोटे से गेट को खोलकर बाहर निकला और ताला लगाकर, बाहर ही खड़ी कार में जा बैठा। सामने चलती सड़क थी। वाहन आ-जा रहे थे। भंडारे ने अपनी कार आगे बढ़ा दी। कुछ ही पलों में उसकी कार, वाहनों की भीड़ में शामिल हो गई।
■■■
व्याकुल से सदाशिव ने रत्ना को फोन किया।
"भंडारे अभी-अभी गैराज से निकलकर, कार में बैठकर चला गया। मुझे टैक्सी नहीं मिली। मैं पीछा नहीं कर सका।
"वो भंडारे ही था? तूने उसे पहचाना?"
"पहचाना। तूने जो हुलिया बताया था, वो वैसा ही था फिर वही गैराज से बाहर निकला।"
"फिक्र मत कर। तू वहीं रह। भंडारे जल्दी लौट आएगा।"
"लेकिन मैं इस तरह कब तक गैराज पर नजर रखूंगा। तू कुछ सोच...।"
"मेरे हीरो, हमारी आगे की जिंदगी शानदार है। तू थोड़ी-सी तकलीफ नहीं सह सकता।"
"कुछ पता भी तो चले कि आखिर हम क्या करने जा रहे हैं।"
"हालात हमारा प्लान बनाएंगे।"
"वो कैसे?"
"कल बताऊंगी, तू गैराज पर नजर रख। थोड़ी-सी तकलीफ से घबरा मत।" उधर से रत्ना ने कहा।
■■■
देवराज चौहान, रत्ना के फ्लैट के सामने से ज़रा हटकर सड़क किनारे खड़ी अपनी कार में बैठा था। कार के शीशे काले थे और बाहर से देख पाना कि भीतर कोई है, आसान नहीं था। यहां से देवराज चौहान को रत्ना का फ्लैट और रत्ना की कार नजर आ रही थी। रत्ना अगर बिना कार के भी बाहर निकलती, आसानी से दिखाई दे जाती। देवराज चौहान को पूरा यकीन था कि वो जानती है भंडारे कहां पर है। परन्तु वो ये भी जानता था कि आसानी से ये बात बताने वाली नहीं। ऐसे में वो रत्ना पर नजर रख रहा था कि अगर वो जरा भी बेवकूफ हुई तो उसकी मुलाकात के बाद भंडारे से मिलने जरूर जाएगी। ऐसा नहीं किया तो कल सुबह उसके साथ सख्ती से पेश आकर भंडारे के बारे में जान लेगा। रत्ना को छोड़ने का इरादा देवराज चौहान का जरा भी नहीं था। पूरा भरोसा था कि ये लड़की उसे भंडारे तक पहुंचा सकती है।
बंसल, देवराज चौहान की कार के सौ कदम पीछे अपनी कार को सड़क किनारे खड़ी करके भीतर बैठा हुआ था। बीच में दो और कारें पार्क थीं, इस वजह से देवराज चौहान को अपने पर नजर रखने का पता लग जाना संभव नहीं था। बंसल सतर्क था और देवराज चौहान के मामले में चूकना नहीं चाहता था। वो जानता था कि ये मामला कितना अहम है। देवराज चौहान नजरों से दूर हो गया तो वागले रमाकांत बहुत नाराज होगा। इस वक्त वो यही सोच रहा था कि आखिर देवराज चौहान का वहां टिके रहने का कब तक का इरादा है।
बंसल की कार के शीशे काले नहीं थे। वो नहीं जानता था कि इसी वजह से उसके सिर पर बड़ी मुसीबत आने वाली है। वो तो निश्चिंत-सा कार में बैठा देवराज चौहान पर नजर रखे हुए था।
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शाम के सात बज रहे थे। अभी शाम का भरपूर उजाला फैला था। बंसल अपनी कार में बैठा देवराज चौहान पर नजर रखे था। शाम की वजह से सड़क पर ट्रैफिक बढ़ गया था। तभी बंसल ने अपनी कार के पीछे एक कार रूकती देखी, परन्तु उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। कुछ देर पहले उसकी कार के पीछे कार पार्क हुई थी जो कि बाद में चली गई थी।
पीछे वाली कार से भंडारे बाहर निकला और उसकी कार की तरफ बढ़ा। भंडारे यहां बीस मिनट से था वो कार पर सड़क के चक्कर लगा चुका था। वहां उसे एकमात्र बंसल की कार दिखी, जिसके भीतर कोई बैठा हुआ था। वो देवराज चौहान की काले शीशे वाली कार के भीतर ना देख सका, जहां देवराज चौहान मौजूद था।
ऐसे में भंडारे को यकीन हो गया था कि यही (बंसल) देवराज चौहान का आदमी है और रत्ना पर नजर रख रहा है। वो बंसल की कार के पास पहुंचा और दरवाजा खोलकर भीतर जा बैठा।
बंसल चिंहुककर भंडारे को देखने लगा, फिर बोला---
"क्या बात है?" स्वर सख्त था बंसल का।
भंडारे ने रिवाल्वर निकाल ली। चेहरे पर खतरनाक भाव उभरे।
रिवाल्वर देखते ही बंसल की आंखें सिकुड़ी।
"कौन हो तुम?"
"तुम इतनी देर से कार में बैठे क्या कर रहे हो?" भंडारे होंठ भींचकर बोला--- "किस पर नजर रख रहे हो?"
"क्या मतलब...मैं तो...।"
"तुम कब से हो इस कार में?" भंडारे गुर्रा उठा।
"दो-ढाई घंटों से।"
भंडारे ने सोचा उसका ख्याल ठीक निकला।
"किस पर नजर रखे हुए हो?"
"किसी पर नहीं, मैं तो...।"
भंडारे ने हाथ बढ़ाकर रिवाल्वर की नाल उसकी कमर से लगा दी।
बंसल के होंठ भिंच गए।
"मुझे पहचानते हो?" भंडारे पुनः गुर्राया।
"नहीं।" बंसल भारी उलझन में था कि ये कौन उसके पास आ गया।
"जगदीप भंडारे को नहीं पहचाना।" भंडारे ने दांत पीसे।
बंसल चिंहुक पड़ा। आंखें फैल गईं।
"तु...तु....म भंडारे....।"
"हां हरामजादे, मैं ही भंडारे हूं...।"
"वागले रमाकांत का पैसा तुम्हारे पास है।" बंसल के होंठों से निकला।
"सब पता है साले तुझे। तू देवराज चौहान के लिए काम करता है। अब रत्ना पर नजर रख रहा है। तेरी तो.... देवराज चौहान क्या समझता है भंडारे से टक्कर ले लेगा। मैं उसे कुत्ते की तरह दौड़ा-दौड़ाकर मारूंगा। उसका वो हाल करूंगा जैसा किसी ने नहीं किया होगा।" भंडारे के चेहरे पर दरिंदगी नाच रही थी।
"तुम किस रत्ना की बात कर रहे...।"
"यहां क्या कर रहा है बोल, वरना अभी गोली मारता हूं...।"
"वो जो लड़की उस फ्लैट में रहती है, रत्ना नाम है उसका?" बंसल जैसे बात को समझा।
"सब जानता है तू और मुझे चुतिया बनाता है कि कुछ नहीं जानता। देवराज चौहान से कह देना कि मेरे रास्ते से हट जाए वरना बहुत बुरी मौत मारूंगा। वो पैसा सिर्फ मेरा है।" दांत पीसकर भंडारे ने कहा और अगले ही पल रिवाल्वर के दस्ते से उसके सिर पर चोटें मारने लगा।
तब तक मारता रहा जब तक कि बंसल का सिर शांत होकर स्टेयरिंग पर ना जा लगा। वो बेहोश हो गया था और सिर माथे से खून बहता चेहरा भिगोने लगा था।
भंडारे के चेहरे पर दरिंदगी तैर रही थी।
उसने खून से सनी रिवाल्वर और हाथ बंसल की कमीज से साफ किया और रिवाल्वर जेब में रखते कार के आसपास नजर मारी। किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया था। धड़क रहा था भंडारे का चेहरा। कार में बैठे ही उसने मोबाइल निकाला और रत्ना के नंबर मिलाकर बात की।
"एक आदमी बाहर तेरे पर नजर रख रहा था। उसे मैंने बेहोश कर दिया। तू बाहर आ। मैं तुझे कार में मिलूंगा।"
"तूने इतना बड़ा खतरा क्यों उठाया हीरो...।"
"असली खतरा तो तब आता जब देवराज चौहान तुझे पकड़ लेता और तेरे को बोलने पर मजबूर कर देता। अब सबकुछ काबू में है। तू जल्दी से बाहर निकल। मैं कार लिए खड़ा हूं...।"
"अभी आई...।"
भंडारे ने फोन बंद करके जेब में रखा और दरवाजा खोलकर बाहर निकलते हुए पीछे खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ गया। वो अपने चेहरे पर छाई कठोरता कम करने की कोशिश में था। फौरन ही वो अपनी कार में बैठा और स्टार्ट करके धीमी गति में आगे बढ़ा दी और रत्ना के फ्लैट के सामने खड़ी कर दी।
तभी रत्ना आती दिखाई दी।
भंडारे के चेहरे पर मुस्कान फैल गई उसे देखते ही।
पास आकर रत्ना कार का दरवाजा खोलकर भीतर आ बैठी। वो कुछ व्याकुल थी।
"घबरा मत, हम सुरक्षित हैं।" कहने के साथ ही भंडारे ने कार दौड़ा दी।
■■■
देवराज चौहान ने जब रत्ना के फ्लैट के बाहर कार रुकते देखी तो नजरें कार के भीतर जा टिकीं। अगले ही पल वो बुरी तरह चिंहुक उठा। हालांकि वो कुछ पीछे कार में बैठा था, परन्तु उसे कुछ ऐसी झलक मिली कि लगा ड्राइविंग सीट पर भंडारे बैठा है। परन्तु उसका मन ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि भंडारे इस तरह खुले में आ सकता है।
चंद पल ही ये विचार देवराज चौहान के मस्तिष्क में आए।
फिर उसने रत्ना को फ्लैट की तरफ से कार की तरफ बढ़ते देखा।
उसी पल देवराज चौहान का विचार मजबूत हो गया कि वो भंडारे ही है। उसने फौरन कार स्टार्ट की।
रत्ना को कार में बैठते और कार को आगे बढ़ते देखा।
देवराज चौहान ने उसी पल को अगली कार के पीछे लगा दिया। वो जानता था कि बहुत सतर्क रहकर पीछा करना है। ना तो भंडारे को पीछा होने का शक हो, ना ही उसकी कार निगाहों से ओझल हो।
■■■
भंडारे ने गैराज के बाहर वहीं कार रोक दी। जहां पर पहले खड़ी कार रखी थी। फिर इंजन बंद करके बाहर निकलने को हुआ कि रत्ना कह उठी।
"कार को गैराज के भीतर ही क्यों नहीं ले जाता?"
