मेले हैं चिरागों के
बहुत घबराहट, चिंता और अफ़रातफ़री के साथ M.C.A. का पाँचवाँ सेमेस्टर शुरू हो गया। हर तरफ़ चिंतातुर चेहरे। इंटरव्यू के लिये फॉर्मल कपड़े खरीदे गये, हॉस्टल में ग्रुप डिस्कशन के राउंड चलते और कंप्यूटर पर फ़िल्मों की जगह कोडिंग होती। मतलब चारों ओर ख़तरनाक तैयारी चल रही थी। सब लोग पढ़ाई में अपना सर्वस्व होम कर रहे थे। किसी को किसी और बात की सुध ही नहीं थी। मन्दिर में अर्ज़ियाँ बढ़ गयी थी। कुछ नई लड़कियाँ जुड़ गईं थीं व्रत करने वाली लड़कियों के गुट में। मेरे कम्प्यूटर पर “सबसे बड़ा तेरा नाम, ओ शेरों वाली, बिगड़े बना दे मेरे काम” ऐसे भजन बजने शुरू हो गये। उन दिनों एक छोटा सा, नन्हा-मुन्ना सा कम्प्यूटर प्रोग्राम होता था, जिसमें आरती का दीप क्लिक करने से जलता था और घण्टी क्लिक करने से बजती थी। वो प्रोग्राम हम सभी के कम्प्यूटर पर आ गया था और हम सब पढ़ने से पहले डिजिटल आरती कर लेते थे।
हालात इंदौर और इलाहाबाद दोनों जगह एक जैसे ही थे। पलाश और मेरे फ़ोन कॉल बन्द हो गये थे। चैटिंग से भी तौबा कर ली थी। लेकिन दौर चाहे जैसा भी हो आशिक़ी से दगाबाजी मुनासिब नहीं इसलिये रोज़ एक दूसरे को एक मेल ज़रूर कर लेते थे। एक दिन रोज़ पलाश की मेल में ख़ुशखबरी आयी- ‘मेरा प्लेसमेंट हो गया।’
मेरे मुँह में तो जैसे शरीफ़े का स्वाद घुल गया। मैंने झटपट उसे फ़ोन किया। मुबारकबाद दी। बड़ी तसल्ली हुई कि हम दोनों में से एक तो मंज़िल पर पहुँच गया। पलाश की नौकरी लग गयी थी दिल्ली की एक कम्पनी में। पलाश की ख़ुशी सोचकर मैं रुई के बादल सी उड़ रही थी कि उसकी बहुत बड़ी चिन्ता का निदान हो गया। पलाश ने मुझसे कहा- ‘किसी भी तरह की कोई भी ज़रूरत हो, तो मैं हूँ।’ उससे बात करके मैंने शिव मंदिर जाकर प्रभु को उनकी कृपा और आशीष के लिये शुक्रिया कहा और वादा भी किया- ‘पलाश को लेकर आऊँगी आपके पास। आप उसका हमेशा ऐसे ही ख़याल रखना।’
मेरे कैम्पस में भी कम्पनियाँ आ रहीं थीं लेकिन कुछ बात बन नहीं रही थी। एक दिन हमारे यहाँ T.C.S.(टाटा कन्सल्टन्सी सर्विसेज़) आयी मुम्बई से। सुबह नौ बजे से टेस्ट और इन्टरव्यू शुरू हुए और तीन राउंड के बाद रात में 10:45 पर रिज़ल्ट आये। उस दिन मेरी जॉब भी लग गयी और मेरी फॉर्मल ड्रेस “लकी ड्रेस” बन गयी जिसके आरक्षण के लिये नामांकन तत्काल शुरू हो गया। रात को जब नतीजा पता चला, उस समय तक मेरे घर पर सब सो जाते हैं। उन्हें रिज़ल्ट अगली सुबह ही बताया जा सकता था। रात को नाचते गाते 11:30 बजे हम लोग हॉस्टल पहुँचे।
मुझे ख़ुशी और तक़लीफ का मिलाजुला एहसास हो रहा था। एक तरफ़ मैं ख़ुश थी कि मैंने पापा का सपना पूरा कर दिया है। पापा हमेशा कहते थे कि मैंने क्लर्क से नौकरी की शुरूआत की। मैं चाहता हूँ कि मेरी बेटी डॉक्टर या इंजीनियर बने। अब मैं सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गई थी और इत्तिफाक़ भी कैसा कि T.C.S. यानी टाटा ग्रुप से जुड़ गई थी। मिडिल क्लास लोग टाटा, बिरला को बहुत हसरत और इज्जत से देखते हैं। यह सोचकर एक मिसरी सी मुँह में घुल रही थी कि पापा बहुत ख़ुश होंगे। आज उनकी सालों की साधना सफल हुई। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे बेटी होने का फ़र्ज़ पूरा कर दिया मैंने। दूसरी तरफ़ यह सोचकर तकलीफ़ भी हो रही थी कि अब इंदौर और इलाहाबाद की दूरियाँ मुंबई और दिल्ली तक पसर गईं। एक ही शहर में रहते, तो मिल सकते थे। अब तो सेमेस्टर ब्रेक का आसरा भी ख़तम। नौकरी में कैसे मिलान करेंगे छुट्टियों का? एक बहुत गहरी सी, बारीक़ दरार पड़ गयी दिल में।
दुखी दिखूँ तो ईश्वर की इस नेमत का निरादर होता। रो दूँ तो अपने मम्मी-पापा की ख़ुशी में ख़ुश ना हो सकने का पाप होता। किसी दोस्त से कहूँ तो उसकी बेरोजगारी का मज़ाक होता। इतनी बेबसी! कि दुःख को दुःख भी ना कह सकूँ।
रात के लगभग 12:30 हो चुके थे और हॉस्टल थोड़ा उनींदा सा होने लगा था। जश्न मनाकर, एक-एक कर दोस्त सोने चले गये। मैं चुपचाप हॉस्टल के जीने पर बैठी सोच रही थी- ‘एहसासों पर और महसूस करने पर भी वक़्त पाबन्दी लगा देगा। इस तरह मौत होगी मेरी, यह कभी ना सोचा था। बेरहमी वाक़ई कितनी बेरहम होती है! देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी में उस रात एक जीती जागती “देवी” “अहिल्या” बन गयी- पत्थर हो गयी।’ अपने ख़यालों में उलझी हुई गुमसुम सी थी, तभी B.Tech. की एक दोस्त आई और बोली- ‘हर्षा दी, ऐसे क्यूँ बैठे हो यार? आपकी तो आज जॉब लग गई। मुबारक हो। कुछ गाने-शाने गाओ। चलो, एक छोटी डांस पार्टी कर लेते हैं।’