"उसके लिए गैराज का बड़ा फाटक खोलना पड़ेगा। लोगों की नजरें ही इधर ही टिकेंगी। ये मैं नहीं चाहता। अभी तो छोटे दरवाजे से आने-जाने का काम चल जाता है। चला आ...।" भंडारे कार से बाहर निकला।
रत्ना भी बाहर निकली। नजरें इधर-उधर मारी।
उसे सदाशिव को देखने की तलाश थी। परन्तु अंधेरा घिर चुका था ऐसे में सदाशिव उसे नहीं दिखा। सदाशिव ने उसे देखा है या नहीं, ये भी उसे पता नहीं चल पाया। जहां पर कार रुकी थी, वहां अंधेरा था।
रत्ना, भंडारे के पास जा पहुंची।
तब तक भंडारे छोटे दरवाजे पर लगा ताला खोल चुका था । भीतर प्रवेश कर गए और भंडारे के दरवाजा बंद करके भीतर से बड़ी वाली कुंडी चढ़ा दी।
भीतर हर तरफ अंधेरा था।
"यहां रोशनी का इंतजाम नहीं किया हीरो?"
"लाइट ले ली है, पर ज्यादा जलाकर नहीं रखता। मैं चाहता हूं कम लोग ही जाने कि यहां कोई रहता है। सावधानी के नाते ऐसा करना जरूरी है।" भंडारे ने उसका हाथ पकड़ा--- "मेरे पीछे चलती रहना।"
भंडारे आगे बढ़ गया उसका हाथ पकड़े।
रत्ना उसके साथ पीछे चलती रही।
वे कोने में बनी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर बने दो में से एक कमरे में पहुंचे और कमरे की लाइट, पंखा चला दिया। दोनों की नजरें मिलीं। भंडारे प्यार से मुस्कुरा दिया।
"पैसा कहां है हीरो?"
"नीचे एंबूलेंस खड़ी है, उसमें है। दिखाऊं क्या?"
"देख लूंगी। शिंदे ने किसी वैन का इंतजाम नहीं किया अभी तक?" रत्ना ने पूछा।
"दो घंटे पहले उसका फोन आया था। उसने मेरे लिए वैन को खरीद लिया है। एक-आध दिन में वो वैन को अपने गैराज पर रखेगा और उसकी कमी पेशी दूर करके मेरे हवाले कर देगा।" भंडारे बोला।
"इस काम के शिंदे कितना लेगा?"
"पांच करोड़...।"
"ज्यादा है।"
"मुझे क्या फर्क पड़ता है।" भंडारे हंसा--- "मेरे पास बहुत पैसा है।"
"पांच-पांच करके सारे उड़ जाएंगे। मैं ध्यान रखूंगी अब कि तू पैसा बर्बाद ना करे।"
"बीवियों की तरह बात करने लगी।"
"अब तू मुझे अपनी बीवी भी समझ। मर्द को पैसे के साथ अकेला नहीं छोड़ते नहीं तो वो बिगड़ जाता है।" रत्ना मुस्कुराई।
"हीरो से तूने मुझे मर्द बना दिया।"
"हीरो तो तू मेरा तब भी रहेगा, जब तू बूढ़ा हो जाएगा।" रत्ना ने उसका हाथ पकड़ा--- "पर तेरे को इतना खतरा उठाने की क्या जरूरत थी। मेरे फ्लैट के बाहर देवराज चौहान भी हो सकता था।"
"उसका आदमी था। साले का सिर फोड़ दिया।" भंडारे कड़वे स्वर में बोला--- "वहां देवराज चौहान होता तो उसका काम खत्म कर देता।"
"वो मेरे को इसी बात से तो छोड़ गया कि मैं कुछ करूं और उससे उसे, तेरा पता मिल जाए।"
"बेवकूफ है हरामजादा। भंडारे को अभी जानता नहीं।"
रत्ना एकाएक उससे सट गई।
भंडारे ने उसे बांहों में ले लिया।
"तू मुझे बहुत प्यारा है हीरो...।"
"तू तो मेरी जान है।" भंडारे ने गहरी सांस ली।
"अब हमारे पास बहुत पैसा है। मजे से जिंदगी बिताएंगे। मैं तुझे बहुत मजा दूंगी।"
"सच...।"
"आज की रात मैं तेरे लिए यादगार बना दूंगी।" रत्ना मस्ती और प्यार भरे स्वर में कह उठी।
"तू तो मुझे पागल कर देगी।"
"पागल तो मैं हुई पड़ी हूं तेरे प्यार में। सोचता क्या है आ-जा ना...।"
"पीने नहीं देगी?" भंडारे पर नशा चढ़ने लगा था रत्ना का।
"बाद में, पहले मेरे से प्यार कर। तेरी बहुत जरूरत है मुझे। मुझे तो हर समय डर लगा रहता था कि तुझे कुछ हो ना जाए। पर तू ठीक रहा, यही मेरे लिए दौलत है। तू मेरा सच्चा हीरो है।"
अब भंडारे से और ना रुका गया।
रत्ना उसे पूरी तरह अपने काबू में रखना चाहती थी। प्यार दिखाने की यही वजह थी उसकी।
■■■
देवराज चौहान से चूक हो गई।
जब भंडारे की कार मुख्य सड़क से हटकर इस इलाके के भीतर में प्रवेश हुई तो तभी बीच में एक टैंपू आ गया। जब तक वो टैंपू हटा तब तक भंडारे की कार का कहीं भी पता नहीं था। अंधेरा हो चुका था। देवराज चौहान भंडारे की कार की तलाश में अपनी कार को सड़कों पर दौड़ाता रहा, परन्तु उसकी कार कहीं ना दिखी।
इतना तो उसे भरोसा था कि भंडारे और रत्ना इसी इलाके में हैं। तभी तो उन्होंने लंबा रास्ता तय करने के बाद इस इलाके में प्रवेश किया। अंधेरा भी रुकावट बन रहा था उसके काम में। दो घंटे इसी इलाके की सड़कों पर कार दौड़ाने के बाद उसने कार को एक तरफ रोक दिया। चेहरा कठोर हुआ पड़ा था। मन में झल्लाहट थी कि टैंपू के ऐन मौके पर बीच में आ जाने पर उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर गया।
परन्तु देवराज चौहान अब इस इलाके से बाहर निकलने को तैयार नहीं था। ये बहुत बड़ी बात थी कि भंडारे का इस इलाके में होने के बारे में मालूम हो गया था। देर-सवेर में उसे ढूंढ सकता है।
कार वहीं छोड़कर देवराज चौहान पैदल ही इलाके की सड़कों को नापने लगा, इस आशा से कि कहीं पर भंडारे की कार दिख जाए। इस प्रकार घूमते-घूमते उसे रात का एक बज गया, परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। एक बार तो मन में आया कि भंडारे की तलाश में वागले रमाकांत की सहायता ले ले, फिर ये सोचकर विचार बदल दिया कि वागले रमाकांत के आदमियों से काम खराब भी हो सकता है। देवराज चौहान वापस अपनी कार के पास पहुंचा और पीछे वाली सीट पर जा लेटा। मन में विचार बनाया कि दिन निकलने पर फिर से भंडारे की तलाश करेगा इस इलाके में।
■■■
बंसल के होंठों से पीड़ाभरी कराह निकली। धीरे-धीरे उसे होश आ गया और उसने आंखें खोली तो खुद को सरकारी अस्पताल में पाया। पूरा सिर पट्टियों से ढका हुआ था। कमीज पर भी खून गिरा हुआ था। ये अस्पताल का बहुत बड़ा हॉल था और यहां बीस-पच्चीस बैड दो कतारों में रखे नजर आ रहे थे। वो कमजोरी महसूस कर रहा था परन्तु उठ बैठा।
रात के दस बज रहे थे।
दो नर्सें अपने काम में व्यस्त नजर आईं। उसने अपनी जेब में हाथ मारा तो पर्स मोबाइल जेब में ही रखा मिला। वो समझ गया कि उसे कार में घायल और बेहोश देखकर लोगों ने अस्पताल पहुंचा दिया होगा। बंसल बैड से नीचे उतरा। नंगे पांव था, जूते कहीं भी ना दिखे। ऐसे वक्त में नर्स वगैरहा से बात करता या पूछताछ करता तो वो उसे बाहर नहीं जाने देती। पुलिस को खबर करती या पुलिस ही उसे यहां छोड़ गई होगी।
वो खामोशी से चलता वहां से नंगे पांव ही बाहर आ गया।
कुछ मिनटों में वो अस्पताल के बाहर बैठा मोबाइल पर लोहरा से बात कर रहा था।
लोहरा से बात करने के आधे घंटे बाद एक कार में दो आदमी वहां पहुंचे। बंसल उन्हें जानता था। वो उनके साथ चला गया और उदय लोहरा के पास पहुंच गया।
उसकी हालत देखकर लोहरा ने उसे बैड पर लिटा दिया।
कमजोर आवाज में बंसल ने लोहरा को सब कुछ बताया।
"तो भंडारे ने तुम्हें देवराज चौहान का आदमी समझा।" लोहरा ने सोच भरे स्वर में कहा।
"देवराज चौहान उस लड़की से मिलने उसके फ्लैट में गया था।" बंसल ने कमजोर आवाज में कहा--- "उनके बीच बातचीत क्या हुई, ये तो मैं नहीं कह सकता, परन्तु उस लड़की को इतना पता चल गया कि बाहर उस पर नजर रखी जा रही है। नजर रखने वाला देवराज चौहान या देवराज चौहान का कोई साथी हो सकता...।"
"इन बातों का जगदीप भंडारे से क्या मतलब?" उदय लोहरा कह उठा।
"अपने विचार से वही बता रहा हूं लोहरा साहब...।" बंसल ने हाथ हिलाकर कहा--- "वो लड़की जरूर भंडारे की खास है, उसने भंडारे को बताया कि उसके यहां क्या हो रहा है। मेरे ख्याल में वो जानती थी कि भंडारे कहां है। देवराज चौहान तभी उसके पास पहुंचा था। देवराज चौहान को उसके बारे में कैसे पता चला, ये नहीं मालूम मुझे कि...।"
"बाबू भाई ने बताया होगा।" लोहरा दांत पीसकर बोला।
"बाबू भाई ने?"