मैंने मुस्कुराकर कहा- ‘हाँ यार, पार्टी भी करेंगे। लेकिन अभी पलाश से बात करने का मन है और V.C.C. नहीं हैं।’
हमारे हॉस्टल में एक फोन था, जिस पर आउटगोइंग V.C.C. से होती थी। मतलब वर्चुअल कॉलिंग कार्ड से। उस समय 105 रुपये का एक कार्ड होता था, जिसमें 100 रुपये की बात हो जाती थी। उस दिन मेरे पास वो कार्ड नहीं था। पूरे सेमेस्टर में अब तक बात की नहीं थी, तो खरीदा भी नहीं था। उसने छेड़ते हुए कहा- ‘ओहो! पलाश को अभी तक नहीं बताया, तभी उदास से बैठे हो। रुको, मैं देखती हूँ।’
थोड़ी देर बाद मेरी प्यारी सखी एक कार्ड मेरे लिये कहीं से ले आई। मैंने उसे गले लगाकर विदा किया और कॉल करने बैठ गई। मैंने कॉल करके पलाश को बताया कि मेरी नौकरी लग गई। वो बहुत ख़ुश हुआ और उसकी आवाज से शहद टपक रहा था। मैं उसकी आवाज़ में अपने दुःख की “आह” सुनना चाहती थी। अच्छा, “आह” ना हो, पर कम-से-कम उस दुःख का जिक्र तो हो। लेकिन मुझे मायूसी ही हुई। उसकी ख़ुशी में इस दुःख का कोई नामोनिशान नहीं था कि मैं मुंबई चली जाऊँगी, अगले सेमेस्टर की ट्रैनिंग वहीं होगी मेरी और उसकी दिल्ली में।
ख़ैर, तभी पलाश ने ख़ुशी की एक लहर मेरी ओर ठेलते हुए कहा- ‘अब हम दोनों की जॉब लग गई है तो दशहरे पर मिलें। तुम लखनऊ आ जाओ।’
मैंने बुझी सी मुस्कान से कहा- ‘दीवाली पर आती हूँ।’
उसने मनाते हुए कहा- ‘दीवाली पर तो आना ही है। अब कॉलेज में ऐसा क्या बचा है? बंक मार लो।’
मुझे बात जंच गई कि एक मुलाक़ात और हो जायेगी। अब साथ ख़तम ही होने वाला है इस एहसास के साथ उसे देख लूँगी। अगली सुबह मैंने घर पर कॉल किया। जॉब की ख़बर सुनकर पापा और सभी घर वाले बहुत ख़ुश हो गये। उन्हें T.C.S. से कुछ खास समझ नहीं आया, लेकिन जब बताया कि टाटा ग्रुप की कंपनी है तो उनकी आवाज़ में ख़ुशी छलक-छलक कर बहने लगी थी। यही सही मौका था। मैंने पूछ लिया- ‘मैं दशहरे पर तीन दिन के लिये घर आ जाऊँ?’
मेरे पापा ने झटपट हाँ कर दी। उन्हें भी मुझे जल्दी-से-जल्दी गले लगाने की इच्छा थी। मेरे T.C.S. वाले इंटरव्यू के सारे सवाल-जवाब का ब्यौरा सुनना था कि कैसे ख़ुश कर दिया मैंने उनको अपने जवाबों से। कैसे तारे तोड़कर अपनी मुट्ठी में भर लिये मैंने।
मुझसे शादी करोगी?
मैं दशहरे पर लखनऊ पहुँची और पलाश से मिली। नौकरी मिलने की ख़ुशी उसके रोम-रोम से फूटी जा रही थी। उसका आत्मविश्वास ऐसे बुलन्द था जैसे कोई क़िला फ़तह करके आया हो, मेरा नटखट हरक्यूलीस। उसकी चहक में संगीतमय माधुर्य और भी ज्यादा घुल गया था। उसमें ख़ुशियों का वो जलसा देखना कितना ख़ूबसूरत, कितना रूहानी और कितना पुरसुकून एहसास था! पलाश दीपावली की रात का आसमाँ हो गया था, जिसमें कभी यहाँ तो कभी वहाँ, कभी सफ़ेद तो कभी रंगीन आतिशबाजियाँ हो रहीं थीं। मैं बिना हिले-डुले उसके तिलिस्म को देखते-सुनते हुए अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार सकती थी। उसकी बातों और उसकी लय में किसी तरह का खलल डालने का मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था, लेकिन मुझे अपना एक वादा पूरा करना था तो उसकी बातों का रेला रोकते हुए मैंने कहा- ‘मेरे साथ भूतनाथ चलो।’
उसने झटपट कहा-‘चलो।’
रास्ते में मैंने बताया कि मन्दिर जा रहे हैं हम लोग। उसने कहा- ‘मैं मन्दिर नहीं जाता।’
मैंने कहा- ‘आज चलना पड़ेगा। मैंने शिव जी को कहा था कि मैं पलाश को लेकर आऊँगी उनका शुक्रिया करने।’
उसने कोई ज़िद नहीं की और हम मन्दिर पहुँचे। वहाँ मैंने शिव जी को आभार दिया और प्रार्थना की- ‘हे ईश्वर! न जाने, मैं इसे अब कब देख पाऊँगी। मैं हम दोनों को आपको सौंप रही हूँ भगवान। मैं दुनिया में कहीं भी रहूँ लेकिन जब मैं आपकी तरफ़ देखूँगी, तो मुझे महसूस होगा कि जिन आँखों से आप मुझे देख रहे हैं आपकी उन्हीं आँखों में पलाश का भी प्रतिबिम्ब है। मैं उस प्रतिबिम्ब में ही अपना सुख और शान्ति ढूँढ लूँगी। आप इसको हमेशा ऐसे ही ख़ुश रखना।’ मेरी प्रार्थना जब तक पूरी हुई, पलाश वहीं खड़ा था। फिर हमने शर्मा के समोसे खाये जो मेरी तरफ़ से मेरी नौकरी लगने की ट्रीट थी।
अगले दिन पलाश मेरे घर अपने दोस्त की बाइक लेकर आया था। कुछ देर बातचीत हुई और फिर बोला- ‘चलो, ट्रीट देता हूँ अपनी जॉब की।’
मैंने पूछा- ‘कहाँ?’
‘हज़रतगंज चलते हैं’- उसने कहा।
वहाँ सबसे पहले हम एक चर्च गये। मैंने सोचा- ‘मन्दिर नहीं, चर्च! भई, अपना लड़का अंग्रेज है। अंग्रेजी पिक्चर, अंग्रेजी गाने पसन्द हैं इसे। होगा चर्च से भी कोई राब्ता इसका।’ चर्च यूँ तो है धार्मिक स्थल, पर मुझे वहाँ कुछ भी ऐसा भाव नहीं आया। मैं नक्काशी और बाकी चीजें तक रही थी। अचानक मुझे लगा- ‘पलाश कल का बदला ले रहा है क्या? मैं उसे मन्दिर ले गई थी, तो वो ऐसा ही गुमशुदा सा था वहाँ।’ ख़ैर, वो चुपचाप बैठा था और मैं भी। फिर कुछ देर बाद हम वहाँ से एक जूस कॉर्नर गये और बतियाने लगे।
बातों-बातों में मैंने उससे कहा- ‘मेरे साथ एक लड़के मनोज का भी T.C.S. में चयन हो गया और वो कह रहा था कि दो T.C.S. वाले आपस में शादी कर लें, तो दस हज़ार रुपये का गिफ्ट वाउचर देती है कम्पनी। अपन शादी कर लेंगे और गिफ्ट लेने के बाद डिवोर्स कर लेंगे। कितनी बेतुकी बात है यह।’ यह कहकर मैं हँसने लगी। लेकिन पलाश इस बे-सिरपैर की बात पर बिल्कुल भी नहीं हँसा। मुझे अफ़सोस हुआ- ‘ओह! यह नहीं कहना चाहिये था। इतनी फालतू बात बताने की क्या जरूरत थी मुझे? अपनी रेप्यूटेशन ख़ुद ही खराब करती रहती हूँ।’
उसने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा- ‘अगर यही बात मैं कहूँ तो?’
मैंने हैरान होकर पूछा- ‘तुम्हारी कंपनी में भी ऐसी स्कीम है!’
उसने कहा- ‘अगर मैं तुमसे कहूँ मुझसे शादी कर लो, तो क्या मुझसे शादी करोगी?’
मैं अपलक उसे देखती रही। हे ईश्वर! क्या यह मुमकिन भी है? मैं जो सुन रही हूँ क्या पलाश वही कह रहा है? कहीं मेरा मानसिक संतुलन तो नहीं निपट गया?
मुझे अचकचाया देखकर उसने आगे कहा- ‘अरैन्ज मैरिज नहीं करनी मुझे। बहुत क्लेश होता है। पति-पत्नी एक दूसरे को समझते नहीं। ऐसी शादी जीवन नर्क कर देती है। तुम मेरी बेस्ट फ्रेंड हो। मैं तुमको जानता हूँ। तुम भी मुझे जानती हो। अगर हम शादी कर लें, तो हमारे जीवन में क्लेश नहीं होगा।’
मैं अब तक भी यक़ीन नहीं कर पायी थी कि उसके पास उपहार के तौर पर मेरे लिये कितनी हैरानियाँ थी! कितने प्यारे तोहफ़े? और यह सोचकर डर भी रही थी कि मेरा सपना सच होने लगा तो क्या अनर्थ हो जायेगा?
उसने आगे कहा- ‘देखो इंडियन समाज में लड़का लड़की की दोस्ती बर्दाश्त नहीं हो पाती। तुम्हारी शादी किसी और से हुई, तो उसको बर्दाश्त नहीं होगा कि तुम मेरी दोस्त रहो। सेम इज़ एप्लीकेबल टू मी। व्हाई वुड माय वाइफ़ लेट मी बी योर बेस्ट फ्रेंड?’
मैं चुपचाप यह कारनामा देख रही थी कि ख्वाब वाक़ई मुक्कमल हो भी सकते हैं! हालांकि मुझे हाथ आगे बढ़ाने में अभी भी झिझक हो रही थी कि ज़रूर कुछ ग़लतफ़हमी है और ख़तरा तो भरपूर है।
फिर उसने कहा- ‘देखो, अगर तुम ना कर दोगी तो ऐसा नहीं कि मैं देवदास हो जाऊँगा। मैं ठीक रहूँगा। हम ऐसे ही दोस्त रहेंगे, जब तक रह सकेंगे।’
यह सुनकर मेरी सुध बुध कुछ-कुछ लौटने लगी थी और मुझे अपने सपने से बचने की राह सूझने लगी। और मैं हैरान भी थी कि कोई अरैन्ज मैरिज की चिकचिक से बचने के लिये अपनी दोस्त को शादी के लिये प्रपोज़ कर सकता है!
फिर पलाश की मंशा की संजीदगी को समझने के लिहाज से मैंने पूछा- ‘तुम मेरे दोस्त हो लेकिन मैं तुमसे प्यार नहीं करती। मैं मुंबई गई और वहाँ मुझे किसी से प्यार हो गया तो?’
कहने के बाद मुझे शक़ हुआ कि क्या मैं पलाश से उसकी बेरुख़ी का बदला ले रही हूँ? उसकी जिस बेपरवाही ने मेरा जीना दुश्वार कर दिया था, वही बेपरवाही मैंने उसको परोस दी! हाय! उसके हाथों में वही अंगार थमा दिया, जिससे ख़ुद झुलसी हुई हूँ मैं। लेकिन नहीं। शायद वो एक बेटी की मजबूरी भी थी। मैं पलाश को वापस भेजने की कोशिश कर रही थी। काश! मैं तब कह पाती- ‘अरे! बुद्धू हो तुम। मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ और मुझे तुमसे शादी करनी है, करनी है, करनी है।’ काश!... लेकिन वो किसी और से प्यार वाली बात मेरे मुँह से निकल कर और पलाश तक पहुँच चुकी थी। जिसके जवाब में उसने कहा- ‘यह शादी की बात उसी समय “नल एण्ड वॉइड” हो जायेगी। तुम तब मना कर देना। मैं समझता हूँ कि दोस्त और प्यार में से कोई भी प्यार ही चुनेगा।’
हमदम मेरे, मान भी जाओ
पलाश के इस जवाब ने मुझे लाजवाब कर दिया था। दिमाग़ का बल्ब भक्क से फ़्यूज़ हो गया। "नल एंड वॉइड"?.... अजीब बात है! मैं समझने की भरपूर कोशिश कर रही थी कि चल क्या रहा है पलाश के दिमाग़ में? प्रपोज़ कर रहा है कि ऑफर दे रहा है? एक्स्पाइरी डेट का क्लॉज़ भी साथ में लगा रखा है। चाहता क्या है? कुछ भी समझ न पाने की हालत में मैं ठगी सी उसे देख रही थी। वैसे लालच भी भरपूर हो रहा था कि आम खाओ ना.. गुठली क्या गिनना? तुम्हें तो पलाश ही चाहिये ना? मिल तो रहा है, अब ख़ुद ही रोड़े क्यूँ अटका रही हो? लेकिन फिर लगने लगता, नहीं यह ठीक नहीं होगा। मेरे घरवालों का क्या होगा? जद्दोजहद मची हुई थी और मैं किसी भी नतीजे पर पहुँच नहीं पा रही थी। हैरान-परेशान होकर मैंने सोचा- ‘हटा सावन की घटा। जो मुमकिन ही नहीं है उसमें क्या इतना जूझना। मुझे यह ऑफर नहीं चाहिये। ठीक से प्रपोज़ करो तो कोई बात भी है। कम-से-कम यह तो सुन सकूँ कि तुम प्यार करते हो मुझसे।’
भरपूर कैफ़ियत से गहरी सांस छोड़कर मैंने कहा- ‘बात तो तुम्हारी ठीक लग रही है। शादी तो जान-पहचान के लड़के से हो, तभी ठीक रहेगा। लेकिन, मैं तुमसे शादी क्यूँ करूँ? मेरे और भी दोस्त हैं, किसी से भी कर सकती हूँ।
वो सयाना चहका- ‘चलो, तुमने दोस्त से शादी करने का आइडिया तो सबस्क्राइब कर लिया। अब बात करते हैं, किस दोस्त से शादी करनी चाहिये तुमको?’