"भंडारे की खबर बाबू भाई ही दे सकता है, परन्तु उसने हमें ऐसी कोई बात नहीं बताई। अभी उससे बात करूंगा।"
"सारी बात जानकर उधर भंडारे को लगा कि लड़की को यहां से निकालना जरूरी है। ओह, मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि लड़की भंडारे के ठिकाने के बारे में जानती होगी, तभी तो भंडारे को खतरा उठाकर इस तरह खुले में आना पड़ा। वहां आकर भंडारे की निगाह मुझ पर टिक गई कि मैं फ्लैट से कुछ हटकर, देर से कार में बैठा हूं तो वो यही समझा कि मैं ही उस लड़की पर नजर रख रहा हूं। देवराज चौहान पर उसकी निगाह ना पड़ सकी, क्योंकि वो मुझे देवराज चौहान का साथी बताने लगा था। देवराज चौहान के लिए धमकियां दे रहा था। मुझे उसने कुछ कहने का मौका नहीं दिया। बेहद गुस्से में था और रिवाल्वर के दस्ते से मेरे सिर पर चोटी मारने लगा। मैं बेहोश हो गया।"
लोहरा का चेहरा और गम्भीर था।
बंसल, लोहरा के चेहरे पर नजरें टिकाए बोला---
"वो लड़की मिली?"
"वो उस फ्लैट पर नहीं है। फ्लैट बंद है।" लोहरा बोला।
"इसका मतलब भंडारे उसे अपने साथ ले गया।" बंसल मुस्कुराया--- "फंस गया भंडारे...।"
"क्यों?"
"देवराज चौहान को क्यों भूल रहे हो जो तब वहीं पर लड़की पर नजर रखे हुए था।"
"क्या मालूम तुम्हारे बाद भंडारे ने देवराज चौहान को नाप लिया हो।"
"वहां कोई लाश या कोई बेहोश आदमी और मिला?"
"नहीं...।"
"तो देवराज चौहान जरूर तब भंडारे और उस लड़की के पीछे गया था।"
"ये बातें, तुम्हारे विचार की हैं। अभी पता नहीं कि सच क्या है।" लोहरा ने कहा।
"देवराज चौहान को फोन करो। आगे की सारी बात उससे पता चल जाएगी।"
"तुम आराम करो।" कहने के साथ ही लोहरा वहां से बाहर निकल गया।
उदय लोहरा ने एक कमरे का दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश कर गया।
बाबू भाई वहां बैड पर लेटा था। उसे आया पाकर उठ बैठा।
"तुमने हमें सब कुछ नहीं बताया बाबू भाई...!" उदय लोहरा शब्दों को चबाकर बोला।
"सब कह दिया है।" बाबू भाई ने थके स्वर में कहा।
"भंडारे की प्रेमिका के बारे में नहीं बताया जो...।" रत्ना का पता बताकर लोहरा ने कहा--- "यहां रहती है।"
बाबू भाई उदय लोहरा को कुछ पल देखने के बाद धीमे स्वर में बोला---
"ये ऐसी कोई बात नहीं थी बताने वाली। इससे क्या फर्क पड़ता है।"
"बहुत फर्क पड़ चुका है। मुझे पता चला कि वो भंडारे के ठिकाने के बारे में जानती है और शाम को भंडारे वहां पहुंचकर लड़की को वहां से निकालकर ले गया, जबकि देवराज चौहान और मेरा एक आदमी अलग-अलग उस पर नजर रखे हुए थे। भंडारे ने मेरे आदमी को बुरी तरह घायल कर दिया।" उदय लोहरा ने कठोर स्वर में कहा।
बाबू भाई लोहरा को देखता रहा।
"अगर तुम लड़की के बारे में हमें वक्त रहते बता देते तो हमने उससे जान लेना था कि भंडारे कहां पर छिपा है। परन्तु तुमने अपना मुंह बंद रखकर हमारा बहुत नुकसान कर दिया।"
"मुझे नहीं मालूम था कि वो भंडारे के छिपने की जगह जानती है।" बाबू भाई ने भोलेपन से कहा।
"उसका नाम क्या है?"
"रत्ना।"
"क्या लगती है वो भंडारे की?"
"प्रेमिका है। भविष्य में वो शादी भी कर लें तो बड़ी बात नहीं।" बाबू भाई बोला।
"प्रेमिका जानती है कि वो कहां पर छिपा है। पर तुम नहीं जानते कि भंडारे कहां छिपा है।"
"इंसान का अपनी प्रेमिका से अलग रिश्ता होता है। मेरे से उसका काम-काज का रिश्ता था। वो मेरा दोस्त नहीं था।"
"वो पन्द्रह साल से तुम्हारे साथ था?"
"हां...।"
"ऐसे में तुम उसके हर ठिकाने से सही प्रकार से वाकिफ होगे। ये सब बातें करने का मेरा मतलब है कि अभी भी तुम्हारे पास मौका है। भंडारे के बारे में हमें बता दो तो तुम्हारी जान बच सकती है। कुछ पैसा भी देंगे।"
"कसम से, मैं नहीं जानता कि भंडारे कहां छिपा हो सकता है।"
"भंडारे उस लड़की को इसलिए वहां से नहीं निकाल ले गया है कि उसे लड़की से बहुत प्यार है। वो उसे इसलिए निकाल ले गया कि वो उसका ठिकाना जानती थी। उसे डर था कि वो देवराज चौहान या हमें ठिकाने के बारे में ना बता दे।"
बाबू भाई ने कुछ नहीं कहा।
"कोई खास बात बताने को है तो बता दो। शायद तुम्हारी जान बच जाए। वरना मरना तो तुम्हें है ही।"
"मैं सब कुछ बता चुका हूं।"
"तू क्या सोचता है कि भंडारे हमारे हाथों से बच जाएगा?" उदय लोहरा के दांत भिंच गए।
"मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं जानता हूं कि वागले रमाकांत के हाथों से वो बच नहीं सकेगा। ये काम शुरू करने से पहले मैंने उसे सोचने का मौका दिया था कि वागले रमाकांत के माल पर हाथ ना डाले। परन्तु आखिरकार वो तैयार हो गया। वागले रमाकांत के डर के सामने, नोटों का भार उसे ज्यादा लगा। परन्तु मुझे आशा नहीं थी कि मैं फंस जाऊंगा। अगर भंडारे ने देवराज चौहान से धोखे वाला खेल ना खेला होता तो शायद हम सब बच जाते। फिर सारे हालातों का रुख देवराज चौहान की तरफ होता। बाकी सब खिसक चुके होते।"
"ऐसा नहीं होता।" उदय लोहरा गुर्रा उठा--- "तब भी यही होता, जो अब हो रहा है।"
उदय लोहरा कमरे से बाहर निकला और दरवाजा बंद करके आगे बढ़ते हुए उसने मोबाइल निकाला और नंबर मिलाने लगा। घड़ी में वक्त देखा तो रात के 1:45 बजे थे।
दूसरी तरफ बेल गई फिर देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
"हैलो...।"
"तो तुम ठीक हो देवराज चौहान! मैं उदय लोहरा बोल रहा हूं...।"
"मुझे क्या होना था?"
"तुम शाम को रत्ना नाम की लड़की पर नजर रखे अपनी कार में मौजूद थे। तुमसे कुछ पीछे मेरा आदमी बंसल सावधानी के तौर पर तुम पर नजर रख रहा था फिर...।" लोहरा ने सारी बात बता दी।
"तो तुम लोग मुझ पर नजर रखे हुए हो। वागले के साथ मेरी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि...।"
"ये सिर्फ सावधानी के नाते था।"
"गलत बात। मुझे ऐसी बातें पसंद नहीं आती कि...।"
"ठीक है।" लोहरा ने शांत स्वर में कहा--- "अब वो सारी बात खत्म हो चुकी है। हालात बदल चुके हैं। तुम जरूर भंडारे और उस लड़की रत्ना के पीछे गए होगे। तुम्हें पता होगा कि अब भंडारे वहां पर मौजूद...।"
"नहीं पता।"
"क्या तुम तब उसके पीछे नहीं जा सके?"
"गया था, परन्तु एक इलाके में प्रवेश करते ही, वो मेरी निगाहों से ओझल हो गए। इतना तो पता है कि वो इसी इलाके में कहीं पर हैं। अभी मैं उन्हें ढूंढ नहीं सका। दिन निकलने पर उनकी तलाश करूंगा।"
"मुझे बताओ तुम कहां हो। मैं अपने आदमी भेजता हूं, वो सारी जगह घेर ली जाएगी और एक-एक जगह की तलाशी लेकर हम उन्हें ढूंढ निकालेंगे।" लोहरा ने दांत किटकिटाकर कहा।
"जरूरत नहीं। इस काम के लिए मैं काफी हूं...।" उधर से देवराज चौहान की आवाज आई।
"मेरी बात को समझो देवराज चौहान, हम...।"
"तुम्हारे लोग मेरा काम खराब कर देंगे। मुझे मेरे हिसाब से काम करने दो।"
"तुम अकेले क्या कर...।"
"वागले रमाकांत को याद दिलाओ कि उसने जगमोहन को ढूंढ निकालने के लिए 24 घंटे का वक्त मांगा था।"
"वो काम चल रहा है, पर तुम...।"
"बार-बार फोन करके मुझे डिस्टर्ब मत करना।" कहने के साथ ही उधर से देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया था।
■■■
अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे के करीब रत्ना की आंख खुली। जिस्म पर चादर लिपटी हुई थी। अगले ही पल रात का ख्याल आते ही उसके चेहरे पर मस्ती भरी मुस्कान छा गई।
गैराज पर गहरी खामोशी छाई हुई थी।
रत्ना ने बिखरे बालों को समेटकर बांधा। भंडारे कमरे में नहीं था। चादर हटाकर वो उठी और इधर-उधर पड़े कपड़े तलाश करके पहने। उसके खूबसूरत चेहरे पर अब सोचें सवार होने लगी थीं।
तभी जगदीप भंडारे ने भीतर प्रवेश किया और उसे देखकर मुस्कुराया।
रत्ना के चेहरे पर पुनः मुस्कान नाच उठी।
भंडारे ने आगे बढ़कर रत्ना को बांहों के घेरे में ले लिया।
"मन नहीं भरा।" रत्ना हौले से खिलखिलाई।
"रात तो तुमने कमाल कर दिया। ऐसा कुछ पहले क्यों ना किया?" भंडारे की आवाज में मस्ती थी।
"रात मेरे ज्यादा कर दिया क्या?" रत्ना ने शोख स्वर में पूछा।
"बहुत ही शानदार। तुमने तो मेरा दिल जीत लिया।" भंडारे ने उसका माथा चूमा।
"इसी तरह हम सारी उम्र मजा करेंगे।" रत्ना ने उसके सीने को चूमा।
"अब मुझे लगता है कि तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूं।" भंडारे बोला।
"दस सालों का साथ है हमारा। किसी से प्यार होने के लिए ये वक्त बहुत ज्यादा होता है।"
"मुझे हमेशा इस बात पर नाज रहा कि तुम सिर्फ मेरी रही।"
"तू मेरा हीरो है। तेरी नहीं रहूंगी तो किसकी रहूंगी। तू मुझे बहुत प्यारा है।"
"चल तुझे नोट दिखाऊं। एक सौ साठ करोड़ की दौलत।"
"एक सौ साठ? दौलत तो एक सौ अस्सी करोड़ की है हीरो...। बीस कम क्यों कहा...।"
"बाबू भाई को दिए बीस।"
"क्या जरूरत थी देने की।"
"वो मेरा पुराना साथी रहा है।"
"पर उसने तो मेरे बारे में देवराज चौहान को बता दिया था जिससे कि हम खतरे में पड़ गए थे।"
"वो बीस करोड़ देने के बाद की बात है।" भंडारे ने उसका कंधा थपथपाकर उसे अलग करते हुए कहा--- "अगर पहले ऐसा कुछ हो जाने का पता चल जाता तो बीस करोड़ नहीं देता।"
"नोट बाद में देखूंगी, पहले बता चाय-कॉफी किधर है?" रत्ना ने कहा।
"इधर आ, तेरे को किचन दिखा दूं। सारा सामान रखा है उधर। मैंने भी चाय नहीं पी।" कहने के साथ ही भंडारे ने रत्ना का हाथ पकड़ा और उसे कमरे से बाहर लेता चला गया।
दूसरा कमरा पार करके किचन के दरवाजे पर पहुंचा।
"ये रहा किचन। चाय बना। मैं नीचे नोटों के पास जा रहा हूं।" भंडारे बोला।
"शिंदे वैन का क्या कर रहा है?" रत्ना ने पूछा।
"उसकी कमी-पेशी थी कर रहा है। बात हुई घंटा भर पहले उससे। शाम को वो वैन मुझे दे देगा।"
"फिर हम क्या करेंगे?"
"वैन को यहां लाकर एंबूलेंस से नोटों को निकालकर वैन में भरेंगे। फिर सही मौका देखकर वैन लेकर निकलेंगे और मुंबई से बाहर कहीं दूर निकल जाएंगे। जहां ना तो देवराज चौहान होगा, ना वागले रमाकांत। सिर्फ हम दोनों होंगे।"
रत्ना के चेहरे पर मस्ती भरी मुस्कान नाच उठी।
भंडारे नीचे जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
रत्ना ने किचन में जाकर, चाय की पानी गैस पर रखा। फिर किचन से बाहर निकली और नीचे गैराज को देखा। भंडारे एंबूलेंस खोले भीतर गया हुआ दिखा।
रत्ना ने जेबें टटोलीं और मोबाइल निकालकर वापस किचन में सदाशिव के नंबर मिलाने लगी।
नंबर लगा। फौरन ही सदाशिव की आवाज कानों में पड़ी।
"हैलो...।"
"कैसा है हीरो...।" रत्ना की आवाज बेहद धीमी थी।
"फंसा रखा है तूने। ना रात को ठीक से सो पाया ना दिन में चैन।" सदाशिव की नाराजगी भरी आवाज कानों में पड़ी--- "रात को भंडारे कार पर जब वापस आया तो उसके साथ कोई लड़की थी। अंधेरा होने की वजह से मैं लड़की को देख नहीं पाया ठीक से। मेरे ख्याल में भंडारे का तेरे अलावा किसी और से भी चक्कर है तभी तो...।"
रत्ना ने किचन से बाहर देखा। सामने की रेलिंग के पार नीचे एंबूलेंस खड़ी दिख रही थी और भंडारे अभी भी एंबूलेंस के भीतर ही दिखा तो रत्ना फोन पर कह उठी---
"वो लड़की मैं ही थी।"
"तू...?" सदाशिव की तेज आवाज आई--- "तू भंडारे के साथ गैराज पर है?"
"हां। रात को आई और...।"
"तुमने और भंडारे ने रात को कुछ किया भी होगा। है ना? तभी वो तुम्हें यहां ले आया।"
"हीरो, ऐसी कोई बात नहीं है। तू ऐसी बातें मत सोचा कर।" रत्ना कह उठी।
"क्यों ना सोचूं। मुझे नहीं पसंद कि कोई तेरे को हाथ लगाए...।"
"फिक्र मत कर। उसने मेरे को हाथ नहीं लगाया। वो तो दौलत को लेकर फिक्रमंद है। उसे नींद कहां आती है। मेरा तो ख्याल भी नहीं आता। इन बातों की तरफ ध्यान न देकर काम की बात कर। रात तू मेरे सपने में आता रहा।"
"सच?"
"हां, हम महल जैसी कोठी में मजे से रह रहे हैं। हमारे बच्चे हैं। कुछ ऐसा ही सपना आता रहा। छोड़े इसे, अब काम की बात सुन। शाम को हो सकता है भंडारे बाहर जाए और एक वैन लेकर लौटे...।"
"तो?"
"मुझे मालूम है वो कहां जाएगा। तेरे को उसके पीछे जाने की जरूरत नहीं है। तू बाहर ही रहना।"
"जब वो बाहर जाए तो मैं मैं भीतर आ जाऊं...?"
"क्यों?"
"बहुत दिन हो गए। कभी तो मौका दे दिया कर...।"
"बेवकूफ, वक्त को पहचान। ये खतरे से भरा वक्त है। हमने भंडारे को संभालना है।" रत्ना धीमे स्वर में बोली--- "साथ ही साथ वो चाय भी बनाती जा रही थी--- "अब ज्यादा वक्त नहीं है हमारे पास...।"
"तूने सोचा कि क्या करना है?"
"हां...। मैंने सोच लिया है। पर बाद में बताऊंगी।"
"अभी क्यों नहीं?"