‘मिश्रा जी, पंडिताई भी हमारे साथ ही कर लोगे? अब तुम बताओगे, हम किससे शादी करें और किससे नहीं। ख़ैर, तुम्हारी प्यारी बेतरतीब जिरह तो मैं जीवन भर भी सुनती रहूँ तो दिल ना भरे, वकील बाबू।’ यह सोचकर अपने होंठ सिए पलाश को देखती रही।
पलाश ने अगला दाँव खेला- ‘देखो, मेरी बेस्ट फ्रेंड तुम हो, तो मुझे यही ठीक लगा कि तुमसे शादी कर ली जाये। वैसे यह भी है, कि मेरी दूसरी कोई दोस्त है ही नहीं। अब तुम्हारी बात करते हैं। तुम्हारा बेस्ट फ्रेंड कौन है?’
मैंने बिना किसी हावभाव के सपाट जवाब दिया- ‘तुम।’
उसकी मासूम कोशिश आगे बढ़ी- ‘अच्छा अगर तुम्हारे सारे दोस्तों को एक साथ खड़ा किया जाये, तो मेरी बराबरी का कौन है?’
उसकी इस नादान जिरह पर मन-ही-मन प्यार का पैमाना छलका जा रहा था, लेकिन मेरी मजबूरी ने मुझे बहुत कस के जकड़ लिया था। इसलिये मैंने उतने ही भोलेपन से कन्धे उचकाकर कहा- ‘कोई नहीं।’ उछलकर उसने तपाक से कहा- ‘तो हाँ कर दो ना।’
एक तरफ़ मैं उससे लिपट जाने को बेचैन हो रही थी और दूसरी तरफ़ पापा का सोचकर सहमी जा रही थी। मैं एक-एक लफ़्ज़ को दाँतों से काटकर अपने मुँह में उन्हें घुमाते हुए अपनी जीभ से परख रही थी कि कहीं मेरे किसी लफ़्ज़ में कोई तीखा कोना तो नहीं।
पूरी तसल्ली के बाद मैंने वो अल्फ़ाज़ पलाश को सौंपे- ‘देखो यह कोई लव मैरिज तो है नहीं। इसलिये मुझे लगता है कि शादी की बात घरवालों से पूछ कर ही पक्की करनी चाहिये। मैं अपने घर पर बात करूँगी। अगर मेरे घरवालों ने “हाँ” कर दी, तो मेरी हाँ और अगर उन्होंने “न” कर दी, तो मेरी न।’
हैरत हुई मुझे कि उसने इतने पर भी नहीं क़ुबूल किया कि प्यार करता है मुझसे! कोई ज़िद करने की बजाय उसने सिर हिलाते हुए हामी भर दी। मैं सोच रही थी कि क्या मैं घर पर बात कर पाऊँगी? काश! मम्मी-पापा मान जायें। तब ख़ुद को पलाश को सौंप कर निश्चिंत हो जाऊँगी। जब से पलाश नाम का तूफ़ान ज़िन्दगी में आया है तब से आलस, चैन और फ़ुरसत का मौसम कैसे अलविदा कह गया मुझे। बस अब यह एक काम और निपट जाये तो सारी चिन्ताओं और मुश्किलों को गठरी में बाँधकर गंगा जी में बहा आऊँगी। तभी मेरे दिमाग़ में कुछ कौंधा और मैंने पलाश से पूछा- ‘तुम्हारे घरवाले मान जायेंगे?’
उसने बड़े भोलेपन और सहजता से कहा- ‘मेरी मम्मी मेरी हर बात के लिये “हाँ” कर देती हैं।’
इससे ज़्यादा मुझे कुछ नहीं जानना था। जूस ख़त्म हो चुका था और शाम के सात बज गये थे। घड़ी कह रही थी कि घर चलने की घड़ी आ गई। मुझे मेरे घर पर छोड़कर पलाश अपने घर चला गया। जो मुझे चाहिये था, वो मेरे हाथों तक “लगभग” आ चुका था। लेकिन ख़तरों का असल सफ़र तो अब शुरू होना था।
मेरे पापा ऐसे ठाकुर हैं जिन्हें न सिर्फ अपने ठाकुर होने का गौरव है, बल्कि पंडितों से सख़्त नफ़रत भी थी। उनका मानना था कि समाज में अंधविश्वास फैलाने के लिये पंडित ही जिम्मेदार हैं। देश में राजनैतिक गंदगी फैलाने के ज़िम्मेदार भी पंडित ही हैं। उन्हें पंडित जवारलाल नेहरू के प्रधानमंत्री बनने से जबरदस्त एतराज़ है। कश्मीर को नेहरू की नीतियों ने बर्बाद कर दिया। सरदार पटेल को उनकी जगह प्रधानमंत्री होना चाहिये था। समाज और देश का ढोल पीटने के बाद, अब पंडित कौम उनके घर पर ढोल बारात लेकर आने वाली थी। यह ख़बर उनको कैसे दी जाए? ख़बर के बाद का बवंडर कैसे संभाला जाये? एक तो प्रपोज़ल ऐसा, उस पर इतना ख़तरा!! अजीब सी हालत हो रही थी। लेकिन बात इतनी आगे बढ़ चुकी और मैं एक कोशिश भी ना करूँ तो यह प्यार के नाम पर कितनी बड़ी तोहमत होगी। बेटी बनकर इतना जी लिया। क्या "हर्षा" को जीने का एक मौका भी नहीं दूँगी मैं? बात करके देखती हूँ। आगे का मामला बाद में देखा जायेगा, सम्हाला जायेगा। थोड़ी बहुत नाराज़गी के बाद अगर पापा मान गए तो मेरा जीवन संवर जायेगा। लेकिन बतायेगा कौन? मैं तो हरगिज़ नहीं। मम्मी बेहतर रहेगी ऐसा सोचकर हिम्मत जुटाकर मैं सीधे किचन में गई।
मम्मी रोटी बना रही थी। मैंने हैरान होकर मम्मी से कहा- ‘पता है मम्मी, आज पलाश पूछ रहा था कि मुझसे शादी करोगी?’