"अभी मैं तेरे से ज्यादा बात नहीं कर सकती। शाम को भंडारे जब बाहर जाएगा तो तब फोन करूंगी।"
"समझ गया।"
रत्ना ने फोन बंद कर दिया।
चाय बन गई थी। दो प्यालों में डालकर प्याले थामें बाहर निकली और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गई। फोन जेब में रख लिया था। नीचे गैराज के हॉल में पहुंचकर एंबूलेंस के खुले दरवाजे पर पहुंची।
"हीरो...।" रत्ना ने पुकारा--- "चाय ले ले।"
"भीतर आ।" भंडारे की आवाज सुनाई दी--- "तेरे को नोट दिखाऊं...।"
प्याले थामें रत्ना खुले दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गई।
सामने ही भंडारे खड़ा था। उसने प्याला थामते मुस्कुराते हुए कहा---
"ये सारे गत्ते के बक्से नोटों से भरे पड़े हैं। एक-एक में बीस-बीस करोड़ रुपए हैं।"
"सच?" रत्ना की आंखें चमक उठीं।
"ये सब हमारे हैं। हमारे भविष्य को ये सोने की तरह चमका देंगे। उम्र भर ऐश करेंगे।"
"मुझे विश्वास नहीं आ रहा।" कहने के साथ ही रत्ना आगे बढ़ी और एक खुले बक्से के पास जा रुकी।
भीतर हजार-हजार के नोटों की गड्डियां करीने से टिकी दिखीं।
"हे भगवान... इतना पैसा...।"
रत्ना ने दूसरे बच्चे को खोला तो भीतर से उसका भी यही हाल था।
एक हाथ में चाय का प्याला थामें रत्ना की निगाह सब बक्सों पर जाने लगी।
"कैसा लग रहा है रत्ना?" भंडारे ने चमक भरे स्वर में पूछा।
"बहुत अच्छा। मुझे विश्वास नहीं आ रहा।" रत्ना ने गहरी सांस ली--- "एक बात तो बता।"
"बोल...।"
"तू मुझे छोड़ तो नहीं देगा?"
"क्या बात करती है। ये पैसा हम दोनों का है। मुझे जिंदगी भर तेरे साथ की जरूरत है रानी।"
"कसम से?"
"कसम से।"
"तू कितना अच्छा है हीरो!" रत्ना प्यार से कह उठी--- "शादी करेगा ना मुझसे?"
"बहुत जल्दी मौका मिलने पर पहला काम हम शादी ही करेंगे। मेरी जिंदगी की दौड़ अब खत्म हो गई।"
"इतने पैसे का हम क्या करेंगे?"
"बहुत कुछ करेंगे। खाएंगे। मौज करेंगे। तब भी ये कभी खत्म नहीं होगा और हमारी जिंदगी बीत जाएगी।"
"मुझे दुनिया घुमाएगा?"
"जहां तू कहेगी, वहीं ले चलूंगा। पूरी दुनिया घूमेंगे हम।" भंडारे के चेहरे पर चमक थी--- "राजाओं की तरह जीवन बीतेगा अब हमारा। तू और मैं और हमारा प्यार होगा। दो-तीन बच्चे भी होंगे।" भंडारे मुस्कुरा पड़ा।
"जरूर होंगे। देवराज चौहान और वागले रमाकांत हम तक कभी नहीं पहुंच सकेंगे।" रत्ना बोली।
"कभी नहीं पहुंच सकेंगे। उन्हें तू भूल जा। भंडारे पर हाथ डालना आसान नहीं है।"
"हम जाएंगे कहां?"
"तू कहां जाना चाहती है?"
"मैं तो तेरे साथ हूं जहां तू ले जाएगा, चल पडूंगी।" रत्ना ने चाय का घूंट भरा।
"हिमाचल चलें। मुंबई से काफी दूर है हिमाचल। वहां हम पूरी तरह सुरक्षित हो जाएंगे।"
"हिमाचल कहां, मैं कभी हिमाचल नहीं गई।"
"शिमला में। एक बार शिमला गया था मैं। कितना सुखद अहसास हुआ था। ठंडा मौसम हर तरफ चांदी की तरह चमकते पहाड़। पहाड़ी लोग। वहां आए टूरिस्ट। सब कुछ मेरी आंखों में अभी तक समाया हुआ है। परन्तु वहां मैं दो दिन से ज्यादा नहीं ठहर सका था। अक्सर शिमला याद आता रहता है मुझे...।"
"तो वहीं चल हीरो! शिमला में बसेरा कर लेंगे।"
"मुंबई और शिमला का आपस में कोई रिश्ता नहीं है। वागले रमाकांत और देवराज चौहान से हम हमेशा बचे रहेंगे। वहां की दुनिया बहुत अच्छी है। मुंबई के जीवन से बिल्कुल अलग...।"
"फिर तो शिमला ही चलेंगे।"
"वहां पहुंचने में हमें तीन दिन लग जाएंगे।" भंडारे खुशी में कहे जा रहा था--- "वहां हम किसी घाटी के पास का बहुत ही अच्छे दृश्य वाला बंगला खरीद लेंगे। धीरे-धीरे सेबों के बाद खरीदेंगे। वहीं अपना जीवन बिता देंगे। तेरे को वहां पर बहुत अच्छा लगेगा रत्ना! मुंबई की तो कभी याद ही नहीं आएगी।"
"हम यहां से कब रवाना होंगे हीरो शिमला के लिए...।"
"आज शाम को मैं वैन ले आऊंगा।" भंडारे ने सोच भरे स्वर में कहा--- "हम दोनों को ये सारा पैसा उस वैन में रखने में एक दिन तो लग ही जाएगा। मेरे ख्याल से हम परसों किसी भी वक्त यहां से निकल जाएंगे।"
"शिंदे आज शाम को वैन दे देगा ना?"
"हां। उसने वादा किया है कि दोपहर बाद किसी भी वक्त मुझे वैन ले जाने के लिए फोन कर देगा।"
"वैन लेने उसके गैराज पर मत जाना। वो सब कुछ जानता है। तेरे पास पैसा है, ऐसे वक्त में किसी पर भरोसा करना ठीक नहीं। उसे कहीं पर बुलाकर उससे वैन ले लेना और उसे पांच करोड़ दे देना।"
भंडारे ने रत्ना को देखा और सहमति से सिर हिला दिया।
"शिंदे जानता है कि तू यहां पर छिपा है?"
"वो कुछ नहीं जानता। किसी को कुछ नहीं मालूम।" भंडारे शांत और गम्भीर स्वर में कह उठा।
■■■
दोपहर होने लगी थी।
गर्मी की वजह से बुरा हाल था।
देवराज चौहान सुबह से ही उस इलाके के चक्कर लगा रहा था। कभी कार पर तो कभी पैदल। पूरी कॉलोनी को छान रहा था। आंखों के सामने जगदीप भंडारे की कार घूम रही थी कि कहीं पर कार ही दिख जाए। आते-जाते लोगों को भी देखता जा रहा था कि कहीं पर रत्ना या भंडारे दिखाई दे जाएं। परन्तु वो जानता था कि रत्ना और भंडारे इस तरह खुले में नहीं आने वाले। परन्तु वो छोटी-छोटी बात का ध्यान रख रहा था।
दोपहर को भूख लगी तो वो एक तरफ कतार में बनी छोटी-छोटी दुकानों पर पहुंच गया। उन्हीं दुकानों के बीच दो खाने के रेस्टोरेंट भी थे। कल रात से कुछ खाया नहीं था।
देवराज चौहान एक रेस्टोरेंट में प्रवेश कर गया। उस छोटी-सी जगह पर कुल पांच टेबलें थीं जो कि भरी हुई थीं। एक टेबल पर एक ही आदमी बैठा खाना खा रहा था, वो वहीं पर जा बैठा।
सामने अपनी ही टेबल पर बैठे आदमी के चेहरे पर निगाह पड़ी तो बुरी तरह चौंका।
ये वही था जिसे कल रेस्टोरेंट में रत्ना के साथ (सदाशिव) देखा था।
ये यहां?
देवराज चौहान ने कठिनता से खुद को संभाला।
रत्ना भी इसी इलाके में है और ये भी यहां स्पष्ट था कि ये रत्ना की वजह से ही इस इलाके में मौजूद है। वो समझ गया कि अब रत्ना मिल गई। भंडारे मिल गया।
तभी रेस्टोरेंट का छोकरा उससे खाने का आर्डर ले गया।
सदाशिव हर बात से परे, उसके सामने बैठा खाना खा रहा था।
जल्दी ही देवराज चौहान का खाना आ गया। वो भी खाना खाने लगा। सदाशिव पर अब काफी देर से नजर नहीं डाली थी। सदाशिव का खाना समाप्त होने को था। देवराज चौहान जल्दी-जल्दी खा रहा था। सदाशिव के वहां से उठने में ज्यादा देर नहीं थी। परन्तु सदाशिव ने उठने में कोई जल्दी नहीं की थी। उठते-उठते उसने दस मिनट लगा दिए।
वो काउंटर पर जाकर 'बिल' देने लगा।
देवराज चौहान ने खाना सर्व करने वाले लड़के को सौ का नोट थमाकर कहा।
"खाने के पैसे देकर, बाकी जो बचे वो तुम रख लेना।"
छोकरा दांत दिखाकर वहां से चला गया।
सदाशिव रेस्टोरेंट से बाहर निकल गया था।
देवराज चौहान भी बाहर निकला। उसने सदाशिव को एक तरफ जाते देखा। अपनी जगह पर खड़ा देवराज चौहान उसे जाते देखता रहा, फिर जब फासला ज्यादा हो गया तो देवराज चौहान भी उस तरफ बढ़ गया।
कुछ आगे जाकर एक मोड़ पर पेड़ की छाया में जाकर सदाशिव ठहर गया।
देवराज चौहान भी दूर रुक गया। सोचने लगा कि ये वहां क्यों रुका है। क्या किसी का इंतजार कर रहा है? देवराज चौहान की निगाह इधर-उधर हर तरफ जाने लगी।
फिर देवराज चौहान ठगा-सा खड़ा रह गया।
जिस मोड़ के पास पेड़ के नीचे सदाशिव खड़ा था, उस मोड़ की दूसरी तरफ उसने दस फीट ऊंची दीवार के पास वो कार खड़ी देखी जो कि भंडारे की थी। कार को देखता रह गया देवराज चौहान
इस सड़क से वो कई बाहर निकला था परन्तु वो कार जाने कैसे उसकी नजरों से बची रह गई थी। कार पर धूल की परत इकट्ठी हुई नजर आ रही थी। देवराज चौहान अब सदाशिव की निगाहों का पीछा करने लगा।
पांच मिनट में उसने जान लिया कि जिस दीवार के पास कार खड़ी है, उसी तरफ सदाशिव की निगाहें बार-बार उठ रही थीं। देवराज चौहान ने उस जगह को समझने की चेष्टा की।
आखिरकार वो इस नतीजे पर पहुंचा कि वो गैराज जैसी कोई जगह है। उसके बंद फाटक पर स्प्रे के निशान स्पष्ट नजर आ रहे थे। एक जगह बहुत पुराना हो चुका 'रिपेयर' शब्द भी पढ़ने को आ रहा था।
तो क्या भंडारे और रत्ना नोटों के साथ यहां हैं?
ये जगह बेहतर थी उस एंबूलेंस को छिपाने के लिए। कार उसी की दीवार के पास खड़ी है तो भंडारे-रत्ना को यहीं होना चाहिए। परन्तु देवराज चौहान जल्दबाजी में कोई गलत कदम नहीं उठाना चाहता था। वो इस बात की पूरी तरह तसल्ली कर लेना चाहता था कि भंडारे, रत्ना और नोट इसी बंद पड़े गैराज में हैं।
देवराज चौहान फुटपाथ पर मौजूद पेड़ की छाया में जा खड़ा हुआ।
सदाशिव उससे डेढ़ सौ कदम दूर मोड़ पर पेड़ की छाया में खड़ा था। उससे सत्तर-अस्सी कदम आगे वो गैराज था। देवराज चौहान को तसल्ली मिली कि वो अपने लक्ष्य में सफल होता जा रहा है। नतीजा सामने आ रहा है।
अब वो इस युवक (सदाशिव) के बारे में सोचने लगा कि ये मामले में कहां फिट होता है।
रत्ना की पहचान जगदीप भंडारे से है, और इससे भी।
जगदीप भंडारे के पास एक सौ साठ करोड़ की दौलत और रत्ना उसके साथ है। परन्तु उस जगह के बाहर ये भी मौजूद है, जहां रत्ना मौजूद है। स्पष्ट है कि रत्ना ने ही इसे यहां के बारे में बताया होगा?
क्या रत्ना ने ही इसे बाहर निगरानी पर लगाया है? ये रत्ना का क्या लगता है?
दोस्त भी हो सकता है और आशिक भी।
क्या रत्ना भंडारे से पीछा छुड़ाना चाहती है। उससे दौलत लेकर इस युवक का साथ पाना चाहती है?
कई बातें थीं देवराज चौहान के सामने, परन्तु यकीनी बात का उसे नहीं पता था।
लेकिन ये विचार तो पक्का ही रहा कि रत्ना की रजामंदी से ही ये युवक यहां पर नजर रखे हुए है, जबकि इतनी बड़ी दौलत पास होने के हालातों में किसी को अपना पता देना अक्लमंदी नहीं थी।
क्या रत्ना किसी नई फेर में है?
देवराज चौहान मामले को समझने की कोशिश करने की चेष्टा में लगा रहा। विचार बनते-बिगड़ते रहे। किसी नतीजे पर फौरन ना पहुंच पा रहा था। अब वो देखना चाहता था कि यहां क्या होता है। रत्ना की पहचान वाला युवक यहां क्यों नजर रख रहा है। इन्हीं उलझनों में उलझा था देवराज चौहान कि फोन बज उठा।
"हैलो।" देवराज चौहान ने बात की।
"खुशखबरी है तुम्हारे लिए। जगमोहन हमें मिल गया है।" उदय लोहरा की आवाज कानों में पड़ी।
देवराज चौहान चौंका। अगले ही पल चेहरे पर खुशी नाच उठी।
"सच कह रहे हो?"
"तुमसे मजाक क्यों करूंगा देवराज चौहान! वागले रमाकांत के लंबे हाथों का कमाल देखा।"
"कैसे मिला वो?"
"कल शाम तक अंडरवर्ल्ड में खबर फैल गई थी कि वागले रमाकांत को देवराज चौहान के साथी जगमोहन की जरूरत है, जो कि जगदीप भंडारे के किराए के आदमियों के पास है। वो जगमोहन को हमारे हवाले करेंगे तो एक करोड़ का इनाम मिलेगा। आज बारह बजे इस बारे में फोन आया और पूछा कि क्या ये बात सही है। इसके बाद चार आदमी जगमोहन को लेकर हमारे पास आ गए। खुद वागले रमाकांत साहब भी वहां मौजूद थे। उन्हें एक करोड़ रूपया दिया जो कि उन्होंने वहीं-के-वहीं पच्चीस-पच्चीस लाख की शक्ल में बांट लिया। उन्हें ये कहकर वापस भेज दिया कि कभी उन्हें काम की जरूरत हो तो आ जाएं। अंडरवर्ल्ड में वागले साहब का जादू चलता है। साख है वागले साहब की। परन्तु वे चारों भंडारे के बारे में कुछ नहीं बता सके।"
"जगमोहन से मेरी बात कराओ।"
"वागले साहब को फोन करके उससे बात कर सकते हो। नंबर दूं वागले साहब का?"
"है मेरे पास...।"
फोन काटकर देवराज चौहान ने वागले रमाकांत को फोन किया। बात हो गई।
"जगमोहन मिल गया क्या?" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।
"हां। मैंने अपना वादा पूरा कर दिया।" वागले रमाकांत की आवाज कानों में पड़ी।
देवराज चौहान ने नहीं बताया कि उसने भंडारे को तलाश कर लिया है। अभी वो यहां के हालातों को देखना चाहता था। इस बात का यकीन कर लेना चाहता था कि भंडारे और पैसा उस गैराज में है।
"जगमोहन से मेरी बात कराओ।"
"वो मेरे ही पास है।"
दो पलों बाद जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।
"मुझे वागले से सब कुछ पता चल गया है कि क्या-क्या हुआ। अब तुम क्या कर रहे हो?"
"तुम्हें उन लोगों ने कोई तकलीफ तो नहीं दी?" देवराज चौहान ने पूछा।
"नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूं। पर तुम क्या कर...।"
"मेरी बात सुनो। वागले से मत कहना। मैंने भंडारे को ढूंढ लिया है।" देवराज चौहान धीमे स्वर में बोला।
चंद पल तो जगमोहन की आवाज नहीं आई। फिर शांत स्वर कानों में पड़ा---
"मेरे ख्याल में मुझे तुम्हारे पास आकर तुम्हारे काम में हाथ बंटाना चाहिए।"
"वागले तुम्हें छोड़ेगा नहीं।"
"क्यों?"
"हममें ये बात तय हो चुकी है कि मैं पैसा तलाश करके उसे दूंगा तो वो तुम्हें मेरे हवाले कर देगा। ऐसे में वागले को मजबूर मत करना कि तुम्हें छोड़े। हमारे मामले में वो काफी शराफत से पेश आ रहा है। उसे शांत ही रहने दो।"
"तुम्हें मेरी जरूरत पड़ सकती है।"
"यहां सब ठीक है। किसी बात की फिक्र मत करो। वागले को फोन दो और तुम शांत रहो।"
फिर वागले रमाकांत की आवाज कानों में पड़ी।
"लोहरा ने मुझे बताया कि भंडारे तुम्हारी नजरों में आ गया था, परन्तु तुमने उसे खो दिया।"
"मैं उसे ढूंढ लूंगा।" देवराज चौहान बोला।
"तुम्हें मेरी सहायता लेनी चाहिए। मेरे आदमियों के साथ मिलकर तुम उसे जल्दी ढूंढ लोगे।" वागले की आवाज कानों में पड़ी।
"ऐसी जरूरत पड़ी तो फोन करूंगा। जगमोहन का ध्यान रखना। उसे तलाश कर लेने का शुक्रिया।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया। मन में और दिमाग में राहत थी कि जगमोहन पर अब किसी स्थिति में खतरा नहीं आने वाला।
■■■
सैंडविच का नाश्ता करने के बाद जगदीप भंडारे और रत्ना ने कॉफी पी। यहां की शांति रत्ना को अच्छी लग रही थी। भंडारे शिमला की ही बातें कर रहा था। उसके मन में देवराज चौहान या वागले रमाकांत का कोई डर नहीं था। कैंडी, पाण्डे और मोहन्ती के बारे में तो सोच भी नहीं रहा था।
दोपहर को उन्होंने एक बार फिर प्यार किया।
प्यार में रत्ना ने रात की तरह अपनी काबिलियत जाहिर की।
भंडारे तो रत्ना के नए प्यार के नए अंदाज पर फिदा हो गया था। रत्ना उसे और भी ज्यादा अच्छी लगने लगी थी। मन में सोच रहा था कि रत्ना के बिना उसकी जिंदगी अधूरी है। उसकी जिंदगी में रत्ना चुपके से घर बना चुकी है। उसकी जिंदगी की जरूरत बन चुकी है। ऐसा कुछ पहले ना सोचा था उसने। परन्तु अब एकांत में वक्त मिला तो अपनी जिंदगी के पन्नों पर निगाहें दौड़ा रहा था। एक रत्ना ही थी जिस पर वो भरोसा कर सकता था।
"क्या सोच रहे हो?" रत्ना ने मस्ती भरे स्वर में कहा।
"तुम्हारे बारे में।"
"क्या...?" रत्ना मुस्कुराई।
"यही कि पैसे के साथ तुम्हें भी अपना बना लिया। वरना दूसरा कोई मेरे भरोसे के काबिल नहीं है। तुम ही हो बस...।"
"बाबू भाई भी तो है।"
"उस पर मैंने कभी भी तुम जैसा भरोसा नहीं किया। तुम पर मैं आंखें बंद कर भरोसा कर सकता हूं।"
"मेरे लिए भी तो तुम ही हो। तुम्हारे सिवाय मेरा है ही कौन...।"
"हम दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है।" भंडारे मुस्कुराया।
"अब तो गैरकानूनी काम नहीं करोगे ना?"