मम्मी ने मेरी तरफ़ घूरकर देखा और पूछा- ‘तुमने क्या कहा?’
मैंने बच्चों सा मुँह बनाकर कहा- ‘क्या कहती? कह दिया कि घर में पूछ कर बताऊँगी।’
मम्मी ने पूछा- ‘ऐसा क्यूँ कहा उसने?’
मैंने कहा- ‘कह रहा था अरैन्ज मैरिज में लड़ाई झगड़े होते हैं। हम दोनों दोस्त हैं। शादी कर लेते हैं, लड़ाई झगड़ा नहीं होगा घर में।’
मम्मी कुछ सोच में पड़ गयी और फिर उन्होंने बात बदल दी। मुझसे पूछा- ‘क्या खाया पिया?’
मैंने बताया- ‘मौसम्बी जूस।’ मम्मी डाँटने लगी- ‘ठंड में मौसम्बी जूस पीता है कोई? कल तुमको वापस जाना है। तबीयत खराब हो गई तो?’
मैंने अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं कहा क्यूँकि मैं समझ रही थी कि मम्मी प्रपोज़ करने वाली बात पर ग़ुस्सा हैं। बाद में खा-पीकर सब सो गये, सिवाय मेरे।
करवटें बदलते रहे सारी रात
उस रात मुझे नींद मेरे आस-पास आने से भी कतरा रही थी। यह मन भी ना! इसको बेचैनी, हैरानी और परेशानी में ही रमना आता है। पहले इस बात से अकुलाता रहता था कि पलाश यूँ छिटका सा क्यूँ रहता है। अब पलाश जीवन भर के लिये साथ होने की लालसा जता रहा है, तो इस बात की ज़रा भी ख़ुशी ना मनाते हुए, मन निकल पड़ा नयी चिन्ताओं और परेशानियों के जंगल में। अनगिनत ‘अगर’, ‘मगर’, ‘लेकिन’, ‘फिर’ और ‘काश’ के झाड़ आपस में उलझ रहे थे। भयानक आशंकाओं के कितने ही भँवर बनते। मन बार-बार प्यार, विश्वास की नाव भँवर में उतारता और उनसे पार पाने की कोशिश करता। मुश्किलों से पार पाने की जो ललक उठती थी मन में, वो कहती थी- ‘नहीं, मन को हैरानी, परेशानी और बेचैनी में रमना नहीं भाता। वो तो इनसे अपना दामन छुड़ाकर कहीं दूर उड़ जाना चाहता है, पर डरता है कि कहीं यह दुःख उसे ढूँढता हुआ, दबे पाँव वहाँ भी न पहुँच जाए और उसे दबोच ले। इसलिये इनसे लड़ता रहता है कि या यह नहीं या मैं नहीं।’
मन के रण में कितने ही ख़याल पक्ष और विपक्ष में थे। कभी मन कहता कि अगर पापा ने हाँ कर दी, तो भगवान मैं आपसे कभी कुछ और नहीं माँगूगी। तो कभी मन डरता अगर पापा नहीं माने तो? मेरा क्या होगा? लेकिन सुकून इस बात का है कि पलाश ठीक रहेगा। वैसे भी, वो प्यार करता है मुझसे, ऐसा कुछ तो कहा नहीं उसने। यह तो मैंने ख़ुद ही सोच लिया उसकी तरफ़ से। मुझे यक़ीन है कि वो सह जायेगा मेरे पापा की “ना” और मैं उसे कभी भी पता नहीं चलने दूँगी कि मैं उससे कितना प्यार करती हूँ। कभी मन कहता, पापा मुझसे गुस्सा तो नहीं हो जायेंगे? उनको प्रेम प्रसंग जैसी "नौटंकी" यूँ ही सख़्त नापसन्द है, उस पर ब्राह्मण लड़के से? हे भगवान! पापा अभी ही तो ख़ुश हुए हैं मुझसे और तुरंत ही यह क्या होने वाला है? अभी तो उन्होंने सबको शान से बताना शुरू किया कि मैं उनकी बेटी हूँ और क्या अभी ही उन्हें मेरी वजह से शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी?
क्या पापा मुझे घर से बाहर कर देंगे? क्या पापा मुझसे कभी बात नहीं करेंगे?
फिर सोचती, जिस तरह की बातें आज पलाश कह रहा था, जीवन भर ऐसे ही चलेगा क्या? मतलब, हम दोस्त ही रहेंगे? क्या उसे सचमुच मुझसे प्यार नहीं है? मैंने पलाश से कभी कोई शिक़ायत नहीं की और ना ही कभी कोई सवाल किया। क्या उसे यही इत्मीनान ज़िन्दगी भर चाहिये? क्या इसलिये मुझसे शादी करना चाहता है वो? क्या मैं पूरी ज़िंदगी ऐसी ही रह पाऊँगी? सच कहूँ, तो मुझे उससे जवाब चाहिये कि क्यूँ उसने मेरी ख़बर नहीं ली, जब मेरा एक्सिडेंट हुआ था।
कभी अपना सपना याद आता और मैं भगवान से बात करने लगती। मैं ठीक कर रही हूँ क्या? क्या मैं पलाश के लिये ठीक लड़की हूँ? ठीक हूँ, तो प्यार क्यूँ नहीं है उसे मुझसे? ठीक नहीं हूँ, तो यह सब बातें क्यूँ हो रहीं हैं? कभी सोचती कि क्या मेरे सारे विचार फ़िजूल हैं। कभी उम्मीदी और नाउम्मीदी में झूल जाता मन कि क्या मेरा सपना सच होगा। कभी मन में बीती बातों का मेला लगता, तो कभी आने वाले कल की धुंध छा जाती।
अगली रात को ट्रेन में भी यही बातें अलग-अलग ढंग से मन को मथती रहीं। उसके अगले दिन, जब मैं शाम के चार बजे इंदौर पहुँची, तो मेरी हालत नशेड़ी सी हो रखी थी। कदम बहके-बहके से, चाल मंथर और ख़ुद से बेख़बर। पिछले 56 घंटों से जगी हुई थी मैं और दिमाग भरा हुआ था तरह-तरह के ‘किन्तुओं-परन्तुओं’ से। हॉस्टल पहुँचकर सबसे पहले मैंने पीहू को हाल-ए-दिल सुनाया। किसी ग़रीब के एक छोटे से कपड़े के झोले में स्टील की थाली, चम्मच, कटोरी, गिलास, कड़ाही और ड़ोंगे सब एक साथ ठूँस दिये जायें, तो हर क़दम के साथ वो झोला बजता है। उसमें से एक चम्मच भी निकालनी हो तो कितनी खड़बड़ होती है और कितना शोर मचता है। बिलकुल वही झोला बना हुआ था मन मेरा। जब पीहू को बता रही थी तो लगा कि पूरा झोला जमीन पर उलट दिया मैंने। पहले ख़ूब शोर मचा, लेकिन फिर सब बर्तन अपने-अपने मन मुताबिक़ सेटल हो गए और झोला खाली। मुझे बहुत शांति और संतुष्टि हुई सब बातें पीहू के सामने खोलकर और फिर मुझे भरपूर नींद आई।
अगली सुबह ही नींद खुली मेरी और पीहू ने ख़ूब तंग किया और बहुत मुबारकबाद भी दी। उसकी ख़ुशी देखकर एक बार तो लगा शायद परेशान होने की कोई वजह है ही नहीं। उस पूरे हफ़्ते कुछ समय उन दोस्तों की मदद में बीता जिनकी नौकरी अभी तक नहीं लगी थी और बाकी का समय अपनी गुत्थी में उलझते हुए बीता। शायद वो वाला सप्ताह हफ्ते भर से पहले ही पूरा हो गया था। उस दौरान यह भी सवाल कुलबुलाता कि क्या मम्मी ने पापा से बात कर ली होगी? जानने की उतावली तो बहुत थी, लेकिन फोन पर यह सब पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मैं दीपावली पर घर गई और शाम तक हिम्मत जुटाकर मम्मी से अकेले में पूछा- ‘मम्मी, तुमने पापा को बताया?
मम्मी ने कहा- ‘हाँ।’
‘पापा ने क्या कहा?’- डरते हुए मैंने पूछा।
‘पापा कह रहे थे-मुझे तो पहले ही शक था, वो लड़का रोज आकर घंटों बात करता था। तभी अंदाज़ा लग गया था मुझे।’ मम्मी ने बताया।
‘ऐसा कुछ भी नहीं है, मम्मी।’ -मैंने घबराकर कहा।
मम्मी ने कहा- ‘पापा कह रहे थे कि लड़का चंट है।’
अब मुझे लगने लगा था कि पापा ने “ना” कर दी है।
मम्मी ने आगे कहा- ‘ठीक है। जोड़े में एक को तो चंट होना ही चाहिये। तुम इतनी सीधी सादी हो, तुमको ऐसा ही चंट चाहिये।’
मैंने हैरत से मम्मी को देखा। सच क्या!
मम्मी ने कहा- ‘पापा ने "हाँ" कर दी है।’
ओहो! मैं मम्मी से लिपट गयी और बड़ी देर तक मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि पापा ने हाँ कर दी है। जब यक़ीन हुआ तो मेरे अन्दर सब कुछ शान से तन गया और अकड़ आ गयी इरादों में। दुनिया अपनी जेब में महसूस हो रही थी।
जिया धड़क-धड़क जाये
पलाश दीवाली से एक दिन पहले मुझसे मिलने आया। इस बार उसने पहले फोन किया था और पूछा था- ‘तुमने घर पर बात कर ली?’
मैंने कहा- ‘हाँ, उसी दिन।’
उसने कहा- ‘घर आने में थोड़ा अजीब लग रहा है। बाहर मिल सकते हैं क्या?’
मैंने पूछा- ‘कहाँ?’
‘चिड़ियाघर’- उसने कहा।
मैंने कहा- ‘रुको, घर पर पूछ कर बताती हूँ।’ पलाश ने उस दिन गेट पर ही मेरा इंतज़ार किया और हम लोग चिड़ियाघर के लिये चले। वहाँ कुछ देर पशु-पक्षी और वृक्ष-वनस्पति देखने के बाद हम दोनों एक बेंच पर बैठ गये। वो अपने जूते से उस जगह की मिट्टी में जाने क्या ठीक करने की कोशिश कर रहा था! कुछ देर चुप रहकर उसने बेसब्र होकर पूछा- ‘क्या है जवाब?’
मैंने जवाबी सवाल किया- ‘किस बात का?’
उसने अपना चेहरा थोड़ा झुकाकर और नजरें उठाकर मेरी तरफ़ शिक़ायती ढ़ंग से देखते हुए कहा- ‘उसी बात का।’
मैंने याददाश्त पर ज़ोर डालते हुए कहा- ‘अच्छा! उस बात का। हम्म… मेरे घर वालों ने हाँ कर दी है, लेकिन..’
उसने हैरान होकर पूछा- ‘अब क्या लेकिन?’
मैंने गम्भीर होकर कहा- ‘मैंने अभी सोचा नहीं।’
उसने लगभग प्रार्थना वाले अंदाज़ में कहा- ‘यार इतने दिनों से लटका हुआ हूँ। प्लीज़, बताओ ना।’
मैंने कहा- ‘क्या करोगे जानकर? काहे की जल्दी है? हम तो दोस्त ही रहने वाले हैं ना?’