"इतना पैसा है पास में अब तो तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोया करूंगा।"
"यही मैं चाहती हूं...। शिमला में हमारा प्यारा-सा बंगला हो। तुम हो, मैं होऊं और छोटे-छोटे बच्चे हों। ये सब कितना अच्छा लगेगा हीरो! जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी तब भी तुम मुझे इसी तरह प्यार किया करोगे?"
"मुझे तो लगता है कि जैसे मैं तुम्हारे बिना रह नहीं पाऊंगा।" भंडारे मुस्कुराया।
"हम दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं हीरो! क्यों, ठीक कहा ना मैंने?" रत्ना ने बेहद प्यार से कहा।
"हां।" भंडारे ने रत्ना का हाथ अपने हाथ में ले लिया।
"जिंदगी में वो वक्त कितना अच्छा होता है जब किसी से सच्चा प्यार हो जाता है।"
"मुझे पहली बार प्यार हुआ है और ये रास्ता तुमने ही दिखाया मुझे...।"
रत्ना ने आगे बढ़कर भंडारे का गाल चूमा।
"वरना मेरी तो दुनिया ही अलग थी। चोरी-डकैती, खून-खराबा, बाबू भाई का साथ... बस, यही तो जिंदगी थी मेरी।"
"मैंने तुम्हारी जिंदगी बदल दी।"
"हां। तुमने तो मुझे बदल दिया। आने वाले वक्त में मैं पूरा बदल जाऊंगा, जब बच्चे होंगे हमारे।"
"बच्चे मुझ पर जाएंगे। मेरे जैसे दिखेंगे वो।
हौले से हंस पड़ा भंडारे।
"देवराज चौहान और वागले रमाकांत का तो कोई डर नहीं अब...?" रत्ना कह उठी।
"कोई डर नहीं। भंडारे के पास रहते हुए तुम्हें कभी कोई तकलीफ नहीं होगी।"
"मोहन्ती, पाण्डे, कैंडी को तुम भूल गए?"
"याद है। उनका भी कोई डर नहीं। वो तो इस बात से डरकर छिपे होंगे कि वागले रमाकांत उन तक ना पहुंच जाए।"
"तुमने इतना कुछ किया, कोई तुम्हें छू भी नहीं सका।"
"बस...।" भंडारे ने गहरी सांस ली--- "सब होता चला गया।"
"आज वो शिंदे, वैन दे देगा ना?"
"हां देगा, शाम को देने को कहा...।"
भंडारे का फोन बज उठा।
भंडारे ने मोबाइल उठाया और उस पर आया नंबर देखकर कॉल रिसीव की।
"बोल शिंदे...?"
"वैन तैयार है।" शिंदे की आवाज आई।
"लंबे सफर में धोखा तो नहीं देगी गाड़ी?" भंडारे बोला।
"कभी नहीं। जो कमियां थीं, वो मैंने दूर कर दी है। बेशक जितना भी लंबा सफर करो।"
"टैंक फुल करवा देना।"
"हो जाएगा। मेरा पांच करोड़ लाना मत भूल जाना।"
"वो लेकर आऊंगा, पर मेरा ख्याल है कि तुम मुझे तेरे गैराज पर नहीं आना चाहिए।"
"ये ठीक है। बता कहां मिलेगा?"
भंडारे ने मिलने की जगह बताकर कहा---
"मैं चलने से पहले तेरे को फोन कर दूंगा। अगले दो-तीन घंटों में हम मिल लेंगे।" कहकर भंडारे ने फोन बंद किया और मुस्कुराकर रत्ना से कहा--- "हमारी नई जिंदगी की तैयारी शुरू हो गई।"
"तो वैन तैयार हो गई?"
"हां। चल शिंदे को देने वाला पांच करोड़ निकाल लें। नीचे बोरी पड़ी है, उसमें भर लेंगे नोटों को। तू मेरे साथ इस काम में लगना।" भंडारे ने रत्ना का हाथ थपथपाकर कहा--- "उसके बाद आज सारी रात हम नोटों को नई वैन में रखने का काम करेंगे। सुबह तक काम पूरा हो जाएगा तो कल हम यहां से चल देंगे।"
"नोटों को नई वैन में रखना कठिन काम है। गत्ते के वो डिब्बे गड्डियों से भरे पड़े हैं। उठाएंगे कैसे?"
"रास्ता निकालेंगे। कोई आसान-सा रास्ता कि तेरे को काम करने में परेशानी ना हो।"
"एक ही बात मेरे दिमाग में आती है कि नोटों को डिब्बे से निकालकर बाहर रखें। खाली डिब्बे को नई वैन में रखें, फिर नोटों की गड्डियों को पुनः डिब्बे के बीच लगा दें।" रत्ना बोली।
"इसमें तो बहुत वक्त लग जाएगा।"
"हीरो रात लगाकर नोटों के डिब्बे को नई वैन में ट्रांसफर करेंगे तो अगले दिन सफर करने की हिम्मत ही कहां रहेगी। सारी रात सोए नहीं होंगे। आराम नहीं किया होगा।" रत्ना ने कहा--- "बेशक एक दिन देरी से यहां से चलें, परन्तु तभी चलेंगे जब लंबे सफर के लिए फ्रेश होंगे।"
"फिर तो परसों ही यहां से चलना होगा।" भंडारे ने कहा।
"मैं भी यही सोच रही हूं कि नोटों को नई वैन में ट्रांसफर करने का काम कुछ आज रात कर लेंगे तो कुछ कल दिन में। इसके बाद पूरी एक रात आराम करेंगे और अगले दिन सुबह यहां से चल देंगे।"
"ऐसा ही करेंगे। हमें जल्दी क्या है यहां से निकलने की। चल शिंदे का पांच करोड़ निकालें। वैन लेकर आऊं, तभी बात आगे बढ़ेगी। सब काम ठीक से चल रहा है। वक्त हमारे साथ है।"
"देवराज चौहान और वागले रमाकांत की इस वक्त क्या हालत हो रही होगी।" रत्ना हंस पड़ी।
"बहुत बुरी...।" भंडारे भी मुस्कुराया।
दोनों बैड से उठ खड़े हुए।
"उन्हें तो रात को सपने में भी भंडारे नजर आता होगा। है ना हीरो...!"
"सच में।" भंडारे ने उसकी कमर में हाथ डाला और दोनों दरवाजे की तरफ बढ़ गए--- "सपने में भी वो मुझे देखते होंगे।"
■■■
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी। वो सतर्क हो गया।
वो भंडारे ही था। स्पष्ट तौर पर पहचाना था उसे।
गैराज के बड़े फाटक के साथ छोटे से गेट को खोलकर भीतर से निकला था। उसके हाथ में छोटी बोरी (कट्टा) थी। जो कि भरी-सी लग रही थी। देखते-ही-देखते उसने डिग्गी खोली और बोरी को उसके भीतर रखकर डिग्गी बंद कर दी। तब तक वो छोटा गेट बंद हो गया था। गेट बंद करने वाले को देवराज चौहान देख तो नहीं सका था परन्तु अंदाजा लगा लिया था कि रत्ना ने ही गेट बंद किया होगा। भंडारे को उसने ड्राइविंग डोर खोलते देखा।
वो कहीं जा रहा था।
रत्ना गैराज में ही थी।
नोट भी तैयार थे।
तो वो भंडारे के पीछे जाए या यहीं पर नजर रखे।
एक निगाह उसने कुछ दूर पेड़ के तने के पास खड़े सदाशिव पर मारी।
भंडारे जहां भी जा रहा था, वापस आएगा। उसे देखना चाहिए कि भंडारे कहां जा रहा है। इस विचार के साथ ही देवराज चौहान कुछ दूर पर खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ गया।
चंद पलों बाद ही देवराज चौहान सावधानी से भंडारे की कार का पीछा कर रहा था।
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सदाशिव ने भंडारे की कार को तब तक देखा, जब तक कि वो नजरों से ओझल ना हो गई। इस बीच वो मोबाइल निकाल चुका था और रत्ना का नंबर मिला रहा था। रत्ना से बात हो गई।
"मैं आऊं भीतर। भंडारे को जाते देखा अभी...।" सदाशिव कह उठा।
"भीतर आकर तू क्या करेगा हीरो?" रत्ना का मुस्कुराता स्वर कानों में पड़ा।
"आराम करूंगा तेरी बांहों में और...।"
"तूने जिंदगी भर मेरी बांहों में ही आराम करना है। ये एक-दो दिन का वक्त सब्र से निकाल ले।"
"तू मार के रहेगी मुझे। मैं कल से यहां परेशान हाल में खड़ा हूं।" सदाशिव बोला--- "भंडारे कहां गया है?"
"वो वैन लेने गया है ताकि नोटों को एंबूलेंस से निकालकर उसमें डाले और वैन लेकर चल दे।"
"तो ये बात है।"
"परन्तु नोटों को दूसरी गाड़ी में रखना आसान नहीं है। वो बहुत ज्यादा हैं और डिब्बों में भरे पड़े हैं। इस काम में आज की रात और कल का दिन लग सकता है। इस काम में मैं इतना वक्त जरूर बिताना चाहूंगी।"
"क्यों?"
"मेरा प्लान है कि कल की रात, जब सारे नोट दूसरी गाड़ी में रखे जा चुके होंगे तो तुझे किसी प्रकार भीतर बुलाऊंगी और हम दोनों भंडारे पर काबू पाकर उसे बांध देंगे और नोटों को वैन में लेकर चलते बनेंगे।"
सदाशिव के होंठों पर सोच भरा कसाव आ गया। बोला---
"ये आसान काम है।"
"आसान काम नहीं है। भंडारे खतरनाक है। उस पर काबू पाना आसान नहीं है।"
"तो?"