उसने कहा- ‘यार, हाँ कर दोगी, तो बंदर की तरह थोड़ा उछल लूँगा और ना कर दोगी, तो इंसान की तरह घर चल दूँगा।’
मैंने मुस्कुराकर कहा- ‘सोच रही हूँ, हाँ कर दूँ।’
इतना सुनकर उसने “येस्स” करते हुए हवा में एक छलांग लगाई और खिलखिलाकर हँसने लगा। उस समय उसकी ख़ुशी और उसकी उन्मुक्त हँसी सुनकर ऐसा लगा कि अमलतास के सुनहरे फूलों की बारिश हो गयी हो। तभी ठण्डी सी हवा का एक झोंका आया जैसे मुझे बहाना दे रहा हो पलाश के तन से लिपट जाने के लिये। उसकी देह और साँसों की तपिश की पनाह ले लेने के लिये। लेकिन अपने दिल को धड़कने की इतनी आज़ादी कैसे दे देती मैं? इसलिये सम्हाली अपनी मचलती शैतान हसरतें और हँस पड़ी यह सोचकर कि कहाँ तो मेरा नादां दिल अफसोस करता था कि हाय! मैं लड़का क्यूँ नहीं हूँ। पगलू दिल, अगर मैं लड़का होती तो क्या आज पलाश को ऐसे पा पाती? हाँ, सब अच्छा ही हुआ, दिल ने भी शरमाते हुए कहा।
अगले दिन दीवाली थी और हमारे बीच मिलने की कोई बात हुई नहीं थी। लेकिन सुबह ग्यारह बजे पलाश मेरे घर आया। पापा मम्मी के पैर छुए और पहली बार वो सोफे के बीचों-बीच बैठा। हर बार वो उस सोफे के एक किनारे बैठता और मैं उस सोफे से एल शेप में सटे दूसरे सोफे के किनारे पर। मैं उस दिन भी अपनी पुरानी ही जगह पर बैठी। उसने सोफे को हाथ से थपथपाकर मुझे इशारा किया कि उसके पास उसी सोफे पर बैठूँ मैं। इतनी इनायत! मैं एक विशेषाधिकार महसूस करते हुए उसके पास बैठ गई। फिर उसने कहा- ‘आज दीवाली के दिन लक्ष्मी घर आती हैं, लेकिन मैं अपनी लक्ष्मी के घर आ गया।’
सुनकर मुझे शर्म और हँसी दोनों आ गई। पलाश के इतने नज़दीक बैठकर दिमाग में अजब ख़ुमारी छा रही थी। एक हल्का-हल्का सा नशा हो रहा था। न जाने सकुचाते मुस्काते क्या-क्या बातें की हमने! जब मैं लखनऊ से इंदौर जाने के लिये अपने पापा के साथ चारबाग स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी, तभी यकायक मेरी सांस अटक गई। सामने से पलाश चला आ रहा था।
मुझे यक़ीन नहीं हो पा रहा था कि मेरे पापा के सामने उसकी इतनी हिम्मत! उसको डर नहीं लगा कि उसकी इस हरक़त पर पापा ने हमारी शादी के लिये “ना” कर दी तो? फिर एक बार को उसकी बेबाकी और बहादुरी पर मन रीझ भी उठा। वो एकदम इत्मीनान से आया और पापा के पैर छूकर उसने बताया- ‘किसी दोस्त से मिलने आये थे, तो सोचा हर्षा को बाय करते चलें।’
पापा को उसकी बात पर जरा भी विश्वास नहीं हुआ होगा, मैं गैरेंटी से कह सकती हूँ। लेकिन पापा ने कोई सवाल नहीं किया और थोड़ी देर के बाद पापा ने कहा- ‘चलो बेटा, हम चलते हैं। पलाश ट्रेन में बैठा देगा तुम्हें।’
यह लो, एक और करिश्मा! मुझे तो एक के बाद एक झटके लग रहे थे। पापा के जाने के बाद, मैंने उससे पूछा- ‘क्या था यह? क्यूँ आये तुम?’
पलाश ने कुछ शरारत और कुछ अधिकार जताते हुए कहा- ‘पापा को बताना था कि उनकी ड्यूटी पूरी हुई। अब तुम मेरी हो।’
यह कहकर उसने मेरा हाथ प्यार से थाम लिया और अपने सीने के पास रख लिया। उसके सीने तक मेरे हाथ पहली बार पहुँचे थे। दिल में कुछ-कुछ हुआ था उस समय। स्टेशन पर इतनी भीड़ थी और मुझे लगा कि सब हमें ही घूर रहे हैं। तेज़ धड़कते दिल से मैंने पलाश के चेहरे पर नज़र डाली तो देखा उसके गुलाबी, नर्म, नाज़ुक और भीगे होंठों के पीछे उसके दांत कसमसा रहे थे। शायद स्टेशन पर होने की बेबसी को कुतर रहे थे। पलाश के होंठों और उसकी निगाह ने मिल जुल कर उस पल मुझे एक नयी ही प्यास महसूस करना सिखा दिया। काश! उसके होंठों को छू पाती! सबसे छिपकर, सबसे, पलाश से भी।
वो मेरा हाथ पकड़े चुपचाप खड़ा रहा। मेरी ट्रेन का समय हो गया था तो मुझे ट्रेन में बैठाकर वो शीशे के दूसरी तरफ़ से मुझे बाय करने लगा। ट्रेन सरकने लगी, तो वो भी दौड़ने लगा। जब तक उसके कदम ट्रेन की झुक-झुक से ताल मिला सकते थे, वो मुझे देखते हुए दौड़ता रहा। मुझे चिंता हो रही थी कि किसी से टकरा न जाये, इतने कुली और इतने लोग थे वहाँ। कहीं पैर उलझ न जाये उसका, प्लेटफ़ॉर्म पर कितनी चीज़ें और कितने संदूक रक्खे रहते हैं। मैं रुकने का इशारा तो कर रही थी, पर वो मान ही नहीं रहा था। फिर स्टेशन छूट गया और पलाश दिखना बन्द हो गया। पलाश की हर कोशिश कह रही थी कि मेरे सपनों का राजकुमार बनना चाहता है वो। उसके इस भोलेपन पर मैं पिघलती जा रही थी कि नींदें चुराने के बाद मेरे सपनों में आने की तुम्हारी यह कैसी ज़िद। ऐसी क़ातिलाना मासूमियत बस तुममें ही हो सकती है।
मैं शर्म से ख़ुद में सिमटती हुई सोच रही थी, बता दूँ क्या इस पगले को कि ‘आय लव यू ख़ूब ढेर सारा।’
ओ! आय लव यू डैडी
मैं बहुत देर तक अपने हाथों में पलाश की छुअन महसूस करती रही और बड़ी हिम्मत करके अपनी सारी शर्म-ओ-हया को तजकर आख़िरकार मैंने अपनी हथेली चूम ही ली। फिर उस हाथ पर चेहरा टिकाकर लेट गयी। बीती हुई ज़िन्दगी आँखों के सामने तैरने लगी। निर्मोही पलाश कभी अपनी आशिक़ी का ऐसा इज़हार भी करेगा, यह कब सोच सकी थी मैं। मेरे पापा बिना किसी मान मनुहार के ऐसे मक्खन से पिघल जायेंगे, यह कब मुमकिन था!