"पर हम किसी तरह उस पर काबू पाकर उसे बांध देंगे।"
"उसे जिंदा छोड़कर जाएंगे तो वो सारी उम्र हमें ढूंढता रहेगा और कभी-न-कभी हम तक पहुंच जाएगा।"
"तो?"
"उसे खत्म कर देना ठीक रहेगा।"
रत्ना के गहरी सांस लेने की आवाज आई।
"क्या हुआ तेरे को?"
"मैंने कभी किसी का खून नहीं किया।" रत्ना ने हड़बड़ाए स्वर में कहा।
"तो मैंने कौन-सा किया है। मैं तो मुंबई हीरो बनने आया था। शरीफ खानदान का हूं और...।"
"उसे मारना टेड़ा काम है।"
"हाथ-पांव बांधना तेरे को आसान लगता है। बेवकूफ है तू। मारना आसान होगा। तू क्या चाहती है कि दो-चार सालों में वो फिर हमसे आ मिले और हमें मार दे। उसे जिंदा छोड़ना ठीक नहीं है। तू ही उसे मार दे।"
"मैं?"
"उसके गले मिल और रिवाल्वर का ट्रिगर दबा दे। बहुत आसान...।"
"मेरे पास रिवाल्वर नहीं है।"
"भंडारे के पास तो होगी। उस तक तेरी पहुंच भी होगी। वो अपने कब्जे में कर और...।"
"मुझे रिवाल्वर चलानी नहीं आती।" रत्ना की हांफने जैसी आवाज सुनाई देने लगी थी।
"सेफ्टी वॉल हटा और ट्रिगर दबा दे। मैंने कई फिल्मों में देखा है कि ऐसे ही...।"
"ये सब करना मेरे बस का नहीं है।"
"तो जब वो सोया हो, मोटा डंडा उठाकर उसके सिर पर मार दे।"
"ये सब करना मेरे बस का नहीं है।" रत्ना की तेज आवाज आई इस बार।
सदाशिव गहरी सांस लेकर रह गया।
"किसी को मारने की बात करके ही मेरे हाथ-पांव कांपने लगे हैं।" रत्ना की आवाज आई।
"कोई बात नहीं, हम मिलकर उसे संभाल लेंगे।" सदाशिव ने कहा।
"हां। इस तरह हम कुछ कर सकते हैं।" रत्ना गहरी-गहरी सांसें ले रही थी।
"तो वो वैन लेने गया है।"
"हां। दो घंटे तक आएगा। कल की रात मैं तेरे को बताऊंगी कि कब भीतर आना है।"
"मतलब कि अभी तीस घंटे और मुझे गैराज पर नजर रखनी होगी।"
"जान क्यों निकलती है हीरो! इतने सारे नोट भी तो मिलने वाले हैं हमें।"
"मैं नोटों पर नहीं तेरे पर फिदा हूं। तेरे को भंडारे ने कभी बताया नहीं कि तू बहुत खूबसूरत है।"
"तू अब फालतू की बातें कर रहा...।"
"मैंने अभी भंडारे को ध्यान से देखा था। समझ में नहीं आता कि तूने भंडारे जैसे घटिया इंसान को कैसे पसंद...।"
"तभी तो अब तेरे को पसंद किया है। तू तो घटिया नहीं...।"
"मैं?" सदाशिव हंसा--- "मैं तो हीरो बनने लायक एकदम फिट हूं।"
"तू मेरा हीरो है।" इस बार रत्ना के स्वर में प्यार भरा था।
"मैं तो तेरा सबकुछ हूं। एक बात बता कि कल रात के बदले मैं आज रात ही आ जाता...।"
"नहीं।"
"क्यों?"
"एंबूलेंस में पड़े नोटों को नई गाड़ी में रख लेने दे। भंडारे ये काम ठीक से करेगा। उसे समझ है। फिर मेहनत का काम तू क्यों करता है। भंडारे को ही करने दे। मैं उसका हाथ बताती रहूंगी। जब सबकुछ तैयार होगा तभी तेरा आना ठीक रहेगा। तू वैन चला लेता है ना?" उधर से रत्ना ने पूछा।
"सब कुछ चला लेता हूं हवाई जहाज को छोड़कर। मुंबई में आकर सीखा। हीरो बनना था मुझे तो ये सब काम आने चाहिए। पता नहीं कब कौन-सा सीन शूट करना पड़ जाए। सब कुछ सीख डाला पर फिल्मों में चांस नहीं मिला। अपने लक ने ज्यादा काम नहीं किया। पर तेरे जैसी हीरोइन मिल गई।"
"मैं जंचती हूं ना तेरे को?"
"बहुत...। एक बात मानेगी।"
"कह हीरो। दस मानूंगी।"
"हमारे पास बहुत पैसा आ जाएगा। तू मुझे एक फिल्म क्यों नहीं बनाने...।"
"तेरे को पचास बार कह चुकी हूं कि मुझे फिल्में पसंद नहीं। तू सिर्फ मेरा हीरो बनकर रहेगा।" रत्ना के स्वर में सख्ती आने लगी थी--- "हम आराम से जिंदगी बिताएंगे। मुझे ऐसी ही जिंदगी पसंद है।"
"नाराज क्यों होती है?"
उधर से रत्ना ने फोन बंद कर दिया।
सदाशिव फोन कान से हटाया और जेब में रखते बड़बड़ा उठा।
"180 करोड़ बहुत बड़ी दौलत होती है। फिल्म तो जरूर बनाऊंगा और उसमें मैं हीरो होऊंगा।"
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भंडारे ने कार को पार्किंग में खड़ा किया और रुमाल निकालकर उस पर से उंगलियों के निशान साफ करने लगा। बीस मिनट लगाकर ये काम निपटा और डिग्गी में से नोटों से भरी बोरी उठाकर डिग्गी बंद की फिर डिग्गी पर से भी उंगलियों के निशान साफ किए और कार को इस तरह देखा जैसे आखिरी बार देख रहा हो। फिर बोरी एक हाथ से उठाए पार्किंग के गेट की तरफ चल पड़ा। गेट पर से उसने पर्ची ली और आगे बढ़कर सड़क के किनारे आ खड़ा हुआ। बोरी को पांवों के पास रख लिया। दस मिनट के इंतजार के बाद वहां सफेद रंग की एक वैन आ खड़ी हुई।
शिंदे ही उस वैन को ड्राइव कर रहा था। वो बाहर निकला और भंडारे के पास आया।
भंडारे वैन को तसल्ली से देख रहा था। उसे ऐसी बड़ी वैन ही चाहिए थी।
"बढ़िया है भंडारे?" शिंदे मुस्कुराया।
"बहुत बढ़िया।"
शिंदे ने उसे वैन की चाबी दी।
भंडारे में बोरी की तरफ इशारा किया।
"इसमें पांच करोड़ है।"
शिंदे मुस्कुराया।
"मेरी कार पार्किंग में खड़ी है। ये ले चाबी और पार्किंग की पर्ची। कार तेरी हुई...।"
शिंदे ने बोरी संभाली।
"काफी बड़ा हाथ मारा तूने। अंडरवर्ल्ड में तेरे, बाबू भाई और देवराज चौहान के नाम के चर्चे हैं।
"पांच करोड़ तेरे को मिल रहा है मजे कर।" भंडारे ने कहा।
"अब तो तू मुंबई से खिसक जाएगा?"
"जाना पड़ेगा।"
"कभी-कभी मुझे फोन कर लिया कर। पैसा सारा तेरा ही है या तेरे साथ कोई हिस्सेदार भी है?"
"तुझे इससे क्या?"
"यूं ही पूछा। इतना पैसा संभालना भी आसान काम नहीं है।" शिंदे मुस्कुराया।
"मैं संभाल लूंगा।"
"कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद करना।"
भंडारे ने सिर हिला दिया।
"वागले के या देवराज चौहान के हाथ लग जाए तो मेरा नाम मत लेना।"
"चिंता मत कर। भंडारे किसी के हाथ आने वाला नहीं।"
"वागले रमाकांत की फौज तुझे ढूंढती फिर रही है। संभलकर रहना।"
भंडारे, शिंदे को देखकर मुस्कुराया---
"बाबू भाई कैसा है?"
"उसका खेल खत्म। वो वागले रमाकांत के हाथ लग गया।" भंडारे ने कहा।
"बुरा हुआ। अच्छा बंदा था वो। मुझे हमेशा ही उसका अफसोस रहेगा।" शिंदे बोला--- "पता लगा कि देवराज चौहान और वागले रमाकांत ने हाथ मिला लिया है। ऐसा कैसे हो गया?"
"मुझे नहीं पता ऐसा कैसे हो गया।"
"मोहन्ती, कृष्णा पाण्डे और जैकब कैंडी भी गायब हुए पड़े हैं। उन्हें भी वागले ढूंढ रहा है।"
"वो बचने वाले नहीं। वागले रमाकांत उन्हें ढूंढ निकालेगा।"
"तुम अपना ध्यान रखना।"
"वैन के भीतर मुझे सीटें नहीं चाहिए थीं। खाली जगह चाहिए थी।"
"ये बात मैं पहले ही जानता था। मैंने सीटें निकाल दी हैं वैन से।" शिंदे ने कहा।
"तो विदा लेते हैं दोस्त! शायद अब कभी हमारी मुलाकात ना हो।" भंडारे ने कहा और वैन की तरफ बढ़ गया।
भंडारे ड्राइविंग सीट पर बैठा और पीछे नजर मारी। शीशे काले थे और भीतर सीटों की जगह खाली फर्श नजर आ रहा था। एक बार में ही वैन स्टार्ट हुई और तो उसने वैन को आगे बढ़ा दिया।
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