पापा अक्सर हम भाई बहन को हमारे बचपन में “मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज दुलारा” यह गाना गाकर सुलाया करते थे। हम चारों भाई बहन पापा की उम्मीदें थे। पापा हमारी पढ़ाई को लेकर बहुत कड़क थे। मुझे पढ़ाई को लेकर बचपन की जो सबसे पुरानी याद है, वो कुछ ऐसी है- मैं तीसरी कक्षा में थी और स्कूल से गणित की कॉपी मिली थी, जिसमें मेरे शून्य आए थे। पापा ने शाम को ऑफिस से लौटकर वो कॉपी देखी और मेरी बहुत पिटाई की। फिर मेरा हाथ पकड़कर कहीं किसी सड़क पर ले गये। यक़ीनन आस-पास ही कोई जगह रही होगी, लेकिन तब लगा था कि पापा बहुत दूर ले गये थे। वहाँ पापा ने मुझे एक जगह खड़ा किया और सख्त हिदायत दी- ‘मैं जा रहा हूँ। मेरे पीछे नहीं आना। जो बच्चे पढ़ते लिखते नहीं हैं, उनके लिये मेरे घर में कोई जगह नहीं है।’
पापा मुझे वहाँ रोती हुई छोड़कर सड़क के पार जाकर छुप गये। रात का अँधेरा बढ़ रहा था और मेरा मन डर से पिघल-पिघलकर मेरी आँखों से बह रहा था। मुझे पापा के पीछे जाने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी। उस समय मुझे लगा था कि मेरी दुनिया ही ख़तम हो गयी है और मैं किसी अनजाने संसार में खड़ी हूँ। आते-जाते लोग मुझे देखते हुए जा रहे थे, लेकिन किसी ने नहीं पूछा कि मैं वहाँ अकेली खड़ी क्यूँ रो रही थी। पापा थोड़ी देर में मेरे पास वापस आये, लेकिन मेरे लिये वो “थोड़ी देर” जैसे कभी ना बीतने वाला वक़्त था। पापा मुझे डाँटते हुये बोले- ‘कहाँ जाना है?’
मैंने रोते हुए कहा- ‘घर।’
पापा ने पूछा- ‘दोबारा कभी होगा ऐसा?’
मेरे ना करने पर पापा मुझे वापस घर ले आये। मेरे मन में उस दिन मार, गुस्से, अँधेरे और अकेलेपन की ऐसी दहशत भरी कि मैंने अपने बस्ते और किताबों में अपनी दुनिया खो दी। उसके बाद मैंने पढ़ाई के सिवाय ना कभी कुछ सोचा और ना कभी कुछ माँगा। पापा को पता था कि मुझे गाने का शौक़ है और पापा को यह भी पता था कि उनके एक बार डाँटने के बाद मैंने कभी गुनगुनाया तक नहीं घर में। पापा के एक दोस्त की बेटी मेरे साथ पढ़ती थी।
उन्होंने एक दिन पापा से कहा कि ‘आपकी बेटी में साहित्यिक प्रतिभा है। उसे बढ़ावा देंगे, तो बहुत आगे जायेगी।’ लेकिन मेरे पापा ने कभी गणित और विज्ञान के अलावा किसी अन्य विषय में कोई रुचि नहीं ली। जब मेरी T.C.S. में जॉब लगी तब मैंने उनका सपना पूरा कर दिया।
अपने पहाड़, अपनी मिट्टी से उखड़कर आये एक क्लर्क तबक़े वाले पहाड़ी के घर में एक बेटी इंजीनियर बन गयी थी। पापा की आँखों में ख़ुशी के आँसू समा नहीं रहे थे। पापा ने तब मुझे इतनी कसकर गले लगाया और मेरे माथे पर किस किया कि मुझे लगा बचपन में जो मैंने पापा को नाराज़ किया था तो अब मना पायी थी उन्हें। बचपन की उस रात, मेरे और मेरे पापा के बीच का प्यार जैसे वहीं उस सड़क पर कहीं छूट गया था मुझसे। अब वापस जाकर उस प्यार को उठाकर ला पाई थी मैं। और जो लौटी वो बाईस साल की हर्षा नहीं, वही कक्षा तीन में पढ़ने वाली छोटी सी हर्षा थी, जो अपने नन्हे हाथों में अपने पापा का प्यार लिये मेरे अंदर साँस ले रही थी। शायद मेरे पापा को भी ऐसा लगा हो।
जब पलाश से शादी की बात उनके सामने रखी गयी, तब पापा ने कहा- ‘बचपन से बहुत मार पिटाई की मैंने इसके साथ। आज यह कुछ माँग रही है। इसके पूरे जीवन का सवाल है। लड़का भले ही पंडित हो लेकिन इससे प्यार करता है। इसका ख़याल रखेगा। शादी के बाद मेरी बेटी ख़ुश रहेगी। पति की तरफ़ से कोई क्लेश नहीं होगा इसके जीवन में। बाकी तो इसका अपना भाग्य है।’ यह कहकर पापा ने माँ से कहा था- ‘उससे कह देना पापा को कोई ऐतराज़ नहीं है।’
मैंने बचपन से उनका कठोर रूप ही देखा था। मुझे यक़ीन नहीं हो पा रहा था कि इतनी कोमलता भी है मेरे पापा के दिल में। उस रात स्टेशन पर भी पापा मुझे पलाश के साथ छोड़कर चले गये। यह मेरे पापा ही थे! मैंने तो कभी उनका यह रूप सोचा ही नहीं था। उनके संघर्षों और उनके सपनों ने उनका वज्र रूप ही मुझे हमेशा दिखाया। मेरे पापा ने अपनी सारी मान्यतायें, सारी धारणायें, सारे ऐतराज़ किनारे करके मुझे अपना स्नेह भरा आशीर्वाद दे दिया।
मैंने जो कभी सपने में भी नहीं सोचा था, वो सपना पापा ने कितनी आसानी से सच बनाकर मुझे सौंप दिया! और हमेशा ही मुझसे एक दूरी बनाकर रखने वाले पलाश में अचानक प्यार जताने की अदा कहाँ से आ गयी? मुझे तड़पाने की राह छोड़कर मुझे पटाने की राह पर उसके क़दम कैसे दौड़ पड़े? उस रात मेरा पलाश -मेरा वो सपना- प्लैट्फ़ॉर्म पर दौड़ता हुआ मेरे पास आने की और मुझे छूने की कोशिश कर रहा था।
पापा और पलाश, मैं इन दोनों को शुक्रिया और आभार कैसे करूँ, मुझे ज़िंदगी देने के लिये। हे ईश्वर! तेरा शुक्रिया, मुझे इतने उपहार और इतने आशीष देने के लिये। ट्रेन में उस रात, यह सब सोचकर मेरी आँखों से ख़ुशी के आँसू नहीं सूख रहे थे।
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